सरगम एक प्रागैतिहासिक तोहफा है – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

पिछले कुछ महीनों में कई समूहों ने इस संदर्भ में कई दिलचस्प शोध प्रकाशित किए हैं कि संगीत मन/मस्तिष्क को कैसे प्रभावित करता है।

पहला शोध पत्र है 1 मार्च को अमेरिका की इंडियाना युनिवर्सिटी के एक समूह द्वारा प्रकाशित अध्ययन। इसमें बताया गया है कि गंभीर रूप से बीमार मरीज़ों को संगीत की मदद से सन्निपात (डेलिरियम) से उबारा जा सकता है (https://doi.org/10.4037/ajcc2020175)। सन्निपात ग्रसित मरीज़ तीव्र मानसिक अशांति, वाणि सम्बंधी दिक्कत और मतिभ्रम का सामना करते हैं। शोधकर्ताओं ने ऐसे 117 रोगियों पर गैर-औषधीय उपचार के रूप में संगीत को आज़माया। उन्होंने इन 117 मरीज़ों में से आधे मरीज़ों को, या तो स्वयं उनके द्वारा चुना गया उनका पसंदीदा संगीत (पीएम), या सुकूनदायक मंद गति का संगीत (एसटीएम) सुनाया। इस प्रायोगिक समूह को एक हफ्ते तक दिन में दो बार एक-एक घंटे के लिए संगीत सुनाया गया और उनके सुधार को दर्ज किया गया। इसकी तुलना उन्होंने तुलना के लिए रखे गए समूह (कंट्रोल समूह) के मरीज़ों से की जिन्हें कोई संगीत नहीं सुनाया गया था।

पाया गया कि जिन मरीज़ों को संगीत (पीएम या एसटीएम, दोनों में से कोई भी) सुनाया गया था उनमें बेहोशी में बड़बड़ाने (सन्निपात) में कमी आई थी। वहीं जब संगीत की बजाय ऑडियो-किताबें सुनाई गर्इं तो इनसे किसी तरह की मदद नहीं मिली! शोधकर्ताओं ने जो सुकूनदायक संगीत (एसटीएम) चुना था वह या तो 60-80 बीट्स प्रति मिनट वाला शास्त्रीय संगीत था, या मूल अमेरिकी बांसुरी की धुन, या सुकूनदायक पियानो का संगीत था। संगीत का चयन बोर्ड-प्रमाणित संगीत चिकित्सक द्वारा किया गया था। नतीजों के आधार पर उन्होंने पाया कि गंभीर रूप से बीमार मरीज़ों के लिए संगीत एक उपयोगी गैर-औषधीय मदद है।

इससे कुछ समय पहले चेन्नई के एसएसएन कॉलेज की डॉ. बी. गीतांजलि और उनके सहयोगियों ने करंट साइंस में एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी, जिसका शीर्षक था ‘उच्च रक्तचाप में संगीत सुनने के असर का मूल्यांकन’। उन्होंने उच्च-रक्तचाप के 200 रोगियों की बेतरतीबी से जांच की, जिसमें उनकी ह्मदय गति, श्वसन दर और औसत रक्तचाप मापे गए। एक महीने तक संगीत सुनाने के बाद मरीज़ों की ह्मदय गति, श्वसन दर, और औसत रक्तचाप में कमी देखी गई। अध्ययन में शोधकर्ताओं ने संगीत के साथ-साथ नियमित उपचार जारी रखा था। और राग मालकौंस सुनाया गया था जो कि ओढ़व जाति का राग है (यानी वह राग जिसमें पांच सुर होते हैं), यह शांति का एहसास कराने वाला और मधुर संगीत था। (जैसा कि हम सभी अपने अनुभव से जानते हैं ऊंचा या तेज़ संगीत और ताल जोश-भरी होती हैं और उत्तेजित करती हैं)।

लगभग इसी समय हैदराबाद के जाने-माने संगीत चिकित्सक राजम शंकर ने एक पठनीय व अच्छे शोध पर आधारित मोनोग्राफ, ‘संगीत की चिकित्सा शक्ति’, तैयार किया है। इस मोनोग्राफ में चिकित्सा के लिए इस्तेमाल किए जा सकने वाले रागों का विवरण और कर्नाटक संगीत के 35 से अधिक जाने-माने रागों की विस्तार में जानकारी और कुछ केस स्टडी हैं। इनमें से कुछ राग हिंदुस्तानी संगीत में भी मिलते हैं।

एकरूप रसास्वादन

इस बात पर गौर करें कि अमेरिका की इंडियाना युनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने अपने अध्ययन में शामिल ‘पश्चिमी’ सभ्यता के मरीज़ों को वह संगीत सुनाया जिससे वे परिचित थे, और चेन्नई के शोधकर्ताओं ने अपने अध्ययन में मरीज़ों को वह संगीत सुनाया जिससे दक्षिण भारत के लोग परिचित थे। तो सवाल यह उठता है कि क्या भावनाओं को जगाने की संगीत की क्षमता सांस्कृतिक अंतर के परे जा सकती है? मानेसर स्थित नेशनल ब्रेन रिसर्च सेंटर की मस्तिष्क विज्ञानी नंदिनी चटर्जी सिंह ने अपने अध्ययन में इसी सवाल का जवाब खोजने का प्रयास किया है। उनके अध्ययन के नतीजे छह महीने पहले प्लॉस वन पत्रिका में प्रकाशित हुए थे (विस्तार से पढ़ने के लिए देखें https://doi.org/10.1371/journal.pone.0222380)।

चटर्जी सिंह ने अपने अध्ययन में भारत के विभिन्न शहरों के 144 लोगों और अन्य देशों (अमेरिका, ब्रिटेन, युरोप, जापान, कोरिया) के 112 लोगों को हिंदुस्तानी संगीत के 12 रागों के कुछ टुकड़े ऑनलाइन सुनाए। इसमें उन्होंने सरोद पर रागों के आलाप और उसके बाद गत (जिसे बंदिश भी कहते हैं) सुनाई। (आलाप यानी ताल के बिना राग के सुरों और उसकी सप्तक का धीमी गति में परिचय, और गत यानी किसी ताल वाद्य (आम तौर पर तबला) की संगत पर इसी क्रम में राग के सुरों को तीव्र गति से बजाना)। अध्ययन में जब हंसध्वनि जैसे राग बजाए गए तो ‘भारतीय संस्कृति से परिचित’ भारतीय श्रोताओं और ‘भारतीय संस्कृति से अनजान’ विदेशी श्रोताओं, दोनों ने ‘आनंदित’ या ‘रोमांटिक’ महसूस किया, और जब राग मारवा बजाया गया तो दोनों समूहों ने ‘उदासी’ की भावना महसूस करना बताया।

संस्कृति से अपरिचित समूह के लोगों ने लयबद्ध हिस्से, गत, पर अधिक सरलता से प्रतिक्रिया दी। शोधकर्ताओं का कहना है कि ये नतीजे कुछ अन्य अध्ययन रिपोर्ट से मेल खाते हैं जिनमें कहा गया है कि अमेरिकी प्रेक्षकों ने तब अधिक प्रतिक्रिया दी जब उन्होंने पारंपरिक भारतीय शास्त्रीय नृत्य देखा। तो ऐसा लगता है कि ‘श्रवण’ के मामले में एक ‘सार्वभौमिकता’ है। वे आगे कहते हैं कि जब विदेशियों को जावानी लोगों का संगीत सुनने के लिए आमंत्रित किया गया था तब भी इसी तरह की प्रतिक्रिया मिली थी।

पैतृक उपहार

तो सवाल यह उठता है कि यह सार्वभौमिकता कैसे आई, और कैसे दुनिया भर के संगीत उन्हीं मूल सुरों और धुनों का उपयोग करते हैं। तो क्या यह डीएनए की तरह हमें जैव-विकास के उपहार स्वरूप मिला है? हम मनुष्यों में संगीत की उत्पत्ति का स्रोत क्या है?

1990 के दशक से ‘बायोम्युज़िकेलिटी’ नामक एक समूचा विषय उभरा है, जिसमें संगीत की उत्पत्ति का अध्ययन किया जाता है। इसमें यह जानने की कोशिश की जाती है कि संगीत के प्रोसेसिंग में मस्तिष्क का कौन-सा हिस्सा शामिल होता है, और संगीत बनाने की जैविक लागत और उपयोग, और विभिन्न संस्कृतियों के संगीत की साझा विशेषताओं के बारे में पता लगाया जाता है। कुछ शोधकर्ता बताते हैं कि प्रागैतिहासिक काल के मनुष्य उस समय की उपयुक्त सामग्री से ड्रम बजाते थे, जिसे जैव विकास की प्रक्रिया में हमने अपने प्राइमेट बंधुओं से उधार लिया था। कुछ पुरातत्वविदों ने लगभग 4000-5000 साल पहले के प्रागैतिहासिक, पुरा-पाषाण युग के मनुष्यों (निएंडरथल) के संगीत की पड़ताल की है। प्रागैतिहासिक काल का पहला वाद्ययंत्र था बांसुरी जिसे एक युवा भालू की हड्डी से बनाया गया था; स्लोवेनिया में प्राप्त इस खोखली हड्डी से बनी बांसुरी में कम से कम तीन सुराख थे। हो सकता है, ज़्यादा सुराख रहे हों। एक और बांसुरी चीन के जियाहू क्षेत्र में मिली थी, जिसके आइसोटोप डेटिंग से पता चला था कि यह प्रागैतिहासिक काल की उक्त बांसुरी से भी अधिक पुरानी (7000-8000 साल पहले की) है। और जब शोधकर्ताओं ने इसे बजाया (शहनाई की तरह खड़ा रख कर) तो जो संगीत पैदा हुआ उसने उन्हें पारंपरिक डो, रे, पा, सो, ला, टी (या सा, रे, गा, मा पा..) की याद दिला दी!(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कोरोनावायरस से उबरने का मतलब क्या है?

दिन-ब-दिन कोरोनोवायरस संक्रमितों की संख्या बढ़ती ही जा रही है। अच्छी बात यह है कि कोरोनावायरस से संक्रमित अधिकांश मरीज़ इस संक्रमण से उबर जाते हैं। लेकिन संक्रमण से उबरना मात्र बेहतर महसूस करने की तुलना में थोड़ा पेचीदा मामला है।

जब कोई व्यक्ति वायरस के संपर्क में आता है तो शरीर संक्रमण से लड़ने के लिए एंटीबॉडी बनाना शुरु करता है। ये एंटीबॉडी वायरस को नियंत्रित करती हैं और उसे अपनी प्रतिलिपियां बनाने से रोकती हैं। जब एंटीबॉडी वायरस को रोकने में सफल हो जाती हैं, तो मरीज़ में रोग के लक्षण दिखना कम होने लगते हैं और व्यक्ति बेहतर महसूस करने लगता है। यदि सब ठीक-ठाक चले तो शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली सारे वायरसों को पूरी तरह से नष्ट कर देती है। जब कोई संक्रमित व्यक्ति स्वास्थ्य पर बगैर किसी दूरगामी प्रभाव या अक्षमता के ठीक हो जाता है तो कहते हैं कि वह उबर गया है।

सामान्य तौर पर एक बार जब कोई व्यक्ति वायरस के संक्रमण से उबर जाता हैं तो शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली इस वायरस को याद रखती है। यदि यही वायरस दोबारा हमला करता है तो एंटीबॉडीज़ शुरुआत में ही इस वायरस का सफाया शुरू कर देती हैं। यानी व्यक्ति में उस वायरस के विरुद्ध प्रतिरक्षा विकसित हो जाती है; टीके इसी सिद्धांत पर काम करते हैं।

लेकिन अफसोस कि हमारा प्रतिरक्षा तंत्र एकदम सटीक नहीं होता। मम्स (गलसुआ) जैसे कई रोगों के वायरस के खिलाफ प्रतिरक्षा समय के साथ खत्म हो जाती है और भविष्य में फिर संक्रमण की संभावना बन जाती है। चूंकि यह कोरोनावायरस नया है इसलिए वैज्ञानिक अभी नहीं जानते कि जो लोग कोरोनावायरस के संक्रमण से उबर गए हैं उनके शरीर में प्रतिरक्षा कितने समय तक टिकी रहेगी।

लेकिन सवाल यह है कि ठीक-ठीक कब माना जाएगा कि कोई मरीज़ कोरोनावायरस के संक्रमण से ठीक हो चुका है। सीडीसी के अनुसार किसी व्यक्ति को कोरोनावायरस के संक्रमण से उबरा हुआ तब माना जाएगा जब वह शारीरिक रूप से और जांच, दोनों मानदंडों पर खरा उतरेगा। शारीरिक स्तर पर, बुखार कम करने वाली दवाएं बंद करने के बाद लगातार तीन दिन तक मरीज़ को बुखार नहीं आना चाहिए, खांसी और सांस की तकलीफ सहित अन्य लक्षणों में सुधार दिखना चाहिए, और लक्षण दिखना शुरू होने के बाद कम से कम सात दिन बीत जाने चाहिए। सीडीसी के अनुसार इसके अलावा, मरीज़ के 24 घंटे के अंतराल में दो बार किए गए परीक्षण के नतीजे नकारात्मक होना चाहिए। जब शारीरिक रूप से और परीक्षण दोनों स्थितियां इस बात की पुष्टि करें कि व्यक्ति कोरोनावायरस से संक्रमित नहीं हैं तभी किसी व्यक्ति को आधिकारिक तौर पर इस संक्रमण से उबरा हुआ माना जाएगा।

यहां एक और सवाल उठता है कि क्या इस संक्रमण से उबर चुके मरीज़ आगे मददगार साबित हो सकते हैं? जैसा कि डॉक्टर कह रहे हैं कि इस संक्रमण से ठीक हो चुके लोगों में इस बात का पता लगाया जाए कि क्या उनमें इसके विरुद्ध प्रतिरक्षा विकसित हुई है? यदि उनमें कोरोनावायरस के विरुद्ध प्रतिरक्षा विकसित हुई है तो ये लोग अन्य संक्रमित व्यक्तियों की देखभाल में मदद कर सकते हैं।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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वायरस रोगों का इलाज भी कर सकते हैं – कालू राम शर्मा

दुनिया के रंगमंच पर एक वायरस इन दिनों खलनायक की भूमिका में है! SARS-CoV-2 नामक वायरस की वजह से इंसानी दुनिया के पहिए थम चुके हैं।

और वायरस की हैसियत क्या है। पूरी तरह से सजीव की पदवी भी नहीं मिल सकी इसे। यह सजीव व निर्जीव के बीच की दहलीज़ पर है। इस पार वह एक निर्जीव, निस्तेज कण मात्र होता है, वहीं किसी कोशिका में घुसपैठ कर जाए तो जी उठता है।

वायरस एक सरल-सा कण है जिसमें न्यूक्लिक अम्ल का मामूली-सा धागा व चारों ओर प्रोटीन का आवरण होता है। सूक्ष्म इतना कि नग्न आंखों से दिखाई ही न दे। मिलीमीटर या सेंटीमीटर तो इसके सामने विशाल हैं। यह महज़ कुछ नैनोमीटर (एक मिलीमीटर का दस लाखवां हिस्सा) का होता है। लेकिन इस अति सूक्ष्म कण ने दुनिया को हिलाकर रख दिया है। यह सच है कि कुछ वायरस अपने मेज़बान के साथ रोगजनक सम्बंध रखते हैं – सर्दी-ज़ुकाम, गंभीर श्वसन रोग से लगाकर मृत्यु शैय्या तक पहुंचा देते हैं।

वायरस को सक्रिय होने के लिए कोई सजीव शरीर चाहिए। वायरस जैसे ही सजीव कोशिकाओं में प्रवेश करता है, कोशिका की कार्यप्रणाली पर अपना कब्ज़ा जमा लेता है और फिर अपने हिसाब से कोशिका को संचालित करने लगता है। वायरस खुद अपने न्यूक्लिक अम्ल की प्रतिलिपियां बनाने लगता है।

लेकिन सभी वायरस खलनायक नहीं होते। कई वायरस तो वाकई में उन बैक्टीरिया को अपना शिकार बनाते हैं जिनके मारे दुनिया में महामारियां आई हैं। प्लेग, तपेदिक, कोढ़, टायफाइड, बैक्टीरियल मेनिन्जाइटिस, निमोनिया इत्यादि प्रमुख बैक्टीरिया-जनित रोग हैं। एक ज़माना था जब इन बीमारियों की वजह से लोग जान गंवा देते थे। अब इन बीमारियों के लिए एंटीबायोटिक दवाइयां उपलब्ध हैं।

लेकिन पिछले कुछ वर्षों में एंटीबायोटिक दवाओं को लेकर समस्याएं बढ़ी हैं। बैक्टीरिया एंटीबायोटिक दवाओं के खिलाफ प्रतिरोधी हुए हैं। बैक्टीरिया इन दवाओं के प्रति प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर चुके हैं। टीबी के जीवाणु बहु-औषधि प्रतिरोधी हो चुके हैं। ऐसे मरीज़ों का इलाज करना एक बड़ी चुनौती साबित हो रही है। 

दुनिया भर में चिंता व्याप्त है कि एंटीबायोटिक के खिलाफ बढ़ते प्रतिरोध के चलते कहीं हम उस दौर में न लौट जाएं जब एंटीबायोटिक थे ही नहीं।

वायरस की दुनिया में एक किस्म के वायरसों को बैक्टीरियोफेज (बैक्टीरिया-भक्षी) कहते हैं। दरअसल, बैक्टीरियोफेज बैक्टीरिया को संक्रमित करते हैं। ये बैक्टीरिया की कोशिका में घुस जाते हैं और उससे अपनी प्रतिलिपियां बनवाते हैं। इसका परिणाम होता है बैक्टीरिया कोशिका की मृत्यु। ये बैक्टीरियोफेज वायरस मुक्त हो जाते हैं और फिर से किसी बैक्टीरिया में घुसते हैं। यह प्रक्रिया चलती रहती है।

हज़ारों प्रकार के बैक्टीरियोफेज मौजूद हैं जिनमें से प्रत्येक प्रकार केवल एक या कुछ ही प्रकार के बैक्टीरिया को संक्रमित कर सकता है। अन्य वायरसों के समान इनकी आकृति भी सरल होती है। इनमें न्यूक्लिक अम्ल होता है जो कैप्सिड नामक आवरण से घिरा होता है।

बैक्टीरियोेफेज की खोज 1915 में फ्रेडरिक विलियम ट्वॉर्ट द्वारा चेचक का टीका बनाने की कोशिश के दौरान की गई थी। वे दरअसल, एक प्लेट पर वैक्सिनिया बैक्टीरिया का कल्चर करने में मुश्किल का सामना कर रहे थे क्योंकि प्लेट में बैक्टीरिया वायरस से संक्रमित होकर मर रहे थे। ट्वॉर्ट के ये अवलोकन प्रकाशित हुए मगर प्रथम विश्व युद्ध व वित्तीय बाधाओं के चलते वे आगे इस दिशा में काम नहीं कर सके। 1917 में इस काम को सूक्ष्मजीव वैज्ञानिक फेलिक्स डी हेरेल ने पेरिस के पाश्चर संस्थान में आगे बढ़ाया। उन्होंने पेचिश के रोगियों को ठीक करने के लिए ‘बैक्टीरियोफेज’ का उपयोग किया था। 

पेरिस के एक अस्पताल में चार मरीज़ शिगेला बैक्टीरिया के संक्रमण के कारण पेचिश से पीड़ित थे। इस बीमारी में खूनी दस्त, पेट में ऐंठन व बुखार आता है। उन मरीज़ों को शिगेला बैक्टीरिया का भक्षण करने वाले बैक्टीरियोफेज वायरस की खुराक दी गई। आश्चर्यजनक रूप से, एक ही दिन में उन मरीज़ों में बीमारी से उबरने के संकेत मिले।

हेरेल के निष्कर्ष प्रकाशित होने के बाद चिकित्सक रिचर्ड ब्रइनोगे और उनके छात्र मैसिन ने एक बैक्टीरिया की वजह से होने वाले चमड़ी के रोग के उपचार में बैक्टीरियोफेज का उपयोग किया और 48 घंटों के भीतर ठीक होने के स्पष्ट प्रमाण प्रस्तुत किए।

1925 में हेरेल ने प्लेग-पीड़ित चार मरीज़ों का इलाज किया। प्लेग यर्सिनिया पेस्टिस नामक बैक्टीरिया की वजह से होता है। जब इसका भक्षण करने वाले बैक्टीरियोफेज का इंजेक्शन लगाया गया तो चारों मरीज़ स्वस्थ हो गए।

जीवाणु संक्रमण से उबरने की सफलता की कहानी ने मिस्र में क्वारेंटाइन बोर्ड के ब्रिटिश प्रतिनिधि मॉरिसन का ध्यान खींचा। मॉरिसन ने हेरेल को फेज उपचार पर काम करने के लिए जुड़ने का अनुरोध किया। हेरेल को 1926 में कई अस्पतालों व अनुसंधान संस्थानों के सहयोग से भारत में, इंडियन रिसर्च फंड एसोसिएशन (आईआरएफए) द्वारा फेज उपचार करने के लिए जोड़ा गया। 1927 में यह काम शुरू होकर नौ साल तक चला और 1936 में पूरा किया गया। जो काम था वह प्रदूषित पानी की वजह से हैजे में फेज उपचार के प्रभाव का अध्ययन करना था। अध्ययन के नतीजे उम्मीद जगाने वाले थे। 1927 में एसोसिएशन ऑफ ट्रॉपिकल मेडिसिन के सातवें सम्मेलन में फेज उपचार ने खासा ध्यान आकर्षित किया।

पिछले कुछ वर्षों में बैक्टीरियोफेज पर काफी अनुसंधान हुआ है। बैक्टीरियोफेज बहुकोशिकीय जंतुओं या वनस्पतियों में कोई बीमारी नहीं फैलाते। ऐसे वायरस न केवल मनुष्यों में बल्कि फसलों की बैक्टीरिया-जनित बीमारियों के उपचार में उपयोगी हो सकते हैं। 

बैक्टीरिया-जनित बीमारियों में दवाओं के खिलाफ प्रतिरोधक क्षमता एक आम समस्या है। हाल ही में युनाइटेड किंगडम में एक बैक्टीरिया-जनित बीमारी में एंटीबायोटिक दवाओं के प्रति प्रतिरोधक क्षमता पैदा हो जाने की वजह से एक किशोर मौत की कगार पर था। उसका इलाज बैक्टीरियोफेज की मदद से सफलतापूर्वक किया जा सका।

इन दिनों बैक्टीरियोफेज को जेनेटिक इंजीनियरींग के जरिए इस तरह से बनाया जा रहा है कि वह विशिष्ट बैक्टीरिया को निशाना बना सके।

उपचार के लिए बैक्टीरियोफेज का डोज़ सुविधानुसार या तो मुंह से दिया जा सकता है या फिर घाव पर लगाया जा सकता है या फिर संक्रमित हिस्से पर स्प्रे किया जा सकता है। इंजेक्शन के ज़रिए फेज की खुराक को कैसे दी जाए इस पर परीक्षण चल रहे हैं। 

बैक्टीरियोफेज उपचार को लेकर कुछ आस बनती दिखाई दे रही है। कुछ अस्पतालों में वायरस-उपचार के सफल उपयोग के समाचार मिले हैं। बैक्टीरियोफेज वायरसों को पहचानना व एकत्रित करना और उन्हें सहेजकर रखना अब आसान हुआ है। एक समय पर एंटीबायोटिक दवाओं ने संक्रामक रोगों से बचने में अहम भूमिका अदा की थी और आज भी कर रहे हैं। अब उम्मीद की जानी चाहिए कि बैक्टीरियोफेज से बैक्टीरिया जनित बीमारियों का उपचार इस दिशा में क्रांतिकारी साबित होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कोविड-19 के खिलाफ लड़ाई की प्रगति – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

भारत में कोविड-19 के खिलाफ छिड़ी जंग ने मार्च की शुरुआत के बाद रफ्तार पकड़ी। जिसमें कोविड-19 की पहचान, उससे सुरक्षा, रोकथाम, चिकित्सकीय सलाह और मदद शामिल हैं। इस जंग को जीतने के उद्देश्य में निजी समूहों, उद्योगों, चिकित्सा समुदायों, वैज्ञानिकों और प्रौद्योगिकीविदों ने, वित्तीय सहयोग और शोध व विकास कार्य, दोनों तरह से सरकार की तरफ मदद के हाथ बढ़ाए हैं। विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग (DST), जैव प्रौद्योगिकी विभाग (DBT) (और इसके जैव प्रौद्योगिकी उद्योग सहायता परिषद,BIRAC), विज्ञान व इंजीनियरिंग अनुसंधान बोर्ड (SERB), वैज्ञानिक व औद्योगिक अनुसंधान परिषद (CSIR), भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (ICMR), DMR, स्वास्थ्य व परिवार कल्याण मंत्रालय (MHFW), प्रतिरक्षा अनुसंधान व विकास संगठन (DRDO) जैसी कई सरकारी एजेंसियों ने कोविड-19 से निपटने के विशिष्ट पहलुओं पर केंद्रित कई अनुदानों की घोषणा की है। दूसरी ओर टाटा ट्रस्ट, विप्रो, महिंद्रा, वेलकम ट्रस्ट इंडिया अलायंस और कई बहुराष्ट्रीय फार्मा कंपनियां भी इस संयुक्त प्रयास में आगे आई हैं।

जांच, रोकथाम, सुरक्षा

सबसे पहले तो यह पता लगाना होता है कि कोई व्यक्ति इस वायरस से संक्रमित है या नहीं। चूंकि कोविड-19 नाक के अंदरूनी हिस्से और गले के नम हिस्से में फैलता है इसलिए यह पता करने का एक तरीका है थर्मो-स्क्रीनिंग (ताप-मापन) डिवाइस की मदद से किसी व्यक्ति के नाक और चेहरे के आसपास का तापमान मापना (जैसा कि हवाई अड्डों पर यात्रियों के आगमन के समय, या इमारतों और कारखानों में लोगों के प्रवेश करते समय किया जाता है)। जल्दी, विस्तारपूर्वक और सटीक जांच के लिए विदेश से मंगाए फुल बॉडी स्कैनर जैसे उपकरण बेहतर हैं जो शरीर के तापमान को कंप्यूटर मॉनीटर पर अलग-अलग रंगों से दर्शाते हैं। राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण ने जांच के लिए 1,000 डिजिटल थर्मामीटर और 100 फुल-बॉडी स्कैनर दिए हैं।

ज़ाहिर है कि भारत में इन उपकरणों की ज़रूरत हज़ारों की संख्या में है। इस ज़रूरत ने, भारत के कुछ कंप्यूटर उद्योगपतियों को इस तरह के बॉडी स्कैनर भारत में ही बनाने के लिए प्रेरित किया है, जो कि एक सकारात्मक कदम है। हमें उम्मीद है कि ये बॉडी स्कैनर जल्द उपलब्ध होंगे।

इन उपकरणों द्वारा किए गए परीक्षण में जब कोई व्यक्ति पॉज़ीटिव पाया जाता है तो जैविक परीक्षण द्वारा उसके कोरोनावायरस से संक्रमित होने की पुष्टि करने की ज़रूरत होती है। एक महीने पहले तक हमें, इस परीक्षण किट को विदेश से मंगवाना पड़ता था। लेकिन आज एक दर्जन से अधिक भारतीय कंपनियां राष्ट्रीय समितियों द्वारा प्रमाणित किट बना रही हैं। इनमें खास तौर से मायलैब और सीरम इंस्टीट्यूट के नाम लिए जा सकते हैं जो एक हफ्ते में लाखों किट बना सकती हैं। इससे देश में विश्वसनीय परीक्षण का तेज़ी से विस्तार हुआ है। संक्रमित पाए जाने पर मरीज़ को उपयुक्त केंद्रों में अलग-थलग, लोगों के संपर्क से दूर (क्वारेंटाइन) रखने की ज़रूरत पड़ती है। यह काफी तेज़ गति और विश्वसनीयता के साथ किया गया है, जिसके बारे में आगे बताया गया है।

वायरस के हमले से अपने बचाव का एक अहम तरीका है मुंह पर मास्क लगाना। (हम लगातार यह सुन रहे हैं कि मास्क उपलब्ध नहीं हैं या अत्यधिक कीमत पर बेचे जा रहे हैं।) यह धारणा गलत है कि हमेशा मास्क लगाने की ज़रूरत नहीं है। वेल्लोर के जाने-माने संक्रमण विशेषज्ञ डॉ. जैकब जॉन ने स्पष्ट किया है कि चूंकि वायरस हवा से भी फैल सकता है इसलिए सड़कों पर निकलते वक्त भी मास्क पहनना ज़रूरी है। इसलिए भारत के कई उद्यमी और व्यवसायी वाजिब दाम पर मास्क तैयार रहे हैं। व्हाट्सएप जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म बेबी डायपर (नए), पुरुषों की बनियान (नई), साड़ी के पल्लू और दुपट्टे जैसी चीज़ों से मास्क बनाने के जुगाड़ू तरीके बता रहे हैं। खुशी की बात है कि इस मामले में सरकार के स्पष्टीकरण और सलाह के बाद अधिकतर लोग मास्क लगाए दिख रहे हैं। टीवी चैनल भी इस दिशा में उपयोगी मदद कर रहे हैं। वे इस मामले में लोगों के खास सवालों और शंकाओं के समाधान के लिए विशेषज्ञों को आमंत्रित कर रहे हैं।

इसी कड़ी में, हैदराबाद के एल. वी. प्रसाद आई इंस्टीट्यूट के मेरे साथी डॉ. मुरलीधर रामप्पा ने हाल ही में चश्मा पहनने वाले लोगों को (और आंखों के डॉक्टरों को भी) सुरक्षा की दृष्टि से सलाह दी है। वे कहते हैं: यदि आप कॉन्टैक्ट लेंस पहनते हैं, तो कुछ समय के लिए चश्मा पहनना शुरु कर दें क्योंकि चश्मा पहनना एक तरह की सुरक्षा प्रदान करता है। अपनी आंखों की जांच करना बंद ना करें, लेकिन सावधानी बरतें। इस बारे में नेत्र चिकित्सक कुछ सावधानियां सुझा सकते हैं। अपनी आंखों की दवाइयों को ठीक मात्रा में अपने पास रखें, और अपनी आंखों को रगड़ने से बचें।

केंद्र और राज्य सरकारों और कई निजी अस्पतालों द्वार अलग-थलग और क्वारेंटाइन केंद्र स्थापित किए जाने के अलावा कई निजी एजेंसियों(जैसे इन्फोसिस फाउंडेशन, साइएंट, स्कोडा, मर्सडीज़ बेंज और महिंद्रा) ने हैदराबाद, बैंगलुरु, हरियाणा, पश्चिम बंगाल में इस तरह के केंद्र स्थापित करने में मदद की है। यह सरकारों और निजी एजेंसियों द्वारा साथ आकर काम करने के कुछ उदाहरण हैं। जैसा कि वे कहते हैं, इस घड़ी में हम सब साथ हैं।

सुरक्षा (और इसके फैलाव को रोकने) की दिशा में एक और उत्साहवर्धक कदम है क्वारेंटाइन केंद्रों में रखे लोगों पर निगरानी रखने वाले उपकरणों, इनक्यूबेटरों, वेंटिलेटरों का बड़े पैमाने पर उत्पादन। महिंद्रा ने सफलतापूर्वक बड़ी तादाद में ठीक-ठाक दाम पर वेंटिलेटर बनाए हैं, और डीआरडीओ ने चिकित्सकों, नर्सों और पैरामेडिकल स्टॉफ के लिए सुरक्षा गाउन बनाने के लिए एक विशेष प्रकार का टेप बनाया है।

क्या भारत औषधि बना सकता है?

कोरोना संक्रमण से सुरक्षा के लिए टीका तैयार करने में भारत को संभवत: एक साल का वक्त लगेगा। हमें आणविक और औषधि-आधारित तरीके अपनाने की ज़रूरत है, जिसमें भारत को महारत हासिल है और उसके पास उम्दा आणविक और जीव वैज्ञानिकों की टीम है। फिलहाल सरकार तथा कुछ दवा कंपनियों ने कई दवाओं (जैसे फेविलेविर, रेमडेसेविर, एविजेन वगैरह) यहां बनाना और उपयोग करना शुरु किया है, और ज्ञात विधियों की मदद से इन दवाओं में कुछ बदलाव भी किए हैं। सीएसआईआर ने कार्बनिक रसायनज्ञों और बायोइंफॉर्मेटिक्स विशेषज्ञों को पहले ही इस कार्य में लगा दिया है, जो प्रोटीन की 3-डी संरचना का पूर्वानुमान कर सकते हैं ताकि सतह पर उन संभावित जगहों की तलाश की जा सकें जहां रसायन जाकर जुड़ सकें। मुझे पूरी उम्मीद है कि टीम के इन प्रयासों से हम इस जानलेवा वायरस पर विजय पाने वाली स्वदेशी दवा तैयार कर लेंगे। हां, हम कर सकते हैं।

और, अच्छी तरह से यह पता होने के बावजूद कि लाखों दिहाड़ी मजदूर अपने गांव-परिवार से दूर, बड़े शहरों और नगरों में रहते हैं, राज्य और केंद्र सरकारों ने उनके लिए कोई अग्रिम योजना नहीं बनाई थी। और ना ही लॉकडाउन के वक्त उनकी मज़दूरी की प्रतिपूर्ति के लिए कोई योजना बनाई गई थी, जबकि इस लॉकडाउन की वजह से वे अपने घर वापस भी नहीं जा सके। इसके चलते लॉकडाउन से सामाजिक दूरी बढ़ाने और इस संक्रमण के सामुदायिक फैलाव को रोकने में दिक्कत आई है। सामाजिक दूरी रखना भारतीय संस्कृति का हिस्सा नहीं है, जबकि भेड़चाल है। इस बात के प्रति सरकार के समाज वैज्ञानिक सलाहकार सरकार को पहले से ही आगाह कर देते तो समस्या को टाला जा सकता था।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कोरोना के खिलाफ लड़ाई में टेक्नॉलॉजी बना हथियार – प्रदीप

स समय देश ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया कोरोना वायरस नामक एक ऐसे दुष्चक्र में फंसी है जिससे निकलने के लिए असाधारण कदमों और उपायों की ज़रूरत है। महामारी कोविड-19 फैलाने वाले कोरोना वायरस से संक्रमित लोगों की संख्या दुनिया में साढ़े सात लाख तक पहुंच गई है और 33 हज़ार से अधिक लोग जान गंवा चुके हैं। हर रोज़ संक्रमित लोगों और मौतों की संख्या बढ़ती जा रही है और यह महामारी नए इलाकों में पांव पसारती जा रही है।

विशेषज्ञों का मानना है कि हम बिग डैटा, क्लाउड कंप्यूटिंग, सुपर कम्प्यूटर, आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस, रोबोटिक्स, 3-डी प्रिंटिंग, थर्मल इमेज़िंग और 5-जी जैसी टेक्नॉलॉजी का इस्तेमाल करते हुए बेहद प्रभावी ढंग से कोरोनावायरस से मुकाबला कर सकते हैं। इस महामारी से निपटने के लिए यह बेहद ज़रूरी है कि सरकार लोगों की निगरानी रखे। आज टेक्नॉलॉजी की बदौलत सभी लोगों पर एक साथ हर समय निगरानी रखना मुमकिन है।

कोरोना वायरस के खिलाफ अपनी लड़ाई में कई सरकारों ने टेक्नॉलॉजी को मोर्चे पर लगा दिया है। टेक्नॉलॉजी का ही इस्तेमाल करते हुए चीन ने इस वायरस पर काफी हद तक काबू पाया है। लोगों के स्मार्टफोनों, चेहरा पहचानने वाले हज़ारों-लाखों कैमरों, और अपने शरीर का तापमान रिकॉर्ड करने और अपनी मेडिकल जांच की अनुमति देने की सहज इच्छा रखने वाली जनता के बल पर चीनी अधिकारियों ने न केवल शीघ्रता से यह पता कर लिया कि कौन व्यक्ति कोरोना वायरस का संभावित वाहक है बल्कि वह उन पर नज़र भी रख रहे थे कि वे किस-किस के संपर्क में आते हैं। कई सारे ऐसे मोबाइल ऐप्स हैं जो नागरिकों को संक्रमित व्यक्ति के आसपास मौजूद होने के बारे में चेतावनी देते हैं।

कोरोनावायरस को रोकने के लिए चीन ने सबसे पहले ‘कलर कोडिंग टेक्नॉलॉजी’ का इस्तेमाल किया है। इस सिस्टम के लिए चीन की दिग्गज टेक कंपनी अलीबाबा और टेनसेंट ने साझेदारी की है। यह सिस्टम स्मार्टफोन ऐप के रूप में काम करता है। इसमें यूज़र्स को उनकी यात्रा के दौरान उनकी मेडिकल हिस्ट्री के मुताबिक ग्रीन, येलो और रेड कलर का क्यूआर कोड दिया जाता है। ये कलर कोड ही यह निर्धारित करते हैं कि यूज़र को क्वॉरेंटाइन किया जाना चाहिए या फिर उसे सार्वजनिक स्थान पर जाने की इजाज़त दी जानी चाहिए। चीनी सरकार ने इस सिस्टम के लिए कई चेक पॉइंट्स बनाए हैं, जहां लोगों की चेकिंग होती हैं। यहां उन्हें उनकी यात्रा और मेडिकल हिस्ट्री के मुताबिक क्यूआर कोड दिया जाता है। अगर किसी को ग्रीन कलर का कोड मिलता है, तो वह इसका उपयोग कर किसी भी सार्वजनिक स्थान पर जा सकता है। तो दूसरी तरफ अगर किसी को लाल कोड मिलता है, तो उसे क्वारेंटाइन कर दिया जाता है। इस सिस्टम का इस्तेमाल 200 से ज़्यादा चीनी शहरों में हुआ है। भारत में भी ऐप आधारित कलर कोडिंग टेक्नॉलॉजी विकसित करने के प्रयास ज़ोर-शोर से किए जा रहे हैं।

भारत में भी रेलवे स्टेशनों, हवाई अड्डों और अन्य सार्वजनिक क्षेत्रों के अधिकारी दूर से तापमान रिकॉर्ड करने के लिए स्मार्ट थर्मल स्कैनर का इस्तेमाल कर रहे हैं। इस तरह संभावित कोरोना वायरस वाहक की पहचान करने में आसानी हो रही है। भारत में बाज़ार-केंद्रित हेल्थ टेक स्टार्टअप कंपनियां भी रोग के निदान के लिए नवाचार की ओर कमर कस रही हैं, इससे हेल्थ केयर सिस्टम पर दबाव कम हो रहा है। कन्वर्जेंस कैटालिस्ट के संस्थापक जयंत कोल्ला बैंगलुरु स्थित स्टार्टअप, वनब्रोथ का उदाहरण देते हैं। इसने सस्ते और टिकाऊ वेंटिलेटर विकसित किए हैं। ये भारत की ग्रामीण आबादी को ध्यान में रखकर किया गया है, जहां अस्पतालों और डॉक्टरों तक पर्याप्त पहुंच का अभाव है। एक अन्य बैंगलुरु-आधारित स्टार्टअप डे-टु-डे ने घर पर क्वारेंटाइन रोगियों को विभिन्न सुविधाओं और अस्पतालों में रखने के लिए एक केयर मैनेजमेंट सॉल्यूशन विकसित किया है और इसके ज़रिए बाद में निदान गतिविधियों जैसे कि स्वास्थ्य जांच, आहार, अनुवर्ती परीक्षण आदि को भी पूरा किया जाता है।

चीन सहित विभिन्न देशों ने कोरोना वायरस को मात देने के लिए रोबोट का इस्तेमाल किया है। ये रोबोट होटल से लेकर ऑफिस तक में साफ-सफाई का काम करते हैं और साथ ही आस-पास की जगह पर सैनिटाइज़र का छिड़काव भी करते हैं। वहीं, दूसरी तरफ चीन की कई टेक कंपनियां भी इन रोबोट का उपयोग मेडिकल सैंपल भेजने के लिए करती थीं। कोरोना वायरस को रोकने के लिए चीन ने ड्रोन का इस्तेमाल किया है। साथ ही इन ड्रोन्स के ज़रिए चीनी सरकार ने लोगों तक फेस मास्क और दवाइयां पहुंचाई हैं। इसके अलावा इन डिवाइसेस के ज़रिए कोरोना वायरस से संक्रमित क्षेत्रों में सैनिटाइजर का छिड़काव भी किया गया है।

कोरोना वायरस को ट्रैक करने के लिए फेस रिकॉग्निशन सिस्टम का इस्तेमाल बेहद कारगर साबित हो रहा है। इस सिस्टम में इंफ्रारेड डिटेक्शन तकनीक मौजूद है, जो लोगों के शरीर के तापमान जांचने में मदद करती है। इसके अलावा फेस रिकॉग्निशन सिस्टम यह भी बताता है कि किसने मास्क पहना है और किसने नहीं।

वैज्ञानिक कोरोना के टीके और दवाई विकसित करने के लिए आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस (एआई) का इस्तेमाल कर रहें हैं। ध्यान देने वाली बात यह है कि एंटीबायोटिक दवाओं के बैक्टीरिया पर घटते असर को ध्यान में रखते हुए पिछले कुछ वर्षों से वैज्ञानिक एआई की मदद से ऐसे प्लेटफॉर्म तैयार करने की कोशिश रहे हैं जिससे नए किस्म की दवाओं की खोज की जा सके और एंटीबायोटिक दवाओं को बेअसर करने वाले बैक्टीरिया का खात्मा किया जा सके। हाल ही में वैज्ञानिक समुदाय को इस दिशा में एक बड़ी कामयाबी हासिल हुई है। अमेरिका के एमआईटी के वैज्ञानिकों ने आर्टिफिशिल इंटेलीजेंस (एआई) के मशीन-लर्निंग एल्गोरिदम की मदद से पहली बार एक नया और बेहद शक्तिशाली एंटीबायोटिक तैयार किया है। शोधकर्ताओं का दावा है कि इस एंटीबायोटिक से तमाम घातक बीमारियों को पैदा करने वाले बैक्टीरिया को भी मारा जा सकता है। इसको लेकर दावे इस हद तक किए जा रहे हैं कि इस एंटीबायोटिक से उन सभी बैक्टीरिया का खात्मा किया जा सकता है जो सभी ज्ञात एंटीबायोटिक दवाओं के खिलाफ प्रतिरोधी क्षमता हासिल कर चुके हैं। इस नए एंटीबायोटिक की खोज ने आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस की मदद से कोरोना के खिलाफ एक कारगर एंटी वायरल दवा विकसित करने की वैज्ञानिकों की उम्मीदों को बढ़ा दिया है।

कुल मिलाकर हम कह सकते हैं कि आज टेक्नॉलॉजी ने किसी महामारी से लड़ने के लिए हमारी क्षमताओं को काफी हद तक बढ़ा दिया है। जिसकी बदौलत हम परंपरागत रक्षात्मक उपायों को करते हुए महामारी के विरुद्ध कारगर ढंग से लड़ने में सक्षम हुए हैं।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जीभ के बैक्टीरिया – अपना पास-पड़ोस खुद चुनते हैं

सूक्ष्मजीव हमारे शरीर पर हर जगह, जैसे हमारे मुंह, हमारी आंत में रहते हैं। इसी तरह हमारी जीभ पर भी लाखों सूक्ष्मजीव रहते हैं। और अब सेल बायोलॉजी में प्रकाशित एक हालिया अध्ययन बताता है कि हमारी जीभ पर रहने वाले ये सूक्ष्मजीव यूं ही बेतरतीब नहीं बसते हैं बल्कि वे अपनी तरह के सूक्ष्मजीवों के आसपास रहना पसंद करते है और अपनी प्रजाति के आधार पर बंटकर अलग-अलग समूहों में रहते हैं।

जीभ पर इन सूक्ष्मजीवों की बसाहट कैसी है, यह जानने के लिए मरीन बायोलॉजिकल लैबोरेटरी की सूक्ष्मजीव विज्ञानी जेसिका मार्क वेल्च और उनके साथियों ने पहले 21 स्वस्थ लोगों की जीभ को खुरचकर साफ किया। इसके बाद उन्होंने बैक्टीरिया के विशिष्ट समूहों की पहचान करने के लिए उन पर अलग-अलग रंग के फ्लोरोसेंट टैग लगाए, ताकि यह देख सकें कि ये बैक्टीरिया जीभ पर ठीक-ठीक कहां रहते हैं। उन्होंने पाया कि सभी बैक्टीरिया अपनी प्रजाति के एक मजबूत और सुगठित समूह में रहते हैं।

माइक्रोस्कोप से इन सूक्ष्मजीवों को देखने पर इनका झुंड एक सूक्ष्मजीवीय इंद्रधनुष जैसा दिखता है। माइक्रोस्कोपिक तस्वीर में देखने पर पाया गया कि एक्टिनोमाइसेस बैक्टीरिया जीभ के उपकला (या एपिथिलीयल) ऊतक के करीब पनपते हैं। रोथिया बैक्टीरिया अन्य समुदायों के बीच बड़ा समूह बना कर रहते हैं। स्ट्रेप्टोकोकस प्रजाति के बैक्टीरिया जीभ के किनारे-किनारे एक पतली लकीर बनाते हुए और महीन नसों के आसपास रहते हैं। इन तस्वीरों को देखकर अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि ये कॉलोनियां कैसे बसी और फली-फूली होंगी।

हालांकि डीएनए अनुक्रमण के ज़रिए वैज्ञानिक इस बारे में तो जानते थे कि हमारे शरीर में कौन से बैक्टीरिया रहते हैं लेकिन पहली बार जीभ पर रहने वाले सूक्ष्मजीवों के समुदाय का इतने विस्तार से अध्ययन किया गया है। शोधकर्ताओं का कहना है कि सूक्ष्मजीवों की विभिन्न प्रजातियां कहां जमा होती हैं और वे स्वयं को कैसे व्यवस्थित करती हैं, इस बारे में पता लगाकर बैक्टीरिया की कार्यप्रणाली के बारे में पता लगाया जा सकता है और देखा जा सकता है कि वे एक-दूसरे से कैसे संपर्क बनाते हैं।(स्रोत फीचर्स)

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चिड़िया घर में बाघिन कोरोना संक्रमित

वाइल्डलाइफ कंज़र्वेशन सोसायटी ने हाल ही में घोषणा की है कि न्यूयॉर्क के एक चिड़ियाघर ब्रॉन्क्स ज़ू की एक 4-वर्षीय बाघिन (नादिया) कोविड-19 पॉज़िटिव निकली है। गौरतलब है कि न्यूयॉर्क अत्यधिक संक्रमित क्षेत्र है।

यह मलायन बाघिन, बिल्ली कुल के छ: अन्य साथियों (जिनमें नादिया की एक बहन, दो अमूर बाघ और तीन अफ्रीकी शेर शामिल हैं) के साथ सूखी खांसी से पीड़ित थी। हालांकि इन अन्य प्राणियों की जांच नहीं की गई है किंतु ज़ू के अधिकारी मानकर चल रहे हैं कि ये सब SARS-CoV-2 से संक्रमित हैं जो कोविड-19 का कारण है।

दरअसल, इस बाघिन की जांच ऐहतियात के तौर पर की गई थी और अधिकारियों की कहना है कि उन्हें इस बाघिन के अध्ययन से जो भी जानकारी मिलेगी वह कोरोनावायरस से हमारी विश्वव्यापी लड़ाई में मददगार ही होगी।

वाइल्डलाइफ कंज़र्वेशन सोसायटी का मत है कि चिड़ियाघर का एक कर्मचारी कोविड-19 से पीड़ित था और संभवत: उसने ही इन बिल्लियों को संक्रमित किया है। इसके बाद से सभी कर्मचारियों के लिए सुरक्षा के उपाय लागू कर दिए गए हैं।

यह देखा गया है कि संक्रमित जानवरों की भूख कम हुई है लेकिन चिड़ियाघर के अनुसार उनकी हालत ठीक है। चिड़ियाघर के पशु चिकित्सक इन बाघ-शेरों की देखभाल व उपचार में लगे हैं।

एक अच्छी बात यह है कि बिल्ली कुल के अन्य प्राणियों में फिलहाल कोविड-19 के लक्षण नहीं दिखे हैं।

यह देखा जा चुका है कि पालतू बिल्लियां संक्रमित हुई हैं। पता चला है कि उनकी श्वसन कोशिकाओं की सतह पर लगभग वैसे ही ग्राही पाए जाते हैं, जैसे मनुष्य की कोशिकाओं पर होते हैं, जो वायरस को कोशिका में प्रवेश करने में मदद करते हैं। वैसे अभी इस बात का कोई प्रमाण नहीं है कि बिल्लियां यह वायरस मनुष्यों में फैला सकती हैं। बहरहाल, न्यूयॉर्क के विभिन्न चिड़ियाघरों को बंद कर दिया गया है। (स्रोत फीचर्स)

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गर्भ में कोरोनावायरस से संक्रमण की आशंका

क ताज़ा रिपोर्ट के अनुसार चीन में तीन शिशुओं में जन्म से पहले कोरोनावायरस के संक्रमण की आशंका जताई गई है। हालांकि विशेषज्ञों का मानना है कि यह परिणाम अनिर्णायक हैं और गर्भावस्था के दौरान इस वायरस के मां से बच्चे में संक्रमित होने के कोई पुख्ता सबूत नहीं है।

एक अन्य रिपोर्ट में वुहान युनिवर्सिटी के डॉक्टर कोविड-19 से संक्रमित महिला के बारे में बताते हैं जिसने सीज़ेरियन सेक्शन से एक बच्ची को जन्म दिया था। जर्नल ऑफ अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार प्रसव के दौरान महिला ने एन95 मास्क पहना था और जन्म के पश्चात शिशु को मां से अलग रखा गया था। नवजात को तुरंत क्वारेंटाइन में रखा गया लेकिन उसमें कोविड-19 संक्रमण का कोई लक्षण नहीं दिखा।

जन्म के दो घंटे पश्चात किए गए परीक्षण से पता चला कि नवजात में SARS-CoV-2 के विरुद्ध दो प्रकार की एंटीबॉडी, IgG और IgM, का स्तर अधिक पाया था। गौरतलब है कि IgG एंटीबॉडी तो शिशु को गर्भावस्था में मां से प्राप्त होती है जबकि IgM एंटीबॉडी गर्भनाल को पार करने में सक्षम नहीं होती है। रिपोर्ट के मुताबिक नवजात में IgM एंटीबॉडी का होना भ्रूण में इस संक्रमण को दर्शाता है। इसके अलावा, नवजात में श्वेत रक्त कोशिकाओं के प्रतिरक्षा प्रणाली रसायन, साइटोकाइंस, के स्तर में भी वृद्धि पाई गई जो संक्रमण का द्योतक हो सकता है। एक अन्य अध्ययन में ज़्होंगनान अस्पताल के डॉक्टरों ने SARS-CoV-2 की एंटीबॉडी का पता लगाने के लिए 6 नवजात के रक्त के नमूनों का विश्लेषण किया। उन्हें 5 नमूनों में IgG का उच्च स्तर प्राप्त हुआ जबकि 2 नमूनों में IgM का उच्च स्तर देखा गया। दिलचस्प बात यह रही कि सभी नवजात में SARS-CoV-2 टेस्ट निगेटिव था। ऐसे में यह बता पाना मुश्किल है कि यह नवजात वायरस से संक्रमित थे या नहीं।

ऐसी आशंका जताई जा रही है कि एंटीबॉडी के बढ़े हुए स्तर का कारण माताओं के प्लेसेंटा का क्षतिग्रस्त या असामान्य होना हो सकता है, जिससे IgM प्लेसेंटा से गुज़रकर शिशुओं में पहुंच गया हो। गौरतलब है कि IgM परीक्षण फाल्स पॉज़िटिव और फाल्स नेगेटिव परिणाम भी दे सकते हैं।

इसके अलावा, लंदन में एक SARS-CoV-2 संक्रमित महिला के नवजात में भी इस वायरस के पॉज़िटिव परिणाम देखे गए। हालांकि इस मामले में भी स्पष्ट नहीं है कि यह वायरस नवजात में जन्म लेने से पहले आया या उसके बाद। कोविड-19 से संक्रमित नौ गर्भवती महिलाओं पर किए गए प्रारंभिक अध्ययन में SARS-CoV-2 का कोई सबूत नहीं मिला है जिससे यह कहा जा सके कि यह मां से बच्चे में पहुंचा है।(स्रोत फीचर्स)

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कोविड-19 मरीज़ की देखभाल

ए कोरोनावायरस ने दुनिया भर में लाखों लोगों को संक्रमित कर दिया है। सबसे अच्छा तो यही होगा सामाजिक फासला सुनिश्चित करके स्वयं को और अपने परिजनों को इसके संक्रमण से बचाए रखें। लेकिन यदि आपके परिवार या घर में किसी को इस वायरस का संक्रमण हो जाए तो क्या करें।

यदि ऐसा व्यक्ति उन लोगों में से नहीं है जिन्हें अनिवार्य रूप से अस्पताल में भर्ती करना चाहिए तो आपको घर पर ही उसकी देखभाल करनी होगी और अन्य लोगों को सुरक्षित भी रखना होगा। यानी आपको उस व्यक्ति को अलग-थलग करना होगा लेकिन साथ ही यह भी ध्यान देना होगा कि उसे भरपूर मात्रा में तरल पदार्थ मिलते रहें और तकलीफ कम से कम हो।

यदि आपके घर में कोई ऐसा व्यक्ति है जिसमें कोविड-19 के लक्षण दिख रहे हों – जैसे बुखार, सूखी खांसी, सांस लेने में दिक्कत. मांसपेशियों में दर्द, थकान और दस्त – तो किसी स्वास्थ्य केंद्र, अस्पताल या स्वास्थ्य कर्मी से संपर्क करें। हो सकता है कि वे आपको परीक्षण करवाने की सलाह दें। लेकिन ऐसे परीक्षण फिलहाल पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध नहीं हैं, इसलिए स्वास्थ्य कर्मी शायद आपको घर पर ही मरीज़ को अलग-थलग यानी आइसोलेट करने का परामर्श देंगे।

अच्छी बात है कि कोविड-19 के अधिकांश मामले गंभीर नहीं होते अर्थात अधिकांश लोग बगैर किसी उपचार के ठीक हो जाते हैं। लेकिन ये मरीज़ भी अन्य लोगों को संक्रमित कर सकते हैं।

ज़रूरत तो इस बात की होगी कि मरीज़ को एक अलग, हवादार कमरे में रखा जाए। संभव हो, तो मरीज़ के लिए बाथरूम भी अलग हो। मरीज़ के लिए तौलिया, चादरें, कप-प्लेट वगैरह भी अलग होना चाहिए और इन्हें नियमित रूप से साफ करना ज़रूरी है।

देखभाल करने वाले लोगों को नाक, मुंह वगैरह को मास्क से ढंककर रखना चाहिए और दस्ताने पहनना चाहिए। दस्ताने हटाने के तुरंत बाद हाथों को साबुन-पानी से कम से कम 20 सेकंड तक अच्छी तरह धोना चाहिए। वैसे भी हाथों से चेहरे को छूने से बचना चाहिए। चेहरे के लिए मास्क का उपयोग तो लगातार करना बेहतर है, खास तौर से जब आप मरीज़ के कमरे में हैं। मरीज़ को भी लगातार मास्क लगाए रखें।

यदि आप मरीज़ के टट्टी, पेशाब वगैरह को छूते हैं तो दस्ताने व मास्क पहनकर करें और काम समाप्त होते ही पहले दस्ताने निकालकर फेंक दें, हाथों को अच्छी तरह साफ करें, उसके बाद चेहरे के मास्क को हटाएं और एक बार फिर से हाथ धोएं। याद रखें कि जिन सतहों को बार-बार छूना पड़ता है, जैसे दरवाज़े के हैंडल, नल वगैरह, उन्हें भी अच्छी तरह साफ करें।

यह ध्यान देना ज़रूरी होता है कि मरीज़ की हालत कब गंभीर रूप ले रही है। यदि मरीज़ को सांस लेने में दिक्कत होने लगे, या बुखार तेज़ हो जाए, सीने में दर्द हो, गफलत होने लगे या होंठ नीले पड़ने लगें तो तुरंत चिकित्सक को दिखाएं या अस्पताल ले जाएं।

कोविड-19 का कोई इलाज तो नहीं है लेकिन अस्पताल मरीज़ को इन पेचीदगियों से बचने में मदद कर सकते हैं। जैसे मरीज़ को सांस की दिक्कत से छुटकारा दिलाने के लिए ऑक्सीजन दी जा सकती है। मरीज़ को स्वस्थ होने में मदद के लिए उसे खूब आराम और तरल पदार्थों की ज़रूरत होती है। यदि बुखार तेज़ हो तो बुखार कम करने की दवा दी जा सकती है।

यदि दवा के बगैर भी मरीज़ का बुखार लगातार 72 घंटे तक न बढ़े और यदि सांस फूलने के लक्षण में सुधार हो और पहली बार लक्षण प्रकट होने के बाद सात दिन बीत चुके हों, तो डॉक्टर की सलाह से आइसोलेशन समाप्त किया जा सकता है। लेकिन उससे पहले कोविड-19 का टेस्ट करवा लेना होगा।(स्रोत फीचर्स)

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कोरोना संक्रमितों की सेवा में अब रोबोट – जाहिद खान

दुनिया की आबादी का एक बड़ा हिस्सा फिलवक्त कोविड-19 से बुरी तरह से जूझ रहा है। डॉक्टर, नर्स और तमाम स्वास्थ्य कर्मचारी कोरोना संक्रमित मरीज़ों के इलाज और देखभाल में जी-जान से लगे हुए हैं। समूची मानवजाति के ऊपर आई इस संकट की घड़ी में अब रोबोट भी इंसान के मददगार बन रहे हैं। उन्हें इस खतरनाक बीमारी से उबरने में मदद कर रहे हैं।

राजस्थान में जयपुर स्थित एसएमएस हॉस्पिटल में कोरोना संक्रमित मरीज़ों की सेवा के लिए तीन रोबोट की ड्यूटी लगाई गई है। ये रोबोट कोरोना संक्रमित व्यक्तियों तक दवा, पानी व दीगर ज़रूरी सामान ले जाने का काम करेंगे। रोबोट की ड्यूटी यहां लगाए जाने से कोरोना पीड़ितों के आसपास मेडिकल स्टाफ का मूवमेंट कम हो जाएगा। इसका सबसे बड़ा फायदा यह होगा कि हॉस्पिटल में इंसानों की वजह से कोविड-19 वायरस के प्रसार की जो संभावना रहती है, वह काफी कम हो जाएगी। मरीज़ के संपर्क में न आ पाने से बाकी लोगों में संक्रमण नहीं फैलेगा, वे सुरक्षित रहेंगे। ज़ाहिर है, जब डॉक्टर, नर्स और तमाम स्वास्थ्य कर्मचारी सुरक्षित रहेंगे, तो वे अपना काम और भी बेहतर तरीके से कर सकेंगे। देखा जाए तो यह एक छोटी-सी शुरुआत ही है। देश भर के बाकी अस्पतालों में डॉक्टर और स्वास्थ्यकर्मी अपने स्वास्थ्य और जान की ज़रा-सी भी परवाह किए बिना मुस्तैदी से अपने फर्ज़ को अंजाम देने में लगे हुए हैं।

‘रोबोट सोना 2.5’ नामक ये रोबोट पूरी तरह भारतीय तकनीक और मेक इन इंडिया प्रोजेक्ट के तहत जयपुर में ही बनाए गए हैं। युवा रोबोटिक्स एक्सपर्ट भुवनेश मिश्रा ने इन्हें तैयार किया है।  सबसे बड़ी खासियत यह है कि ‘सोना 2.5’ रोबोट लाइन फॉलोअर नहीं हैं बल्कि ऑटो नेविगेशन रोबोट हैं। यानी इन्हें मूव कराने के लिए किसी भी तरह की लाइन बनाने की ज़रूरत नहीं होती है। इंसानों की तरह ये रोबोट सेंसर की मदद से खुद नेविगेट करते हुए अपना रास्ता बनाते हैं और लक्ष्य तक पहुंच जाते हैं। इन्हें आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस, आईओटी और एसएलएएम तकनीक का शानदार इस्तेमाल करके तैयार किया गया है।

सर्वर के कमांड मिलने पर ये रोबोट सबसे पहले अपने लिए एक छोटे रास्ते का मैप क्रिएट करते हैं। अच्छी बात यह है कि ये किसी भी फर्श या फ्लोर पर आसानी से मूव कर सकते हैं। इन्हें वाई-फाई सर्वर के ज़रिए लैपटॉप या स्मार्ट फोन से भी ऑपरेट किया जा सकता है। ऑटो नेविगेशन होने से इन्हें अंधेरे में भी मूव कराया जा सकता है।

एक खूबी और है कि इनमें ऑटो डॉकिंग प्रोग्रामिंग की गई है, जिससे बैटरी डिस्चार्ज होने से पहले ही ये खुद चार्जिंग पॉइंट पर जाकर ऑटो चार्ज हो जाएंगे। एक बार चार्ज होने पर ये सात घंटे तक काम कर सकते हैं और इन्हें चार्ज होने में तीन घंटे का समय लगता है। यानी इन रोबोट में वे सारी खूबियां हैं, जिनके दम पर ये अपना काम बिना रुके, बदस्तूर करते रहेंगे। विज्ञान और वैज्ञानिकों का मानवजाति के लिए यह वाकई एक चमत्कारिक उपहार है जिसे नमस्कार किया जाना चाहिए।

अकेले राजस्थान में ही नहीं, केरल में भी यह अभिनव प्रयोग शुरू किया जा रहा है। कोच्चि की ऐसी ही स्टार्टअप कंपनी ने अस्पतालों के लिए एक खास रोबोट तैयार किया है जो मेडिकल स्टाफ की मदद करेगा। तीन चक्कों वाला यह रोबोट खाना और दवाइयां पहुंचाने के काम आएगा। यह पूरे अस्पताल में आसानी से घूम सकता है। इसे सात लोगों ने मिलकर महज 15 दिनों के अंदर तैयार किया है। इसी तरह की पहल नोएडा के फेलिक्स अस्पताल ने भी की है।

डॉक्टरों एवं मेडिकल स्टाफ को कोविड-19 जैसे घातक वायरस से बचाने के लिए रोबोट का इस्तेमाल होगा। कोरोना वायरस के बढ़ते मामलों के बीच दुनिया भर के अस्पताल काम के बोझ से दबे हुए हैं। मरीज़ों का इलाज और देखभाल करते हुए डॉक्टरों को ज़रा-सी भी फुर्सत नहीं मिल रही है। मरीज़ों की तादाद रोज़ बढ़ती जा रही है। ऐसे में ज़्यादा से ज़्यादा मेडिकल स्टाफ की ज़रूरत है।

इसी तरह की परेशानियों के मद्देनजर आयरलैंड के एक अस्पताल में भी रोबोट्स को काम पर लगाने का फैसला किया गया है। डबलिन के मेटर मिजरिकॉरडी यूनिवर्सिटी अस्पताल में रोबोट्स प्रशासनिक और कंप्यूटर का काम कर रहे हैं, जो आम तौर पर नर्सों के ज़िम्मे होता है। ये रोबोट कोविड-19 से जुड़े नतीजों का विश्लेषण भी कर रहे हैं। इन रोबोट को बनाने वाले एक्सपर्ट्स अपने काम से अभी संतुष्ट नहीं हैं। वे कोशिश कर रहे हैं कि ये रोबोट डिसइन्फेक्शन करने, टेंपरेचर नापने और सैंपल कलेक्ट करने का काम भी कुशलता से कर सकें।

मानव जैसी स्पाइन टेक्नॉलॉजी वाले दुनिया के पहले रोबोट का सबसे पहले इस्तेमाल, उत्तर प्रदेश के रायबरेली स्थित रेल कोच फैक्टरी में पिछले साल 18 नवंबर को किया गया था। ‘सोना 1.5’ नामक इस स्वदेशी ह्यूमनॉयड रोबोट का निर्माण भी रोबोटिक्स एक्सपर्ट भुवनेश मिश्रा ने किया है। इस रोबोट का इस्तेमाल दस्तावेज़ों को एक स्थान से दूसरी जगह ला-ले जाने, विज़िटर्स का स्वागत करने, टेक्निकल डिस्कशन और ट्रेनिंग में हो रहा है।

दरअसल आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और रोबोटिक्स के विकास के साथ मानव-रोबोटों को ऐसे कार्यों के लिए तेज़ी से इस्तेमाल किया जा रहा है, जिनमें बार-बार एक-सी क्रियाएं करनी होती हैं। इस तरह के कामों में वे पूरी तरह से कारगर साबित होते हैं। निकट भविष्य में इसरो अपने महत्त्वाकांक्षी मिशन ‘गगनयान’ के लिए भी एक रोबोट ‘व्योम मित्र’ भेजेगा। देखना है कि रोबोट कैसे हमसफर साबित होते हैं(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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