एक अति-दुर्लभ, विचित्र बीमारी का उपचार

फायब्रोडिसप्लेसिया ओसिफिकेन्स प्रोग्रेसिवा या संक्षेप में FOP का नाम आपने शायद ही सुना हो। सुनेंगे भी कैसे। यह बीमारी दुनिया भर में महज 8000 लोगों को पीड़ित करती है। लेकिन जिन्हें भी डसती है, बहुत तकलीफ पहुंचाती है और अंतत: जान ले लेती है।

FOP नामक इस दुर्लभ बीमारी में शरीर में हड्डियां कहीं भी उग आती हैं, जहां उन्हें नहीं होना चाहिए। जैसे स्नायु में, कंडराओं में और यहां तक कंकाल की मांसपेशियों में भी। दरअसल, होता यह है कि कंकाल की मांसपेशियों और मुलायम संयोजी ऊतकों में कायांतरण होने लगता है और वे हड्डियों में परिवर्तित होने लगते हैं। परिणाम यह होता है कि हड्डियों के जोड़ सख्त हो जाते हैं और कोई भी हरकत नामुमकिन हो जाती है।

FOP के मरीज़ों में जन्मजात बड़े पंजे होते हैं और बाकी की विकृतियां धीरे-धीरे सामने आती हैं। इसके चलते उनके लिए गर्दन, कंधों, कोहनी, कूल्हों, घुटनों, कलाइयों और जबड़ों की गति असंभव हो जाती है।

यह एक जेनेटिक रोग है जिसमें अस्थि निर्माण में शामिल एक जीन (ACVR1 जिसे ALK2 भी कहते हैं) के नए संस्करण बन जाते हैं। यह जीन एक प्रोटीन (BMP) बनाता है जो भ्रूण में कंकाल के निर्माण तथा जन्म के उपरांत कंकाल की मरम्मत में भूमिका निभाता है।

ज़ाहिर है इतनी दुर्लभ बीमारी का इलाज खोजने में किसी की दिलचस्पी नहीं होगी क्योंकि इस इलाज के ग्राहक ही नहीं होंगे। लेकिन आश्चर्य की बात है कि कम से कम 13 कंपनियां इस काम में लगी हुई हैं। और उनके प्रयास रंग लाने लगे हैं। पिछले वर्ष यूएस खाद्य व औषधि प्रशासन ने FOP के लिए पहली दवा – पैलोवैरोटीन – को मंज़ूरी दी थी। चार अन्य दवाइयां परीक्षण से गुज़र रही हैं।

लेकिन…एक लेकिन और है। आशंका है कि ये दवाइयां निहायत महंगी होंगी। जैसे पैलोवैरोटीन की सालाना लागत छ: लाख चौबीस हज़ार डॉलर है। एक संभावना यह है कि यह औषधि बीमारी को आगे बढ़ने से रोक देगी और सर्जन यहां-वहां उगी हड्डियों को हटा देंगे।

इस बीमारी पर अध्ययन अनुसंधान का एक कारण तो यही है कि यह इतनी क्रूर बीमारी है। साथ ही शोधकर्ताओं को लगता है कि इसके गहन अध्ययन से हड्डियों के विकास सम्बंधी अन्य विकारों को भी समझ पाएंगे। जैसे पहले तो यह भी पता नहीं था कि यह रोग जेनेटिक है। फिर 2006 में वह जीन पहचाना गया जिसमें उत्परिवर्तन की वजह से यह रोग पैदा होता है: ALK2 नामक प्रोटीन के जीन में उत्परिवर्तन। यह प्रोटीन कई कोशिकाओं की सतह पर पाया जाता है। यह पता चल चुका है कि असामान्य ALK2 अति-सक्रिय हो जाता है और  इसके द्वारा भेजे गए संदेश से मांसपेशियों की स्टेम कोशिकाएं हड्डियों में बदलने लगती हैं।

बहरहाल, शोधकर्ताओं ने सीधे-सीधे ALK2 पर निशाना न साधते हुए उस अणु को सक्रिय करने का मार्ग चुना जो उपास्थि के निर्माण को रोकता है। उपास्थि हड्डी के निर्माण में पूर्ववर्ती होती है। अंतत: पैलोवैरोटीन हाथ लगी। परीक्षण के दौरान पैलोवैरोटीन लेने वाले मरीज़ों में नई हड्डियों का निर्माण 60 प्रतिशत कम देखा गया। अलबत्ता, इसकी कीमत के अलावा कुछ अन्य समस्याएं भी हैं। एक तो यही है कि पैलोवैरोटीन बीमारी को रोकती नहीं – सिर्फ टालती है। दूसरी समस्या यह है कि यह दवा बच्चों को देने में परेशानी होगी क्योंकि शायद यह उनमें सामान्य हड्डी निर्माण को भी बाधित कर देगी।

रीजेनेरॉन नामक कंपनी ने एक मोनोक्लोनल एंटीबॉडी (गैरेटोस्मैब) तैयार की है। इसके परीक्षण के नतीजे तो ठीक-ठाक रहे हैं लेकिन परीक्षण के दौरान 5 मरीज़ों की मृत्यु हो गई थी। जापान के एक समूह ने भी पाया था कि ALK2 जीन का दोषपूर्ण संस्करण एक्टिविन-ए नामक प्रोटीन के असर से अति-सक्रिय हो जाता है। दरअसल, गैरेटोस्मैब एक्टिविन-ए को निष्क्रिय कर देता है। कुछ शोध समूह सीधे-सीधे ALK2 जीन को  लक्षित कर रहे हैं। अन्य विकल्पों पर काम चल रहा है लेकिन उनकी अपनी-अपनी दिक्कतें हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.semanticscholar.org/paper/Insights-into-the-biology-of-fibrodysplasia-using-Nakajima-Ikeya/9b0f31108afe844a4f8c5dfd57a02e08e3563a37/figure/0

सुबह की धूप और आपकी सेहत

डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

म इंसान हर दिन चलने वाले उजाले (दिन) और अंधेरे (रात) के चक्र से प्रभावित होते हैं। हमारे शरीर में लगभग 24 घंटे की (सर्केडियन घड़ी या जैविक घड़ी की) लय होती है जो हार्मोन स्राव जैसी शारीरिक प्रक्रियाओं का रूप ले लेती है, और उनके माध्यम से हमारे क्रियाकलापों का संचालन करती है।

परिवेश के साथ तालमेल बनाए रखने के लिए, और सही समय पर सही काम करने के लिए सूर्य की रोशनी हमारे लिए एक अलार्म घड़ी की तरह काम करती है। प्रकाश के साथ यह समन्वय (फोटोएनट्रेनमेंट) आंखों से आने वाले प्रकाश संकेतों द्वारा मस्तिष्क में होता है।

कई अन्य प्रजातियां भी अपनी दिनचर्या शुरू करने का संकेत पाने के लिए प्रकाश पर निर्भर होती हैं। जब ये प्रकाश पैटर्न बाधित होते हैं, तो उनकी प्राकृतिक लय (घड़ी) और व्यवहार गड़बड़ा सकते हैं। उदाहरण के लिए, मालदीव में पर्यटन संचालक रात को पर्यटकों को नावों में भरकर सैर के लिए ले जाते हैं, और समुद्र की सतह पर तेज़ रोशनी (लगभग 4000 वॉट) डालते हैं। समुद्र के जीव इसे सुबह समझ बैठते हैं और सुबह जैसी गतिविधियां करने लगते हैं। नतीजतन पर्यटकों को व्हेल शार्क देखने को मिल जाती हैं।

हमें दिखाई देने में हमारे बाहरी रेटिना पर मौजूद प्रकाशग्राही कोशिकाएं, छड़ और शंकु, ज़िम्मेदार हैं। छड़ कोशिकाएं प्रकाश की उपस्थिति के प्रति बहुत संवेदनशील होती हैं लेकिन रंग के प्रति संवेदनशील नहीं होती हैं, और इसलिए ये मंद प्रकाश में सबसे उपयोगी होती हैं; दूसरी ओर शंकु कोशिकाएं उजले प्रकाश में सबसे अच्छा काम करती हैं, इनकी मदद से हम रंगों को देख पाते हैं। छड़ और शंकु कोशिकाएं प्रकाश फोटॉन्स को विद्युत संकेतों में परिवर्तित करती हैं, जो रेटिना की गैंगलियन कोशिकाओं को भेजे जाते हैं। गैंगलियन कोशिकाएं रेटिना से प्राप्त सूचना को प्रोसेस करती हैं और इसे मस्तिष्क को भेज देती हैं।

प्रकाश संवेदी कोशिकाएं

लगभग 20 साल पहले प्रकाश को महसूस कर सकने वाली कोशिकाओं का एक नया समूह आंतरिक रेटिना में खोजा गया था। इन्हें इंट्रिंसिकली फोटोसेंसिटिव रेटिनल गैंगलियन कोशिकाएं (ipRGC) कहा गया। इनके अन्य नाम हैं फोटोसेंसिटिव गैंगलियन कोशिकाएं और मेलेनॉप्सिन युक्त रेटिनल गैंगलियन कोशिकाएं। ipRGC कोशिकाओं में एक प्रकाश संवेदी रंजक, मेलानॉप्सिन, होता है जो इन कोशिकाओं को सीधे प्रकाश पर प्रतिक्रिया करने में सक्षम बनाता है। ये कोशिकाएं हमारे प्रकाश के साथ दृष्टि से इतर संपर्क में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।

ipRGC से विद्युत संकेत मस्तिष्क के उन क्षेत्रों में जाते हैं जो नींद, सतर्कता और मूड के नियमन में शामिल होते हैं। ये संकेत मस्तिष्क के उस क्षेत्र में भी जाते हैं जो आंखों की पुतलियों को नियंत्रित करते हैं, जिससे वे तेज़ रोशनी में सिकुड़ जाती हैं।

और इन सबसे भी महत्वपूर्ण, ये विद्युत संकेत हाइपोथैलेमस के उस हिस्से में भी जाते हैं जो सर्केडियन लय को नियंत्रित करता है। मस्तिष्क के इस हिस्से को लंबे समय से मास्टर घड़ी के रूप में जाना जाता है, जहां आपके शरीर की आंतरिक घड़ी बाहरी दुनिया के दिन-रात के चक्र के साथ तालमेल बिठाती है।

सुबह के बाशिंदे

सुबह की दिनचर्या की प्राथमिकता उन लोगों की होती है जो जल्दी सोना पसंद करते हैं और जल्दी उठते हैं। यदि आप अपना अधिकतर काम सुबह जल्दी (और दिन के उजाले में) निपटा लेते हैं तो ऐसा करना मोटापे के जोखिम को तो कम करता ही है, साथ ही शैक्षणिक प्रदर्शन बेहतर करता है। कई अध्ययनों से यह भी पता चला है कि जल्दी सोना गंभीर अवसाद विकार के जोखिम को कम रखता है (साइंटिफिक रिपोर्ट्स, 2021)। स्टैनफोर्ड युनिवर्सिटी में न्यूरोबायोलॉजी के प्रोफेसर एंड्रयू हुबरमैन ने अपने लोकप्रिय पॉडकास्ट में सर्केडियन घड़ी को रीसेट करने में सुबह-सुबह की धूप (जब सूरज क्षितिज के नज़दीक होता है) के लाभकारी प्रभावों के बारे में बताया है। ipRGC कोशिकाएं नीली रोशनी (तरंग दैर्घ्य 480 नैनोमीटर) के प्रति सबसे अधिक प्रतिक्रिया देती हैं। सुबह की रोशनी में पीली की अपेक्षा नीली रोशनी का अनुपात कम होता है। यह बस इतना होता है कि हाइपोथैलेमस को संदेश मिल जाए कि एक और सर्केडियन चक्र की शुरुआत करे। इसके सोलह घंटे बाद आपका शरीर निद्रालु होगा। इसलिए बाहर निकलें और सुबह की रोशनी में नहाएं – चाहे खुली धूप हो या बादलों से छनकर आती धूप (सूरज को सीधे न देखें)। अपनी घड़ी को सूर्योदय के साथ लयबद्ध करने से आपका शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य बेहतर रहेगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://9253440.fs1.hubspotusercontent-na1.net/hubfs/9253440/woman%20walking%20outside%20in%20orange%20top%20with%20sunlight.jpg

सिकल सेल रोग के सस्ते इलाज की उम्मीद

सिकल सेल रोग से दुनिया भर के लाखों लोग प्रभावित हैं। एक अनुमान के मुताबिक प्रति वर्ष लगभग पौने चार लाख लोग इसकी वजह से जान गंवाते हैं और लाखों लोग दर्दनाक तकलीफें झेलते हैं। यू.एस. खाद्य एवं औषधि प्रशासन (एफडीए) ने पिछले वर्ष इसके उपचार के लिए दो जीन थेरेपी प्रक्रियाओं को मंज़ूरी दी थी। लेकिन ये उपचार काफी महंगे हैं – इनका खर्च प्रति व्यक्ति करीब 17 करोड़ रुपए बैठता है। साथ ही इनमें जोखिमभरी कीमोथेरेपी शामिल होती है।

हाल ही में औषधि शोधकर्ताओं ने मुंह से दी जाने वाली एक दवा की खोज की है। इस औषधि ने सिकल सेल रोग से ग्रसित जंतुओं में स्वस्थ रक्त कोशिकाओं को पुनर्स्थापित किया है। देखा जाए तो जीन थेरेपी एक बार करनी होती है और वह लंबे समय तक लाभ प्रदान कर सकती है। इसके विपरीत इस नई दवा को समय-समय पर जीवन भर लेने की आवश्यकता हो सकती है।

यह दवा मनुष्यों में अभी सुरक्षा परीक्षण से नहीं गुज़री लेकिन साइंस जर्नल में वर्णित इस प्रायोगिक दवा ने व्यापक रूप से सुलभ और किफायती उपचार की एक उम्मीद जगाई है।

गौरतलब है कि सिकल सेल रोग वयस्क हीमोग्लोबीन के उत्पादन के लिए ज़िम्मेदार जीन में उत्परिवर्तन के कारण होता है। यह उत्परिवर्तन लाल रक्त कोशिकाओं को हंसिए (सिकल) आकार का बना देता है, जिससे रक्त कोशिकाएं आपस में चिपक जाती हैं। इसके चलते रक्त वाहिकाएं अवरुद्ध होती हैं, और तेज़ दर्द के साथ ऊतकों को नुकसान पहुंचाती हैं।

रोचक तथ्य यह है कि इस जीन में उत्परिवर्तन से पीड़ित व्यक्तियों में भी भ्रूणावस्था में सामान्य लाल रक्त कोशिकाएं बनती हैं। उपचारों में कोशिश यह की जाती है कि वयस्क व्यक्ति में वयस्क जीन को बाधित करके भ्रूण के लाल रक्त कोशिका जीन को सक्रिय कर दिया जाए ताकि सामान्य लाल रक्त कोशिकाएं बनने लगें।

सिकल सेल रोग उस जीन में उत्परिवर्तन के कारण होता है जो वयस्क में हीमोग्लोबीन बनाने के लिए ज़िम्मेदार होता है। वर्तमान में स्वीकृत एक जीन थेरेपी में किया यह जाता है कि एक वायरस की मदद से वयस्क हीमोग्लोबीन का संशोधित जीन व्यक्ति की स्टेम कोशिकाओं में प्रविष्ट करा दिया जाता है। फिर इन संशोधित कोशिकाओं को वापिस उस व्यक्ति के शरीर में डाला जाता है। लेकिन उससे पहले उसके शरीर में पहले से मौजूद रक्त स्टेम कोशिकाओं को नष्ट कर दिया जाता है।

दूसरी जीन थेरेपी में भी मरीज़ की रक्त स्टेम कोशिकाओं में संशोधन किया जाता है लेकिन इसके लिए क्रिस्पर नामक तकनीक की मदद ली जाती है। क्रिस्पर की मदद से BCL11A नामक एक प्रोटीन को बाधित कर दिया जाता है। यह वह प्रोटीन है जो वयस्कों में भ्रूणीय हीमोग्लोबीन का उत्पादन रोक देता है। तो जब BCL11A जीन को ठप कर दिया जाता है तो रक्त स्टेम कोशिकाओं में भ्रूणीय हीमोग्लोबीन फिर बनने लगता है और मरीज़ को मदद मिलती है।

लेकिन जीन थेरेपी के भारी खर्च और जटिलता के चलते हर व्यक्ति तक इसकी पहुंच सीमित हो जाती है, खासकर अफ्रीका जैसे क्षेत्रों में जहां सिकल सेल रोगी अधिक पाए जाते हैं।

अलबत्ता, वयस्कों में भ्रूणीय हीमोग्लोबीन जीन को सक्रिय करने वाली औषधियां विकसित करने के प्रयास लंबे समय से चल रहे हैं लेकिन उतने कारगर नहीं रहे हैं।

जैसे नोवार्टिस की पामेला टिंग और जे ब्रैडनर एक ऐसा यौगिक खोज रहे थे जो BCL11A द्वारा बनाए गए प्रोटीन से जुड़ सके और उसे कोशिका की प्रोटीन विध्वंस मशीनरी में पहुंचा सके ताकि वह भ्रूणीय हीमोग्लोबीन के जीन को शांत न कर सके। टीम ने एक यौगिक (dWIZ-1) की पहचान की है जो कोशिका में डाले जाने पर भ्रूणीय हीमोग्लोबीन का उत्पादन बढ़ा देता है। लेकिन यह BCL11A को लक्षित नहीं करता।

इस यौगिक में संशोधन कर dWIZ-2 का निर्माण किया गया, जिसने लाल रक्त कोशिकाओं में भ्रूणीय हीमोग्लोबीन का स्तर 17-45 प्रतिशत तक बढ़ा दिया। यह स्तर मनुष्यों में लाल रक्त कोशिकाओं के कार्यात्मक उत्पादन करने के लिए पर्याप्त है।

dWIZ-2 ने चूहों और तीन में से दो साइनोमोल्गस बंदरों में प्रभावशीलता दिखाई है और कोई दुष्प्रभाव भी नज़र नहीं आए हैं। यह ऐसा पहला छोटा अणु है जो स्टेम कोशिकाओं को नुकसान पहुंचाए बिना भ्रूणीय हीमोग्लोबीन का उत्पादन बढ़ाता देता है।

दिक्कत यह है कि dWIZ प्रोटीन कई कोशिकाओं में बनता है और यह कई जीनों को नियंत्रित करता है। यानी इसकी नियामक भूमिका काफी व्यापक हो सकती है और इसका दमन करना शायद सुरक्षित न हो। बहरहाल, ब्रैडनर का मत है कि भ्रूणीय हीमोग्लोबन को बढ़ाने की dWIZ-2 की क्षमता बहुत अधिक है और यह आगे के विकास का रास्ता तो खोलता ही है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.genengnews.com/wp-content/uploads/2019/08/Aug16_2016_Getty_481945753_SickleCellRedCells.jpg

अवसाद के लिए केटामाइन की गोली

श्व प्रशांतक और पार्टी ड्रग के रूप में मशहूर केटामाइन को इन दिनों गंभीर अवसाद के आसान उपचार के रूप में विकसित किया जा रहा है। पारंपरिक रूप से, अवसाद से ग्रस्त लोगों को केटामाइन की खुराक अस्पताल में इंट्रावीनस रूप में दी जाती है। लेकिन नेचर मेडिसिन में प्रकाशित एक हालिया अध्ययन बताता है कि केटामाइन का स्लो-रिलीज़ गोली के रूप में उपयोग इस उपचार को अधिक सुलभ बना सकता है।

ओटागो विश्वविद्यालय के मनोचिकित्सक पॉल ग्लू के अनुसार गोली के रूप में इस औषधि का सेवन आसानी से अन्य किसी साधारण गोली की तरह घर पर किया जा सकेगा और इसके लिए विशेष निगरानी की आवश्यकता भी नहीं होगी।

गौरतलब है कि नसों या नेज़ल स्प्रे के माध्यम से केटामाइन का उपयोग अवसाद के उपचार के लिए किया जाता रहा है। लेकिन इन तरीकों से उच्च रक्तचाप, तेज़ हृदय गति और आसपास की दुनिया और स्वयं से असम्बद्धता जैसे दुष्प्रभाव देखे गए हैं। वहीं, केटामाइन औषधि को स्लो-रिलीज़ तरीके से देने पर ये दुष्प्रभाव कम देखे गए हैं।

इसके मद्देनज़र ग्लू और उनकी टीम ने एक स्लो-रिलीज़ केटामाइन गोली (R-107) विकसित की है। कारगरता की जांच के लिए उन्होंने गंभीर अवसाद विकार वाले 231 प्रतिभागियों को अध्ययन में शामिल किया। ये प्रतिभागी कम से कम दो तरह की अवसादरोधी औषधियों पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दे रहे थे। इन रोगियों को पांच दिनों तक रोज़ाना 120-मिलीग्राम R-107 की खुराक दी गई। आठ दिन बाद भी जिन रोगियों के लक्षणों में सुधार नहीं हुआ वे स्वयं इस अध्ययन से हट गए। इसके बाद 168 प्रतिभागियों के साथ इस अध्ययन को जारी रखा गया। उन्हें या तो प्लेसिबो या फिर R-107 टेबलेट्स (30, 60, 120, या 180 मिलीग्राम) की एक खुराक हफ्ते में दो बार 12 सप्ताह के लिए दी गई।

टीम ने पाया कि 13 हफ्तों के बाद, प्लेसिबो वाले 71 प्रतिशत प्रतिभागियों में अवसाद के लक्षण मध्यम पाए गए, जबकि उच्चतम खुराक वाले केवल 43 प्रतिशत प्रतिभागियों में अवसाद के लक्षण बने रहे। इस प्रक्रिया के दौरान प्रतिभागियों में दुष्प्रभाव न्यूनतम रहे: रक्तचाप में कोई परिवर्तन नहीं देखा गया जबकि कुछ रोगियों ने केवल बेहोशी या अम्बद्धता की शिकायत की।

ये निष्कर्ष आशाजनक लगते हैं। लेकिन बड़े पैमाने पर जांच और दुरुपयोग सम्बंधी चिंताओं को संबोधित करने के बाद ही इसे आम उपयोग में लाया जा सकेगा। फिलहाल दुरुपयोग के जोखिम को कम करने के लिए, R-107 गोली को अत्यधिक कठोर और कुचलने में कठिन बनाया गया है ताकि इसे सूंघकर नशा करना मुश्किल हो जाए।

इसके अलावा, शराब की लत जैसी अन्य मानसिक स्थितियों से निपटने के लिए केटामाइन की प्रभाविता पता लगाने की योजना भी है। प्रारंभिक शोध से पता चलता है कि केटामाइन शराब की लालसा को कम करने में भी मददगार साबित हो सकती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://media.kjzz.org/s3fs-public/field/image/ketamine_getty_20230807.jpg

बढ़ता तापमान फफूंदों को खतरनाक बना सकता है

चीनी शोधकर्ताओं द्वारा किए गए एक हालिया अध्ययन से पता चला है कि जैसे-जैसे पृथ्वी गर्म हो रही है, फफूंद जन्य रोग मानव स्वास्थ्य के लिए बड़ा खतरा साबित हो सकते हैं। अध्ययन के दौरान दो रोगियों में एक ऐसी फफूंद पाई गई जो पहले मनुष्यों को संक्रमित नहीं करती थी। इस फफूंद में न केवल दो आम फंफूद-रोधी दवाओं के प्रति प्रतिरोध विकसित हो गया था बल्कि उच्च तापमान के संपर्क में आने पर तीसरी दवा के प्रति भी जल्द प्रतिरोध विकसित हो गया, जिससे यह लगभग असाध्य हो गई।

आम तौर पर बैक्टीरिया या वायरस की तुलना में फफूंद मनुष्यों को कम ही बीमार करती है। मानव प्रतिरक्षा प्रणाली फफूंद से प्रभावी रूप से लड़ती है और शरीर का तापमान उन्हें पनपने भी नहीं देता है। लेकिन, पिछले कुछ समय में फफूंद संक्रमणों में वृद्धि हुई है जिसका एक कारण एचआईवी और प्रतिरक्षा-शामक दवाओं के कारण लोगों की कमज़ोर होती प्रतिरक्षा प्रणाली है। और अब, नए दवा प्रतिरोधी फफूंद संक्रमण सामने आए हैं जो काफी चिंताजनक है।

एक महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या जलवायु परिवर्तन, पर्यावरणीय फफूंद को मानव शरीर तापमान के प्रति अनुकूलित होने और दवा प्रतिरोध विकसित करने में मदद कर सकता है? इसे समझने के लिए शोधकर्ताओं ने 2009 से 2019 तक चीन के 96 अस्पतालों में रोगियों से नमूने एकत्र किए, जिसमें उन्होंने दो रोगियों में एक प्रकार की खमीर रोडोस्पोरिडियोबोलस फ्लुविएलिस (आर. फ्लुविएलिस) पाई। दोनों रोगी परस्पर असम्बंधित थे। ये गंभीर रूप से बीमार हुए थे और दवा प्रतिरोधी फफूंद से संक्रमित थे। बाद में इनकी मृत्यु हो गई।

फफूंद द्वारा स्तनधारियों को संक्रमित करने की क्षमता का पता लगाने के लिए, शोधकर्ताओं ने इसे कमज़ोर प्रतिरक्षा प्रणाली वाले चूहों में इंजेक्ट किया। इससे चूहे बीमार हो गए, और कुछ फफूंद तो उत्परिवर्तित होकर अधिक आक्रामक भी हो गई। शोधकर्ताओं ने पाया कि 37 डिग्री सेल्सियस (मानव शरीर का सामान्य तापमान) पर संवर्धित फफूंदों में उन फफूंदों की तुलना में 21 गुना तेज़ी से उत्परिवर्तन हुए जिन्हें 25 डिग्री सेल्सियस पर संवर्धित किया गया था। इसके अलावा, 37 डिग्री सेल्सियस पर फफूंद-रोधी दवा एम्फोटेरिसिन बी के संपर्क में आने वाली फफूंदों में प्रतिरोध भी अधिक तेज़ी से विकसित हुआ।

बहरहाल, वर्तमान परिस्थिति में इसके प्रभाव का सामान्यीकरण करना थोड़ी जल्दबाज़ी होगी, लेकिन विशेषज्ञों का अनुमान है कि इस पैटर्न को समझने के लिए अधिक उच्च तापमान पर जांच करना होगा। हालांकि आर. फ्लुविएलिस से तत्काल मानव स्वास्थ्य के लिए खतरा तो नहीं है, लेकिन ये परिणाम इस क्षेत्र में और अधिक शोध की आवश्यकता दर्शाते हैं।

चाइनीज़ अकेडमी ऑफ साइंसेज़ के माइक्रोबायोलॉजिस्ट लिंकी वांग के अनुसार ग्लोबल वार्मिंग अधिक खतरनाक रोगजनक फफूंदों के विकसित होने में भूमिका निभा सकता है। ज़ाहिर है इस विषय में सतर्कता एवं अधिक अध्ययन की ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.gavi.org/sites/default/files/vaccineswork/2023/Header/media_fungi-climate-change-1600x600_h1.jpg

अंतत: अमेरिका में एस्बेस्टस पर प्रतिबंध लगाया गया

मेरिकी पर्यावरण संरक्षण एजेंसी (EPA) ने कई वर्षों की जद्दोज़हद के बाद मार्च 2024 से एस्बेस्टस के उपयोग पर पूर्ण प्रतिबंध की घोषणा की है। यह घोषणा एक आश्चर्य के रूप में सामने आई। सब मानते आए थे कि एस्बेस्टस पर प्रतिबंध तो पहले से ही लगा हुआ था, और 1970 के दशक से ही इसे अमरीकी स्कूलों और अस्पतालों से हटा दिया गया था।

गौरतलब है कि एस्बेस्टस प्राकृतिक रूप से पाया जाने वाला खनिज है जो गर्मी और आग की लपटों के प्रति प्रतिरोधी है, लेकिन यह अत्यधिक ज़हरीला है और कैंसर का कारण बनता है। 1898 में, ब्रिटिश फैक्ट्री इंस्पेक्टर लूसी डीन ने एस्बेस्टस निर्माण को श्रमिकों के स्वास्थ्य के लिए खतरनाक बताया था। 1927 तक, ‘एस्बेस्टोसिस’ शब्द का इस्तेमाल एस्बेस्टस श्रमिकों में आम तौर पर होने वाली फेफड़ों की एक गंभीर बीमारी के लिए किया जाने लगा। 1960 के दशक में कई अध्ययनों से यह स्पष्ट हुआ कि एस्बेस्टस के संपर्क में आने से न केवल एस्बेस्टोसिस होता है, बल्कि फेफड़ों का कैंसर, मेसोथेलियोमा और अन्य प्रकार के कैंसर भी होते हैं। और तो और, शोध से यह भी पता चला कि एस्बेस्टस का कोई सुरक्षित स्तर नहीं है।

इन निष्कर्षों के बावजूद, सरकारों को कार्रवाई करने में कई साल लग गए। 1970 के दशक में, कई देशों ने एस्बेस्टस पर प्रतिबंध लगाना शुरू कर दिया था। 2020 तक, कम से कम 67 देशों ने प्रतिबंध लागू किए थे। लेकिन अमेरिका ने अब तक केवल आंशिक प्रतिबंध ही लगाए थे। भारत में 1993 में एस्बेस्टस खनन पर प्रतिबंध लगाने के बावजूद, इसके उत्पादन, आयात या व्यापार में इसके उपयोग को प्रतिबंधित करने के लिए कोई कानून नहीं है। वर्तमान में भारत एस्बेस्टस निर्मित उत्पादों का निर्यात भी करता है।

अमेरिका में देरी के लिए कई कारकों को ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है। इसमें 1980 के दशक से उद्योग जगत द्वारा प्रतिबंध के विरोध और यूएस में व्याप्त नियमन विरोधी आम रवैये ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1989 में, EPA ने विषाक्त पदार्थ नियंत्रण अधिनियम (TOSCA) के तहत अधिकांश एस्बेस्टस उत्पादों पर प्रतिबंध लगाने की कोशिश की, लेकिन इस नियम को करोज़न प्रूफ फिटिंग्स नामक एक कंपनी और अन्य व्यापार संघों द्वारा अदालत में चुनौती दी गई। हालांकि, अदालत व्यापार संघों द्वारा दिए गए कम लागत के झूठे दावों से सहमत नहीं थी, लेकिन EPA द्वारा अपनाए गए तरीके के साथ भी प्रक्रियात्मक मुद्दे पाए गए। इसके नतीजे में EPA ने एक नया और व्यापक प्रतिबंध नहीं लगाया। इसकी बजाय, उसने छोटे-छोटे मामलों पर ध्यान दिया, जिसने स्कूलों को एस्बेस्टस का प्रबंधन करने में मदद की, लेकिन इसे पूरी तरह से खत्म नहीं किया।

इसके अलावा, तंबाकू उद्योग के समान एस्बेस्टस उद्योग ने एस्बेस्टस के नुकसान के प्रमाणों को शंकास्पद साबित करने का प्रयास किया। शोधकर्ताओं को बदनाम किया गया और कहा गया कि केवल कुछ प्रकार के एस्बेस्टस ही खतरनाक हैं। अलबत्ता, 2016 के बाद संसद ने TOSCA में संशोधन किया, जिससे व्यापक प्रतिबंध लगाने का रास्ता खुल गया। नया एस्बेस्टस प्रतिबंध, संशोधित कानून के तहत जारी पहला नियम है।

गौरतलब है कि एस्बेस्टस का प्रभाव काफी विनाशकारी रहा है। वाशिंगटन विश्वविद्यालय के स्वास्थ्य मापन और मूल्यांकन संस्थान का अनुमान है कि 2019 में एस्बेस्टस के कारण करीब 40,764 श्रमिकों की मृत्यु हुई। यू.एस. रोग नियंत्रण एवं रोकथाम केंद्र ने 1999 और 2015 के बीच 45,221 मेसोथेलियोमा से हुई मौतों को दर्ज किया। जबकि 20वीं सदी में, सिर्फ यू.एस. में एस्बेस्टस के कारण लगभग 1.7 करोड़ व्यावसायिक मौतें और 20 लाख गैर-व्यावसायिक मौतें हुई हैं।

हालिया प्रतिबंध एक महत्वपूर्ण कदम है। एस्बेस्टस पर प्रतिबंध के लिए चला लंबा संघर्ष दर्शाता है कि वैज्ञानिक निष्कर्षों को कुशलतापूर्वक और प्रभावी ढंग से नीति का रूप देना कितना महत्वपूर्ण और कठिन है। बहरहाल, यह सुनिश्चित करना ज़रूरी है कि कोई भी हानिकारक पदार्थ प्रतिबंधित होने से पहले सदियों तक इस्तेमाल न होता रहे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://media.cnn.com/api/v1/images/stellar/prod/gettyimages-1267659690.jpg?c=original

पिता के खानपान का बेटों के स्वास्थ्य पर असर

ह बात तो सभी कहते हैं कि जैसा आपका खानपान होगा, वैसा आपका स्वास्थ्य होगा। लेकिन हाल ही में नेचर पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन बताता है कि पुत्र-जन्म से पूर्व पिता का खानपान पुत्रों की चयापचय क्षमता को प्रभावित कर सकता है।

अध्ययनों से यह तो पता था कि माताएं अपनी संतानों में चयापचय सम्बंधी लक्षण हस्तांतरित कर सकती हैं। फिर, 2016 में युनिवर्सिटी ऑफ ऊटा स्कूल ऑफ मेडिसिन में प्रजनन-जीवविज्ञानी क्याई चेन और उनकी टीम ने उच्च वसायुक्त आहार करने वाले नर चूहों की संतानों में चयापचय विकार की समस्या देखी थी। साथ ही पाया था कि माता-पिता के आहार का प्रभाव संतान के जीनोम में नहीं बल्कि उनके ‘एपिजीनोम’ में परिवर्तन के कारण होता है। एपिजीनोम जीन अभिव्यक्ति, विकास, ऊतक विभेदन को विनियमित करने में और जम्पिंग जीन को शांत करने में भूमिका निभाते हैं। जीनोम के विपरीत एपिजीनोम में पर्यावरणीय परिस्थितियों के चलते परिवर्तन हो सकते हैं।

हालिया अध्ययन में हेल्महोल्ट्ज़ सेंटर, म्यूनिख के शोधकर्ता राफेल टेपरिनो ने नर चूहों को दो हफ्ते तक उच्च वसा वाला आहार खिलाया। पाया गया कि इस आहार के कारण शुक्राणु के माइटोकॉन्ड्रिया में ट्रांसफर आरएनए (tRNA) में परिवर्तन हुए थे। माइटोकॉण्ड्रिय़ा कोशिका को ऊर्जा देते हैं। आहार परिवर्तन का असर माइटोकॉन्ड्रिया के tRNA पर देखा गया जो डीएनए से प्रोटीन में बनने की प्रक्रिया के दौरान बनते हैं।

खासकर, उच्च वसायुक्त भोजन करने वाले चूहों के शुक्राणुओं में tRNA के अंश सामान्य चूहों की अपेक्षा छोटे थे। ऐसे RNA कुछ माइटोकॉन्ड्रियल जीन की गतिविधि को बढ़ा या घटा सकते हैं।

ये परिणाम ठीक ही लगते हैं क्योंकि ऐसा देखा गया है कि उच्च वसा वाला आहार माइटोकॉन्ड्रिया में तनाव पैदा करता है, नतीजतन माइटोकॉन्ड्रिया अधिक ऊर्जा उत्पन्न करने के लिए अधिक RNA बनाते हैं। माइटोकॉन्ड्रिया की यह प्रतिक्रिया एक सौदे की तरह होती है। माइटोकॉन्ड्रियल गतिविधि में वृद्धि शुक्राणु को अंडाणु तक पहुंचने के लिए पर्याप्त ऊर्जा देती है, लेकिन साथ में अतिरिक्त माइटोकॉन्ड्रियल RNA भी शुक्राणु से भ्रूण में चले जाते हैं, जिससे भ्रूण को मिलने वाली जानकारी बदल जाती है और उसके स्वास्थ्य पर असर पड़ता है।

अगले चरण में शोधकर्ताओं ने उन चूहों के स्वास्थ्य को देखा जिनके पिता अधिक वसायुक्त भोजन खाते थे। पाया गया कि चूहा संतानों में से लगभग 30 प्रतिशत में चयापचय विकार थे। 3431 मानव संतानों के आंकड़ों के विश्लेषण में पता चला कि उन मानव संतानों में चयापचयी विकार अधिक थे जिनके पिता का वज़न अधिक था।

प्रयोगों से यह भी पता चला कि उच्च वसायुक्त आहार करने वाले चूहों की संतानों में अपने पिता से बहुत अधिक माइटोकॉन्ड्रियल tRNA आ गए थे।

हालांकि इस अध्ययन की एक तकनीकी सीमा है: अनुक्रमण विधि केवल सम्पूर्ण RNA का पता लगा पाती है। इस वजह से, अध्ययन में यह पता नहीं चल सका कि RNA के अंश पिता से भ्रूण में स्थानांतरित हुए थे या नहीं। शोधकर्ता यह मानकर चल रहे हैं कि RNA के अंश भी स्थानांतरित हुए होंगे।

मज़ेदार बात यह है कि चयापचय सम्बंधी समस्याएं पिता से केवल पुत्रों को मिली हैं, पुत्रियों को नहीं। इससे लगता है कि X और Y शुक्राणु में अलग-अलग जानकारी होती है। बहरहाल, X और Y शुक्राणु में ऐसी भिन्नता क्यों होती है, आगे के अध्ययनों के लिए यह एक अच्छा प्रश्न है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://media.nature.com/lw767/magazine-assets/d41586-024-01623-2/d41586-024-01623-2_27168558.jpg

दूर बैठे-बैठे आंखों की देखभाल – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

पूर्वी रेलपथ पूर्वोत्तर भारत, पश्चिम बंगाल और उड़ीसा को दक्षिणी राज्यों से जोड़ने वाली जीवन रेखा है। इस रेलमार्ग पर सफर करते हुए कई सुंदर नज़ारे दिखाई देते हैं; ट्रेन 900 वर्ग कि.मी. में फैली चिलिका झील के किनारे से होकर भी गुज़रती है।

इस रेलमार्ग से दक्षिण भारत की ओर यात्रा करते समय आप एक और दिलचस्प बात गौर करेंगे – कई यात्री दक्षिण भारतीय शहरों में स्थित नेत्र अस्पतालों में जा रहे होते हैं। दुनिया के कुल नेत्रहीन लोगों में से लगभग एक-चौथाई भारत में रहते हैं। इस रूट की ट्रेनों में गंभीर समस्याओं वाले मरीज़ और उनके साथ चिंतित रिश्तेदार दिखना एक आम दृश्य हैं; ये चेन्नई और हैदराबाद जैसे शहरों के प्रतिष्ठित और कम-खर्चीले या मुफ्त इलाज वाले नेत्र अस्पतालों की तलाश में जा रहे होते हैं।

पर्यावरणीय लागत

लेकिन ग्रामीण क्षेत्र से इन नेत्र विशेषज्ञों के पास आने-जाने का खर्चा और असुविधा इसमें एक बड़ी बाधा हो सकती है। एल. वी. प्रसाद आई इंस्टीट्यूट की बीएमसी ऑप्थेल्मोलॉजी पत्रिका में प्रकाशित एक हालिया अध्ययन बताता है कि किसी ग्रामीण व्यक्ति को प्राथमिक उपचार पाने के लिए (कम से कम) 80 कि.मी. की यात्रा करनी पड़ती है। उन्नत चिकित्सा उपकरण और विशेषज्ञता वाले तृतीयक देखभाल केंद्र तक आने के लिए तो यह यात्रा और भी लंबी हो सकती है। एल. वी. प्रसाद आई इंस्टीट्यूट में आने वाले लगभग आधे मरीज़ ट्रेन से औसतन 1666 कि.मी. की यात्रा करके पहुंचते हैं। यही स्थिति चेन्नई के शंकर नेत्रालय और मदुरै के अरविंद आई हॉस्पिटल की भी है।

इसमें शामिल खर्चे के इतर यह पूरी यात्रा कार्बन पदचिन्ह छोड़ने में भी योगदान देती है। भारत के कुल कार्बन पदचिन्ह में लगभग 5 प्रतिशत योगदान स्वास्थ्य सेवा क्षेत्र का है, यानी यह हिस्सा इस क्षेत्र द्वारा प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उत्सर्जित ग्रीनहाउस गैसों की मात्रा है। जैसे-जैसे हमारा अधिकाधिक ज़ोर हरित (ऊर्जा अपनाने) होने और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने पर जा रहा है, सुदूर चिकित्सा अपनी जगह बनाती जा रही है। सुदूर चिकित्सा में चिकित्सक दूर बैठे-बैठे रोगियों का निदान, उपचार और निगरानी करते हैं।

सुदूर नेत्र चिकित्सा

सुदूर नेत्र चिकित्सा के उपयोग के चलते नेत्र चिकित्सा एक बड़ी आबादी तक और कम सेवा-सुविधा वाले क्षेत्रों तक पहुंचने लगी है। सुदूर नेत्र चिकित्सा का एक गुप्त लाभ यह है कि नेत्र रोगों का शीघ्र पता लगाने, निदान करने और इन बीमारियों की प्रगति पर नज़र रखने में इमेजिंग प्रणालियां अहम हैं। इनमें से अधिकांश प्रणालियों में विशेष उपकरणों द्वारा आंख की आंतरिक सतह की तस्वीरें ली जाती हैं। फिर दूर बैठे नेत्र विशेषज्ञ छवियों का सावधानीपूर्वक अध्ययन करके निदान करते हैं।

मसलन, आंख के पीछे स्थित रेटिना की तस्वीरें फंडस फोटोग्राफी की मदद से ली जाती है, जो ग्लूकोमा और डायबिटिक रेटिनोपैथी जैसी स्थितियों का पता लगाने में सहायता करती है। इसी तरह, ऑप्टिकल कोहरेंस टोमोग्राफी से प्राप्त तस्वीरें रेटिना की परतों का ब्यौरा देती हैं और रेटिना डिटेचमेंट जैसी स्थितियों की निगरानी में खास उपयोगी होती हैं।

अधुनातन विकास की मदद से इस तरह के उपकरणों के आकार छोटे हो रहे हैं। कुछ मामलों में, ये उपकरण मोबाइल फोन के कैमरों से जुड़ जाते हैं। इससे इन उपकरणों का ग्रामीण लोगों के नज़दीकी प्राथमिक केंद्रों में उपयोग करना आसान हो जाएगा। अन्य तकनीकों (जैसे 5G सेवाओं) में प्रगति और उनकी उपलब्धता मरीज़ों और उनके दूरस्थ विशेषज्ञों के बीच संचार-संवाद को बेहतर कर सकती हैं।

सुदूर चिकित्सा ने चिकित्सा देखभाल के कई अन्य क्षेत्रों में भी प्रभाव छोड़ा है। पहनने योग्य उपकरण, जिनमें सबसे अधिक स्मार्टवॉच पहने हुए लोग दिखते हैं, के डैटा को निरंतर देखभालकर्ताओं/चिकित्सकों को भेजने के लिए सेट किया जा सकता है। जैसे स्मार्टवॉच से प्राप्त हृदय गति और रक्तचाप सम्बंधी डैटा को उन हृदय चिकित्सकों को भेजने के लिए सेट किया जा सकता है, जो इन गड़बड़ियों की निगरानी करते हैं।

तो, अगली बार आपको संदेह हो कि परिवार के किसी सदस्य को कंजक्टीवाइटिस है तो आप सुदूर परामर्श लेकर इसकी पुष्टि कर सकते हैं या अपनी शंका दूर कर सकते हैं! (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://th-i.thgim.com/public/news/national/aomlzv/article68263548.ece/alternates/LANDSCAPE_1200/iStock-1070605444.jpg

कीटो आहार अंगों को नुकसान पहुंचा सकता है

हाल ही में साइंस एडवांसेज में प्रकाशित एक अध्ययन ने तेज़ी से वज़न घटाने और चयापचय लाभों के लिए जाने-माने कीटोजेनिक आहार के छिपे हुए जोखिम को उजागर किया है। शोधकर्ताओं ने उच्च वसा और अत्यधिक कम कार्बोहाइड्रेट पर आधारित इस आहार से चूहों के अंगों में सेनेसेंट (वृद्ध) कोशिकाओं का संचय होते देखा है। सेनेसेंट कोशिकाएं वे कोशिकाएं होती हैं जो विभाजन करना बंद कर देती हैं लेकिन मरती भी नहीं। आम तौर पर हमारा प्रतिरक्षा तंत्र इन्हें साफ कर देता है लेकिन उम्र बढ़ने के साथ प्रतिरक्षा तंत्र अपना काम भलीभांति नहीं कर पाता और जमा होने वाली सेनेसेंट कोशिकाएं ऊतक के कार्य को बाधित कर सकती हैं और विभिन्न स्वास्थ्य समस्याओं को भी जन्म दे सकती हैं।

वास्तव में, कीटोजेनिक आहार शरीर को कार्बोहाइड्रेट की बजाय वसा का उपयोग करने के लिए मजबूर करता है, जिससे कीटोन नामक अणु उत्पन्न होते हैं। आम तौर पर कीटो आहार लेने वाले लोग अपनी कैलोरी का 70 से 80 प्रतिशत वसा से और केवल 5 से 10 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट से प्राप्त करते हैं। इसके विपरीत, एक औसत अमेरिकी के आहार में लगभग 36 प्रतिशत वसा और 46 प्रतिशत कार्बोहाइड्रेट होता है।

वैसे तो यह आहार मूल रूप से 1920 के दशक में बच्चों में मिर्गी के इलाज के लिए विकसित किया गया था लेकिन यह वज़न तथा रक्त शर्करा के स्तर को कम करने और एथलेटिक प्रदर्शन को बढ़ाने की चाह रखने वालों के बीच काफी लोकप्रिय हुआ है।

दरअसल, सैन एंटोनियो स्थित टेक्सास हेल्थ साइंस सेंटर के विकिरण कैंसर विशेषज्ञ डेविड गियस के नेतृत्व में शोधकर्ता यह जांच कर रहे थे कि कीटो आहार के कारण p53 प्रोटीन पर किस तरह के असर होते हैं। p53 प्रोटीन कैंसर से लड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। साथ ही यह कोशिकीय सेनेसेंस का नियमन भी करता है।

प्रयोगों के दौरान उन्होंने देखा कि उच्च वसा (जो कुल में से लगभग 90 प्रतिशत कैलोरी देता है) वाले कीटोजेनिक आहार से चूहों के दिल, गुर्दे, यकृत और मस्तिष्क में p53 और सेनेसेंट कोशिकाओं के अन्य संकेतकों का स्तर बढ़ा था। इसके विपरीत, आहार में वसा से केवल 17 प्रतिशत कैलोरी प्राप्त करने वाले चूहों के नियंत्रण समूह में ऐसी कोई वृद्धि नहीं देखी गई।

यह काफी दिलचस्प बात है कि जब चूहों को फिर से सामान्य आहार दिया गया तो सेनेसेंट कोशिकाएं लगभग गायब हो गई थीं। उच्च वसा वाला भोजन और नियमित भोजन निश्चित अंतराल पर बारी-बारी करने से भी ऐसी कोशिकाओं का निर्माण रुक गया। इससे स्पष्ट होता है कि कीटोजेनिक आहार से नियमित अंतराल पर ब्रेक लेने से इसके संभावित नकारात्मक प्रभावों को कम किया जा सकता है।

बहरहाल, अन्य विशेषज्ञ इस बात से सहमत नहीं हैं कि कीटोजेनिक आहार मनुष्यों के लिए भी हानिकारक है। उनका कहना है कि इन निष्कर्षों को पूरी तरह से समझने के लिए और अधिक शोध की आवश्यकता है। सेनेसेंट कोशिकाओं के सकारात्मक और नकारात्मक दोनों प्रभाव हो सकते हैं – वे घाव भरने में मदद करती हैं लेकिन अगर वे लंबे समय तक बनी रहती हैं तो सूजन पैदा कर सकती हैं और ऊतकों को क्षति भी पहुंचा सकती हैं। लिहाज़ा, आहार की सुरक्षा सम्बंधी निष्कर्ष निकालने से पहले मनुष्यों में इन कोशिकाओं के हानिकारक प्रभाव को प्रदर्शित करना ज़रूरी है।

वैसे, अध्ययन यह भी कहता है कि सभी कीटोजेनिक आहार एक जैसे नहीं होते। वसा और प्रोटीन स्रोतों में भिन्नता से इनके परिणाम अलग-अलग भी हो सकते हैं। ऐसे में यह कहना उचित नहीं है कि चूहों में देखे गए प्रभाव सभी कीटोजेनिक आहारों पर एक समान रूप से लागू होंगे।

बहरहाल, कीटोजेनिक आहार विभिन्न स्वास्थ्य लाभ तो प्रदान करता है लेकिन इस अध्ययन की मानें तो संतुलन और समय-समय पर इस आहार से ब्रेक लेकर सामान्य भोजन अपनाना समझदारी होगी। फिर भी इस संदर्भ में अधिक शोध आवश्यक है ताकि सुरक्षित और प्रभावी कीटोजेनिक आहार के लिए दिशानिर्देश तैयार किए जा सकें। तब तक, कीटोजेनिक आहार लेने वाले लोग प्रतिकूल प्रभावों को कम करने के लिए नियमित ब्रेक लेने पर विचार कर सकते हैं।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://static.wixstatic.com/media/1c4fd3_2eb9454c2fff4da8b65dbfa488395405~mv2.jpg/v1/fill/w_640,h_336,al_c,q_80,usm_0.66_1.00_0.01,enc_auto/1c4fd3_2eb9454c2fff4da8b65dbfa488395405~mv2.jpg

कितना सेहतमंद है बोतलबंद पानी – सुदर्शन सोलंकी

पानी की गुणवत्ता का हमारे स्वास्थ्य पर काफी प्रभाव पड़ता है। यदि पेय जल प्रदूषित हो तो यह ज़हर के समान हो जाता है। वर्तमान में पर्यावरण प्रदूषण इस हद तक बढ़ गया है कि ज़्यादातर जल स्रोत प्रदूषित हो गए हैं। समूचा विश्व जल संकट का सामना कर रहा है। ऐसे में सभी लोगों को शुद्ध व स्वच्छ पेयजल मिल पाना अपने आप में एक चुनौती हो गई है।
कुछ सालों पहले से बोतलबंद पानी दुनिया भर के बाज़ारों में बिकना शुरू हुआ। जिसे कंपनियों ने यह कहकर बेचना शुरू किया था कि यह स्वच्छ, शुद्ध और खनिज युक्त है। जिसे वास्तविकता मान कर लोग इसे धड़ल्ले से खरीदने लगे हैं। पर क्या वास्तव में बोतलबंद पानी खनिज युक्त होता है? और क्या यह हमारे स्वास्थ्य के लिए लाभकारी है?
पहले तो यह स्पष्ट करते चलें कि बाज़ार में बिकने वाला हर बोतलबंद पानी मिनरल वॉटर नहीं होता है। मिनरल वॉटर वह पानी होता है जो ऐसे प्राकृतिक स्रोतों से भरा जाता है जहां के पानी में कई लाभदायक खनिज तत्व पाए जातेे हैं। यह स्वास्थ्यवर्धक लवणों, खनिजों से भरपूर और ऑक्सीजन युक्त होता है। जो स्वाद में अच्छा और स्वास्थ्य के लिए फायदेमंद होता है।
बाज़ार में उपलब्ध अधिकतर बोतलबंद पानी पैकेज्ड ड्रिंकिंग वॉटर होता है। पैकेज्ड ड्रिंकिंग वॉटर नल से आने वाला सामान्य पानी होता है जिसे फिल्टर से छान कर, रिवर्स ऑस्मोसिस, ओज़ोन ट्रीटमेंट आदि से साफ करके पैक कर दिया जाता है।
इसी प्रकार, लोगों में आरओ सिस्टम को लेकर भ्रांति है कि इससे नितांत शुद्ध व स्वच्छ जल मिलता है। किंतु वास्तव में आरओ सिस्टम से गुज़रा हुआ पानी भी सेहत को नुकसान पहुंचा सकता है। कारण, क्योंकि आरओ सिस्टम में लगे फिल्टर कुछ दिनों बाद ही पानी को साधारण तरीके से फिल्टर करने लगते है।
बोतलबंद पानी को लेकर अमेरिका में हुई रिसर्च से पता चला है कि बोतलबंद पानी में प्लास्टिक के खतरनाक कण मिल रहे हैं। अमेरिकी संस्था नेचुरल रिसोर्सेज़ डिफेंस काउंसिल के अनुसार बोतल बनाने में एन्टिमनी का उपयोग किया जाता है। इस वजह से बोतलबंद पानी को अधिक समय तक रखने पर उसमें एन्टिमनी की मात्रा घुलती जाती है। इस रसायन युक्त पानी को पीने से कई तरह की बीमारियां होने लगती हैं।
स्टेट युनिवर्सिटी ऑफ न्यूयॉर्क के वैज्ञानिकों ने दुनिया भर में बोतलबंद पानी पर शोध कर बताया है कि भारत सहित दुनिया भर में मिलने वाले बोतलबंद पानी में 93 फीसदी तक प्लास्टिक के महीन कण देखे गए हैं।
इसके अतिरिक्त जिन प्लास्टिक की बोतलों में मिनरल या फिल्टर वॉटर बिकता है वे पॉलीएथिलीन टेरीथेलेट (PET) की बनी होती हैं। जब तापमान अधिक होता है या गर्म पानी बोतल में भरा जाता है तो बोतल में डायऑक्सिन का रिसाव होता है, और यह पानी में घुलकर हमारे शरीर में पहुंच जाता है। इसके कारण महिलाओं में स्तन कैंसर का खतरा बढ़ जाता है।
बोतलबंद पानी पर्यावरण को भी नुकसान पहुंचा रहा है। पैसिफिक इंस्टीटयूट के अनुसार अमेरिकी लोग जितना मिनरल वॉटर पीते हैं, उसे बनाने में 2 करोड़ बैरल पेट्रो उत्पाद खर्च किए जाते हैं। एक टन बोतलों के निर्माण में तीन टन कार्बन डाईआक्साइड का उत्सर्जन होता है। मिनरल वॉटर को बनाने के लिए दुगना पानी खर्च करना पड़ता है। अर्थात एक लीटर मिनरल वॉटर बनाने पर दो लीटर साफ पानी खर्च करना पड़ता है।
इसके अलावा बोतल का पानी तो हम पी जाते हैं, लेकिन बोतल कहीं भी फेंक देते हैं जो पर्यावरण को क्षति पहुंचाती है। इसके अतिरिक्त दुनिया भर में जहां भी इन कंपनियों ने अपने बॉटलिंग प्लांट लगाए हैं, वहां भूजल स्तर बहुत तेज़ी से नीचे चला गया और इसका खामियाजा उस इलाके में रहने वाले लोगों को उठाना पड़ता है।
स्पष्ट है कि शुद्ध और स्वच्छ जल के नाम पर बिकने वाला बोतलबंद पानी लोगों और पर्यावरण दोनों को नुकसान पहुंचा रहा है। साथ ही प्लास्टिक की बोतल के निर्माण के दौरान होने वाली अतिरिक्त जल की बर्बादी से भूजल स्तर में कमी हो रही हैै। पेयजल का कोई सुरक्षित विकल्प खोजना हमारी प्राथमिकता होनी चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://akm-img-a-in.tosshub.com/indiatoday/images/story/202401/bottled-water-contains-lakhs-of-nanoplastics-illustration-by-vani-guptaindia-today-152538252-3×4.jpg?VersionId=myJ2OraZjK4uSu8g3WY2.bdGwocyOuz7