जल संकट से समूचा विश्व जूझ रहा है – डॉ. आर.बी. चौधरी

भारत के जल संसाधनों के संकट की शुरुआत आंकड़ों से होती है। भारत में जल विज्ञान सम्बंधी आंकड़े संग्रह करने का काम मुख्यत: केंद्रीय जल आयोग (सीडब्ल्यूसी) करता है। सीडब्लूसी का नाम लिए बगैर नीति आयोग की रिपोर्ट भारत में जल आंकड़ा प्रणाली को कठघरे में खड़ी करती है। नीति आयोग की रिपोर्ट में बातें तो खरी हैं: “यह गहरी चिंता की बात है कि भारत में 60 करोड़ से अधिक लोग ज़्यादा से लेकर चरम स्तर तक का जल दबाव झेल रहे हैं। भारत में तकरीबन 70 फीसदी जल प्रदूषित है, जिसकी वजह से पानी की गुणवत्ता के सूचकांक में भारत 122 देशों में 120वें स्थान पर है।”

हमारे यहां पानी के इस्तेमाल और संरक्षण से जुड़ी कई समस्याएं हैं। पानी के प्रति हमारा रवैया ही ठीक नहीं है। हम इस भ्रम में रहते हैं कि चाहे जितने भी पानी का उपयोग/दुरुपयोग कर लें, बारिश से हमारी नदियों और जलाशयों में फिर से नया पानी आ ही जाएगा। यह रवैया सरकारी एजेंसियों का भी है और आम लोगों का भी। अगर किसी साल बारिश नहीं होती तो इसके लिए हम जलवायु परिवर्तन और ग्लोबल वार्मिंग को ज़िम्मेदार ठहराने लगते हैं।

पानी के इस्तेमाल के मामले में घरेलू उपयोग की बड़ी भूमिका नहीं है लेकिन कृषि की है। 1960 के दशक में हरित क्रांति की शुरुआत के बाद से कृषि में पानी की मांग बढ़ी है। इससे भूजल का दोहन हुआ है, जल स्तर नीचे गया है। इस समस्या के समाधान के लिए पर्याप्त उपाय नहीं किए जा रहे हैं। जब भी बारिश नहीं होती तब संकट पैदा होता है। नदियों के पानी का मार्ग बदलने से भी समाधान नहीं हो रहा है। स्थिति काफी खराब है। इस वर्ष अच्छी वर्षा होने का अनुमान है तो जल संचय के लिए अभी से ही कदम उठाने होंगे। लोगों को चाहिए कि पानी की बूंद-बूंद को बचाएं।

गर्मियां आते ही जल संकट पर बातें शुरू हो जाती हैं लेकिन एक पूर्व चेतावनी उपग्रह प्रणाली के अध्ययन पर आधारित रिपोर्ट काफी डराने वाली है क्योंकि यह रिपोर्ट भारत में एक बड़े जल संकट की ओर इशारा कर रही है। भारत, मोरक्को, इराक और स्पेन में सिकुड़ते जलाशयों की वजह से इन चार देशों में नलों से पानी गायब हो सकता है। दुनिया के 5 लाख बांधों के लिए पूर्व चेतावनी उपग्रह प्रणाली बनाने वाले डेवलपर्स के अनुसार भारत, मोरक्को, इराक और स्पेन में जल संकट ‘डे ज़ीरो’ तक पहुंच जाएगा। यानी नलों से पानी एकदम गायब हो सकता है। अध्ययन में कहा गया है कि भारत में नर्मदा नदी से जुड़े दो जलाशयों में जल आवंटन को लेकर प्रत्यक्ष तौर पर तनाव है।

पिछले साल कम बारिश होने की वजह से मध्य प्रदेश के इंदिरा सागर बांध में पानी सबसे निचले स्तर पर पहुंच गया। जब इस कमी को पूरा करने के लिए निचले क्षेत्र में स्थित सरदार सरोवर जलाशय को कम पानी दिया गया तो काफी होहल्ला मच गया था क्योंकि सरदार सरोवर जलाशय में 3 करोड़ लोगों के लिए पेयजल है। पिछले महीने गुजरात सरकार ने सिंचाई रोकते हुए किसानों से फसल नहीं लगाने की अपील की थी।

नीति आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में विश्व की 17 प्रतिशत जनसंख्या रहती है, जबकि इसके पास विश्व के शुद्ध जल संसाधन का मात्र 4 प्रतिशत ही है। किसी भी देश में अगर प्रति व्यक्ति जल उपलब्धता 1700 घन मीटर से नीचे जाने लगे तो उसे जल संकट की चेतावनी और अगर 1000 घन मीटर से नीचे चला जाए, तो उसे जल संकटग्रस्त माना जाता है। भारत में यह फिलहाल 1544 घन मीटर प्रति व्यक्ति हो गया है, जिसे जल की कमी की चेतावनी के रूप में देखा जा रहा है। नीति आयोग ने यह भी बताया है कि उपलब्ध जल का 84 प्रतिशत खेती में, 12 प्रतिशत उद्योगों में और 4 प्रतिशत घरेलू कामों में उपयोग होता है।

हम चीन और अमेरिका की तुलना में एक इकाई फसल पर दो से चार गुना अधिक जल उपयोग करते हैं। देश की लगभग 55 प्रतिशत कृषि भूमि पर सिंचाई के साधन नहीं हैं। ग्याहरवीं योजना के अंत तक भी लगभग 13 करोड़ हैक्टर भूमि को सिंचाई के अंतर्गत लाने का प्रवधान था। इसे बढ़ाकर अधिक-से-अधिक 1.4 करोड़ हैक्टर तक किया जा सकता है। इसके अलावा भी काफी भूमि ऐसी बचेगी, जहां सिंचाई असंभव होगी और वह केवल मानसून पर निर्भर रहेगी। भूजल का लगभग 60 प्रतिशत सिंचाई के लिए उपयोग में लाया जाता है। 80 प्रतिशत घरेलू जल आपूर्ति भूजल से ही होती है। इससे भूजल का स्तर लगातार घटता जा रहा है।

लगातार दो वर्षों से मानसून की खराब स्थिति ने देश के जल संकट को गहरा दिया है। आबादी लगातार बढ़ रही है, जबकि जल संसाधन सीमित हैं। अगर अभी भी हमने जल संरक्षण और उसके समान वितरण के लिए उपाय नहीं किए तो देश के तमाम सूखा प्रभावित राज्यों की हालत और गंभीर हो जाएगी। नीति आयोग द्वारा समय-समय पर जल समस्या पर अध्ययन किए जाते हैं किंतु आंकड़े जिस सच्चाई का चित्रण करते हैं उस पर ध्यान देने की तत्काल आवश्यकता है।

जल संरक्षण एवं प्रबंधन के समय-समय पर कई सुझाव दिए जाते हैं किंतु विशेषज्ञों की राय में निम्नलिखित बातों का स्मरण रखा जाना अति आवश्यक है। जैसे, लोगों में जल के महत्व के प्रति जागरूकता पैदा करना, पानी की कम खपत वाली फसलें उगाना, जल संसाधनों का बेहतर नियंत्रण एवं प्रबंधन एवं जल सम्बंधी राष्ट्रीय कानून बनाया जाना इत्यादि। हांलाकि, संवैधानिक तौर पर जल का मामला राज्यों से संबंधित है लेकिन अभी तक किसी राज्य ने अलग-अलग क्षेत्रों को जल आपूर्ति सम्बंधी कोई निश्चित कानून नहीं बनाए हैं।

अंतर्राष्ट्रीय जल दिवस की घोषणा ब्राज़ील के रियो दे जनेरो में 1992 में हुए पर्यावरण और विकास पर संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन (यूएनसीईडी) में हुई थी। इसके बाद संयुक्त राष्ट्र आम सभा ने 22 मार्च को अंतर्राष्ट्रीय जल दिवस के रूप में घोषित किया। 2005-2016 के दशक को संयुक्त राष्ट्र ने अंतर्राष्ट्रीय जल अभियान का दशक घोषित किया था। इसी दशक के तहत पिछले दिनों दक्षिण अफ्रीकी शहर केप टाउन में पानी सूख जाने की खबर अंतर्राष्ट्रीय सुर्खियों में रही।

पृथ्वी पर उपलब्ध कुल पानी का 2.6 फीसदी ही साफ पानी है। और इसका एक फीसदी पानी ही मनुष्य इस्तेमाल कर पाते हैं। वैश्विक पैमाने पर इसी पानी का 70 फीसदी कृषि में, 25 फीसदी उद्योगों में और पांच फीसदी घरेलू इस्तेमाल में निकल जाता है। भारत में साढ़े सात करोड़ से ज़्यादा लोग पीने के साफ पानी के लिए तरस रहे हैं। नदियां प्रदूषित हैं और जल संग्रहण का ढांचा चरमराया हुआ है। ग्रामीण इलाकों मे इस्तेमाल योग्य पानी का संकट हो चुका है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने जल उपयोग का प्रति व्यक्ति आदर्श मानक 100-200 लीटर निर्धारित किया है। विभिन्न देशों में ये मानक बदलते रहते हैं। लेकिन भारत की बात करें तो स्थिति बदहाल ही कही जाएगी, जहां औसतन प्रति व्यक्ति जल उपयोग करीब 90 लीटर प्रतिदिन है। अगर जल उपलब्धता की बात करें, तो सरकारी अनुमान कहता है कि 2025 तक प्रति व्यक्ति 1341 घन मीटर उपलब्ध होगा। 2050 में यह और कम होकर 1140 रह जाएगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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प्रकाश प्रदूषण का हाल एक क्लिक से

दि आपको आकाश-दर्शन का शौक है और आप निराश हैं कि आपके इलाके में उजाले की वजह से तारे बहुत कम नज़र आते हैं तो आप एक वेबसाइट की मदद से पता कर सकते हैं कि आप जहां खड़े हैं वहां रात में कितना उजाला है। आप यह भी पता कर सकते हैं कि आकाश का अच्छा नज़ारा देखने के लिए कहां जाना उपयुक्त होगा।

पॉट्सडैम स्थित जर्मन रिसर्च सेंटर फॉर जियोसाइन्स के भौतिक शास्त्री क्रिस्टोफर कायबा ने एक ऐसा सॉफ्टवेयर तैयार किया है जो पूरी धरती पर कहीं भी रात के समय उजाले की स्थिति बता सकता है। आपको बस इतना करना है कि Radiance Light Trends पर जाएं और अपने इलाके का नाम टाइप करें। तत्काल आपको उस जगह में रात के प्रकाश का अनुमान मिल जाएगा।

इस सॉफ्टवेयर को विकसित करने के लिए कायबा ने उपग्रहों से प्राप्त आंकड़ों का विश्लेषण किया है। ये उपग्रह पृथ्वी पर लगातार नज़र रखते हैं। इनसे प्राप्त सूचनाओं से पता चलता है कि किसी स्थान पर स्ट्रीट लाइट्स, नियॉन साइन्स या अन्य किसी स्रोत से रात के समय कितना प्रकाश पैदा होता है। मगर इन आंकड़ों को हासिल करना और इनका विश्लेषण करके रात्रि-प्रकाश का अंदाज़ लगाना खासा मुश्किल काम है। कायबा ने इस काम को आसान बना दिया है।

कायबा ने इसके लिए पिछले पच्चीस वर्षों के उपग्रह आंकड़ों को शामिल किया है। यह सॉफ्टवेयर किसी भी स्थान के लिए पिछले पच्चीस वर्षों के रात्रि-प्रकाश का ग्राफ प्रस्तुत कर देता है। वैसे आप चाहें तो पर्यावरण के अन्य कारकों के आंकड़े भी यहां से प्राप्त कर सकते हैं और उनका विश्लेषण कर सकते हैं। यह सॉफ्टवेयर युरोपीय संघ की मदद से जियोएसेंशियल प्रोजेक्ट के तहत विकसित किया गया है।

यह सॉफ्टवेयर कई तरह से उपयोगी साबित होगा। जैसे एक अध्ययन से पता चला है कि प्रकाश-प्रदूषण लगभग 80 प्रतिशत धरती को प्रभावित करता है। इसका असर जलीय पारिस्थितिक तंत्रों पर पड़ता है। कुछ अध्ययनों से यह भी संकेत मिला है कि प्रकाश प्रदूषण मानव स्वास्थ्य को प्रभावित करता है और यह संक्रामक रोगों के फैलने में भी भूमिका निभाता है। यह सॉफ्टवेयर इन सब मामलों में मददगार होगा। और शौकिया खगोल शास्त्री इसकी मदद से यह तय कर सकते हैं कि उनके आसपास आकाश को निहारने का सबसे अच्छा स्थान कौन-सा होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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हथियारों की दौड़ को कम करना ज़रूरी – भारत डोगरा

भारत ही नहीं अनेक अन्य विकासशील देशों में भी प्राय: हथियार सौदों से जुड़ा भ्रष्टाचार सुर्खियों में छाया रहता है। यह भ्रष्टाचार ज़रूर एक महत्वपूर्ण मुद्दा है, पर इससे एक कदम आगे जाकर यह मुद्दा भी उठाना चाहिए कि भ्रष्टाचार के साथ-साथ हथियारों की दौड़ को ही समाप्त करने के अधिक बुनियादी प्रयास होने चाहिए।

दक्षिण एशिया मानव विकास रिपोर्ट ने इस बारे में काफी हिसाब-किताब किया कि कुछ हथियारों के खर्च की विकास के मदों पर खर्च से क्या बराबरी है। इस आकलन के अनुसार:-

एक टैंक = 40 लाख बच्चों के टीकाकरण का खर्च

एक मिराज = 30 लाख बच्चों की एक वर्ष की प्राथमिक स्कूली शिक्षा

एक आधुनिक पनडुब्बी = 6 करोड़ लोगों को एक वर्ष तक साफ पेयजल

इसके बावजूद एक ओर तो अधिक हथियारों का उत्पादन हो रहा है, तथा दूसरी ओर उनकी विध्वंसक क्षमता बढ़ती जा रही है।

केवल सेना के उपयोग के लिए एक वर्ष में 16 अरब बंदूक-गोलियों का उत्पादन किया गया – यानी विश्व की कुल आबादी के दोगुनी से भी ज़्यादा गोलियां बनाई गर्इं।

विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा तैयार की गई ‘हिंसा व स्वास्थ्य पर विश्व रिपोर्ट’ के अनुसार, “अधिक गोलियां, अधिक तेज़ी से, अधिक शीघ्रता से व अधिक दूरी तक फायर कर सकती हैं और साथ ही इन हथियारों की विनाश क्षमता भी बढ़ी है।” एक एके-47 रायफल में तीन सेकंड से भी कम समय में 30 राउंड फायर करने की क्षमता है व प्रत्येक गोली एक कि.मी. से भी अधिक की दूरी तक जानलेवा हो सकती है।

पिछले सात दशकों में विश्व की एक बड़ी विसंगति यह रही है कि महाविनाशक हथियारों के इतने भंडार मौजूद हैं जो सभी मनुष्यों को व अधिकांश अन्य जीवन-रूपों को एक बार नहीं कई बार ध्वस्त करने की विनाशक क्षमता रखते हैं। परमाणु हथियारों के प्रसार को रोकने के लिए गठित आयोग ने दिसंबर 2009 में जारी अपनी रिपोर्ट में बताया था कि दुनिया में 23 हज़ार परमाणु हथियार मौजूद हैं, जिनकी विध्वंसक क्षमता हिरोशिमा पर गिराए गए एटम बम से डेढ़ लाख गुना ज़्यादा है। आयोग ने आगे बताया है कि अमेरिका और रूस के पास 2000 परमाणु हथियार ऐसे हैं जो बेहद खतरनाक स्थिति में तैनात हैं व मात्र चार मिनट में दागे जा सकते हैं। आयोग का स्पष्ट मत है कि जब तक कुछ देशों के पास परमाणु हथियार हैं, तब तक कई अन्य देश भी ऐसे हथियार प्राप्त करने का भरसक प्रयास करते रहेंगे।

आगामी दिनों में रोबोट हथियार या ए.आई. हथियार बहुत खतरनाक हथियारों के रूप में उभरने वाले हैं। अनेक विशेषज्ञों ने जारी चेतावनी में कहा है कि इससे जीवन के अस्तित्व मात्र का खतरा उत्पन्न हो सकता है। इन्हें आरंभिक स्थिति में ही प्रतिबंधित कर दिया जाना चाहिए पर ऐसा प्रतिबंध लगाने में भी अनेक कठिनाइयां आ रही हैं। इस तरह के प्रतिबंधों के लिए ऐसे मुद्दों पर लोगों में जानकारी का प्रसार बहुत जरूरी है ताकि वे आगामी व वर्तमान खतरों की गंभीरता को समझ सकें।

अत: इन बढ़ते खतरों के बीच अब यह बहुत जरूरी हो गया है कि विश्व स्तर पर सभी तरह के हथियारों व गोला-बारूद को न्यूनतम करने का एक बड़ा अभियान बहुत व्यापक स्तर पर निरंतरता से चले। (स्रोत फीचर्स)

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एक झील बहुमत से व्यक्ति बनी

संयुक्त राज्य अमेरिका और कनाडा की सरहद पर एक झील है एरी झील। हाल ही में इस झील के किनारे बसे शहर टोलेडो (ओहायो प्रांत) के नागरिकों ने 61 प्रतिशत मतों से इसे एक व्यक्ति का दर्जा देने के कानून को समर्थन दिया है।

एरी झील अमेरिका की चौथी सबसे बड़ी और दुनिया भर की ग्यारहवीं सबसे बड़ी झील है। झील लगभग 25,000 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैली हुई है। पिछले वर्षों में यह अत्यधिक प्रदूषित झीलों में से एक रही है। आसपास के खेतों से बहकर जो पानी इस झील में पहुंचता है उसमें बहुत अधिक मात्रा में फॉस्फोरस व नाइट्रोजन होते हैं। ये शैवाल के लिए उर्वरक का काम करते हैं और झील की पूरी सतह ज़हरीली शैवाल से ढंक जाती है। हालत यह हो गई थी कि इस झील का पानी पीने योग्य नहीं रह गया था। पिछले वर्ष गर्मियों में यहां के 5 लाख नागरिकों को पूरी तरह बोतल के पानी पर निर्भर रहना पड़ा था। यह झील इसके आसपास लगभग 875 कि.मी. के तट पर बसे विभिन्न शहरों के करीब 1 करोड़ लोगों के लिए पेयजल का स्रोत है।

झील की इस स्थिति से चिंतित होकर पिछले कई वर्षों से ओहायो में एक आंदोलन चल रहा है। इस आंदोलन ने एक कानून तैयार किया है जिसके तहत एरी झील को व्यक्ति का दर्जा दिया जाएगा। पिछले माह हुए मतदान में 61 प्रतिशत मतदाताओं ने इस कानून को समर्थन दिया है। इस कानून के तहत टोलेडो के नागरिकों को यह अधिकार मिल जाएगा कि वे एरी झील की ओर से प्रदूणकारियों पर मुकदमा चला सकेंगे।

इससे पहले इक्वेडोर, न्यूज़ीलैंड, कोलंबिया और भारत में भी नदियों, और जंगलों को व्यक्ति का दर्जा दिया जा चुका है। संभावना जताई जा रही है कि यूएस की इस नज़ीर के बाद कई अन्य स्थानों पर भी ‘प्रकृति के अधिकारों’ का यह आंदोलन ज़ोर पकड़ेगा।

कानूनी विशेषज्ञ ऐसे किसी कानून को लेकर दुविधा में हैं। कुछ लोगों को लगता है कि यह कानून संवैधानिक मुकदमों में टिक नहीं पाएगा। उनको लगता है कि परिणाम सिर्फ यह होगा कि मुकदमेबाज़ी में ढेरों पैसा खर्च होगा।

दूसरी ओर, कई अन्य लोगों का मानना है कि चाहे यह कानून मुकदमेबाज़ी में उलझ जाए किंतु यहां नागरिकों ने यह स्पष्ट संदेश दे दिया है कि वे प्रकृति के अतिक्रमण को बर्दाश्त नहीं करेंगे। (स्रोत फीचर्स)

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पर्यावरण पर्यटन का बढ़ता कारोबार – डॉ. दीपक कोहली

र्यटन आज दुनिया के सबसे बड़े उद्योगों में से है और पर्यटन उद्योग का सबसे तेज़ी से फैलता क्षेत्र पर्यावरण पर्यटन है। कोस्टा रिका और बेलिज जैसे देशों में विदेशी मुद्रा अर्जित करने का सबसे बड़ा रुाोत पर्यटन ही है जबकि ग्वाटेमाला में इसका स्थान दूसरा है। समूचे विकासशील ऊष्णकटिबंधीय क्षेत्र में वन्य जीव संरक्षित क्षेत्र प्रबंधकों और स्थानीय समुदायों को आर्थिक विकास और प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण की आवश्यकता के बीच संतुलन कायम करने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। पर्यावरण पर्यटन भी इस महत्वपूर्ण संतुलन का एक पक्ष है। सुनियोजित पर्यावरण पर्यटन से संरक्षित क्षेत्रों और उनके आसपास रहने वाले समुदायों को लाभ पहुंचाया जा सकता है। इसके लिए जैव विविधता संरक्षण के दीर्घावधि उपायों और स्थानीय विकास के बीच समन्वय कायम करना होगा।

सामान्य शब्दों में पर्यावरण पर्यटन या इको टूरिज़्म का अर्थ है पर्यटन और प्रकृति संरक्षण का प्रबंधन इस ढंग से करना कि एक तरफ पर्यटन और पारिस्थितिकी की आवश्यकताएं पूरी हों और दूसरी तरफ स्थानीय समुदायों के लिए रोज़गार – नए कौशल, आय और महिलाओं के लिए बेहतर जीवन स्तर सुनिश्चित किया जा सके। संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा वर्ष 2002 को अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण-पर्यटन वर्ष के रूप में मनाए जाने से पर्यावरण पर्यटन के विश्वव्यापी महत्व, उसके लाभों और प्रभावों को मान्यता मिली। अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण पर्यटन वर्ष ने हमें विश्व स्तर पर पर्यावरण पर्यटन की समीक्षा और भविष्य में इसका स्थायी विकास सुनिश्चित करने के लिए उपयुक्त साधनों और संस्थागत ढांचे को मज़बूत करने का अवसर प्रदान किया। इसका अर्थ है कि पर्यावरण पर्यटन की खामियां और नकारात्मक प्रभाव दूर करते हुए इससे अधिकतम आर्थिक, पर्यावरणीय और सामाजिक लाभ प्राप्त किए जा सकें।

पर्यावरण पर्यटन को अब सब रोगों की औषधि के रूप में देखा जा रहा है जिससे भारी मात्रा में पर्यटन राजस्व मिलता है और पारिस्थितिकी प्रणाली को कोई क्षति नहीं पहुंचती क्योंकि इसमें वन संसाधनों का दोहन नहीं किया जाता। एक अवधारणा के रूप में पर्यावरण पर्यटन को भारत में हाल ही में बल मिला है, लेकिन एक जीवन पद्धति के रूप में भारतीय सदियों से इस अवधारणा पर अमल कर रहे हैं। पर्यावरण पर्यटन को विभिन्न रूपों में परिभाषित किया गया है। इंटरनेशनल इको टूरिज़्म सोसायटी ने 1991 में इसकी परिभाषा इस प्रकार की थी: पर्यावरण पर्यटन प्राकृतिक क्षेत्रों की वह दायित्वपूर्ण यात्रा है जिससे पर्यावरण संरक्षण होता है और स्थानीय लोगों की खुशहाली बढ़ती है।

विश्व पर्यटन संगठन (डब्ल्यूटीओ) द्वारा दी गई परिभाषा के अनुसार पर्यावरण पर्यटन के अंतर्गत अपेक्षाकृत अबाधित प्राकृतिक क्षेत्रों की ऐसी यात्रा शामिल है जिसका निर्दिष्ट लक्ष्य प्रकृति का अध्ययन और सम्मान करना तथा वनस्पति और जीव-जंतुओं के दर्शन का आऩंद लेना तथा साथ ही इन क्षेत्रों से संबद्ध सांस्कृतिक पहलुओं (अतीत और वर्तमान, दोनों) का अध्ययन करना है। वल्र्ड कंज़र्वेशन यूनियन (आईयूसीएन, 1996) के अनुसार पर्यावरण पर्यटन का अर्थ है प्राकृतिक क्षेत्रों की पर्यावरण अनुकूल यात्रा ताकि प्रकृति (साथ ही अतीत और वर्तमान की सांस्कृतिक विशेषताओं) को सराहा जा सके और उनका आनंद उठाया जा सके, जिससे संरक्षण को प्रोत्साहन मिले, पर्यटकों का असर कम पड़े और स्थानीय लोगों की सक्रिय सामाजिक-आर्थिक भागीदारी का लाभ उठाया जा सके। संक्षेप में, इसकी परिभाषाओं में तीन पहलुओं को रेखांकित किया गया है – प्रकृति, पर्यटन और स्थानीय समुदाय। सार्वजनिक पर्यटन से इसका अर्थ भिन्न है, जिसका लक्ष्य प्रकृति का दोहन है। संरक्षण, स्थिरता और जैव-विविधता पर्यावरण पर्यटन के तीन परस्पर सम्बंधित पहलू हैं। विकास के एक साधन के रूप में पर्यावरण पर्यटन जैव विविधता समझौते’ के तीन बुनियादी लक्ष्यों को हासिल करने में मदद दे सकता है:

– संरक्षित क्षेत्र प्रबंधन प्रणालियां (सार्वजनिक या निजी) मज़बूत बनाकर और सुदृढ़ पारिस्थितिकी प्रणालियों का योगदान बढ़ाकर जैव-विविधता (और सांस्कृतिक विविधता) का संरक्षण।

– पर्यावरण पर्यटन और सम्बंधित व्यापार नेटवर्क में आमदनी, रोज़गार और व्यापार के अवसर पैदा करके जैव विविधता के स्थायी इस्तेमाल को प्रोत्साहन, और

– स्थानीय समुदायों और जनजातीय लोगों को पर्यावरण-पर्यटन गतिविधियों के लाभ में समान रूप से भागीदार बनाना और इसके लिए पर्यावरण पर्यटन की आयोजना और प्रबंधन में उनकी पूर्ण सहमति एवं भागीदारी प्राप्त करना।

पर्यावरण पर्यटन का सिद्धांतों, दिशा-निर्देशों और स्थिरता के मानदंडों पर आधारित होना इसे पर्यटन क्षेत्र में विशेष स्थान प्रदान करता है। पहली बार इस धारणा को परिभाषित किए जाने के बाद के वर्षों में पर्यावरण पर्यटन के अनिवार्य बुनियादी तत्वों के बारे में आम सहमति बनी है जो इस प्रकार है: भली-भांति संरक्षित पारिस्थितिकी तंत्र पर्यटकों को आकर्षित करते हैं, विभिन्न सांस्कृतिक और साहसिक गतिविधियों के दौरान एक ज़िम्मेदार, कम असर डालने वाला पर्यटक व्यवहार, पुनर्भरण न हो सकने वाले संसाधनों की कम से कम खपत, स्थानीय लोगों की सक्रिय भागीदारी, जो प्रकृति, संस्कृति और परम्पराओं के बारे में पर्यटकों को प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध कराने में सक्षम होते हैं और अंत में स्थानीय लोगों को पर्यावरण पर्यटन प्रबंधन के अधिकार प्रदान करना ताकि वे जीविका के वैकल्पिक अवसर अपनाकर संरक्षण सुनिश्चित कर सकें तथा पर्यटक और स्थानीय समुदाय, दोनों के लिए शैक्षिक पहलू शामिल कर सकें।

पर्यावरण अनुकूल गतिविधि होने के कारण पर्यावरण पर्यटन का लक्ष्य पर्यावरण मूल्यों और शिष्टाचार को प्रोत्साहित करना तथा निर्बाध रूप में प्रकृति का संरक्षण करना है। इस तरह यह वन्य जीवों और प्रकृति को लाभ पहुंचाता है तथा स्थानीय लोगों की भागीदारी उनके लिए आर्थिक लाभ सुनिश्चित करती है जो आगे चलकर उन्हें बेहतर और आसान जीवन स्तर उपलब्ध कराती है। (स्रोत फीचर्स)

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2018 चौथा सबसे गर्म वर्ष रहा

ब से हम तापमान का रिकॉर्ड रख रहे हैं, तब से आज तक 2018 चौथा सबसे गर्म साल रहा है। यह निष्कर्ष यूएस के नेशनल एरोनॉटिक्स एंड स्पेस एडमिनिस्ट्रेशन (नासा) और नेशनल ओशिओनोग्राफिक एंड एटमॉस्फेरिक एडमिनिनिस्ट्रेशन (एनओओए) की अलग-अलग रिपोर्ट में बताया गया है।

एनओओए की रिपोर्ट के मुताबिक पिछला साल इतना गर्म था कि समुद्र सतह का तापमान बीसवीं सदी के औसत से 0.79 डिग्री सेल्सियस ज़्यादा रहा। तापमान के रिकॉर्ड 1880 से उपलब्ध हैं। तब से आज तक मात्र 2016, 2015 और 2017 ही इससे गर्म रहे हैं। नासा के वैज्ञानिक गेविन श्मिट का कहना है मुख्य बात यह है कि पृथ्वी गर्म हो रही है और हम भलीभांति समझते हैं कि ऐसा क्यों हो रहा है। इसका मुख्य कारण है ग्रीनहाउस गैसें जो हम वायुमंडल में छोड़ते चले जा रहे हैं।

गर्म वर्षों की ओर यह रुझान कोई नई बात नहीं है। सदी के 10 सबसे गर्म वर्षों में से 9 तो 2005 के बाद के हैं। और सबसे गर्म 5 साल दरअसल पिछले 5 वर्ष (2014-2018) रहे हैं।

नासा तथा एनओओए का यह निष्कर्ष अन्य संस्थाओं के आंकड़ों से मेल खाता है। जैसे युनाइटेड किंगडम के मौसम कार्यालय तथा विश्व मौसम विज्ञान संगठन ने भी वर्ष 2018 को ही चौथा सबसे गर्म वर्ष बताया है। युरोप के अधिकांश हिस्सों, भूमध्यसागर क्षेत्र, मध्य पूर्व, न्यूज़ीलैंड और रूस के अलावा अटलांटिक महासागर तथा पश्चिमी प्रशांत महासागर के कुछ हिस्सों में भी धरती और समुद्र का तापमान रिकॉर्ड ऊंचाई पर रहा। हालांकि पृथ्वी के कुछ हिस्सों में ठंडक रही किंतु कुल मिलाकर 2018 गर्म रहा। वैश्विक औसत देखें तो बीसवीं सदी के औसत की तुलना में 2018 में धरती का तापमान 1.12 डिग्री सेल्सियस तथा समुद्र का तापमान 0.66 डिग्री सेल्सियस अधिक रिकॉर्ड किया गया। (स्रोत फीचर्स)

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कीटों की घटती आबादी और प्रकृति पर संकट

हाल ही में प्रकाशित एक रिपोर्ट के मुताबिक कीटों की जनसंख्या में तेज़ी से गिरावट आ रही है और यह गिरावट किसी भी इकोसिस्टम के लिए खतरे की चेतावनी है। सिडनी विश्वविद्यालय के फ्रांसिस्को सांचेज़-बायो और बेजिंग स्थित चायना एकडमी ऑफ एग्रिकल्चरल साइन्सेज़ के क्रिस वायचुइस द्वारा बॉयोलॉजिकल कंज़र्वेशन पत्रिका में प्रकाशित इस रिपोर्ट के मुताबिक 40 प्रतिशत से ज़्यादा कीटों की संख्या घट रही है और एक-तिहाई कीट तो विलुप्ति की कगार पर पहुंच चुके हैं। कीट का कुल द्रव्यमान सालाना 2.5 प्रतिशत की दर से कम हो रहा है, जिसका मतलब है कि एक सदी में ये गायब हो जाएंगे।

रिपोर्ट में तो यहां तक कहा गया है कि धरती छठे व्यापक विलुप्तिकरण की दहलीज़ पर खड़ी है। कीट पारिस्थितिक तंत्रों के सुचारु कामकाज के लिए अनिवार्य हैं। वे पक्षियों, सरिसृपों तथा उभयचर जीवों का भोजन हैं। इस भोजन के अभाव में ये प्राणि जीवित नहीं रह पाएंगे। कीट वनस्पतियों के लिए परागण की महत्वपूर्ण भूमिका भी निभाते हैं। इसके अलावा वे पोषक तत्वों का पुनर्चक्रण भी करते हैं।

शोधकर्ताओं का कहना है कि कीटों की आबादी में गिरावट का सबसे बड़ा कारण सघन खेती है। इसमें खेतों के आसपास से सारे पेड़-पौधे साफ कर दिए जाते हैं और फिर नंगे खेतों पर उर्वरकों और कीटनाशकों का बेतहाशा इस्तेमाल किया जाता है। आबादी में गिरावट का दूसरा प्रमुख कारण जलवायु परिवर्तन है। कई कीट तेज़ी से बदलती जलवायु के साथ अनुकूलित नहीं हो पा रहे हैं।

सांचेज़-बायो का कहना है कि पिछले 25-30 वर्षों में कीटों के कुल द्रव्यमान में से 80 प्रतिशत गायब हो चुका है।

इस रिपोर्ट को तैयार करने में कीटों में गिरावट के 73 अलग-अलग अध्ययनों का विश्लेषण किया गया। तितलियां और पतंगे सर्वाधिक प्रभावित हुए हैं। जैसे, 2000 से 2009 के बीच इंगलैंड में तितली की एक प्रजाति की संख्या में 58 प्रतिशत की कमी आई है। इसी प्रकार से मधुमक्खियों की संख्या में ज़बरदस्त कमी देखी गई है। ओक्लाहामा (यूएस) में 1949 में बंबलबी की जितनी प्रजातियां थीं, उनमें से 2013 में मात्र आधी बची थीं। 1947 में यूएस में मधुमक्खियों के 60 लाख छत्ते थे और उनमें से 35 लाख खत्म हो चुके हैं।

वैसे रिपोर्ट को तैयार करने में जिन अध्ययनों का विश्लेषण किया गया वे ज़्यादातर पश्चिमी युरोप और यूएस से सम्बंधित हैं और कुछ अध्ययन ऑस्ट्रेलिया से चीन तथा ब्रााज़ील से दक्षिण अफ्रीका के बीच के भी हैं। मगर शोधकर्ताओं का मत है कि अन्यत्र भी स्थिति बेहतर नहीं होगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कॉफी पर संकट: जंगली प्रजातियां विलुप्त होने को हैं

ई लोगों का प्रिय पेय पदार्थ कॉफी अभूतपूर्व संकट का सामना कर रहा है। वैसे तो दुनिया भर में कॉफी की 124 प्रजातियां पाई जाती हैं किंतु जो कॉफी हमारे घरों में पहुंचती है, वह मात्र दो प्रजातियों से प्राप्त होती है। इनमें से एक है कॉफी अरेबिका जिसका बाज़ार में बोलबाला है और यह कुल कॉफी उत्पादन में लगभग 70 प्रतिशत का आधार है। दूसरी प्रजाति कॉफी केनीफोरा शेष उत्पादन का आधार है। इसे रोबस्टा भी कहते हैं।

कॉफी की शेष समस्त प्रजातियां जंगली हैं और इनके फल बहुत रोमिल होते हैं, बीज बड़े-बड़े होते हैं और इनमें कैफीन नहीं होता। मगर इन जंगली प्रजातियों में ऐसे जेनेटिक गुण पाए जाते हैं जो इन्हें विभिन्न पर्यावरणीय परिस्थितियों का सामना करने में मदद करते हैं। और आज जब कृष्य कॉफी पर संकट मंडरा रहा है तो शायद ये जंगली प्रजातियां हमारी मदद कर सकती हैं।

तो जंगली कॉफी के भौगोलिक विस्तार और उनकी सेहत का आकलन करना एक महत्वपूर्ण काम है। इसी दृष्टि से क्यू स्थित रॉयल बॉटेनिकल गार्डन के आरोन डेविड और उनके साथियों ने कॉफी का एक विश्वव्यापी आकलन किया। सबसे पहले उन्होंने जंगली प्रजातियों के 5000 उपलब्ध रिकॉर्डस को खंगाला। इसके बाद इन शोधकर्ताओं ने अफ्रीका, मेडागास्कर और हिंद महासागर के टापुओं में जा-जाकर आंकड़े एकत्रित किए।

प्रत्येक प्रजाति का भौगोलिक स्थान चिंहित करने के बाद उन्होंने अंदाज़ लगाया कि कौन-सी प्रजातियां जोखिम में हैं। इसके लिए उनका आधार यह था कि उस प्रजाति के पौधों की आबादी कितनी है और उसके प्राकृतवास की हालत क्या है। साइंस एडवांसेस में प्रकाशित अपनी रिपोर्ट में उन्होंने बताया है कि कम से कम 60 प्रतिशत प्रजातियां जोखिम में है और कुछ तो शायद विलुप्त भी हो चुकी हैं। तुलना के लिए यह देख सकते हैं कि सारी पादप प्रजातियों में से मात्र 22 प्रतिशत जोखिम में हैं।

एक अन्य अध्ययन में डेविस ने अरेबिका प्रजाति का अध्ययन किया, जिसे वैश्विक विश्लेषण में सामान्यत: कम जोखिमग्रस्त माना जाता है। डेविस की टीम ने दूर-संवेदन से प्राप्त जलवायु परिवर्तन के आंकड़ों को जोड़कर कंप्यूटर पर विश्लेषण किया तो पता चला कि शायद 2080 तक जलवायु परिवर्तन इस प्रजाति को आधा समाप्त कर देगा। यह अध्ययन ग्लोबल चेंज बायोलॉजी में प्रकाशित हुआ है।

अब विचार चल रहा है कि कॉफी को इस संकट से कैसे बचाया जाए। एक सुझाव यह है कि कॉफी की विभिन्न प्रजातियों के बीजों को बीज संग्रह में रखा जाए। लेकिन दिक्कत यह है कि शीतलीकरण के बाद कॉफी के बीज उगते नहीं हैं। तो एक ही तरीका रह जाता है कि कॉफी के बीजों के हर साल उगाया जाए और अगले साल के लिए बीज एकत्रित करके रखे जाएं। मगर वह बहुत महंगा है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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नई कोयला खदान खोलने पर रोक

हाल ही में ऑस्ट्रेलिया की अदालत ने कोयला खदानों के कारण बढ़ रहे ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन और ग्लोबल वार्मिंग के मद्देनज़र कोयला खनन कंपनी की नई खुली खदान लगाने की अर्जी खारिज कर दी है।

ऑस्ट्रेलिया विश्व का सबसे बड़ा कोयला निर्यातक देश है। कोयला खनन कंपनी, ग्लॉसेस्टर रिसोर्सेस, हंटर घाटी के ग्लॉसेस्टर शहर के पास एक खुली कोयला खदान शुरू करना चाहती थी। इसके पहले पर्यावरणीय कारणों से न्यू साउथ वेल्स की भूमि व पर्यावरण अदालत ने कंपनी की अर्जी खारिज कर दी थी। कंपनी ने खदान लगाने के लिए दोबारा अर्जी दी थी। ऑस्ट्रेलिया में ऐसा पहली बार हुआ है कि नई कोयला खदान के लिए अनुमति ना मिली हो।

चीफ जज ब्रायन प्रेस्टन ने अपने आदेश में कहा है कि इस कोयला खनन परियोजना को इसलिए अस्वीकृत किया जा रहा है क्योंकि कोयला खदानों और उनके उत्पादों से निकलने वाली ग्रीनहाउस गैसें विश्व स्तर पर पर्यावरण को प्रभावित करती हैं और इस समय पर्यावरण सम्बंधी लक्ष्यों को हासिल करने के लिए इन गैसों के उत्सर्जन को बहुत कम करने की ज़रूरत है।

दुनिया भर में पर्यावरण बदलाव के प्रभाव नज़र आ रहे हैं। विगत जनवरी का महीना ऑस्ट्रेलिया के अब तक के सबसे गर्म महीनों में दर्ज हुआ। इसी दौरान बिगड़े मौसम के कारण ऑस्ट्रेलिया के कई हिस्सों में भारी नुकसान हुए हैं। तस्मानिया का लगभग तीन प्रतिशत हिस्सा दावानल की चपेट में आया, उत्तरी क्वींसलैंड ने भारी बारिश के कारण बाढ़ का सामना किया। और अनुमान है कि दुनिया के कई हिस्सों में पर्यावरण बदलाव के कारण मौसम सम्बंधी अप्रत्याशित घटनाओं का सामना करना पड़ सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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वेटलैंड एक महत्वपूर्ण इकोसिस्टम है – डॉ. दीपक कोहली

जीव-जन्तु विभिन्न प्रकार के प्राकृतवासों में रहते हैं। इन्हीं में से एक है वेटलैंड यानी नमभूमि। सामान्य भाषा में वेटलैंड ताल, झील, पोखर, जलाशय, दलदल आदि के नाम से जाने जाते हैं। सामान्यतया वर्षा ऋतु में ये पूर्ण रूप से जलमग्न हो जाते हैं। वेटलैंड्स का जलस्तर परिवर्तित होता रहता है। कई वेटलैंड वर्ष भर जल प्लावित रहते हैं जबकि कई ग्रीष्म ऋतु में सूख जाते हैं।

वेटलैंड एक विशिष्ट प्रकार का पारिस्थितिक तंत्र है तथा जैव विविधता का महत्वपूर्ण अंग है। ज़मीन व जल क्षेत्र का मिलन स्थल होने के कारण वेटलैंड समृद्ध पारिस्थितिक तंत्र होता है। वेटलैंड न केवल जल भंडारण का कार्य करते हैं, अपितु बाढ़ की विभीषिका कम करते हैं और पर्यावरण संतुलन में सहायक हैं।

वेटलैंड्स को जैविक सुपर मार्केट कहा जाता है। इनमें विस्तृत खाद्य जाल पाया जाता है। इन्हें धरती के गुर्दे भी कहा जाता है, क्योंकि ये जल को शुद्ध करते हैं। ये मछली, खाद्य वनस्पति, लकड़ी, छप्पर बनाने व ईंधन के रूप में उपयोगी वनस्पति एवं औषधीय पौधों के उत्पादन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

वेटलैंड्स असंख्य लोगों को भोजन (मछली व चावल) प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वेटलैंड्स कार्बन अवशोषण व भूजल स्तर में वृद्धि जैसी महत्वपूर्ण भूमिका भी निभाते हैं। ये पक्षियों और जानवरों, देशज पौधों और कीटों को आवास उपलब्ध कराते हैं।

भारत के अधिकांश वेटलैंड्स गंगा, कावेरी, कृष्णा, गोदावरी और ताप्ती जैसी प्रमुख नदी तंत्रों से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जुडे हुए हैं। एशियन वेटलैंड्स कोश के अनुसार वेटलैंड्स का देश के क्षेत्रफल (नदियों को छोड़कर) में 18.4 प्रतिशत हिस्सा है, जिसके 70 प्रतिशत भाग में धान की खेती होती है। भारत में वेटलैंड्स का अनुमानित क्षेत्रफल 41 लाख हैक्टर है, जिसमें 15 लाख हैक्टर प्राकृतिक और 26 लाख हैक्टर मानव निर्मित है। तटीय वेटलैंड्स का क्षेत्रफल 6750 वर्ग किलोमीटर है और यहां मुख्यत: मैंग्रोव पाए जाते हैं।

वर्तमान में प्रदूषण और औद्योगीकरण के कारण वेटलैंड्स पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं। आजकल वेटलैंड्स के किनारे कूड़ा डम्प किया जा रहा है जिसके कारण ये प्रदूषित हो रहे हैं। कई जगहों पर वेटलैंड्स को पाटकर उन पर कांक्रीट के जंगल उगाए जा रहे हैं। वेटलैंड्स के संकटग्रस्त होने के कारण वहां रहने वाले पशु, पक्षी एवं वनस्पतियों का अस्तित्व भी संकट में है। उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल के दलदली क्षेत्र में पाया जाने वाला दलदली हिरण कम हो रहा है। इसी प्रकार तराई क्षेत्र में पाई जाने वाली फिशिंग कैट पर भी बुरा असर पड़ रहा है। गुजरात के कच्छ क्षेत्र में जंगली गधा भी खतरे में है। असम के काजीरंगा का एक सींग वाला भारतीय गैंडा भी संकटग्रस्त प्राणियों की श्रेणी में शामिल है। इसी प्रकार ओटर, गंगा डॉल्फिन, डूगोंग, एशियाई जलीय भैंस जैसे वेटलैंड से जुड़े अनेक जीव खतरे में हैं।

वेटलैंड संरक्षण के लिए अन्तर्राष्ट्रीय प्रयास में ‘रामसर संधि’ प्रमुख है। यह एक अन्तर-सरकारी संधि है, जो वेटलैंड्स और उनके संसाधनों के संरक्षण और बुद्धिमत्तापूर्ण उपयोग के लिए राष्ट्रीय कार्य और अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग का ढांचा उपलब्ध कराती है। 1971 में देशों ने ईरान के रामसर में विश्व के वेटलैंड्स के संरक्षण हेतु एक संधि पर हस्ताक्षर किए थे। इस दिन ‘विश्व वेटलैंड्स दिवस’ का आयोजन किया जाता है।

वर्तमान में सम्पूर्ण विश्व में 2200 से अधिक वेटलैंड्स हैं, जिन्हें अन्तर्राष्ट्रीय महत्व के वेटलैंड्स की रामसर सूची में शामिल किया गया है । रामसर कन्वेंशन में शामिल होने वाले देश वेटलैंड्स को पहुंची हानि और उनके स्तर में आई गिरावट को दूर करने के लिए सहायता प्रदान करने हेतु प्रतिबद्ध हैं।

वेटलैंड्स संरक्षण के लिए राष्ट्रीय स्तर पर भी प्रयास किए गए हैं। 1986 में केंद्र सरकार द्वारा राज्य सरकारों के सहयोग से राष्ट्रीय वेटलैंड संरक्षण कार्यक्रम शुरू किया गया था। इसके अन्तर्गत संरक्षण और प्रबंधन के लिए पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा देश में 115 वेटलैंड्स की पहचान की गई थी।

वर्ष 2017 में पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय द्वारा वेटलैंड्स के संरक्षण से सम्बंधित नए नियम अधिसूचित किए गए थे। नए नियमों में वेटलैंड्स प्रबंधन के प्रति विकेंद्रीकृत दृष्टिकोण अपनाया गया है, ताकि क्षेत्रीय विशिष्ट आवश्यकताओं को पूरा किया जा सके और राज्य अपनी प्राथमिकताएं निर्धारित कर सकें।

उल्लेखनीय है कि देश में मौजूद 26 वेटलैंड्स को ही संरक्षित किया गया है, लेकिन ऐसे हज़ारों वेटलैंड्स हैं जो जैविक और आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण तो हैं लेकिन उनकी कानूनी स्थिति स्पष्ट नहीं है।

वेटलैंड परितंत्र के अदृश्य अर्थतंत्र का आकलन करने वाली संस्था ‘दी इकॉनॉमिक्स ऑफ इकोसिस्टम एंड बायोडायवर्सिटी सर्विसेज़’ के अनुसार समाज के हाशिए पर रहने वाले लोगों के लिए वेटलैंड जीवनरेखा है। वेटलैंड्स की सेवाओं को चार भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है:

(क) जीवन-यापन के रुाोत उपलब्ध कराना ताकि इन क्षेत्रों में निवास करने वाले गरीब लोगों को कमाई का अवसर मिल सके। वेटलैंड से शुद्ध पेयजल, भोजन, रेशे, र्इंधन, जेनेटिक संसाधन, जैव रसायन, प्राकृतिक औषधियां आदि प्राप्त होते हैं।

(ख) स्थानीय जलवायु विनियमन, ग्रीनहाउस गैसों के नियंत्रण हेतु एक वृहद कार्बन सिंक, जलीय चक्र को रेगुलेट करना और भूमिगत जल के स्तर को नियंत्रित करना भी वेटलैंड के लाभ के अन्तर्गत आता है। आपदा जोखिम को कम करना, खासकर बाढ़ और आंधी से बचाव। मृदा सृजन और मृदा अपरदन का नियंत्रण, सतही और भूमिगत जल में उपस्थित जैव रसायन और आर्सेनिक, लेड, आयरन, फ्लोरीन आदि का उपचार। वेटलैंड्स जल का शुद्धिकरण करते हैं और प्राकृतिक संतुलन बनाने में भूमिका निभाते हैं।

(ग) वेटलैंड्स सांस्कृतिक और आध्यात्मिक आस्था का केंद्र माने जाते हैं। ग्रामीण अंचल में लोग इनकी पूजा करते हैं। आजकल वेटलैंड्स को इकोटूरिज़्म के विशेष केंद्र के तौर पर देखा जा रहा है। इकोटूरिज़्म के साथ-साथ शिक्षा और वैज्ञानिक-शोध के केंद्र के तौर पर भी इन्हें विकसित किया जा रहा है।

(घ) वेटलैंड्स को जैव विविधता का स्वर्ग भी कहा जाता है। ये शीतकालीन पक्षियों और विभिन्न जीव-जन्तुओं का आश्रय स्थल होते हैं। विभिन्न प्रकार की मछलियों और जन्तुओं के प्रजनन के लिए भी ये उपयुक्त होते हैं।

वेटलैंड्स से हमारा जीवन प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से प्रभावित होता है। वेटलैंड्स बचाए बगैर न तो वैश्विक तापमान में वृद्धि रोकी जा सकती है और न ही जलवायु परिवर्तन की मार से बचा जा सकता है। अत: अपने स्वार्थ के लिए सही, अब ज़रूरी हो गया है कि वेटलैंड्स को बचाएं। (स्रोत फीचर्स)

भारत के प्रमुख वेटलैंड्स

भितरकनिका (उड़ीसा), चिलिका (उड़ीसा), भोज ताल (मध्य प्रदेश), चंद्रताल (हिमाचल प्रदेश), पोंग बांध झील (हिमाचल प्रदेश)रेणुका नमभूमि (हिमाचल प्रदेश), डिपोल बिल (असम), पूर्वी कोलकाता नमभूमि (पश्चिम बंगाल), हरिका झील (पंजाब), कंजली (पंजाब), रोपर (पंजाब), सांभर झील (राजस्थान), केवलादेव राष्ट्रीय उद्यान (राजस्थान), कौलुरू झील (आंध्र प्रदेश), लोकटक झील (मणिपुर), नलसरोवर पक्षी अभयारण्य (गुजरात), पाइंट कैलियर पक्षी विहार (तमिलनाडु), रूद्रसागर झील (त्रिपुरा), ऊपरी गंगा नदी (उत्तर प्रदेश), अष्टमुडी (केरल), वायनाड-कोल नमभूमि (केरल), साथामुकोटा झील (केरल), सौमित्री (जम्मू एवं कश्मीर), सुरिनसर-मान्सर झील (जम्मू एवं कश्मीर), होकेरा (जम्मू एवं कश्मीर) तथा वूलर झील (जम्मू एवं कश्मीर)।

प्रमुख जीव-जन्तु और वनस्पतियां

गैंडा, हिस्पिड हेअर (खरगोश), हिरण, ऊदबिलाव, गंगा डॉल्फिन, बारहसिंघा, बंगाल फ्लोरिकन, सारस, ककेर, घड़ियाल, मगर, फ्रेशवाटर टर्टल्स, पनकौआ, ब्लैक नेक्ड स्टॉर्क, संगमरमरी टील आदि। वनस्पतियों में सरपत, मूंज, नरकुल, सेवार, तिन्नाधान, कसेरू, कमलगट्टा, मखाना, सिंघाड़ा आदि प्रमुख हैं।

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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