कोरोनावायरस पर जीत की तैयारी – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

पिछले छह हफ्तों में कई ऐसे शोध पत्र प्रकाशित हुए हैं जो जानलेवा कोरोनावायरस (COVID-19) के संक्रमण से निपटने के चिकित्सकीय उपचार की पेशकश करते हैं। ये प्रयास इस संक्रमण के खिलाफ सुरक्षात्मक टीका विकसित करने के प्रयासों के अतिरिक्त हैं।

अब तक हम सब इससे तो वाकिफ हो ही गए हैं कि यह नया कोरोनवायरस (जिसे वैज्ञानिक SARS-CoV-2 भी कहते हैं) दिखता कैसा है। यह गेंद सरीखा गोल है जिसका पूरा शरीर स्पाइक्स (खूंटों) से ढंका होता है। ये स्पाइक्स वायरस के कामकाजी सिरे हैं जो ग्लायकोप्रोटीन से बने होते हैं। सीएटल स्थित एक समूह ने क्रायो-इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोपी की मदद से इन स्पाइक-प्रोटीन्स की संरचना का तफसील से अध्ययन करके पता लगाया कि ये स्पाइक्स वायरस को मेज़बान कोशिका में प्रवेश करने में किस तरह मदद करते हैं। स्पाइक-प्रोटीन कोशिका की सतह पर ACE2 (एंजियोटेंसिन-कंवर्टिंग एंज़ाइम-2) नामक एक विशिष्ट एंज़ाइम की पहचान करता है, इसकी गतिविधि को अवरुद्ध करता है, मेज़बान कोशिका में प्रवेश करता है और उसे नुकसान पहुंचाता है।

इतिहास से सबक

इतिहास को देखें तो पाते हैं कि नए कोरोनावायरस की यह करतूत वास्तव में ऐतिहासिक है। कई लोगों ने 1918 में फैली स्पैनिश फ्लू महामारी के कारण हुई तबाही का अध्ययन किया, जिसमें लाखों लोगों की मौत हो गई थी। स्पैनिश फ्लू से पीड़ित लोगों के फेफड़े गंभीर रूप से क्षतिग्रस्त हो गए थे और वे निमोनिया और एक्यूट रेस्पिरेटरी सिंड्रोम का शिकार हो गए थे।

एक बार फिर यही हालात SARS-CoV कोरोनावायरस नामक रोगजनक द्वारा होने वाले सीवियर एक्यूट रेस्पिरेटरी सिंड्रोम (SARS) में भी देखे गए। शोध में पता चला कि ACE2 नामक एंज़ाइम वायरस के हमले के खिलाफ लड़ता है और इससे होने वाली क्षति से बचाता है। इसी प्रकार से वर्ष 2012 में सी. टिकेलिस और एम.सी. थॉमस द्वारा इंटरनेशनल जर्नल ऑफ पेप्टाइड में प्रकाशित पर्चे में भी बताया गया था कि ACE2 उच्च रक्तचाप, मधुमेह और ह्रदय रोगों में फायदेमंद है। यह स्वास्थ्य और रोग में रेनिन एंजियोटेंसिन सिस्टम का महत्वपूर्ण नियंत्रक है।

इसीलिए सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता खास तौर से दुनिया भर के वरिष्ठ नागरिकों और समस्याओं से पीड़ित लोगों से गुज़ारिश कर रहे हैं वे घर पर ही सुरक्षित रहें।

आणविकआनुवंशिक आधार

हाल ही में इन विशिष्ट रोगजनक के लिए वुहान स्थित सीएएस लैब का एक बहुत ही महत्वपूर्ण शोध पत्र प्रकाशित हुआ है। इसमें नए कोरोनोवायरस का आनुवंशिक अनुक्रम, ACE2 को निष्क्रिय कर प्रभावित व्यक्ति में प्रवेश करने के तरीके के बारे में तफसील से बताया गया है। और सबसे महत्वपूर्ण बात यह बताई गई है कि ठीक हो चुके मरीज़ों के रक्त-सीरम का उपयोग संक्रमित व्यक्तियों के उपचार में हो सकता है। (यह खास तौर से इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि जब 2006 में सार्स का प्रकोप हुआ था तब भी यही बताया गया था कि ठीक हो चुके मरीज़ों के सीरम का उपयोग पीड़ितों के उपचार में करने से यह उनमें इससे विरुद्ध एंटीबॉडी IgG उपलब्ध करा देता है। इसी आधार पर कुछ वैज्ञानिकों ने सुझाव दिया है कि यह तरीका COVID-19 से निपटने में भी मददगार हो सकता है।

वुहान लैब के प्रकाशन के समय ही सेल पत्रिका में एक और पेपर प्रकाशित हुआ जिसमें बताया गया कि नए कोरोनावायरस का कोशिका में प्रवेश, ना सिर्फ ACE2 पर बल्कि मेज़बान कोशिका के एक और एंजाइम, TMPRSS2, पर भी निर्भर करता है। शोधकर्ताओं ने सुझाव दिया है कि इसे एक ऐसे प्रोटीएज़ अवरोधक द्वारा अवरुद्ध किया जा सकता है जो चिकित्सकीय रूप से प्रमाणित हो चुका है। यह एक महत्वपूर्ण नई खबर है क्योंकि हम हमारे इस भयानक शत्रु नए कोरोनोवायरस को हराने के लिए इसी तरह के अवरोधक रसायनों की तलाश कर सकते हैं।

तो क्या करें?

हमें अपने शत्रु पर काबू पाने के चार अलग-अलग तरीके दिखते हैं। सबसे पहला, जिसे लोगों को करना ही चाहिए, सुरक्षात्मक सामग्री और तरीके अपनाएं, वायरस के सामुदायिक फैलाव को रोकें, घर पर रहें और सुरक्षित रहें; दूसरा, ठीक हो चुके रोगियों के सीरम का पीड़ितों की रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने के लिए उपयोग; तीसरा प्रभावितों के इलाज के लिए दवाओं की तलाश और चौथा सफल टीका तैयार करना। इनमें समय लगता है लेकिन उम्मीद है कि कुछ महीने ही लगेंगे, साल नहीं। इसलिए हम इन सभी तरीकों को अपनाकर इससे निपटने की राह में हैं।

SARS-CoV-2 और COVID-19 के बारे में कुछ शब्द। दो दिन पहले यू.के. के अखबार दी गार्जियन में बताया गया था कि दुनिया भर की 35 से अधिक कंपनियां इसका टीका तैयार करने की दौड़ में लगी हैं, इनमें से कम-से-कम 4 कंपनियां अपने टीकों का परीक्षण जानवरों पर कर चुकी हैं। इनमें से कुछ ने इसके पहले SARS और MERS के खिलाफ विकसित किए गए टीके में कुछ बदलाव करके COVID-19 के खिलाफ टीका तैयार किया है। और दो कंपनियां COVID-19 के वाहक RNA पर आधारित वैक्सीन तैयार कर रही हैं। लेकिन मनुष्यों पर इसके चिकित्सकीय परीक्षण में, इनकी प्रभावकारिता और दुष्प्रभावों की जांच करने में समय लगेगा, जो एक वर्ष या उससे अधिक तक हो सकता है। इसलिए हम इन सभी तरीकों से इससे निपटने का प्रयास करते रहें।

हम अनुभव से जानते हैं कि जहां संकट है, वहां आशा है; जहां आशा है, वहां प्रयास हैं; जहां प्रयास हैं, वहां समाधान हैं; और जहां समाधान हैं, वहां सफलता है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कोरोना वायरस किसी सतह पर कितनी देर रहता है?

कोरोना वायरस का प्रकोप थमने का नाम नहीं ले रहा है। यह तो स्पष्ट है कि यह वायरस व्यक्ति से व्यक्ति में फैलता है। यह भी स्पष्ट है कि खांसी-छींक के साथ निकलने वाली सूक्ष्म बूंदों की फुहार इस वायरस को एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक पहुंचने में मदद करती हैं। लिहाज़ा रोकथाम का सबसे प्रमुख उपाय तो यही है कि व्यक्ति आपस में बहुत करीब न आएं। वैज्ञानिक बताते हैं कि इन बूंदों के माध्यम से यह वायरस 2 मीटर का फासला तय कर सकता है। खांसते-छींकते वक्त मुंह और नाक को कपड़े वगैरह से ढंकना वायरस के प्रसार को रोकने का कारगर उपाय है।

एक बात यह भी कही जा रही है कि हाथों को बार-बार साबुन से धोएं और अपने हाथों से मुंह, नाक व आंखों को छूने से बचें। कारण यह है कि यह वायरस हाथों पर काफी देर तक सक्रिय अवस्था में रह सकता है।

लेकिन आम लोगों के मन में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि जब यह हाथों पर टिका रह सकता है, तो क्या अन्य सतहों (जैसे मेज़, बर्तन, दरवाज़ों के हैंडल, किचन प्लेटफॉर्म, टॉयलेट सीट वगैरह) पर भी बना रह सकता है? और यदि ऐसा है तो ये चीज़ें कितने समय के लिए वायरस की वाहक होंगी।

मुख्तसर जवाब तो यही है कि हम नहीं जानते। लेकिन फिर भी कुछ अनुमान तो लगाए गए हैं।

जैसे दी न्यू इंगलैंड जर्नल ऑफ मेडिसिन में प्रकाशित एक हालिया अध्ययन से पता चला है कि यह वायरस हवा में तीन घंटे तक जीवन-क्षम बना रहता है। तांबे की सतह पर 4 घंटे, कार्डबोर्ड पर 24 घंटे तथा प्लास्टिक व स्टील के बर्तनों पर 72 घंटे तक जीने-योग्य बना रहता है।

एक अन्य अध्ययन सीधे नए वायरस पर तो नहीं किया गया है बल्कि इसी के भाई-बंधुओं पर किए गए पूर्व अध्ययनों पर आधारित है। दी जर्नल ऑफ हॉस्पिटल इंफेक्शन में प्रकाशित इस अध्ययन का निष्कर्ष है कि (यदि यह वायरस अन्य मानव कोरोना वायरस का मिला-जुला परिवर्तित रूप है) तो यह धातु, कांच या प्लास्टिक जैसी सतहों पर 9 दिनों तक जीवन-क्षम बना रह सकता है। तुलना के लिए देखें कि सामान्य फ्लू का वायरस ऐसी सतहों पर अधिक से अधिक 48 घंटे तक जीवन-क्षम रहता है।

अब आप ऐसी सतहों को छूने से तो नहीं बच सकते। इसलिए बेहतर है कि समय-समय पर हाथ धोते रहें और हाथों से मुंह, नाक और आंखों को छूने से बचें।

लेकिन एक खुशखबरी भी है। यदि तापमान 30 डिग्री सेल्सियस से अधिक हो तो ये वायरस इतने लंबे समय तक जीवन-क्षम नहीं रह पाते। यानी जब गर्मी बढ़ेगी तो इस वायरस के परोक्ष रूप से फैलने की संभावना कम होती जाएगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मिर्गी के दौरे में जूता सुंघाना कहां तक सही? – कालू राम शर्मा

पिछले दिनों छत्तीसगढ़ में एक सामूहिक विवाह उत्सव के दौरान एक दूल्हे को मिर्गी का दौरा पड़ा। वहां मौजूद एक अधिकारी ने मरीज़ को जूता सुंघाने का सुझाव ही नहीं दिया बल्कि उसे अपना जूता निकालकर सुंघाने लगे। कुछ ही देर में मरीज़ होश में आ गया। यह तो होना ही था क्योंकि मिर्गी का दौरा चंद सेकंड या मिनट से अधिक का नहीं होता। मिर्गी के दौरे के बाद मरीज़ अपनी सामान्य स्थिति में आ जाता है।

बाद में जूता सुंघाने का विरोध किया गया। लेकिन वे अधिकारी अड़े रहे कि यह एक कारगर उपाय है। समाज में यह मान्यता व्याप्त है कि अगर किसी को मिर्गी का दौरा पड़े तो सबसे पहले उसे जूता सुंघाया जाए। और भी तरीके अपनाए जाते हैं। मसलन मरीज़ के मुंह को ज़बर्दस्ती खोलकर पानी पिलाना। दांतों के बीच चम्मच या चाबी वगैरह फंसा दी जाती है। 

मिर्गी के दौरे में मरीज़ के मुंह से झाग निकलने लगता है और शरीर की मांसपेशियों में जकड़न व अकड़न आने लगती है। मरीज़ की आंखें बंद होने लगती है या फिर वह एकटक ताकता रहता है। मरीज़ का जबड़ा बंद हो जाता है। इस वजह से जीभ तक कट जाती है (दांतों के बीच चम्मच शायद इसी से बचाव के लिए रखा जाता है)। अक्सर मिर्गी के दौरे में निचला जबड़ा अकड़ जाता है और इसकी वजह से ऊपरी व निचले जबड़े के दांत चिपक जाते हैं। मिर्गी के दौरे के दौरान अंगों की अकड़न, मुंह से झाग आने जैसे लक्षण इसकी भयावहता को बढ़ाते हैं।

मिर्गी के मरीज़ को परिवार भी हीन नज़रों से देखने लगता है। मिर्गी के मरीज़ को संभालने की बजाय उससे दूर हटना समस्या को और बढ़ा देता है। मिर्गी के मरीज़ को जिस भावनात्मक सम्बल की ज़रूरत होती है वह न मिलने से वह तनाव में रहने लगता है। मिर्गी को लेकर अज्ञानता के चलते कहा जाता है कि उसे बाहरी हवा लग चुकी है जिसे भूत-प्रेत से जोड़ा जाता है।

मिर्गी को लेकर एक मान्यता है कि पानी के स्रोत जैसे कुएं, बावड़ी, नदी-तालाब को देखने से मिर्गी के दौरे पड़ने लगते हैं। दरअसल, पानी की मौजूदगी का मिर्गी से कोई ताल्लुक नहीं है। हां, यह ज़रूर ध्यान देने की बात है कि मिर्गी के मरीज़ को पानी के स्रोतों से दूर रखना चाहिए। इतना ही नहीं मिर्गी के मरीज़ को मशीनों से दूर रखना चाहिए व वाहन चलाने से रोकना चाहिए।

मिर्गी का मरीज़ मानसिक रोगी नहीं होता। वह पागल नहीं होता। वह आम लोगों की तरह ही होता है। उसकी शारीरिक प्रक्रियाएं सामान्य होती हैं। मिर्गी के दौरे के बाद मरीज़ सामान्य हो जाता है। 

विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि दुनिया भर में 5 करोड़ लोग मिर्गी रोग से ग्रसित हैं। मिर्गी दुनिया की सबसे व्यापक न्यूरालॉजिकल बीमारियों में से एक है। भारत में लगभग एक करोड़ मिर्गी के रोगी हैं। यह दुखद है कि मिर्गी से पीड़ित तीन-चौथाई लोगों को उचित इलाज नहीं मिल पाता।

मान्यता यह भी है कि मिर्गी एक संक्रामक रोग है और यह रोगी के संपर्क में आने से फैलता है। यह पूरी तरह से गलत है। यह पूरी तरह से आनुवंशिक भी नहीं है। लगभग एक प्रतिशत लोगों में ही यह आनुवंशिक होता है।

चरक संहिता में मिर्गी का उल्लेख है। चरक ने इसे शारीरिक बीमारियों जैसा ही माना है। औषधियों से इसके उपचार की बात कही है। हिप्पोक्रेटस ने कहा है कि मिर्गी दैवी बीमारी नहीं है। महाकवि माघ ने मिर्गी की तुलना समुद्र से की है। दोनों ज़मीन पर पड़े हैं, गरजते हैं, भुजाएं हिलाते हैं व झाग पैदा करते हैं। शेक्सपीयर के साहित्य में भी मिर्गी का विवरण मिलता है। ओथेलो के नायक को मिर्गी का दौरा पड़ता है व अन्य दो पात्र कैसियो व इयागो उसकी हंसी उड़ाते हैं। उल्लेख मिलता है कि हालैंड के जाने-माने चित्रकार विन्सेन्ट वैन गॉग मिर्गी से पीड़ित थे।

मिर्गी का बुद्धि से कोई सम्बंध नहीं। दरअसल, मिर्गी एक तंत्रिका सम्बंधी विकार है। व्यक्ति को दौरे पड़ते हैं इससे दिमागी संतुलन बिगड़ जाता है। इसके आम लक्षण हैं बेहोशी आना, चक्कर आना, गिर पड़ना, हाथ-पैरों में झटके आना वगैरह।

हमारे पूरे शरीर में तंत्रिकाओं का जाल बिछा हुआ है जो अंतत: मस्तिष्क से जुड़ा होता है। व्यक्ति का मस्तिष्क विद्युत संकेतों पर निर्भर करता है जो तंत्रिकाएं उसे भेजती रहती हैं। हमें अपने अंगों या चमड़ी से जो भी संवेदनाएं महसूस होती हैं वे तंत्रिकाओं के जरिए मस्तिष्क तक पहुंचती हैं। तंत्रिकाओं के द्वारा जो संकेत मस्तिष्क तक पहुंचते हैं व मस्तिष्क से अंगों तक पहुंचते हैं वे तंत्रिका तंत्र की सबसे छोटी इकाई न्यूरॉन में विद्युत-रासायनिक क्रिया का परिणाम होते हैं। अगर आप अपने हाथ को हिलाते हैं तो मस्तिष्क से हाथ को संकेत तंत्रिकाओं के ज़रिए ही भेजा जाता है। हर काम का संदेश मस्तिष्क तंत्रिकाओं के ज़रिए उस अंग तक भेजता है।

दुर्भाग्य से मस्तिष्क इस कार्य को कुछ लोगों में ठीक से नहीं कर पाता। मिर्गी के मरीज़ में यही होता है, खास तौर से जब मिर्गी का दौरा आया हो। दरअसल, मस्तिष्क में फीडबैक व्यवस्था होती है। अगर मस्तिष्क किसी अंग को सक्रिय रहने का निर्देश देता है तो उसे रोकने की भी व्यवस्था होती है। अगर इस व्यवस्था में गड़बड़ी हो तो उसे मस्तिष्क नियंत्रित नहीं कर पाता है। मिर्गी के लिए मस्तिष्क की यही गड़बड़ी ज़िम्मेदार होती है।

तंत्रिका कोशिकाएं या न्यूरान्स विद्युत-रासायनिक संकेत पैदा करते हैं जो विचारों, भावनाओं और तमाम कामों को करने के लिए प्रेरित करते हैं। मिर्गी आने का अर्थ है कि एक ही वक्त में कई न्यूरॉन्स एक ही समय में संकेत देने लगते हैं – एक सेकंड में लगभग 500 संकेत जो सामान्य से कई गुना अधिक हैं। न्यूरॉन्स के ये अत्यधिक संकेत अनैच्छिक क्रियाओं, संवेदनाओं और भावनाओं की वजह बनते हैं। न्यूरॉन्स की अस्थाई गड़बड़ी से उस व्यक्ति की शारीरिक संवेदना को नुकसान होता है। व्यक्ति को दौरे पड़ने लगते हैं। दौरे की अवधि कुछ सेकंड से लेकर दो-तीन मिनट तक हो सकती है।

मिर्गी के दौरे में मासंपेशियों में संकुचन होने लगता है और मरीज़ चेतना खो देता है। कुछ में चेतना नहीं जाती और वे कुछ पल के लिए ताकते रहते हैं। मिर्गी से ग्रसित कुछ व्यक्ति दिन में कई बार इसकी जकड़ में आते हैं।

मिर्गी में मस्तिष्क के हिस्सों को असामान्य रूप से अधिक विद्युत संकेत मिलते हैं जो उसके सामान्य कामकाज को बाधित करता है। तंत्रिका कोशिकाओं के बीच विद्युतीय संकेतों में यह उछाल क्यों आता है, इसे समझने की कोशिश की जा रही है। नेवाडा विश्वविद्यालय, लॉस वेगास के शोधकर्ता रोशेल हाइन्स के नेतृत्व में तंत्रिका विज्ञानियों ने यह पता लगाया है कि मस्तिष्क के प्रोटीन्स के बीच परस्पर किस प्रकार की अंतर्क्रिया होती है।

हाइन्स की टीम ने केंद्रीय तंत्रिका तंत्र को बाधित करने में शामिल दो प्रोटीनों का पता लगाया है। नए शोध से पता चलता है कि वे दो प्रोटीन मिर्गी के लिए ज़िम्मेदार हैं। मस्तिष्क हमारी मांसपेशियों को तंत्रिकाओं के ज़रिए संकेत देता है और वे उत्तेजित होती हैं। इसी दौरान मस्तिष्क न्यूरॉन्स को यह संकेत भी देता है कि मांसपेशियों की उत्तेजना को रोक सके। इस उत्तेजना व बाधित करने के बीच सामान्य मनुष्य में संतुलन बना रहता है।

रोशेल हाइन्स व उनकी टीम ने पाया कि मस्तिष्क की गतिविधियों को नियंत्रित करने के लिए इन दोनों प्रोटीन के बीच संवाद ज़रूरी है। अगर यह संवाद न हो तो मिर्गी के झटके आने लगते हैं। शोध का जोर इस बात पर था कि इस प्रोटीन-द्वय प्रणाली को बाधित करने के तरीके का पता लगाया जाए। इसके पहले के अनुसंधान में पूरे मस्तिष्क को नियंत्रित करने पर ज़ोर दिया जाता था। इसके कई दुष्प्रभाव होते हैं। इस शोध को आधार बनाकर अब वैज्ञानिक इन दो प्रोटीनों के बीच संवाद पर काम कर सकते हैं। अभी तक इस तरह की दवा नहीं बनाई जा सकी है। संभावना हैं कि इस दिशा में आगे और काम होगा व ऐसी दवाएं बनाई जा सकेगी जिनसे दुष्प्रभाव कम किए जा सकेंगे।(स्रोत फीचर्स)

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कोरोना वायरस के खिलाफ दवाइयों के जारी परीक्षण

ए कोरोना वायरस (SARS-CoV-2) ने दुनिया को संकट में डाल दिया है। इस नए वायरस की वजह से कोविड-19 नामक रोग होता है जिसके लक्षणों में बुखार, सूखी खांसी, सांस लेने में परेशानी और थकान शामिल हैं। नाक बहना, दस्त, गले में दर्द तथा बदन दर्द इसके अन्य लक्षण हैं।

फिलहाल दुनिया भर में चार लाख से अधिक लोग संक्रमित हैं और 10 हज़ार से ज़्यादा मौतें इस वायरस की वजह से हो चुकी हैं। फिलहाल इसके लिए कोई दवा उपलब्ध नहीं है। इसलिए स्वाभाविक रूप से पूरा ध्यान रोकथाम पर टिका है। रोकथाम का मुख्य उपाय व्यक्ति से व्यक्ति को होने वाले संक्रमण को रोकना है। इसके लिए भारत समेत कई देशों ने विविध तरीके अपनाए हैं। लॉकडाउन इसी का एक रूप है जिसके ज़रिए व्यक्तियों का आपसी संपर्क कम से कम करने का प्रयास किया जाता है।

यह सही है कि फिलहाल कोविड-19 के लिए कोई दवा नहीं है किंतु दुनिया भर में विभिन्न दवाइयों का परीक्षण चल रहा है और कुछ प्रयोगशालाएं इसके खिलाफ टीका विकसित करने के प्रयास में युद्ध स्तर पर जुटी हैं। ताज़ा रिपोर्ट के मुताबिक इस समय दुनिया की अलग-अलग संस्थाओं द्वारा 86 क्लीनिकल परीक्षण चल रहे हैं और जल्दी ही सकारात्मक परिणाम की उम्मीद है। आइए ऐसे कुछ प्रयासों पर नज़र डालें।

1. जापानी फ्लू की औषधि

जापान की कंपनी फ्यूजीफिल्म टोयोमा केमिकल द्वारा विकसित एक औषधि ने कोविड-19 के कुछ हल्के-फुल्के और मध्यम तीव्रता के मामलों में उम्मीद जगाई है। यह एक वायरस-रोधी दवा है – फैविपिरेविर। जापान में इसका उपयोग फ्लू के उपचार में किया जाता है। हाल ही में इसे कोविड-19 के प्रायोगिक उपचार हेतु अनुमोदित किया गया है। अब तक इसका परीक्षण वुहान और शेनज़ेन में 340 मरीज़ों पर किया गया है और बताया गया है कि यह सुरक्षित है और उपचार में कारगर है।

यह दवा (फैविपिरेविर) कुछ वायरसों को अपनी संख्या बढ़ाने से रोकती है और इस तरह से यह बीमारी की अवधि को कम कर देती है और फेफड़ों की सेहत को बेहतर बनाती है। वैसे अभी इस अध्ययन का प्रकाशन किसी समकक्ष-समीक्षित शोध पत्रिका में नहीं हुआ है।

2. क्लोरोक्वीन और हायड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन

इन दवाइयों को मलेरिया, ल्यूपस और गठिया के उपचार हेतु मंज़ूरी मिली है। मनुष्यों और प्रायमेट जंतुओं की कोशिकाओं पर किए गए प्रारंभिक परीक्षण से संकेत मिला है कि ये दवाइयां कोविड-19 के इलाज में कारगर हो सकती हैं।

पूर्व (2005) में किए गए एक अध्ययन में पता चला था कि संवर्धित मानव कोशिकाओं का उपचार क्लोरोक्वीन से किया जाए तो SARS-CoVका प्रसार थम जाता है। नया वायरस SARS-CoV-2 इससे मिलता-जुलता है। क्लोरोक्वीन SARS-CoVको मानव कोशिकाओं में प्रवेश करके संख्यावृद्धि करने से रोकती है। हाल में किए गए अध्ययनों से पता चला है कि क्लोरोक्वीन और उस पर आधारित हायड्रॉक्सी-क्लोरोक्वीन दोनों ही नए वायरस की संख्यावृद्धि पर भी रोक लगाती हैं।

फिलहाल चीन, दक्षिण कोरिया, फ्रांस और यूएस में कोविड-19 के कुछ मरीज़ों को ये दवाइयां दी गई हैं और परिणाम आशाजनक बताए जाते हैं। अब यूएस का खाद्य व औषधि प्रशासन इन दवाइयों का विधिवत क्लीनिकल परीक्षण शुरू करने वाला है। फरवरी में ऐसे 7 क्लीनिकल परीक्षणों का पंजीयन हो चुका था। इसके अलावा, मिनेसोटा विश्वविद्यालय में इस बात का भी अध्ययन किया जा रहा है कि क्या हायड्रॉक्सी-क्लोरोक्वीन मरीज़ की देखभाल करने वालों को रोग से बचा सकती है।

हायड्रॉक्सी-क्लोरोक्वीन से सम्बंधित एक अन्य अध्ययन फ्रांस में भी किया गया है। इसके तहत कुछ मरीज़ों को अकेला हायड्रॉक्सी-क्लोरोक्वीन दिया गया और कुछ मरीज़ों को हायड्रॉक्सी-क्लोरोक्वीन और एक अन्य दवा एज़िथ्रोमायसीन दी गई। एज़िथ्रोमायसीन एक एंटीबायोटिक है। शोधकर्ताओं का कहना है कि जिन मरीज़ों को ये दवाइयां दी गर्इं, उनमें SARS-CoV-2 की मात्रा में फ्रांस के अन्य मरीज़ों की अपेक्षा काफी तेज़ी से गिरावट आई। लेकिन इस अध्ययन में तुलनात्मक आकलन का कोई प्रावधान नहीं था। वैसे भी कहा जा रहा है कि इन दवाइयों का उपयोग काफी सावधानी से किया जाना चाहिए, खास तौर से गुर्दे की समस्याओं से पीड़ित मरीज़ों के संदर्भ में।

3. एबोला की नाकाम दवा

जिलीड साइन्सेज़ ने एक दवा रेमडेसिविर विकसित की थी जिसका परीक्षण एबोला के मरीज़ों पर किया गया था। अब इस दवा को कोविड-19 के मरीज़ों पर आजमाया जा रहा है। वैसे रेमडेसिविर एबोला के इलाज में नाकाम रही थी लेकिन प्रयोगशालाओं में किए गए अध्ययनों से यह प्रमाणित हो चुका है कि यह दवा SARS-CoV-2 जैसे अन्य वायरसों की वृद्धि को रोक सकती है। प्रायोगिक तश्तरियों में किए गए प्रयोगों में रेमडेसिविर मानव कोशिकाओं को SARS-CoV-2 के संक्रमण से बचाती है। अभी यूएस के खाद्य व औषधि प्रशासन ने कोविड-19 के गंभीर मरीज़ों के लिए रेमडेसिविर के अनुकंपा उपयोग की अनुमति दे दी है।

चीन व यूएस में 5 क्लीनिकल परीक्षण इस बात की जांच कर रहे हैं कि क्या रेमडेसिविर कोविड-19 के रोग की अवधि को कम कर सकती है और उसके साथ होने वाली पेचीदगियों को कम कर सकती है। कई डॉक्टरों का विचार है कि यही सबसे कारगर दवा साबित होगी। लेकिन अध्ययनों से पता चला है कि यह तभी ज़्यादा कारगर होती है जब रोग की शुरुआत में दे दी जाए। वैसे अभी इस दवा के असर को लक्षणों के स्तर पर ही परखा गया है, खून में वायरस की मात्रा वगैरह पर इसके असर का आकलन अभी शेष है। कुछ डॉक्टरों ने इसके साइड प्रभावों पर भी चिंता व्यक्त की है।

4. एड्स दवाइयों का मिश्रण

शुरू-शुरू में तो लोपिनेविर और रिटोनेविर के मिश्रण से बनी दवा केलेट्रा ने काफी उत्साह पैदा किया था लेकिन आगे चलकर पता चला कि इससे मरीज़ों को कोई खास फायदा नहीं होता है। कुल 199 मरीज़ों में से कुछ को केलेट्रा दी गई जबकि कुछ मरीज़ों को प्लेसिबो दिया गया। देखा गया कि केलेट्रा का सेवन करने वाले कम मरीज़ों की मृत्यु हुई लेकिन अंतर बहुत अधिक नहीं था। और तो और, दोनों के रक्त में वायरस की मात्रा एक समान ही रही। बहरहाल, अभी इस सम्मिश्रण पर कई और अध्ययन जारी हैं और उम्मीद की जा रही है कि आशाजनक परिणाम मिलेंगे।

5. गौण प्रभावों के लिए दवा

कोविड-19 के कुछ मरीज़ों में देखा गया है कि स्वयं वायरस उतना नुकसान नहीं करता जितना कि उनका अपना अति-सक्रिय प्रतिरक्षा तंत्र कर देता है। इसलिए प्रतिरक्षा तंत्र पर नियंत्रण रखने के लिए उपयोग की जाने वाली दवा टॉसिलिज़ुमैब को आजमाया जा रहा है। जल्दी ही कोविड-19 निमोनिया से ग्रस्त मरीज़ों पर ऐसा परीक्षण करने की योजना है। इसी प्रकार की एक अन्य दवा सैरीलुमैब के परीक्षण पर भी काम चल रहा है।

6. रक्तचाप की दवाइयां

कुछ वैज्ञानिकों का विचार है कि रक्तचाप की औषधि लोसार्टन कोविड-19 के मरीज़ों के लिए मददगार साबित हो सकती है। मिनेसोटा विश्वविद्यालय ने इस दवा के दो क्लीनिकल परीक्षण शुरू किए हैं। लोसार्टन दरअसल कोशिकाओं पर उपस्थित एक ग्राही को अवरुद्ध करता है। एंजियोटेंसिन-2 नामक रसायन इसी ग्राही की मदद से कोशिका में प्रवेश करके रक्तचाप को बढ़ाता है। SARS-CoV-2 एंजियोटेंसिन-कंवर्टिंग एंज़ाइम-2 (ACE2) के ग्राही से जुड़ता है। सोच यह है कि जब लोसार्टन इन ग्राहियों को बाधित कर देगा तो वायरस कोशिका में प्रवेश नहीं कर पाएगा। लेकिन शंका यह व्यक्त की गई है कि लोसार्टन जैसी दवाइयां ACE2 के उत्पादन को बढ़ा देंगी और वायरस के कोशिका प्रवेश की संभावना बढ़ भी सकती है। इटली में 355 कोविड-19 मरीज़ों पर किए गए एक अध्ययन में पता चला कि जिन मरीज़ों की मृत्यु हुई उनमें से तीन-चौथाई उच्च रक्तचाप से पीड़ित थे। हो सकता है कि उच्च रक्तचाप ने ही इन्हें ज़्यादा खतरे में डाला हो।

कुल मिलाकर, दुनिया भर में कोविड-19 के लिए दवा की खोज के प्रयास ज़ोर-शोर से चल रहे हैं लेकिन इसमें काफी जटिलताएं हैं। फिर भी इतनी कोशिशों के परिणाम ज़रूर लाभदायक होंगे। अलबत्ता, एक सावधानी आवश्यक है। ये दवाइयां अभी परीक्षण के चरण में हैं। स्वयं इनका उपयोग करना नुकसानदायक भी हो सकता है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कोरोना वायरस किसी प्रयोगशाला से नहीं निकला है

ए कोरोना वायरस की वजह से दुनिया परेशान है, वैज्ञानिक इसका इलाज ढूंढने में दिन-रात एक कर रहे हैं, सरकारें इसे फैलने से रोकने के कठिन प्रयास कर रही हैं। लेकिन पूरी कहानी में षडयंत्र की बू न हो तो कुछ लोगों को मज़ा नहीं आता। तो यह सुझाव दिया गया कि यह नया जानलेवा वायरस SARS-CoV-2 वुहान की प्रयोगशाला में बनाकर जानबूझकर छोड़ा गया है। हाल ही में स्क्रिप्स रिसर्च इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिकों ने गहन विश्लेषण के आधार पर स्पष्ट कर दिया है कि SARS-CoV-2 कहीं किसी प्रयोगशाला की साज़िश नहीं है। तो उन्होंने यह कैसे पता लगाया?

उनके शोध कार्य का ब्यौरा नेचर मेडिसिन शोध पत्रिका के 17 मार्च के अंक में प्रकाशित हुआ है। वैज्ञानिकों के दल ने इन नए वायरस के जीनोम (यानी पूरी जेनेटिक सामग्री) की तुलना सात ऐसे कोरोना वायरसों से की जो मनुष्यों को संक्रमित करते हैं: सार्स, मर्स और सार्स-2 (ये तीनों गंभीर रोग पैदा करते हैं), HKU1, NL63, OC43 और 229E  (जो हल्की बीमारी के लक्षण पैदा करते हैं)। शोधकर्ताओं का कहना है कि “हमारे विश्लेषण से साफ तौर पर पता चलता है कि SARS-CoV-2 प्रयोगशाला की कृति या जानबूझकर सोद्देश्य बनाया गया वायरस नहीं है।”

स्क्रिप्स रिसर्च इंस्टीट्यूट में प्रतिरक्षा विज्ञान और सूक्ष्मजीव विज्ञान के एसोसिएट प्रोफेसर क्रिस्टियान एंडरसन और उनके साथियों ने वायरस की सतह के उभारों के कंटक प्रोटीन का जेनेटिक सांचा देखा। कोरोना वायरस इन कंटकों का उपयोग किसी कोशिका की सतह को पकड़कर रखने और उसके अंदर प्रवेश करने के लिए करता है। शोधकर्ताओं ने इन कंटक प्रोटीन के दो प्रमुख गुणधर्मों के लिए ज़िम्मेदार जीन शृंखला को देखा। ये दो मुख्य गुणधर्म होते हैं – संडसी (हुक) और छेदक। संडसी वह हिस्सा होता है जो कोशिका की सतह पर चिपक जाता है और छेदक वह हिस्सा होता है जो कोशिका झिल्ली को खोलकर वायरस को अंदर घुसने में मदद करता है।

विश्लेषण से पता चला कि हुक वाला हिस्सा इस तरह विकसित हुआ है कि वह मानव कोशिका की बाहरी सतह पर उपस्थित ACE2 नामक ग्राहियों से जुड़ जाता है। जुड़ने में यह इतना कारगर है कि वैज्ञानिकों का ख्याल है कि यह जेनेटिक इंजीनियरिंग का नहीं बल्कि प्राकृतिक चयन का परिणाम है।

उन्हें ऐसा क्यों लगता है? SARS-CoV-2 एक अन्य वायरस का बहुत नज़दीकी सम्बंधी है जो सार्स के लिए ज़िम्मेदार होता है। वैज्ञानिकों ने इस बात का अध्ययन कर लिया है कि SARS-CoVऔर SARS-CoV-2 में क्या अंतर हैं। इनके जेनेटिक कोड में कई महत्वपूर्ण अंतर देखे गए हैं। लेकिन जब कंप्यूटर मॉडल तैयार किया गया तो SARS-CoV-2 के उत्परिवर्तन उसे मानव कोशिका से जुड़ने में बहुत मददगार नहीं रहे। यदि किसी प्रयोगशाला ने जानबूझकर ये परिवर्तन किए होते तो वे कदापि ऐसे उत्परिवर्तनों को नहीं चुनते जो कंप्य़ूटर मॉडल के हिसाब से मददगार नहीं हैं। अध्ययन का निष्कर्ष है कि प्रकृति कहीं अधिक चतुर है और उसने सर्वथा नए उत्परिवर्तनों को चुना है।

एक और मुद्दा है। कुल मिलाकर, इस वायरस की संरचना अन्य कोरोना वायरसों से बहुत अलग है। इसकी संरचना चमगादड़ों और पैंगोलिन में पाए जाने वाले वायरस के कहीं अधिक समान है। इन वायरसों का ज़्यादा अध्ययन नहीं हुआ है और इन्होंने मनुष्यों को हानि पहुंचाई हो, ऐसी कोई रिपोर्ट भी नहीं है।

“यदि कोई एक नया कोरोना वायरस एक रोगजनक के रूप में विकसित करना चाहता तो वह इसे किसी ऐसे वायरस की बुनियाद पर निर्मित करता जो जाना-माना रोगजनक हो।”

वायरस आया कहां से और कैसे? यह सवाल सिर्फ वैज्ञानिक रुचि का सवाल नहीं है बल्कि SARS-CoV-2 के भावी परिणामों से जुड़ा है। शोध समूह ने दो परिदृश्य प्रस्तुत किए हैं।

पहला परिदृश्य मानव आबादी को प्रभावित करने वाले कुछ ऐसे कोरोना वायरस से मेल खाता है जो सीधे किसी अन्य जंतु से आए हैं। सार्स के मामले में वायरस सिवेट (मुश्कबिलाव) से आया था और मिडिल ईस्ट रेस्पिरेटरी सिंड्रोम (मर्स) के मामले में वह ऊंट से मनुष्य में आया था। अनुसंधान से पता चला है कि SARS-CoV-2 चमगादड़ से मनुष्य में आया है। चमगादड़ से यह वायरस एक मध्यस्थ जंतु (संभवत: पैंगोलिन) में पहुंचा और वहां से मनुष्य में।

यदि यह परिदृश्य हकीकत है तो इस वायरस के मनुष्य में पहुंचने से पहले ही मनुष्य को संक्रमित करने की इसकी क्षमता (रोगजनक क्षमता) तैयार हो चुकी होगी।

दूसरा परिदृश्य यह है कि इसके रोगजनक लक्षण जंतु से मनुष्य में पहुंचने के बाद विकसित हुए हैं। पैंगोलिन में उत्पन्न कुछ कोरोना वायरस ऐसे हैं जिनमें हुक की संरचना SARS-CoV-2 जैसी होती है। इस तरह से पैंगोलिन ने वायरस को मनुष्य के शरीर में पहुंचा दिया और एक बार मनुष्य शरीर में प्रवेश के बाद वायरस ने बाकी के लक्षण (कोशिका के अंदर घुसने के लिए ज़रूरी औज़ार) विकसित कर लिए होंगे। एक बार कोशिका में घुसने की क्षमता आ जाए तो यह वायरस एक से दूसरे मनुष्य में फैलना संभव हो गया होगा।

इस तरह की तकनीकी जानकारी से लैस होकर वैज्ञानिक इस महामारी का भविष्य बता पाएंगे। यदि यह वायरस मनुष्य में पहुंचने से पहले ही रोगजनक था तो इसका मतलब है कि मनुष्यों में से इसके खात्मे के बाद भी यह सम्बंधित जंतु में पनपता रहेगा और फिर से हमला कर सकता है। दूसरी ओर, यदि दूसरा परिदृश्य सही है तो इसके वापिस लौटने की संभावना कम है क्योंकि तब इसे फिर से मानव शरीर में प्रवेश करके एक बार फिर नए सिरे से रोगजनक क्षमता विकसित करनी होगी।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कोरोना वायरस के स्रोत पर गहराता रहस्य

विश्व भर में तबाही मचाने वाले कोरोना वायरस के स्रोत की पहचान करने के लिए वैज्ञानिकों को काफी मशक्कत करनी पड़ रही है। आनुवंशिक विश्लेषण के आधार पर चीनी वैज्ञानिकों ने चींटी खाने वाले पैंगोलिन को इसका प्रमुख संदिग्ध बताया था। अन्य तीन पैंगोलिन कोरोना वायरस के जीनोम के अध्ययन के बाद वैज्ञानिक इसे अभी भी एक दावेदार के रूप में देखते हैं, लेकिन गुत्थी अभी पूरी तरह सुलझी नहीं है।

वैज्ञानिकों का मानना है कि जिस तरह 2002 में सिवेट (मुश्कबिलाव) से कोरोना वायरस मनुष्यों में आया था उसी तरह इस रोगजनक ने किसी जीव से ही मनुष्यों में प्रवेश किया होगा। फिलहाल चाइनीज़ सेंटर फॉर डिसीस कंट्रोल एंड प्रिवेंशन सहित चीन की तीन प्रमुख टीमें इसकी उत्पत्ति का पता लगाने की कोशिश कर रही हैं। 

पैंगोलिन पर संदेह करने के कुछ खास कारण हैं। चीन में पैंगोलिन के मांस  की काफी मांग है और शल्क का उपयोग पारंपरिक चिकित्सा में किया जाता है। हालांकि चीन में इसकी बिक्री पर प्रतिबंध है फिर भी इसकी तस्करी आम बात है। शोधकर्ताओं के अनुसार तस्करी किए गए पैंगोलिन से प्राप्त कोरोना वायरस, आनुवंशिक रूप से लोगों में मिले कोरोना वायरस के नमूनों से 99 प्रतिशत मेल खाता है। लेकिन यह परिणाम पूरे जीनोम पर आधारित नहीं है। यह जीनोम के एक विशिष्ट हिस्से से सम्बंधित है जिसे रिसेप्टर-बाइंडिंग डोमेन (आरबीडी) कहा जाता है। पूरे जीनोम के स्तर पर मनुष्यों और पैंगोलिन से प्राप्त वायरस का डीएनए 90.3 प्रतिशत ही मेल खाता है।    

आरबीडी कोरोना वायरस का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह वायरस को कोशिका में प्रवेश करने की क्षमता देता है। अन्य शोधकर्ताओं के अनुसार दो वायरसों के आरबीडी में 99 प्रतिशत समानता होने के बाद भी उन्हें एक-दूसरे से सम्बंधित नहीं माना जा सकता है। विभिन्न अध्ययनों में 85.5 प्रतिशत से 92.4 प्रतिशत समानता पाई गई है।

मैकमास्टर युनिवर्सिटी, कनाडा में अध्ययनरत अरिंजय बैनर्जी के अनुसार पूर्व में सार्स वायरस का 99.8 प्रतिशत जीनोम सिवेट बिल्ली के जीनोम से मेल खाता पाया गया था, जिसके चलते सिवेट को इसका स्रोत माना गया था।

अभी तक मनुष्यों से प्राप्त कोरोना वायरस सर्वाधिक (96 प्रतिशत) चमगादड़ों से प्राप्त कोरोना वायरस से मेल खाता है। लेकिन इन दो वायरसों में आरबीडी साइट्स का अंतर पाया गया है। इससे यह पता चलता है कि चमगादड़ों से यह कोरोना वायरस सीधा मनुष्यों में नहीं बल्कि किसी मध्यवर्ती जीव से मनुष्यों में प्रवेश किया है।

कुछ अन्य अध्ययन मामले को और अधिक रहस्यमयी बना रहे हैं। यदि यह वायरस पैंगोलिन से आया है तो फिर जिस देश से इसको तस्करी करके लाया गया है वहां इसके संक्रमण की कोई रिपोर्ट क्यों नहीं है? लेकिन एक चिंता यह व्यक्त की गई है कि पैंगोलिन को वायरस का स्रोत मानकर लोग इसे मारने न लगें जैसा सार्स प्रकोप के समय सिवेट के साथ हुआ था।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कृत्रिम बुद्धि से एंटीबायोटिक की खोज – प्रदीप

फ्लेमिंग ने 1928 में पेनिसिलीन एंटीबायोटिक की खोज करके संक्रामक रोगों से लड़ने का रास्ता दिखाया था। एंटीबायोटिक दवाएं संक्रामक रोगों के उपचार में रामबाण साबित हुर्इं। लेकिन अब ये जीवनरक्षक दवाएं सूक्ष्मजीव प्रतिरोध के चलते बेअसर हो रही हैं।  विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक, पिछले कुछ दशकों में इनका बहुत दुरुपयोग और बेजा इस्तेमाल हुआ है।

एंटीबायोटिक दवाओं के बैक्टीरिया पर घटते असर के मद्देनज़र पिछले कुछ वर्षों से वैज्ञानिक कृत्रिम बुद्धि (एआई) की मदद से नए किस्म की दवाओं की खोज करने की कोशिश कर रहे हैं ताकि प्रतिरोधी बैक्टीरिया का खात्मा किया जा सके। हाल ही में इस दिशा में एक बड़ी कामयाबी हासिल हुई है। अमेरिका के मैसाचूसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी (एमआईटी) के वैज्ञानिकों ने एआई की मदद से एक नया और शक्तिशाली एंटीबायोटिक तैयार किया है। शोधकर्ताओं का दावा है कि इस एंटीबायोटिक से तमाम घातक बीमारियां पैदा करने वाले बैक्टीरिया को भी मारा जा सकता है। इस एंटीबायोटिक से उन सभी बैक्टीरिया का खात्मा किया जा सकता है जो ज्ञात एंटीबायोटिक दवाओं के प्रतिरोधी हो चुके हैं।

इस नए एंटीबायोटिक को हेलिसिन नाम दिया गया है। इसका परीक्षण कई बैक्टीरिया पर किया गया है। परीक्षण में हेलिसिन इन सभी जीवाणुओं को मारने में सफल रहा है। एसीनेटोबैक्टर बॉमनी एक ऐसा जीवाणु है जिस पर ज़्यादातर एंटीबायोटिक दवाएं बेअसर साबित होती हैं लेकिन हेलिसिन 24 घंटों में इस जीवाणु के संक्रमण को कम कर देता है। पूर्व अनुसंधान में यह देखा गया था कि . कोली नामक बैक्टीरिया एक से तीन दिन के भीतर ही प्रचलित एंटीबायोटिक सिप्रोफ्लॉक्सेसिन का प्रतिरोधी होने लगता है और 30 दिन में सिप्रोफ्लॉक्सेसिन बिलकुल बेअसर हो जाता है। हेलिसिन . कोली बैक्टीरिया को भी खत्म कर सकता है। एमआईटी की रिसर्च टीम के जेम्स कॉलिन का कहना है कि हेलिसिन का इस्तेमाल फिलहाल चूहों पर किया गया है। जल्दी ही इंसानों पर परीक्षण किए जाएंगे।

कॉलिन का कहना है कि वे एआई की मदद से ऐसा प्लेटफॉर्म तैयार कर रहे हैं जिससे नए किस्म की दवा की खोज हो सके। शोधकर्ताओं का कहना है कि इंसान के मुकाबले एआई की मदद से कम समय में और बेहतर शोध किया जा सकता है। इससे चंद दिनों में 10 करोड़ से ज़्यादा रसायनों की जांच हो सकती है। वैज्ञानिक एआई का इस्तेमाल करके दवाओं की कीमत कम करने के अलावा ऐसे अणु तैयार कर रहे हैं जिनसे जटिल बीमारियों का इलाज मुमकिन हो सके।

एमआईटी के वैज्ञानिकों ने एआई की मदद से 800 प्राकृतिक उत्पादों का एक सेट बनाया है। 6000 यौगिकों में से एक ऐसे अणु की पहचान करने में कामयाबी मिली जो बैक्टीरिया का सफाया करने में कारगर रहा।

पिछले कुछ दशकों में बहुत कम नए एंटीबायोटिक्स विकसित किए गए हैं और ये प्राय: मौजूदा दवाओं से थोड़े ही अलग हैं। दूसरी ओर, बैक्टीरिया कहीं तेज़ी से इनके खिलाफ प्रतिरोधी हो रहे हैं। ऐसे में हेलिसिन एक नई उम्मीद जगाता है। वैज्ञानिक हेलिसिन के आधार पर बेहतर एंटीबायोटिक्स दवाएं विकसित करने में जुटे हैं, और इस बात का भी ध्यान रख रहे हैं कि इनसे पाचन तंत्र में मौजूद लाभकारी बैक्टीरिया को नुकसान न पहुंचे।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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बुढ़ापे की जड़ में एक एंज़ाइम – एस. अनंतनारायणन

रिवर्तन और बूढ़े होने की प्रक्रियाएं ही हैं जो हमें समय बीतने का एहसास कराती हैं। और समय बीतने का एहसास न हो तो मानव विकास, कला व सभ्यता काफी अलग होंगे।

प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइन्सेज़ (पीएनएएस) में ए एंड एम विश्वविद्यालय, एरिज़ोना स्टेट विश्वविद्यालय, चाइना कृषि विश्वविद्यालय और स्कोल्वो विज्ञान व टेक्नॉलॉजी संस्थान के शोधकर्ताओं के एक शोध पत्र में सजीवों में बुढ़ाने की प्रक्रिया की क्रियाविधि की एक समझ एक कदम आगे बढ़ी है।

इस कदम का सम्बंध कोशिकाओं में उपस्थित डीएनए के एक अंश से है, जो कोशिकाओं के विभाजन और नवीनीकरण में भूमिका निभाता है। यह घटक सबसे पहले ठहरे हुए पानी की एक शैवाल में खोजा गया था और आगे चलकर पता चला कि यह अधिकांश सजीवों के डीएनए में पाया जाता है। पीएनएएस के शोध पत्र में टीम ने खुलासा किया है कि यह घटक पौधों में कैसे काम करता है। धरती पर सबसे लंबी उम्र पौधे ही पाते हैं, इसलिए इनमें इस घटक की समझ को आगे चलकर अन्य जीवों और मनुष्यों पर भी लागू किया जा सकेगा।

सजीवों में वृद्धि और प्रजनन दरअसल कोशिका विभाजन के ज़रिए होते हैं। विभाजन के दौरान कोई भी कोशिका दो कोशिकाओं में बंट जाती हैं, जो मूल कोशिका के समान होती हैं। यह प्रतिलिपिकरण कोशिका के केंद्रक में उपस्थित डीएनए की बदौलत होता है। डीएनए एक लंबा अणु होता है जिसमें कोशिका के निर्माण का ब्लूप्रिंट भी होता है और स्वयं की प्रतिलिपि बनाने का साधन भी होता है। डीएनए की प्रतिलिपि इसलिए बन पाती है क्योंकि यह दो पूरक शृंखलाओं से मिलकर बना होता है। जब ये दोनों शृंखलाएं अलग-अलग होती हैं, तो दोनों में यह क्षमता होती है कि वे अपने परिवेश से पदार्थ लेकर दूसरी शृंखला बना सकती हैं।

लेकिन इसमें एक समस्या है। प्रतिलिपिकरण के दौरान ये शृंखलाएं लंबी हो सकती हैं या किसी अन्य डीएनए से जुड़ सकती हैं। ऐसा होने पर जो अणु बनेगा वह अकार्यक्षम होगा और इस तरह से बनने वाली कोशिकाएं नाकाम साबित होंगी। लिहाज़ा डीएनए में एक ऐसी व्यवस्था बनी है कि ऐसी गड़बड़ियों को रोका जा सके। प्रत्येक डीएनए के सिरों पर कुछ ऐसी रासायनिक रचना होती है जो बताती है कि वह उस अणु का अंतिम हिस्सा है। और डीएनए में यह क्षमता होती है कि वह अपने सिरों पर यह व्यवस्था बना सके।

सिरे पर स्थित इस व्यवस्था को टेलामेयर कहते हैं। यह वास्तव में उन्हीं इकाइयों से बना होता है जो डीएनए को भी बनाती हैं। और यह टेलोमेयर एक एंज़ाइम की मदद से बनाया जाता है जिसे टेलोमरेज़ कहते हैं। कोशिकाओं में किसी भी रासायनिक क्रिया के संपादन हेतु एंज़ाइम पाए जाते हैं।

बुढ़ाने की प्रक्रिया की प्रकृति को समझने की दिशा में शुरुआती खोज यह हुई थी कि कोई भी कोशिका कितनी बार विभाजित हो सकती है, इसकी एक सीमा होती है। आगे चलकर इसका कारण यह पता चला कि हर बार विभाजन के समय जो नई कोशिकाएं बनती हैं, उनका डीएनए मूल कोशिका के समान नहीं होता। हर विभाजन के बाद टेलोमेयर थोड़ा छोटा हो जाता है। एक संख्या में विभाजन के बाद टेलोमेयर निष्प्रभावी हो जाता है और कोशिका विभाजन रुक जाता है। लिहाज़ा, वृद्धि धीमी पड़ जाती है, सजीव का कामकाज ठप होने लगता है और तब कहा जाता है कि वह जीव बुढ़ा रहा है।

उपरोक्त खोज 1980 में एलिज़ाबेथ ब्लैकबर्न, कैरोल ग्राइडर और जैक ज़ोस्ताक ने की थी और इसके लिए उन्हें 2009 में नोबेल पुरस्कार से नवाज़ा गया था। अच्छी बात यह थी कि इन शोधकर्ताओं ने एक एंज़ाइम (टेलोमरेज़) की खोज भी की थी जिसमें टेलोमेयर के विघटन को रोकने या धीमा करने और यहां तक कि उसे पलटने की भी क्षमता होती है। टेलोमरेज़ में वह सांचा मौजूद होता है जो आसपास के परिवेश से पदार्थों को जोड़कर डीएनए का टेलोमरेज़ वाला खंड बना सकता है। इसके अलावा टेलोमरेज़ में यह क्षमता भी होती है कि वह पूरे डीएनए की ऐसी प्रतिलिपि बनवा सकता है, जिसमें अंतिम सिरा नदारद न हो। इस तरह से टेलोमरेज़ विभाजित होती कोशिकाओं को तंदुरुस्त रख सकता है।

टेलोमेयर और टेलोमरेज़ की क्रिया कोशिका मृत्यु और कोशिकाओं की वृद्धि में निर्णायक महत्व रखती है। वैसे किसी भी जीव की अधिकांश कोशिकाएं बहुत बार विभाजित नहीं होतीं, इसलिए अधिकांश कोशिकाओं को टेलोमेयर के घिसाव या संकुचन से कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन स्टेम कोशिकाओं की बात अलग है। ये वे कोशिकाएं होती हैं जो क्षति या बीमारी की वजह से नष्ट होने वाली कोशिकाओं की प्रतिपूर्ति करती हैं। उम्र बढ़ने के साथ ये स्टेम कोशिकाएं कम कारगर रह जाती हैं और जीव चोट या बीमारी से उबरने में असमर्थ होता जाता है। दरअसल, कई सारी ऐसी बीमारियां है जो सीधे-सीधे टेलोमरेज़ की गड़बड़ी की वजह से होती हैं। जैसे एनीमिया, त्वचा व श्वसन सम्बंधी रोग।

इसके आधार पर शायद ऐसा लगेगा कि टेलोमरेज़ को प्रोत्साहित करने के तरीके खोजकर हम वृद्धावस्था से निपट सकते हैं। लेकिन गौरतलब है कि टेलोमरेज़ का बढ़ा हुआ स्तर कैंसर कोशिकाओं को अनियंत्रित विभाजन में मदद कर नई समस्याएं पैदा कर सकता है। अत: टेलोमरेज़ की क्रियाविधि को समझना आवश्यक है ताकि हम ऐसे उपचार विकसित कर सकें जिनमें ऐसे साइड प्रभाव न हों।

पीएनएएस के शोध पत्र के लेखकों ने बताया है कि वैसे तो टेलोमरेज़ की भूमिका सारे जीवों में एक-सी होती है, लेकिन यह सही नहीं है कि उसका कामकाजी हिस्सा भी सारे सजीवों में एक जैसा हो। कामकाजी हिस्से से आशय टेलोमरेज़ के उस हिस्से से है जो कोशिका विभाजन के दौरान डीएनए को टेलोमेयर के संश्लेषण में मदद देता है। इस घटक को टेलोमरेज़ आरएनए (या संक्षेप में टीआर) कहते हैं। शोध पत्र में स्पष्ट किया गया है कि टीआर की प्रकृति को समझना काफी चुनौतीपूर्ण रहा है क्योंकि विभिन्न प्रजातियों में टीआर की प्रकृति व संरचना बहुत अलग-अलग होती है।

टीम ने अपना कार्य एरेबिडॉप्सिस थैलियाना नामक पौधे के टेलोमरेज़ के साथ प्रयोग और विश्लेषण के आधार पर किया। एरेबिडॉप्सिस थैलियाना पादप वैज्ञानिकों के लिए पसंदीदा मॉडल पौधा रहा है। शोध पत्र के मुताबिक अध्ययन से पता चला कि टीआर अणु में विविधता के बावजूद इस अणु के अंदर दो ऐसी विशिष्ट रचनाएं हैं जो विभिन्न प्रजातियों में एक जैसी बनी रही हैं। पिछले अध्ययनों से आगे बढ़कर वर्तमान अध्ययन में एरेबिडॉप्सिस थैलियाना में टीआर का एक प्रकार पहचाना गया है जो संभवत: टेलोमेयर के रख-रखाव में मदद करता है और टेलोमेयर की एक उप-इकाई के साथ जुड़कर टेलोमरेज़ की गतिविधि का पुनर्गठन करता है।

अध्ययन में पादप कोशिका, तालाब में पाई जाने वाली स्कम और अकशेरुकी जंतुओं के टीआर के तुलनात्मक लक्षण भी उजागर किए हैं। इनसे जैव विकास के उस मार्ग का भान होता है जिसे एक-कोशिकीय प्राणियों से लेकर वनस्पतियों और ज़्यादा जटिल जीवों तक के विकास के दौरान अपनाया गया है। इस मार्ग को समझकर हम यह समझ पाएंगे कि टेलोमेयर के काम को किस तरह बढ़ावा दिया जा सकता है या रोका जा सकता है।

टेलोमेयर घिसाव की प्रक्रिया अनियंत्रित कोशिका विभाजन को रोकने के लिए अनिवार्य है। इसी वजह से जीव बूढ़े होते हैं और मृत्यु को प्राप्त होते हैं। इसीलिए जंतुओं की आयु चंद दशकों तक सीमित होती है। दूसरी ओर, ब्रिासलकोन चीड़ और यू वृक्ष हज़ारों साल जीवित रहते हैं। यदि हम यह समझ पाएं कि पादप जगत बुढ़ाने की प्रक्रिया से कैसे निपटता है, तो शायद हमें मनुष्यों की आयु बढ़ाने या कम से कम जीवन की गुणवत्ता बेहतर बनाने का रास्ता मिल जाए।(स्रोत फीचर्स)

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अस्पतालों में कला और स्वास्थ्य – डॉ. डी. बालसुब्रामण्यन

ई अस्पताल, खास तौर से निजी व कार्पोरेट अस्पताल, अपने प्रवेश कक्ष और मरीज़ों के प्रतीक्षा कक्षों में आकर्षक तस्वीरें और कलाकृतियां रखते हैं। अधिकांश लोग, और वास्तव में कई अस्पताल मालिक भी सोचते हैं कि यह उनके कलाप्रेम का ढिंढोरा पीटने जैसा है। इसके विपरीत, अधिकांश सार्वजनिक या सरकारी अस्पताल ऐसा कुछ नहीं करते और अपनी दीवारों को सूना छोड़ देते हैं या उन पर तमाम सूचनाएं चस्पा कर देते हैं। इन अस्पतालों के कमरे और गलियारे भद्दे लगते हैं। यह बात देश भर के अत्यंत प्रतिष्ठित चिकित्सा संस्थानों पर भी लागू होती है। इसे देखते हुए, यह बात आपको (और शायद इन निजी अस्पतालों के मालिकों को भी) आश्चर्यजनक लगेगी कि अस्पतालों में मरीज़ों के प्रतीक्षा कक्षों और वाड्र्स में कलाकृतियों का प्रदर्शन मरीज़ों, डॉक्टरों, नर्सों और देखभाल करने वाले लोगों के लिए अच्छा होता है।

डेनमार्क के शोधकर्ताओं एस. एल. नीलसन व साथियों द्वारा इंटरनेशनल जर्नल ऑफ क्वालिटेटिव स्टडीज़ ऑन हेल्थ एंड वेलबीइंग में प्रकाशित पर्चे ‘मरीज़ अस्पतालों में कला को कैसे महसूस करते हैं और उसका उपयोग करते है?’ में बताया गया था कि कैसे इससे मरीज़ों को सुलभता और देख-रेख का एहसास होता है। इस रिपोर्ट को कई जगह उद्धरित किया जाता है।

शोधकर्ताओं ने एक साझा देखभाल कक्ष में रखे गए मरीज़ों का कई सप्ताह तक अध्ययन किया था। पहले सप्ताह में कक्ष की दीवारें खाली और सूनी थीं। हर मरीज़ अपनी ही चिकित्सकीय हालत (तकलीफ) में डूबा था। मरीज़ कक्ष में किसी और से बात भी नहीं करते थे।

आठवें दिन देखभाल कक्ष की दीवारों पर कलाकृतियां – पेंटिंग, तस्वीरें, फोटोग्राफ्स – लगा दी गर्इं। अधिकांश मरीज़ों ने इन्हें देखा और इनका अध्ययन किया। पहले की आत्म-केंद्रिकता से उनका ध्यान बंटा और वे इन चीज़ों का विश्लेषण करने लगे और अपने ढंग से उनकी व्याख्या करने लगे। वे कक्ष के अन्य लोगों से बातचीत करने लगे और दोस्तियां बनार्इं, गैर-चिकित्सकीय विषयों पर चर्चा करने लगे, नुक्ताचीनी करने लगे और मेलजोल बढ़ा। यह भी देखा गया कि मरीज़ नर्सों, डॉक्टरों और देखभाल करने वाले अन्य लोगों की बातें ज़्यादा ध्यान से सुनने लगे और उनका उपचार बेहतर होता गया।

शोधकर्ताओं का निष्कर्ष है कि कला एक ऐसा माहौल पैदा करती है जहां मरीज़ सुरक्षित महसूस करते हैं, मेलजोल बढ़ाते हैं और अस्पताल की चारदीवारी से बाहर की दुनिया से जुड़ते हैं। यह उनकी पहचान को भी सहारा देता है। कुल मिलाकर अस्पताल में दृश्य कला स्वास्थ्य सम्बंधी परिणामों में सुधार करती है। अपेक्षा तो यह की जानी चाहिए कि यह बात खास तौर से आईसीयू में बंद मरीज़ों पर ज़्यादा लागू होगी क्योंकि वहां तो पूरा परिवेश चिकित्सा उपकरणों से भरा होता है।

देखा जाए, तो यह अध्ययन युरोपीय समाज में किया गया था। क्या इसके परिणाम भारत के सार्वजनिक और सरकारी अस्पतालों के लिए भी सही होंगे? कोई कारण नहीं कि ऐसा नहीं होगा लेकिन इसका नियोजन व रणनीति स्थानीय परिस्थितियों के अनुरूप होनी चाहिए। लोग तो लोग होते हैं: वे बातचीत करना चाहते हैं, वे चाहते हैं कि उन पर ध्यान दिया जाए, सिर्फ चिकित्सकीय ध्यान नहीं बल्कि व्यक्तियों के रूप में ध्यान दिया जाए।

इसके लिए डिज़ाइनर्स, समाज वैज्ञानिकों और संवेदनशील कलाकारों को डॉक्टरों के साथ मिलकर उपलब्ध जगह के आधार पर कलाकृतियों का चयन करना होगा। मरीज़ों के लिए उपलब्ध जगह और भीड़भाड़, काम के बोझ से दबे डॉक्टर्स और देखभालकर्ता, स्थानीय संस्कृति तथा अन्य कारकों का ध्यान रखना होगा। लेकिन यह किया जा सकता है। और यह किया जाना चाहिए क्योंकि जैसा कि ऊपर कहा गया था, कला स्वास्थ्य सम्बंधी परिणामों में योगदान देती है और इसे स्वास्थ्य देखभाल का ही एक विस्तार माना जाना चाहिए।

सवाल यह है कि क्या अस्पताल में कला डॉक्टरों और नर्सों की मदद करती है? कलाकृतियों को देखकर वे क्या सीख सकते हैं? क्या इससे उन्हें बेहतर पेशेवर बनने में मदद मिलती है? दरअसल ऐसा ही है। एन स्लोअन डेवलिन की पुस्तक Transforming the Doctor’s office: Principles from Evidence-Based Design (डॉक्टर के दफ्तर में तबदीली: प्रमाण-आधारित डिज़ाइन से कुछ सिद्धांत) में कुछ सुराग मिलते हैं। और डॉक्टर रॉबर्ट ग्लैटर का आलेख Can studying art help medical students become better doctors? (क्या कला का अध्ययन चिकित्सा छात्रों को बेहतर डॉक्टर बनने में मदद करता है?) इस बात के पक्ष में पुख्ता तर्क पेश करता है कि चिकित्सा विद्यार्थियों के लिए ग्रे की एनाटॉमी से आगे जाकर कला का पाठ¬क्रम रखा जाना चाहिए। और वास्तव में कुछ चिकित्सा अध्ययन शालाओं में ऐसा कोर्स जोड़ा गया है और नौजवान छात्रों ने इसे पसंद भी किया है और उन्हें लगता है कि इससे उनकी नैदानिक कुशलता बेहतर हुई है। एक छात्र का कहना था: “अब तक मैं चित्र के मध्य भाग को मुख्य हिस्सा मानकर चल रहा था, लेकिन मुझे समझ में आया है कि हाशियों पर जानकारी का खजाना है।”

तो, हमारे मेडिकल कॉलेज इसे आज़मा सकते हैं और समय-समय पर कलाकारों को आमंत्रित करके उनसे अपनी कला के बारे में बात करने को कह सकते हैं और छात्रों से उनकी प्रतिक्रिया बताने को कहा जा सकता है। समय-समय पर ऐसे सम्मेलन, चाहे वे पाठ¬क्रम का हिस्सा न हों, दिमाग को विस्तार देंगे और मशीनों से मिलने वाले चित्रों की व्याख्या करने और उनसे और अधिक जानकारी प्राप्त करने में मददगार होंगे। हैदराबाद के एक निजी मेडिकल कॉलेज ने अपने चिकित्सा व शोध सदस्यों तथा डॉक्टरों के लिए इस पर अमल भी किया है। कॉलेज ने मरीज़ों के प्रतीक्षा कक्ष में, हर मंज़िल की दीवारों पर, बच्चों के देखभाल केंद्र में, दृष्टि सहायता चिकित्सालयों में पेंटिंग्स व अन्य कलाकृतियां रखी हैं। इस प्रकार से उन्होंने डेनमार्क के समूह द्वारा 2017 में सुझाए गए उपायों को अपनाया है। अस्पताल ने एक पूरी मंज़िल का बड़ा हिस्सा तो कला दीर्घा को समर्पित कर दिया है यहां कलाकारों, संगीतज्ञों, लेखकों, गैर-सरकारी संगठनों और अन्य विद्वानों को व्याख्यान देने तथा डॉक्टरों व वैज्ञानिकों के अलावा आम नागरिकों से भी बातचीत करने हेतु आमंत्रित किया जाता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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नया कोरोनावायरस और सामान्य फ्लू

या कोरोनावायरस कुछ समय से विश्व भर में सुर्खियों में छाया है, लेकिन एक ऐसा वायरस संक्रमण भी है जो कई देशों में फैला हुआ है जिसे हम मौसमी फ्लू कहते हैं। तो इनकी तुलना करना उपयोगी होगा।

इस नए कोरोनावायरस को अब नाम मिल गया है – COVID-19। इससे अब तक चीन में 427 लोगों की मौत हो चुकी है जबकि 20,000 लोग बीमार हैं। लेकिन यह संख्या मौसमी फ्लू की तुलना में कुछ भी नहीं है। यूएस के सेंटर्स फॉर डिसीज़ कंट्रोल एंड प्रिवेंशन (सीडीसी) के अनुसार अमेरिका में इस मौसम में फ्लू के कारण 10,000 लोगों की मौत हो चुकी है और लगभग 2 करोड़ लोग इससे संक्रमित हुए हैं। इनमें से 1.8 लाख लोग इलाज के लिए अस्पताल में भर्ती किए गए हैं। 

वैज्ञानिक कई दशकों से मौसमी फ्लू का अध्ययन कर रहे हैं, इसलिए इसके बारे में काफी जानकारी है और हम यह तय कर पाते हैं कि आने वाले मौसम में हमें क्या करना है। लेकिन इसके विपरीत COVID-19 एक नए प्रकार का वायरस है। वैज्ञानिक COVID-19 को अच्छी तरह से जानने और समझने की कोशिश कर रहे हैं। उपलब्ध जानकारी के आधार पर नए कोरोनावायरस की तुलना फ्लू से की गई है।    

दोनों ही प्रकार के वायरस संक्रामक हैं जो श्वसन सम्बंधी बीमारी को जन्म देते हैं। साधारण फ्लू के लक्षण बुखार, खांसी, गले में खराश, मांसपेशियों में दर्द, सिरदर्द, बंद नाक, थकान और कभी-कभी उल्टी और अतिसार वगैरह होते हैं। वैसे तो फ्लू से ग्रस्त अधिकांश लोग दो सप्ताह से भी कम समय में ठीक हो जाते हैं लेकिन कुछ लोगों में फ्लू निमोनिया का रूप लेकर काफी जटिल हो जाता है।

COVID-19 के लक्षणों और गंभीरता को समझने की कोशिश जारी है। चूंकि इसके अधिकतर लक्षण मौसमी फ्लू से मिलते-जुलते हैं, इसको विभिन्न श्वसन सम्बंधी वायरसों से अलग करना काफी मुश्किल है। 100 लोगों पर किए गए एक अध्ययन में बुखार, खांसी और सांस लेने में तकलीफ जैसे लक्षण पाए गए थे। केवल 5 प्रतिशत लोगों में गले की खराश और बंद नाक के लक्षण पाए गए, 1-2 प्रतिशत लोगों में अतिसार और उल्टी जैसे लक्षण पाए गए। WHO के अनुसार चीन में 20,000 दर्ज मामलों में से 14 प्रतिशत लोगों की स्थिति को गंभीर माना गया है।        

सीडीसी के अनुसार अमेरिका में इस वर्ष फ्लू ग्रस्त लोगों में से 0.05 प्रतिशत लोगों की मौत हुई है। जबकि COVID-19 के कारण मृत्यु दर अभी भी स्पष्ट नहीं है, फिर भी फ्लू की तुलना में यह अधिक प्रतीत होती है। इसकी शुरुआत से लेकर अब तक के आंकड़ों के अनुसार लगभग 2 प्रतिशत की मृत्यु दर दर्ज की गई है। 

वायरस फैलने की तेज़ी को मापने के लिए वैज्ञानिक यह देखते हैं कि औसतन कोई व्यक्ति कितनों को संक्रमित करता है। दी न्यू यॉर्क टाइम्स के अनुसार फ्लू के लिए यह संख्या 1.3 है। न्यू इंग्लैंड जर्नल ऑफ मेडिसिन के अनुसार COVID-19 के लिए यह संख्या 2.2 है (यानि एक संक्रमित व्यक्ति से 2.2 लोगों में यह वायरस फैलता है)।   फिलहाल श्वसन सम्बंधी वायरस से बचने के लिए कुछ सुझाव दिए गए हैं: पानी और साबुन से कम से कम 20 सेकंड तक हाथ धोना, बिना धुले हाथों से नाक और आंखों को छूने से बचना, जो लोग बीमार हैं उनसे निकट संपर्क से बचना। इसके अलावा बीमार होने पर घर पर रहना तथा अक्सर उपयोग होने वाली चीज़ों को साफ रखना भी महत्वपूर्ण है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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