मीठा खाने का मस्तिष्क पर प्रभाव

मीठा खाना हम सबको पसंद है, लेकिन अधिक चीनी के सेवन से वज़न बढ़ने, मोटापे, टाइप-2 मधुमेह और दंत रोग जैसी समस्याओं का सामना करना पड़ता है। मीठा खाने से खुद को रोक पाना इतना कठिन होता है कि मानो मस्तिष्क को मीठा खाने के लिए प्रोग्राम किया गया हो। वैज्ञानिक इस बात का अध्ययन कर रहे हैं कि मोटापा बढ़ाने वाला भोजन मस्तिष्क और व्यवहार को कैसे प्रभावित करता है और इससे निपटने के लिए क्या किया जा सकता है।       

ग्लूकोज़ मस्तिष्क कोशिकाओं सहित अन्य कोशिकाओं के लिए र्इंधन का काम करता है। हमारे आदिम पूर्वजों के लिए मीठे खाद्य पदार्थ ऊर्जा के बेहतरीन स्रोत थे जिसके चलते मनुष्य विशेष रूप से मीठे खाद्य पदार्थों को पसंद करने लगे। कड़वा, खट्टा स्वाद कच्चे फलों का या ज़हरीला हो सकता है।

मीठे का सेवन करने पर हमारे मस्तिष्क की डोपामाइन प्रणाली सक्रिय हो जाती है जो एक तरह के पारितोषिक का काम करती है। इस रसायन को मस्तिष्क एक सकारात्मक संकेत के रूप में दर्ज करता है। यह रसायन उसी कार्य को फिर से करने के लिए प्रेरित करता है और हमारा आकर्षण मिठास के प्रति बढ़ जाता है। लेकिन क्या चीनी का अत्यधिक सेवन मस्तिष्क पर कोई नकारात्मक प्रभाव डालता है?  

न्यूरोप्लास्टिसिटी नामक प्रक्रिया के माध्यम से मस्तिष्क खुद का पुनर्लेखन करता है। दवा या अधिक चीनी युक्त पदार्थों का बार-बार सेवन करने से यह प्रणाली मस्तिष्क को इस उद्दीपन के प्रति उदासीन कर देती है और एक तरह की सहनशीलता उत्पन्न होती है। इसके चलते वही असर प्राप्त करने के लिए आपको उस चीज़ का ज़्यादा मात्रा में सेवन करना होता है। इसे लत लगना कहते हैं। यह विवाद का विषय रहा है कि क्या भोजन की लत लग सकती है।        

ऊर्जा के स्रोत के अलावा कई लोगों में खाने की लालसा तनाव, भूख या भोजन के आकर्षक चित्र देखकर पैदा होती है। इस लालसा को रोकने के लिए हमें अपनी स्वाभाविक प्रतिक्रिया को नियंत्रित करने की आवश्यकता होती है। इसमें निषेध न्यूरॉन्स की प्रमुख भूमिका होती है। ये न्यूरॉन्स निर्णय लेने के साथ-साथ नियंत्रण तथा संतुष्टि को टालने का काम करते हैं। ये न्यूरॉन्स मस्तिष्क में ब्रेक की तरह काम करते हैं। चूहों में अध्ययन से पता चला है कि उच्च चीनी युक्त आहार लेने से निषेध न्यूरॉन्स में बदलाव आ सकता है। ऐसे चूहे अपने व्यवहार को नियंत्रित करने में और निर्णय लेने में कम सक्षम पाए गए। इससे लगता है हम जो भी खाते हैं वो इन प्रलोभनों का विरोध करने की हमारी क्षमता को प्रभावित कर सकता है और आहार में बदलाव करना मुश्किल हो सकता है।

हाल के अध्ययन से मालूम चला है कि जो लोग नियमित रूप से उच्च वसा, उच्च चीनी वाले आहार खाते हैं वे भूख न लगने पर भी खाने की लालसा महसूस करते हैं। यानी नियमित रूप से उच्च चीनी युक्त खाद्य पदार्थ खाने से लालसा बढ़ती जाती है।

अध्ययन से पता चला है कि उच्च मात्रा में चीनी आहार लेने वाले चूहों में याददाश्त की समस्या उत्पन्न हुई। चीनी के कारण हिप्पोकैम्पस में नए न्यूरॉन्स की कमी पाई गई जो याददाश्त बढ़ाने और उत्तेजना से जुड़े रसायनों में वृद्धि करने के लिए महत्वपूर्ण हैं। 

अब सवाल यह है कि अपने मस्तिष्क को चीनी से कैसे बचाएं? विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार हमें अपने दैनिक कैलोरी सेवन की मात्रा में शक्कर का सेवन केवल 5 प्रतिशत तक सीमित करना चाहिए जो लगभग 25 ग्राम (छह चम्मच) के बराबर है। इसके मद्देनज़र आहार में काफी परिवर्तन की आवश्यकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मलेरिया उन्मूलन की नई राह – नवनीत कुमार गुप्ता

दिसंबर 2019 में जारी विश्व मलेरिया रिपोर्ट में मलेरिया उन्मूलन के लिए उठाए गए कदमों के चलते भारत सुर्खियों में है। रिपोर्ट के अनुसार वैसे तो मलेरिया उन्मूलन के वैश्विक प्रयासों में स्थिरता आई है लेकिन पिछले वर्ष 22 करोड़ 80 लाख लोग मलेरिया की चपेट में आए थे जिनमें से लगभग 4 लाख लोगों की मौत हुई थी। अधिकतर मौतें अफ्रीका क्षेत्र में हुई थी।

भारत में मलेरिया का प्रकोप सदियों से हो रहा है। आज़ादी से पहले तक देश की लगभग एक चौथाई आबादी मलेरिया से प्रभावित होती थी। 1947 में भारत की 33 करोड़ आबादी में से 7.5 करोड़ लोग मलेरिया से पीड़ित हुए थे और 8 लाख लोग मारे गए थे।

इस घातक रोग पर काबू पाने के लिए भारत सरकार ने 1953 में ‘राष्ट्रीय मलेरिया नियंत्रण कार्यक्रम’ लागू किया। यह कार्यक्रम काफी सफल रहा और इससे मलेरिया के रोगियों की संख्या में काफी कमी आई। इस कार्यक्रम की सफलता से उत्साहित होकर सरकार ने 1958 में ‘राष्ट्रीय मलेरिया उन्मूलन’ कार्यक्रम आरंभ किया। डी.डी.टी. वगैरह के छिड़काव में ढील के कारण 1960 और 1970 के दशक में मलेरिया के मरीज़ों की संख्या तेज़ी से बढ़ गई, और 1976 में देश भर में 60 लाख 45 हज़ार केस दर्ज किए गए।  

मलेरिया की रोकथाम के तमाम प्रयासों के कारण रोगियों की संख्या काफी घट गई लेकिन 1990 के दशक में यह रोग नई ताकत के साथ वापस लौट आया। इसकी वापसी के कारणों में कीटनाशकों के खिलाफ मच्छरों की प्रतिरोधकता, खुले स्थानों में मच्छरों की बढ़ती तादाद एवं जल परियोजनाओं, शहरीकरण, औद्योगीकरण, मलेरिया परजीवी के रूप बदलने और क्लोरोक्विन तथा मलेरिया की अन्य दवाइयों के खिलाफ प्लाज़्मोडियम फाल्सिपेरम की प्रतिरोध क्षमता मुख्य थे। 

मलेरिया उन्मूलन की दिशा में ओडिशा एक प्रेरणा रुाोत के रूप में उभरकर सामने आया है। हाल के वर्षों में इसने अपने ‘दुर्गम अंचलारे मलेरिया निराकरण’ नामक पहल के माध्यम से मलेरिया के प्रसार पर अंकुश लगाने तथा उसके निदान और उपचार के व्यापक प्रयास किए हैं। इन प्रयासों के चलते बहुत ही कम समय में प्रभावशाली परिणाम प्राप्त हुए हैं। भारत में मलेरिया के खिलाफ लड़ाई में प्रमुख मोड़ 2015 में पूर्वी एशिया शिखर सम्मेलन के दौरान आया जब देश ने 2030 तक इस बीमारी को खत्म करने का संकल्प लिया था।

2017 में मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं ने लगभग एक करोड़ मच्छरदानियां वितरित करने में मदद की। यह कदम सबसे जोखिमग्रस्त क्षेत्रों में सभी निवासियों को मलेरिया जैसे रोगों से सुरक्षा प्रदान करने के लिये आवश्यक था। इनमें आवासीय विद्यालयों के छात्रावास भी शामिल थे।

अपने निरंतर प्रयासों के परिणामस्वरूप ओडिशा ने साल 2017 में मलेरिया के मामलों और उसके कारण होने वाली मौतों में 80 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की। इस योजना का उद्देश्य राज्य के दुर्गम और सबसे अधिक प्रभावित क्षेत्रों के लोगों तक सेवाओं का विस्तार करना है।

स्पष्ट है कि मलेरिया उन्मूलन के वैश्विक प्रयासों को आगे बढ़ाने में भारत एक अग्रणी देश के रूप में सामने आया है। मलेरिया उन्मूलन के मामले में भारत की सफलता मलेरिया से सर्वाधिक प्रभावित अन्य देशों को इससे निपटने के लिये एक उम्मीद प्रदान करती है।

इसके अलावा सरकार ने विभिन्न माध्यमों से मलेरिया उन्मूलन सम्बंधी जागरूकता अभियान चलाया। मलेरिया उन्मूलन पर फिल्में एवं रेडियो कार्यक्रम बनाए गए। दूरदर्शन एवं आकाशवाणी पर ऐसे कार्यक्रमों का प्रसारण किया गया। इसके अलावा विज्ञान प्रसार द्वारा एडूसेट के माध्यम से मलेरिया सम्बंधी जागरूकता कार्यक्रमों को देश भर में कार्यरत 52 केंद्रों के माध्यम से लोगों तक पहुंचाया गया। सीएसआईआर ने मलेरिया पर एक राष्ट्रीय निबंध प्रतियोगिता का आयोजन विज्ञान प्रसार के साथ किया। इस प्रकार विभिन्न कार्यक्रमों के माध्यम से मलेरिया सम्बंधी जागरूकता के ज़रिए लोगों का ध्यान बीमारी की गंभीरता और रोकथाम की ओर आकर्षित किया गया। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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विष्ठा प्रत्यारोपण से मौत?

विष्ठा प्रत्यारोपण यानी किसी स्वस्थ व्यक्ति की विष्ठा में उपस्थित सूक्ष्मजीव किसी ऐसे व्यक्ति की आंतों में प्रविष्ट कराए जाते हैं जो आंतों में सूक्ष्मजीव संसार के अभाव के कारण रोगग्रस्त है। फिलहाल विष्ठा प्रत्यारोपण जैसे उपचार का सहारा उन मामलों में लिया जा रहा है जहां कोई व्यक्ति क्लॉस्ट्रिडियम डिफिसाइल के संक्रमण से त्रस्त हो, जो जानलेवा भी साबित हो सकता है। अब विष्ठा प्रत्यारोपण को सामान्य रूप से ऐसी तकलीफों के लिए भी आज़माया जा रहा है जो क्लॉस्ट्रिडियम डिफिसाइल के कारण उत्पन्न न हुई हों।

पहले किसी स्वस्थ व्यक्ति की विष्ठा में से सूक्ष्मजीवों को पृथक किया जाता है और फिर इनकी गोली/कैप्सूल बनाकर या एनिमा के माध्यम से रोगी व्यक्ति की आंतों में पहुंचाया जाता है। इस उपचार के क्लीनिकल परीक्षण के दौरान काफी सावधानी की आवश्यकता होती है। यह क्लीनिकल परीक्षण मैसाचुसेट्स जनरल हॉस्पिटल में किया जा रहा है। दी न्यू इंगलैंड जर्नल ऑफ मेडिसिन में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक इस परीक्षण में दो व्यक्ति शामिल थे और दोनों को एक ही व्यक्ति की विष्ठा प्रत्यारोपित की गई थी। जांच इस बात की हो रही थी कि लीवर के रोग के मामले में विष्ठा प्रत्यारोपण कितना कारगर हो सकता है।

प्रत्यारोपण के अंतिम चरण के आठ दिन बाद एक 73 वर्षीय मरीज़ को बुखार आ गया और ठंड लगने लगी। उसकी मानसिक हालत भी बिगड़ गई और पूरे शरीर में ऐसे लक्षण दिखने लगे जैसे उसका शरीर किसी संक्रमण से लड़ रहा हो। दो दिन बाद उसकी मृत्यु हो गई। उसके रक्त में दवा-प्रतिरोधी बैक्टीरिया ई. कोली पाया गया।

दूसरा मरीज़ 69 वर्षीय था। वह भी इसी प्रकार की अस्वस्थता का शिकार हुआ और उसके खून में भी दवा-प्रतिरोधी ई. कोली मिला लेकिन उसके संक्रमण को दवाइयों से काबू कर लिया गया। इस क्लीनिकल परीक्षण की सुनवाई करके तय किया जाएगा कि यदि आगे बढ़ना है तो कैसे कदम उठाने होंगे। (स्रोत फीचर्स)
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खसरा का आक्रमण प्रतिरक्षा तंत्र को बिगाड़ता है

सरा एक वायरस-जन्य रोग है जो प्राय: बच्चों में होता है। बुखार, सूखी खांसी, नाक बहना, मुंह के अंदर फुंसियां और शरीर पर लाल-लाल चकत्ते इसके प्रमुख लक्षण हैं। एक अनुमान के मुताबिक प्रति वर्ष लगभग एक लाख बच्चों की मृत्यु खसरा यानी मीज़ल्स के कारण होती है।

खसरा अपने आप में तो एक घातक रोग है ही, हाल के एक अध्ययन से पता चला है कि यह शरीर के प्रतिरक्षा तंत्र को भी तहस-नहस कर देता है। इसके चलते बच्चे अन्य रोगों के प्रति भी दुर्बल हो जाते हैं। सबसे पहले इस बात का अंदाज़ ऐसे लगा था कि किसी आबादी में खसरा के प्रकोप के बाद अन्य बीमारियों का प्रकोप भी बढ़ जाता है। मामले की तह तक जाने के लिए नेदरलैंड के ऐसे बच्चों के समूह का अध्ययन किया गया जिन्हें कोई टीका नहीं लगा था। यू.के. स्थिति वेलकम सैंगर इंस्टीट्यूट की वेलिस्लावा पेट्रोवा के समूह और हारवर्ड विश्वविद्यालय के स्टीफन एलिज के समूह ने इनमें से 77 बच्चों के खून के नमूने लिए। जब इलाके में खसरा फैला तो उसके बाद फिर से इन बच्चों के खून के नमूनों की जांच की गई। जांच का मकसद यह देखना था कि उनके खून में सामान्य रोगजनक वायरसों के खिलाफ एंटीबॉडी की क्या स्थिति थी।

पता चला कि खसरा के प्रकोप से पहले सभी बच्चों में विभिन्न वायरसों के विरुद्ध एंटीबॉडी मौजूद थीं। अर्थात ये तंदुरुस्त बच्चे थे। लेकिन खसरा संक्रमण के बाद के नमूनों में एंटीबॉडी खज़ाने में से 20 प्रतिशत नष्ट हो चुका था। कुछ में तो एंटीबॉडी की क्षति 70 प्रतिशत तक देखी गई। जिन बच्चों (जिन्हें खसरा का टीका नहीं लगा था) को खसरा संक्रमण नहीं हुआ था उनमें ऐसा नहीं हुआ। जिन बच्चों को टीका लगा था, उनमें भी एंटीबॉडी को कोई नुकसान नहीं हुआ था।

इसका मतलब है कि यदि गैर-टीकाकृत बच्चे को खसरा होता है तो उसका प्रतिरक्षा तंत्र वह सब भूल जाता है जो उसने रोगजनकों से लड़ने के बारे में सीखा था। दूसरे शब्दों में बच्चा प्रतिरक्षा-विस्मृति का शिकार हो जाता है। जंतुओं पर किए गए प्रयोगों से भी पता चला है कि खसरा वायरस प्रतिरक्षा तंत्र को कमज़ोर करता है।

अध्ययन का एक ही संदेश है। आज जब खसरा का संक्रमण फिर से बढ़ रहा है तो खसरा से बचाव तथा अन्य रोगों से बचाव के लिए भी खसरा टीकाकरण अनिवार्य है। (स्रोत फीचर्स)
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कॉफी स्वास्थ्यवर्धक है, मगर अति न करें – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

ह जानी-मानी बात है कि काली चाय (जो हम हिंदुस्तान पीते हैं) वह एक स्वास्थ्यवर्धक पेय है। हेल्थलाइन के 16 मई 2018 के अंक में डॉ. ए. एनलो ने एक सारगर्भित समीक्षा में इसके दस फायदे गिनाए हैं। इसी प्रकार से कॉफी के स्वास्थ्यवर्धक गुणों का विश्लेषण स्पेशलिटी मेडिकल डायलॉग्स नामक शोध पत्रिका के 28 नवंबर 2019 के अंक में प्रकाशित हुआ है। इसमें डॉ. हिना ज़ाहिद लिखती हैं, “कॉफी संभवत: हमारे आहार का वह घटक है जिसका सबसे ज़्यादा अध्ययन किया गया है। इस संदर्भ में मानसिक प्रदर्शन, खेलकूद में प्रदर्शन, शरीर में तरल पदार्थों के संतुलन, टाइप-2 मधुमेह, लीवर के कामकाज, तंत्रिका विघटन विकारों, गर्भावस्था, कैंसर और ह्रदय-रक्त वाहिनी रोगों पर इसके असर को लेकर काफी शोध पत्र प्रकाशित हुए हैं।” एक अनुमान के मुताबिक मेटाबोलिक सिंड्रोम (चयापचय सम्बंधी लक्षण) दुनिया भर में 1 अरब से ज़्यादा लोगों को प्रभावितकरता है। (मेटाबोलिक सिंड्रोम कुछ लक्षणों का समूह है जिसमें उच्च रक्तचाप, कमर के आसपास चर्बी जमा होना तथा असामान्य कोलेस्ट्रॉल स्तर शामिल हैं।) मेटाबोलिक सिंड्रोम होने पर ह्रदय-रक्तवाहिनी रोगों की आशंका बढ़ती है (जिनमें ह्रदयधमनी रोग तथा स्ट्रोक शामिल हैं)। इंस्टीट्यूट फॉर साइन्टिफिक इन्फॉर्मेशन ऑन कॉफी की एक रिपोर्ट में मेटोबोलिक सिंड्रोम कम करने में कॉफी की संभावित भूमिका को रेखांकित करते हुए कहा गया है कि “मेटा-एनालिसिस की ताज़ा रिपोर्ट से लगता है कि रोज़ाना 1-4 कप कॉफी के सेवन और मेटाबोलिक सिंड्रोम में गिरावट का सम्बंध है।”

मेटा-एनालिसिस का मतलब होता है कि एक ही विषय पर किए गए कई वैज्ञानिक अध्ययनों के परिणामों का विश्लेषण करके यह देखा जाए कि क्या ये सब एक ही निष्कर्ष पर पहुंचते हैं और यदि नहीं तो इनके निष्कर्षों में क्या अंतर हैं। इसका फायदा यह होता है कि निष्कर्ष ज़्यादा भरोसेमंद होते हैं और संदेश स्पष्ट होता है। इटली के कैटेनिया विश्वविद्यालय के डॉ. गिसेप ग्रॉसो और उनके साथियों का निष्कर्ष है कि कॉफी के सेवन से टाइप-2 मधुमेह, उच्च रक्तचाप वगैरह की आशंका कम होती है। नवारो व साथियों द्वारा किए गए एक अन्य मेटा एनालिसिस में पता चला कि कॉफी का नियमित सेवन उच्च रक्तचाप का खतरा कम करता है।

कॉफी और स्वास्थ्य के बारे में और जानने चाहते हैं, तो http://www.coffeeandhealth.org पर जाएं, जहां कॉफी के स्वास्थ्य सम्बंधी फायदों की विस्तृत चर्चा की गई है। इन सबसे तो लगता है कि कॉफी एक स्वास्थ्यवर्धक पेय है। लेकिन थोड़ी मात्रा में (3-5 कप प्रतिदिन)। ज़्यादा पिएंगे तो यह हानिकारक भी हो सकती है। मेयो क्लीनिक का मत है कि इससे ज़्यादा कॉफी का सेवन ओवरडोज़ की श्रेणी में आएगा और कैफीन के उच्च स्तर की वजह से माइग्रेननुमा सिरदर्द, अनिद्रा, बेचैनी, मांसपेशीय कंपकंपाहट और ह्रदय गति बढ़ना जैसे लक्षण उभर सकते हैं। लिहाज़ा कपों की संख्या पर नियंत्रण रखने में ही होशियारी है। गर्भवती स्त्रियों को तो कपों की संख्या पर ज़्यादा नियंत्रण रखना चाहिए। बच्चों को तो कॉफी दोनी ही नहीं चाहिए।

भारत में आगमन

कॉफी वस्तुत: इथियोपियन मूल की है। इसे जल्दी ही अरब लोगों ने अपना लिया और पेय पदार्थ के रूप में इससे चिपके रहे ताकि इमाम और अन्य श्रद्धालु लोगों चौकन्ने रहें (क्योंकि शराब उनके लिए प्रतिबंधित थी)। http://madrascouriers.com के 19 जून 2017 के इनसाइट स्तंभ में बताया गया है कि सोलहवीं सदी के सूफी संत बाबा बुदन कॉफी के कई सारे बीज अरब एकाधिकार से चोरी-छिपे निकाल लाए थे और 1670 में उन्हें मैसूर साम्राज्य के चिकमगलूर नामक स्थान पर बोया था। वैसे हो सकता है कि इससे पहले ही अरब व्यापारी कॉफी को मलाबार तट पर ला चुके थे। इस प्रकार से कॉफी कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु में उगाई जाने लगी। हाल ही में इसे आंध्र प्रदेश की अरकू घाटी में उगाया जाने लगा है। इसके अलावा, उत्तर-पूर्वी भारत के राज्यों में भी कॉफी उगाई जाती है। ऐसा लगता है कि इसी तरह से कॉफी कई सदियों से प्रायद्वीपीय भारत में एक लोकप्रिय पेय बन गई।

अलबत्ता, अधिकांश दक्षिण भारतीय लोग शुद्ध कॉफी नहीं पीते, बल्कि कॉफी और चिकरी का मिश्रण पीते हैं। चिकरी एक देशी पौधा है जिसे स्पैन, यूनान और तुर्की के भूमध्यसागरीय क्षेत्रों में उगाया जाता है। युरोप में यह कॉफी में मिलाने के लिहाज़ से भी और अपने आप में भी लोकप्रिय हो गया। वेबसाइट Bynemara Tales-Medium के 19 जुलाई 2017 के अंक में बताया गया है कि फ्रांस में 1880 के दशक की शुरुआत में कॉफी की कमी के चलते चिकरी का उपयोग किया जाने लगा था। उसी समय से कॉफी-चिकरी मिश्रण लोकप्रिय हो गया। डेविड कॉपरफील्ड और ए टेल ऑफ टू सिटीज़ जैसे उपन्यासों के लेखक लेखक चार्ल्स डिकेंस ने कहा है, “कॉफी में थोड़ी-सी चिकरी मिलाने से कॉफी की खुशबू नष्ट नहीं होती बल्कि खुशबू में इज़ाफा होता है, और रंगत में गाढ़ापन आता है जिसके चलते यह कई लोगों के लिए स्वागत-योग्य से भी बढ़कर हो जाती है।” यह भी एक रोचक तथ्य है कि ब्रिटिश लोगों ने ‘कैम्प कॉफी’ नामक एक पेय की शुरुआत की थी। यह पानी, शकर, 4 प्रतिशत कैफीन-रहित कॉफी का अर्क और 26 प्रतिशत चिकरी के अर्क से बना एक मिश्रण होता था। हिंदुस्तानी सिपाहियों और अन्य लोगों को यह पेय खूब भाता था। समय के साथ दक्षिण भारतीय कॉफी विभिन्न अनुपातों में कॉफी और चिकरी का एक मिश्रण बन गई – 80 प्रतिशत कॉफी-20 प्रतिशत चिकरी से लेकर 60 प्रतिशत कॉफी-40 प्रतिशत चिकरी तक। चिकरी भारत में भी गुजरात और उत्तर प्रदेश में उगाई जाती है।

दक्षिण भारत के पार

पारंपरिक रूप से दक्षिण भारतीय कॉफी चार दक्षिणी राज्यों तक सीमित रही जबकि उत्तरी भारत में चाय लोकप्रिय रही और लगभग यही एकमात्र पेय रही। चाय का उत्पादन आसाम, पश्चिम बंगाल के अलावा कुछ अन्य उत्तर-पूर्वी राज्यों में किया जाता था। यहां की जलवायु और मिट्टी इसके लिए उपयुक्त है। अलबत्ता, हाल के वर्षों में ‘दक्षिणियों’ ने भी चाय को अपनाया है – कॉफी के विकल्प के रूप में नहीं बल्कि एक पूरक के रूप में। दूसरी ओर, ‘उत्तरियों’ ने कॉफी पीना शुरू कर दिया है। इसका कारण मूलत: मार्केटिंग में छिपा है। और कॉफी के मामले में भी पारंपरिक ‘फिल्टर कॉफी’ के अलावा आजकल कई अन्य कॉफियां मिलती हैं – एस्प्रेसो, कैपुचिनो वगैरह। ये सब पाश्चात्य आविष्कार हैं और खास तौर से शहरों में लोकप्रिय हुए हैं।

एक समय था जब ‘चाय पर चर्चा’ लोकप्रिय थी जहां हर किस्म की बातचीत, बहस, और विचारों का मेलजोल, लेन-देन हो सकता था। नए-नए राजनैतिक विचार चाय की चुस्कियों पर जन्म लिया करते थे, जैसा कि सत्यजीत राय ने अपनी मशहूर फिल्म आगंतुक में दर्शाया है। आजकल इस विचार में कॉफी शॉप (वाई-फाई कनेक्टिविटी समेत) जुड़ गई है, जिनके बारे में विज्ञापन किया जा रहा है कि ‘कॉफी के साथ बहुत कुछ हो सकता है’। लेकिन ये बीते समय के अड्डों जैसे तो कदापि नहीं हैं। (स्रोत फीचर्स)
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निमोनिया का बढ़ता प्रभाव और नाकाफी प्रयास – मनीष श्रीवास्तव

युनिसेफ की ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार निमोनिया विश्व स्तर पर एक घातक बीमारी के रूप में उभर रही है। वर्ष 2018 में दुनिया भर में हर 39 सेकंड में एक बच्चे की निमोनिया से मौत हुई है। युनिसेफ के अनुसार 2018 में 8 लाख बच्चों की मौत निमोनिया से हुई। इस मामले में प्रथम स्थान पर नाइजीरिया (1,62,000 मृत्यु) के बाद दूसरे स्थान पर भारत (1,27,000 मत्यु) और तीसरे स्थान पर पाकिस्तान (58,000 मृत्यु) है। यहां बच्चों से आशय पांच साल से कम उम्र के बच्चों से है। निमोनिया से पांच वर्ष से कम उम्र के बच्चे सबसे ज़्यादा ग्रस्त हुए हैं। वर्ष 2018 में वैश्विक स्तर पर जन्म के पहले महीने में 1,53,000 बच्चों की मृत्यु हुई।

इतनी बड़ी संख्या में बच्चों की असमय मौत चिंता का विषय है। भारत सरकार द्वारा स्वास्थ्य जागरूकता के कार्यक्रम चलाने तथा संसाधन उपलब्ध कराने के बावजूद, सरकारी स्वास्थ्य योजनाओं के क्रियान्वयन में कहीं न कहीं बड़ी समस्या है जिसे जल्द से जल्द दूर करना ज़रूरी है।

युनिसेफ की उक्त रिपोर्ट में एक महत्वपूर्ण बात यह सामने आई है कि इतने भयावह आंकड़ों के बाद भी संक्रामक रोग अनुसंधान पर विभिन्न देश केवल तीन प्रतिशत ही खर्च करते हैं।

निमोनिया एक सांस सम्बंधी बीमारी है जो फेफड़ों को प्रभावित करती है। इसमें फेफड़ों के अल्वियोली (फेफड़ों में उपस्थित वायु प्रकोष्ठ) में मवाद व पानी भर जाता है जिससे सांस लेने में कठिनाई होने लगती है जो ऑक्सीजन की कमी का कारण बन जाती है।

स्वास्थ्य विशेषज्ञों के अनुसार कुछ कारण ऐसे हैं जिनकी पूर्ति न होने पर निमोनिया जैसी घातक बीमारी का प्रभाव बढ़ता जाता है:

  • साफ पेयजल का अभाव
  • पर्याप्त स्वास्थ्य देखभाल का अभाव
  • घरेलू और बाह्य वायु प्रदूषण 
  • कुपोषण

भारत के एक एनजीओ सेव दी चिल्ड्रन के अनुसार भारत में हर 4 मिनट में एक बच्चे की मौत निमोनिया की वजह से होती है। इसमें कुपोषण और प्रदूषण की बड़ी भूमिका है। बच्चों की निमोनिया से मौत में घर के अंदर के प्रदूषण की 22 प्रतिशत और बाह्य प्रदूषण की 27 प्रतिशत भूमिका है। इसलिए भारत में विविध राष्ट्रीय अभियान(जैसे – एमएए, यूआईपी, आईसीडीएस) के माध्यम से सामुदायिक कार्यकर्ता आशा/एएनएम/आंगनवाड़ी के द्वारा निमोनिया से बचाव, रोकथाम और उपचार को लेकर जागरूकता लाई जाती है।

कई बार बच्चों में नाक या गले में पाया जाने वाला वायरस सांस लेने के दौरान फेफड़ों में पहुंच जाता है। इससे निमोनिया होने की संभावना बढ़ जाती है। छींक या खांसी के साथ निकली बूंदों के माध्यम से भी यह रोग फैलता है। इसलिए इस रोग के मामले में बेहद सावधानी बरतने की आवश्यकता है। मौसम बदलने, फेफड़ों में चोट लगने से भी इस रोग की आशंका बढ़ जाती है। बच्चों में निमोनिया होने के संभावित लक्षण होते हैं कि उन्हें बुखार होने के साथ सांस लेने में कठिनाई महसूस होती है, वे ठीक से खाते-पीते नहीं है, उनमें बेहोशी और अकड़न महसूस होती है। 

ग्लोबल एक्शन प्लान के अंतर्गत कुछ उपाय सुझाए गए हैं जिनका पालन कर इस रोग से बच्चों को बचा जा सकता है।

  • छह माह तक स्तनपान 
  • पोषक आहार
  • स्वच्छ पेयजल
  • घरेलू वायु प्रदूषण न हो
  • हाथ साबुन से धोना

निमोनिया का टीका 2 साल से कम उम्र के बच्चों और 65 साल से ज़्यादा उम्र के बुज़ुर्गों को अवश्य लगवाना चाहिए। 2 साल से कम उम्र के बच्चों में निमोनिया की रोकथाम के लिए PCV13 टीका लगाया जाता है। यह करीब 13 तरह के निमोनिया से बचाता है और तीन साल तक असरदार होता है। वहीं अगर 2 साल से ज़्यादा उम्र के बच्चों में टीका लगाया जाता है तो PPSV23 लगता है। यह 23 तरह के निमोनिया से रक्षा करता है। 2 साल से बड़े बच्चों में सिर्फ खास परिस्थितियों में ही यह टीका लगाया जाता है। जैसे अगर बच्चे को कैंसर हो या लीवर या दिल की बीमारी वगैरह हो।

युनिसेफ ने रिपोर्ट में कहा है कि देश यह भूल गए हैं कि निमोनिया एक महामारी है। इसलिए युनिसेफ के साथ अन्य स्वास्थ्य और बाल संगठनों ने इस बीमारी के प्रति जागरूकता लाने के लिए वैश्विक कार्रवाई की अपील की है। सन 2020 के जनवरी माह में स्पेन में ‘ग्लोबल फोरम ऑन चाइल्डहुड निमोनिया’ विषय पर मंथन होगा, जिसमें दुनिया भर के प्रतिनिधि शामिल होंगे।

निमोनिया की रोकथाम और इसके प्रति जन जागरूकता लाने के लिए हर वर्ष 12 नवंबर को विश्व निमोनिया दिवस मनाया जाता है। वैश्विक संगठन, सरकारी व गैर-सरकारी संस्थाएं तथा रिसर्च अकादमियों ने मिलकर इस दिन को विश्व निमोनिया दिवस के रूप में मनाने की शुरुआत सन 2009 में की थी। इसमें यह लक्ष्य रखा गया था कि हर देश में इस दिन निमोनिया को लेकर जागरूकता कार्यक्रम आयोजित किए जाएंगे। लोगों को इसके उपचार और रोकथाम के उपाए बताए जाएंगे। सन 2013 में वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाइज़ेशन और युनिसेफ ने संयुक्त रूप से एक ग्लोबल एक्शन प्लान तैयार किया था जिसका लक्ष्य है कि सन 2025 तक प्रत्येक 1000 बच्चे के जन्म होने पर इस बीमारी से मरने वाले बच्चों की संख्या तीन से कम की जा सके। (स्रोत फीचर्स)
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सांसों का हिसाब – डॉ. सुशील जोशी

नोबेल पुरस्कार की एक खूबी यह है कि उनकी वजह से हम किसी विषय में हो रहे अनुसंधान के प्रति जागरूक हो जाते हैं। इस वर्ष चिकित्सा/कार्यिकी का नोबेल पुरस्कार इस अनुसंधान के लिए दिया गया है कि हमारा शरीर कोशिकाओं के स्तर पर ऑक्सीजन के उपयोग का नियमन कैसे करता है।

ऑक्सीजन वह गैस है जो आजकल के वायुमंडल में लगभग 20 प्रतिशत होती है और जंतुओं के लिए भोजन से ऊर्जा प्राप्त करने में प्रमुख भूमिका निभाती है। वैसे इस बात की खोज अपने आप में महत्वपूर्ण थी कि ऑक्सीजन एक तत्व है और दहन व श्वसन में हवा का यही हिस्सा (ऑक्सीजन) भाग लेता है। श्वसन में ऑक्सीजन की भूमिका और ऑक्सीजन को एक तत्व के रूप में पहचानने का काम, काफी हिचकोलों के बाद, आज से करीब 200 साल पहले हुआ था। वह अपने-आप में एक रोचक कहानी है।

आगे चलकर यह स्पष्ट हुआ कि कार्बोहाइड्रेट व अन्य पदार्थों के साथ ऑक्सीजन की क्रिया से ऊर्जा उत्पन्न करने का काम कोशिकाओं में माइटोकॉन्ड्रिया नामक उपांग में होता है। दरअसल माइटोकॉन्ड्रिया में ग्लूकोज़ के ऑक्सीकरण से एक पदार्थ बनता है – एडीनोसीन ट्राईफॉस्फेट (एटीपी) और यही एटीपी शरीर के लिए ऊर्जा का स्रोत है। इसके बाद पता चला था कि ग्लूकोज़ से एटीपी निर्माण की इस क्रिया का नियंत्रण कुछ एंज़ाइमों द्वारा किया जाता है। इस खोज के लिए 1931 में नोबेल पुरस्कार दिया गया था।

ऑक्सीजन जीवन के लिए निर्णायक महत्व रखती है। इसलिए जैव विकास की प्रक्रिया में शरीर में ऐसी व्यवस्था का निर्माण हुआ है कि शरीर के ऊतकों और कोशिकाओं को पर्याप्त ऑक्सीजन मिलती रहे। गर्दन में जो बड़ी-बड़ी रक्तवाहिनियां होती हैं, उनके नज़दीक एक रचना होती है – कैरोटिड निकाय। इस कैरोटिड निकाय की कोशिकाओं में रक्त में ऑक्सीजन स्तर को भांपने की क्षमता होती है। इस निकाय की खोज के साथ ही यह नोबेल सम्मानित खोज भी हुई थी कि ऑक्सीजन स्तर को भांपकर मस्तिष्क के ज़रिए श्वसन दर का नियमन यही कैरोटिड निकाय करता है। यानी यदि रक्त में ऑक्सीजन की कमी हो रही है और आपकी सांसें तेज़ चलने लगती हैं तो आपको कैरोटिड निकाय का शुक्रिया अदा करना चाहिए।

कैरोटिड निकाय तो पल-पल में होने वाले ऑक्सीजन के उतार-चढ़ाव को संभालता है। लेकिन यह भी देखा गया है कि यदि लगातार ऑक्सीजन का अभाव बना रहे तो शरीर में कुछ कार्यिकीय परिवर्तन भी होते हैं जो ज़्यादा दूरगामी असर दिखाते हैं।

ऑक्सीजन की कमी के प्रति ऐसी ही एक प्रमुख कार्यिकीय प्रतिक्रिया यह होती है कि शरीर में एक हारमोन एरिथ्रोपोएटीन (संक्षेप में ईपीओ) की मात्रा बढ़ने लगती है। इस हारमोन का उत्पादन हमारे गुर्दों या किडनी द्वारा किया जाता है। यह आम जानकारी का विषय नहीं रहा है कि गुर्दे रक्त को छानने के अलावा कई सारे हारमोन्स का उत्पादन भी करते हैं। यदि गुर्दे ठीक से काम नहीं करते तो एरिथ्रोपोएटीन का उत्पादन भी प्रभावित हो सकता है जो एक किस्म के एनीमिया को जन्म देता है जिसे रीनल एनीमिया कहते हैं। बढ़े हुए ईपीओ का असर यह होता कि हमारी अस्थि मज्जा ज़्यादा मात्रा में लाल रक्त कोशिकाएं बनाने लगती हैं। लाल रक्त कोशिकाएं ही ऑक्सीजन को शरीर की कोशिकाओं तक पहुंचाने का काम करती हैं। यानी यह पता चल गया कि ऑक्सीजन की कमी होने पर हारमोन के ज़रिए लाल रक्त कोशिकाओं के निर्माण का नियंत्रण होता है लेकिन यह गुत्थी बनी रही कि ऑक्सीजन इस प्रक्रिया का नियमन कैसे करती है।

यहीं पर इस साल के नोबेल विजेताओं की भूमिका शुरू होती है। इस संदर्भ में जॉन्स हॉपकिन्स चिकित्सा विश्वविद्यालय के ग्रेग सेमेन्ज़ा ने इस बात का अध्ययन किया कि ईपीओ संश्लेषण के लिए ज़िम्मेदार जीन (ईपीओ जीन) कैसे काम करता है और ऑक्सीजन का स्तर इसके कामकाज को कैसे प्रभावित करता है। उन्होंने इस अध्ययन के लिए ऐसे चूहों का उपयोग किया जिनके जीन्स में फेरबदल किया गया था। इन अध्ययनों से पता चला कि ईपीओ जीन के नज़दीक के डीएनए खंड ऑक्सीजन-अभाव के प्रति संवेदी होते हैं और ईपीओ जीन पर असर इन खंडों के माध्यम से होता है।

इसी दौरान पीटर रैटक्लिफ भी ईपीओ जीन की ऑक्सीजन-निर्भरता का अध्ययन कर रहे थे। रैटक्लिफ एक गुर्दा विशेषज्ञ हैं और अपना अध्ययन उन्होंने ऑक्सफोर्ड के जॉन रैडक्लिफ अस्पताल तथा ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के नफील्ड डिपार्टमेंट ऑफ क्लीनिकल मेडिसिन में किया था।

सेमेन्ज़ा और रैटक्लिफ दोनों ने पाया कि यह सही है कि सामान्यत: ईपीओ हारमोन गुर्दों में बनता है लेकिन ऑक्सीजन का स्तर भांपने की क्रियाविधि सिर्फ गुर्दों की कोशिकाओं में नहीं बल्कि लगभग सारे ऊतकों में पाई जाती है और कोशिकाओं की कई किस्मों में क्रियाशील होती है।

सेमेन्ज़ा चाहते थे कि यह समझ पाएं कि ऑक्सीजन के प्रति इस प्रतिक्रिया में कोशिका के कौन-से घटक शामिल हैं। लिहाज़ा उन्होंने कुछ लीवर कोशिकाओं को प्रयोगशाला में संवर्धित करके अध्ययन किया। उन्होंने एक प्रोटीन-संकुल खोज निकाला, जो ईपीओ के नज़दीक वाले डीएनए खंड के साथ ऑक्सीजन-निर्भर ढंग से जुड़ता है। यानी इस प्रोटीन संकुल का डीएनए से जुड़ना इस बात पर निर्भर करता है कि कोशिका में ऑक्सीजन का स्तर क्या है। सेमेन्ज़ा ने इस प्रोटीन-संकुल को एकदम उपयुक्त नाम दिया – हायपॉक्सिया-इंडयूसिबल फैक्टर यानी ऑक्सीजन-अभाव से प्रेरित कारक (एच.आई.एफ.)। सेमेन्ज़ा ने यह भी पता किया कि एच.आई.एफ. दरअसल दो ऐसे प्रोटीन से मिलकर बना है जो डीएनए से जुड़ते हैं – इनमें से एक को एच.आई.एफ.-1 अल्फा कहा गया जबकि दूसरे का नाम थोड़ा मुश्किल है – एराइल हाइड्रोकार्बन रिसेप्टर न्यूक्लियर ट्रांसलोकेटर। इसलिए इसका संक्षिप्त नाम ही मशहूर है – ए.आर.एन.टी.। तो स्पष्ट हुआ कि एच.आई.एफ.-1 अल्फा और ए.आर.एन.टी. का संकुल डीएनए से जुड़कर ईपीओ जीन को प्रभावित करता है और इस संकुल का डीएनए से जुड़ना ऑक्सीजन के स्तर पर निर्भर होता है।

इतना कुछ हो जाने के बाद यह समझने की शुरुआत हुई कि यह गोरखधंधा चलता कैसे है। इस संदर्भ में सबसे पहले तो यह पता चला कि जब ऑक्सीजन पर्याप्त मात्रा में होती है तो कोशिकाओं में एच.आई.एफ. की मात्रा बहुत कम होती है। लेकिन जैसे ही ऑक्सीजन की मात्रा घटने लगती है कोशिकाओं में एच.आई.एफ. की मात्रा बढ़ने लगती है। ऐसा होने पर यह डीएनए के खंड से जुड़ जाता है और ईपीओ जीन सक्रिय हो जाता है।

कई सारे शोध समूहों ने यह दर्शाया है कि सामान्य परिस्थिति कोशिकाओं में एच.आई.एफ. का विघटन काफी तेज़ी से होता है लेकिन ऑक्सीजन का अभाव हो तो किसी तरह से इसकी सुरक्षा की जाती है और यह कोशिका में काफी मात्रा में इकट्ठा हो जाता है। ऑक्सीजन का स्तर सामान्य हो तो एच.आई.एफ.-1 अल्फा को नष्ट करने का काम प्रोटिएसोम नामक मशीनरी द्वारा किया जाता है। होता यह है कि एक छोटा पेप्टाइड अणु (युबिक्विटीन) एच.आई.एफ.-1 अल्फा से जुड़ जाता है। युबिक्विटीन का काम ही यह है कि किसी प्रोटीन को विघटन के लिए चिंहित करना। तो प्रमुख सवाल यह हो गया कि युबिक्विटिन कब व कैसे एच.आई.एफ.-1 अल्फा से जुड़कर उसे विघटन के लिए चिंहित करता है।

इस सवाल का जवाब एक अनपेक्षित रुाोत से मिला। जहां सेमेन्ज़ा और रैटक्लिफ ईपीओ जीन की क्रिया के नियंत्रण की क्रियाविधि पर शोध कर रहे थे, वहीं विलियम काएलिन जूनियर एक सर्वथा अलग समस्या पर अनुसंधान में भिड़े थे – वॉन हिप्पेल-लिंडाओ (वीएचएल) रोग। यह एक आनुवंशिक रोग है जिसमें वीएचएल जीन में उत्परिवर्तन की वजह से कुछ किस्म के कैंसर का खतरा बहुत बढ़ जाता है। यह रोग परिवारों में चलता है। काएलिन ने दर्शाया कि सामान्य वीएचएल जीन एक प्रोटीन का कोड है, और इसके द्वारा बनाया गया प्रोटीन कैंसर को रोकता है। काएलिन ने यह भी स्पष्ट किया कि जिन लोगों में क्रियाशील वीएचएल जीन नहीं होता उनमें ऑक्सीजन के अभाव से नियंत्रित जीन्स बहुत अधिक मात्रा में अभिव्यक्त होते हैं। यानी ये वे जीन्स हैं जिनकी सक्रियता ऑक्सीजन की कमी होने पर बढ़ती है। उन्होंने यह देखा कि यदि इन कैंसर कोशिकाओं में सामान्य वीएचएल जीन प्रविष्ट करा दिया जाए, तो उक्त जीन्स की अभिव्यक्ति भी सामान्य स्तर पर आ जाती है।

इस खोज से लगा कि शायद वीएचएल जीन ऑक्सीजन के अभाव के प्रति कोशिकाओं की प्रतिक्रिया में शामिल है। आगे अन्य समूहों द्वारा किए गए अनुसंधान कार्य से पता चला कि वीएचएल वास्तव में युबिक्विटिन के साथ एक संकुल का हिस्सा होता है और यह संकुल किसी भी प्रोटीन को विघटन के लिए चिंहित करने का काम करता है। इस समय रैटक्लिफ ने यह महत्वपूर्ण खोज की कि वीएचएल वास्तव में एच.आई.एफ.-1 अल्फा के साथ भौतिक रूप से जुड़ता है और ऑक्सीजन के सामान्य स्तर पर आई.एच.एफ. के विघटन के लिए ज़रूरी होता है। यानी बात यह बनी कि वीएचएल और एच.आई.एफ. मिलकर काम करते हैं। ऑक्सीजन का स्तर सामान्य हो तो वीएचएल एच.आई.एफ. का विघटन करवा देता है। तब एच.आई.एफ.-ए.आर.एन.टी. संकुल डीएनए खंड से जुड़कर ईपीओ जीन को सक्रिय नहीं कर पाता।

अब शेष क्रियाविधि तो स्पष्ट हो चुकी थी मगर अभी भी यह देखना शेष था कि ऑक्सीजन की मात्रा द्वारा वीएचएल और एच.आई.एफ.-1 अल्फा की परस्पर क्रिया का नियंत्रण कैसे किया जाता है।

इस तलाश में मुख्य फोकस एच.आई.एफ.-1 अल्फा प्रोटीन के एक विशेष खंड पर रहा। यह खंड वीएचएल के ज़रिए विघटन के लिए ज़रूरी लगता था। रैटक्लिफ और काएलिन दोनों को लगता था कि ऑक्सीजन का संवेदी हिस्सा इसी प्रोटीन में कहीं है। उन्होंने पाया कि ऑक्सीजन के सामान्य स्तर पर एच.आई.एफ.-1 अल्फा के दो विशिष्ट स्थानों पर हायड्रॉक्सिल समूह जुड़ जाते हैं। प्रोटीन में इस परिवर्तन का परिणाम यह होता है कि वीएचएल अब एच.आई.एफ.-1 अल्फा को पहचानकर उससे जुड़ जाता है। जब वीएचएल जुड़ जाता है तो एच.आई.एफ. अणु विघटन के लिए चिंहित हो गया, उसका नष्ट होना अवश्यंभावी है। अर्थात ऑक्सीजन का सामान्य स्तर एच.आई.एफ. के विघटन के लिए ज़रूरी है। ऑक्सीजन कम हुई और इसका विघटन रुक जाता है, कोशिका में इसकी मात्रा बढ़ने लगती है, वह जाकर डीएनए के उपयुक्त खंडों से जुड़कर ईपीओ जीन को सक्रिय कर देता है।

तो इस तरह खुलासा हुआ कि कोशिकाएं ऑक्सीजन का स्तर भांपकर कैसे ऑक्सीजन के अभाव हेतु खुद को तैयार करती हैं। जैसे कड़ी मेहनत या भारी व्यायाम के समय मांसपेशियों में ऑक्सीजन की कमी हो जाती है तो वे कुछ समय के लिए अपना ढर्रा बदल देती हैं। यह भी देखा गया है कि यही प्रक्रिया नई रक्त नलिकाओं तथा अतिरिक्त मात्रा में लाल रक्त कोशिकाओं के निर्माण में भी काम आती है। भ्रूण के विकास में भी ऑक्सीजन स्तर भांपने की क्रिया महत्वपूर्ण पाई गई है। कैंसर कोशिकाएं इसी प्रक्रिया का लाभ उठाकर खुद के लिए रक्त नलिकाओं का निर्माण करती हैं। इस विषय में काफी उत्साह से शोध किया जा रहा है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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नया डॉन ट्यूमर को भूखा मार देता है

ट्यूमर ऊतक असामान्य कोशिकाओं का समूह होता है। ये कोशिकाएं खाऊ होती हैं और पोषक तत्वों को निगलकर विकसित होती रहती हैं। कई वर्षों से शोधकर्ता ऐसी दवा विकसित करने की कोशिश कर रहे हैं जिससे इन कोशिकाओं की भोजन की आपूर्ति को बंद किया जा सके। हाल ही में प्रकाशित एक अध्ययन के अनुसार एक असफल कैंसर दवा का एक अद्यतन संस्करण न केवल ट्यूमर को आवश्यक पोषक तत्वों के उपयोग से रोकता है बल्कि प्रतिरक्षा कोशिकाओं को भी प्रेरित करता है कि वे ट्यूमर को खत्म कर दें।    

कैंसर कोशिकाएं जीवित रहने और विभाजन के लिए न सिर्फ ज़रूरी अणु सोखती हैं, अपने खाऊ व्यवहार के चलते वे आसपास के परिवेश को अम्लीय और ऑक्सीजन-विहीन कर देती हैं। इसके चलते प्रतिरक्षा कोशिकाएं ठप पड़ जाती हैं और ट्यूमर को बढ़ने से रोकने में असफल रहती हैं। ट्यूमर को प्रचुर मात्रा में ग्लूटामाइन नामक एमिनो एसिड की आवश्यकता होती है जो डीएनए, प्रोटीन और लिपिड जैसे अणुओं के निर्माण के लिए ज़रूरी होता है।     

1950 के दशक में शोधकर्ताओं ने ट्यूमर की ग्लूटामाइन निर्भरता को उसी के खिलाफ तैनात करने की कोशिश की थी जिसके बाद इसके चयापचय को अवरुद्ध करने वाली दवा का विकास हुआ। उदाहरण के लिए बैक्टीरिया से उत्पन्न एक यौगिक (DON) कई ऐसे एंज़ाइम्स की क्रिया को रोक देता है जो कैंसर कोशिकाओं को ग्लूटामाइन का उपयोग करने में समर्थ बनाते हैं। परीक्षण के दौरान मितली और उलटी की गंभीर समस्या के कारण इसे मंज़ूरी नहीं मिल सकी थी।  

पॉवेल और उनकी टीम ने अब DON का एक ऐसा संस्करण तैयार किया है जो पेट के लिए हानिकारक नहीं है। इसमें दो ऐसे रासायनिक समूहों को जोड़ा गया है जो ट्यूमर के नज़दीक पहुंचने तक इसे निष्क्रिय रखते हैं। जब यह ट्यूमर के पास पहुंचता है तो वहां उपस्थित एंज़ाइम इन आणविक बेड़ियों को हटा देते हैं और दवा कैंसर कोशिकाओं पर हमला कर देती है।   

इस नई दवा का परीक्षण करने के लिए पॉवेल और उनकी टीम ने चूहों में चार प्रकार की कैंसर कोशिकाएं इंजेक्ट कीं। इसके बाद उन्होंने कुछ चूहों को नव विकसित DON का डोज़ दिया। साइंस में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार इस दवा ने चारों ट्यूमर के विरुद्ध कार्य किया। जिन चूहों को यह उपचार नहीं दिया गया था उनका ट्यूमर 3 सप्ताह में लगभग 5 गुना बढ़ गया जबकि DON उपचारित चूहों में ट्यूमर सिकुड़ता हुआ धीरे-धीरे खत्म हो गया। शोधकर्ताओं ने पाया कि यह दवा न केवल ग्लूटामाइन चयापचय को कम करती है बल्कि कोशिकाओं की ग्लूकोज़ के उपयोग करने की क्षमता को भी बाधित करती है। 

कैंसर औषधियों की एक बड़ी समस्या यह होती है कि ये प्रतिरक्षा कोशिकाओं तथा अन्य सामान्य कोशिकाओं को भी प्रभावित कर सकती हैं। लेकिन DON का नया संस्करण कैंसर कोशिकाओं को नष्ट करने के साथ-साथ प्रतिरक्षा तंत्र की टी-कोशिकाओं को उग्र भी बनाता है। DON द्वारा ग्लूटामाइन से वंचित टी-कोशिकाएं डीएनए और अन्य प्रमुख अणुओं को संश्लेषित करने के लिए वैकल्पिक रुाोत खोज लेती हैं जबकि ट्यूमर कोशिकाएं ऐसा नहीं कर पातीं।

पॉवेल का ऐसा मानना है कि जब इसका परीक्षण इंसानों पर किया जाएगा तब हम कुछ बेहतर भविष्य की उम्मीद कर सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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दो अरब लोग दृष्टि की दिक्कतों से पीड़ित हैं

विश्व दृष्टि दिवस के मौके पर आई विश्व स्वास्थ संगठन (WHO) की रिपोर्ट कहती है कि दुनिया भर में कम से कम 2.2 अरब लोग दृष्टि सम्बंधी समस्याओं से पीड़ित हैं। और इनमें से तकरीबन एक अरब लोग दृष्टि सम्बंधी ऐसी दिक्कतों (जैसे ग्लोकोमा, मोतियाबिंद, निकट और दूर-दृष्टिदोष) से पीड़ित हैं जिनसे या तो बचा जा सकता है, या चश्मा लगाकर, मोतियाबिंद का ऑपरेशन करवाकर या अन्य तरीकों से जिन्हें ठीक किया जा सकता है।

रिपोर्ट के अनुसार महिलाओं तथा कुछ अन्य आबादियों में दृष्टि सम्बंधी समस्याएं अधिक हैं। जैसे ग्रामीण इलाकों, वृद्धों, विकलांगों और निम्न और मध्यम आय वाले देशों में। रिपोर्ट के मुताबिक

  • निम्न और मध्यम आय वाले इलाकों में दूरदृष्टि दोष की समस्या उच्च आय वाले इलाकों से चार गुना अधिक हैं।
  • उप-सहारा अफ्रीका और दक्षिण एशिया के गरीब इलाकों के लोगों में अंधेपन की समस्या उच्च आमदनी वाले देशों से आठ गुना अधिक है।
  • मोतियाबिंद और बैक्टीरिया संक्रमण की समस्या निम्न और मध्यम आय वाले देशों की महिलाओं में अधिक हैं। यह अंधत्व का प्रमुख कारण है।
  • शहरी जीवन शैली में निकट-दृष्टि (मायोपिया यानी दूर का देखने में समस्या) अधिक दिखाई देती है।

रिपोर्ट दृष्टिदोष बढ़ने के कारणों के बारे में भी बात करती है। रिपोर्ट के अनुसार अक्सर राष्ट्रीय रोकथाम नीतियां और अन्य नेत्र सुरक्षा योजनाएं उन समस्याओं पर केन्द्रित होती हैं जिनके कारण अंधापन या गंभीर दृष्टि दोष हो सकते हैं, जैसे मोतियाबिंद, रोहे और अपवर्तन दोष। लेकिन जो समस्याएं गंभीर दृष्टि समस्याओं में तब्दील नहीं होतीं वे उपेक्षित ही रही हैं (जैसे आंखों में सूखापन, आंख आना) जबकि इन्हीं समस्याओं से बचाव और उपचार की लोगों को अधिक आवश्यकता पड़ती है। इसके अलावा –

  • अधिक समय कमरे या सीमित जगह में बिताने से या नज़दीक से देखने वाले कार्य करने से मायोपिया (निकट दृष्टि) की समस्या बढ़ी है। सुझाव है कि बाहर या खुले में समय बिताने से मायोपिया होने की संभावना को कम किया जा सकता है।
  • लोगों में बढ़ता मधुमेह खास (तौर से टाइप-2) दृष्टि सम्बंधी समस्याओं को जन्म देता है। मधुमेह से पीड़ित मरीज़ को कभी ना कभी किसी ना किसी स्तर की रेटिना विकृति की समस्या का सामना करना पड़ता है। आंखों की नियमित जांच और मधुमेह पर नियंत्रण से इसे कम किया जा सकता है।
  • कमज़ोर और घटिया स्वास्थ्य सेवाओं के कारण कई लोग आंखों की नियमित जांच से वंचित रह जाते हैं। इसलिए समस्या देर से पता चलती है और रोकथाम व उपचार मुश्किल हो जाते हैं।

संभावना है कि आने वाले वर्षों में विश्व की आबादी की उम्र बढ़ने के साथ, तथा अधिक लोगों के शहरों की ओर पलायन के साथ उपेक्षित दृष्टि समस्याओं की संख्या में भी वृद्धि होगी।

इस सम्बंध में रिपोर्ट सिफारिश करती है कि दृष्टि सम्बंधी देखभाल को प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा और राष्ट्रीय स्वास्थ्य कार्यक्रमों में शामिल किया जाना चाहिए। रिपोर्ट के मुताबिक उपेक्षित दृष्टि दोषों से बचाव या उपचार में तकरीबन 1400 अरब रुपए से अधिक निवेश की ज़रूरत होगी। (स्रोत फीचर्स)

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आंत के रसायन मस्तिष्क को नियंत्रित करते हैं

हाल ही में इस बात का अध्ययन किया गया कि चूहे डर पर कैसे काबू पाते हैं और इस अध्ययन ने उनकी आंत और दिमाग के बीच के रहस्यमय सम्बंध पर नई रोशनी डाली है।

इस शोध के लिए एक पारंपरिक पावलोवियन परीक्षण का उपयोग किया गया। इस परीक्षण में चूहे के पैर में बिजली झटका देते हुए उन्हें एक आवाज़ सुनाई जाती है। जल्द ही वे इस आवाज़ का सम्बंध दर्द से जोड़ना सीख जाते हैं। बाद में ऐसा शोर सुनते ही वे झटके से बचने की कोशिश करते हैं। लेकिन यह ज़्यादा समय तक नहीं चलता। यदि कई बार वह आवाज़ सुनाने के बाद झटका नहीं लगता तो वे इस सम्बंध को भूल जाते हैं। भूलने की यह प्रक्रिया इंसानों में भी महत्वपूर्ण होती है लेकिन सतत दुश्चिंता या हादसा-उपरांत तनाव समस्या से ग्रस्त व्यक्तियों में यह प्रक्रिया गड़बड़ा जाती है। 

वील कॉर्नेल मेडिसिन के सूक्ष्मजीव वैज्ञानिक डेविड आर्टिस ने सोचा कि कहीं सीखने और भूलने की इस प्रक्रिया में आंत के बैक्टीरिया की कोई भूमिका तो नहीं है। उनकी टीम ने कुछ चूहों को एंटीबायोटिक देकर आंत का सूक्ष्मजीव संसार (माइक्रोबायोम) पूरी तरह नष्ट कर दिया। इसके बाद उन्होंने कई बार शोर के साथ झटके दिए। नेचर में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार सभी चूहों ने शोर को दर्द से जोड़ना सीख लिया। वे सिर्फ वह शोर सुनकर सहम जाते थे। लेकिन यह जुड़ाव सदा के लिए नहीं रहा। सामान्य माइक्रोबायोम वाले चूहे अंतत: शोर और बिजली के झटके का सम्बंध भूल गए। तीन दिन के बाद ऐसे अधिकांश चूहों ने उस शोर पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी। दूसरी ओर, एंटीबायोटिक से उपचारित चूहे प्रतिक्रिया देते रहे। अर्थात सूक्ष्मजीव संसार से मुक्त चूहे उस शोर और बिजली के झटके के सम्बंध को भुला नहीं पाए थे।

इसके आगे के प्रयोगों में वैज्ञानिकों ने चूहों का विच्छेदन करके उनके मस्तिष्क की एक-एक कोशिका में जीन गतिविधि और कोशिका के आकार का अध्ययन किया। उन्होंने पाया कि सामान्य और एंटीबायोटिक उपचारित चूहों के मस्तिष्क के मीडियल प्रीफ्रंटल कॉर्टेक्स नामक हिस्से में अंतर हैं। इस भाग का सीखने और याद रखने वाला क्षेत्र इसमें महत्वपूर्ण पाया गया। शोधकर्ताओं की रिपोर्ट के अनुसार सीखने-भूलने की प्रक्रिया में प्रमुख भूमिका उत्तेजक तंत्रिकाओं की है। आंत के सूक्ष्मजीवों की अनुपस्थिति में ये तंत्रिकाएं सतह पर कांटे बनाने और वापिस सोखने में विफल रहीं। इन कांटों का बनना और सोखा जाना सीखने और भूलने की क्रिया की बुनियाद है।  

इसके अलावा टीम ने सूक्ष्मजीवों द्वारा उत्पादित चार ऐसे रसायनों की मात्रा में भी पर्याप्त बदलाव देखा जो मस्तिष्क के भय को भुलाने वाले हिस्से को सलामत रखते हैं। सूक्ष्मजीव रहित चूहों ने कम मात्रा में ये रसायन बनाए। डेविड के अनुसार इन चार में से दो रसायन तंत्रिका-मनोरोगों से जुड़े हैं। इससे लगता है कि इन रोगों का सम्बंध आंतों के सूक्ष्मजीवों से हो सकता है। अगला कदम यह सिद्ध करने का होगा कि वास्तव में ये रसायन चूहों के मस्तिष्क में बदलाव लाते हैं। यह देखना भी उपयोगी होगा कि इनमें से कौन से सूक्ष्मजीव इस समस्या के मूल में हैं। (स्रोत फीचर्स)

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