खुशबुएं ऑक्सीकरण कवच कमज़ोर कर सकती हैं

खुशबूएं हमारे चारों ओर बिखरी हुई (fragrance) हैं। रसोई के मसालों से लेकर डीज़ल-पेट्रोल में, फूलों की बगिया से लेकर पूजा की अगरबत्ती में, डिटर्जेंट से लेकर नहाने के साबुन-शैम्पू में और डियो-परफ्यूम (perfume) से लेकर बॉडी लोशन (body lotion) तक में… और अब, इन खुशबुओं, खासकर लोशन-परफ्यूम की खुशबुओं, के बारे में एक ताज़ा अध्ययन बताता है कि खुशबुएं हमें ताज़गी देने के अलावा हमारी आसपास की हवा (indoor air quality) को भी बदल सकती हैं, और हमारे चारों ओर बने वायु कवच को कमज़ोर कर सकती हैं। हालांकि अभी यह स्पष्ट नहीं है कि इस कवच के कमज़ोर होने के फायदे हैं या नुकसान।

दरअसल हमारी त्वचा के तेल के अणु जब हमारे निकट वायु में मौजूद ओज़ोन (ozone) के संपर्क में आते हैं तो वे अत्यधिक क्रियाशील हाइड्रॉक्सिल रेडिकल्स (hydroxyl radicals) बनाते हैं। ये क्रियाशील अणु हवा में मौजूद अन्य गैसों से क्रिया करते हैं, जिससे हमारे चारों ओर रेडिकल्स की एक धुंध (कवच) (human oxidation field) सी बन जाती है। इस धुंध को मानव ऑक्सीकरण क्षेत्र कहते हैं।

लेकिन, यह सवाल था कि क्या क्रीम-पावडर हमारे आसपास की हवा को बदल सकते हैं? कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय (University of California) के रसायनज्ञ मनाबू शिराइवा और उनके सहयोगियों ने इसी बात का अध्ययन किया।

उन्होंने प्रतिभागियों के दो समूह बनाए। एक समूह के प्रतिभागियों के हाथ पर व्यावसायिक खूशबूदार क्रीम (fragranced cream) लगाया और दूसरे समूह के लोगों के शरीर के किसी भी खुले हिस्से पर बगैर खुशबू वाला लोशन (unscented lotion) लगा दिया। यह करने के बाद उन्हें एक ऐसे कमरे में 2-4 घंटे के लिए बैठाया जहां ओज़ोन का स्तर 40 पार्ट्स प्रति बिलियन (ozone 40 ppb) था। यह यूएस में प्रदूषण के मानक स्तर से कम ही था।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने कक्ष की हवा में मौजूद अणुओं की पहचान की, अनुमान लगाया कि पदार्थों का यह मिश्रण उत्पन्न करने के लिए कैसी रेडिकल अभिक्रियाएं हुई होंगी। देखा गया कि जब प्रतिभागियों ने शरीर पर लोशन या परफ्यूम लगाया था तो उनके शरीर ने कम हाइड्रॉक्सिल रेडिकल (hydroxyl radical reduction) बनाए थे। खासकर परफ्यूम (perfume effect) लगाने पर शरीर के आसपास हाइड्रॉक्सिल रेडिकल्स की सांद्रता 86 प्रतिशत तक घट गई थी।

लेकिन अभी यह देखना बाकी है कि कम हाइड्रॉक्सिल रेडिकल्स हमारे ऊपर क्या और कैसा (अच्छा या बुरा) प्रभाव डालते हैं। यदि हाइड्रॉक्सिल रेडिकल्स अन्य अणुओं के साथ अभिक्रिया करके विषाक्त पदार्थ (toxic compounds) बनाते हैं तो इनका कम होना हमारे लिए फायदेमंद होगा। लेकिन यदि ये अभिक्रिया करके हमारे आसपास की खतरनाक गैसों (air pollutants) को कम करते हैं तो इनकी कमी हमारे लिए जोखिमपूर्ण (health impact) हो सकती है।

लेकिन समस्या तो यह है कि खुशबुएं सिर्फ साबुन, फिनाइल, रूमफ्रेशनर जैसी कृत्रिम चीज़ों से ही नहीं बल्कि रसोई के मसालों, फूलों वगैरह से भी फैलती (natural fragrances) है। ऐसे में फिलहाल कोई स्पष्ट सलाह देना मुनासिब नहीं है। बहरहाल, भविष्य के अध्ययनों में साबुन-शैम्पू जैसे उत्पाद शामिल किए जा सकते हैं। साथ ही यह भी देखा जा सकता है कि इन उत्पाद का यह असर कितने समय तक बना रहता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://scx2.b-cdn.net/gfx/news/hires/2025/personal-space-chemist.jpg

अमरीकी बच्चों की सेहत पर ‘महा’ रिपोर्ट

मेक अमेरिका हेल्दी अगैन (महा – MAHA) आयोग ने हाल ही में अमरीकी बच्चों की सेहत को लेकर एक रिपोर्ट जारी की है। रिपोर्ट में अमरीकी बच्चों में तेज़ी से बढ़ते जीर्ण रोगों (chronic diseases in children, US child health crisis) पर चिंता व्यक्त की गई है।

आयोग ने कहा है कि अमेरिका में बच्चों की सेहत पर सर्वाधिक असर अल्ट्रा-प्रोसेस्ड खानपान (ultra-processed food), हवा, पानी व भोजन के ज़रिए रसायनों से संपर्क (chemical exposure in kids), सुस्त जीवन शैली, मोबाइल-लैपटॉप स्क्रीन पर बिताए गए समय और चिकित्सकीय हस्तक्षेप के अतिरेक का हुआ है। रिपोर्ट में कहा गया है कि स्वास्थ्य सम्बंधी अधिकांश शोध फिलहाल कॉर्पोरेट प्रभाव (corporate influence in health research) में किया जा रहा है जिसे बदलने की ज़रूरत है। रिपोर्ट में खुलासा हुआ है कि 2020 की आहार सम्बंधी सलाहकार समिति में 95 प्रतिशत सदस्यों के कॉर्पोरेट विश्व के साथ वित्तीय सम्बंध थे।

रिपोर्ट में कहा गया है कि 1970 के दशक के बाद बचपन में मोटापे की स्थिति में तीन गुना वृद्धि हुई है (childhood obesity in USA) और आज साढ़े तीन लाख से ज़्यादा बच्चे मधुमेह (childhood diabetes rates) से पीड़ित हैं। तंत्रिका विकास सम्बंधी विकार बढ़ रहे हैं, और हर 31 में से 1 बच्चा ऑटिज़्म (autism in children) से प्रभावित है। वर्ष 2022 में हर 4 में से 1 किशोर लड़की में अवसाद (teen depression in girls) की घटना हुई थी। आश्चर्यजनक खुलासा यह किया गया है कि फिलहाल किशोरों में मृत्यु का दूसरा सबसे बड़ा कारण खुदकुशी है। रिपोर्ट बताती है कि एलर्जी, आत्म-प्रतिरक्षा रोग (autoimmune diseases in children, rise in allergies) वगैरह भी तेज़ी से बढ़े हैं। और तो और, रिपोर्ट का निष्कर्ष है कि कम से कम 40 प्रतिशत अमरीकी बच्चे किसी-न-किसी एक जीर्ण तकलीफ से ग्रस्त (40% US kids chronic illness) हैं।

देखा जाए तो शायद रिपोर्ट के कई निष्कर्ष गलत नहीं हैं। लेकिन विशेषज्ञों ने इसे लेकर कई सवाल भी उठाए हैं। मज़ेदार बात यह है कि महा रिपोर्ट महज 3 माह में तैयार कर ली गई है और यही आलोचना का प्रमुख बिंदु बना है। कई विशेषज्ञों का मत है कि रिपोर्ट एआई (कृत्रिम बुद्धि) (AI-generated report controversy) द्वारा तैयार करवाई गई है। इसे लेकर कई अन्य प्रमाण भी प्रस्तुत किए गए हैं।

बहरहाल, रिपोर्ट को लेकर अन्य दिक्कतें भी सामने आई हैं। जैसे एक संस्था नॉटअस (NOTUS) द्वारा विश्लेषण पर पता चला कि इसमें कई ऐसे अध्ययनों का हवाला दिया गया है जिनका कोई अस्तित्व ही नहीं है (fake scientific citations)। कई मामलों में शोधकर्ताओं के नाम गलत दिए गए हैं, पूरा संदर्भ नहीं दिया गया है। कई शोधकर्ताओं ने स्पष्ट किया है कि उनके जिस शोध पत्र का हवाला दिया गया है, वह अस्तित्व में ही नहीं है। कई मामलों में अध्ययनों के निष्कर्षों को गलत प्रस्तुत किया गया है। जैसे आईकान स्कूल ऑफ मेडिसिन की मरिआना फिगेरो के पर्चे को इस बात के प्रमाण के रूप में उद्धरित किया गया है कि स्क्रीन पर बिताया गया समय बच्चों की नींद में गड़बड़ी पैदा करता है, हालांकि यह अध्ययन कॉलेज के छात्रों पर किया गया था और इसमें नींद का मापन शामिल नहीं (misinterpretation of research) था।

विशेषज्ञों का मत है कि ट्रम्प सरकार एक ओर तो विज्ञान में सर्वोच्च मानक स्थापित करने की बात कर रही है, वहीं ऐसे फर्ज़ी संदर्भों, गलतबयानी वाली रिपोर्ट के आधार पर भविष्य की योजना बनाने की बात कर रही है (Trump administration health policy, science misinformation in politics)। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://taylormadeorganics.com/cdn/shop/articles/IG_post_-_2025-01-06T161003.268_520x500_c725a016-8298-4c69-bb53-01ce3dc8dfe8_550x.png?v=1738114039

जीवनरक्षक घोल (ओआरएस) ने दुनिया को बदल दिया

राधिका शर्मा

हाल ही में एक गांव में फूड पॉइज़निंग (food poisoning) हुआ। एक सामूहिक भोज में साफ-सफाई न होने की वजह से कई लोग बीमार हो गए और अगले ही दिन दर्जनों लोगों में अतिसार जैसे लक्षण दिखने लगे। इससे बच्चे और बुज़ुर्ग सबसे ज़्यादा प्रभावित हुए। कई लोगों को अस्पताल ले जाना पड़ा। लेकिन स्थानीय स्वास्थ्य केंद्र में आए अधिकतर रोगियों को पावडर का एक छोटा पैकेट दिया गया और उसे पानी में घोलकर पीने की विधि बताकर घर वापस भेज दिया गया।

आज से लगभग 50 वर्ष पूर्व ऐसा कोई भी हादसा लोगों में दहशत और हताशा फैला देता था। उस समय अतिसार (diarrhea in children) से विश्व में हर वर्ष 50 लाख बच्चों की मौतें होती थीं। हालांकि इलाज पर शोध चल रहा था, पर केवल एक ही कारगर इलाज उपलब्ध था – इंट्रावीनस पुनर्जलन (सलाइन चढ़ाना – IV rehydration for diarrhea)। यह तरीका महंगा था और गिने-चुने अस्पतालों में ही उपलब्ध होता था, खासकर गरीब और दूर-दराज़ के इलाकों के लिए तो यह नामुमकिन था। इस स्थिति में लोग गाजर का सूप, कैरब का आटा, सूखे केले, और यहां तक कि भूखे रहने जैसे घरेलू इलाज आज़माते थे। लेकिन इनसे कोई खास फायदा नहीं होता था।

इनमें सबसे डरावना संक्रमण था ‘ब्लू डेथ’ यानी हैजा (cholera outbreak history)। यह बीमारी बहुत तेज़ी से फैलती थी और कुछ ही दिनों में पूरे गांव-शहर को तबाह कर सकती थी। 1971 के भारत-बांग्लादेश युद्ध के बाद, जब शरणार्थी शिविरों में साफ पानी और शौचालय जैसी बुनियादी सुविधाएं नहीं थीं, तब वहां हैजा फैला। डॉक्टर दिलीप महलनोबीस उस समय सीमा के पास एक अस्थायी अस्पताल चला रहे थे।

बीमारी फैलने के पश्चात जल्दी ही अस्पताल में सलाइन (आईवी ड्रिप) खत्म हो गई। पर्याप्त उपकरण और प्रशिक्षित लोगों के अभाव में डॉ. महलनोबीस ने एक अलग रास्ता चुना। उनकी टीम ने नमक और ग्लूकोज़ के मिश्रण के पाउच बनाए और मरीज़ों को दिए। साथ ही उन्होंने मरीज़ के परिजनों को सिखाया कि इसे पानी में कैसे घोलना है और मरीज़ को पिलाना है। उन्होंने हैजा की चपेट में आए दूसरे इलाकों में भी यह विधि साझा की।

इसके परिणाम हैरतअंगेज़ थे; जहां पहले हैजा से 30 प्रतिशत मरीज़ों की मौत हो जाती थी, वहीं इस साधारण घोल से यह दर घटकर 3.6 प्रतिशत रह गई। डॉ. महलनोबीस का छोटे स्तर पर किया गया यह प्रयोग, जल्दी ही दुनिया भर में चर्चा का विषय बन गया। इसने मौजूदा अनुसंधानों को नया जीवन दे दिया। दुनिया भर के डॉक्टरों ने इस विचार को अपनाया और 1978 में जीवन रक्षक घोल यानी ओआरएस (ORS invention story) को विश्व स्वास्थ्य संगठन के डायरिया नियंत्रण कार्यक्रम (WHO rehydration therapy) का एक अहम हिस्सा बना दिया गया। आज युनिसेफ हर साल लगभग 10 करोड़ ओआरएस के पैकेट बांटता है।

एक चमत्कारी उपाय

पचास साल बाद भी ओआरएस (ORS benefits) एक बेहतरीन जनस्वास्थ्य उपाय बना हुआ है। यह आसानी से उपलब्ध है, सस्ता है, इसे थोड़ा-सा प्रशिक्षण लेकर कोई भी इस्तेमाल कर सकता है, और समुदाय में इसे आसानी से स्वीकार भी किया जाता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन इसका एक मानक फॉर्मूला बनाए रखता है और ज़रूरत के अनुसार उसमें बदलाव करता रहता है। इसकी सबसे बड़ी खासियत यह है कि इसे कम संसाधनों वाले क्षेत्रों में भी सही दिशा-निर्देशों के साथ आसानी से बनाया और इस्तेमाल किया जा सकता है। महंगे इलाज की तुलना में ओआरएस (affordable dehydration treatment) बहुत सस्ता पड़ता है – यह मरीज़ों के लिए भी किफायती है और सरकारी स्वास्थ्य बजट पर भी कम बोझ डालता है।

प्रशिक्षित सामुदायिक स्वास्थ्यकर्मी माता-पिता और देखभाल करने वालों को आसानी से इसकी जानकारी दे सकते हैं। घर पर देखभाल के ज़रिए, अगर शुरुआती लक्षणों को पहचान लिया जाए, तो एक व्यवस्थित और ज़मीनी स्तर (community health intervention) से स्वास्थ्य सेवा दी जा सकती है। ओआरएस का इस्तेमाल आसान है, जोखिम लगभग न के बराबर है, इसलिए आम लोगों के लिए यह बेहद उपयोगी और सहज उपाय है।

ओआरएस का असर साफ दिखाई देता है। शुरुआती आशंकाओं के बावजूद यह एक बड़ी स्वास्थ्य समस्या का बेहद सरल और प्रभावी समाधान है। पांच वर्ष से छोटे बच्चों की मौतों में 32 प्रतिशत की कमी का श्रेय ओआरएस को जाता है। इसके साथ ही अतिसार की वजह से अस्पताल में भर्ती होने वाले मामलों में भी गिरावट देखी गई है। ओआरएस का उपयोग (ORS for diarrhea and malnutrition) अचानक होने वाले अतिसार के इलाज के लिए तो सुस्थापित है ही, यह कुपोषण के इलाज में भी बेहद महत्वपूर्ण है क्योंकि लंबे समय तक अतिसार का कुपोषण से गहरा सम्बंध है।

ऐसा माना जाता है कि ओआरएस ने दुनिया भर में 5 करोड़ बच्चों की जान बचाई है। अगर ओआरएस का उपयोग सभी ज़रूरतमंद लोगों तक पहुंच जाए, तो अतिसार से होने वाली 93 प्रतिशत मौतों को रोका जा सकता है।

रुकावटें

ओआरएस एक असरदार इलाज है। देश में बढ़ते तापमान और ग्रीष्म लहरों (heatwave and dehydration) के मद्देनज़र इसकी भूमिका और भी महत्वपूर्ण है, फिर भी इसके उपयोग में कई रुकावटें हैं। वर्ष 2012 में भारत में केवल 22 प्रतिशत लोगों तक ही ओआरएस की पहुंच थी। कई स्वास्थ्य अभियानों के बाद 2016 तक यह 48 प्रतिशत हो गई, लेकिन अभी भी मंज़िल दूर है।

दूसरी समस्या यह है कि लोग – चाहे डॉक्टर हों या मरीज़ – ओआरएस की प्रभावशीलता को कम आंकते हैं। इसलिए, जब केवल ओआरएस और ज़िंक से इलाज संभव होता है, तब भी कई बार गैर-ज़रूरी एंटीबायोटिक दवाइयां (antibiotic misuse in diarrhea) दी जाती हैं। इससे ना सिर्फ ओआरएस के फायदे अनदेखे रह जाते हैं, बल्कि दवा-प्रतिरोधी बैक्टीरिया भी बढ़ते हैं, जो भविष्य में और बड़ी समस्याएं पैदा कर सकते हैं।

ओआरएस को कैसे और कितनी मात्रा में इस्तेमाल करना है, इसकी जानकारी न होना एक और बड़ी चुनौती है। नतीजा यह होता है कि देखभाल करने वालों को अधूरी सलाह मिलती है। घर पर इलाज तभी सफल हो सकता है जब जानकारी सही और पूरी हो। इसके लिए केवल एक बार प्रशिक्षण देना काफी नहीं है, समय-समय पर पुनः प्रशिक्षण भी ज़रूरी होते हैं, ताकि समुदाय में एक सक्षम स्वास्थ्य कार्यकर्ता समूह बना रहे।

ओआरएस के उपयोग में सरकारी और निजी स्वास्थ्य तंत्रों के बीच भी अंतर (public vs private healthcare India) देखने को मिलता है। आंकड़े बताते हैं कि समय के साथ, निजी अस्पतालों में आने वाले मरीज़ों में ओआरएस का उपयोग घटा है। इसका एक कारण यह हो सकता है कि भले ही निजी डॉक्टर ओआरएस लेने की सलाह देते हैं, लेकिन अक्सर वे अपने क्लीनिक या अस्पताल में इसे उपलब्ध नहीं कराते। साथ ही, जब आम लोग ओआरएस के फायदों को कम आंकते हैं, तो वे उसे लेना ज़रूरी नहीं समझते। इसके विपरीत, सरकारी स्वास्थ्य केंद्रों में अक्सर ओआरएस के पैकेट वहीं दे दिए जाते हैं, जिससे उनका उपयोग बढ़ता है।

इसके अलावा, सरकार आम तौर पर बच्चों को ही ओआरएस देने पर ध्यान केंद्रित करती है। ऐसा इसलिए है क्योंकि पहले अतिसार से होने वाली मौतें ज़्यादातर 5 साल से छोटे बच्चों में होती थीं। लेकिन अब जैसे-जैसे अतिसार से होने वाली मौतें कम हो रही हैं और लोगों की औसत उम्र बढ़ रही है, वैसे-वैसे बुजुर्गों में भी अतिसार से मृत्यु का खतरा बढ़ गया है। ऊपर से, जलवायु परिवर्तन और गर्मी से जुड़ी बीमारियों (climate change and health risk) के चलते अब ओआरएस सभी उम्र के लोगों के लिए ज़रूरी हो गया है। लिहाज़ा, ओआरएस के बारे में जानकारी सिर्फ बच्चों के इलाज तक सीमित नहीं रहनी चाहिए, बल्कि सभी उम्र के लोगों के लिए इसके बारे में बताया जाना चाहिए।

बहरहाल, इन कठिनाइयों के बावजूद, ओआरएस ने निर्जलीकरण (dehydration) के इलाज (dehydration remedy) में एक क्रांति ला दी है। शोधकर्ता इसे और बेहतर बनाने में जुटे हैं। लेकिन जब तक नए और बेहतर समाधान नहीं आते, हमें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि ओआरएस अधिक से अधिक लोगों की पहुंच में हो और वे इसका सही उपयोग समझें। यह भी याद रखना चाहिए कि सबसे महंगा या हाईटेक इलाज (low-cost vs high-tech healthcare) हमेशा सबसे अच्छा नहीं होता। आधुनिक अस्पतालों और इलाज की चमक-दमक के बीच, कभी-कभी आसान और सस्ता तरीका ही सबसे असरदार होता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://nivarana.org/article/the-humble-hero-how-oral-rehydration-solution-quietly-changed-the-world

संतुलित आहार, स्वस्थ बुढ़ापा

डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

मय के साथ पूरी दुनिया में बुज़ुर्गों की आबादी बढ़ी है। और तो और, इनमें से 80 प्रतिशत से अधिक बुज़ुर्ग कम से कम एक जीर्ण स्वास्थ्य समस्या (Chronic Health Conditions) से पीड़ित हैं। यू.एस. सेंटर फॉर डिसीज़ कंट्रोल और विश्व स्वास्थ्य संगठन का कहना है कि वैश्विक स्वास्थ्य को बढ़ावा देना एक प्राथमिकता है, और गुणवत्तापूर्ण आहार (Healthy Diet for Seniors) हार्ट-अटैक, डायबिटीज़ और समयपूर्व मृत्यु रोकने में लाभप्रद है।

स्वास्थ्य शोधकर्ता आदर्श आहार के रूप में भूमध्यसागरीय (मेडिटेरेनियन) आहार (Mediterranean Diet) को अच्छा बताते हैं। मेडिटेरेनियन आहार में मुख्यत: शाक-सब्ज़ियों, फल-फलियों और प्राकृतिक तेल आधारित खाद्य शामिल होते हैं; थोड़ी मात्रा में चिकन, अंडे, मछली वगैरह लिए जाते हैं, लेकिन लाल मांस (जैसे मटन, बीफ, पोर्क आदि) से परहेज़ किया जाता है। भूमध्यसागरीय क्षेत्रों में जो लोग इस तरह का आहार लेते हैं, वे लंबा और स्वस्थ जीवन (Healthy Aging) जीते हैं।

वास्तव में, भारत में सामान्य तौर पर जो भोजन किया जाता है वह मुख्यत: मेडिटेरेनियन आहार ही होता है: इसमें गेहूं या चावल, दाल, बहुत-सी ताज़ी सब्ज़ी/भाजी और दही/छांछ शामिल होते हैं; और मांसाहारी भोजन में थोड़ी मात्रा में अंडे और मछली भी शामिल होते हैं, लेकिन मांस बहुत कम या बिल्कुल भी नहीं होता।

इस सम्बंध में, हाल ही में दो लेखों में स्वस्थ बुढ़ापे के लिए सर्वोत्तम भोजन (Best Foods for Elderly)  के बारे में बताया गया है। नेचर पत्रिका के 3 अप्रैल के अंक में प्रकाशित एक लेख – ‘दी बेस्ट एंड वर्स्ट फूड फॉर हेल्दी एजिंग (स्वस्थ बुढ़ाने के लिए सर्वोत्तम और निकृष्टतम भोजन)’ में बताया गया है कि जो लोग फलों और शाक-भाजियों से भरपूर आहार लेते हैं उनके 70 वर्ष तक जीने की संभावना अधिक होती है, वह भी बिना किसी गंभीर शारीरिक समस्या या संज्ञानात्मक क्षति (Cognitive Decline Prevention) के। यह अध्ययन भरपूर मात्रा में फल और सब्ज़ियां खाने की सलाह एक पुख्ता अध्ययन के आधार पर देता है: आहार सम्बंधी आदतों पर 30 सालों तक चला और बड़े पैमाने पर किया गया यह अध्ययन बताता है कि अपने आहार में फाइबर (रेशेदार चीज़ें), सब्ज़ियां, फलियां, दालें अधिक खाएं और वसा युक्त आहार व मांस कम खाएं; ऐसा आहार वरिष्ठ नागरिकों को एक स्वस्थ जीवन जीने में मदद करेगा।

उपरोक्त विशाल अध्ययन नेचर मेडिसिन पत्रिका में प्रकाशित हुआ है, जिसका शीर्षक है ‘ऑप्टिमल डायटरी पैटर्न फॉर हेल्दी एजिंग (स्वस्थ बुढ़ाने के लिए इष्टतम आहार पैटर्न)’। इस अध्ययन में यू.एस., यू.के., कनाडा और डेनमार्क के स्वास्थ्य विशेषज्ञों ने दो प्रमुख अध्ययनों के डैटा का विश्लेषण किया: नर्सों का स्वास्थ्य अध्ययन (अस्पताल के कर्मचारियों और चिकित्सा पेशेवरों के स्वास्थ्य का निरीक्षण) और स्वास्थ्य पेशेवरों का फॉलो-अप अध्ययन (Health Professionals Study Data) (गंभीर बीमारियों जैसे कैंसर और हृदय सम्बंधी बीमारियों से जुड़े पुरुषों के आहार और जीवनशैली की जांच-पड़ताल करना)। इसमें कुल 70,000 महिलाओं और 30,000 पुरुषों के डैटा का विश्लेषण किया गया था।

शोधकर्ताओं ने देखा कि लंबे समय तक वनस्पति-समृद्ध आहार और साथ में थोड़ी मात्रा में जंतु-स्रोतों से प्राप्त स्वास्थकर पूरक आहार लेना किस तरह स्वस्थ बुढ़ापे से सम्बंधित है। उन्होंने आठ किस्म के स्वास्थ्यप्रद आहार पैटर्न का सम्बंध स्वस्थ बुढ़ापे से देखा है।

एक है वैकल्पिक स्वस्थ खानपान सूचकांक (healthy eating index)। इसमें एक स्कोरिंग प्रणाली के मदद से भोजन की गुणवत्ता का मूल्यांकन किया जाता है कि वह एक स्वस्थ अनुशंसित आहार (हरी सब्ज़ियां, अल्प वसा, अल्प शर्करा तथा कैंसर व उच्च रक्तचाप पैदा करने वाले आहार से परहेज़) से कितना मेल खाता है। दूसरे तरीके को वैकल्पिक भूमध्यसागरीय सूचकांक कहते हैं। यह भूमध्यसागरीय इलाके से बाहर रहने वाले बुज़ुर्गों को दीर्घकालीन स्वास्थ्य लाभ प्रदान करता है। तीसरा है उच्च-रक्तचाप निरोधक आहार प्रणाली (Dietary Approaches to Stop Hypertension – DASH)। यह मुख्यत: उच्च रक्तचाप को नियंत्रित करता है। अन्य, जैसे मेडिटेरेनियन इंटरवेंशन फॉर न्यूरोडीजनरेटिव डिले (MIND) और स्वास्थ्यप्रद वनस्पति-आधारित आहार (hPDI) भी वनस्पति-समृद्ध और पोषक तत्वों से भरपूर आहार लेने पर ज़ोर देते हैं और अत्यधिक प्रोसेस्ड खाद्यों से परहेज़ करने को कहते हैं। कुल मिलाकर, शाक-भाजी, फल-फलियों, दाल-अनाजों से भरपूर और साथ में थोड़ी मात्रा में जंतु-स्रोतों से प्राप्त आहार लंबे समय तक स्वस्थ रख सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://th-i.thgim.com/public/sci-tech/science/nvvucm/article69628449.ece/alternates/LANDSCAPE_1200/1xxodiseo-castrejon-1SPu0KT-Ejg-unsplash.jpg

टीके के बावजूद बढ़ता चिकनगुनिया का खतरा

चिकनगुनिया एक वायरस से फैलने वाली बीमारी है। यह एडीज़ मच्छर, खासकर एशियन टाइगर मच्छर (Aedes albopictus), के काटने से फैलती है जो गर्म और नम जगहों में आसानी से पनपता है। इसके लक्षणों में तेज़ बुखार, जोड़ों में सूजन, सिरदर्द और त्वचा पर चकत्ते आना शामिल हैं। ज़्यादातर लोग एक हफ्ते में ठीक हो जाते हैं, लेकिन कभी-कभी दर्द कई महीनों या सालों तक बना रह सकता है। कुछ दुर्लभ मामलों में यह बीमारी दिल या दिमाग में सूजन जैसे गंभीर हालात (chikungunya complications) पैदा कर सकती है।

चिंताजनक बात यह है कि यह बीमारी अब फिर से रीयूनियन नाम के एक द्वीप पर तेज़ी से फैल (chikungunya outbreak) रही है। लगभग 20 वर्ष पूर्व यहां चिकनगुनिया का बड़ा प्रकोप हुआ था, और अब फिर से 50,000 मामले और 12 मौतें हो चुकी हैं। यह बीमारी मॉरीशस जैसे आसपास के द्वीपों तक भी पहुंच गई है।

रीयूनियन द्वीप पर इसके दोबारा फैलने के पीछे वायरस में हुआ एक उत्परिवर्तन (virus mutation) बताया जा रहा है। यह उत्परिवर्तन 2005–06 की भीषण महामारी (2006 chikungunya epidemic) के दौरान देखा गया था, और इन बीस सालों में इस वायरस के विकसित होते जाने के बावजूद यह उत्परिवर्तन बरकरार है।

विशेषज्ञों का मानना है कि समय भी एक अहम कारण है। पिछले बड़े प्रकोप को फैले लगभग 20 साल हो गए हैं, यानी अब एक पूरी पीढ़ी है जिसने न तो वायरस का पहले सामना किया है और न ही उनके शरीर में कोई प्राकृतिक प्रतिरोधक क्षमता (lack of immunity) बनी है। इसके अलावा, द्वीप पर बड़ी संख्या में बुज़ुर्ग लोग रहते हैं (जिनमें कई युरोप से रिटायर होकर आए हैं), उनमें भी इस वायरस से लड़ने की क्षमता नहीं है।

पिछले प्रकोप की तुलना में इस बार नई बात यह है कि इसके खिलाफ अब एक टीका Ixchiq (chikungunya vaccine) मौजूद है, जिससे वायरस को रोकने की उम्मीद थी। लेकिन हाल ही में 65 साल से अधिक उम्र के लोगों में इसके कुछ खतरनाक असर दिखने के चलते बुज़ुर्गों को यह टीका देने पर फिलहाल रोक लगाई गई है, जिससे बीमारी को काबू करना मुश्किल हो गया है।

चिकनगुनिया के लिए बना यह टीका दुर्बलीकृत वायरस (live attenuated vaccine) से बनाया गया है। इसे पिछले साल कई देशों में 18 साल और उससे अधिक उम्र के लोगों के लिए मंज़ूरी मिली थी, और हाल ही में इसे 12 से 17 साल के किशोरों के लिए भी स्वीकृति मिल गई थी। रीयूनियन द्वीप पर सबसे पहले बुज़ुर्गों, जो कि सबसे अधिक खतरे में होते हैं, को यह टीका दिया भी गया। लेकिन इसके गंभीर दुष्प्रभाव सामने आने लगे।

इन घटनाओं के बाद, युरोपियन मेडिसिन एजेंसी और फ्रांस की स्वास्थ्य एजेंसी ने 65 साल और उससे ऊपर के लोगों के लिए इस टीके के उपयोग पर रोक लगा दी है। जब तक जांच पूरी नहीं हो जाती तब तक अमेरिकी एजेंसी सीडीसी (CDC guidelines) ने भी 60 से ज़्यादा उम्र वालों को टीका न देने की सलाह दी है।

इस बीच, चिकनगुनिया अब सिर्फ एक स्थानीय समस्या नहीं रह गई है। फ्रांस में हर हफ्ते करीब 100 मामले सामने आ रहे हैं, जिनमें ज़्यादातर वे लोग हैं जो रीयूनियन और मॉरिशस से छुट्टी मनाकर लौटे हैं। ऐसे ही अन्य देशों में फैलने का खतरा भी है। पहले भी ऐसा हो चुका है जब यह वायरस भारत तक फैल गया था और यहां 10 लाख से ज़्यादा लोग संक्रमित (chikungunya in India) हुए थे।

बहरहाल, कुछ संकेत मिल रहे हैं कि रीयूनियन में यह प्रकोप अब धीमा पड़ रहा है। जहां पहले प्रति सप्ताह लगभग 20,000 मामले सामने आते थे, वहीं मई की शुरुआत तक घटकर 14,000 हो गए हैं। जनवरी में महामारी घोषित किए जाने के बाद से अब तक लगभग 1,74,000 संदिग्ध मामले दर्ज किए जा चुके हैं।

यह प्रकोप हमें याद दिलाता है कि पुराने खतरे कभी भी दोबारा लौट सकते हैं, और शायद अधिक ताकतवर होकर। साथ ही, हर समाधान के साथ नई चुनौतियां भी आती हैं। आज दुनिया पहले से कहीं बेहतर तैयार है, लेकिन फिर भी किसी भी महामारी पर काबू पाने के लिए तीन चीज़ें ज़रूरी हैं: तेज़ और समय पर कार्रवाई, स्पष्ट और भरोसेमंद जानकारी और साथ ही ऐसे उपाय जो सभी, खासकर सबसे कमज़ोर लोगों की पहुंच में हों तथा सुरक्षित व असरदार हों। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.science.org/cms/10.1126/science.311.5764.1085a/asset/75ae125c-32d1-4f1a-8b9a-ba72afc6d9df/assets/graphic/1085a-1.gif

गर्भावस्था में पोषण, स्वास्थ्य व देखभाल – डॉ. पूनम विशाल ज्वैल और सुदर्शन सोलंकी

प्रजनन आयु (15-49 वर्ष) की महिलाओं में खराब पोषण (poor nutrition) के दीर्घकालिक परिणाम होते हैं। महिला के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर के अलावा, इससे कुपोषित बच्चे को जन्म देने का जोखिम भी बढ़ जाता है, जिससे कुपोषण का चक्र पीढ़ियों तक चलता रहता है।

गर्भावस्था और मातृत्व के दौरान अलग-अलग पोषण सम्बंधी ज़रूरतें होती (pregnancy nutrition requirements, prenatal care) हैं। गर्भावस्था से पहले, महिलाओं को स्वस्थ शरीर के लिए पौष्टिक और संतुलित आहार की ज़रूरत होती है। गर्भावस्था और स्तनपान के दौरान, ऊर्जा और पोषक तत्वों की ज़रूरत बढ़ जाती है।

किंतु दुनिया के कई देशों में महिलाओं की पोषण(global malnutrition in women) सम्बंधी स्थिति खराब बनी हुई है। बहुत-सी महिलाएं – विशेषकर वे जो पोषण सम्बंधी जोखिम में हैं, उन्हें वे पोषण सेवाएं नहीं मिल रही हैं जो उन्हें स्वस्थ रहने और अपने बच्चों को जीवित रहने, बढ़ने और विकसित होने का सबसे अच्छा मौका देने के लिए आवश्यक हैं।

भारत में बच्चों के बीच खराब पोषण और स्वास्थ्य परिणामों का मुख्य कारण गर्भावस्था से पहले और उसके दौरान माताओं का खराब पोषण है (child malnutrition India, maternal health and child growth)। शोध से पता चलता है कि दो साल की उम्र तक विकास में लगभग 50 प्रतिशत विफलता गर्भधारण और प्रसव के बीच घटिया पोषण के कारण होती है। इसलिए बच्चों में कुपोषण से प्रभावी ढंग से निपटने के लिए मातृ कुपोषण से निपटना महत्वपूर्ण है।

एक कुपोषित मां अनिवार्य रूप से एक कुपोषित बच्चे को जन्म देती है (malnourished mother and child)। भारत में कुपोषण की समस्या गंभीर है, और संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार, 2019-2021 के बीच 22.4 करोड़ से अधिक लोग कुपोषित थे (UN malnutrition report India); जिनमें से अधिकांश महिलाएं और बच्चे हैं। भारत में लगभग आधी महिलाओं, विशेष रूप से गर्भवती महिलाओं में कुपोषण और एनीमिया का प्रकोप देश की खाद्य सुरक्षा पर गंभीर बोझ डालता है (anemia in pregnant women, nutrition and food security India)

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS-5) भी दर्शाता है कि भारत में कुपोषण की समस्या लगातार बनी हुई है (NFHS-5 findings on nutrition)। पांच साल से कम उम्र का हर तीसरा बच्चा और देश की हर पांचवी महिला कुपोषित है, और अधिक वज़न वाली महिलाओं की संख्या बढ़कर एक चौथाई हो गई है। आधे से ज़्यादा बच्चे, किशोर और महिलाएं एनीमिया से पीड़ित हैं (anemia in adolescents and women)

गर्भावस्था के दौरान पोषण का अत्यधिक महत्व होता है, क्योंकि यह न केवल मां के स्वास्थ्य को प्रभावित करता है, बल्कि गर्भ में पल रहे शिशु के विकास और भविष्य के स्वास्थ्य पर भी गहरा असर डालता है (importance of nutrition in pregnancy, baby development during pregnancy)। संतुलित और पोषक तत्वों से भरपूर आहार गर्भवती महिला और शिशु दोनों के लिए आवश्यक है (balanced diet in pregnancy, nutrients for pregnant women)। उचित आहार योजना और स्वस्थ जीवनशैली अपनाकर गर्भवती  महिलाएं स्वस्थ गर्भावस्था और स्वस्थ शिशु के जन्म की दिशा में कदम बढ़ा सकती हैं।

ऊर्जा (Energy)

गर्भावस्था के दौरान ऊर्जा की आवश्यकता बढ़ जाती है। भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (ICMR Pregnancy guidelines) के अनुसार, गर्भ की दूसरी और तीसरी तिमाही में प्रतिदिन 350 किलो कैलोरी अतिरिक्त ऊर्जा की आवश्यकता होती है। जिसकी पूर्ति प्रत्येक भोजन में थोड़ा-थोड़ा आहार बढ़ाकर की जाती है।

प्रोटीन (Protein)

प्रोटीन गर्भाशय, स्तनों और शिशु के शरीर के ऊतकों (protein for fetal growth) के विकास के लिए आवश्यक है। आईसीएमआर के अनुसार, महिला के प्रति किलो वज़न पर पहली तिमाही में 1 ग्राम प्रतिदिन, दूसरी तिमाही में 8 ग्राम और तीसरी तिमाही में 18 से 20 ग्राम अतिरिक्त प्रोटीन की आवश्यकता होती है। दूध और पनीर, दही जैसे दुग्ध उत्पाद, अंडे, मांस, चिकन, सैल्मन मछली, दालें, नट्स वगैरह प्रोटीन के अच्छे स्रोत (sources of protein) हैं।

कैल्शियम (Calcium)

कैल्शियम शिशु की हड्डियों (baby bone health) और दांतों के विकास के लिए महत्वपूर्ण है। गर्भवती महिलाओं को प्रतिदिन 1 ग्राम अतिरिक्त  कैल्शियम की आवश्यकता होती है। दूध, दही, पनीर जैसे डेयरी उत्पाद, हरी पत्तेदार सब्जियां, सूखे मेवे. तिल के बीज इसके बढ़िया स्रोत हैं।

फोलिक एसिड (Folic acid)

फोलिक एसिड न्यूरल ट्यूब सम्बंधी दोषों (neural tube defect prevention) की रोकथाम में मदद करता है। गर्भवती महिलाओं को प्रतिदिन 600 माइक्रोग्राम फोलिक एसिड की आवश्यकता होती है। यह हरी पत्तेदार सब्ज़ियों, संतरा, केला, चना, राजमा, साबुत अनाज, दलिया वगैरह में पाया जाता है।

लौह (Iron)

गर्भावस्था के दौरान लौह की आवश्यकता बढ़ जाती है ताकि शिशु और मां दोनों के लिए हीमोग्लोबिन का उत्पादन सुनिश्चित हो सके। गर्भवती महिलाओं को प्रतिदिन 36 मिलीग्राम अतिरिक्त लौह की आवश्यकता (iron requirement during pregnancy) होती है। हरी पत्तेदार सब्ज़ियां, काले किशमिश, खुबानी, लाल मांस, चिकन, खड़े मसूर, चना, राजमा वगैरह लौह के अच्छे स्रोत (soruces of iron) हैं।

आयोडीन (Iodene)

आयोडीन शिशु के मस्तिष्क के विकास (brain development fetus) के लिए आवश्यक है। गर्भवती महिलाओं को प्रतिदिन 200-220 माइक्रोग्राम अतिरिक्त आयोडीन की आवश्यकता होती है। आयोडीन युक्त नमक, समुद्री खाद्य पदार्थ, मछली, झींगा, दुग्ध उत्पाद इसके अच्छे स्रोत (Iodene sources) हैं।

विटामिन डी (Vitamin D)

विटामिन डी कैल्शियम के अवशोषण में मदद करता है और हड्डियों के स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण है। सूर्य का प्रकाश (Sunlight for vitamin D) (प्रतिदिन सुबह या शाम की धूप में 15-20 मिनट बिताना), मछली,  सैल्मन, मैकेरल, अंडे का पीला भाग इसके बढ़िया स्रोत (sources of vitamin D) हैं।

पानी

गर्भावस्था के दौरान पर्याप्त मात्रा में पानी पीना आवश्यक (hydration during pregnancy) है। प्रतिदिन कम से कम 3 लीटर (10-12 गिलास) पानी का सेवन करें। गर्मी के मौसम में 2 गिलास अतिरिक्त पानी पीना चाहिए। थोड़े-थोड़े अंतराल पर पानी, जूस या वेजिटेबल सूप पीते रहें।

कुछ सावधानियां

– कैफीन का सेवन सीमित करें प्रतिदिन 200 मिलीग्राम से अधिक कैफीन लेने से गर्भपात और शिशु के कम वजन वाला रह जाने का खतरा बढ़ सकता है (caffeine limit in pregnancy)

– मदिरा और धूम्रपान (alcohol and smoking risks pregnancy) शिशु के विकास पर नकारात्मक प्रभाव डालते हैं।

– कच्चे या अधपके खाद्य पदार्थों (raw food in pregnancy) से बचें।

– अत्यधिक मसालेदार, तले हुए खाद्य पदार्थों और पैक्ड प्रोसेस्ड भोजन से परहेज करें (avoid processed food in pregnancy), ये अपच और एसिडिटी का कारण बन सकते हैं।

गर्भावस्था के दौरान मानसिक स्वास्थ्य का ख्याल रखना उतना ही ज़रूरी है जितना शारीरिक स्वास्थ्य का (mental and emotional health during pregnancy)। यह न केवल मां के लिए, बल्कि शिशु के विकास और भावनात्मक सेहत के लिए भी महत्वपूर्ण है। इस दौरान तनाव, चिंता और मूड स्विंग्स होना आम बात है। इन्हें सही तरीके से मैनेज करना ज़रूरी है।

भारत को सतत विकास लक्ष्य-2 (‘भूख से मुक्ति’) को प्राप्त करने और 2030 तक सभी प्रकार की भूख और कुपोषण को समाप्त करने के लिए संतुलित आहार, उचित पोषण को हर महिला व शिशु तक पहुंचाकर कुपोषण व एनीमिया की व्यापकता को समाप्त करना होगा (SDG 2 Zero Hunger, nutrition targets India 2030)। इसके लिए समुदाय में जागरूकता बढ़ाना आवश्यक है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://jammiscans.com/wp-content/uploads/2023/04/Nutrients-needed-for-pregnancy.jpg

महामारी संधि के लिए एकजुटता, अमेरिका बाहर

तीन साल की बातचीत के बाद, दुनिया के देशों ने आखिरकार एक ऐतिहासिक संधि पर सहमति जताई है, जिसका उद्देश्य भविष्य की महामारियों (pandemic treaty) के लिए बेहतर तैयारी करना है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) द्वारा समर्थित नई वैश्विक संधि, कोविड-19 (covid-19) महामारी के दौरान हुई गलतियों से सीखकर, खासकर टीकों (vaccines), दवाओं (drugs) और सूचनाओं के आदान-प्रदान को बेहतर बनाने की कोशिश है।

संधि का मुख्य उद्देश्य महामारी से निपटने के तरीकों को त्वरित और निष्पक्ष बनाना है एवं देशों को एकजुट करना है। गौरतलब है कि इस समझौते से एक महत्वपूर्ण पक्ष, यानी अमेरिका, गायब है। शुरुआती बातचीत में अहम भूमिका निभाने के बावजूद, अमेरिका ने इन वार्ताओं से दूरी बना ली है। फिर भी, अधिकांश देशों ने लोगों की भलाई के लिए समझौता वार्ता को जारी रखा। संधि की कुछ मुख्य बातें यहां दी प्रस्तुत हैं।

स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं की सुरक्षा

संधि की पहली सहमति स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को बेहतर सुरक्षा देने से सम्बंधित है। कोविड-19 संकट के दौरान, अग्रिम पंक्ति (healthcare frontline workers) के कई कार्यकर्ताओं (डॉक्टर, नर्स, लैब तकनीशियन वगैरह) को व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरणों (PPE) की गंभीर कमी का सामना करना पड़ा था। संधि में इन अग्रिम पंक्ति कार्यकर्ताओं के लिए बेहतर नीतियां बनाने की बात की गई है ताकि उन्हें सही उपकरण, प्रशिक्षण और समर्थन मिल सके। उनकी सुरक्षा महत्वपूर्ण है क्योंकि अगर स्वास्थ्य कार्यकर्ता बीमार पड़ते हैं तो पूरी स्वास्थ्य प्रणाली ठप हो जाती है।

नए टीकों दवाओं को मंज़ूरी

संधि देशों से आव्हान करती है कि नए टीकों और दवाओं के परीक्षण और मंज़ूरी प्रक्रिया को, सुरक्षा से समझौता किए बगैर, गति दें। इसका उद्देश्य वैश्विक प्रणाली को अधिक प्रभावी बनाना है ताकि जीवन रक्षक उपचार (emergency vaccine approval) लोगों तक जल्दी पहुंच सकें। इसके लिए संधि में देशों को अपनी दवा नियामक प्रणालियां मज़बूत करने का सुझाव दिया गया है।

छलकने को थामना

कई महामारियां, जैसे कोविड-19, तब शुरू हुईं जब वायरस जीवों से मनुष्यों में पहुंचे। इसे (छलकना) ‘स्पिलओवर’ कहा जाता है। संधि में ऐसे स्पिलओवर का खतरे कम करने के लिए अधिक निवेश का सुझाव है। इसमें जंतुओं में रोगों की निगरानी, वन्यजीव व्यापार पर सख्त नियंत्रण और जीवित जंतुओं के बाज़ारों में स्वच्छता और निगरानी में सुधार शामिल है।

त्वरित डैटा साझेदारी

कोविड-19 के दौरान, वायरस के नमूनों और जेनेटिक जानकारी साझा करने में देरी से टीकों और परीक्षणों के विकास में बाधा आई। संधि में देशों से नए वायरसों और बैक्टीरिया के बारे में जानकारी तुरंत और सार्वजनिक करने (real-time data sharing) की अपील की गई है, ताकि दुनिया भर के वैज्ञानिक मिलकर उपचार विकसित कर सकें।

पहुंच में समता

पिछली महामारी में, समृद्ध देशों ने ज़रूरत से ज़्यादा टीके जमा कर लिए थे, जबकि गरीब देशों को बहुत लंबा इंतज़ार करना पड़ा था। अमीर हो या गरीब, संधि सभी देशों को टीका, उपचार और निदान (vaccine quity) का उचित हिस्सा, उचित समय पर देने की बात करती है। संधि में उत्पादकों को टीकों वगैरह का एक हिस्सा आपातकालीन स्थितियों में आपूर्ति हेतु दान करने या सस्ती कीमतों पर उपलब्ध कराने के लिए प्रोत्साहित किया गया है।

इस संधि की मुख्य बात यह है कि यह कोविड-19 महामारी के अनुभव से जन्मी है। जिन देशों के पास टीका कारखाने थे, उनके पास टीकों की भरपूर खुराकें थीं, जबकि गरीब देशों को टीके मुश्किल से मिल रहे थे। यदि टीकों का समान वितरण होता तो लाखों संक्रमण और जानें बचाई जा सकती थीं। इसी समस्या के मद्देनज़र, WHO के 194 सदस्य देशों ने दिसंबर 2021 में एक वैश्विक संधि का मसौदा (draft pandemic accord) तैयार करना शुरू किया, ताकि भविष्य में ऐसी दिक्कतों से बचा जा सके।

संधि पर सहमति तक पहुंचना आसान नहीं था। वार्ता में सबसे मुश्किल मुद्दा समानता का था: यह कैसे सुनिश्चित किया जाए कि जो गरीब देश खतरनाक वायरस की जानकारी साझा करें, उन्हें उस जानकारी के आधार पर विकसित टीकों और उपचारों तक भी समान पहुंच मिले। इससे एक नया सिस्टम बना – रोगजनकों तक पहुंच व लाभों की साझेदारी (Pathogen Access and Benefit Sharing  – PABS)। इसे इस तरह समझें: अगर कोई देश नया वायरस खोजता है और उसे पूरी दुनिया वैज्ञानिकों के साथ साझा करता है तो उसे इसके खिलाफ विकसित टीकों व दवाइयों का एक उचित हिस्सा मिलना चाहिए। न सिर्फ टीके मिलना चाहिए बल्कि टीका तैयार करने की विधि भी मिलना चाहिए ताकि ऐसे देश खुद अपना टीका बना सकें।

एक और प्रमुख बहस प्रौद्योगिकी हस्तांतरण के बारे में थी। इसका उद्देश्य विकासशील देशों को अपनी खुद की दवाइयां और टीके बनाने के लिए सहायता प्रदान करना है। कई निम्न-आय वाले देशों का मानना था कि उन्हें भविष्य में महामारी के दौरान समृद्ध देशों पर निर्भर नहीं रहना चाहिए, और उन्हें खुद को आत्मनिर्भर बनाना चाहिए।

लेकिन यह कैसे हो? प्रारंभिक मसौदों में कहा गया था कि प्रौद्योगिकी “आपसी सहमति से तय शर्तों” पर साझा की जाएगी। हालांकि, कुछ समृद्ध देशों ने इसमें “स्वैच्छिक” शब्द जोड़ने की इच्छा जताई, जिसका मतलब था कि किसी भी देश को प्रौद्योगिकी साझा करने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता। गरीब देशों के लिए यह अस्वीकार्य था क्योंकि उन्हें डर था कि इससे संधि कमज़ोर हो जाएगी और भविष्य के लिए गलत मिसाल बनेगी। लंबी चर्चाओं के बाद, दोनों पक्षों ने “आपसी सहमति से तय शर्तों” शब्द को बरकरार रखा और एक फुटनोट जोड़ा, जिसमें यह स्पष्ट किया गया कि इसका मतलब “इच्छा से लिया गया” है।

संधि के अंतिम संस्करण में निर्माताओं (दवा और टीका निर्माताओं) (vaccine manufacturers commitment) ने यह संकल्प लिया है: अपने महामारी उत्पादों (टीकों, दवाइयों, नैदानिक परीक्षणों) का 10 प्रतिशत हिस्सा WHO को वैश्विक वितरण के लिए दान करेंगे; इसके अलावा, 10 प्रतिशत सस्ती कीमतों पर ज़रूरतमंद देशों को उपलब्ध कराएंगे। अगले वर्ष इन प्रतिशतों पर अंतिम सहमति बनने के बाद ही सारे देश संधि पर हस्ताक्षर करेंगे।

इस संधि में कुछ कमियां भी लगती हैं; जैसे इसमें देशों के लिए नियम नहीं हैं, यह महज़ दिशानिर्देश देती है। फिर भी, केवल तीन वर्षों में एक नया अंतर्राष्ट्रीय समझौता (international health agreement) बनाना बड़ी बात है। सामान्यत: ऐसे समझौते बनाने में ज़्यादा समय लगता है। बहरहाल, संधि के अंतिम रूप में पहुंचने और मंज़ूरी का बेसब्री से इंतज़ार है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://th-i.thgim.com/public/opinion/op-ed/sie8s2/article68003169.ece/alternates/LANDSCAPE_1200/iStock-1221761348.jpg

नई तकनीकों के रूबरू जैविक हथियार संधि

चास वर्ष पूर्व जैविक हथियारों (Bioweapons) पर रोक लगाने के लिए बायोलॉजिकल वेपन्स कन्वेंशन  (BWC) नामक संधि अपनाई गई थी (biological weapons treaty)। इसका मकसद ऐसे हथियारों को प्रतिबंधित करना था जिनमें जीवित जीवों या उनके उत्पादों, जैसे बैक्टीरिया, वायरस और विषाक्त पदार्थों को जानबूझकर किसी शत्रु या समूह को मारने या नुकसान पहुंचाने के लिए उपयोग किया जाता है (bacteria virus weaponization)।

1975 में लागू हुई यह संधि दुनिया की पहली ऐसी कोशिश थी जिसने एक वर्ग के विनाशकारी हथियारों को गैरकानूनी (WMD ban) घोषित किया। इस संधि की वजह से 20 से ज़्यादा जैविक हथियार कार्यक्रम बंद हुए – जिनमें एंथ्रेक्स, स्मॉलपॉक्स (चेचक) जैसे घातक रोग और खेती या पशुओं को नुकसान पहुंचाने वाले वायरस भी शामिल थे (anthrax, smallpox weapons ban)।

लेकिन आज का दौर कहीं ज़्यादा खतरनाक साबित हो रहा है। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) और आधुनिक तकनीकों की मदद से अब प्रयोगशाला में आसानी से ऐसे कृत्रिम वायरस बनाए जा सकते हैं (synthetic virus creation) जो पहले संभव नहीं था। और तो और, इन्हें वैज्ञानिक शोध की आड़ में छुपाया (biotech misuse) भी जा सकता है। चिंता की बात यह है कि BWC में इन नए खतरों को रोकने या पकड़ने के लिए कोई मज़बूत व्यवस्था नहीं है (BWC loopholes)।

दरअसल BWC की एक बड़ी कमज़ोरी यह है कि इसमें यह जांचने की कोई व्यवस्था ही नहीं है कि देश जैविक सुरक्षा के लिए बनाए गए नियमों का पालन (verification mechanism missing) कर रहे हैं या नहीं। न कोई औचक निरीक्षण, न पारदर्शिता, और न ही उल्लंघन पर सज़ा का प्रावधान (lack of enforcement in BWC)।

फिर, वर्तमान युग आधुनिक तकनीकों का ज़माना है। जीन संपादन, संश्लेषण जीव विज्ञान और आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस जैसी आधुनिक तकनीकों की मदद से अब खतरनाक जीवाणु और वायरस बनाना (gene editing bioweapons) पहले से कहीं आसान हो गया है। इसलिए विशेषज्ञों को डर है कि इन तकनीकों के दुरुपयोग से ऐसे जैविक हथियार बनाए जा सकते हैं जो प्राकृतिक रोगों से भी ज़्यादा संक्रामक, लाइलाज और खास समुदायों को निशाना बनाने वाले हो सकते हैं (targeted bioweapons risk)।

पहले की तरह अब बात सिर्फ देशों तक सीमित नहीं है। जैसे-जैसे जैव तकनीक सस्ती और आसान होती जा रही है, वैसे-वैसे आतंकवादी समूह या कोई भी व्यक्ति अपने मतलब के लिए इनका गलत इस्तेमाल कर सकता है (bioterrorism threats)। जो तकनीक पहले सिर्फ सरकारी प्रयोगशालाओं में थी, वो अब निजी कंपनियों और विश्वविद्यालयों में भी उपलब्ध (biotech democratization risk) है। यही बात जैव सुरक्षा विशेषज्ञों को सबसे ज़्यादा परेशान कर रही है।

हो सकता है कोई अपनी स्वार्थ-सिद्धी के लिए किसी व्यस्त बंदरगाह पर खतरनाक वायरस छोड़ दे, और बाद में पास की किसी प्रयोगशाला पर हादसे का इल्ज़ाम (biosecurity false flag attack) लगा दे। इससे जो भ्रम और डर फैलेगा वह खुद बीमारी से ज़्यादा नुकसान करेगा (public panic and misinformation)।

न्यूक्लियर थ्रेट इनिशिएटिव (NTI) जैसे कुछ संगठन इस संदर्भ में नई तकनीकों का इस्तेमाल कर रहे हैं, जैसे:

आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI biosecurity monitoring) से व्यापारिक डैटा, शोध पत्र और उपग्रह तस्वीरों की मदद से संदेहास्पद गतिविधियां पकड़ी जा सकती हैं।

डीएनए बनाने वाली कंपनियां (DNA synthesis screening) खास सॉफ्टवेयर से खतरनाक जीन्स पकड़ सकती हैं।

कुछ दवा कंपनियां निरीक्षण कार्य में मदद कर सकती हैं ताकि संधि उल्लंघन का पता लगाया जा सके (pharma compliance support)।

लेकिन ये व्यवस्थाएं भी पूरी तरह सुरक्षित नहीं हैं। मिनेसोटा युनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने दिखाया है कि कैसे सामान्य 20 के अलावा अन्य अमीनो एसिड्स से खतरनाक प्रोटीन्स बनाकर सॉफ्टवेयर को भी चकमा दिया जा सकता है (AI evasion by engineered proteins)। इससे पता चलता है कि हमारी मौजूदा सुरक्षा तकनीकों में अभी भी गंभीर खामियां (biosecurity gaps) हैं।

BWC को मज़बूत करने की कोशिशें ठप पड़ी हैं। 2024 की एक बैठक में रूस ने ज़रूरी प्रस्तावों को रोक दिया, जिससे निरीक्षण और सहयोग की योजनाएं आगे नहीं बढ़ सकीं (BWC stalemate 2024)। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि भले ही सीमित स्तर पर ही सही, निरीक्षण शुरू किए जाएं तो नियम तोड़ने वालों को हथियार छिपाना या नष्ट करना पड़ेगा। लेकिन राजनीतिक इच्छाशक्ति की अब भी कमी है (lack of political will)।

फिर भी कुछ उम्मीदें ज़रूर हैं। NTI द्वारा शुरू की गई ‘इंटरनेशनल बायोसेक्योरिटी एंड बायोसेफ्टी इनिशिएटिव फॉर साइंस’ एक वैश्विक पहल है जो जैव तकनीक को दुरुपयोग से बचाने के लिए दिशा-निर्देश और उपकरण विकसित (global biosecurity initiative) कर रही है। यह मुफ्त स्क्रीनिंग सॉफ्टवेयर उपलब्ध कराता है और डीएनए बनाने वाली कंपनियों के लिए बेहतर मानक (biosecurity software tools) तय करता है। लेकिन इस पहल को वैश्विक समर्थन की ज़रूरत है। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि नियमों का पालन करवाने के लिए शायद एकदम परिपूर्ण व्यवस्था न हो, बस इतनी सख्ती हो कि धोखाधड़ी करना बहुत भारी और महंगा पड़े (deterrence in biosecurity)। फिलहाल जैविक हथियारों को रोकने में शायद कानून नहीं बल्कि नैतिकता, डर और अंतर्राष्ट्रीय मान्यताएं काम कर रही हैं (ethics vs enforcement in bioweapons control)। लेकिन विशेषज्ञों की चेतावनी है कि सिर्फ नेक इरादों के भरोसे रहना खतरनाक है। दुनिया को अपनी जैविक सुरक्षा प्रणाली को मज़बूत करना होगा, इससे पहले कि बहुत देर हो जाए (strengthen global biosafety)। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.zah2mbg/full/_20250402_on_bioweapons-1744222271600.jpg

कटहल के स्वास्थ्य लाभ

डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

दि आम (Mango) को फलों का राजा कहा जाता है, तो कटहल (Jackfruit) को सभी फलों में डॉक्टर कहा जा सकता है। भारत और मध्य-पूर्व के लोग कटहल (Artocarpus heterophyllus) से बहुत पहले से परिचित हैं। कटहल का उपयोग आयुर्वेद (Ayurveda) और यूनानी चिकित्सा (Unani medicine) पद्धति में स्वास्थ्यवर्धक के रूप में किया जाता रहा है। तमिल में ‘पला’, बंगाली में ‘कंटहल’ और मलयालम में ‘चक्का’ कहलाने वाला कटहल (Jackfruit in India) भारत के दक्षिणी (Southern India) और पूर्वोत्तर राज्यों (Northeast India) में अधिकतर भोजन का हिस्सा है, जबकि अन्य क्षेत्रों में यह फल (fruit) की तरह अधिक खाया जाता है। मलेशिया (Malaysia) जैसे दक्षिण-पूर्वी एशियाई (Southeast Asian countries) देशों में यह प्रचुर मात्रा में पाया जाता है, और यहां से इसे मध्य पूर्व (Middle East) क्षेत्रों में निर्यात किया जाता है।

कटहल का पेड़ (Jackfruit tree) विशाल (और घना) होता है। इसके फल पेड़ की पतली शाखाओं (tree branches) पर नहीं लगते बल्कि तने (trunk) और मोटी शाखाओं के जोड़ के आसपास लगते हैं। यहां लगने से इसे बहुत बड़े आकार में बढ़ने में मदद मिलती है; केरल (Kerala) में 42 किलोग्राम (42 kg jackfruit) का एक कटहल अब तक एक रिकॉर्ड है। कटहल का पका हुआ फल (Ripe Jackfruit) मीठा और स्वादिष्ट होता है। और कच्चे कटहल (Raw Jackfruit) से कई तरह के व्यंजन बनते हैं। इसे मांस के विकल्प (meat alternative) के रूप में भी इस्तेमाल किया जाता है, क्योंकि इसमें वसा (low fat) और कोलेस्ट्रॉल (low cholesterol) कम होता है और इसका स्वाद मांस जितना अच्छा (meaty texture) होता है! कटहल बिरयानी (Jackfruit Biryani) भी एक स्वादिष्ट शाकाहारी विकल्प (vegetarian alternative) है।

इस पेड़ के कई अन्य उपयोग भी हैं। दक्षिण-पूर्व एशियाई (Southeast Asian) भिक्षु कटहल की छाल (Jackfruit tree bark) से रंगे हुए वस्त्र पहनते हैं; यह वस्त्रों को धूपिया पीला रंग (saffron-colored dye) देते हैं – कुछ-कुछ शहद के रंग (honey-colored fabric) जैसा। कटहल का यह रंग इसकी लकड़ी (Jackfruit wood) से बने फर्नीचर (furniture) को भी एक अच्छी रंगत देता है। इसकी लकड़ी मज़बूत (strong wood) और दीमक प्रतिरोधी (termite-resistant) होती है।

सुपरफूड कटहल

इन सभी खूबियों के साथ-साथ, कटहल एक सुपरफूड (superfood) के रूप में विश्वभर में लोकप्रिय हो रहा है। क्लीवलैंड युनिवर्सिटी (Cleveland University) की एक व्यापक समीक्षा बताती है कि कटहल प्रोटीन (protein), विटामिन (vitamin), खनिज (minerals) और पादप रसायनों (phytonutrients), के अलावा पोटेशियम (potassium), मैग्नीशियम (magnesium) और फॉस्फोरस (phosphorus) जैसे तत्वों से भरपूर है। ड्यूक युनिवर्सिटी (Duke University) की वेबसाइट पर वैज्ञानिक ब्रायना इलियट (Brianna Elliott) ने कटहल के पोषण सम्बंधी लाभों पर प्रकाश डाला है। वे बताती हैं कि पोषण की दृष्टि से कटहल की फांकें सेब और आम (better in nutrition than apple and mango) की तुलना में बेहतर हैं। कई संदर्भों का हवाला देते हुए वे बताती हैं कि कटहल का फल रक्त शर्करा के स्तर (blood sugar level) को नियंत्रित करता है; यकृत (liver) से लेकर अन्य अंगों में जमा वसा को घटाता (fat reduction) है; और इसमें मौजूद कैरोटीनॉइड्स (carotenoids) टाइप-2 डायबिटीज़ (Type-2 Diabetes) और हृदय रोगों (heart diseases) के जोखिम को कम करते हैं। इसमें मौजूद विटामिन ‘ए’ और ‘सी’ वायरल संक्रमण के जोखिम को कम करते हैं।

WebMed वेबसाइट भी इसके कई लाभ बताती है। इसके अनुसार, “कटहल ज़रूरी विटामिनों और खनिज से सराबोर है, विशेष रूप से यह विटामिन ‘बी’ (Vitamin B complex), पोटेशियम (potassium) और विटामिन ‘सी’ (Vitamin C) का एक अच्छा स्रोत है।” कटहल मधुमेह के रोगियों के लिए विशेष रूप से उपयोगी है। भारत में लगभग 21.5 करोड़ लोग मधुमेह (diabetes in india) से पीड़ित हैं। 2021 में, आंध्र प्रदेश (Andra Pradesh) के श्रीकाकुलम (Srikakulam) स्थित गवर्नमेंट मेडिकल कॉलेज के ए. गोपाल राव (A. Gopal Rao) और उनके साथियों ने न्यूट्रिशन एंड डायबिटीज़ जर्नल (Nutrition and diabetes journal) में एक रैंडम क्लीनिकल परीक्षण (random clinical trial) के नतीजे प्रकाशित किए हैं। इसमें बताया गया है कि कच्चे कटहल का आटा (Raw Jackfruit Flour) (जिसे कच्चे कटहल के गूदेदार हिस्से (raw jackfruit pulp) को सुखाकर, पीसकर बनाया जाता है) ग्लाइसेमिक नियंत्रण (glycemic control) में कुशल है और चावल (rice) या गेहूं (wheat) जैसे मुख्य आहार का विकल्प बन सकता है। कटहल का आटे के रूप में इस्तेमाल उत्तरी राज्यों में विशेष रूप से उपयोगी हो सकता है जहां कटहल की खेती नहीं होती। इस शोधपत्र के एक लेखक जेम्स जोसेफ एक कंपनी (jackfruit 365) चलाते हैं जो पूरे भारत में कटहल का आटा बेचती है।

कटहल (Jackfruit for health) मधुमेह रोगियों और स्वस्थ लोगों, दोनों के लिए दैनिक आहार का एक वांछनीय हिस्सा है। तो सब्ज़ी (jackfruit curry), अचार (jackfruit pickle), फल (jackfruit fruit) या आटे (jackfruit flour) किसी भी रूप में इसे इस्तेमाल करें और स्वस्थ रहें! (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://th-i.thgim.com/public/incoming/dz9a5k/article69362869.ece/alternates/LANDSCAPE_1200/IMG_30tvmp_chakka_2_1_33DTQT0A.jpg

बुलढाणा में फैली गंजेपन की समस्या

अर्पिता व्यास

पिछले दिनों महाराष्ट्र के बुलढाणा (buldhana) ज़िले के गांवों में लोगों में बालों के झड़ने (hair loss) की एक विचित्र घटना सामने आई। बुलढाणा ज़िले के शेगांव तालुका (shegaon council) में अचानक लोगों के बाल झड़ने लगे। यह महिलाओं और पुरुषों दोनों में देखा गया। गांव के लोग अटकलें लगाने लगे कि यह किसी वायरस (virus infection) की वजह से हो रहा है। तत्काल हुई जांचों में पता चला कि बोंडगांव और खातखेड़ के पानी में नाइट्रेट (nitrate contamination) काफी ज़्यादा मात्रा में है और साथ ही उसमें कुल घुलित लवण यानी TDS (Total dissolved solids) भी अधिक था। यह पता लगा कि पानी पीने के लिए सही नहीं है। यह अनुमान लगाया गया कि शायद यही बाल झड़ने का कारण हो सकता है।

लोगों में बाल झड़ने की घटनाएं बढ़ती जा रही थीं। 3 दिन में लगभग 51 व्यक्ति गंजे (sudden baldness) हो चुके थे। चिकित्सा विभाग ने उस क्षेत्र का एक सर्वे किया। त्वचा रोग विशेषज्ञ (dermatologists) भी गांव पहुंच गए। उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि बाल झड़ना एक कवक (फफूंद) के संक्रमण (fungal infection) के कारण हो रहा है जो संदूषित पानी (contaminated water) से फैल रहा है। प्रभावित लोगों ने बताया कि इसकी शुरुआत बालों की जड़ों में खुजली (itching in scalp) होने से होती है, उसके बाद बाल पतले (thinning hair) होने लगते हैं। फिर 3 दिनों में पूरे बाल झड़ जाते हैं और पूरी तरह गंजापन (complete baldness) आ जाता है। यहां तक कि दाढ़ी के बाल भी गिर जाते हैं।

हालांकि संदूषित पानी को ही कारण माना जा रहा था फिर भी जांच आगे जारी रखी गई। त्वचा और पानी के नमूने जांच के लिए भेजे गए। पानी के अत्यधिक संदूषित (highly contaminated water) होने के कारण उसका उपयोग प्रतिबंधित करके गांव वालों के लिए दूसरे स्रोतों से पानी उपलब्ध करवाया गया। अन्य स्रोत से पानी देने लगे तो लगा कि अब और मामले नहीं बढ़ेंगे लेकिन मामले तो बढ़ते ही जा रहे थे।

पूर्व में भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (ICMR – Indian Council of Medical Research) से आई टीम ने जांच में पाया था कि प्रभावित लोगों में सेलेनियम (selenium poisoning) की मात्रा अधिक है जो शायद बालों के झड़ने का कारण है। सेलेनियम राशन की दुकान से वितरित गेहूं (contaminated wheat) में अधिक पाया गया था। अलबत्ता, टीम ने पक्का निष्कर्ष नहीं दिया था कि यही बाल झड़ने का कारण है। गेहूं के नमूने जांच के लिए वारणी एनालिटिक्स लैब, ठाणे पहुंचाए गए। वहां बिना धुले गेहूं में सेलेनियम 14.52 मि.ग्रा./कि.ग्रा पाया गया और धुले हुए गेहूं में 13.61 मि.ग्रा./कि.ग्रा जबकि गेहूं में सेलेनियम की सामान्य मात्रा 0.1 से 1.9 मि.ग्रा./कि.ग्रा होती है। यानी इस गेहूं में सेलेनियम की मात्रा सामान्य अधिकतम मात्रा से 8 गुना अधिक थी। राशन के गेहूं के पैकेट्स को चेक किया गया तो देखा कि ये पंजाब से आए थे। Text Box: बालों का झड़ना
बालों का असामान्य रूप से झड़ना एलोपेशिया कहलाता है। यह सिर या पूरे शरीर पर हो सकता है। यह अल्पकालिक या फिर हमेशा के लिए भी हो सकता है। एलोपेशिया का शिकार कोई भी हो सकता है, लेकिन यह पुरुषों में ज़्यादा आम है। 
एलोपेशिया के कारण 
हार्मोन में बदलाव -  कुपोषण (विटामिन और मिनरल की कमी), कोई एन्डोक्राइन रोग, बर्थ कंट्रोल दवाइयों का बंद या शुरू करना, गंभीर संक्रमण या किसी दवाई के साइड इफेक्ट से ऐसी स्थिति बन सकती है। 
मेडिकल अवस्था - व्यक्ति का प्रतिरक्षा तंत्र बालों की जड़ों पर हमला कर देता है और बाल झड़ने लगते है; रेडिएशन या कीमोथेरपी के कारण बाल झड़ते हैं लेकिन ट्रीटमेंट खत्म होने पर बाल वापस आ जाते हैं; शारीरिक या मानसिक आघात की वजह से बाल झड़ सकते हैं; फफूंद का संक्रमण हो सकता है।
आनुवंशिक - किसी आनुवंशिक कारण से महिला और पुरुषों दोनों के बाल झड़ सकते हैं। 
कसकर बांधना - बालों को अत्यधिक खींचकर बांधने से भी बाल झड़ते हैं।
उम्र बढ़ना - उम्र के साथ गंजेपन का मुख्य कारण आनुवंशिकी है। 
American Academy of Dermatology के अनुसार हमारे 50–100 बाल तो हर दिन झड़ते हैं, लेकिन सिर पर मौजूद 1,00,000 बालों में से इतने कम बाल झड़ जाने से फर्क पता नहीं चलता और नए बाल इनकी जगह ले लेते हैं। बालों का झड़ना साल दर साल बढ़ सकता है या फिर अचानक भी हो सकता है, यह बाल झड़ने के कारण पर निर्भर करता है। जब एलोपेशिआ होता है तो ये लक्षण दिखने लगते हैं: 
मांग चौड़ी होना – बालों के बीच काफी जगह बन जाती है यानी नए बाल उगकर पुराने बालों की जगह नहीं ले पाते। 
केश-रेखा पीछे सरकना – माथे पर जहां से आपके बाल शुरू होते है उस रेखा का पीछे चले जाना। 
सर पर छोटे-छोटे चांद दिखाई देना – ये चांद समय के साथ आकार में बढ़ रहे हों।
गुच्छों में बाल झड़ना – बाल धोने के बाद मोहरी आपके बालों से भर गई हो।

इसी तरह, 2000 के दशक के शुरू में पंजाब के दो ज़िलों होशियारपुर और नवांशहर में भी बालों के झड़ने (hair fall epidemic) की घटनाएं हुई थीं। ये दोनों ज़िले शिवालिक पर्वतों की तराई में स्थित हैं। तब यहां सेलेनियम नदियों की बाढ़ से आए पानी के साथ आया था।

एक अन्य रिपोर्ट में प्रभावित लोगों के खून में ज़िंक की कमी (zinc deficiency) भी पाई गई जो बालों की वृद्धि (hair growth) के लिए उत्तरदायी है। सेलेनियम की वृद्धि और ज़िंक की कमी, दोनों कारणों से बाल झड़ने की घटनाएं हुई। 15 गांव के लगभग 300 लोग प्रभावित हुए। अच्छी बात यह है कि कुछ वक्त में लोगों के बाल वापस आ गए क्योंकि बालों की जड़ें सलामत थीं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://static.punemirror.com/full/9cf1f401-a3a1-4e06-9677-3c46ea5519a2.jpg