बरसों से सजीवों (वनस्पति और जंतुओं) के नाम एक द्विनाम पद्धति के अंतर्गत रखे जाते हैं। जैसे इस पद्धति के तहत आलू को सोलेनमट्यूबरोसम (Solanum tuberosum) और कुत्ते को कैनिसल्यूपसफेमिलिएरिस(Canis lupus familiaris) कहा जाता है। इन नामों में पहला हिस्सा जीनस या वंश का होता है और दूसरा हिस्सा प्रजाति। वंश एक ज़्यादा बड़ा समूह होता है जिसमें मोटे तौर पर एक समान जीव रखे जाते हैं। इस वंश के अंदर ज़्यादा बारीक भेद वाले जीवों को प्रजाति के रूप में वर्गीकृत किया जाता है। अर्थात सोलेनम एक जीनस या वंश है जिसमें लगभग 1500 प्रजातियां – जैसे टमाटर, बैंगन, धतूरा वगैरह शामिल हैं।
वायरस सजीव-निर्जीव के बीच कहीं स्थित हैं और अब तक वे इस पद्धति में शामिल नहीं किए गए थे। लेकिन अब इंटरनेशनल कमिटी ऑन टेक्सॉनॉमी ऑफ वायरसेस (आईसीटीवी) (International Committee on Taxonomy of Viruses – ICTV) ने निर्णय लिया है कि वायरसों को भी द्विनाम पद्धति के अनुसार नाम दिए जाएंगे। हालांकि अभी वैज्ञानिक वायरसों को कुल व वंश के स्तर तक वर्गीकृत करते हैं लेकिन प्रजाति स्तर के वर्गीकरण तक आते-आते बात बिखर जाती है। आम तौर पर वायरस प्रजातियों को नाम उनके द्वारा पैदा की गई किसी बीमारी के नाम पर, या उनके द्वारा संक्रमित किसी जीव प्रजाति के नाम पर या उन्हें पहली बार खोजे जाने के स्थान के नाम पर दिया जाता है। जैसे सेवीयर एक्यूट रेस्पिरेटरी सिंड्रोम (सार्स) (Severe Acute Respiratory Syndrome – SARS) पैदा करने वाले वायरस को सार्स-सीओवी-2 कहा गया है। इसी प्रकार से ईस्टर्स एक्वाइन एंसिफेलाइटिस वायरस है जो घोड़ों को संक्रमित करता है। ज़िका वायरस को उसका नाम युगांडा में एक जंगल में खोजे जाने के फलस्वरूप मिला था। इस मामले में ऐसा माना जाता है कि यह नाम उस इलाके को बेवजह बदनाम करता है।
यह व्यवस्था तब तक तो ठीक-ठाक चली जब तक ज्ञात वायरसों की संख्या सैकड़ों या हज़ारों तक सीमित थी। लेकिन फिर जीनोम विश्लेषण (genome analysis) की तकनीक के आगमन के साथ एक-एक अध्ययन में हज़ारों वायरसों की खोज होने लगी। इतनी बड़ी संख्या के चलते वैज्ञानिकों के बीच वार्तालाप को आसान बनाने के लिए एक मानक नामकरण व्यवस्था (standard nomenclature system) की ज़रूरत महसूस की जाने लगी।
तब आईसीटीवी ने 2016 में विचार-विमर्श शुरू किया। दरअसल आईसीटीवी इंटरनेशनल यूनियन ऑफ माइक्रोबायोलॉजिकल सोसायटीज़ (International Union of Microbiological Societies) का अंग है। अंतत: आईसीटीवी में इस बात पर सहमति बनी कि वायरसों को भी सामान्य द्विनाम पद्धति (binomial nomenclature for viruses) से नाम दिए जाएं।
बहरहाल, कई वायरस वैज्ञानिकों को लगता है कि सचमुच इसकी कोई ज़रूरत नहीं है क्योंकि वायरसों को नाम दिए गए हैं और ये काफी प्रचलन में आ चुके हैं। कई वैज्ञानिकों को तो लगता है कि ये ज़बान के लिए अत्यंत कठिन साबित होंगे। एक उदाहरण के रूप में बताते हैं कि सार्स वायरस का नाम होगा बीटाकोरोनावायरसपेंडेमिकम (Betacoronavirus pandemicum) या एड्स वायरस यानी ह्यूमैन इम्यूनोडेफिशिएंसी वायरस (Human Immunodeficiency Virus) को लेंटीवायरसह्यूमिमडेफ1 (Lentivirus humimdef1) कहा जाएगा। जो लोग नई व्यवस्था का मखौल बनाना चाहते हैं उन्होंने ऐसे कई उदाहरण पेश किए हैं। जैसे वेस्टनाइल वायरस को ऑर्थोफ्लेविवायरसनाइलेंस (Orthoflavivirus nilense) कहना या शार्क रिवर वायरस को ऑर्थोबन्यावायरसस्क्वेलोफ्लवी (Orthobunyavirus squalofluvii) कहना उनके अनुसार मूर्खतापूर्ण है। इस निर्णय के आलोचक कहते हैं कि पहले से प्रचलित नाम हमें वायरस को पहचानने में अधिक सहायक हैं।
दूसरी ओर, कई वैज्ञानिक मानते हैं कि इन नए नामों के आ जाने से वायरस वैज्ञानिकों को काम करने में आसानी होगी। जब भी किसी शोध पत्र में किसी वायरस का द्विनाम पद्धति का नाम आएगा तो दुनिया भर में पता चल जाएगा कि किस वायरस की बात हो रही है। और इस नई व्यवस्था के समर्थक शुरुआती अफरा-तफरी को एक ज़रूरी परेशानी भर मानते हैं।
फिलहाल, इस समस्या का एक मध्यमार्ग निकाला गया है। यह फैसला हुआ है कि सारे वायरस डैटाबेस (virus database) में दोनों नामों का उपयोग किया जाएगा और सारी जानकारी दोनों नामों (existing and binomial names) से खोजी जा सकेगी।(स्रोतफीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.z91vc33/full/_20241213_on_virusnaming-1734362695117.jpg
भारत की बड़ी आबादी सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी के कारण निजी स्वास्थ्य सेवाओं पर निर्भर है। देश में 60 प्रतिशत से अधिक स्वास्थ्य सम्बंधी खर्च रोगियों को खुद वहन करना पड़ता है, जिससे हर साल लाखों लोग गरीबी में धकेल दिए जाते हैं। चिकित्सा प्रतिष्ठान (पंजीयन और विनियमन) अधिनियम, 2010 और इसके तहत 2012 में बने नियम निजी स्वास्थ्य सेवाओं की दरों (private healthcare costs) को नियंत्रित करने का ढांचा प्रदान करते हैं, लेकिन यह अब तक प्रभावी रूप से लागू नहीं हो सका है।
102 डॉक्टरों, स्वास्थ्य पेशेवरों और जनस्वास्थ्य विशेषज्ञों ने भारत में निजी स्वास्थ्य सेवाओं की लागत (healthcare expenses in India) को नियंत्रित करने और रोगियों के अधिकारों (patients’ rights) को लागू करने की मांग की है। फोरम फॉर इक्विटी इन हेल्थ (Forum for Equity in Health) द्वारा समर्थित विशेषज्ञों की इस अपील में स्वास्थ्य सेवाओं की उचित, पारदर्शी और मानकीकृत दरें (standardized healthcare rates) तय करने की आवश्यकता पर ज़ोर दिया गया है ताकि रोगियों पर आर्थिक बोझ कम किया जा सके।
यह अपील जन स्वास्थ्य अभियान (Jan Swasthya Abhiyan) द्वारा सुप्रीम कोर्ट (Supreme Court of India) में दायर एक जनहित याचिका का समर्थन करती है, जिसमें केंद्र सरकार से 2012 के चिकित्सा प्रतिष्ठान अधिनियम के नियम 9 के तहत निजी स्वास्थ्य सेवाओं की दरों को विनियमित (regulate healthcare pricing) करने की मांग की गई है। इस कानूनी बहस में स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं ने मौजूदा नियमों को लागू करने की मांग की है, जिसका व्यावसायिक निजी स्वास्थ्य सेवा समूहों (private healthcare groups) द्वारा कड़ा विरोध किया जा रहा है।
कार्रवाई के इस आव्हान से एक कड़वी सच्चाई सामने आती है: सरकारी स्वास्थ्य ढांचे की कमी के कारण देश की बड़ी आबादी को निजी स्वास्थ्य सेवाओं पर निर्भर होना पड़ता है। निजी अस्पतालों में अत्यधिक और मनमाने शुल्क के कारण कई परिवार आर्थिक संकट में फंस जाते हैं और गरीबी में धकेल दिए जाते हैं।
इस अपील पर हस्ताक्षर करने वाले लोग भारत के स्वास्थ्य क्षेत्र के विभिन्न तबकों का प्रतिनिधित्व करते हैं। इनमें प्राथमिक, द्वितीयक और तृतीयक स्वास्थ्य सेवा (primary, secondary, tertiary care) संस्थानों के डॉक्टर, छोटे निजी क्लीनिक (small private clinics), बड़े कॉर्पोरेट अस्पताल (corporate hospitals), चैरिटेबल ट्रस्ट (charitable trusts) द्वारा संचालित अस्पताल और ग्रामीण व शहरी क्षेत्रों में काम करने वाले गैर-सरकारी संगठन शामिल हैं। हस्ताक्षरकर्ताओं में युवा पेशेवर, मध्यम अनुभव वाले विशेषज्ञ और दशकों के अनुभव वाले वरिष्ठ विशेषज्ञ शामिल हैं। यह सामूहिक आवाज़ दर्शाती है कि भारत के निजी स्वास्थ्य क्षेत्र में असमानताओं और विनियमन की कमी को दूर करने के लिए तुरंत कदम उठाने की आवश्यकता है।
दरोंकामानकीकरण
चिकित्सा प्रतिष्ठान (पंजीयन और विनियमन) अधिनियम, 2010 और इसके तहत 2012 में बने नियम निजी स्वास्थ्य सेवाओं को नियंत्रित करने के लिए एक रूपरेखा प्रदान करते हैं। लेकिन, (standardization of healthcare rates), न्यूनतम मानकों (minimum standards), और पारदर्शिता (transparency) जैसे प्रमुख पहलू अभी तक पूरी तरह लागू नहीं हो पाए हैं। यह स्थिति निजी अस्पतालों में अधिक शुल्क वसूलने की व्यापक प्रवृत्ति के बावजूद है, जो कोविड महामारी के दौरान उजागर हुई थी।
स्वास्थ्य विशेषज्ञों का कहना है कि दरों का मानकीकरण तकनीकी रूप से संभव है और इसे पहले ही सेंट्रल गवर्नमेंट हेल्थ स्कीम (CGHS) और आयुष्मान भारत (Ayushman Bharat) –प्रधान मंत्री जन आरोग्य योजना जैसी योजनाओं में सफलतापूर्वक लागू किया जा चुका है।
मसलन, CGHS देश भर में 1850 से अधिक चिकित्सा प्रक्रियाओं के लिए समान दरें तय करता है, जिससे लाखों सरकारी कर्मचारी और पेंशनभोगी लाभान्वित होते हैं। इसी तरह, आयुष्मान भारत के तहत 28,000 से अधिक अस्पताल सूचीबद्ध हैं, जो लगभग 2000 प्रक्रियाओं के लिए निश्चित दरों पर इलाज करते हैं। इन योजनाओं और जापान जैसे देशों की समान दर व्यवस्था से प्रेरणा लेते हुए, विशेषज्ञों का मानना है कि ऐसा ढांचा न सिर्फ संभव है बल्कि मनमाने और अत्यधिक शुल्क से मरीज़ों को बचाने के लिए आवश्यक भी है।
अनैतिकप्रथाएंऔरअसमानता
इस अपील में निजी स्वास्थ्य सेवाओं में व्याप्त अनैतिक प्रथाओं (unethical practices in healthcare) , जैसे अधिक शुल्क वसूली (overbilling), रेफरल के लिए कमीशन (referral commissions) और मनमानी बिलिंग की समस्याओं को उजागर किया गया है। ये प्रथाएं रोगियों पर अतिरिक्त बोझ डालती हैं और ईमानदार चिकित्सकों के प्रयासों को कमज़ोर करती हैं। दरों के मानकीकरण से इन समस्याओं को दूर करके एक अधिक न्यायसंगत और पारदर्शी स्वास्थ्य सेवा प्रणाली का मार्ग प्रशस्त हो सकता है। इससे ईमानदार निजी चिकित्सकों को बराबरी से प्रतिस्पर्धा का मौका मिलेगा और रोगियों पर वित्तीय बोझ भी कम होगा। मुख्य चिकित्सा प्रक्रियाओं के लिए उचित दर सुनिश्चित करके, इस क्षेत्र में अत्यधिक मुनाफाखोरी को रोका जा सकता है और रोगियों और चिकित्सकों के बीच विश्वास को मज़बूत किया जा सकता है।
आगेकारास्ता
फोरम फॉर इक्विटी इन हेल्थ और अन्य हस्ताक्षरकर्ता निम्नलिखित उपायों का सुझाव देते हैं:
1. रोगियोंकेअधिकारोंकासार्वजनिकरूपसेप्रदर्शनऔरक्रियांवयन (patients’ rights charter): सभी चिकित्सा संस्थानों में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा जारी रोगियों के अधिकारों का चार्टर स्थानीय भाषाओं में सार्वजनिक रूप से प्रदर्शित किया जाना चाहिए।
2. पारदर्शीमूल्यनिर्धारण (transparent pricing): स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं को प्रमुख प्रक्रियाओं के लिए दरें अनिवार्य रूप से प्रदर्शित करनी चाहिए, ताकि रोगियों को सोच-समझकर निर्णय लेने में मदद मिल सके।
3. मुख्यप्रक्रियाओंकीमानकीकृतलागत: प्रमुख चिकित्सा प्रक्रियाओं के लिए निश्चित दरें होनी चाहिए, ताकि अत्यधिक शुल्क वसूली को रोका जा सके। इसमें अतिरिक्त सुविधाओं या विशेष आवश्यकताओं के लिए लचीलापन रखा जा सकता है।
4. शिकायतनिवारणप्रणाली (grievance redressal system): रोगियों की समस्याओं का तुरंत समाधान करने के लिए प्रभावी तंत्र स्थापित किए जाने चाहिए।
5. छोटेऔरगैर–मुनाफासंस्थानोंकासमर्थन: मानकीकरण प्रक्रिया को छोटे क्लीनिक्स, चैरिटेबल अस्पतालों और गैर-मुनाफा संगठनों के सामने आने वाली विशिष्ट चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए लागू किया जाना चाहिए।
देश भर के हस्ताक्षरकर्ताओं ने फिर से यह ज़ाहिर किया है कि स्वास्थ्य सेवा को एक सामाजिक कार्य के रूप में देखा जाना चाहिए, न कि मुनाफा कमाने की वस्तु के रूप में। वे एक मज़बूत सरकारी स्वास्थ्य प्रणाली की तत्काल आवश्यकता पर ज़ोर देते हैं जिसे निजी क्षेत्र पर प्रभावी नियम लागू करके बल मिले। यह अपील इस बात पर भी ज़ोर देती है कि स्वास्थ्य का संवैधानिक अधिकार तभी पूरा हो सकता है, जब निरंकुश निजी स्वास्थ्य सेवा प्रथाओं द्वारा उत्पन्न वित्तीय असमानताओं को हल किया जाए।
इस अपील का संदेश स्पष्ट है: स्वास्थ्य सेवा एक मौलिक अधिकार है, न कि कोई विशेषाधिकार। इसे साकार करने के लिए नीति निर्माताओं, न्यायपालिका, और समाज को निजी स्वास्थ्य सेवा लागतों को नियंत्रित करने, रोगियों के अधिकार चार्टर को लागू करने और सरकारी स्वास्थ्य अधोसंरचना को मज़बूत करने के लिए निर्णायक कदम उठाने होंगे।
अपील में यह भी कहा गया है: “समय आ गया है कि हम सरकारी स्वास्थ्य तंत्र को मज़बूत करें, निजी स्वास्थ्य सेवा प्रथाओं को नियंत्रित करें, और सुनिश्चित करें कि हर भारतीय को किफायती, समान और नैतिक चिकित्सा सेवा प्राप्त हो।”
मानकीकृत दरों को लागू करके और मरीज़ों के अधिकारों की रक्षा करके ही देश एक न्यायपूर्ण, समान और सुलभ स्वास्थ्य सेवा प्रणाली की ओर बढ़ सकता है। (स्रोतफीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://nivarana.org/article/standardized-rates-and-enforcement-of-patients-rights-in-indian-private-hospitals
कोविड-19 वायरस और प्रयोगशाला लीक थ्योरी (Lab Leak Theory) कोविड-19 महामारी (COVID-19 pandemic) की जांच कर रही एक अमेरिकी संसदीय समिति (US congressional committee) ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि वायरस संभवत: चीन (China lab leak) की एक प्रयोगशाला (laboratory) से लीक हुआ था। हालांकि, रिपोर्ट में कोई ठोस सबूत (concrete evidence) नहीं हैं, केवल परिस्थितिजन्य प्रमाण (circumstantial evidence) दिए गए हैं। 520 पन्नों की इस रिपोर्ट में वुहान इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी (Wuhan Institute of Virology) में किए गए गेन-ऑफ-फंक्शन रिसर्च (gain-of-function research) पर ध्यान दिया गया है। एक नए खुलासे में, रिपोर्ट ने ईमेल का उल्लेख किया है, जो वायरस की उत्पत्ति (origin of the virus) से जुड़े अपराधों (potential crimes) पर एक ग्रैंड जूरी जांच (grand jury investigation) की ज़रूरत बताते हैं। इसके विपरीत, वैज्ञानिकों (scientists) और समिति के असहमत सदस्यों (dissenting members) ने प्रयोगशाला से लीक होने के सिद्धांत (lab leak hypothesis) को लेकर रिपोर्ट के निष्कर्षों को चुनौती (challenged conclusions) दी है। (स्रोत फीचर्स)
महामारी का शैक्षणिक प्रदर्शन पर असर
ट्रेंड्स इन इंटरनेशनल मैथेमेटिक्स एंड साइंस स्टडी (Trends in International Mathematics and Science Study – TIMSS) की ताज़ा रिपोर्ट (latest report) बताती है कि 2019 के मुकाबले 2023 में 8वीं कक्षा (Grade 8) के गणित (Mathematics scores) के प्राप्तांक 39 प्रतिशत देशों में और विज्ञान (Science scores) के प्राप्तांक 42 प्रतिशत देशों में घटे हैं। वहीं, चौथी कक्षा (Grade 4) के विद्यार्थियों के अंक कुछ बेहतर (improved scores) रहे, जबकि अधिकांश देशों (most countries) में अंक स्थिर (stable scores) रहे। संयुक्त राज्य अमेरिका (United States) में दोनों कक्षाओं के अंक 1995 में पहले टेस्ट (first test in 1995) के बाद से सबसे निचले स्तर (lowest level) पर पहुंचे हैं। वहीं, सिंगापुर (Singapore), ताइवान (Taiwan), और दक्षिण कोरिया (South Korea) वैश्विक रैंकिंग (global rankings) में शीर्ष पर (top positions) बने हुए हैं। (स्रोत फीचर्स)
नारंगी बिल्लियां का रहस्य खुला
वैज्ञानिकों ने नारंगी रंग (orange color) की बिल्लियों (cats) के फर (fur) के पीछे की आनुवंशिक गुत्थी (genetic mystery) को सुलझा लिया है, जो 60 सालों से एक रहस्य (decades-old mystery) बनी हुई थी। दो शोध टीमों ने स्वतंत्र रूप से पाया कि एक्स गुणसूत्र (X chromosome) पर एक उत्परिवर्तन (mutation) रंजक बनाने वाली कोशिकाओं (pigment-producing cells) में Arhgap36 प्रोटीन (protein) के उत्पादन को बढ़ा देता है। यह प्रोटीन एक ऐसा मार्ग सक्रिय करता है, जो हल्के लाल रंग का रंजक (light red pigment) बनाता है, जिससे बिल्लियों का नारंगी रंग का फर (orange fur) बनता है। यह खोज (discovery) जीवों में आनुवंशिकी (genetics) और फर के रंग (fur color) को समझने में एक नई दिशा (new insights) है। (स्रोत फीचर्स)
अल्ज़ाइमर की दवा परीक्षण में असफल
अल्ज़ाइमर रोग (Alzheimer’s disease) के लिए बनाई गई प्रयोगात्मक दवा सिम्यूफिलम (Simufilam experimental drug) ने अंतिम चरण के क्लीनिकल परीक्षण (clinical trial) में कोई सकारात्मक असर नहीं दिखाए। प्लेसिबो (placebo) लेने वाले रोगियों से तुलना में, एक साल तक सिम्यूफिलम लेने वाले रोगियों में न तो संज्ञानात्मक क्षमता (cognitive ability) में सुधार दिखा, और न ही रोज़मर्रा के कार्यों (daily tasks) में कोई बेहतरी दिखी। दवा बनाने वाली कंपनी कसावा साइंस (Cassava Sciences) पर शोध में धोखाधड़ी (fraud in research) और वित्तीय कदाचार (financial misconduct) के आरोप तक लगे हैं। परीक्षण (trial) में असफलता के बाद इस दवा के विकास (drug development) को रोक दिया गया है। (स्रोत फीचर्स)
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जब हम अपने परिजनों और दोस्तों की सेहत की चिंता करते हैं तो अक्सर चर्चा हमारे हार्मोन (hormones) पर चली जाती है, जिसमें सबसे ज़्यादा चर्चा इंसुलिन (insulin) और थायरॉइड हार्मोन (thyroid hormone) पर होती है। हार्मोन अधिकांश बहुकोशिकीय जीवों में पाए जाने वाले सिग्नलिंग (signaling molecules) अणु होते हैं। ये हमारे शरीर में एक-दूसरे से दूर-दूर मौजूद अंगों और ऊतकों के बीच संवाद की सुविधा मुहैया करवाते हैं। संकेत कई तरह की शारीरिक और व्यावहारिक कार्यविधियों को नियंत्रित करते हैं, जैसे वृदधि (growth) और परिपक्वता, नींद (sleep), पाचनक्रिया (digestion) और तनाव प्रतिक्रियाएं (stress responses) वगैरह।
स्कूली शिक्षा (school education) के दौरान हमें मानव शरीर में हार्मोन की भूमिका के बारे में समझाया जाता है। इसमें यह बताया जाता है कि हार्मोन स्रावित करने वाली अंतःस्रावी (endocrine glands) ग्रंथियों का आकार और आकृति कैसी होती है, और वे हमारे शरीर में कहां-कहां मौजूद होती हैं।
इन ग्रंथियों के विवरणों में गौर करने लायक बात यह होती है कि ये ग्रंथियां कितनी छोटी हैं। वयस्कों में प्रत्येक एड्रीनल ग्रंथि (adrenal gland), जो दोनों किडनियों (kidneys) के ऊपर पाई जाती हैं, का वज़न 5-10 ग्राम होता है। मस्तिष्क (brain) की मध्य रेखा में पाई जाने वाली पीनियल ग्रंथि (pineal gland) चावल के दाने के बराबर और उसी की आकृति जैसी होती है, और इसका वज़न 50-150 मिलीग्राम होता है। गर्दन (neck) में पाई जाने वाली थायरॉइड ग्रंथि आकार में तितली (butterfly-shaped) की तरह होती है और इसका वज़न लगभग 25 ग्राम होता है।
आकार बनाम कार्य
एक पहेली जो अब तक अनसुलझी थी, वह है कि अंतःस्रावी ग्रंथियों के आकार (size) में इतना अधिक अंतर कैसे या क्यों होता है। जहां थायरॉइड ग्रंथि का वज़न करीब दस-दस रुपए के तीन सिक्कों जितना होता है, वहीं पीनियल ग्रंथि का वज़न चावल के दाने जितना होता है। अब हाल ही में, इस्राइल (Israel) के वाइज़मैन इंस्टीट्यूट (Weizmann Institute) के यूरी एलोन (Uri Alon) के समूह ने हमारे शरीर के कई हार्मोन के लिए इस पहेली का जवाब खोज लिया है; उनका यह अध्ययन आईसाइंस (iScience journal) पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।
अपने अध्ययन में उन्होंने हार्मोन स्रावित करने वाली अंतःस्रावी ग्रंथियों में कोशिकाओं की संख्याओं की गणना की। मसलन, पैराथायरॉइड ग्रंथि (parathyroid gland) जिनमें से चार गर्दन में पाई जाती हैं। प्रत्येक पैराथायरॉइड ग्रंथि मसूर के दाने बराबर होती हैं, और प्रत्येक का वज़न 120 मिलीग्राम होता है। प्रत्येक में लगभग 1 करोड़ कोशिकाएं होती हैं जो पैराथायराइड हार्मोन (parathyroid hormone) स्रावित करती हैं। दूसरी ओर, एड्रीनल कॉर्टेक्स (adrenal cortex) बहुत बड़ा होता है, जिसका वज़न 5 ग्राम से अधिक होता है और इसमें 4.5 अरब कोशिकाएं होती हैं जो कॉर्टिसोल (cortisol) का स्राव करती हैं।
वे सभी कोशिकाएं जो किसी हार्मोन अणु का लक्ष्य होती हैं, उनकी सतह पर उस अणु के लिए एक रिसेप्टर (receptor) होता है। इन रिसेप्टर्स वाली कोशिकाओं को चिन्हित करके और सूक्ष्मदर्शी (microscope) की मदद से ऊतक के एक हिस्से में कोशिकाओं की संख्या का अनुमान लगाया जा सकता है। यह अध्ययन दर्शाता है कि हार्मोन-स्रावी कोशिकाओं की संख्या उनके द्वारा बनाए जाने वाले हार्मोन की लक्षित कोशिकाओं की संख्या के अनुपात में होती है। प्रत्येक हार्मोन उत्पादक कोशिका के लिए लगभग 2000 लक्ष्य कोशिकाएं होती हैं।
एड्रीनल कॉर्टेक्स ग्रंथि अपेक्षाकृत बड़ी होती है, जैसी कि थायरॉइड ग्रंथि भी होती है। एड्रीनल कॉर्टेक्स द्वारा बनाया जाने वाला हार्मोन एड्रीनेलीन (adrenaline) शरीर की उन सभी कोशिकाओं से जुड़ता है जिनमें नाभिक (nucleus) होता है। दूसरी ओर, थायरॉइड हार्मोन पूरे शरीर में चयापचय संतुलन (metabolic balance) बनाए रखता है। पैराथायराइड हार्मोन एक छोटी ग्रंथि से स्रावित होता है, जिसका लक्ष्य गुर्दे (kidneys), अग्न्याशय (pancreas) और केंद्रीय तंत्रिका तंत्र (central nervous system) के कुछ हिस्से होते हैं।
कुछ हार्मोन उन अंगों द्वारा स्रावित होते हैं जो अन्य कार्य भी करते हैं। अग्न्याशय (pancreas, weight 80-100 grams) पाचन एंज़ाइमों (digestive enzymes) का स्राव करने में प्रमुख भूमिका निभाता है। अलबत्ता, अग्न्याशय की केवल 1-2 प्रतिशत कोशिकाएं ही इंसुलिन बनाती हैं, जो लिवर (liver) और मांसपेशियों की कोशिकाओं को लक्षित करती हैं।
आहार (diet) और अन्य स्वास्थ्य उपायों (health tips) द्वारा हार्मोनल स्तरों में समायोजन हमारे स्वास्थ्य पर बड़ा प्रभाव डाल सकते हैं। जैसे, नियत अंतराल पर भोजन व उपवास (intermittent fasting) रक्त में प्रवाहित इंसुलिन की सांद्रता को कम करता है क्योंकि भोजन का सेवन न करने पर इंसुलिन स्राव की आवश्यकता कम हो जाती है। रेशों (fiber-rich diet) की अधिकता वाला आहार, नियमित व्यायाम (regular exercise), पर्याप्त नींद (adequate sleep) और कम तनाव (low stress) भी इंसुलिन के स्तर को नियंत्रित (कम) रखते हैं। इंसुलिन स्तर कम हो तो हमारे शरीर की कोशिकाएं रक्त से अधिक दक्षता से ग्लूकोज़ (glucose) ले पाती हैं। यह इंसुलिन प्रतिरोध (insulin resistance) को रोकने में मदद करता है। इन अंगों का मात्र सूक्ष्म आकार देखकर हमारे स्वास्थ्य पर उनके प्रभाव को आंकना गलत होगा। (स्रोत फीचर्स)
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सौ साल जीने का राज़ क्या है? वैज्ञानिकों का एक विचार यह है कि मामला कोशिकाओं (Longevity cells) से सम्बंधित है। इसी विचार को आगे बढ़ाते हुए बोस्टन (मैसाचुसेट्स) के वैज्ञानिकों ने शतायु लोगों की स्टेम कोशिकाओं (Centenarian stem cells) का एक बैंक निर्मित किया है। ये स्टेम कोशिकाएं सामान्य रक्त कोशिकाओं (Blood cells) को रीप्रोग्राम करके तैयार की गई हैं। सामान्य कोशिकाएं एक समय के बाद विभाजन बंद करके मर जाती हैं लेकिन स्टेम कोशिकाएं लंबे समय तक जीवित रहती हैं और उनसे विभिन्न किस्म की कोशिकाओं का निर्माण किया जा सकता है। उम्मीद की जा रही है कि इनके अध्ययन से शोधकर्ताओं को दीर्घ व स्वस्थ जीवन (Healthy aging) के कारकों को समझने में मदद मिलेगी। शुरुआती प्रयोगों से मस्तिष्क के बुढ़ाने (Brain aging research) को लेकर कुछ सुराग मिले भी हैं।
शतायु लोग दीर्घजीविता को समझने का एक अवसर प्रदान करते हैं। जो लोग सौ साल जी चुके हैं उनमें नुकसान व क्षति से उबरने की ज़बर्दस्त क्षमता होती है। बोस्टन विश्वविद्यालय चोबेनियन व एवेडिसियन स्कूल ऑफ मेडिसिन (Boston University School of Medicine) के स्टेम कोशिका वैज्ञानिक जॉर्ज मर्फी (George Murphy) ने बताया है कि उनकी जानकारी में एक शतायु व्यक्ति 1912 के स्पैनिश फ्लू (Spanish Flu survivor) और फिर हाल के कोविड-19 (COVID-19 recovered) से उबरे हैं। शतायु लोगों की दीर्घायु की एक व्याख्या इस आधार पर की गई है कि उनकी जेनेटिक बनावट (Genetic makeup) में कुछ ऐसी बात होती है जो उन्हें बीमारियों से बचाती है। लेकिन इस बात की जांच कैसे की जाए? इस उम्र के लोग बहुत बिरले होते हैं जिसके चलते उनकी त्वचा या रक्त के नमूने (skin and blood samples) शोध के लिए बेशकीमती संसाधन होते हैं। इसी से शतायु कोशिकाओं के बैंक (Centenarian cell bank) का विचार उभरा। जॉर्ज मर्फी ने स्पष्ट किया है कि यह बैंक सभी वैज्ञानिकों के बीच साझा रहेगा। (स्रोत फीचर्स)
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एंटीमाइक्रोबियल दवाओं (Antimicrobial Resistance) को दशकों से चमत्कारी दवाइयां माना गया है। काफी समय से ये जानलेवा संक्रमणों (Infectious diseases) का इलाज करने में सक्षम रही हैं। इसी धारणा के चलते एंटीबायोटिक्स (Antibiotics Overuse) का ज़रूरत से ज़्यादा और दुरुपयोग हुआ है। साधारण ज़ुकाम (common cold) से लेकर दस्त तक में, ये आम लोगों की पहली पसंद बन गए हैं, जिससे एंटीमाइक्रोबियल प्रतिरोध (AMR – एएमआर) की समस्या बढ़ गई है।
एएमआर: क्या और कैसे
एएमआर एक ऐसी स्थिति है जिसमें सूक्ष्मजीव सामान्यत: दी जाने वाली एंटीमाइक्रोबियल दवाओं (Antimicrobial Drugs) के प्रतिरोधी हो जाते हैं। सूक्ष्मजीवों के विरुद्ध काम करने वाली एंटीमाइक्रोबियल दवाएं विभिन्न प्रकार की होती हैं: बैक्टीरिया के लिए एंटीबायोटिक्स, फफूंद के लिए एंटीफंगल, वायरस के लिए एंटीवायरल (Antiviral medication) और एक-कोशिकीय प्रोटोज़ोआ जीवों के लिए एंटीप्रोटोज़ोआ दवाएं।
एएमआर का सबसे सामान्य रूप एंटीबायोटिक प्रतिरोध है, जिसमें बैक्टीरिया एंटीबायोटिक्स के विरुद्ध प्रतिरोध विकसित कर लेते हैं। मतलब है कि यदि कोई व्यक्ति प्रतिरोधी बैक्टीरिया (Resistant Bacteria) से संक्रमित हो जाए तो वह एंटीबायोटिक दवा उस संक्रमण को ठीक नहीं कर पाएगी। ऐसा अनुमान है कि हर साल करीब 47 लाख लोग प्रतिरोधी संक्रमणों (Drug-resistant infections) से मर जाते हैं, जिन्हें अन्यथा इलाज से ठीक किया जा सकता था।
एंटीबायोटिक दवाओं का अत्यधिक व अंधाधुन्ध उपयोग त्वरित प्रतिरोध के विकास का कारण बना है। इसके चलते दवा कंपनियां नए एंटीबायोटिक्स के विकास में निवेश करने के प्रति भी हतोत्साहित हुई हैं। वर्तमान स्थिति में, जहां एंटीबायोटिक्स की संख्या सीमित है, यह ज़रूरी है कि हम उपलब्ध एंटीबायोटिक्स का सही तरीके से उपयोग करके उन्हें कारगर बनाए रखें।
भारत एंटीबायोटिक्स (India Antibiotic Consumption) का सबसे बड़ा उपभोक्ता है। इनके अति उपयोग के दो प्रमुख कारण हैं – भारत में संक्रामक रोगों का अधिक बोझ (Infectious Disease Burden) और एंटीबायोटिक्स तक सामुदायिक पहुंच पर नियंत्रण का अभाव।
भारत में अधिकांश लोग सीमित स्वास्थ्य सेवाओं (Healthcare Infrastructure in India) के कारण त्रस्त हैं। नतीजतन, रोगी स्वास्थ्य समस्याओं के लिए अनाधिकृत चिकित्सकों (Unqualified Practitioners) पर निर्भर रहते हैं। ऐसे चिकित्सकों के चलते सामान्य शारीरिक समस्याओं के लिए स्टेरॉयड, एंटीबायोटिक्स, मल्टीविटामिन्स और दर्द निवारक दवाओं का मिश्रण लेना आम बात है। यहां तक कि योग्य चिकित्सक भी अक्सर अनावश्यक और गलत एंटीबायोटिक्स लिखते हैं।
इसके अलावा, साफ पानी, स्वच्छता व सफाई की कमी, और मवेशियों को बढ़ावा देने के लिए एंटीबायोटिक्स का अनियंत्रित उपयोग, हमारे देश में एएमआर की समस्या को और बढ़ाता है।
फार्मासिस्ट और एएमआर
फार्मासिस्ट (Role of Pharmacists) समुदाय में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। वे लोगों और डॉक्टरों के बीच एक कड़ी हैं। अक्सर, लोग डॉक्टरों के मुकाबले फार्मासिस्ट से अधिक आसानी से संपर्क कर सकते हैं। डॉक्टर से परामर्श लेने के लिए पहले अपॉइंटमेंट लेना पड़ता है, फिर घंटों इंतज़ार करना पड़ता है, यहां तक कि व्यक्ति को काम से छुट्टी भी लेनी पड़ सकती है। इसके विपरीत, लोग किसी स्थानीय मेडिकल स्टोर पर जाकर अपनी समस्या बताकर दवा ले सकते हैं और जल्दी से निकल सकते हैं। जैसा कि एक फार्मासिस्ट ने बताया कि बगैर डॉक्टरी पर्ची के एंटीबायोटिक्स/दवाइयां खरीदना एक सामान्य प्रथा है क्योंकि लोगों के पास निजी डॉक्टर से परामर्श करने के लिए पर्याप्त पैसे नहीं होते हैं।
हालांकि, यह ‘सुविधा’ अक्सर जोखिमों के साथ आती है। भारत में कई मामलों में, मेडिकल स्टोर में बैठने वाला व्यक्ति एक पंजीकृत फार्मासिस्ट भी नहीं होता है। चूंकि ऐसे अप्रशिक्षित व्यक्तियों के पास दवाइयों के सुरक्षित और प्रभावी उपयोग के बारे में आवश्यक जानकारी नहीं होती, इसलिए रोगियों की जान को खतरा भी हो सकता है।
भारत में स्वास्थ्य सेवा के लिए फार्मेसियों पर निर्भरता जन स्वास्थ्य सेवा के बुनियादी ढांचे की खामियों को भी उजागर करती है। एक फार्मासिस्ट ने बताया कि यदि सभी फार्मासिस्ट बिना डॉक्टरी पर्ची के दवाइयां देना बंद कर दें, तो देश में हंगामा मच जाएगा क्योंकि सरकार के पास हर रोगी के लिए पर्याप्त सुविधाओं का अभाव है। हम जानते ही हैं कि हमारे सिविल अस्पतालों का क्या हाल है; लंबी कतारें और हमेशा ही भीड़। ऐसे में यदि मेडिकल स्टोर (रिटेल फार्मेसी) वाले दवाइयां देना बंद कर दें, तो सब कुछ रुक जाएगा।
एएमआर से जुड़ी गलत धारणाएं
एक और बड़ी समस्या यह है कि भारत में एंटीबायोटिक्स (Antibiotics misuse) को सभी संक्रमणों का ‘एक समाधान’ (Universal Cure Misconception) माना जाता है। अधिकांश लोग बैक्टीरियल, वायरल और फफूंद संक्रमणों के बीच अंतर नहीं कर पाते और यह नहीं जानते कि एंटीबायोटिक्स केवल बैक्टीरिया संक्रमणों के लिए प्रभावी होती हैं।
समझ की इसी कमी के कारण एंटीबायोटिक्स का गलत उपयोग होता है; जैसा कि मेडिकल स्टोर पर हम अक्सर लोगों को एंटीबायोटिक्स मांगते देखते हैं। एक फार्मासिस्ट ने बताया कि जो रोगी खुद से दवा लेने आते हैं, वे सीधे एंटीबायोटिक्स मांगते हैं, और यदि हम दवा नहीं देते तो वे बहस करने लगते हैं। कभी-कभी तो लोग पुरानी पर्ची लेकर दवाइयां खरीदने आते हैं।
लोग अक्सर मानते हैं कि एंटीबायोटिक्स लेने से वे जल्दी ठीक हो जाएंगे, और जल्दी काम पर लौट पाएंगे जिससे वेतन की हानि कम होगी। यह गलतफहमी पढ़े-लिखे और अनपढ़, दोनों तरह के लोगों में समान रूप से होती है। एक अंतर्राष्ट्रीय गैर-सरकारी संगठन में काम करने वाले व्यक्ति ने कहा, “मुझे सर्दी-खांसी हो गई थी… (मैंने एंटीबायोटिक्स लीं) मेरे पास कोई और विकल्प नहीं था। मैं दिवाली पर बीमार नहीं पड़ सकता था।” इस सोच के चलते लोग डॉक्टरों से एंटीबायोटिक्स मांगते हैं और यदि उनकी मांग पूरी नहीं होती तो वे किसी और डॉक्टर के पास चले जाते हैं।
एक सर्जन अपने शोध कार्य के दौरान का मामला बताते हैं: “यदि मैं रोगी को समझा पाया तो वह खुश होकर वापस चला जाता है, लेकिन नहीं समझा पाया तो वह किसी और सर्जन के पास जाएगा, और फिर किसी और सर्जन के पास। आखिरकार, वह ऐसे सर्जन के पास जाएगा जो एंटीबायोटिक्स लिख देगा, और तब वह खुश हो जाएगा। इसे हम ‘डॉक्टर शॉपिंग’ कहते हैं।”
यह दर्शाता है कि लोगों को एंटीबायोटिक्स के ज़िम्मेदार उपयोग और दुरुपयोग के खतरों के बारे में शिक्षित करना कितना ज़रूरी है।
भारत में एएमआर से संघर्ष
भारत में एंटीमाइक्रोबियल प्रतिरोध से निपटने के लिए कई पहल हुई हैं। इनमें शामिल हैं: एंटीबायोटिक उपचार दिशानिर्देश बनाना और लागू करना; एंटीमाइक्रोबियल स्टुवार्डशिप प्रोग्राम (एएमएस, एंटीमाइक्रोबियल के उपयोग को बेहतर बनाने वाला प्रोग्राम) लागू करना; स्वास्थ्य पेशेवरों को एंटीबायोटिक के उचित उपयोग को लेकर शिक्षित-प्रशिक्षित करना; और एएमआर को थामने के लिए राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय योजनाएं लागू करना।
हालांकि, लगभग 80 प्रतिशत एंटीबायोटिक का उपयोग सामुदायिक स्तर पर होता है, लेकिन इन पहलों में से अधिकांश का ध्यान मुख्य रूप से अस्पतालों पर केंद्रित है। सामुदायिक स्तर पर एंटीबायोटिक उपयोग को बेहतर बनाने के लिए किसी भी हस्तक्षेप से पहले, इन समस्याओं के कारणों को समझना ज़रूरी है।
भारत में बिना पर्ची एंटीबायोटिक दवाइयां बेचने पर प्रतिबंध लगाने के लिए नियम बनाए गए हैं, जैसे शेड्यूल एच और एच1 दवाएं (केवल पर्ची पर मिलने वाली दवाएं) और स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा शुरू किया गया रेड लाइन जागरूकता अभियान। लेकिन, देश के कई हिस्सों में इन नियमों का क्रियान्वयन पर्याप्त नहीं है।
मेरी एक विदेशी सहकर्मी कुछ साल पहले भारत आई थीं। वे इस बात से हैरान थीं कि एयरपोर्ट की फार्मेसी पर एंटीबायोटिक बिना पर्ची के आसानी से मिल रही थी। जबकि उनके देश में सामुदायिक फार्मेसियों पर एंटीबायोटिक सख्त नियंत्रण में बेची जाती हैं और एंटीबायोटिक के लिए डॉक्टरी पर्ची के लिए कई दिनों तक इंतज़ार करना पड़ता है।
फार्मासिस्ट का संभावित योगदान
बतौर फार्मासिस्ट, मुझे लगता है कि एंटीबायोटिक उपयोग को बेहतर बनाने में हम कई तरीके से सक्रिय योगदान दे सकते हैं।
हमारी सबसे महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारियों में से एक है एंटीबायोटिक्स की ओवर-दी-काउंटर बिक्री (OTC Antibiotics ban) पर रोक। यह सुनिश्चित करना बहुत ज़रूरी है कि एंटीबायोटिक्स केवल पंजीकृत डॉक्टर की वैध पर्ची पर ही दी जाएं। इसके लिए पर्ची की तारीख का सत्यापन और यह सुनिश्चित करना ज़रूरी है कि पर्ची उसी व्यक्ति की है जो इसे दिखा रहा है। कई बार रोगी पुरानी पर्ची दिखाकर उन्हीं लक्षणों के लिए दोबारा एंटीबायोटिक खरीदना चाहते हैं, या परिवार के किसी अन्य सदस्य की पर्ची दिखाते हैं। ऐसे दुरुपयोग को रोकने के लिए सतर्कता अहम है।
रोगियों को एंटीबायोटिक के सही उपयोग के बारे में शिक्षित करना हमारी भूमिका का एक और महत्वपूर्ण हिस्सा है। अक्सर, फार्मासिस्ट केवल बुनियादी निर्देश देने तक ही सीमित रहते हैं, जैसे दवा भोजन से पहले लें या बाद में, खुराक की मात्रा और उपचार की अवधि। यह सब महत्वपूर्ण है, लेकिन रोगियों को एंटीबायोटिक के सही व गलत उपयोग के बारे में बताना भी उतना ही ज़रूरी है।
हमें रोगियों को समझाना चाहिए कि एंटीबायोटिक क्यों दी गई है, उसका नाम क्या है, और इसे कुछ खास खाद्य पदार्थों या दवाओं के साथ लेने से बचना चाहिए या नहीं। रोगियों को यह समझाना बहुत ज़रूरी है कि दवा का कोर्स पूरा करना ज़रूरी है, भले ही उन्हें बीच में ही अच्छा लगने लगे। साथ ही, यह भी बताना चाहिए कि एंटीबायोटिक को कभी भी दूसरों को नहीं देना चाहिए, भले ही उनके लक्षण एक जैसे क्यों न लग रहे हों।
एंटीबायोटिक के सही और तर्कसंगत उपयोग पर अपडेट रहना भी एक अहम ज़िम्मेदारी है, जिसमें क्लीनिकल फार्मासिस्ट्स को पहल करनी चाहिए। मैंने देखा है कि कुछ वरिष्ठ फार्मासिस्ट नई जानकारी अपनाने में हिचकिचाते हैं, जिससे देखभाल की गुणवत्ता पर असर पड़ता है।
चाहे हम कम्युनिटी फार्मेसी में काम करें या अस्पताल में, हमारी भूमिका सिर्फ दवा देने तक सीमित नहीं है। हम ऐसे स्थान पर हैं जहां हम एंटीबायोटिक के तर्कसंगत उपयोग को बढ़ावा देकर रोगियों के इलाज को बेहतर बना सकते हैं। अपने सहयोगियों के साथ मिलकर अच्छी प्रथाओं को साझा करना और इन्हें अलग-अलग जगहों पर लागू करने के लिए काम करना हमारे प्रयासों को और प्रभावी बना सकता है।
हमारे योगदान को पूरी तरह प्रभावी बनाने के लिए अस्पताल प्रबंधन एवं सरकारी संस्थानों से मान्यता मिलना बहुत ज़रूरी है। ऐसा समर्थन न केवल क्लीनिकल फार्मासिस्ट्स को बेहतर रोज़गार के अवसर देगा, बल्कि रोगियों की देखभाल के नतीजे भी सुधारने में मदद करेगा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://nivarana.org/article/role-of-pharmacists-antimicrobial-resistance
एक समय था जब हम अधेड़ लोग खत व अन्य पत्राचार कागज़-कलम का उपयोग करके लिखते थे और डाक से भेजा करते थे। आजकल तो ग्रीटिंग कार्ड (Greeting card) ही डाक से भेजे जाते हैं। बाकी कामों के लिए हम स्मार्टफोन (smartphone), कंप्यूटर (computer) जैसे डिजिटल उपकरणों (digital tools) का इस्तेमाल करने लगे हैं। आवेदन, संदेश(message), और जवाब भेजने के लिए इन पर हम अक्षर टाइप करते हैं और भेज देते हैं। अलबत्ता, आज के ई-युग (e-age) में भी प्राथमिक व माध्यमिक स्कूलों के बच्चे अपने सबक लिखने (note-taking), होमवर्क (homework) करने, परीक्षाओं में जवाब लिखने और निबंध (essay writing) वगैरह हाथ से ही लिखते हैं। लेकिन यह सब पूरा हो जाने के बाद वे स्मार्टफोन उठाकर दोस्तों से बातें करते हैं या व्हाट्सऐप (whatsApp) करते हैं।
साइन्टिफिक अमेरिकन (Scientific American) में चार्लोट हू का एक लेख छपा है जिसमें ऐसे कई सारे शोध पत्रों का हवाला दिया गया है जो बताते हैं कि हाथों से लिखने से मस्तिष्क (brain Activity) के कई परस्पर सम्बंधित क्षेत्र सक्रिय हो जाते हैं, जिनका सम्बंध सीखने(learning) और याददाश्त(memory) से है। मैं यहां इनमें से कुछ प्रकाशनों का ज़िक्र करूंगा। ट्रॉडेनहाइम (नॉर्वे) के टेक्नॉलॉजीविदों (technologist) के एक समूह ने शिक्षा के क्षेत्र (education research) में शोध किया है जो फ्रन्टियर्स इन सायकोलॉजी (Frontiers in Psychology) में प्रकाशित हुआ है। इस शोध पत्र में बताया गया है कि टाइपरायटिंग (tyring) की बजाय हाथ से लिखने पर मस्तिष्क में व्यापक कड़ियां जुड़ती हैं। दूसरे शब्दों में, एक ही सामग्री को टायपिंग की बजाय हाथ से लिखने पर दिमाग पर कहीं अधिक सकारात्मक असर होता है। सबसे पहले तो हाथ से लिखना न सिर्फ वर्तनी की सटीकता (spelling accuracy) में सुधार करता है बल्कि बेहतर याददाश्त और पुन:स्मरण (वापिस याद करने) में भी मदद करता है।
उक्त दल ने स्कूली बच्चों के एक समूह का अध्ययन किया था। उनके सिरों पर इलेक्ट्रॉनिक सेंसर्स (electronic sensors) लगाए गए थे और उनकी मस्तिष्क की गतिविधियों को रिकॉर्ड किया गया था। यह काम दो स्थितियों में किया गया था – एक, जब बच्चे हाथ से लिख रहे थे और दूसरा, तब जब वे कंप्यूटर का उपयोग कर रहे थे। इस तरह के इलेक्ट्रोएंसेफेलोग्राम (ईईजी) (EEG Studies) अध्ययन से पता चला कि टायपिंग की बजाय हाथों से लिखने या चित्र बनाने से मस्तिष्क में ज़्यादा गतिविधि होती है और उसमें दिमाग का ज़्यादा बड़ा क्षेत्र शामिल रहता है। अर्थात टायपिंग की बजाय लिखना दिमाग के अधिक बड़े क्षेत्र को रोशन कर देता है। जब छात्रों को एक मुश्किल शब्द पहेली दी गई (जैसे स्क्रेबल(scrabble) या वर्डल(wordle)) तब भी उनकी याददाश्त का स्तर कहीं अधिक पाया गया।
हस्तलेखन (handwriting) वर्णमाला के अक्षरों के आकार व साइज़ को पहचानने और समझने में भी मदद करता है। 30 छात्रों के साथ किए गए एक अध्ययन में, सहभागियों से कहा गया था कि वे दिए गए शब्दों को एक डिजिटल कलम (digital pen) की मदद से कर्सिव ढंग से एक टच स्क्रीन (touch screen) पर भी लिख सकते हैं या कीबोर्ड (keyboard) की सहायता से टाइप भी कर सकते हैं। इस अध्ययन में भी हाथ से लिखे गए अक्षरों की आकृतियां व साइज़ टाइप किए गए अक्षरों से बेहतर थी।
जिन भाषाओं में वर्णमाला अंग्रेज़ी से भिन्न होती है (जैसे मध्य पूर्व, सुदूर पूर्व या कुछ भारतीय भाषाओं (Indian Languages) की) उन्हें भी हाथों से कहीं अधिक आसानी से लिखा जा सकता है और वे अधिकांश व्यावसायिक तौर पर उपलब्ध कंप्यूटर पर सरलता से उपलब्ध नहीं होतीं।
भारत के अधिकांश स्कूलों में प्राथमिक से लेकर कक्षा 10 तक शिक्षण का माध्यम स्थानीय भाषा (local language) होती है। अंग्रेज़ी एक अतिरिक्त भाषा (secondary language) के रूप में सेकंडरी स्कूल से पढ़ाई जाती है। अलबत्ता, बच्चे इससे पहले ही मोबाइल फोन (mobile phone) का इस्तेमाल करने लगते हैं, जिनमें अंग्रेज़ी वर्णमाला होती है। कई भारतीय भाषाओं में अनोखे अक्षर होते हैं जो अंग्रेज़ी वर्णमाला में नहीं होते (जैसे तमिल व मलयालम में ழ और ഴ जिन्हें अंग्रेज़ी में लगभग ‘zha’ के रूप में लिखा जाता है।
इसी प्रकार से कई उर्दू/अरबी शब्द (urdu/ Arabic words), जिनका उपयोग हिंदी में किया जाता है, भी कीबोर्ड पर टाइप नहीं किए जा सकते। और जब भारत में हम लोग कुछ लिखने के लिए मोबाइल फोन या कंप्यूटर का इस्तेमाल करते हैं, तो हमें कठिनाई होती है क्योंकि इन उपकरणों पर सिर्फ अंग्रेज़ी वर्णमाला होती है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://th-i.thgim.com/public/incoming/9zarur/article68981988.ece/alternates/LANDSCAPE_1200/IMG_15epbs_journal_2_1_QUC8DVRE.jpg
दुनिया भर में लगभग साढ़े चार करोड़ बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। दुनिया के कुल कुपोषित बच्चों में से एक-तिहाई भारत में रहते हैं। सरकारें तथा कई संस्थाएं इस समस्या से जूझने के प्रयास में लगे हैं। फिलहाल, किया यह जाता है कि कुपोषित बच्चों को विशेष खुराक दी जाती है जिसमें दूध पावडर, मूंगफली का चूरा, मक्खन, तेल और शकर का मिश्रण होता है। इस तैयारशुदा मिश्रण के सेवन से कुपोषित बच्चों का वज़न तो बढ़ता है लेकिन उनमें दीर्घावधि अभाव के खतरे बने रहते हैं। इनमें कद न बढ़ना, प्रतिरक्षा तंत्र की कमज़ोरी तथा तंत्रिका तंत्र के विकास में बाधाएं शामिल हैं।
एक हालिया अध्ययन का निष्कर्ष है कि यदि कुपोषित बच्चों के आहार में ऐसा भोजन शामिल किया जाए जो उनकी आंतों के सूक्ष्मजीव संसार को समृद्ध कर सके तो इससे बहुत लाभ मिल सकता है।
इस अध्ययन की प्रेरणा दरअसल वॉशिंगटन विश्वविद्यालय के सूक्ष्मजीव संसार (माइक्रोबायोम) विशेषज्ञ जेफ्री गॉर्डन तथा बांग्लादेश स्थित अंतर्राष्ट्रीय अतिसार रोग केंद्र के निदेशक व बालपन कुपोषण के विशेषज्ञ तहमीद अहमद के प्रयोगों से मिली थी। करीब 10 साल पहले गॉर्डन और तहमीद ने दर्शाया था कि भोजन की अत्यधिक कमी का असर शिशुओं की आंतों के सूक्ष्मजीव संसार के समुचित विकास पर भी होता है। ऐसे कुपोषित बच्चों में वे बैक्टीरिया तो पाए जाते हैं, जो नवजात शिशुओं में होते हैं लेकिन वे ऐसे बैक्टीरिया हासिल नहीं कर पाते हैं जो सामान्य बड़े बच्चों में होते हैं। इसके बाद इन शोधकर्ताओं ने इसके परिणामों का अध्ययन किया।
यह देखा गया कि ‘कीटाणु-रहित’ चूहों को कुपोषित बच्चों की आंतों से प्राप्त माइक्रोबायोम दिया गया तो इन चूहों की मांसपेशियों और प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया का विकास उन चूहों की अपेक्षा कम हुआ जिन्हें स्वस्थ बच्चों का माइक्रोबायोम दिया गया था। कीटाणु-रहित चूहों की आंतों में कोई भी सूक्ष्मजीव नहीं होते हैं। निष्कर्ष यह था कि माइक्रोबायोम शायद कुपोषण के प्रभावों को कम कर सकता है।
गॉर्डन-अहमद की टीम ने ऐसे खाद्य पदार्थों की पहचान की जो आंतों में सामान्य सूक्ष्मजीव संसार के सामान्य विकास में मदद करते हैं और बांग्लादेश में आसानी से उपलब्ध हैं – जैसे चना, केला, सोयाबीन व मूंगफली का आटा। झुग्गियों में रहने वाले 118 मध्यम स्तर के कुपोषित बच्चों (उम्र 12-18 माह) पर इन पूरक पदार्थों का परीक्षण किया गया। दीन्यूइंगलैंडजर्नलऑफमेडिसिन में प्रकाशित इस अध्ययन की रिपोर्ट में बताया गया है कि इन बच्चों को तीन माह तक यह उपचार दिया गया और फिर एक महीने बाद जांच की गई। पता चला कि सामान्य पूरक आहार की बजाय नया पूरक आहार लेने वाले बच्चों में वज़न अधिक तेज़ी से बढ़ा और इसका लाभदायक प्रभाव उनके खून के 700 प्रोटीन्स पर देखा गया जबकि सामान्य पूरक आहार वाले बच्चों में ऐसा असर मात्र 82 प्रोटीन्स पर हुआ था। दो साल बाद फिर से की गई जांच में कई अन्य लाभ भी नज़र आए।
अब साइंसट्रांसलेशनमेडिसिन में जो अध्ययन प्रकाशित हुआ है उसमें गंभीर रूप से कुपोषित 12-18 माह के 124 बच्चों को शामिल किया गया था। पहले तो उन्हें भोजन दिया गया और किसी भी संक्रमण या दस्त के लिए इलाज किया गया ताकि वे गंभीर स्तर से मध्यम स्तर के कुपोषित की श्रेणी में आ जाएं। इसके बाद तीन माह तक आधे बच्चों को मानक पूरक आहार दिया गया जबकि बाकी आधे बच्चों को सूक्ष्मजीव संसार उन्मुखी आहार दिया गया। पता चला दूसरे समूह के बच्चों का वज़न अपेक्षाकृत तेज़ी से बढ़ा और उनके खून में ऐसे प्रोटीन्स की सांद्रता भी अधिक थी जो कंकाल, मांसपेशियों और मस्तिष्क के विकास को बढ़ावा देते हैं।
अब, शोधकर्ता यह समझने की कोशिश कर रहे हैं कि यह उपचार काम कैसे करता है। जैसे उपचार के दौरान लिए गए मल के नमूनों में डीएनए व आरएनए का विश्लेषण करके वे बच्चों की आंतों में सूक्ष्मजीव संसार के परिवर्तनों को समझ पाएंगे। पिछले वर्ष नेचर में प्रकाशित एक पर्चे में उन्होंने बताया था कि 75 सूक्ष्मजीवी प्रजातियों की संख्या में भरपूर वृद्धि हुई थी। इनमें एक बैक्टीरिया प्रेवोटेला कोप्री था जो ऐसे जीन्स को सक्रिय कर देता है जो पूरक आहार के कार्बोहायड्रेट के पाचन में मदद करते हैं। आगे के अध्ययनों में भी प्रेवोटेला कोप्री की भूमिका की पुष्टि हुई है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने एक ऐसा परीक्षण शुरू किया है जिसमें विभिन्न परिस्थितियों में इस तरीके का असर परखा जाएगा। साल 2025 में पूरे होने वाले इस परीक्षण में बांग्लादेश, भारत, पाकिस्तान, माली और तंज़ानिया देश के 6360 बच्चों को शामिल किया जाएगा।
उम्मीद है कि इस परीक्षण के नतीजों के आधार पर कुपोषण प्रबंधन में वर्तमान आहार की बजाय माइक्रोबायोम-उन्मुखी आहार को शामिल करने का मार्ग प्रशस्त होगा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.nuflowerfoods.com/wp-content/uploads/2024/09/CHILDHOOD-NUTRITION.jpg
अफ्रीका में मलेरिया से गंभीर रूप से पीड़ित बच्चों में इलाज के लिए उपयोग की जाने वाली एक मुख्य दवा, आर्टेमिसिनिन, के प्रतिरोध का पता चला है। यह खोज चिंताजनक है क्योंकि दुनिया में मलेरिया से होने वाली मौतों में से 95 प्रतिशत अफ्रीका में होती हैं, और इनमें भी सबसे अधिक प्रभावित बच्चे होते हैं।
गौरतलब है कि आर्टेमिसिनिन मलेरिया के इलाज में अहम है। हल्के मामलों में इसे एक अन्य दवा के साथ दिया जाता है, जिसे आर्टेमिसिनिन-आधारित संयोजन उपचार (ACTs) कहा जाता है। गंभीर मामलों में, आर्टेसुनेट (तेज़ी से असर करने वाली आर्टेमिसिनिन) को शिराओं में इंजेक्शन के माध्यम से दिया जाता है, और इसके बाद ACT दिया जाता है। यह उपचार खासकर बच्चों के लिए जीवनरक्षक है।
लेकिन युगांडा के जिन्जा में किए गए एक अध्ययन में गंभीर मलेरिया से पीड़ित 10 प्रतिशत बच्चों में आर्टेमिसिनिन के प्रति आंशिक प्रतिरोध का पता चला है। इसका मतलब है कि यह दवा मलेरिया परजीवी (प्लाज़्मोडियमफैल्सिपेरम) को उम्मीद से अधिक समय में खत्म करती है।
6 महीने से 12 साल की आयु के गंभीर मलेरिया से पीड़ित 100 बच्चों पर किए गए अध्ययन में 11 बच्चों में आर्टेमिसिनिन के प्रति आंशिक प्रतिरोध देखा गया। वहीं 10 बच्चों में इलाज पूरा होने के बाद दोबारा संक्रमण हुआ, जिससे सहयोगी दवा लुमेफैंट्रिन की प्रभाविता पर सवाल खड़े होते हैं।
जेनेटिक विश्लेषण से पता चला कि परजीवी में कुछ विशेष म्यूटेशन आर्टेमिसिनिन के धीमे प्रभाव के लिए ज़िम्मेदार हैं। हालांकि, कुछ मामलों में संक्रमण के दोबारा होने से लुमेफैंट्रिन के प्रति प्रतिरोध की संभावना भी नज़र आई, जिसके लिए अधिक गहराई से जांच की ज़रूरत है।
आर्टेमिसिनिन के आंशिक प्रतिरोध का मामला 2000 के दशक में दक्षिण-पूर्व एशिया में पता चला था, और तभी से यह वैश्विक चिंता का विषय बना हुआ है। हालांकि अध्ययन में शामिल सभी बच्चे ठीक हो गए, लेकिन परजीवी को खत्म करने में देरी गंभीर मामलों में मृत्यु दर बढ़ा सकती है। विशेषज्ञों को डर है कि अफ्रीका, जहां मलेरिया सबसे अधिक है, में बढ़ता यह प्रतिरोध वैश्विक मलेरिया नियंत्रण प्रयासों को बाधित कर सकता है और दशकों की मेहनत पर पानी फेर सकता है।
तोआगेक्याकियाजाए?
1. अधिक शोध: इन निष्कर्षों की पुष्टि और संयोजक दवा प्रतिरोध की भूमिका को समझने के लिए अधिक शोध आवश्यक हैं।
2. उपचार दिशा-निर्देशों को अद्यतन करना: यदि प्रतिरोध फैलता है तो वैकल्पिक उपचार या नई दवाओं के संयोजन की ज़रूरत होगी। 3. मज़बूत निगरानी: प्रतिरोध के पैटर्न को ट्रैक करने और त्वरित कार्रवाई के लिए उचित निगरानी की आवश्यकता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://media.nature.com/w400/magazine-assets/d41586-024-03672-z/d41586-024-03672-z_19736300.jpg
दीवाली का त्यौहार गुज़रे करीब एक महीना हो गया है। हमारे सभी त्यौहार हमें खुशी-उल्लास देते हैं, लेकिन हमारा दीपों का यह त्यौहार साथ में बहुत ज़्यादा शोर भी देता है। सल्फर डाईऑक्साइड जैसे हानिकारक उत्सर्जन को कम करने और पटाखे फोड़ने पर होने वाले शोर को कम करने के लिए ग्रीन पटाखों का इस्तेमाल करने की लगातार अपील की जाती है। इन्हें सुप्रीम कोर्ट ने विस्तृत निर्देशों, जैसे लड़ियों वाले पटाखों के निर्माण और बिक्री पर प्रतिबंध, के ज़रिए अनिवार्य किया है। लेकिन हर साल इस त्यौहार के मौसम में पटाखों की तेज़ आवाज़ें गूंजती रहती हैं।
लोगों की चिंता पटाखों के कारण होने वाले वायु प्रदूषण पर केंद्रित रहती है, लेकिन उतनी ही चिंता की बात यह है कि बहुत तेज़ आवाज़ या धमाके हमारी सुनने की क्षमता को नुकसान पहुंचा सकते हैं। पटाखों से इतर, साल भर होने वाले शोर या ध्वनि प्रदूषण पर अन्य तरह के प्रदूषण की तुलना में कम ध्यान दिया जाता है। ऐसा लगता है कि शोर को हमारे आसपास के पर्यावरण के हिस्से के रूप में अधिक आसानी से स्वीकार कर लिया जाता है, खासकर तब जब यह शोर आप स्वयं पैदा कर रहे हों।
ध्वनि तरंगों के माध्यम से आगे बढ़ती है। इन तरंगों में ऊर्जा होती है। जितनी अधिक ऊर्जा होगी, उतनी ही ज़्यादा तीव्र तरंग होगी और उतनी ही तेज़ आवाज़ होगी। ध्वनि की तीव्रता मापने के लिए डेसिबल (डीबी) पैमाने का इस्तेमाल किया जाता है। यह एक लघुगणकीय पैमाना है, इसलिए जब ध्वनि स्तर 10 डेसिबल बढ़ता है तो इसका मतलब होता है कि ध्वनि की तीव्रता दस गुना बढ़ गई है। डीबी पैमाने पर, मानव श्रवणशक्ति की शुरुआत 0 डीबी पर सेट की गई है। एक फुसफुसाहट की ध्वनि की माप इस पैमाने पर 30 डेसिबल आती है, और सामान्य बातचीत की ध्वनि की माप 60 डेसिबल।
तेज़ धमाके के साथ फूटने वाले पटाखे की ध्वनि तीव्रता, 10 फीट दूर मापने पर, 140 डेसिबल आती है। यह तीव्रता कान के कॉक्लिया (आंतरिक कान में एक सर्पिलाकार रचना जो ध्वनि तरंगों को विद्युत संकेतों में बदलती है) में मौजूद रोम कोशिकाओं को आसानी से नुकसान पहुंचा सकती है। कॉक्लिया कान के परदे के माध्यम से कंपन प्राप्त करता है और फिर रोम कोशिकाएं उन्हें तंत्रिका संकेतों में बदल देती हैं। इन रोम कोशिकाओं को नुकसान पहुंचने से वे ध्वनि के प्रति कम संवेदनशील हो जाती हैं। नतीजतन, रोम कोशिका द्वारा प्रतिक्रिया करने और तंत्रिका संकेतों को मस्तिष्क तक भेजने के लिए तेज़ या ऊंची आवाज़ की आवश्यकता होती है। रोम कोशिकाएं मध्यम आवाज़ के असर के बाद कुछ हद तक ठीक हो सकती हैं। लेकिन हमारी त्वचा कोशिकाओं के विपरीत, ये कोशिकाएं पुनर्जनन में असमर्थ हैं। इसलिए बार-बार होने वाले आघातों से उबरना इन कोशिकाओं के लिए मुश्किल हो सकता है। नतीजतन, लगातार तेज़ शोरगुल के कारण सुनने की क्षमता घट सकती है।
छोटे बच्चों के संवेदनशील कानों के लिए तेज़ आवाज़ें एक गंभीर खतरा हैं, क्योंकि सुनने की क्षमता में मामूली कमी भी उनकी सीखने की क्षमता को कम कर सकती है। शोर के अत्यधिक संपर्क के कारण होने वाला ध्वनि आघात अक्सर कान बजने (टिनिटस) की समस्या पैदा करता है, जिसमें कहीं कुछ आवाज़ न होने पर भी आपको कानों में सीटी बजने सी आवाज़ सुनाई देती रहती है। यह ‘सीटी की आवाज़’ क्षतिग्रस्त रोम कोशिकाओं की असामान्य विद्युत गतिविधि का संकेत है। आम तौर पर, यह आवाज़ कम हो जाती है, लेकिन लंबे समय तक लगातार शोर-शराबे के संपर्क में रहने से यह आपके जीवन का स्थायी लक्षण बन सकती है। बेशक, टिनिटस बुज़ुर्गों को भी हो सकता है, जो उम्र से सम्बंधित क्षति के कारण पैदा होता है।
लंबे समय तक मध्यम-तीव्रता वाली आवाज़ों (शोरगुल) के संपर्क में रहने से भी सुनने की क्षमता ठीक वैसे ही कम हो सकती है, जैसे तेज़ आवाज़ें सुनने से होती है। भारतीय शहरों की सड़कों पर यातायात का शोर एक दिन में 60 से 102 डेसिबल तक मापा गया है। साल 2008 में इंडियनजर्नलऑफऑक्यूपेशनलएंडएनवायरनमेंटलमेडिसिन में हैदराबाद शहर के यातायात पुलिसकर्मियों पर किया गया एक अध्ययन प्रकाशित हुआ था। अध्ययन में पांच साल की सेवा के बाद सभी ट्रैफिक पुलिसकर्मियों में सुनने की क्षमता में कमी पाई गई थी, ऐसे ही नतीजे सुब्रतो नंदी और सारंग धात्रक को भारत में व्यावसायिक शोर पर किए गए सर्वेक्षण में मिले थे।
इयरप्लग जैसे निवारक उपाय सुनने की क्षमता में कमी के जोखिम को कम करने में मदद करते हैं। निर्माण उद्योग जैसे कुछ पेशों में ज़रूरत के अनुसार इयरप्लग अपनाए जा रहे हैं, लेकिन इसे और अधिक व्यापक बनाने की ज़रूरत है। शायद, ग्रीन पटाखों के चलन में आने के पहले ही, त्यौहार की रातों में इयरप्लग पहनना एक आम दृश्य बन जाएगा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://th-i.thgim.com/public/incoming/5lhhr0/article68932329.ece/alternates/LANDSCAPE_1200/31102024_Deepavali%20Festival%2006.jpg