जीभ के बैक्टीरिया – अपना पास-पड़ोस खुद चुनते हैं

सूक्ष्मजीव हमारे शरीर पर हर जगह, जैसे हमारे मुंह, हमारी आंत में रहते हैं। इसी तरह हमारी जीभ पर भी लाखों सूक्ष्मजीव रहते हैं। और अब सेल बायोलॉजी में प्रकाशित एक हालिया अध्ययन बताता है कि हमारी जीभ पर रहने वाले ये सूक्ष्मजीव यूं ही बेतरतीब नहीं बसते हैं बल्कि वे अपनी तरह के सूक्ष्मजीवों के आसपास रहना पसंद करते है और अपनी प्रजाति के आधार पर बंटकर अलग-अलग समूहों में रहते हैं।

जीभ पर इन सूक्ष्मजीवों की बसाहट कैसी है, यह जानने के लिए मरीन बायोलॉजिकल लैबोरेटरी की सूक्ष्मजीव विज्ञानी जेसिका मार्क वेल्च और उनके साथियों ने पहले 21 स्वस्थ लोगों की जीभ को खुरचकर साफ किया। इसके बाद उन्होंने बैक्टीरिया के विशिष्ट समूहों की पहचान करने के लिए उन पर अलग-अलग रंग के फ्लोरोसेंट टैग लगाए, ताकि यह देख सकें कि ये बैक्टीरिया जीभ पर ठीक-ठीक कहां रहते हैं। उन्होंने पाया कि सभी बैक्टीरिया अपनी प्रजाति के एक मजबूत और सुगठित समूह में रहते हैं।

माइक्रोस्कोप से इन सूक्ष्मजीवों को देखने पर इनका झुंड एक सूक्ष्मजीवीय इंद्रधनुष जैसा दिखता है। माइक्रोस्कोपिक तस्वीर में देखने पर पाया गया कि एक्टिनोमाइसेस बैक्टीरिया जीभ के उपकला (या एपिथिलीयल) ऊतक के करीब पनपते हैं। रोथिया बैक्टीरिया अन्य समुदायों के बीच बड़ा समूह बना कर रहते हैं। स्ट्रेप्टोकोकस प्रजाति के बैक्टीरिया जीभ के किनारे-किनारे एक पतली लकीर बनाते हुए और महीन नसों के आसपास रहते हैं। इन तस्वीरों को देखकर अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि ये कॉलोनियां कैसे बसी और फली-फूली होंगी।

हालांकि डीएनए अनुक्रमण के ज़रिए वैज्ञानिक इस बारे में तो जानते थे कि हमारे शरीर में कौन से बैक्टीरिया रहते हैं लेकिन पहली बार जीभ पर रहने वाले सूक्ष्मजीवों के समुदाय का इतने विस्तार से अध्ययन किया गया है। शोधकर्ताओं का कहना है कि सूक्ष्मजीवों की विभिन्न प्रजातियां कहां जमा होती हैं और वे स्वयं को कैसे व्यवस्थित करती हैं, इस बारे में पता लगाकर बैक्टीरिया की कार्यप्रणाली के बारे में पता लगाया जा सकता है और देखा जा सकता है कि वे एक-दूसरे से कैसे संपर्क बनाते हैं।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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चिड़िया घर में बाघिन कोरोना संक्रमित

वाइल्डलाइफ कंज़र्वेशन सोसायटी ने हाल ही में घोषणा की है कि न्यूयॉर्क के एक चिड़ियाघर ब्रॉन्क्स ज़ू की एक 4-वर्षीय बाघिन (नादिया) कोविड-19 पॉज़िटिव निकली है। गौरतलब है कि न्यूयॉर्क अत्यधिक संक्रमित क्षेत्र है।

यह मलायन बाघिन, बिल्ली कुल के छ: अन्य साथियों (जिनमें नादिया की एक बहन, दो अमूर बाघ और तीन अफ्रीकी शेर शामिल हैं) के साथ सूखी खांसी से पीड़ित थी। हालांकि इन अन्य प्राणियों की जांच नहीं की गई है किंतु ज़ू के अधिकारी मानकर चल रहे हैं कि ये सब SARS-CoV-2 से संक्रमित हैं जो कोविड-19 का कारण है।

दरअसल, इस बाघिन की जांच ऐहतियात के तौर पर की गई थी और अधिकारियों की कहना है कि उन्हें इस बाघिन के अध्ययन से जो भी जानकारी मिलेगी वह कोरोनावायरस से हमारी विश्वव्यापी लड़ाई में मददगार ही होगी।

वाइल्डलाइफ कंज़र्वेशन सोसायटी का मत है कि चिड़ियाघर का एक कर्मचारी कोविड-19 से पीड़ित था और संभवत: उसने ही इन बिल्लियों को संक्रमित किया है। इसके बाद से सभी कर्मचारियों के लिए सुरक्षा के उपाय लागू कर दिए गए हैं।

यह देखा गया है कि संक्रमित जानवरों की भूख कम हुई है लेकिन चिड़ियाघर के अनुसार उनकी हालत ठीक है। चिड़ियाघर के पशु चिकित्सक इन बाघ-शेरों की देखभाल व उपचार में लगे हैं।

एक अच्छी बात यह है कि बिल्ली कुल के अन्य प्राणियों में फिलहाल कोविड-19 के लक्षण नहीं दिखे हैं।

यह देखा जा चुका है कि पालतू बिल्लियां संक्रमित हुई हैं। पता चला है कि उनकी श्वसन कोशिकाओं की सतह पर लगभग वैसे ही ग्राही पाए जाते हैं, जैसे मनुष्य की कोशिकाओं पर होते हैं, जो वायरस को कोशिका में प्रवेश करने में मदद करते हैं। वैसे अभी इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि बिल्लियां यह वायरस मनुष्यों में फैला सकती हैं। बहरहाल, न्यूयॉर्क के विभिन्न चिड़ियाघरों को बंद कर दिया गया है। (स्रोत फीचर्स)

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गर्भ में कोरोनावायरस से संक्रमण की आशंका

क ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार चीन में तीन शिशुओं में जन्म से पहले कोरोनावायरस के संक्रमण की आशंका जताई गई है। हालांकि विशेषज्ञों का मानना है कि यह परिणाम अनिर्णायक हैं और गर्भावस्था के दौरान इस वायरस के मां से बच्चे में संक्रमित होने के कोई पुख्ता सबूत नहीं है।

एक अन्य रिपोर्ट में वुहान युनिवर्सिटी के डॉक्टर कोविड-19 से संक्रमित महिला के बारे में बताते हैं जिसने सीज़ेरियन सेक्शन से एक बच्ची को जन्म दिया था। जर्नल ऑफ अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार प्रसव के दौरान महिला ने एन95 मास्क पहना था और जन्म के पश्चात शिशु को मां से अलग रखा गया था। नवजात को तुरंत क्वारेंटाइन में रखा गया लेकिन उसमें कोविड-19 संक्रमण का कोई लक्षण नहीं दिखा।

जन्म के दो घंटे पश्चात किए गए परीक्षण से पता चला कि नवजात में SARS-CoV-2 के विरुद्ध दो प्रकार की एंटीबॉडी, IgG और IgM, का स्तर अधिक पाया था। गौरतलब है कि IgG एंटीबॉडी तो शिशु को गर्भावस्था में मां से प्राप्त होती है जबकि IgM एंटीबॉडी गर्भनाल को पार करने में सक्षम नहीं होती है। रिपोर्ट के मुताबिक नवजात में IgM एंटीबॉडी का होना भ्रूण में इस संक्रमण को दर्शाता है। इसके अलावा, नवजात में श्वेत रक्त कोशिकाओं के प्रतिरक्षा प्रणाली रसायन, साइटोकाइंस, के स्तर में भी वृद्धि पाई गई जो संक्रमण का द्योतक हो सकता है। एक अन्य अध्ययन में ज़्होंगनान अस्पताल के डॉक्टरों ने SARS-CoV-2 की एंटीबॉडी का पता लगाने के लिए 6 नवजात के रक्त के नमूनों का विश्लेषण किया। उन्हें 5 नमूनों में IgG का उच्च स्तर प्राप्त हुआ जबकि 2 नमूनों में IgM का उच्च स्तर देखा गया। दिलचस्प बात यह रही कि सभी नवजात में SARS-CoV-2 टेस्ट निगेटिव था। ऐसे में यह बता पाना मुश्किल है कि यह नवजात वायरस से संक्रमित थे या नहीं।

ऐसी आशंका जताई जा रही है कि एंटीबॉडी के बढ़े हुए स्तर का कारण माताओं के प्लेसेंटा का क्षतिग्रस्त या असामान्य होना हो सकता है, जिससे IgM प्लेसेंटा से गुज़रकर शिशुओं में पहुंच गया हो। गौरतलब है कि IgM परीक्षण फाल्स पॉज़िटिव और फाल्स नेगेटिव परिणाम भी दे सकते हैं।

इसके अलावा, लंदन में एक SARS-CoV-2 संक्रमित महिला के नवजात में भी इस वायरस के पॉज़िटिव परिणाम देखे गए। हालांकि इस मामले में भी स्पष्ट नहीं है कि यह वायरस नवजात में जन्म लेने से पहले आया या उसके बाद। कोविड-19 से संक्रमित नौ गर्भवती महिलाओं पर किए गए प्रारंभिक अध्ययन में SARS-CoV-2 का कोई सबूत नहीं मिला है जिससे यह कहा जा सके कि यह मां से बच्चे में पहुंचा है।(स्रोत फीचर्स)

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कोविड-19 मरीज़ की देखभाल

ए कोरोनावायरस ने दुनिया भर में लाखों लोगों को संक्रमित कर दिया है। सबसे अच्छा तो यही होगा सामाजिक फासला सुनिश्चित करके स्वयं को और अपने परिजनों को इसके संक्रमण से बचाए रखें। लेकिन यदि आपके परिवार या घर में किसी को इस वायरस का संक्रमण हो जाए तो क्या करें।

यदि ऐसा व्यक्ति उन लोगों में से नहीं है जिन्हें अनिवार्य रूप से अस्पताल में भर्ती करना चाहिए तो आपको घर पर ही उसकी देखभाल करनी होगी और अन्य लोगों को सुरक्षित भी रखना होगा। यानी आपको उस व्यक्ति को अलग-थलग करना होगा लेकिन साथ ही यह भी ध्यान देना होगा कि उसे भरपूर मात्रा में तरल पदार्थ मिलते रहें और तकलीफ कम से कम हो।

यदि आपके घर में कोई ऐसा व्यक्ति है जिसमें कोविड-19 के लक्षण दिख रहे हों – जैसे बुखार, सूखी खांसी, सांस लेने में दिक्कत. मांसपेशियों में दर्द, थकान और दस्त – तो किसी स्वास्थ्य केंद्र, अस्पताल या स्वास्थ्य कर्मी से संपर्क करें। हो सकता है कि वे आपको परीक्षण करवाने की सलाह दें। लेकिन ऐसे परीक्षण फिलहाल पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं हैं, इसलिए स्वास्थ्य कर्मी शायद आपको घर पर ही मरीज़ को अलग-थलग यानी आइसोलेट करने का परामर्श देंगे।

अच्छी बात है कि कोविड-19 के अधिकांश मामले गंभीर नहीं होते अर्थात अधिकांश लोग बगैर किसी उपचार के ठीक हो जाते हैं। लेकिन ये मरीज़ भी अन्य लोगों को संक्रमित कर सकते हैं।

ज़रूरत तो इस बात की होगी कि मरीज़ को एक अलग, हवादार कमरे में रखा जाए। संभव हो, तो मरीज़ के लिए बाथरूम भी अलग हो। मरीज़ के लिए तौलिया, चादरें, कप-प्लेट वगैरह भी अलग होना चाहिए और इन्हें नियमित रूप से साफ करना ज़रूरी है।

देखभाल करने वाले लोगों को नाक, मुंह वगैरह को मास्क से ढंककर रखना चाहिए और दस्ताने पहनना चाहिए। दस्ताने हटाने के तुरंत बाद हाथों को साबुन-पानी से कम से कम 20 सेकंड तक अच्छी तरह धोना चाहिए। वैसे भी हाथों से चेहरे को छूने से बचना चाहिए। चेहरे के लिए मास्क का उपयोग तो लगातार करना बेहतर है, खास तौर से जब आप मरीज़ के कमरे में हैं। मरीज़ को भी लगातार मास्क लगाए रखें।

यदि आप मरीज़ के टट्टी, पेशाब वगैरह को छूते हैं तो दस्ताने व मास्क पहनकर करें और काम समाप्त होते ही पहले दस्ताने निकालकर फेंक दें, हाथों को अच्छी तरह साफ करें, उसके बाद चेहरे के मास्क को हटाएं और एक बार फिर से हाथ धोएं। याद रखें कि जिन सतहों को बार-बार छूना पड़ता है, जैसे दरवाज़े के हैंडल, नल वगैरह, उन्हें भी अच्छी तरह साफ करें।

यह ध्यान देना ज़रूरी होता है कि मरीज़ की हालत कब गंभीर रूप ले रही है। यदि मरीज़ को सांस लेने में दिक्कत होने लगे, या बुखार तेज़ हो जाए, सीने में दर्द हो, गफलत होने लगे या होंठ नीले पड़ने लगें तो तुरंत चिकित्सक को दिखाएं या अस्पताल ले जाएं।

कोविड-19 का कोई इलाज तो नहीं है लेकिन अस्पताल मरीज़ को इन पेचीदगियों से बचने में मदद कर सकते हैं। जैसे मरीज़ को सांस की दिक्कत से छुटकारा दिलाने के लिए ऑक्सीजन दी जा सकती है। मरीज़ को स्वस्थ होने में मदद के लिए उसे खूब आराम और तरल पदार्थों की ज़रूरत होती है। यदि बुखार तेज़ हो तो बुखार कम करने की दवा दी जा सकती है।

यदि दवा के बगैर भी मरीज़ का बुखार लगातार 72 घंटे तक न बढ़े और यदि सांस फूलने के लक्षण में सुधार हो और पहली बार लक्षण प्रकट होने के बाद सात दिन बीत चुके हों, तो डॉक्टर की सलाह से आइसोलेशन समाप्त किया जा सकता है। लेकिन उससे पहले कोविड-19 का टेस्ट करवा लेना होगा।(स्रोत फीचर्स)

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कोरोना संक्रमितों की सेवा में अब रोबोट – जाहिद खान

दुनिया की आबादी का एक बड़ा हिस्सा फिलवक्त कोविड-19 से बुरी तरह से जूझ रहा है। डॉक्टर, नर्स और तमाम स्वास्थ्य कर्मचारी कोरोना संक्रमित मरीज़ों के इलाज और देखभाल में जी-जान से लगे हुए हैं। समूची मानवजाति के ऊपर आई इस संकट की घड़ी में अब रोबोट भी इंसान के मददगार बन रहे हैं। उन्हें इस खतरनाक बीमारी से उबरने में मदद कर रहे हैं।

राजस्थान में जयपुर स्थित एसएमएस हॉस्पिटल में कोरोना संक्रमित मरीज़ों की सेवा के लिए तीन रोबोट की ड्यूटी लगाई गई है। ये रोबोट कोरोना संक्रमित व्यक्तियों तक दवा, पानी व दीगर ज़रूरी सामान ले जाने का काम करेंगे। रोबोट की ड्यूटी यहां लगाए जाने से कोरोना पीड़ितों के आसपास मेडिकल स्टाफ का मूवमेंट कम हो जाएगा। इसका सबसे बड़ा फायदा यह होगा कि हॉस्पिटल में इंसानों की वजह से कोविड-19 वायरस के प्रसार की जो संभावना रहती है, वह काफी कम हो जाएगी। मरीज़ के संपर्क में न आ पाने से बाकी लोगों में संक्रमण नहीं फैलेगा, वे सुरक्षित रहेंगे। ज़ाहिर है, जब डॉक्टर, नर्स और तमाम स्वास्थ्य कर्मचारी सुरक्षित रहेंगे, तो वे अपना काम और भी बेहतर तरीके से कर सकेंगे। देखा जाए तो यह एक छोटी-सी शुरुआत ही है। देश भर के बाकी अस्पतालों में डॉक्टर और स्वास्थ्यकर्मी अपने स्वास्थ्य और जान की ज़रा-सी भी परवाह किए बिना मुस्तैदी से अपने फर्ज़ को अंजाम देने में लगे हुए हैं।

‘रोबोट सोना 2.5’ नामक ये रोबोट पूरी तरह भारतीय तकनीक और मेक इन इंडिया प्रोजेक्ट के तहत जयपुर में ही बनाए गए हैं। युवा रोबोटिक्स एक्सपर्ट भुवनेश मिश्रा ने इन्हें तैयार किया है।  सबसे बड़ी खासियत यह है कि ‘सोना 2.5’ रोबोट लाइन फॉलोअर नहीं हैं बल्कि ऑटो नेविगेशन रोबोट हैं। यानी इन्हें मूव कराने के लिए किसी भी तरह की लाइन बनाने की ज़रूरत नहीं होती है। इंसानों की तरह ये रोबोट सेंसर की मदद से खुद नेविगेट करते हुए अपना रास्ता बनाते हैं और लक्ष्य तक पहुंच जाते हैं। इन्हें आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस, आईओटी और एसएलएएम तकनीक का शानदार इस्तेमाल करके तैयार किया गया है।

सर्वर के कमांड मिलने पर ये रोबोट सबसे पहले अपने लिए एक छोटे रास्ते का मैप क्रिएट करते हैं। अच्छी बात यह है कि ये किसी भी फर्श या फ्लोर पर आसानी से मूव कर सकते हैं। इन्हें वाई-फाई सर्वर के ज़रिए लैपटॉप या स्मार्ट फोन से भी ऑपरेट किया जा सकता है। ऑटो नेविगेशन होने से इन्हें अंधेरे में भी मूव कराया जा सकता है।

एक खूबी और है कि इनमें ऑटो डॉकिंग प्रोग्रामिंग की गई है, जिससे बैटरी डिस्चार्ज होने से पहले ही ये खुद चार्जिंग पॉइंट पर जाकर ऑटो चार्ज हो जाएंगे। एक बार चार्ज होने पर ये सात घंटे तक काम कर सकते हैं और इन्हें चार्ज होने में तीन घंटे का समय लगता है। यानी इन रोबोट में वे सारी खूबियां हैं, जिनके दम पर ये अपना काम बिना रुके, बदस्तूर करते रहेंगे। विज्ञान और वैज्ञानिकों का मानवजाति के लिए यह वाकई एक चमत्कारिक उपहार है जिसे नमस्कार किया जाना चाहिए।

अकेले राजस्थान में ही नहीं, केरल में भी यह अभिनव प्रयोग शुरू किया जा रहा है। कोच्चि की ऐसी ही स्टार्टअप कंपनी ने अस्पतालों के लिए एक खास रोबोट तैयार किया है जो मेडिकल स्टाफ की मदद करेगा। तीन चक्कों वाला यह रोबोट खाना और दवाइयां पहुंचाने के काम आएगा। यह पूरे अस्पताल में आसानी से घूम सकता है। इसे सात लोगों ने मिलकर महज 15 दिनों के अंदर तैयार किया है। इसी तरह की पहल नोएडा के फेलिक्स अस्पताल ने भी की है।

डॉक्टरों एवं मेडिकल स्टाफ को कोविड-19 जैसे घातक वायरस से बचाने के लिए रोबोट का इस्तेमाल होगा। कोरोना वायरस के बढ़ते मामलों के बीच दुनिया भर के अस्पताल काम के बोझ से दबे हुए हैं। मरीज़ों का इलाज और देखभाल करते हुए डॉक्टरों को ज़रा-सी भी फुर्सत नहीं मिल रही है। मरीज़ों की तादाद रोज़ बढ़ती जा रही है। ऐसे में ज़्यादा से ज़्यादा मेडिकल स्टाफ की ज़रूरत है।

इसी तरह की परेशानियों के मद्देनजर आयरलैंड के एक अस्पताल में भी रोबोट्स को काम पर लगाने का फैसला किया गया है। डबलिन के मेटर मिजरिकॉरडी यूनिवर्सिटी अस्पताल में रोबोट्स प्रशासनिक और कंप्यूटर का काम कर रहे हैं, जो आम तौर पर नर्सों के ज़िम्मे होता है। ये रोबोट कोविड-19 से जुड़े नतीजों का विश्लेषण भी कर रहे हैं। इन रोबोट को बनाने वाले एक्सपर्ट्स अपने काम से अभी संतुष्ट नहीं हैं। वे कोशिश कर रहे हैं कि ये रोबोट डिसइन्फेक्शन करने, टेंपरेचर नापने और सैंपल कलेक्ट करने का काम भी कुशलता से कर सकें।

मानव जैसी स्पाइन टेक्नॉलॉजी वाले दुनिया के पहले रोबोट का सबसे पहले इस्तेमाल, उत्तर प्रदेश के रायबरेली स्थित रेल कोच फैक्टरी में पिछले साल 18 नवंबर को किया गया था। ‘सोना 1.5’ नामक इस स्वदेशी ह्यूमनॉयड रोबोट का निर्माण भी रोबोटिक्स एक्सपर्ट भुवनेश मिश्रा ने किया है। इस रोबोट का इस्तेमाल दस्तावेज़ों को एक स्थान से दूसरी जगह ला-ले जाने, विज़िटर्स का स्वागत करने, टेक्निकल डिस्कशन और ट्रेनिंग में हो रहा है।

दरअसल आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और रोबोटिक्स के विकास के साथ मानव-रोबोटों को ऐसे कार्यों के लिए तेज़ी से इस्तेमाल किया जा रहा है, जिनमें बार-बार एक-सी क्रियाएं करनी होती हैं। इस तरह के कामों में वे पूरी तरह से कारगर साबित होते हैं। निकट भविष्य में इसरो अपने महत्त्वाकांक्षी मिशन ‘गगनयान’ के लिए भी एक रोबोट ‘व्योम मित्र’ भेजेगा। देखना है कि रोबोट कैसे हमसफर साबित होते हैं(स्रोत फीचर्स)

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कोरोनावायरस पर जीत की तैयारी – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

पिछले छह हफ्तों में कई ऐसे शोध पत्र प्रकाशित हुए हैं जो जानलेवा कोरोनावायरस (COVID-19) के संक्रमण से निपटने के चिकित्सकीय उपचार की पेशकश करते हैं। ये प्रयास इस संक्रमण के खिलाफ सुरक्षात्मक टीका विकसित करने के प्रयासों के अतिरिक्त हैं।

अब तक हम सब इससे तो वाकिफ हो ही गए हैं कि यह नया कोरोनवायरस (जिसे वैज्ञानिक SARS-CoV-2 भी कहते हैं) दिखता कैसा है। यह गेंद सरीखा गोल है जिसका पूरा शरीर स्पाइक्स (खूंटों) से ढंका होता है। ये स्पाइक्स वायरस के कामकाजी सिरे हैं जो ग्लायकोप्रोटीन से बने होते हैं। सीएटल स्थित एक समूह ने क्रायो-इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोपी की मदद से इन स्पाइक-प्रोटीन्स की संरचना का तफसील से अध्ययन करके पता लगाया कि ये स्पाइक्स वायरस को मेज़बान कोशिका में प्रवेश करने में किस तरह मदद करते हैं। स्पाइक-प्रोटीन कोशिका की सतह पर ACE2 (एंजियोटेंसिन-कंवर्टिंग एंज़ाइम-2) नामक एक विशिष्ट एंज़ाइम की पहचान करता है, इसकी गतिविधि को अवरुद्ध करता है, मेज़बान कोशिका में प्रवेश करता है और उसे नुकसान पहुंचाता है।

इतिहास से सबक

इतिहास को देखें तो पाते हैं कि नए कोरोनावायरस की यह करतूत वास्तव में ऐतिहासिक है। कई लोगों ने 1918 में फैली स्पैनिश फ्लू महामारी के कारण हुई तबाही का अध्ययन किया, जिसमें लाखों लोगों की मौत हो गई थी। स्पैनिश फ्लू से पीड़ित लोगों के फेफड़े गंभीर रूप से क्षतिग्रस्त हो गए थे और वे निमोनिया और एक्यूट रेस्पिरेटरी सिंड्रोम का शिकार हो गए थे।

एक बार फिर यही हालात SARS-CoV कोरोनावायरस नामक रोगजनक द्वारा होने वाले सीवियर एक्यूट रेस्पिरेटरी सिंड्रोम (SARS) में भी देखे गए। शोध में पता चला कि ACE2 नामक एंज़ाइम वायरस के हमले के खिलाफ लड़ता है और इससे होने वाली क्षति से बचाता है। इसी प्रकार से वर्ष 2012 में सी. टिकेलिस और एम.सी. थॉमस द्वारा इंटरनेशनल जर्नल ऑफ पेप्टाइड में प्रकाशित पर्चे में भी बताया गया था कि ACE2 उच्च रक्तचाप, मधुमेह और ह्रदय रोगों में फायदेमंद है। यह स्वास्थ्य और रोग में रेनिन एंजियोटेंसिन सिस्टम का महत्वपूर्ण नियंत्रक है।

इसीलिए सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता खास तौर से दुनिया भर के वरिष्ठ नागरिकों और समस्याओं से पीड़ित लोगों से गुज़ारिश कर रहे हैं वे घर पर ही सुरक्षित रहें।

आणविकआनुवंशिक आधार

हाल ही में इन विशिष्ट रोगजनक के लिए वुहान स्थित सीएएस लैब का एक बहुत ही महत्वपूर्ण शोध पत्र प्रकाशित हुआ है। इसमें नए कोरोनोवायरस का आनुवंशिक अनुक्रम, ACE2 को निष्क्रिय कर प्रभावित व्यक्ति में प्रवेश करने के तरीके के बारे में तफसील से बताया गया है। और सबसे महत्वपूर्ण बात यह बताई गई है कि ठीक हो चुके मरीज़ों के रक्त-सीरम का उपयोग संक्रमित व्यक्तियों के उपचार में हो सकता है। (यह खास तौर से इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि जब 2006 में सार्स का प्रकोप हुआ था तब भी यही बताया गया था कि ठीक हो चुके मरीज़ों के सीरम का उपयोग पीड़ितों के उपचार में करने से यह उनमें इससे विरुद्ध एंटीबॉडी IgG उपलब्ध करा देता है। इसी आधार पर कुछ वैज्ञानिकों ने सुझाव दिया है कि यह तरीका COVID-19 से निपटने में भी मददगार हो सकता है।

वुहान लैब के प्रकाशन के समय ही सेल पत्रिका में एक और पेपर प्रकाशित हुआ जिसमें बताया गया कि नए कोरोनावायरस का कोशिका में प्रवेश, ना सिर्फ ACE2 पर बल्कि मेज़बान कोशिका के एक और एंजाइम, TMPRSS2, पर भी निर्भर करता है। शोधकर्ताओं ने सुझाव दिया है कि इसे एक ऐसे प्रोटीएज़ अवरोधक द्वारा अवरुद्ध किया जा सकता है जो चिकित्सकीय रूप से प्रमाणित हो चुका है। यह एक महत्वपूर्ण नई खबर है क्योंकि हम हमारे इस भयानक शत्रु नए कोरोनोवायरस को हराने के लिए इसी तरह के अवरोधक रसायनों की तलाश कर सकते हैं।

तो क्या करें?

हमें अपने शत्रु पर काबू पाने के चार अलग-अलग तरीके दिखते हैं। सबसे पहला, जिसे लोगों को करना ही चाहिए, सुरक्षात्मक सामग्री और तरीके अपनाएं, वायरस के सामुदायिक फैलाव को रोकें, घर पर रहें और सुरक्षित रहें; दूसरा, ठीक हो चुके रोगियों के सीरम का पीड़ितों की रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने के लिए उपयोग; तीसरा प्रभावितों के इलाज के लिए दवाओं की तलाश और चौथा सफल टीका तैयार करना। इनमें समय लगता है लेकिन उम्मीद है कि कुछ महीने ही लगेंगे, साल नहीं। इसलिए हम इन सभी तरीकों को अपनाकर इससे निपटने की राह में हैं।

SARS-CoV-2 और COVID-19 के बारे में कुछ शब्द। दो दिन पहले यू.के. के अखबार दी गार्जियन में बताया गया था कि दुनिया भर की 35 से अधिक कंपनियां इसका टीका तैयार करने की दौड़ में लगी हैं, इनमें से कम-से-कम 4 कंपनियां अपने टीकों का परीक्षण जानवरों पर कर चुकी हैं। इनमें से कुछ ने इसके पहले SARS और MERS के खिलाफ विकसित किए गए टीके में कुछ बदलाव करके COVID-19 के खिलाफ टीका तैयार किया है। और दो कंपनियां COVID-19 के वाहक RNA पर आधारित वैक्सीन तैयार कर रही हैं। लेकिन मनुष्यों पर इसके चिकित्सकीय परीक्षण में, इनकी प्रभावकारिता और दुष्प्रभावों की जांच करने में समय लगेगा, जो एक वर्ष या उससे अधिक तक हो सकता है। इसलिए हम इन सभी तरीकों से इससे निपटने का प्रयास करते रहें।

हम अनुभव से जानते हैं कि जहां संकट है, वहां आशा है; जहां आशा है, वहां प्रयास हैं; जहां प्रयास हैं, वहां समाधान हैं; और जहां समाधान हैं, वहां सफलता है।(स्रोत फीचर्स)

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कोरोना वायरस किसी सतह पर कितनी देर रहता है?

कोरोना वायरस का प्रकोप थमने का नाम नहीं ले रहा है। यह तो स्पष्ट है कि यह वायरस व्यक्ति से व्यक्ति में फैलता है। यह भी स्पष्ट है कि खांसी-छींक के साथ निकलने वाली सूक्ष्म बूंदों की फुहार इस वायरस को एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक पहुंचने में मदद करती हैं। लिहाज़ा रोकथाम का सबसे प्रमुख उपाय तो यही है कि व्यक्ति आपस में बहुत करीब न आएं। वैज्ञानिक बताते हैं कि इन बूंदों के माध्यम से यह वायरस 2 मीटर का फासला तय कर सकता है। खांसते-छींकते वक्त मुंह और नाक को कपड़े वगैरह से ढंकना वायरस के प्रसार को रोकने का कारगर उपाय है।

एक बात यह भी कही जा रही है कि हाथों को बार-बार साबुन से धोएं और अपने हाथों से मुंह, नाक व आंखों को छूने से बचें। कारण यह है कि यह वायरस हाथों पर काफी देर तक सक्रिय अवस्था में रह सकता है।

लेकिन आम लोगों के मन में यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि जब यह हाथों पर टिका रह सकता है, तो क्या अन्य सतहों (जैसे मेज़, बर्तन, दरवाज़ों के हैंडल, किचन प्लेटफॉर्म, टॉयलेट सीट वगैरह) पर भी बना रह सकता है? और यदि ऐसा है तो ये चीज़ें कितने समय के लिए वायरस की वाहक होंगी।

मुख्तसर जवाब तो यही है कि हम नहीं जानते। लेकिन फिर भी कुछ अनुमान तो लगाए गए हैं।

जैसे दी न्यू इंगलैंड जर्नल ऑफ मेडिसिन में प्रकाशित एक हालिया अध्ययन से पता चला है कि यह वायरस हवा में तीन घंटे तक जीवन-क्षम बना रहता है। तांबे की सतह पर 4 घंटे, कार्डबोर्ड पर 24 घंटे तथा प्लास्टिक व स्टील के बर्तनों पर 72 घंटे तक जीने-योग्य बना रहता है।

एक अन्य अध्ययन सीधे नए वायरस पर तो नहीं किया गया है बल्कि इसी के भाई-बंधुओं पर किए गए पूर्व अध्ययनों पर आधारित है। दी जर्नल ऑफ हॉस्पिटल इंफेक्शन में प्रकाशित इस अध्ययन का निष्कर्ष है कि (यदि यह वायरस अन्य मानव कोरोना वायरस का मिला-जुला परिवर्तित रूप है) तो यह धातु, कांच या प्लास्टिक जैसी सतहों पर 9 दिनों तक जीवन-क्षम बना रह सकता है। तुलना के लिए देखें कि सामान्य फ्लू का वायरस ऐसी सतहों पर अधिक से अधिक 48 घंटे तक जीवन-क्षम रहता है।

अब आप ऐसी सतहों को छूने से तो नहीं बच सकते। इसलिए बेहतर है कि समय-समय पर हाथ धोते रहें और हाथों से मुंह, नाक और आंखों को छूने से बचें।

लेकिन एक खुशखबरी भी है। यदि तापमान 30 डिग्री सेल्सियस से अधिक हो तो ये वायरस इतने लंबे समय तक जीवन-क्षम नहीं रह पाते। यानी जब गर्मी बढ़ेगी तो इस वायरस के परोक्ष रूप से फैलने की संभावना कम होती जाएगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मिर्गी के दौरे में जूता सुंघाना कहां तक सही? – कालू राम शर्मा

पिछले दिनों छत्तीसगढ़ में एक सामूहिक विवाह उत्सव के दौरान एक दूल्हे को मिर्गी का दौरा पड़ा। वहां मौजूद एक अधिकारी ने मरीज़ को जूता सुंघाने का सुझाव ही नहीं दिया बल्कि उसे अपना जूता निकालकर सुंघाने लगे। कुछ ही देर में मरीज़ होश में आ गया। यह तो होना ही था क्योंकि मिर्गी का दौरा चंद सेकंड या मिनट से अधिक का नहीं होता। मिर्गी के दौरे के बाद मरीज़ अपनी सामान्य स्थिति में आ जाता है।

बाद में जूता सुंघाने का विरोध किया गया। लेकिन वे अधिकारी अड़े रहे कि यह एक कारगर उपाय है। समाज में यह मान्यता व्याप्त है कि अगर किसी को मिर्गी का दौरा पड़े तो सबसे पहले उसे जूता सुंघाया जाए। और भी तरीके अपनाए जाते हैं। मसलन मरीज़ के मुंह को ज़बर्दस्ती खोलकर पानी पिलाना। दांतों के बीच चम्मच या चाबी वगैरह फंसा दी जाती है। 

मिर्गी के दौरे में मरीज़ के मुंह से झाग निकलने लगता है और शरीर की मांसपेशियों में जकड़न व अकड़न आने लगती है। मरीज़ की आंखें बंद होने लगती है या फिर वह एकटक ताकता रहता है। मरीज़ का जबड़ा बंद हो जाता है। इस वजह से जीभ तक कट जाती है (दांतों के बीच चम्मच शायद इसी से बचाव के लिए रखा जाता है)। अक्सर मिर्गी के दौरे में निचला जबड़ा अकड़ जाता है और इसकी वजह से ऊपरी व निचले जबड़े के दांत चिपक जाते हैं। मिर्गी के दौरे के दौरान अंगों की अकड़न, मुंह से झाग आने जैसे लक्षण इसकी भयावहता को बढ़ाते हैं।

मिर्गी के मरीज़ को परिवार भी हीन नज़रों से देखने लगता है। मिर्गी के मरीज़ को संभालने की बजाय उससे दूर हटना समस्या को और बढ़ा देता है। मिर्गी के मरीज़ को जिस भावनात्मक सम्बल की ज़रूरत होती है वह न मिलने से वह तनाव में रहने लगता है। मिर्गी को लेकर अज्ञानता के चलते कहा जाता है कि उसे बाहरी हवा लग चुकी है जिसे भूत-प्रेत से जोड़ा जाता है।

मिर्गी को लेकर एक मान्यता है कि पानी के स्रोत जैसे कुएं, बावड़ी, नदी-तालाब को देखने से मिर्गी के दौरे पड़ने लगते हैं। दरअसल, पानी की मौजूदगी का मिर्गी से कोई ताल्लुक नहीं है। हां, यह ज़रूर ध्यान देने की बात है कि मिर्गी के मरीज़ को पानी के स्रोतों से दूर रखना चाहिए। इतना ही नहीं मिर्गी के मरीज़ को मशीनों से दूर रखना चाहिए व वाहन चलाने से रोकना चाहिए।

मिर्गी का मरीज़ मानसिक रोगी नहीं होता। वह पागल नहीं होता। वह आम लोगों की तरह ही होता है। उसकी शारीरिक प्रक्रियाएं सामान्य होती हैं। मिर्गी के दौरे के बाद मरीज़ सामान्य हो जाता है। 

विश्व स्वास्थ्य संगठन का अनुमान है कि दुनिया भर में 5 करोड़ लोग मिर्गी रोग से ग्रसित हैं। मिर्गी दुनिया की सबसे व्यापक न्यूरालॉजिकल बीमारियों में से एक है। भारत में लगभग एक करोड़ मिर्गी के रोगी हैं। यह दुखद है कि मिर्गी से पीड़ित तीन-चौथाई लोगों को उचित इलाज नहीं मिल पाता।

मान्यता यह भी है कि मिर्गी एक संक्रामक रोग है और यह रोगी के संपर्क में आने से फैलता है। यह पूरी तरह से गलत है। यह पूरी तरह से आनुवंशिक भी नहीं है। लगभग एक प्रतिशत लोगों में ही यह आनुवंशिक होता है।

चरक संहिता में मिर्गी का उल्लेख है। चरक ने इसे शारीरिक बीमारियों जैसा ही माना है। औषधियों से इसके उपचार की बात कही है। हिप्पोक्रेटस ने कहा है कि मिर्गी दैवी बीमारी नहीं है। महाकवि माघ ने मिर्गी की तुलना समुद्र से की है। दोनों ज़मीन पर पड़े हैं, गरजते हैं, भुजाएं हिलाते हैं व झाग पैदा करते हैं। शेक्सपीयर के साहित्य में भी मिर्गी का विवरण मिलता है। ओथेलो के नायक को मिर्गी का दौरा पड़ता है व अन्य दो पात्र कैसियो व इयागो उसकी हंसी उड़ाते हैं। उल्लेख मिलता है कि हालैंड के जाने-माने चित्रकार विन्सेन्ट वैन गॉग मिर्गी से पीड़ित थे।

मिर्गी का बुद्धि से कोई सम्बंध नहीं। दरअसल, मिर्गी एक तंत्रिका सम्बंधी विकार है। व्यक्ति को दौरे पड़ते हैं इससे दिमागी संतुलन बिगड़ जाता है। इसके आम लक्षण हैं बेहोशी आना, चक्कर आना, गिर पड़ना, हाथ-पैरों में झटके आना वगैरह।

हमारे पूरे शरीर में तंत्रिकाओं का जाल बिछा हुआ है जो अंतत: मस्तिष्क से जुड़ा होता है। व्यक्ति का मस्तिष्क विद्युत संकेतों पर निर्भर करता है जो तंत्रिकाएं उसे भेजती रहती हैं। हमें अपने अंगों या चमड़ी से जो भी संवेदनाएं महसूस होती हैं वे तंत्रिकाओं के जरिए मस्तिष्क तक पहुंचती हैं। तंत्रिकाओं के द्वारा जो संकेत मस्तिष्क तक पहुंचते हैं व मस्तिष्क से अंगों तक पहुंचते हैं वे तंत्रिका तंत्र की सबसे छोटी इकाई न्यूरॉन में विद्युत-रासायनिक क्रिया का परिणाम होते हैं। अगर आप अपने हाथ को हिलाते हैं तो मस्तिष्क से हाथ को संकेत तंत्रिकाओं के ज़रिए ही भेजा जाता है। हर काम का संदेश मस्तिष्क तंत्रिकाओं के ज़रिए उस अंग तक भेजता है।

दुर्भाग्य से मस्तिष्क इस कार्य को कुछ लोगों में ठीक से नहीं कर पाता। मिर्गी के मरीज़ में यही होता है, खास तौर से जब मिर्गी का दौरा आया हो। दरअसल, मस्तिष्क में फीडबैक व्यवस्था होती है। अगर मस्तिष्क किसी अंग को सक्रिय रहने का निर्देश देता है तो उसे रोकने की भी व्यवस्था होती है। अगर इस व्यवस्था में गड़बड़ी हो तो उसे मस्तिष्क नियंत्रित नहीं कर पाता है। मिर्गी के लिए मस्तिष्क की यही गड़बड़ी ज़िम्मेदार होती है।

तंत्रिका कोशिकाएं या न्यूरान्स विद्युत-रासायनिक संकेत पैदा करते हैं जो विचारों, भावनाओं और तमाम कामों को करने के लिए प्रेरित करते हैं। मिर्गी आने का अर्थ है कि एक ही वक्त में कई न्यूरॉन्स एक ही समय में संकेत देने लगते हैं – एक सेकंड में लगभग 500 संकेत जो सामान्य से कई गुना अधिक हैं। न्यूरॉन्स के ये अत्यधिक संकेत अनैच्छिक क्रियाओं, संवेदनाओं और भावनाओं की वजह बनते हैं। न्यूरॉन्स की अस्थाई गड़बड़ी से उस व्यक्ति की शारीरिक संवेदना को नुकसान होता है। व्यक्ति को दौरे पड़ने लगते हैं। दौरे की अवधि कुछ सेकंड से लेकर दो-तीन मिनट तक हो सकती है।

मिर्गी के दौरे में मासंपेशियों में संकुचन होने लगता है और मरीज़ चेतना खो देता है। कुछ में चेतना नहीं जाती और वे कुछ पल के लिए ताकते रहते हैं। मिर्गी से ग्रसित कुछ व्यक्ति दिन में कई बार इसकी जकड़ में आते हैं।

मिर्गी में मस्तिष्क के हिस्सों को असामान्य रूप से अधिक विद्युत संकेत मिलते हैं जो उसके सामान्य कामकाज को बाधित करता है। तंत्रिका कोशिकाओं के बीच विद्युतीय संकेतों में यह उछाल क्यों आता है, इसे समझने की कोशिश की जा रही है। नेवाडा विश्वविद्यालय, लॉस वेगास के शोधकर्ता रोशेल हाइन्स के नेतृत्व में तंत्रिका विज्ञानियों ने यह पता लगाया है कि मस्तिष्क के प्रोटीन्स के बीच परस्पर किस प्रकार की अंतर्क्रिया होती है।

हाइन्स की टीम ने केंद्रीय तंत्रिका तंत्र को बाधित करने में शामिल दो प्रोटीनों का पता लगाया है। नए शोध से पता चलता है कि वे दो प्रोटीन मिर्गी के लिए ज़िम्मेदार हैं। मस्तिष्क हमारी मांसपेशियों को तंत्रिकाओं के ज़रिए संकेत देता है और वे उत्तेजित होती हैं। इसी दौरान मस्तिष्क न्यूरॉन्स को यह संकेत भी देता है कि मांसपेशियों की उत्तेजना को रोक सके। इस उत्तेजना व बाधित करने के बीच सामान्य मनुष्य में संतुलन बना रहता है।

रोशेल हाइन्स व उनकी टीम ने पाया कि मस्तिष्क की गतिविधियों को नियंत्रित करने के लिए इन दोनों प्रोटीन के बीच संवाद ज़रूरी है। अगर यह संवाद न हो तो मिर्गी के झटके आने लगते हैं। शोध का जोर इस बात पर था कि इस प्रोटीन-द्वय प्रणाली को बाधित करने के तरीके का पता लगाया जाए। इसके पहले के अनुसंधान में पूरे मस्तिष्क को नियंत्रित करने पर ज़ोर दिया जाता था। इसके कई दुष्प्रभाव होते हैं। इस शोध को आधार बनाकर अब वैज्ञानिक इन दो प्रोटीनों के बीच संवाद पर काम कर सकते हैं। अभी तक इस तरह की दवा नहीं बनाई जा सकी है। संभावना हैं कि इस दिशा में आगे और काम होगा व ऐसी दवाएं बनाई जा सकेगी जिनसे दुष्प्रभाव कम किए जा सकेंगे।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कोरोना वायरस के खिलाफ दवाइयों के जारी परीक्षण

ए कोरोना वायरस (SARS-CoV-2) ने दुनिया को संकट में डाल दिया है। इस नए वायरस की वजह से कोविड-19 नामक रोग होता है जिसके लक्षणों में बुखार, सूखी खांसी, सांस लेने में परेशानी और थकान शामिल हैं। नाक बहना, दस्त, गले में दर्द तथा बदन दर्द इसके अन्य लक्षण हैं।

फिलहाल दुनिया भर में चार लाख से अधिक लोग संक्रमित हैं और 10 हज़ार से ज़्यादा मौतें इस वायरस की वजह से हो चुकी हैं। फिलहाल इसके लिए कोई दवा उपलब्ध नहीं है। इसलिए स्वाभाविक रूप से पूरा ध्यान रोकथाम पर टिका है। रोकथाम का मुख्य उपाय व्यक्ति से व्यक्ति को होने वाले संक्रमण को रोकना है। इसके लिए भारत समेत कई देशों ने विविध तरीके अपनाए हैं। लॉकडाउन इसी का एक रूप है जिसके ज़रिए व्यक्तियों का आपसी संपर्क कम से कम करने का प्रयास किया जाता है।

यह सही है कि फिलहाल कोविड-19 के लिए कोई दवा नहीं है किंतु दुनिया भर में विभिन्न दवाइयों का परीक्षण चल रहा है और कुछ प्रयोगशालाएं इसके खिलाफ टीका विकसित करने के प्रयास में युद्ध स्तर पर जुटी हैं। ताज़ा रिपोर्ट के मुताबिक इस समय दुनिया की अलग-अलग संस्थाओं द्वारा 86 क्लीनिकल परीक्षण चल रहे हैं और जल्दी ही सकारात्मक परिणाम की उम्मीद है। आइए ऐसे कुछ प्रयासों पर नज़र डालें।

1. जापानी फ्लू की औषधि

जापान की कंपनी फ्यूजीफिल्म टोयोमा केमिकल द्वारा विकसित एक औषधि ने कोविड-19 के कुछ हल्के-फुल्के और मध्यम तीव्रता के मामलों में उम्मीद जगाई है। यह एक वायरस-रोधी दवा है – फैविपिरेविर। जापान में इसका उपयोग फ्लू के उपचार में किया जाता है। हाल ही में इसे कोविड-19 के प्रायोगिक उपचार हेतु अनुमोदित किया गया है। अब तक इसका परीक्षण वुहान और शेनज़ेन में 340 मरीज़ों पर किया गया है और बताया गया है कि यह सुरक्षित है और उपचार में कारगर है।

यह दवा (फैविपिरेविर) कुछ वायरसों को अपनी संख्या बढ़ाने से रोकती है और इस तरह से यह बीमारी की अवधि को कम कर देती है और फेफड़ों की सेहत को बेहतर बनाती है। वैसे अभी इस अध्ययन का प्रकाशन किसी समकक्ष-समीक्षित शोध पत्रिका में नहीं हुआ है।

2. क्लोरोक्वीन और हायड्रॉक्सीक्लोरोक्वीन

इन दवाइयों को मलेरिया, ल्यूपस और गठिया के उपचार हेतु मंज़ूरी मिली है। मनुष्यों और प्रायमेट जंतुओं की कोशिकाओं पर किए गए प्रारंभिक परीक्षण से संकेत मिला है कि ये दवाइयां कोविड-19 के इलाज में कारगर हो सकती हैं।

पूर्व (2005) में किए गए एक अध्ययन में पता चला था कि संवर्धित मानव कोशिकाओं का उपचार क्लोरोक्वीन से किया जाए तो SARS-CoVका प्रसार थम जाता है। नया वायरस SARS-CoV-2 इससे मिलता-जुलता है। क्लोरोक्वीन SARS-CoVको मानव कोशिकाओं में प्रवेश करके संख्यावृद्धि करने से रोकती है। हाल में किए गए अध्ययनों से पता चला है कि क्लोरोक्वीन और उस पर आधारित हायड्रॉक्सी-क्लोरोक्वीन दोनों ही नए वायरस की संख्यावृद्धि पर भी रोक लगाती हैं।

फिलहाल चीन, दक्षिण कोरिया, फ्रांस और यूएस में कोविड-19 के कुछ मरीज़ों को ये दवाइयां दी गई हैं और परिणाम आशाजनक बताए जाते हैं। अब यूएस का खाद्य व औषधि प्रशासन इन दवाइयों का विधिवत क्लीनिकल परीक्षण शुरू करने वाला है। फरवरी में ऐसे 7 क्लीनिकल परीक्षणों का पंजीयन हो चुका था। इसके अलावा, मिनेसोटा विश्वविद्यालय में इस बात का भी अध्ययन किया जा रहा है कि क्या हायड्रॉक्सी-क्लोरोक्वीन मरीज़ की देखभाल करने वालों को रोग से बचा सकती है।

हायड्रॉक्सी-क्लोरोक्वीन से सम्बंधित एक अन्य अध्ययन फ्रांस में भी किया गया है। इसके तहत कुछ मरीज़ों को अकेला हायड्रॉक्सी-क्लोरोक्वीन दिया गया और कुछ मरीज़ों को हायड्रॉक्सी-क्लोरोक्वीन और एक अन्य दवा एज़िथ्रोमायसीन दी गई। एज़िथ्रोमायसीन एक एंटीबायोटिक है। शोधकर्ताओं का कहना है कि जिन मरीज़ों को ये दवाइयां दी गर्इं, उनमें SARS-CoV-2 की मात्रा में फ्रांस के अन्य मरीज़ों की अपेक्षा काफी तेज़ी से गिरावट आई। लेकिन इस अध्ययन में तुलनात्मक आकलन का कोई प्रावधान नहीं था। वैसे भी कहा जा रहा है कि इन दवाइयों का उपयोग काफी सावधानी से किया जाना चाहिए, खास तौर से गुर्दे की समस्याओं से पीड़ित मरीज़ों के संदर्भ में।

3. एबोला की नाकाम दवा

जिलीड साइन्सेज़ ने एक दवा रेमडेसिविर विकसित की थी जिसका परीक्षण एबोला के मरीज़ों पर किया गया था। अब इस दवा को कोविड-19 के मरीज़ों पर आजमाया जा रहा है। वैसे रेमडेसिविर एबोला के इलाज में नाकाम रही थी लेकिन प्रयोगशालाओं में किए गए अध्ययनों से यह प्रमाणित हो चुका है कि यह दवा SARS-CoV-2 जैसे अन्य वायरसों की वृद्धि को रोक सकती है। प्रायोगिक तश्तरियों में किए गए प्रयोगों में रेमडेसिविर मानव कोशिकाओं को SARS-CoV-2 के संक्रमण से बचाती है। अभी यूएस के खाद्य व औषधि प्रशासन ने कोविड-19 के गंभीर मरीज़ों के लिए रेमडेसिविर के अनुकंपा उपयोग की अनुमति दे दी है।

चीन व यूएस में 5 क्लीनिकल परीक्षण इस बात की जांच कर रहे हैं कि क्या रेमडेसिविर कोविड-19 के रोग की अवधि को कम कर सकती है और उसके साथ होने वाली पेचीदगियों को कम कर सकती है। कई डॉक्टरों का विचार है कि यही सबसे कारगर दवा साबित होगी। लेकिन अध्ययनों से पता चला है कि यह तभी ज़्यादा कारगर होती है जब रोग की शुरुआत में दे दी जाए। वैसे अभी इस दवा के असर को लक्षणों के स्तर पर ही परखा गया है, खून में वायरस की मात्रा वगैरह पर इसके असर का आकलन अभी शेष है। कुछ डॉक्टरों ने इसके साइड प्रभावों पर भी चिंता व्यक्त की है।

4. एड्स दवाइयों का मिश्रण

शुरू-शुरू में तो लोपिनेविर और रिटोनेविर के मिश्रण से बनी दवा केलेट्रा ने काफी उत्साह पैदा किया था लेकिन आगे चलकर पता चला कि इससे मरीज़ों को कोई खास फायदा नहीं होता है। कुल 199 मरीज़ों में से कुछ को केलेट्रा दी गई जबकि कुछ मरीज़ों को प्लेसिबो दिया गया। देखा गया कि केलेट्रा का सेवन करने वाले कम मरीज़ों की मृत्यु हुई लेकिन अंतर बहुत अधिक नहीं था। और तो और, दोनों के रक्त में वायरस की मात्रा एक समान ही रही। बहरहाल, अभी इस सम्मिश्रण पर कई और अध्ययन जारी हैं और उम्मीद की जा रही है कि आशाजनक परिणाम मिलेंगे।

5. गौण प्रभावों के लिए दवा

कोविड-19 के कुछ मरीज़ों में देखा गया है कि स्वयं वायरस उतना नुकसान नहीं करता जितना कि उनका अपना अति-सक्रिय प्रतिरक्षा तंत्र कर देता है। इसलिए प्रतिरक्षा तंत्र पर नियंत्रण रखने के लिए उपयोग की जाने वाली दवा टॉसिलिज़ुमैब को आजमाया जा रहा है। जल्दी ही कोविड-19 निमोनिया से ग्रस्त मरीज़ों पर ऐसा परीक्षण करने की योजना है। इसी प्रकार की एक अन्य दवा सैरीलुमैब के परीक्षण पर भी काम चल रहा है।

6. रक्तचाप की दवाइयां

कुछ वैज्ञानिकों का विचार है कि रक्तचाप की औषधि लोसार्टन कोविड-19 के मरीज़ों के लिए मददगार साबित हो सकती है। मिनेसोटा विश्वविद्यालय ने इस दवा के दो क्लीनिकल परीक्षण शुरू किए हैं। लोसार्टन दरअसल कोशिकाओं पर उपस्थित एक ग्राही को अवरुद्ध करता है। एंजियोटेंसिन-2 नामक रसायन इसी ग्राही की मदद से कोशिका में प्रवेश करके रक्तचाप को बढ़ाता है। SARS-CoV-2 एंजियोटेंसिन-कंवर्टिंग एंज़ाइम-2 (ACE2) के ग्राही से जुड़ता है। सोच यह है कि जब लोसार्टन इन ग्राहियों को बाधित कर देगा तो वायरस कोशिका में प्रवेश नहीं कर पाएगा। लेकिन शंका यह व्यक्त की गई है कि लोसार्टन जैसी दवाइयां ACE2 के उत्पादन को बढ़ा देंगी और वायरस के कोशिका प्रवेश की संभावना बढ़ भी सकती है। इटली में 355 कोविड-19 मरीज़ों पर किए गए एक अध्ययन में पता चला कि जिन मरीज़ों की मृत्यु हुई उनमें से तीन-चौथाई उच्च रक्तचाप से पीड़ित थे। हो सकता है कि उच्च रक्तचाप ने ही इन्हें ज़्यादा खतरे में डाला हो।

कुल मिलाकर, दुनिया भर में कोविड-19 के लिए दवा की खोज के प्रयास ज़ोर-शोर से चल रहे हैं लेकिन इसमें काफी जटिलताएं हैं। फिर भी इतनी कोशिशों के परिणाम ज़रूर लाभदायक होंगे। अलबत्ता, एक सावधानी आवश्यक है। ये दवाइयां अभी परीक्षण के चरण में हैं। स्वयं इनका उपयोग करना नुकसानदायक भी हो सकता है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कोरोना वायरस किसी प्रयोगशाला से नहीं निकला है

ए कोरोना वायरस की वजह से दुनिया परेशान है, वैज्ञानिक इसका इलाज ढूंढने में दिन-रात एक कर रहे हैं, सरकारें इसे फैलने से रोकने के कठिन प्रयास कर रही हैं। लेकिन पूरी कहानी में षडयंत्र की बू न हो तो कुछ लोगों को मज़ा नहीं आता। तो यह सुझाव दिया गया कि यह नया जानलेवा वायरस SARS-CoV-2 वुहान की प्रयोगशाला में बनाकर जानबूझकर छोड़ा गया है। हाल ही में स्क्रिप्स रिसर्च इंस्टीट्यूट के वैज्ञानिकों ने गहन विश्लेषण के आधार पर स्पष्ट कर दिया है कि SARS-CoV-2 कहीं किसी प्रयोगशाला की साज़िश नहीं है। तो उन्होंने यह कैसे पता लगाया?

उनके शोध कार्य का ब्यौरा नेचर मेडिसिन शोध पत्रिका के 17 मार्च के अंक में प्रकाशित हुआ है। वैज्ञानिकों के दल ने इन नए वायरस के जीनोम (यानी पूरी जेनेटिक सामग्री) की तुलना सात ऐसे कोरोना वायरसों से की जो मनुष्यों को संक्रमित करते हैं: सार्स, मर्स और सार्स-2 (ये तीनों गंभीर रोग पैदा करते हैं), HKU1, NL63, OC43 और 229E  (जो हल्की बीमारी के लक्षण पैदा करते हैं)। शोधकर्ताओं का कहना है कि “हमारे विश्लेषण से साफ तौर पर पता चलता है कि SARS-CoV-2 प्रयोगशाला की कृति या जानबूझकर सोद्देश्य बनाया गया वायरस नहीं है।”

स्क्रिप्स रिसर्च इंस्टीट्यूट में प्रतिरक्षा विज्ञान और सूक्ष्मजीव विज्ञान के एसोसिएट प्रोफेसर क्रिस्टियान एंडरसन और उनके साथियों ने वायरस की सतह के उभारों के कंटक प्रोटीन का जेनेटिक सांचा देखा। कोरोना वायरस इन कंटकों का उपयोग किसी कोशिका की सतह को पकड़कर रखने और उसके अंदर प्रवेश करने के लिए करता है। शोधकर्ताओं ने इन कंटक प्रोटीन के दो प्रमुख गुणधर्मों के लिए ज़िम्मेदार जीन शृंखला को देखा। ये दो मुख्य गुणधर्म होते हैं – संडसी (हुक) और छेदक। संडसी वह हिस्सा होता है जो कोशिका की सतह पर चिपक जाता है और छेदक वह हिस्सा होता है जो कोशिका झिल्ली को खोलकर वायरस को अंदर घुसने में मदद करता है।

विश्लेषण से पता चला कि हुक वाला हिस्सा इस तरह विकसित हुआ है कि वह मानव कोशिका की बाहरी सतह पर उपस्थित ACE2 नामक ग्राहियों से जुड़ जाता है। जुड़ने में यह इतना कारगर है कि वैज्ञानिकों का ख्याल है कि यह जेनेटिक इंजीनियरिंग का नहीं बल्कि प्राकृतिक चयन का परिणाम है।

उन्हें ऐसा क्यों लगता है? SARS-CoV-2 एक अन्य वायरस का बहुत नज़दीकी सम्बंधी है जो सार्स के लिए ज़िम्मेदार होता है। वैज्ञानिकों ने इस बात का अध्ययन कर लिया है कि SARS-CoVऔर SARS-CoV-2 में क्या अंतर हैं। इनके जेनेटिक कोड में कई महत्वपूर्ण अंतर देखे गए हैं। लेकिन जब कंप्यूटर मॉडल तैयार किया गया तो SARS-CoV-2 के उत्परिवर्तन उसे मानव कोशिका से जुड़ने में बहुत मददगार नहीं रहे। यदि किसी प्रयोगशाला ने जानबूझकर ये परिवर्तन किए होते तो वे कदापि ऐसे उत्परिवर्तनों को नहीं चुनते जो कंप्य़ूटर मॉडल के हिसाब से मददगार नहीं हैं। अध्ययन का निष्कर्ष है कि प्रकृति कहीं अधिक चतुर है और उसने सर्वथा नए उत्परिवर्तनों को चुना है।

एक और मुद्दा है। कुल मिलाकर, इस वायरस की संरचना अन्य कोरोना वायरसों से बहुत अलग है। इसकी संरचना चमगादड़ों और पैंगोलिन में पाए जाने वाले वायरस के कहीं अधिक समान है। इन वायरसों का ज़्यादा अध्ययन नहीं हुआ है और इन्होंने मनुष्यों को हानि पहुंचाई हो, ऐसी कोई रिपोर्ट भी नहीं है।

“यदि कोई एक नया कोरोना वायरस एक रोगजनक के रूप में विकसित करना चाहता तो वह इसे किसी ऐसे वायरस की बुनियाद पर निर्मित करता जो जाना-माना रोगजनक हो।”

वायरस आया कहां से और कैसे? यह सवाल सिर्फ वैज्ञानिक रुचि का सवाल नहीं है बल्कि SARS-CoV-2 के भावी परिणामों से जुड़ा है। शोध समूह ने दो परिदृश्य प्रस्तुत किए हैं।

पहला परिदृश्य मानव आबादी को प्रभावित करने वाले कुछ ऐसे कोरोना वायरस से मेल खाता है जो सीधे किसी अन्य जंतु से आए हैं। सार्स के मामले में वायरस सिवेट (मुश्कबिलाव) से आया था और मिडिल ईस्ट रेस्पिरेटरी सिंड्रोम (मर्स) के मामले में वह ऊंट से मनुष्य में आया था। अनुसंधान से पता चला है कि SARS-CoV-2 चमगादड़ से मनुष्य में आया है। चमगादड़ से यह वायरस एक मध्यस्थ जंतु (संभवत: पैंगोलिन) में पहुंचा और वहां से मनुष्य में।

यदि यह परिदृश्य हकीकत है तो इस वायरस के मनुष्य में पहुंचने से पहले ही मनुष्य को संक्रमित करने की इसकी क्षमता (रोगजनक क्षमता) तैयार हो चुकी होगी।

दूसरा परिदृश्य यह है कि इसके रोगजनक लक्षण जंतु से मनुष्य में पहुंचने के बाद विकसित हुए हैं। पैंगोलिन में उत्पन्न कुछ कोरोना वायरस ऐसे हैं जिनमें हुक की संरचना SARS-CoV-2 जैसी होती है। इस तरह से पैंगोलिन ने वायरस को मनुष्य के शरीर में पहुंचा दिया और एक बार मनुष्य शरीर में प्रवेश के बाद वायरस ने बाकी के लक्षण (कोशिका के अंदर घुसने के लिए ज़रूरी औज़ार) विकसित कर लिए होंगे। एक बार कोशिका में घुसने की क्षमता आ जाए तो यह वायरस एक से दूसरे मनुष्य में फैलना संभव हो गया होगा।

इस तरह की तकनीकी जानकारी से लैस होकर वैज्ञानिक इस महामारी का भविष्य बता पाएंगे। यदि यह वायरस मनुष्य में पहुंचने से पहले ही रोगजनक था तो इसका मतलब है कि मनुष्यों में से इसके खात्मे के बाद भी यह सम्बंधित जंतु में पनपता रहेगा और फिर से हमला कर सकता है। दूसरी ओर, यदि दूसरा परिदृश्य सही है तो इसके वापिस लौटने की संभावना कम है क्योंकि तब इसे फिर से मानव शरीर में प्रवेश करके एक बार फिर नए सिरे से रोगजनक क्षमता विकसित करनी होगी।(स्रोत फीचर्स)

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