अस्पतालों में कला और स्वास्थ्य – डॉ. डी. बालसुब्रामण्यन

ई अस्पताल, खास तौर से निजी व कार्पोरेट अस्पताल, अपने प्रवेश कक्ष और मरीज़ों के प्रतीक्षा कक्षों में आकर्षक तस्वीरें और कलाकृतियां रखते हैं। अधिकांश लोग, और वास्तव में कई अस्पताल मालिक भी सोचते हैं कि यह उनके कलाप्रेम का ढिंढोरा पीटने जैसा है। इसके विपरीत, अधिकांश सार्वजनिक या सरकारी अस्पताल ऐसा कुछ नहीं करते और अपनी दीवारों को सूना छोड़ देते हैं या उन पर तमाम सूचनाएं चस्पा कर देते हैं। इन अस्पतालों के कमरे और गलियारे भद्दे लगते हैं। यह बात देश भर के अत्यंत प्रतिष्ठित चिकित्सा संस्थानों पर भी लागू होती है। इसे देखते हुए, यह बात आपको (और शायद इन निजी अस्पतालों के मालिकों को भी) आश्चर्यजनक लगेगी कि अस्पतालों में मरीज़ों के प्रतीक्षा कक्षों और वाड्र्स में कलाकृतियों का प्रदर्शन मरीज़ों, डॉक्टरों, नर्सों और देखभाल करने वाले लोगों के लिए अच्छा होता है।

डेनमार्क के शोधकर्ताओं एस. एल. नीलसन व साथियों द्वारा इंटरनेशनल जर्नल ऑफ क्वालिटेटिव स्टडीज़ ऑन हेल्थ एंड वेलबीइंग में प्रकाशित पर्चे ‘मरीज़ अस्पतालों में कला को कैसे महसूस करते हैं और उसका उपयोग करते है?’ में बताया गया था कि कैसे इससे मरीज़ों को सुलभता और देख-रेख का एहसास होता है। इस रिपोर्ट को कई जगह उद्धरित किया जाता है।

शोधकर्ताओं ने एक साझा देखभाल कक्ष में रखे गए मरीज़ों का कई सप्ताह तक अध्ययन किया था। पहले सप्ताह में कक्ष की दीवारें खाली और सूनी थीं। हर मरीज़ अपनी ही चिकित्सकीय हालत (तकलीफ) में डूबा था। मरीज़ कक्ष में किसी और से बात भी नहीं करते थे।

आठवें दिन देखभाल कक्ष की दीवारों पर कलाकृतियां – पेंटिंग, तस्वीरें, फोटोग्राफ्स – लगा दी गर्इं। अधिकांश मरीज़ों ने इन्हें देखा और इनका अध्ययन किया। पहले की आत्म-केंद्रिकता से उनका ध्यान बंटा और वे इन चीज़ों का विश्लेषण करने लगे और अपने ढंग से उनकी व्याख्या करने लगे। वे कक्ष के अन्य लोगों से बातचीत करने लगे और दोस्तियां बनार्इं, गैर-चिकित्सकीय विषयों पर चर्चा करने लगे, नुक्ताचीनी करने लगे और मेलजोल बढ़ा। यह भी देखा गया कि मरीज़ नर्सों, डॉक्टरों और देखभाल करने वाले अन्य लोगों की बातें ज़्यादा ध्यान से सुनने लगे और उनका उपचार बेहतर होता गया।

शोधकर्ताओं का निष्कर्ष है कि कला एक ऐसा माहौल पैदा करती है जहां मरीज़ सुरक्षित महसूस करते हैं, मेलजोल बढ़ाते हैं और अस्पताल की चारदीवारी से बाहर की दुनिया से जुड़ते हैं। यह उनकी पहचान को भी सहारा देता है। कुल मिलाकर अस्पताल में दृश्य कला स्वास्थ्य सम्बंधी परिणामों में सुधार करती है। अपेक्षा तो यह की जानी चाहिए कि यह बात खास तौर से आईसीयू में बंद मरीज़ों पर ज़्यादा लागू होगी क्योंकि वहां तो पूरा परिवेश चिकित्सा उपकरणों से भरा होता है।

देखा जाए, तो यह अध्ययन युरोपीय समाज में किया गया था। क्या इसके परिणाम भारत के सार्वजनिक और सरकारी अस्पतालों के लिए भी सही होंगे? कोई कारण नहीं कि ऐसा नहीं होगा लेकिन इसका नियोजन व रणनीति स्थानीय परिस्थितियों के अनुरूप होनी चाहिए। लोग तो लोग होते हैं: वे बातचीत करना चाहते हैं, वे चाहते हैं कि उन पर ध्यान दिया जाए, सिर्फ चिकित्सकीय ध्यान नहीं बल्कि व्यक्तियों के रूप में ध्यान दिया जाए।

इसके लिए डिज़ाइनर्स, समाज वैज्ञानिकों और संवेदनशील कलाकारों को डॉक्टरों के साथ मिलकर उपलब्ध जगह के आधार पर कलाकृतियों का चयन करना होगा। मरीज़ों के लिए उपलब्ध जगह और भीड़भाड़, काम के बोझ से दबे डॉक्टर्स और देखभालकर्ता, स्थानीय संस्कृति तथा अन्य कारकों का ध्यान रखना होगा। लेकिन यह किया जा सकता है। और यह किया जाना चाहिए क्योंकि जैसा कि ऊपर कहा गया था, कला स्वास्थ्य सम्बंधी परिणामों में योगदान देती है और इसे स्वास्थ्य देखभाल का ही एक विस्तार माना जाना चाहिए।

सवाल यह है कि क्या अस्पताल में कला डॉक्टरों और नर्सों की मदद करती है? कलाकृतियों को देखकर वे क्या सीख सकते हैं? क्या इससे उन्हें बेहतर पेशेवर बनने में मदद मिलती है? दरअसल ऐसा ही है। एन स्लोअन डेवलिन की पुस्तक Transforming the Doctor’s office: Principles from Evidence-Based Design (डॉक्टर के दफ्तर में तबदीली: प्रमाण-आधारित डिज़ाइन से कुछ सिद्धांत) में कुछ सुराग मिलते हैं। और डॉक्टर रॉबर्ट ग्लैटर का आलेख Can studying art help medical students become better doctors? (क्या कला का अध्ययन चिकित्सा छात्रों को बेहतर डॉक्टर बनने में मदद करता है?) इस बात के पक्ष में पुख्ता तर्क पेश करता है कि चिकित्सा विद्यार्थियों के लिए ग्रे की एनाटॉमी से आगे जाकर कला का पाठ¬क्रम रखा जाना चाहिए। और वास्तव में कुछ चिकित्सा अध्ययन शालाओं में ऐसा कोर्स जोड़ा गया है और नौजवान छात्रों ने इसे पसंद भी किया है और उन्हें लगता है कि इससे उनकी नैदानिक कुशलता बेहतर हुई है। एक छात्र का कहना था: “अब तक मैं चित्र के मध्य भाग को मुख्य हिस्सा मानकर चल रहा था, लेकिन मुझे समझ में आया है कि हाशियों पर जानकारी का खजाना है।”

तो, हमारे मेडिकल कॉलेज इसे आज़मा सकते हैं और समय-समय पर कलाकारों को आमंत्रित करके उनसे अपनी कला के बारे में बात करने को कह सकते हैं और छात्रों से उनकी प्रतिक्रिया बताने को कहा जा सकता है। समय-समय पर ऐसे सम्मेलन, चाहे वे पाठ¬क्रम का हिस्सा न हों, दिमाग को विस्तार देंगे और मशीनों से मिलने वाले चित्रों की व्याख्या करने और उनसे और अधिक जानकारी प्राप्त करने में मददगार होंगे। हैदराबाद के एक निजी मेडिकल कॉलेज ने अपने चिकित्सा व शोध सदस्यों तथा डॉक्टरों के लिए इस पर अमल भी किया है। कॉलेज ने मरीज़ों के प्रतीक्षा कक्ष में, हर मंज़िल की दीवारों पर, बच्चों के देखभाल केंद्र में, दृष्टि सहायता चिकित्सालयों में पेंटिंग्स व अन्य कलाकृतियां रखी हैं। इस प्रकार से उन्होंने डेनमार्क के समूह द्वारा 2017 में सुझाए गए उपायों को अपनाया है। अस्पताल ने एक पूरी मंज़िल का बड़ा हिस्सा तो कला दीर्घा को समर्पित कर दिया है यहां कलाकारों, संगीतज्ञों, लेखकों, गैर-सरकारी संगठनों और अन्य विद्वानों को व्याख्यान देने तथा डॉक्टरों व वैज्ञानिकों के अलावा आम नागरिकों से भी बातचीत करने हेतु आमंत्रित किया जाता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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नया कोरोनावायरस और सामान्य फ्लू

या कोरोनावायरस कुछ समय से विश्व भर में सुर्खियों में छाया है, लेकिन एक ऐसा वायरस संक्रमण भी है जो कई देशों में फैला हुआ है जिसे हम मौसमी फ्लू कहते हैं। तो इनकी तुलना करना उपयोगी होगा।

इस नए कोरोनावायरस को अब नाम मिल गया है – COVID-19। इससे अब तक चीन में 427 लोगों की मौत हो चुकी है जबकि 20,000 लोग बीमार हैं। लेकिन यह संख्या मौसमी फ्लू की तुलना में कुछ भी नहीं है। यूएस के सेंटर्स फॉर डिसीज़ कंट्रोल एंड प्रिवेंशन (सीडीसी) के अनुसार अमेरिका में इस मौसम में फ्लू के कारण 10,000 लोगों की मौत हो चुकी है और लगभग 2 करोड़ लोग इससे संक्रमित हुए हैं। इनमें से 1.8 लाख लोग इलाज के लिए अस्पताल में भर्ती किए गए हैं। 

वैज्ञानिक कई दशकों से मौसमी फ्लू का अध्ययन कर रहे हैं, इसलिए इसके बारे में काफी जानकारी है और हम यह तय कर पाते हैं कि आने वाले मौसम में हमें क्या करना है। लेकिन इसके विपरीत COVID-19 एक नए प्रकार का वायरस है। वैज्ञानिक COVID-19 को अच्छी तरह से जानने और समझने की कोशिश कर रहे हैं। उपलब्ध जानकारी के आधार पर नए कोरोनावायरस की तुलना फ्लू से की गई है।    

दोनों ही प्रकार के वायरस संक्रामक हैं जो श्वसन सम्बंधी बीमारी को जन्म देते हैं। साधारण फ्लू के लक्षण बुखार, खांसी, गले में खराश, मांसपेशियों में दर्द, सिरदर्द, बंद नाक, थकान और कभी-कभी उल्टी और अतिसार वगैरह होते हैं। वैसे तो फ्लू से ग्रस्त अधिकांश लोग दो सप्ताह से भी कम समय में ठीक हो जाते हैं लेकिन कुछ लोगों में फ्लू निमोनिया का रूप लेकर काफी जटिल हो जाता है।

COVID-19 के लक्षणों और गंभीरता को समझने की कोशिश जारी है। चूंकि इसके अधिकतर लक्षण मौसमी फ्लू से मिलते-जुलते हैं, इसको विभिन्न श्वसन सम्बंधी वायरसों से अलग करना काफी मुश्किल है। 100 लोगों पर किए गए एक अध्ययन में बुखार, खांसी और सांस लेने में तकलीफ जैसे लक्षण पाए गए थे। केवल 5 प्रतिशत लोगों में गले की खराश और बंद नाक के लक्षण पाए गए, 1-2 प्रतिशत लोगों में अतिसार और उल्टी जैसे लक्षण पाए गए। WHO के अनुसार चीन में 20,000 दर्ज मामलों में से 14 प्रतिशत लोगों की स्थिति को गंभीर माना गया है।        

सीडीसी के अनुसार अमेरिका में इस वर्ष फ्लू ग्रस्त लोगों में से 0.05 प्रतिशत लोगों की मौत हुई है। जबकि COVID-19 के कारण मृत्यु दर अभी भी स्पष्ट नहीं है, फिर भी फ्लू की तुलना में यह अधिक प्रतीत होती है। इसकी शुरुआत से लेकर अब तक के आंकड़ों के अनुसार लगभग 2 प्रतिशत की मृत्यु दर दर्ज की गई है। 

वायरस फैलने की तेज़ी को मापने के लिए वैज्ञानिक यह देखते हैं कि औसतन कोई व्यक्ति कितनों को संक्रमित करता है। दी न्यू यॉर्क टाइम्स के अनुसार फ्लू के लिए यह संख्या 1.3 है। न्यू इंग्लैंड जर्नल ऑफ मेडिसिन के अनुसार COVID-19 के लिए यह संख्या 2.2 है (यानि एक संक्रमित व्यक्ति से 2.2 लोगों में यह वायरस फैलता है)।   फिलहाल श्वसन सम्बंधी वायरस से बचने के लिए कुछ सुझाव दिए गए हैं: पानी और साबुन से कम से कम 20 सेकंड तक हाथ धोना, बिना धुले हाथों से नाक और आंखों को छूने से बचना, जो लोग बीमार हैं उनसे निकट संपर्क से बचना। इसके अलावा बीमार होने पर घर पर रहना तथा अक्सर उपयोग होने वाली चीज़ों को साफ रखना भी महत्वपूर्ण है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पोषण कार्यक्रमों की कितनी पहुंच है ज़रूरतमंदों तक – भारत डोगरा

कुपोषण व अल्प-पोषण की समस्या को देखते हुए भारत में पोषण योजनाओं व अभियानों का विशेष महत्व है। इस संदर्भ में भारत सरकार का हाल का बहुचर्चित कार्यक्रम ‘पोषण अभियान’ है। इस अभियान के अंतर्गत वित्तीय संसाधनों का आवंटन तो काफी हद तक उम्मीद के अनुरूप हुआ है, पर वास्तविक उपयोग में काफी कमी के कारण इसका समुचित लाभ प्राप्त नहीं हो पा रहा है।

एकाउंटेबिलिटी इनिशिएटिव (सेंटर फॉर पालिसी रिसर्च) के एक आकलन के अनुसार वित्तीय वर्ष 2017-18 से 2019-20 वित्तीय वर्ष में 30 नवंबर तक, इस कार्यक्रम के लिए जारी किया गया मात्र 34 प्रतिशत धन वास्तव में खर्च हुआ। इस अभियान में नई दिशा दिखाने वाली सफल प्रयोगात्मक परियोजनाओं के लिए विशेष अनुदान का प्रावधान है। इसका उपयोग 30 नवंबर 2019 तक मात्र 12 राज्यों में ही हो सका। वित्तीय वर्ष 2019-20 में नवंबर तक इस अभियान के लिए 15 राज्यों में कोई धन रिलीज़ ही नहीं हुआ।

इस अभियान के बारे में यह भी समझना ज़रूरी है कि इसमें सूचना तकनीक, स्मार्टफोन खरीदने, सॉफ्टवेयर, मॉनीटरिंग, व्यवहार में बदलाव सम्बंधी आयोजनों आदि पर अधिक खर्च होता है और एकाउंटिबिलिटी इनिशिएटिव के अनुसार 72 प्रतिशत खर्च ऐसे मदों पर है। यह बताना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि पोषण अभियान से लोग यही समझते हैं कि इसके अंतर्गत अधिकतर धन का उपयोग भूख व कुपोषण से पीड़ित लोगों व बच्चों के लिए पौष्टिक भोजन की व्यवस्था करने में खर्च होता है।

इस कार्यक्रम के लिए धन भारत सरकार के अतिरिक्त राज्यों व केन्द्र शासित प्रदेशों से आता है और विश्व बैंक व बहुपक्षीय बैंक अंतर्राष्ट्रीय सहायता भी उपलब्ध करवाते हैं।

बच्चों के लिए पोषण का सबसे बड़ा कार्यक्रम आई.सी.डी.एस. (आंगनवाड़ी) है। इस कार्यक्रम पर वर्ष 2014-15 में 16,664 करोड़ रुपए खर्च हुए थे व 2019-20 का संशोधित अनुमान 17,705 करोड़ रुपए है। अर्थात महंगाई का असर कवर करने लायक भी वृद्धि नहीं हुई है जबकि 5 वर्षों में इसके कवरेज में आने वाले बच्चों की संख्या तो निश्चय ही काफी बढ़ी है।

वर्ष 2019-20 में इसके लिए बजट अनुमान 19,834 करोड़ रुपए था व वर्ष 2020-21 का बजट अनुमान 20,532 करोड़ रुपए है, जिससे पता चलता है कि बहुत मामूली वृद्धि है जो महंगाई के असर की मुश्किल से पूर्ति करेगी।

इतना ही नहीं, वर्ष 2019-20 में इस स्कीम के लिए मूल आवंटन तो 19,834 करोड़ रुपए का था, पर संशोधित अनुमान तैयार करते समय ही इसे 17,705 करोड़ रुपए पर समेट दिया गया था यानि 2129 करोड़ रुपए की कटौती इस पोषण के कार्यक्रम में की गई जो बहुत चिंताजनक है।

इसी तरह किशोरी बालिकाओं के स्वास्थ्य व पोषण की स्कीम ‘सबला’ के लिए 2019-20 के मूल बजट में 300 करोड़ रुपए का प्रावधान था जिसे संशोधित बजट में मात्र 150 करोड़ रुपए कर दिया गया यानी इसे आधा कर दिया गया। वर्ष 2020-21 के बजट में 250 करोड़ रुपए का प्रावधान है।

प्रधानमंत्री मातृ वंदना योजना को सरकार ने स्वयं विशेष महत्व की योजना माना है। किंतु वर्ष 2018-19 के बजट में इसके लिए जो मूल प्रावधान था, वास्तव में उसका मात्र 44 प्रतिशत ही खर्च किया गया। ज़्यां ड्रेज़ और रीतिका खेरा के एक अध्ययन में बताया गया है कि इस योजना के लिए योग्य मानी जाने वाली मात्र 51 प्रतिशत माताओं तक ही इसका लाभ पहुंच सका। जिनको लाभ मिला उनमें से मात्र 61 प्रतिशत को तयशुदा तीनों किश्तें प्राप्त हो सकीं (कुल 5000 रुपए)।

वर्ष 2019-20 में इस योजना के लिए 2500 करोड़ रुपए का मूल प्रावधान था। इसे संशोधित अनुमान में 2300 करोड़ रुपए कर दिया गया।

स्कूली बच्चों के लिए मिड-डे मील का कार्यक्रम महत्वपूर्ण है। इस पर वर्ष 2014-15 में वास्तविक खर्च 10,523 करोड़ रुपए था। वर्ष 2019-20 का इस कार्यक्रम का संशोधित अनुमान 9,912 करोड़ रुपए है यानि 5 वर्ष पहले के बजट से भी कम, जबकि महंगाई कितनी बढ़ गई है।

वर्ष 2019-20 के बजट में इस कार्यक्रम का मूल प्रावधान 11,000 करोड़ रुपए का था, पर संशोधित अनुमान में इसे 9,912 करोड़ रुपए कर दिया गया। वर्ष 2020-21 के बजट में फिर 11,000 करोड़ रुपए का प्रावधान है।

इस तरह पोषण कार्यक्रमों पर कम आवंटन, बड़ी कटौतियों, समय पर फंड जारी न होने आदि का प्रतिकूल असर पड़ता रहा है। इस स्थिति को सुधारना आवश्यक है। (स्रोत फीचर्स)

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कोरोनावायरस: क्या कर सकते हैं वैज्ञानिक? – डॉ. सुशील जोशी

पिछले दिनों कोरोनावायरस सुर्खियों में रहा है। चीन के समुद्री खाद्य पदार्थों के बाज़ार वुहान से निकला यह वायरस एक आतंक का पर्याय-सा बन गया है। शुरू-शुरू में इसे अस्थायी नाम 2019- nCoV दिया गया था लेकिन अब इसे एक स्थायी नाम भी मिल गया है – COVID-19।

इसके संक्रमण से लगभग फ्लू जैसे लक्षण पैदा होते हैं – बुखार, खांसी, जुकाम, थकान, और कभी-कभी उल्टी-दस्त हालांकि COVID-19 कुछ ही मरीज़ों में नाक बहना तथा और भी कम मरीज़ों में उल्टी-दस्त की शिकायत रिपोर्ट हुई है। साधारण फ्लू और COVID-19, दोनों ही मामलों में मृत्यु की भी आशंका रहती है।

COVID-19 वायरस मनुष्य से मनुष्य में फैलता है। फ्लू वायरस के बारे में कहा जाता है कि यदि रोकथाम के कोई उपाय (जैसे मास्क लगाना वगैरह न किए जाएं) तो कोई भी फ्लू संक्रमित व्यक्ति औसतन 1.3 व्यक्तियों तक यह वायरस पहुंचा पाता है। यानी यदि 100 लोग फ्लू वायरस से संक्रमित हैं तो वे 130 लोगों को संक्रमित कर देंगे। COVID-19 के बारे में एक अनुमान है कि 100 संक्रमित व्यक्ति 220 लोगों को यह संक्रमण संचारित करेंगे। वैसे इन सब मामलों में मुख्य दिक्कत यह है कि COVID-19 एक नया वायरस है और इसके बारे में अनुमान दिन-ब-दिन बदलते जाएंगे। अभी तो विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसे अंतर्राष्ट्रीय चिंता का स्वास्थ्य संकट घोषित किया है।

इसी नवीनता की वजह से वैज्ञानिक अभी असमंजस में हैं कि COVID-19 से निपटने के सबसे कारगर तरीके क्या होंगे। इसलिए फिलहाल मोटे तौर पर यही सलाह दी जा रही है कि लोगों से ज़्यादा निकट संपर्क से बचें, खांसते-छींकते समय मुंह और नाक को ढंककर रखें, पास में कोई खांसता-छींकता हो, तो अपनी नाक पर कपड़ा रख लें, हाथों को बार-बार धोएं वगैरह।

COVID-19 की प्रमुख चुनौती उसकी नवीनता है। उदाहरण के लिए जहां फ्लू के खिलाफ टीका उपलब्ध है (जो रोकथाम का एक प्रमुख उपाय है), वहीं COVID-19 के खिलाफ हमारे पास फिलहाल कोई टीका नहीं है। लेकिन यूएस नेशनल इंस्टीट्यूट ऑॅफ हेल्थ के शोधकर्ता COVID-19 के खिलाफ टीका विकसित करने की दिशा में काम कर रहे हैं और उम्मीद है कि तीन महीने के अंदर टीके का परीक्षण शुरू हो जाएगा।

इलाज के उपाय

अब तक हमारे पास COVID-19 का कोई विशिष्ट इलाज नहीं है। अत: फिलहाल लक्षणों का ही इलाज किया जा रहा है। इसका मतलब यही है कि मरीज़ को सांस लेने में सहायता मिले, बुखार पर नियंत्रण रखा जाए और पर्याप्त तरल शरीर में पहुंचाए जाएं। फिर भी विशेषज्ञों ने कुछ उपाय सुझाए हैं और कुछ प्रगति की है। इस मामले में दो रास्ते अपनाए जा रहे हैं।

पहला रास्ता है कि पुरानी वायरस-रोधी दवाइयों को COVID-19 के उपचार में इस्तेमाल करने की कोशिश करना। वैसे भी अभी हाल तक हमारे पास सचमुच कारगर वायरस-रोधी दवाइयां बहुत कम थीं। खास तौर से ऐसे वायरसों के खिलाफ औषधियों की बहुत कमी थी जो जेनेटिक सामग्री के रूप में डीएनए की बजाय आरएनए का उपयोग करते हैं, जिन्हें रिट्रोवायरस कहते हैं। कोरोनावायरस इसी किस्म का वायरस हैं। और COVID-19 तो एक नया वायरस या किसी पुराने वायरस की नई किस्म है। लेकिन हाल के वर्षों में अनुसंधान की बदौलत हमारे वायरस-रोधी खज़ाने में काफी वृद्धि हुई है।

लेकिन फिर भी सर्वथा नई दवा का निर्माण करना कोई आसान काम नहीं है। इसके लिए पैसा और समय दोनों की ज़रूरत होती है। तो यह तरीका ठीक ही लगता है कि नई दवा का इन्तज़ार करते हुए पुरानी दवाओं को आज़माया जाए।

दी न्यू इंगलैंड जर्नल ऑफ मेडिसिन में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक वॉशिंगटन में COVID-19 से संक्रमित एक व्यक्ति के उपचार के लिए वायरस-रोधी औषधि रेमडेसिविर का उपयोग किया गया। यह दवा मूलत: एबोला वायरस के उपचार के लिए विकसित की गई थी और इसे COVID-19 के संदर्भ में मंज़ूरी नहीं मिली है। विशेष मंज़ूरी लेकर यह दवा दी गई और वह व्यक्ति स्वस्थ हो गया।

वैज्ञानिकों ने रेमडेसिविर को प्रयोगशाला में जंतु मॉडल्स में अन्य कोरोनावारस के खिलाफ भी परखा है। लेकिन यह नहीं दर्शाया जा सका है कि यह दवा सुरक्षित है और न ही यह कहा जा सकता है कि यह कारगर है।

हाल ही में कुछ शोधकर्ताओं ने प्रयोगशाला में कई सारी वायरस-रोधी दवाइयों का परीक्षण COVID-19 पर किया है। यह पता चला है कि रेमडेसिविर कम से कम प्रयोगशाला की तश्तरी में तो इस वायरस को प्रजनन करने से रोक देती है। इसी प्रकार से यह भी पता चला है कि आम मलेरिया-रोधी औषधि क्लोरोक्वीन प्रयोगशाला में COVID-19 को मानव कोशिकाओं में आगे बढ़ने से रोकती है। ऐसा माना जा रहा है कि ये दोनों दवाइयां आगे परीक्षण के लिए उपयुक्त उम्मीदवार हैं।

जहां तक नई दवा खोजने का सवाल है, तो कुछ प्रगति तो हुई है लेकिन इसमें कई दिक्कतें हैं। जब कोई वायरस शरीर में प्रवेश करता है तो उसे कोशिकाओं के अंदर पहुंचना पड़ता है। कोशिकाओं में प्रवेश पाने के लिए वह कोशिका की सतह पर किसी प्रोटीन से जुड़ता है। यह प्रोटीन ग्राही-प्रोटीन कहलाता है। इसके बाद कोशिका की झिल्ली पर एक थैली-सी (एंडोसोम) बनती है जिसमें समाकर वायरस कोशिका के अंदर पहुंच जाता है। इसी थैली में बैठे-बैठे वायरस अपना आरएनए कोशिका के कोशिका द्रव्य में पहुंचा देता है। इसके बाद इस आरएनए की मदद से वायरस कोशिका पर पूरा कब्जा कर लेता है और उससे वह वायरस प्रोटीन बनवाता है जो खुद उसकी प्रतिलिपि बनाने के लिए ज़रूरी होते हैं। इस प्रोटीन का उपयोग करके वह अपने एंज़ाइम की मदद से अपने आरएनए की प्रतिलिपियां बना लेता है। अंत में प्रोटीन और आरएनए इस तरह पैकेज होते हैं कि वायरस उस कोशिका से बाहर निकलकर किसी अन्य कोशिका में घुसने को तैयार हो जाता है।

कुल मिलाकर देखा जाए तो पूरी प्रक्रिया में कई चरण होते हैं और हम इनमें से किसी भी चरण में बाधा पहुंचाकर वायरस का प्रसार रोक सकते हैं। उदाहरण के लिए क्लोरोक्वीन के बारे में पता चला है कि वह वायरस को एंडोसोम में से अपना आरएनए बाहर भेजने से रोकती है। दूसरी ओर, रेमडेसिविर वायरस के आरएनए से जुड़ जाती है और वहां ऐसी त्रुटियां पैदा कर देती है कि आरएनए किसी काम का नहीं रहता।

2003 के सार्स प्रकोप के समय वायरस के लिए स्वीकृत एक दवा का उपयोग किया गया था। दरअसल यह दवाइयों का एक समूह है जिसे प्रोटिएस इनहिबिटर कहते हैं। इसे अब COVID-19 के खिलाफ इस्तेमाल करने के लिए परीक्षण चल रहे हैं।

चीन सरकार ने इसी समूह की दो अन्य दवाइयों के उपयोग का सुझाव दिया था। सुझाव था कि COVID-19 से संक्रमित व्यक्तियों को रोज़ाना लोपिनेविर/राइटोनेविर की दो गोलियां दी जाएं और उन्हें दिन में दो बार अल्फा-इंटरफेरॉन सूंघने को कहा जाए। ये दवाइयां कोशिकाओं को ऐसे रसायन स्रावित करने को उकसाती हैं जो अन्य कोशिकाओं के लिए चेतावनी का काम करते हैं कि शरीर में कोई संक्रमण मौजूद है।

वायरसों के साथ दो समस्याएं और भी हैं। पहली है कि वायरस में बहुत विविधता पाई जाती है। दूसरी दिक्कत है कि वायरस आपकी अपनी कोशिका की मशीनरी का उपयोग करते हैं। इस वजह से वायरस के कामकाज में बाधा डालते हुए खतरा यह भी रहता है कि कहीं आपकी कोशिकीय मशीनरी प्रभावित न हो। इस मामले में अनुसंधान ज़ोर-शोर से जारी है कि कोशिका की सतह के उन अणुओं की पहचान की जाए जो COVID-19 को कोशिका से जुड़ने और प्रवेश करने में मदद करते हैं। वैसे कई अन्य समूह COVID-19 के लिए टीका बनाने का प्रयास भी कर रहे हैं। एक अनुमान के मुताबिक ऐसी किसी दवा के विकास में कम से कम दो साल का समय लगेगा।

इस बीच भारत सरकार के आयुष मंत्रालय ने 29 जनवरी को एक स्वास्थ्य सलाह जारी की है जिसमें COVID-19 के उपचार हेतु होम्योपैथी तथा अन्य पारंपरिक औषधियों के उपयोग की वकालत की गई है। इसके अंतर्गत होम्योपैथी औषधि आर्सेनिकम एल्बम 30-सी लेने तथा रोज़ाना सुबह दोनों नथुनों में 2-2 बूंद तिल का तेल डालने को कहा गया है। इसके अलावा, यूनानी औषधियों के उपयोग की भी सलाह दी गई है। आयुष मंत्रालय की केंद्रीय होम्योपैथी अनुसंधान परिषद (सीसीआरएच) के अध्यक्ष अनिल खुराना का कहना है कि 2009 में आर्सेनिकम एल्बम 30-सी को स्वाइन फ्लू की रोकथाम में उपयोगी पाया गया था। वैसे उन्होंने यह भी स्पष्ट किया है कि मात्र आर्सेनिकम एल्बम लेने से काम नहीं चलेगा, बाकी के रोकथाम के उपाय जारी रखने होंगे और लक्षण प्रकट होते ही अस्पताल जाना बेहतर होगा। वैसे चिकित्सा समुदाय के कई लोगों ने इस सलाह की आलोचना की है।

कुल मिलाकर स्थिति यह है कि COVID-19 तेज़ी से फैल रहा है, कोई पक्का इलाज उपलब्ध नहीं है और यह भी स्पष्ट नहीं है कि आने वाले दिनों में यह बीमारी क्या रुख अख्तियार करेगी। अत: इसे फैलने से रोकने के उपाय करना ही बेहतर होगा। एक अच्छी बात यह है कि बीमारी के लक्षण वाले व्यक्तियों में बच्चों की संख्या कम है। आंकड़े बताते हैं कि अधिकांश मरीज़ 49 से 56 वर्ष के बीच हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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नया कोरोना वायरस कहां से आया?

ज चीन सहित दुनिया में एक नया कोरोना वायरस तेज़ी से फैल रहा है। वैज्ञानिक इस नए वायरस का स्रोत का पता लगाने की कोशिश कर रहे हैं। हाल ही में किए गए एक अध्ययन के अनुसार इस वायरस के स्रोत के बारे में कुछ सुराग प्राप्त हुए हैं। दी लैंसेट में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार शोधकर्ताओं ने चीन में नौ संक्रमित लोगों से प्राप्त इस नए वायरस (2019-nCoV) के 10 जीनोम अनुक्रमों का विश्लेषण किया।   

अध्ययन में पाया गया कि सभी 10 जीनोम अनुक्रम एकदम समान थे। चूंकि वायरस काफी तेज़ी से उत्परिवर्तित और विकसित होते हैं, और यदि यह वायरस मानव शरीर में काफी समय से होता तो अनुक्रमों में भिन्नता होती। लेकिन इस शोधपत्र के सह-लेखक और युनिवर्सिटी ऑफ शैनडांग प्रॉविंस के प्रोफेसर वीफेंग शी के अनुसार इन अनुक्रमों में 99.98 प्रतिशत समानता पाई गई। इससे पता चलता है कि मानव शरीर में इस वायरस ने हाल ही में प्रवेश किया है।

मनुष्यों में हाल ही में उभरने के बावजूद यह वायरस अभी तक हज़ारों लोगों को संक्रमित कर चुका है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के आंकड़ों के अनुसार यह चीन सहित 15 अन्य देशों में फैल चुका है और चीन में इससे अब तक 700 से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है। इसके शुरुआती मामले चीन के वुहान शहर स्थित हुआनन सीफूड बाज़ार के संपर्क में रहे लोगों में पाए गए, जहां कई तरह के जंगली जीव बेचे जाते हैं।  

वायरस के मूल स्रोत के बारे में जानने के लिए शोधकर्ताओं ने 2019-nCoV के जेनेटिक अनुक्रमों की तुलना जीनोम संग्रहालय में उपलब्ध कोरोना वायरस से की। जो दो वायरस 2019-nCoV सबसे नज़दीक पाए गए वे चमगादड़ से उत्पन्न हुए थे। इन दोनों वायरसों के आनुवंशिक अनुक्रम का 88 प्रतिशत हिस्सा 2019-nCoV से मेल खाता है।

इन परिणामों के आधार पर शोधकर्ता चमगादड़ को इसकी उत्पत्ति का संभावित स्रोत कह रहे हैं। चूंकि हुआनन सीफूड बाज़ार में चमगादड़ नहीं बेचे जाते, इससे लगता है कि इस वायरस के चमगादड़ से मनुष्य में पहुंचने की कड़ी में एक और मध्यस्थ जीव होगा। कुल मिलाकर यह बात तो स्पष्ट है कि वन्य जीवों में वायरस का एक छिपा भंडार है जो मनुष्यों में फैलने की क्षमता रखता है।

एक अध्ययन में कोरोना वायरस का संभावित स्रोत हुआनन बाज़ार में बिकने वाले सांपों को बताया गया था। लेकिन कई वैज्ञानिकों ने कहा है कि सांपों में कोरोना वायरस का संक्रमण होने का कोई प्रमाण नहीं है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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रासायनिक हथियारों से बचाव के लिए जेनेटिक उपचार

रासायनिक हथियारों पर अंतर्राष्ट्रीय प्रतिबंध के बावजूद कई देश अपने दुश्मन देश की फौज और आम नागरिकों पर घातक नर्व एजेंट (तंत्रिका-सक्रिय पदार्थ) का हमला करते हैं। ऐसे रासायनिक हमलों के उपचार उपलब्ध तो हैं लेकिन उपचार तुरंत देने आवश्कता होती है और कई बार ये उपचार रासायनिक हमले के प्रभाव (जैसे मांसपेशियों की ऐंठन या मस्तिष्क क्षति) से बचाव भी नहीं कर पाते।

हाल ही में अमेरिकी सेना के शोधकर्ताओं ने एक ऐसा जीन उपचार विकसित किया है जिसके माध्यम से शरीर में नर्व एजेंट को तहस-नहस करने वाला प्रोटीन बनने लगता है। गौरतलब है कि इसे अभी केवल चूहों पर ही आज़माया गया है। सैद्धांतिक रूप से इस रणनीति को सैनिकों के लिए अपनाया तो जा सकता है लेकिन यह काफी जोखिम भरा होगा। हो सकता है कि शरीर इस प्रोटीन के विरुद्ध हानिकारक प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया विकसित कर ले। 

नर्व एजेंट मूलत: ऑर्गनोफॉस्फेट यौगिक होते हैं। ये मांसपेशियों में एक तंत्रिका-संदेशवाहक रसायन एसीटाइलकोलीन के स्तर को नियंत्रित करने वाले एंज़ाइम को बाधित करते हैं। एसीटाइलकोलीन की मात्रा बढ़ने की वजह से मांसपेशियों में ऐंठन, सांस लेने में तकलीफ होती है और मृत्यु भी हो सकती है। एट्रोपीन और डायज़ेपाम जैसे मौजूदा उपचार एसीटाइलकोलीन के ग्राही को अवरुद्ध कर देते हैं। लेकिन यदि तुरंत उपचार न किया जाए तो इससे तंत्रिका सम्बंधी स्थायी क्षति हो सकती है। 

बेहतर उपचार खोजने के लिए शोधकर्ताओं ने प्रयोगशाला में जंतुओं में ऐसा मानव एंज़ाइम इंजेक्ट किया जो ज़्यादा तेज़ गति से क्रिया करता है और ऑर्गनोफॉस्फेट द्वारा नुकसान पहुंचाए जाने से पहले ही उसे विघटित कर देता है। इससे पहले, वाइज़मैन इंस्टीट्यूट के जैव-रसायनयज्ञ मोशे गोल्डस्मिथ और उनके साथियों ने पैराऑक्सीनेज़-1 (PON-1) नामक एंज़ाइम में फेरबदल किया था ताकि यह नर्व एजेंटों को तेज़ी से खत्म करने में मदद करे। लेकिन पूरी सेना के लिए इतनी बड़ी मात्रा में PON-1 बनाकर भंडारण करना और शरीर में पहुंचने के बाद उसे प्रतिरक्षा तंत्र से बचाकर रखना काफी मशक्कत का काम है।   

यू.एस. आर्मी मेडिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट ऑफ केमिकल डिफेंस के वैज्ञानिकों ने लीवर को यह अणु बनाने के लिए तैयार करने की सोची। इसके लिए जैव-रसायनयज्ञ नागेश्वर राव चिलुकुरी और उनकी टीम ने एक वायरस की मदद से चूहों की लीवर कोशिकाओं में डीएनए निर्देश पहुंचाने की व्यवस्था की। परिणामस्वरूप चूहों के लीवर से PON-1 एंज़ाइम स्रावित होने लगा, जो 5 महीनों तक चले अध्ययन में स्थिर बना रहा। साइंस ट्रांसलेशनल मेडिसिन में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार चूहे लगभग 6 सप्ताह तक नर्व एजेंटों के 9 घातक इंजेक्शन झेल सके।       

जीन उपचार से चूहों को किसी प्रकार का नुकसान तो नहीं हुआ लेकिन PON-1 प्रोटीन के खिलाफ उन्होंने एंटीबॉडी विकसित कर लिए लेकिन एंटीबॉडी की मात्रा इतनी कम थी कि वे PON-1 की क्रिया को रोक नहीं पाए। टीम का मानना है कि इस उपचार से सैनिकों, मेडिकल स्टाफ और सैन्य कुत्तों की रक्षा की जा सकती है तथा खेतों में काम करने वाले मज़दूरों को भी ऑर्गनोफॉस्फेट कीटनाशकों के प्रभाव से बचाया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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स्वास्थ्य मंत्री के सुझाए उपचार पर विवाद

इंडोनेशिया के स्वास्थ्य मंत्री तेरावन एगस पुत्रान्तो द्वारा वहां के अस्पतालों में एक विवादास्पद उपचार की सिफारिश ने चिकित्सकों को चौंका दिया है। मंत्री जी ने इंट्रा-आर्टीरियल हेपेरिन फ्लशिंग (IAHF) नामक यह उपचार स्ट्रोक के इलाज के लिए सुझाया है। लेकिन कई चिकित्सकों और वैज्ञानिकों का कहना है कि इस बात के कोई पुख्ता प्रमाण नहीं है कि IAHF कारगर है। और तो और, इससे नुकसान भी हो सकते हैं। आलोचकों का कहना है कि तेरावन जिस आक्रामक ढंग से इस उपचार की पैरवी कर रहे हैं उसके चलते वे देश की स्वास्थ्य नीतियों का नेतृत्व करने के अयोग्य हैं।

उपलब्ध जानकारी के अनुसार IAHF एक निदान तकनीक डिजिटल सबट्रेक्शन एंजियोग्राफी (DSA) का थोड़ा परिवर्तित रूप है। मस्तिष्क की रक्त वाहिकाओं को दृश्यमान बनाने के लिए DSA की मदद ली जाती है, जिसमें मरीज़ के पैर से मस्तिष्क की रक्त वाहिका तक एक कैथेटर के ज़रिए ऐसी स्याही डाली जाती है जो एक्स-रे में दिखाई दे। कैथेटर पर रक्त के थक्के जमने से रोकने के लिए हेपेरिन डाला जाता है।

तेरावन जब गातोत सोब्राोतो आर्मी अस्पताल में रेडियोलॉजिस्ट थे तब उन्होंने हेपेरिन की मात्रा बढ़ाकर इस नैदानिक तकनीक को स्ट्रोक के उपचार में तबदील कर दिया। उनका विचार था कि हेपेरिन जब ऑपरेशन के दौरान खून के थक्के बनने से रोकता है तो उसे मस्तिष्क की रक्त वाहिनियों में ज़्यादा मात्रा में पहुंचाकर वहां से रक्त के थक्के हटाकर स्ट्रोक से बचाव किया जा सकेगा। उन्होंने IAHF की मदद से इंडोनेशिया के पूर्व राष्ट्रपति सुशीलो बम्बांग युधोयोनो के अलावा कई नामी व्यवसायियों, राजनेताओं और सैन्य अधिकारियों सहित हज़ारों मरीज़ों में ना सिर्फ स्ट्रोक का इलाज किया बल्कि बचाव के लिए भी उपयोग किया। तेरावन का मानना है कि अब इस उपचार को बड़े पैमाने पर शुरू कर देना चाहिए।

लेकिन इंडोनेशिया के तंत्रिका चिकित्सकों का कहना है कि इस उपचार के प्रभावी होने का कोई प्रमाण नहीं है, और यह तकनीक अंतर्राष्ट्रीय मानकों का पालन भी नहीं करती। इसके अलावा इस तरीके में स्नायु सम्बंधी और गैर-स्नायु सम्बंधी दोनों तरह के जोखिमों की थोड़ी संभावना है और 0.05-0.08 प्रतिशत तक मृत्यु का जोखिम भी है।

तेरावन द्वारा 75 लोगों पर किए गए क्लीनिकल परीक्षण के परिणाम बाली मेडिकल जर्नल में प्रकाशित हुए थे। इसके अनुसार क्रोनिक स्ट्रोक के मामले में IAHF से मांसपेशियां मज़बूत होती हैं। लेकिन मांसपेशियों की मज़बूती जांचने के लिए जो परीक्षण किया गया था, वह बहुत सटीक नहीं है।

इंडोनेशिया के चिकित्सा समुदाय ने पहले भी तेरावन को रोकने की कोशिश की है। 2018 में इंडोनेशियन मेडिकल एसोसिएशन (IDI) की नैतिकता परिषद ने तेरावन को अपना काम समझाने के लिए तलब किया था। लेकिन उन्होंने अपना काम नहीं समझाया। परिषद ने तेरावन को कई नैतिक उद्दंडता का दोषी पाया – पहला, अप्रमाणित उपचार के लिए मोटी रकम वसूलना। दूसरा, मरीज़ों को ठीक करने का झूठा वादा करना। तीसरा, ज़रूरत से ज़्यादा अपना विज्ञापन या प्रचार-प्रसार करना। और चौथा, परिषद के साथ सहयोग ना करना। IDI ने तेरावन की सदस्यता भी एक साल के निरस्त कर दी थी। अलबत्ता, इंडोनेशिया सरकार ने अब तक इस मामले में कोई प्रतिक्रिया नहीं दी है। (स्रोत फीचर्स)

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श्वसन सम्बंधी रहस्यमयी वायरस

हाल ही में वायरल निमोनिया के एक अज्ञात रूप ने चीन के वुडान शहर में कई दर्जन लोगों को प्रभावित किया है। इससे देश भर में सीवियर एक्यूट रेस्पिरेटरी सिंड्रोम (SARS) के प्रकोप की संभावना व्यक्त की जा रही है।

यूएस सेंटर्स फॉर डिसीज़ कंट्रोल एंड प्रिवेंशन के अनुसार, इससे पहले वर्ष 2002 और 2003 में SARS छब्बीस देशों में फैला था जिसने 8000 लोगों में गंभीर फ्लू जैसी बीमारी के लक्षण पैदा किए थे। इसके कारण लगभग 750 लोगों की मृत्यु भी हुई थी। उस समय इस प्रकोप की शुरुआत चीन में हुई थी जिसके चलते चीन में 349 और हांगकांग में 299 लोगों की जानें गई थीं।

जब कोई SARS संक्रमित व्यक्ति छींकता या खांसता है तब संभावना होती है कि वह अपने आसपास के लोगों और चीजों को दूषित कर देगा।

हालांकि विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने 2004 में चीन को SARS मुक्त घोषित कर दिया था लेकिन हाल की घटनाओं ने इस बीमारी की वापसी के संकेत दिए हैं।

अभी तक सामने आए 40 मामलों में से 11 मामले गंभीर माने गए हैं। संक्रमित लोगों में से अधिकतर लोगों की हुआनन सीफूड थोक बाज़ार में दुकान हैं, उनकी दुकानें स्वास्थ्य अधिकारियों ने अगली सूचना तक बंद कर दी हैं। इसके अलावा हांगकांग, सिंगापुर और ताइवान के हवाई अड्डों पर भी बुखार से पीड़ित व्यक्तियों की स्क्रीनिंग शुरू कर दी गई है।  

वैसे अभी तक इस संक्रमण का कारण अज्ञात है, लेकिन वुडान नगर पालिका के स्वास्थ्य आयोग ने इन्फ्लुएंज़ा, पक्षी-जनित इन्फ्लुएंज़ा, एडेनोवायरस संक्रमण और अन्य सामान्य श्वसन रोगों की संभावना को खारिज कर दिया है। WHO के चीनी प्रतिनिधि के मुताबिक कोरोनावायरस की संभावना की न तो अभी तक कोई पुष्टि की गई है और न ही इसे खारिज किया गया है।

गौरतलब है कि इस दौरान वुडान पुलिस द्वारा SARS से जुड़ी अपुष्ट खबरें फैलाने के ज़ुर्म में आठ लोगों को दंडित किया गया है। चाइनीज़ युनिवर्सिटी ऑफ हांगकांग की प्रोफेसर एमिली चैन यिंग-येंग का मानना है कि यदि यह वास्तव में SARS है तो उन्हें इससे निपटने का तज़ुर्बा है लेकिन यदि यह कोई नया वायरस या वायरस की कोई नई किस्म है तो इस ओर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। 2002 में मृत्यु दर युवाओं में अधिक थी, इसलिए यह देखना भी आवश्यक है कि इस बार वायरस का अधिक प्रभाव युवाओं पर है या बुज़ुर्गों पर।  

2002 की महामारी के विपरीत अब तक व्यक्ति-से-व्यक्ति रोग-प्रसार का कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं मिला है, नहीं तो यह संक्रमण एक सामुदायिक प्रकोप के रूप में उभरकर आता। (स्रोत फीचर्स)

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प्रतिरोधी रोगों से लड़ाई का नेतृत्व करे भारत – डॉ. डी. बालसुब्रामण्यन

न्यूयॉर्क टाइम्स के 28 दिसंबर के अंक में एक आलेख के शीर्षक का भावार्थ कुछ ऐसा था: दीवालियापन के शिकार एंटीबायोटिक्स – स्वास्थ्य का संकट मंडरा रहा है क्योंकि दवा-प्रतिरोधी कीटाणुओं के खिलाफ लड़ाई में मुनाफा कम होने की वजह से निवेशक कतरा रहे हैं (Lifelines at risk as bankruptcies stall antibiotics – a health crisis looms: scant profits in fighting drug-resistant bugs sours investors)। इसका सम्बंध ऐसे रोगजनक बैक्टीरिया और फफूंद से है जो अब पारंपरिक एंटीबायोटिक के प्रतिरोधी हो चले हैं। इनमें स्यूडोमोनास, ई. कोली, क्लेबसिएला, साल्मोनेला और तपेदिक का बैक्टीरिया शामिल हैं। ऐसे बहु-औषधि प्रतिरोधी (MDR) रोगाणु उभर रहे हैं। ये प्रति वर्ष दुनिया भर में लगभग 30 लाख लोगों को बीमार करते हैं और राष्ट्र संघ का कहना है कि यदि हमने जल्दी ही ऐसे रोगाणुओं से लड़ने के लिए दवाइयां विकसित न कीं तो 2050 तक इनकी वजह से सालाना 1 करोड़ लोग मौत के शिकार होंगे।

सवाल है कि ये बहु-औषधि प्रतिरोधी रोगाणु आए कहां से? पेनिसिलीन और उसी जैसे एंटीबायोटिक्स (एरिथ्रोमायमीन, फ्लॉक्सिन) वगैरह का इस्तेमाल 60-70 साल पहले शुरू हुआ था। तब से हम इनका उपयोग सफलतापूर्वक करते रहे हैं क्योंकि ऐसी कोई भी परंपरागत दवा करोड़ों रोगाणुओं को मार डालती है। लेकिन फिर भी ऐसे रोगाणुओं की एक छोटी-सी संख्या बच निकली। उनके जीन्स में कतिपय छोटे-मोटे अंतरों की वजह से उनमें बचाव के कुछ रास्ते रहे होंगे जिसकी बदौलत उनमें ऐसी क्षमता होती है कि वे दवा को अपनी कोशिकाओं में प्रवेश ही नहीं करने देते या प्रवेश करने के बाद उसे निकाल बाहर करते हैं। ऐसे बचे हुए रोगाणु लगातार संख्यावृद्धि करते हैं और महीनों-वर्षों में करोड़ों की तादाद में इकट्ठे हो जाते हैं। इनमें से कुछ एकाधिक दवाइयों से बचने का जुगाड़ कर लेते हैं। सारे प्रचलित एंटीबायोटिक्स के खिलाफ प्रतिरोधी ऐसे रोगाणुओं को ही MDR कहते हैं।

ऐसी स्थिति में ज़रूरत इस बात की है कि वैज्ञानिक और दवा कंपनियां MDR रोगाणुओं के जीव विज्ञान को लेकर बुनियादी अनुसंधान करें और उनके खिलाफ लड़कर फतह हासिल करने के लिए कारगर दवाइयां विकसित करें।

किसी नई दवा की खोज/आविष्कार करके उसे बाज़ार में उपलब्ध कराने में प्राय: दस वर्ष तक का समय लग जाता है। दरअसल, इसी तरह के अनुसंधान व विकास के प्रयासों के दम पर ही मधुमेह, गठिया, रक्त विकार और कैंसर जैसी जीर्ण बीमारियों के खिलाफ दवाइयां विकसित हुई हैं। और इनमें से हरेक से सम्बंधित अनुसंधान व विकास के काम पर अरबों डॉलर का निवेश लगता है और कंपनी की अपेक्षा होती है कि उसे हर साल अरबों डॉलर का मुनाफा मिले। न्यूयॉर्क टाइम्स के उपरोक्त लेख में एंड्रू जैकब कहते हैं कि प्रमुख दवा कंपनियां MDR रोगाणु सम्बंधी शोध से कतराती रही हैं क्योंकि जीर्ण रोगों के विपरीत एंटीबायोटिक दवाइयों में अच्छा मुनाफा नहीं है। कारण यह है कि जहां जीर्ण रोगों की दवाइयां लंबे समय तक लेनी होती हैं, वहीं एंटीबायोटिक तो कुछ दिनों या, बहुत हुआ तो, हफ्तों के लिए दी जाती हैं।

यही स्थिति MDR रोगाणुओं के संदर्भ में अनुसंधान और विकास कार्य करके उनके खिलाफ दवा विकसित करने के मामले में भी है। इसके लिए भी लंबी अवधि के प्रयासों और अरबों डॉलर के निवेश की ज़रूरत है। इसी मामले में कुछ निजी कंपनियों ने योगदान दिया है। खुशी की बात है कि इन्हें अनुसंधान व विकास कार्य के लिए वित्तपोषण कुछ निजी प्रतिष्ठानों और सरकारी रुाोतों से प्राप्त हो रहा है। उक्त लेख में बताया गया है कि कैसे एकाओजेन नामक जैव-टेक्नॉलॉजी कंपनी यूएस सरकार के बायोमेडिकल रिसर्च एंड डेवलपमेंट अथॉरिटी से एक अरब डॉलर का अनुदान पाने में सफल रही है और उसने 15 साल के अनुसंधान व विकास कार्य के फलस्वरूप ज़ेमड्री नामक दवा तैयार की है। ज़ेमड्री दरअसल प्लेज़ोमायसिन का ब्राांड नाम है और यह मूत्र मार्ग के दुष्कर संक्रमण के उपचार में कारगर पाई गई है। ज़ेमड्री को यूएस खाद्य व औषधि प्रशासन तथा विश्व स्वास्थ्य संगठन की मंज़ूरी मिल चुकी है। बदकिस्मती से, एकाओजेन इस औषधि से ज़्यादा मुनाफा नहीं कमा सकी, जिसके चलते उसके निवेशक खफा हो गए और कंपनी दिवालिया हो गई।

इसी प्रकार से टेट्राफेज़ नामक कंपनी को एक गैर-मुनाफा संस्था से बड़ा अनुदान मिला था और उसने ज़ेरावा नामक दवा का विकास किया जो कुछ MDR रोगाणुओं के खिलाफ कारगर है। लेकिन कंपनी को गिरते स्टॉक मूल्य के चलते स्टाफ की छंटनी करनी पड़ी और आगे अनुसंधान व विकास कार्य में भी कटौती करनी पड़ी।

यही हालत एक तीसरी कंपनी मेंलिंटा थेराप्यूटिक्स की भी हुई। इस कंपनी ने बैक्सडेला नामक औषधि विकसित की थी जिसे खाद्य व औषधि प्रशासन ने दवा-प्रतिरोधी निमोनिया के लिए मंज़ूरी दे दी थी।

यह बात गौरतलब है कि एकाओजेन कंपनी को सिप्ला-यूएस ने खरीद लिया था। सिप्ला-यूएस भारतीय लोकहितैषी दवा कंपनी सिप्ला की यूएस शाखा है। इसके अंतर्गत सारे उपकरण भी खरीदे गए और ज़ेमड्री को बनाने की टेक्नॉलॉजी तथा उसे बनाने व दुनिया भर में बेचने के अधिकार भी शामिल थे।   

सिप्ला का यह कदम अन्य भारतीय कंपनियों के लिए मिसाल है कि उन्हें भी इस क्षेत्र में प्रवेश करना चाहिए। वे अपने तर्इं यूएस की अन्य कंपनियों से बातचीत करके उन्हें खरीद सकती हैं या पार्टनर अथवा मालिक के रूप में रोगाणुओं के खिलाफ दवाइयां बनाने की वह टेक्नॉलॉजी अर्जित कर सकती हैं जो इन कंपनियों ने कड़ी मेहनत करके विकसित की है। इसके बाद ये भारतीय कंपनियां ये दवाइयां न सिर्फ भारत में बल्कि दुनिया भर के ज़रूरतमंद मरीज़ों को मुहैया करा सकती है।

हाल ही में भारत में MDR रोगाणुओं की वजह से होने वाली मौतों को लेकर सोमनाथ गंद्रा व साथियों ने देश के 10 अस्पतालों में अध्ययन किया था। क्लीनिकल इंफेक्शियस डिसीज़ेस में प्रकाशित उनके शोध पत्र में बताया गया है कि MDR रोगाणुओं की वजह से मृत्यु दर 13 प्रतिशत है। यदि यह अस्पताल में पहुंचने वाले मरीज़ों की स्थिति है, तो कल्पना कर सकते हैं कि देश के गांवों-कस्बों में लाखों लोग ऐसी बीमारियों की वजह से दम तोड़ रहे होंगे। और इसमें कोई संदेह नहीं कि अफ्रीका, दक्षिण-पूर्वी एशिया और अन्य कम आमदनी वाले देशों में भी स्थिति बहुत अलग नहीं होगी। लिहाज़ा, भारतीय वैज्ञानिकों द्वारा किया गया अनुसंधान व विकास कार्य जन स्वास्थ्य और आर्थिक दृष्टि से महत्वपूर्ण होगा। 

अच्छी बात यह है कि भारत सरकार और उसकी वित्तपोषक संस्थाएं सरकारी शोध व विकास संस्थानों और वि·ाविद्यालयों में इस फोकल थीम के क्षेत्र में शोधकर्ताओं को अनुदान देने को तत्पर हैं। इसके अलावा, गैर-सरकारी संस्थाओं और दवा कंपनियों को भी यह अनुदान मिल सकता है। भारत में निजी गैर-मुनाफा प्रतिष्ठानों को भी अपने बटुए खोलने चाहिए।

हममें से कई यह बात शायद नहीं जानते कि हमारा देश दुनिया भर में बचपन के टीकों का एक प्रमुख सप्लायर बन चुका है। भारत के मुट्ठी भर टीका-उत्पादक आज अपने अनुसंधान व विकास कार्य के दम पर दुनिया भर में 35 प्रतिशत बचपन के टीके सप्लाय करते हैं। ऐसे में कोई कारण नहीं कि क्यों भारत MDR किस्म के रोगों और अन्य संक्रमणों के खिलाफ अपने अनुसंधान के दम पर दुनिया के 7 अरब लोगों को अच्छा स्वास्थ्य देने के मामले में अग्रणि नहीं हो सकता। (स्रोत फीचर्स) 

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ब्लैक होल की पहली तस्वीर और कार्बन कुनबे का विस्तार – चक्रेश जैन

र्ष 2019 विज्ञान जगत के इतिहास में एक ऐसे वर्ष के रूप में याद किया जाएगा, जब वैज्ञानिकों ने पहली बार ब्लैक होल की तस्वीर जारी की। यह वही वर्ष था, जब वैज्ञानिकों ने प्रयोगशाला में कार्बन के एक और नए रूप का निर्माण कर लिया। विदा हुए साल में गूगल ने क्वांटम प्रोसेसर में श्रेष्ठता हासिल की। अनुसंधानकर्ताओं ने प्रयोगशाला में आठ रासायनिक अक्षरों वाले डीएनए अणु बनाने की घोषणा की।

इस वर्ष 10 अप्रैल को खगोल वैज्ञानिकों ने ब्लैक होल की पहली तस्वीर जारी की। यह तस्वीर विज्ञान की परिभाषाओं में की गई कल्पना से पूरी तरह मेल खाती है। भौतिकीविद अल्बर्ट आइंस्टीन ने पहली बार 1916 में सापेक्षता के सिद्धांत के साथ ब्लैक होल की भविष्यवाणी की थी। ब्लैक होल शब्द 1967 में अमेरिकी खगोलविद जॉन व्हीलर ने गढ़ा था। 1971 में पहली बार एक ब्लैक होल खोजा गया था।

इस घटना को विज्ञान जगत की बहुत बड़ी उपलब्धि कहा जा सकता है। ब्लैक होल का चित्र इवेंट होराइज़न दूरबीन से लिया गया, जो हवाई, एरिज़ोना, स्पेन, मेक्सिको, चिली और दक्षिण ध्रुव में लगी है। वस्तुत: इवेंट होराइज़न दूरबीन एक संघ है। इस परियोजना के साथ दो दशकों से लगभग 200 वैज्ञानिक जुड़े हुए हैं। इसी टीम की सदस्य मैसाचूसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी की 29 वर्षीय कैरी बोमेन ने एक कम्प्यूटर एल्गोरिदम से ब्लैक होल की पहली तस्वीर बनाने में सहायता की। विज्ञान जगत की अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका साइंस ने वर्ष 2019 की दस प्रमुख खोजों में ब्लैक होल सम्बंधी अनुसंधान को प्रथम स्थान पर रखा है।

उक्त ब्लैक होल हमसे पांच करोड़ वर्ष दूर एम-87 नामक निहारिका में स्थित है। ब्लैक होल हमेशा ही भौतिक वैज्ञानिकों के लिए उत्सुकता के विषय रहे हैं। ब्लैक होल का गुरूत्वाकर्षण अत्यधिक शक्तिशाली होता है जिसके खिंचाव से कुछ भी नहीं बच सकता; प्रकाश भी यहां प्रवेश करने के बाद बाहर नहीं निकल पाता है। ब्लैक होल में वस्तुएं गिर सकती हैं, लेकिन वापस नहीं लौट सकतीं।

इसी वर्ष 21 फरवरी को अनुसंधानकर्ताओं ने प्रयोगशाला में बनाए गए नए डीएनए अणु की घोषणा की। डीएनए का पूरा नाम डीऑक्सीराइबो न्यूक्लिक एसिड है। नए संश्लेषित डीएनए में आठ अक्षर हैं, जबकि प्रकृति में विद्यमान डीएनए अणु में चार अक्षर ही होते हैं। यहां अक्षर से तात्पर्य क्षारों से है। संश्लेषित डीएनए को ‘हैचीमोजी’ नाम दिया गया है। ‘हैचीमोजी’ जापानी भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है आठ अक्षर। एक-कोशिकीय अमीबा से लेकर बहुकोशिकीय मनुष्य तक में डीएनए होता है। डीएनए की दोहरी कुंडलीनुमा संरचना का खुलासा 1953 में जेम्स वाट्सन और फ्रांसिक क्रिक ने किया था। यह वही डीएनए अणु है, जिसने जीवन के रहस्यों को सुलझाने और आनुवंशिक बीमारियों पर विजय पाने में अहम योगदान दिया है। मातृत्व-पितृत्व का विवाद हो या अपराधों की जांच, डीएनए की अहम भूमिका रही है।

सुपरकम्प्यूटिंग के क्षेत्र में वर्ष 2019 यादगार रहेगा। इसी वर्ष गूगल ने 54 क्यूबिट साइकैमोर प्रोसेसर की घोषणा की जो एक क्वांटम प्रोसेसर है। गूगल ने दावा किया है कि साइकैमोर वह कार्य 200 सेकंड में कर देता है, जिसे पूरा करने में सुपर कम्प्यूटर दस हज़ार वर्ष लेगा। इस उपलब्धि के आधार पर कहा जा सकता है कि भविष्य क्वांटम कम्यूटरों का होगा।

वर्ष 2019 में रासायनिक तत्वों की प्रथम आवर्त सारणी के प्रकाशन की 150वीं वर्षगांठ मनाई गई। युनेस्को ने 2019 को अंतर्राष्ट्रीय आवर्त सारणी वर्ष मनाने की घोषणा की थी, जिसका उद्देश्य आवर्त सारणी के बारे में जागरूकता का विस्तार करना था। विख्यात रूसी रसायनविद दिमित्री मेंडेलीव ने सन 1869 में प्रथम आवर्त सारणी प्रकाशित की थी। आवर्त सारणी की रचना में विशेष योगदान के लिए मेंडेलीव को अनेक सम्मान मिले थे। सारणी के 101वें तत्व का नाम मेंडेलेवियम रखा गया। इस तत्व की खोज 1955 में हुई थी। इसी वर्ष जुलाई में इंटरनेशनल यूनियन ऑफ प्योर एंड एप्लाइड केमिस्ट्री (IUPAC) का शताब्दी वर्ष मनाया गया। इस संस्था की स्थापना 28 जुलाई 1919 में उद्योग जगत के प्रतिनिधियों और रसायन विज्ञानियों ने मिलकर की थी। तत्वों के नामकरण में युनियन का अहम योगदान रहा है।

विज्ञान की अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका नेचर के अनुसार गुज़िश्ता साल रसायन वैज्ञानिकों ने कार्बन के एक और नए रूप सी-18 सायक्लोकार्बन का सृजन किया। इसके साथ ही कार्बन कुनबे में एक और नया सदस्य शामिल हो गया। इस अणु में 18 कार्बन परमाणु हैं, जो आपस में जुड़कर अंगूठी जैसी आकृति बनाते हैं। शोधकर्ताओं के अनुसार इसकी संरचना से संकेत मिलता है कि यह एक अर्धचालक की तरह व्यवहार करेगा। लिहाज़ा, कहा जा सकता है कि आगे चलकर इलेक्ट्रॉनिकी में इसके उपयोग की संभावनाएं हैं।

गुज़रे साल भी ब्रह्मांड के नए-नए रहस्यों के उद्घाटन का सिलसिला जारी रहा। इस वर्ष शनि बृहस्पति को पीछे छोड़कर सबसे अधिक चंद्रमा वाला ग्रह बन गया। 20 नए चंद्रमाओं की खोज के बाद शनि के चंद्रमाओं की संख्या 82 हो गई। जबकि बृहस्पति के 79 चंद्रमा हैं।

गत वर्ष बृहस्पति के चंद्रमा यूरोपा पर जल वाष्प होने के प्रमाण मिले। विज्ञान पत्रिका नेचर में प्रकाशित रिपोर्ट में बताया गया है कि यूरोपा की मोटी बर्फ की चादर के नीचे तरल पानी का सागर लहरा रहा है। अनुसंधानकर्ताओं के अनुसार इससे यह संकेत मिलता है कि यहां पर जीवन के सभी आवश्यक तत्व विद्यमान हैं।

कनाडा स्थित मांट्रियल विश्वविद्यालय के प्रोफेसर बियर्न बेनेक के नेतृत्व में वैज्ञानिकों ने हबल दूरबीन से हमारे सौर मंडल के बाहर एक ऐसे ग्रह (के-टू-18 बी) का पता लगाया है, जहां पर जीवन की प्रबल संभावनाएं हैं। यह पृथ्वी से दो गुना बड़ा है। यहां न केवल पानी है, बल्कि तापमान भी अनुकूल है।

साल की शुरुआत में चीन ने रोबोट अंतरिक्ष यान चांग-4 को चंद्रमा के अनदेखे हिस्से पर सफलतापूर्वक उतारा और ऐसा करने वाला दुनिया का पहला देश बन गया। चांग-4 जीवन सम्बंधी महत्वपूर्ण प्रयोगों के लिए अपने साथ रेशम के कीड़े और कपास के बीज भी ले गया था।

अप्रैल में पहली बार नेपाल का अपना उपग्रह नेपालीसैट-1 सफलतापूर्वक लांच किया गया। दो करोड़ रुपए की लागत से बने उपग्रह का वज़न 1.3 किलोग्राम है। इस उपग्रह की मदद से नेपाल की भौगोलिक तस्वीरें जुटाई जा रही हैं। दिसंबर के उत्तरार्ध में युरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी ने बाह्य ग्रह खोजी उपग्रह केऑप्स सफलतापूर्वक भेजा। इसी साल अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा द्वारा भेजा गया अपार्च्युनिटी रोवर पूरी तरह निष्क्रिय हो गया। अपाच्र्युनिटी ने 14 वर्षों के दौरान लाखों चित्र भेजे। इन चित्रों ने मंगल ग्रह के बारे में हमारी सीमित जानकारी का विस्तार किया।

बीते वर्ष में जीन सम्पादन तकनीक का विस्तार हुआ। आलोचना और विवादों के बावजूद अनुसंधानकर्ता नए-नए प्रयोगों की ओर अग्रसर होते रहे। वैज्ञानिकों ने जीन सम्पादन तकनीक क्रिसपर कॉस-9 तकनीक की मदद से डिज़ाइनर बच्चे पैदा करने के प्रयास जारी रखे। जीन सम्पादन तकनीक से बेहतर चिकित्सा और नई औषधियां बनाने का मार्ग पहले ही प्रशस्त हो चुका है। चीन ने जीन एडिटिंग तकनीक से चूहों और बंदरों के निर्माण का दावा किया है। साल के उत्तरार्ध में ड्यूक विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने शरीर की नरम हड्डी अर्थात उपास्थि की मरम्मत के लिए एक तकनीक खोजी, जिससे जोड़ों को पुनर्जीवित किया जा सकता है।

बीते साल भी जलवायु परिवर्तन को लेकर चिंता की लकीर लंबी होती गई। बायोसाइंस जर्नल में प्रकाशित शोध पत्र के अनुसार पहली बार विश्व के 153 देशों के 11,258 वैज्ञानिकों ने जलवायु परिवर्तन पर एक स्वर में चिंता जताई। वैज्ञानिकों ने ‘क्लाइमेट इमरजेंसी’ की चेतावनी देते हुए जलवायु परिवर्तन का सबसे प्रमुख कारण कार्बन उत्सर्जन को बताया। दिसंबर में स्पेन की राजधानी मैड्रिड में संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन हुआ। सम्मेलन में विचार मंथन का मुख्य मुद्दा पृथ्वी का तापमान दो डिग्री सेल्सियस से ज़्यादा बढ़ने से रोकना था।

इसी साल हीलियम की खोज के 150 वर्ष पूरे हुए। इस तत्व की खोज 1869 में हुई थी। हीलियम का उपयोग गुब्बारों, मौसम विज्ञान सम्बंधी उपकरणों में हो रहा है। इसी वर्ष विज्ञान की अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका नेचर के प्रकाशन के 150 वर्ष पूरे हुए। नेचर को विज्ञान की अति प्रतिष्ठित और प्रामाणिक पत्रिकाओं में गिना जाता है। इस वर्ष भौतिकीविद रिचर्ड फाइनमैन द्वारा पदार्थ में शोध के पूर्व अनुमानों को लेकर दिसंबर 1959 में दिए गए ऐतिहासिक व्याख्यान की हीरक जयंती मनाई गई।

विदा हो चुके वर्ष में अंतर्राष्ट्रीय खगोल संघ (IAU) की स्थापना का शताब्दी वर्ष मनाया गया। इसकी स्थापना 28 जुलाई 1919 को ब्रुसेल्स में की गई थी। वर्तमान में अंतर्राष्ट्रीय खगोल संघ के 13,701 सदस्य हैं। इसी साल मानव के चंद्रमा पर पहुंचने की 50वीं वर्षगांठ मनाई गई। 21 जुलाई 1969 को अमेरिकी अंतरिक्ष यात्री नील आर्मस्ट्रांग ने चांद की सतह पर कदम रखा था।

इसी वर्ष विश्व मापन दिवस 20 मई के दिन 101 देशों ने किलोग्राम की नई परिभाषा को अपना लिया। हालांकि रोज़मर्रा के जीवन में इससे कोई अंतर नहीं आएगा, लेकिन अब पाठ्य पुस्तकों में किलोग्राम की परिभाषा बदल जाएगी। किलोग्राम की नई परिभाषा प्लैंक स्थिरांक की मूलभूत इकाई पर आधारित है।

गत वर्ष अक्टूबर में साहित्य, शांति, अर्थशास्त्र और विज्ञान के नोबेल पुरस्कारों की घोषणा की गई। विज्ञान के नोबेल पुरस्कार विजेताओं में अमेरिका का वर्चस्व दिखाई दिया। रसायन शास्त्र में लीथियम आयन बैटरी के विकास के लिए तीन वैज्ञानिकों को पुरस्कृत किया गया – जॉन गुडइनफ, एम. विटिंगहैम और अकीरा योशिनो। लीथियम बैटरी का उपयोग मोबाइल फोन, इलेक्ट्रिक कार, लैपटॉप आदि में होता है। 97 वर्षीय गुडइनफ नोबेल सम्मान प्राप्त करने वाले सबसे उम्रदराज व्यक्ति हो गए हैं। चिकित्सा विज्ञान का नोबेल पुरस्कार संयुक्त रूप से तीन वैज्ञानिकों को प्रदान किया गया – विलियम केलिन जूनियर, ग्रेग एल. सेमेंज़ा और पीटर रैटक्लिफ। इन्होंने कोशिका द्वारा ऑक्सीजन के उपयोग पर शोध करके कैंसर और एनीमिया जैसे रोगों की चिकित्सा के लिए नई राह दिखाई है। इस वर्ष का भौतिकी का नोबेल पुरस्कार जेम्स पीबल्स, मिशेल मेयर और डिडिएर क्वेलोज़ को दिया गया। तीनों अनुसंधानकर्ताओं ने बाह्य ग्रहों खोज की और ब्रह्मांड के रहस्यों से पर्दा हटाया।

ऑस्ट्रेलिया के कार्ल क्रूसलेंकी को वर्ष 2019 का विज्ञान संचार का अंतर्राष्ट्रीय कलिंग पुरस्कार प्रदान किया गया। यह प्रतिष्ठित सम्मान पाने वाले वे पहले ऑस्ट्रेलियाई हैं।

वर्ष 2019 का गणित का प्रतिष्ठित एबेल पुरस्कार अमेरिका की प्रोफेसर केरन उहलेनबेक को दिया गया है। इसे गणित का नोबेल पुरस्कार कहा जाता है। इसकी स्थापना 2002 में की गई थी। पुरस्कार की स्थापना के बाद यह सम्मान ग्रहण करने वाली केरन उहलेनबेक पहली महिला हैं।

अंतर्राष्ट्रीय विज्ञान पत्रिका नेचर ने वर्ष 2019 के दस प्रमुख वैज्ञानिकों की सूची में स्वीडिश पर्यावरण कार्यकर्ता ग्रेटा थनबर्ग को शामिल किया है। टाइम पत्रिका ने भी ग्रेटा थनबर्ग को वर्ष 2019 का ‘टाइम पर्सन ऑफ दी ईयर’ चुना है। उन्होंने विद्यार्थी जीवन से ही पर्यावरण कार्यकर्ता के रूप में पहचान बनाई और जलवायु परिवर्तन रोकने के प्रयासों का ज़ोरदार अभियान चलाया।

5 अप्रैल को नोबेल सम्मानित सिडनी ब्रेनर का 92 वर्ष की आयु में निधन हो गया। उन्हें 2002 में मेडिसिन का नोबेल सम्मान दिया गया था। उन्होंने सिनोरेब्डाइटिस एलेगेंस नामक एक कृमि को रिसर्च का प्रमुख मॉडल बनाया था। 11 अक्टूबर को सोवियत अंतरिक्ष यात्री अलेक्सी लीनोव का 85 वर्ष की आयु में देहांत हो गया। लीनोव पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने अंतरिक्ष में चहलकदमी करके इतिहास रचा था। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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