3-डी प्रिंटिंग की मदद से अंग निर्माण

दि हम 3-डी प्रिंटिंग तकनीक से ऊतक और अंग बना सकें तो इनका उपयोग अंग-प्रत्यारोपण के अलावा औषधि परीक्षण और प्रयोगशाला में मॉडल के रूप में किया जा सकेगा। लेकिन 3-डी प्रिंटिंग की मदद से जटिल अंग जैसे आहार नाल, श्वासनली, रक्त वाहिनियों की प्रतिकृति बनाना एक बड़ी चुनौती है। ऐसा इसलिए क्योंकि 3-डी प्रिंटिंग के पारंपरिक तरीके में परत-दर-परत ठोस अंग तो बनाए जा सकते हैं लेकिन जटिल ऊतक बनाने के लिए पहले एक सहायक ढांचा बनाना होगा जिसे बाद में हटाना शायद नामुमकिन हो।

इसका एक संभावित हल यह हो सकता है कि यह सहायक ढांचा ठोस की जगह किसी तरल पदार्थ से बनाया जाए। यानी एक खास तरह से डिज़ाइन की गई तरल मेट्रिक्स हो जिसमें अंग बनाने वाली इंक (जीवित कोशिका से बना पदार्थ) के तरल डिज़ाइन को ढाला जाए और अंग के सेट होने के बाद सहायक तरल मेट्रिक्स को हटा दिया जाए। लेकिन इस दिशा में अब तक की गई सारी कोशिशें नाकाम रहीं थी, क्योंकि इस तरह बनाई गई पूरी संरचना की सतह सिकुड़ जाती है और बेकार लोंदों का रूप ले लेती है।

इसलिए चीन के शोधकर्ताओं ने जलस्नेही यानी हाइड्रोफिलिक तरल पॉलीमर्स का उपयोग किया जो अपने हाइड्रोजन बंधनों के आकर्षण की वजह से संपर्क सतह पर टिकाऊ झिल्ली बनाते हैं। इस तरीके से अंग निर्माण में कई अलग-अलग पॉलीमर की जोड़ियां कारगर हो सकती हैं लेकिन उन्होंने पोलीएथलीन ऑक्साइड मेट्रिक्स और डेक्सट्रान नामक कार्बोहाइड्रेट से बनी स्याही का उपयोग किया। पोलीएथलीन ऑक्साइड मेट्रिक्स में डेक्सट्रान को इंजेक्ट करके जो आकृति बनी वह 10 दिनों तक टिकी रही। इसके अलावा इस तकनीक की खासियत यह भी है कि तरल मेट्रिक्स में इंक इंजेक्ट करते समय यदि कोई गड़बड़ी हो जाए तो इंजेक्शन की नोज़ल इसे मिटा सकती है और दोबारा बना सकती है। एक बार प्रिंटिंग पूरी हो जाने पर उसकी आकृति वाले हिस्से पर पोलीविनाइल अल्कोहल डालकर उसे फिक्स कर दिया जाता है। शोध पत्रिका एडवांस्ड मटेलियल में प्रकाशित इस नई तकनीक की मदद से शोधकर्ताओं ने कई जटिल रचनाएं प्रिंट की हैं: बवंडर की भंवरें, सिंगल और डबल कुंडलियां, शाखित वृक्ष और गोल्डफिश जैसी आकृति। वैज्ञानिकों के अनुसार जल्द ही स्याही में जीवित कोशिकाओं को डालकर इस तकनीक की मदद से जटिल ऊतक बनाए जा सकेंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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बोतल से दूध पिलाने की प्रथा हज़ारों सालों से है – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

ब्रिस्टल विश्वविद्यालय, ब्रिटेन की जूली डन के नेतृत्व में युरोप के  पुरातत्वविदों की एक टीम ने काफी दिलचस्प रिपोर्ट प्रस्तुत की है। “Milk of ruminants in ceramic baby bottles from prehistoric child graves” (बच्चों की प्रागैतिहासिक कब्रों में सिरेमिक बोतलों पर जुगाली करने वाले जानवरों के दूध के अवशेष) शीर्षक से यह रिपोर्ट नेचर पत्रिका के 10 अक्टूबर के अंक में प्रकाशित हुई है। इस टीम को बच्चों की प्राचीन कब्रों में शिशुओं की कुछ बोतलें मिली है जिनमें कुछ अंडाकार और हैंडल वाली हैं और कुछ बोतलों में टोंटी जैसी रचना है जिसके माध्यम से तरल पदार्थ को ढाला या चूसा जा सकता था। सबसे पुरानी बोतल युरोपीय नवपाषाण युग (लगभग 10,000 वर्ष पहले) की है जबकि अन्य बोतलें कांस्य और लौह युग (4000-1200 ईसा पूर्व) स्थलों से पाई गई हैं।       

नेचर की इस रिपोर्ट में एक दिलचस्प बात और है। सिरेमिक से बनी शिशु बोतलों के अंदरूनी हिस्से पर कुछ कार्बनिक रसायन के अवशेष चिपके मिले जिनका विश्लेषण संभव था। टीम ने उन अवशेषों को अलग करके नवीनतम रासायनिक और वर्णक्रमदर्शी विधियों की मदद से उनमें उपस्थित अणुओं का विश्लेषण किया। सभी अवशेषों में वसा अम्ल (जैसे पामिटिक और स्टीयरिक अम्ल) पाए गए जो आम तौर पर गाय-भैंस, भेड़ या अन्य पालतू जानवरों के दूध में तो पाए जाते हैं लेकिन मानव दूध में नहीं। इस आधार पर टीम का निष्कर्ष है कि “रासायनिक प्रमाण और बच्चों की कब्रों में पाए गए विशेष रूप से बने तीन पात्र दर्शाते हैं कि इनका उपयोग शिशुओं और पूरक आहार के तौर पर बच्चों को (मानव दूध की बजाय) पशुओं का दूध पिलाने के लिए किया जाता था।”                    

पशु दूध की शुरुआत

उपरोक्त शोध पत्र में राशेल हॉउक्रॉफ्ट और स्टॉकहोम युनिवर्सिटी, स्वीडन की पुरातात्विक अनुसंधान प्रयोगशाला के अन्य लोगों द्वारा पूर्व में प्रस्तुत एक दिलचस्प रिपोर्ट “The Milky Way: The implications of using animal milk products in infant feeding” (दुग्धगंगा: शिशु आहार में जंतु दुग्ध उत्पादों के उपयोग के निहितार्थ) का उल्लेख किया गया है। यह रिपोर्ट एंथ्रोपोज़ूओलॉजिका जर्नल में प्रकाशित हुई है [47-31-43 (2012)], जो नेट से फ्री डाउनलोड की जा सकती है। मेरी सलाह है कि इस विषय में रुचि रखने वाले इसे ज़रूर पढ़ें। प्रसंगवश बताया जा सकता है कि एंथ्रोपोज़ूओलॉजिका का अर्थ होता है मनुष्यों और अन्य जंतुओं के बीच अंतरक्रिया का अध्ययन।

मानव शिशुओं को पशुओं का दूध पिलाने की प्रथा जानवरों के पालतूकरण के बाद ही शुरू हुई होगी। पालतूकरण की शुरुआत तब हुई होगी जब मनुष्यों ने समुदाय में बसना शुरू किया तथा कृषि एवं अन्य कामों के लिए पशुओं का उपयोग करना शुरू किया। ऐसा माना जाता है कि इसकी शुरुआत लगभग 12,000 वर्ष पहले नव-पाषाण युग में हुई थी; सबसे पहले मध्य-पूर्व में और उसके बाद पश्चिमी और मध्य एशिया तथा युरोप के कुछ हिस्सों में। सामुदायिक जीवन, कृषि और खेती की शुरुआत के बाद से कुत्ते, मवेशियों, बकरियों, ऊंटों (बाद में घोड़ों) को पालतू बनाकर उनको मानवीय ज़रूरतों के लिए उपयोग में लाया गया। उस समय मनुष्य शिकारी-संग्रहकर्ता हुआ करते थे और शिशुओं को दो वर्ष की आयु तक सिर्फ मां का दूध ही पिलाया जाता था।       

नव-पाषाण युग ने मानव व्यवहार को बदल डाला। संतानों की संख्या में वृद्धि हुई, महिलाओं के कार्य करने के तरीकों में बदलाव आए तथा शिशुओं में मां का दूध छुड़ाने की प्रक्रिया भी जल्दी होने लगी। जैसा हॉउक्रॉफ्ट और उनके सहकर्मियों का तर्क है, इसका अर्थ यह हुआ कि इस समय तक मानव शिशुओं को पूरक भोजन के रूप में पशु का दूध दिया जाने लगा था। इसने माताओं को अपनी प्रजनन रणनीति को बदलने में भी समर्थ बनाया (कितने बच्चे, कितने समय में पैदा करें और कितनी जल्दी दूध छुड़ाएं)। 

हमने कुत्तों को लगभग 10,000-4400 ईसा पूर्व के आसपास, गाय और भेड़ों को लगभग 11,000-9000 ईसा पूर्व, ऊंटों तथा घोड़ों को लगभग 3000 ईसा पूर्व में पालतू बनाया। हालांकि ऊपर बताए गए जीवों में से हम केवल गायों, बकरियों और भेड़ों के दूध का उपयोग करते हैं लेकिन अफ्रीकियों द्वारा ऊंटनी के दूध का भी उपयोग किया जाता था। दूध के लिए जुगाली करने वाले जीवों को पसंद करना वास्तव में आज़माइश और उपयुक्तता के अनुभव से आया है। जुगाली करने वाले प्राणियों में गाय-भैंस, भेड़, बकरी और ऊंट आते हैं। इनका पेट अलग-अलग भागों में बंटा होता है, जिसमें भोजन जल्दी से निगल लिया जाता है और बाद में जुगाली के बाद प्रथम आमाशय में जाता है जो इन जीवों का मुख्य पाचन अंग है। ध्यान देने वाली बात यह है कि हमने कभी कुत्तों या घोड़ों के दूध का उपयोग नहीं किया है – पता नहीं क्यों?

जुगाली पशुओं का दूध

हॉउक्रॉफ्ट और उनकी टीम ने अपने पेपर में मानव और जुगाली करने वाले जीवों के दूध के संघटन की तुलना की है। मानव की तुलना में भेड़ के दूध में उच्च ठोस घटक होता है: कम पानी, कम कार्बोहाइड्रेट, अधिक प्रोटीन तथा लिपिड और भरपूर उर्जा। जहां उच्च प्रोटीन युक्त दूध बोतल से दूध पीने वाले शिशुओं में तेज़ विकास में मदद कर सकता है, वहीं यह एसिडिटी और अतिसार का कारण भी बन सकता है। भेड़ की तुलना में गाय के दूध में प्रोटीन और वसा की मात्रा थोड़ी कम होती है (हालांकि, मानव दूध की तुलना में तीन गुना अधिक होती है), फिर भी यह भेड़ के दूध के समान लक्षण पैदा कर सकता है। इसके साथ ही जुगाली करने वाले जीवों के दूध में कुछ ऐसे एंज़ाइम की कमी होती है जो मानव दूध में पाए जाते हैं। ये एंज़ाइम संक्रमण से लड़ने और ज़रूरी खनिज पदार्थों को अवशोषित करने में मदद करते हैं। कुछ सुरक्षात्मक और हानिकारक अंतरों के साथ, मानव दूध के स्थान पर पूरी तरह जुगाली-जीवों के दूध का उपयोग करने की बजाय इनका उपयोग पूरक के तौर पर करना बेहतर है। इसी चीज़ को शुरुआती मनुष्यों ने कर-करके सीखा होगा। इसी के आधार पर उन्होंने ‘फीडिंग बोतल’ और चीनी मिट्टी के पात्र बनाने तथा उपयोग करना शुरू किया होगा।    

शोधकर्ता आगे बताते हैं कि दूध से दही बनाकर इसे संरक्षित किया जा सकता है। यह लैक्टोज़ की मात्रा कम करता है और पाचन में मदद करता है। इसके पीछे एंज़ाइम लैक्टेज़ की भूमिका है। उनका निष्कर्ष है कि “प्रागैतिहासिक शिशुओं के लिए यह दुग्धगंगा शायद इतनी अच्छी न रही हो, लेकिन दही उनके लिए और लैक्टेज़ एंज़ाइम के प्रसार के लिए अच्छा रहा होगा।” 

गौरतलब है कि वसंत शिंदे और पुणे के कुछ सहयोगियों ने भारत में हड़प्पा सभ्यता के स्थानों का व्यापक सर्वेक्षण किया था। उन्होंने 2500 ईसा पूर्व के कालीबंगन के हड़प्पा स्थल से सिरेमिक फीडिंग बोतल के ठोस सबूत पाए थे। हड़प्पावासियों ने भी अपने बच्चों को जानवरों के दूध का सेवन करवाया था। लेकिन वह पशु कौन-सा था? यदि हम इन बोतलों से कोई अवशेष प्राप्त करके अपनी प्रयोगशालाओं में विश्लेषण करने में कामयाब होते हैं तो यह काफी रोमांचक होगा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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शरीर के अंदर शराब कारखाना

हाल में बीएमजे ओपन गैस्ट्रोएंटरोलॉजी नामक जर्नल में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार एक 46 वर्षीय व्यक्ति आत्म-शराब उत्पादन सिंड्रोम (एबीएस) से ग्रस्त पाया गया। यह एक ऐसी स्थिति है जिसमें आंत में उपस्थित सूक्ष्मजीव कार्बोहाइड्रेट्स को नशीली शराब में बदल देते हैं। गेहूं, चावल, शकर, आलू वगैरह के रूप में कार्बोहाइड्रेट हमारे भोजन का प्रमुख हिस्सा होते हैं। ऐसे में जब इस विकार से ग्रस्त व्यक्ति शकर या अधिक कार्बोहाइड्रेट्स युक्त भोजन या पेय पदार्थों का सेवन करता है, तब उसकी हालत किसी नशेड़ी के समान हो जाती है। 

इस रिपोर्ट के सह-लेखक डॉ. फहाद मलिक के अनुसार उक्त व्यक्ति कार्य करने में काफी असमर्थ होता था, खासकर भोजन करने के बाद। इन लक्षणों की शुरुआत वर्ष 2011 में हुई थी जब उसे अंगूठे की चोट के कारण एंटीबायोटिक दवाइयां दी गई थीं। डॉक्टरों ने ऐसी संभावना जताई है कि एंटीबायोटिक्स के सेवन से आंत के सूक्ष्मजीवों की आबादी (माइक्रोबायोम) को क्षति पहुंची होगी। उसमें निरंतर अस्वाभाविक रूप से आक्रामक व्यवहार देखा गया और यहां तक कि उसे नशे में गाड़ी चलाने के मामले में गिरफ्तारी भी झेलनी पड़ी जबकि उसने बूंद भर भी शराब का सेवन नहीं किया था।

इसी दौरान उसके किसी रिश्तेदार को ओहायो में इसी तरह के एक मामले के बारे में पता चला और उसने ओहायो के डॉक्टरों से परामर्श किया। डॉक्टरों ने उस व्यक्ति के मल का परीक्षण शराब उत्पादक सूक्ष्मजीवों की उपस्थिति देखने के लिए किया। इसमें सेकरोमायसेस बूलार्डी (Saccharomyces boulardii) और सेकरोमायसेस सेरेविसी (Saccharomyces cerevisiae) पाए गए। दोनों शराब बनाने वाले खमीर हैं। पुष्टि के लिए डॉक्टरों ने उसे कार्बोहाइड्रेट्स का सेवन करने को कहा। आठ घंटे बाद, उसके रक्त में अल्कोहल की सांद्रता बढ़कर 0.05 प्रतिशत हो गई जिससे इस विचित्र निदान की पुष्टि हुई।  

आखिरकार स्टेटन आइलैंड स्थित रिचमंड युनिवर्सिटी मेडिकल सेंटर, न्यू यॉर्क में उपचार के दौरान डॉक्टरों ने उसे एंटीबायोटिक दवाइयां देकर दो महीने तक निगरानी में रखा। इस उपचार के बाद शराब उत्पादक सूक्ष्मजीवों की संख्या कम तो हुई लेकिन कार्बोहाइड्रेट युक्त खुराक लेने पर समस्या फिर बिगड़ गई। इसके बाद उसकी आंत में बैक्टीरिया को बढ़ावा देने के लिए प्रोबायोटिक्स दिए गए जो काफी सहायक सिद्ध हुआ और धीरे-धीरे वह आहार में कार्बोहाइड्रेट्स शामिल कर सका – नशे और लीवर क्षति से डरे बिना। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मस्तिष्क स्वयं की मौत को नहीं समझता

क स्तर पर हर कोई जानता है कि वह मरने वाला है। इस्राइल के बार इलान विश्वविद्यालय के अध्ययनकर्ताओं की परिकल्पना थी कि जब बात खुद की मृत्यु की आती है तब हमारे मस्तिष्क में ऐसा कुछ है जो “पूर्ण समाप्ति, अंत, शून्यता” जैसे विचारों को समझने से इन्कार करता है।   

इस्राइल के एक शोधकर्ता याइर डोर-ज़िडरमन का यह अध्ययन एक ओर मृत्यु के शाश्वत सत्य और मस्तिष्क के सीखने के तरीके के बीच तालमेल बैठाने का एक प्रयास है। उनका मानना है कि हमारा मस्तिष्क ‘पूर्वानुमान करने वाली मशीन’ है जो पुरानी जानकारी का उपयोग करके भविष्य में वैसी ही परिस्थिति में होने वाली घटनाओं का अनुमान लगाता है। यह जीवित रहने के लिए महत्वपूर्ण है। एक सत्य यह है कि एक न एक दिन हम सबको मरना है। तो हमारे मस्तिष्क के पास कोई तरीका होना चाहिए कि वह स्वयं हमारी मृत्यु का अनुमान लगा सके। लेकिन ऐसा होता नहीं है।

इस विषय पर अध्ययन करने के लिए शोधकर्ताओं ने 24 लोगों को चुना और यह समझने की कोशिश की कि स्वयं उनकी मृत्यु के मामले में उनके मस्तिष्क का पूर्वानुमान तंत्र कैसे काम करता है।

ज़िडरमैन और उनकी टीम ने मस्तिष्क के एक विशेष संकेत पर ध्यान दिया जो ‘अचंभे’ का द्योतक होता है। यह संकेत दर्शाता है कि मस्तिष्क पैटर्न को देख रहा है और उनके आधार पर भविष्यवाणी कर रहा है। उदाहरण के लिए, यदि आप किसी व्यक्ति को संतरे के तीन चित्र दिखाते हैं और फिर उसके बाद एक सेब का चित्र दिखाते हैं तब मस्तिष्क में ‘अचंभे’ का संकेत पैदा होता है क्योंकि पूर्व पैटर्न के आधार पर भविष्यवाणी संतरा देखने की थी।  

टीम ने वालंटियर्स को चेहरों की तस्वीरें दिखार्इं – या तो उनका अपना या किसी अजनबी का। इन सभी तस्वीरों के साथ कुछ नकारात्मक शब्द या मृत्यु से जुड़े शब्द, जैसे ‘कब्र’ जोड़े गए थे। इसी दौरान मैग्नेटोएनसेफेलोग्राफी की मदद से इन वालंटियर्स की मस्तिष्क की गतिविधियों को मापा गया।  

किसी चेहरे को मृत्यु सम्बंधी शब्दों से जोड़ना सीखने के बाद, वालंटियर्स को एक अलग चेहरा दिखाया गया। ऐसा करने पर उनके मस्तिष्क में ‘अचंभा’ संकेत देखा गया। क्योंकि उन्होंने एक विशिष्ट अजनबी चेहरे के साथ मृत्यु की अवधारणा को जोड़ना सीख लिया था, एक नया चेहरा दिखाई देने पर वह आश्चर्यचकित थे। 

लेकिन एक दूसरे परीक्षण में वालंटियर्स को मृत्यु शब्द के साथ उनकी अपनी तस्वीर दिखाई गई। इसके बाद जब उनको एक अलग चेहरे की तस्वीर दिखाई गई तब मस्तिष्क ने ‘अचंभा’ संकेत नहीं दिया। यानी जब एक व्यक्ति को खुद की मौत से जोड़ने की बात आई तब उसके भविष्यवाणी तंत्र ने काम करना बंद कर दिया।  

दिक्कत यह है कि जैव विकास की प्रक्रिया में चेतना का जन्म हुआ और इसके साथ ही हम समझने लगे कि मृत्यु अवश्यंभावी है। कुछ सिद्धांतकारों के अनुसार, मृत्यु के बारे में जागरूकता से प्रजनन की संभावना कम हो सकती है क्योंकि आप मौत से डरकर जीवन साथी चुनने के लिए आवश्यक जोखिम नहीं उठाएंगे। एक परिकल्पना है कि दिमाग के विकास के साथ मौत जैसी वास्तविकता से इन्कार करने की क्षमता विकसित होना अनिवार्य था। अध्ययन के निष्कर्ष जल्द ही न्यूरोइमेज जर्नल में प्रकाशित किए जाएंगे। (स्रोत फीचर्स)
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टायफॉइड मुक्त विश्व की ओर एक कदम – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

विश्व चेचक मुक्त हो चुका है। और यह संभव हुआ है विश्व भर में चेचक के खिलाफ चले टीकाकरण अभियान से। बहुत जल्द हमें पोलियो से भी मुक्ति मिल जाएगी और ऐसी उम्मीद है कि पोलियो अब कभी हमें परेशान नहीं करेगा। और अब जल्द ही टायफॉइड भी बीते समय की बीमारी कहलाएगी। यह उम्मीद बनी है हैदराबाद स्थित एक भारतीय टीका निर्माता कंपनी – भारत बॉयोटेक – द्वारा टायफॉइड के खिलाफ विकसित किए गए एक नए टीके की बदौलत। इस टीके को विश्व स्वास्थ्य संगठन ने मंज़ूरी दे दी है। नेचर मेडिसिन पत्रिका के अनुसार यह “2018 की सुर्खियों में छाने वाले उपचारों” में से एक है। नेचर मेडिसिन पत्रिका ने अपने 24 दिसंबर 2018 से अंक में लिखा है (जिस पर हम गर्व कर सकते हैं) कि “विश्व स्वास्थ्य संगठन ने टायफॉइड बुखार के खिलाफ टायफॉइड कॉन्जुगेट वैक्सीन, संक्षेप में टाइपबार TCV, नामक टीके को मंज़ूरी दी है। और यह एकमात्र ऐसा टीका है जिसे 6 माह की उम्र से ही शिशुओं के लिए सुरक्षित माना गया है। यह टीका प्रति वर्ष करीब 2 करोड़ लोगों को प्रभावित करने वाले बैक्टीरिया-जनित रोग टायफॉइड के खिलाफ पहला संयुग्म टीका (conjugate vaccine) है।” इसमें एक बैक्टीरिया-जनित रोग (टायफॉइड) के दुर्बल एंटीजन को एक शक्तिशाली एंटीजन (टिटेनस के रोगाणु) के साथ जोड़ा गया है ताकि शरीर उसके खिलाफ एंटीबॉडी बनाने लगे।

भारत बायोटेक द्वारा टाइपबार TCV टीके के निर्माण और उसके परीक्षण को सबसे पहले 2013 में क्लीनिकल इंफेक्शियस डीसीज़ जर्नल में प्रकाशित किया गया था। इस टीके का परीक्षण ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी के समूह द्वारा इंसानी चुनौती मॉडल पर किया गया था। इंसानी चुनौती मॉडल का मतलब यह होता है कि कुछ व्यक्तियों को जानबूझकर किसी बैक्टीरिया की चुनौती दी जाए और फिर उन पर विभिन्न उपचारों का परीक्षण किया जाए। परीक्षण में इस टीके को अन्य टीकों (जैसे फ्रांस के सेनोफी पाश्चर द्वारा निर्मित टीके) से बेहतर पाया गया। इस आधार पर इस टीके को अफ्रीका और एशिया के राष्ट्रीय टीकाकरण कार्यक्रम में शामिल करने की मंज़ूरी मिल गई।

इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि भारत में ही कई लोगों को यह मालूम नहीं है कि विश्व के एक तिहाई से अधिक टीके भारत की मुट्ठी भर बॉयोटेक कंपनियों द्वारा बनाए जाते हैं और पूरे भारतीय उपमहाद्वीप, अफ्रीका और एशिया में उपलब्ध कराए जाते हैं। और ऐसा पिछले 30 वर्षों में संभव हुआ है। तब तक हम विदेशों में बने टीके मंगवाते थे और लायसेंस लेकर यहां ठीक उसी प्रक्रिया से उनका निर्माण करते थे। वह तो जब से बायोटेक कंपनियों ने बैक्टीरिया और वायरस के स्थानीय प्रकारों की खोज शुरू की तब से आधुनिक जीव विज्ञान की विधियों का उपयोग करके स्वदेशी टीकों का निर्माण शुरू हुआ। इस संदर्भ में डॉ. चंद्रकांत लहरिया ने इंडियन जर्नल ऑफ मेडिकल रिसर्च के अप्रैल 2014 के अंक में जानकारी से भरपूर एक पर्चे में भारत में टीकों और टीकाकरण के इतिहास का विवरण प्रस्तुत किया है। इसे आप ऑनलाइन (PMID: 24927336) पढ़ सकते हैं।

इसके पहले तक निर्मित टायफॉइड के टीके में टायफॉइड के जीवित किंतु बहुत ही कमज़ोर जीवाणु को मानव शरीर में प्रविष्ट कराया जाता था, जिससे शरीर की प्रतिरक्षा प्रणाली इसके खिलाफ एंटीबॉडी बनाने के लिए तैयार हो जाती थी। इसके बाद वैज्ञानिकों को इस बात का अहसास हुआ कि जीवित अवस्था में जीवाणु का उपयोग करना उचित नहीं है क्योंकि इसके कुछ अनचाहे दुष्परिणाम भी हो सकते हैं। इसलिए उन्होंने टीके में जीवाणु के बाहरी आवरण पर उपस्थित एक बहुलक का उपयोग करना शुरू किया। मेज़बान यानी हमारे शरीर का प्रतिरक्षा तंत्र इसके खिलाफ वही एंटीबॉडी बनाता था जो शरीर में स्वयं जीवाणु के प्रवेश करने पर बनती है। हालांकि यह उपचार उतना प्रभावशाली या प्रबल नहीं था जितनी हमारी इच्छा थी। काश किसी तरह से मेज़बान की प्रतिरक्षा शक्ति को बढ़ाया सकता! इसके अलावा, टायफॉइड जीवाणु के आवरण के बहुलक को वाहक प्रोटीन के साथ जोड़कर भी टीका बनाने की कोशिश की गई थी। इस तरह के कई प्रोटीन-आधारित टायफॉइड टीकों का निर्माण हुआ जो आज भी बाज़ारों में उपलब्ध हैं। हाल ही मे इंफेक्शियस डिसीसेज़ में प्रकाशित एस. सहरुाबुद्धे और टी. सलूजा का शोधपत्र बताता है कि क्लीनिकल परीक्षण

में टाइपबार-टीवीसी टीके के नतीजे सबसे बेहतर मिले हैं, और इसलिए विश्व स्वास्थ संगठन ने इसे मंज़ूरी दे दी है और युनिसेफ द्वारा इसे खरीदने का रास्ता खोल दिया है।

इसी कड़ी में यह जानना और भी बेहतर होगा कि जस्टिन चकमा के नेतृत्व में कनाडा के एक समूह ने भारतीय टीका उद्योग के बारे में क्या लिखा है। यह समूह बताता है कि कैसे हैदराबाद स्थित एक अन्य टीका निर्माता कंपनी, शांता बायोटेक्नीक्स, ने हेपेटाइटिस-बी का एक सफल टीका विश्व को वहनीय कीमत पर उपलब्ध कराया है। उन्होंने इस सफलता के चार मुख्य बिंदु चिन्हित किए हैं – चिकित्सा के क्षेत्र और मांग की मात्रा की पहचान, निवेश और साझेदारी, वैज्ञानिकों और चिकित्सालयों के साथ मिलकर नवाचार, और राष्ट्रीय और वैश्विक एजेंसियों के साथ जुड़ाव और इन सबके अलावा अच्छी उत्पादन प्रक्रिया स्थापित करना।

भारत बॉयोटेक इन सभी बिंदुओं पर खरी उतरी है। वास्तव में उसके द्वारा रोटावायरस के खिलाफ सफलता पूर्वक निर्मित टीका ‘टीम साइंस मॉडल’ का उदाहरण है जिसमें चिकित्सकों, वैज्ञानिकों, राष्ट्रीय और वैश्विक सहयोग समूहों और सरकार को शामिल किया गया था। ‘टीम साइंस’ का एक और उदाहरण जापानी दिमागी बुखार के खिलाफ विकसित जेनवेक टीका है।

और एक अंतिम बात – भारत सरकार द्वारा 1970 में लाए गए प्रक्रिया पेटेंट कानून की अहम भूमिका रही। इसके कारण विश्व भर में कम कीमत पर अच्छी गुणवत्ता वाली दवा उपलब्ध कराने वाली निजी दवा निर्माता कंपनियों का विकास हुआ (जैसे सिप्ला कंपनी के गांधीवादी डॉ. युसुफ हामिद जिन्होंने अफ्रीका में कम दाम पर एड्स-रोधी दवाइयां उपलब्ध कराई और बाइकॉन कंपनी के किरन मजूमदार शॉ जिन्होंने 7 रुपए प्रतिदिन की कीमत पर इंसुलिन उपलब्ध करवाया)। इसके अलावा, विज्ञान व प्रौद्योगिकी विभाग और बॉयोटेक्नॉलॉजी विभाग द्वारा मान्यता, अनुदान और ऋण तथा भारत सरकार द्वारा दिए गए अनुसंधान अनुदान की भूमिका उत्प्रेरक और प्रशंसनीय रही है। इनकी वजह से ही हमारी टीका कंपनियां विश्व स्तर पर वैश्विक गुणवत्ता वाले टीके बहुत कम दामों पर उपलब्ध करा पाती हैं। (स्रोत फीचर्स)

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दृष्टिहीनों में दिमाग का अलग ढंग से उपयोग

हाल मानव मस्तिष्क को अपने हर एक भाग को नए कार्यों के लिए आवंटित करना बखूबी आता है। दृष्टि जैसी अनुभूति के अभाव में मस्तिष्क दृष्टि से सम्बंधित क्षेत्र को ध्वनि या स्पर्श जैसे नए इनपुट संभालने के लिए अनुकूलित कर लेता है। कई दृष्टिहीन लोग मुंह से कुछ आवाज़ें निकालते हैं और उनकी प्रतिध्वनियों की मदद से वस्तुओं की स्थिति का अंदाज़ लगाते हैं। ऐसे व्यक्तियों पर हाल ही में किए गए एक अध्ययन से पता चला है कि मस्तिष्क में बेकार पड़े हिस्सों का उपयोग काफी उच्च स्तर पर किया जाता है। पता चला है कि प्रारंभिक रूप से दृश्य प्रसंस्करण के लिए समर्पित मस्तिष्क क्षेत्र उन्हीं सिद्धांतों का उपयोग करके प्रतिध्वनियों की व्याख्या कर लेता है जैसे आंखों से मिले संकेतों की व्याख्या की जाती है।    

दृष्टि वाले लोगों में, रेटिना (दृष्टिपटल) के संदेशों को मस्तिष्क के पीछे वाले क्षेत्र (प्राइमरी विज़ुअल कॉर्टेक्स) में भेजा जाता है। हम जानते हैं कि मस्तिष्क के इस क्षेत्र की जमावट हमारे चारों ओर के वास्तविक स्थान की जमावट से मेल खाती है। हमारे पर्यावरण में पास-पास के दो बिंदुओं की छवि हमारे रेटिना पर पास-पास के बिंदुओं पर बनती है और इसके संदेश प्राइमरी विज़ुअल कॉर्टेक्स के भी पास-पास के बिंदुओं को सक्रिय करते हैं। शोधकर्ता यह जानना चाहते थे कि क्या दृष्टिहीन लोग प्राइमरी विज़ुअल कॉर्टेक्स में दृष्टि-आधारित स्थान मानचित्रण की तर्ज़ पर ही प्रतिध्वनियों का प्रोसेसिंग करते हैं।       

इसके लिए शोधकर्ताओं ने दृष्टिहीन और दृष्टि वाले लोगों से कुछ रिकॉर्डिंग सुनने को कहा। यह रिकॉर्डेड आवाज़ें दरअसल कमरे के अलग-अलग स्थानों पर रखी वस्तुओं से टकराकर आ रही थी। इस दौरान मस्तिष्क की गतिविधि को समझने के लिए उन लोगों को मैग्नेटिक रेजोनेंस इमेजिंग (एमआरआई) स्कैनर में रखा गया था। शोधकर्ताओं ने प्रतिध्वनि का उपयोग करने वाले लोगों के प्राइमरी विज़ुअल कॉर्टेक्स में उसी प्रकार की सक्रियता देखी जैसी दृष्टि वाले लोगों में दृश्य संकेतों से होती है।     

प्रोसीडिंग ऑफ द रॉयल सोसाइटी-बी की रिपोर्ट से लगता है कि विज़ुअल कॉर्टेक्स की स्थान मानचित्रण क्षमता का उपयोग एक अलग अनुभूति के लिए किया जा सकता है। किसी व्यक्ति में सुनने और स्थान मानचित्रण की इस मस्तिष्क क्रिया के बीच जितनी अधिक समरूपता रही, वस्तुओं की स्थिति के अनुमान में भी उतनी ही सटीकता दिखी। इस शोध से तंत्रिका लचीलेपन का खुलासा हुआ है जिससे मस्तिष्क को स्थान सम्बंधी जानकारी का उपयोग करने के लिए प्रशिक्षित किया जा सकता है भले ही वह आंखों के माध्यम से प्राप्त न हुई हो। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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व्याख्यान के दौरान झपकी क्यों आती है? – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

भारत सितंबर महीना खत्म होने को है और भारत में सेमीनार और सम्मेलनों के आयोजन का मौसम शुरू हो गया है। आम तौर पर कॉन्फ्रेंस में एक व्यापक विषयवस्तु पर विविध विषयों के विशेषज्ञों को आमंत्रित किया जाता है। दूसरी ओर, सेमीनार में किसी एक खास विषय या उपविषय के विशेषज्ञों को आमंत्रित किया जाता है जो मिलकर उस विषय पर विचारों का आदान-प्रदान और समीक्षा करते हैं। सम्मेलनों में श्रोता या प्रतिभागी किसी ऐसे विषय पर तकरीरें सुनते हैं जिससे वे परिचित नहीं हैं। इस तरह से यह उनके लिए सीखने का एक अवसर होता है। विशेष-थीम पर केंद्रित सेमीनार में प्रतिभागी सेमीनार में मात्र श्रोता नहीं होते, वे उस विषय से परिचित होते हैं और विषय की बारीकियां सुनते हैं, जिसमें से वे कुछ नया सीखते हैं, सराहते हैं और उससे कुछ ग्रहण करते हैं। इस तरह सम्मेलन और सेमीनार दोनों उपयोगी होते हैं।

लेकिन इसका एक नकारात्मक पहलू भी है। प्रस्तुतीकरण या तकरीर के दौरान कुछ या कई श्रोता सिर हिलाते-हिलाते ऊंघने लगते हैं और झपकी ले लेते हैं। इसे नॉड ऑफ कहते हैं। इस संदर्भ में 15 साल पहले (दिसंबर 2004 में) केनेडियन मेडिकल एसोसिएशन जर्नल में के. रॉकवुड और साथियों द्वारा प्रकाशित शोध पत्र में बताया गया था कि व्याख्यानों के दौरान श्रोता ऐसा क्यों करते हैं, कितनी दफा करते हैं और झपकी आने के क्या कारक हैं। इस हास्यपूर्ण और व्यंग्यात्मक शोधपत्र में उन्होंने बताया था कि कैसे उन्होंने चुपके से एक ही समूह का लगातार (कोहॉर्ट) अध्ययन किया जिसमें उन्होंने पता लगाया कि वैज्ञानिक मीटिंग के दौरान श्रोता-चिकित्सक कितनी बार झपकी लेते हैं, और झपकी आने के पीछे क्या कारक हो सकते हैं।

एक दो-दिवसीय व्याख्यान, जिसमें तकरीबन 120 लोग शामिल हुए थे, के अध्ययन में उन्होंने पाया कि प्रत्येक 100 प्रतिभागी पर प्रति व्याख्यान झपकी की संख्या (नॉडिंग ऑफ इवेंट पर लेक्चर, एनओईएल) 15-20 मिनट के व्याख्यान के दौरान 10 रही, लेकिन व्याख्यान 30-40 मिनट का होने पर बढ़कर तकरीबन 22 हो गई थी। अर्थात जितना लंबा व्याख्यान उतनी अधिक झपकी संख्या (एनओईएल)।

अध्ययन में यह भी पता चला कि झपकी-प्रेरित सिर हिलाना और वक्ता की बात से सहमति पर सिर हिलाना एकदम अलग-अलग हैं। इनमें सिर हिलाने का तरीका, समय और आवृत्ति अलग-अलग होती है।

ऐसा क्यों होता है? और किन कारणों से होता है? इसके कई कारक सामने आए और ये कारक हैं माहौल (जैसे मद्धिम रोशनी, कमरे का तापमान, आरामदायक बैठक व्यवस्था), दृश्य-श्रव्य गड़बड़ी (जैसे खराब स्लाइड, माइक्रोफोन पर ना बोलना), शरीर की दैनिक लय (सुबह-सुबह के समय, भोजन के बाद या भारी नाश्ता या लंच के बाद नींद आना) और वक्ता सम्बंधी कारण (जैसे नीरस तरीके से बोलना या उबाऊ भाषण)।

आजकल तो सेमीनार या सम्मेलनों में कई श्रोता मोबाइल, लैपटॉप वगैरह साथ लेकर जाते हैं। हालांकि आयोजकों की ओर से निर्देश दिए जाते हैं कि व्याख्यान के दौरान मोबाइल फोन या तो बंद कर दिए जाएं या साइलेंट मोड पर रखे जाएं लेकिन व्याख्यान उबाऊ लगने पर श्रोता अपने मोबाइल या लैपटॉप में मशगूल हो जाते हैं, जिससे व्याख्यान के दौरान झपकी की संख्या (एनओईएल) में कमी दिखती है। जब आयोजकों ने व्याख्यान के दौरान मोबाइल या लैपटॉप का इस्तेमाल ना करने पर सख्ती दिखाई तो व्याख्यान के दौरान झपकी की संख्या में वृद्धि भी देखी गई।

अध्ययन में आगे अध्ययनकर्ताओं ने झपकी लेने वालों को टोका और अदब के साथ उनसे पूछा कि उन्हें झपकी क्यों आई। पहले तो जब उन्हें यह बताया गया कि इस व्याख्यान के दौरान सिर्फ उन्हें ही नहीं अन्य लोगों को भी झपकी आई तो उनमें से कई लोगों को इस बात की तसल्ली हुई कि यह उनका दोष नहीं था। जब उनसे यह पूछा गया कि इस तरह के व्याख्यान में क्या वे आगे भी शामिल होंगे तो कुछ ने लोगों ने हां में जवाब दिया और कहा कि उन्हें हमेशा एक झपकी की ज़रूरत रहती है, कुछ ने कहा कि यदि इसके लिए उन्हें भुगतान किया जाएगा तो वे शामिल होंगे और कुछ ने जवाब में दांत दिखा दिए। जब उनसे यह पूछा गया कि झपकी आने के पीछे गलती किसकी थी तो अधिकतर लोगों ने कहा कि पूरी गलती वक्ता की थी जबकि सिर्फ कुछ ही लोगों ने कहा कि गलती उनकी थी।

वक्ताओं को इस अध्ययन से क्या सीखना चाहिए? कैसे वे व्याख्यान में श्रोताओं की रुचि बनाए रखें? स्लाइड, पीपीटी या वीडियो दिखाते समय हॉल की मद्धिम रोशनी जैसे कारकों को तो हटाया नहीं जा सकता। लेकिन हाल ही में प्रकाशित एक रिपोर्ट इस सम्बंध में काफी उपयोगी सलाह देती है। इसके अनुसार एक आदर्श वक्तव्य में 37 प्रतिशत टेक्स्ट, 29 प्रतिशत चित्र और 33 प्रतिशत वीडियो होना चाहिए। व्याख्यान के इस तरह के बंटवारे को अमल में लाना फायदेमंद हो सकता है और देखा जा सकता है कि यह कैसे काम करता है। व्याख्यान में पीपीटी के चित्र या टेक्स्ट की ऊंचाई-चौड़ाई का अनुपात सही हो (5 × 3), बड़े अक्षर उपयोग किए जाएं ताकि आसानी से पढ़े जा सकें, टेक्स्ट और पृष्ठभूमि के रंग में साफ अंतर हो (काला या नीला पटल होने पर उस पर स्पष्ट दिखते किसी अन्य रंग से लिखा टेक्स्ट)। इसके अलावा वक्ता आहिस्ता, स्पष्ट और माइक पर बोलें। आप कुछ उपयोगी सुझाव इस लिंक पर पढ़ सकते हैं: http://www.med-ed-online.org)

और अब इन झपकियों के पीछे के मस्तिष्क-विज्ञान को बेहतर समझ लिया गया है। चीनी और जापानी वैज्ञानिकों द्वारा हाल ही में प्रकाशित एक पेपर के अनुसार मस्तिष्क में न्यूक्लियस एक्यूम्बेंस नामक हिस्से में यह क्षमता होती है कि वह अणुओं के एक समूह (A2A रिसेप्टर) को सक्रिय कर झपकी प्रेरित कर सकता है। नेचर कम्युनिकेशन में प्रकाशित इस शोध पत्र के मुताबिक मुख्य अणु एडिनोसीन है जो A2A रिसेप्टर को सक्रिय कर देता है और नींद आने लगती है। एडिनोसीन के अलावा अन्य नींद-प्रेरक अणु भी A2A रिसेप्टर पर कार्य करते हैं। नींद की प्रचलित दवाइयां भी A2A रिसेप्टर को सक्रिय करती हैं और नींद लाती हैं। इसके विपरीत कॉफी और चाय में मौजूद कैफीन इस रिसेप्टर को अवरुद्ध करते हैं और आपको जगाए रखते हैं।

तो अगली बार व्याख्यान सुनने जाएं तो एक प्याला कॉफी पीकर जाएं और जागे रहें। और यदि आप व्याख्याता हैं तो उपरोक्त लिंक पर दिए गए सुझावों का लाभ लें। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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एक जेनेटिक प्रयोग को लेकर असमंजस

ब्राज़ील में मच्छरों पर नियंत्रण पाने के लिए एक प्रयोग किया गया था। उस प्रयोग को 6 साल हो चुके हैं और अब इस बात को लेकर वैज्ञानिकों के बीच बहस चल रही है कि उस प्रयोग में कितनी सफलता मिली और किस तरह की समस्याएं उभरने की संभावना है।

इंगलैंड की एक जैव-टेक्नॉलॉजी कंपनी ऑक्सीटेक ने 2013 से 2015 के दौरान जेनेटिक रूप से परिवर्तित एडीस मच्छर करोड़ों की संख्या में ब्राज़ील के जेकोबिना शहर में छोड़े थे। इन मच्छरों की विशेषता यह थी कि ये मादा मच्छरों से समागम तो करते थे मगर उसके तुरंत बाद स्वयं मर जाते थे। इसके अलावा, इस समागम के परिणामस्वरूप संतानें पैदा नहीं होती थीं। यदि कोई संतान पैदा होकर जीवित भी रह जाती थी (लगभग 3 प्रतिशत) तो वह आगे संतानोत्पत्ति में असमर्थ होती थी। उम्मीद थी कि इस तरह के मच्छर स्थानीय मादा मच्छरों से समागम के मामले में स्थानीय नर मच्छरों से प्रतिस्पर्धा करेंगे और स्वयं मर जाएंगे और मृत संतानें पैदा करेंगे यानी मच्छरों की संख्या में तेज़ी से गिरावट आएगी।

कंपनी ने पूरे 27 महीनों तक प्रति सप्ताह साढ़े चार लाख जेनेटिक रूप से परिवर्तित एडीस मच्छर छोड़े थे। शोधकर्ताओं के एक स्वतंत्र दल ने पूरे मामले का अध्ययन किया तो पाया कि इन मच्छरों के कारण जेकोबिना में मच्छरों की संख्या में 85 प्रतिशत गिरावट आई है। दल ने उस इलाके से प्रयोग शुरू होने के 6, 12 और 27 महीनों बाद स्थानीय आबादी के मच्छरों के नमूने भी एकत्रित किए। इन मच्छरों के जेनेटिक विश्लेषण से पता चला है कि उनमें बाहर से छोड़े गए मच्छरों के जीन पहुंच गए हैं। इसका मतलब है कि उन मच्छरों और स्थानीय मच्छरों से उत्पन्न संकर मच्छर न सिर्फ जीवित हैं बल्कि संतानें भी पैदा कर रहे हैं।

शोधकर्ता दल का मत है कि स्थानीय मच्छरों में इस तरह जीन का पहुंचना इस बात का संकेत है कि इनमें कुछ नए गुण पैदा हो रहे हैं और शायद ये नए संकर मच्छर ज़्यादा खतरनाक साबित होंगे। अलबत्ता, कंपनी का कहना है कि जीन का स्थानांतरण तो हुआ है लेकिन ज़रूरी नहीं कि वह किसी खतरे का द्योतक हो। एक बात तो स्पष्ट है कि इस तरह के जेनेटिक हस्तक्षेप में ज़्यादा सावधानी की ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स)

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हड्डियों से स्रावित हारमोन

ड्रीनेलिन, यह उस मशहूर हारमोन का नाम है जो अचानक आए किसी खतरे या डर की स्थिति से निपटने या पलायन करने के लिए हमारे शरीर को तैयार करता है। लेकिन हालिया अध्ययन बताते हैं कि तनाव की स्थिति में होने वाली प्रतिक्रिया के लिए एड्रीनेलिन की अपेक्षा हड्डियों में बनने वाला एक अन्य हार्मोन ज़्यादा ज़िम्मेदार होता है।

कोलंबिया विश्वविद्यालय के जेनेटिक्स वैज्ञानिक गैरार्ड कारसेन्टी का कहना है कि कंकाल शरीर के लिए हड्डियों का कठोर ढांचा भर नहीं है। हमारी हड्डियां ऑस्टियोकैल्सिन नामक प्रोटीन का स्राव करती हैं जो कंकाल का पुनर्निर्माण करता है। 2007 में कारसेन्टी और उनके साथियों ने इस बात का पता लगाया था कि ऑस्टियोकैल्सिन नामक यह प्रोटीन एक हार्मोन की तरह काम करता है, जो रक्त शर्करा स्तर को नियंत्रित रखता है और चर्बी कम करता है। इसके अलावा यह प्रोटीन मस्तिष्क गतिविधि को बनाए रखने, शरीर को चुस्त बनाए रखने, वृद्ध चूहों में स्मृति फिर से सहेजने और चूहों और लोगों में व्यायाम के दौरान बेहतर प्रदर्शन करने के लिए भी ज़िम्मेदार होता है। इस आधार पर कारसेन्टी का मानना था कि जानवरों में कंकाल का विकास खतरों से बचने या खतरे के समय भागने के लिए हुआ होगा।

अपने अनुमान की पुष्टि के लिए उन्होंने चूहों को कुछ तनाव-कारकों का सामना कराया। जैसे उनके पंजों में हल्का बिजली का झटका दिया और लोमड़ी के पेशाब की गंध छोड़ी, जिससे चूहे डरते हैं। इसके बाद उन्होंने चूहों के रक्त में ऑस्टियोकैल्सिन का स्तर जांचा।

उन्होंने पाया कि तनाव से सामना करने के 2-3 मिनट के बाद चूहों के शरीर में ऑस्टियोकैल्सिन का स्तर चौगुना हो गया। इसी तरह के नतीजे उन्हें मनुष्यों के साथ भी मिले। जब शोधकर्ताओं ने वालन्टियर्स को लोगों के सामने मंच पर कुछ बोलने को कहा तब उनमें भी ऑस्टियोकैल्सिन का स्तर अधिक पाया गया। उनका यह शोध सेल मेटाबॉलिज़्म पत्रिका में प्रकाशित हुआ है।

शोधकर्ताओं ने चूहों के मस्तिष्क और कंकाल के बीच के तंत्रिका सम्बंध की पड़ताल करने पर पाया कि कैसे ऑस्टियोकैल्सिन आपात स्थिति में ‘लड़ो या भागो’ प्रतिक्रिया शुरू करता है। इस प्रतिक्रिया में नब्ज़ का तेज़ होना, तेज़ सांस चलना और रक्त में शर्करा की मात्रा में वृद्धि शामिल होते हैं। कुल मिलाकर इसके चलते शरीर को भागने या लड़ने के लिए अतिरिक्त ऊर्जा मिल जाती है। जब मस्तिष्क के एक हिस्से, एमिग्डेला, को खतरे का आभास होता है तो वह ऑस्टियोब्लास्ट नामक अस्थि कोशिकाओं को ऑस्टियोकैल्सिन का स्राव करने का संदेश देता है। ऑस्टियोकैल्सिन पैरासिम्पैथेटिक तंत्रिका तंत्र की उस क्रिया को धीमा कर देता है जो दिल की धड़कन और सांस को धीमा करने का काम करती है। इसके चलते सिम्पैथेटिक तंत्रिका तंत्र पर लगा अंकुश हट जाता है और वह एड्रीनेलिन स्राव सहित शरीर की तनाव-प्रतिक्रिया शुरू कर देता है।

इस शोध के मुताबिक एड्रीनेलिन नहीं बल्कि ऑस्टियोकैल्सिन इस बात का ख्याल रखता है कि शरीर कब ‘लड़ो या भागो’ की स्थिति में आएगा। यह भी स्पष्ट होता है कि कैसे एड्रीनल ग्रंथि रहित चूहे या वे लोग भी मुसीबत के समय तीव्र शारीरिक प्रतिक्रिया देते हैं जिनका शरीर किसी कारणवश एड्रीनेलिन नहीं बना सकता। (स्रोत फीचर्स)

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क्षयरोग पर नियंत्रण के लिए नया टीका – डॉ. डी. बालसुब्रामण्यन

लगभग दस हज़ार साल पूर्व, जब से मनुष्यों ने समुदायों में रहना शुरू किया, तब से टीबी (क्षयरोग) हमारे साथ रहा है। पश्चिमी एशिया की तरह भारत में भी लोग प्राचीन काल से ही टीबी के बारे में जानते थे। लगभग 1500 ईसा पूर्व के संस्कृत ग्रंथों में इसके बारे में उल्लेख मिलता है जिनमें इसे शोष कहा गया है। 600 ईसा पूर्व की सुश्रुत संहिता में क्षय रोग के उपचार के लिए मां का दूध, अल्कोहल और आराम की सलाह दी गई है। 900 ईस्वीं के मधुकोश नामक ग्रंथ में इस बीमारी का उल्लेख यक्ष्मा (या क्षय होना) के नाम से है। टीबी के बारे में यह भी जानकारी थी कि मनुष्य से मनुष्य में यह रोग खखार और बलगम के माध्यम से फैलता है (यहां तक कि पशुओं के बलगम से भी यह रोग फैल सकता है)। इसके इलाज के लिए कई औषधि-उपचार आज़माए जाते थे, मगर सफलता बहुत अधिक नहीं मिलती थी।

वर्ष 1882 में जाकर जर्मन सूक्ष्मजीव विज्ञानी रॉबर्ट कॉच ने पता लगाया था कि टीबी रोग मायकोबैक्टीरियम ट्यूबरकुलोसिस (एमटीबी) नामक रोगाणु के कारण होता है, जिसके लिए उन्हें वर्ष 1905 में नोबेल पुरस्कार मिला था। कॉच ने टीबी के उपचार के लिए दवा खोजने के भी प्रयास किए थे, जिसके परिणाम स्वरूप ट्यूबरक्यूलिन नामक दवा बनी, हालांकि यह टीबी के उपचार में ज़्यादा सफल नहीं रही। उस समय से अब तक टीबी के उपचार के लिए कई दवाएं बाज़ार में आ चुकी हैं, जैसे रिफेम्पिसिन, आइसोनिएज़िड, पायराज़िनेमाइड, और हाल ही में प्रेटोमेनिड और बैडाक्विलिन। भारत सरकार हर साल टीबी के लाखों मरीज़ों के उपचार के लिए इनमें से कई या सभी दवाओं का उपयोग करती है।  

अलबत्ता, इलाज से बेहतर है बचाव। प्रतिरक्षा विज्ञान इसी कहावत पर अमल करते हुए हमलावर रोगाणुओं को शरीर में प्रवेश करने और बीमारी फैलाने से रोकने का प्रयास करता है। इसी दिशा में वर्ष 1908-1921 के दौरान दो फ्रांसिसी जीवाणु विज्ञानियों अल्बर्ट कामेट और कैमिली ग्यूरिन को एक ऐसा उत्पाद बनाने में सफलता मिली थी जो टीबी के खिलाफ प्रतिरोधक क्षमता प्रदान कर सकता था। इसे बैसिलस-कामेट-ग्यूरिन (बीसीजी) नाम दिया गया था। जब बीसीजी को टीके के रूप में शरीर में इंजेक्ट किया गया तो इसने एमटीबी के हमले के खिलाफ प्रतिरोधक क्षमता दी। इस तरह टीबी का पहला टीका बना। आज भी यह टीका दुनिया भर में नवजात शिशुओं और 15 वर्ष से कम उम्र के बच्चों को टीबी से बचाव के लिए लगाया जाता है। हालिया अध्ययन बताते हैं कि टीके से यह सुरक्षा 20 वर्षों तक मिलती रहती है। भारत दशकों से सफलतापूर्वक बीसीजी टीके का उपयोग कर रहा है।

सांस के ज़रिए टीका

अलबत्ता, अब यह पता चला है कि बीसीजी का टीका बच्चों के लिए जितना असरदार है उतना वयस्कों पर प्रभावी नहीं रहता क्योंकि वयस्कों में फेफड़ों की टीबी ज़्यादा होती है जबकि बच्चों में आंत, हड्डियों या मूत्र-मार्ग में ज़्यादा देखी गई है और बीसीजी फेफड़ों की टीबी में कम प्रभावी है। किसी अन्य बीमारी (जैसे एड्स) के होने पर भी टीका प्रभावी नहीं रहता क्योंकि प्रतिरक्षा तंत्र कमज़ोर हो जाता है। कभी-कभी बीसीजी का टीका देने पर कुछ लोगों को बुखार आ जाता है या इंजेक्शन की जगह पर खुजली होने लगती है; यह भी टीके के उपयोग को असहज बनाता है। इसलिए अब एक वैकल्पिक टीके की ज़रूरत है जो खुद तो टीबी के टीके की तरह काम करे ही, साथ में बीसीजी टीके के लिए बूस्टर (वर्धक) का काम भी करे। और यदि यह टीका इंजेक्शन की बजाय अन्य आसान तरीकों से दिया जा सके तो सोने में सुहागा।

लगभग 50 साल पहले टीकाकरण का एक ऐसा तरीका खोजा गया था जिसमें फेफड़ों में सांस के ज़रिए टीका दिया जाता है। इसे ·ासन मार्ग टीका कहते हैं। फुहार के रूप में टीके का पहला परीक्षण 1951 में इंग्लैंड में मुर्गियों के झुंड पर वायरस के खिलाफ किया गया था। इसके बाद 1968 में बीसीजी का इसी तरह का परीक्षण गिनी पिग और कुछ इंसानों पर किया गया। इसकी मदद से मेक्सिको में 1988-1990 के दौरान स्कूली बच्चों में खसरा के खिलाफ प्रतिरक्षा विकसित करने में सफलता मिली थी और इसके बाद टीबी के खिलाफ प्रतिरोध हासिल करने में। (अधिक जानकारी के लिए मायकोबैक्टीरियल डिसीज़ में प्रकाशित कॉन्ट्रेरास, अवस्थी, हनीफ और हिक्की द्वारा की गई समीक्षा इन्हेल्ड वैक्सीन फॉर द प्रिवेंशन ऑफ टीबी पढ़ सकते हैं)। अच्छी बात यह है कि इस तरीके से टीकाकरण में सुई की कोई आवश्यकता नहीं होती, प्रशिक्षित व्यक्ति की ज़रूरत नहीं होती, कचरा कम निकलता है और लागत भी कम होती है।

जब रोगजनक जीव शरीर पर हमला करते हैं तो वे शरीर को भेदते हैं और अपनी संख्या वृद्धि करने के लिए अंदर की सामग्री का उपयोग करते हैं, और तबाही मचाते हैं। मेज़बान शरीर अपने प्रतिरक्षा तंत्र की मदद से इन रोगजनक जीवों के खिलाफ लड़ता है। इसमें तथाकथित बी-कोशिकाएं एंटीबॉडी नामक प्रोटीन संश्लेषित करती हैं जो हमलावर के साथ बंधकर उसे निष्क्रिय कर देता है। और सुरक्षा के इस तरीके को याद भी रखा जाता है ताकि भविष्य में जब यही हमलावर हमला करे तो उससे निपटा जा सके। टीके के कार्य करने का आधार यही है, जो सालों तक काम करता रहता है।

वास्तव में एंटीबॉडी बनाने के लिए पूरे हमलावर जीव की ज़रूरत नहीं होती। बी-कोशिकाओं द्वारा एंटीबॉडी बनाने के लिए हमलावर जीव के अणु का एक हिस्सा (‘कामकाजी अंश’ या एपिटोप, एंटीजन का वह हिस्सा जिससे एंटीबॉडी जुड़ती है) ही पर्याप्त होता है। प्रतिरक्षा प्रणाली की एक और श्रेणी होती है टी-कोशिकाएं, जो बी-कोशिकाओं के साथ मिलकर काम करती हैं। टी-कोशकाओं में मौजूद अणु हमलावर को मारने में मदद करते हैं। इस प्रक्रिया में भी पूरे अणु की ज़रूरत नहीं होती बल्कि मात्र उस हिस्से की ज़रूरत होती है जो प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया के लिए सहायक के रूप में काम करता है।

ऑस्ट्रेलिया की युनिवर्सिटी ऑफ सिडनी के शोधकर्ताओं के दल ने इन तीनों सिद्धांतों की मदद से सांस के द्वारा दिया जा सकने वाला टीबी का टीका तैयार किया है। उनका यह शोधकार्य जर्नल ऑफ केमिस्ट्री के 16 अगस्त 2019 अंक में प्रकाशित हुआ है। उन्होंने टी-कोशिकाओं के अणु के एक हिस्से को सहायक के रूप में  प्रयोगशाला में संश्लेषित किया और फिर इसे प्रयोगशाला में ही संश्लेषित किए गए एमटीबी के एपिटोप वाले हिस्से से जोड़ दिया। इस तरह संश्लेषित किए गए टीके (जिसे कंपाउंड I कहा गया) को चूहों में नाक से दिया गया। और इसके बाद चूहों को एमटीबी से संक्रमित किया गया और कुछ हफ्तों बाद चूहों के फेफड़े और तिल्ली को जांचा गया। जांच में बैक्टीरिया काफी कम संख्या में पाए गए जो यह दर्शाता है कि सांस के ज़रिए दिए जाने पर I एक टीके की तरह सुरक्षा दे सकता है। और तो और, इंजेक्शन की बजाय सांस के ज़रिए टीका देना बेहतर पाया गया है। इस तरह के टीके से बच्चे और टीके से घबराने वाले वयस्क खुश हो जाएंगे। (स्रोत फीचर्स)

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