चमगादड़ों की कमी से शिशुओं की बढ़ती मृत्यु दर

हाल ही में हुए एक अध्ययन ने चमगादड़ों की संख्या और शिशु मृत्यु दर (infant mortality) के बीच एक अप्रत्याशित सम्बंध का खुलासा किया है – शिशु मृत्यु दर में वृद्धि चमगादड़ों की घटती संख्या से जुड़ी है। 

दरअसल, वर्ष 2006 में न्यू इंग्लैंड क्षेत्र में खतरनाक फंगल बीमारी, व्हाइट नोज़ सिंड्रोम (White Nose Syndrome) के कारण बड़े पैमाने पर चमगादड़ों की मौत हो गई थी। चमगादड़ों की आबादी में आई कमी के कारण कीटों (insects) की संख्या में वृद्धि हुई, जिससे किसानों ने अधिक मात्रा में कीटनाशकों (pesticides) का उपयोग किया। साइंस पत्रिका (Science Journal) में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार, कीटनाशक उपयोग में हुई 31 प्रतिशत की वृद्धि से प्रभावित इलाकों में शिशु मृत्यु दर 8 प्रतिशत बढ़ गई। 

गौरतलब है कि चमगादड़ प्राकृतिक कीट नियंत्रक (natural pest control) के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं; ये हर रात बड़ी संख्या में कीटों का शिकार करते हैं। कुछ प्रजातियां तो हर रात अपने शरीर के वज़न के 40 प्रतिशत के बराबर कीटों को खा जाती हैं। इस सेवा का मूल्य लगाया जाए तो इतनी मात्रा में कीटों का सफाया करने में प्रति वर्ष 300 अरब से 4000 अरब रुपए का खर्चा बैठता है। 

जब कीटों को खाने वाले चमगादड़ कम हो गए तो कीट बढ़ गए और किसानों को कीटनाशकों का सहारा लेना पड़ा। पूर्व अध्ययनों में देखा गया है कि कुछ कीटनाशक, खासकर तंत्रिका तंत्र (nervous system) को प्रभावित करने वाले, बच्चों और शिशुओं के लिए गंभीर खतरे का कारण बनते हैं। अध्ययन का दावा है कि कीटनाशकों के बढ़ते उपयोग का इंसानों (human health), विशेषकर शिशुओं की सेहत पर बुरा असर पड़ा। 

इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने चमगादड़-विहीन क्षेत्रों (bat-free areas) की तुलना चमगादड़-बहुल इलाकों (bat-rich areas) से की। उन्होंने पाया कि जिन क्षेत्रों में चमगादड़ खत्म हो गए थे, वहां कीटनाशकों का उपयोग अधिक था और शिशुओं की बीमारियों तथा जन्मजात विकृतियों (birth defects) के कारण मृत्यु दर में वृद्धि पाई गई। हालांकि, अन्य कारणों से होने वाली मौतों में वृद्धि नहीं देखी गई, जो इस अध्ययन के निष्कर्षों को और भी पुष्ट करते हैं। 

हालांकि, उन इलाकों में कीटनाशकों का उपयोग सरकारी नियंत्रण में किया जाता है। फिर भी ये हवा या पानी (air or water contamination) के ज़रिए फैलकर असर कर सकते हैं। 

यह अध्ययन इस बात पर ज़ोर देता है और चेताता है कि वन्यजीवों की कमी इंसानों की सेहत (human health) को भी प्रभावित कर सकती है। हालांकि इस मुद्दे पर और शोध की ज़रूरत है। 

फिलहाल, चमगादड़ों की संख्या को बढ़ाने के लिए संरक्षण प्रयास जारी हैं, लेकिन इसमें कई दशकों का समय लग सकता है। इस बीच, बीमारी अमरीका के अधिक कृषि क्षेत्रों में भी फैल रही है, जिससे कृषि (agriculture) और मानव स्वास्थ्य पर खतरा मंडरा रहा है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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तैयारशुदा दवा मिश्रणों (एफडीसी) पर प्रतिबंध क्यों?

एस. श्रीनिवासन

केंद्र सरकार ने हाल ही में 156 नियत खुराक संयोजनों (फिक्स्ड डोज़ कॉम्बिनेशन ड्रग्स या एफडीसी) के उत्पादन, विपणन और वितरण पर प्रतिबंध लगाया है। विशेषज्ञ समितियों के मुताबिक ये एफडीसी बेतुके हैं या चिकित्सा की दृष्टि से इनका कोई औचित्य नहीं हैं (medical necessity)। 

लेकिन ऐसा पहली बार नहीं हुआ है। जून 2023 में केंद्र सरकार ने 14 एफडीसी औषधियों पर प्रतिबंध लगाया था (drug bans)। और 2016 से अब तक लगभग 500 एफडीसी औषधियों पर प्रतिबंध लगाया जा चुका है। ये प्रतिबंध क्यों? 

लेकिन पहले यह देखते हैं कि एफडीसी औषधियां या नियत खुराक संयोजन क्या हैं? नियत खुराक संयोजन (एफडीसी) ऐसी औषधियां होती हैं जिसमें एक गोली, कैप्सूल, या शॉट में दो या दो से अधिक औषधियां या दवाएं एक साथ होती हैं (fixed dose combinations)। उदाहरण के लिए, पैरासिटामॉल और इबुप्रोफेन। यदि पैरासिटामॉल और इबुप्रोफेन को मिलाते हैं तो यह एक एफडीसी है, यह संयोजन कॉम्बिफ्लेम में होता है (Combiflam)। किसी समय में हमारे यहां एक-एक एफडीसी में 10-10 दवाओं का मिश्रण हुआ करता था और आज भी ऐसी दवाइयां प्रचलन में है, जिनकी वास्तव में कोई ज़रूरत न तब थी और न आज है (medicinal needs)। 

एक सवाल यह उठता है कि सिर्फ भारत में इतने बेतुके दवा संयोजन देखने को क्यों मिलते हैं? दरअसल 70, 80 और 90 के दशक में, भारत विश्व के (कम से कम विकासशील विश्व के) लिए ‘दवा सप्लायर’ बनने की राह पर था और आज भी है और खूब प्रगति कर रहा था (pharmaceutical supplier)। उस समय देश में औषधि निर्माण के कायदे-कानून इतने सख्त नहीं थे जितने सख्त होने चाहिए थे। दवा निर्माताओं ने इसका फायदा उठाया। कैसे? 

भारत में नई दवा को बाज़ार में लाने की सामान्य प्रक्रिया यह है कि किसी भी नई औषधि के लिए आवेदन और ज़रूरी जानकारी केंद्र सरकार के संगठन, सेंट्रल ड्रग स्टैंडर्ड्स कंट्रोल ऑर्गनाइज़ेशन (CDSCO), को दिया जाता है (CDSCO approval)। CDSCO की विशेषज्ञ समिति इस पर विचार करके इसे मंज़ूर (या नामंज़ूर) करती है। CDSCO से मंज़ूरी मिल जाने के बाद, दवा निर्माता को इस दवा निर्माण के लिए राज्य लायसेंसिंग अधिकारी से लायसेंस प्राप्त करना होता है (state licensing authority)। लायसेंस मिलने के बाद ही उसका उत्पादन शुरू किया जा सकता है।

अब, 70-80-90 के दशक में हुआ यह कि कई निर्माता केंद्रीय प्राधिकरणों से इनकी जांच-परख कराने और मंज़ूरी लेने की ज़हमत उठाने की बजाय लाइसेंस के लिए सीधे लायसेंसिंग प्राधिकरण के पास चले जाते थे (regulatory authorities)। वास्तव में, राज्य लायसेंसिंग प्राधिकरण को पूछना चाहिए था कि क्या आपको केंद्रीय प्राधिकरण से मंज़ूरी मिल गई है (central approval)? लेकिन वे नहीं पूछते थे। तो, निर्माताओं ने इस ढीले-ढाले रवैये का फायदा उठाया और अपनी मनचाही औषधियों का निर्माण किया (manufacturing practices)। और इस तरह जांच-परख के अभाव में कई बेतुकी और बिना किसी औचित्य की दवाएं बाज़ार में आ गईं (market regulations)। 

चूंकि तब भारतीय फार्मा उद्योग खूब फल-फूल रहा था, जो अभी भी उत्तरोत्तर बढ़ ही रहा है (Indian pharmaceutical industry), इसलिए इतनी सारी औषधियां बाज़ार में लाने को एक जश्न की तरह देखा गया। और इस तरह दवा निर्माता अधिकाधिक औषधियां बाज़ार में लाते गए (market expansion)। 

वे सिर्फ शॉर्टकट से अत्यधिक औषधियां नहीं लाए, बल्कि उन्होंने कई विवादास्पद दावे भी किए। जैसे एफडीसी में आपको एक से अधिक ऐसी दवाइयां मिलेंगी जो आपके लिए बेहतर है (product claims)। लेकिन किसी ने उन दावों पर सवाल नहीं उठाए। और तो और, (कुछ भले लोगों को छोड़कर) डॉक्टरों, चिकित्सा पेशेवरों, इंडियन मेडिकल एसोसिएशन जैसे ज़िम्मेदार समूहों तक ने इन पर सवाल नहीं उठाए (medical professionals, Indian Medical Association)। 

बाज़ार में एफडीसी की बाढ़ लाने में एक कारण कीमत भी है (drug pricing)। दरअसल, एफडीसी औषधियां बनाकर निर्माता (एकल) औषधियों के लिए सरकार द्वारा निर्धारित अधिकतम मूल्य से बच निकलते हैं (price control regulations)। फिलहाल, भारत में राष्ट्रीय ज़रूरी दवा सूची (NLEM) में शामिल 384 दवाइयां मूल्य नियंत्रण के दायरे में हैं (NLEM list)। लेकिन 80-90 के दशक में, बहुत कम औषधियां मूल्य नियंत्रण के अधीन थीं; बाज़ार में मौजूद कुल औषधियों में से लगभग 5-10 प्रतिशत। आज भी यह अधिक से अधिक 20 प्रतिशत है (market share, drug pricing controls)। 

अब यदि निर्माता NLEM में शामिल औषधि के मूल्य नियंत्रण से बचना चाहते हैं तो रास्ता आसान है; औषधि में कैफीन जैसी कोई चीज़ जोड़कर इसके निर्माण के लिए अनुमोदन ले लिया जाए (exemptions from price control)। यह मिश्रण दवा मूल्य नियंत्रण से बाहर हो जाएगी (price control exemptions)। 

इसके अलावा, यदि पैरासिटामॉल की 500 मि.ग्रा. की गोली NLEM सूची में है, तो निर्माता इसका पैरासिटामॉल 501 मि.ग्रा. संस्करण बनाकर मूल्य नियंत्रण से बाहर निकल सकते हैं (dosage variations)। क्योंकि मूल्य नियंत्रण सिर्फ औषधियों की विशेष शक्ति पर लागू होता है। इसका वास्तविक उदाहरण है बाज़ार में मौजूद पैरासिटामॉल 1000 मि.ग्रा. (high dosage forms)। पैरासिटामॉल का यह अनुचित डोज़ है, लेकिन इसे मंज़ूरी मिली हुई है, बाज़ार में उपलब्ध है और यह मूल्य नियंत्रण से बाहर है (market availability, price control). तो, बस खुराक बदलकर, या एक या अधिक सामग्री जोड़कर निर्माता इसे एक नई दवा कहते हैं और मूल्य नियंत्रण से बच निकलते हैं (regulatory loopholes, price control evasion)।

सिर्फ इतना ही नहीं, दवा निर्माता अपनी महंगी दवाइयों को खरीदने के लिए लोगों को बेतुके तर्क देकर बरगलाते भी हैं (marketing tactics)। जैसे वे इन महंगी दवाओं को यह कहकर बेचते हैं कि हम आपको एक से अधिक समस्याओं के लिए एक साथ दो दवाएं दे रहे हैं (product benefits, combination drugs)। 

सवाल उठता है कि आखिर क्या एफडीसी कभी उपयुक्त भी होते हैं या हमेशा बेतुके होते हैं (appropriateness of FDCs)? ऐसा नहीं हैं। कुछ मामलों में एफडीसी उपयोगी होते हैं। जैसे तब जब उनमें उपस्थित घटक लगभग हमेशा साथ-साथ देना ज़रूरी होता है (functional combinations)। जीवन रक्षक घोल (ओआरएस) एक उदाहरण है (ORS solution)। इसमें मिलाए गए घटक डीहायड्रेशन कम करने, दस्त की रोकथाम वगैरह में ज़रूरी हैं। इसके अलावा, कई घटक एक-दूसरे की क्रिया में मददगार होते हैं। इस स्थिति में इन्हें सिनर्जिस्टिक कहते हैं (synergistic effects)। यदि किसी एफडीसी के घटक सिनर्जिस्टिक हैं तो उसे तर्कसंगत कहा जा सकता है (rational use of FDCs)। 

फिर, एफडीसी के घटकों की जैव-उपलब्धता (bioavailability) पर विचार करना होगा। यानी यदि दो या दो से अधिक औषधियां सम्मिलित रूप में परोसी जा रही हैं तो उन्हें लगभग एक ही समय में रक्त में चरम पर होना चाहिए (pharmacokinetics)। लेकिन अधिकांश एफडीसी में शामिल दवाइयों के साथ ऐसा नहीं है। इसलिए, ऐसे मिश्रण तर्कहीन हैं (inappropriate combinations)। 

वास्तव में, NLEM, 2022 में तकरीबन 384 ज़रूरी दवाइयों में से केवल 22 एफडीसी ही इस सूची में है (essential medicines list, NLEM)। चूंकि ये NLEM में है, इसलिए इन 22 एफडीसी को तर्कसंगत माना जा सकता है (approved FDCs)। 

एक अनुमान है कि लगभग 800-900 अणु औषधीय उपयोग के लिए उपलब्ध हैं (drug molecules)। इनमें से कई औषधियों के निर्माण आदि सम्बंधी जानकारी एवं इनकी गुणवत्ता की जांच के तरीके भारतीय फार्माकोपिया व अन्य बेहतर नियंत्रित देशों के फार्माकोपिया में वर्णित हैं (pharmacopoeia standards)। एकल घटक औषधियों की गुणवत्ता या कारगरता परख के लिए अधिकतम 20 मानदंड हैं जिन पर खरा उतरना आवश्यक है। लेकिन यदि दो या अधिक घटकों का संयोजन कर दिया जाता है, तो हमारे पास इन संयोजनों की गुणवत्ता या कारगरता को जांचने-परखने के कोई मानक मानदंड नहीं है (combination standards, quality assessment)। क्योंकि इनका फार्माकोपिया में कोई उल्लेख नहीं है। नतीजा, एफडीसी के निर्माता ही हमें संयोजन के परीक्षण के तरीके बताते हैं (manufacturer claims)। इन पर निगरानी रखने वाले विशेषज्ञों के पास इन तरीकों को जांचने के लिए न तो समय होता है और न ही सुविधा (regulatory oversight)। नतीजतन, इन एफडीसी औषधियों की गुणवत्ता और कारगरता के बारे में कुछ कहना जटिल मामला हो जाता है (complexity in assessment)। और फिर, किसी ने इन पर पर्याप्त शोध भी नहीं किए हैं। NLEM में शामिल 22 संयोजनों पर ही पर्याप्त शोध हुए हैं (research gaps, studies on FDCs)।

उपरोक्त कारणों से बाज़ार में तर्कहीन एफडीसी की भरमार है (excess of irrational FDCs)। इनमें एंटीबायोटिक्स, दर्दनिवारक या मधुमेह-रोधी इत्यादि के संयोजन भी मौजूद हैं (antibiotic combinations, painkillers, antidiabetic drugs)। जैसे, एंटीबायोटिक और दर्दनिवारक, एंटीबायोटिक और एंटी-कोलेस्ट्रॉल, एंटीबायोटिक और एंटी-ब्लडप्रेशर, इत्यादि (antibiotic and painkiller, antibiotic and anti-cholesterol, antibiotic and anti-hypertension)। ये एफडीसी अलग-अलग उपचारात्मक वर्ग की औषधियों के मिश्रण हैं (therapeutic classes of drugs).

होता यह है कि (एफडीसी की भरमार के कारण) कई बार कोई रोगी दो, तीन या दस दवाओं के संयोजन वाली औषधि खा रहा होता है, जबकि उसे सिर्फ एक ही औषधि की ज़रूरत थी (excessive drug combinations)। जैसे, लोग दर्द के लिए कॉम्बिफ्लेम (पैरासिटामॉल और इबुप्रोफेन का संयोजन) लेते हैं (Combiflam, paracetamol and ibuprofen combination)। जबकि दर्द के लिए आपको सिर्फ पैरासिटामॉल की ज़रूरत है, इबुप्रोफेन की नहीं है (need for only paracetamol)। इसलिए, जब आप दर्द में कॉम्बिफ्लेम ले रहे हैं, तो आपको इबुप्रोफेन के प्रतिकूल प्रभाव होते हैं (adverse effects of ibuprofen)। इसी तरह, जब आप एफडीसी के चलते बेवजह पैरासिटामॉल खाते हैं तो लीवर की क्षति और अन्य समस्याएं हो सकती हैं (liver damage, unnecessary paracetamol intake)। अनावश्यक रूप से ज़्यादा दवाएं खा लेने के अपने साइड-इफेक्ट और प्रतिकूल प्रभाव होते हैं (side effects, adverse reactions)। इसलिए एफडीसी रोगी के जीवन को जटिल बना रही हैं (complications from FDCs)।

अब थोड़ा बाज़ार में इनकी बिक्री की स्थिति देखते हैं। एक आंकड़ा है कि भारत में दवाओं की कुल बिक्री का लगभग 50 प्रतिशत एफडीसी हैं और 50 प्रतिशत एकल घटक दवाएं हैं (market share of FDCs and single ingredient drugs)। ऐसा पाया गया है कि इस 50 प्रतिशत एफडीसी में से आधी बिक्री तो तर्कसंगत एफडीसी की है और शेष तर्कहीन एफडीसी की (rational vs irrational FDCs)। यानी बाज़ार में कम से कम 25 प्रतिशत तर्कहीन एफडीसी बिक रही हैं (percentage of irrational FDCs)。

वर्तमान में, भारत में औषधियों का बाज़ार लगभग 2 लाख करोड़ (2 ट्रिलियन) रुपए का है (pharmaceutical market size, 2 trillion INR)। इसमें से 25 प्रतिशत यानी 50,000 करोड़ रुपये तर्कहीन एफडीसी की खपत से आते हैं (market value of irrational FDCs)। यदि इन्हें बाज़ार से हटा दिया तो ज़ाहिर है, दवा की बिक्री में भारी गिरावट आएगी (impact on market sales)। बाज़ार तो इन दवाओं के हटाने तो तैयार नहीं होगा, न ही शेयरधारक क्योंकि उन्हें अपने निवेश पर रिटर्न चाहिए (shareholder interests, market resistance)。

तर्कहीन एफडीसी को बाज़ार से हटाने के लिए ज़रूरत है सरकार के स्तर पर उचित कार्रवाई की, उचित प्रक्रिया अपनाने की और सख्त नियम-कानून लागू करने की और उल्लंघन पर सख्त कार्रवाई की (government intervention, regulatory measures, strict enforcement)। यदि पहले से ही दवाओं का निर्माण उचित मंज़ूरी प्रक्रिया से गुज़रा होता और ऐसा न होने पर कंपनियों पर सख्त दंड लगाया गया होता तो यह नौबत न होती (approval process, penalties for non-compliance)। बस कुछ-कुछ समय के अंतराल में तर्कहीन दवाएं ढूंढकर उन पर प्रतिबंध लगा दिया जाता है (ban on irrational drugs, periodic monitoring)। होता यह है कि दवा कंपनियां इन प्रतिबंधों को निरस्त करवाने या स्थगन आदेश के लिए न्यायालय जाती हैं और न्यायालय की कार्रवाई में सालों-साल बीत जाते हैं (legal battles, court delays)। तब तक ये बेतुकी दवाइयां बाज़ार में बिकती रहती हैं (availability of irrational drugs in the market)। दरअसल, इस मामले में औषधि नियामकों और दवा उद्योग, दोनों को दोषी माना जाना चाहिए (responsibility of regulators and pharmaceutical industry)।

ऐसा ही मार्च 2016 में स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा नियुक्त कोकते कमेटी द्वारा 344 एफडीसी पर लगाए गए प्रतिबंध का मामले में हुआ था (March 2016, Kokate Committee). कोकते समिति ने करीब 6000 एफडीसी की जांच की थी (review of 6000 FDCs)। समिति ने इन एफडीसी को चार श्रेणियों में डाला था (categories of FDCs)। पहली श्रेणी में 344 एफडीसी थीं जो निश्चित रूप से तर्कहीन थीं और इन पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने को कहा गया था (irrational FDCs, complete ban)।

दूसरी श्रेणी में ऐसी औषधियां थीं जिन पर अधिक डैटा की आवश्यकता थी (more data required)। और कंपनियों को इन पर अधिक डैटा प्रस्तुत करने के लिए समय दिया गया (extended deadline for data submission)। तीसरी श्रेणी तर्कसंगत एफडीसी की थी (rational FDCs)। वे उचित कागज़ी कार्रवाई के बाद इनका निर्माण विपणन जारी रख सकती थीं (market approval with proper documentation)। और चौथी श्रेणी में, वे एफडीसी थीं जिनकी तर्कसंगतता के बारे में कुछ कहने से पहले विपणन-पश्चात निगरानी, परीक्षण आदि की आवश्यकता थी (post-marketing surveillance required)।

लेकिन कंपनियां एकदम तर्कहीन 344 एफडीसी के मामले में तुरंत न्यायालय चली गईं (court cases against irrational FDCs)। न्यायालय ने सरकार को दोबारा जांच समिति बनाने का निर्देश दिया ताकि दवा उद्योग की राय पर फिर से विचार किया जा सके (court directives for re-evaluation)। डॉ. नीलिमा क्षीरसागर की अध्यक्षता में गठित इस समिति ने भी सितंबर 2018 में प्रतिबंध को जायज़ ठहराया (September 2018, Dr. Neelima Kshirsagar Committee)। लेकिन कंपनियां फिर से अदालत पहुंच गईं (legal challenges by companies)। कंपनियां झुकने को तैयार नहीं होती हैं, भले ही उन्हें पता होता है कि दवाओं पर जो प्रतिबंध लगे हैं वे एकदम सही हैं (resistance to bans, valid restrictions)। कुछ को लगता है तर्कहीन एफडीसी से अच्छा मुनाफा मिलता है इसे हाथ क्यों जाने दें, इसलिए केस लड़ती हैं (profit from irrational FDCs, legal battles)। साथ में वकीलों को लाभ होता है (benefits to lawyers)। मुकदमा चलता रहता है और प्रतिबंधित एफडीसी बाज़ार में बिकती रहती हैं (market availability of banned FDCs)। प्रसंगवश यह बताया जा सकता है कि 2016 में हाई कोर्ट और 2018 में सुप्रीम कोर्ट में इन कंपनियों की पैरवी देश के नामी-गिरामी वकीलों ने की थी (notable lawyers in High Court and Supreme Court cases)। ताज़ा आदेश के सिलसिले में भी कंपनियां कोर्ट से कुछ राहत पाने में सफल रही हैं (recent court relief).

कुल मिलाकर स्थिति यह है कि भारत में निगरानी व्यवस्था अपर्याप्त है, और जो कुछ है उसका पालन घटिया दर्जे का है (insufficient regulatory oversight, poor enforcement)। और इसलिए कंपनियां जो चाहें कर रही हैं (industry malpractices)। वर्तमान में देखें तो हमारे पड़ोसी मुल्क बांग्लादेश के पास एक अच्छी दवा नीति है, जो उन्होंने 1982 में लागू की थी (Bangladesh drug policy, 1982)। उन्होंने बहुत सी तर्कहीन दवाइयों को हटा दिया था (removal of irrational drugs in Bangladesh)। वहां सामान्यत: केवल तर्कसंगत एकल घटक वाली दवाइयां ही उपलब्ध होती हैं (availability of rational single-ingredient drugs)। तो, जहां चाह है, वहां राह है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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लहसुन का रासायनिक खज़ाना

डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

जानवरों के विपरीत, पेड़-पौधे अपने शिकारियों से बचने के लिए भाग नहीं सकते – वे बस एक ही जगह जड़ खड़े रहते हैं। इसलिए पेड़ों ने अपनी सुरक्षा के लिए खुद को असंख्य रासायनिक ‘हथियारों’ (chemical weapons) से लैस किया है।

वैसे तो अपनी जगह से हिल-डुल न पाने के कारण समूचे पेड़-पौधे ही अपने शिकारियों से असुरक्षित होते हैं लेकिन पेड़-पौधों के वे हिस्से जो ज़मीन के नीचे होते हैं, हमलावरों से विशेष रूप से असुरक्षित होते हैं (underground threats). इनके भूमिगत खतरों की सूची लंबी है – बैक्टीरिया, कवक, कृमि, इल्लियां, घोंघे, चूहे आदि इस सूची में शामिल हैं (soil threats). अचरज न होगा कि सुरक्षा के लिए प्याज़ और लहसुन जैसे पौधों ने हर संभव तरह के सुरक्षा रसायनों से खुद को लैस किया है (onion and garlic, protective chemicals)। ये अपनी भूमिगत गाँठों (बल्बों) में भावी विकास के लिए भोजन (पोषण) संग्रहित करते हैं (bulbs, nutrition storage)।

तेईस सौ रसायन (2300 Chemicals)

हाल ही में, बहुत ही सूक्ष्म रासायनिक विश्लेषण करने वाले उपकरणों की मदद से पड़ताल करने पर पता चला है कि लहसुन की कलियों (या फांकों) में 2300 से अधिक रसायनों की ‘आणविक फौज’ (molecular arsenal) मौजूद होती है। इनमें से अधिकांश रसायनों की उपस्थिति का कारण हम अब तक समझ नहीं पाए हैं। इनमें से बमुश्किल 70 रसायन ही वर्तमान के पोषण चार्ट में शामिल हैं (nutritional chart). लहसुन इनमें से तीन पोषक तत्वों से मुख्य रूप से लबरेज़ है: मैंग्नीज़, सेलेनियम और विटामिन बी-6 (manganese, selenium, vitamin B6)।

लहसुन के कई अन्य घटक – जैसे थायोसल्फिनेट्स, लेक्टिन, सैपोनिन और फ्लेवोनॉइड्स – मनुष्यों में सुरक्षात्मक भूमिका निभा सकते हैं (thyiosulfates, lectins, saponins, flavonoids, protective role)। आश्चर्य की बात नहीं है कि मनुष्यों ने लंबे समय से अपने आहार में लहसुन को शामिल किया है (historical use of garlic)। 4000 साल पुरानी सुमेरियन मृदा तख्तियों में लहसुन के व्यंजनों का उल्लेख मिलता है (Sumerian tablets, garlic recipes)। और कई संस्कृतियों में लहसुन का उपयोग, पौष्टिक महत्व से परे, औषधीय गुणों के चलते किया जाता है (medicinal properties of garlic)।

भारत में (In India)

आयुर्वेद में, लहसुन वाला गर्म दूध (लहसुन क्षीरपाक) सांस सम्बंधी समस्याओं – जैसे दमा, खांसी, सर्दी-ज़ुकाम – में फायदेमंद माना जाता है (Ayurveda, garlic milk benefits)। साथ ही यह शक्तिवर्धक भी माना जाता है। इसी तरह, लहसुनी पानी का उपयोग टॉनिक के रूप में किया जाता है: यह पाचन सम्बंधी एंज़ाइमों के स्राव को उकसा कर पाचन में सुधार करता है, और इसके वातहारी गुण गैस बनने की समस्या को कम करते हैं (digestive tonic, garlic water benefits)।

लहसुन एवं सम्बंधित प्रजातियों के अन्य मसालों की खासियत है इनकी तीखी महक (pungent odor). यह महक इनमें सल्फर युक्त यौगिक से आती है (sulfur compounds)। लहसुन की खास महक एलिसिन (Allicin) नामक रसायन से आती है। लेकिन साबुत लहसुन या उसकी साबुत कली में एलिसिन मौजूद नहीं होता है (allicin formation). एलिसिन तो लहसुन में तब बनता है जब उसमें मौजूद एलिनेज़ (Alliinase) नामक एंज़ाइम गंधहीन एलीन (Alliin) से क्रिया करता है (enzyme reaction, alliin). जब हम लहसुन को काटते, कूटते, कुचलते या चबाते हैं तब ये दोनों (एलिनेज़ और एलीन) संपर्क में आते हैं और उनकी परस्पर क्रिया के फलस्वरूप एलिसिन बनता है (garlic preparation).

एलिसिन, ट्राइजेमिनल (trigeminal) तंत्रिका में संवेदी न्यूरॉन्स पर पाए जाने वाले ग्राहियों के साथ जुड़ता है (sensory neurons). ये ग्राही मुंह और नाक की संवेदनाओं को ग्रहण करते हैं (sensory receptors)। लहसुन की तीखी महक ग्राहियों से इसी जुड़ाव का नतीजा है (pungent sensation)।

एलिसिन और लहसुन के अन्य घटक जैसे डायलिल डाईसल्फाइड शोथ को प्रभावित करते हैं (diallyl disulfide, inflammation). इसके लाभकारी प्रभावों में रक्तचाप का नियंत्रण और हृदय सम्बंधी स्वास्थ्य का ख्याल रखना शामिल हैं (blood pressure control, heart health)। एक अन्य घटक, फ्लेवोनॉइड ल्यूटिओलिन, एमिलॉयड बीटा प्लाक के बनने को और उसके एक जगह जुटने को रोकता है (flavonoid luteolin, amyloid beta plaque); एमिलॉयड बीटा प्लाक का जमघट अल्ज़ाइमर रोग की प्रमुख निशानी है (Alzheimer’s disease).

लहसुन पर केंद्रित शोध भविष्य में लहसुन में पाए जाने वाले कई अन्य रसायनों की भूमिकाओं को उजागर कर सकते हैं (future research, garlic chemicals)। संभव है कि इनमें से कुछ रसायन, अकेले ही या किसी अन्य रसायन के साथ, मानव स्वास्थ्य की बेहतरी में योगदान देते हों (health benefits). लेकिन वर्तमान में हमें यह मालूम है कि लाभ के लिए हमारे आहार में लहसुन का संतुलित मात्रा में उपयोग महत्वपूर्ण है (balanced consumption). ताकि इसकी अति के चलते होने वाले सीने में जलन और दस्त जैसे दुष्प्रभावों से बचा जा सके (side effects, heartburn, diarrhea)। कुछ चिकित्सकों का कहना है कि हर दिन चार ग्राम सही मात्रा है (recommended dosage, 4 grams daily)।

भारत, लहसुन का दूसरा सबसे बड़ा उत्पादक देश है (India, second largest producer of garlic)। लहसुन की बढ़िया किस्में (जैसे रियावन लहसुन) मध्य प्रदेश के नीमच और रतलाम से आती हैं (Riyavan garlic, Neemuch, Ratlam); मध्य प्रदेश लहसुन का सबसे बड़ा उत्पादक राज्य है (largest producer state)। दक्षिण भारत में, कर्नाटक के गदग की लहसुन की स्थानीय किस्में अपने तेज़, और तीखे स्वाद और सुगंध के कारण खूब बिकती हैं (Gadag garlic, Karnataka). और फिर कई कश्मीरी किस्में भी हैं (Kashmiri varieties).

आप चाहें जिस भी किस्म के लहसुन इस्तेमाल करें, थोड़ा सा लहसुन ज़ायका बढ़ा सकता है और आपको सेहतमंद रखने में मदद कर सकता है (garlic benefits, enhance taste). (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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दुनिया की आधी आबादी को स्वच्छ पेयजल मयस्सर नहीं

हाल ही में साइंस पत्रिका में प्रकाशित एक नए अध्ययन का निष्कर्ष है कि दुनिया भर के लगभग 4.4 अरब लोग असुरक्षित पानी (unsafe drinking water) पीते हैं। यह संख्या पूर्व अनुमानों से लगभग दुगनी है। अनुमानों में अंतर का कारण संभवत: परिभाषाओं में है और सवाल यह है कि किस अनुमान को यथार्थ का आईना माना जाए हालांकि कोई भी आंकड़ा सही हो, स्थिति चिंताजनक और शर्मसार करने वाली तो है ही।

दरअसल, राष्ट्र संघ 2015 से इस बात का आकलन करता आया है कि कितने लोगों को सुरक्षित ढंग से प्रबंधित पेयजल (safe drinking water) उपलब्ध है। इससे पहले राष्ट्र संघ सिर्फ इस बात की रिपोर्ट देता था कि क्या वैश्विक जल स्रोत उन्नत हुए हैं। इसका मतलब शायद इतना ही था कि क्या पेयजल के स्रोतों को कुओं, पाइपों और वर्षाजल संग्रह (rainwater harvesting) जैसे तरीकों से बाहरी अपमिश्रण से बचाने की व्यवस्था की गई है। इस मानक के आधार पर लगता था कि दुनिया की 90 प्रतिशत आबादी के लिए ठीक-ठाक पेयजल की व्यवस्था है। लेकिन इसमें इस बात को लेकर जानकारी ना के बराबर होती थी कि क्या जो पानी मिल रहा है वह सचमुच स्वच्छ है (clean drinking water)।

2015 में ऱाष्ट्र संघ ने टिकाऊ विकास के लक्ष्य (sustainable development goals) निर्धारित किए थे। इनमें से एक लक्ष्य था: वर्ष 2030 तक “सबके लिए स्वच्छ व किफायती पेयजल (affordable drinking water) की सार्वभौमिक तथा समतामूलक पहुंच सुनिश्चित करना।” राष्ट्र संघ ने इसी के साथ सुरक्षित रूप से प्रबंधित पेयजल स्रोतों (safely managed water sources) के मापदंडों को भी फिर से निर्धारित किया: जल स्रोत बेहतर होने चाहिए, लगातार उपलब्ध होने चाहिए, व्यक्ति के निवास स्थान पर पहुंच में होने चाहिए और संदूषण-मुक्त होने चाहिए।

इस नई परिभाषा को लेकर जॉइन्ट मॉनीटरिंग प्रोग्राम फॉर वॉटर सप्लाई, सेनिटेशन एंड हायजीन (JMP) ने 2020 में अनुमान लगाया था कि दुनिया भर में ऐसे 2.2 अरब लोग हैं जिन्हें स्वच्छ पेयजल उपलब्ध नहीं है। जेएमपी (Joint Monitoring Program) विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) और युनिसेफ का संयुक्त अनुसंधान कार्यक्रम है। इस अनुमान तक पहुंचने के लिए कार्यक्रम ने देशों की जनगणना, नियामक संस्थाओं व सेवा प्रदाताओं की रिपोर्ट्स और पारिवारिक सर्वेक्षणों से प्राप्त आंकड़ों को आधार बनाया था।

लेकिन जेएमपी का तरीका स्विस फेडरल इंस्टीट्यूट ऑफ एक्वेटिक साइंस एंड टेक्नॉलॉजी की शोधकर्ता एस्थर ग्रीनवुड के तरीके से अलग था। जेएमपी ने किसी भी स्थान की स्थिति के आकलन के लिए चार में से कम से कम तीन मापदंडों को देखा था और फिर सबसे कम मूल्य को उस स्थान के पेयजल की समग्र गुणवत्ता का द्योतक माना था। उदाहरण के लिए, यदि किसी शहर के लिए इस बाबत कोई डैटा नहीं है कि क्या जल स्रोत लगातार उपलब्ध हैं लेकिन यह पता है कि वहां की 40 प्रतिशत आबादी को साफ पानी (clean water) उपलब्ध है, 50 प्रतिशत के पास उन्नत जल स्रोत (improved water sources) हैं और 20 प्रतिशत को घर पर ही पानी पहुंच में है तो जेएमपी का आकलन होगा कि उस शहर में 20 प्रतिशत लोगों को सुरक्षित ढंग से प्रबंधित पेयजल (safely managed drinking water) मिलता है। इसके बाद इस आंकड़े से सरल गणितीय तरीके का उपयोग करके पूरे देश के बारे में आकलन कर लिया जाता था।

दूसरी ओर, साइंस में प्रकाशित अध्ययन में 27 निम्न व मध्यम आमदनी वाले देशों में 2016 से 2020 के बीच किए गए सर्वेक्षणों को आधार बनाया गया है। इन सर्वेक्षणों में उन्हीं चार मापदंडों का इस्तेमाल करते हुए 64,723 परिवारों से जानकारी जुटाई गई थी। यदि किस परिवार के संदर्भ में 4 में से एक भी मापदंड पूरा नहीं होता था तो माना गया कि उसे स्वच्छ पेयजल उपलब्ध नहीं है। इसके बाद टीम ने एक मशीन लर्निंग एल्गोरिद्म (machine learning algorithm) को प्रशिक्षित किया व कई अन्य क्षेत्रीय कारक (औसत तापमान, जलवैज्ञानिक हालात, भूसंरचना और आबादी के घनत्व) भी जोड़े। इस आधार पर उनका अनुमान है कि दुनिया में 4.4 अरब लोगों को स्वच्छ पेयजल उपलब्ध नहीं है। और इनमें से भी आधे लोग जो पानी पीते हैं उसमें रोगजनक बैक्टीरिया ई. कोली (E. coli bacteria) पाया जाता है।

वैसे यह तय करना मुश्किल है कि इनमें से कौन-सा यथार्थ के ज़्यादा करीब है लेकिन इतना स्पष्ट है कि वैश्विक आबादी के एक बड़े हिस्से को स्वच्छ पेयजल जैसी बुनियादी सुविधा (basic water facility) भी उपलब्ध नहीं है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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एड्स की रोकथाम में एक लंबी छलांग

हाल ही में एड्स 2024 सम्मेलन (AIDS 2024 Conference) में दक्षिण अफ्रीका की शोधकर्ता लिंडा-गेल बेकर ने एक परीक्षण का विवरण प्रस्तुत किया जिसमें सहभागियों को 100 प्रतिशत सुरक्षा मिली है। इस परीक्षण के दौरान 2000 से ज़्यादा अफ्रीकी महिलाओं को एक एंटीवायरस औषधि (Antiviral Drug) लेनाकापेविर साल में दो बार दी गई थी। यह औषधि दरअसल संपर्क-पूर्व रोकथाम (Pre-exposure Prophylaxis) के तौर पर दी गई थी। इनमें से एक भी महिला एड्स वायरस (HIV Virus) से संक्रमित नहीं हुई। यह परीक्षण सिस-जेंडर महिलाओं पर किया गया था। सिस-जेंडर मतलब वे महिलाएं जो पुरुषों के साथ यौन सम्बंध बनाती हैं।

फिलहाल इस क्षेत्र के अन्य शोधकर्ता अगले परीक्षण के नतीजों की प्रतिक्षा करना चाहते हैं जो यूएस व अन्य 6 देशों में ऐसे पुरुषों पर किए जाएंगे जो अन्य पुरुषों से यौन सम्बंध रखते हैं। इस परीक्षण के परिणाम 2025 में मिलने की उम्मीद है। 

वैसे तो दुनिया भर में नए एच.आई.वी. संक्रमणों (New HIV Infections) की संख्या में गिरावट आई है लेकिन राष्ट्र संघ का कहना है कि यह प्रगति धीमी पड़ गई है। उस लिहाज़ से नई औषधि महत्वपूर्ण है। हालांकि संपर्क-पूर्व रोकथाम औषधियां आज भी मौजूद हैं लेकिन उनका असर सीमित ही रहा है। कुछ औषधियां ऐसी हैं जिनकी एक गोली रोज़ाना लेनी होती है। ऐसा करना सामाजिक लांछन (Social Stigma) और प्रायवेसी के अभाव में संभव नहीं हो पाता।

एक इंजेक्शन कैबोटाग्रेविर (Cabotegravir Injection) भी उपलब्ध है जो दो महीने में एक बार दिया जाता है। इसे 2022 में विश्व स्वास्थ्य संगठन (World Health Organization) ने जोखिमग्रस्त समूहों के लिए अनुशंसित किया था। सिस-जेंडर महिलाओं में इसने गोली की तुलना में संक्रमण की रोकथाम 88 प्रतिशत दर्शाई थी।

पर्पज़-1 परीक्षण (Purpose-1 Trial) में दक्षिण अफ्रीका और यूगांडा की 2134 किशोरियों व युवा महिलाओं को हर 6 माह में लेनाकापेविर का इंजेक्शन दिया गया था। यह परीक्षण तब समाप्त कर दिया गया जब आधे सहभागियों को शामिल किए 1 वर्ष पूरा हो गया और 100 प्रतिशत सुरक्षा देखने को मिली। इसी परीक्षण के दो अन्य समूहों के 3000 सहभागियों को या तो प्रतिदिन एमट्रिसिटाबिन/टेनोफोविर (Emtricitabine/Tenofovir) की एक-एक गोली प्रतिदिन दी गई थी या इसी दवा का एक कम साइड इफेक्ट वाला संस्करण दिया गया था। इन समूहों में 50 नए एच.आई.वी. संक्रमण सामने आए जो सामान्य से बहुत कम नहीं था। ऐसे 10 प्रतिशत सहभागियों के खून की जांच से पता चला कि इन्होंने रोज़ाना एक गोली की बजाय शायद प्रति सप्ताह तीन या उससे भी कम गोलियां खाई थीं जो शायद संक्रमण का मुख्य कारण रहा।

लेनाकापेविर इंजेक्शन के माध्यम से दी जाती है और यह सवाल खड़ा है कि क्या लंबे समय तक नियमित रूप से इंजेक्शन लेते रहना आसान होगा। लेनाकापेविर इंजेक्शन त्वचा के नीचे के ऊतक में दिया जाता है। यदि सावधानीपूर्वक न दिया जाए तो यह काफी दर्दनाक हो सकता है। परीक्षण के दौरान ही (जहां बहुत सावधानी बरती जाती है) कुछ सहभागियों को इस तरह की तकलीफ हुई थी। बड़े पैमाने पर यह एक बड़ी समस्या हो सकती है। दूसरी समस्या है कि लेनाकापेविर महंगी (Expensive Drug) है, हालांकि इसके समाधान के प्रयास चल रहे हैं। 

लेनाकापेविर एक नए किस्म की औषधि है। यह वायरस की जेनेटिक सामग्री के आसपास बने आवरण (कैप्सिड) से जुड़ जाती है और वायरस के जीवन चक्र को छिन्न-भिन्न कर देती है। वैसे अभी तक वायरस में इसके खिलाफ प्रतिरोध (Resistance) विकसित करने का कोई मामला सामने नहीं आया है लेकिन लंबे समय तक बड़े पैमाने पर इस्तेमाल से बात अलग हो सकती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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एड्स से लड़ाई में एक और मील का पत्थर

जर्मनी में एक 60 वर्षीय व्यक्ति (HIV treatment) वायरस से मुक्त घोषित कर दिया गया है। वह दुनिया का ऐसा सातवां व्यक्ति है। लेकिन इस व्यक्ति के संदर्भ में एक विशेष बात यह है कि वह ऐसा दूसरा व्यक्ति है जिसे ऐसी स्टेम कोशिकाएं (stem cell transplant) प्रत्यारोपित की गई थीं जो वायरस की प्रतिरोधी नहीं हैं। दरअसल इस उपचार के संयोजक कैंब्रिज विश्वविद्यालय के रविंद्र गुप्ता स्वयं अचंभित हैं कि इसने काम कर दिखाया। 

ऐसा पहला व्यक्ति टिमोथी रे ब्राउन था जिसे रक्त कैंसर (blood cancer) के उपचार के लिए अस्थि मज्जा प्रत्यारोपण (bone marrow transplant) दिया गया था। इस प्रत्यारोपण के बाद वह एच.आई.वी. मुक्त हो गया। प्रसंगवश उसे अब बर्निल मरीज़ के नाम से जाना जाता है। ब्राउन व चंद अन्य मरीज़ों को जो स्टेम कोशिकाएं दी गई थीं उनमें एक जीन में उत्परिवर्तन था। यह जीन सामान्यत: CCR5 नामक ग्राही का निर्माण करवाता है। CCR5 वह ग्राही है जिसकी मदद से एड्स वायरस प्रतिरक्षा कोशिकाओं में प्रवेश करते हैं। इस प्रयोग के निष्कर्ष से कई शोधकर्ताओं को लगा कि शायद CCR5 ही एच.आई.वी. उपचार (HIV cure) के लिए सही लक्ष्य है।

और अब यह नया मामला म्यूनिख में पच्चीसवें अंतर्राष्ट्रीय एड्स सम्मेलन (International AIDS Conference) में रिपोर्ट हुआ है। इसमें शामिल मरीज़ को नेक्स्ट बर्लिन मरीज़ कहा जा रहा है। नेक्स्ट बर्लिन मरीज़ को एक ऐसे व्यक्ति की स्टेम कोशिकाएं दी गई थीं जिसकी कोशिकाओं में गैर-उत्परिवर्तित जीन की एक ही प्रतिलिपि थी – यानी ये कोशिकाएं CCR5 बनाती तो हैं लेकिन सामान्य से कम मात्रा में। इसका मतलब है आपको ऐसा दानदाता ढूंढना ज़रूरी नहीं है जिसमें जीन पूरी तरह काम न करता हो। अर्थात दानदाता ढूंढना कहीं ज़्यादा आसान हो जाएगा। कहते हैं कि युरोपीय मूल के लोगों में मात्र एक प्रतिशत ऐसे होते हैं जिनके CCR5 जीन की दोनों प्रतिलिपियां उत्परिवर्तित होती हैं जबकि एक उत्परिवर्तित जीन वाले लोग आबादी में 10 प्रतिशत हैं।

किस्सा यह है कि नेक्स्ट बर्लिन मरीज़ में एच.आई.वी. का निदान 2009 में हुआ था। वर्ष 2015 में उसमें रक्त व अस्थि मज्जा के कैंसर (acute myeloid leukemia) का पता चला। उसके डॉक्टरों को ऐसा मैचिंग दानदाता मिला ही नहीं जिसकी कोशिकाओं में CCR5 जीन की दोनों प्रतिलिपियां उत्परिवर्तित हों। अलबत्ता, उन्हें एक ऐसी महिला दानदाता मिल गई जिसकी एक CCR5 प्रतिलिपि में उत्परिवर्तन था। तो हमारे नेक्स्ट बर्लिन मरीज़ को 2015 में प्रत्यारोपण मिला।

जहां तक कैंसर का सवाल था तो उसका उपचार ठीक-ठाक हो गया। एक माह के अंदर मरीज़ की अस्थि मज्जा की स्टेम कोशिकाओं का स्थान दानदाता की कोशिकाएं ले चुकी थीं। फिर 2018 में मरीज़ ने एच.आई.वी. का दमन करने वाली एंटी-रिट्रोवायरल औषधियां लेना बंद कर दिया। और आज लगभग 6 साल बाद उसके शरीर में एच.आई.वी. का कोई प्रमाण नहीं है।

अतीत में भी प्रत्यारोपण के प्रयास किए गए हैं लेकिन उनमें नियमित CCR5 जीन वाले दानदाताओं की स्टेम कोशिकाएं दी जाती थीं। इनमें जैसे ही मरीज़ एंटी-रिट्रोवायरल दवा लेना बंद करते, चंद सप्ताह या महीनों के बाद एच.आई.वी. पुन: सिर उठा लेता था। मात्र एक मामले में व्यक्ति 32 महीने बाद तक वायरस-मुक्त रहा था। यह मामला पेरिस के पाश्चर इंस्टीट्यूट के एसियर सेज़-सिरिऑन ने प्रस्तुत किया था – उसे जेनेवा मरीज़ कहा गया था।

अब शोधकर्ता यह समझने का प्रयास कर रहे हैं कि क्यों यही दो प्रत्यारोपण सफल रहे। इसके लिए कई परिकल्पनाएं प्रस्तुत की गई हैं। (HIV research)  (स्रोत फीचर्स)

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क्या कॉफी वज़न कम करने में मददगार है?

कॉफी कई लोगों को सुबह की नींद से जगाने का एक लोकप्रिय पेय (morning beverage) है। लेकिन कई लोग मानते हैं कि जगाने के साथ-साथ यह भूख को भी शांत कर देती है (appetite control)। हाल ही में, सोशल मीडिया चलन (social media trend) के कारण वज़न घटाने में कॉफी का उपयोग करने वाले लोगों की संख्या में वृद्धि हुई है। इस चलन को ‘कॉफी लूपहोल’ (coffee loophole) का नाम दिया गया है जिसमें कॉफी में मसाले या पूरक मिलाने या फिर भूख लगने पर इसे तुरंत पीने से वज़न घटाने में मदद मिल सकती है। लेकिन यह कितना सच है?

फिलहाल इस विषय पर कोई सीधे हां या ना में उत्तर मौजूद नहीं है, और शोधकर्ता अभी भी यह पता लगा ही रहे हैं कि कॉफी, विशेष रूप से इसमें मौजूद कैफीन (caffeine effects), वज़न को कैसे प्रभावित करता है। कुछ लोगों का मानना है कि कॉफी पाचन (digestion) में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। कैफीन बड़ी आंत की मांसपेशियों के संकुचन को तेज़ कर सकता है, जिससे मल त्याग आसानी से हो जाता है। इसके अलावा यह मूत्रवर्धक के रूप में भी काम करता है, जिससे मूत्र उत्पादन बढ़ता है, और शरीर के पानी का वज़न अस्थायी तौर पर कम हो सकता है (water weight)। लेकिन ये प्रभाव अल्पकालिक होते हैं और स्थायी वज़न घटाने (permanent weight loss) की ओर नहीं ले जाते हैं।

बहरहाल, वज़न घटाने में कॉफी के स्थायी प्रभाव का अभी भी अध्ययन किया जा रहा है, लेकिन इतना स्पष्ट है कि किसी भी संभावित लाभ के लिए सिर्फ एक कप कॉफी से काम नहीं चलेगा (weight loss benefits)। (स्रोत फीचर्स)

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डेढ़ सौ से ज़्यादा औषधि मिश्रणों पर प्रतिबंध

डॉ. सुशील जोशी

पिछले सप्ताह भारत सरकार ने 156 औषधि के नियत खुराक संयोजनों यानी फिक्स्ड डोज़ कॉम्बिनेशन्स (Fixed Dose Combinations – FDCs) के उत्पादन, विपणन और वितरण पर प्रतिबंध लगा दिया। इनमें आम तौर पर इस्तेमाल किए जाने वाले एंटीबायोटिक्स (Antibiotics), दर्द-निवारक (Painkillers), एलर्जी-रोधी दवाइयां तथा मल्टीविटामिन्स (Multivitamins) शामिल हैं। 

यह निर्णय केंद्र सरकार द्वारा नियुक्त एक विशेषज्ञ समिति तथा औषधि तकनीकी सलाहकार बोर्ड (Drug Technical Advisory Board – DTAB) की अनुशंसा के आधार पर लिया गया है। प्रतिबंध की अधिसूचना (21 अगस्त 2024) में इन FDC पर प्रतिबंध के मूलत: दो कारण दिए गए हैं: 

1. सम्बंधित FDC में मिलाए गए अवयवों का मिश्रण तर्कहीन है। इन अवयवों का कोई चिकित्सकीय औचित्य नहीं है। 

2. सम्बंधित FDC के उपयोग से मनुष्यों को जोखिम होने की संभावना है जबकि उक्त औषधियों के सुरक्षित विकल्प (Safer Alternatives) उपलब्ध हैं।

वैसे तो FDC के मामले में देश के चिकित्सा संगठन कई वर्षों से चिंता व्यक्त करते आए हैं। इस विषय पर विचार के लिए केंद्र सरकार के स्वास्थ्य व परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा 2013 में सी. के. कोकाटे की अध्यक्षता में एक समिति का गठन किया गया था। समिति ने FDC के मुद्दे पर विस्तृत विचार-विमर्श के बाद कई FDC को बेतुका घोषित किया था। 

उस दौरान चले विचार-विमर्श का सार कई वर्षों पूर्व लोकॉस्ट नामक संस्था द्वारा प्रकाशित पुस्तक आम लोगों के लिए दवाइयों की किताब में प्रस्तुत हुआ था। आगे की चर्चा उसी पुस्तक के अंशों पर आधारित है। 

विश्व स्वास्थ्य संगठन (World Health Organization – WHO) की विशेषज्ञ समिति के अनुसार सामान्यतः मिश्रित दवाइयों का उपयोग नहीं किया जाना चाहिए। इनका उपयोग तभी किया जाना चाहिए जब वैकल्पिक इकहरी दवाइयां (Single Drug Alternatives) किफायती न हों। FDC से “साइड प्रभावों का खतरा बढ़ता है और अनावश्यक रूप से लागत भी बढ़ती है तथा तुक्केबाज़ीनुमा बेतुकी चिकित्सा को बढ़ावा मिलता है।” जब FDC का उपयोग किया जाता है, तब प्रतिकूल प्रतिक्रिया का खतरा अधिक होता है और यह पता करना मुश्किल होता है कि प्रतिक्रिया किस अवयव की वजह से हुई है। FDC इसलिए भी बेतुकी हैं कि उनकी स्थिरता (Stability) संदिग्ध है। लिहाज़ा कई मामलों में समय के साथ इनका प्रभाव कम हो जाता है।

जैसे, स्ट्रेप्टोमायसिन (टी.बी. की दवाई) और पेनिसिलीन के मिश्रित इंजेक्शन (अब प्रतिबंधित) का उपयोग बुखार, संक्रमणों और छोटी-मोटी बीमारियों के लिए बहुतायत से किया गया है। यह गलत है क्योंकि इसकी वजह से टी.बी. छिपी रह जाती है। इसके अलावा, हर छोटी-मोटी बीमारी में स्ट्रेप्टोमायसिन के उपयोग का एक परिणाम यह होता है कि टी.बी. का बैक्टीरिया (Mycobacterium Tuberculosis) इस दवाई का प्रतिरोधी हो जाता है। इसी प्रकार से स्ट्रेप्टोमायसिन और क्लोरेम्फिनेकॉल के मिश्रण का उपयोग (दुरुपयोग) दस्त के लिए काफी किया जाता था। इस पर रोक लगाने के प्रयासों का दवा कंपनियों ने काफी विरोध किया था मगर 1988 में अंततः इस पर रोक लग गई थी। दरअसल यह मिश्रण निरी बरबादी था क्योंकि दस्त के 60 प्रतिशत मामले तो वायरस की वजह से होते हैं और मात्र जीवन रक्षक घोल (Oral Rehydration Solution – ORS) से इन पर काबू पाया जा सकता है, बैक्टीरिया-रोधी दवाइयों की कोई ज़रूरत नहीं होती। क्लोरेम्फिनेकॉल का अंधाधुंध उपयोग भी खतरनाक है क्योंकि इससे एग्रेनुलोसायटोसिस जैसे जानलेवा रक्त दोष पैदा हो सकते हैं। जब इसका उपयोग मिश्रण के रूप में किया जाता है, तो टायफॉइड बैक्टीरिया इसका प्रतिरोधी होने लगता है। 

कई अन्य FDC को चिकित्सकीय दृष्टि से बेतुका पाया गया है। जैसे, विभिन्न एंटीबायोटिक्स के मिश्रण या उनके साथ कार्टिकोस्टीरॉइड्स या विटामिन जैसे पदार्थों के मिश्रण; बुखार और दर्दनिवारकों के मिश्रण जैसे इबुप्रोफेन+पेरासिटेमॉल (Ibuprofen+Paracetamol), एस्पिरिन+पेरासिटेमॉल (Aspirin+Paracetamol), डिक्लोफेनेक+पेरासिटेमॉल (Diclofenac+Paracetamol); दर्द निवारकों के साथ लौह, विटामिन्स या अल्कोहल के मिश्रण; कोडीन (Codeine) (जिसकी लत लगती है) के अन्य दवाइयों के साथ मिश्रण।

FDC के उपयोग के खिलाफ कुछ तर्क और भी हैं। एक है कि कई बार ऐसे मिश्रणों में दो एक-सी दवाइयों को मिलाकर बेचा जाता है जिसका कोई औचित्य नहीं है। इसके विपरीत कुछ FDC में दो विपरीत असर वाली औषधियों को मिला दिया जाता है। 

FDC अलग-अलग औषधियों की मात्रा के स्वतंत्र निर्धारण की गुंजाइश नहीं देती। कई बार ऐसा भी देखा गया है कि FDC में मिलाई गई दवाइयों के सेवन का क्रम भिन्न-भिन्न होता है (जैसे एक दवाई दिन में दो बार लेनी है, तो दूसरी दवाई दिन में तीन बार)। ऐसे में मरीज़ को अनावश्यक रूप से दोनों दवाइयां एक साथ एक ही क्रम में लेना होती है। 

WHO के अनुसार FDC को निम्नलिखित स्थितियों में ही स्वीकार किया जा सकता है: 

1. जब चिकित्सा साहित्य में एक साथ एक से अधिक दवाइयों के उपयोग को उचित बताया गया हो। 

2. जब मिश्रण के रूप में उन दवाइयों का सम्मिलित असर अलग-अलग दवाइयों से अधिक देखा गया हो। 

3. जब मिश्रण की कीमत अलग-अलग दवाइयों की कीमतों के योग से कम हो। 

4. जब मिश्रण के उपयोग से मरीज़ द्वारा अनुपालन में सुधार हो (जैसे टी.बी. मरीज़ को एक से अधिक दवाइयां लेनी पड़ती हैं, और वे एकाध दवाई लेना भूल जाते हैं)। 

भारत में वर्तमान में जो FDC बेचे जाते हैं उनमें से ज़्यादातर तर्कसंगत नहीं हैं क्योंकि उनके चिकित्सकीय फायदे संदिग्ध हैं। उदाहरण से तौर पर निमेसुलाइड के नुस्खों की भरमार का प्रकरण देखा जा सकता है। सन 2003 में फार्माबिज़ (Pharmabiz) के संपादकीय में पी.ए. फ्रांसिस ने लिखा था: 

“…देश में निमेसुलाइड के 200 नुस्खे भारतीय औषधि महानियंत्रक (Drug Controller General of India – DCGI) की अनुमति के बगैर बेचे जा रहे हैं। इन 200 नुस्खों में से 70 तो निमेसुलाइड के सस्पेंशन हैं जबकि शेष 130 विभिन्न अन्य दवाइयों के साथ निमेसुलाइड के मिश्रण हैं। इस समूह में सबसे ज़्यादा तो निमेसुलाइड और पेरासिटेमॉल के मिश्रण हैं जिनकी संख्या 50 है। निमेसुलाइड और मांसपेशियों को शिथिल करने वाली दो दवाइयों (टिज़ेनिडीन और सेराशियोपेप्टिडेज़) के मिश्रण भी काफी प्रचलित हैं, इनके 52 ब्रांड्स उपलब्ध हैं। हैरत की बात यह है कि निमेसुलाइड के इतने सारे बेतुके मिश्रण देश में बेचे जा रहे हैं जबकि स्वयं निमेसुलाइड की सुरक्षा सवालों के घेरे में है…” 

कुल मिलाकर, FDC पर रोक का निर्णय स्वास्थ्य के क्षेत्र में सही दिशा में एक कदम है हालांकि स्वास्थ्य क्षेत्र के कई कार्यकर्ता और जानकारी मिलने तक कोई टिप्पणी नहीं करना चाहते। वर्तमान निर्णय के साथ एक दिक्कत यह है कि प्रत्येक FDC को लेकर विशिष्ट रूप से कोई विवरण नहीं दिया है। (स्रोत फीचर्स)

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वसायुक्त आहार कैंसर को बढ़ावा दे सकता है

ज़ुबैर सिद्दिकी

हाल ही के शोध में उच्च वसा आहार (high-fat diet), आंत के बैक्टीरिया (gut bacteria) और स्तन कैंसर (breast cancer) के बीच सम्बंध का पता चला है। प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ (Proceedings of the National Academy of Sciences) में प्रकाशित इस अध्ययन के अनुसार वसायुक्त आहार से पनपने वाला डीसल्फोविब्रियो नामक आंत का बैक्टीरिया, प्रतिरक्षा प्रणाली (immune system) को कमज़ोर करके ट्यूमर (tumor) के विकास में मदद करता है।

चीन के सुन यट-सेन मेमोरियल अस्पताल में स्तन कैंसर सर्जन एरवेई सोंग के नेतृत्व में किए गए अध्ययन में यह पता लगाने का प्रयास किया गया कि ये बैक्टीरिया कैंसर की रफ्तार (cancer progression) को कैसे प्रभावित करता है। शोधकर्ताओं की रुचि विशेष रूप से इस बात में थी कि उच्च बॉडी मास इंडेक्स (high BMI) वाले लोगों में स्तन कैंसर के उपचार के बाद जीवित रहने की दर कम क्यों होती है।

टीम ने स्तन कैंसर ग्रस्त 61 रोगियों के ऊतक और मल के नमूनों का अध्ययन किया। उन्होंने पाया कि 24 से अधिक BMI वाली महिलाओं में, 24 से कम BMI वाली महिलाओं की तुलना में डीसल्फोविब्रियो की संख्या अधिक थी।

आगे के प्रयोग चूहों पर किए गए। शोधकर्ताओं ने कुछ चूहों को उच्च वसा आहार दिया जिसके बाद इन चूहों की आंतों में डीसल्फोविब्रियो अधिक मात्रा में पाए गए। बैक्टीरिया में इस वृद्धि के साथ एक प्रकार की प्रतिरक्षा कोशिका – MDSC – का भी उच्च स्तर मिला। अस्थि मज्जा में बनने वाली ये कोशिकाएं प्रतिरक्षा तंत्र को कमज़ोर करती हैं, जिसके चलते ट्यूमर अनियंत्रित रूप से बढ़ सकता है।

उच्च वसा आहार वाले चूहों के रक्त में अमीनो एसिड ल्यूसीन का स्तर भी अधिक पाया गया। ल्यूसीन का निर्माण डीसल्फोविब्रियो तथा आंत के अन्य बैक्टीरिया करते हैं। जब चूहों का उपचार डीसल्फोविब्रियो को खत्म करने वाले एंटीबायोटिक्स (antibiotics) से किया गया, तो ल्यूसीन और MDSC दोनों का स्तर सामान्य हो गया – यह बैक्टीरिया, ल्यूसीन और कमज़ोर प्रतिरक्षा के बीच सम्बंध का संकेत था।

स्तन कैंसर रोगियों के रक्त के विश्लेषण से पता चला कि उच्च BMI वाले लोगों में ल्यूसीन और MDSC दोनों का स्तर अधिक था। इन रोगियों की जीवित रहने की दर भी कम थी।

इस खोज से पता चलता है कि उच्च वसा वाले आहार से लाभान्वित होकर डीसल्फोविब्रियो बैक्टीरिया शरीर की प्रतिरक्षा को कमज़ोर करके कैंसर के विकास में योगदान दे सकते हैं। कई वैज्ञानिक इसे कैंसर अनुसंधान (cancer research) में एक नई दिशा के रूप में देखते हैं। अलबत्ता, आंत की सूक्ष्मजीव जगत संरचना आहार पर निर्भर करती है, इसलिए यह पता करना होगा कि क्या ये निष्कर्ष सार्वभौमिक रूप से लागू होते हैं।

यह अध्ययन आहार, आंत के बैक्टीरिया और कैंसर के बीच जटिल परस्पर क्रिया को उजागर करता है और सुझाता है कि हमारे सूक्ष्मजीव संसार में फेरबदल कैंसर चिकित्सा का हिस्सा बन सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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खून का विकल्प

डॉ. सुशील जोशी

चोट लगने पर यदि बहुत खून बह जाए तो व्यक्ति के शरीर को ज़रूरी ऑक्सीजन (oxygen) व पोषण मिलने में दिक्कत आती है। और खून (blood) मिलना हर जगह आसान नहीं होता। ऐसे में कई बार खतरे की स्थिति बन जाती है। एक समय था जब बहुत अधिक रक्तस्राव तो जैसे मौत का ऐलान ही होता था। रक्ताधान (blood transfusion) किया जाता था लेकिन यह धुर में लट्ठ जैसा होता था। रक्त समूहों (blood groups) के बारे में कोई भनक तक नहीं थी। यदि गलत समूह का खून चढ़ जाए तो जानलेवा हो सकता था। आज भी खून बह जाने की वजह से दुनिया भर में हर साल करीब 20 लाख लोग जान से हाथ धो बैठते हैं। दान दिए गए खून की शेल्फ लाइफ (shelf life) मात्र 42 दिन होती है और पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध भी नहीं होता। इस परिस्थिति को ध्यान में रखते हुए खून के विकल्पों (blood substitutes) की खोज कम से कम दो सदियों से चल रही है। और एक उपयुक्त विकल्प की ज़रूरत आज भी बरकरार है। पिछले वर्ष बाल्टीमोर की एक प्रयोगशाला में एक सफेद खरगोश ने आशा की किरण दिखाई है। 

इस खरगोश के शरीर से कुछ खून निकाल दिया गया था और फिर एक कैथेटर (catheter) के माध्यम से एक रक्त-विकल्प उसकी कैरोटिड धमनी में पहुंचाया जा रहा था। इस कृत्रिम रक्त-विकल्प का नाम है एरिथ्रोमर (ErythroMer)। इसका विकास मैरीलैंड विश्वविद्यालय स्कूल ऑफ मेडिसिन (University of Maryland School of Medicine) के चिकित्सक-शोधकर्ता एलन डॉक्टर द्वारा किया गया है। एरिथ्रोमर को ‘पुनर्चक्रित’ मानव हीमोग्लोबीन (recycled human hemoglobin) से बनाया गया है। हीमोग्लोबीन लाल रक्त कोशिकाओं (red blood cells) में पाया जाने वाला वह प्रोटीन होता है जो ऑक्सीजन को फेफड़ों से लेकर पूरे शरीर में पहुंचाता है। इस ‘पुनर्चक्रित’ हीमोग्लोबिन को एक झिल्ली के आवरण में लपेटकर एक कोशिका का रूप दिया गया है। प्रयोग में लग रहा था कि रक्ताधान (सही मायनों में एरिथ्रोमराधान) काम कर रहा है। खरगोश की हृदय गति, रक्तचाप (blood pressure) वगैरह ठीक-ठाक ही लग रहे थे। 

एरिथ्रोमर व उससे पहले विकसित किए गए ऐसे पदार्थों को हीमोग्लोबिनाइज़्ड ऑक्सीजन वाहक (Hemoglobinized Oxygen Carrier – HBOC) कहते हैं। इन्हें कृत्रिम खून (artificial blood) भी कह सकते हैं। ऐसे विकल्प खास तौर से ऐसे मामलों में उपयोगी होंगे जहां ताज़ा खून मिलना मुश्किल होता है – जैसे युद्धक्षेत्र में या देहातों में। 

एरिथ्रोमर तत्काल देकर अस्पताल (hospital) पहुंचने तक मरीज़ को ऑक्सीजन मिलती रह सकती है। यह फ्रीज़ करके सुखाया गया पावडर होता है जिसे वर्षों तक इस्तेमाल किया जा सकता है। मरीज़ को देते समय इसे सैलाइन (saline) में घोलकर तैयार किया जा सकता है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि इसके उपयोग में रक्त समूह (blood group) जैसी कोई अड़चन नहीं होगी क्योंकि इसकी झिल्ली पर कोई सतही प्रोटीन नहीं होते जो रक्त समूह का निर्धारण करते हैं। 

वैसे तो ऑक्सीजन वाहक (oxygen carrier) लाल रक्त कोशिकाओं का विकल्प (alternative) विकसित करने के प्रयास दशकों से चल रहे हैं। इस संदर्भ में लग रहा है कि एरिथ्रोमर शायद प्राकृतिक लाल रक्त कोशिकाओं की तुलना में ज़्यादा टिकाऊ और लचीला होगा। हालांकि, एरिथ्रोमर अभी जंतु-परीक्षण (animal trials) के चरण में ही है लेकिन यह एकमात्र ऐसा प्रयास है जिसमें हीमोग्लोबिन को एक झिल्ली में कैद करके वास्तविक खून का रूप देने की कोशिश की गई है। दूसरी ओर, जापान में एक प्रतिस्पर्धी उत्पाद (competitive product) का परीक्षण मनुष्यों (human trials) में किया जा चुका है और वह सुरक्षित ही लग रहा है। 

मात्र 2 दशक पहले पूर्ववर्ती HBOC संस्करणों को एक तरफ रख दिया गया था क्योंकि परीक्षण में शामिल व्यक्तियों की मृत्यु हो गई थी। इसके बाद किए गए अन्य प्रयासों के परिणाम भी बहुत बेहतर नहीं रहे थे। आज तक के सबसे उन्नत HBOC वे रहे हैं जिन्हें दक्षिण अफ्रीका और रूस में मंज़ूरी मिली थी लेकिन उनमें भी साइड इफेक्ट (side effects) के मुद्दे थे। 

खून की अनुकृति (blood replica) बनाने में मुश्किलात के कई कारण हैं। अव्वल तो खून स्वतंत्र अणुओं (molecules) और कोशिकाओं का एक जटिल मिश्रण (complex mixture) होता है। खून में आधा हिस्सा तो प्लाज़्मा (plasma) होता है, जो पानी, प्रोटीन्स (proteins) और लवणों से बना एक हल्का पीला तरल (fluid) होता है। शेष रक्त कोशिकाओं से बना होता है। इनमें मुख्यत: प्लेटलेट्स (platelets), सफेद रक्त कोशिकाएं (white blood cells) और लाल रक्त कोशिकाएं (red blood cells) होती हैं। प्लेटलेट्स किसी घाव या खरोंच के स्थान पर खून का थक्का बनाने में भूमिका निभाते हैं और सफेद रक्त कोशिकाएं संक्रमणों (infections) के विरुद्ध लड़ने में कारगर होती हैं। 

लाल रक्त कोशिकाओं (red blood cells) में हीमोग्लोबिन होता है जो ऑक्सीजन का परिवहन करता है। शरीर में सर्वाधिक संख्या लाल रक्त कोशिकाएं की ही होती है। आम तौर पर ये बीच में पिचकी हुई डिस्क (disc-shaped) के आकार की होती हैं। अस्थि मज्जा (bone marrow) में इनका निरंतर उत्पादन होता है – लगभग 20 लाख कोशिका प्रति सेकंड। किसी भी समय खून में करीब 30 खरब लाल रक्त कोशिकाएं (red blood cells) रक्त वाहिनियों (blood vessels) में दौड़ती रहती हैं। इन रक्त वाहिनियों की कुल लंबाई 20,000 कि.मी. (kilometers) तक हो सकती है। 

वास्तविक चुनौती यह है कि लाल रक्त कोशिकाओं की ऑक्सीजन परिवहन क्षमता (oxygen transport capacity) की नकल तैयार की जाए। लाल रक्त कोशिकाओं में मौजूद हीमोग्लोबिन (hemoglobin) नामक प्रोटीन (protein) का अणु यह काम करता है। एक-एक रक्त कोशिका में हीमोग्लोबिन के 26 करोड़ अणु (molecules) पाए जाते हैं। इसके प्रत्येक अणु में हीम के घटकों के केंद्र में एक लौह परमाणु (iron atom) होता है। यही हीम संकुल ऑक्सीजन (oxygen) को पकड़ता है। 

शुरुआत में रक्त विकल्पों के निर्माण में कोशिश यह की गई थी कि हीमोग्लोबिन के स्थान पर एक अन्य ऑक्सीजन वाहक परफ्लोरोकार्बन (Perfluorocarbon) अणु को रखा जाए। इसका उपयोग रेफ्रिजरेंट्स (refrigerants) और अग्नि-शामकों में बहुतायत में किया जाता था। 1989 में ऐसे एक विकल्प को तो यूएस खाद्य व औषधि प्रशासन (U.S. Food and Drug Administration – FDA) ने शल्य क्रियाओं (surgery) के दौरान उपयोग की मंज़ूरी भी दे दी थी। लेकिन कतिपय कारणों से इसे वापिस ले लिया गया। 

तो बच गए HBOC। लाल रक्त कोशिका (red blood cell) के अंदर हीमोग्लोबिन प्रोटीन्स (proteins) चार-चार के समूहों में जुड़े रहते हैं। शुरुआती HBOC में कोशिश यह थी कि इस चौकड़ी संरचना (tetramer structure) की नकल की जाए और झिल्ली को छोड़ दिया जाए। 

लेकिन हीमोग्लोबिन (hemoglobin) अजीब अणु होता है – ऊतकों और रक्त वाहिनियों (blood vessels) के लिए विषैला (toxic) होता है। एक कारण तो यह है कि हीमोग्लोबिन ऑक्सीजन (oxygen) लेकर चलता है जो गलत जगह पहुंच जाए तो घातक हो सकती है। लिहाज़ा हीमोग्लोबिन को रक्त प्रवाह (bloodstream) में छुट्टा नहीं छोड़ा जा सकता। पिछली सदी में जिन मरीज़ों को आवरणरहित हीमोग्लोबिन (unencapsulated hemoglobin) से बने रक्त-विकल्प (blood substitute) दिए गए थे, उनमें उच्च रक्तचाप (high blood pressure), उच्च चयापचय दर (high metabolism rate) और तेज़ नब्ज़ (rapid pulse) जैसे असर देखे गए हैं। कुछ मामलों में हार्ट अटैक (heart attack) और गुर्दा नाकामी (kidney failure) जैसे दुष्प्रभाव (side effects) भी प्रकट हुए। माना जाता है कि ऐसा रक्त वाहिनियों के सिकुड़ने (vasoconstriction) की वजह से हुआ था जो स्वतंत्र हीमोग्लोबिन (free hemoglobin) ने पैदा किया था। 

आवरण रहित HBOC का सबसे सफल उदाहरण हीमोप्योर (Hemopure) रहा है। 1990 के दशक में इसे गाय से प्राप्त लाल रक्त कोशिकाओं (red blood cells) की मदद से तैयार किया गया था। पहले इन कोशिकाओं में से हीमोग्लोबिन (hemoglobin) निकाला जाता था और उसे रोगजनकों (pathogens) से मुक्त किया जाता था। फिर चार-चार हीमोग्लोबिन की चौकड़ियां बनाई जाती थीं। इसका अधिकांश उपयोग ऑपरेशन उपरांत एनीमिया (anemia) के उपचार हेतु किया गया था। 

लेकिन 2008 में जर्नल ऑफ अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन (Journal of the American Medical Association – JAMA) में प्रकाशित एक मेटा-विश्लेषण का निष्कर्ष था कि ये सारे HBOC निहित रूप से हृदय (heart) के लिए विषैले (toxic) थे और इनसे उपचारित मरीज़ों की मृत्यु दर (mortality rate) सामान्य रक्ताधान (blood transfusion) प्राप्त करने वाले मरीज़ों से 30 प्रतिशत ज़्यादा थी। इस विश्लेषण के प्रकाशन के बाद सारे परीक्षण (trials) बंद कर दिए गए। 

हालांकि नया रक्त विकल्प एरिथ्रोमर जंतु-परीक्षण के दौर में ही है लेकिन डॉक्टर को यकीन है कि यह शुद्ध हीमोग्लोबिन उत्पादों के विषैलेपन की समस्या से निपट पाएगा और प्रकृति की बेहतर अनुकृति (better replica) साबित होगा क्योंकि इसमें हीमोग्लोबिन को ठीक उस तरह आवरण में बंद किया गया है जैसा लाल रक्त कोशिकाओं (red blood cells) में होता है। 

वैसे डॉक्टर रक्त का विकल्प (blood substitute) बनाने के लिए काम कर भी नहीं रहे थे। वे तो हीमोग्लोबिन (hemoglobin) और नाइट्रिक ऑक्साइड (nitric oxide) नामक गैस के परस्पर सम्बंध (interaction) का अध्ययन कर रहे थे। नाइट्रिक ऑक्साइड वह गैस है जो रक्त वाहिनियों (blood vessels) का अस्तर खून में छोड़ता रहता है। नाइट्रिक ऑक्साइड (nitric oxide) की उपस्थिति में रक्त वाहिनियां फैल (dilate) जाती हैं और इसकी अनुपस्थिति में सिकुड़ (constrict) जाती हैं। और महत्वपूर्ण बात यह है कि लाल रक्त कोशिकाएं (red blood cells) इस गैस के स्तर (levels) को नियंत्रित करती हैं क्योंकि ऑक्सीजन (oxygen) के समान नाइट्रिक ऑक्साइड (nitric oxide) भी हीमोग्लोबिन (hemoglobin) से जुड़ सकती हैं। लाल रक्त कोशिकाओं (red blood cells) और आसपास के ऊतकों (tissues) के बीच ऑक्सीजन (oxygen) के लेन-देन के आधार पर कोशिकाएं नाइट्रिक ऑक्साइड (nitric oxide) को ग्रहण कर सकती हैं या बाहर कर सकती हैं। 

अब यदि कोई व्यक्ति ज़ोरदार कसरत कर रहा हो, तो पहले तो उसकी मांसपेशियों में ऑक्सीजन की खपत बढ़ती है। वहां ऊतकों की बढ़ी हुई सक्रियता का निर्वाह करने के लिए रक्त प्रवाह बढ़ता है और सक्रियता कम हो जाने पर रक्त प्रवाह सामान्य हो जाता है। जब लाल रक्त कोशिकाएं सक्रिय मांसपेशियों को ऑक्सीजन की आपूर्ति करती हैं, तब वे नाइट्रिक ऑक्साइड (nitric oxide) भी छोड़ती हैं। यह छोड़ी गई नाइट्रिक ऑक्साइड उस क्षेत्र की रक्त वाहिनियों को फैला देती है जिससे उस क्षेत्र में रक्त प्रवाह (blood flow) बढ़ जाता है। कसरत पूरी हो जाने पर लाल रक्त कोशिकाएं (red blood cells) भारी मात्रा में ऑक्सीजन (oxygen) मुक्त करना बंद कर देती हैं। इसके चलते नाइट्रिक ऑक्साइड (nitric oxide) वापिस कोशिकाओं में पहुंचकर हीमोग्लोबिन (hemoglobin) से जुड़ने लगती है और रक्त वाहिनियां सिकुड़ जाती हैं। 

मुक्त हीमोग्लोबिन (free hemoglobin) से बने रक्त-विकल्प विषैले (toxic) हो सकते हैं। इसलिए कुछ वैज्ञानिक इस ऑक्सीजन वाहक (oxygen carrier) को एक झिल्ली (membrane) में कैद कर रहे हैं, किसी लघु कोशिका (microcell) के समान। एरिथ्रोमर की झिल्ली को इस तरह बनाया गया है कि वह रक्त वाहिनियों (blood vessels) में सुगमता से बह सके और हीमोग्लोबिन (hemoglobin) नाइट्रिक ऑक्साइड (nitric oxide) को न जकड़ सके। नाइट्रिक ऑक्साइड ही तो वाहिनियों को खुला रखती है। 

लाल रक्त कोशिकाओं (red blood cells) के समान ही एरिथ्रोमर भी हीमोग्लोबिन (hemoglobin) और ऑक्सीजन के बीच स्नेह के नियमन (affinity regulation) हेतु 2,3-DPG (2,3-Diphosphoglycerate) नामक एक अणु का उपयोग करता है। फेफड़ों (lungs) में 2,3-DPG का अणु एक संश्लेषित अम्लीयता संवेदी अणु (synthesized acidity sensor molecule) KC1003 से जुड़ जाता है। यह अणु एरिथ्रोमर की झिल्ली (membrane) में होता है। इनके बीच बने बंधन (bond) का परिणाम होता है कि हीमोग्लोबिन ऑक्सीजन को पकड़ने में सक्षम हो जाता है। जब यह ऊतकों में पहुंचता है तो वहां पर्यावरण ज़्यादा अम्लीय (acidic) होता है। इस स्थिति में 2,3-DPG मुक्त (released) हो जाता है और हीमोग्लोबिन से जुड़ जाता है जिसकी वजह से ऑक्सीजन (oxygen) मुक्त होने लगती है। 

सच तो यह है कि कोई भी कृत्रिम उत्पाद (artificial product) रक्त (blood) का स्थान नहीं ले सकता। ये थोड़े समय के लिए मरीज़ की मदद कर सकते हैं; अंतत: तो व्यक्ति की अस्थि मज्जा (bone marrow) को अपना काम शुरू करना होगा। बहरहाल, आज हम इतना तो जानते हैं कि इन उत्पादों के साइड प्रभावों (side effects) को संभाल सकें।(स्रोत फीचर्स) 

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://anest.ufl.edu/files/2018/05/hemopure-bloodbag.jpg