चावल की भूसी से लकड़ी

वैज्ञानिकों ने एक ऐसी तकनीक विकसित की है जिससे चावल की भूसी से लकड़ी बनाई जा सकती है। इससे अब लकड़ी के लिए पेड़ काटना ज़रूरी नहीं होगा। साथ ही किसानों को धान के साथ भूसी के भी दाम मिलेंगे। सेंट्रल बिल्डिंग रिसर्च इंस्टीट्यूट, रुड़की के निदेशक एन. गोपाल कृष्णन के अनुसार उनके संस्थान ने धान की भूसी तथा देवदार के कांटों से लकड़ी बनाने की तकनीक विकसित की है। इससे किसानों को भी काफी फायदा होगा तथा लकड़ी के लिए पेड़ों की कटाई भी कम हो सकेगी। देवदार के कांटे जंगल में गिरकर यूं ही पड़े रहते हैं। इनसे जंगल में आग लगने की आशंका रहती है। इनसे लकड़ी तैयार करने से पेड़ बचाने के साथ जंगल में आग लगने की समस्या भी कम की जा सकेगी। भूसी को लकड़ी में बदलने के लिए पहले से बने खांचे में उच्च दाब की तकनीक का इस्तेमाल किया जाता है। इस तकनीक से बनी लकड़ी को बढ़ई आम लकड़ी की तरह हर प्रकार का आकार दे सकते हैं। और इनसे चौखट, तख्ते, बेंच आदि बनाए जा सकते हैं और फ्लोरिंग के लिए इनका उपयोग किया जा सकता है। यह लकड़ी नेशनल बिल्डिंग कोड के सभी मानकों पर खरी उतरी है। इसके अलावा यह दीमक प्रतिरोधी भी है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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प्राकृतिक तटरक्षक: मैंग्रोव वन – डॉ. दीपक कोहली

मैंग्रोव सामान्यत: ऐसे पेड़-पौधे होते हैं, जो तटीय क्षेत्रों में खारे पानी में पाए जाते हैं। ये उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में पाए जाते हैं। इन वनस्पतियों को तटीय वनस्पतियां अथवा कच्छीय वनस्पतियां भी कहा जाता है। ये वनस्पतियां समुद्र तटों पर, नदियों के मुहानों व ज्वार प्रभावित क्षेत्रों में पाई जाती हैं। विषुवत रेखा के आसपास के क्षेत्रों में जहां जलवायु गर्म तथा नम होती है, वहां मैंग्रोव वन की लगभग सभी प्रजातियां पाई जाती हैं।

पृथ्वी पर इस प्रकार के मैंग्रोव वनों का विस्तार एक लाख वर्ग किलोमीटर में है। मैंग्रोव वन मुख्य रूप से ब्राज़ील (25,000 वर्ग किलोमीटर), इंडोनेशिया (21,000 वर्ग किलोमीटर) और ऑस्ट्रेलिया (11,000 वर्ग किलोमीटर) में है। भारत में 6,740 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र पर इस प्रकार के वन फैले हुए हैं। यह विश्व भर में विद्यमान मैंग्रोव वनों का 7 प्रतिशत है। इन वनों में 50 से भी अधिक जातियों के मैंग्रोव वृक्ष पाए जाते हैं। मैंग्रोव वनों का 82 प्रतिशत देश के पश्चिमी भागों में पाया जाता है।

मैंग्रोव वृक्षों के बीजों का अंकुरण एवं विकास पेड़ पर लगे-लगे ही होता है। जब समुद्र में ज्वार आता है और पानी ज़मीन की ओर फैलता है, तब कुछ अंकुरित बीज पानी के बहाव से टूटकर गिर जाते हैं और पानी के साथ बहने लगते हैं। ज्वार के उतरने पर ये जमीन पर यहां-वहां जम जाते हैं और आगे विकसित होते हैं। इसी कारण इन्हें जरायुज (या पिंडज) कहते हैं, यानी सीधे संतान उत्पन्न करने वाले।

चूंकि ये पौधे लवणीय पानी में रहते हैं, इसलिए उनके लिए यह आवश्यक होता है कि इस पानी में मौजूद लवण उनके शरीर में एकत्र न होने लगें। इन वृक्षों की जड़ों एवं पत्तियों पर खास तरह की लवण ग्रंथियां होती हैं, जिनसे लवण निरंतर घुलित रूप में निकलता रहता है। वर्षा का पानी इस लवण को बहा ले जाता है। इन पेड़ों की एक अन्य विशेषता उनकी श्वसन जड़ें हैं। पानी में ऑक्सीजन की कमी के कारण इन पेड़ों की जड़ों को पर्याप्त ऑक्सीजन नहीं मिल पाती है। इस समस्या से निपटने के लिए उनमें विशेष प्रकार की जड़ें होती हैं, जो सामान्य जड़ों के विपरीत ज़मीन से ऊपर निकल आती हैं। इनमें छोटे-छोटे छिद्र होते हैं जिनकी सहायता से ये हवा ग्रहण करके उसे नीचे की जड़ों को पहुंचाती हैं। इन जड़ों को श्वसन मूल कहा जाता है।

इन श्वसन मूलों का दूसरा कार्य दलदली भूमि में इन वृक्षों को स्थिरता प्रदान करना भी है। मैंग्रोव पौधों के तनों के केन्द्र में कठोर लकड़ी नहीं पाई जाती है। इसके स्थान पर पतली नलिकाएं होती हैं जो पूरे तने में फैली रहती हैं। इस कारण मैंग्रोव पौधे बाहरी छाल तथा तने को होने वाली क्षति को सहन नहीं कर सकते हैं। इन पौधों में पाई जाने वाली वायवीय जड़ें कई रूप ले सकती हैं। ऐविसेनिया जैसी प्रजाति के पौधों में ये जड़ें छोटी तथा तार जैसी होती हैं जो तने से निकलकर चारों ओर फैली होती हैं। ये जड़ें भूमि तक पहुंचकर पौधों को सहारा देती हैं।

मैंग्रोव वृक्षों में जल संरक्षण की क्षमता भी पाई जाती है। वाष्पोत्सर्जन द्वारा पानी के उत्सर्जन को रोकने के लिए इन पौधों में मोटी चिकनी पत्तियां होती हैं। पत्तियों की सतह पर पाए जाने वाले रोम पत्ती के चारों ओर वायु की एक परत को बनाए रखते हैं। ये पौधे रसदार पत्तियों में पानी संचित कर सकते हैं। ये सभी विशेषताएं इन्हें प्रतिकूल वातावरण में जीवित रहने योग्य बनाती हैं।

विश्व में चार मुख्य प्रकार के मैंग्रोव वृक्ष पाए जाते हैं – लाल मैंग्रोव, काले मैंग्रोव, सफेद मैंग्रोव और बटनवुड मैंग्रोव। लाल मैंग्रोव वनस्पति की श्रेणी में वे पौधे आते हैं जो बहुत अधिक खारे पानी को सहन करने की क्षमता रखते हैं तथा समुद्र के नज़दीक उगते हैं। राइज़ोफोरा प्रजाति के वृक्ष इसी श्रेणी के अन्तर्गत आते हैं।

काली मैंग्रोव वनस्पति की श्रेणी में वे पौधे आते हैं जिनकी खारे पानी को सहने की क्षमता अपेक्षाकृत कम होती है। ब्रुगेरिया प्रजाति के वृक्ष इस श्रेणी के अन्तर्गत आते हैं।

सफेद मैंग्रोव वनस्पति का नाम इनकी चिकनी सफेद छाल के कारण पड़ा है। इन पौधों को इनकी जड़ों तथा पत्तियों की विशेष प्रकार की बनावट के कारण अलग से पहचाना जा सकता है। ऐविसेनिया प्रजाति के पौधे इस श्रेणी के अन्तर्गत आते हैं।

बटनवुड मैंग्रोव पौधे झाड़ी के आकार के होते हैं तथा इनका यह नाम इनके लाल-भूरे रंग के तिकोने फलों के कारण है। कोनोकार्पस प्रजाति के पौधे इस श्रेणी के अन्तर्गत आते हैं।

भारत में मैंग्रोव वनों का 59 प्रतिशत पूर्वी तट (बंगाल की खाड़ी), 23 प्रतिशत पश्चिमी तट (अरब सागर) तथा 18 प्रतिशत अंडमान और निकोबार द्वीप समूह में पाया जाता है। भारतीय मैंग्रोव वनस्पतियां मुख्यत: तीन प्रकार के तटीय क्षेत्रों में पाई जाती है – डेल्टा, बैकवॉटर व नदी मुहाने तथा द्वीपीय क्षेत्र। डेल्टा क्षेत्र में उगने वाले मैंग्रोव  मुख्यत: पूर्वी तट पर (बंगाल की खाड़ी में) पाए जाते हैं जहां गंगा, ब्रह्मपुत्र, महानदी, कृष्णा, गोदावरी और कावेरी जैसी बड़ी नदियां विशाल डेल्टा क्षेत्रों का निर्माण करती हैं। नदी मुहानों पर उगने वाली मैंग्रोव वनस्पति मुख्यत: पश्चिमी तट पर पाई जाती हैं जहां सिन्धु, नर्मदा, ताप्ती जैसी प्रमुख नदियां कीप के आकार के मुहानों का निर्माण करती हैं। द्वीपीय मैंग्रोव द्वीपों में पाए जाते हैं जहां छोटी नदियों, ज्वारीय क्षेत्रों तथा खारे पानी की झीलों में उगने के लिए आदर्श परिस्थितियां उपस्थित होती हैं।

भारत में विश्व के कुछ प्रसिद्ध मैंग्रोव क्षेत्र पाए जाते हैं। सुन्दरवन विश्व का सबसे बड़ा मैंग्रोव क्षेत्र है। इसका कुछ भाग भारत में तथा कुछ बांग्लादेश में है। सुन्दरवन का भारत में आने वाला क्षेत्र गंगा तथा ब्रह्मपुत्र नदियों के डेल्टा क्षेत्रों के पश्चिमी भाग में है। इन नदियों द्वारा ताज़े पानी की लगातार आपूर्ति के कारण वन क्षेत्र में तथा समुद्र के नज़दीक पानी में खारापन समुद्र की अपेक्षा सदैव कम रहता है। उड़ीसा तट पर स्थित महानदी डेल्टा का निर्माण महानदी, ब्रह्मणी तथा वैतरणी नदियों द्वारा होता है। ताज़े पानी की आपूर्ति के कारण यहां भी जैव विविधता तथा पौधों का घनत्व सुन्दरवन जैसा ही है। गोदावरी मैंग्रोव क्षेत्र (आंध्र प्रदेश) गोदावरी नदी के डेल्टा में स्थित है। कृष्णा डेल्टा में भी मैंग्रोव वनस्पतियां पाई जाती हैं। तमिलनाडु में कावेरी डेल्टा में पिचावरम और मुथुपेट मैंग्रोव वन स्थित हैं।

मनुष्य द्वारा मैंग्रोव वनों का प्रयोग कई तरह से किया जाता है। स्थानीय निवासियों द्वारा इनका उपयोग भोजन, औषधि, टैनिन, ईंधन तथा इमारती लकड़ी के लिए किया जाता रहा है। तटीय इलाकों में रहने वाले लाखों लोगों के लिए जीवनयापन का साधन इन वनों से प्राप्त होता है तथा ये उनकी पारम्परिक संस्कृति को जीवित रखते हैं। मैंग्रोव वन धरती व समुद्र के बीच एक अवरोधक बफर की तरह कार्य करते हैं तथा समुद्री प्राकृतिक आपदाओं से तटों की रक्षा करते हैं। ये तटीय क्षेत्रों में तलछट के कारण होने वाले जान-माल के नुकसान को रोकते हैं।

मैंग्रोव उस क्षेत्र में पाई जाने वाली कई जंतु प्रजातियों को शरण उपलब्ध कराते हैं। अनेक प्रकार के शैवालों तथा मछलियों द्वारा जड़ों का उपयोग आश्रय के लिए होता है। मैंग्रोव पारिस्थितिकी तंत्र मत्स्य उत्पादन के लिए भी महत्वपूर्ण है। मछली तथा शंखमीन (शेल फिश) की बहुत सी प्रजातियों के लिए मैंग्रोव प्रजनन स्थल तथा संवर्धन ग्रह की तरह कार्य करते हैं। मछलियों के अतिरिक्त मैंग्रोव वनों में अन्य जीव-जंतु भी पाए जाते हैं। जैसे, बाघ (बंगाल टाइगर), मगरमच्छ, हिरन, फिशिंग कैट तथा पक्षी। डॉल्फिन, मैंग्रोव-बंदर, ऊदबिलाव आदि मैंग्रोव से सम्बद्ध अन्य जीव हैं।                                                      

बंदर, केकड़े तथा अन्य जीव जंतु मैंग्रोव की पत्तियां खाते हैं। उनके द्वारा उत्सर्जित पदार्थों को जीवाणुओं द्वारा उपयोगी तत्वों में अपघटित कर दिया जाता है।

मैंग्रोव वृक्ष पानी से कार्बनिक अपशिष्ट पदार्थों तथा मिट्टी के कणों को अलग कर देते हैं जिससे पानी साफ होता है तथा उसमें पोषक तत्वों की मात्रा बढ़ जाती है। यह अन्य सम्बद्ध इकोसिस्टम्स के लिए लाभप्रद है। मैंग्रोव क्षेत्रों में प्रवाल भित्तियां, समुद्री शैवाल तथा समुद्री घास अच्छी तरह पनपती हैं।

मैंग्रोव पौधों में सूर्य की तीव्र किरणों तथा पराबैंगनी-बी किरणों से बचाव की क्षमता होती है। उदाहरण के लिए, ऐविसीनिया प्रजाति के मैंग्रोव पौधे गर्म तथा शुष्क जलवायु वाले क्षेत्रों में उगते हैं जहां पर सूर्य की प्रखर किरणें प्रचुर मात्रा में पहुंचती हैं। यह प्रजाति शुष्क जलवायु के लिए भलीभांति अनुकूलित है। राइज़ोफोरा प्रजाति के पौधे अन्य मैंग्रोव पौधों की अपेक्षा अधिक पराबैंगनी-बी किरणों को सहन कर सकते हैं। मैंग्रोव पौधों की पत्तियों में फ्लेवोनाइड होता है जो पराबैंगनी किरणों को रोकने का कार्य करता है।

मैंग्रोव वृक्षों की जड़ें ज्वार तथा तेज़ जल-धाराओं द्वारा होने वाले मिट्टी के कटाव को कम करती हैं। मैंग्रोव वृक्ष धीरे-धीरे मिट्टी को भेदकर तथा उसमें हवा पहुंचाकर उसे पुनर्जीवित करते हैं। जैसे-जैसे दलदली मिट्टी की दशा सुधरती है, उसमें दूसरे पौधे भी उगने लगते हैं जिससे तूफान तथा चक्रवात के समय क्षति कम होती है। चक्रवात तटीय क्षेत्रों पर बहुत तीव्र गति से टकराते हैं और तट जलमग्न हो जाते हैं जिससे तटों पर रहने वाले जीव-जंतुओं की भारी हानि होती है। राइज़ोफोरा जैसी कुछ मैंग्रोव प्रजातियां इन प्राकृतिक आपदाओं के विरूद्ध ढाल का काम करती हैं।

मैंग्रोव वनों की सुरक्षात्मक भूमिका का सबसे अच्छा उदाहरण 1999 में उड़ीसा तट पर आए चक्रवात के समय देखने को मिला था। इस चक्रवात ने मैंग्रोव रहित क्षेत्रों में भारी तबाही मचाई थी जबकि उन क्षेत्रों में नुकसान नगण्य था जहां मैंग्रोव वृक्षों की संख्या अधिक थी। सदियों से समुद्री तूफानों और तेज़ हवाओं का सामना करते आ रहे मैंग्रोव वन आज मनुष्य के क्रियाकलापों के कारण खतरे में हैं। लेकिन हाल के वर्षों की घटनाओं ने मनुष्य को मैंग्रोव वनों के प्रति अपने रवैये के बारे में सोचने पर विवश किया है।

सन 2004 में तटीय क्षेत्रों में सुनामी से हुई भयंकर तबाही से वे क्षेत्र बच गए जहां मैंग्रोव वन इन लहरों के सामने एक ढाल की तरह खड़े थे। उस समय इन वनों ने हज़ारों लोगों की रक्षा की। इस घटना के बाद तटीय क्षेत्र के गांवों में रहने वाले लोगों ने मैंग्रोव वनों को संरक्षण देने का निश्चय किया।

मैंग्रोव वनों का औषधीय उपयोग भी है। मैंग्रोव पौधों की प्रजातियों का उपयोग सर्पदंश, चर्मरोग, पेचिश तथा मूत्र सम्बंधी रोगों के उपचार के लिए तथा रक्त शोधक के रूप में किया जाता है। स्थानीय मछुआरे ऐविसीनिया ऑफिसिनेलिस की पत्तियों को उबालकर उनके रस का उपयोग पेट तथा मूत्र सम्बंधी रोगों के उपचार के लिए करते हैं।

इस प्रकार देखें तो मैंग्रोव कई प्रकार से उपयोगी हैं। सौभाग्य से पिछले कुछ समय में मैंग्रोव वनों में लोगों की रुचि जाग्रत हुई है। मानव सभ्यता के तथाकथित विकास के कारण अन्य पारिस्थितिकी तंत्रों की तरह मैंग्रोव क्षेत्रों के लिए भी खतरा उत्पन्न हो गया है। तटीय इलाकों में बढ़ते औद्योगीकरण तथा घरेलू एवं औद्योगिक अपशिष्ट पदार्थों को समुद्र में छोड़े जाने से इन क्षेत्रों में प्रदूषण फैल रहा है। मैंग्रोव वनों के संरक्षण के लिए आवश्यक है इन पारिस्थितिकी तंत्रों का बारीकी से अध्ययन किया जाए।

तटवर्ती क्षेत्रों में मैंग्रोव वनों के विकास के कई कार्यक्रम आरम्भ किए गए हैं। भारत में भी इस दिशा में महत्वपूर्ण कार्य हो रहा है। तमिलनाडु के पिचावरम क्षेत्र में मैंग्रोव वृक्षारोपण के लिए इन्हें हरित-पट्टिका के रूप में लगाने का वृहत अभियान चलाया गया जिससे क्षेत्र में मैंग्रोव वनों की सघनता बढ़ी है। मैंग्रोव वनों का उचित प्रकार से संरक्षण एवं संवर्धन समय की मांग है। तभी तो हम आने वाली पीढि़यों को समृद्ध मैंग्रोव वन विरासत में दे पाएंगे। (स्रोत फीचर्स)

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नए वर्ष में धरती की रक्षा से जुड़ें – भारत डोगरा

ए वर्ष का समय मित्रों व प्रियजनों को शुभकामनाएं देने का समय है। इसके साथ यह जीवन में अधिक सार्थकता के लिए सोचते-समझने का भी समय है क्योंकि एक नया वर्ष अपनी तमाम संभावनाओं के साथ हमारे सामने है।

इस सार्थकता की खोज करें तो स्पष्ट है कि धरती की गंभीर व बड़ी समस्याओं के समाधान से जुड़ने में ही सबसे बड़ी सार्थकता है। इस समय समस्याएं तो बहुत हैं, पर संभवत: सबसे बड़ी व गंभीर समस्या यह है कि धरती की जीवनदायिनी क्षमता ही खतरे में है।

वर्ष 1992 में विश्व के 1575 वैज्ञानिकों (जिनमें उस समय जीवित नोबेल पुरस्कार प्राप्त वैज्ञानिकों में से लगभग आधे वैज्ञानिक भी सम्मिलित थे) ने एक बयान जारी किया था, जिसमें उन्होंने कहा था, “हम मानवता को इस बारे में चेतावनी देना चाहते हैं कि भविष्य में क्या हो सकता है? पृथ्वी और उसके जीवन की व्यवस्था जिस तरह हो रही है उसमें एक व्यापक बदलाव की ज़रूरत है अन्यथा दुख-दर्द बहुत बढ़ेंगे और हम सबका घर – यह पृथ्वी – इतनी बुरी तरह तहस-नहस हो जाएगी कि फिर उसे बचाया नहीं जा सकेगा।”

इन वैज्ञानिकों ने आगे कहा था कि तबाह हो रहे पर्यावरण का बहुत दबाव वायुमंडल, समुद्र, मिट्टी, वन और जीवन के विभिन्न रूपों, सभी पर पड़ रहा है और वर्ष 2100 तक पृथ्वी के विभिन्न जीवन रूपों में से एक तिहाई लुप्त हो सकते हैं। मनुष्य की वर्तमान जीवन पद्धति शैली के कई तौर-तरीके भविष्य में सुरक्षित जीवन की संभावनाओं को नष्ट कर रहे हैं और इस जीती-जागती दुनिया को इतना बदल सकते हैं कि जिस रूप में जीवन को हमने जाना है, उसका अस्तित्व ही कठिन हो जाए।

इस चेतावनी के 25 वर्ष पूरा होने पर अनेक प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों ने वर्ष 2017 में फिर एक नई चेतावनी जारी की। इस चेतावनी पर कहीं अधिक वैज्ञानिकों व विशेषज्ञों ने हस्ताक्षर किए। इसमें कहा गया है कि वर्ष 1992 में जो चिंता के बिंदु गिनाए गए थे उनमें से अधिकांश पर अभी तक समुचित कार्रवाई नहीं हुई है व कई मामलों में स्थितियां पहले से और बिगड़ गई हैं।

इससे पहले एमआईटी द्वारा प्रकाशित चर्चित अध्ययन ‘इम्पेरिल्ड प्लैनेट’(संकटग्रस्त ग्रह) में एडवर्ड गोल्डस्मिथ व उनके साथी पर्यावरण विशेषज्ञों ने कहा था कि धरती की जीवनदायिनी क्षमता सदा ऐसी ही बनी रहेगी, इसकी कोई गारंटी नहीं है। इस रिपोर्ट में बताया गया सबसे बड़ा खतरा यही है कि हम उन प्रक्रियाओं को ही अस्त-व्यस्त कर रहे हैं जिनसे धरती की जीवनदायिनी क्षमता बनती है।

स्टॉकहोम रेसिलिएंस सेंटर के वैज्ञानिकों के अनुसंधान ने हाल के समय में धरती के सबसे बड़े संकटों की ओर ध्यान केंद्रित करने का प्रयास किया है। यह अनुसंधान बहुत चर्चित रहा है। इस अनुसंधान में धरती पर जीवन की सुरक्षा के लिए नौ विशिष्ट सीमा-रेखाओं की पहचान की गई है जिनका अतिक्रमण मनुष्य को नहीं करना चाहिए। गहरी चिंता की बात है कि इन नौ में से तीन सीमाओं का अतिक्रमण आरंभ हो चुका है। ये तीन सीमाएं है – जलवायु बदलाव, जैव-विविधता का ह्यास व भूमंडलीय नाइट्रोजन चक्र में बदलाव।

इसके अतिरिक्त चार अन्य सीमाएं ऐसी हैं जिनका अतिक्रमण होने की संभावना निकट भविष्य में है। ये चार क्षेत्र हैं – भूमंडलीय फॉस्फोरस चक्र, भूमंडलीय जल उपयोग, समुद्रों का अम्लीकरण व भूमंडलीय स्तर पर भूमि उपयोग में बदलाव।

इस अनुसंधान में सामने आ रहा है कि इन अति संवेदनशील क्षेत्रों में कोई सीमा-रेखा एक ‘टिपिंग पॉइंट’ (यानी डगमगाने के बिंदु) के आगे पहुंच गई तो अचानक बड़े पर्यावरणीय बदलाव हो सकते हैं। ये बदलाव ऐसे भी हो सकते हैं जिन्हें सीमा-रेखा पार होने के बाद रोका न जा सकेगा या पहले की जीवन पनपाने वाली स्थिति में लौटाया न जा सकेगा। वैज्ञानिकों की तकनीकी भाषा में, ये बदलाव शायद रिवर्सिबल यानी उत्क्रमणीय न हो।

इन चिंताजनक स्थितियों को देखते हुए बहुत ज़रूरी है कि अधिक से अधिक लोग इन समस्याओं के समाधान से जुड़ें। इसके लिए इन समस्याओं की सही जानकारी लोगों तक ले जाना बहुत ज़रूरी है। इस संदर्भ में वैज्ञानिकों व विज्ञान की अच्छी जानकारी रखने वाले नागरिकों की भूमिका व विज्ञान मीडिया की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण है। जन साधारण को इन गंभीर समस्याओं के समाधान से जोड़ने के लिए पहला ज़रूरी कदम यह है कि उन तक इन गंभीर समस्याओं व उनके समाधानों की सही जानकारी पंहुचे।

नए वर्ष के आगमन का समय इन बड़ी चुनौतियों को ध्यान में रखने, इन पर सोचने-विचारने का समय भी है ताकि नए वर्ष में इन गंभीर समस्याओं के समाधान से जुड़कर अपने जीवन में अधिक सार्थकता ला सकें। (स्रोत फीचर्स)

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यदि आपके बच्चे सब्ज़ियां नहीं खाते – डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

भी मांओं की एक ही कहानी है – मेरा बच्चा सब्ज़ियां नहीं खाता। उसे तो केवल क्रीम बिस्किट्स, चॉकलेट और आईसक्रीम ही चाहिए। और फिर शुरू होता है धमकी और रिश्वत का एक सौदा। मां अपने बच्चे से कहती है कि जब तक तुम सब्ज़ी नहीं खाओगे तब तक मिठाई नहीं मिलेगी। इस रणनीति में कुछ बच्चे आलू और भिंडी तो खाने के लिए हां कर देते हैं और बाकी बेचारों को पालक, गिलकी, लौकी-कद्दू और टिन्डों की ज़बरदस्ती स्वीकार करते बड़ा होना पड़ता है।

हम सभी को मीठा पसंद है। मीठे की ओर आकर्षण हमें हमारे पूर्वज प्रायमेट्स से विरासत में मिला है। उस समय हमारे पूर्वज भी आज के बंदरों और वनमानुष की तरह खुशबूदार पके मीठे फलों को खोजते दिन बिताते थे। अधिक ऊर्जा और पानी के लिए पके और मीठे फल को कच्चे और कड़वे फल पर प्राथमिकता मिलती थी। पेड़ों पर पके मीठे फल मिलने पर पानी की खोज भी पूरी हो जाती थी।

तो आपका बच्चा अगर मिठाई की ओर ललचाई निगाह से देखता है तो इसमें बच्चे का दोष नहीं है। दोष है हमारे प्रायमेट पूर्वजों और उनको मिली परिस्थितियों का और हमारे आनुवंशिक लक्षणों का।

आज भी हमारे नज़दीकी रिश्तेदार चिम्पैंज़ी जंगलों में जब भी मधुमक्खी के छत्ते को देखते हैं, तो सैकड़ों मधुमक्खियों के दंश की परवाह न करते हुए शहद खाने के मौके को कभी भी हाथ से जाने नहीं देते। शहद को खाने की उत्कंठा चिम्पैंज़ियों में इतनी तीव्र होती है कि अफ्रीका के विभिन्न स्थानों पर पाए जाने वाले स्थानीय चिम्पैंज़ियों ने शहद को खाने के लिए उपयुक्त तरीके भी निकाल लिए हैं। पूर्वजों के समान अगर हम भी मीठे की ओर आकर्षित होते हैं तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। यही कारण है कि मानव के पूर्वजों ने गन्ने को पूरे विश्व में फैला दिया है।

अधिकांश ज़हरीले भोज्य पदार्थ कड़वे होते हैं और हमारे पूर्वजों ने भी कड़वे पदार्थों से दूरी बनाना सीख लिया था। मीठे, खट्टे और नमकीन की तुलना में कड़वे पदार्थों के स्वाद के लिए मनुष्यों में अन्य सभी प्राणियों से 25 जीन्स अधिक पाए जाते हैं।

तो मांओं की यह चिंता जायज़ है कि बच्चे सब्ज़ियां नहीं खाते जो स्वास्थ्य के लिए आवश्यक हैं। कई प्रकार के खाद्य पदार्थ तो अधिकता में शरीर के लिए नुकसानदायक होते हैं। वसा एवं शर्करा ज़्यादा मात्रा में लेने पर वे चयापचय को धीमा करते हैं, वज़न बढ़ाते हैं तथा धमनियों में जमा होकर उन्हें कठोर कर देते हैं, खासकर जब बच्चे खेलना-कूदना छोड़ देते हैं। तो क्या हम बच्चों को मिठाई की बजाय सब्ज़ी खाने के लिए तैयार कर सकते हैं। उत्तर है, हां।

विज्ञान की नई शाखा ऑप्टोजेनेटिक्स इसमें बहुत उपयोगी होगी। ऑप्टोजेनेटिक्स एक ऐसी तकनीक है जिसमें प्रकाश द्वारा जीवित ऊतक, खासकर जेनेटिक तौर पर बदले गए न्यूरॉन्स को प्रकाश संवेदी बनाकर कार्य करने के लिए उकसाया जाता है।

ऑप्टोजेनेटिक्स के भोजन सम्बंधी कुछ प्रयोग फलों पर पाई जाने वाली छोटी एवं लाल आंखों वाली फ्रूट फ्लाय (ड्रॉसोफिला) पर किए गए हैं। मनुष्य को मीठे लगने वाले विभिन्न प्रकार के रसायन अन्य प्रजातियों के प्राणियों को भी मीठे लगें यह ज़रूरी नहीं है। उदाहरण के लिए मनुष्यों द्वारा मीठे के लिए उपयोग किया जाने वाला रसायन एस्पार्टेम चूहों और बिल्लियों को मीठा नहीं लगता। आश्चर्यजनक रूप से मीठे के मामले में ड्रॉसोफिला एवं मानव की पसंद एक जैसी ही है। दोनों की पसंद इतनी मिलती है कि हमारे नज़दीकी रिश्तेदार कई बंदरों को भी वे चीज़ें मीठी नहीं लगती जो हमें और ड्रॉसोफिला को मीठी लगती हैं। यह भी पता लगा है कि मनुष्य एवं ड्रॉसोफिला दोनों के पूर्वज सर्वाहारी एवं मुख्य रूप से मीठे फल खाने वाले थे।

मीठे की तुलनात्मक अनुभूति कराने वाले रसायन में से 21 पोषक और अपोषक रसायन जो मानव को मीठे लगते हैं वे मक्खियों को कैसे लगते हैं यह जानने के लिए प्रयोग किए गए।

क्या स्वाद ग्रंथियां सब्ज़ियों का स्वाद लेने पर भी मस्तिष्क को मीठा खाने जैसी अच्छी अनुभूति दे सकती है? हां। इसे सिद्ध करने के लिए ड्रॉसोफिला पर एक प्रयोग किया गया। मक्खियों के उपयोग में लाए जाने वाले आयपैड (जिसे फ्लायपैड कहते हैं) का उपयोग किया गया। पैड के दो कक्षों में से एक में हरी ब्रोकली तथा दूसरे में केले का गूदा रखा गया। अब मक्खियों को छोड़कर यह देखा गया कि वे किस प्रकार का खाद्य पदार्थ पसंद करती हैं। मक्खी जिस खाद्य पदार्थ की ओर जाती थी फ्लायपैड उस परिणाम को आंकड़े के रूप में एकत्रित कर लेता था। निष्कर्षों में यह पता चला कि मक्खियों ने भी बच्चों की तरह ब्रोकली की बजाय केले को मीठे स्वाद के कारण ज़्यादा पसंद किया। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि मानव में जीभ पर पाए जाने वाली स्वाद कलिकाएं स्वाद ग्राहियों से बनी होती है जो विशेष न्यूरॉन्स होते हैं। जब भी जीभ पर भोज्य पदार्थ लगता है तो स्वाद ग्राही मस्तिष्क तक एक संदेश भेजते हैं। मीठे पदार्थ के अणु मीठे स्वाद ग्राहियों से जुड़कर तुरंत संदेश को मस्तिष्क में पहुंचाते हैं जिससे सुखद अनुभूति होती है। किंतु ड्रॉसोफिला में ब्रोकली पदार्थ के अणु मीठे स्वाद ग्राहियों से नहीं जुड़ते। इस कारण मस्तिष्क को संदेश नहीं मिलते हैं। हम ब्रोकली के जीनोम में कुछ जीन जोड़कर उन्हें ऑप्टोजेनेटिक्स से ब्रोकली खाने पर भी मीठे होने जैसी अनुभूति दे सकते हैं।

नए जीन डालने पर ड्रॉसोफिला के स्वाद ग्राही के न्यूरॉन्स प्रकाश के प्रति संवेदी हो जाते हैं। अब प्रयोग में एक परिवर्तन किया गया। जब भी ड्रॉसोफिला ब्रोकली खाने के लिए आती है तभी एक लाल लाइट के जलने से मीठे स्वाद ग्राही मस्तिष्क को संदेश भेजते हैं। ब्रोकली खाने पर भी ड्रॉसोफिला को मीठे खाने जैसी ही अनुभूति होती है। प्रयोगों द्वारा पाया गया कि जीन परिवर्तित ड्रॉसोफिला अब ब्रोकली को भी केले के बराबर पसंद करने लगी थी।

क्या ऑप्टोजेनेटिक्स के द्वारा आपके बच्चे भी मिठाई की बजाय सब्ज़ियां पसंद करने लगेंगे? कही नहीं जा सकता। लेकिन ऑप्टोजेनेटिक्स की सहायता से अब दृष्टिबाधित भी देखने लगे हैं और आने वाले समय में भूलने की समस्या का निदान भी ऑप्टोजेनेटिक्स द्वारा संभव हो जाएगा। (स्रोत फीचर्स)

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बांध टूटे तो नदी ने अपना मलबा साफ किया

मेरिका में एलव्हा नदी पर बने बांधों को हटाए जाने के बाद जो मलबा मुक्त हुआ, उसे नदी ने अपने प्रवाह से साफ कर लिया।

एलव्हा नदी वाशिंगटन में बहती है। इस छोटी नदी पर बने दो बड़े बांध, 32 मीटर ऊंचा एलव्हा डैम और 64 मीटर ऊंचा ग्लाइंस कैन्यन डैम, नदी के प्राकृतिक प्रवाह को रोके हुए थे। नदी को फिर से बहने देने तथा मछलियों और अन्य जीवों के लाभ के लिए गैर-ज़रूरी बांधों को तोड़ने का निर्णय लिया गया। इन दोनो बांधो को तोड़ने की प्रक्रिया 2011 में शुरू हुई थी जो 2014 तक चली। यह दुनिया का सबसे बड़ा बांध तोड़ने का प्रोजेक्ट रहा।

कैलिफोर्निया के यूएस जियोलॉजिकल सर्वे की एमी ईस्ट और उनके साथियों ने इन बांधों को तोड़ने के पहले, तोड़ने के दौरान और उसके बाद नदी के प्रवाह और रास्तों पर लगातार नज़र रखी।

जब बांध तोड़े गए तो नदी में जमा लगभग 2 करोड़ टन मलबा बहने लगा। इस मलबे के बहने से नदी का आकार बदल गया, वह उथली हो गयी और उसके रास्ते में नए-नए रेतीले किनारे भी बन गए। मगर नदी में आए ऐसे बड़े बदलाव 5 महीने तक रहे। इस दौरान नदी ने अपने पेंदे में जमा अधिकतर मलबा नदी के आखिरी छोर, जुआन दे फुका जलडमरूमध्य तक पहुंचा दिया।

 शोधकर्ताओं का कहना है कि नदियों का बहाव इतना शक्तिशाली होता है कि वे बांध के तोड़े जाने पर बिना किसी भारी नुकसान के, जल्दी ही अपने नियमित ढर्रे पर लौट सकती हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जैव विविधता का तेजी से होता ह्यास – नवनीत कुमार गुप्ता

र्ल्ड वाइल्डलाइफ फंड ने अपनी एक रिपोर्ट में जैव विधिधता में हो रही कमी को रेखांकित किया है। वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फंड प्रकृति के संरक्षण के मामले में दुनिया का विशालतम तथा स्वतंत्र संगठन है, जिसका उद्देश्य पृथ्वी के प्राकृतिक पर्यावरण को नष्ट होने से बचाना तथा एक ऐसे भविष्य का निर्माण करना है, जिसमें इंसानों तथा प्रकृति के बीच सौहार्दपूर्ण रिश्ता बना रहे।

यह संगठन हर दो वर्ष में लिविंग प्लैनेट रिपोर्ट प्रकाशित करता है। इस वर्ष के प्रकाशन में कुछ चौंकाने वाले तथ्य सामने आए हैं। डब्लू.डब्लू.एफ. के शोधकर्ताओं ने जैव विविधता की वर्तमान स्थिति का आकलन करने के लिए ज़ुऑलॉजिकल सोसायटी ऑफ लंदन के लिविंग प्लैनेट इंडेक्स का अध्ययन किया। लिविंग प्लैनेट इंडेक्स दुनिया भर में रीढ़धारी प्रजातियों की संख्या के आधार पर वैश्विक जैव विविधता की स्थिति का आकलन करती है। नवीनतम आंकड़ों के मुताबिक 1970 से 2014 के बीच विभिन्न रीढ़धारी प्रजातियों की आबादी में औसतन 60 प्रतिशत की कमी आई है। सर्वाधिक कमी उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों जैसे दक्षिणी तथा मध्य अमेरिका में आई है। यहां 1970 की तुलना में 89 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई है। मीठे पानी में पाए जाने वाले जीवों की संख्या में भी भारी कमी देखी गई है। इंडेक्स के मुताबिक 1970 की तुलना में इन जीवों में 83 प्रतिशत की कमी आई है।

ये वैश्विक आंकड़े उपयोगी हैं। लेकिन यह समझना आवश्यक है कि क्या विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों में आई कमी का स्तर अलग-अलग है तथा क्या उन्हीं प्रजातियों पर अलग प्रकार से भी असर पड़ रहा है? इन जानकारियों के लिए लिविंग प्लैनेट इंडेक्स एक महत्त्वपूर्ण साधन है, जो जीवों की विभिन्न प्रजातियों पर खतरों के बारे में बता सकता है।

यह रिपोर्ट वैश्विक जैव विविधता के संरक्षण के लिए कुछ कदमों की भी सिफारिश करती है। पहला कदम विशिष्ट लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए विश्व स्तर पर जैव विविधता संरक्षण हेतु योजना विकसित करना तथा उसे विभिन्न देशों द्वारा लागू करना है। पहला लक्ष्य है वन क्षेत्र में विस्तार करना, जो कई जानवरों, कीड़ों तथा पक्षियों को आश्रय देते हैं। जैव विविधता के संरक्षण के लिए अगला लक्ष्य एक बार इस्तेमाल किए जाने वाले प्लास्टिक के उपयोग पर प्रतिबंध लगाना तथा मीठे पानी में पाए जाने वाले जीवों की सुरक्षा के लिए प्लास्टिक को पानी में फेंकने पर रोक लगाना शामिल है।

पूरी धरती के मनुष्यों तथा जानवरों को संरक्षण देने वाली प्राकृतिक व्यवस्था में गिरावट रोकने के लिए दुनिया भर में वास्तविक परिवर्तन लाने की आवश्यकता है। सबसे बड़ी चुनौती लगातार बढ़ती आबादी पर नियंत्रण पाने के तरीके तलाशना है। पृथ्वी को खूबसूरत बनाने तथा इसके रहवासियों को एक सकारात्मक भविष्य देने के लिए प्रकृति का ह्यास रोकना आवश्यक है, जिसके लिए हम सबको मिलकर कार्य करना होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्या विश्व सतत विकास लक्ष्य प्राप्त कर सकेगा? – भारत डोगरा

न दिनों विश्व स्तर पर सतत विकास लक्ष्य (सस्टेनेबल डेवलपमेंट गोल्स या एस.डी.जी) विमर्श के केंद्र में हैं। विकास, पर्यावरण रक्षा व समाज कल्याण की विभिन्न प्राथमिकताओं के सम्बंध में व्यापक विमर्श के बाद समयबद्ध लक्ष्य निर्धारित किए गए हैं कि विभिन्न देशों को निर्धारित समय पर यहां तक अवश्य पहुंचना चाहिए। सतत विकास लक्ष्यों की सार्थकता यह बताई गई है कि इनके निर्धारित होने से उचित प्राथमिकताओं को अपनाने में विश्व स्तर पर बहुत मदद मिलेगी।

ये लक्ष्य तो बहुत ज़रूरी हैं और यदि विश्व इन समयबद्ध लक्ष्यों को पूरा कर सके तो निश्चय ही यह एक बड़ी उपलब्धि होगी। विकास के महत्वपूर्ण मानकों के आधार पर अभी तक की सबसे बड़ी उपलब्धियां प्राप्त होंगी। पर बड़ा सवाल यह है कि यह सतत विकास लक्ष्य वास्तव में कहां तक प्राप्त हो सकेंगे।

चिंता की एक बड़ी वजह यह है कि जिस दौर में विकास के सबसे बड़े लक्ष्य प्राप्त करने की बात कही जा रही है उसी दौर में अनेक प्रतिष्ठित वैज्ञानिक व विशेषज्ञ चेतावनी दे रहे हैं कि इस दौर में अति गंभीर पर्यावरणीय समस्याओं के कारण व अति विनाशक हथियारों के कारण धरती की जीवनदायिनी क्षमताएं ही खतरे में पड़ सकती हैं। सवाल यह है कि ऐसे गंभीर संकट के दौर में विकास की सबसे बड़ी उपलब्धियां कैसे प्राप्त की जा सकती हैं।

जहां एक ओर इतनी गंभीर चुनौतियां हैं, उसी दौर में सतत विकास के निर्धारित लक्ष्य कैसे प्राप्त होंगे? यह प्रश्न इस कारण और पेचीदा हो जाता है कि धरती की जीवनदायिनी क्षमता को संकट में पड़ने से बचाने के प्रयास हाल के समय में सफलता से बहुत दूर रहे हैं और विश्व के सबसे शक्तिशाली देश इस संदर्भ में अपनी बड़ी ज़िम्मेदारियों से दूर हटते नज़र आए हैं।

अत: इस समय यह बहुत ज़रूरी है कि विध्वंसक हथियारों को न्यूनतम करने, युद्ध व गृह युद्ध की संभावना कम से कम करने तथा अमन-शांति के लिए विश्व में एक व्यापक व सशक्त जन-अभियान निरंतरता से चले। इसी तरह धरती की जीवनदायिनी क्षमता से जुड़े पर्यावरण के मुद्दों पर भी ऐसा ही अभियान चले। इन जन-अभियानों द्वारा इन समस्याओं की गंभीरता की जानकारी करोड़ों लोगों तक भलीभांति पहुंचाई जाए व इन समस्याओं के समाधान के अनुकूल जीवन-मूल्यों का प्रसार किया जाए। इस तरह अति महत्वपूर्ण मुद्दों पर एक ज़बरदस्त जन-उभार आ सकता है व इस उभार के कारण सरकारें भी इन मुद्दों पर अधिक ध्यान देने के लिए बाध्य होंगी। इस तरह जो अनुकूल माहौल तैयार होगा, उससे सतत विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने की संभावना बहुत बढ़ जाएगी। (स्रोत फीचर्स)

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कितनी स्वच्छ थी मेरी दिवाली – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

गभग 80 साल पहले रिचर्ड लेवलीन ने एक किताब लिखी थी, हाऊ ग्रीन वॉस माय वैली (कितनी हरी-भरी थी मेरी घाटी)। इस उपन्यास में बताया गया था कि कैसे वेल्स देश के खदान क्षेत्र, लगातार और गहरे खनन के कारण धीरे-धीरे प्रदूषित इलाकों में तब्दील हो गए। हमारे यहां भी हाल ही में हुए घटनाक्रम रिचर्ड लेवलीन की इस किताब की याद दिलाते हैं – दिवाली के समय पटाखों का इस्तेमाल, उनके कारण उत्पन्न ध्वनि और पर्यावरण प्रदूषण (जो भारत के कई स्थानों की पहले से प्रदूषित हवा को और भी प्रदूषित कर रहे हैं) और पटाखों के इस्तेमाल पर सुप्रीम कोर्ट का निर्देश कि पटाखे, वह भी मात्र ग्रीन (पर्यावरण हितैषी) पटाखे, रात में सिर्फ दो घंटे ही चलाए जाएं (जिसका पालन नहीं हुआ)। 

ग्रीन पटाखे क्या हैं? ग्रीन पटाखों में पर्यावरण और स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाने वाले लीथियम, एंटीमनी, लेड, मर्करी जैसे तत्व नहीं होते। इसके अलावा इन पटाखों में परक्लोरेट, परआयोडेट और बेरियम जैसे अति-शक्तिशाली विस्फोटक भी नहीं होते। कोर्ट द्वारा पटाखों के इस्तेमाल से सम्बंधित ये दिशानिर्देश भारत के पेट्रोलियम एंड एक्सप्लोसिव सेफ्टी ऑर्गेनाइज़ेशन (PESO) के सुझाव के आधार पर दिए गए थे। लेकिन वर्तमान में ये ग्रीन पटाखे बाज़ार में उपलब्ध ही नहीं है। तमिलनाडु फायरवर्क्स एंड एमोर्सेस मेन्यूफैक्चरर एसोसिएशन (TANFAMA) की 850 पटाखा फैक्टरी में तकरीबन दस लाख लोग काम करते हैं। उनका सालाना टर्नओवर 5 हज़ार करोड़ का है। एसोसिएशन ने घोषणा की है कि वे परक्लोरेट व उपरोक्त हानिकारक धातुओं का पटाखे बनाने में इस्तेमाल नहीं करते हैं (जिनका उपयोग चीन की पटाखा फैक्टरियों में किया जाता है और उन्हें भारत में निर्यात किया जाता है)। एसोसिएशन का कहना है कि पटाखे बनाने में वे पोटेशियम नाइट्रेट, सल्फर, एल्यूमिनियम पावडर और बेरियम नाइट्रेट का उपयोग करते हैं। आतिशबाज़ी में लाल रंग के लिए स्ट्रॉन्शियम नाइट्रेट का उपयोग किया जाता है और फुलझड़ी की चिंगारियों के लिए एल्यूमिनियम का उपयोग किया जाता है और धमाकेदार आवाज़ के लिए एल्यूमिनियम के साथ सल्फर का उपयोग किया जाता है। हरे रंग के लिए बेरियम का उपयोग किया जाता है। पटाखों में लाल सीसा और बिस्मथ ऑक्साइड का भी उपयोग होता है। एसोसिएशन अपनी वेबसाइट पर दावा करता है कि उनके पटाखों का ध्वनि का स्तर 125 डेसीबल है जो युरोप के मानक ध्वनि स्तर (131 डेसीबल) से भी कम है।

परक्लोरेट और बेरियम

पटाखों में परक्लोरेट का उपयोग एक विस्फोटक की तरह किया जाता है किंतु वह बहुत ही असुरक्षित है। यह थॉयरॉइड ग्रंथि के कार्य को प्रभावित करता है (यह आयोडीन अवशोषण की प्रक्रिया में बाधा डालता है)। इंटरनेशनल जर्नल ऑफ एन्वायर्मेंटल रिसर्च एंड पब्लिक हेल्थ में आशा श्रीनिवासन और टी. वीरराघवन के शोध पत्र के अनुसार परक्लोरेट कैंसरकारक भी हो सकता है। एन्वायर्मेंट मॉनीटरिंग में अक्टूबर 2012 में प्रकाशित आईसोब की टीम के एक पेपर के अनुसार दक्षिण भारत में पटाखों की फैक्टरी वाले इलाकों के भूजल और नल के पानी में परक्लोरेट सुरक्षित सीमा से अधिक पाया गया था। शुक्र है कि भारत की पटाखा फैक्टरियां अब परक्लोरेट का उपयोग नहीं करती हैं। लेकिन परक्लोरेट से निर्मित पटाखों के आयात पर भी रोक लगनी चाहिए।

भारत में, पटाखों के निर्माण में अभी भी बेरियम का उपयोग किया जाता है। बेरियम भी ग्रीन नहीं बल्कि ज़हरीला भी है। एक आबादी आधारित अध्ययन में पाया गया है कि सुरक्षित सीमा से अधिक बेरियम युक्त पेयजल वाले इलाकों में, 65 वर्ष से अधिक उम्र के व्यक्तियों में ह्मदय सम्बंधी रोगों से मृत्यु होने की आशंका काफी बढ़ जाती है। चूहों पर हुए एक अध्ययन में देखा गया है कि बेरियम का सेवन किडनी को प्रभावित करता है जिसके कारण तंत्रिका सम्बंधी समस्या हो सकती है। यह देखना बाकी है कि यह मनुष्यों को कैसे प्रभावित करता है। बिस्मथ भी समस्यामूलक है। हालांकि लेड और एंटीमनी की तुलना में बिस्मथ कम विषैला है, लेकिन यह किडनी, लीवर और मूत्राशय को प्रभावित करता है। इसका विषाक्तता स्तर निर्धारित करना ज़रूरी है।

दिल्ली और उसके पड़ोसी राज्य वायु प्रदूषण (हवा में निलंबित कण, वाहनों से निकलने वाले प्रदूषक, धुआं और स्मॉग) से जूझ रहे हैं। जिससे वहां के लोगों का रहना दूभर हो रहा है। देश के कई अन्य शहर भी अब दिल्ली की तरह प्रदूषित होते जा रहे हैं। त्यौहारों के अलावा शादी, सामाजिक उत्सवों में पटाखे चलाना प्रदूषण को और भी बढ़ा देता है। हम भारतीय शोर-शराबा करने और पर्यावरण को प्रदूषित करने के आदी हैं। रोक चाहे किसी भी स्तर (स्थानीय, सरकार या सुप्रीम कोर्ट के स्तर) पर लगे किंतु हम लोग उनका पालन नहीं करते। व्यक्तिगत रूप से, परिवार के स्तर पर, समाज के स्तर पर नियमों का पालन करने पर ही बदलाव आएगा। हम भारतीयों के लिए जश्न मनाने का मतलब बस शोर-शराबा करना ही हो गया है।

अन्य देश

मगर ऐसा क्यों है कि भारतीय लोग सिर्फ भारत में ऐसा करते हैं? विदेशों में रह रहे भारतीय वहां ऐसा क्यों नहीं करते? सप्तऋषि दत्ता ने पिछले साल swachhindia.ndtv.com में एक लेख लिखा था: पटाखों पर नियंत्रण और प्रतिबंध: भारत इन देशों से क्या सीख सकता है। ज़्यादातर युरोपीय देश, वियतनाम, सिंगापुर, यूके, आइसलैंड जैसे देश सिर्फ त्यौहारों के आसपास ही पटाखे खरीदने की इज़ाजत देते हैं। यूएसए के 50 से अधिक प्रांतों में कई प्रकार के पटाखों पर प्रतिबंध है। साथ ही वहां व्यक्तिगत स्तर पर पटाखे चलाने की जगह सामाजिक, शहर, राज्य स्तर पर चलाने की अनुमति है। ऑस्ट्रेलिया में भी ऊपर आकाश में जाकर फूटने वाले और तेज़ धमाकेदार आवाज़ करने वाले पटाखों पर प्रतिबंध लगा है। और न्यूज़ीलैंड में साल में सिर्फ चार बार ही पटाखे चलाने की अनुमति है।

यदि भारतीय लोग विदेशों में नियमों का पालन कर सकते हैं तो वे भारत में रहते हुए क्यों नहीं करते? चाहे कितने भी नियम बन जाएं, जब तक सोच नहीं बदलेगी, हम स्वच्छ भारत नहीं बना पाएंगे। इस तर्क में कोई दम नहीं है कि परंपराओं और आस्थाओं का संरक्षण ज़रूरी है। इस संदर्भ में विदेशी और भारतीय दोनों ही सरकारों ने पटाखों को चलाने के लिए कुछ छूट दी है। यदि पटाखे चलाना धार्मिक अनुष्ठान के लिए ज़रूरी है (है क्या?) तो क्यों ना निश्चित समय के लिए और सांकेतिक रूप से चलाए जाएं, जिससे पर्यावरण को भी नुकसान ना पहुंचे।

जैसे कि हम गणेश विसर्जन में मूर्तियों को झील, तालाब या नदियों में इस बात की परवाह किए बिना विसर्जित कर देते हैं कि क्या ऐसा करना पर्यावरण हितैषी हैं। पहले मूर्तियां मिट्टी की बनाई जाती थी, मगर आज बड़ी, पर्यावरण विरोधी, और भड़कीली मूर्तियां बनाई जाती हैं। दी हिंदू में कीर्तिक शशिधरन लिखते हैं, नदी ऐसी जगह बन गई है जहां धार्मिक और प्रदूषणकारी लोग एक साथ देखने को मिलते है। धर्म को लेकर जो हमारी मान्यताएं हैं वह हमारे स्वचछता के विचार से कहीं मेल नहीं खाती। कैसे कोई भक्त नदी को दूषित छोड़ सकता है। और क्या प्रदूषण नदी की पवित्रता कम नहीं करता। हम पटाखे चलाते हैं तो क्या हम प्रदूषण के बारे में सोचते हैं? क्या हवा पवित्र या धार्मिक नहीं है? (स्रोत फीचर्स)

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अरावली पहाड़ियां बची रहीं, तो पर्यावरण भी बचा रहेगा – जाहिद खान

शीर्ष अदालत ने हाल ही में दिल्ली और राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में वायु प्रदूषण से उत्पन्न स्थिति से सम्बंधित एक मामले की सुनवाई करते हुए, जिस तरह से राजस्थान सरकार को 48 घंटे के अंदर राज्य के 115.34 हैक्टर क्षेत्र में गैरकानूनी खनन बंद करने का सख्त आदेश दिया है, उसका स्वागत किया जाना चाहिए। अदालत के इस आदेश से न सिर्फ राजस्थान के पर्यावरण की रक्षा होगी, बल्कि दिल्ली के पर्यावरण में भी सुधार आएगा, राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में प्रदूषण का स्तर कम होगा। लोगों को प्रदूषण और उससे होने वाले नुकसान से निजात मिलेगी।

जस्टिस मदन बी. लोकुर और जस्टिस दीपक गुप्ता की पीठ का इस बारे में कहना था कि यद्यपि राजस्थान को अरावली में खनन गतिविधियों से करीब पांच हज़ार करोड़ रुपए की रॉयल्टी मिलती है, लेकिन वह दिल्ली में रहने वाले लाखों लोगों की ज़िंदगी ख़तरे में नहीं डाल सकती। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में प्रदूषण का स्तर बढ़ने की एक बड़ी वजह अरावली पहाड़ियों का गायब होना भी हो सकता है। अदालत ने यह आदेश सुप्रीम कोर्ट द्वारा नियुक्त केंद्रीय अधिकार प्राप्त समिति की उस रिपोर्ट के आधार पर दिया है, जिसमें कहा गया है कि पिछले 50 सालों में अरावली पर्वत शृंखला की 128 पहाड़ियों में से 31 पहाड़ियां गायब हो गई हैं।

केंद्रीय अधिकार प्राप्त समिति के वकील ने सर्वोच्च न्यायालय से अनुरोध किया था कि अरावली क्षेत्र में गैरकानूनी खनन गतिविधियां रोकने के लिए कठोर से कठोर कदम उठाने चाहिए, क्योंकि राज्य सरकार इन गतिविधियों के खिलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं कर रही है। सुनवाई के दौरान जब अदालत ने राजस्थान सरकार से इस बारे में पूछा कि अरावली क्षेत्र में अवैध खनन रोकने के लिए उसने क्या कदम उठाए हैं, तो सरकार की दलील थी कि उनके यहां के सभी विभाग गैरकानूनी खनन रोकने के लिए अपनाअपना कामकर रहे हैं। सरकार ने इस सम्बंध में कारण बताओ नोटिस जारी करने के अलावा कई प्राथमिकी भी दर्ज की हैं। लेकिन अदालत सरकार की इन दलीलों से संतुष्ट नहीं हुई। पीठ ने नाराज होते हुए कहा कि वह राज्य सरकार की स्टेटस रिपोर्ट से बिल्कुल भी इत्तेफाक नहीं रखती, क्योंकि अधिकांश ब्यौरे में सारा दोष भारतीय वन सर्वेक्षण यानी एफएसआई पर मढ़ दिया गया है। सरकार अरावली पहाड़ियों को गैरकानूनी खनन से बचाने में पूरी तरह से नाकाम रही है। उसने इस मामले को बेहद हल्के में लिया है। जिसके चलते समस्या बढ़ती जा रही है। अदालत ने इसके साथ ही राजस्थान के मुख्य सचिव को अपने आदेशों की पूर्ति के संदर्भ में एक हलफनामा दायर करने का निर्देश दिया। बहरहाल अब इस मामले में अगली सुनवाई 29 अक्टूबर को होगी।

राजस्थान, हरियाणा, गुजरात और दिल्ली में फैली अरावली पर्वत शृंखला सैकड़ों सालों से गंगा के मैदान के ऊपरी हिस्से की आबोहवा तय करती आई है, जिसमें वर्षा, तापमान, भूजल रिचार्ज से लेकर भूसंरक्षण तक शामिल है। ये पहाड़ियां दिल्ली, हरियाणा और पश्चिमी उत्तरप्रदेश को धूल, आंधी, तूफान और बाढ़ से बचाती रही हैं। लेकिन हाल का एक अध्ययन बतलाता है कि अरावली में जारी खनन से थार रेगिस्तान की रेत दिल्ली की ओर लगातार खिसकती जा रही है। राजस्थान से लेकर हरियाणा तक एक विशाल इलाके में अवैध खनन से ज़मीन की उर्वरता खत्म हो रही है। इससे हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में सूखा और राजस्थान के रेतीले इलाके में बाढ़ के हालात बनने लगे हैं। प्रदूषण से मानसून का पैटर्न बदला है। मानसून के इस असंतुलन से इन इलाकों के रहवासियों को काफी नुकसान उठाना पड़ रहा है। सर्वोच्च न्यायालय ने साल 2002 में इस क्षेत्र के पर्यावरण को बचाने के लिए खनन पर पाबंदी लगा दी थी। बावजूद इसके खनन नहीं रुका है। सरकार की आंखों के सामने गैरकानूनी तरीके से खनन होता रहता है और वह तमाशा देखती रहती है। राजस्थान सरकार ने खुद अदालत में यह बात मानी है कि उसकी लाख कोशिशों के बाद भी राज्य में अवैध खनन जारी है।आज हालत यह है कि राज्य के 15 ज़िलों में सबसे ज़्यादा अवैध खनन हो रहा है। अवैध खनन की वजह इस इलाके में कॉपर, लेड, ज़िंक, सिल्वर, आयरन, ग्रेनाइट, लाइम स्टोन, मार्बल, चुनाई पत्थर जैसे खनिज पाए जाना है। प्रदेश के कुल खनिजों में से 90 फीसदी खनिज अरावली पर्वत शृंखला और उसके आसपास हैं। नियमों के मुताबिक अरावली पर्वत शृंखला की एक कि.मी. परिधि में खनन नहीं हो सकता, लेकिन वन एवं पर्यावरण मंत्रालय ने नियमों में संशोधन कर राजस्थान के कई ऐसे भूभाग शामिल कर लिए हैं, जो इनके नज़दीक है।

तमाम अदालती आदेशों के बाद भी अवैध खनन के खिलाफ न तो राजस्थान सरकार और प्रशासन ने कोई प्रभावी कार्रवाई की है और न ही केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय इस पर लगाम लगा पाया है। सरकार की लापरवाही और उदासीनता का ही नतीजा है कि खनन माफिया बेखौफ होकर अरावली की पहाड़ियों को खोखला कर रहा है। लेखा परीक्षक और नियंत्रक की एक रिपोर्ट कहती है कि राजस्थान के अंदर अरावली पर्वत शृंखला क्षेत्र में नियमों को ताक में रखकर खनन के खूब पट्टे जारी किए गए, उनका नवीनीकरण किया गया या उन्हें आगे बढ़ाया गया। केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय ने भी इसके लिए अपनी मंज़ूरियां दीं। नतीजा यह है कि अरावली पर्वत शृंखला की पहाड़ियां एक के बाद एक गायब होती जा रही हैं। कुछ लोगों के स्वार्थ के चलते लाखों लोगों को नुकसान उठाना पड़ रहा है। यदि सरकार अब भी इसे बचाने के लिए नहीं जागी, तो इस क्षेत्र का पूरा पर्यावरण खतरे में पड़ जाएगा। अरावली पर्वत शृंखला बची रहेगी, तो इस क्षेत्र का पर्यावरण भी बचा रहेगा। (स्रोत फीचर्स)

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कार्बन उत्सर्जन का लक्ष्य पूरा नहीं कर पा रहे राष्ट्र

यूएन एनवायरनमेंट प्रोग्राम द्वारा प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार ग्रुप ऑफ 20 के देशों ने पेरिस समझौते में निर्धारित किए गए लक्ष्यों को पूरा करने के लिए पर्याप्त उपाय नहीं किए हैं। रिपोर्ट में पाया गया है कि तीन साल की स्थिरता के बाद  वैश्विक कार्बन उत्सर्जन निरंतर बढ़ रहा है। इस वृद्धि के कारण जलवायु परिवर्तन के खतरनाक स्तर को रोकने के लिए निर्धारित लक्ष्य और वास्तविक स्थिति के बीच उत्सर्जन अंतरपैदा हुआ है।  यह 2030 में अनुमानित उत्सर्जन स्तर और ग्लोबल वार्मिंग को 1.5 डिग्री से 2 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के अंतर को दर्शाता है।

वैश्विक तापमान को 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने के लिए समय ज़्यादा नहीं बचा है। अगर उत्सर्जन अंतर 2030 तक खत्म नहीं होता है, तो वैश्विक तापमान 2 डिग्री सेल्सियस से ज़्यादा बढ़ जाएगा।

वर्तमान हालत को देखते हुए रिपोर्ट ने ग्रुप ऑफ 20 देशों से आग्रह किया है कि 2 डिग्री की दहलीज़ तक सीमित रखने के लिए पेरिस समझौते के लक्ष्यों के अनुसार उत्सर्जन तीन गुना कम करना होगा। और यदि यह लक्ष्य 1.5 डिग्री निर्धारित किया जाए तो उत्सर्जन पांच गुना कम करना होगा।

वर्ष 2017 में उत्सर्जन का रिकॉर्ड स्तर 53.5 अरब टन दर्ज किया गया। इसको कम करने के लिए शहर, राज्य, निजी क्षेत्र और अन्य गैरसंघीय संस्थाएं जलवायु परिवर्तन पर मज़बूत कदम उठाने के लिए सबसे उपयुक्त हैं। रिपोर्ट के मुताबिक, 2030 तक वैश्विक तापमान के अंतर को 2 डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के लिए कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन को 19 अरब टन तक कम करने की आवश्यकता है।

वैसे तो सभी देशों को इस क्षेत्र में काम करने की आवश्यकता है लेकिन इसमें भी विश्व के 4 सबसे बड़े उत्सर्जक चीन, अमरीका, युरोपीय संघ और भारत को विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। इन चार देशों ने पिछले दशक में विश्व भर में होने वाले ग्रीनहाउस उत्सर्जन में 56 प्रतिशत का योगदान दिया है। 

चीन अभी भी 27 प्रतिशत के साथ अकेला सबसे बड़ा योगदानकर्ता है। दूसरी तरफ, संयुक्त राज्य अमेरिका और युरोपीय संघ वैश्विक ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के पांचवें भाग से अधिक के लिए ज़िम्मेदार हैं। रिपोर्ट में आशंका जताई गई है कि अगर हम अभी भी तेज़ी से कार्य करते हैं तो क्या पेरिस समझौते के 1.5 डिग्री सेल्सियस वृद्धि के महत्वाकांक्षी लक्ष्य को पूरा करना पाना संभव है।

यूएस संसद से सम्बंद्ध हाउस एनर्जी एंड कॉमर्स कमेटी के शीर्ष डेमोक्रेट फ्रैंक पेलोन के अनुसार अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प का प्रशासन जलवायु परिवर्तन से निपटने और कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए अमेरिकी प्रयासों को कमज़ोर कर रहा है। पेलोन का स्पष्ट मत है कि अगर हम ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को नियंत्रण में नहीं लाते हैं, तो आने वाले समय में और भी घातक जलवायु परिवर्तन तथा वैश्विक तपन जैसे परिणामों के लिए तैयार रहें। (स्रोत फीचर्स)

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