हाल ही में स्पेसएक्स कंपनी (SpaceX Company) का फाल्कन रॉकेट (Falcon Rocket) अंतरिक्ष में पर्याप्त ऊंचाई तक नहीं पहुंच सका था। तब 11 जुलाई के दिन इसके द्वारा छोड़े गए 20 स्टारलिंक उपग्रह (Starlink Satellites) यहां-वहां बिखर गए और दो दिन बाद ही वे पृथ्वी के वायुमंडल (Earth’s Atmosphere) में गिरकर भस्म हो गए।
यह तो चलो, दुर्घटना का मामला हो गया लेकिन इस तरह से उपग्रहों को उनकी कक्षा से बाहर करना उनसे निजात पाने का एक नियमित तरीका है ताकि वे अंतरिक्ष में भटकते हुए वहां मलबे (Space Debris) में इज़ाफा न करें। अब आज की स्थिति पर नज़र डालते हैं – कई अंतरिक्ष कंपनियां (Space Companies) हज़ारों उपग्रह कक्षा में स्थापित करने की योजना बना रही हैं। चिंता का विषय यह है कि जब ये उपग्रह बड़ी संख्या में अपना कार्यकाल पूरा कर लेंगे तो क्या होगा।
हाल के अनुसंधान से पता चला है कि ऐसे उपग्रहों से निकले धात्विक कण और गैसें हमारे वायुमंडल के समताप मंडल (Stratosphere) में वर्षों तक बने रह सकते हैं और शायद ओज़ोन (Ozone) के क्षय का कारण बन सकते हैं।
अभी तक उपग्रहों को ठिकाने लगाना कोई चिंता की बात नहीं थी क्योंकि ऐसे उपग्रहों की तादाद बहुत कम थी। प्रति वर्ष करीबन सौ उपग्रहों को उनकी कक्षा से बेदखल किया जाता था। समतापमंडल (Stratosphere) काफी विशाल है – यह धरती से 10 किलोमीटर से लेकर 50 किलोमीटर की ऊंचाई तक फैला है। लेकिन जब स्पेसएक्स कंपनी ने स्टारलिंक उपग्रहों का बड़े पैमाने पर उत्पादन करके उन्हें अंतरिक्ष में भेजना शुरू किया, तो चिंता की स्थिति बनी। आज 6 हज़ार से भी ज़्यादा स्टारलिंक उपग्रह कक्षाओं में चक्कर लगा रहे हैं। कुल कामकाजी उपग्रहों (Operational Satellites) की संख्या तो लगभग 10,000 है। और तो और, स्पेसएक्स ने 30,000 और उपग्रह प्रक्षेपण (Satellite Launch) की अनुमति मांगी है। अन्य भी कहां पीछे रहने वाले हैं। अमेज़ॉन (Amazon) 3200 उपग्रहों के पुंज पर काम कर रहा है जबकि चीन इस अगस्त में 12,000 उपग्रह प्रक्षेपित करेगा। एक अनुमान के मुताबिक जल्दी ही उपग्रह-संचालकों (Satellite Operators) को प्रति वर्ष 10,000 उपग्रहों को ठिकाने लगाना होगा।
एक तुलनात्मक अध्ययन में लिओनार्ड शूल्ज़ और उनके साथियों ने बताया है कि फिलहाल ऐसे उपग्रहों को नष्ट करने पर जो पदार्थ पैदा होता है वह पृथ्वी पर होने वाली कुदरती उल्कापात (Meteor Showers) का मात्र 3 प्रतिशत होता है। लेकिन भविष्य में जब 75,000 उपग्रह कक्षाओं में होंगे तो यह पदार्थ उल्कापात की तुलना में 40 प्रतिशत तक हो जाएगा। एक तथ्य यह भी है कि उल्काओं की अपेक्षा उपग्रह बड़े होते हैं और धीमी गति से जलते हैं। तो उनके द्वारा जनित कणीय पदार्थ कहीं ज़्यादा होगा।
उपग्रह जब वायुमंडल में वापसी करते हैं, तो जो असर समताप मंडल पर होता है, उसकी एक झलक यूएस के नेशनल ओशिएनिक एंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिस्ट्रेशन (NOAA) की रसायन प्रयोगशाला के डैनियल मर्फी तथा उनके साथियों ने पेश की है। नासा (NASA) के आंकड़ों के आधार पर उन्होंने बताया है कि समताप मंडल में गंधकाअम्ल (Sulfuric Acid) की महीन बूंदें तैर रही हैं जिनमें 20 अलग-अलग तत्व मौजूद हैं जो शायद उपग्रहों और रॉकेटों से आए हैं।
चिंता का मसला एल्यूमिनियम (Aluminum) है जो उपग्रहों में प्रयुक्त सबसे आम धातु होती है। यदि यह एल्यूमिनियम ऑक्साइड (Aluminum Oxide) या हायड्रॉक्साइड के रूप में तबदील हो जाए, तो यह हाइड्रोजन क्लोराइड (Hydrogen Chloride) से क्रिया करके एल्यूमिनियम क्लोराइड (Aluminum Chloride) बनाएगा। सूर्य के प्रकाश (Sunlight) के कारण एल्यूमिनियम क्लोराइड आसानी से टूटकर क्लोरीन (Chlorine) उत्पन्न कर सकता है जो ओज़ोन के लिए घातक होगी। इसके अलावा, धात्विक एयरोसॉल (Metallic Aerosols) समतापमंडल के बादलों पर आवेश पैदा कर सकते हैं जो क्लोरीन को मुक्त करके ओज़ोन को नुकसान पहुंचा सकते हैं।
फिलहाल कई अन्य अनजाने असर भी सामने आ रहे हैं। जैसे उपग्रह के पुन:प्रवेश (Re-entry) पर एल्यूमिनियम के जलने की अनुकृति प्रयोगों का निष्कर्ष है कि 250 ग्राम के किसी उपग्रह के चलने पर 30 किलोग्राम एल्यूमिनियम ऑक्साइड नैनो कण (Nano Particles) पैदा होंगे। वर्ष 2022 में 2000 उपग्रहों को कक्षा से अलग किया गया था जिनमें एल्यूमिनियम ऑक्साइड का वज़न 17 टन था। इसी आधार पर देखें तो जब अंतरिक्ष में उपग्रहों के महा-नक्षत्र होंगे तो इसकी मात्रा प्रति वर्ष 360 टन आंकी जा सकती है।
उपग्रहों की बढ़ती संख्या की वजह से कई पर्यावरणीय असर (Environmental Impact) हो सकते हैं। इसके मद्देनज़र विचार करने की ज़रूरत है। जैसे इस बात पर विचार हो सकता है कि उपग्रह किन पदार्थों से बनाए जाएं या यह भी सोचा जा सकता है कि क्या कक्षा में सर्विसिंग (Satellite Servicing) या मरम्मत करके या ईंधन की व्यवस्था करके उपग्रहों का जीवनकाल बढ़ाया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://images.theconversation.com/files/601683/original/file-20240619-19-3eb1g0.jpg?ixlib=rb-4.1.0&rect=82%2C14%2C2313%2C1332&q=20&auto=format&w=320&fit=clip&dpr=2&usm=12&cs=strip
मंगल ग्रह को पृथ्वीनुमा बनाने का विचार टेराफॉर्मिंग (Terraforming) यानी सर्द, बंजर ग्रह को मनुष्यों के रहने योग्य (habitable) बनाना लंबे समय से विज्ञान कथाओं का प्रिय विषय रहा है। और नए अध्ययन का निष्कर्ष है कि यह महत्वाकांक्षी लक्ष्य पहले की तुलना में अधिक सुलभता से प्राप्त किया जा सकता है। साइन्स एडवांसेस (Science Advances) में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार, मंगल के वायुमंडल (Mars atmosphere) में छोटे कण इंजेक्ट करने से ग्रह काफी गर्म हो सकता है, जिससे यह मानव निवास के लिए उपयुक्त हो जाएगा।
अध्ययन से पता चलता है कि हर साल मंगल के वायुमंडल में विशेष रूप से तैयार किए गए लगभग 20 लाख टन कणों को प्रविष्ट कराकर ग्रह का तापमान कुछ ही महीनों में 10 डिग्री सेल्सियस से अधिक बढ़ाया जा सकता है। यह तापमान वृद्धि मंगल पर तरल पानी (liquid water on Mars) की उपस्थिति के लिए पर्याप्त है, जो ग्रह को रहने योग्य बनाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।
मंगल वर्तमान में एक ठंडा और दुर्गम स्थान है, जिसका औसत तापमान ऋण 62 डिग्री सेल्सियस के आसपास है। इसका पतला वायुमंडल और सूरज की कमज़ोर रोशनी के कारण पानी का तरल रूप में रहना असंभव है, जबकि यह जीवन (life on Mars) के लिए अनिवार्य है। वैसे, मंगल पर अरबों वर्ष पहले बहता हुआ पानी था, लेकिन आज जो कुछ बचा है वह ज़्यादातर ध्रुवीय बर्फ के रूप में है या सतह के नीचे जम गया है।
मंगल ग्रह को गर्म करने का विचार पृथ्वी पर ग्लोबल वार्मिंग (global warming) को बढ़ावा देने वाली प्रक्रिया के समान है – वहां एक कृत्रिम ग्रीनहाउस प्रभाव (greenhouse effect) उत्पन्न किया जा सकता है। वैज्ञानिक ऐसे पदार्थों की खोज कर रहे हैं जिन्हें मंगल के वायुमंडल में छोड़कर गर्मी को ठीक वैसे ही कैद किया जा सके जैसे पृथ्वी पर कार्बन डाईऑक्साइड और जल वाष्प करते हैं।
पिछले सुझावों में इस प्रभाव को उत्पन्न करने के लिए क्लोरोफ्लोरोकार्बन (CFC) या सिलिका एरोजेल का उपयोग करने का विचार शामिल था। हालांकि, इसके लिए पृथ्वी से बड़ी मात्रा में सामग्री ले जाने की आवश्यकता होगी, जो वर्तमान तकनीक के साथ व्यावहारिक नहीं है।
नए अध्ययन में मंगल ग्रह पर पहले से ही प्रचुर मात्रा में मौजूद पदार्थों से बने कणों का उपयोग करने का प्रस्ताव है। इसमें विशेष रूप से मंगल ग्रह की धूल में पाए जाने वाले लोहे और एल्यूमीनियम के यौगिक हैं। नॉर्थवेस्टर्न यूनिवर्सिटी के पीएच.डी. छात्र समानेह अंसारी के नेतृत्व में शोधकर्ताओं ने छोटी छड़ों के आकार के कण तैयार किए हैं जो मंगल ग्रह की धूल के कणों से लगभग दुगनी साइज़ के हैं। इन कणों को मंगल ग्रह पर ही बनाकर वायुमंडल में छोड़ा जा सकता है जहां ये ग्रह की सतह की गर्मी को सोखने और उसे वापस मंगल की सतह पर पहुंचाने में मददगार हो सकते हैं। गौरतलब है कि सारे विचारों को कंप्यूटर अनुकृतियों (computer simulations) के आधार पर जांचा गया है।
कंप्यूटर सिमुलेशन से पता चलता है कि यह विधि मंगल को लगभग 10 डिग्री सेल्सियस तक गर्म कर सकती है, जबकि इसके लिए अन्य प्रस्तावित विधियों की तुलना में बहुत कम सामग्री की आवश्यकता होगी। 20 लाख टन कणों की तुलना में इस तरीके में कहीं कम सामग्री लगेगी और सबसे महत्वपूर्ण बात यह कि यह सामग्री मंगल पर ही विद्यमान है।
हालांकि, मंगल का तापमान बढ़ाना इसे रहने योग्य बनाने की दिशा में मात्र एक कदम है। जहां पृथ्वी के वायुमंडल में 21 प्रतिशत ऑक्सीजन है वहीं लाल ग्रह के वायुमंडल में मात्र 0.1 प्रतिशत है। और तो और, मंगल पर वायुमंडलीय दबाव इतना कम है कि मानव रक्त उबलने लगे। इसके अतिरिक्त, मंगल पर हानिकारक पराबैंगनी विकिरण (ultraviolet radiation) से बचाने के लिए ओज़ोन परत का अभाव है, और इसकी मिट्टी फसल उगाने के लिए बहुत अधिक नमकीन या ज़हरीली भी है।
इन चुनौतियों के बावजूद, शोध दल प्रयोगशाला में अपने प्रस्तावित कणों का परीक्षण जारी रखने और ग्रीनहाउस प्रभाव को बढ़ाने के लिए अन्य संभावित सामग्रियों और आकृतियों का पता लगाने की योजना बना रहे हैं।
मंगल पर बड़े पैमाने पर इंजीनियरिंग करना फिलहाल दूर की कौड़ी है, लेकिन यह शोध हमें यह समझने के करीब लाता है कि मंगल को मानवता के लिए एक संभावित नया घर (new home for humanity) बनाने के लिए क्या करना पड़ सकता है। अध्ययन के सह लेखक युनिवर्सिटी ऑफ शिकागो के प्रोफेसर एडविन काइट कहते हैं कि यह कार्य न केवल मंगल ग्रह के बारे में हमारे ज्ञान को बढ़ाता है, बल्कि पृथ्वी के जलवायु और पारिस्थितिकी तंत्र का अध्ययन करने के महत्व को भी रेखांकित करता है ताकि अन्यत्र इन्हें बनाने की कल्पना की जा सके। और शायद ऐसे अध्ययन हमें पृथ्वी को जीवन के विभिन्न रूपों के लिए ज़्यादा अनुकूल बनाने में भी मददगार साबित हों। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.zwyzvzm/full/_20240807_mars_terraforming-1723053606127.jpg
वैश्विक आपदाओं से सुरक्षा के लिए लाखों किस्म के बीजों को नॉर्वे स्थित स्वालबर्ड ग्लोबल सीड वॉल्ट (Svalbard Global Seed Vault) में रखा गया है। इसे डूम्सडे वॉल्ट (Doomsday Vault) (कयामत की तिज़ोरी) कहा जाता है। इस तिज़ोरी को 100 देशों ने मिलकर स्वालबर्ड में इसलिए स्थापित किया था ताकि इसमें रखे गए बीज व अन्य जैविक सामग्री जलवायु परिवर्तन (climate change) से सुरक्षित रहे और भविष्य में ज़रूरत पड़ने पर काम आ सके। फिलहाल यहां 8 लाख 60 हज़ार बीज व अन्य सामग्री रखी गई है।
लेकिन 2017 में आर्कटिक ग्रीष्म लहर के कारण पर्माफ्रॉस्ट (permafrost) (बर्फ का स्थायी आवरण) पिघलने से वॉल्ट में पानी भर गया। इस घटना से संरक्षित बीजों को तो कोई हानि नहीं हुई लेकिन इसने स्मिथसोनियन नेशनल ज़ू एंड कंज़र्वेशन बायोलॉजी इंस्टीट्यूट (Smithsonian National Zoo and Conservation Biology Institute) की जीवविज्ञानी मैरी हेगडॉर्न को चिंता में डाल दिया। वे न सिर्फ बीज बल्कि जंतु कोशिकाओं को सहेजने के लिए एक अधिक सुरक्षित स्थान पर विचार करने लगीं – एक ऐसा स्थान जो जलवायु परिवर्तन और अन्य वैश्विक संघर्षों (global conflicts) से मुक्त हो। और उन्हें लगा कि चंद्रमा (moon) से बेहतर कोई स्थान नहीं है।
बायोसाइंस (Bioscience) में हाल ही में प्रकाशित एक लेख में, हेगडॉर्न और दस अन्य विशेषज्ञों ने चंद्रमा पर डूम्सडे वॉल्ट (Doomsday Vault) के लिए एक योजना का प्रस्ताव दिया है। इस योजना में चंद्रमा के ऐसे स्थान पर जैविक सामग्री (biological material) सहेजने की कल्पना है जहां हमेशा छाया बनी रहती हो, जहां का तापमान तरल नाइट्रोजन (liquid nitrogen) जितना ठंडा हो तथा परिरक्षण के लिए एक निष्क्रिय व स्थिर वातावरण मौजूद हो।
चंद्रमा पर तिज़ोरी बनाने का विचार हवाई स्थित कोरल रीफ (coral reef) के शीत संरक्षण (cryo-preservation) के दौरान आया जब तरल नाइट्रोजन की आपूर्ति में रुकावट के कारण बायोरिपॉज़िटरी (biorepository) नष्ट हो गई। इसके अलावा तूफान कैटरीना जैसी प्राकृतिक आपदाओं ने एक विश्वसनीय बैकअप स्टोरेज (backup storage) की आवश्यकता दर्शाई। अत्यधिक ठंडा और पर्यावरणीय खतरे कम होने के कारण चंद्रमा एक आदर्श स्थान प्रतीत होता है।
हालांकि यह अवधारणा दूर की कौड़ी लग सकती है, लेकिन ऐसे नमूनों को सहेजने के तरीके पहले से उपलब्ध हैं। इसकी मुख्य चुनौती यह सुनिश्चित करना है कि रोबोट (robots) या अंतरिक्ष यात्री (astronauts) चंद्रमा के कठिन वातावरण में काम कर पाएं।
चंद्रमा पर तिज़ोरी कई उद्देश्यों की पूर्ति कर सकती है। अंतरिक्ष मिशनों (space missions) के लिए, यह पौधे उगाने के एक संसाधन के रूप में कार्य कर सकती है, जो मंगल ग्रह (Mars) पर टेराफॉर्मिंग (terraforming) जैसे भविष्य के अंतरिक्ष प्रयासों के लिए आवश्यक है। यह क्षेत्रीय आपदाओं (regional disasters) से सुरक्षित रखते हुए पृथ्वी की जैव विविधता के एक आनुवंशिक संग्रह के रूप में भी कार्य कर सकती है।
लेकिन यह स्पष्ट रहे कि वैश्विक सर्वनाश (global apocalypse) की स्थिति में यह भंडार उपयोगी संसाधन साबित नहीं होगा। यह तो भीषण तूफान या खाद्य शृंखला के महत्वपूर्ण घटकों को खतरे में डालने वाली बीमारियों जैसी स्थानीय आपदाओं से बचाव के लिए है।
हेगडॉर्न ने यह भी स्पष्ट किया है कि चंद्रमा पर जैव विविधता परिरक्षण (biodiversity preservation) को पृथ्वी के पारिस्थितिकी तंत्र (ecosystem) की रक्षा/बहाली के विकल्प के तौर पर नहीं देखना चाहिए बल्कि इन प्रयासों के पूरक के तौर पर देखना चाहिए।
इसमें सबसे महत्वपूर्ण चुनौती प्रबंधन की होगी। पहले से ही चंद्रमा के संसाधनों के लिए होड़ कर रहे देशों के साथ, तिज़ोरी के प्रबंधन पर अंतर्राष्ट्रीय समझौता (international agreement) जटिलताओं से भरा होगा।
वर्तमान में टीम का प्रयास अंतरिक्ष यात्रा के दौरान कोशिकाओं को विकिरण (radiation) से बचाने पर केंद्रित है। वे नई हल्की सामग्रियों का परीक्षण करने और इन चुनौतियों से निपटने के लिए आवश्यक तकनीकी विशेषज्ञता जुटाने की योजना बना रहे हैं।
बहरहाल, चंद्रमा पर कयामत की तिज़ोरी (Doomsday Vault) का निर्माण एक महत्वाकांक्षी परियोजना है जो अत्याधुनिक विज्ञान (cutting-edge science) को दूरदर्शी सोच के साथ जोड़ती है। आज कदम उठाकर, हेगडॉर्न और उनकी टीम पृथ्वी की जैव विविधता (biodiversity) के लिए एक स्थायी सुरक्षा व्यवस्था बनाने की उम्मीद करती है, यह सुनिश्चित करते हुए कि भविष्य की पीढ़ियां अधिक लचीलेपन और उम्मीद के साथ चुनौतियों का सामना कर सकें।(स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://icepeople.net/wordpress/wp-content/uploads/2021/03/moonvault.jpg
मंगल ग्रह पर मानव को बसाने की तैयारी में नासा के वैज्ञानिकों ने 25 जून, 2023 को अपने पहले ‘क्रू हेल्थ परफॉरमेंस एक्स्प्लोरेशन एनालॉग’ (CHPEA) मिशन की शुरुआत की थी। ह्यूस्टन स्थित जॉनसन स्पेस केंद्र पर लगभग एक वर्ष (378 दिनों) तक मंगल ग्रह जैसे वातावरण वाले घर (मार्स ड्यून अल्फा) में मंगल पर निवास की संभावनाओं की तलाश के इस एनालॉग मिशन का पहला चरण 6 जुलाई, 2024 को पूरा हुआ है। इस मिशन की शृंखला में अगले दो मिशन 2025 और 2026 में निर्धारित हैं।
कृत्रिमपरिस्थितियोंमेंजीवन
CHPEA मिशन के पहले चरण में चार लोगों के एक दल ने 378 दिनों के लिए इस आवास में अलग-थलग रहकर अंतरिक्ष यात्रियों की तरह समय बिताया। 1700 वर्ग फीट की सीमित जगह में 3-डी मुद्रित (प्रिंटेड) मार्स ड्यून अल्फा में निजी कमरे, रसोई, चिकित्सा कक्ष, व्यायाम और कार्य करने का स्थान तथा लाल मिट्टी में खेती क्षेत्र, बाथरूम आदि उपलब्ध हैं।
यथासंभव मंगल जैसी परिस्थिति में दल के सदस्यों ने शारीरिक और मानसिक चुनौतियों से जूझना, संसाधन की सीमाएं, तनहाई, विलंबित संचार, उपकरणों की विफलता, सिम्युलेटेड स्पेसवॉक, रोबोट संचालन, आवास के रखरखाव, व्यक्तिगत स्वच्छता, व्यायाम और खेती से सम्बंधित कार्य किए। इनके लिए तैयारशुदा भोजन ठीक वैसा ही था, जैसा कि अंतरिक्ष यात्री अपने अंतरिक्ष प्रवास के दौरान खाते हैं। चार सदस्यों के दल में मिशन का नेतृत्व करने वाली कनाडाई जीव वैज्ञानिक केली हेस्टन, संरचनात्मक इंजीनियर और मिशन के फ्लाइट इंजीनियर रॉस ब्रॉकवेल, आपातकालीन स्वास्थ्य चिकित्सक नाथन जोंस और मिशन की विज्ञान अधिकारी एंका सेलारियू शामिल थीं। एकत्र किए गए डैटा से भविष्य के मिशन की योजना के लिए जानकारी मिलेगी, जिसमें वाहन डिज़ाइन, संसाधन आवंटन और लंबी अवधि की अंतरिक्ष यात्रा के जोखिम का मूल्यांकन इत्यादि शामिल है।
मंगलपरजीवन
मंगल पर जीवन के साक्ष्य की वैज्ञानिक खोज 1894 में मंगल ग्रह के वायुमंडल के स्पेक्ट्रोस्कोपिक विश्लेषण के साथ शुरू हुई थी। यह खोज आज भी दूरबीनों और वहां तैनात जांच उपकरणों के माध्यम से जारी है। अमेरिकी खगोलशास्त्री विलियम वालेस कैंपबेल ने बताया था कि मंगल के वायुमंडल में पानी और ऑक्सीजन नहीं हैं। ब्रिटिश प्रकृतिवादी अल्फ्रेड रसेल वालेस ने भी 1907 में अपनी पुस्तक इज़ मार्स हैबिटेबल? में मंगल को पूरी तरह से निर्जन बताया था। अलबत्ता पर्सिवल लोवेल ने मार्स एंड इट्स कैनाल्स में कहा था कि मंगल पर नज़र आने वाली धारियां नहरें हैं और इन्हें वहां एक बुद्धिमान सभ्यता ने खेती के प्रयोजन से निर्मित किया था। फिलहाल मंगल की सतह पर मिट्टी और चट्टानों में पानी, रसायनिक जैव चिंहों और वायुमंडल में बायोमार्कर गैसों पर अध्ययन जारी है। मंगल ग्रह पृथ्वी से निकटता और समानता रखता है, परंतु वहां जीवन के संकेत नहीं हैं।
मंगलपरपानी
प्रारंभिक अध्ययनों में शोधकर्ताओं ने 1950 के दशक में मंगल पर विभिन्न प्रकार के जीवन रूपों की व्यवहार्यता, पर्यावरणीय स्थितियों को निर्धारित करने और उनकी अनुकृति बनाने के लिए पात्रों (‘मार्स जार’ या ‘मार्स सिमुलेशन चैम्बर’) का उपयोग किया था। इसका विवरण ह्यूबर्टस स्ट्रगहोल्ड ने प्रस्तुत किया है। जोशुआ लेडरबर्ग और कार्ल सैगन ने इसे लोकप्रिय किया।
जून 2000 में मंगल की सतह पर तरल पानी के बहने के सबूत बाढ़ जैसी नालियों के रूप में खोजे गए, जिसे 2006 में मार्स ग्लोबल सर्वेयर द्वारा ली गई तस्वीरों ने पुष्ट किया। इससे निष्कर्ष यह निकला कि मंगल की सतह पर कभी-कभी पानी रहा है।
मार्च 2015 में नासा द्वारा क्यूरियोसिटी रोवर पर लगे उपकरणों की मदद से सतह की तलछट को गर्म करके नाइट्रेट का पता चला। नाइट्रेट में नाइट्रोजन ऑक्सीकृत रूप में है, जिसका जीवों द्वारा उपयोग किया जा सकता है। जीवन के लिए आवश्यक रासायनिक पोषक पदार्थों में से एक फॉस्फेट मंगल ग्रह पर आसानी से उपलब्ध है। नवम्बर 2016 में नासा ने मंगल ग्रह के युटोपिया प्लैनिटिया क्षेत्र में बड़ी मात्रा में भूमिगत बर्फ का पता लगाया था, जिसमें पानी की मात्रा लेक सुपीरियर के बराबर होने का अनुमान है। इसी प्रकार सैंड स्टोन (बालुई पत्थर) की ऑर्बाइटल स्पेक्ट्रोमेट्री से प्राप्त डैटा के विश्लेषण से पता चला है कि अतीत में ग्रह पर मौजूद पानी में पृथ्वी जैसे अधिकांश जीवन को सहारा देने के हिसाब से बहुत अधिक लवणीयता रही होगी। वैज्ञानिकों का मानना है कि ठंडा और जीवनहीन सा दिखने वाला मंगल ग्रह कभी गर्म, जलयुक्त और रहने के लायक रहा होगा। अनुमान है कि जज़ीरो क्रेटर पर कभी पानी हुआ करता था।
आज सभी अंतरिक्ष एजेंसियों के प्रमुख उद्देश्य हैं: मंगल ग्रह पर जीवन की संभावना की तलाश; मंगल की जलवायु और भूविज्ञान का विश्लेषण, बसने की संभावना, टैफोनोमी (जीवाश्म-निर्माण का अध्ययन) और कार्बनिक यौगिकों के सबूतों की तलाश।
नासा ने मंगल की सतह पर पानी के अस्तित्व की पुष्टि के लिए स्पिरिट और ऑपर्च्युनिटी रोवर्स जून और जुलाई 2003 में प्रक्षेपित किए थे। स्पिरिट अभियान मई 2011 और ऑपर्च्युनिटी फरवरी 2019 तक सक्रिय रहे।
जून 2018 में नासा ने घोषणा की कि क्यूरियोसिटी रोवर ने तीन अरब वर्ष पुरानी तलछटी चट्टानों में कार्बनिक अणुओं की खोज की है। इसी समय मंगल पर मीथेन के स्तर में मौसमी बदलाव का पता लगाया गया। तदुपरांत मंगल पर पानी की पुष्टि, जीवन के संकेत और ग्रह के भूविज्ञान की जांच के लिए परसेवरेंस मार्स रोवर को 10 वर्ष के लिए मंगल पर भेजा गया।
खगोल जीववैज्ञानिक मानते हैं कि जीवनक्षम वातावरण खोजने के लिए मंगल की सतह पर पहुंचना आवश्यक है। लेकिन आज तक किसी ने भी मंगल की सतह पर ताप, दाब, वायुमंडलीय संरचना, विकिर्णन, आर्द्रता, ऑक्सीकरण जैसी स्थितियों पर विचार नहीं किया है। प्रयोगशाला सिमुलेशन दर्शाते हैं कि कई घातक कारक एक साथ मौजूद हों तो जीवित रहने की दर तेज़ी से गिरती है। मंगल ग्रह पर मनुष्य कैसे रह पाएंगे, मार्स ड्यून अल्फा परीक्षण इसी को लेकर किया गया है।
मार्स ड्यून अल्फा में दल के सदस्यों ने मंगल पर जीवन जीने की कई चुनौतियों का सामना किया। साथ ही उन्होंने इसमें नए वर्ष का जश्न और छुट्टियां भी मनाई, उनका मासिक चेकअप भी होता रहा, उन्होंने सब्ज़ियां भी उगाई, मार्सवॉक किया और अत्यधिक तनाव में अपने काम को पूरा किया।
आर्टेमिस कार्यक्रम के तहत नासा मनुष्यों को चंद्रमा पर पुन: भेजने की योजना बना रहा है, ताकि वे वहां लंबे समय तक रहना सीख सकें तथा 2030 के दशक के अंत तक मंगल ग्रह की यात्रा की तैयारी में मदद मिल सके। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : NASA
यदि कभी अंतरिक्ष में जाने का मौका मिले और यदि आप खाने-पीने के शौकीन हैं तो आपको यह सफर अखरेगा। आपको शायद मालूम नहीं होगा कि अंतरिक्ष यात्रियों को कई-कई दिन सूखा (निर्जलित) फ्रोज़न भोजन खाकर गुज़ारना पड़ता है, जो काफी बेस्वाद और नीरस होता है।
दिक्कत यह है कि अंतरिक्ष में खाना पकाना आसान नहीं होता। अंतरिक्ष में न के बराबर गुरुत्वाकर्षण होता है। वहां हमारी तरह खुली कढ़ाई, तवे या पतीली में खाना पकाना संभव नहीं है। और यदि वहां खाना पकाने में तमाम अगर-मगर न होते तो अंतरिक्ष यात्री अवलोकनों और अध्ययन के साथ खाना भी पका रहे होते। दरअसल, अंतरिक्ष यात्रियों की सुरक्षा और मिशन की सफलता सर्वोपरी होती है। लिहाज़ा कुछ शोधकर्ताओं को इसकी परवाह ही नहीं होती कि वहां खाना लज़ीज है या बेस्वाद – बस जीवन के लिए ज़रूरी दाना-पानी नसीब हो जाना चाहिए।
लेकिन फूड साइंटिस्ट लैरिसा ज़ॉउ व कुछ अन्य शोधकर्ता चाहते हैं कि अंतरिक्ष यात्री हमेशा ऐसा बेस्वाद, फ्रोज़न खाना न खाएं। वास्तव में उनकी कोशिश है कि अंतरिक्ष यात्री कुछ ताज़ा पकाकर खा पाएं। तर्क है कि अंतरिक्ष यात्रियों के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य का दुरुस्त रहना ज़रूरी है और उसमें ताज़ा पका हुआ खाना महत्व रखता है।
पहले भी ऐसे प्रयास किए गए हैं। जैसे, 2019 में अंतरिक्ष यात्रियों ने अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन पर एक छोटे ओवन में कुकीज़ बनाई थीं। फिर सूक्ष्म गुरुत्वाकर्षण में सेंकने और तलने के उपकरण भी विकसित किए गए हैं। इस प्रयास में ज़ॉऊ ने नगण्य गुरुत्वाकर्षण में भोजन पकाने/उबालने वाली मशीन, हॉटपॉट (H0TP0T) बनाई है। एल्यूमीनियम और कांच से बना यह पात्र चीनी परंपरा के एक सामुदायिक उबालने वाले बर्तन के समान है।
लेकिन इनका अभी अंतरिक्ष तक पहुंचना और वास्तविक परिस्थितियों में उपयोग परखा जाना बाकी है।
अंतरिक्ष के जीवन को मात्र ज़रूरतों से एक कदम आगे बढ़कर, थोड़ा आरामदायक बनाने के दृष्टिकोण को समझाने के लिए ऑरेलिया इंस्टीट्यूट ने TESSERAE पेवेलियन बनाया है जो इसका नमूना पेश करता है कि अंतरिक्ष स्थितियों में बेहतर रहन-सहन किस तरह का हो सकता है। इस पेवेलियन की रसोई में H0TP0T उल्टा लटका हुआ है, जो दर्शाता है कि इस बर्तन का उपयोग अंतरिक्ष यात्री किसी भी दिशा में कर सकते हैं। इसे अगस्त में प्रदर्शित किया जाएगा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://static.scientificamerican.com/dam/m/39981adcdd55e7a4/original/H0TP0T.jpg?w=900
हाल ही में नासा ने 3800 करोड़ रुपए के वाइपर मिशन (वोलेटाइल्स इन्वेस्टिगेटिंग पोलर एक्सप्लोरेशन रोवर) को रद्द कर दिया है। इस मिशन का उद्देश्य चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर बर्फ का मानचित्र तैयार करना और कुछ क्षेत्रों में बर्फ में ड्रिल करना था। मिशन को रद्द करने का कारण बजट की कमी, रोवर और उसके लैंडर के निर्माण में देरी व इसके चलते रोवर की बढ़ती लागत, और अतिरिक्त परीक्षण व्यय बताए गए हैं।
गौरतलब है कि वाइपर मिशन नासा के व्यावसायिक लूनर पेलोड सर्विसेज़ (सीएलपीएस) कार्यक्रम का हिस्सा था, जो चंद्रमा पर वैज्ञानिक उपकरण भेजने के लिए निजी एयरोस्पेस कंपनियों के साथ मिल-जुलकर काम कर रहा था। इसके लिए 3640 करोड़ रुपए का आवंटन हुआ था और 2023 में प्रक्षेपित करने की योजना थी। वाइपर को एक कंपनी एस्ट्रोबोटिक टेक्नॉलॉजी के ग्रिफिन यान की मदद से भेजा जाना था। उद्देश्य चंद्रमा की बर्फ में दबी रासायनिक जानकारी को उजागर करने व सौर मंडल की उत्पत्ति को समझने के अलावा भविष्य के चंद्रमा मिशनों के लिए संसाधनों की व्यवस्था के लिए चंद्रमा के ठंडे, अंधेरे क्षेत्रों से बर्फ का नमूना प्राप्त करना था।
अलबत्ता, निर्माण में देरी ने प्रक्षेपण को 2025 के अंत तक धकेल दिया, जिससे मिशन की लागत करीब 1500 करोड़ रुपए तक बढ़ गई। लागत में वृद्धि की आंतरिक समीक्षा के बाद मिशन को रद्द कर दिया गया।
एक कारण यह भी बताया जा रहा है कि 50 वर्षों के अंतराल के बाद पहले अमेरिकी चंद्रमा लैंडर वाइपर का निर्माण एस्ट्रोबोटिक टेक्नॉलॉजी नामक कंपनी को करना था। इस कंपनी का पेरेग्रीन अंतरिक्ष यान प्रोपेलर लीक होने के कारण अनियंत्रित हो गया था और चंद्रमा की धरती तक पहुंचने में विफल रहा था। इससे वाइपर को सुरक्षित रूप से चांद पर पहुंचाने की एस्ट्रोबोटिक की क्षमता पर संदेह पैदा हुआ।
इन असफलताओं के बावजूद, एस्ट्रोबोटिक अगले साल अपने ग्रिफिन चंद्रमा लैंडर को लॉन्च करने की तैयारी कर रहा है और वह कोशिश कर रहा है कि उसे चंद्रमा पर पहुंचाने हेतु अन्य उपकरण मिल जाएं। इसके लिए वह अन्य अन्वेषकों से प्रस्ताव आमंत्रित कर रहा है।
गौरतलब है कि मिशन रद्द करने की घोषणा ऐसे समय पर हुई जब वाइपर ने अंतरिक्ष की कठोर परिस्थितियों का सामना करने के लिए परीक्षण शुरू ही किया था। फिलहाल, नासा भविष्य के मिशनों के लिए रोवर या उसके पुर्ज़ों का उपयोग करने में रुचि रखने वाले भागीदारों की तलाश में है। यदि कोई उपयुक्त प्रस्ताव प्राप्त नहीं होता है तो रोवर को खोलकर उसके पुर्ज़ों का फिर से इस्तेमाल किया जाएगा। हालांकि, कई विशेषज्ञ रोवर को नष्ट करने के बजाय इसे सहेजने का सुझाव देते हैं।
वाइपर मिशन के रद्द होने के बावजूद, नासा चंद्रमा पर पानी और बर्फ की खोज के लिए प्रतिबद्ध है। पोलर रिसोर्सेज़ आइस माइनिंग एक्सपेरीमेंट-1 (प्राइम-1) को इस साल के अंत में इंट्यूटिव मशीन द्वारा निर्मित एक व्यावसायिक लैंडर पर चंद्रमा मिशन के लिए निर्धारित किया गया है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://images.nature.com/lw1200/magazine-assets/d41586-024-02361-1/d41586-024-02361-1_27361032.jpg
बचपन से ही हम तारों को देखते आए हैं। परंतु बहुत कम ही लोगों के दिमाग में सवाल उठते हैं कि आकाश में इतने सारे तारें क्यों हैं? ये हम से कितनी दूर हैं? कितने बड़े हैं? ये किन चीज़ों से बने हैं? और ये सतत जगमगाते क्यों रहते हैं?
सभी को प्राय: हर रात नज़र आने वाले तारों के इन नज़ारों के बारे में हमारे दिमाग में ये सवाल कोलाहल क्यों नहीं मचाते? क्यों नहीं हम सब इन सवालों के उत्तर जानने के लिए लालायित हो उठते?
तारों-भरे खगोल को हम प्रतिदिन पृथ्वी की परिक्रमा करते देखते हैं। बस, इसके अलावा तारों में हमें कोई उलटफेर नज़र नहीं आता। चंद्रमा की कलाएं घटती-बढ़ती हैं। आकाश के ग्रह भी तारों के सापेक्ष अपनी स्थितियां बदलते रहते हैं। सूर्य भी स्थान बदलता है। उल्कापात तथा पुच्छल तारे (धूमकेतु) जैसे आकाश के नज़ारे पुरातन काल से मानव को प्रभावित करते रहे हैं, भयभीत करते रहे हैं। किंतु तारे हमें उस तरह प्रभावित नहीं करते, क्योंकि परंपरा से हमने उन्हें ‘स्थिर’ मान लिया है। वस्तुत:, इस भौतिक विश्व में कोई भी वस्तु स्थिर या निश्चल नहीं है।
तारों के अध्ययन के प्रति हमारी उपेक्षा का एक और कारण है कि बचपन से ही हमको बताया जाता है कि आकाश में अनगिनत तारे हैं एवं ये हमसे अनंत दूरी पर स्थित हैं। परिणामस्वरूप इस ‘अनगिनत और अनंत’ के सामने हम घुटने टेक देते हैं। ‘अनादि-अनंत’ जैसे विशेषणों से विभूषित काल्पनिक ईश्वर के प्रति हममें से बहुतों का यही भाव है। परंतु तारों का भौतिक अस्तित्व है और आज हम जानते हैं कि इस भौतिक विश्व में अनादि-अनंत जैसी कोई चीज़ नहीं है। ब्रह्मांड के सारे तारों के सारे अणु-परमाणु भी अनंत नहीं हैं। ‘शून्य’ की तरह ‘अनंत’ का भी इस विश्व में कोई भौतिक अस्तित्व नहीं है।
आज हम जानते हैं कि तारे कितने बड़े हैं और ये किन तत्वों से बने हैं। तारे सतत क्यों जगमगाते रहते हैं, इसकी जानकारी हमें पिछले करीब 90 वर्षों में ही मिली है। आज हम जानते हैं कि तारों में भीषण उथल-पुथल होती रहती है। ये जन्म लेते हैं, ये तरुण होते हैं, इन्हें बुढ़ापा आता है और अंत में इनकी ‘मृत्य’ भी होती है!
नक्षत्र लोक के बारे में और एक बात। आप स्वयं देख लीजिए, पुराकाल में कल्पित किसी भी ‘अनादि, अनंत और निश्चल’ धारणा का पोषण एवं प्रतिनिधित्व करने के लिए मानव समाज में एक वर्ग-विशेष का उत्थान होता रहा है। जैसे, पुरोहित वर्ग। तारों को जब अनादि, अनंत एवं स्थिर मान लिया गया तो उनकी तरफ से बोलने वाला, मानव-जीवन पर उनके तथाकथित ‘प्रभाव’ की पैरवी करने वाला, एक वर्ग पैदा हो गया – बहुत प्राचीन काल में ही। यह वर्ग है – फलित ज्योतिषियों का वर्ग!
आज हम जानते हैं कि तारे अनादि-अनंत एवं स्थिर तो नहीं ही हैं, बल्कि ये मूक भी नहीं हैं। हालांकि ये स्वयं अपनी बात कहने में असमर्थ हैं। लेकिन इनकी एक वैज्ञानिक भाषा है। इस भाषा को आज हम समझ सकते हैं। यह भाषा है – तारों की किरणों की भाषा। अपनी किरणों के माध्यम से तारे अपने बारे में हम तक जानकारी भेजते रहते हैं। यह जानकारी हमें फलित-ज्योतिषियों की पोथियों में नहीं बल्कि वेधशालाओं की दूरबीनों, वर्णक्रम-दर्शियों, कैमरों आदि से ही प्राप्त हो सकती है।
विश्व की हर चीज़ हर दूसरी चीज़ को प्रभावित करती है। तारे भी पार्थिव जीवन पर अपना ‘प्रभाव’ डालते हैं। उदाहरण के लिए, सूर्य एक तारा है और इसकी प्रत्येक हलचल का पृथ्वी के प्राणी-जगत पर प्रभाव पड़ता है। मानव जीवन पर तारों के प्रभाव को जन्म-कुण्डलियों से नहीं, बल्कि वैज्ञानिक उपकरणों से जाना जा सकता है।
इस लेख का मकसद यही है कि इन सारे प्रश्नों को सिलसिलेवार समझने की कोशिश की जाए।
तारों की चमक और रंग
रात को आकाश पर एक उड़ती सी नज़र ही आपको बता देगी कि कुछ तारे चमकदार हैं और कुछ धुंधले। कुछ तारों को तो देखना भी मुश्किल होता है और कुछ बल्ब की तरह दमकते हैं। ज़्यादा ध्यान से देखने पर मालूम होता है कि सारे तारे, चाहे धुंधले हों या चमकदार, एक से रंग में नहीं दमकते। कम से कम दो रंग साफ तौर पर अलग-अलग देखे जा सकते हैं – लाल और नीला। ज़्यादा गहराई से अध्ययन करने पर मालूम होगा कि ये रंग नीले से पीले और नारंगी से लाल तक होते हैं। पहले हम इन्हीं दो गुणों को समझने की कोशिश करेंगे।
तारों की चमक – दो तारों की चमक की आपस में तुलना कैसे की जाए? एक 100 वॉट के बल्ब की तुलना टॉर्च के बल्ब से कैसे की जाए? स्वाभाविक रूप से 100 वॉट का बल्ब ‘अपने आप में’ टॉर्च के बल्ब से कहीं ज़्यादा चमकदार होता है। परंतु यदि इस 100 वॉट के बल्ब को आपसे बहुत दूर और टॉर्च को बहुत पास रख दिया जाए तो? तो 100 वॉट के बल्ब की अपेक्षा टॉर्च का बल्ब कहीं अधिक चमकदार दिखेगा। तब आपको यह मानना ही पड़ेगा कि यदि दोनों की वास्तविक चमक की तुलना करना है तो दोनों को देखने वाले से बराबर दूरी पर रखना होगा। इसे हम स्टैण्डर्ड या मानक दूरी कह सकते हैं – यह दूरी कुछ भी तय की जा सकती है, दस मीटर, सौ मीटर या कुछ और। सबसे ज़रूरी बात यह है कि जिन चीज़ों की तुलना करना है उन सब को इस निर्धारित मानक दूरी पर ही रखा जाए।
यही बात तारों पर भी लागू होती है। कुछ तारे वास्तव में तो बहुत चमकदार होते हैं – वे प्रकाश के बहुत शक्तिशाली स्रोत हैं, किंतु हो सकता है कि वे धुंधले दिखें क्योंकि वे हमसे बहुत दूर हैं। कुछ तारे ऐसे भी हो सकते हैं जो वाकई बहुत ज़्यादा चमकदार न हों पर पास होने के कारण तेज़ चमकते दिखें। तारों की इस चमक की तुलना करने के लिए आपको कल्पना करनी होगी कि वे देखने वाले से बराबर की दूरी पर रखने पर कितने चमकेंगे। (क्योंकि आप इन्हें वास्तव में बराबर दूरी पर रख तो सकते नहीं!)। वैसे तो यह दूरी पृथ्वी से नापी जा सकती है परंतु ज़्यादा उपयुक्त यह होगा कि इस दूरी को सूर्य से नापा जाए। खगोलशास्त्रियों ने गणना के लिए यह दूरी पृथ्वी और सूर्य की दूरी से तकरीबन दो लाख गुना (पृथ्वी और सूर्य के बीच की दूरी करीब 90 लाख किलोमीटर है) तय की है। गणना के लिए खगोलशास्त्री काल्पनिक तौर पर सारे तारों (जिनकी चमक की तुलना करनी है) को सूर्य से इस मानक दूरी पर रखते हैं। यदि सूर्य सहित इन सभी तारों को इस मानक दूरी पर रखा जाए तो जानते हैं क्या होगा? हमारा सूरज दिखाई देना बंद हो जाएगा। हमारा सूरज भी एक तारा है, और यह वास्तव में न तो बहुत बड़ा है और न ही बहुत चमकदार। आकाश में ऐसे भी तारे हैं जो हमारे सूरज से सैकड़ों गुना बड़े और सैकड़ों गुना चमकदार हैं।
किसी तारे की मानक दूरी पर दिखने वाली चमक ‘परम दीप्तता’ (absolute luminosity) कहलाती है।
तारों का रंग – जैसे कि पहले ही कहा गया है, तारों का रंग नीले से लाल तक कुछ भी हो सकता है (दूसरे शब्दों में इंद्रधनुष के सारे रंगों के तारे देखे जा सकते हैं)। प्रत्येक तारे से आने वाले प्रकाश को स्पेक्ट्रोस्कोप (वर्णक्रमदर्शी) नामक यंत्र की मदद से बारीकी से जांचा जा सकता है। जैसे एक प्रिज़्म सूर्य के प्रकाश के रंगों को अलग-अलग कर देता है, उसी प्रकार वर्णक्रमदर्शी भी प्रत्येक तारों से आने वाले प्रकाश के रंगों को अलग-अलग कर देता है (इस प्रकार के चित्र को, जिसमें प्रकाश के सारे रंग अलग-अलग दिखते हैं, उस प्रकाश का वर्णक्रम या स्पेक्ट्रम कहते हैं)। यदि सूर्य के प्रकाश को किसी पारदर्शी बॉलपेन (जैसे रोटोमेक या सेलो-ग्रिपर के पेन) में से सफेद सतह पर गिरने दें तो आपको इंद्रधनुष के सारे रंग उसमें दिखेंगे। यही सूर्य के प्रकाश का वर्णक्रम है।
इसी प्रकार की प्रक्रिया वर्णक्रमदर्शी में भी होती है और वर्णक्रम की तस्वीर प्राप्त हो जाती है, जिसका बाद में गहराई से अध्ययन किया जाता है।
अब तक हज़ारों तारों के वर्णक्रमों का अध्ययन किया जा चुका है। आश्चर्य की बात यह है कि इन परिमाणों में गज़ब की समानता पाई जाती है। इन्हीं समानताओं के आधार पर सारे तारों को नौ वर्गों में बांटा जा सकता है – इन वर्गों को रोमन वर्णमाला के अक्षरों O, B, A, F, G, K, M, R, N और I द्वारा दिखाया जाता है। अत: जब तारों की बात करते हैं तो कहते हैं कि अमुक तारा O वर्ग का है या B वर्ग का है। हमारा सूरज G वर्ग का एक नारंगी तारा है।
जब तारों के जन्म और मृत्यु की खोजबीन करनी होती है तो हर एक तारे का अध्ययन करना ज़रूरी नहीं होता। सिर्फ इतना काफी होता है कि एक विशेष वर्ग के कुछ तारों का अध्ययन कर लिया जाए। इससे उस वर्ग में आने वाले अनगिनत तारों के बारे में पर्याप्त जानकारी मिल जाती है। कहने का मतलब यह है कि सारे O वर्ग के तारे एक जैसे होते हैं और उनके परम परिमाण इस हद तक समान होते हैं कि यदि एक वर्ग के सारे तारों को मानक दूरी पर रख दिया जाए तो वे लगभग एक जैसे दिखेंगे – लगभग एक समान वर्णकम, एक समान साइज़, एक समान चमक! सिर्फ लाल तारों में थोड़ी जटिलता होती है। क्योंकि लाल दानव और लाल वामन (रेड ड्वार्फ) दोनों प्रकार के लाल तारे पाए जाते हैं। बहरहाल, हम इन दोनों जटिलताओं को छोड़कर इस बात को ध्यान में रखेंगे कि सारे तारों को समझने के लिए मात्र कुछ प्रतिनिधि तारों को समझना पर्याप्त है। यह बात कि एक ही रंग के तारे एक बराबर वास्तविक चमक वाले होते हैं, दो भौतिक शास्त्रियों आयनार हर्ट्ज़स्प्रन्ग और हेनरी नॉरिस रसेल ने खोजी थी।
तारों का जीवन चक्र
करीब डेढ़ सौ साल पहले तक यह मालूम नहीं था कि तारे जन्म लेते हैं और मरते हैं। कोई तारा करोड़ों सालों तक ज़िंदा रह सकता है, पर एक दिन ऐसा आता है जब उसका ऊर्जा का स्रोत चुक जाता है। और तब वह या तो फूट सकता है या एक ठंडे, शांत, काले पिंड में परिवर्तित हो सकता है।
जब खगोलशास्त्री दूरदर्शी से आकाश का अध्ययन करते हैं तो वे न सिर्फ अनगिनत तारे देखते हैं बल्कि हाइड्रोजन नामक गैस का धब्बों के रूप में वितरण भी देखते हैं, जिन्हें वे ‘बादल’ कहते हैं। हमारे वातावरण के बाहर की सारी जगह, जिसे अंतरिक्ष कहते हैं, इसी हाइड्रोजन गैस से भरी है। किंतु गैस का घनत्व अविश्वसनीय रूप से कम है – करीब एक परमाणु प्रति घन सेंटीमीटर (जो कि करीब-करीब निर्वात ही है)। इसका अर्थ है कि एक गिलास में करीब 20 परमाणु आएंगे, जबकि सामान्य वातावरण में उसी गिलास में अरबों परमाणु होते हैं। परंतु अंतरिक्ष इतना विस्तृत है कि इतने कम घनत्व पर भी उसमें अरबों तारे बनाने के लिए पर्याप्त पदार्थ मौजूद हैं। कहीं-कहीं यह घनत्व ज़्यादा भी होता है – करीब 10 से 100 परमाणु प्रति घन सेंटीमीटर। अब, सवाल उठता है कि अंतरिक्ष में कौन सी शक्ति इन बादलों को स्थिरता देती है? इनके कण खुद एक-दूसरे को केंद्र की तरफ खींचते हैं और इसलिए इन्हें स्व-गुरुत्वाकर्षण जनित कहा जाता है। ये ‘बादल’ काफी स्थिर होते हैं और लाखों साल तक एक जैसे बने रहते हैं परंतु समय-समय पर कुछ भौतिक क्रियाएं इन्हें सिमटने पर मजबूर कर देती हैं। इन प्रक्रियाओं को भली-भांति समझा नहीं जा सका है। जब कोई गैस गर्म की जाती है तो वह फैलती है और जब ठंडी की जाती है तो सिकुड़ती है। इसके विपरीत जब गुरुत्वाकर्षण शक्ति ज़्यादा होती है तो कोई भी वस्तु सिकुड़ती है और जब गुरुत्वाकर्षण शक्ति कम होती है तो वस्तु फैलती है।
अभी तक प्राप्त जानकारी के अनुसार इन ‘बादलों’ में केंद्र की तरफ खींचने वाली शक्ति (गुरुत्वाकर्षण) और उनके तापमान के बीच एक संतुलन होता है। तापमान के कारण बादल फैलने की कोशिश करते हैं। और गुरुत्वाकर्षण के कारण सिकुड़ने की। जब इन दो शक्तियों में संतुलन होता है तो ‘बादल’ स्थिर रहता है। जब बादल ठंडा होता है और उसका तापमान कम होने लगता है तो वह गुरुत्वाकर्षण के कारण सिकुड़ने लगता है। जब यह सिकुड़न शुरू होती है, तो बादल का तापमान बढ़ने लगता है। इसी के साथ-साथ ‘बादल’ छोटे-छोटे टुकड़ों में बंटता है और ये टुकड़े अपने आप में सिकुड़ते हैं। इस प्रकार से सिकुड़ते हुए टुकड़े एक हल्की लाल आभा से दमकते हैं। इस लाल आभा को पृथ्वी पर विशेष उपकरणों द्वारा देखा जा सकता है और जब यह देखी जाती है तो कहा जाता है कि एक नए तारे का प्रादुर्भाव हो रहा है।
सवाल यह उठता है कि यह सिकुड़ना कब तक जारी रहेगा? एक विशेष अवस्था आएगी जब अंदर के द्रव्य का तापमान इतना बढ़ जाएगा कि वहां उपस्थित हाइड्रोजन परमाणु एक-दूसरे से रासायनिक रूप से जुड़ने लगेंगे। इस क्रिया को संलयन (fusion) कहते हैं। इसमें हाइड्रोजन के चार परमाणुओं के केंद्रक मिलकर हीलियम नामक एक नया तत्व बनाते हैं। हाइड्रोजन के इस प्रकार हीलियम में बदलने की प्रक्रिया के दौरान निहायत बड़ी मात्रा में ऊर्जा निकलती है (यही प्रक्रिया हाइड्रोजन बम में भी होती है)। यह गर्मी जो केंद्र में उत्पन्न होती है वह गैस को फैलने पर मजबूर करती है और सिकुड़ना रुक जाता है। अब फिर एक संतुलन स्थापित हो गया है – गर्मी के कारण फैलने और गुरुत्वाकर्षण के कारण सिकुड़ने की प्रक्रिया के बीच। इस अवस्था में तारा स्थिर हो जाता है और कहा जाता है कि वह अपने जीवनचक्र के मुख्यक्रम की अवस्था में पहुंच गया है। इस प्रकार से केंद्र की गर्मी और गुरुत्वाकर्षण के बीच का संतुलन बहुत महत्वपूर्ण है। केंद्र में जो भी गर्मी पैदा होती है वह तारे की सतह से अंतरिक्ष में बिखेर दी जाती है (इस क्रिया को विकिरण कहते हैं)। धीरे-धीरे तारे के केंद्र में गर्मी कम हो जाती है। जब यह गर्मी बहुत ही कम हो जाती है तो गुरुत्वाकर्षण के साथ इसका संतुलन खत्म हो जाता है। ऐसी स्थिति में गुरुत्वाकर्षण का बल फिर तारे को सिकुड़ने पर मजबूर करता है। कई बार यह प्रकिया बहुत तेज़ी से हो सकती है। इसके विपरीत, यदि केंद्र में इतनी ज़्यादा शक्ति या गर्मी पैदा हो रही है जो तारे की सतह से विकिरण द्वारा अंतरिक्ष में नहीं बिखेरी जा सकती तो भी संतुलन समाप्त हो जाता है, किंतु इस बार तारा गर्मी के कारण फैलता है और कई बार इतनी तेज़ी से फैलता है कि फट पड़ता है।
किसी तारे के केंद्र में हाइड्रोजन का विपुल भंडार होता है। और इसे धीरे-धीरे हीलियम में बदला जाता है। इस तरह से कोई तारा करोड़ों वर्षों तक ऊर्जा के स्रोत के रूप में चमकता रह सकता है। हमारा सूरज इस वक्त अपनी मुख्यक्रम अवस्था में है। यह ‘बादलों’ से करोड़ों वर्ष पहले बना था और करोड़ों वर्ष तक चमकता रहेगा।
तारे के जीनव चक्र में आगे की कहानी इस बात पर निर्भर करेगी कि उसकी संहति क्या है। (मोटे-मोटे शब्दों में उसके वज़न पर निर्भर करेगी)।
बहुत बड़े तारे – हमारे सूरज से सौ गुना बड़े तारों को ‘बहुत बड़े तारे’ कहते हैं। ये चमकदार, O और B वर्ग के तारे हैं जिन्हें नीले दानव कहा जाता है। ये अंतरिक्ष में इतनी ऊर्जा बिखेरते हैं कि इनकी ऊर्जा का स्रोत (केंद्र में हाइड्रोजन का भंडार) बहुत जल्दी समाप्त हो जाएगा – मात्र 10-20 करोड़ वर्षों में। यह वैसा ही है जैसे समुद्र को इतनी तेज़ी से खाली किया जाए कि वह सूख जाए। एक छोटी टंकी ज़्यादा देर तक चलेगी यदि उसका पानी धीरे-धीरे उपयोग किया जाए। 10-20 करोड़ वर्षों के बाद सारी हाइड्रोजन समाप्त हो जाएगी तो क्या होगा? केंद्र का तापमान धीरे-धीरे कम होने लगेगा और इसके साथ ही साथ अंदर की गैस के फैलने से जो दवाब उत्पन्न होता है वह भी कम होगा। ऐसी स्थिति में खुद के गुरुत्वाकर्षण के कारण तारा सिकुड़ने लगेगा। पर इसके साथ ही (जैसा पहले भी हुआ था) केंद्र का तापमान बढ़ेगा और इस बार हीलियम (हाइड्रोजन तो है नहीं) के परमाणुओं के बीच रासायनिक क्रिया आरंभ हो जाएगी। इस क्रिया में हीलियम के तीन परमाणु मिलकर कार्बन नामक पदार्थ का एक परमाणु बनाएंगे। इस क्रिया में भी बहुत सारी ऊर्जा निकलती है। इस ऊर्जा के कारण तापमान बढ़ेगा और यह बढ़ता तापमान तारे की सिकुड़ने की प्रक्रिया को रोक देगा। परंतु बहुत बड़े तारे में यह स्थिति थोड़ी देर ही रहेगी क्योंकि सारी हीलियम जल्दी ही कार्बन में तबदील हो जाएगी। फिर से वही कहानी दोहराई जाएगी किंतु ज़्यादा रफ्तार से। कार्बन के परमाणु मिलकर और भारी तत्व बनाएंगे। इस सारी प्रक्रिया के दौरान इतनी ज़्यादा ऊर्जा पैदा होगी कि उसे तारे की सतह से धीरे-धीरे बिखेरना असंभव हो जाएगा। और ऐसी स्थिति में गर्मी और गुरुत्वाकर्षण का संतुलन इस कदर बिगड़ेगा कि तारे में ज़बरदस्त विस्फोट होगा। विस्फोट हज़ारों सूर्य की चमक के बराबर चमक पैदा करेगा और हो सकता है कि पृथ्वी पर भी दिखे। इस प्रकार का एक विस्फोट चीनवासियों ने पंद्रहवी शताब्दी में देखा था। ऐसे विस्फोट को सुपरनोवा विस्फोट कहते हैं। ऐसे सुपरनोवा विस्फोट में करोड़ों टन गैस अंतरिक्ष में छोड़ी जाएगी और यह अंतरिक्ष में पहले से उपस्थित गैस के साथ घुल-मिल जाएगी। इस गैस के द्वारा ही तारों की अगली पीढ़ी निर्मित होगी। इस नए तारे का जीवन चक्र मुख्यत: इस मिश्रण के तत्वों पर निर्भर करेगा, खास तौर से भारी तत्वों पर। तारे का बचा हुआ केंद्रीय भाग धीरे-धीरे एक ठंडे मृत पिंड में बदल जाएगा। इस बचे हुए भाग में ऊर्जा पैदा करने के लिए कोई ईंधन नहीं है, इसलिए यह अपने गुरुत्वाकर्षण के कारण सिकुड़ता ही जाएगा। और इस कदर सिकुड़ेगा कि इसका घनत्व बहुत ही ज़्यादा हो जाएगा। इतने अधिक घनत्व के कारण इसका गुरुत्वाकर्षण बहुत बढ़ जाएगा और यह अपने आसपास की हर चीज़ को आकर्षित करेगा। इसका गुरुत्वाकर्षण इतना तीव्र होगा कि जो भी चीज़ इस पर पड़ेगी वापस नहीं लौटेगी – यहां तक कि प्रकाश भी! चूंकि इससे कोई प्रकाश नहीं निकलेगा, इसलिए यह अदृश्य हो जाएगा। ऐसे पिंड को ब्लैकहोल या न्यूट्रॉन तारा कहते हैं।
छोटे तारे – ये वे तारे हैं जिनकी मात्रा लगभग सूर्य के बराबर होती है। इनका जीवनचक्र करीब-करीब वैसा ही होता है जैसा बहुत बड़े तारों का। अंतर इतना है कि ये ज़्यादा लंबे समय तक जीवित रहेंगे और इनका हाइड्रोजन भंडार धीरे-धीरे खत्म होगा। जब सारी हाइड्रोजन हीलियम में बदल जाएगी तो सिकुड़ना शुरु होगा; किंतु सारी प्रक्रिया में उत्पन्न ऊर्जा और बिखेरी गई ऊर्जा के बीच एक संतुलन बना रहेगा। अत: विस्फोट नहीं होगा।
छोटे तारों के विकास में एक विशेष गुण होता है। जब केंद्रीय भाग में हीलियम का संलयन (दहन) शुरु होता है तो इस प्रकिया के दौरान उत्पन्न गर्मी के कारण तारे का बाहरी भाग फैलना शुरू करता है और साथ ही साथ ठंडा होता है। इसके फलस्वरूप तारा एक फूला हुआ लाल दानव बन जाता है। यदि हमारे सूरज के साथ ऐसा हुआ तो हमारे सूरज का बाहरी हिस्सा पृथ्वी तक पहुंच जाएगा। यद्यपि यह बाहरी हिस्सा ‘अपेक्षाकृत ठंडा’ होगा, फिर भी यह धरती का तापमान कुछ हज़ार डिग्री सेल्सियस बढ़ा देगा और यह तापक्रम इतना होगा कि धरती वाष्प बनकर अंतरिक्ष में उड़ जाएगी! पर ऐसा होने में अभी कई करोड़ वर्ष बाकी हैं। और जिस तरह मानव जाति चल रही है वह अपने विनाश का कोई अन्य रास्ता इस घटना के पहले स्वयं ही ढूंढ लेगी।
यह लाल दानव धीरे-धीरे अपने केंद्र के हीलियम का स्रोत समाप्त कर देगा और फिर गुरुत्वाकर्षण के कारण सिकुड़ने लगेगा। और इतना सिकुड़ेगा कि पृथ्वी से भी छोटा हो जाएगा। ऐसी अवस्था में इसके अंदर का पदार्थ बहुत ही दबाव की स्थिति में रहेगा। इसका घनत्व बहुत ज़्यादा बढ़ जाएगा। ऐसे तारों को श्वेत वामन (व्हाइट ड्वार्फ) कहते हैं, जो करीब-करीब अदृश्य होते हैं।
इस प्रकार से तारों की कहानी खत्म होती है, फिर शुरू होने के लिए। यह पूरी प्रक्रिया कभी न खत्म होने वाली प्रक्रिया है। (स्रोत फीचर्स)
दो शब्द…
1937 में मुंबई (तत्कालीन बंबई) में जन्मे डॉ. मॉइज़ रस्सीवाला विज्ञान के अध्यापन व लोकप्रियकरण में सक्रिय रहे। बंबई विश्वविद्यालय से भौतिकी में स्नातक उपाधि प्राप्त करने के बाद उन्होंने हाइडेलबर्ग (जर्मनी) से स्नातकोत्तर उपाधि पूरी की। इसके बाद वे अल्जीरिया, फ्रांस वगैरह के कई विश्वविद्यालयों और शोध संस्थानों में अध्यापन व शोध कार्य में जुटे रहे। उनका प्रिय विषय खगोल-भौतिकी रहा।
विज्ञान शिक्षा में रुचि के चलते 1970 के दशक में वे होशंगाबाद (अब नर्मदापुरम) स्थित संस्था किशोर भारती में होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम के प्रारंभिक विकास में शरीक रहे। कुछ अंतराल के बाद वे एकलव्य संस्था में आए और उज्जैन केंद्र के प्रभारी के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अंतत: वे फ्रांस में बस गए। अपने लंबे फलदायी कार्यकाल में उन्होंने कई शोध पत्र लिखे और लगभग सात किताबों का लेखन किया।
विगत 21 जून को वे इस दुनिया से रुखसत हो गए और अपने पीछे अपने लेख, शोध कार्य, किताबों और सौम्यता की विरासत छोड़ गए।
यहां प्रकाशित उनका यह लेख मूलत: पिपरिया में आयोजित ‘विज्ञान व्याख्यानमाला’ शृंखला का पहला व्याख्यान है। उनके इस व्याख्यान को ‘होशंगाबाद विज्ञान बुलेटिन’ के जनवरी-फरवरी 1985 के अंक में प्रकाशित किया गया था।
हमारे पड़ोसी ग्रह शुक्र की सतह का आजकल का तापमान सीसे को भी पिघला सकता है लेकिन अध्ययन बताते हैं कि किसी समय यहां समुद्र लहराते रहे होंगे और वातावरण जीवन के अनुकूल रहा होगा। तो सारा पानी गया कहां? यह एक मुश्किल सवाल रहा है। नेचर पत्रिका में प्रकाशित हालिया अध्ययन ने पानी के ह्रास की एक ऐसी क्रियाविधि को उजागर किया है जो शुक्र के वायुमंडल में अत्यधिक ऊंचाई पर काम करती है और दुगनी रफ्तार से पानी के ह्रास के लिए ज़िम्मेदार हो सकती है। इसका यह भी मतलब है कि शुक्र ज़्यादा हाल तक जलीय व जीवनक्षम रहा होगा। दूरबीनों व अंतरिक्ष यानों से प्राप्त आंकड़े शुक्र के वायुमंडल में जलवाष्प की उपस्थिति दर्शा चुके थे। 1970 के दशक में पायोनीयर वीनस ऑर्बाइटर से शुक्र पर अतीत में समुद्र की उपस्थिति के संकेत मिले थे; वहां के वायुमंडल में हाइड्रोजन के भारी समस्थानिक (ड्यूटीरियम)की उपस्थिति। आगे चलकर किए गए मॉडलिंग से अनुमान लगाया गया था कि किसी समय शुक्र पर इतना पानी थी कि उसकी पूरी सतह पर 3 किलोमीटर गहरी पानी की परत रही होगी। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि अरबों वर्ष पूर्व शुक्र ग्रह पर महासागर रहे होंगे, लेकिन ज्वालामुखी गतिविधि और ज़ोरदार ग्रीनहाउस प्रभाव के कारण संभवत: अधिकांश पानी वाष्पित हो गया होगा। लेकिन शेष बचेे थोड़े से पानी (अंतिम लगभग 100 मीटर की परत) के खत्म होने की व्याख्या नहीं कर सके हैं। इस नए अध्ययन में एक नई प्रक्रिया – HCO+ क्रियाविधि – पर चर्चा की गई है जो शुक्र के ऊपरी वायुमंडल में चलती है। इसमें सूर्य का प्रकाश न सिर्फ पानी के अणुओं को बल्कि कार्बन डाईऑक्साइड को भी तोड़ देता है। कार्बन डाईऑक्साइड के टूटने से कार्बन मोनोऑक्साइड बनती है। जलवाष्प और कार्बन मोनोऑक्साइड की परस्पर क्रिया के परिणामस्वरूप HCO+ नामक एक अस्थिर आयन का निर्माण होता है। यह आयन तत्काल विघटित हो जाता है। चूंकि हाइड्रोजन अत्यंत हल्की होती है, वह वायुमंडल से पलायन कर जाती है। यह प्रक्रिया शुक्र के वायुमंडल से रहे-सहे पानी को खत्म करने के अवसर प्रदान करती है। इस नए पहचानी गई प्रक्रिया को पहले से ज्ञात प्रक्रियाओं के साथ जोड़कर शोधकर्ताओं का सुझाव है कि शुक्र का पूरा पानी उड़ने में केवल 60 करोड़ वर्ष लगे होंगे। यह अवधि पूर्व अनुमान से आधी है। इसका तात्पर्य यह है कि शुक्र पर, आज की दुर्गम दुनिया बनने से पहले, संभवत: 2 से 3 अरब साल पहले तक महासागर रहे होंगे। शुक्र के विकास को समझना न केवल हमारे सौर मंडल के रहस्यों को जानने बल्कि सुदूर चट्टानी ग्रहों का अध्ययन करने के लिए भी महत्वपूर्ण है। शुक्र और पृथ्वी के बीच समानताएं इस बात की जांच के महत्व पर प्रकाश डालती हैं कि समान संघटन वाले ग्रह किस तरह अलग-अलग तरीके से विकसित हो सकते हैं। शुक्र के इतिहास से प्राप्त जानकारी ब्रह्मांड में अन्यत्र जीवन योग्य वातावरण की पहचान करने के लिए मूल्यवान सबक प्रदान कर सकती है। एक अनुमान है कि शुक्र के समान मंगल से पानी के ह्रास में भी इस प्रक्रिया की भूमिका रही हो सकती है। हालांकि, निकट भविष्य में कोई मिशन प्रत्यक्ष रूप से शुक्र पर HCO+ प्रक्रिया की खोजबीन नहीं कर पाएंगे, लेकिन शुक्र की वायुमंडलीय गतिशीलता को समझना जारी है। जल्दी ही कोई उपकरण ऊपरी वायुमंडल में हाइड्रोजन के ह्रास की जांच के लिए सामने आ जाएगा। तब भविष्य के मिशन शुक्र पर पानी की उपस्थिति और ग्रह विज्ञान के व्यापक क्षेत्र पर इसके प्रभाव पर अधिक जानकारी एकत्रित कर पाएंगे। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://d.newsweek.com/en/full/2387837/venus-water.jpg?w=1600&h=1600&q=88&f=119c0626f70d00b235f90fe9657d076a
मनुष्यों ने चंद्रमा की धरती पर आखिरी बार कदम सन 1972 में, अपोलो मिशन के तहत रखा था। तब से अब तक चंद्रमा पर कोई अंतरिक्ष यात्री नहीं उतरा है, हालांकि अपने विभिन्न अंतरिक्ष यानों और मिशनों के ज़रिए खगोलविद लगातार चंद्रमा की निगरानी करते आए हैं। लेकिन अब वे फिर से चंद्रमा पर उतरने की तैयारी में है; वर्ष 2026 में नासा अपने आर्टेमिस मिशन के तहत चंद्रमा पर अंतरिक्ष यात्रियों को उतारने वाला है।
चंद्रमा तक पहुंचने और उतरने की कई चुनौतियां हैं जिनसे निपटने के प्रयास जारी हैं। इनमें से एक चुनौती है चंद्रमा के कम गुरुत्वाकर्षण में अंतरिक्ष यात्रियों को कमज़ोर और दुर्बल होने से बचाना।
वास्तव में, अंतरिक्ष यात्रियों का चंद्रमा पर रहना उतना आसान और सहज नहीं है, जितना कि पृथ्वी पर। जैसा कि हम जानते हैं चंद्रमा का न तो वातावरण पृथ्वी जैसा है और न ही गुरुत्वाकर्षण – चंद्रमा का गुरुत्वाकर्षण पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण का करीब 1/6 है। मिशन के दौरान यह सुनिश्चित करना होता है कि वहां अंतरिक्ष यात्रियों के लिए पर्याप्त हवा, भोजन और पानी हो, और वे विकिरण से सुरक्षित रहें। साथ ही, उन्हें बदली परिस्थितियों में शारीरिक तकलीफ न हो; सामान्य से कम गुरुत्वाकर्षण पर काम करने से अंतरिक्ष यात्रियों की हड्डियां भुरभुराने लगती हैं, मांसपेशियां शिथिल पड़ जाती हैं, चलने-फिरने या ताल-मेल वाले अन्य किसी काम को करने के लिए ज़रूरी तंत्रिका तंत्र का आवश्यक नियंत्रण नहीं रहता है और ह्रदय और श्वसन तंत्र पर भी प्रभाव पड़ता है।
इससे निपटने के लिए ‘डीकंडीशनिंग’ उपाय यानी कि व्यायाम वगैरह करना पड़ता है ताकि वे स्वस्थ रह सकें। लेकिन मसला यह है कि प्रत्येक संभावित स्वास्थ्य समस्या के लिए अलग-अलग तरह के व्यायाम करने पड़ते हैं। जैसे तेज़ दौड़ना, कूदना, उछलना, जॉगिंग जैसे उपाय दिल और फेफड़ों को तो ठीक-ठाक बनाए रखते हैं लेकिन मांसपेशियों और हड्डियों को उतना दुरूस्त नहीं रख पाते।
रॉयल सोसायटी ओपन साइंस में प्रकाशित हालिया अध्ययन में शोधकर्ताओं ने इसी चुनौती से निपटने का तरीका सुझाया है। उनका सुझाव है कि अंतरिक्ष यात्री चंद्रमा पर यदि सर्कस वाले ‘मौत का कुआं’ में दौड़ लगाएं तो इन सारी समस्याओं से निपटा जा सकता है।
दरअसल, मिलान युनिवर्सिटी के फिज़ियोलॉजिस्ट अल्बर्टो मिनेट्टी और उनके सहयोगियों ने अपनी गणना में पाया था कि भले ही मनुष्य धरती पर ‘मौत के कुएं’ के चारों ओर चल या दौड़ न पाएं लेकिन चंद्रमा के कम गुरुत्वाकर्षण में वे यह करतब बहुत आसानी से कर पाएंगे; उन्हें 12 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से दौड़ना पर्याप्त होगा।
उन्होंने अपने इस विचार को जांचा। इसके लिए उन्होंने अपने दो शोधकर्ताओं को 36 मीटर ऊंची क्रेन और नायलोन की इलास्टिक रस्सी की मदद से मौत के कुएं में लटकाया। इस सेट-अप ने उनके शरीर के वज़न को चंद्रमा के गुरुत्वाकर्षण पर महसूस होने वाले वज़न जितना कर दिया, यानी परिस्थिति चंद्रमा के गुरुत्वाकर्षण जैसी बन गई। इस सेटअप के साथ शोधकर्ताओं को दौड़ाया। उन्होंने पाया कि प्रत्येक दिन की शुरुआत और अंत में कुछ मिनट इस तरह दौड़ने से हड्डियों, मांसपेशियों, हृदय और तंत्रिका तंत्र सम्बंधी समस्याओं से निपटा जा सकता है।
नतीजे तो उनको बढ़िया मिले हैं लेकिन सवाल उठता है कि जहां अंतरिक्ष में थोड़ा भी अतिरिक्त वज़न भेजना बहुत खर्चीला होता है वहां इतना बड़ा ‘मौत का कुआं’ भेजना कितना व्यावहारिक होगा? इस पर शोधकर्ताओं का सुझाव है कि वास्तव में चंद्रमा पर ‘मौत का कुआं’ ले जाने की बजाय अंतरिक्ष यात्रियों के रहने वाले कक्ष ही गोलाकार बनाए जा सकते हैं ताकि वे उसकी दीवार के चारों ओर दौड़ सकें।
सवाल वही आ जाता है कि क्या चंद्रमा पर अंतरिक्ष यात्रियों के रहने लिए बनाए जाने वाले कक्ष ऐसा ट्रैक बनाने के लिए पर्याप्त बड़े होंगे। बहरहाल, अन्य दल भी इस पर काम कर रहे हैं। जैसे, एक दल अंगों को सिकोड़ने और रक्त प्रवाह को नियंत्रित करने के लिए इनफ्लेटैबल कफ पर काम कर रहा है। (स्रोतफीचर्स)
इस प्रयोग को निम्नलिखित साइट्स पर विडियो रूप में देखा जा सकता है
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://images.newscientist.com/wp-content/uploads/2024/04/30140714/SEI_202022472.jpg?width=1200
हम जब भी अन्य ग्रहों पर जीवन के बारे में सोचते हैं तो हमारे मन में अधिकतर अपने आसपास दिखने वाले या वर्तमान में हावी जीवन रूपों की ही कल्पना उभरती है। लेकिन यदि वैज्ञानिक इस गफलत में रहते हुए अन्य ग्रहों पर जीवन या जीवन परिस्थितियां खोजने की कोशिश करेंगे तो संभव है कि कहीं पर जीवन होते हुए भी हम उसे देख न पाएं और तलाश के सारे प्रयास निरर्थक हो जाएं।
तलाश में ऐसा ही कोई जीवन रूप खगोलविदों की नज़र से न चूके इसके लिए कॉर्नेल विश्वविद्यालय के खगोलविद हर संभव जीवन रूप का डैटाबेस तैयार कर रहे हैं। इसी प्रयास में उन्होंने लैवेंडर रंग के बैक्टीरिया की रासायनिक संरचना की पड़ताल की। पाया कि हमसे दूर स्थित और हमारे सूर्य से छोटे, लाल मंद तारों के चक्कर लगाने वाले पृथ्वी सरीखे ग्रहों पर जीवन जामुनी रंग का हो सकता है। दरअसल ये बैक्टीरिया सरल प्रकाश संश्लेषण प्रणाली की मदद से लाल या अवरक्त प्रकाश अवशोषित करते हैं, और उससे ऊर्जा प्राप्त करते हैं लेकिन ऑक्सीजन नहीं बनाते। आरंभ में, जब हमारी पृथ्वी पर वनस्पति की वर्तमान प्रकाश संश्लेषण प्रणाली विकसित नहीं हुई थी तब, इन्हीं सूक्ष्मजीवों का बोलबाला रहा होगा। ये बैक्टीरिया इतनी विविध परिस्थितियों में जीवित रह सकते हैं और पनप सकते हैं कि यह लगना लाज़िम है कि कई अलग-अलग ग्रहों पर जीवन जामुनी रंग का हो सकता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://static.scientificamerican.com/dam/m/b2a017d1858eb9/original/GettyImages-1467075048c-copy.jpeg?w=1200