सिकल सेल रोग के सस्ते इलाज की उम्मीद

सिकल सेल रोग से दुनिया भर के लाखों लोग प्रभावित हैं। एक अनुमान के मुताबिक प्रति वर्ष लगभग पौने चार लाख लोग इसकी वजह से जान गंवाते हैं और लाखों लोग दर्दनाक तकलीफें झेलते हैं। यू.एस. खाद्य एवं औषधि प्रशासन (एफडीए) ने पिछले वर्ष इसके उपचार के लिए दो जीन थेरेपी प्रक्रियाओं को मंज़ूरी दी थी। लेकिन ये उपचार काफी महंगे हैं – इनका खर्च प्रति व्यक्ति करीब 17 करोड़ रुपए बैठता है। साथ ही इनमें जोखिमभरी कीमोथेरेपी शामिल होती है।

हाल ही में औषधि शोधकर्ताओं ने मुंह से दी जाने वाली एक दवा की खोज की है। इस औषधि ने सिकल सेल रोग से ग्रसित जंतुओं में स्वस्थ रक्त कोशिकाओं को पुनर्स्थापित किया है। देखा जाए तो जीन थेरेपी एक बार करनी होती है और वह लंबे समय तक लाभ प्रदान कर सकती है। इसके विपरीत इस नई दवा को समय-समय पर जीवन भर लेने की आवश्यकता हो सकती है।

यह दवा मनुष्यों में अभी सुरक्षा परीक्षण से नहीं गुज़री लेकिन साइंस जर्नल में वर्णित इस प्रायोगिक दवा ने व्यापक रूप से सुलभ और किफायती उपचार की एक उम्मीद जगाई है।

गौरतलब है कि सिकल सेल रोग वयस्क हीमोग्लोबीन के उत्पादन के लिए ज़िम्मेदार जीन में उत्परिवर्तन के कारण होता है। यह उत्परिवर्तन लाल रक्त कोशिकाओं को हंसिए (सिकल) आकार का बना देता है, जिससे रक्त कोशिकाएं आपस में चिपक जाती हैं। इसके चलते रक्त वाहिकाएं अवरुद्ध होती हैं, और तेज़ दर्द के साथ ऊतकों को नुकसान पहुंचाती हैं।

रोचक तथ्य यह है कि इस जीन में उत्परिवर्तन से पीड़ित व्यक्तियों में भी भ्रूणावस्था में सामान्य लाल रक्त कोशिकाएं बनती हैं। उपचारों में कोशिश यह की जाती है कि वयस्क व्यक्ति में वयस्क जीन को बाधित करके भ्रूण के लाल रक्त कोशिका जीन को सक्रिय कर दिया जाए ताकि सामान्य लाल रक्त कोशिकाएं बनने लगें।

सिकल सेल रोग उस जीन में उत्परिवर्तन के कारण होता है जो वयस्क में हीमोग्लोबीन बनाने के लिए ज़िम्मेदार होता है। वर्तमान में स्वीकृत एक जीन थेरेपी में किया यह जाता है कि एक वायरस की मदद से वयस्क हीमोग्लोबीन का संशोधित जीन व्यक्ति की स्टेम कोशिकाओं में प्रविष्ट करा दिया जाता है। फिर इन संशोधित कोशिकाओं को वापिस उस व्यक्ति के शरीर में डाला जाता है। लेकिन उससे पहले उसके शरीर में पहले से मौजूद रक्त स्टेम कोशिकाओं को नष्ट कर दिया जाता है।

दूसरी जीन थेरेपी में भी मरीज़ की रक्त स्टेम कोशिकाओं में संशोधन किया जाता है लेकिन इसके लिए क्रिस्पर नामक तकनीक की मदद ली जाती है। क्रिस्पर की मदद से BCL11A नामक एक प्रोटीन को बाधित कर दिया जाता है। यह वह प्रोटीन है जो वयस्कों में भ्रूणीय हीमोग्लोबीन का उत्पादन रोक देता है। तो जब BCL11A जीन को ठप कर दिया जाता है तो रक्त स्टेम कोशिकाओं में भ्रूणीय हीमोग्लोबीन फिर बनने लगता है और मरीज़ को मदद मिलती है।

लेकिन जीन थेरेपी के भारी खर्च और जटिलता के चलते हर व्यक्ति तक इसकी पहुंच सीमित हो जाती है, खासकर अफ्रीका जैसे क्षेत्रों में जहां सिकल सेल रोगी अधिक पाए जाते हैं।

अलबत्ता, वयस्कों में भ्रूणीय हीमोग्लोबीन जीन को सक्रिय करने वाली औषधियां विकसित करने के प्रयास लंबे समय से चल रहे हैं लेकिन उतने कारगर नहीं रहे हैं।

जैसे नोवार्टिस की पामेला टिंग और जे ब्रैडनर एक ऐसा यौगिक खोज रहे थे जो BCL11A द्वारा बनाए गए प्रोटीन से जुड़ सके और उसे कोशिका की प्रोटीन विध्वंस मशीनरी में पहुंचा सके ताकि वह भ्रूणीय हीमोग्लोबीन के जीन को शांत न कर सके। टीम ने एक यौगिक (dWIZ-1) की पहचान की है जो कोशिका में डाले जाने पर भ्रूणीय हीमोग्लोबीन का उत्पादन बढ़ा देता है। लेकिन यह BCL11A को लक्षित नहीं करता।

इस यौगिक में संशोधन कर dWIZ-2 का निर्माण किया गया, जिसने लाल रक्त कोशिकाओं में भ्रूणीय हीमोग्लोबीन का स्तर 17-45 प्रतिशत तक बढ़ा दिया। यह स्तर मनुष्यों में लाल रक्त कोशिकाओं के कार्यात्मक उत्पादन करने के लिए पर्याप्त है।

dWIZ-2 ने चूहों और तीन में से दो साइनोमोल्गस बंदरों में प्रभावशीलता दिखाई है और कोई दुष्प्रभाव भी नज़र नहीं आए हैं। यह ऐसा पहला छोटा अणु है जो स्टेम कोशिकाओं को नुकसान पहुंचाए बिना भ्रूणीय हीमोग्लोबीन का उत्पादन बढ़ाता देता है।

दिक्कत यह है कि dWIZ प्रोटीन कई कोशिकाओं में बनता है और यह कई जीनों को नियंत्रित करता है। यानी इसकी नियामक भूमिका काफी व्यापक हो सकती है और इसका दमन करना शायद सुरक्षित न हो। बहरहाल, ब्रैडनर का मत है कि भ्रूणीय हीमोग्लोबन को बढ़ाने की dWIZ-2 की क्षमता बहुत अधिक है और यह आगे के विकास का रास्ता तो खोलता ही है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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अवसाद के लिए केटामाइन की गोली

श्व प्रशांतक और पार्टी ड्रग के रूप में मशहूर केटामाइन को इन दिनों गंभीर अवसाद के आसान उपचार के रूप में विकसित किया जा रहा है। पारंपरिक रूप से, अवसाद से ग्रस्त लोगों को केटामाइन की खुराक अस्पताल में इंट्रावीनस रूप में दी जाती है। लेकिन नेचर मेडिसिन में प्रकाशित एक हालिया अध्ययन बताता है कि केटामाइन का स्लो-रिलीज़ गोली के रूप में उपयोग इस उपचार को अधिक सुलभ बना सकता है।

ओटागो विश्वविद्यालय के मनोचिकित्सक पॉल ग्लू के अनुसार गोली के रूप में इस औषधि का सेवन आसानी से अन्य किसी साधारण गोली की तरह घर पर किया जा सकेगा और इसके लिए विशेष निगरानी की आवश्यकता भी नहीं होगी।

गौरतलब है कि नसों या नेज़ल स्प्रे के माध्यम से केटामाइन का उपयोग अवसाद के उपचार के लिए किया जाता रहा है। लेकिन इन तरीकों से उच्च रक्तचाप, तेज़ हृदय गति और आसपास की दुनिया और स्वयं से असम्बद्धता जैसे दुष्प्रभाव देखे गए हैं। वहीं, केटामाइन औषधि को स्लो-रिलीज़ तरीके से देने पर ये दुष्प्रभाव कम देखे गए हैं।

इसके मद्देनज़र ग्लू और उनकी टीम ने एक स्लो-रिलीज़ केटामाइन गोली (R-107) विकसित की है। कारगरता की जांच के लिए उन्होंने गंभीर अवसाद विकार वाले 231 प्रतिभागियों को अध्ययन में शामिल किया। ये प्रतिभागी कम से कम दो तरह की अवसादरोधी औषधियों पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दे रहे थे। इन रोगियों को पांच दिनों तक रोज़ाना 120-मिलीग्राम R-107 की खुराक दी गई। आठ दिन बाद भी जिन रोगियों के लक्षणों में सुधार नहीं हुआ वे स्वयं इस अध्ययन से हट गए। इसके बाद 168 प्रतिभागियों के साथ इस अध्ययन को जारी रखा गया। उन्हें या तो प्लेसिबो या फिर R-107 टेबलेट्स (30, 60, 120, या 180 मिलीग्राम) की एक खुराक हफ्ते में दो बार 12 सप्ताह के लिए दी गई।

टीम ने पाया कि 13 हफ्तों के बाद, प्लेसिबो वाले 71 प्रतिशत प्रतिभागियों में अवसाद के लक्षण मध्यम पाए गए, जबकि उच्चतम खुराक वाले केवल 43 प्रतिशत प्रतिभागियों में अवसाद के लक्षण बने रहे। इस प्रक्रिया के दौरान प्रतिभागियों में दुष्प्रभाव न्यूनतम रहे: रक्तचाप में कोई परिवर्तन नहीं देखा गया जबकि कुछ रोगियों ने केवल बेहोशी या अम्बद्धता की शिकायत की।

ये निष्कर्ष आशाजनक लगते हैं। लेकिन बड़े पैमाने पर जांच और दुरुपयोग सम्बंधी चिंताओं को संबोधित करने के बाद ही इसे आम उपयोग में लाया जा सकेगा। फिलहाल दुरुपयोग के जोखिम को कम करने के लिए, R-107 गोली को अत्यधिक कठोर और कुचलने में कठिन बनाया गया है ताकि इसे सूंघकर नशा करना मुश्किल हो जाए।

इसके अलावा, शराब की लत जैसी अन्य मानसिक स्थितियों से निपटने के लिए केटामाइन की प्रभाविता पता लगाने की योजना भी है। प्रारंभिक शोध से पता चलता है कि केटामाइन शराब की लालसा को कम करने में भी मददगार साबित हो सकती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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बढ़ता तापमान फफूंदों को खतरनाक बना सकता है

चीनी शोधकर्ताओं द्वारा किए गए एक हालिया अध्ययन से पता चला है कि जैसे-जैसे पृथ्वी गर्म हो रही है, फफूंद जन्य रोग मानव स्वास्थ्य के लिए बड़ा खतरा साबित हो सकते हैं। अध्ययन के दौरान दो रोगियों में एक ऐसी फफूंद पाई गई जो पहले मनुष्यों को संक्रमित नहीं करती थी। इस फफूंद में न केवल दो आम फंफूद-रोधी दवाओं के प्रति प्रतिरोध विकसित हो गया था बल्कि उच्च तापमान के संपर्क में आने पर तीसरी दवा के प्रति भी जल्द प्रतिरोध विकसित हो गया, जिससे यह लगभग असाध्य हो गई।

आम तौर पर बैक्टीरिया या वायरस की तुलना में फफूंद मनुष्यों को कम ही बीमार करती है। मानव प्रतिरक्षा प्रणाली फफूंद से प्रभावी रूप से लड़ती है और शरीर का तापमान उन्हें पनपने भी नहीं देता है। लेकिन, पिछले कुछ समय में फफूंद संक्रमणों में वृद्धि हुई है जिसका एक कारण एचआईवी और प्रतिरक्षा-शामक दवाओं के कारण लोगों की कमज़ोर होती प्रतिरक्षा प्रणाली है। और अब, नए दवा प्रतिरोधी फफूंद संक्रमण सामने आए हैं जो काफी चिंताजनक है।

एक महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या जलवायु परिवर्तन, पर्यावरणीय फफूंद को मानव शरीर तापमान के प्रति अनुकूलित होने और दवा प्रतिरोध विकसित करने में मदद कर सकता है? इसे समझने के लिए शोधकर्ताओं ने 2009 से 2019 तक चीन के 96 अस्पतालों में रोगियों से नमूने एकत्र किए, जिसमें उन्होंने दो रोगियों में एक प्रकार की खमीर रोडोस्पोरिडियोबोलस फ्लुविएलिस (आर. फ्लुविएलिस) पाई। दोनों रोगी परस्पर असम्बंधित थे। ये गंभीर रूप से बीमार हुए थे और दवा प्रतिरोधी फफूंद से संक्रमित थे। बाद में इनकी मृत्यु हो गई।

फफूंद द्वारा स्तनधारियों को संक्रमित करने की क्षमता का पता लगाने के लिए, शोधकर्ताओं ने इसे कमज़ोर प्रतिरक्षा प्रणाली वाले चूहों में इंजेक्ट किया। इससे चूहे बीमार हो गए, और कुछ फफूंद तो उत्परिवर्तित होकर अधिक आक्रामक भी हो गई। शोधकर्ताओं ने पाया कि 37 डिग्री सेल्सियस (मानव शरीर का सामान्य तापमान) पर संवर्धित फफूंदों में उन फफूंदों की तुलना में 21 गुना तेज़ी से उत्परिवर्तन हुए जिन्हें 25 डिग्री सेल्सियस पर संवर्धित किया गया था। इसके अलावा, 37 डिग्री सेल्सियस पर फफूंद-रोधी दवा एम्फोटेरिसिन बी के संपर्क में आने वाली फफूंदों में प्रतिरोध भी अधिक तेज़ी से विकसित हुआ।

बहरहाल, वर्तमान परिस्थिति में इसके प्रभाव का सामान्यीकरण करना थोड़ी जल्दबाज़ी होगी, लेकिन विशेषज्ञों का अनुमान है कि इस पैटर्न को समझने के लिए अधिक उच्च तापमान पर जांच करना होगा। हालांकि आर. फ्लुविएलिस से तत्काल मानव स्वास्थ्य के लिए खतरा तो नहीं है, लेकिन ये परिणाम इस क्षेत्र में और अधिक शोध की आवश्यकता दर्शाते हैं।

चाइनीज़ अकेडमी ऑफ साइंसेज़ के माइक्रोबायोलॉजिस्ट लिंकी वांग के अनुसार ग्लोबल वार्मिंग अधिक खतरनाक रोगजनक फफूंदों के विकसित होने में भूमिका निभा सकता है। ज़ाहिर है इस विषय में सतर्कता एवं अधिक अध्ययन की ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स)

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अंतत: अमेरिका में एस्बेस्टस पर प्रतिबंध लगाया गया

मेरिकी पर्यावरण संरक्षण एजेंसी (EPA) ने कई वर्षों की जद्दोज़हद के बाद मार्च 2024 से एस्बेस्टस के उपयोग पर पूर्ण प्रतिबंध की घोषणा की है। यह घोषणा एक आश्चर्य के रूप में सामने आई। सब मानते आए थे कि एस्बेस्टस पर प्रतिबंध तो पहले से ही लगा हुआ था, और 1970 के दशक से ही इसे अमरीकी स्कूलों और अस्पतालों से हटा दिया गया था।

गौरतलब है कि एस्बेस्टस प्राकृतिक रूप से पाया जाने वाला खनिज है जो गर्मी और आग की लपटों के प्रति प्रतिरोधी है, लेकिन यह अत्यधिक ज़हरीला है और कैंसर का कारण बनता है। 1898 में, ब्रिटिश फैक्ट्री इंस्पेक्टर लूसी डीन ने एस्बेस्टस निर्माण को श्रमिकों के स्वास्थ्य के लिए खतरनाक बताया था। 1927 तक, ‘एस्बेस्टोसिस’ शब्द का इस्तेमाल एस्बेस्टस श्रमिकों में आम तौर पर होने वाली फेफड़ों की एक गंभीर बीमारी के लिए किया जाने लगा। 1960 के दशक में कई अध्ययनों से यह स्पष्ट हुआ कि एस्बेस्टस के संपर्क में आने से न केवल एस्बेस्टोसिस होता है, बल्कि फेफड़ों का कैंसर, मेसोथेलियोमा और अन्य प्रकार के कैंसर भी होते हैं। और तो और, शोध से यह भी पता चला कि एस्बेस्टस का कोई सुरक्षित स्तर नहीं है।

इन निष्कर्षों के बावजूद, सरकारों को कार्रवाई करने में कई साल लग गए। 1970 के दशक में, कई देशों ने एस्बेस्टस पर प्रतिबंध लगाना शुरू कर दिया था। 2020 तक, कम से कम 67 देशों ने प्रतिबंध लागू किए थे। लेकिन अमेरिका ने अब तक केवल आंशिक प्रतिबंध ही लगाए थे। भारत में 1993 में एस्बेस्टस खनन पर प्रतिबंध लगाने के बावजूद, इसके उत्पादन, आयात या व्यापार में इसके उपयोग को प्रतिबंधित करने के लिए कोई कानून नहीं है। वर्तमान में भारत एस्बेस्टस निर्मित उत्पादों का निर्यात भी करता है।

अमेरिका में देरी के लिए कई कारकों को ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है। इसमें 1980 के दशक से उद्योग जगत द्वारा प्रतिबंध के विरोध और यूएस में व्याप्त नियमन विरोधी आम रवैये ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1989 में, EPA ने विषाक्त पदार्थ नियंत्रण अधिनियम (TOSCA) के तहत अधिकांश एस्बेस्टस उत्पादों पर प्रतिबंध लगाने की कोशिश की, लेकिन इस नियम को करोज़न प्रूफ फिटिंग्स नामक एक कंपनी और अन्य व्यापार संघों द्वारा अदालत में चुनौती दी गई। हालांकि, अदालत व्यापार संघों द्वारा दिए गए कम लागत के झूठे दावों से सहमत नहीं थी, लेकिन EPA द्वारा अपनाए गए तरीके के साथ भी प्रक्रियात्मक मुद्दे पाए गए। इसके नतीजे में EPA ने एक नया और व्यापक प्रतिबंध नहीं लगाया। इसकी बजाय, उसने छोटे-छोटे मामलों पर ध्यान दिया, जिसने स्कूलों को एस्बेस्टस का प्रबंधन करने में मदद की, लेकिन इसे पूरी तरह से खत्म नहीं किया।

इसके अलावा, तंबाकू उद्योग के समान एस्बेस्टस उद्योग ने एस्बेस्टस के नुकसान के प्रमाणों को शंकास्पद साबित करने का प्रयास किया। शोधकर्ताओं को बदनाम किया गया और कहा गया कि केवल कुछ प्रकार के एस्बेस्टस ही खतरनाक हैं। अलबत्ता, 2016 के बाद संसद ने TOSCA में संशोधन किया, जिससे व्यापक प्रतिबंध लगाने का रास्ता खुल गया। नया एस्बेस्टस प्रतिबंध, संशोधित कानून के तहत जारी पहला नियम है।

गौरतलब है कि एस्बेस्टस का प्रभाव काफी विनाशकारी रहा है। वाशिंगटन विश्वविद्यालय के स्वास्थ्य मापन और मूल्यांकन संस्थान का अनुमान है कि 2019 में एस्बेस्टस के कारण करीब 40,764 श्रमिकों की मृत्यु हुई। यू.एस. रोग नियंत्रण एवं रोकथाम केंद्र ने 1999 और 2015 के बीच 45,221 मेसोथेलियोमा से हुई मौतों को दर्ज किया। जबकि 20वीं सदी में, सिर्फ यू.एस. में एस्बेस्टस के कारण लगभग 1.7 करोड़ व्यावसायिक मौतें और 20 लाख गैर-व्यावसायिक मौतें हुई हैं।

हालिया प्रतिबंध एक महत्वपूर्ण कदम है। एस्बेस्टस पर प्रतिबंध के लिए चला लंबा संघर्ष दर्शाता है कि वैज्ञानिक निष्कर्षों को कुशलतापूर्वक और प्रभावी ढंग से नीति का रूप देना कितना महत्वपूर्ण और कठिन है। बहरहाल, यह सुनिश्चित करना ज़रूरी है कि कोई भी हानिकारक पदार्थ प्रतिबंधित होने से पहले सदियों तक इस्तेमाल न होता रहे। (स्रोत फीचर्स)

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पिता के खानपान का बेटों के स्वास्थ्य पर असर

ह बात तो सभी कहते हैं कि जैसा आपका खानपान होगा, वैसा आपका स्वास्थ्य होगा। लेकिन हाल ही में नेचर पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन बताता है कि पुत्र-जन्म से पूर्व पिता का खानपान पुत्रों की चयापचय क्षमता को प्रभावित कर सकता है।

अध्ययनों से यह तो पता था कि माताएं अपनी संतानों में चयापचय सम्बंधी लक्षण हस्तांतरित कर सकती हैं। फिर, 2016 में युनिवर्सिटी ऑफ ऊटा स्कूल ऑफ मेडिसिन में प्रजनन-जीवविज्ञानी क्याई चेन और उनकी टीम ने उच्च वसायुक्त आहार करने वाले नर चूहों की संतानों में चयापचय विकार की समस्या देखी थी। साथ ही पाया था कि माता-पिता के आहार का प्रभाव संतान के जीनोम में नहीं बल्कि उनके ‘एपिजीनोम’ में परिवर्तन के कारण होता है। एपिजीनोम जीन अभिव्यक्ति, विकास, ऊतक विभेदन को विनियमित करने में और जम्पिंग जीन को शांत करने में भूमिका निभाते हैं। जीनोम के विपरीत एपिजीनोम में पर्यावरणीय परिस्थितियों के चलते परिवर्तन हो सकते हैं।

हालिया अध्ययन में हेल्महोल्ट्ज़ सेंटर, म्यूनिख के शोधकर्ता राफेल टेपरिनो ने नर चूहों को दो हफ्ते तक उच्च वसा वाला आहार खिलाया। पाया गया कि इस आहार के कारण शुक्राणु के माइटोकॉन्ड्रिया में ट्रांसफर आरएनए (tRNA) में परिवर्तन हुए थे। माइटोकॉण्ड्रिय़ा कोशिका को ऊर्जा देते हैं। आहार परिवर्तन का असर माइटोकॉन्ड्रिया के tRNA पर देखा गया जो डीएनए से प्रोटीन में बनने की प्रक्रिया के दौरान बनते हैं।

खासकर, उच्च वसायुक्त भोजन करने वाले चूहों के शुक्राणुओं में tRNA के अंश सामान्य चूहों की अपेक्षा छोटे थे। ऐसे RNA कुछ माइटोकॉन्ड्रियल जीन की गतिविधि को बढ़ा या घटा सकते हैं।

ये परिणाम ठीक ही लगते हैं क्योंकि ऐसा देखा गया है कि उच्च वसा वाला आहार माइटोकॉन्ड्रिया में तनाव पैदा करता है, नतीजतन माइटोकॉन्ड्रिया अधिक ऊर्जा उत्पन्न करने के लिए अधिक RNA बनाते हैं। माइटोकॉन्ड्रिया की यह प्रतिक्रिया एक सौदे की तरह होती है। माइटोकॉन्ड्रियल गतिविधि में वृद्धि शुक्राणु को अंडाणु तक पहुंचने के लिए पर्याप्त ऊर्जा देती है, लेकिन साथ में अतिरिक्त माइटोकॉन्ड्रियल RNA भी शुक्राणु से भ्रूण में चले जाते हैं, जिससे भ्रूण को मिलने वाली जानकारी बदल जाती है और उसके स्वास्थ्य पर असर पड़ता है।

अगले चरण में शोधकर्ताओं ने उन चूहों के स्वास्थ्य को देखा जिनके पिता अधिक वसायुक्त भोजन खाते थे। पाया गया कि चूहा संतानों में से लगभग 30 प्रतिशत में चयापचय विकार थे। 3431 मानव संतानों के आंकड़ों के विश्लेषण में पता चला कि उन मानव संतानों में चयापचयी विकार अधिक थे जिनके पिता का वज़न अधिक था।

प्रयोगों से यह भी पता चला कि उच्च वसायुक्त आहार करने वाले चूहों की संतानों में अपने पिता से बहुत अधिक माइटोकॉन्ड्रियल tRNA आ गए थे।

हालांकि इस अध्ययन की एक तकनीकी सीमा है: अनुक्रमण विधि केवल सम्पूर्ण RNA का पता लगा पाती है। इस वजह से, अध्ययन में यह पता नहीं चल सका कि RNA के अंश पिता से भ्रूण में स्थानांतरित हुए थे या नहीं। शोधकर्ता यह मानकर चल रहे हैं कि RNA के अंश भी स्थानांतरित हुए होंगे।

मज़ेदार बात यह है कि चयापचय सम्बंधी समस्याएं पिता से केवल पुत्रों को मिली हैं, पुत्रियों को नहीं। इससे लगता है कि X और Y शुक्राणु में अलग-अलग जानकारी होती है। बहरहाल, X और Y शुक्राणु में ऐसी भिन्नता क्यों होती है, आगे के अध्ययनों के लिए यह एक अच्छा प्रश्न है। (स्रोत फीचर्स)

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दूर बैठे-बैठे आंखों की देखभाल – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

पूर्वी रेलपथ पूर्वोत्तर भारत, पश्चिम बंगाल और उड़ीसा को दक्षिणी राज्यों से जोड़ने वाली जीवन रेखा है। इस रेलमार्ग पर सफर करते हुए कई सुंदर नज़ारे दिखाई देते हैं; ट्रेन 900 वर्ग कि.मी. में फैली चिलिका झील के किनारे से होकर भी गुज़रती है।

इस रेलमार्ग से दक्षिण भारत की ओर यात्रा करते समय आप एक और दिलचस्प बात गौर करेंगे – कई यात्री दक्षिण भारतीय शहरों में स्थित नेत्र अस्पतालों में जा रहे होते हैं। दुनिया के कुल नेत्रहीन लोगों में से लगभग एक-चौथाई भारत में रहते हैं। इस रूट की ट्रेनों में गंभीर समस्याओं वाले मरीज़ और उनके साथ चिंतित रिश्तेदार दिखना एक आम दृश्य हैं; ये चेन्नई और हैदराबाद जैसे शहरों के प्रतिष्ठित और कम-खर्चीले या मुफ्त इलाज वाले नेत्र अस्पतालों की तलाश में जा रहे होते हैं।

पर्यावरणीय लागत

लेकिन ग्रामीण क्षेत्र से इन नेत्र विशेषज्ञों के पास आने-जाने का खर्चा और असुविधा इसमें एक बड़ी बाधा हो सकती है। एल. वी. प्रसाद आई इंस्टीट्यूट की बीएमसी ऑप्थेल्मोलॉजी पत्रिका में प्रकाशित एक हालिया अध्ययन बताता है कि किसी ग्रामीण व्यक्ति को प्राथमिक उपचार पाने के लिए (कम से कम) 80 कि.मी. की यात्रा करनी पड़ती है। उन्नत चिकित्सा उपकरण और विशेषज्ञता वाले तृतीयक देखभाल केंद्र तक आने के लिए तो यह यात्रा और भी लंबी हो सकती है। एल. वी. प्रसाद आई इंस्टीट्यूट में आने वाले लगभग आधे मरीज़ ट्रेन से औसतन 1666 कि.मी. की यात्रा करके पहुंचते हैं। यही स्थिति चेन्नई के शंकर नेत्रालय और मदुरै के अरविंद आई हॉस्पिटल की भी है।

इसमें शामिल खर्चे के इतर यह पूरी यात्रा कार्बन पदचिन्ह छोड़ने में भी योगदान देती है। भारत के कुल कार्बन पदचिन्ह में लगभग 5 प्रतिशत योगदान स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र का है, यानी यह हिस्सा इस क्षेत्र द्वारा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उत्सर्जित ग्रीनहाउस गैसों की मात्रा है। जैसे-जैसे हमारा अधिकाधिक ज़ोर हरित (ऊर्जा अपनाने) होने और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने पर जा रहा है, सुदूर चिकित्सा अपनी जगह बनाती जा रही है। सुदूर चिकित्सा में चिकित्सक दूर बैठे-बैठे रोगियों का निदान, उपचार और निगरानी करते हैं।

सुदूर नेत्र चिकित्सा

सुदूर नेत्र चिकित्सा के उपयोग के चलते नेत्र चिकित्सा एक बड़ी आबादी तक और कम सेवा-सुविधा वाले क्षेत्रों तक पहुंचने लगी है। सुदूर नेत्र चिकित्सा का एक गुप्त लाभ यह है कि नेत्र रोगों का शीघ्र पता लगाने, निदान करने और इन बीमारियों की प्रगति पर नज़र रखने में इमेजिंग प्रणालियां अहम हैं। इनमें से अधिकांश प्रणालियों में विशेष उपकरणों द्वारा आंख की आंतरिक सतह की तस्वीरें ली जाती हैं। फिर दूर बैठे नेत्र विशेषज्ञ छवियों का सावधानीपूर्वक अध्ययन करके निदान करते हैं।

मसलन, आंख के पीछे स्थित रेटिना की तस्वीरें फंडस फोटोग्राफी की मदद से ली जाती है, जो ग्लूकोमा और डायबिटिक रेटिनोपैथी जैसी स्थितियों का पता लगाने में सहायता करती है। इसी तरह, ऑप्टिकल कोहरेंस टोमोग्राफी से प्राप्त तस्वीरें रेटिना की परतों का ब्यौरा देती हैं और रेटिना डिटेचमेंट जैसी स्थितियों की निगरानी में खास उपयोगी होती हैं।

अधुनातन विकास की मदद से इस तरह के उपकरणों के आकार छोटे हो रहे हैं। कुछ मामलों में, ये उपकरण मोबाइल फोन के कैमरों से जुड़ जाते हैं। इससे इन उपकरणों का ग्रामीण लोगों के नज़दीकी प्राथमिक केंद्रों में उपयोग करना आसान हो जाएगा। अन्य तकनीकों (जैसे 5G सेवाओं) में प्रगति और उनकी उपलब्धता मरीज़ों और उनके दूरस्थ विशेषज्ञों के बीच संचार-संवाद को बेहतर कर सकती हैं।

सुदूर चिकित्सा ने चिकित्सा देखभाल के कई अन्य क्षेत्रों में भी प्रभाव छोड़ा है। पहनने योग्य उपकरण, जिनमें सबसे अधिक स्मार्टवॉच पहने हुए लोग दिखते हैं, के डैटा को निरंतर देखभालकर्ताओं/चिकित्सकों को भेजने के लिए सेट किया जा सकता है। जैसे स्मार्टवॉच से प्राप्त हृदय गति और रक्तचाप सम्बंधी डैटा को उन हृदय चिकित्सकों को भेजने के लिए सेट किया जा सकता है, जो इन गड़बड़ियों की निगरानी करते हैं।

तो, अगली बार आपको संदेह हो कि परिवार के किसी सदस्य को कंजक्टीवाइटिस है तो आप सुदूर परामर्श लेकर इसकी पुष्टि कर सकते हैं या अपनी शंका दूर कर सकते हैं! (स्रोत फीचर्स)

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कीटो आहार अंगों को नुकसान पहुंचा सकता है

हाल ही में साइंस एडवांसेज में प्रकाशित एक अध्ययन ने तेज़ी से वज़न घटाने और चयापचय लाभों के लिए जाने-माने कीटोजेनिक आहार के छिपे हुए जोखिम को उजागर किया है। शोधकर्ताओं ने उच्च वसा और अत्यधिक कम कार्बोहाइड्रेट पर आधारित इस आहार से चूहों के अंगों में सेनेसेंट (वृद्ध) कोशिकाओं का संचय होते देखा है। सेनेसेंट कोशिकाएं वे कोशिकाएं होती हैं जो विभाजन करना बंद कर देती हैं लेकिन मरती भी नहीं। आम तौर पर हमारा प्रतिरक्षा तंत्र इन्हें साफ कर देता है लेकिन उम्र बढ़ने के साथ प्रतिरक्षा तंत्र अपना काम भलीभांति नहीं कर पाता और जमा होने वाली सेनेसेंट कोशिकाएं ऊतक के कार्य को बाधित कर सकती हैं और विभिन्न स्वास्थ्य समस्याओं को भी जन्म दे सकती हैं।

वास्तव में, कीटोजेनिक आहार शरीर को कार्बोहाइड्रेट की बजाय वसा का उपयोग करने के लिए मजबूर करता है, जिससे कीटोन नामक अणु उत्पन्न होते हैं। आम तौर पर कीटो आहार लेने वाले लोग अपनी कैलोरी का 70 से 80 प्रतिशत वसा से और केवल 5 से 10 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट से प्राप्त करते हैं। इसके विपरीत, एक औसत अमेरिकी के आहार में लगभग 36 प्रतिशत वसा और 46 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट होता है।

वैसे तो यह आहार मूल रूप से 1920 के दशक में बच्चों में मिर्गी के इलाज के लिए विकसित किया गया था लेकिन यह वज़न तथा रक्त शर्करा के स्तर को कम करने और एथलेटिक प्रदर्शन को बढ़ाने की चाह रखने वालों के बीच काफी लोकप्रिय हुआ है।

दरअसल, सैन एंटोनियो स्थित टेक्सास हेल्थ साइंस सेंटर के विकिरण कैंसर विशेषज्ञ डेविड गियस के नेतृत्व में शोधकर्ता यह जांच कर रहे थे कि कीटो आहार के कारण p53 प्रोटीन पर किस तरह के असर होते हैं। p53 प्रोटीन कैंसर से लड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। साथ ही यह कोशिकीय सेनेसेंस का नियमन भी करता है।

प्रयोगों के दौरान उन्होंने देखा कि उच्च वसा (जो कुल में से लगभग 90 प्रतिशत कैलोरी देता है) वाले कीटोजेनिक आहार से चूहों के दिल, गुर्दे, यकृत और मस्तिष्क में p53 और सेनेसेंट कोशिकाओं के अन्य संकेतकों का स्तर बढ़ा था। इसके विपरीत, आहार में वसा से केवल 17 प्रतिशत कैलोरी प्राप्त करने वाले चूहों के नियंत्रण समूह में ऐसी कोई वृद्धि नहीं देखी गई।

यह काफी दिलचस्प बात है कि जब चूहों को फिर से सामान्य आहार दिया गया तो सेनेसेंट कोशिकाएं लगभग गायब हो गई थीं। उच्च वसा वाला भोजन और नियमित भोजन निश्चित अंतराल पर बारी-बारी करने से भी ऐसी कोशिकाओं का निर्माण रुक गया। इससे स्पष्ट होता है कि कीटोजेनिक आहार से नियमित अंतराल पर ब्रेक लेने से इसके संभावित नकारात्मक प्रभावों को कम किया जा सकता है।

बहरहाल, अन्य विशेषज्ञ इस बात से सहमत नहीं हैं कि कीटोजेनिक आहार मनुष्यों के लिए भी हानिकारक है। उनका कहना है कि इन निष्कर्षों को पूरी तरह से समझने के लिए और अधिक शोध की आवश्यकता है। सेनेसेंट कोशिकाओं के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों प्रभाव हो सकते हैं – वे घाव भरने में मदद करती हैं लेकिन अगर वे लंबे समय तक बनी रहती हैं तो सूजन पैदा कर सकती हैं और ऊतकों को क्षति भी पहुंचा सकती हैं। लिहाज़ा, आहार की सुरक्षा सम्बंधी निष्कर्ष निकालने से पहले मनुष्यों में इन कोशिकाओं के हानिकारक प्रभाव को प्रदर्शित करना ज़रूरी है।

वैसे, अध्ययन यह भी कहता है कि सभी कीटोजेनिक आहार एक जैसे नहीं होते। वसा और प्रोटीन स्रोतों में भिन्नता से इनके परिणाम अलग-अलग भी हो सकते हैं। ऐसे में यह कहना उचित नहीं है कि चूहों में देखे गए प्रभाव सभी कीटोजेनिक आहारों पर एक समान रूप से लागू होंगे।

बहरहाल, कीटोजेनिक आहार विभिन्न स्वास्थ्य लाभ तो प्रदान करता है लेकिन इस अध्ययन की मानें तो संतुलन और समय-समय पर इस आहार से ब्रेक लेकर सामान्य भोजन अपनाना समझदारी होगी। फिर भी इस संदर्भ में अधिक शोध आवश्यक है ताकि सुरक्षित और प्रभावी कीटोजेनिक आहार के लिए दिशानिर्देश तैयार किए जा सकें। तब तक, कीटोजेनिक आहार लेने वाले लोग प्रतिकूल प्रभावों को कम करने के लिए नियमित ब्रेक लेने पर विचार कर सकते हैं।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कितना सेहतमंद है बोतलबंद पानी – सुदर्शन सोलंकी

पानी की गुणवत्ता का हमारे स्वास्थ्य पर काफी प्रभाव पड़ता है। यदि पेय जल प्रदूषित हो तो यह ज़हर के समान हो जाता है। वर्तमान में पर्यावरण प्रदूषण इस हद तक बढ़ गया है कि ज़्यादातर जल स्रोत प्रदूषित हो गए हैं। समूचा विश्व जल संकट का सामना कर रहा है। ऐसे में सभी लोगों को शुद्ध व स्वच्छ पेयजल मिल पाना अपने आप में एक चुनौती हो गई है।
कुछ सालों पहले से बोतलबंद पानी दुनिया भर के बाज़ारों में बिकना शुरू हुआ। जिसे कंपनियों ने यह कहकर बेचना शुरू किया था कि यह स्वच्छ, शुद्ध और खनिज युक्त है। जिसे वास्तविकता मान कर लोग इसे धड़ल्ले से खरीदने लगे हैं। पर क्या वास्तव में बोतलबंद पानी खनिज युक्त होता है? और क्या यह हमारे स्वास्थ्य के लिए लाभकारी है?
पहले तो यह स्पष्ट करते चलें कि बाज़ार में बिकने वाला हर बोतलबंद पानी मिनरल वॉटर नहीं होता है। मिनरल वॉटर वह पानी होता है जो ऐसे प्राकृतिक स्रोतों से भरा जाता है जहां के पानी में कई लाभदायक खनिज तत्व पाए जातेे हैं। यह स्वास्थ्यवर्धक लवणों, खनिजों से भरपूर और ऑक्सीजन युक्त होता है। जो स्वाद में अच्छा और स्वास्थ्य के लिए फायदेमंद होता है।
बाज़ार में उपलब्ध अधिकतर बोतलबंद पानी पैकेज्ड ड्रिंकिंग वॉटर होता है। पैकेज्ड ड्रिंकिंग वॉटर नल से आने वाला सामान्य पानी होता है जिसे फिल्टर से छान कर, रिवर्स ऑस्मोसिस, ओज़ोन ट्रीटमेंट आदि से साफ करके पैक कर दिया जाता है।
इसी प्रकार, लोगों में आरओ सिस्टम को लेकर भ्रांति है कि इससे नितांत शुद्ध व स्वच्छ जल मिलता है। किंतु वास्तव में आरओ सिस्टम से गुज़रा हुआ पानी भी सेहत को नुकसान पहुंचा सकता है। कारण, क्योंकि आरओ सिस्टम में लगे फिल्टर कुछ दिनों बाद ही पानी को साधारण तरीके से फिल्टर करने लगते है।
बोतलबंद पानी को लेकर अमेरिका में हुई रिसर्च से पता चला है कि बोतलबंद पानी में प्लास्टिक के खतरनाक कण मिल रहे हैं। अमेरिकी संस्था नेचुरल रिसोर्सेज़ डिफेंस काउंसिल के अनुसार बोतल बनाने में एन्टिमनी का उपयोग किया जाता है। इस वजह से बोतलबंद पानी को अधिक समय तक रखने पर उसमें एन्टिमनी की मात्रा घुलती जाती है। इस रसायन युक्त पानी को पीने से कई तरह की बीमारियां होने लगती हैं।
स्टेट युनिवर्सिटी ऑफ न्यूयॉर्क के वैज्ञानिकों ने दुनिया भर में बोतलबंद पानी पर शोध कर बताया है कि भारत सहित दुनिया भर में मिलने वाले बोतलबंद पानी में 93 फीसदी तक प्लास्टिक के महीन कण देखे गए हैं।
इसके अतिरिक्त जिन प्लास्टिक की बोतलों में मिनरल या फिल्टर वॉटर बिकता है वे पॉलीएथिलीन टेरीथेलेट (PET) की बनी होती हैं। जब तापमान अधिक होता है या गर्म पानी बोतल में भरा जाता है तो बोतल में डायऑक्सिन का रिसाव होता है, और यह पानी में घुलकर हमारे शरीर में पहुंच जाता है। इसके कारण महिलाओं में स्तन कैंसर का खतरा बढ़ जाता है।
बोतलबंद पानी पर्यावरण को भी नुकसान पहुंचा रहा है। पैसिफिक इंस्टीटयूट के अनुसार अमेरिकी लोग जितना मिनरल वॉटर पीते हैं, उसे बनाने में 2 करोड़ बैरल पेट्रो उत्पाद खर्च किए जाते हैं। एक टन बोतलों के निर्माण में तीन टन कार्बन डाईआक्साइड का उत्सर्जन होता है। मिनरल वॉटर को बनाने के लिए दुगना पानी खर्च करना पड़ता है। अर्थात एक लीटर मिनरल वॉटर बनाने पर दो लीटर साफ पानी खर्च करना पड़ता है।
इसके अलावा बोतल का पानी तो हम पी जाते हैं, लेकिन बोतल कहीं भी फेंक देते हैं जो पर्यावरण को क्षति पहुंचाती है। इसके अतिरिक्त दुनिया भर में जहां भी इन कंपनियों ने अपने बॉटलिंग प्लांट लगाए हैं, वहां भूजल स्तर बहुत तेज़ी से नीचे चला गया और इसका खामियाजा उस इलाके में रहने वाले लोगों को उठाना पड़ता है।
स्पष्ट है कि शुद्ध और स्वच्छ जल के नाम पर बिकने वाला बोतलबंद पानी लोगों और पर्यावरण दोनों को नुकसान पहुंचा रहा है। साथ ही प्लास्टिक की बोतल के निर्माण के दौरान होने वाली अतिरिक्त जल की बर्बादी से भूजल स्तर में कमी हो रही हैै। पेयजल का कोई सुरक्षित विकल्प खोजना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्या गिलहरियों को भी कुष्ठ रोग होता था?

कुष्ठ रोग लंबे समय से मानवता के लिए एक अभिशाप रहा है। यह रोग तंत्रिका को नुकसान पहुंचाता है, शरीर में घाव पैदा करता है तथा गंध व दृष्टि संवेदना को प्रभावित करता है। हाल ही में शोधकर्ताओं ने कुष्ठ रोग के फैलने में मनुष्यों और गिलहरियों के बीच एक आश्चर्यजनक सम्बंध का पता लगाया है, और बताया है कि मध्य युग में गिलहरियां भी इस बीमारी की चपेट में थी।

गौरतलब है कि माइकोबैक्टीरियम लेप्रे और माइकोबैक्टीरियम लेप्रोमैटोसिस नामक बैक्टीरिया से होने वाला कुष्ठ रोग आज भी सालाना 2 लाख से अधिक लोगों को प्रभावित करता है। इसके अधिकांश मामले एशिया, अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका में पाए जाते हैं। अब तक इस बीमारी को केवल मनुष्यों से जुड़ा माना जाता था लेकिन मध्ययुगीन गिलहरियों के अस्थि अवशेषों में कुष्ठ रोग के बैक्टीरिया (माइकोबैक्टीरियम लेप्री) की खोज इसके व्यापक पारिस्थितिक प्रभाव को रेखांकित करती है। आजकल आर्मेडिलो में यह बैक्टीरिया पाया जाता है और कभी-कभार आर्मेडिलो इस बैक्टीरिया को मनुष्यों व प्राइमेट्स में पहुंचाता है।

दरअसल मध्यकालीन इंगलैंड में गिलहरियां पालतू जीव की तरह और फर के लिए पाली जाती थीं। इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने विंचेस्टर शहर की मध्ययुगीन गिलहरियों के अवशेषों की जांच करके कुष्ठ रोग के संचरण को बेहतर ढंग से समझने का प्रयास किया है। विंचेस्टर खास तौर से गिलहरियां पालने और उनके फर का उपयोग करने के कारोबार के लिए मशहूर था। यहां एक कुष्ठ रोग अस्पताल भी था।

गिलहरी की हड्डियों पर काम करते हुए एक अनुसंधान टीम ने प्राचीन कुष्ठ रोग बैक्टीरिया के जीनोम का पुनर्निर्माण किया तो देखा कि यह मध्ययुगीन मनुष्यों में पाए जाने वाले संस्करण से काफी मिलता-जुलता है। यह प्रजातियों के बीच बीमारी के आदान-प्रदान का संकेत देता है।

हालांकि, आजकल कुष्ठ रोग के प्रसार में गिलहरियों की कोई भूमिका नहीं हैं, लेकिन भावी जोखिमों को समझने के लिए अतीत की घटनाओं को समझना ज़रूरी है। पशु रोगविज्ञानी एलिजाबेथ उहल रोग के एक प्रजाति से दूसरी में पहुंचने को समझने के लिए बहुविषयी दृष्टिकोण पर ज़ोर देती हैं। उनका मत है कि गैर-मानव रोगवाहकों की भूमिका की उपेक्षा करने से बीमारी का प्रकोप जारी रह सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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भारत में कोविड-19 टीकाकरण: विज्ञान बनाम राजनीति – डॉ. अनंत फड़के

भारत में कोविड-19 टीके का इस्तेमाल एक अंतर्विरोध का शिकार रहा। एक ओर था कोविड-19 टीका शीघ्र उपलब्ध कराने वाले अद्भुत तकनीकी-वैज्ञानिक विकास तथा दूसरी ओर था सरकार का संकीर्ण, लोकलुभावन राजनीतिक हित जिसके चलते लोगों के बीच अपनी छवि को मसीहा के रूप में पेश करना था लेकिन साथ ही टीका निर्माताओं के हितों को भी साधना था।

गैरमुनाफा पहलों का स्वागत

आम तौर पर कोई भी नया टीका विकसित करने में 5 से 15 साल तक का समय लग जाता है, क्योंकि यह वैज्ञानिकों और प्रौद्योगिकीविदों के लिए बहुत ही चुनौतीपूर्ण काम है। लेकिन, SARS-Cov-2 वायरस, दरअसल SARS-CoV-1 वायरस और MERS वायरस के जैसा था जिन पर पहले ही काफी काम किया जा चुका था।

इसके अलावा, WHO तथा कुछ अन्य अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों की पहल के चलते वैज्ञानिकों के बीच आम सहमति बन पाई कि सामान्य क्रमिक परीक्षण की प्रक्रिया की बजाय चरण-1 व चरण-2 की प्रक्रिया को तेज़ी से सम्पन्न करने के लिए उन्हें साथ-साथ चलाया जाए और आंकड़ों की समीक्षा की जाए।

सरकारों द्वारा भारी निवेश और नवाचारी वित्तीय मॉडल्स ने दवा कंपनियों को मदद की कि वे पूरा का पूरा वित्तीय जोखिम झेले बिना टीका विकसित करने का काम कर सकें। ऐसी गैर-मुनाफा पहलों (निवेश) से टीका विकास में जुटी कंपनियां काफी लाभान्वित भी हुईं। उदाहरण के लिए, ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी ने कोविशील्ड टीका बनाने वाली ब्रिटिश फार्मा कंपनी एस्ट्राज़ेनेका से कोई पेटेंट शुल्क नहीं लिया। अपने तईं एस्ट्राज़ेनेका ने भी सहमति जताई कि वह महामारी खत्म होने तक इस टीके पर कोई मुनाफा नहीं कमाएगी। लिहाज़ा, उसने सीरम इंस्टीट्यूट से इस टीके का उत्पादन करने के एवज में अत्यधिक शुल्क नहीं लिया।

अलबत्ता, दवा कंपनियों के मुनाफा हितों और विभिन्न दक्षिणपंथी सरकारों के राष्ट्रवादी दिखावे (अंधराष्ट्रवाद की हद तक) ने इस अभूतपूर्व स्वास्थ्य संकट में वैश्विक मानवतावादी प्रतिक्रिया को बहुत नुकसान पहुंचाया। यहां मैं सिर्फ भारत का उदाहरण लेकर यह दर्शाने की कोशिश करूंगा कि लोकलुभावन, राष्ट्रवादी दिखावे और मुनाफा-केंद्रित दवा कंपनियों की भूमिका कैसी रही।

टीके की भूमिका और राजनीति

वायरस संक्रमण वाली कोई भी महामारी असुरक्षित या कमज़ोर आबादी (अधिकांश मामलों में बच्चों) को अपना शिकार बनाती है और फिर ‘सामूहिक प्रतिरक्षा’ (हर्ड इम्युनिटी) विकसित होने के बाद खत्म हो जाती है।

टीके विकसित होने के पहले तक खसरा, गलसुआ जैसी महामारियां फैलती रहती थीं और लोगों के स्वास्थ्य को क्षीण कर देने के बाद बिना किसी टीकाकरण के ही खत्म भी हो जाती थीं। स्वाइन फ्लू महामारी भी बिना किसी टीके के खत्म हो गई थी। 1918 की कुख्यात फ्लू महामारी को छोड़ दें तो अन्य किसी भी वायरल महामारी की तुलना में कोविड-19 महामारी कहीं अधिक क्षतिकारक थी, और अन्य वायरल महामारियों की तुलना में सिर्फ एक वर्ष में कोविड-19 से कहीं अधिक लोगों की मौतें हुई।

अलबत्ता, शुक्र है चमत्कारी वैज्ञानिक-तकनीकी विकास का, जिसने मानव इतिहास में पहली बार हमें एक ऐसा टीका दिया जो किसी नई बीमारी की पहली महामारी में ही लोगों को उसके प्रकोप से बचा सके। अन्य सभी टीकों ने केवल महामारी की रोकथाम की है और कुछ ने असुरक्षित या कमज़ोर लोगों को संक्रमित होने से बचाया है। कोविड-19 टीका दुनिया का पहला ऐसा टीका था जिसने महामारी के दौरान ही लोगों के स्वास्थ्य को कुछ हद तक सुरक्षित रखने में मदद की।

हालांकि इस पर शंका है कि क्या कोविड-19 के टीके ने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से वायरस के प्रसार को कम करके महामारी को फैलने से रोका है। लेकिन कोविड-19 का टीका असुरक्षित या कमज़ोर लोगों, जैसे वृद्धजनों और मधुमेह, उच्च रक्तचाप, मोटापा एवं फेफड़ों के जीर्ण रोग वगैरह से पीड़ित लोगों, में बीमारी के बिगड़ने और इसके चलते उनकी मृत्यु की संभावना को कम करता है। (कोविड-19 का टीका बच्चों के लिए उपयोगी नहीं है क्योंकि सामान्यत: छोटे बच्चों में कोविड-19 विकसित नहीं होता है और वे कोविड-19 से नहीं मरते हैं। दूसरी ओर, अति बुज़ुर्ग लोगों में कोविड-19 की मृत्यु दर बहुत अधिक है)।

देखा जाए तो, भारत के संदर्भ में कोविड-19 टीके को रक्षक कहने की बात बकवास है। इस महामारी पर काबू पाने में इस टीके की भूमिका के बारे में भारत सरकार और उसके समर्थकों के दावे वास्तविक कम और प्रपोगंडा अधिक थे। सरकार ने तरह-तरह से यह दावा किया है कि भारत में कोविड-19 टीकाकरण से महामारी पर अंकुश लगाने में काफी मदद मिली और लोगों को कोविड-19 के कारण होने वाली स्वास्थ्य-क्षति से काफी हद तक बचाया जा सका।

वैज्ञानिक साहित्य पहले दावे की पुष्टि नहीं करते हैं कि टीके ने SARS-Cov-2 के प्रसार को कम किया है, लेकिन इस बात के प्रमाण हैं कि समय पर टीकाकरण ने असुरक्षित आबादी में गंभीर संक्रमण पनपने को रोका है और मृत्यु दर को कम किया है। बहरहाल, जैसा कि हम आगे देखेंगे, भारत में कोविड-19 के नैसर्गिक तरह से फैलने की रफ्तार टीकाकरण की रफ्तार से कहीं अधिक थी क्योंकि टीकाकरण कार्यक्रम बहुत धीमी गति से चला था। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि भारत में इस टीकाकरण ने कोविड-19 की गंभीरता और मृत्यु दर को कम करने में कोई खास भूमिका निभाई हो।

विपणन अनुमति पर सवाल

किसी भी नई औषधि या टीके के विपणन या प्रचार-प्रसार की अनुमति प्राप्त होने के लिए उसे पहले जंतु मॉडल परीक्षण से गुज़रना होता है, फिर मानव प्रतिभागियों पर तीन चरणों (चरण-I, II, III) के क्लीनिकल परीक्षणों से गुज़रना होता है। चरण-I व चरण-II के अध्ययन मुख्य रूप से औषधि या टीके की सुरक्षितता और प्रतिरक्षा उत्पन्न करने की क्षमता का आकलन करते हैं, और चरण-III में बड़े पैमाने पर क्लीनिकल परीक्षण किए जाते हैं जिसमें मुख्यत: प्लेसिबो से तुलना करते हुए टीके की प्रभाविता परखी जाती है।

भारत में सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया ने एस्ट्राज़ेनेका के साथ विनिर्माण समझौते की मदद से ‘कोविशील्ड’ टीके का उत्पादन किया। इस टीके के विकास में ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय ने प्रमुख भूमिका निभाई थी। ऑक्सफोर्ड-एस्ट्राज़ेनेका के टीके को इंग्लैंड और ब्राज़ील में तीसरे चरण के परीक्षण को पूरा करने के बाद यूके के नियामक प्राधिकरण से विपणन (या इस्तेमाल) की अनुमति मिल गई। भारत में यहां के ‘न्यू ड्रग्स एंड क्लीनिकल ट्रायल रूल्स, 2019′ के तहत,  किसी अन्य देश में अनुमति प्राप्त किसी भी औषधि या टीके को भारत में उपयोग से पहले एक सेतु परीक्षण (ब्रिज ट्रायल) से गुज़रना पड़ता है ताकि यह जाना जा सके कि क्या वह औषधि या टीका भारतीय आबादी पर प्रभावी है या नहीं। लेकिन, तीसरे चरण के परीक्षण का भारतीय डैटा न होने के बावजूद भी सीरम इंस्टीट्यूट ने कोविशील्ड की विपणन अनुमति के लिए भारत के औषधि नियंत्रक को आवेदन दे दिया था। ऐसा करने के लिए कोई भी विस्तृत एवं विश्वसनीय वैज्ञानिक तर्क नहीं दिया गया था। लेकिन 2 जनवरी 2021 को अनुमति मिल गई; वैज्ञानिक रूप से और ‘न्यू ड्रग्स एंड क्लीनिकल ट्रायल रूल्स, 2019′ के मद्देनज़र इसे उचित ठहराना मुश्किल है।

विषय विशेषज्ञ समिति, भारत के औषधि नियामक को भारत में किसी नए टीके या दवा अपनाने के बारे में सलाह देती है। 30 दिसंबर, 2020 को इस समिति ने मीटिंग के दौरान, सीरम इंस्टीट्यूट को ‘पर्याप्त डैटा’ प्रस्तुत करने को कहा था। 1 जनवरी, 2021 को सीरम इंस्टीट्यूट ने ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय द्वारा इंग्लैंड और ब्राज़ील में किए गए परीक्षण के आंकड़े पेश किए थे, जिसके अनुसार कोविड-19 की गंभीर स्थिति न बनने देने और मृत्यु न होने देने में टीके की प्रभाविता औसतन 70 प्रतिशत है। इसे भारत के संदर्भ में चरण-I और चरण-II के परीक्षण का डैटा माना गया था। इसके आधार पर, 2 जनवरी 2021 को इस समिति ने चरण-III के भारतीय डैटा के बिना ही कोविशील्ड के उपयोग को हरी झंडी दिखा दी और चरण-III का डैटा न होने के पीछे कोई वैज्ञानिक स्पष्टीकरण भी नहीं दिया गया।

कोवैक्सीन के मामले में तो चरण-III डैटा के सर्वथा अभाव में अनुमति दी गई थी!! हालांकि, अनुमति में कहा गया था कि इंग्लैंड में उभरे नए उत्परिवर्ती संस्करण के मद्देनजर कोवैक्सीन का उपयोग ‘अत्यधिक ऐहतियात’ के साथ और ‘क्लीनिकल परीक्षण शैली’ के तहत किया जाएगा। तकनीकी विवरण में गए बिना, यह कहा जाना चाहिए कि कोवैक्सीन की यह सशर्त अनुमति भी वैज्ञानिक मानदंडों और ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक अधिनियम के प्रासंगिक नियमों के मद्देनज़र सवालों के घेरे में है। इसके अलावा ‘क्लीनिकल परीक्षण शैली’ का पालन बमुश्किल ही किया गया और आगे चलकर तो इसे भुला ही दिया गया।

यह तो सही है कि टीकाकरण महामारी काफी फैल जाने से पहले करना ज़रूरी होता है; लेकिन तीसरे चरण के भारतीय परीक्षणों के डैटा के अभाव में अनुमति देने की जल्दबाज़ी के पीछे इस ज़रूरत के अलावा दो अन्य बातें भी थीं।

सीरम इंस्टीट्यूट और भारत बायोटेक ने अनुमति का आवेदन करने से पहले ही क्रमश: 5 करोड़ और 1 करोड़ टीके बना लिए थे। सीरम इंस्टीट्यूट को इस स्टॉक को प्राथमिकता के आधार पर भारत सरकार को 200 रुपए प्रति खुराक की विशेष रियायती दर पर बेचना था, जबकि सीरम इंस्टीट्यूट के मालिक अदार पूनावाला ने कहा था कि वे कोविशील्ड की प्रति खुराक खुले बाज़ार में 1000 रुपए में बेचेंगे। यदि हम टीके की कीमत 200 रुपये प्रति खुराक भी मानें, तो यदि कोविशील्ड को अनुमति नहीं मिलती तो सीरम इंस्टीट्यूट 1000 करोड़ रुपए गंवाता और कोविशील्ड की 5 करोड़ खुराक बर्बाद हो जाती। लिहाज़ा, व्यवसाय के नज़रिए से सीरम इंस्टीट्यूट के लिए ज़रूरी था कि टीके को जल्द से जल्द अनुमति मिले। यही हाल भारत बायोटेक का भी था।

नियामक निर्णय-प्रक्रिया को व्यावसायिक मसलों से पूरी तरह अलग रखा जाना चाहिए। इसे सुनिश्चित करने में पारदर्शिता सबसे महत्वपूर्ण है। लेकिन सार्वजनिक तौर पर यह जानकारी उपलब्ध नहीं है कि इस विषय विशेषज्ञ समिति के सदस्य कौन थे, क्या इन सदस्यों का सम्बंधित दवा कंपनियों के साथ कोई सम्बंध था, समिति द्वारा अनुमति देने के पक्ष में दिए गए विस्तृत वैज्ञानिक तर्क क्या थे? अमेरिका में इस तरह की विशेषज्ञ सलाहकार समिति की मीटिंग बाहरी लोगों के लिए ऑनलाइन उपलब्ध होती हैं। भारत में नए टीकों के बारे में सरकार को सलाह देने के लिए नेशनल टेक्निकल एडवायज़री ग्रुप ऑन इम्युनाइज़ेशन (NTAGI) है। अलबत्ता, इसकी वेबसाइट पर कोविड-19 के इन दो टीकों की अनुमति के बारे में कोई जानकारी नहीं है!

कुछ लोगों ने राष्ट्रवादी भावनाएं भड़काकर कोवैक्सीन की अनुमति को इस आधार पर उचित ठहराने की कोशिश की कि कोवैक्सीन को नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी ने विकसित किया है। यकीनन यह बहुत ही संतोष और गर्व की बात है कि भारतीय वैज्ञानिकों ने एक वर्ष के भीतर कोविड-19 के लिए एक नया टीका विकसित कर लिया। लेकिन यह कतई स्वीकार्य नहीं है कि भारतीय लोगों में किसी टीके की प्रभाविता और सुरक्षितता के पर्याप्त सबूत के बिना ही उसके उपयोग की अनुमति दे दी जाए।

ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी ने कोई पेटेंट शुल्क नहीं लिया था, और न ही एस्ट्राज़ेनेका ने सीरम इंस्टीट्यूट से कोई पेटेंट शुल्क लिया। चूंकि सीरम इंस्टीट्यूट एक भारतीय कंपनी है इसलिए इसे कोविशील्ड के विपणन की अनुमति आत्म-निर्भर भारत की नीति के पूरी तरह अनुकूल थी, और इसीलिए कोविशील्ड को ‘विदेशी’ टीका कहने और कोवैक्सीन को भारतीय स्वदेशी टीके की तरह पेश करने का कोई तुक नहीं था।

टीकों की धीमी खरीद

सरकार ने 12 जनवरी 2021 को सीरम इंस्टीट्यूट को केवल 2.1 करोड़ खुराक और अप्रैल के अंत तक 13.1 करोड़ खुराक का ऑर्डर दिया था। यह तब था जब सीरम इंस्टीट्यूट ने पहले ही, दिसंबर 2020 तक, टीके की 5 करोड़ खुराकें बना ली थीं और उसके पास प्रति माह 5 करोड़ खुराक बनाने की क्षमता थी। एक बार जब कोविशील्ड को भारत में विपणन की अनुमति दे दी गई, तो सार्वजनिक क्षेत्र के टीका निर्माताओं को शामिल करने के अलावा भारत सरकार को कोविड-19 टीकों के लिए अग्रिम ऑर्डर देना चाहिए था और इसके लिए अग्रिम भुगतान करना चाहिए था, जैसा कि कई विकसित देशों ने किया था। ऐसा करने पर टीका उत्पादन क्षमता बहुत तेज़ी से बढ़ती। लेकिन ऐसा नहीं किया गया। 13.1 करोड़ खुराक के ऑर्डर पर करीब 200 करोड़ रुपए दिए गए थे जबकि वित्तमंत्री ने घोषणा की थी कि केंद्रीय बजट में कोविड-19 टीकाकरण के लिए 35,000 करोड़ रुपए रखे गए हैं! भारत बायोटेक की प्रति माह लगभग 2 से 3 करोड़ खुराक उत्पादन करने क्षमता थी। और यदि अग्रिम ऑर्डर मिल जाते, तो सीरम इंस्टीट्यूट और भारत बायोटेक मिलकर लक्ष्य (31 दिसंबर 2021 तक 200 करोड़ खुराक) को हासिल करने के लिए आवश्यक खुराकों की आपूर्ति कर सकते थे। लेकिन ऐसी योजना के अभाव में अप्रैल 2021 के बाद टीकों की कमी पड़ गई।

दूसरी बात। 45 वर्ष से अधिक उम्र के (सभी) लोगों को टीका लगाने का अपना लक्ष्य पूरा करने के पहले ही सरकार ने 18 अप्रैल को घोषणा कर दी कि अब 18 वर्ष से अधिक उम्र के सभी वयस्कों को टीका लगाया जाएगा! टीकाकरण केंद्रों पर बहुत अधिक तादाद में वयस्क टीका लगवाने पहुंचने लगे, जिसके परिणामस्वरूप केंद्रों पर टीकों की भारी कमी पड़ गई।

उससे भी बदतर तो केंद्र सरकार की यह घोषणा थी कि वह केवल 50 प्रतिशत टीकों की आपूर्ति करेगी; 25 प्रतिशत टीके निजी क्षेत्रों द्वारा खरीदे जाएंगे और 25 प्रतिशत टीके राज्य सरकारें खरीदेंगी। हालांकि कुल टीकाकरण केंद्रों में से केवल 3 प्रतिशत ही निजी टीकाकरण केंद्र थे, लेकिन निजी क्षेत्र को 25 प्रतिशत टीके आवंटित किए गए थे! जाहिर तौर पर यह फैसला इन दोनों कंपनियों को फायदा पहुंचाने के लिए था (जिसकी कीमत आम लोगों से वसूली जाती) क्योंकि खुले बाज़ार में इन दोनों टीकों की कीमत काफी अधिक तय की गई थी।

इसके चलते बड़ा विवाद और अराजकता पैदा हो गई क्योंकि विभिन्न राज्य सरकारों ने टीके खरीदने के लिए पर्याप्त निवेश करने में असमर्थता जताई। सबके लिए मुफ्त कोविड-19 टीकाकरण की नीति को लागू करने की बजाय निजी क्षेत्र को इसमें शामिल करने के लिए कई विशेषज्ञों और जनप्रतिनिधियों ने सरकार की कड़ी आलोचना की। जबकि अन्य सभी देशों सरकारों द्वारा मुफ्त टीकाकरण किया जा रहा था। सौभाग्य से सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में दखल दिया और केंद्र सरकार को यह याद दिलाया कि सबका निशुल्क टीकाकरण करना केंद्र सरकार की सामान्य ज़िम्मेदारी है और इसके लिए केंद्रीय बजट में आवंटित 35,000 करोड़ के फंड का उपयोग किया जाना चाहिए।

टीकाकरण की धीमी गति

महामारी विज्ञानियों का कहना था कि कोविड-19 बीमारी के खिलाफ सामूहिक प्रतिरक्षा (हर्ड इम्युनिटी) हासिल करने के लिए लगभग 70 प्रतिशत भारतीय (95 करोड़ लोग) टीकाकृत हो जाने चाहिए। इसका मतलब था कि 31 दिसंबर 2021 तक (यानी 351 दिनों में) करीब 180 करोड़ खुराकें दी जानी थीं, यानी औसतन प्रति दिन लगभग 51 लाख खुराकें। भारत सरकार द्वारा 16 जनवरी 2021 से शुरू किए गए टीकाकरण कार्यक्रम में सबसे पहले सभी स्वास्थ्य कर्मियों और फ्रंटलाइन कार्यकर्ताओं को टीकाकृत करना था, जिनकी कुल संख्या लगभग 3 करोड़ थी। इसके बाद अप्रैल के अंत से चरणबद्ध तरीके से 50 वर्ष से अधिक उम्र के सभी लोगों (कुल संख्या 27 करोड़) को टीका लगाया जाना था। फिर 50 वर्ष से कम आयु के उन सभी लोगों को भी टीका लगाने की आवश्यकता थी जिन्हें मधुमेह, उच्च रक्तचाप, मोटापा, जीर्ण फेफड़ों सम्बंधी बीमारी, एचआईवी संक्रमण आदि जैसी बीमारियां थी। इस तरह कुल मिलाकर करीबन 40-50 करोड़ लोग ऐसे थे जिन्हें जल्द और पहले टीकाकृत किया जाना चाहिए था ताकि वायरस इन लोगों तक पहुंचने के पहले ये टीकाकृत हो चुके हों।

गौरतलब है कि भारत में सरकारी स्वास्थ्य कार्यकर्ता हर साल पांच साल से छोटे बच्चों और गर्भवती महिलाओं को लगभग 15 करोड़ विभिन्न टीके लगाते हैं। अब उसी तंत्र से यह उम्मीद करना कि वह आने वाले तीन महीनों में अतिरिक्त 3 करोड़ कोविड-19 टीके लगाएगा, का मतलब था कि वे लगभग दुगनी गति से काम करें। कर्मचारियों की कमी और (1980 के दशक की निजीकरण की नीति की बदौलत) वित्त के अभाव से जूझती सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली पहले से ही थकी हुई थी क्योंकि उसे महामारी में जबरदस्त अतिरिक्त काम करना पड़ा था। सरकार द्वारा टीकाकरण की गति बढ़ाने के लिए अतिरिक्त कर्मचारियों की भर्ती भी नहीं की गई थी। सरकार ने शुरुआत में केवल 3000 टीकाकरण केंद्र स्थापित किए थे जिनमें प्रति दिन 100-100 टीके लगाए गए, यानी प्रति दिन ज़रूरी 51 लाख की बजाय मात्र 3 लाख टीके लगाए गए। इस दर से तो 3 करोड़ लोगों को टीकाकृत करने में 100 दिन लगते, और प्राथमिकता वाले 30 करोड़ लोगों को कवर करने में 1000 दिन!

टीकाकरण को रफ्तार देने के लिए, अस्थायी रूप से ही सही, प्रशिक्षित लोगों को त्वरित और बड़े पैमाने पर भर्ती करने की ज़रूरत थी, और आवश्यकतानुसार निजी क्षेत्र के डॉक्टरों को भी शामिल करना लाज़मी था। ऐसे डॉक्टरों की संख्या दस लाख से अधिक है। लेकिन इन दोनों उपायों पर कोई बात तक नहीं हुई। बस, टीकाकरण अभियान के बारे में प्रचार-प्रसार खूब हुआ! ‘कोविड-19 के खिलाफ दुनिया का सबसे बड़ा टीकाकरण अभियान’ के बारे में झूठे, दम्भी दावे किए गए!

शुरुआती महीनों में टीकाकरण की इस बहुत धीमी गति के चलते 21 जुलाई 2021 तक केवल 23 प्रतिशत भारतीयों को टीके की एक खुराक मिली थी और केवल 6.2 प्रतिशत को दो खुराक मिली थी। अलबत्ता, ICMR द्वारा किए गए अखिल भारतीय ‘सीरो-प्रिवेलेंस सर्वेक्षण’ के चौथे दौर के सर्वेक्षण से पता चला था कि जुलाई 2021 के अंत तक 67 प्रतिशत वयस्कों में कोविड-19 के खिलाफ एंटीबॉडी विकसित हो गई थी। (बच्चों को टीका नहीं लगाया गया था, लेकिन लगभग इसी अनुपात में बच्चों में भी कोविड-19 के खिलाफ एंटीबॉडीज़ मिलीं!) इससे यह स्पष्ट है कि जितनी तेज़ी से कोविड-19 फैला उसकी तुलना में टीकाकरण बहुत धीमा था। इसलिए भारत में जिन लोगों ने कोविड-19 संक्रमण के खिलाफ प्रतिरक्षा विकसित कर ली थी, उनमें से अधिकांश में यह नैसर्गिक संक्रमण के ज़रिए विकसित हुई थी। भारतीयों का केवल एक छोटा-सा हिस्सा ही टीकाकरण के कारण गंभीर कोविड-19 बीमारी और मृत्यु से सुरक्षित हो पाया था।

बहरहाल, उपरोक्त ‘नैसर्गिक टीकाकरण’ ने बहुत तेज़ी से अपना काम करके लोगों के स्वास्थ्य को बहुत अधिक प्रभावित किया, क्योंकि SARS-Cov-2 वायरस से संक्रमित हुए अधिकांश लोगों को कोविड-19 रुग्णता हुई; इनमें से काफी लोग मध्यम से लेकर गंभीर स्थिति तक पहुंच गए और लगभग 0.1 प्रतिशत संक्रमित लोगों की मृत्यु हुई।

अर्थात कोविड-19 के खिलाफ यह ‘नैसर्गिक टीकाकरण’ लोगों को बहुत महंगा पड़ा। इसलिए, कोविड-19 टीकों के बेतुके विरोध पर आधारित राजनीति से भी दूरी बनाने की आवश्यकता है। भारत में शुरुआती महीनों में बहुत धीमी खरीद और टीकाकरण प्रक्रिया के कारण गैर-टीकाकृत लाखों लोग कोविड-19 के संक्रमण की चपेट में आए, और सरकारी टीकाकरण कार्यक्रम उन तक पहुंचने के पहले लाखों लोग मारे गए।

हैरतअंगेज़ बात है कि ICMR ने जुलाई 2021 के बाद राष्ट्रीय ‘सीरो-प्रिवेलेंस सर्वेक्षण’ करना बंद कर दिया था, और इस तथ्य के बारे में बहुत कम चर्चा हुई कि अधिकांश भारतीयों में टीकाकरण के पहले SARS-Cov-2 के खिलाफ एंटीबॉडी विकसित हो चुकी थी! बाद का टीकाकरण ‘घोड़े के भाग जाने के बाद अस्तबल का दरवाज़ा बंद करने’ जैसा था!

कोविशील्ड के कुप्रभाव

यह पहली बार व्यापक रूप से यूके और कुछ अन्य युरोपीय देशों में बताया गया था कि एस्ट्राज़ेनेका टीके की पहली खुराक देने के बाद पहले चार हफ्तों के भीतर टीके के कारण कुछ मुख्य शिराओं में रक्त का थक्का जमने (वैक्सीन इनड्यूस्ड थ्रम्बोसाइटोपेनिया और थ्रम्बोसिस, VITT) की स्थिति बन सकती है। इसलिए कुछ युरोपीय देशों ने इसके उपयोग को अस्थायी तौर पर बंद भी कर दिया था। बाद में यह सामने आया कि यह स्थिति करीब 10 लाख लोगों में से महज 5 मामलों में उभरने संभावना है और इनमें मृत्यु की संभावना 25 प्रतिशत है। दूसरी ओर, स्वयं कोविड-19 के कारण इस तरह के रक्त के थक्के जमने की संभावना 8-10 गुना अधिक थी। इसलिए युरोपीय मेडिसिन एजेंसी ने यह सिफारिश की थी कि एस्ट्राज़ेनेका का टीका कोविड-19 के कारण अधिक गंभीर जोखिम से बचाव के लिए देना जारी रखा जाए। भारत में, कोविशील्ड पर सीरम इंस्टीट्यूट ने अपनी फैक्ट शीट में लिखा है कि लगभग एक लाख में से एक व्यक्ति में टीकाकरण की पहली खुराक के बाद रक्त का थक्का बनने की समस्या हो सकती है।

टीकाकरण उपरांत प्रतिकूल प्रभाव (AEFI) देखने के लिए भारत सरकार के निगरानी तंत्र द्वारा पहले 75 करोड़ टीकाकरणों में AEFI के केवल 27 मामले दर्ज हुए, यानी प्रति 15 लाख में 1 मामला! ऐसा इसलिए है कि 1988 में स्थापित इस तंत्र का काम संतोषप्रद नहीं रहा है। इसकी कार्यप्रणाली भी विवादास्पद है। चूंकि यह प्रणाली पारदर्शी नहीं है, इसलिए हो सकता है कि टीके से सम्बंधित किसी घटना या दुष्परिणाम को ‘टीके से सम्बंधित नहीं’ की श्रेणी में डाल दिया गया हो और इसलिए मुआवजे से कोई अनुचित इनकार नहीं किया गया है। इसके अलावा, भारत में टीके से पहुंची क्षति के लिए पीड़ितों को ‘नो-फॉल्ट मुआवज़ा’  (no fault compensation)देने की कोई व्यवस्था नहीं है, और इन 27 मामलों में से किसी को भी मुआवजा नहीं दिया गया। भारत में ‘नो-फॉल्ट मुआवज़ा’ व्यवस्था शुरू करने की सख्त ज़रूरत है। इससे सरकार पर राष्ट्रीय टीकाकरण कार्यक्रम के तहत पर्याप्त जांच-परीक्षण और औचित्य के बिना नए टीके लाने पर भी लगाम लगेगी।

निजी निर्माताओं की मुनाफाखोरी

आपूर्ति की बाधा को दूर करने के लिए सरकार को सार्वजनिक क्षेत्र की टीका निर्माण इकाइयों में इन टीकों के उत्पादन की अनुमति देने के लिए अनिवार्य लाइसेंसिंग का प्रावधान लागू करना चाहिए था। ये इकाइयां आज़ादी के 40 वर्षों बाद तक राष्ट्रीय टीकाकरण कार्यक्रम के लिए बहुत कम कीमत पर उच्च गुणवत्ता वाले टीकों का मुख्य स्रोत रही हैं। हालांकि, सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के विपरीत जाकर सरकार द्वारा सार्वजनिक क्षेत्र की टीका निर्माण इकाइयों को व्यवस्थित रूप से कमज़ोर कर देने के बाद स्थिति काफी बदल गई है। ICMR के वैज्ञानिक एक साल के भीतर कोविड-19 का एक अच्छा टीका विकसित करने में सक्षम हुए हैं, यह बड़े गर्व की बात है। सरकार के लिए यह काफी तर्कपूर्ण होता कि वह सार्वजनिक क्षेत्र की इकाइयों को इस टीके का उत्पादन करने देती। लेकिन इस आपात स्थिति में भी, निजीकरण की नीति जारी रही और कोविड-19 टीके का निर्माण पूरी तरह से निजी कंपनियों के हाथों में ही रहा।

सरकार ने सम्बंधित निजी कंपनियों को कोविड-19 टीके पर अत्यधिक मुनाफा कमाने की अनुमति भी दी। उदाहरण के लिए, सीरम इंस्टीट्यूट के अदार पूनावाला ने एनडीटीवी को बताया कि जब वे केंद्र सरकार को 150 रुपए प्रति खुराक की दर पर टीका बेच रहे थे तो उन्हें घाटा तो नहीं हुआ, लेकिन यह कीमत इतना लाभ कमाने के लिए पर्याप्त नहीं है जिससे उत्पादन क्षमता बढ़ाने हेतु निवेश किया जा सके। मान लेते हैं कि कोविशील्ड की प्रति खुराक उत्पादन लागत लगभग 125 रुपए थी और इसलिए सरकार को इस टीके की (अधिकतम) कीमत 250 रुपए प्रति खुराक रखनी चाहिए थी। यह 1995-2013 तक सरकारी नीति के अनुसार होती, जिसमें कहा गया है कि मूल्य नियंत्रण के तहत आने वाली सभी ज़रूरी दवाइयों का अधिकतम खुदरा मूल्य (MRP) उत्पादन लागत से दुगना तक हो सकता है (उससे अधिक नहीं)। इस तथ्य को देखते हुए कि कोविशील्ड न केवल एक आवश्यक टीका था बल्कि जीवनरक्षक भी था, अत: इसकी MRP 250 रुपए से अधिक नहीं होनी चाहिए थी। लेकिन सरकार ने घोषणा की कि 7 जून 2021 से लोगों को कोविशील्ड 780 रुपए में उपलब्ध होगा (अस्पतालों के 150 रुपए सेवा शुल्क सहित)। इसका मतलब यह हुआ कि सीरम इंस्टीट्यूट को प्रति खुराक करीब 500 रुपए का मुनाफा होता। निजी अस्पतालों में कोवैक्सीन की कीमत 1410 रुपए प्रति खुराक घोषित की गई थी!!

निष्कर्ष में, यह कहा जा सकता है कि भारत में कोविड-19 टीकों के मामले में संकीर्ण कॉर्पोरेट हितों और लोकलुभावने, राष्ट्रवादी राजनीतिक हितों/रुखों ने इस महामारी के प्रति मानवतावादी, विज्ञान-आधारित प्रतिक्रिया को धूमिल कर दिया। सरकार के कोविड-19 टीकाकरण कार्यक्रम का बड़े ज़ोर-शोर से प्रचार-प्रसार का उद्देश्य यह धारणा बनाना था कि इस टीकाकरण ने लोगों को महामारी से बचाया है। लेकिन कटु सत्य यह है कि भारत सरकार की कोविड-19 टीकों की खरीद और उपयोग में ढिलाई के कारण टीकारण कार्यक्रम से इस महामारी से लोगों को गंभीर हालत में पहुंचने और मौत के घाट उतरने से बचाने में बहुत मदद नहीं मिली। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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