तारों का जन्म एवं मृत्यु – डॉ. मॉइज़ रस्सीवाला

बचपन से ही हम तारों को देखते आए हैं। परंतु बहुत कम ही लोगों के दिमाग में सवाल उठते हैं कि आकाश में इतने सारे तारें क्यों हैं? ये हम से कितनी दूर हैं? कितने बड़े हैं? ये किन चीज़ों से बने हैं? और ये सतत जगमगाते क्यों रहते हैं?

सभी को प्राय: हर रात नज़र आने वाले तारों के इन नज़ारों के बारे में हमारे दिमाग में ये सवाल कोलाहल क्यों नहीं मचाते? क्यों नहीं हम सब इन सवालों के उत्तर जानने के लिए लालायित हो उठते?

तारों-भरे खगोल को हम प्रतिदिन पृथ्वी की परिक्रमा करते देखते हैं। बस, इसके अलावा तारों में हमें कोई उलटफेर नज़र नहीं आता। चंद्रमा की कलाएं घटती-बढ़ती हैं। आकाश के ग्रह भी तारों के सापेक्ष अपनी स्थितियां बदलते रहते हैं। सूर्य भी स्थान बदलता है। उल्कापात तथा पुच्छल तारे (धूमकेतु) जैसे आकाश के नज़ारे पुरातन काल से मानव को प्रभावित करते रहे हैं, भयभीत करते रहे हैं। किंतु तारे हमें उस तरह प्रभावित नहीं करते, क्योंकि परंपरा से हमने उन्हें ‘स्थिर’ मान लिया है। वस्तुत:, इस भौतिक विश्व में कोई भी वस्तु स्थिर या निश्चल नहीं है।

तारों के अध्ययन के प्रति हमारी उपेक्षा का एक और कारण है कि बचपन से ही हमको बताया जाता है कि आकाश में अनगिनत तारे हैं एवं ये हमसे अनंत दूरी पर स्थित हैं। परिणामस्वरूप इस ‘अनगिनत और अनंत’ के सामने हम घुटने टेक देते हैं। ‘अनादि-अनंत’ जैसे विशेषणों से विभूषित काल्पनिक ईश्वर के प्रति हममें से बहुतों का यही भाव है। परंतु तारों का भौतिक अस्तित्व है और आज हम जानते हैं कि इस भौतिक विश्व में अनादि-अनंत जैसी कोई चीज़ नहीं है। ब्रह्मांड के सारे तारों के सारे अणु-परमाणु भी अनंत नहीं हैं। ‘शून्य’ की तरह ‘अनंत’ का भी इस विश्व में कोई भौतिक अस्तित्व नहीं है।

आज हम जानते हैं कि तारे कितने बड़े हैं और ये किन तत्वों से बने हैं। तारे सतत क्यों जगमगाते रहते हैं, इसकी जानकारी हमें पिछले करीब 90 वर्षों में ही मिली है। आज हम जानते हैं कि तारों में भीषण उथल-पुथल होती रहती है। ये जन्म लेते हैं, ये तरुण होते हैं, इन्हें बुढ़ापा आता है और अंत में इनकी ‘मृत्य’ भी होती है!

नक्षत्र लोक के बारे में और एक बात। आप स्वयं देख लीजिए, पुराकाल में कल्पित किसी भी ‘अनादि, अनंत और निश्चल’ धारणा का पोषण एवं प्रतिनिधित्व करने के लिए मानव समाज में एक वर्ग-विशेष का उत्थान होता रहा है। जैसे, पुरोहित वर्ग। तारों को जब अनादि, अनंत एवं स्थिर मान लिया गया तो उनकी तरफ से बोलने वाला, मानव-जीवन पर उनके तथाकथित ‘प्रभाव’ की पैरवी करने वाला, एक वर्ग पैदा हो गया – बहुत प्राचीन काल में ही। यह वर्ग है – फलित ज्योतिषियों का वर्ग!

आज हम जानते हैं कि तारे अनादि-अनंत एवं स्थिर तो नहीं ही हैं, बल्कि ये मूक भी नहीं हैं। हालांकि ये स्वयं अपनी बात कहने में असमर्थ हैं। लेकिन इनकी एक वैज्ञानिक भाषा है। इस भाषा को आज हम समझ सकते हैं। यह भाषा है – तारों की किरणों की भाषा। अपनी किरणों के माध्यम से तारे अपने बारे में हम तक जानकारी भेजते रहते हैं। यह जानकारी हमें फलित-ज्योतिषियों की पोथियों में नहीं बल्कि वेधशालाओं की दूरबीनों, वर्णक्रम-दर्शियों, कैमरों आदि से ही प्राप्त हो सकती है।

विश्व की हर चीज़ हर दूसरी चीज़ को प्रभावित करती है। तारे भी पार्थिव जीवन पर अपना ‘प्रभाव’ डालते हैं। उदाहरण के लिए, सूर्य एक तारा है और इसकी प्रत्येक हलचल का पृथ्वी के प्राणी-जगत पर प्रभाव पड़ता है। मानव जीवन पर तारों के प्रभाव को जन्म-कुण्डलियों से नहीं, बल्कि वैज्ञानिक उपकरणों से जाना जा सकता है।

इस लेख का मकसद यही है कि इन सारे प्रश्नों को सिलसिलेवार समझने की कोशिश की जाए।

तारों की चमक और रंग

रात को आकाश पर एक उड़ती सी नज़र ही आपको बता देगी कि कुछ तारे चमकदार हैं और कुछ धुंधले। कुछ तारों को तो देखना भी मुश्किल होता है और कुछ बल्ब की तरह दमकते हैं। ज़्यादा ध्यान से देखने पर मालूम होता है कि सारे तारे, चाहे धुंधले हों या चमकदार, एक से रंग में नहीं दमकते। कम से कम दो रंग साफ तौर पर अलग-अलग देखे जा सकते हैं – लाल और नीला। ज़्यादा गहराई से अध्ययन करने पर मालूम होगा कि ये रंग नीले से पीले और नारंगी से लाल तक होते हैं। पहले हम इन्हीं दो गुणों को समझने की कोशिश करेंगे।

तारों की चमक – दो तारों की चमक की आपस में तुलना कैसे की जाए? एक 100 वॉट के बल्ब की तुलना टॉर्च के बल्ब से कैसे की जाए? स्वाभाविक रूप से 100 वॉट का बल्ब ‘अपने आप में’ टॉर्च के बल्ब से कहीं ज़्यादा चमकदार होता है। परंतु यदि इस 100 वॉट के बल्ब को आपसे बहुत दूर और टॉर्च को बहुत पास रख दिया जाए तो? तो 100 वॉट के बल्ब की अपेक्षा टॉर्च का बल्ब कहीं अधिक चमकदार दिखेगा। तब आपको यह मानना ही पड़ेगा कि यदि दोनों की वास्तविक चमक की तुलना करना है तो दोनों को देखने वाले से बराबर दूरी पर रखना होगा। इसे हम स्टैण्डर्ड या मानक दूरी कह सकते हैं – यह दूरी कुछ भी तय की जा सकती है, दस मीटर, सौ मीटर या कुछ और। सबसे ज़रूरी बात यह है कि जिन चीज़ों की तुलना करना है उन सब को इस निर्धारित मानक दूरी पर ही रखा जाए।

यही बात तारों पर भी लागू होती है। कुछ तारे वास्तव में तो बहुत चमकदार होते हैं – वे प्रकाश के बहुत शक्तिशाली स्रोत हैं, किंतु हो सकता है कि वे धुंधले दिखें क्योंकि वे हमसे बहुत दूर हैं। कुछ तारे ऐसे भी हो सकते हैं जो वाकई बहुत ज़्यादा चमकदार न हों पर पास होने के कारण तेज़ चमकते दिखें। तारों की इस चमक की तुलना करने के लिए आपको कल्पना करनी होगी कि वे देखने वाले से बराबर की दूरी पर रखने पर कितने चमकेंगे। (क्योंकि आप इन्हें वास्तव में बराबर दूरी पर रख तो सकते नहीं!)। वैसे तो यह दूरी पृथ्वी से नापी जा सकती है परंतु ज़्यादा उपयुक्त यह होगा कि इस दूरी को सूर्य से नापा जाए। खगोलशास्त्रियों ने गणना के लिए यह दूरी पृथ्वी और सूर्य की दूरी से तकरीबन दो लाख गुना (पृथ्वी और सूर्य के बीच की दूरी करीब 90 लाख किलोमीटर है) तय की है। गणना के लिए खगोलशास्त्री काल्पनिक तौर पर सारे तारों (जिनकी चमक की तुलना करनी है) को सूर्य से इस मानक दूरी पर रखते हैं। यदि सूर्य सहित इन सभी तारों को इस मानक दूरी पर रखा जाए तो जानते हैं क्या होगा? हमारा सूरज दिखाई देना बंद हो जाएगा। हमारा सूरज भी एक तारा है, और यह वास्तव में न तो बहुत बड़ा है और न ही बहुत चमकदार। आकाश में ऐसे भी तारे हैं जो हमारे सूरज से सैकड़ों गुना बड़े और सैकड़ों गुना चमकदार हैं।

किसी तारे की मानक दूरी पर दिखने वाली चमक ‘परम दीप्तता’ (absolute luminosity) कहलाती है।

तारों का रंग – जैसे कि पहले ही कहा गया है, तारों का रंग नीले से लाल तक कुछ भी हो सकता है (दूसरे शब्दों में इंद्रधनुष के सारे रंगों के तारे देखे जा सकते हैं)। प्रत्येक तारे से आने वाले प्रकाश को स्पेक्ट्रोस्कोप (वर्णक्रमदर्शी) नामक यंत्र की मदद से बारीकी से जांचा जा सकता है। जैसे एक प्रिज़्म सूर्य के प्रकाश के रंगों को अलग-अलग कर देता है, उसी प्रकार वर्णक्रमदर्शी भी प्रत्येक तारों से आने वाले प्रकाश के रंगों को अलग-अलग कर देता है (इस प्रकार के चित्र को,  जिसमें प्रकाश के सारे रंग अलग-अलग दिखते हैं, उस प्रकाश का वर्णक्रम या स्पेक्ट्रम कहते हैं)। यदि सूर्य के प्रकाश को किसी पारदर्शी बॉलपेन (जैसे रोटोमेक या सेलो-ग्रिपर के पेन) में से सफेद सतह पर गिरने दें तो आपको इंद्रधनुष के सारे रंग उसमें दिखेंगे। यही सूर्य के प्रकाश का वर्णक्रम है।

इसी प्रकार की प्रक्रिया वर्णक्रमदर्शी में भी होती है और वर्णक्रम की तस्वीर प्राप्त हो जाती है, जिसका बाद में गहराई से अध्ययन किया जाता है।

अब तक हज़ारों तारों के वर्णक्रमों का अध्ययन किया जा चुका है। आश्चर्य की बात यह है कि इन परिमाणों में गज़ब की समानता पाई जाती है। इन्हीं समानताओं के आधार पर सारे तारों को नौ वर्गों में बांटा जा सकता है – इन वर्गों को रोमन वर्णमाला के अक्षरों O, B, A, F, G, K, M, R, N और I द्वारा दिखाया जाता है। अत: जब तारों की बात करते हैं तो कहते हैं कि अमुक तारा O वर्ग का है या B वर्ग का है। हमारा सूरज G वर्ग का एक नारंगी तारा है।

जब तारों के जन्म और मृत्यु की खोजबीन करनी होती है तो हर एक तारे का अध्ययन करना ज़रूरी नहीं होता। सिर्फ इतना काफी होता है कि एक विशेष वर्ग के कुछ तारों का अध्ययन कर लिया जाए। इससे उस वर्ग में आने वाले अनगिनत तारों के बारे में पर्याप्त जानकारी मिल जाती है। कहने का मतलब यह है कि सारे O वर्ग के तारे एक जैसे होते हैं और उनके परम परिमाण इस हद तक समान होते हैं कि यदि एक वर्ग के सारे तारों को मानक दूरी पर रख दिया जाए तो वे लगभग एक जैसे दिखेंगे – लगभग एक समान वर्णकम, एक समान साइज़, एक समान चमक! सिर्फ लाल तारों में थोड़ी जटिलता होती है। क्योंकि लाल दानव और लाल वामन (रेड ड्वार्फ) दोनों प्रकार के लाल तारे पाए जाते हैं। बहरहाल, हम इन दोनों जटिलताओं को छोड़कर इस बात को ध्यान में रखेंगे कि सारे तारों को समझने के लिए मात्र कुछ प्रतिनिधि तारों को समझना पर्याप्त है। यह बात कि एक ही रंग के तारे एक बराबर वास्तविक चमक वाले होते हैं, दो भौतिक शास्त्रियों आयनार हर्ट्ज़स्प्रन्ग और हेनरी नॉरिस रसेल ने खोजी थी।

तारों का जीवन चक्र

करीब डेढ़ सौ साल पहले तक यह मालूम नहीं था कि तारे जन्म लेते हैं और मरते हैं। कोई तारा करोड़ों सालों तक ज़िंदा रह सकता है, पर एक दिन ऐसा आता है जब उसका ऊर्जा का स्रोत चुक जाता है। और तब वह या तो फूट सकता है या एक ठंडे, शांत, काले पिंड में परिवर्तित हो सकता है।

जब खगोलशास्त्री दूरदर्शी से आकाश का अध्ययन करते हैं तो वे न सिर्फ अनगिनत तारे देखते हैं बल्कि हाइड्रोजन नामक गैस का धब्बों के रूप में वितरण भी देखते हैं, जिन्हें वे ‘बादल’ कहते हैं। हमारे वातावरण के बाहर की सारी जगह, जिसे अंतरिक्ष कहते हैं, इसी हाइड्रोजन गैस से भरी है। किंतु गैस का घनत्व अविश्वसनीय रूप से कम है – करीब एक परमाणु प्रति घन सेंटीमीटर (जो कि करीब-करीब निर्वात ही है)। इसका अर्थ है कि एक गिलास में करीब 20 परमाणु आएंगे, जबकि सामान्य वातावरण में उसी गिलास में अरबों परमाणु होते हैं। परंतु अंतरिक्ष इतना विस्तृत है कि इतने कम घनत्व पर भी उसमें अरबों तारे बनाने के लिए पर्याप्त पदार्थ मौजूद हैं। कहीं-कहीं यह घनत्व ज़्यादा भी होता है – करीब 10 से 100 परमाणु प्रति घन सेंटीमीटर। अब, सवाल उठता है कि अंतरिक्ष में कौन सी शक्ति इन बादलों को स्थिरता देती है? इनके कण खुद एक-दूसरे को केंद्र की तरफ खींचते हैं और इसलिए इन्हें स्व-गुरुत्वाकर्षण जनित कहा जाता है। ये ‘बादल’ काफी स्थिर होते हैं और लाखों साल तक एक जैसे बने रहते हैं परंतु समय-समय पर कुछ भौतिक क्रियाएं इन्हें सिमटने पर मजबूर कर देती हैं। इन प्रक्रियाओं को भली-भांति समझा नहीं जा सका है। जब कोई गैस गर्म की जाती है तो वह फैलती है और जब ठंडी की जाती है तो सिकुड़ती है। इसके विपरीत जब गुरुत्वाकर्षण शक्ति ज़्यादा होती है तो कोई भी वस्तु सिकुड़ती है और जब गुरुत्वाकर्षण शक्ति कम होती है तो वस्तु फैलती है।

अभी तक प्राप्त जानकारी के अनुसार इन ‘बादलों’ में केंद्र की तरफ खींचने वाली शक्ति (गुरुत्वाकर्षण) और उनके तापमान के बीच एक संतुलन होता है। तापमान के कारण बादल फैलने की कोशिश करते हैं। और गुरुत्वाकर्षण के कारण सिकुड़ने की। जब इन दो शक्तियों में संतुलन होता है तो ‘बादल’ स्थिर रहता है। जब बादल ठंडा होता है और उसका तापमान कम होने लगता है तो वह गुरुत्वाकर्षण के कारण सिकुड़ने लगता है। जब यह सिकुड़न शुरू होती है, तो बादल का तापमान बढ़ने लगता है। इसी के साथ-साथ ‘बादल’ छोटे-छोटे टुकड़ों में बंटता है और ये टुकड़े अपने आप में सिकुड़ते हैं। इस प्रकार से सिकुड़ते हुए टुकड़े एक हल्की लाल आभा से दमकते हैं। इस लाल आभा को पृथ्वी पर विशेष उपकरणों द्वारा देखा जा सकता है और जब यह देखी जाती है तो कहा जाता है कि एक नए तारे का प्रादुर्भाव हो रहा है।

सवाल यह उठता है कि यह सिकुड़ना कब तक जारी रहेगा? एक विशेष अवस्था आएगी जब अंदर के द्रव्य का तापमान इतना बढ़ जाएगा कि वहां उपस्थित हाइड्रोजन परमाणु एक-दूसरे से रासायनिक रूप से जुड़ने लगेंगे। इस क्रिया को संलयन (fusion) कहते हैं। इसमें हाइड्रोजन के चार परमाणुओं के केंद्रक मिलकर हीलियम नामक एक नया तत्व बनाते हैं। हाइड्रोजन के इस प्रकार हीलियम में बदलने की प्रक्रिया के दौरान निहायत बड़ी मात्रा में ऊर्जा निकलती है (यही प्रक्रिया हाइड्रोजन बम में भी होती है)। यह गर्मी जो केंद्र में उत्पन्न होती है वह गैस को फैलने पर मजबूर करती है और सिकुड़ना रुक जाता है। अब फिर एक संतुलन स्थापित हो गया है – गर्मी के कारण फैलने और गुरुत्वाकर्षण के कारण सिकुड़ने की प्रक्रिया के बीच। इस अवस्था में तारा स्थिर हो जाता है और कहा जाता है कि वह अपने जीवनचक्र के मुख्यक्रम की अवस्था में पहुंच गया है। इस प्रकार से केंद्र की गर्मी और गुरुत्वाकर्षण के बीच का संतुलन बहुत महत्वपूर्ण है। केंद्र में जो भी गर्मी पैदा होती है वह तारे की सतह से अंतरिक्ष में बिखेर दी जाती है (इस क्रिया को विकिरण कहते हैं)। धीरे-धीरे तारे के केंद्र में गर्मी कम हो जाती है। जब यह गर्मी बहुत ही कम हो जाती है तो गुरुत्वाकर्षण के साथ इसका संतुलन खत्म हो जाता है। ऐसी स्थिति में गुरुत्वाकर्षण का बल फिर तारे को सिकुड़ने पर मजबूर करता है। कई बार यह प्रकिया बहुत तेज़ी से हो सकती है। इसके विपरीत, यदि केंद्र में इतनी ज़्यादा शक्ति या गर्मी पैदा हो रही है जो तारे की सतह से विकिरण द्वारा अंतरिक्ष में नहीं बिखेरी जा सकती तो भी संतुलन समाप्त हो जाता है, किंतु इस बार तारा गर्मी के कारण फैलता है और कई बार इतनी तेज़ी से फैलता है कि फट पड़ता है।

किसी तारे के केंद्र में हाइड्रोजन का विपुल भंडार होता है। और इसे धीरे-धीरे हीलियम में बदला जाता है। इस तरह से कोई तारा करोड़ों वर्षों तक ऊर्जा के स्रोत के रूप में चमकता रह सकता है। हमारा सूरज इस वक्त अपनी मुख्यक्रम अवस्था में है। यह ‘बादलों’ से करोड़ों वर्ष पहले बना था और करोड़ों वर्ष तक चमकता रहेगा।

तारे के जीनव चक्र में आगे की कहानी इस बात पर निर्भर करेगी कि उसकी संहति क्या है। (मोटे-मोटे शब्दों में उसके वज़न पर निर्भर करेगी)।

बहुत बड़े तारे – हमारे सूरज से सौ गुना बड़े तारों को ‘बहुत बड़े तारे’ कहते हैं। ये चमकदार, O और B वर्ग के तारे हैं जिन्हें नीले दानव कहा जाता है। ये अंतरिक्ष में इतनी ऊर्जा बिखेरते हैं कि इनकी ऊर्जा का स्रोत (केंद्र में हाइड्रोजन का भंडार) बहुत जल्दी समाप्त हो जाएगा – मात्र 10-20 करोड़ वर्षों में। यह वैसा ही है जैसे समुद्र को इतनी तेज़ी से खाली किया जाए कि वह सूख जाए। एक छोटी टंकी ज़्यादा देर तक चलेगी यदि उसका पानी धीरे-धीरे उपयोग किया जाए। 10-20 करोड़ वर्षों के बाद सारी हाइड्रोजन समाप्त हो जाएगी तो क्या होगा? केंद्र का तापमान धीरे-धीरे कम होने लगेगा और इसके साथ ही साथ अंदर की गैस के फैलने से जो दवाब उत्पन्न होता है वह भी कम होगा। ऐसी स्थिति में खुद के गुरुत्वाकर्षण के कारण तारा सिकुड़ने लगेगा। पर इसके साथ ही (जैसा पहले भी हुआ था) केंद्र का तापमान बढ़ेगा और इस बार हीलियम (हाइड्रोजन तो है नहीं) के परमाणुओं के बीच रासायनिक क्रिया आरंभ हो जाएगी। इस क्रिया में हीलियम के तीन परमाणु मिलकर कार्बन नामक पदार्थ का एक परमाणु बनाएंगे। इस क्रिया में भी बहुत सारी ऊर्जा निकलती है। इस ऊर्जा के कारण तापमान बढ़ेगा और यह बढ़ता तापमान तारे की सिकुड़ने की प्रक्रिया को रोक देगा। परंतु बहुत बड़े तारे में यह स्थिति थोड़ी देर ही रहेगी क्योंकि सारी हीलियम जल्दी ही कार्बन में तबदील हो जाएगी। फिर से वही कहानी दोहराई जाएगी किंतु ज़्यादा रफ्तार से। कार्बन के परमाणु मिलकर और भारी तत्व बनाएंगे। इस सारी प्रक्रिया के दौरान इतनी ज़्यादा ऊर्जा पैदा होगी कि उसे तारे की सतह से धीरे-धीरे बिखेरना असंभव हो जाएगा। और ऐसी स्थिति में गर्मी और गुरुत्वाकर्षण का संतुलन इस कदर बिगड़ेगा कि तारे में ज़बरदस्त विस्फोट होगा। विस्फोट हज़ारों सूर्य की चमक के बराबर चमक पैदा करेगा और हो सकता है कि पृथ्वी पर भी दिखे। इस प्रकार का एक विस्फोट चीनवासियों ने पंद्रहवी शताब्दी में देखा था। ऐसे विस्फोट को सुपरनोवा विस्फोट कहते हैं। ऐसे सुपरनोवा विस्फोट में करोड़ों टन गैस अंतरिक्ष में छोड़ी जाएगी और यह अंतरिक्ष में पहले से उपस्थित गैस के साथ घुल-मिल जाएगी। इस गैस के द्वारा ही तारों की अगली पीढ़ी निर्मित होगी। इस नए तारे का जीवन चक्र मुख्यत: इस मिश्रण के तत्वों पर निर्भर करेगा, खास तौर से भारी तत्वों पर। तारे का बचा हुआ केंद्रीय भाग धीरे-धीरे एक ठंडे मृत पिंड में बदल जाएगा। इस बचे हुए भाग में ऊर्जा पैदा करने के लिए कोई ईंधन नहीं है, इसलिए यह अपने गुरुत्वाकर्षण के कारण सिकुड़ता ही जाएगा। और इस कदर सिकुड़ेगा कि इसका घनत्व बहुत ही ज़्यादा हो जाएगा। इतने अधिक घनत्व के कारण इसका गुरुत्वाकर्षण बहुत बढ़ जाएगा और यह अपने आसपास की हर चीज़ को आकर्षित करेगा। इसका गुरुत्वाकर्षण इतना तीव्र होगा कि जो भी चीज़ इस पर पड़ेगी वापस नहीं लौटेगी – यहां तक कि प्रकाश भी! चूंकि इससे कोई प्रकाश नहीं निकलेगा, इसलिए यह अदृश्य हो जाएगा। ऐसे पिंड को ब्लैकहोल या न्यूट्रॉन तारा कहते हैं।

छोटे तारे – ये वे तारे हैं जिनकी मात्रा लगभग सूर्य के बराबर होती है। इनका जीवनचक्र करीब-करीब वैसा ही होता है जैसा बहुत बड़े तारों का। अंतर इतना है कि ये ज़्यादा लंबे समय तक जीवित रहेंगे और इनका हाइड्रोजन भंडार धीरे-धीरे खत्म होगा। जब सारी हाइड्रोजन हीलियम में बदल जाएगी तो सिकुड़ना शुरु होगा; किंतु सारी प्रक्रिया में उत्पन्न ऊर्जा और बिखेरी गई ऊर्जा के बीच एक संतुलन बना रहेगा। अत: विस्फोट नहीं होगा।

छोटे तारों के विकास में एक विशेष गुण होता है। जब केंद्रीय भाग में हीलियम का संलयन (दहन) शुरु होता है तो इस प्रकिया के दौरान उत्पन्न गर्मी के कारण तारे का बाहरी भाग फैलना शुरू करता है और साथ ही साथ ठंडा होता है। इसके फलस्वरूप तारा एक फूला हुआ लाल दानव बन जाता है। यदि हमारे सूरज के साथ ऐसा हुआ तो हमारे सूरज का बाहरी हिस्सा पृथ्वी तक पहुंच जाएगा। यद्यपि यह बाहरी हिस्सा ‘अपेक्षाकृत ठंडा’ होगा, फिर भी यह धरती का तापमान कुछ हज़ार डिग्री सेल्सियस बढ़ा देगा और यह तापक्रम इतना होगा कि धरती वाष्प बनकर अंतरिक्ष में उड़ जाएगी! पर ऐसा होने में अभी कई करोड़ वर्ष बाकी हैं। और जिस तरह मानव जाति चल रही है वह अपने विनाश का कोई अन्य रास्ता इस घटना के पहले स्वयं ही ढूंढ लेगी।

यह लाल दानव धीरे-धीरे अपने केंद्र के हीलियम का स्रोत समाप्त कर देगा और फिर गुरुत्वाकर्षण के कारण सिकुड़ने लगेगा। और इतना सिकुड़ेगा कि पृथ्वी से भी छोटा हो जाएगा। ऐसी अवस्था में इसके अंदर का पदार्थ बहुत ही दबाव की स्थिति में रहेगा। इसका घनत्व बहुत ज़्यादा बढ़ जाएगा। ऐसे तारों को श्वेत वामन (व्हाइट ड्वार्फ) कहते हैं, जो करीब-करीब अदृश्य होते हैं।

इस प्रकार से तारों की कहानी खत्म होती है, फिर शुरू होने के लिए। यह पूरी प्रक्रिया कभी न खत्म होने वाली प्रक्रिया है। (स्रोत फीचर्स)

दो शब्द…

1937 में मुंबई (तत्कालीन बंबई) में जन्मे डॉ. मॉइज़ रस्सीवाला विज्ञान के अध्यापन व लोकप्रियकरण में सक्रिय रहे। बंबई विश्वविद्यालय से भौतिकी में स्नातक उपाधि प्राप्त करने के बाद उन्होंने हाइडेलबर्ग (जर्मनी) से स्नातकोत्तर उपाधि पूरी की। इसके बाद वे अल्जीरिया, फ्रांस वगैरह के कई विश्वविद्यालयों और शोध संस्थानों में अध्यापन व शोध कार्य में जुटे रहे। उनका प्रिय विषय खगोल-भौतिकी रहा।

विज्ञान शिक्षा में रुचि के चलते 1970 के दशक में वे होशंगाबाद (अब नर्मदापुरम) स्थित संस्था किशोर भारती में होशंगाबाद विज्ञान शिक्षण कार्यक्रम के प्रारंभिक विकास में शरीक रहे। कुछ अंतराल के बाद वे एकलव्य संस्था में आए और उज्जैन केंद्र के प्रभारी के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। अंतत: वे फ्रांस में बस गए। अपने लंबे फलदायी कार्यकाल में उन्होंने कई शोध पत्र लिखे और लगभग सात किताबों का लेखन किया।

विगत 21 जून को वे इस दुनिया से रुखसत हो गए और अपने पीछे अपने लेख, शोध कार्य, किताबों और सौम्यता की विरासत छोड़ गए।

यहां प्रकाशित उनका यह लेख मूलत: पिपरिया में आयोजित ‘विज्ञान व्याख्यानमाला’ शृंखला का पहला व्याख्यान है। उनके इस व्याख्यान को ‘होशंगाबाद विज्ञान बुलेटिन’ के जनवरी-फरवरी 1985 के अंक में प्रकाशित किया गया था।

शुक्र ग्रह से पानी शायद तेज़ी से गायब हुआ होगा

हमारे पड़ोसी ग्रह शुक्र की सतह का आजकल का तापमान सीसे को भी पिघला सकता है लेकिन अध्ययन बताते हैं कि किसी समय यहां समुद्र लहराते रहे होंगे और वातावरण जीवन के अनुकूल रहा होगा। तो सारा पानी गया कहां? यह एक मुश्किल सवाल रहा है।
नेचर पत्रिका में प्रकाशित हालिया अध्ययन ने पानी के ह्रास की एक ऐसी क्रियाविधि को उजागर किया है जो शुक्र के वायुमंडल में अत्यधिक ऊंचाई पर काम करती है और दुगनी रफ्तार से पानी के ह्रास के लिए ज़िम्मेदार हो सकती है। इसका यह भी मतलब है कि शुक्र ज़्यादा हाल तक जलीय व जीवनक्षम रहा होगा।
दूरबीनों व अंतरिक्ष यानों से प्राप्त आंकड़े शुक्र के वायुमंडल में जलवाष्प की उपस्थिति दर्शा चुके थे। 1970 के दशक में पायोनीयर वीनस ऑर्बाइटर से शुक्र पर अतीत में समुद्र की उपस्थिति के संकेत मिले थे; वहां के वायुमंडल में हाइड्रोजन के भारी समस्थानिक (ड्यूटीरियम)की उपस्थिति। आगे चलकर किए गए मॉडलिंग से अनुमान लगाया गया था कि किसी समय शुक्र पर इतना पानी थी कि उसकी पूरी सतह पर 3 किलोमीटर गहरी पानी की परत रही होगी।
वैज्ञानिकों का अनुमान है कि अरबों वर्ष पूर्व शुक्र ग्रह पर महासागर रहे होंगे, लेकिन ज्वालामुखी गतिविधि और ज़ोरदार ग्रीनहाउस प्रभाव के कारण संभवत: अधिकांश पानी वाष्पित हो गया होगा। लेकिन शेष बचेे थोड़े से पानी (अंतिम लगभग 100 मीटर की परत) के खत्म होने की व्याख्या नहीं कर सके हैं।
इस नए अध्ययन में एक नई प्रक्रिया – HCO+ क्रियाविधि – पर चर्चा की गई है जो शुक्र के ऊपरी वायुमंडल में चलती है। इसमें सूर्य का प्रकाश न सिर्फ पानी के अणुओं को बल्कि कार्बन डाईऑक्साइड को भी तोड़ देता है। कार्बन डाईऑक्साइड के टूटने से कार्बन मोनोऑक्साइड बनती है। जलवाष्प और कार्बन मोनोऑक्साइड की परस्पर क्रिया के परिणामस्वरूप HCO+ नामक एक अस्थिर आयन का निर्माण होता है। यह आयन तत्काल विघटित हो जाता है। चूंकि हाइड्रोजन अत्यंत हल्की होती है, वह वायुमंडल से पलायन कर जाती है। यह प्रक्रिया शुक्र के वायुमंडल से रहे-सहे पानी को खत्म करने के अवसर प्रदान करती है।
इस नए पहचानी गई प्रक्रिया को पहले से ज्ञात प्रक्रियाओं के साथ जोड़कर शोधकर्ताओं का सुझाव है कि शुक्र का पूरा पानी उड़ने में केवल 60 करोड़ वर्ष लगे होंगे। यह अवधि पूर्व अनुमान से आधी है। इसका तात्पर्य यह है कि शुक्र पर, आज की दुर्गम दुनिया बनने से पहले, संभवत: 2 से 3 अरब साल पहले तक महासागर रहे होंगे।
शुक्र के विकास को समझना न केवल हमारे सौर मंडल के रहस्यों को जानने बल्कि सुदूर चट्टानी ग्रहों का अध्ययन करने के लिए भी महत्वपूर्ण है। शुक्र और पृथ्वी के बीच समानताएं इस बात की जांच के महत्व पर प्रकाश डालती हैं कि समान संघटन वाले ग्रह किस तरह अलग-अलग तरीके से विकसित हो सकते हैं। शुक्र के इतिहास से प्राप्त जानकारी ब्रह्मांड में अन्यत्र जीवन योग्य वातावरण की पहचान करने के लिए मूल्यवान सबक प्रदान कर सकती है। एक अनुमान है कि शुक्र के समान मंगल से पानी के ह्रास में भी इस प्रक्रिया की भूमिका रही हो सकती है।
हालांकि, निकट भविष्य में कोई मिशन प्रत्यक्ष रूप से शुक्र पर HCO+ प्रक्रिया की खोजबीन नहीं कर पाएंगे, लेकिन शुक्र की वायुमंडलीय गतिशीलता को समझना जारी है। जल्दी ही कोई उपकरण ऊपरी वायुमंडल में हाइड्रोजन के ह्रास की जांच के लिए सामने आ जाएगा।
तब भविष्य के मिशन शुक्र पर पानी की उपस्थिति और ग्रह विज्ञान के व्यापक क्षेत्र पर इसके प्रभाव पर अधिक जानकारी एकत्रित कर पाएंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://d.newsweek.com/en/full/2387837/venus-water.jpg?w=1600&h=1600&q=88&f=119c0626f70d00b235f90fe9657d076a

अंतरिक्ष यात्रियों की सेहत के लिए ‘मौत का कुआं’

नुष्यों ने चंद्रमा की धरती पर आखिरी बार कदम सन 1972 में, अपोलो मिशन के तहत रखा था। तब से अब तक चंद्रमा पर कोई अंतरिक्ष यात्री नहीं उतरा है, हालांकि अपने विभिन्न अंतरिक्ष यानों और मिशनों के ज़रिए खगोलविद लगातार चंद्रमा की निगरानी करते आए हैं। लेकिन अब वे फिर से चंद्रमा पर उतरने की तैयारी में है; वर्ष 2026 में नासा अपने आर्टेमिस मिशन के तहत चंद्रमा पर अंतरिक्ष यात्रियों को उतारने वाला है।

चंद्रमा तक पहुंचने और उतरने की कई चुनौतियां हैं जिनसे निपटने के प्रयास जारी हैं। इनमें से एक चुनौती है चंद्रमा के कम गुरुत्वाकर्षण में अंतरिक्ष यात्रियों को कमज़ोर और दुर्बल होने से बचाना।

वास्तव में, अंतरिक्ष यात्रियों का चंद्रमा पर रहना उतना आसान और सहज नहीं है, जितना कि पृथ्वी पर। जैसा कि हम जानते हैं चंद्रमा का न तो वातावरण पृथ्वी जैसा है और न ही गुरुत्वाकर्षण – चंद्रमा का गुरुत्वाकर्षण पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण का करीब 1/6 है। मिशन के दौरान यह सुनिश्चित करना होता है कि वहां अंतरिक्ष यात्रियों के लिए पर्याप्त हवा, भोजन और पानी हो, और वे विकिरण से सुरक्षित रहें। साथ ही, उन्हें बदली परिस्थितियों में शारीरिक तकलीफ न हो; सामान्य से कम गुरुत्वाकर्षण पर काम करने से अंतरिक्ष यात्रियों की हड्डियां भुरभुराने लगती हैं, मांसपेशियां शिथिल पड़ जाती हैं, चलने-फिरने या ताल-मेल वाले अन्य किसी काम को करने के लिए ज़रूरी तंत्रिका तंत्र का आवश्यक नियंत्रण नहीं रहता है और ह्रदय और श्वसन तंत्र पर भी प्रभाव पड़ता है।

इससे निपटने के लिए ‘डीकंडीशनिंग’ उपाय यानी कि व्यायाम वगैरह करना पड़ता है ताकि वे स्वस्थ रह सकें। लेकिन मसला यह है कि प्रत्येक संभावित स्वास्थ्य समस्या के लिए अलग-अलग तरह के व्यायाम करने पड़ते हैं। जैसे तेज़ दौड़ना, कूदना, उछलना, जॉगिंग जैसे उपाय दिल और फेफड़ों को तो ठीक-ठाक बनाए रखते हैं लेकिन मांसपेशियों और हड्डियों को उतना दुरूस्त नहीं रख पाते।

रॉयल सोसायटी ओपन साइंस में प्रकाशित हालिया अध्ययन में शोधकर्ताओं ने इसी चुनौती से निपटने का तरीका सुझाया है। उनका सुझाव है कि अंतरिक्ष यात्री चंद्रमा पर यदि सर्कस वाले ‘मौत का कुआं’ में दौड़ लगाएं तो इन सारी समस्याओं से निपटा जा सकता है।

दरअसल, मिलान युनिवर्सिटी के फिज़ियोलॉजिस्ट अल्बर्टो मिनेट्टी और उनके सहयोगियों ने अपनी गणना में पाया था कि भले ही मनुष्य धरती पर ‘मौत के कुएं’ के चारों ओर चल या दौड़ न पाएं लेकिन चंद्रमा के कम गुरुत्वाकर्षण में वे यह करतब बहुत आसानी से कर पाएंगे; उन्हें 12 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से दौड़ना पर्याप्त होगा।

उन्होंने अपने इस विचार को जांचा। इसके लिए उन्होंने अपने दो शोधकर्ताओं को 36 मीटर ऊंची क्रेन और नायलोन की इलास्टिक रस्सी की मदद से मौत के कुएं में लटकाया। इस सेट-अप ने उनके शरीर के वज़न को चंद्रमा के गुरुत्वाकर्षण पर महसूस होने वाले वज़न जितना कर दिया, यानी परिस्थिति चंद्रमा के गुरुत्वाकर्षण जैसी बन गई। इस सेटअप के साथ शोधकर्ताओं को दौड़ाया। उन्होंने पाया कि प्रत्येक दिन की शुरुआत और अंत में कुछ मिनट इस तरह दौड़ने से हड्डियों, मांसपेशियों, हृदय और तंत्रिका तंत्र सम्बंधी समस्याओं से निपटा जा सकता है।

नतीजे तो उनको बढ़िया मिले हैं लेकिन सवाल उठता है कि जहां अंतरिक्ष में थोड़ा भी अतिरिक्त वज़न भेजना बहुत खर्चीला होता है वहां इतना बड़ा ‘मौत का कुआं’ भेजना कितना व्यावहारिक होगा? इस पर शोधकर्ताओं का सुझाव है कि वास्तव में चंद्रमा पर ‘मौत का कुआं’ ले जाने की बजाय अंतरिक्ष यात्रियों के रहने वाले कक्ष ही गोलाकार बनाए जा सकते हैं ताकि वे उसकी दीवार के चारों ओर दौड़ सकें।

सवाल वही आ जाता है कि क्या चंद्रमा पर अंतरिक्ष यात्रियों के रहने लिए बनाए जाने वाले कक्ष ऐसा ट्रैक बनाने के लिए पर्याप्त बड़े होंगे। बहरहाल, अन्य दल भी इस पर काम कर रहे हैं। जैसे, एक दल अंगों को सिकोड़ने और रक्त प्रवाह को नियंत्रित करने के लिए इनफ्लेटैबल कफ पर काम कर रहा है। (स्रोत फीचर्स)

इस प्रयोग को निम्नलिखित साइट्स पर विडियो रूप में देखा जा सकता है

https://www.youtube.com/watch?v=xU3wkAExTgc https://www.theguardian.com/science/2024/may/01/astronauts-could-run-round-wall-of-death-to-keep-fit-on-moon-say-scientists

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जीवन अलग रंग भी दर्शा सकता है

म जब भी अन्य ग्रहों पर जीवन के बारे में सोचते हैं तो हमारे मन में अधिकतर अपने आसपास दिखने वाले या वर्तमान में हावी जीवन रूपों की ही कल्पना उभरती है। लेकिन यदि वैज्ञानिक इस गफलत में रहते हुए अन्य ग्रहों पर जीवन या जीवन परिस्थितियां खोजने की कोशिश करेंगे तो संभव है कि कहीं पर जीवन होते हुए भी हम उसे देख न पाएं और तलाश के सारे प्रयास निरर्थक हो जाएं।

तलाश में ऐसा ही कोई जीवन रूप खगोलविदों की नज़र से न चूके इसके लिए कॉर्नेल विश्वविद्यालय के खगोलविद हर संभव जीवन रूप का डैटाबेस तैयार कर रहे हैं। इसी प्रयास में उन्होंने लैवेंडर रंग के बैक्टीरिया की रासायनिक संरचना की पड़ताल की। पाया कि हमसे दूर स्थित और हमारे सूर्य से छोटे, लाल मंद तारों के चक्कर लगाने वाले पृथ्वी सरीखे ग्रहों पर जीवन जामुनी रंग का हो सकता है। दरअसल ये बैक्टीरिया सरल प्रकाश संश्लेषण प्रणाली की मदद से लाल या अवरक्त प्रकाश अवशोषित करते हैं, और उससे ऊर्जा प्राप्त करते हैं लेकिन ऑक्सीजन नहीं बनाते। आरंभ में, जब हमारी पृथ्वी पर वनस्पति की वर्तमान प्रकाश संश्लेषण प्रणाली विकसित नहीं हुई थी तब, इन्हीं सूक्ष्मजीवों का बोलबाला रहा होगा। ये बैक्टीरिया इतनी विविध परिस्थितियों में जीवित रह सकते हैं और पनप सकते हैं कि यह लगना लाज़िम है कि कई अलग-अलग ग्रहों पर जीवन जामुनी रंग का हो सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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ब्रह्मांड का सबसे चमकीला ज्ञात पिंड – प्रदीप

स्ट्रेलियन नेशनल युनिवर्सिटी के खगोलविदों के नेतृत्व में एक दल ने एक नए क्वासर की खोज की है जिसका द्रव्यमान 17 अरब सूर्यों के बराबर है। यह न केवल अब तक देखा गया सबसे चमकीला क्वासर है बल्कि यह सामान्य तौर पर अब तक देखा गया सबसे चमकीला खगोलीय पिंड भी है। J0529-4351 नामक यह क्वासर हमारे सूर्य की तुलना में 500 खरब गुना अधिक चमकीला है। यह अब तक देखे गए सबसे उग्र और सबसे तेज़ी से बढ़ने वाले एक अति-भारी ब्लैक होल द्वारा संचालित है, जो हर दिन एक सूर्य के द्रव्यमान के बराबर गैसीय द्रव्यराशि का उपभोग करता है। नेचर एस्ट्रॉनॉमी जर्नल में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक यह हमारे सौरमंडल से इतना दूर है कि इसकी रोशनी को पृथ्वी तक पहुंचने में 12 अरब साल से अधिक का समय लगा।

क्वासरों को ब्रह्मांड में ऊर्जा और प्रकाश का सबसे शक्तिशाली स्रोत माना जाता है। 1960 में पहली बार अंतरिक्ष में ऐसे प्रबल रेडियो स्रोत मिले थे जो हमसे 10 से 15 प्रकाश वर्ष दूर थे। तब यह बड़े आश्चर्य की बात समझी गई थी क्योंकि रेडियो दूरबीनों से खोजे गए ये पिंड खरबों तारों के बराबर ऊर्जा का उत्सर्जन कर रहे थे और उनका आकार-प्रकार भी तारों के जैसा था। इन पिंडों को क्वासी-स्टेलर रेडियो सोर्सेज़ (क्वासर्स) यानी आभासी तारकीय रेडियो-स्रोत नाम दिया गया।

चूंकि ब्लैक होल हमें दिखाई नहीं देते इसलिए विज्ञानी अमूमन ब्लैक होल्स की खोज में क्वासरों की मदद लेते हैं। क्वासरों की गैसीय द्रव्यराशि को ब्लैक होल अपनी ओर खींचते हैं। ब्लैक होल में क्वासर की द्रव्यराशि लगातार गिरने के कारण उसमें से काफी तेज़ी से रेडियो तरंगें उत्सर्जित होने लगती हैं। ऐसी ही तीव्र रेडियो तरंगों के निरीक्षण के आधार पर और युरोपियन सदर्न ऑब्ज़रवेट्री में लगे वेरी लार्ज टेलीस्कोप की मदद से खगोलविदों ने J0529-4351 क्वासर के संचालन के लिए ज़िम्मेदार ब्लैक होल की खोज की। यह अब तक ज्ञात सबसे तेज़ी से विकसित होने वाला ब्लैक होल है। विकास की अविश्वसनीय दर का मतलब प्रकाश और ऊर्जा का भारी उत्सर्जन भी है। यह इसे ज्ञात ब्रह्मांड का सबसे चमकदार निकाय बनाता है।

गौरतलब है कि J0529-4351 को 4 दशक पहले सदर्न स्काई सर्वे में भी देखा गया था, लेकिन यह इतना चमकीला था कि उस समय खगोलशास्त्री इसे क्वासर के रूप में पहचानने में विफल रहे थे।

इस खोज से ऐसा प्रतीत होता है कि सभी निहारिकाओं के मूल में एक अतिविशाल पिंड है, जिसका संभवत: अर्थ यह है कि ऐसी वस्तुएं उन निहारिकाओं के विकास में अंतर्निहित हैं। संभव है कि सभी निहारिकाएं ऐसे अति-भारी ब्लैक होल्स के आसपास बनी हों। (स्रोत फीचर्स)

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सूर्य के अवसान के बाद भी कुछ ग्रह साबुत रहेंगे

नासा की जेडब्ल्यूएसटी अंतरिक्ष दूरबीन ने एक असाधारण खोज की है जिससे सौर मंडल की बहुमूल्य जानकारी प्राप्त हो सकती है। जैसा कि हम जानते हैं, सूर्य लगभग 5 अरब वर्षों में एक लाल दानव में बदल जाएगा और अपने नज़दीकी ग्रहों को निगल जाएगा। लेकिन इस नई खोज से पता चला है कि इस प्रक्रिया के दौरान दूर स्थित ग्रह या तो सौर मंडल में अंदर की ओर खिंच जाएंगे या बाहर फेंक दिए जाएंगे लेकिन वे साबुत बना रह सकते हैं।

पहली बार, खगोलविदों ने कुछ श्वेत वामन तारों के आसपास सौर मंडल जैसी कक्षाओं में ग्रहों की प्रत्यक्ष छवि ली है। ये श्वेत वामन तब अस्तित्व में आते हैं जब सूर्य जैसे तारे पहले लाल दानव के रूप में फैलते हैं और फिर सिकुड़कर अंतत: पृथ्वी की साइज़ के रह जाते हैं।

वैसे तो ऐसे साबुत ग्रहों के संकेत पहले भी देखे गए हैं। ये ग्रह बाहरी सौर मंडल के बड़े ग्रहों से जैसे होते हैं जो इतने बड़े होते हैं कि अपने मूल तारों के विस्फोट को सहन कर पाएं।

श्वेत वामन सूर्य के प्रकाश की केवल 1 प्रतिशत रोशनी उत्सर्जित करते हैं और इस वजह से ये अवलोकन के लिए बढ़िया उम्मीदवार हैं। जेडब्ल्यूएसटी दूरबीन का उपयोग करते हुए, खगोलविदों ने नज़दीक के (लगभग 75 प्रकाश वर्ष दूर के) चार श्वेत वामनों का अध्ययन किया, जिसमें दो पिंड ऐसे दिखे जो ग्रह जैसे लगते हैं। इनमें एक बृहस्पति से 1.3 गुना वज़नी है और शनि की तरह परिक्रमा करता है जबकि दूसरा, बृहस्पति से 2.5 गुना वज़नी है और नेपच्यून की तुलना में थोड़ी बड़ी कक्षा में परिक्रमा करता दिखा।

स्पेस टेलीस्कोप साइंस इंस्टीट्यूट की खगोलशास्त्री सूज़न मुलाली का विचार है कि यह एक वास्तविक संकेत है कि बृहस्पति और शनि जैसे ग्रह अपने सूर्य के श्वेत वामन में परिवर्तित होने के बाद भी अपने वजूद को बनाए रखे हैं। हालांकि, शोधकर्ता इस बारे में और अधिक अवलोकन पर ज़ोर देते हैं ताकि यह स्पष्ट हो सके कि ये ग्रह ही हैं, पृष्ठभूमि की कोई अन्य आकाशगंगा नहीं। अलबत्ता शोधकर्ताओं के अनुसार गलत व्याख्या की संभावना 0.03 प्रतिशत ही है।

इस खोज के धरातल पर वैज्ञानिक ऐसे ग्रहों का एक समूह बनाने में सक्षम हो जाएंगे जो हमारे सौर मंडल के शनि और बृहस्पति जैसे दिखते हैं। चूंकि ऐसे ग्रह अपने श्वेत वामन तारों की तुलना में काफी चमकीले होते हैं, इसलिए उनके वायुमंडल का अध्ययन करना तथा सौर मंडल के विशाल ग्रहों से उनकी समानता या अंतर को समझना अपेक्षाकृत आसान होना चाहिए।

यह खोज न केवल मरणासन्न तारों के आसपास ग्रहों के लचीलेपन की एक झलक पेश करती है, बल्कि ग्रह प्रणालियों के बारे में हमारी समझ का विस्तार करने के लिए एक समृद्ध अवसर भी प्रदान करती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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निकटवर्ती निहारिका का ब्लैक होल सचमुच है

र्ष 2023 में इवेंट होरिजन टेलीस्कोप (ई.एच.टी.) द्वारा हमारी नज़दीकी निहारिका M87 में स्थित ब्लैक होल की पहली तस्वीर प्राप्त हुई थी। तस्वीर के बीच में एक गहरा काला धब्बा था, और उसके चारों ओर प्रकाश का चमकीला छल्ला नज़र आ रहा था।

अब, ई.एच.टी. द्वारा ली गई इसी निहारिका की ताज़ा छवियों में ऐसा ही साया दिख रहा है, जो इस निहारिका में शक्तिशाली ब्लैक होल होने की पुष्टि करता है। यह ब्लैक होल सूर्य से तकरीबन 6.5 अरब गुना वज़नी है। लेकिन एस्ट्रोनॉमी एंड एस्ट्रोफिज़िक्स में प्रकाशित ताज़ा छवियों में साए के चारों ओर का चमकदार छल्ला थोड़ा घूमा हुआ नज़र आ रहा है, जो संभवत: यह बताता है कि गैसें ब्लैक होल के चारों ओर कैसे घूमती हैं। नई और पुरानी छवियों के विश्लेषण में यह भी देखा गया है कि दोनों ही तस्वीरों में कैद छायादार केंद्र का दायरा एक बराबर ही है, जिससे पुष्टि होती है कि वहां वास्तव में कोई ब्लैक होल है। ब्लैक होल का द्रव्यमान एक साल में उल्लेखनीय रूप से नहीं बढ़ा होगा, इसलिए तस्वीरों की तुलना इस विचार का भी समर्थन करती है कि ब्लैकहोल की साइज़ सिर्फ उसके द्रव्यमान से निर्धारित होती है।

हालांकि, ताज़ा तस्वीरों में ब्लैक होल के चारों ओर के छल्ले का सबसे चमकीला हिस्सा घड़ी की उल्टी दिशा में लगभग 30 डिग्री घूमा नज़र आ रहा है। ऐसा ब्लैक होल की विषुवत रेखा के चारों ओर के पदार्थ के बेतरतीब मथे जाने के कारण हो सकता है। ऐसा ब्लैक होल के ध्रुवों से निकलने वाली ज़ोरदार फुहारों में कमी-बेशी के कारण भी हो सकता है – इससे ऐसा लगता है कि ये फुहारें ब्लैक होल की धुरी की सीध में नहीं होती हैं, बल्कि इसके चारों ओर डोलती रहती हैं।

ब्लैक होल को देखने के लिए हमारी दूरबीन इनसे होने वाले रेडियो उत्सर्जन पर निर्भर हैं। वास्तव में ई.एच.टी. दूरबीन में आठ रेडियो टेलिस्कोप हैं जो पृथ्वी पर एक-दूसरे से दूर-दूर ऊंचे स्थानों पर स्थापित हैं। एक मायने में यह पृथ्वी के बराबर की दूरबीन है। इन्हीं के मिले-जुले डैटा से छवियां बनाई जाती है।

लेकिन ब्लैक होल के और बारीक अवलोकन एवं स्पष्ट तस्वीरों और दूर स्थित ब्लैक होल के अवलोकन के लिए शोधकर्ता दूरबीनों के इस नेटवर्क में और अधिक दूरबीनें जोड़ना चाहते हैं: चार स्थानों – व्योमिंग, कैनरी द्वीप, चिली और मैक्सिको में 9-9 मीटर की रेडियो डिश और एमआईटी स्थित हेस्टैक वेधशाला में 37 मीटर की डिश। डैटा प्रोसेसिंग को तेज़ करने के लिए नए हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर की भी ज़रूरत है, ताकि वर्षों की बजाय कुछ ही दिनों में परिणाम हासिल किए जा सकें। इसके लिए तकरीबन 7.3 करोड़ डॉलर की आवश्कता होगी।

अवलोकन में सटीकता और विश्लेषण में तेज़ी लाने से यह समझने में मदद मिलेगी कि ब्लैक होल का धुरी पर घूर्णन, उसका चुंबकीय क्षेत्र और पदार्थ की घूमती हुई डिस्क मिलकर किस तरह सुदूर अंतरिक्ष में कणों की फुहार फेंकते हैं।

ब्लैक होल के इर्द-गिर्द बने प्रकाशमान छल्लों के सूक्ष्म अवलोकन के लिए पृथ्वी से भी बड़ी एक आभासी रेडियो डिश की ज़रूरत है। क्योंकि पृथ्वी बराबर दूरबीन से अवलोकन की सीमा आ चुकी है। (स्रोत फीचर्स)

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2023 की रोमांचक वैज्ञानिक खोजें – ज़ुबैर सिद्दिकी

पिछला वर्ष विज्ञान के क्षेत्र में असाधारण उपलब्धियों वाला रहा। विज्ञान सम्बंधी कई आश्चर्यजनक सफलताएं हासिल हुईं। पेश है पिछले वर्ष हुई कुछ अहम वैज्ञानिक खोजों की झलक।

गुरुत्व तरंगें

पिछले वर्ष वैज्ञानिकों ने पहली बार आकाशगंगा में निम्न आवृत्ति वाली गुरुत्वाकर्षण तरंगों का पता लगाया। ऐसा माना जाता है कि ये ब्रह्मांडीय हलचल अरबों प्रकाश-वर्ष दूर अतिविशाल ब्लैक होल की अंतर्क्रिया और विलय से उत्पन्न हुई हैं, जिन्हें पल्सर पिंडों से निकलने वाले रेडियो संकेतों के सटीक माप के माध्यम से पहचाना गया था। इस खोज से प्रारंभिक ब्रह्मांड में अनुमान से अधिक ब्लैक होल की उपस्थिति के संकेत मिलते हैं। गुरुत्वाकर्षण तरंगों का अध्ययन ब्रह्मांड की उत्पत्ति से सम्बंधित अधिक जानकारी देने के अलावा ब्रहमांड को शक्ति देने वाले अदृश्य पदार्थ और घटनाओं को समझने में मदद कर सकता है।

विचारों को पढ़ना

टेक्सास विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने एक ऐसी एआई-आधारित प्रणाली प्रस्तुत की है जो मस्तिष्क की गतिविधियों को इबारत में बदल सकती है और इसके लिए दिमाग में कोई यंत्र वगैरह भी नहीं घुसेड़ना पड़ते। एमआरआई स्कैन का उपयोग करते हुए यह नवाचार पॉडकास्ट या छवियों के प्रति मस्तिष्क की प्रतिक्रियाओं को पकड़ता है। शब्द-दर-शब्द प्रतिलेखन की बजाय, यह मस्तिष्क गतिविधि का पैटर्न बनाता है और विचारों को उन गतिविधियों के साथ जोड़ने के लिए एक शब्दकोश तैयार करता है। वैसे इस अध्ययन ने मानसिक गोपनीयता के लिहाज़ से नैतिक चर्चा को बढ़ावा दिया है लेकिन इन चिंताओं के बावजूद, यह आशाजनक संभावनाएं प्रदान करता है, विशेष रूप से संचार विकारों से जूझ रहे परिवारों को आशा की नई किरण देता है।

प्राचीन व्हेल: विशालतम जंतु

प्राचीन व्हेल जीवाश्मों के एक ताज़ा विश्लेषण से पता चला है कि 3.7 करोड़ वर्ष पहले पेरू के तट पर विचरने वाला जंतु पेरुसेटस कोलोसस पृथ्वी के इतिहास का सबसे बड़ा जीव रहा होगा। अनुमान है कि इसका वज़न 300 टन से अधिक और लंबाई लगभग 60 फीट रही होगी। यह वर्तमान ब्लू व्हेल से भी विशाल है क्योंकि वर्तमान ब्लू व्हेल की लंबाई तो लगभग 100 फीट है लेकिन वज़न मात्र 200 टन है।

टी-रेक्स की दिलचस्प विशेषता

पिछले वर्ष जीवाश्म विज्ञानियों ने टायरेनोसौरस रेक्स और इसी तरह के मांसाहारी डायनासौरों की एक दिलचस्प विशेषता को उजागर किया है। उनका दावा है कि टी-रेक्स के होंठ होते थे जो उनके पैने दांतों को ढंके रहते थे। यह निष्कर्ष डायनासौर की शारीरिक रचना के साथ-साथ पक्षियों और सरीसृपों जैसे आधुनिक प्राणियों के तुलनात्मक अध्ययन से निकला है। इन डायनासौरों के दांतों को ढंकने वाले नरम ऊतक उनके मुंह की सुरक्षा करते थे तथा शिकार और हमला करने के लिए दांतों की सही स्थिति सुनिश्चित करते थे।

लाखों वर्ष पुराने पाषाण औज़ार

दक्षिण-पश्चिमी केन्या में पुरातत्वविदों ने प्राचीन होमिनिन पैरेन्थ्रोपस के जीवाश्मों के साथ पत्थर के औज़ार भी खोजे हैं जो संभवत: 30 लाख वर्ष पुराने हैं। इस खोज से लगता है कि गैर-मानव होमिनिन ने भी पाषाण प्रौद्योगिकियों का विकास किया था। पूर्व में माना जाता था कि पैरेन्थ्रोपस के मज़बूत जबड़ों के कारण ऐसे औज़ार उनके आहार के लिए अनावश्यक रहे होंगे। इस नई खोज से मनुष्यों के प्राचीन रिश्तेदारों के बीच औज़ार अनुमान से भी पहले उभरने के संकेत मिलते हैं।

जटिल जीवन की उत्पत्ति

पिछले वर्ष ऑस्ट्रेलिया में प्राप्त प्राचीन चट्टानों के रासायनिक साक्ष्य 1.6 अरब से 80 करोड़ वर्ष पूर्व जटिल कोशिकाओं की उपस्थिति दर्शाते हैं। यह खोज जटिल जीवन रूपों के जल्दी उद्भव की धारणा से मेल खाती है। इस खोज के लिए शोधकर्ताओं ने यूकेरियोटिक (केंद्रक युक्त) कोशिका में झिल्ली बनाने के लिए ज़रूरी अणुओं का सहारा लिया और 1.6 अरब वर्ष पुराने रासायनिक चिंहों का पता लगाया, जो संभावित रूप से उस समय यूकेरियोट्स के अस्तित्व का संकेत देते हैं। यह खोज रासायनिक साक्ष्यों का तालमेल आनुवंशिक और सूक्ष्म जीवाश्म साक्ष्यों के साथ बनाती है।

बाह्य-ग्रहों की संख्या

पिछले वर्ष अगस्त में वैज्ञानिकों ने छह नए बाह्य-ग्रहों की खोज की है। अब हमारे सौर मंडल के बाहर ज्ञात ग्रहों की संख्या 5500 से अधिक हो गई। यह ट्रांज़िटिंग एक्सोप्लेनेट सर्वे सैटेलाइड (TESS) और जेम्स वेब स्पेस टेलीस्कोप से संभव हो पाया है जो आकाशगंगा में विविध की खोज करती रहती हैं। इसमें एक मुख्य खोज के2-18बी नामक बाह्य-उपग्रह की है जो संभवत: घने वायुमंडल के नीचे एक विशाल महासागर को छिपाए है और आकार में पृथ्वी और नेपच्यून के बीच है।

चिम्पैंज़ी में रजोनिवृत्ति

काफी समय से जीवविज्ञानी यह समझने का प्रयास करते आए हैं कि क्यों कुछ जंतु मादाएं प्रजनन काल समाप्त होने (रजोनिवृत्ति) के बाद भी जीवित रहती हैं। यह स्थिति मनुष्यों, व्हेल और ओर्का जैसी मुट्ठी भर प्रजातियों में देखी गई है। युगांडा के किबले नेशनल पार्क में चिम्पैंज़ी के मूत्र में हार्मोन का विश्लेषण करने से पता चला है कि चिम्पैंज़ी भी रजोनिवृत्ति से गुज़रते हैं और 50 वर्ष की आयु के आसपास की मादाओं में प्रजनन रुक जाता है लेकिन वे जीवित रहती हैं। हालांकि, कुछ व्हेल प्रजातियों की बड़ी मादाएं संतान की देखभाल में सहायता करती हैं लेकिन ऐसा व्यवहार चिम्पैंज़ी में नहीं देखा जाता है। एक अनुमान है कि रजोनिवृत्ति प्राइमेट्स के बीच जंतुओं में प्रजनन प्रतिस्पर्धा को कम कर सकती है। वैज्ञानिकों का लक्ष्य आगे इस पर और अधिक अध्ययन करना है।

मगरमच्छों में वर्जिन जन्म

पिछले वर्ष कोस्टा रिका के क्वीन्स नेशनल मरीन पार्क में एक मादा मगरमच्छ (Crocodylus acutus) में पार्थेनोजेनेसिस (अलैंगिक प्रजनन का एक रूप जिसमें नर के बिना संतान पैदा होती है) देखा गया है। मगरमच्छों में यह दुर्लभ है लेकिन जनसंख्या तनाव के तहत अन्य प्रजातियों में देखा गया है। आनुवंशिक विश्लेषण से पता चला कि भ्रूण सचमुच मां का आंशिक क्लोन था। बंदी अवस्था में ही सही, लेकिन यह खोज जंगली अमेरिकी मगरमच्छों के संरक्षण की दृष्टि से महत्व रखती है। गौरतलब है कि जंगली अमेरिकी मगरमच्छों को विलुप्तप्राय जानवरों की श्रेणी में रखा गया है।

सटीक चिकित्सा के लिए जीनोम

अमेरिकी राष्ट्रीय स्वास्थ्य संस्थान ने पुराने मानव जीनोम की सीमाओं को संबोधित करते हुए एक नया पैन-जीनोम प्रस्तुत किया है। यह नया मॉडल जीनोम विविध जातीय और नस्लीय पृष्ठभूमियों को शामिल करता है और माना जा रहा है कि इससे व्यक्तिगत चिकित्सा को आगे बढ़ाने में मदद मिलेगी। वर्तमान में 47 व्यक्तियों के जीनोम अनुक्रम शामिल किए गए हैं, लेकिन लक्ष्य अंतत: 700 लोगों को शामिल करना है, जो पहले मुख्य रूप से युरोप-केंद्रित था। जीनोम समानताओं के बावजूद, व्यक्तिगत भिन्नताओं का विश्लेषण रोग के प्रति संवेदनशीलता को समझने में महत्वपूर्ण है, जो उचित चिकित्सा हस्तक्षेपों के लिए महत्वपूर्ण होगा।

शनि के चंद्रमा पर जीवन

शनि ग्रह का छठा सबसे बड़ा चंद्रमा एन्सेलाडस जीवन की संभावना के साक्ष्य दर्शाता है। हालिया विश्लेषण से जीवन के लिए आवश्यक कार्बन, हाइड्रोजन, नाइट्रोजन, ऑक्सीजन व सल्फर के साथ एक अत्यंत महत्वपूर्ण तत्व फॉस्फोरस की उपस्थिति का पता चला है। कैसिनी अंतरिक्ष यान के कॉस्मिक डस्ट एनालाइज़र द्वारा बर्फीले कणों में पाए गए। ये तत्व एन्सेलाडस को पृथ्वी से परे जीवन के लिए एक आशाजनक स्थल के रूप में बताते हैं। ऐसा अनुमान है कि उपग्रह की बर्फीली परत के नीचे स्थित महासागर जीवन-निर्वाह की स्थिति पैदा कर सकता है।(स्रोत फीचर्स)

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भारतीय विज्ञान: अंतरिक्ष में कामयाबियों का साल – चक्रेश जैन

साल 2023 विदा हो चुका है। पीछे मुड़ कर देखें तो पता चलता है बीता वर्ष भारतीय विज्ञान जगत, विशेष रूप से अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में सफलताओं का रहा। 23 अगस्त को चंद्रयान-3 चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव के निकट सफलतापूर्वक उतरा। इसरो ने चंद्रमा पर जीवन की संभावना तलाशने और रहस्यों को समझने के उद्देश्य से 14 जुलाई को चंद्रयान-3 भेजा था।

इसी वर्ष भारत ने सूर्य का अध्ययन करने की दिशा में बड़ी छलांग लगाई। 2 सितंबर को पहली सौर मिशन वेधशाला आदित्य-L1 को सफलतापूर्वक प्रक्षेपित किया गया। आदित्य-L1 चार महीने का सफर पूरा कर अपनी मंज़िल लैगरांजे बिन्दु पर पहुंच चुका है। यह वेधशाला पांच वर्षों तक सूर्य की विभिन्न गतिविधियों, जैसे सौर तूफानों, सौर लहरों और गर्म हवाओं का अध्ययन करेगी।

फरवरी में भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन ने स्मॉल सैटेलाइट लॉन्चिंग व्हीकल (एसएसएलवी डी-2) प्रक्षेपण यान के ज़रिए तीन उपग्रहों को अंतरिक्ष में स्थापित किया। इसके साथ ही भारत ने छोटे उपग्रहों के प्रक्षेपण बाज़ार में प्रवेश कर लिया। 30 जुलाई को इसरो ने सिंगापुर के सात उपग्रहों को एक साथ सफलतापूर्वक कक्षा में स्थापित किया। 21 अक्टूबर को मानव अंतरिक्ष उड़ान की ओर पहला कदम बढ़ाया गया और गगनयान मिशन के तहत पहला परीक्षण सफल रहा।

जनवरी के प्रथम सप्ताह में 108वीं भारतीय विज्ञान कांग्रेस का सालाना अधिवेशन राष्ट्रसंत तुकादोजी महाराज नागपुर विश्वविद्यालय में संपन्न हुआ। सम्मेलन का मुख्य विषय था ‘महिला सशक्तिकरण के साथ सतत विकास के लिए विज्ञान और प्रौद्योगिकी’। पहली बार जनजातीय विज्ञान कांग्रेस हुई, जिसमें जनजातीय मुद्दों पर विचार मंथन किया गया।

21-24 जनवरी के दौरान आठवां अंतर्राष्ट्रीय विज्ञान महोत्सव भोपाल में आयोजित किया गया। यह महोत्सव विलक्षण था, जिसमें वैज्ञानिकों से लेकर स्कूली बच्चों, जन सामान्य से लेकर विशिष्टजनों और नीति निर्माता से लेकर कारीगरों और किसानों तक ने भाग लिया।

भारत सहित विश्व भर में साल 2023 ‘इंटरनेशनल ईयर ऑफ मिलेट्स’ के रूप में मनाया गया। इसका उद्देश्य आम लोगों में मोटे अनाज के महत्व को उजागर करना था। मोटा अनाज पोषक तत्वों से भरपूर होता है। वैसे भारत हर साल 170 लाख टन मोटे अनाज का उत्पादन करता है – 12 में से 10 प्रकार के मोटे अनाज भारत में उगाए जाते हैं। अहम बात यह कि इसकी खेती आसान और जलवायु अनुकूल है व इसके लिए कम पानी की ज़रूरत होती है।

साल 2023 के पूर्वार्द्ध में सीएसआईआर ने ‘वन वीक-वन लैब’ कैम्पैन शुरू किया। इस कैम्पैन का उद्देश्य आम लोगों और विद्यार्थियों को देश की प्रगति और विकास में सीएसआईआर की राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं के योगदान और उपलब्धियों से परिचित कराना था।

इसी वर्ष फरवरी में जम्मू-काश्मीर के रियासी ज़िले में वैष्णो देवी पहाड़ियों की तलहटी और राजस्थान में डेगाना स्थित रेंवत पहाड़ियों में लीथियम खनिज के प्रचुर भंडार का पता चला। लीथियम धातु का उपयोग मोबाइल फोन, लैपटॉप, इलेक्ट्रिक वाहनों आदि में हो रहा है।

वर्ष 2023 में विज्ञान मंत्रालय के वार्षिक बजट में दो हज़ार करोड़ रुपए की बढ़ोतरी की गई। बजट में आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस में रिसर्च के लिए नए केंद्र स्थापित करने का प्रावधान किया गया। इस वर्ष केंद्र सरकार ने राष्ट्रीय क्वांटम मिशन को मंज़ूरी प्रदान कर दी। इसके अंतर्गत आगामी छह वर्षों तक क्वांटम प्रौद्योगिकी पर आधारित रिसर्च को बढ़ावा दिया जाएगा।

केंद्रीय मंत्रिमंडल ने 4 जनवरी को 19,744 करोड़ रुपए के राष्ट्रीय हरित हाइड्रोजन मिशन को मंज़ूरी दे दी। इस मिशन का उद्देश्य भारत में ग्रीन हाइड्रोजन पारिस्थितिकी तंत्र स्थापित करना है। 25 सितम्बर को नई दिल्ली में देश की पहली हरित हाइड्रोजन ईंधन सेल चालित बस को रवाना किया गया। देश में नैरो गेज के धरोहर मार्गों पर हाइड्रोजन ट्रेनें चलाने की तैयारी जारी रही।

बीते साल भारत ने जी-20 की अध्यक्षता की, जिसके झण्डे तले साइंस-20 की बैठक हुई। अब जी-20 आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा देने के साथ ही समाज से जुड़े वैज्ञानिक मुद्दों के विचार मंथन का मंच भी बन गया है।

इसी साल मध्यप्रदेश के शहडोल ज़िले से राष्ट्रीय सिकल सेल उन्मूलन मिशन का शुभारंभ हुआ। यह एक गंभीर आनुवंशिक बीमारी है। इस बीमारी में लाल रक्त कोशिकाएं हंसिए का आकार ग्रहण कर लेती हैं। केंद्र सरकार ने वर्ष 2047 तक देश से इस बीमारी को विदा करने का लक्ष्य निर्धारित किया है।

11 मई को राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी दिवस पर 5800 करोड़ रुपए की वैज्ञानिक परियोजनाएं राष्ट्र को समर्पित की गईं। इनमें लेज़र इंटरफेरोमीटर ग्रेवीटेशनल वेव ऑब्ज़रवेटरी शामिल है। इसे महाराष्ट्र स्थित हिंगोली में स्थापित किया जाएगा।

सेंट्रल मरीन फिशरीज़ रिसर्च इंस्टीट्यूट, कोच्चि के वैज्ञानिकों की टीम ने इंडियन ऑइल सार्डीन मछली (Sardinella longiceps) के संपूर्ण जीनोम को डीकोड करने में सफलता प्राप्त की। इस शोध से मछली के पारिस्थितिकी तंत्र और विकास की व्याख्या में मदद मिलेगी और आगे चलकर संरक्षण के लिए प्रबंधन रणनीति बनाना संभव हो सकेगा।

इसी साल 7 अगस्त को लोकसभा ने राष्ट्रीय अनुसंधान संस्थान विधेयक पारित कर दिया। विधेयक में गणित, इंजीनियरिंग, प्रौद्योगिकी, पर्यावरण और भूविज्ञान के क्षेत्र में शोध, नवाचार और उद्यमिता के लिए उच्च स्तरीय मार्गदर्शन प्रदान करने हेतु राष्ट्रीय अनुसंधान संस्थान की स्थापना का प्रावधान है। इसी वर्ष संसद द्वारा जैव विविधता संशोधन विधेयक पारित किया गया। यह विधेयक 2002 के जैविक विविधता अधिनियम को संशोधित करता है। इस विधेयक में किए गए महत्त्वपूर्ण परिवर्तन औषधीय पौधों की खेती को बढ़ावा देते हैं।

14 सितंबर को भारत सरकार ने पद्म पुरस्कारों की तर्ज पर राष्ट्रीय विज्ञान पुरस्कार शुरू करने की घोषणा की। राष्ट्रीय विज्ञान पुरस्कारों को चार श्रेणियों में विभाजित किया गया है। विज्ञान रत्न पुरस्कार विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में की गई जीवन भर की उपलब्धियों के लिए दिया जाएगा। विज्ञानश्री पुरस्कार विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में विशेष योगदान के लिया दिया जाएगा। विज्ञान युवा शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार 45 वर्ष की आयु तक के उन युवा वैज्ञानिकों को प्रदान किया जाएगा जिन्होंने विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में असाधारण योगदान किया है। साइंस टीम पुरस्कार तीन अथवा उससे अधिक वैज्ञानिकों की उस टीम को संयुक्त रूप से दिया जाएगा जिसने विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में विशेष योगदान दिया है। इन चार श्रेणियों में 56 पुरस्कार दिए जाएंगे, जिनमें नकद धनराशि का प्रावधान नहीं किया गया है।

दिसम्बर के उत्तरार्द्ध में अहमदाबाद स्थित साइंस सिटी परिसर में भारतीय विज्ञान सम्मेलन आयोजित किया गया। इस बार सम्मेलन का मुख्य विषय ‘भारत का विकास, भारतीय मूल्यों और नवप्रवर्तन के साथ’ चुना गया था। बीते वर्ष नई दिल्ली में आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस पर वैश्विक साझेदारी शिखर सम्मेलन आयोजित किया गया, जिसमें इस बात पर विचार मंथन किया गया कि दुनिया आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस को लेकर क्या सोच रही है और भारत इसमें क्या योगदान कर रहा है।

साल 2023 के लिए गणतंत्र दिवस पर घोषित पद्म पुरस्कारों के लिए चुने गए वैज्ञानिकों में विख्यात चिकित्सक डॉ. दिलीप महालनोबिस को पद्मविभूषण से सम्मानित किया गया। उन्हें यह सम्मान मरणोपरांत प्रदान किया गया। उनका जीवन रक्षक ओआरएस घोल की खोज में विशेष योगदान रहा है। इसी साल जाने-माने सांख्यिकीविद सी. आर. राव को इंटरनेशनल प्राइज़ इन स्टैटिस्टिक्स से सम्मानित किया गया। उन्हें यह अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार 75 वर्ष पहले सांख्यिकी विज्ञान में विशेष योगदान के लिए दिया गया है।

विज्ञान जगत की अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका नेचर ने दिसंबर में वर्ष 2023 के टॉपटेन वैज्ञानिकों की सूची में भारत की अंतरिक्ष वैज्ञानिक कल्पना कलाहेस्टी को शामिल किया है। उन्हें यह विशिष्ट सम्मान चन्द्रयान-3 के प्रक्षेपण में एसोसिएट परियोजना निदेशक के रूप में अहम भूमिका निभाने के लिए दिया गया है।

इसी वर्ष लोकप्रिय विज्ञान पत्रिका साइंस रिपोर्टर के संपादक हसन जावेद खान ने 18 वर्षों तक संपादन का दायित्व संभालने के बाद विदाई ले ली।

इसी साल एनसीईआरटी ने नौवीं और दसवीं कक्षाओं के विज्ञान पाठ्यक्रम से डार्विन के जैव विकास के सिद्धांत और मेंडेलीव की आवर्त सारणी को हटा दिया। देश के 1800 वैज्ञानिकों और शिक्षाविदों ने इसका विरोध करते हुए एक खुला पत्र लिखकर सरकार के इस निर्णय की आलोचना की।

यह वही साल था, जब सरकार ने विज्ञान संचार की स्वायत्त संस्था ‘विज्ञान प्रसार’ को बंद करने का निर्णय लिया। इस संस्था की स्थापना 11 अक्टूबर 1989 को की गई थी। इसी साल अगस्त से लोकप्रिय विज्ञान पत्रिका ड्रीम-2047 का प्रकाशन बंद हो गया। इसका पहला अंक अक्टूबर 1998 में छपा था। दरअसल, इस पत्रिका को ‘ड्रीम-2047’ नाम इसलिए दिया गया था, ताकि स्वतंत्रता के सौ साल पूरे होने का उत्सव मनाने के पहले हम अपने सपनों को साकार करने की रूपरेखा बना लें।

वर्ष 2023 में हमने विज्ञान जगत की कई महान हस्तियों को खो दिया। 28 सितंबर को प्रख्यात कृषि वैज्ञानिक और हरित क्रांति के प्रणेता एम. एस. स्वामीनाथन का 98 वर्ष की आयु में निधन हो गया। उन्होंने कृषि क्षेत्र की नीतियां बनाने में मार्गदर्शक की भूमिका निभाई। 22 अगस्त को विख्यात वैज्ञानिक और सांख्यिकीविद सी. आर. राव का 102 वर्ष की आयु में निधन हो गया। 17 जुलाई को प्रसिद्ध गणितज्ञ डॉ. मंगला जे. नार्लीकर का 80 वर्ष की आयु में देहांत हो गया। उन्होंने मूलभूत गणित में विशेष योगदान के साथ विद्यार्थियों और आम लोगों में गणित को लोकप्रिय बनाने के क्षेत्र में भी योगदान किया था।

उम्मीद है हमारे देश के वैज्ञानिक साल 2023 की भांति 2024 को भी उपलब्धियों भरा बनाएंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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शनि के चंद्रमा पर जीवन की संभावना के प्रमाण

हाल ही में शनि के बर्फीले उपग्रह एन्सेलेडस के बारे में वैज्ञानिकों ने जीवन की उपस्थिति के संकेत दिए हैं। नेचर एस्ट्रोनॉमी में प्रकाशित एक अभूतपूर्व अध्ययन में एन्सेलेडस पर उपस्थित ऐसे रसायनों की उपस्थित का खुलासा किया गया है जो जीवन के लिए आवश्यक हैं। 

गौरतलब है कि बर्फीली परत से घिरे इस उपग्रह की सतह पर उपस्थित दरारों से पानी के फव्वारे छूटते रहते हैं। इसलिए लंबे समय से यह वैज्ञानिक आकर्षण का केंद्र रहा है। उपग्रह का अध्ययन करने के लिए भेजे गए अंतरिक्ष यान कैसिनी ने 2000 के दशक के मध्य में इन फव्वारों के पानी में कार्बन डाईऑक्साइड तथा अमोनिया जैसे अणुओं की पहचान की जो पृथ्वी पर जीवन की दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं।

इस दिशा में बढ़ते हुए हारवर्ड विश्वविद्यालय और नासा की जेट प्रपल्शन प्रयोगशाला के जोनाह पीटर के नेतृत्व में एक टीम ने कैसिनी के डैटा का गहन विश्लेषण शुरू किया। जटिल सांख्यिकीय तरीकों की मदद से उन्होंने एन्सेलेडस से निकलने वाले फव्वारों के भीतर कार्बन डाईऑक्साइड, मीथेन, अमोनिया और आणविक हाइड्रोजन के अलावा हाइड्रोजन सायनाइड, ईथेन तथा मिथेनॉल जैसे आंशिक रूप से ऑक्सीकृत पदार्थ पाए। और इन सबकी खोज सांख्यिकीय विधियों से हो पाई है। कैसिनी मिशन में शामिल ग्रह वैज्ञानिक मिशेल ब्लैंक ने इस खोज को अभूतपूर्व बताया है और शनि के छोटे उपग्रहों की रासायनिक गतिविधियों का अधिक अध्ययन करने का सुझाव दिया है।

गौरतलब है कि नए खोजे गए यौगिक सूक्ष्मजीवी जीवन के बिल्डिंग ब्लॉक्स और संभावित जीवन की दृष्टि से काफी महत्वपूर्ण हैं। विशेष रूप से हाइड्रोजन सायनाइड है, जो नाभिकीय क्षारों और अमीनो एसिड का एक महत्वपूर्ण घटक है। शोधकर्ताओं की विशेष रुचि जीवन-क्षम अणुओं के निर्माण की दृष्टि से एन्सेलेडस के पर्यावरण को समझने की है। सिमुलेशन से पता चला है कि जीवन की उत्पत्ति के लिए महत्वपूर्ण कई अणु एन्सेलेडस पर बन सकते थे और आज भी बन रहे होंगे।

इसके अलावा, एन्सेलेडस से निकलते फव्वारों का विविध रासायनिक संघटन ऑक्सीकरण-अवकरण अभिक्रिया की संभावना दर्शाता है जो जीवन के बुनियादी घटकों के संश्लेषण की एक निर्णायक प्रक्रिया है। यह पृथ्वी पर ऑक्सी-श्वसन और प्रकाश संश्लेषण जैसी प्रक्रियाओं को बनाए रखने का काम करती है।

अभी यह स्पष्ट नहीं है कि क्या वास्तव में ऐसा होता होगा, लेकिन इसके निहितार्थ काफी महत्वपूर्ण हैं। बहरहाल यह खोज न केवल एन्सेलेडस के बारे में जिज्ञासा उत्पन्न करती है, बल्कि बृहस्पति ग्रह के चंद्रमा युरोपा जैसे समान समुद्री दुनिया की छानबीन के लिए भी प्रेरित करती है। आगामी युरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी का जूपिटर आइसी मून्स एक्सप्लोरर (जूस) मिशन यही करने जा रहा है।

बड़े अणुओं का अध्ययन करने में सक्षम उपकरणों से लैस वैज्ञानिक एन्सेलेडस की रासायनिक विविधता को उजागर करके देख पाएंगे कि वहां जीवन के योग्य परिस्थितियां हैं या नहीं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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