भारत में ई-कचरे (इलेक्ट्रॉनिक कचरा यानी पुराने लैपटॉप (old laptops) और सेल फोन (mobile phones), कैमरा और एसी (AC), टीवी और एलईडी लैंप (LED lamps) वगैरह) के प्रबंधन की तेज़ी से बढ़ती चुनौती से जुड़े पर्यावरणीय कानूनों (environmental laws) को मज़बूती प्रदान करने के लिए राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण (नेशनल ग्रीन ट्रायबूनल, NGT) प्रतिबद्ध है। हाल ही में अध्यक्ष न्यायमूर्ति प्रकाश श्रीवास्तव के नेतृत्व में एनजीटी ने ई-कचरा प्रबंधन रिपोर्टिंग की वर्तमान स्थिति पर गहरा असंतोष व्यक्त किया है। एनजीटी ने अपने पूर्व आदेशों का पालन न करने का दावा करने वाली एक याचिका पर सुनवाई करते हुए केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) को राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों द्वारा इलेक्ट्रॉनिक कचरे (electronic waste) के उत्पादन और निस्तारण पर एक नई रिपोर्ट पेश करने के निर्देश दिए हैं। वहीं ई-कचरा (प्रबंधन) नियमों का पालन न करने वाले राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के खिलाफ की गई कार्रवाई का भी उल्लेख करने को कहा है।
यह पहल ई-कचरे से निपटने की तत्काल आवश्यकता को रेखांकित करती है, जो सार्वजनिक स्वास्थ्य (public health) और पारिस्थितिक अखंडता के लिए एक महत्वपूर्ण पर्यावरणीय मुद्दा (environmental issue) है।
देश में ई-कचरा प्रबंधन से जुड़े नियमों को लागू कराने में सीपीसीबी की भूमिका अहम है। ई-कचरा (प्रबंधन) नियमों के पालन की निगरानी के साथ-साथ ई-कचरा प्रबंधन और निपटारा सम्बंधी जागरूकता कार्यक्रमों हेतु भी सक्रिय पहल करने की ज़िम्मेदारी सीपीसीबी की है। एनजीटी ने सीपीसीबी को यह नई रिपोर्ट तैयार करने और प्रस्तुत करने के लिए 12 दिसंबर तक का वक्त दिया है, जिसमें समस्त राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में ई-कचरे के उत्पादन (e-waste production), उपचार सुविधाओं, और मौजूदा खामियों पर विस्तृत डैटा (detailed data) शामिल होना चाहिए।
देश में बढ़ते ई-कचरे पर एनजीटी ने 7 नवंबर, 2022 को निर्देश दिए थे कि ई-कचरे के मामले में सभी राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (State Pollution Control Board) और प्रदूषण नियंत्रण समितियां, सीपीसीबी द्वारा जारी रिपोर्ट का पालन करें। लेकिन तमाम ज़िम्मेदार संस्थाओं द्वारा इन निर्देशों का अनुपालन ठीक से न करने पर एनजीटी ने असंतोष व्यक्त किया है।
ई-कचरा जहां पर्यावरण (environment) के लिए खतरनाक होता है, वहीं मानव स्वास्थ्य को गंभीर रूप से प्रभावित कर सकता है। ई-कचरे के निपटान और तोड़फोड़ से पर्यावरण को नुकसान पहुंचता है। इनसे निकलने वाले तरल और रसायन सतही जल (surface water), भूजल (groundwater), मिट्टी और हवा में मिल सकते हैं। इनके ज़रिए ये जानवरों और फसलों में प्रवेश कर सकते हैं। ऐसी फसलों के इस्तेमाल से मानव शरीर में घातक रसायन (hazardous chemicals) पहुंचने का खतरा होता है। इलेक्ट्रॉनिक सामान में लेड (lead), कैडमियम (cadmium), बैरियम (barium), भारी धातुएं व अन्य घातक रसायन होते हैं।
सीपीसीबी द्वारा दिसंबर, 2020 में जारी एक रिपोर्ट बताती है कि 2019-20 में भारत में 10,00,000 लाख टन से अधिक इलेक्ट्रॉनिक कचरा पैदा हुआ था। 2017-18 में यह 25,325 टन और 2018-19 में 78,281 टन था। एक तथ्य यह भी है कि 2018 में केवल 3 फीसदी ई-कचरा एकत्र किया गया था, जबकि 2019 में यह आंकड़ा 10 फीसदी था। मतलब साफ है कि देश में ई-कचरे को री-सायकल (recycle) करना तो दूर, इस कचरे की एक बड़ी मात्रा एकत्र ही नहीं की जा रही है। एक अन्य रिपोर्ट के आंकड़े दर्शाते हैं कि देश में 2022 के दौरान 413.7 करोड़ किलोग्राम इलेक्ट्रॉनिक कचरा पैदा हुआ था।
भारत में अभी तक राज्य सरकारों द्वारा मान्यता प्राप्त व पंजीकृत ई-कचरा री-सायक्लर 178 ही हैं। लेकिन भारत के ज़्यादातर ई-कचरा री-सायक्लर (e-waste recycler) ई-कचरे का रीसायक्लिंग नहीं कर पा रहे हैं और कुछ तो इसे खतरनाक तरीके से संग्रहित कर रहे हैं। इनमें से कई री-सायक्लर के पास ई-कचरा प्रबंधन की क्षमता भी नहीं है।
आंकड़े बताते हैं कि खतरनाक ई-कचरे को सुरक्षित रूप से संसाधित करने के लिए नए नियम (new regulations) आने के बावजूद, लगभग 80 प्रतिशत ई-कचरा अनौपचारिक सेक्टर (informal sector) द्वारा गलत तरीके से निपटान किया जा रहा है, जिससे प्रदूषण और स्वास्थ्य सम्बंधी खतरे कई गुना बढ़ने की आशंका है। इतना ही नहीं इससे भूजल और मिट्टी भी प्रदूषित हो रही है।
गौरतलब है कि दुनिया भर में प्रति वर्ष 2 से 5 करोड़ टन ई-कचरा पैदा होता है। जबकि वर्तमान में सिर्फ 12.5 फीसदी ई-कचरा रीसायकल हो रहा है। मोबाइल फोन (mobile phones) और अन्य इलेक्ट्रॉनिक सामान में बड़ी मात्रा में सोना (gold) या चांदी जैसी कीमती धातुएं होती हैं। अमेरिका में प्रति वर्ष फेंके गए मोबाइल फोन में 3.82 अरब रुपए का सोना या चांदी होता है। ई-कचरे के रीसायक्लिंग (e-waste recycling) से ये धातुएं प्राप्त की जा सकती हैं। 10 लाख लैपटॉप के रीसायक्लिंग से अमेरिका के 3657 घरों में प्रयोग होने वाली बिजली जितनी ऊर्जा (energy) मिलती है।
विश्व भर में ई-कचरे का वार्षिक उत्पादन 2.6 करोड़ टन प्रति वर्ष की दर से बढ़ रहा है, जो 2030 तक 8.2 करोड़ टन तक पहुंच जाएगा। रीसायक्लिंग की कमी वैश्विक इलेक्ट्रॉनिक उद्योग (electronics industry) पर भारी पड़ती है, और जैसे-जैसे उपकरण अधिक संख्या में, छोटे और अधिक जटिल होते जाते हैं, समस्या बढ़ती जाती है। वर्तमान में, कुछ प्रकार के ई-कचरे का रीसायक्लिंग और धातुओं को पुनर्प्राप्त करना एक महंगी प्रक्रिया है।
हमें इस बढ़ती समस्या के बारे में गंभीरता से सोचना होगा। इससे निपटने के लिए सबके साथ की आवश्यकता है। राष्ट्रीय प्राधिकरणों, प्रवर्तन एजेंसियों (enforcement agencies), उपकरण निर्माताओं (device manufacturers), रीसायक्लिंग में जुटे लोगों, शोधकर्ताओं के साथ उपभोक्ताओं को भी इनके प्रबंधन और रीसायक्लिंग में योगदान देने की ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://lawbhoomi.com/wp-content/uploads/2020/10/Environmental-law-1.jpg
कई दशकों से वैज्ञानिक जलवायु परिवर्तन (climate change) और उसके प्रभावों (climate change impacts) की चेतावनी देते आए हैं। ये प्रभाव अब हर जगह दिखने लगे हैं। पिछले कुछ वर्षों में समुद्र स्तर (sea level rise) में हो रही वृद्धि और भीषण गर्मी (extreme heat) ने मानव जीवन और पर्यावरण को बुरी तरह प्रभावित किया है। पृथ्वी का तापमान बढ़ने के साथ समुद्र तल में वृद्धि हो रही है और तटीय क्षेत्रों में बाढ़ (flood risk) और कटाव का खतरा बढ़ता जा रहा है। दूसरी ओर शहरों में अत्यधिक गर्मी (urban heat) जानलेवा साबित हो रही है। इससे निपटने का सबसे उचित तरीका तो कार्बन उत्सर्जन (carbon emissions) को सीमित करना और अपनी खपत को कम करना है लेकिन इसके साथ ही बदलती जलवायु के प्रति अनुकूलन (climate adaptation) भी महत्वपूर्ण है।
इसके लिए, नए-नए तरीकों और नवाचारों (innovation in climate adaptation) पर काम किया जा रहा है। बढ़ते समुद्र स्तर से निपटने के लिए तैरते शहरों (floating cities) और उभयचर घरों (amphibious homes) जैसी अवधारणाएं प्रस्तुत की गई हैं, वहीं भीषण गर्मी से राहत के लिए सुपरकूल सामग्री (supercooling materials) और कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए नई एयर कंडीशनिंग तकनीकें (energy-efficient air conditioning) विकसित की जा रही हैं। इन उपायों का उद्देश्य उन्नत तकनीकों की मदद से आबादी को बाढ़ और अत्यधिक गर्मी जैसे खतरों से सुरक्षित करना है। आइए ऐसे कुछ नवाचारों और समाधानों पर चर्चा करें।
तटों की सुरक्षा और जलवायु अनुकूलन
वैज्ञानिक गणनाओं के अनुसार वर्तमान उत्सर्जन की स्थिति में वर्ष 2100 तक समुद्र स्तर में एक मीटर से भी अधिक की वृद्धि (sea level rise prediction) हो सकती है, जिससे निचले तटीय क्षेत्रों की आबादी प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होगी। इस समस्या से निपटने के लिए ‘क्लायमेटोपिया’ (Climatopia concept) का विचार काफी प्रासंगिक हो गया है। क्लायमेटोपिया शब्द दरअसल युटोपिया का रूपांतरण है जिसका मतलब होता है सबके लिए आदर्श कल्पनालोक। इन बस्तियों की कल्पना विशेष रूप से उन क्षेत्रों के लिए की जा रही है, जो कुछ वर्षों में जलमग्न हो सकते हैं। उच्च तकनीकी परियोजनाओं के जरिए इन बस्तियों में बाढ़ के प्रभावों को कम करने और ऊर्जा दक्षता (energy efficiency) बढ़ाने के उपाय के रूप में देखा जा रहा है।
ऐसे विचारों में पानी पर आवास (water-based housing) या तैरते घर (floating homes), गेड़ियों (स्टिल्ट्स) पर बने घर और उभयचर आवास शामिल हैं। देखा जाए तो इनमें से कोई भी विचार नया नहीं है। जैसे पूर्व में पेरू की टिटिकाका झील में कृत्रिम द्वीप (artificial islands) और वियतनाम तथा नाइजीरिया में स्टिल्ट हाउस (stilt houses) बनाए गए हैं। उत्तर-पूर्वी भारत में ऐसे घर बहुतायत में बनते हैं। तैरते घरों के रूप में डल झील के शिकारे तो मशहूर हैं ही। एम्स्टर्डम के आइबर्ग क्षेत्र में उभयचर घरों की परियोजना काफी सफल रही है। फर्क इतना है कि आधुनिक क्लायमेटोपिया उच्च तकनीक वाले शहरों के रूप में उभर रहे हैं, जिनमें सौर पैनल (solar panels), स्वास्थ्य सेवाएं (health services), स्कूल और अन्य सुविधाएं शामिल हैं। हालांकि, इन डिज़ाइनों में भी चुनौतियां मौजूद हैं, और इन्हें लागू करते समय स्थानीय परिस्थितियों को ध्यान में रखना होगा।
क्लायमेटोपिया को तीन मुख्य श्रेणियों में बांटा गया है:
1. पुनर्निर्मित भूमि (reclaimed land): तटीय क्षेत्रों में रेत और मिट्टी जमा करके नई भूमि बनाई जाती है। चीन में ओशियन फ्लावर आइलैंड (Ocean Flower Island) इसका एक उदाहरण है, लेकिन आवश्यक निवेश आकर्षित करने के बावजूद इस प्रकार की परियोजनाएं पर्यावरणीय प्रभाव (environmental impact) और स्थानीय समुदायों पर संभावित व्यवधान (local community disruption) के कारण विवादास्पद हो सकती हैं।
2. उभयचर घर (amphibious homes): ये घर ज़मीन पर टिके होते हैं, लेकिन जल स्तर बढ़ने पर तैर सकते हैं। हालांकि, इसका एक नकारात्मक पहलू यह है कि ऐसी परियोजनाएं लोगों को उच्च जोखिम वाले बाढ़ क्षेत्रों (flood-prone areas) में रहने के लिए प्रोत्साहित करेंगी।
3. तैरते शहर (floating cities): ये शहर पूरी तरह से समुद्र या लैगून पर स्थित होते हैं और इन्हें इंटरलॉकिंग मॉड्यूलर प्रणाली (modular interlocking system) के साथ डिज़ाइन किया जाता है। मालदीव में 20,000 लोगों के निवास के लिए डिज़ाइन की गई फ्लोटिंग सिटी इसका एक उदाहरण है, लेकिन बड़े तूफानों (storm resilience) की स्थिति में इन शहरों की दीर्घकालिक स्थिरता पर सवाल उठते हैं।
चुनौतियां
क्लायमेटोपिया परियोजनाओं की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि वे कितनी प्रभावी और सुरक्षित (effective and safe urban design) हैं। पुनर्निर्मित द्वीप (reclaimed islands) सबसे महंगे होते हैं और इनके निर्माण में समय भी अधिक लगता है। वहीं, उभयचर घरों की लागत अपेक्षाकृत कम होती है और वे आवश्यक सेवाओं तक आसान पहुंच प्रदान करते हैं। लेकिन समुद्री तूफानों और सुनामी (tsunamis) जैसी आपदाओं के दौरान इन डिज़ाइनों की स्थिरता पर संदेह बना रहता है। इसलिए सरकारों और योजनाकारों को इन परियोजनाओं की दीर्घकालिक व्यवहार्यता (long-term sustainability) का मूल्यांकन करना होगा।
इसके अलावा, इनके निर्माण से समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र पर गहरा असर पड़ सकता है तथा भारी मात्रा में सामग्रियों के निष्कर्षण और परिवहन से कार्बन उत्सर्जन (carbon emissions) होता है। पुनर्निर्मित द्वीप जैव विविधता (biodiversity loss) को नुकसान पहुंचा सकते हैं, जबकि तैरते शहर मौसम के पैटर्न (climate change) को बदल सकते हैं और समुद्री जीवों को प्रभावित कर सकते हैं। इन प्रभावों को कम करने के लिए सरकारों और शोधकर्ताओं को सतत विकास (sustainable development) प्रक्रियाओं का पालन करना और पारिस्थितिकीय आकलन को प्राथमिकता देनी होगी।
इन परियोजनाओं के सामाजिक और आर्थिक प्रभावों पर भी ध्यान देना आवश्यक है। उदाहरण के लिए, क्लायमेटोपिया जैसी परियोजनाएं मुख्यतः अमीर लोगों को ध्यान में रखकर बनाई जाती हैं, जिससे गरीब समुदायों के लिए इनका लाभ सीमित हो जाता है। इसके अतिरिक्त, इन परियोजनाओं के चलते पारंपरिक मछली पकड़ने और अन्य स्थानीय गतिविधियों पर भी नकारात्मक असर पड़ सकता है। इसलिए, इन नवाचारों को सफल और न्यायसंगत बनाने के लिए सरकारों को सामाजिक न्याय (social justice) को प्राथमिकता देते हुए किफायती आवास (affordable housing) और जीवन-यापन के साधनों को भी इन परियोजनाओं का हिस्सा बनाना चाहिए।
गर्मी से निपटना
वैश्विक तापमान (global warming) में वृद्धि के कारण शहरों में अत्यधिक गर्मी महसूस की जा रही है, जिससे पानी की कमी (water scarcity), फसलों को नुकसान, और स्वास्थ्य समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं। इस समस्या का समाधान करने के लिए, वैज्ञानिक नए-नए तरीकों पर काम कर रहे हैं जो बिजली की कम से कम खपत (energy efficiency) के साथ ठंडक प्रदान कर सकते हैं। इसमें अधिक कुशल एयर कंडीशनर (air conditioning) और विशेष सामग्री शामिल हैं जो बिना बिजली का उपयोग किए सतहों को ठंडा रख सकती हैं।
शीतलकों में परिवर्तन पारंपरिक एयर कंडीशनर (traditional air conditioner) इमारत के अंदर से गर्मी को बाहर की ओर ले जाने के लिए एक गैसीय पदार्थ को संपीड़ित करते हैं। इस प्रक्रिया में बहुत अधिक ऊर्जा का उपयोग तो होता ही है, ग्रीनहाउस गैसों (greenhouse gases) का भी उत्सर्जन होता है। इन्हें ऊर्जा-कुशल (energy efficient) बनाने के लिए, शोधकर्ता एक नई तकनीक ‘इलेक्ट्रोकैलोरिक’ कूलिंग (electrocaloric cooling) पर काम कर रहे हैं। इस प्रक्रिया में, कुछ विशेष सिरेमिक सामग्री (ceramic material) का उपयोग किया जाता है। इन सामग्रियों में विद्युत क्षेत्र आरोपित करने पर पदार्थ का तापमान बढ़ जाता है। इसके बाद एक द्रव की मदद से उस गर्मी को बाहर ले जाया जाता है ताकि सिरेमिक पदार्थ का तापमान कम हो जाए यह एक ऐसा परिवर्तन है जिसका उपयोग शीतलन उद्देश्यों (cooling purposes) के लिए किया जा सकता है।
सुपरकूल सामग्री सुपरकूल सामग्री दरअसल बिजली का उपयोग किए बिना सतहों को ठंडा रखती है। वैसे तो अधिकांश सामग्री सूर्य की रोशनी (sunlight reflection) को परावर्तित करती हैं और इंफ्रारेड विकिरण (infrared radiation) का उत्सर्जन करती हैं। लेकिन सूपरकूल सामग्री ये दोनों ही कार्य अत्यंत कुशलता से करती हैं। आम तौर पर हर सतह इंफ्रारेड तरंगें उत्सर्जित करती है जिन्हें वातावरण में मौजूद कार्बन डाईऑक्साइड (carbon dioxide) और जलवाष्प वगैरह सोख लेते हैं और वातावरण गर्म हो जाता है। सुपरकूल पदार्थ भी ऐसा ही करते हैं लेकिन वे जो इंफ्रारेड तरंगें छोड़ते हैं उनकी तरंग लंबाई उस परास में होती है जिन्हें वायुमंडल में सोखा नहीं जाता और वे अंतरिक्ष (space) में चली जाती हैं। लिहाज़ा वातावरण ठंडा रहता है। यह तकनीक शहरों में हवा के तापमान (urban temperature) को कम करने में भी मदद कर सकती है, जिससे शहरी क्षेत्र अधिक आरामदायक और एयर कंडीशनिंग पर कम निर्भर हो सकते हैं।
गौरतलब है कि पिछले कई वर्षों से वैज्ञानिक प्लास्टिक, धातुओं से लेकर पेंट और यहां तक कि लकड़ी को सुपरकूल सामग्री (supercool material) के रूप में विकसित करने का प्रयास कर रहे हैं। लेकिन हाल ही में सैल्मन मछली के शुक्राणुओं के डीएनए और जिलेटिन से बना एक सुपरकूल एरोजेल (supercool aerogel) तैयार किया गया है जो हवा के तापमान की तुलना में सतहों को 16 डिग्री सेल्सियस तक ठंडा रख सकता है। इस सामग्री को तैयार करने में बायोडिग्रेडेबल सामग्री (biodegradable material) का उपयोग किया गया है इसलिए यह पर्यावरण के अनुकूल (eco-friendly) भी है।
इमारतों की ठंडी सतह
सतहों को ठंडा रखने के लिए वैज्ञानिक सुपरकूल सामग्री से आगे बढ़कर कूल सामग्री (cool material) पर प्रयोग कर रहे हैं। ‘कूल सामग्री’ का उत्पादन आसान है और ये प्रभावी भी हैं। इन्हें भारी मात्रा में सूर्य के प्रकाश को परावर्तित (reflect sunlight) करने के लिए डिज़ाइन किया गया है। सुपरकूल सामग्रियों के विपरीत, कूल सामग्री को अत्यधिक परावर्तक (highly reflective) होना चाहिए, किसी विशिष्ट तरंग लंबाई का उत्सर्जन करने की चिंता नहीं की जाती है।
शोधकर्ता इमारतों की खड़ी सतहों (भवनों के अग्रभाग) (building facades) के लिए ऐसी सामग्री विकसित कर रहे हैं। यह एक मुश्किल काम है क्योंकि खड़ी सतहें आकाश और ज़मीन दोनों की ओर उन्मुख होती हैं। इस वजह से ये गर्मियों में धरती से निकलने वाली गर्मी को सोख लेती हैं और ठंड में गर्मी को आकाश में बिखेर देती हैं। इसका समाधान भौतिक संरचना में मिला है। एक विशेष कोटिंग गर्मियों में आकाश की ओर गर्मी को बिखेरकर दीवारों को ठंडा कर सकती है, जबकि सर्दियों में यह धरती की ओर कम गर्मी बिखेरती है।
एक अन्य तरीका है इमारत की दीवारों के विशिष्ट हिस्सों पर सुपरकूल पेंट (supercool paint) का उपयोग करना है। इसमें खड़ी सतह को लहरदार बनाया जाता है। इस लहरदार (यानी कोरुगेटेड) सतह के आकाश की ओर उन्मुख हिस्सों पर परावर्तक पेंट (reflective paint) लगाया जाता है। जमीन की ओर उन्मुख सतहों पर ऐसी धातु का लेप किया जाता है जो गर्मी को कम सोखे। इस संयोजन से दीवार आसपास की हवा की तुलना में 2-3 डिग्री सेल्सियस ठंडी रही।
इसके अलावा, धरती को ठंडा रखने के तरीकों पर भी विचार किया गया है। एक प्रयोग में, शोधकर्ताओं ने एरिज़ोना में शॉपिंग सेंटर की पार्किंग में एक परावर्तक ‘ठंडा फुटपाथ’ (cool pavement) बनाया। यह हल्के रंग का फुटपाथ आसपास के गहरे रंग के फुटपाथ से 8 डिग्री सेल्सियस ठंडा था, और इसके ऊपर की हवा लगभग 1 डिग्री सेल्सियस ठंडी थी।
आकार बदलने वाली सामग्री
ऑस्ट्रेलिया में, इंजीनियर प्रावस्था-बदल स्याही (‘फेज-चेंजिंग इंक’ / phase-changing ink) विकसित कर रहे हैं, जिसे तापमान के आधार पर इमारतों को ठंडा या गर्म रखने के लिए उपयोग किया जा सकता है। इस स्याही में नैनोकण (nanoparticles) होते हैं जो तापमान के साथ प्रावस्था बदलते हैं। ऊंचे तापमान पर इन कणों का संयोजन धातु की तरह व्यवहार करता है और गर्मी को परावर्तित (reflect heat) करता है। कम तापमान पर इनका संयोजन एक सुपरकंडक्टर की तरह व्यवहार करता है और गर्मी अपने अंदर आने देता है।
प्रयोगशाला से बाज़ार तक
हालांकि ये प्रौद्योगिकियां (technologies) काफी आशाजनक हैं, लेकिन उनमें से अधिकांश विकास के शुरुआती चरणों (early stages) में हैं। कुछ का परीक्षण केवल प्रयोगशालाओं या छोटे पैमाने पर किया गया है, इसलिए उनकी उपयोगिता को समझने के लिए और अधिक शोध की आवश्यकता है।
यह भी सवाल है कि ये प्रौद्योगिकियां अलग-अलग जलवायु (different climates) में कितनी अच्छी तरह काम करेंगी। उदाहरण के लिए, सुपरकूल सामग्री आर्द्र या बादल वाले वातावरण (humid environments) में कम प्रभावी हो सकती है, जहां वातावरण अधिक गर्मी को कैद करता है। इन चुनौतियों के बावजूद, शोधकर्ता आशावादी हैं। भले ही ये सामग्री हवा को अपेक्षा के अनुसार ठंडा न कर सकें, लेकिन वे इसे गर्म करने में भी योगदान नहीं देंगी।
इसमें एक बड़ी चुनौती लोगों को इन नई तकनीकों को अपनाने के लिए प्रेरित करना है। हल्की, अधिक परावर्तक छतों का उपयोग करने जैसे सरल परिवर्तन स्पष्ट लाभ प्रदान करने के बावजूद अभी तक व्यापक नहीं हुए हैं। फिर भी लॉस एंजेल्स सहित कई शहरों ने ठंडे फुटपाथ और अन्य शीतलन रणनीतियों (cooling strategies) को लागू करना शुरू कर दिया है।
ऑस्ट्रेलिया में सिडनी की एक टीम ने दुनिया भर में 300 से अधिक परियोजनाओं में शीतलन सामग्री (cooling materials) का उपयोग किया है, जिसमें सऊदी अरब के रियाद में एक प्रमुख पहल भी शामिल है।
इसका उद्देश्य शहर के तापमान को 4.5 डिग्री सेल्सियस तक कम करना है। यह परियोजना अधिक आरामदायक शहरी वातावरण (urban environment) बनाने के लिए ठंडी और सुपरकूल सामग्रियों के संयोजन के साथ-साथ अधिक हरियाली का उपयोग करती है। ज़्यादा से ज़्यादा शहरों में इन नवाचारों के प्रयोग से हम यह समझ पाएंगे कि भीषण गर्मी से खुद को बचाने का सबसे बेहतर तरीका कौन-सा है।
जैसे-जैसे जलवायु परिवर्तन (climate change) का प्रभाव बढ़ रहा है, चुनौतियों का सामना करने के लिए नवाचारों की आवश्यकता है। तैरते शहर, उभयचर घर और सुपरकूल सामग्री जैसे समाधान हमें जलवायु परिवर्तन के खतरों से सुरक्षित रख सकते हैं, लेकिन इन्हें सावधानीपूर्वक और टिकाऊ विकास (sustainable development) के सिद्धांतों के तहत लागू करना आवश्यक है। इन तकनीकों को लागू करने में सामाजिक न्याय और समानता (social justice and equity) पर भी ध्यान देना होगा, ताकि समाज के सभी वर्गों को इनका लाभ मिल सके। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://ru.unilumin.com/media/upload/LargeFile/%E8%B0%83-2.jpg
पेड़ों का अस्तित्व धरती पर लगभग 40 करोड़ वर्षों से है। तब से पेड़ कई प्राकृतिक आपदाओं का सामना कर चुके हैं। चाहे वह उल्का की टक्कर हो या शीत युग, पेड़ धरती पर टिके रहे। लेकिन अब उन्हें खतरा इंसानों से है। कृषि (agriculture) के आगमन के बाद से, खेती और मवेशियों के लिए जगह बनाने के लिए बड़ी संख्या में जंगलों (forests) का सफाया किया गया है। पिछले 300 वर्षों में, लगभग 1.5 अरब हैक्टर जंगलों को नष्ट किया जा चुका है जो आज के कुल वन क्षेत्र का 37 प्रतिशत है।
आम तौर पर यह माना जाता है कि जंगलों की क्षतिपूर्ति वृक्षारोपण (tree plantation) करके की जा सकती है, और इसे सबसे सरल और सटीक समाधान के तौर पर देखा जाता है। पिछले कुछ दशकों में यह धारणा भी बनी है कि जलवायु परिवर्तन (climate change) को कम करने में पेड़ महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। परंतु, यह बात भी उतनी ही सच है कि बिना किसी ठोस योजना और जानकारी के सिर्फ पेड़ लगाना कई बार पारिस्थितिकी तंत्र (ecosystem) को नुकसान पहुंचा सकता है।
गौरतलब है कि कई वृक्षारोपण परियोजनाओं में सिर्फ एक प्रजाति के पेड़ लगाए जाते हैं, जिसे मोनोकल्चर (monoculture) कहा जाता है। यह पद्धति जैव विविधता (biodiversity) को कम करती है, क्योंकि इस प्रक्रिया में सिर्फ एक प्रजाति के पौधे और उससे जुड़े वन्यजीव और सूक्ष्मजीव ही पनप पाते हैं। एक ही प्रजाति के पेड़ बीमारियों के प्रति संवेदनशील होते हैं, जिससे कोई बीमारी फैलने पर पूरे जंगल का सफाया हो सकता है। इसके अलावा, कई बार ऐसे पेड़ भी लगाए जाते हैं जो उस क्षेत्र के लिए उपयुक्त नहीं होते, जिससे स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र असंतुलित हो जाता है।
वनों की बहाली में एक समग्र दृष्टिकोण की ज़रूरत है। जैक रॉबिन्सन अपनी किताब ट्रीवाइल्डिंग (Treewilding) में बताते हैं कि जंगलों की बहाली के लिए सिर्फ पेड़ लगाना पर्याप्त नहीं है, बल्कि उनका जीवित रहना और वृद्धि करना भी ज़रूरी है। इसके लिए यह समझना भी आवश्यक है कि कौन-सी प्रजातियां किस क्षेत्र के लिए उपयुक्त हैं, और वे स्थानीय समुदायों (local communities) और वन्यजीवों से किस प्रकार जुड़ी हुई हैं। हलांकि वनों की कटाई को पूरी तरह रोकना संभव नहीं है, लेकिन इसे कम करने और पौधारोपण को सही दिशा में ले जाने के लिए गहन शोध (research) और नियोजन ज़रूरी है।
रॉबिन्सन यह भी कहते हैं कि वृक्षारोपण परियोजनाओं को स्थानीय ज्ञान (local knowledge) के आधार पर संचालित किया जाना चाहिए, जिससे न केवल पेड़ लगाए जाएं बल्कि उनकी देखभाल पर भी ध्यान दिया जाए। ऐसा करने से ही युवा पेड़ सही तरीके से बढ़ सकेंगे और दीर्घकालिक लाभ दे सकेंगे। इसमें एक विशेष बात यह है कि प्राकृतिक पुनर्जनन (natural regeneration) यानी किसी वन को अपने आप पुनः विकसित होने देना, जंगलों को बहाल करने का सबसे प्रभावी तरीका है।
ग्रेट ग्रीन वॉल (Great Green Wall) जैसी कुछ वन बहाली परियोजनाएं काफी उपयोगी रही हैं। इस परियोजना में सहारा रेगिस्तान के दक्षिण में 8000 किलोमीटर लंबी और 15 किलोमीटर चौड़ी पेड़ों की एक दीवार बनाने का प्रयास किया गया है। इसका उद्देश्य रेगिस्तान के फैलाव को रोकना, भूमि की गुणवत्ता सुधारना, और जलवायु परिवर्तन से निपटने में मदद करना है। इस परियोजना में अब तक लाखों पेड़ लगाए जा चुके हैं, लेकिन धन की कमी एक बड़ी चुनौती है।
इसी प्रकार, पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया की गोंडवाना लिंक परियोजना (Gondwana Link project) 1000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में पुराने जंगलों के बिखरे हुए टुकड़ों को फिर से जोड़ने का प्रयास कर रही है। इसका उद्देश्य उन प्रजातियों की रक्षा करना है जो जंगलों के इन छोटे-छोटे हिस्सों में फंसी हुई हैं और विलुप्त होने की कगार पर हैं। जब अलग-अलग क्षेत्रों की प्रजातियां एक-दूसरे के साथ संपर्क में आती हैं, तो उनकी जेनेटिक विविधता (genetic diversity) में सुधार होता है, जो उन्हें पर्यावरणीय चुनौतियों से निपटने में मदद करता है। इस परियोजना के तहत 14,500 हैक्टर भूमि पर पेड़ लगाए जा चुके हैं, और इसे कार्बन क्रेडिट (carbon credit) या कर छूट के रूप में निवेशकों से वित्तीय सहायता प्राप्त हो रही है।
रॉबिन्सन अपने काम में पारिस्थितिकी (ecology) को समझने के लिए एक नई तकनीक का भी उपयोग कर रहे हैं, जिसे इकोएकूस्टिक्स (ecoacoustics) कहा जाता है। यह विधि वन्यजीवों और पक्षियों की ध्वनियों का उपयोग करके जंगलों की संरचना और उसमें हो रहे परिवर्तनों को समझने का प्रयास करती है। उन्होंने पाया कि जैसे-जैसे जंगल पुनर्जीवित होते हैं, मिट्टी में छिपे हुए अकशेरुकी जीवों (invertebrates) की संख्या बढ़ती है, जिससे ‘जीवन की एक छिपी हुई ध्वनि’ उत्पन्न होती है।
रॉबिन्सन की किताब ट्रीवाइल्डिंग पर्यावरण और वन पुनर्स्थापना (forest restoration) पर एक अद्भुत अध्ययन है। यह पाठकों को सोचने पर मजबूर करती है कि जंगलों के संरक्षण (conservation) के लिए सिर्फ पेड़ लगाना पर्याप्त नहीं है, बल्कि एक समग्र दृष्टिकोण की ज़रूरत है जो पारिस्थितिकी, स्थानीय समुदायों, और विज्ञान के गहरे परस्पर सम्बंधों को समझ सके। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://media.nature.com/w1248/magazine-assets/d41586-024-02834-3/d41586-024-02834-3_27627640.jpg?as=webp
उत्तराखंड राज्य के चमौली ज़िले में गोविंदघाट के पास स्थित फूलों की घाटी विश्व प्रसिद्ध है। इसे अब नंदादेवी राष्ट्रीय उद्यान के नाम से जाना जाता है। इसी प्रकार एक दूसरी सुंदर फूलों की घाटी सह्याद्री पर्वत माला के 900 से 1200 मीटर की ऊंचाई पर स्थित पठार के एक भाग में है। लाल लेटेराइट मिट्टी से बना यह पठार 1792 हैक्टर में फैला है एवं कास नामक गांव की बस्ती होने से इसे कास पठार (Kaas Plateau) कहा जाता है। कास पठार महाराष्ट्र के सतारा ज़िले से 23 किलोमीटर की दूरी पर एवं समुद्रतल से 1200 से 1240 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। जुलाई 2012 में इसे यूनेस्को के विश्व धरोहर स्थलों (UNESCO World Heritage Site) में शामिल किया गया था।
इस पठार पर 570 हैक्टर का क्षेत्र फूलों की अधिकता वाला है जिसे वन विभाग ने चार भागों में बांट रखा है। प्रत्येक भाग में लगभग एक वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में पर्यटक नज़दीक जाकर फूलों को देख सकते हैं। पठार पर मिट्टी की सतह पतली होने से ज़्यादातर पौधे शाकीय प्रकृति के छोटे होते हैं। प्रत्येक भाग के चारों तरफ तारों की बागड़ है तथा वन विभाग के कर्मचारी सुरक्षा गार्ड की भूमिका निभाते हैं। मानसून (Monsoon Season) आने के साथ ही जुलाई में फूल खिलना प्रारम्भ हो जाते हैं। जुलाई से लेकर मध्य अक्टूबर तक बारिश एवं धूप जैसे मौसमी हालात के अनुसार फूल खिलने का क्रम आगे बढ़ता रहता है। सामान्यतः 15 से 20 दिनों में फूलों का रंग बदल जाता है एवं जिस रंग के फूल खिलते हैं उससे ऐसा लगता है मानो पठार पर प्रकृति ने रंगीन चादर फैलाई हो। सितंबर 10 से 25 तक का समय कास पठार की सुंदरता निहारने हेतु श्रेष्ठ बताया गया है (Best time to visit Kaas Plateau)।
एक अध्ययन अनुसार यहां पुष्पीय पौधों की 850 प्रजातियां पाई जाती हैं जिनमें से 450 में जुलाई से सितंबर/अक्टूबर तक अलग-अलग समय पर भिन्न-भिन्न रंगों के फूल खिलते हैं। गुलाबी, नीला-बैंगनी तथा पीला रंग क्रमशः बालसम (Balsam Flowers), कर्वी या कुरिंजी तथा स्मीथिया प्रजातियों के पौधों में फूल खिलने से पठार उन्हीं रंगों का नज़र आता है। अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (IUCN – International Union for Conservation of Nature) ने यहां 624 प्रजातियों की सूची बनाई है जिनमें 39 स्थानिक (Endemic Species) हैं अर्थात यहीं पाई जाती हैं। संघ ने 32 प्रजातियों पर विलुप्ति का खतरा बताया है जिनमें जलीय पौधा रोटेला तथा शाकीय सरपोज़िया मुख्य है। कोल्हापुर स्थित शिवाजी विश्वविद्यालय के वनस्पति शास्त्र विभाग के एक दल ने प्रो. एस. आर. यादव के नेतृत्व में 1792 हैक्टर में फैले पूरे कास पठार का लंबे समय तक सभी मौसम में अध्ययन कर बताया था कि वनस्पतियों (पुष्पीय व अन्य पौधे) की 4000 प्रजातियां यहां है। इसमें से 1700 ऐसी हैं जो यहां के अलावा दुनिया में कहीं और नहीं पाई जाती हैं। जून के महीने में खिलने वाला गुलाबी फूल का पौधा एपोनोजेटान सतारेंसिस (Aponogeton satarensis) मात्र यहीं पाया जाता है। कुरिंजी (Kurinji Flowers) की दो किस्में यहां ऐसी हैं जिनमें 7 वर्ष में एक बार फूल खिलते हैं। कीटभक्षी पौधे ड्रॉसेरा (Drosera) तथा यूट्रीकुलेरीया (Utricularia) भी यहां पाए जाते हैं।
कास पठार पर बसी इस फूलों की घाटी की प्रसिद्धि बढ़ने से मौसमी पर्यटकों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। इसे नियंत्रित करने हेतु प्रतिदिन 3000 दर्शकों को निर्धारित शुल्क लेकर प्रवेश की अनुमति दी जाती है (Tourist Regulations)। इको टायलेट्स बनाए गए हैं तथा प्लास्टिक उपयोग पर भी रोक है। पौधों पर वायु प्रदूषण के प्रभाव को नियंत्रित करने हेतु पेट्रोल-डीज़ल वाहनों के स्थान पर इलेक्ट्रिक वाहन (Electric Vehicles) बढ़ाए जा रहे हैं। आसपास के गांवों हेतु अलग से मार्ग बनाए जा रहे हैं तथा ग्रामीणों को गैस के सिलेंडर एवं धुआं रहित चूल्हे भी दिए गए हैं। यह विश्व धरोहर सस्ते पर्यटन स्थल में न बदले इस हेतु फार्म हाउस, होटल, बाज़ार, ऊर्जा निर्माण घर एवं पशुओं द्वारा चराई आदि को नियंत्रित या प्रतिबंधित करने के प्रयास भी जारी है। भारत दुनिया के उन 12 देशों में शामिल है जहां जैव विविधता (Biodiversity Hotspot) भरपूर है एवं इसमें उत्तर तथा दक्षिण दोनों स्थानों की फूलों की घाटियों का बड़ा योगदान है।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://en.wikipedia.org/wiki/Kas_Plateau_Reserved_Forest#/media/File:Kaas-7016.jpg
विगत गर्मियों में बैंगलोर शहर सुर्खियों में रहा, कारण था जल संकट। अब, जहां-तहां से बाढ़ की खबरें आ रही हैं। यह बात विचारणीय है कि यह सूखे और बाढ़ का चक्र विगत कुछ वर्षों से काफी तेज़ी से घूम रहा है।
इस घटनाक्रम पर विचार करने पर शायद हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि यह सब प्रकृति का प्रकोप है। लॉकडाउन के दौरान जब मानव गतिविधियां सीमित हो गई थीं और मानव का प्रकृति में हस्तक्षेप कम हो गया था, तब हवा की गुणवत्ता, जो AQI द्वारा प्रदर्शित होती, में काफी सुधार देखा गया था। स्वच्छ जल की स्रोत, नदियों की TDS (जल में घुलित अशुद्धियों) की रीडिंग भी सुधर गई थी। प्रदूषण पर नियंत्रण लगते ही मानव को शुद्ध वायु और शुद्ध जल प्राप्त होने लगे थे। इससे यह स्पष्ट होता है कि नदियों को माता कहकर पूजने वाले ही उनके सबसे बड़े अपराधी हैं। आज हमें उनको पूजने से ज़्यादा उनको समझने की ज़रूरत है।
अपनी महत्त्वाकांक्षा के चलते मानव ने शहरों का डामरीकरण करना, कॉन्क्रीट के जंगल खड़े करना, हर तरफ सड़कों का जाल बिछाना शुरू कर दिया। इससे एक तरफ तो मानव सभ्यता काफी उन्नत हुई, हमने सुख के साधन बटोरे और यातायात को सुगम और सुलभ बनाया। वहीं दूसरी ओर, इनके कारण जो बरसात का जल मिट्टी के माध्यम से धरती में जाना था, वही अब सीमेंट और डामर की सड़कों से होता हुआ नालों के माध्यम से नदियों में जाता है। एक तरफ तो ऐसा अचानक जल भराव और साथ में उचित ड्रेनेज की कमी के कारण बाढ़ का रूप लेकर तबाही फैलाता है। वहीं दूसरी ओर, पानी के तुरंत बह जाने से और धरती में न समाने से भूजलस्तर में कमी के चलते सूखे के हालत बनते हैं।
तो क्या हम विकास और विकास-जनित विनाश के बीच कोई सामंजस्य नहीं बैठा सकते जिससे संपूर्ण मानवता विकास के लाभों को प्राप्त करते हुए संभावित विनाश से बच सके?
दरअसल, ऐसे कई उपाय हैं जिन्हें ध्यान में रख कर योजनाएं बनाई जाएं और परियोजनाओं का क्रियान्वन किया जाए तो समाज के सभी वर्गों को ही नहीं, पर्यावरण को भी लाभ पहुंचेगा। अमीर उद्योगपति से लेकर गरीब गड़रिये तक तथा शहरी नागरिक से लेकर जंगल के जानवर तक लाभान्वित होंगे। अत: हमें योजना बनाते वक्त यह विचार करना चाहिए कि उसके क्रियान्वयन से किन-किन उद्देश्यों की पूर्ति कर सकते हैं और कौन–कौन से लक्ष्य बिना अतिरिक्त व्यय और व्यवधान के प्राप्त हो सकते हैं।
ऐसे कई मॉडल उपलब्ध हैं। मसलन एक प्रयास बॉरो पिट्स (Borrow pits) का है। इसके तहत हाईवे बनाने के लिए सामग्री आसपास से ली जाती है और उसके कारण बने गड्ढे का उपयोग तालाब के रूप में किया जाता है। ये शिकागो और ओहायो में हाईवे के किनारे बनाए जाते हैं जिनमें मछली पालन आदि कार्य होते हैं।
भारत में भी नेशनल रोड एंड हाईवे डेवलपमेन्ट अथॉरिटी द्वारा अमृत सरोवर के नाम से यह काम किया जा रहा है। आगे हम एक ऐसे ही मॉडल की चर्चा करेंगे।
जब हम कोई निर्माण कार्य करते हैं जैसे सड़क, पुल या रेल की पटरी बिछाना आदि, तो उसमें हमें कई बार मिट्टी का भराव करना पड़ता है। इस मिट्टी का खनन अगर अनुशासित तरीके से किया जाए तो इसी खुदाई से आसपास के गांवों, तहसील या जंगल की शासकीय ज़मीन पर तालाबों का निर्माण हो सकता है। निर्माण कार्य के लिए मिट्टी भी उपलब्ध हो जाएगी और बिना किसी अतिरिक्त व्यय के तालाब भी तैयार हो जाएगा। यह अगर जंगल में बना तो वन्य प्राणियों को गर्मी के दिनों में पानी उपलब्ध कराएगा। तालाब शहरों के आसपास बनें तो वहां के भूजलस्तर में सुधार आएगा। गांव के आसपास बनने पर भूजलस्तर के साथ आर्थिक स्थिति भी सुधरेगी क्योंकि गांव में जल केवल जीवन का ही नहीं, बल्कि पशुपालन, मछली पालन तथा तालाब आधारित खेती (जैसे सिंघाड़ा, कमल) आदि आर्थिक गतिविधियों का भी आधार होता है। अर्थात ये तालाब न केवल राज्य की आय बल्कि व्यक्तिगत आय और भोजन सम्बंधित समस्या भी हल कर सकेगी।
जल की एक बूंद तो ऐसी पूंजी है जिसे कमाया नहीं जा सकता। ऐसे में इसका संरक्षण ही इसका निर्माण है।
उदाहरण के लिए यदि एक सड़क का निर्माण होता है, जिसकी लंबाई 100 मीटर, चौड़ाई 4 मीटर है तथा 16 सेंटीमीटर की गहराई तक पुरनी के लिए एक ही स्थान से मिट्टी खोदें, तोे वहां 64,000 लीटर क्षमता का गड्ढा या तालाब तैयार हो जाएगा।
एक गाय या भैंस साधारणत: 80-100 लीटर पानी प्रतिदिन इस्तेमाल करती है। तो हमारे पास 2 गाय अथवा 2 भैंस के लिए कम से कम 320 दिन का पानी हो गया। एक बकरी अथवा भेड़ लगभग 10 लीटर पानी उपयोग करती है तो यह 20 जानवरों के लिए 320 दिन का पानी होगा।
2010 के बाद से भारत में सड़क निर्माण की गति तेज़ हो गई है। 2014-15 में यह औसतन लगभग 12 किलोमीटर प्रतिदिन और 2018-19 में 30 किलोमीटर प्रतिदिन थी। देश का लक्ष्य प्रतिदिन 40 किलोमीटर राजमार्ग बनाना है। जिनकी चौड़ाई 12 मीटर रहेगी। इससे आप अंदाज़ा लगा सकते हैं हम जल संग्रहण की कितनी क्षमता विकसित कर सकते थे या आज भी कर सकते हैं। और यह बड़े-बड़े प्रोजेक्ट ही नहीं अपितु घर बनाते समय नींव में भरी जाने वाली मिट्टी के साथ भी छोटे पैमाने पर कर सकते हैं।
अत: केवल सड़क निर्माण के कार्य को थोड़े से अलग ढंग से करके सरकार सड़कों के माध्यम से न केवल उद्योगपतियों को मूलभूत अधोसंरचना उपलब्ध कराएगी, अपितु इसमें गांव की अर्थव्यवस्था का लाभांश भी सुनिश्चित करेगी। और इस तरह यह मानव सभ्यता से लेकर वन्य जीवन को लाभान्वित करेगा और सह-अस्तित्व का नया अध्याय आरम्भ होगा। (स्रोत फीचर्स)
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भारत में बड़ी संख्या में लोग अधेड़ उम्र से ही घुटने के दर्द (Knee Pain) जैसी समस्याओं से जूझते हैं। कुछ मामलों में तो लोग ठीक से चल भी नहीं पाते या चलते-चलते अक्सर गिर जाते हैं। दरअसल, यह अस्थिछिद्रता (Osteoporosis) नामक स्थिति है जिसमें हड्डियों का घनत्व (Bone Density) कम हो जाता है और वे भुरभरी हो जाती हैं। हल्की-सी टक्कर से उनके टूटने की संभावना बढ़ जाती है। एक बड़ी समस्या यह है कि इस स्थिति पर तब तक किसी का ध्यान नहीं जाता जब तक कोई गंभीर चोट न लग जाए। यह दुनिया भर में 50 से ज़्यादा उम्र की लगभग एक तिहाई महिलाओं और 20 प्रतिशत पुरुषों को प्रभावित करती है। संभव है कि भारत के तकरीबन 6 करोड़ लोग अस्थिछिद्रता से पीड़ित हैं, लेकिन इसके सटीक आंकड़े जुटाना काफी मुश्किल है।
अस्थिछिद्रता के कई कारण होते हैं – जैसे हार्मोनल परिवर्तन (Hormonal Changes), व्यायाम की कमी (Lack of Exercise), मादक पदार्थों का सेवन (Substance Abuse) और धूम्रपान (Smoking)। लेकिन भारत में एक और कारक इसमें योगदान दे रहा है: वायु प्रदूषण (Air Pollution)।
अध्ययनों से पता चलता है कि उच्च प्रदूषण स्तर (High Pollution Levels) वाले क्षेत्रों में अस्थिछिद्रता का प्रकोप अधिक है। भारतीय शहर और गांव अपनी प्रदूषित हवा (Polluted Air) के लिए कुख्यात हैं, इसलिए शोधकर्ता धुंध (Smog) और भंगुर हड्डियों (Brittle Bones) के बीच जैविक सम्बंधों की जांच कर रहे हैं।
ऑस्टियोपोरोसिस (Osteoporosis) शब्द 1830 के दशक में फ्रांसीसी रोगविज्ञानी जीन लोबस्टीन ने दिया था। तब से, वैज्ञानिकों ने हड्डियों की क्षति (Bone Damage) की प्रक्रिया और कई जोखिम कारकों (Risk Factors) की पहचान की है। 2007 में, नॉर्वे में किए गए एक अध्ययन ने पहली बार वायु प्रदूषण और हड्डियों के घनत्व में कमी (Bone Density Loss) के बीच सम्बंध का संकेत दिया था। इसके बाद विभिन्न देशों में किए गए शोध ने भी इस सम्बंध को प्रमाणित किया है।
2017 में इकान स्कूल ऑफ मेडिसिन के डिडियर प्राडा और उनकी टीम ने उत्तर-पूर्वी यूएस के 65 वर्ष से अधिक उम्र के 92 लाख व्यक्तियों के डैटा विश्लेषण में पाया कि महीन कण पदार्थ (PM 2.5) और ब्लैक कार्बन के अधिक संपर्क (Exposure to Black Carbon) में रहने से हड्डियों के फ्रैक्चर (Bone Fractures) और अस्थिछिद्रता की दर में वृद्धि हुई। इसके बाद 2020 में किए गए शोध ने रजोनिवृत्त महिलाओं (Postmenopausal Women) में अस्थिछिद्रता के कारकों की फेहरिस्त में एक अन्य प्रमुख प्रदूषक, नाइट्रोजन ऑक्साइड (Nitrogen Oxides), को जोड़ा।
यूके में, लगभग साढ़े चार लाख लोगों के आंकड़ों के विश्लेषण से पता चला कि अधिक प्रदूषित क्षेत्रों में रहने वालों में फ्रैक्चर का जोखिम (Fracture Risk) 15 प्रतिशत अधिक था। इसी तरह, दक्षिण भारत के एक अध्ययन में पाया गया कि अधिक प्रदूषित गांवों (Polluted Villages) के निवासियों की हड्डियों में खनिज और हड्डियों का घनत्व काफी कम था।
चीन में भी वायु प्रदूषण (Air Pollution in China) और अस्थिछिद्रता के बीच सम्बंध देखा गया है। शैंडोंग प्रांत में किए गए एक अध्ययन से पता चला है कि थोड़े समय के लिए भी यातायात से सम्बंधित प्रदूषकों (Traffic-Related Pollutants) के संपर्क में आने से अस्थिछिद्रता जनित फ्रैक्चर (Osteoporosis-Induced Fractures) का खतरा बढ़ता है। एक अन्य अध्ययन का निष्कर्ष है कि ग्रामीण निवासियों को भी इसी तरह के जोखिमों का सामना करना पड़ता है।
फिलहाल, शोधकर्ता यह समझने का प्रयास कर रहे हैं कि प्रदूषक किस तरह से हड्डियों को नुकसान पहुंचा सकते हैं। इसमें एक प्रत्यक्ष कारक ज़मीन के निकट पाई जाने वाली ओज़ोन (Ground-Level Ozone) है, जो प्रदूषण के कारण पैदा होती है। यह विटामिन डी (Vitamin D) के उत्पादन के लिए आवश्यक पराबैंगनी प्रकाश को कम कर सकती है, जो हड्डियों के विकास (Bone Development) के लिए आवश्यक है। कोशिकीय स्तर पर, प्रदूषक से मुक्त मूलक (Free Radicals) बनते हैं जो डीएनए और प्रोटीन को नुकसान पहुंचाते हैं, सूजन (Inflammation) को बढ़ाते हैं और अस्थि ऊतकों के नवीनीकरण (Bone Tissue Renewal) में बाधा डालते हैं।
ये निष्कर्ष भारत के लिए महत्वपूर्ण हैं, जहां 1998 से 2021 तक कणीय वायु प्रदूषण (Particulate Air Pollution) लगभग 68 प्रतिशत बढ़ा है। जीवाश्म ईंधन (Fossil Fuels) और कृषि अवशेषों (Agricultural Residue Burning) को जलाने के साथ-साथ चूल्हों पर खाना पकाने से समस्या बढ़ जाती है। आज भी कई भारतीय महिलाएं पारंपरिक चूल्हे (Traditional Stove Cooking) पर खाना बनाती हैं, जिससे उनकी हड्डियों की हालत खस्ता हो सकती है।
प्रदूषण और अस्थिछिद्रता के बीच इस सम्बंध से प्रदूषण कम करने (Pollution Control) के लिए प्रभावी कार्रवाई की आवश्यकता स्पष्ट है। इसके अतिरिक्त, अस्थिछिद्रता के निदान (Osteoporosis Diagnosis) को बेहतर करना ज़रूरी है। अस्थि घनत्व की जांच (Bone Density Test) के लिए ज़रूरी DEXA स्कैनरों की भारी कमी है, जो महंगे हैं और मात्र बड़े शहरों में उपलब्ध हैं। समय पर समस्या का पता चलने से हड्डियों के स्वास्थ्य को बेहतर बनाने में मदद मिल सकती है। फिलहाल अस्थिछिद्रता से पीड़ित बहुत से लोग बिना निदान और इलाज (Osteoporosis Treatment) के तकलीफ झेलते हैं, जो वायु प्रदूषण जैसे पर्यावरणीय कारकों (Environmental Factors) से और भी बढ़ जाती है। (स्रोत फीचर्स)
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पानी की कमी (Water Scarcity) दुनिया की प्रमुख पर्यावरणीय समस्याओं (Environmental Issues) में से एक है। दुनिया की अधिकांश आबादी ऐसे क्षेत्रों में रहती है जहां पानी सीमित है या अत्यधिक प्रदूषित (Water Pollution) है। जल प्रदूषण (Water Contamination) स्वास्थ्य की गंभीर समस्याओं को जन्म दे सकता है।
नेचर कम्युनिकेशंस (Nature Communications) में प्रकाशित एक अध्ययन ने इस ओर ध्यान दिलाया है कि पानी की कमी पर शोध प्रमुखत: पानी की मात्रा पर केंद्रित होते हैं, जबकि पानी की गुणवत्ता (Water Quality) को नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (Central Pollution Control Board) और राज्यों की प्रदूषण निगरानी एजेंसियों के एक विश्लेषण से पता चला है कि हमारे प्रमुख सतही जल स्रोतों (Surface Water Sources) का 90 प्रतिशत हिस्सा अब उपयोग के लायक नहीं बचा है।
प्रदूषित (Polluted) होने के साथ ही जल स्रोत तेज़ी से अपनी ऑक्सीजन खो रहे हैं। इनमें नदियां (Rivers), झरने, झीलें (Lakes), तालाब, और महासागर (Oceans) भी शामिल हैं। शोधकर्ताओं के मुताबिक, जब पानी में ऑक्सीजन का स्तर गिरता है, तो यह प्रजातियों को गंभीर रूप से प्रभावित कर सकता है और पूरे खाद्य जाल (Food Chain) को बदल सकता है।
सेंट्रल वॉटर कमीशन (Central Water Commission) और सेंट्रल ग्राउंड वाटर बोर्ड (Central Ground Water Board) के पुनर्गठन की कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार, भारत की कई प्रायद्वीपीय नदियों में मानसून (Monsoon) में तो पानी होता है, लेकिन मानसून के बाद इनके सूख जाने का संकट बना रहता है। देश के ज़्यादातर हिस्सों में भूजल (Groundwater) का स्तर बहुत नीचे चला गया है, जिसके कारण कई जगहों पर भूमिगत जल में फ्लोराइड (Fluoride), आर्सेनिक (Arsenic), आयरन (Iron), मरक्यूरी (Mercury) और यहां तक कि युरेनियम (Uranium) भी मौजूद है।
दुनिया भर में लगभग 1.1 अरब लोगों के पास पानी की पहुंच (Water Access) नहीं है, और कुल 2.7 अरब लोगों को साल के कम से कम एक महीने पानी की कमी का सामना करना पड़ता है। अपर्याप्त स्वच्छता (Inadequate Sanitation) भी 2.4 अरब लोगों के लिए एक समस्या है – वे हैजा (Cholera) और टाइफाइड (Typhoid) जैसी बीमारियों और अन्य जल जनित बीमारियों (Waterborne Diseases) के संपर्क में हैं। हर साल बीस लाख लोग, जिनमें ज़्यादातर बच्चे शामिल हैं, सिर्फ डायरिया (Diarrhea) से मरते हैं।
बेंगलुरु (Bengaluru) जैसे बड़े शहर जल संकट (Water Crisis) से जूझ रहे हैं, जहां इस साल टैंकरों से पानी पहुंचाना पड़ा। दिल्ली की झुग्गियों में रहने वाले लोगों को रोज़मर्रा के कामों के लिए भी पानी की किल्लत झेलनी पड़ती है। राजस्थान के कुछ सूखे इलाकों में तो हालात और भी खराब रहते हैं।
भारत, दुनिया में सबसे ज़्यादा भूजल का इस्तेमाल (Groundwater Usage) करने वाला देश है। प्राकृतिक कारणों के अतिरिक्त भूजल स्रोत विभिन्न मानव गतिविधियों के कारण भी प्रदूषित होते हैं। और यदि एक बार भूजल प्रदूषित हो गया, तो उसे उपचारित (Treated) करने में अनेक वर्ष लग सकते हैं या उसका उपचार किया जाना संभव नहीं होता है। अत: यह अत्यंत आवश्यक है कि किसी भी परिस्थिति में भूमिगत जल स्रोतों को प्रदूषित होने से बचाया जाए। भूमिगत जल स्रोतों को प्रदूषण (Pollution) के खतरे से बचाकर ही उनका संरक्षण (Conservation) किया जा सकता है।
जलवायु परिवर्तन (Climate Change) दुनिया भर में मौसम और बारिश के पैटर्न को बदल रहा है, जिससे कुछ इलाकों में बारिश में कमी और सूखा (Drought) पड़ रहा है और कुछ इलाकों में बाढ़ (Flooding) आ रही है। जल संरक्षण (Water Conservation) की उचित व्यवस्था न होने के कारण भी कभी बाढ़, तो कभी सूखे का सामना करना पड़ सकता है। यदि हम जल संरक्षण की समुचित व्यवस्था कर लें, तो बाढ़ पर नियंत्रण के साथ ही सूखे से निपटने में भी बहुत हद तक कामयाब हो सकेंगे। इसका सबसे बड़ा फायदा यह होगा कि संचित वर्षा जल (Rainwater Harvesting) से भूजल स्तर भी बढ़ जाएगा और जल संकट से बचाव होगा। साथ ही स्वच्छ पेयजल (Clean Drinking Water) की उपलब्धता की स्थिति भी बेहतर हो जाएगी। (स्रोत फीचर्स)
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संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन रूपरेखा सम्मेलन (UNFCCC) के अनुसार हमारा ग्रह (पृथ्वी) तिहरे संकट से घिरा है – जलवायु परिवर्तन, जैव-विविधता का ह्रास और प्रदूषण। अब ज़रूरत है कि इन परस्पर जुड़ी चुनौतियों को संबोधित किया जाए ताकि हम और हमारी आने वाली पीढ़ियां इस जीवनक्षम ग्रह पर जी सकें। जलवायु परिवर्तन एक ऐसा संकट है जिस पर विश्व स्तर पर तत्काल कार्रवाई की आवश्यकता है। इस संकट से निपटने के लिए संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन (COP21) में 195 सदस्य देशों द्वारा एक वैश्विक बाध्यकारी संधि (पेरिस संधि) अपनाई गई है। इसका लक्ष्य है औसत वैश्विक तापमान वृद्धि को पूर्व-औद्योगिक स्तर से 1.5 डिग्री सेल्सियस से कम रखना।
जलवायु परिवर्तन के संकट से निपटने में वनों की एक महत्वपूर्ण भूमिका मानी जाती है। जंगल वायुमंडल से कार्बन डाईऑक्साइड को सोखकर कार्बन सिंक के रूप में कार्य कर सकते हैं और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन कम करने में मदद करते हैं जिससे जलवायु परिवर्तन की दर धीमी पड़ती है। पेरिस समझौते के अनुच्छेद-5 में निर्वनीकरण और वन-निम्नीकरण रोकने का महत्व स्पष्ट किया गया है; वन नहीं रहेंगे तो उनमें संचित कार्बन मुक्त हो जाएगा और ग्लोबल वार्मिंग बढ़ाने में योगदान देगा।
वर्तमान में, विश्व की कुल भूमि का 31 प्रतिशत हिस्सा वनों से आच्छादित है। इन वनों में थलीय-वनस्पतियों और थलचर जीव-जंतुओं, दोनों की समृद्ध जैव विविधता है। ये वन 80 प्रतिशत उभयचर, 75 प्रतिशत पक्षी और 68 प्रतिशत स्तनधारी प्रजातियों का घर हैं, और कहने की ज़रूरत नहीं कि ये 5,00,000 थलीय-वनस्पति प्रजातियों के घर भी हैं। वन मनुष्यों के लिए भी महत्वपूर्ण हैं – वन 8.6 करोड़ हरित रोज़गार प्रदान करके आजीविका के साधन बढ़ाते हैं। वन 88 करोड़ लोगों, अधिकांश महिलाओं, के लिए जलाऊ लकड़ी के साथ-साथ कई अन्य गैर-काष्ठ वन उपज भी मुहैया कराते हैं। दुनिया भर में एक अरब से अधिक लोग भोजन के लिए वन-स्रोतों पर निर्भर हैं।
प्राचीन काल से ही वनों ने मानव जीवन, आजीविका और खुशहाली को बनाए रखने में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। लेकिन उनके बेतहाशा उपयोग और दोहन से निर्वनीकरण और वन-निम्नीकरण दोनों हुए हैं। पिछले 10,000 वर्षों में हम पृथ्वी के एक तिहाई वन गंवा चुके हैं। इसमें से आधे वन तो सिर्फ पिछली शताब्दी में ही उजाड़े गए हैं। आज भी वनों का सफाया करने का प्रमुख कारण खेती के लिए ज़मीन बनाना है; हाल ही में तेल के लिए ताड़ और सोयाबीन जैसी वाणिज्यिक फसलें उगाने के लिए वनों को काटा गया है। पशु पालन और शहरीकरण के कारण भूमि आवरण में आए बदलाव भी वनों की कटाई के कारण हैं। 1980 के दशक में वनों की कटाई अपने चरम पर थी। लेकिन गनीमत है कि वैश्विक प्रयासों के चलते वनों की कटाई की गति मंद पड़ी है – हालांकि यह पूरी तरह रुकी नहीं है और आज भी कम से कम 1 करोड़ हैक्टर वन हर साल कट रहे हैं।
इनमें अधिकांश उष्णकटिबंधीय और उपोष्णकटिबंधीय देशों के समृद्ध जैव-विविधता वाले वन हैं। लेकिन वैश्विक स्तर पर जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने में वनों की भूमिका को पहचानने के बाद तो वनों की कटाई को रोकना तत्काल रूप से आवश्यक हो गया है।
वन वैज्ञानिकों के एक अंतर्राष्ट्रीय नेटवर्क, इंटरनेशनल यूनियन ऑफ फॉरेस्ट रिसर्च ऑर्गेनाइज़ेशन ने मई 2024 में ‘अंतर्राष्ट्रीय वन प्रशासन: रुझान, खामियों और नवीन तरीकों की एक समीक्षा’ (International forest governance: A critical review of trends, drawbacks and new approaches) शीर्षक से एक रिपोर्ट जारी की है। अंतर्राष्ट्रीय वन प्रशासन के अंतर्गत कानून, नीतियां और संस्थागत ढांचे (बाध्यकारी और स्वैच्छिक दोनों) शामिल हैं जो वैश्विक वनों का प्रशासन मुख्यत: संरक्षण और टिकाऊ प्रबंधन के उद्देश्य से करते हैं। उपरोक्त आकलन रिपोर्ट में 2010 के बाद के दशक में जिन रुझानों पर प्रकाश डाला गया है उनमें से एक है वन प्रशासन विमर्श का ‘जलवायुकरण’। रिपोर्ट के अनुसार इसने वन संरक्षण के लिए बाज़ार-चालित और तकनीकी प्रक्रियाओं को बढ़ावा दिया है। लेकिन चिंता की बात यह है कि इसके कारण वनों के आर्थिक, सामाजिक और पारिस्थितिक महत्व पर कम ध्यान या महत्व दिया जा रहा है।
वनों की कटाई से निपटने के लिए बाज़ार-आधारित विधियों में से एक का उदाहरण लेते हैं: Reducing Emissions from Deforestation and Forest Degradation in Developing Countries (REDD+) अर्थात विकासशील देशों में निर्वनीकरण और वन-निम्नीकरण के कारण होने वाला उत्सर्जन कम करना। इसका विशिष्ट उद्देश्य जलवायु परिवर्तन को थामना है। जो विकासशील देश निर्वनीकरण और वन-निम्नीकरण को थामने के साथ-साथ वनों के सतत प्रबंधन के लिए प्रतिबद्ध हैं, उन्हें REDD+ के तहत इसके बदले भुगतान किया जाएगा। वन संरक्षित हो जाएंगे, और संरक्षण करने वाले देशों को विकास सम्बंधी गतिविधियों के लिए धन मिलेगा – यानी सबकी जीत (या आम के आम, गुठलियों के दाम)। खासकर पेरिस समझौते के बाद से, REDD+ को जलवायु परिवर्तन की वैश्विक चुनौती से लड़ने में एक महत्वपूर्ण किरदार के रूप में देखा जा रहा है।
REDD+ पहली बार 2007 में प्रस्तावित किया गया था। तब से REDD+ के फायदे और इसके प्रतिकूल प्रभावों पर विभिन्न मत रहे हैं। कुछ लोग मानते हैं कि REDD+ निर्वनीकरण और वन-निम्नीकरण को रोकने में अप्रभावी है। दूसरी ओर, कुछ लोगों का तर्क है कि REDD+ की सफलता सीमित इसलिए दिखती है क्योंकि इसे संपूर्ण राष्ट्र स्तर पर नहीं, बल्कि परियोजना-आधारित तरीके से लागू किया जा रहा है। चूंकि REDD+ एक वित्तीय प्रोत्साहन/प्रलोभन है, इसलिए इसकी आलोचना में एक तर्क यह दिया जाता है कि इससे मिलने वाला वित्तीय प्रोत्साहन वनों के अन्य अधिक मुनाफादायक इस्तेमाल का मुकाबला नहीं कर सकता। उदाहरण के लिए, दक्षिण-पूर्वी एशियाई देशों में तेल के लिए ताड़ बागानों और इमारती लकड़ी के बागानों के लिए बड़े पैमाने पर वनों की कटाई होती है। इन बागानों से इतना मुनाफा मिलता है कि REDD+ जैसी प्रणाली यहां काम नहीं करेगी।
बाज़ार-आधारित व्यवस्था के रूप में REDD+ पर विवाद का एक प्रमुख कारण देशज समुदायों पर इसका प्रभाव रहा है – विशेष रूप से सामाजिक न्याय के परिप्रेक्ष्य में। एक तरफ तो REDD+ को इस तरह देखा जाता है कि यह देशज समुदायों को वित्तीय लाभ देगा जिससे वे अपनी विकास सम्बंधी आवश्यकताओं को पूरा कर सकेंगे। दुनिया भर के देशज समुदायों ने एक खुले पत्र में REDD+ के लिए अपना समर्थन व्यक्त किया था। देशज लोगों और संगठनों के वक्तव्यों में कहा गया है कि इससे मिली वित्तीय मदद ने उन्हें टिकाऊ वन प्रबंधन और संरक्षण करने में मदद के अलावा स्वास्थ्य केंद्र और स्कूल जैसी सुविधाएं स्थापित करने में भी मदद की है। लेकिन साथ ही, देशज समुदायों को जंगलों तक पहुंच और उन पर अपने अधिकार गंवाने का भी डर है। और तो और, उन्हें वहां से विस्थापित कर दिए जाने का डर भी है। उनकी आजीविका और निर्वाह काष्ठ और गैर-काष्ठ दोनों तरह के वन उत्पाद के निष्कर्षण पर निर्भर है। लेकिन REDD+ द्वारा लागू नियम इन समुदायों (की आजीविका) पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकते हैं। यह आशंका व्यक्त की गई है कि देशों के अंदर भी REDD+ से होने वाले लाभ, विशेषकर वित्तीय लाभ, अंततः कुछ शक्तिशाली लोगों के हाथों में चले जाएंगे।
REDD+ जैसी बाज़ार-उन्मुख व्यवस्था से असमान सत्ता संतुलन के बारे में भी चिंताएं उठती हैं। ग्लोबल नॉर्थ के विकसित देश, जो कार्बन के मुख्य उत्सर्जक और जलवायु परिवर्तन के प्रमुख योगदानकर्ता भी हैं, अपने अधिक धन के बल पर वन उपयोग की ऐसी शर्तें लागू कर सकते हैं जो विकासशील ग्लोबल साउथ के देशों और समुदायों के लिए हानिकारक होंगी। ग्लोबल साउथ के देशों के विभिन्न समूहों के लिए सत्ता का असमान वितरण व इसके प्रभाव भी चिंता का विषय हैं – अधिक राजनीतिक, आर्थिक या सामाजिक सामर्थ्य वाले देश ऐसी बाज़ार-केंद्रित व्यवस्था का फायदा उठा सकते हैं।
भारत उन शीर्ष दस देशों में से एक है जहां सबसे अधिक वन क्षेत्र है। भारत की वन स्थिति रिपोर्ट (State of Forest Report) 2021 के अनुसार, देश के भौगोलिक क्षेत्र का 21.71 प्रतिशत भाग वनों से आच्छादित है। इन वनों में अत्यंत समृद्ध जैव विविधता पनपती है, जिसमें कई ऐसी प्रजातियां हैं जो दुनिया में और कहीं नहीं पाई जाती हैं यानी ये एंडेमिक हैं। भारत के वन 7.2 अरब टन कार्बन को भंडारित किए हुए हैं, और सरकार जलवायु परिवर्तन को कम करने में इन वनों के महत्व को स्वीकार करती है। भारत ने REDD से जुड़ी वार्ताओं में भाग लिया है और UNFCCC को राष्ट्रीय REDD+ रणनीति सौंपी भी है।
भारत के जंगल आदिवासियों के घर हैं, जो वनों पर बहुत अधिक निर्भर हैं। इसके अलावा वनों की सीमाओं पर बसे कई गांव और ग्रामीण आबादी भी पूरी तरह या आंशिक रूप से वनों पर निर्भर हैं। इनकी संख्या कोई मामूली नहीं है – 30 करोड़ की आबादी वाले ऐसे 1,73,000 गांव अपनी ज़रूरतों के लिए वनों पर निर्भर हैं। यहां बसे समुदाय देश के सबसे गरीब समुदायों में से हैं और अक्सर उनकी आय का एकमात्र स्रोत वन उपज होती है। वन और वन उपज पर यह सामुदायिक निर्भरता REDD+ के उद्देश्य के आड़े आती है, जो निर्वनीकरण और वन-निम्नीकरण को रोकना चाहता है। इसलिए, जब वनों के ह्रास को रोकने के लिए REDD+ जैसी बाज़ार-आधारित व्यवस्था की बात होती है तो भारत की चिंताएं बाकी दुनिया की चिंताओं से भिन्न नहीं हैं – न्याय, समता और ऐसे उपायों की प्रभावशीलता की चिंताएं।
बेशक, जलवायु परिवर्तन से निपटने में वन महत्वपूर्ण हैं। लेकिन वनों की रक्षा करने या वनों की कटाई को रोकने का एकमात्र कारण यही नहीं बन सकता। वनों से मिलने वाली अमूल्य पारिस्थितिक सेवाएं, वनों में पाई जाने वाली समृद्ध जैव विविधता, वनों पर निर्भर लाखों लोगों की आजीविका और निर्वहन भी वनों की रक्षा करने के लिए उतना ही महत्वपूर्ण कारण है। वन प्रशासन के जलवायुकरण और बाज़ार-उन्मुख व्यवस्था का एक ही लक्ष्य है (वनों का संरक्षण), लेकिन यह एकल-लक्ष्य-उन्मुखी वन प्रशासन भारत या दुनिया भर के वनों और उस पर निर्भर समुदायों दोनों के लिए हानिकारक भी हो सकता है। अंतर्राष्ट्रीय वन प्रशासन को इस पहलू से अवगत होना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://images.ctfassets.net/mrbo2ykgx5lt/31154/07ed036c21fae9c8608765ed0397389f/forests-and-global-change-proforestation.jpg
गर्माती दुनिया का एक असर है हिमनदों और बर्फ की चादरों का पिघलना और इसके चलते समुद्र का जलस्तर बढ़ना। एक हालिया अध्ययन का निष्कर्ष है कि विशाल वायरस बर्फ पिघलने की गति को धीमा कर सकते हैं।
दरअसल, विशाल वायरस (न्यूक्लियोसाइटोप्लाज़्मिक लार्ज डीएनए वायरस) पूरी दुनिया की मिट्टी, नदियों और महासागरों में पाए जाते हैं। लेकिन आरहुस विश्वविद्यालय की लॉरा पेरिनी यह जानना चाहती थीं कि क्या विशाल वायरस बर्फीले ग्रीनलैंड में भी पाए जाते हैं। उन्होंने वहां की बर्फ के नमूने लेकर उनका जेनेटिक विश्लेषण किया। पता चला कि ये वायरस सैकड़ों सालों से यहां मौजूद हैं और यहां उगने वाली रंगीन शैवाल को संक्रमित कर रहे हैं। संभव है कि विशाल वायरस इन रंगीन शैवाल के फलने-फूलने और वृद्धि को सीमित कर सकते हैं। शोधकर्ताओं का कहना है कि यदि ये वायरस ग्रीनलैंड में रंगीन शैवाल को फैलने से रोकते हैं तो इससे बढ़ रहे समुद्र स्तर को धीमा करने में मदद मिल सकती है क्योंकि कुछ अध्ययन बताते हैं कि बर्फ पर पनपने वाली शैवाल का गहरा-काला रंग बर्फ के पिघलने को बढ़ाता है; उजली बर्फ पर शैवाल का गहरा रंग अधिक ऊष्मा सोखता है, नतीजतन बर्फ तेज़ी से पिघलती है।
ऐसे में विशाल वायरस द्वारा शैवाल को संक्रमित करने और इनकी वृद्धि सीमित करने से बर्फ पर फैले गहरे रंग में कमी आएगी, जिसके नतीजे में बर्फ के पिघलने की रफ्तार धीमी होगी।
लेकिन ऐसे उपायों की कुछ दिक्कतें भी दिखती हैं। एक तो यही ठीक से नहीं पता है कि ग्रीनलैंड की बर्फ पिघलाने में शैवाल वास्तव में कितना योगदान देती है, इसलिए शैवाल को फैलने से रोककर समुद्र स्तर बढ़ने में वाकई कितनी कमी लाई जा सकेगी इसका पक्का अंदाज़ा नहीं है। बर्फ को तेज़ी से पिघलाने में अन्य कारक भी ज़िम्मेदार हो सकते हैं; जैसे गर्माती जलवायु के कारण बर्फ के पिघलने से (गहरे रंग के) पानी के डबरे बन सकते हैं। ये डबरे भी अधिक ऊष्मा सोख सकते हैं और बर्फ पिघलने की रफ्तार बढ़ा सकते हैं।
दूसरा, यह ज़रूरी नहीं कि शैवाल-नियंत्रण के इरादे से विशाल वायरस को फैलाना एक अच्छा विचार साबित हो क्योंकि शैवाल के अन्य कार्य भी हैं, जैसे कार्बन भंडारण। कार्बन भंडारण कर शैवाल जलवायु परिवर्तन के एक प्रमुख कारक से तो निजात दिलाते ही हैं।
तीसरा, जलवायु परिवर्तन के नुमाया लक्षणों को दबाने या थामने के उपाय वास्तविक समस्या को हल करने से ध्यान हटाते हैं। मर्ज़ को ठीक न कर उसके लक्षणों से निपटने के प्रयास समस्या को इतना भयावह कर सकते हैं कि हो सकता है मर्ज़ काबू से बाहर निकल जाए। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://static.scientificamerican.com/dam/m/546d0eafa33e7c36/original/IMG_4542_WEB.jpg?w=1200
ट्रेन में यात्रा करते समय, पटरियों की लयबद्ध “खट… खट” की ध्वनि एक सुपरिचित अनुभव से कहीं ज़्यादा चतुर इंजीनियरिंग का प्रमाण है। इस्पात से बनी ट्रेन की पटरियां तापमान बढ़ने पर फैलती हैं। करीब 550 मीटर की पटरी में, हर 5.5 डिग्री सेल्सियस तापमान बढ़ने पर एक इंच से अधिक की वृद्धि होती है। परंपरागत रूप से, इस फैलाव को समायोजित करने के लिए, पटरियां 12 से 15 मीटर के टुकड़ों में बिछाई जाती हैं और दो टुकड़ों के बीच छोटे-छोटे खाली स्थान छोड़े जाते हैं। ऐसे में जब भारी रेलगाड़ी पटरी पर से गुज़रती है तो हमको सुनाई देने वाली विशिष्ट आवाज़ (जबलपुरकेदो–दोपैसे या मराठी में कशासाठी, कुणासाठी) पटरियों के बीच इन छोटी जगहों के कारण होती है जिन्हें प्रसार को संभालने के लिए छोड़ा जाता है।
गर्मी बहुत अधिक हो तो पटरियों का प्रसार इन छोटी जगहों को भर देता है। ऐसे में पटरियां मुड़ सकती हैं और लहरदार हो सकती हैं; इसे ‘सन किंक’ कहा जाता है। ये सन किंक ट्रेन संचालन के लिए गंभीर जोखिम पैदा करते हैं। यदि रेलगाड़ियां ऐसी पटरियों पर चलती हैं तो वे बेपटरी हो सकती हैं, और गंभीर मामलों में सीधी पटरियां अचानक से खतरनाक रूप से मुड़ सकती हैं।
ऐसी दुर्घटनाओं को रोकने के लिए, तापमान बढ़ने की स्थति में रेल सेवाएं ट्रेनों की गति धीमी कर देती हैं। कम गति का मतलब है पटरियों पर यांत्रिक तनाव कम होगा, जिससे बकलिंग की संभावना कम हो जाएगी। उदाहरण के लिए, जब पटरियों का तापमान 60 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाता है, तो अमेरिका में एमट्रैक अपनी ट्रेनों की गति को 128 किलोमीटर प्रति घंटे तक सीमित कर देता है। यह एहतियात हाल की ग्रीष्म लहर के दौरान एमट्रैक के नॉर्थईस्ट कॉरिडोर में हुई देरियों के लिए कुछ हद तक ज़िम्मेदार थी।
इन सावधानियों से यह समझने में मदद मिलती है कि ग्रीष्म लहरें अक्सर ट्रेन की देरी का कारण क्यों बनती हैं। यात्रियों की सुरक्षा सुनिश्चित करने और रेलवे के बुनियादी ढांचे को टूट-फूट से बचाने के लिए यह एक आवश्यक कदम है। चूंकि जलवायु परिवर्तन के कारण ग्रीष्म लहरों की आवृत्ति और तीव्रता दोनों बढ़ रहे हैं, इसलिए रेल सेवाओं को बढ़ते तापमान से निपटने के लिए और भी कड़े उपाय अपनाने की आवश्यकता होगी।
बहरहाल पटरियों की खट-खट ध्वनि कुछ लोगों के लिए मनमोहक हो सकती है, लेकिन यह भीषण गर्मी के दौरान रेल यात्रा को सुरक्षित रखने के लिए आवश्यक परिष्कृत इंजीनियरिंग की शानदार मिसाल भी है। अगली बार जब आप गर्मियों में ट्रेन में देरी का अनुभव करें, तो याद रखें कि यह आपको सुरक्षित रखने के लिए है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://qph.cf2.quoracdn.net/main-qimg-32467dbb51d14eabe2ef6acbd3ee5059-lq