हालिया समय में भव्य हिमालय (The Himalayas) पर्वत एक मौन लेकिन महत्वपूर्ण बदलाव के साक्षी बन रहे हैं। नेचर प्लांट्स में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार, जलवायु परिवर्तन (Climate Change) के कारण इस क्षेत्र के वृक्षों की सीमा में परिवर्तन हो रहा है, जिससे इसके नाज़ुक पारिस्थितिकी तंत्र (Ecosystem) का संतुलन प्रभावित हो रहा है। यह बदलाव केवल पेड़ों पर नहीं, बल्कि वन्यजीवों, चारागाहों और स्थानीय समुदायों की आजीविका पर भी असर डाल सकता है।
सदियों से, हिमालय के मध्य क्षेत्र में चट्टानी इलाकों पर भोजपत्र (Betula utilis) के पेड़ों का दबदबा रहा है, जबकि ऊंचे इलाकों में देवदार (Abies spectabilis) के पेड़ सह-अस्तित्व में रहे हैं। लेकिन हालिया डैटा से पता चला है कि देवदार के पेड़ धीरे-धीरे भोजपत्र पर हावी हो रहे हैं। हिमालय में वैश्विक औसत से अधिक गति से बढ़ रहे तापमान और सूखे की बढ़ती स्थिति ने देवदार के पेड़ों को भोजपत्र की तुलना में तेज़ी से फैलने का मौका दिया है। देवदार के पेड़ हर साल 11 सेंटीमीटर ऊंचे स्थानों तक फैल रहे हैं, जो भोजपत्र की गति से लगभग दुगना है। यह अंतर तापमान (temperature) में और अधिक वृद्धि के साथ तेज़ हो सकता है।
शोधकर्ताओं ने माउंट एवरेस्ट (Mount Everest) और अन्नपूर्णा संरक्षण क्षेत्र (Annapurna conservation area) के पास के जंगलों का अध्ययन किया, जिसमें उन्होंने 700 से अधिक पेड़ों की उम्र और वृद्धि के पैटर्न को ट्रैक करने के लिए ट्री कोर सैंपलिंग (tree core sampling) जैसी तकनीकों का उपयोग किया। उनके निष्कर्ष बताते हैं कि भोजपत्र के पेड़ों का प्रजनन 1920 से 1970 के बीच अपने चरम पर था, लेकिन इसके बाद इसमें गिरावट आई है। वहीं, देवदार के पेड़ वर्तमान गर्म होते माहौल में तेज़ी से फल-फूल रहे हैं। अनुमान है कि 2100 तक, बदलते तापमान व जलवायु के विभिन्न परिदृश्यों में, देवदार के पेड़ ऊंचे इलाकों की ओर बढ़ते रहेंगे, जबकि भोजपत्र या तो स्थिर रहेंगे या कम हो सकते हैं।
शोधकर्ता बताते हैं कि इस परिवर्तन के दुष्परिणाम भी सामने आएंगे। बर्फीले तेंदुए (snow leopard) जैसे प्राणियों को शिकार के लिए खुले स्थानों की ज़रूरत होती है। जंगल का विस्तार इनके प्राकृतवासों (habitat) को घटा रहा है। साथ ही, स्थानीय पशुपालकों के लिए आवश्यक चारागाहों (grazing land) पर पेड़ अतिक्रमण कर रहे हैं। लंगटांग घाटी जैसे क्षेत्रों में, स्थानीय लोग याक और भेड़ों के लिए ज़मीन वापस पाने के लिए पेड़ों को काट रहे हैं।
विशेषज्ञ मानते हैं कि ऐसे अध्ययन जंगल प्रबंधकों और स्थानीय समुदायों को इन बदलावों का अनुमान लगाने और उनके अनुसार खुद को ढालने में मदद करते हैं। यह शोध जलवायु परिवर्तन और इसके प्रकृति व मानवता पर पड़ने वाले प्रभावों को संभालने की ज़रूरत को रेखांकित करता है और हमें याद दिलाता है कि पारिस्थितिकी तंत्र के घटक परस्पर जुड़े हुए हैं और इन ऊंचे पहाड़ों में जीवन को बनाए रखने के लिए इनका संतुलन कितना महत्वपूर्ण है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.zx71z14/full/_20241206_on_himalaya_forest-1734125023083.jpg
प्लास्टिक प्रदूषण(plastic pollution) की बढ़ती समस्या को थामने के लिए लोगों में जागरूकता फैलाने के प्रयास करीब-करीब विफल ही रहे हैं। जो थोड़ी-बहुत सफलता मिलती है वह इसके उत्पादन(plastic production) की मात्रा के सामने फीकी है। प्रति वर्ष करीब 46 करोड़ टन नए प्लास्टिक(new plastic) का उत्पादन होता है, और 2060 तक इसका उत्पादन तिगुना होने की संभावना है। इसमें भी एक बार इस्तेमाल करके फेंक दिया जाने वाला प्लास्टिक अधिक होता है।
प्लास्टिक प्रदूषण को थामने के प्रयासों में सफलता बहुत सीमित रही है – कुल उत्पादन का महज़ 10 प्रतिशत प्लास्टिक ही पुनर्चक्रित (recycle) हो पाता है, बाकी समुद्रों में और यहां-वहां फेंक दिया जाता है। यह पर्यावरण(environment), जीव-जंतुओं(wildlife) और मानव स्वास्थ्य(human health) के लिए समस्या पैदा करता है।
ऐसे में स्थानीय, राज्य या राष्ट्र के स्तर पर किए जा रहे प्रयासों से बढ़कर वैश्विक स्तर(global level) पर कार्रवाई की ज़रूरत लगती है। इस प्रयास में वर्ष 2022 में दुनिया भर के देशों ने मिलकर प्लास्टिक प्रदूषण को थामने के लिए एक वैश्विक संधि(global treaty) के तहत प्लास्टिक प्रदूषण को थामने के लिए नियम-कायदे तय करने की शुरुआत की थी। पिछले दिनों, दक्षिण कोरिया के बुसान में 175 देशों के वार्ताकार इस संधि के पांचवें और अंतिम सत्र के लिए एकत्रित हुए थे। उम्मीद की जा रही थी कि दक्षिण कोरिया के बुसान में जारी वार्ता के परिणामस्वरूप दुनिया को प्लास्टिक प्रदूषण से बचाने के लिए एक सशक्त संधि मिलेगी। लेकिन 1 दिसंबर को वार्ता बगैर किसी निर्णय के समाप्त हो गई। हालांकि, वैश्विक स्तर पर सहमति बनने तक कई शहर और देश अपनी-अपनी नीतियां बना रहे हैं।
बैठक में आए सभी प्रतिनिधियों के अपने-अपने मत हैं। वैज्ञानिकों समेत सहित कुछ समूह चाहते हैं कि गैर-ज़रूरी (non-essential plastic) प्लास्टिक के उत्पादन को कम किया जाए, जो तेज़ी से अनियंत्रित स्तर तक बढ़ गया है। लेकिन कुछ राष्ट्र, विशेष रूप से पेट्रोकेमिकल्स उत्पादनकर्ता राष्ट्र (petrochemical-producing nations) चाहते हैं कि संधि में उत्पादन रोकने की बजाय रीसाइक्लिंग सहित अपशिष्ट प्रबंधन पर अधिक ज़ोर हो।
अब तक, 90 से ज़्यादा देशों ने एक बार उपयोग वाले प्लास्टिक उत्पादों (जैसे पोलीथीन थैलियों) (single use plastic) पर पूर्ण या आंशिक प्रतिबंध लगाया है। ये प्रतिबंध काफी प्रभावी हो सकते हैं। एक विश्लेषण बताता है कि पांच अमेरिकी राज्यों और शहरों में इस तरह के प्रतिबंधों ने प्रति वर्ष एक बार उपयोग की जाने वाली लगभग छह अरब पोलीथीन थैलियों की खपत में कमी की है। जलनिकास मार्ग/जलमार्गों में बहने/फंसने वाले प्लास्टिक में भारी कमी भी दिखाई दी है।
प्लास्टिक उपयोग पर शुल्क वसूलना (plastic tax) भी काम कर सकता है। यूके में एक सर्वेक्षण में पाया गया है कि एक बार उपयोग वाली थैलियों के उपयोग पर शुल्क लगाने के बाद समुद्र तटों पर प्लास्टिक की थैलियों की संख्या में 80 प्रतिशत की कमी आई, हालांकि इससे अन्य तरह का कूड़ा बढ़ गया है।
खराब डिज़ाइन किए गए या लागू किए गए प्रतिबंध अप्रभावी होने की संभावना भी होती है। इसका एक उदाहरण कैलिफोर्निया में देखने को मिला है: वहां दुकानों को मोटी और पुन: उपयोग (reusable plastic bags) की जा सकने वाली प्लास्टिक थैलियों का इस्तेमाल करने की अनुमति दी गई थी – लेकिन लोगों ने पुन: उपयोग करने के बजाय उन्हें भी फेंक दिया, जिससे पहले की तुलना में प्लास्टिक कचरा बढ़ गया। इसलिए लागू की जानी वाली नीतियों की सतत निगरानी और समीक्षा की ज़रूरत है।
फिर, कई देशों में प्लास्टिक पैकेजिंग निर्माता (plastic packaging manufaturers) कंपनियों से उनके द्वारा बनाए गए प्लास्टिक को पुनर्चक्रित करने के लिए पैसा लिया जाता है। ऐसा करने से पुनर्चक्रण की दर बढ़ी है। जैसे स्पेन ने ‘उत्पादक की विस्तारित ज़िम्मेदारी’ (extended producer responsibility) नीति शुरू की, जिससे कागज़ और प्लास्टिक के पुनर्चक्रण की दर 5 प्रतिशत से बढ़कर 81 प्रतिशत हो गई है। ऐसी नीतियों का उद्देश्य कंपनियों को अपनी पैकेजिंग को नए सिरे से, नए तरीके से डिज़ाइन करने के लिए प्रोत्साहित करना भी है। लेकिन चूंकि पैकेज़िंग के लिए अधिकांश शुल्क वज़न के हिसाब से लिया जाता है इसलिए यह तरीका मुख्य रूप से सिर्फ पैकेजिंग की मात्रा को कम करने में प्रभावी होता है, न कि पैकेजिंग की सामग्री को बदलने में। विशेषज्ञों का सुझाव है कि ऐसी नीतियां अधिक कारगर हो सकती हैं जो पैकेजिंग को पुनर्चक्रित सामग्री से बनाने का प्रोत्साहन देती हों। जैसे यूके में प्लास्टिक उत्पादकों को प्रति टन प्लास्टिक पर कर देना होता है, लेकिन सिर्फ उन उत्पादों पर जिन्हें बनाने में 30 प्रतिशत से कम पुनर्चक्रित सामग्री का इस्तेमाल किया गया हो। ऐसे प्रोत्साहन प्लास्टिक मांग की सही तरीके से आपूर्ति कर सकते हैं।
ज़ाहिर है, हर नीति के कुछ फायदे-नुकसान होते हैं। पुनर्चक्रण की नीतियों में भी ऐसा ही देखने को मिलता है; इनसे पुनर्चक्रण केंद्र और पुनर्चक्रण की दर तो बढ़ जाती है लेकिन पुनर्चक्रण कर्मचारियों के लिए सुरक्षा मानक न के बराबर होते हैं।
प्लास्टिक प्रदूषण के सबसे खतरनाक रूपों में से एक है माइक्रोप्लास्टिक(microplastic)। प्लास्टिक के बारीक-बारीक टुकड़े जो कार के टायरों के घिसने से, कपड़ों की धुलाई से या सौंदर्य प्रसाधनों आदि के उपयोग से पर्यावरण में झड़ते रहते हैं। ऐसा अनुमान है कि हर साल समुद्र में छोड़े जाने वाले करीब 10 लाख टन प्लास्टिक में 15-31 प्रतिशत माइक्रोप्लास्टिक होता है। इसे कम करने के प्रयास में कई देशों ने सौंदर्य प्रसाधनों में माइक्रोबीड्स के उपयोग पर प्रतिबंध लगा दिया है, जिससे कंपनियों पर इनका उपयोग बंद करने के लिए दबाव पड़ा है।
फ्रांस पहला ऐसा देश है जिसने नई वाशिंग मशीनों (washing machine) में माइक्रोफाइबर फिल्टर (microfiber filter) अनिवार्य कर दिया है। परीक्षणों में एक तरह का फिल्टर 75 प्रतिशत तक माइक्रोफाइबर कम करने में कारगर रहा। हालांकि कपड़ों में मौजूद माइक्रोप्लास्टिक के प्रसार को थामने के लिए फिल्टर लगाना बहुत प्रभावी उपाय नहीं है क्योंकि कपड़े पहनते-रखते समय भी करीब उतने ही महीन रेशे झड़ते हैं। और तो और, फिल्टर से निकाल कर भी रेशे पर्यावरण में ही कहीं फेंके जाएंगे। इसलिए बेहतर होगा कि कपड़ों को बनाने के तरीके में बदलाव किए जाएं, लेकिन राष्ट्रीय कानूनों के ज़रिए यह मुश्किल ही साबित हुआ है। इस तरह की अड़चनों और बाधाओं को कम करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय संधि (international treaty) आवश्यक है। राष्ट्र संघ (United Nations) का प्रस्ताव था कि सभी राष्ट्र एक संधि पर सहमत हों। लेकिन कई मुद्दों पर राष्ट्रों के बीच मतभेदों के चलते वार्ता टूट गई। अब बात वार्ता के अगले दौर तक के लिए टल गई है जो अगले साल होगा। (स्रोत फीचर्स)
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जलवायु परिवर्तन (climate change) के कारण हिमालय (Himalayas) की ऊंचाइयों में हिमनद झीलें (glacial lakes) तेज़ी से फैल रही हैं, जिससे नीचे के इलाकों में विनाशकारी बाढ़ (catastrophic floods) का खतरा बढ़ रहा है। एक हालिया अध्ययन में पाया गया है कि 2011 के बाद से भारत, चीन, नेपाल और भूटान (India, China, Nepal, Bhutan) में निरीक्षण की गई 902 हिमनद झीलों (lake expansion) में से आधी से अधिक का क्षेत्रफल बढ़ता जा रहा है। बर्फ और हिमनदों के पिघलने से निर्मित इन झीलों का क्षेत्रफल अब तक 11 प्रतिशत तक बढ़ा है, जबकि कुछ झीलें तो 40 प्रतिशत से अधिक फैल गई हैं।
यह चिंताजनक स्थिति वैश्विक तापमान (global warming) वृद्धि से जुड़ी है, जो हिमनदों के पिघलने की गति को तेज़ कर रही है। इन झीलों को अक्सर बर्फ और गिट्टियों जैसी नाज़ुक प्राकृतिक बाधाएं रोके रखती हैं, जो अचानक टूट सकती हैं और खतरनाक बाढ़ ला सकती हैं। इन्हें ‘आउटबर्स्ट फ्लड्स’ (outburst floods) कहा जाता है। बीते दशक में हिमालयी क्षेत्र में ऐसी घटनाओं ने भारी विनाश और जान-माल का नुकसान किया है। इन बाढ़ों की अप्रत्याशित प्रकृति के चलते हिमनद झीलों, खासकर छोटी लेकिन खतरनाक झीलों, की सख्त निगरानी (strict monitoring) निहायत आवश्यक है।
उपग्रह (satellite) और हवाई सर्वेक्षण (aerial surveys) इन परिवर्तनों को ट्रैक करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं। इसरो (ISRO) ने एक अन्य अध्ययन में पाया है कि 1984 से 2016 के बीच अध्ययन की गई 2400 से अधिक झीलों में से लगभग 28 प्रतिशत झीलों के आकार में वृद्धि हुई है।
भारत सरकार (indian government) ने हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश (Himachal Pradesh, Uttarakhand, Sikkim, Arunachal Pradesh) में इन जोखिमों से निपटने के लिए 150 करोड़ रुपए की योजना शुरू की है। इसके तहत, झीलों की संवेदनशीलता (lake vulnerability) का आकलन और सुरक्षा उपाय (safety measures) लागू करने के प्रयास किए जा रहे हैं। इनमें निगरानी प्रणाली स्थापित करना और जल धारा का मार्ग बदलने के लिए चैनल (water channeling) बनाना शामिल है। इसके आलावा सिक्किम में शोधकर्ताओं ने सर्वाधिक जोखिम वाली झीलों (high risk lakes) के लिए प्राथमिकता के आधार पर रोकथाम रणनीतियां (prevention strategies) तैयार की हैं।
आपदा प्रबंधन अधिकारी (disaster management officials) इन झीलों के नीचे स्थित बांधों (dams) की तैयारियों का आकलन कर रहे हैं। 47 चिंहित बांधों में से 31 की रिपोर्ट में यह जांच की जा रही है कि उनके स्पिलवे संभावित बाढ़ का सामना कर सकते हैं या नहीं। पूर्वी हिमालय पर किए गए हालिया अध्ययन में बताया गया है कि ऐसी बाढ़ों से 10,000 से अधिक लोग, 2000 बस्तियां, पांच पुल और दो पनबिजली संयंत्र खतरे में पड़ सकते हैं।
भौगोलिक स्थिति (geographical factors) और अंतर्राष्ट्रीय सरहदों (international borders) के लिहाज़ से इन झीलों के जलग्रहण क्षेत्र कई देशों में फैले हुए हैं। इसके लिए विशेषज्ञ हिमालयी देशों के बीच सीमापार सहयोग (joint efforts) की आवश्यकता पर ज़ोर देते हैं। इस नाज़ुक क्षेत्र में जीवन, बुनियादी ढांचे और पारिस्थितिक तंत्र पर बढ़ते खतरों से निपटने के लिए संयुक्त प्रयासों और सतत सतर्कता की आवश्यकता है। (स्रोत फीचर्स)
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क्या आप ऐसे बिनबुलाए-अनचाहे मेहमानों को जानते हैं जो आपके घर आते हैं, आपके घर को बिलकुल अपना ही घर समझते हैं, आराम से रहते (या पसर जाते) हैं, और जाने का नाम ही नहीं लेते, आप चाहे जो कर लें? खैर, प्रकृति में भी ऐसे ‘मेहमान’ होते हैं जिनमें पौधों (plants), पक्षियों (birds), जंतुओं (animals), कीटों (insects) और यहां तक कि सूक्ष्मजीवों (microorganisms) की कई प्रजातियां शामिल हैं। हम अक्सर ‘देशज’ (native species) और ‘गैर-देशज’ (non-native species) शब्द सुनते रहते हैं। ‘देशज’ प्रजातियां वे हैं जो किसी क्षेत्र में नैसर्गिक रूप से पाई जाती हैं, और वहां की परिस्थितियों के अनुसार विकसित और अनुकूलित होती हैं। ‘गैर-देशज’ प्रजातियां – जिन्हें बाहर से प्रविष्ट (introduced species), विदेशी (exotic species) या बाहरी प्रजातियां भी कहा जाता है – या तो इरादतन किसी ऐसे क्षेत्र में लाई जाती हैं जहां वे नैसर्गिक रूप से नहीं पाई जाती हैं या संयोगवश वहां पहुंच जाती हैं। उदाहरण के लिए, आज हमारे खान-पान का हिस्सा बन चुके कई फल (fruits) और सब्ज़ियां (vegetables) पारंपरिक रूप से भारत में नहीं पाई जाती थीं। आलू (potato) को ही लें – यह दक्षिण अमेरिका (South America) के एंडीज़ क्षेत्र (Andes region) का मूल निवासी है और आज भारत सहित पूरी दुनिया के व्यंजनों में इसका खूब उपयोग होता है। या इमली (tamarind) को ही लें, जो मध्य अफ्रीका (Central Africa) की देशज है, इसे हज़ारों साल पहले भारत लाया गया था और आज यह हमारे शोरबों और चटनियों (soups and chutneys) का अभिन्न हिस्सा है। लेकिन ऐसी अन्य प्रजातियां भी हैं जिनका जाने-अनजाने, किसी भी तरह से, आना हमेशा उपयोगी नहीं होता। इन्हें विदेशी आक्रामक प्रजातियां (invasive alien species) कहा जाता है। वे किसी स्थान पर आती हैं, वहां बस जाती हैं और सबसे महत्वपूर्ण बात – अनुकूल पारिस्थितिक परिस्थितियों (favorable ecological conditions) और अपने शिकारियों (predators) की अनुपस्थिति में – स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र (local ecosystem) और लोगों को नुकसान पहुंचाते हुए फैलती रहती हैं।
आम तौर पर यह बताना मुश्किल होता है कि इनमें से कई आक्रामक प्रजातियां ठीक किस समय आई थीं, या क्यों/कैसे लाई गई थीं। लेकिन युरोपीय औपनिवेशिक उद्यम (European colonial enterprise) के लिए विभिन्न महाद्वीपों (continents) पर जहाज़ों (ships) द्वारा किए गए आवागमन ने आक्रामक प्रजातियों के फैलने में अहम भूमिका निभाई है। हो सकता है कि या तो बाहरी आक्रामक प्रजातियों को सजावटी पौधों (ornamental plants) या पालतू जानवरों (pets) के रूप में इरादतन लाया गया हो, और उन्हें या तो परिवेश में जानबूझकर छोड़ दिया गया हो या वे निकल भागी हों। या यह भी हो सकता है कि वे आवागमन के वाहनों (transportation vehicles) में या तो गलती से सवार होकर आ गई हों, या बीजों/अनाजों (seeds/grains) जैसे अन्य उत्पादों में गिरकर/मिलावट के रूप में आ गई हों। पौधे, सूक्ष्मजीव (microbes), मछलियां (fish), क्रस्टेशियन्स (crustaceans), पक्षी, सरीसृप (reptiles) – सभी अपने मूल क्षेत्रों (native regions) से दुनिया के विभिन्न हिस्सों में हम मनुष्यों के साथ यात्रा कर चुके हैं (पेत्र पाइसेक एवं साथी, 2020; जूली लॉकवुड, 2023)।
यह अनुमान लगाना मुश्किल है कि आज दुनिया भर में कितनी प्रजातियों को आक्रामक (invasive species) के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। आक्रामक प्रजातियों और उनके जैविक प्रभावों (biological impacts) की सूची तैयार करने का एक प्रयास है ग्लोबल रजिस्टर ऑफ इन्ट्रोड्यूस्ड एंड इनवेसिव स्पीशीज़ (Global Register of Introduced and Invasive Species)। यह काम प्रगति पर है, और अब तक इस रजिस्टर में 20 देशों की 11,000 प्रजातियां दर्ज की जा चुकी हैं, जिनमें थलीय (terrestrial) और समुद्री (marine) दोनों किस्म की प्रजातियां शामिल हैं। यह आंकड़ा जैविक घुसपैठ के परिमाण का एक अंदाज़ा देता है (श्यामा पगड़ एवं साथी, 2018)।
लेकिन आक्रामक प्रजातियों (invasive species) को लेकर इतना शोर क्यों? चिंता इसलिए है क्योंकि आलू (potato) और इमली (tamarind), जिनके बिना हम आज अपने व्यंजनों (cuisines) की कल्पना भी नहीं कर सकते, के विपरीत विदेशी आक्रामक प्रजातियां (invasive alien species) प्रतिकूल पर्यावरणीय (environmental), सामाजिक (social) और आर्थिक (economic) कीमत के साथ आती हैं – और ये सभी समस्याएं आपस में जुड़ी हुई हैं।
भारत में, सबसे आम आक्रामक पौधों (invasive plants) में से एक लैंटाना (lantana) है। ऐसा माना जाता है कि लैंटाना को 1807 में बागड़ बांधने वाले सजावटी पौधे (ornamental plants) के रूप में भारत में लाया गया था (जी.सी.एस. नेगी एवं साथी, 2019)। इसके छोटे बहुरंगी फूलों (multicolored flowers) के कारण यह वास्तव में बहुत सुंदर दिखता है। लेकिन इसकी सुंदरता से इतर, लैंटाना पूरे देश में तेज़ी से फैल गया है और पारिस्थितिकी तंत्र (ecosystem) के लिए इसके विनाशकारी परिणाम (devastating consequences) सामने आए हैं। बिलिगिरी रंगास्वामी वन्यजीव अभयारण्य (Biligiri Rangaswamy Wildlife Sanctuary) और टाइगर रिज़र्व (Tiger Reserve) में लैंटाना इतने बड़े पैमाने पर फैल गया है कि देशज पादप प्रजातियां (native plant species), जिन पर जंगली जानवर (wild animals) भोजन के लिए निर्भर हैं, कम हो गईं हैं। नतीजतन जंगली जानवर सोलिगा आदिवासियों (Soliga tribals) की फसलों (crops) पर धावा बोलने लगे हैं। सोलिगा लोगों ने यह भी कहा कि लैंटाना के फैलने की वजह से जंगल के खाद्य पदार्थों (forest foods) की वृद्धि कम हो गई है, जिन पर सोलिगा समुदाय (Soliga community) कभी निर्भर थे (सीमा मुंडोली एवं साथी, 2016)।
जलकुंभी (water hyacinth) एक अन्य आक्रामक प्रजाति (invasive species) है, जो बहुतायत में दिखती है। इसने आर्द्रभूमि (wetlands) और जल राशियों (water bodies) पर कब्ज़ा जमा लिया है और उनका दम घोंट दिया है – इसके नाज़ुक बैंगनी फूलों (delicate purple flowers) के (सुंदर) चंगुल में न फंसना! दक्षिण अमेरिका (South America) का मूल निवासी यह पौधा न सिर्फ भारत में बल्कि पूरी दुनिया में सबसे आक्रामक पौधों (aggressive plants) में से एक माना जाता है। जलकुंभी पानी की सतह (water surface) को हरे रंग की चादर (green sheet) से पूरी तरह ढंक देती है जो प्रकाश (light) को पानी में प्रवेश नहीं करने देती है, जिससे पानी में ऑक्सीजन (oxygen) की कमी हो जाती है और यह स्थिति मछलियों (fish) की मौत (death) का कारण बनती है। जलकुंभी किसान (farmers) और मछुआरों (fishermen) की भी दोस्त नहीं है और इससे छुटकारा पाने के लिए काफी अधिक समय (time), श्रम (labour) और धन (money) लगाना पड़ता है।
पारिस्थितिकी तंत्र (ecosystem) और आजीविका (livelihood) को प्रभावित करने के अलावा आक्रामक विदेशी प्रजातियां (invasive alien species) स्वास्थ्य (health) के लिए भी जोखिम (risk) पैदा करती हैं। पीत ज्वर फैलाने वाले येलो फीवर मच्छर (Aedes aegypti) संभवत: 500 साल पहले अफ्रीका (Africa) से बाहर निकले और हाल के दशकों में दुनिया भर में तेज़ी से फैल रहे हैं (जोशुआ सोकोल, 2023)। यह प्रजाति डेंगू (dengue) और चिकनगुनिया (chikungunya) वायरस (viruses) की वाहक (vectors) है। हाल ही में भारत (India) के विभिन्न क्षेत्रों में इन बीमारियों (diseases) का प्रकोप (outbreak) चिंता का विषय रहा है (रेड्डी एवं साथी, 2023)। इसी तरह, विशाल अफ्रीकी घोंघा (Giant African Snail), जिसे दुनिया की 100 सबसे आक्रामक प्रजातियों (invasive species) में से एक के रूप में वर्गीकृत किया गया है, न केवल फसलों (crops) को नष्ट (destroy) करता है बल्कि मेनिन्जाइटिस (meningitis) का कारण (cause) बनता है, जो जानलेवा (deadly) हो सकता है।
वास्तव में हम यह पूरी तरह नहीं जानते कि वर्तमान में भारत (India) में ऐसी कितनी बाह्य आक्रामक प्रजातियां (foreign invasive species) मौजूद हैं, लेकिन पारिस्थितिकी तंत्र (ecosystem), आजीविका (livelihood) और मानव स्वास्थ्य (human health) पर उनके प्रभावों (impacts) का दस्तावेज़ीकरण (documentation) किया जा चुका है। आर्थिक दृष्टि से (economic perspective), यह अनुमान लगाया गया है कि 1960 से 2020 के बीच आक्रामक प्रजातियों (invasive species) ने भारतीय अर्थव्यवस्था (Indian economy) को 8.3 से 11.9 लाख करोड़ रुपए (8.3 to 11.9 trillion rupees) के बीच नुकसान (loss) पहुंचाया है – और हो सकता है कि वास्तविक नुकसान (real loss) कहीं अधिक हो। (अलोक बंग एवं साथी, 2022)।
लेकिन क्या आक्रामक प्रजातियों (invasive species) का कोई उपयोग (use) भी है? यह बात प्रजाति-प्रजाति (species-wise) पर निर्भर (depends) करती है। ऐसे उदाहरण (examples) भी हैं जहां कोई आक्रामक प्रजाति (invasive species) स्थानीय आबादी (local population) के लिए फायदेमंद (beneficial) साबित हुई है, भले ही वह उस क्षेत्र (region) की पारिस्थितिकी (ecology) के लिए फायदेमंद न रही हो। दक्षिण अमेरिका (South America) की मेसक्वाइट (mesquite) को 1817 में चारे (fodder) और ईंधन (fuel) के स्रोत (sources) के रूप में भारत (India) लाया गया था। कच्छ, गुजरात (Kutch, Gujarat) के बन्नी घास के मैदान (grasslands) के स्थानीय समुदाय (local communities) घास की कई प्रजातियों (grasses) के बीज (seeds) खाते थे। लेकिन मेसक्वाइट, जिसे स्थानीय रूप से गांडा (pugal) बबूल (Acacia) नाम से जाना जाता है, के आने और फैलने (spread) से घास के मैदानों (grasslands) का ह्रास (degradation) हुआ और खाने योग्य घास की प्रजातियां (edible grass species) खत्म (extinct) हो गई हैं। लेकिन, स्थानीय लोग गांडा बबूल की लकड़ी (wood) जलाकर कोयला (coal) बनाते हैं और अतिरिक्त आय (additional income) कमाते हैं। पेड़ से निकलने वाला रस (sap) कैंडी (candy) की तरह चूसा जाता है (ए.पी.रहमान, 2024).
एक और आक्रामक प्रजाति (invasive species), एलेगेटर वीड (alligator weed), पशुओं (livestock) के लिए बेहतरीन चारा (fodder) माना जाता है। बेंगलुरु (Bengaluru) के इर्द-गिर्द की झीलों (lakes) की सतह (surface) पर तैरती एलेगेटर वीड (Alligator weed) को पशुपालक (herders) पैदल या नाव (boat) से घूमकर इकट्ठा (collect) करते हैं।
लेकिन इस बात से इन्कार (deny) नहीं किया जा सकता कि आक्रामक प्रजातियां (invasive species) मुख्य रूप से स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र (local ecosystem) पर, लोगों के स्वास्थ्य (human health) पर और देश (country) की अर्थव्यवस्था (economy) पर प्रतिकूल (adverse) प्रभाव डालती हैं। माना जाता है कि उन्होंने 16 प्रतिशत प्रजातियों (species) की विलुप्ति (extinction) में योगदान (contribution) दिया है, और अब भी पूरे विश्व (worldwide) की जैव विविधता (biodiversity) के लिए एक बड़ा खतरा (major threat) बनी हुई हैं (के. स्मिथ, 2020)। और, जैव विविधता (biodiversity) पर ही तो हमारा अस्तित्व (existence) टिका है।
आज, हम आक्रामक प्रजातियों (invasive species) के फैलाव (spread), प्रभावों (impacts) और कीमतों/नुकसान (costs/damages) को समझने की जटिल चुनौतियों (challenges) से जूझ रहे हैं, जलवायु परिवर्तन (climate change) का दौर इन चुनौतियों (challenges) को और भी बढ़ा देगा। प्रजातियां (species) बदलती जलवायु परिस्थितियों (climate conditions) से बचने के लिए स्वाभाविक रूप से अपने इलाकों (habitats) को बदलेंगी। हम यह नहीं जानते (don’t know) कि इनमें से कितनी प्रजातियां (species) नई जगहों (new places) पर जाकर आक्रामक (become invasive) हो जाएंगी। इस बीच हम केवल इतना ही कर सकते हैं कि प्रजातियों (species) को गैर-देशज (non-native) आवासों (habitats) में लाने से सम्बंधित कायदे-कानून (laws) कायम रखें और जितना संभव हो. आक्रामक प्रजातियों (invasive species) के प्रसार (spread) को नियंत्रित (control) करें, और मेहमानों (guests) के रूप में छिपे इन नुकसानदेहों (harmful ones) पर कड़ी निगाह रखें। (स्रोत फीचर्स)
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करीब 41,000 साल पहले, जब ऑस्ट्रेलिया वर्तमान के तस्मानिया (Tasmania) द्वीप से एक भूभाग के माध्यम से जुड़ा हुआ था, तब पहली बार कुछ मनुष्य इस भूभाग से होते हुए लुट्रुविता (Lutruwita) आए थे। और अपने साथ लाए थे – आग (Fire)। साइंस एडवांसेस (Science Advances) में प्रकाशित हालिया अध्ययन बताता है कि आग के इस आगमन ने यहां के परिदृश्य को पूरी तरह बदल दिया।
समय के साथ साल-दर-साल ज़मीन पर धूल-मिट्टी-गाद वगैरह की परत जमा होती जाती है, और इसी के साथ जमा होती जाती हैं उस समय की निशानियां। इन परतों को खोदकर, उनका अवलोकन करके वैज्ञानिक प्राचीन काल की परिस्थितियों, भूदृश्यों, जीवन, आदतों वगैरह को समझने का प्रयास करते हैं। ऐसा ही कुछ समझना चाह रहे थे तस्मानियाई आदिवासी केंद्र (Tasmanian Aboriginal Centre) के सदस्य, जो आदिवासी भूमि प्रबंधन (Indigenous Land Management) करते हैं और पारंपरिक जंगल दहन (Traditional Burning Practices) जैसी प्रथाओं के समर्थक हैं।
दरअसल 2014 में क्लार्क द्वीप (Clarke Island) के जंगलों में भीषण आग (Wildfire) फैल गई थी। और ऐसा पहली बार नहीं हुआ था। दरअसल 18वीं और 19वीं शताब्दी में यूरोपीय उपनिवेशवादियों (European Colonizers) के आगमन के बाद, पारंपरिक तरीके से जंगल न जला पाने के कारण, वहां के जंगलों में भड़कने वाली आग के बेकाबू और विनाशकारी हो जाने के बढ़े हुए मामलों से वहां के आदिवासी समुदाय और वैज्ञानिक चिंतित हैं। इसलिए वे जानना चाहते थे कि क्या आधुनिक आग अतीत की आग की तुलना में अधिक उग्र या भीषण होती है?
यह समझने के लिए उन्होंने ऑस्ट्रेलियाई राष्ट्रीय विश्वविद्यालय (Australian National University) की जीवाश्म विज्ञानी सिमोन हेबरले (Simone Haberle) और उनके दल को न्यौता दिया। शोधकर्ताओं ने लुट्रुविता के उत्तर-पूर्वी छोर पर स्थित क्लार्क द्वीप की एक झील के पेंदे से प्राचीन तलछट में से 4 मीटर लंबा बेलनाकार नमूना (Sediment Core Sample) खोदकर निकाला। इसमें अलग-अलग समय पर जमा हुई तलछट की परतें स्पष्ट थीं। कार्बनिक पदार्थों की रेडियोकार्बन डेटिंग (Radiocarbon Dating) कर अलग-अलग परतों का काल निर्धारण किया गया – बेलन की सबसे निचली परत लगभग 50,000 साल पुरानी थी।
विश्लेषण में शोधकर्ताओं को करीब 41,600 साल पुरानी मिट्टी में चारकोल (Charcoal) की बहुत अधिक मात्रा मिली है, जिसके आधार पर उनका कहना है कि इस समय इस क्षेत्र में आग लगने की घटनाएं बढ़ गई थीं, जो संभवत: मनुष्यों द्वारा आसपास की वनस्पति जलाने के संकेत हैं। यह तकरीबन वही समय है जब समुद्र का स्तर घटने की वजह से ऑस्ट्रेलिया से लुट्रुविता के बीच एक ज़मीनी गलियारा (Land Bridge) बन गया था, जिसे पार करते हुए मनुष्य पहली बार लुट्रुविता द्वीप तक आए थे।
हालांकि ऐसा लग सकता है कि चारकोल (Charcoal) की अधिक मात्रा का कारण उस समय तापमान (Temperature), या सूखा (Drought), या इन दोनों में उछाल हो, लेकिन उस समय यहां ऐसे किसी बड़े जलवायु परिवर्तन (Climate Change) के कोई साक्ष्य नहीं मिले हैं, इसलिए ये कारण खारिज हो जाते हैं। और चारकोल की अधिकता का एक संभावित कारण मनुष्य (Humans) ही लगता है, जिसने अपनी ज़रूरत के लिए आग (Fire) लगाई होगी। ज़रूरत संभवत: ऐसी भूमि बनाने की थी जो अधिक खाद्य पदार्थ (Food Resources) दे सके – या तो वहां खाने लायक पेड़-पौधों (Edible Plants) की उपज बढ़ा कर, या खुले घास के मैदानों (Open Grasslands) में वॉलेबी (Wallaby) और कंगारू (Kangaroo) जैसे जानवरों को आकर्षित करके, जिनका शिकार करना अपेक्षाकृत आसान होता है।
विभिन्न समय की परतों में मिले विभिन्न तरह के परागकणों (Pollen Grains) के अनुपात में बदलाव भी देखा गया जो बताता है कि आग की घटनाएं बढ़ने के (लगभग 1600 साल) बाद इस क्षेत्र में पाई जाने वाली वनस्पतियों की विविधता (Plant Diversity) में बदलाव आया। जिन पेड़ों के में आग झेलने की क्षमता कम थी (जैसे चीड़ – Pine) उनके परागकण नाटकीय रूप से कम हो गए लेकिन आग के प्रति सहनशील पेड़ (जैसे नीलगिरी – Eucalyptus), झाड़ियां (Shrubs) और घास (Grass) बहुतायत में फैलने लगे। दूसरे शब्दों में, कहा जाए तो घने जंगलों (Dense Forests) की जगह खुले घास के मैदानों ने ले ली।
अध्ययन में लुट्रुविता (Lutruwita) के एक अन्य द्वीप हम्मोक (Hammock) से भी नमूने लिए गए थे, जो लुट्रुविता के उत्तर-पश्चिमी तट पर स्थित है। दोनों स्थानों के नमूनों की तुलना में पता चलता है कि अधिक घने जंगल वाले क्लार्क द्वीप (Clarke Island) की तुलना में इस द्वीप पर चारकोल (Charcoal) का स्तर धीमे-धीमे बढ़ा। इससे पता चलता है कि यहां के प्राचीन मनुष्य (Ancient Humans) विरल वनों (Sparse Forests) की तुलना में घने वनों में अधिक आग जलाते थे – शायद जंगलों का घनापन (Forest Density) कम करने के लिए।
ये नतीजे उन साक्ष्यों का समर्थन करते हैं जो कहते हैं कि प्रारंभिक मानव (Early Humans) जहां जाते हैं, पहले वहां आग के रूप में अपनी छाप छोड़ते हैं और फिर वहां का परिदृश्य (Landscape) बदल जाता है। संभवत: ये नतीजे तस्मानिया (Tasmania) की परिस्थिति में बेकाबू भड़कने वाली आग (Uncontrolled Wildfires) पर नियंत्रण के लिए पारंपरिक दहन (Traditional Burning) के उपयोग का समर्थन करें, लेकिन इन नतीजों के आधार पर अन्यत्र वन दहन की नीति (Forest Fire Management Policy) बनाने में सावधानी बरतनी चाहिए। (स्रोत फीचर्स)
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अज़रबैजान के बाकू नगर में नवंबर 11 से 22 तक जलवायु परिवर्तन का 29वां महासम्मेलन (Climate Change Conference) (जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र संघ फ्रेमवर्क कंवेंशन का सम्मेलन) आयोजित हो रहा है। इस महासम्मेलन से पहले संयुक्त राष्ट्र संघ पर्यावरण कार्यक्रम (UN Environment Program) (यूनेप) ने अपनी वार्षिक उत्सर्जन रिपोर्ट (Emissions Report) जारी की है। इसके अनुसार विश्व स्तर पर ग्रीनहाऊस गैसों (Greenhouse Gases) के उत्सर्जन में जो कमी लानी है, उसकी रफ्तार को पहले से कहीं अधिक बढ़ाना होगा।
संयुक्त राष्ट्र संघ पर्यावरण कार्यक्रम ने बताया कि यदि तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री तक सीमित करने के लक्ष्य (Global Warming Limit) को प्राप्त करना है तो ग्रीनहाऊस गैसों (कार्बन डाईऑक्साइड, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड व कुछ फ्लोरिनेटिड गैसों) को कहीं अधिक तेज़ी से कम करना होगा। यदि ऐसा नहीं किया गया तो इस शताब्दी में तापमान वृद्धि 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित न रहकर 2.6 से 3.1 डिग्री सेल्सियस तक होगी। सवाल यह है कि महासम्मेलन में इस उद्देश्य के अनुरूप एजेंडा (Climate Action Agenda) कहां तक तैयार हो सकेगा।
जलवायु बदलाव के सम्मेलनों (Climate Change Summits) का नियमित समय पर होते रहना तो खैर अपनी जगह पर उचित है, पर साथ में इस सच्चाई का सामना भी करना पड़ेगा कि ऐसे 28 महासम्मेलनों के बावजूद हम जलवायु बदलाव के नियंत्रण के लक्ष्य से पिछड़ते जा रहे हैं। ग्रीनहाऊस गैसों पर समय रहते समुचित नियंत्रण (Emission Control) नहीं हो पा रहा है। दूसरी ओर, जलवायु बदलाव का बेहतर सामना कर पाने के लिए ज़रूरी अनुकूलन उपायों (Adaptation Measures) में भी समुचित सफलता नहीं मिल पा रही है बल्कि कुछ बदलाव तो ऐसे आ रहे हैं जिनसे अनुकूलन की स्थिति और विकट हो जाएगी। उदाहरण के लिए, कृषि क्षेत्र में व्यावसायिक हितों व बहुराष्ट्रीय कंपनियों का नियंत्रण (Corporate Control in Agriculture) विश्व के एक बड़े भाग में बढ़ता जा रहा है, व छोटे साधारण किसानों व किसान परिवारों की स्थिति कमज़ोर होती जा रही है, जो अनुकूलन की दृष्टि से चिंता का विषय है क्योंकि यदि छोटे किसान वैसे ही आर्थिक दृष्टि से कमज़ोर होंगे तो प्रतिकूल मौसम (Extreme Weather Conditions) की परिस्थितियों का सामना उनके लिए और कठिन हो जाएगा।
यदि अभी तक की विफलताओं का संतुलित आकलन किया जाए तो स्पष्ट होगा कि बड़ी कठिनाई दो अवरोधों (Major Barriers) के कारण आ रही है। ये दोनों समस्याएं एक-दूसरे से जुड़ी हुई भी हैं। पहली समस्या यह है कि विश्व के सबसे धनी देशों में स्थित कुछ बहुत शक्तिशाली व साधन-संपन्न बहुराष्ट्रीय कंपनियां (Multinational Corporations) अपने संकीर्ण स्वार्थ साधने के लिए जलवायु एजेंडा में गड़बड़ कर रही हैं। सबसे बड़ी ज़रूरत यह रही है कि जीवाश्म ईंधन (Fossil Fuels) को तेज़ी से कम किया जाए व इसके स्थान पर शाश्वत ऊर्जा स्रोतों (Renewable Energy Sources) को विकसित किया जाए। किंतु जीवाश्म ईंधन की सबसे बड़ी बहुराष्ट्रीय कंपनियां तरह-तरह की तिकड़में कर रही हैं ताकि उन्हें अपना व्यवसाय कम न करना पड़े (अपितु वे इसे और बढ़ा सकें); इसका प्रतिकूल असर जलवायु बदलाव नियंत्रण के प्रयासों (Climate Mitigation Efforts) पर पड़ रहा है। उसी तरह का व्यवहार कुछ अन्य बहुराष्ट्रीय कंपनियां भी कर रही हैं।
दूसरी बड़ी समस्या यह है कि धनी देशों में अभी यह सोच सही ढंग से नहीं आ पाई है कि पर्यावरण की रक्षा के लिए विलासिता भरी जीवन-शैली (Luxury Lifestyle) को कम करना भी ज़रूरी है। शराब, तंबाकू, हथियार, ज़हरीले रसायन से संबंधित कई उद्योग वैसे भी बहुत हानिकारक हैं व साथ में पर्यावरण की बहुत क्षति भी करते हैं, ग्रीनहाऊस उत्सर्जन भी बहुत करते हैं, पर इन हानिकारक उत्पादों (Harmful Products) को बहुत कम करने को पर्यावरण रक्षा का महत्वपूर्ण हिस्सा नहीं बनाया गया है। इस तथ्य को अधिक धनी देशों में या तो ठीक से समझा नहीं जा रहा है या इसकी अनदेखी की जा रही है कि यदि विलासिता के उत्पाद तेज़ी से बढ़ते रहे व अनेक हानिकारक उत्पाद भी बढ़ते रहे तो पर्यावरण की रक्षा कठिन है व ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन को भी कम करना कठिन होगा। इतना ही नहीं, अन्य देशों के अभिजात्य वर्ग में भी प्राय: यही प्रवृत्ति देखी गई है।
चूंकि आर्थिक दृष्टि से कमज़ोर वर्ग की बुनियादी ज़रूरतों (Basic Needs) को तो बेहतर ढंग से पूरा करना ही चाहिए, अत: कटौती तो विलासिता के उत्पादों व हानिकारक उत्पादों की ही करनी होगी। पर शक्तिशाली तत्व इसे स्वीकार नहीं कर रहे हैं, जिसके चलते पर्यावरण रक्षा व जलवायु बदलाव नियंत्रित करने में बाधाएं आ रही हैं।
अत: यह ज़रूरी है कि जलवायु बदलाव के संसाधनों (Climate Change Resources) को अधिक व्यापक बनाया जाए व विकास की ऐसी राह तलाशने का प्रयास किया जाए जो बुनियादी तौर पर पर्यावरण रक्षा के अनुकूल हो।
अभी स्थिति बहुत चिंताजनक बनी हुई है। इसका मुख्य कारण यह है कि बुनियादी तौर पर जीवन शैली बदलने (Lifestyle Changes), औद्योगीकरण आधारित विकास का मॉडल बदलने (Industrialization Model Change), उत्पादन व उपभोग में बड़े बदलाव लाने व समता तथा सादगी का आदर्श अपनाने की दृष्टि से जो मूल सुधार चाहिए, उस दिशा में दुनिया नहीं बढ़ रही है। जलवायु बदलाव के इस दौर में भी उपभोगवाद (Consumerism) छाया हुआ है। ग्रीनहाऊस गैसों का उत्सर्जन अधिक करने वाले उद्योगों के लिए किसानों की उपजाऊ भूमि को उजाड़ा जा रहा है, वनों और चारागाहों का विनाश किया जा रहा है। अब समय आ गया है कि जलवायु बदलाव का संकट कम करने की दृष्टि से पूरे विकास के मॉडल को बदलने पर गंभीरता से विश्व स्तर पर विचार किया जाए। अब यह पहले से और भी ज़रूरी है कि समता और सादगी (Equality and Simplicity) को विकास का मूल आधार बनाया जाए। यह भी पहले से और ज़रूरी हो गया है कि बड़े उद्योग और शहर आधारित अर्थव्यवस्था की अपेक्षा खेती-किसानी व गांव आधारित अर्थव्यवस्था (Rural Economy) को कहीं अधिक महत्व दिया जाए। हथियारों के उत्पादन व युद्ध की संभावना को न्यूनतम करना पहले से कहीं अधिक ज़रूरी हो गया है। विश्व स्तर पर ऐसी योजना बनाना ज़रूरी है जो ग्रीनहाऊस गैसों के उत्सर्जन में पर्याप्त कमी और सभी लोगों की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने के लक्ष्यों को जोड़ सके। (स्रोत फीचर्स)
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ग्लेशियर (Glaciers), पहाड़ों पर सघन रूप से जमी बर्फ के विशाल और मोटे आवरण होते हैं। ग्लेशियर गुरुत्वाकर्षण (gravity) और अपने स्वयं के वज़न के कारण खिसकते/ढहते रहते हैं; इस प्रक्रिया में रगड़ (friction) के चलते चट्टान (rock) टूट-फूट जाती हैं और मोरैन (Moraine) नामक मिश्रण में बदल जाती है। मोरैन में कमरे के आकार के बड़े-गोल पत्थरों (stones) से लेकर पत्थरों का बेहद महीन चूरा (rock flour) तक शामिल होते हैं। मोरैन ग्लेशियर के किनारों (edges) और अंतिम छोर पर जमा होता जाता है।
जब बर्फ (ice) पिघलने से ग्लेशियर सिकुड़कर पीछे हटते हैं तो वहां बना विशाल और गहरा गड्ढा (depression) पानी (water) से भर जाता है। ग्लेशियर के अंतिम छोर पर जमा मोरैन (moraine) अक्सर झील (lake) बनने के लिए एक प्राकृतिक बांध (natural dam) के रूप में काम करता है। इस तरह बनीं ग्लेशियर झीलें (glacial lakes) रुकावट के रूप में काम करती हैं – वे पिघलती हुई बर्फ (meltwater) से आने वाले पानी के प्रवाह (water flow) को नियंत्रित करती हैं। ऐसा प्रवाह अनियंत्रित हो तो झीलों के नीचे की ओर रहने वाले समुदायों (communities) को मुश्किलें हो सकती हैं।
आसमान से भी नीला
ग्लेशियर झीलों (glacial lakes) का नीला रंग (blue color) काफी हैरतअंगेज़ हो सकता है। इसकी थोड़ी तुलना ऐसे स्वीमिंग पूल (swimming pool) से की जा सकती है जिसका पेंदा नीला पेंट किया गया हो। यह प्रभाव झील के पानी (lake water) में निलंबित पत्थरों के चूरे (rock flour) के महीन कणों द्वारा प्रकाश (light) के प्रकीर्णन (scattering) के कारण होता है। हिमालय क्षेत्र (Himalayan region) में भी फिरोज़ी रंग की कुछ ग्लेशियर झीलें (glacial lakes) देखने को मिलती हैं।
शांत गुरुडोंगमार झील (Gurudongmar Lake) उत्तरी सिक्किम (North Sikkim) में समुद्र तल से 5430 मीटर की ऊंचाई (altitude) पर स्थित है, और यह दुनिया की सबसे ऊंची झीलों (highest lakes) में से एक है। मोरैन-बांध (moraine dam)-वाली इस झील से निकली जल धाराएं (water streams) आगे जाकर तीस्ता नदी (Teesta River) बनाती है। पैंगोंग त्सो झीलों (Pangong Tso) की 134 किलोमीटर की शृंखला (lake chain) है जो लद्दाख (Ladakh) और चीन (China) के बीच विवादित बफर ज़ोन (buffer zone) का हिस्सा है। सिक्किम (Sikkim) में समुद्र तल से लगभग 4300 मीटर की ऊंचाई (altitude) पर स्थित बहुचर्चित सामिति झील (Samiti Lake) कंचनजंगा (Kangchenjunga) के रास्ते में पड़ती है।
बाढ़ का प्रकोप (Flooding)
गर्माती दुनिया (Global Warming) का एक उल्लेखनीय परिणाम ग्लेशियरों का (pihalna) सिकुड़ना है, जो ग्लेशियर झीलों (glacial lakes) में पानी (water) में काफी इज़ाफा करता है। इससे इन झीलों (lakes) के मोरैन बांधों (moraine dams) के टूटने (breakage) की संभावना बढ़ जाती है और इसके परिणाम भयावह (disastrous) हो सकते हैं।
सिक्किम की कई मोरैन-बांधित ग्लेशियर झीलों (moraine-dammed glacial lakes) में से एक है दक्षिणी ल्होनक झील (Southern Lhonak Lake)। इसने दिखा दिया है कि बढ़ते तापमान (temperature rise) के क्या परिणाम हो सकते हैं। दक्षिणी ल्होनक झील में तीन ग्लेशियरों (glaciers) का पानी जमा होता है। ग्लोबल वार्मिंग (global warming) के कारण इस झील का आयतन (volume) असामान्य रूप से तेज़ी से बढ़ा है। झील (lake) बहुत हाल ही में बनी है – 1962 में यह पहली बार उपग्रह चित्रों (satellite images) में दिखाई दी थी। 1977 में यह मात्र 17 हैक्टर में फैली थी और यह बढ़ती हुई झील तब से एक संभावित खतरे (threat) के रूप में देखी जा रही थी। 2017 तक, झील (lake) से लगातार पानी निकालने के लिए आठ इंच व्यास (diameter) वाले तीन पाइप (pipes) लगाए गए थे। लेकिन वे भी निहायत अपर्याप्त साबित हुए थे।
2023 तक झील का क्षेत्रफल (area) 167 हैक्टर हो जाना था। पिछले साल हुई बारिश (rain) के कारण मोरैन बांध (moraine dam) टूट गया। परिणामस्वरूप झील (lake) के फटने से तीस्ता नदी (Teesta River) का जल स्तर (water level) छह मीटर बढ़ गया, और तीस्ता-III बांध (Teesta-III Dam) टूट गया और व्यापक पैमाने पर विनाश (devastation) हुआ।
आईआईटी, रुड़की (IIT Roorkee) और अन्य वैज्ञानिकों (scientists) द्वारा इस झील से भविष्य में होने वाले विस्फोट (explosion) की मॉडलिंग (modeling) कर यह अनुमान लगाया गया है कि मोरैन में आई एक बड़ी दरार (crack) से इससे 12,000 घन मीटर प्रति सेकंड (cubic meters per second) से अधिक की गति से पानी (water) बह सकता है – इससे झील के नीचे की ओर बसी मानव बस्तियों (human settlements) के लिए स्थिति बहुत ही भयावह (severe) होने की संभावना है। इस पर सतत निगरानी (monitoring) आपदा न्यूनीकरण (disaster mitigation) में, और प्रकृति के इन रहस्यमय नीले चमत्कारों (mystical blue wonders) को समझने में मदद करेगी। (स्रोत फीचर्स)
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जलवायु परिवर्तन (Climate Change) के विरुद्ध वैश्विक जंग में, वायुमंडल से कार्बन डाईऑक्साइड (CO2 Removal) को हटाने की तकनीकों पर ध्यान बढ़ रहा है। लेकिन उभरते शोध से पता चलता है कि इन तकनीकों पर अत्यधिक निर्भरता हमारे ग्रह (Planetary Health) को गंभीर और स्थायी नुकसान से बचाने के लिए पर्याप्त नहीं है।
वर्ष 2015 में पेरिस समझौते (Paris Agreement) में वैश्विक तापमान वृद्धि (Global Warming) को 2 डिग्री सेल्सियस से नीचे रखने और यथासंभव 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने के प्रयासों को आगे बढ़ाने का संकल्प लिया गया था। अधिकांश जलवायु मॉडल (Climate Models) का अनुमान है कि कार्बन हटाने की विभिन्न तकनीकों से तापमान कम तो होगा लेकिन पूर्व निर्धारित सीमा को पार कर जाएगा।
अब बड़ा सवाल यह है कि इस सीमापार (1.5 डिग्री से अधिक) अवधि के दौरान क्या हो सकता है? नेचर (Nature Journal) में प्रकाशित कार्ल-फ्रेडरिक श्लूसनर के नेतृत्व में किया गया एक नया अध्ययन संभावित परिणामों पर प्रकाश डालता है। यदि हम तापमान (Global Temperature) को वापस नीचे लाने में सफल हो भी जाएं, तब भी 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान के प्रभाव गंभीर और दीर्घकालिक होंगे, जिससे आने वाले दशकों तक लोगों और पारिस्थितिकी तंत्र (Ecosystems) दोनों पर असर पड़ेगा।
तापमान में वृद्धि का खतरा (Temperature Rise Risks)
तापमान में वृद्धि का मतलब है कि अस्थायी रूप से 1.5 डिग्री सेल्सियस तापमान सीमा (Temperature Threshold) को पार करना और फिर बाद में वैश्विक तापमान को कम करना। श्लूसनर के शोध में चेतावनी दी गई है कि इस तरह की वृद्धि से भीषण तूफान (Extreme Weather Events) और लू जैसी चरम मौसमी घटनाएं हो सकती हैं तथा जंगल और कोरल रीफ (Coral Reefs) जैसे महत्वपूर्ण पारिस्थितिकी तंत्रों का विनाश हो सकता है।
इसके अलावा, तापमान वृद्धि से पृथ्वी के जलवायु तंत्र (Climate Systems) का नाकाबिले-पलट बिंदु तक पहुंचने का जोखिम बढ़ सकता है। मसलन, उच्च तापमान ग्रीनलैंड की बर्फीली चादर (Greenland Ice Sheet) का ढहना या अमेज़ॉन वर्षावन (Amazon Rainforest) के अपरिवर्तनीय पतन शुरू कर सकता है। भले ही हम बाद में वैश्विक तापमान कम करने में कामयाब हो जाएं लेकिन उससे पहले ही काफी स्थायी नुकसान हो चुका होगा।
कार्बन हटाना: आसान काम नहीं (Carbon Removal Challenges)
हालांकि, पेड़ लगाना या कार्बन कैप्चर (Carbon Capture) जैसे तरीके समाधान का हिस्सा हैं, लेकिन ये अपने आप में पर्याप्त नहीं हैं। श्लूसनर की टीम के अनुसार 1.5 डिग्री सेल्सियस के लक्ष्य को पूरा करने के लिए हमें वर्ष 2100 तक वायुमंडल से 400 गीगाटन कार्बन डाईऑक्साइड (Gigaton CO2) हटाना होगा जो कि एक कठिन चुनौती होगी।
यदि बड़े पैमाने पर कार्बन हटाना (Carbon Sequestration) संभव हो जाए, तो भी तापमान में अत्यधिक वृद्धि के कारण होने वाले कुछ बदलाव स्थायी हो सकते हैं। बढ़ता समुद्र स्तर (Sea Level Rise), जलवायु क्षेत्रों में बदलाव और पारिस्थितिकी तंत्र में व्यवधान जारी रह सकते हैं, जिससे कृषि जैसे कारोबरों के लिए अनुकूलन करना कठिन हो जाएगा।
नैतिक चिंताएं (Ethical Concerns)
अध्ययन में उठाया गया एक और मुद्दा नैतिकता का है। एक बड़ा सवाल यह है कि तापमान में वृद्धि (Temperature Increase) के दौरान और उसके बाद जलवायु प्रभावों का खामियाजा कौन भुगतेगा। जलवायु परिवर्तन के लिए सबसे कम ज़िम्मेदार कम आय वाले देश (Low-Income Nations) सबसे अधिक प्रभावित होंगे। ये क्षेत्र पहले से ही इंतहाई मौसम और पर्यावरणीय क्षति के प्रति अधिक संवेदनशील हैं, और तापमान में वृद्धि से उनकी स्थिति और खराब हो जाएगी।
उत्सर्जन रोकना आवश्यक है (Emission Reduction Necessary)
लक्ष्य से अधिक तापमान बढ़ने से रोकने के लिए कार्बन उत्सर्जन (Carbon Emission) को कम करने पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए, न कि उत्सर्जन करने के बाद कार्बन डाईऑक्साइड हटाने पर। विशेषज्ञ सरकारों (Government Policies) और उद्योगों द्वारा उत्सर्जन में भारी कटौती करने की तत्काल आवश्यकता पर ज़ोर देते हैं।
यू.के. ने हाल ही में अपने अंतिम कोयला-चालित बिजली संयंत्र (Coal Plants) को बंद किया है और अगले 25 वर्षों में कार्बन कैप्चर और भंडारण प्रौद्योगिकियों (Carbon Capture and Storage) में 22 अरब पाउंड (करीब 230 अरब रुपए) का निवेश करने की घोषणा की है। आर्थिक रूप से वंचित क्षेत्रों में लागू किए जा रहे इन प्रयासों का उद्देश्य जलवायु चुनौतियों का समाधान करते हुए रोजगार और स्थानीय अर्थव्यवस्थाओं को बढ़ाना है।
अलबत्ता, ये केवल शुरुआती प्रयास हैं। वैश्विक नेताओं को, विशेष रूप से आगामी कोप 29 (COP29) शिखर सम्मेलन में, 1.5 डिग्री सेल्सियस लक्ष्य के लिए उत्सर्जन में कटौती (Emission Reduction Targets) को प्राथमिकता देनी चाहिए। कार्रवाई में देरी करना और भविष्य में कार्बन हटाने पर निर्भर रहना एक जोखिम भरी रणनीति है जो लोगों और ग्रह दोनों के लिए विनाशकारी हो सकती है।(स्रोत फीचर्स)
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वैसे तो इस बात पर आम सहमति है कि ग्लोबल वार्मिंग (global warming) से निपटने के लिए कार्बन डाईऑक्साइड (carbon dioxide) का उत्सर्जन कम करना सर्वोत्तम तरीका है, लेकिन कई लोग मानते हैं कि सिर्फ उत्सर्जन कम करने से बात नहीं बनेगी। कार्बन डाईऑक्साइड को वायुमंडल (atmosphere) से हटाकर भंडारित करना भी ज़रूरी होगा।
इसी सिलसिले में कनाडा में 3775 साल पुराने संरक्षित लाल देवदार (red cedar) के लट्ठे की खोज ने जलवायु परिवर्तन (climate change) से निपटने के एक नए तरीके में रुचि उत्पन्न की है: लकड़ी की तिज़ोरियां (wood vaults)। इस तकनीक में लकड़ी को इस तरह दफनाया जाता है कि वह सड़कर वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड न छोड़े। गौरतलब है कि कार्बन डाईऑक्साइड ग्लोबल वार्मिंग में एक प्रमुख योगदानकर्ता है।
यह विचार मैरीलैंड विश्वविद्यालय (University of Maryland) के जलवायु वैज्ञानिक निंग ज़ेंग (Ning Zeng) का है, जिनके अनुसार मिट्टी की परतों (soil layers) के नीचे दबा हुआ यह प्राचीन लट्ठा दर्शाता है कि कैसे लकड़ी को कम ऑक्सीजन (low oxygen) वाले वातावरण में रखा जाए तो उसका कार्बन अक्षुण्ण रहता है। ज़मीन के ऊपर पड़ी लकड़ियां जल्दी से सड़ जाती हैं, और कार्बन डाईऑक्साइड मुक्त होती है। लेकिन जब उसी लकड़ी को मिट्टी या कीचड़ के नीचे दफनाया जाता है, जहां ऑक्सीजन उपलब्ध नहीं होती, तो वह बहुत धीरे-धीरे विघटित होती है और कार्बन सदियों तक कैद रहता है।
ज़ेंग और उनके सहयोगियों का अनुमान है कि दुनिया भर में एक-दो बार इस्तेमाल की जा चुकी लकड़ी के 4.5 प्रतिशत बायोमास (biomass) को इस तरह दफनाने से वायुमंडल से सालाना 10 गीगाटन (gigaton) तक कार्बन डाईऑक्साइड को हटाया जा सकता है।
अलबत्ता, इस उपाय की प्रभाविता पर कुछ विशेषज्ञों को चिंता है। इस रणनीति की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि दबी हुई लकड़ी में कार्बन सदियों तक कैद रहता है या नहीं। अब तक, समुद्री मिट्टी (marine soil) के नीचे क्यूबेक लॉग का संरक्षण वैज्ञानिकों को उम्मीद देता है कि इसी तरह के परिणाम बड़े पैमाने पर प्राप्त किए जा सकते हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या अन्य किस्म की मिट्टियां भी ऐसी सुरक्षात्मक परिस्थितियां प्रदान कर सकती हैं।
एक चिंता यह है कि कहीं यह तकनीक जंगलों को काटने की प्रेरणा न बन जाए, क्योंकि वह जैव विविधता (biodiversity) के लिए खतरे की घंटी होगी। एक और चुनौती पेड़ों को दफनाने की व्यावहारिकता और अर्थशास्त्र (economics) है। लकड़ी का उपयोग निर्माण कार्य, कागज़ और फर्नीचर (construction, paper, furniture) बनाने में किया जाता है, और इसे दफनाने से वनों की कटाई और जैव विविधता के नुकसान सम्बंधित चिंताएं बढ़ सकती हैं। हालांकि, ज़ेंग का सुझाव है कि इन जोखिमों से बचने के लिए केवल बेकार लकड़ी को दफनाया जा सकता है। ज़ेंग के अनुसार, बेकार लकड़ी के ढेर आग का खतरा भी बन सकते हैं, इसलिए उन्हें दफनाने से कई लाभ मिलेंगे।
अभी के लिए, काष्ठ तिज़ोरियां जलवायु परिवर्तन के खिलाफ व्यापक लड़ाई में एक आशाजनक रणनीति दिख रही हैं। यद्यपि पर्यावरण सम्बंधी चिताओं के मद्देनज़र इस पर और शोध की आवश्यकता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.zgs228d/full/_20240926_on_carbon_burial_lede-1727373612393.jpg
अपने सुंदर समुद्र तटों के लिए लोकप्रिय भूमध्य सागर (Mediterranean Sea) लगभग 60 लाख वर्ष पूर्व पूरी तरह से सूख गया था। ‘भूमध्यसागर लवणीयता संकट’ (Mediterranean salinity crisis) के रूप मशहूर इस घटना ने इस क्षेत्र में लगभग सभी समुद्री जीवन (marine life) को मिटा दिया और नमक की एक मोटी परत छोड़ दी। इसके परिणामस्वरूप क्षेत्र की जैव विविधता (biodiversity) गंभीर रूप से प्रभावित हुई।
इस घटना के साक्ष्य पहली बार 1970 के दशक में उजागर हुए जब भूवैज्ञानिकों (geologists) ने समुद्र तल की खुदाई में बड़े पैमाने पर नमक जमा पाया। विशेषज्ञों के अनुसार, 60 लाख वर्ष पूर्व पृथ्वी की महाद्वीपीय प्लेटें खिसकने के कारण भूमध्य सागर अटलांटिक महासागर (Atlantic Ocean) से अलग हो गया, जिसके बाद लगभग 6 लाख वर्षों में समुद्र सूख गया। नतीजतन, कोरल रीफ (coral reef) और मछली प्रजातियों से संपन्न पारिस्थितिकी तंत्र (ecosystem) लगभग नमक का बंजर रेगिस्तान बन गया। इस संकट ने समुद्री जीवन को काफी प्रभावित किया, भूमध्य सागर की जैव विविधता को हमेशा के लिए बदल डाला।
भूविज्ञानी कॉन्स्टेन्टिना अगियादी और उनकी टीम द्वारा हाल ही में किए गए अध्ययन ने इस विलुप्ति की घटना और उसके बाद की बहाली के बारे में नई जानकारी प्रदान की है। उन्होंने संग्रहालयों में उपलब्ध 1.2 करोड़ से 35 लाख वर्ष पुराने 23,000 से अधिक जीवाश्मों (fossils) का विश्लेषण किया, जिससे 1755 वंशों (genera) की 4903 प्रजातियों का पता चला जो कभी भूमध्य सागर में निवास करती थीं। इस शोध से एक गंभीर तस्वीर सामने आई है: जीवंत कोरल रीफ सहित लगभग 800 प्रजातियां (species) पूरी तरह से विलुप्त हो गईं। केवल सार्डीन और मैनेटिज़ (sardines and manatees) जैसी समुद्री स्तनधारियों (marine mammals) की केवल 86 प्रजातियां इस आपदा से बच पाईं।
लगभग 50,000 वर्षों के बाद, टेक्टोनिक प्लेटों (tectonic plates) के विचरण ने भूमध्य सागर को अटलांटिक से फिर से जोड़ दिया और समुद्र का पानी सूखे हुए बेसिन में वापस बहने लगा। लगभग 2700 प्रजातियां इस क्षेत्र में पुनः आबाद हो गईं। हालांकि, वे सभी प्रजातियां वापस नहीं पनप सकीं जो पहले यहां रहा करती थीं। आजकल की प्रजातियों में नई प्रजातियां अधिक हैं, जैसे ग्रेट व्हाइट शार्क (great white shark), डॉल्फिन (dolphin) वगैरह।
इस घटना ने जैव विविधता पैटर्न (biodiversity patterns) में भी दीर्घकालिक बदलाव किया। इस संकट से पहले, भूमध्य सागर के पूर्वी भाग में (आधुनिक लेबनान के पास) जैव विविधता सबसे अधिक थी। लेकिन पानी फिर से भर जाने के बाद जैव विविधता का केंद्र पश्चिमी छोर बन गया, जो आज भी कायम है। जैव विविधता के केंद्र में परिवर्तन के कारण अभी स्पष्ट नहीं हैं।
बहरहाल, यह संकट एक केस स्टडी है जिससे यह समझा जा सकता है कि कैसे पारिस्थितिकी तंत्र चरम पर्यावरणीय परिवर्तनों (extreme environmental changes) के बाद ढहते और बहाल होते हैं। उम्मीद है कि यह अध्ययन दुनिया भर के ऐसे क्षेत्रों पर और अधिक अध्ययनों को प्रेरित करेगा। विशेष रूप से मध्य यूरोप और मेक्सिको की खाड़ी (Gulf of Mexico) में यह समझने में मदद मिलेगी कि पिछले पर्यावरणीय बदलावों ने वैश्विक स्तर पर जैव विविधता को कैसे प्रभावित किया था। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.zklyp9i/full/_20240924_nid_salinity-1727287207300.jpg