विज्ञान का मिथकीकरण – प्रदीप

हाल ही में 106वीं भारतीय विज्ञान कांग्रेस का सालाना अधिवेशन जालंधर की लवली प्रोफेशनल युनिवर्सिटी में सम्पन्न हुआ। वैसे तो मुख्यधारा का मीडिया हमेशा से ही इसके कवरेज से बचता आया है, मगर विगत कुछ वर्षों से वेदोंपुराणों के प्रमाणहीन दावों को विज्ञान बताने से जुड़े विवादों के चलते यह सुर्खियों में रहा है। इस अधिवेशन में भी प्राचीन भारत के विज्ञान और टेक्नॉलॉजी की उपलब्धियों का इस तरह बखान किया गया कि वैज्ञानिक माहौल को बढ़ावा देने वाला यह विशाल आयोजन किसी धार्मिक जलसे जैसा ही रहा! विज्ञान कांग्रेस की हर साल एक थीम होती है। इस वर्ष के सम्मेलन की थीम थी फ्यूचर इंडिया: साइंस एंड टेक्नॉलॉजी। भविष्य में भारत के विकास का मार्ग विज्ञान और प्रौद्योगिकी किस प्रकार प्रशस्त करेंगे, इसकी चर्चा की बजाय प्राचीन भारत से जुड़े निरर्थक, प्रमाणहीन और हास्यास्पद छद्मवैज्ञानिक दावों ने ज़्यादा सुर्खियां बटोरी।

आंध्र विश्वविद्यालय के कुलपति और अकार्बनिक रसायन विज्ञान के प्रोफेसर जी. नागेश्वर राव ने कौरवों की पैदाइश को टेस्ट ट्यूब बेबी और स्टेम सेल रिसर्च टेक्नॉलॉजी से जोड़ा तथा श्रीराम के लक्ष्य भेदन के बाद तुरीण में वापस लौटने वाले बाणों और रावण के 24 प्रकार के विमानों की बात कहकर सभी को चौंका दिया। तमिलनाडु के वर्ल्ड कम्यूनिटी सेंटर से जुड़े शोधकर्ता कन्नन जोगथला कृष्णन ने तो न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण सिद्धान्त और आइंस्टाइन के सापेक्षता सिद्धान्त को ही खारिज करते हुए कहा कि उनके शोध में भौतिक विज्ञान के सभी सवालों के जवाब हैं।  वे यहीं पर नहीं रुके। आगे उन्होंने कहा कि भविष्य में जब वे गुरुत्वाकर्षण के बारे में लोगों के विचार बदल देंगे, तब गुरुत्वीय तरंगों को नरेंद्र मोदी तरंगके नाम से तथा गुरुत्वाकर्षण प्रभाव को हर्षवर्धन प्रभावके नाम से जाना जाएगा।

भूगर्भ विज्ञान की प्रोफेसर आशु खोसला के द्वारा इसी भारतीय विज्ञान कांग्रेस में प्रस्तुत पर्चे में कहा गया है कि भगवान ब्राहृा इस ब्राहृांड के सबसे महान वैज्ञानिक थे। वे डायनासौर के बारे में जानते थे और वेदों में इसका उल्लेख भी किया है।

इतने प्रतिष्ठित आयोजन में अवैज्ञानिक और अतार्किक दावों का ये चलन 2015 से पहले शायद ही देखा गया हो।

हालांकि प्राचीन भारतीय विज्ञान की बखिया उधेड़ने का यह सिलसिला कोई नया नहीं है। इससे पहले आम नेतामंत्री से लेकर मुख्यमंत्री, और प्रधानमंत्री तक भी मिथक, अंधविश्वास और विज्ञान का घालमेल कर चुके हैं। उनके दावों के मुताबिक यदि प्राचीन भारतीय ग्रंथों की भलीभांति व्याख्या की जाए, तो आधुनिक विज्ञान के सभी आविष्कार उसमें पाए जा सकते हैं। जैसे राडार प्रणाली, मिसाइल तकनीक, ब्लैक होल, सापेक्षता सिद्धांत एवं क्वांटम सिद्धांत, टेस्ट ट्यूब बेबी, अंग प्रत्यारोपण, विमानों की भरमार, संजय द्वारा दूरस्थ स्थान पर घटित घटनाओं को देखने की तकनीक, समय विस्तारण सिद्धांत, अनिश्चितता का सिद्धांत, संजीवनी औषधि, कई सिर वाले लोग, क्लोनिंग, इंटरनेट, भांतिभांति के यंत्रोंपकरण वगैरह। वेदों, पुराणों में विज्ञान के जिस अक्षय भंडार को स्वयं आदि शंकराचार्य, यास्क से सायण तक के वेदज्ञ, आर्यभट, वराह मिहिर, ब्राहृगुप्त और भास्कराचार्य जैसे गणितज्ञज्योतिषी नहीं खोज पाए, उसको हमारे वैज्ञानिकों और नेताओं ने ढूंढ निकाला!

भारत विश्व का एकमात्र ऐसा देश है, जिसके संविधान द्वारा वैज्ञानिक दृष्टिकोण के लिए प्रतिबद्धता को प्रत्येक नागरिक का मौलिक कर्तव्य बताया गया है। अत: यह हमारा दायित्व है कि हम अपने समाज में वैज्ञानिक दृष्टिकोण को बढ़ावा दें। वैज्ञानिक दृष्टिकोण के महत्व को जवाहरलाल नेहरु ने 1946 में अपनी पुस्तक डिस्कवरी ऑफ इंडिया में विचारार्थ प्रस्तुत किया था। उन्होंने इसे लोकहितकारी और सत्य को खोजने का मार्ग बताया था।

पिछले सत्तर वर्षों में हमारे देश में दर्जनों उच्च कोटि के वैज्ञानिक संस्थान अस्तित्व में आए हैं और उन्होंने हमारे देश के समग्र विकास में अभूतपूर्व योगदान दिया है। हमारे मन में अत्याधुनिक तकनीकी ज्ञान तो रचबस गया है, मगर हमने वैज्ञानिक दृष्टिकोण को खिड़की से बाहर फेंक दिया है। वैश्वीकरण के प्रबल समर्थक और उससे सर्वाधिक लाभ अर्जित करने वाले लोग ही भारतीय संस्कृति की रक्षा के नाम पर आज आक्रामक तरीके से यह विचार सामने लाने की खूब कोशिश कर रहे हैं कि प्राचीन भारत आधुनिक काल से अधिक वैज्ञानिक और प्रौद्योगिकी सम्पन्न था। पौराणिक कथाओं को विज्ञान बताया जा रहा है।

आज यह दावा किया जाता है कि हमारे वेदोंपुराणों में परमाणु बम बनाने की विधि दी हुई है। विज्ञान समानुपाती एवं समतुल्य होता है। अगर हम यह मान भी लें कि वैदिक काल में परमाणु बम बनाने का सिद्धांत एवं अन्य उच्च प्रौद्योगिकियां उपलब्ध थीं, तो तत्कालीन वैदिक सभ्यता अन्य सामान्य वैज्ञानिक सिद्धांतों एवं आविष्कारों को खोजने में कैसे पीछे रह गई? नाभिकीय सिद्धांत को खोजने की तुलना में विद्युत या चुंबकीय शक्तियों को पहचानना और उन्हें दैनिक प्रयोग में लाना अधिक सरल है। मगर वेदों में इस ज्ञान को प्रयोग करने का कोई विवरण उपलब्ध नहीं होता है। यहां तक कि इंद्र के स्वर्ग में भी बिजली नहीं थी, जबकि आज गांवगांव में बिजली उपलब्ध है। तकनीक की ऐसी रिक्तियां विरोधाभास उत्पन्न करती हैं। निश्चित रूप से इससे यह तर्क मजबूत होता है कि वैदिक सभ्यता को नाभिकीय बम बनाने का सिद्धांत ज्ञात नहीं था। मगर इससे हमें वैदिक ग्रंथों के रचनाकारों की अद्भुत कल्पनाशक्ति के बारे में पता चलता है। निसंदेह कल्पना एक बेहद शक्तिशाली एवं रचनात्मक शक्ति है।

आज के इस आधुनिक युग में जिस प्रकार से कोई खुद को अंधविश्वासी, नस्लवादी या स्त्री शिक्षा विरोधी कहलाना पसंद नहीं करता, उसी प्रकार से खुद को अवैज्ञानिक कहलाना भी पसंद नहीं करता है। वह अपनी अतार्किक बात को वैज्ञानिक सिद्ध करने के लिए मूलभूत सच्चाई की नकल उतारने वाले छलकपट युक्त छद्म विज्ञान का सहारा लेता है। आज प्राचीन भारत की वैज्ञानिक उपलब्धियों से जुड़े जो मनगढ़ंत और हवाई दावे किए जा रहे हैं वे छद्मविज्ञान के ही उदाहरण हैं।

इसमें कोई संदेह नहीं है कि प्राचीन भारत ने आर्यभट, भास्कराचार्य, ब्राहृगुप्त, सुश्रुत और चरक जैसे उत्कृष्ट वैज्ञानिक दुनिया को दिए। परंतु यह मानना कि हज़ारों साल पहले भी भारत को विज्ञान एवं तकनीकी के क्षेत्र में महारथ हासिल थी, स्वयं को महिमामंडित करने का हास्यास्पद प्रयास है। दरअसल ऐसे पोगापंथियों के चलते हमारे प्राचीन भारत के वास्तविक योगदान भी ओझल हो रहे हैं क्योंकि आधुनिकता में प्राचीन भारतीय विज्ञान का विरोध तो होता ही नहीं है, विरोध तो रूढ़ियों का होता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit :  https://www.speakingtree.in/allslides/shocking-science-in-hindu-mythology/166924

एक टिकाऊ भविष्य के लिए आहार में परिवर्तन – डॉ. डी. बालसुब्रामण्यन

भारतीय लोग रोज़ाना लगभग 52-55 ग्राम प्रोटीन खाते हैं। यह उन्हें अधिकांशत: फलियों, मछली और पोल्ट्री से मिलता है। कुछ लोग, खास तौर से विकसित देशों में, ज़रूरत से कहीं ज़्यादा प्रोटीन का सेवन करते हैं। वॉशिंगटन स्थित संस्था वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट ने हाल ही में सुझाया है कि लोगों को बीफ (गौमांस) खाना बंद नहीं तो कम अवश्य कर देना चाहिए। यह सुझाव हमारे देश के कई शाकाहारियों का दिल खुश कर देगा और गौरक्षकों की बांछें खिल जाएंगी। किंतु वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट के इस सुझाव के पीछे कारण आस्थाआधारित न होकर कहीं अधिक गहरे हैं। आने वाले वर्षों में बढ़ती आबादी का पेट भरने के लिए एक टिकाऊ भविष्य सुनिश्चित करने के लिए अपनाए जाने वाले तौरतरीकों की चिंता इसके मूल में है। वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यू ने इस सम्बंध एक निहायत पठनीय व शोधपरक पुस्तक प्रकाशित की है: शिÏफ्टग डाएट्स फॉर ए सस्टेनेबल फ्यूचर (एक टिकाऊ भविष्य के लिए आहार में परिवर्तन, इसे नेट से मुफ्त में डाउनलोड किया जा सकता है)।

संस्था ने इसमें तीन परस्पर सम्बंधित तर्क प्रस्तुत किए हैं। पहला तर्क है कि कुछ लोग अपनी दैनिक ज़रूरत से कहीं अधिक प्रोटीन का सेवन करते हैं। यह बात दुनिया के सारे इलाकों के लिए सही है, और विकसित देशों पर सबसे ज़्यादा लागू होती है। एक औसत अमरीकी, कनाडियन, युरोपियन या रूसी व्यक्ति रोज़ाना 75-90 ग्राम प्रोटीन खा जाता है इसमें से 30 ग्राम वनस्पतियों से और 50 ग्राम जंतुओं से प्राप्त होता है। 62 कि.ग्रा. वज़न वाले एक औसत वयस्क को 50 ग्राम प्रतिदिन से अधिक की ज़रूरत नहीं होती।

तुलना के लिए देखें, तो भारतीय व अन्य दक्षिण एशियाई लोग लगभग 52-55 ग्राम प्रोटीन का भक्षण करते हैं (जो अधिकांशत: फलियों, मछलियों और पोल्ट्री से प्राप्त होता है)। यही हाल उपसहारा अफ्रीका के निवासियों का है (हालांकि वे हमसे थोड़ा ज़्यादा मांस खाते हैं)। मगर समस्या यह है कि आजकल ब्राज़ील और चीन जैसी उभरती अर्थ व्यवस्थाओं के ज़्यादा लोग पश्चिम की नकल कर रहे हैं और अपने भोजन में ज़्यादा गौमांस को शामिल करने लगे हैं। वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट का अनुमान है कि वर्ष 2050 तक दुनिया में गौमांस की मांग 95 प्रतिशत तक बढ़ जाएगी। दूसरे शब्दों में यह मांग लगभग दुगनी हो जाएगी। यह इसके बावजूद है कि यूएस में लाल मांसखाने को लेकर स्वास्थ्य सम्बंधी चिंताओं के चलते गौमांस भक्षण में गिरावट आई है।

चलतेचलते यह स्पष्ट करना ज़रूरी है कि जब बीफ की बात होती है तो उसमें गाय के अलावा सांड, भैंस, घोड़े, भेड़ें और बकरियां शामिल मानी जाती हैं। फिलहाल विश्व में 1.3 अरब कैटल हैं (इनमें से 30 करोड़ भारत में पाले जाते हैं)। उपरोक्त अनुमान का मतलब यह है कि आज से 30 साल बाद हमें 2.6 अरब कैटल की ज़रूरत होगी।

वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट का दूसरा तर्क है कि कैटल पृथ्वी की जलवायु को प्रभावित करते हैं। ये ग्लोबल वार्मिंग यानी धरती के औसत तापमान में वृद्धि में योगदान देते हैं। इसके अलावा, कैटल के लिए काफी सारे चारागाहों की ज़रूरत होती है (एक अनुमान के मुताबिक अंटार्कटिक को छोड़कर पृथ्वी के कुल भूभाग का 25 प्रतिशत चारागाह के लिए लगेगा)। यह भी अनुमान लगाया गया है कि वि·ा के पानी में से एकतिहाई पानी तो पालतू पशु उत्पादन में खर्च होता है। इस सबके अलावा, चिंता का एक मुद्दा यह भी है कि गाएं, भैंसें, भेड़बकरी व अन्य खुरवाले जानवर खूब डकारें लेते हैं। मात्र उनकी डकार के साथ जो ग्रीनहाउस गैसें निकलती है, वे ग्लोबल वार्मिंग में 60 प्रतिशत का योगदान देती हैं।

इसके विपरीत गेहूं, धान, मक्का, दालें, कंदमूल जैसी फसलों के लिए चारागाह की कोई ज़रूरत नहीं होती और इनकी पानी की मांग भी काफी कम होती है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि इनसे ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन नहीं होता या बहुत कम होता है। हमने वचन दिया है कि अगले बीस वर्षों में धरती के तापमान में 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक वृद्धि नहीं होने देंगे। किंतु कैटल की संख्या में उपरोक्त अनुमानित वृद्धि के चलते स्थिति और विकट हो जाएगी।

अतिभक्षण से बचें

इस नज़ारे के मद्देनज़र, वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट का सुझाव है कि हम, यानी विकसित व तेज़ी से उभरती अर्थ व्यवस्थाओं के सम्पन्न लोग, आने वाले वर्षों में अपने भोजन में कई तरह से परिवर्तन लाएं। पहला परिवर्तन होगा अतिभक्षण से बचें। दूसरे शब्दों में ज़रूरत से ज़्यादा कैलोरी का उपभोग न करें। हमें रोज़ाना 2500 कैलोरी की ज़रूरत नहीं है, 2000 पर्याप्त है। आज लगभग 20 प्रतिशत दुनिया ज़रूरत से ज़्यादा खाती है, जिसकी वजह से मोटापा बढ़ रहा है। इसके स्वास्थ्य सम्बंधी परिणामों से सब वाकिफ हैं। कैलोरी खपत को यथेष्ट स्तर तक कम करने से स्वास्थ्य सम्बंधी लाभ तो मिलेंगे ही, इससे ज़मीन व पानी की बचत भी होगी।

भोजन में दूसरा परिवर्तन यह सुझाया गया है कि प्रोटीन के उपभोग को न्यूनतम अनुशंसित स्तर पर लाया जाए। इसके लिए खास तौर से जंतुआधारित भोजन में कटौती करना होगा। जब प्रतिदिन 55 ग्राम से अधिक प्रोटीन की ज़रूरत नहीं है, तो 75-90 ग्राम क्यों खाएं? और इसकी पूर्ति भी जंतुआधारित प्रोटीन की जगह वनस्पति प्रोटीन से की जा सकती है। सुझाव है कि पारम्परिक भूमध्यसागरीय भोजन (कम मात्रा में मछली और पोल्ट्री मांस) तथा शाकाहारी भोजन (दालफली आधारित प्रोटीन) को तरजीह दी जाए।

और भोजन में तीसरा परिवर्तन ज़्यादा विशिष्ट है: खास तौर से बीफ का उपभोग कम करें।बीफ (सामान्य रूप से कैटल) में कटौती करने से भोजन सम्बंधी और पर्यावरणसम्बंधी, दोनों तरह के लाभ मिलेंगे। पर्यावरणीय लाभ तो स्पष्ट हैं: इससे कृषि के लिए भूमि मिलेगी और ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन कम होगा। बीफ की बजाय हम पोर्क (सूअर का मांस), पोल्ट्री, मछली और दालों का उपभोग बढ़ा सकते हैं।

शाकाहारी बनें या वेगन?

हालांकि वर्ल्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट विशिष्ट रूप से इसकी सलाह नहीं देता किंतु ऐसा करने से मदद मिल सकती है। ज़ाहिर है, यह बहुत बड़ी मांग है और इसके लिए सामाजिक व सांस्कृतिक परिवर्तन की दरकार होगी। मनुष्य सहस्त्राब्दियों से मांस खाते आए हैं। लोगों को मांस भक्षण छोड़ने को राज़ी करना बहुत मुश्किल होगा। शायद बीफ को छोड़कर पोर्क, मछली, मुर्गे व अंडे की ओर जाना सांस्कृतिक रूप से ज़्यादा स्वीकार्य शुरुआत होगी। स्वास्थ्य के प्रति जागरूक और जलवायुस्नेही लोग लचीलाहारीहोने की दिशा में आगे बढ़े हैं। लचीलाहारीशब्द एक लेखक ने दी इकॉनॉमिस्ट के एक लेख में उपयोग किया था। हिंदी में इसे मौकाहारीभी कह सकते हैं। दरअसल भारतीय सेना में एक शब्द मौकाटेरियनका इस्तेमाल उन लोगों के लिए किया जाता है जो वैसे तो शाकाहारी होते हैं किंतु मौका मिलने पर मांस पर हाथ साफ कर लेते हैं। इन पंक्तियों का लेखक भी मौकाटेरियन है।

शाकाहार की ओर परिवर्तन भारतीय और यूनानी लोगों ने करीब 1500-500 ईसा पूर्व के बीच शुरू किया था। इसका सम्बंध जीवजंतुओं के प्रति अहिंसा के विचार से था और इसे धर्म और दर्शन द्वारा बढ़ावा दिया गया था। तमिल अध्येताकवि तिरुवल्लुवर, मौर्य सम्राट चंद्रगुप्त व अशोक,और यूनानी संत पायथागोरस शाकाहारी थे

शाकाहार की ओर वर्तमान रुझान एक कदम आगे गया है। इसे वेगन आहार कहते हैं और इसमें दूध, चीज़, दही जैसे डेयरी उत्पादों के अलावा जंतुओं से प्राप्त होने वाले किसी भी पदार्थ की मुमानियत होती है। फिलहाल करीब 30 करोड़ भारतीय शाकाहारी हैं जिनमें से शायद मात्र 20 लाख लोग वेगन होंगे, हालांकि यह आंकड़ा पक्का नहीं है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit :  https://www.thehindu.com/sci-tech/science/76knnm/article25413094.ece/alternates/FREE_660/04TH-SCIMEAL

निशस्त्रीकरण आंदोलन की बढ़ती ज़रूरत – भारत डोगरा

निशस्त्रीकरण को अमन-शांति के लिए ही नहीं अपितु समग्र रूप से बेहतर विश्व बनाने के लिए भी ज़रूरी समझा गया है। किंतु हथियार निरंतर अधिक विध्वंसक रूप ले रहे हैं। महाविनाशक हथियार इतनी संख्या में मौजूद हैं कि मनुष्यों सहित अधिकांश जीवों का जीवन समाप्त कर सकते हैं।

इन महाविनाशक हथियारों को नियंत्रित करना सबसे बड़ी प्राथमिकता है, पर साथ में यह ध्यान में रखना ज़रूरी है कि अपेक्षाकृत छोटे व हल्के हथियारों से भी कोई कम क्षति नहीं होती। राष्ट्र संघ के पूर्व महानिदेशक कोफी अन्नान ने लिखा है “छोटे हथियारों से होने वाली मौतें बाकी सब तरह के हथियारों से होने वाली मौतों से ज़्यादा हैं। किसी एक वर्ष में इन छोटे हथियारों से मरने वालों की संख्या हिरोशिमा व नागासाकी पर गिराए गए परमाणु बमों से मरने वाले लोगों से भी अधिक है। जीवन-क्षति के आधार पर ये छोटे हथियार ही महाविनाशक हैं।”छोटे हथियारों के व्यापार को नियंत्रित करने के लिए अन्तर्राष्ट्रीय समझौता हो चुका है। बारूदी सुरंगों व क्लस्टर बमों को प्रतिबंधित करने के प्रयास भी आगे बढ़े हैं। किंतु कई देशों के इन समझौतों से बाहर रहने या अन्य कारणों से इन प्रयासों को सीमित सफलता ही मिल सकी है।

दूसरी ओर परमाणु हथियारों को नियंत्रित करने के प्रयास पहले से और पीछे हट रहे हैं। अमेरिका और रूस के बीच पहले से मौजूद महत्वपूर्ण समझौतों का नवीनीकरण नहीं हो रहा है या उनके उल्लंघन की स्थितियां उत्पन्न हो रही हैं। अमेरिका ने एकतरफा निर्णय द्वारा छ: देशों के ईरान से हुए परमाणु हथियारों का प्रसार रोकने के समझौते को रद्द कर दिया है, जबकि इस समझौते के अन्तर्गत संतोषजनक प्रगति हो रही थी।

रोबोट या कृत्रिम बुद्धि आधारित हथियारों को विकसित करने पर रोक लगाने के लिए रोबोट विज्ञान व उद्योग के अनेक विशेषज्ञों ने एक अपील जारी है पर इसका अधिक असर नहीं हुआ है। ऐसे हथियार विकसित करने पर अमेरिका, रूस व चीन जैसी बड़ी ताकतों ने निवेश काफी बढ़ा दिया है।

रासायनिक व जैविक हथियारों पर प्रतिबंध तो बहुत पहले अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर लग चुका है, पर फिर भी चोरी-छिपे ऐसे हथियार तैयार रखने या यहां तक कि उनका वास्तविक उपयोग होने के आरोप समय-समय पर लगते रहे हैं।

अनेक देशों के बीच बढ़ते तनाव, आंतकवाद के प्रसार तथा विभिन्न स्तरों पर हिंसक प्रवृत्तियों के बढ़ने के कारण अधिक विनाशकारी हथियारों की अधिक व्यापक उपलब्धि ने विश्व में बहुत खतरनाक स्थितियां उत्पन्न कर दी हैं।

दूसरी ओर, हथियारों पर अधिक खर्च के कारण लोगों की बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने के संसाधन घट रहे हैं। उदाहरण के लिए, 1 टैंक की कीमत इतनी होती है कि उससे 40 लाख बच्चों के टीकाकरण का खर्च पूरा किया जा सकता है। मात्र 1 मिराज विमान की कीमत से 30 लाख बच्चों की एक वर्ष की प्राथमिक स्कूली शिक्षा की व्यवस्था की जा सकती है और एक आधुनिक पनडुब्बी व उससे जुड़े उपकरणों की कीमत से 6 करोड़ लोगों को एक वर्ष तक साफ पेयजल उपलब्ध कराया जा सकता है।

निशस्त्रीकरण के प्रयास सदा ही ज़रूरी रहे हैं पर आज इनकी ज़रूरत और भी बढ़ गई है। विभिन्न स्तरों पर निशस्त्रीकरण की मांग को पूरे विश्व में शक्तिशाली व व्यापक जन-अभियान का रूप देना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit :  https://www.dsadetection.com/media/catalog/product/cache/1/image/9df78eab33525d08d6e5fb8d27136e95/i/t/itr0019l.jpg

 

माहवारी के समय इतनी पाबंदियां क्यों? – सीमा

हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने सबरीमाला मन्दिर में हर उम्र की महिला के अंदर जाने को हरी झंडी देकर फिर से माहवारी से जुड़ी मान्यताओं पर बहस को गरमा दिया है। अलग-अलग लोगों के तरह-तरह के बयान मीडिया की सुर्खियों में छाए रहे। कुछ लोगों ने महसूस किया कि यह फैसला बहुत पहले ही आ जाना चाहिए था तो कुछ अन्य लोगों का मानना था कि धर्म से जुड़े मुद्दों पर सुप्रीम कोर्ट को दखलंदाज़ी करने का कोई हक नहीं है। खैर, सुप्रीम कोर्ट के अधिकार क्षेत्र पर चर्चा और कभी करेंगे। अभी इस लेख में हम बात करेंगे माहवारी और उससे जुड़ी सामाजिक मान्यताओं पर।

माहवारी महिलाओं के शरीर के अन्दर होने वाली एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। सवाल है कि फिर इसके साथ यह छुआछूत कैसे जुड़ गई? औरतें ज़िंदगी के 35-40 साल इस सोच/कुंठा के साथ गुज़ार देती हैं कि माहवारी का खून गंदा है, दूषित करने वाला है। प्राय: इस पर कोई सवाल भी नहीं उठाया जाता। जबकि हकीकत यह है कि माहवारी का खून न तो गंदा है और न ही दूषित करने वाला। इस सच्चाई का एहसास हम तब ही कर पाएंगे जब हम अपने शरीर को, माहवारी की प्रक्रिया को समझने की कोशिश करेंगे।

माहवारी वह प्रक्रिया है जिसमें महिला का शरीर एक बच्चे के ठहरने की तैयारी करता है। जब लड़की किशोरावस्था में कदम रखती है (आम तौर पर 9 से 14 वर्ष के बीच), तब माहवारी चक्र की शुरुआत होती है। एक बार माहवारी शुरू होने के बाद लगभग 45-50 वर्ष की उम्र तक महिलाओं को हर माह माहवारी आती है, सिर्फ उस समय को छोड़कर जब वे गर्भवती होती हैं।

एक महिला के शरीर में प्रजनन के लिए मुख्य अंग दो अंडाशय होते हैं। अंडाशय पेट के निचले क्षेत्र में यानी कूल्हे वाले हिस्से में दोनों ओर एक-एक होता है। प्रत्येक अंडाशय में लाखों अंड कोशिकाएं होती हैं। इन कोशिकाओं में अंडाणु बनाने की क्षमता होती है। मज़ेदार बात यह है कि ये सारी कोशिकाएं जन्म के समय से ही महिला के शरीर में मौजूद होती हैं। मगर ये अपरिपक्व अवस्था में होती हैं। लगभग 9 से 14 वर्ष की उम्र तक ये अपरिपक्व अवस्था में ही बनी रहती हैं। इनके परिपक्व होने की शुरुआत अलग-अलग महिला में अलग-अलग उम्र में होती है। दोनों अंडाशयों के पास एक-एक नली होती है जिसे अंडवाहिनी कहते हैं। अंडाशय में से हर माह एक अंडाणु निकलता है और इस नली के मुंह में गिर जाता है। इस नली के फैलने-सिकुड़ने से ही अंडाणु आगे गर्भाशय की ओर बढ़ता है। गर्भाशय मुट्ठी के बराबर एक तिकोनी, चपटी थैली होती है।

अंडाशय में परिपक्व होने के साथ ही अंडाणु के आसपास गुब्बारे की तरह की थैली बनने लगती है जिसे पुटिका कहते हैं। उसी समय गर्भाशय की अंदरूनी परत मोटी होने लगती है। इसमें ढेर सारी छोटी-छोटी खून की नलियां बनने लगती हैं ताकि यदि बच्चा ठहरे तो उस तक खून पहुंच सके। अंडाशय में अंडाणु के आसपास बढ़ रही पुटिका इतनी बड़ी हो जाती है कि वह फूट जाती है। अंडाणु अंडाशय से बाहर निकल आता है। अंडाणु किसी एक अंडवाहिनी में प्रवेश करता है और गर्भाशय की तरफ बढ़ता है।

मान लीजिए उस समय महिला और पुरुष के बीच संभोग होता है और पुरुष का वीर्य योनि में जाता है। वीर्य में लाखों की तादाद में शुक्राणु होते हैं। इनमें से कुछ योनि से गर्भाशय और वहां से अंडवाहिनियों में पहुंचते हैं जहां उनकी मुलाकात अंडाणु से हो सकती है। अगर शुक्राणु और अंडाणु में निषेचन हो गया तो निषेचित अंडाणु में कोशिका विभाजन शुरू हो जाता है और वह गर्भाशय की ओर बढ़ता रहता है।

निषेचन नहीं होने पर शरीर में शरीर में कुछ हार्मोन की मात्रा घट जाती है और गर्भाशय सिकुड़ने लगता है। गर्भाशय में बन रहा अंदरूनी मोटा अस्तर झड़ जाता है और अपने आप योनि से बाहर निकल आता है। इसी को माहवारी कहते हैं। पूरा अस्तर एक साथ नहीं निकल आता बल्कि दो से सात दिनों तक धीरे-धीरे बूंद-बूंद टपकता रहता है। माहवारी के स्राव में ज़्यादातर खून, ऊतक के छोटे टुकड़े व रक्त वाहिनियां पाई जाती हैं। यह खून न तो गंदा है, न ही रुका हुआ होता है।

माहवारी का स्राव बंद होने में कुछ दिन लग जाते हैं। उसी दौरान अंडाशय में कुछ और अंडाणु बढ़ने लगते हैं और झड़ती हुई परत के नीचे एक नई परत बनना शुरू हो जाती है। जल्द ही यह नया बढ़ता हुआ अंडाणु भी अंडाशय में से बाहर निकल आएगा। इस तरह यह चक्र दोबारा दोहराया जाएगा।

तो हमने देखा कि माहवारी स्त्री के शरीर में प्रजनन से जुड़ी एक सामान्य क्रिया है। मासिक स्राव के साथ जो खून रिसता है वह उन रक्त नलिकाओं का है जो गर्भ ठहरने पर बच्चे को ऑक्सीजन, पोषण तथा अन्य ज़रूरी तत्व मुहैया करवाने के लिए बनी थीं। एक मायने में यह नए जीवन को सहारा देने और संभव बनाने का साधन है।

अब हम बात करेंगे माहवारी से जुड़ी मान्यताओं पर। हमारे समाज में माहवारी के बारे में तरह-तरह की भ्रान्तियां फैली हुई हैं। मसलन, माहवारी के दौरान

– पेड़-पौधों को नहीं छूना चाहिए

– पूजा या नमाज़ नहीं करनी चाहिए

– देवी-देवताओं को नहीं छूना चाहिए

– धार्मिक स्थल पर नहीं जाना चाहिए

– रसोई में नहीं जाना चाहिए

– खाने की चीज़ें, खास तौर से पापड़-अचार को नहीं छूना चाहिए

– पुरुषों को देखना या छूना नहीं चाहिए

– अलग बिस्तर पर सोना चाहिए वगैरह, वगैरह…

आखिर ऐसा क्या होता होगा कि माहवारी के दौरान महिला कुछ भी करेगी तो गड़बड़ ही होगा?

ये मान्यताएं हम सब के मन में इस तरह से पैठ बनाए हुए हैं कि हम इन पर सवाल करने से भी कतराते हैं और उनका जस का तस पालन करते रहते हैं। कुछ लोग इन मान्यताओं को धर्म और पितृसत्ता से जोड़कर देखते हैं तो कुछ इनका वैज्ञानिक कारण तलाशते हैं, जैसे हार्मोन्स का प्रभाव, शरीर का विकास आदि। इन परस्पर विरोधी विचारधाराओं की जांच-पड़ताल करके देखने की ज़रूरत है।

महिलाओं में माहवारी के आने को संतान पैदा करने की क्षमता से भी जोड़कर देखा जाता है। इसलिए माहवारी का आना सिर्फ एक महिला का निजी मुद्दा न रहकर एक पारिवारिक और सामाजिक मुद्दा भी बन जाता है। अफसोस की बात यह है कि परिवार और समाज की चिंताएं सिर्फ माहवारी से जुड़ी पाबंदियों तक ही सीमित हैं। यह विचार तक नहीं आता कि उस समय एक महिला को जिस तरह के आराम, खानपान और साफ-सफाई की ज़रूरत होती है वह उसे मिल पा रही है या नहीं। ज़रा सोचिए हर माह एक रजस्वला स्त्री के शरीर से लगभग 30-40 मि.ली. खून बह जाता है। इसकी क्षतिपूर्ति के बारे में सोचने की बजाय सिर्फ यह चिंता की जाती है कि वह खून गंदा है और उस स्त्री पर तमाम पाबंदियां लग जाती हैं।

आज भी माहवारी के विषय में खुलकर चर्चा नहीं की जाती है, न तो घर में और न ही स्कूल में। टीवी पर सेनेटरी नैपकिन के विज्ञापनों से लड़कियों को माहवारी के समय इस्तेमाल किए जा सकने वाले तरह-तरह के नैपकिन के बारे में जानकारी ज़रूर मिल जाती है, पर माहवारी क्यों होती है और उससे जुड़े तमाम सवालों के जवाबों को जानने का सुलभ ज़रिया उनके पास नहीं होता।

ज़्यादातर स्कूलों में, खासकर गांवों और कस्बों में, अब भी शौचालयों का अभाव है, और अगर होते भी हैं तो टूटे-फूटे और गंदी हालत में, पानी भी नदारद ही होता है। अगर स्कूल में अचानक से किसी लड़की को माहवारी आ जाए तो उन्हें देने के लिए सेनेटरी नेपकिन भी उपलब्ध नहीं होते हैं। इस वजह से लड़कियों को उन दिनों में स्कूल की छुट्टी करनी पड़ती है। सिर्फ लड़कियों को ही नहीं कामकाजी महिलाओं को भी इन परेशानियों से दो-चार होना पड़ता है।

महिलाएं आज भी बेझिझक होकर किसी दुकान से सेनेटरी नेपकिन नहीं खरीद पातीं। वे या तो दुकान खाली होने का इन्तज़ार करती हैं या फिर दुकान में किसी महिला के होने का। अगर वे दबी ज़ुबान में मांग भी लेती हैं तो नेपकिन को काली पन्नी या अखबार में लपेटकर दिया जाता है जैसे खुल्लम-खुल्ला नैपकिन खरीदना कोई शर्म की बात हो। बहरहाल, सेनेटरी नेपकिन आज भी सब की पहुंच में नहीं हैं और इस कारण से अधिकांश महिलाओं और लड़कियों को कपड़े का ही इस्तेमाल करना होता है। मज़दूरी करने वाली महिलाओं को आसानी से साफ कपड़ा भी मयस्सर नहीं होता। पीने के लिए तो पानी पर्याप्त मिलता नहीं, इन कपड़ों को धोने के लिए कहां से मिल पाएगा? जैसे-तैसे कम पानी में ही धोकर गुज़ारा करना होता है। और फिर औरत माहवारी से है यह सबसे छिपाकर भी रखना होता है इसलिए इन कपड़ों को खुले में न सुखाकर अंधेरी जगह में सुखाना पड़ता है। इस वजह से उन कपड़ों से तरह-तरह के संक्रमण का खतरा लगातार बना रहता है। सामाजिक मर्यादा कायम रखने का दबाव इतना होता है कि यौन संक्रमण के बारे में किसी को बताना या इलाज करवाना भी आसान नहीं होता।

तो क्या इन मान्यताओं को बनाए रखने के लिए –

– किसी महिला के स्वास्थ्य से खिलवाड़ करना सही है?

– उस पर तरह-तरह की पाबंदियां लगाना जायज़ है?

– उसके साथ अछूतों जैसा व्यवहार करना ठीक है?

कदापि नहीं। ऐसे परिवेश में जहां शारीरिक विकास, माहवारी और प्रजनन पर चर्चा करना गंदा समझा जाता है, एक ऐसा माहौल बनाना और भी ज़रूरी हो जाता है जहां इन विषयों पर बातचीत हो सके। हमें इन मान्यताओं को जांचने-परखने और इन पर सवाल उठाने की ज़रूरत है। और यह ज़िम्मेदारी सिर्फ महिलाओं की नहीं बल्कि समाज के हर तबके की है।

2005 में एकलव्य द्वारा आयोजित एक शिक्षक प्रशिक्षण शिविर में माहवारी से जुड़ी मान्यताओं की जांच-पड़ताल की गई थी। उसी के कुछ अनुभव यहां प्रस्तुत हैं। सबसे पहले माहवारी से जुड़ी उन मान्यताओं को पहचाना गया जिनकी जांच-पड़ताल आसानी से हो सकती है। पूजा-अर्चना वगैरह आस्था से जुड़े सवाल हैं, और ये ऐसी परिकल्पनाएं प्रस्तुत नहीं करते कि आप उनकी वैज्ञानिक जांच कर सकें। पर पापड़ व अचार का खराब हो जाना या पेड़-पौधों का सूख जाना जैसी मान्यताओं को तो प्रयोग करके परखा जा सकता है।

तो शिविर में निम्नलिखित मान्यताओं की जांच की गई:

·         क्या माहवारी के दौरान महिलाओं द्वारा सींचे जाने पर पौधे (खासकर तुलसी और गुलाब) सूख जाते हैं?

·         अचार-पापड़ बनाने या रखने के दौरान माहवारी वाली महिला छू ले, तो क्या अचार-पापड़ खराब हो जाते हैंै?

इन मान्यताओं के बारे में लोगों के विचार एकदम अलग-अलग थे। कुछ लोगों का मानना था कि अचार इसलिए भी खराब हो जाते हैं कि गीला चम्मच डाल दिया, ढक्कन ठीक से बंद नहीं किया, या फिर बनाने में ही कुछ गलती हो गई।

खाद्य सामग्री बनाने वाले उद्योगों के बारे में भी चर्चा हुई, जिनमें ज़्यादातर महिलाएं ही काम करती हैं। माहवारी के दौरान छुट्टी तो नहीं मिलती। तो फिर वहां काम कैसे चलता है?

उपरोक्त मान्यताओं की जांच करने के लिए टोलियां बनाकर अलग-अलग प्रयोग किए गए।

तुलसी और गुलाब के एक जैसे दो-दो पौधे चुनकर एक की सिंचाई माहवारी वाली महिला से और दूसरे की सिंचाई ऐसी महिला से करवाई जिसे माहवारी नहीं हो रही है।

इसी प्रकार, अचार-पापड़ वाले प्रयोग में अचार-पापड़ बनाए गए – कुछ को बनाने-संभालने का काम माहवारी वाली महिलाओं द्वारा कराया गया और कुछ को बिना माहवारी की महिलाओं द्वारा।

तीनों प्रयोग करने के बाद अवलोकन किए गए।

पौधे पहले जैसे ही थे। प्रायोगिक पौधे न तो सूखे, न मुरझाए।

पापड़ भूने। सब एक से थे। लाल नहीं हुए। जिनमें ज़्यादा सोड़ा डाला था, वे भी नहीं। अचार के दोनों नमूने दो महीने के अवलोकन के लिए एकलव्य के ऑॅफिस में ही रखे गए थे। दो महीने बाद देखा तो अचार खराब नहीं हुए थे।

प्रयोग में शामिल एक महिला ने कहा कि उसे पाबंदियों पर गुस्सा तो आता था मगर उनको तोड़ने से डर भी लगता था। पर उसे कभी सूझा ही नहीं था कि वह इन पाबंदियों को परखकर देखे।

खोजबीन का अंतिम परिणाम कुछ भी हो मगर एक बात साफ दिखी कि इन मान्यताओं को प्रयोग की जांच-परख की जा सकती है। (स्रोत फीचर्स)

 नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit :  https://cdn-live.theprint.in/wp-content/uploads/2018/10/sabrimala-getty.jpg