क्या हमारे प्राइमेट रिश्तेदार भी वाचाल हैं? – डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

मनुष्य की तुलना में अधिकांश प्राइमेट्स तरहतरह की आवाज़ें नही निकाल सकते। प्राइमेट परिवार में एक ओर तो पेड़ों पर निवास करने वाले पश्चिमी अफ्रीका के वर्षा वनों में पाए जाने वाले कैलेबार आंगवानटिबो हैं जो केवल दो प्रकार की ही आवाज़ें निकलते हैं। दूसरे छोर पर मध्य अफ्रीका के कांगो बेसिन में पाए जाने वाले बौने चिम्पैंज़ी, बोनोबो हैं जो बेहद बातूनी हैं। ये कम से कम 38 प्रकार की आवाज़ें निकालने के लिए जाने जाते हैं।

फ्रंटियर इन न्यूरोसाइन्स में प्रकाशित एक नए अध्ययन में बताया गया है कि विभिन्न प्रकार की आवाज़ें निकालने के लिए केवल ध्वनि यंत्र (साउंड बाक्स) ही उत्तरदायी नहीं होता। पूर्व में वैज्ञानिक विभिन्न प्रकार की आवाज़ निकालने के लिए साउंड बाक्स को ही ज़िम्मेदार मानते थे और भाषा के विकास में इसे महत्वपूर्ण समझते थे। हाल ही में प्रकाशित शोध के अनुसार गैर मानव प्राइमेट में भी आवाज़ उत्पन्न करने वाली संरचना होमिनिड के सहोदरोंके समान ही है। एंजलिया रस्किन विश्वविद्यालय के प्राणि विद जैकब डुन के अनुसार यदि शरीर की आवाज़ निकालने वाली संरचना एक जैसी है तो मुख्य मुद्दा मस्तिष्क की क्षमता का हो जाता है।

प्राइमेट्स में ध्वनि उत्पन्न करने का ढांचा काफी विकसित है लेकिन अधिकांश प्रजातियों में जटिल ध्वनियां बनाने के लिए उत्तरदायी संरचनाएं तंत्रिका तंत्र के नियंत्रण में नहीं है। शोधकर्ता के एक और साथी, स्टोनीब्रुक विश्वविद्यालय के नोरोन स्माअर्स ने 34 प्राइमेट्स की बोलने की क्षमता के आधार पर एक सूची बनाई। फिर दोनों वैज्ञानिकों ने प्रत्येक प्राइमेट प्रजाति की बोलने की क्षमता तथा मस्तिष्क के विकास के सम्बंध की जांच की।

जो ऐप्स (वनमानुष) विभिन्न प्रकार की आवाज़ें निकाल सकते थे उनमें विकसित तथा बड़े कॉर्टिकल और ब्रोन स्टेम पाए गए। ये मस्तिष्क के वे भाग हैं जो वाणि संवेदनाओं की प्रतिक्रिया तथा जीभ की मांसपेशियों का समन्वय करते हैं। परिणाम मस्तिष्क के कॉर्टेक्स से जुड़े भाग के आकार और विभिन्न प्रकार की आवाज़ निकालने की क्षमता के बीच सहसम्बंंध दर्शाते हैं। अर्थात बोलने की क्षमता स्वर निकालने की शारीरिक संरचनाओं की बजाय तंत्रिका नेटवर्क के कारण आती है। जिन प्राइमेट्स में मस्तिष्क के ध्वनि नियंत्रण क्षेत्र बड़े हैं वे अन्य के मुकाबले विभिन्न प्रकार की आवाज़ें निकाल सकते हैं।

उपरोक्त अध्ययन से पता चलता है कि बोलने की क्षमता का विकास मस्तिष्क के विकास के साथसाथ ही हुआ है। मानव की विकास यात्रा में बोलचाल को ज़्यादा महत्व मिला और मस्तिष्क में उससे सम्बंधित भाग विकसित होते गए। दूसरी ओर एप्स में अन्य क्षमताएं विकसित हुर्इं और ध्वनि सम्बंधी संरचनाएं बनी तो रहीं किंतु बोलने के लिए आवश्यक तंत्रिका समन्वय नहीं हो पाया।

बोनोबो शोधकर्ताओं ने पाया है कि बोनोबो खाना खिलाने तथा यात्रा करने जैसी बिल्कुल भिन्नभिन्न घटनाओं के लिए एकसी आवाज़ निकालते हैं। यानी एकसी आवाज़ से अलगअलग संदेश देते हैं। यह समझ में नहीं आया है कि कैसे एकसी आवाज से अलगअलग संदेश दिए जाते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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आप कितने चेहरे याद रख सकते हैं?

अपने दोस्तों, रिश्तेदारों, सहपाठियों, सहकर्मियो की शक्लें हमें याद रहती हैं। इसके अलावा कुछ प्रसिद्ध हस्तियों, अजनबियों (जो रोज़ाना या कभीकभी दिखते हैं) की भी शक्ल हमें याद रहती हैं। पर यदि आपको इनकी सूची बनाने को कहा जाए तो आप कितनी लंबी फेहरिस्त बना पाएंगे? एक अध्ययन के मुताबिक एक सामान्य व्यक्ति लगभग 5000 चेहरे याद रख सकता है।

शोधकर्ता जानना चाहते थे कि एक सामान्य व्यक्ति कितने चेहरे याद रख सकता है। इसके लिए उन्होंने 25 प्रतिभागियों को उन लोगों की सूची बनाने को कहा जिनके चेहरे उन्हें याद है। प्रतिभागियों को पहले एक घंटे में अपने व्यक्तिगत जीवन से जुड़े चेहरों की सूची बनानी थी और अन्य एक घंटे में प्रसिद्ध हस्तियों जैसे नेता, अभिनेता, गायक, संगीतकार वगैरह की।

अध्ययन में प्रतिभागियों को यह भी छूट थी कि यदि उन्हें किसी व्यक्ति का नाम याद नहीं है लेकिन उसका चेहरा याद है या वे उसके चेहरे की कल्पना कर सकते हैं, तो वे उसका विवरण लिखें, जैसे हाईस्कूल का चौकीदार या फलां फिल्म की अभिनेत्री वगैरह।

अध्ययन में देखा गया कि प्रतिभागियों को शुरुआती एक मिनट में कई लोगों के चेहरे याद आए लेकिन एक घंटे का वक्त बीतने के साथसाथ यह संख्या कम होती गई।

अगले अध्ययन में शोधकर्ताओं ने देखा कि ऐसे कितने चेहरे हैं जो उक्त सूची में नहीं हैं लेकिन याद दिलाने पर याद आ जाते हैं। इसके लिए शोधकर्ताओं ने प्रतिभागियों को बराक ओबामा और टॉम क्रूज़ सहित 3441 प्रसिद्ध हस्तियों की तस्वीरें दिखाई। प्रतिभागी किसी व्यक्ति को पहचानते हैं यह तभी माना गया जब वे एक ही व्यक्ति की दो अलगअलग तस्वीरों को पहचान पाए।

इन दोनों अध्ययन के आंकड़ों के विश्लेषण से शोधकर्ताओं ने पाया कि एक सामान्य या औसत व्यक्ति 5000 चेहरे याद रख सकता है। विभिन्न प्रतिभागियों को 1000 से लेकर 10000 की संख्या में चेहरे याद थे। यह अध्ययन प्रोसीडिंग्स ऑफ दी रॉयल सोसायटी बी में प्रकाशित हुआ है।

शोधकर्ताओं का कहना है कि अध्ययन में याद से जुड़ी कई बातें मानी गई थीं और प्रतिभागियों द्वारा दी गई जानकारी पर विश्वास किया गया था, लेकिन उम्मीद है कि यह अध्ययन चेहरों की पहचान से जुड़े और अन्य अध्ययनों में मदद करेगा। (स्रोत फीचर्स)

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क्या आप ठीक से कंघी कर पाते हैं? – डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

बचपन में मुझे कंघा नहीं करने पर रोज़ डांट पड़ती थी। क्या करता, कितनी भी कंघी करूं जमते ही नहीं थे। फुटबाल के प्रसिद्ध खिलाड़ी मेराडोना की तरह मेरे दोस्त के बाल भी घुंघराले थे। खेलनेकूदने में बिखरते ही नहीं थे। मैं उसे मेराडोना ही कहता था। सत्यसांई और अलबर्ट आइंस्टाइन के चेहरे तो उनके बाल के कारण ही याद रह जाते हैं। इनकी माओं को जूं निकालने में बड़ा सिरदर्द होता होगा। एक पिता ने तो अपने 18 महीने के बच्चे टेलर मेकग्वान का फेसबुक अकाउंट बेबी आइंस्टाइन-2 नाम से खोला है।

कुछ बच्चों के बाल कंघे से जमाए ही नहीं जा सकते क्योंकि उन्हें अनकॉम्बेबल हेयर सिंड्रोम (UHS) है। आज तक विज्ञान साहित्य में 100 ऐसे लोगों का उल्लेख हुआ है। मगर वास्तव में ऐसे लोगों की संख्या कहीं अधिक हो सकती है।

अनकॉम्बेबल हेयर सिंड्रोम एक अत्यंत बिरली आनुवंशिक विसंगति है। ऐसे बालों को स्पन ग्लास हेयर सिंड्रोम भी कहते है। इन लोगों के बाल ऊन के रेशे जैसे चमकदार, सूखे और बेतरतीब रूप से विभिन्न दिशाओं में खड़े रहते हैं। बालों का रंग चांदी जैसा सफेद या भूसे के रंग का पीलाभूरापन लिए होता है। ये खोपड़ी से ऐसे चिपके रहते हैं कि इन्हें कंघी करना मुश्किल हो जाता है। यह समस्या बच्चों में स्पष्ट दिखती है किंतु बढ़ती उम्र के साथ सुधरती जाती है। अधिकतर मामलों में देखा गया है कि मातापिता दोनों में यह दिक्कत हो तो ही वह बच्चे में दिखती है।

ऐसा अनुमान है कि यह समस्या तीन जीन्स में म्यूटेशन यानी उत्परिर्वन के कारण पैदा होती है। ये तीनों जीन बालों के उस हिस्से को बनाने में महत्वपूर्ण योगदान देते हैं जो त्वचा के ऊपर निकला होता है। इसे शैफ्ट कहते हैं। इनमें से किसी भी एक जीन में उत्परिवर्तन होने से बालों की संरचना में परिवर्तन हो जाता है। इलेक्ट्रान सूक्ष्मदर्शी से सामान्य बालों के शैफ्ट की आड़ी काट गोल दिखती है परंतु विकृति के कारण इसकी आड़ी काट गोल के बजाय तिकोनी दिखती है। 

यह भी देखा गया है कि त्वचा के सामान्य केरेटिनोसाइट कोशिकाओं में कोशिका द्रव एकरस दिखता है परंतु UHS कोशिकाओं के कोशिका द्रव में प्रोटीन के लौंदे होते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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सबसे बड़ा जीव 770 हैक्टर बड़ा है

1980 के दशक के अंत में, शोधकर्ताओं ने मिशिगन के ऊपरी प्रायद्वीप पर एक विशालकाय फफूंद की खोज की थी। आर्मिलेरिया गैलिका नामक यह फफूंद आकार में किसी मॉल के बराबर थी और 37 हैक्टर क्षेत्र में फैली थी। इसे दुनिया का सबसे बड़ा जीव माना गया। लेकिन हाल में वैज्ञानिकों ने एक और आर्मिलेरिया गैलिका फफूंद खोजी है जो पिछली खोज से लगभग चार गुना बड़ी और उससे दुगनी उम्र की है। यह फफूंद हनी मशरूम को जन्म देती है।

अन्य फफूंद की तरह आर्मिलेरिया पतले भूमिगत धागों के रूप में पनपती है। लेकिन अधिकांश फफूंद के विपरीत, ये धागे जूते के फीतों जैसी मोटीमोटी रस्सियां बना लेते हैं जो मृत या कमज़ोर लकड़ी का उपभोग करते हुए काफी दूरी तक फैलते जाते हैं। विशाल भूमिगत नेटवर्क का पता लगाने के लिए वैज्ञानिकों ने दूर तक फैले 245 ऐसे रेशों के नमूनों का जेनेटिक विश्लेषण किया।  बायोआरकाईव में प्रकाशित पर्चे के अनुसार इस जांच में पाया गया कि ये दूरदूर फैले रेशे एक ही फफूंद के हिस्से थे। इसके तेज़ी से बढ़ने के आधार पर अनुमान लगाया गया कि यह फफूंद कम से कम 2500 वर्ष पुरानी है।

शोधकर्ताओं ने 15 समान रूप से वितरित नमूनों के जीनोम को अनुक्रमित करके देखा कि हनी मशरूम में समय के साथ बदलाव कैसे होता है। उन्हें जीनोम के 10 करोड़ क्षारों में से केवल 163 आनुवंशिक परिवर्तन देखने को मिले जो काफी धीमी गति है। उत्परिवर्तन की दर से यह पता लगाया जाता है कि एक जीव कितनी तेज़ी से विकसित हो सकता है। शोधकर्ता उत्परिवर्तन की इतनी धीमी दर को लेकर असमंजस में हैं और अभी यह नहीं कह सकते कि उत्परिवर्तनों पर अंकुश कैसे लगाया जा रहा है। वैसे उन्हें लगता है कि एक भलीभांति विकसित डीएनए मरम्मत की व्यवस्था या फिर भूमिगत रहते हुए सूरज की रोशनी से दूर रहना उत्परिवर्तन की धीमी दर का एक कारण हो सकता है।

यह अब दुनिया का सबसे पुराना और सबसे बड़ा जीव है जिसकी उम्र 8000 वर्ष से भी अधिक है और यह 770 हैक्टर के लंबेचौड़े क्षेत्र में फैला है। (स्रोत फीचर्स)

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विज्ञान में लिंगभेद उजागर करने की पहल

अकादमिक सभाओं, पत्रिका के संपादक मंडल या अन्य अकादमिक पदों पर पुरुषों की अधिक भागीदारी वाले स्थानो को पुरुषअड्डे कहा जाने लगा है। इन स्थानों को पुरुषअड्डे कहना लिंगभेद उजागर करने का एक तरीका है। लिंगभेद उजागर करने की दिशा में एक ओर पहल हुई है। जर्मन कैंसर रिसर्च इंस्टिट्यूट द्वारा आयोजित सभा में आमंत्रित वक्ताओं में 28 में से 23 महिला वक्ता हैं।

जर्मन कैंसर रिसर्च सेंटर की जीव वैज्ञानिक और एक्ज़ेक्यूटिव वीमेन्स इनीशिएटिव की अध्यक्ष उर्सुला क्लिंगमुलर फ्रंटियर्स इन कैंसर रिसर्च मीटिंग की आयोजक हैं। सभा का उद्देश्य दुनिया भर में काम कर रहे अच्छे शोधकर्ताओं को सामने लाना है।क्लिंगमुलर का कहना है कि हमने उन महिलाओं को आमंत्रित किया है जो इस क्षेत्र में अग्रणी काम कर रही हैंयहां महिलापुरुष वक्ता का अनुपात आम तौर पर आयोजित सभाओं के एकदम विपरीत है। वैसे हमने पुरुषों को भी आमंत्रित किया है।

उनका कहना है कि उन्हें खुशी होगी यदि पहली नज़र में वक्ताओं के नामों की सूची देखकर किसी को कुछ अटपटा या असामान्य ना लगे। 9 से 12 अक्टूबर तक चलने वाले इस आयोजन के लिए लोगों की सकारात्मक प्रतिक्रिया मिली है और अब तक लगभग 250 प्रतिभागी पंजीकरण करवा चुके है। लोग वक्ताओं से प्रभावित हैं।

इस आयोजन पर प्रिंसटन विश्वविद्यालय की तंत्रिका विज्ञानी येल निव का कहना है कि यह कोशिश अकादमिक सभाओं के आयोजकों और वहां उपस्थित लोगों में लिंगभेद के प्रति जागरूकता ला सकती है। निव ने 2016 में नशे का तंत्रिका विज्ञान पर आयोजित एक सम्मेलन के अनुभव साझा करते हुए बताया कि उन्होंने वक्ताओं की जो सूची तैयार की थी उसमें उन्होंने पाया कि सूची में एक भी महिला नहीं है। उसके बाद फिर से सूची तैयार की जिसमें महिला वक्ताओं को शामिल किया। उन्होंने पहले बनाई सूची पर फिर गौर किया और पाया कि आमंत्रित पुरुष वक्ताओं में से कुछ शोधकर्ता जानेमाने तो थे मगर सम्मेलन के विषय से सम्बंधित नहीं थे। वहीं बाद में जिन महिलाओं को जोड़ा गया उनके शोधकार्य सम्मेलन के विषय से सम्बंधित थे। उनके लिए यह मज़ेदार एहसास था। निव का मत है कि लैंगिक असंतुलन पर सवाल उठाना मात्र इसलिए सही नहीं है कि आयोजक लिंगसमानता के मुद्दे पर विचार करें बल्कि इसलिए भी है कि इससे हमारे अध्ययन बेहतर होंगे। (स्रोत फीचर्स)

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वैज्ञानिक गोपनीय जानकारी बेचने के आरोप से मुक्त

भारत के एक शीर्ष अंतरिक्ष वैज्ञानिक शंकरलिंगम नंबी नारायणन को सुप्रीम कोर्ट ने निर्दोष पाया है। नारायणन पर आरोप थे कि उन्होंने इसरो के अंतरिक्ष कार्यक्रम की गोपनीय जानकारी पाकिस्तान को बेची है।

साल 1994 में इसरो के वैज्ञानिक नारायणन और डी. शशिकुमार पर इसरो की गोपनीय जानकारी पाकिस्तान को बेचने के आरोप लगाए गए थे। इस मामले में सभी की गिरफ्तारी हुई और मुकदमे चले। 1996 में स्थानीय अदालत ने नारायणन और अन्य सभी लोगों को आरापों से बरी कर दिया था। सीबीआई ने भी तब जांच में उन्हें निर्दोष पाया था। किंतु उसके बाद भी, 20 सालों तक, अन्य अदालतों में मुकदमे चलते रहे। नारायणन का कहना है कि हम सभी की जिंदगी बिखर गई और हम सभी ने बहुत कुछ झेला है।

साल 2001 में, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने नारायणन को 10 लाख रुपए की अंतरिम राहत देने का आदेश दिया था। किंतु वह भी उन्हें 11 साल बाद मिली, दो बार उच्च न्यायालय में गुहार लगाने के बाद।

14 सितंबर को हुई सुनवाई में शीर्ष न्यायालय ने नारायणन पर लगे आरोपों को मनगढ़ंत बताया है और उन्हें 50 लाख रुपए बतौर हर्ज़ाना देने का आदेश दिया है। अदालत ने कहा कि केरल राज्य पुलिस द्वारा शुरू की गई कार्रवाई संदेहपूर्ण थी। इस पूरी प्रक्रिया में पुलिस और जांच दल का व्यवहार नारायणन के लिए पीड़ादायक था। सुप्रीम कोर्ट ने सम्बंधित पुलिस अफसरों पर ज़रूरी कार्रवाई का भी आदेश दिया है।

इस मामले ने इसरो को अंदर तक हिला दिया। दरअसल 1990 के दशक में भारत सोवियत संघ और संयुक्त राज्य अमेरिका से क्रायोजेनिक तकनीक खरीदने की बात कर रहा था। इस तकनीक से ईंधन को कम तापमान पर तरल अवस्था में स्टोर किया जा सकता है। अंतत: भारत सोवियत संघ से तकनीक खरीदने के लिए सहमत हो गया। लेकिन सोवियत संघ के विघटन के बाद संयुक्त राज्य अमेरिका ने रूस पर भारत को तकनीक ना देने का दबाव बनाया। इस तरह यह महत्वपूर्ण तकनीक भारत के हाथ निकल गई।

नारायणन को शक है कि इसमें अंतर्राष्ट्रीय साज़िश है। इसमें भारत की खुफिया एजेंसियों की भी भूमिका रही है। इससे इसरो की अंतरिक्ष योजनाओं में लगभग 15 साल की देरी हो गई।

असल में भारत में इस तकनीक के आने से उम्मीद थी कि भारत से उपग्रह प्रक्षेपण नासा या युरोपीय संस्थाओं के मुकाबले कम कीमत पर किए जा सकेंगे। आज उपग्रह प्रक्षेपण में भारत का महत्वपूर्ण स्थान है लेकिन भारी उपग्रहों को छोड़ने में स्थान बनाने में अभी वक्त लगेगा, क्योंकि भारत ने कुछ ही वर्षों पहले इस तकनीक में महारत हासिल की है। नारायणन शीर्ष अदालत के फैसले से खुश हैं। देर से ही सही, दोषमुक्त करने के लिए उन्होंने कोर्ट का आभार व्यक्त किया है। (स्रोत फीचर्स)

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शाकाहारी, अति-शाकाहारी और परखनली मांसभक्षी – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, जब हिटलर ने यह दावा किया कि तीन हफ्तों में इंग्लैंड की गर्दन एक मुर्गे की तरह मरोड़ दी जाएगी, तब विंस्टन चर्चिल ने उपेक्षापूर्ण जवाब दिया था: some chicken, some neck (इंग्लैंड कोई मुर्गा नहीं है)। कुछ ही समय बाद इंग्लैंड व मित्र सेनाओं ने युद्ध जीत लिया।

लेकिन 1930 के दशक में चर्चिल ने मुर्गे सम्बंधी एक टिप्पणी और की थी जो आज के लिए भी काफी प्रासंगिक है: आज से 50 साल बाद मुर्गे की टांग खाने के लिए हम पूरे चिकन को पालने के बेतुकेपन से बचेंगे क्योंकि तब हम इन अंगों को अलग से प्रयोगशाला में बना सकेंगे।

जी हां, चर्चिल की भविष्यवाणी आने वाले सालों में सच हो सकती है। शोधकर्ता प्रयोगशाला में कोशिका और ऊतक इंजीनियरिंग की मदद से खाद्य-मांस विकसित कर रहे हैं। इस प्रकार हमारे बीच न केवल वीगन यानी अति-शाकाहारी (वे लोग जो दूध या अन्य डेयरी उत्पादों का भी उपयोग नहीं करते हैं), शाकाहारी और मांसाहारी लोग होंगे बल्कि परखनली में बनाए गए मांसभक्षी यानी इन-विट्रोटेरियंसलोग भी होंगे।

प्रयोगशाला में मांस क्यों विकसित किया जा रहा है? क्योंकि हमें पशुओं के चारे के लिए फसलें उगानी पड़ती हैं। इन फसलों को उगाने में उपलब्ध ज़मीन का 26 प्रतिशत और काफी मात्रा में पानी का भी इस्तेमाल होता है। इसके अलावा, मवेशी ग्लोबल वार्मिंग में 18 प्रतिशत का योगदान करते हैं।

चर्चिल की बात को दूसरे शब्दों में कहें, तो जानवर प्रोटीन के कार्यक्षम कारखाने नहीं हैं; मांस के रूप में हम जो भी खाते हैं वह प्रोटीन (मांसपेशियां) ही है। तो फिर क्यों न प्रयोगशाला में मात्र मांस विकसित करें जिससे जगह और पानी की बचत हो सके और ग्लोबल वार्मिंग को कम किया जा सके?

यहीं स्टेम कोशिका का प्रवेश होता है। निकोल जोन्स ने नेचर के 9 दिसंबर 2010 के अंक में लिखा था कि भ्रूणीय स्टेम कोशिकाएं एक अनश्वर (और इसलिए सस्ता) भंडार प्रदान करती हैं जिससे मांस की अंतहीन आपूर्ति की जा सकती है। लेकिन पालतू जानवरों से भ्रूणीय स्टेम कोशिकाओं का उत्पादन करने का प्रयास सफल नहीं रहा है। इसलिए वैज्ञानिकों ने वयस्क स्टेम कोशिकाओं की ओर ध्यान दिया। इन्हें मायोसेटेलाइट कोशिका कहते हैं और यही मांसपेशियों की वृद्धि और मरम्मत के लिए जिम्मेदार हैं।

प्रयोगशाला में मांस (जिसे इन-विट्रो मांस या आईवीएम भी कहा जाता है) बनाने के लिए पहले से ही तीन समूह इन कोशिकाओं के उपयोग में भिड़े हैं। इस सम्बंध में हॉलैंड में एक और अमेरिका में दो पेटेंट लिए जा चुके हैं। इनमें से एक डॉ. केदारनाथ चल्लाकेरे हैं जिनकी कंपनी मोक्षगुंडम बायोटेक्नोलॉजीज़ कैलिफोर्निया में स्थित है। (मोक्षगुंडम एक स्थान का नाम है जो पहली बार सर एम. विश्वेश्वरैया के कारण जाना गया था। विश्वेश्वरैया इसी स्थान से थे)।

यह होता कैसे है? उदाहरण के लिए सबसे पहले एक सूअर की बायोप्सी से मायोसेटेलाइट कोशिका को निकाला जाता है और एक उचित माध्यम का उपयोग कर प्रयोगशाला में पनपाया जाता है। फिर उन्हें एक ढांचे पर रोपकर रेशों का रूप दिया जाता है, जो एक साथ बांधने पर मांसपेशी का रूप ले लेते हैं। इसके बाद, कुछ प्रयोगके माध्यम से मांसपेशियों में प्रोटीन उत्पादन को बढ़ाया जाता है। मांसपेशियों की इन पट्टियों को पीसकर उनमें स्वाद के लिए रसायन, विटामिन और आयरन मिलाकर सॉसेज मांस तैयार किया जाता है। इसे पकाकर खा सकते हैं।

अभी कई ऐसे तकनीकी मुद्दे हैं जिन्हें हल किया जाना है। इनमें सबसे पहला मुद्दा कोशिकाओं के स्रोत का है।

चूंकि भ्रूणीय स्टेम कोशिकाएं एक आदर्श प्रारंभिक बिंदु हैं, इसलिए मुर्गे, टर्की, भेड़ और मवेशी (और यहां तक कि कई खाद्य मछली) से भ्रूणीय स्टेम कोशिकाओं के उत्पादन पर काम करना होगा। दूसरी बात है कि यदि वयस्क स्टेम कोशिकाएं ली जाएं (जिनका उपयोग अभी किया गया है) तो वे लगभग 30 बार के बाद आगे विभाजित नहीं होतीं।

उनके गुणसूत्र के डीएनए में सुरक्षात्मक सिरे (टीलोमेयर) प्रत्येक विभाजन में छोटे होते जाते हैं और आगे अधिक विभाजन के बाद गायब हो जाते हैं। कल्चर माध्यम में एंज़ाइम टीलोमरेज़ मिलाने से मदद मिल सकती है।

एक मुद्दा यह भी है कि आदर्श रूप से हम जंतु-मुक्त माध्यम का उपयोग करना चाहते हैं। कुछ समूहों ने इसके लिए मैटेक मशरूम का उपयोग किया है जबकि कुछ अन्य ने नीले हरे शैवाल को इस्तेमाल किया। ध्यान दें कि ये दोनों शुद्ध शाकाहारी माध्यम हैं। लेकिन इनमें धन और सामग्री जैसे बड़े मुद्दे शामिल हैं। कोशिका पालन के लिए प्रयुक्त माध्यम बहुत महंगा है, और लागत में 90 प्रतिशत हिस्सा इसी का है।

दूसरा, मांस के रेशों को मांसपेशी की पट्टियों में ढालने की प्रक्रिया है, जिसके लिए ऊर्जा की ज़रूरत होगी और बड़े पैमाने पर संभव बनाने की भी।

तीसरा मुद्दा है कि जैसे-जैसे मांसपेशियों की पट्टियां बड़ी होने लगती हैं, उनकी अंदरूनी कोशिकाएं मरने लगती हैं क्योंकि उन्हें पोषण नहीं मिल पाता। वास्तविक परिस्थिति में उन्हें ज़रूरी पोषण रक्त प्रवाह द्वारा प्रदान किया जाता है। इसलिए इन-विट्रो में रक्त वाहिकाएंबनाने की ज़रूरत है।

इन सभी बातों को ध्यान में रखते हुए एक अनुमान है कि प्रयोगशाला में मांस की पहली खेप तैयार करने के लिए प्रति टन 3,500 यूरो खर्च होगा। तुलना के लिए देखें कि सामान्यत: मांस उत्पादन का खर्च 1,800 यूरो प्रति टन होता है। हालांकि, यह भी याद रखें कि पहला सेल फोन बनाने के लिए लाखों यूरो खर्च किए गए थे लेकिन आज एक साधारण मॉडल 30 यूरो में खरीदा जा सकता है। एक बार विज्ञान ठीक तरह से काम कर गया, तो लागत कम होगी और तकनीक में प्रगति से उत्पादन में वृद्धि के साथ कीमतें भी नीचे आएंगी।

लेकिन फिर भी, क्या प्रयोगशाला में बने मांस को स्वीकार किया जाएगा? मुझे तो लगता है कि किया जाएगा। सबसे पहले, प्रीवेंशन ऑफ एट्रोसिटीज़ अगेन्स्ट एनिमल्स (पेटा) जैसे समूह इसे स्वीकार कर रहे हैं और बढ़ावा दे रहे हैं। दूसरी बात है कि यह जेनेटिक रूप से परिवर्तित (जीएम) भोजन नहीं है क्योंकि इसमें जेनेटिक इंजीनियरिंग का उपयोग नहीं किया गया है। तीसरा, हालांकि आज इसमें कोई स्वाद नहीं है, आगे चलकर भोजन और पोषण वैज्ञानिक स्वाद बढ़ाने में सक्षम होंगे।

चौथा, क्या इन-विट्रो मांस अनैतिक या अप्राकृतिक है? ज़रूरी नहीं; इन-विट्रो कंसोर्टियम (एक संस्थान जो इन-विट्रो मांस के विचार को बढ़ावा देता है) के डॉ. जेसन मैथेनी पूछते हैं: क्या 10,000 मुर्गियों को बाड़े में रखना जहां वे अपने ही मल में जीती हैं और उनमें तरह-तरह के रसायन भर देना नैतिक या प्राकृतिक है?” मैथेनी हाई स्कूल के दिनों से शाकाहारी नहीं बल्कि वीगन रहे हैं। जब पूछा कि क्या वे आईवीएम खाएंगे, तो उन्होंने कहा, हां, ज़रूर। यह मांस के प्रति मेरी सभी चिंताओं का उत्तर देगा। चर्चिल भी ज़रूर इसे खाते।

मुझे लगता है कि महात्मा गांधी (चर्चिल अधनंगा फकीर कहकर जिनकी खिल्ली उड़ाया करते थे) भी इस परखनली उत्पादित मांस को स्वीकृति देते, हालांकि शायद खुद नहीं खाते। आने वाले दिनों की बात करूं, तो सोचता हूं कि पशु अधिकार समर्थक सुश्री मेनका गांधी या सुश्री अमाला अक्किनेनी क्या कहेंगी। (स्रोत फीचर्स)

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अमेरिका में अगले चुनाव मत पत्रों से करवाने का सुझाव

अमेरिका में साल 2020 में राष्ट्रपति चुनाव होने वाले हैं। वहां की विज्ञान अकादमियों का आग्रह है कि ये चुनाव मत पत्रों (बैलट पेपर) से किए जाएं।

दरअसल साल 2016 में हुए राष्ट्रपति चुनाव में गड़बड़ियों की आशंका जताई जा रही थी। वहां की खुफिया एजेंसियों ने खुलासा किया था कि रूस की सरकार ने चुनाव में धांधली करवाने की कोशिश की थी।

अमेरिका में ईवीएम मशीन और इंटरनेट के ज़रिए वोट डाले जाते हैं। राष्ट्रीय विज्ञान, इंजीनियरिंग और चिकित्सा अकादमी की रिपोर्ट के अनुसार मत पत्र, जिनकी गणना इंसानों द्वारा की जाती है, चुनाव के लिए सबसे सुरक्षित तरीका है। उन्होंने पाया है कि चुनाव के लिए इंटरनेट टेक्नॉलॉजी सुरक्षित और भरोसेमंद नहीं है। इसलिए रिपोर्ट में उनका सुझाव है कि 2020 में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव को मत पत्रों से किया जाए। जब तक इंटरनेट सुरक्षा और सत्यापन की गांरटी नहीं देता तब तक के लिए इसे छोड़ देना बेहतर होगा। मत पत्र से मतगणना के लिए ऑप्टिकल स्कैनर का उपयोग अवश्य किया जा सकता है। मगर, इसके बाद पुनर्गणना और ऑडिट इंसानों द्वारा ही किया जाना चाहिए। अकादमी की रिपोर्ट में उन मशीनों को भी तुरंत हटाने का भी सुझाव दिया गया है जिनमें इंसानों द्वारा गणना नहीं की जा सकती।

कमेटी के सहअध्यक्ष, कोलंबिया युनिवर्सिटी की ली बोलिंगर और इंडियाना युनिवर्सिटी के अध्यक्ष माइकल मैकरॉबी का कहना है कि मतदान के दौरान तनाव को संभालने की ज़रूरत है। जब मतदाताओं की संख्या और जटिलता बढ़ रही है और हम उन्हें मताधिकार के प्रति जागरूक करना चाहते हैं तो चुनावी प्रक्रिया को भ्रष्ट होने से बचाना ज़रूरी है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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दाढ़ी-मूंछ रखने के फायदे और नुकसान – डॉ. ओ. पी. जोशी

फैशन के आयाम हमेशा बदलते रहते हैं। एक समय था जब क्लीन शेव रखना अच्छा माना जाता था परंतु अब दाढ़ी या मूंछ या दोनों ही रखना फैशन बनता जा रहा है। स्टाइलिश लुक देने के लिए दाढ़ीमूंछों के कई प्रकार भी हो गए हैं। इतिहास में झांककर देखें तो पता चलता है कि दाढ़ीमूंछ रखने की परंपरा काफी पुरानी है। साधु संत लोग दाढ़ीमूंछ रखते थे और आज भी रखते हैं। राजामहाराजाओं द्वारा दाढ़ीमूंछ रखना शौर्य व पराक्रम का प्रतीक माना जाता था, परंतु कुछ इसे नापसंद भी करते थे। सिकंदर को अपने सिपाहियों तथा तुर्की लोगों को अपने गुलामों का दाढ़ीमूंछ रखना नापसंद था। रूस के पीटर महान ने तो दाढ़ीमूंछ पर टैक्स लगाया था।

इतिहास कुछ भी रहा हो एवं फैशन में इसे कैसी भी मान्यता दी गई हो, परंतु अब दाढ़ीमूंछ वैज्ञानिकों, चर्म रोग के चिकित्सकों एवं पर्यावरणविदों के लिए आकर्षण का केंद्र बन गई हैं। दाढ़ीमूंछ रखने या न रखने के पक्ष एवं विपक्ष में खेमे बन गए हैं एवं सभी के अपनेअपने तर्क एवं विचार हैं।

चर्मरोग विशेषज्ञ मानते हैं कि दाढ़ीमूंछ त्वचा की कई समस्याओं एवं रोगों से बचाती हैं। दाढ़ीमूंछ चेहरे की त्वचा को सूखी होने से तथा पराबैंगनी किरणों के हानिकारक प्रभाव से लगभग 90 प्रतिशत बचाती हैं और जीवाणुओं के संक्रमण व धूल आदि से भी बचाव करती है। चेहरे के कई दाग धब्बे, निशान एवं झुर्रियां भी दाढ़ीमूंछ छिपा लेती हैं।

अलबत्ता, धूल एवं प्रदूषणकारी पदार्थों की रोकथाम में दाढ़ीमूंछ की फिल्टर समान भूमिका को अब वैज्ञानिक सही नहीं मानते हैं। कुछ वर्ष पूर्व सोवियत संघ की चिकित्सा विज्ञान अकादमी में कार्यरत वैज्ञानिकों ने बताया था कि दाढ़ीमूंछ रखने वाले लोगों की सांस के साथ अंदर जा रही हवा में कई प्रकार के विषैले रसायन पाए जाते हैं। जैसे एसीटोन, बेंज़ीन, टालुईन, अमोनिया, फिनॉल तथा आइसोप्रोपेन। वैज्ञानिकों ने केवल दाढ़ी रखने वाले, केवल मूंछ रखने वाले, दाढ़ीमूंछ दोनों रखने वाले तथा दाढ़ीमूंछ दोनों रखने के साथ धूम्रपान करने वाले लोगों पर अलगअलग प्रयोग किए। परिणाम चौंकाने वाले तथा खतरनाक थे।

वैज्ञानिकों ने पाया कि केवल मूंछ एवं केवल दाढ़ी वाले लोगों की सांस में विषैले रसायन आसपास की वायु से क्रमश: 4.2 तथा 1.9 प्रतिशत ज़्यादा थे। दाढ़ीमूंछ दोनों होने पर यह मात्रा 7.2 प्रतिशत अधिक पाई गई। मूंछों वाले धूम्रपान प्रेमियों में विषैले रसायन 24.7 एवं दाढ़ी वालों में 18.2 प्रतिशत अधिक आंके गए। दाढ़ीमूंछ के साथ धूम्रपान करने वालों में ज़हरीले रसायन  40.2 प्रतिशत अधिक देखे गए। अध्ययन दर्शाता है कि दाढ़ीमूंछ के साथ धूम्रपान का शौक काफी खतरनाक है।

दाढ़ीमूंछ चेहरे की त्वचा को सुरक्षा देती है या सांस के साथ फेफड़ों में पहुंचने वाले प्रदूषण की मात्रा बढ़ाती है। इन दोनों तथ्यों पर दुनिया भर में चिकित्सकों एवं पर्यावरणविदों ने अध्ययन कर अपनेअपने विचार रखे हैं। ज़्यादातर चिकित्सकों का मत है कि दाढ़ी एवं मूंछ पूरे चेहरे को नहीं अपितु केवल उतने क्षेत्र को ही सुरक्षा प्रदान करती हैं जहां तक वे फैली होती हैं। कई प्रकरणों में तो दाढ़ीमूंछ के अंदर भी त्वचा पर संक्रमण का पैदा होना देखा गया है। दाढ़ीमूंछ स्थायी तौर पर रखने वाले धार्मिक एवं कुछ संप्रदाय के लोगों के चेहरे पर कभी संक्रमण नहीं हुआ हो, ऐसा भी नहीं है। दाढ़ीमूंछ के अलावा कई अन्य प्रयास भी लोगों द्वारा संक्रमण रोकने हेतु किए जाते हैं।

पर्यावरणविदों के मत भी तर्कसंगत तथा प्रासंगिक हैं। उनका कहना है कि आजकल लोग स्वास्थ्य, सुंदरता तथा फैशन के प्रति जागरूक हैं, इसलिए वे दिन में 3-4 बार चेहरे को धोते हैं। चेहरा धोने से प्रदूषणकारी पदार्थ पानी के साथ घुलकर बह जाते हैं और इस वजह से सांस के साथ ज़्यादा प्रदूषित पदार्थों का शरीर में प्रवेश करना संभव नहीं है। वैसे आजकल बालों के समान दाढ़ीमूंछ भी रंगी जाती हैं। डाई में उपस्थित रसायनों के शरीर में प्रवेश करने या न करने पर वैज्ञानिकों ने अभी तक कोई मत नहीं दिए हैं।

कुछ चिकित्सक एवं पर्यावरण वैज्ञानिकों ने दाढ़ीमूंछ के रखरखाव एवं सांस के द्वारा ज़हरीले रसायनों के प्रवेश के सम्बंधों पर भी अध्ययन किए है। दाढ़ीमूंछों के रखरखाव के तहत तेल आदि लगाने पर प्रदूषणकारी पदार्थ वहां चिपक जाते हैं एवं सांस के साथ शरीर में प्रवेश नहीं कर पाते हैं और यदि प्रवेश करते भी हैं तो उनकी मात्रा काफी घट जाती है। इसके विपरीत बगैर तेल लगी सूखी दाढ़ीमूंछों से ये पदार्थ सांस द्वारा तेज़ी से शरीर में पहुंचते है।

इस प्रकार दाढ़ीमूंछ, स्वास्थ्य व प्रदूषण के संदर्भ में वैज्ञानिकों, चिकित्सकों तथा पर्यावरणविदों ने अपनेअपने मत रखे हैं एवं तर्कों के आधार पर उन्हें सही या गलत बताया है। अब निर्णय आपको लेना है कि दाढ़ीमूंछ रखें या न रखें। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कपास का पालतूकरण और गुलामी प्रथा – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

बैक्टीरिया की एक नई किस्म किस प्रकार विकसित होती है? मान लीजिए, किसी बैक्टीरिया का सामना किसी खतरे से होता है। यह खतरा एंटीबायोटिक के रूप में हो सकता है। संयोगवश बैक्टीरिया के जीन में एक छोटासा परिवर्तन होता है, जो उसे इस खतरे का सामना करने के काबिल बनाता है। दूसरे शब्दों में, उसे प्रतिरोधी बनाता है। चूंकि बैक्टीरिया कुछ मिनटों या घंटों में तेज़ी से बढ़ते हैं इसलिए हम देख सकते हैं कि कुछ ही हफ्तों में बैक्टीरिया की दवा प्रतिरोधी किस्म बढ़ जाएगी और दवा संवेदनशील किस्मों की जगह ले लेगी।

उपरोक्त बात जो बैक्टीरिया के लिए सत्य है वह पौधों और जानवरों पर भी लागू होती है। फर्क केवल इतना है कि पौधों और जंतुओं के मामले में समय मिनटों और घंटों में नहीं बल्कि दशकों, सदियों या सहस्त्राब्दी में देखा जाता है क्योंकि इनमें एकएक पीढ़ी काफी लंबे समय की होती है। मगर यह सही है कि जब उन पर भी जलवायु या पर्यावरण परिवर्तन, या पालतू बनाए जाने के कारण स्थानीय परिवर्तनों का दबाव पड़ता है तो वे भी उत्परिवर्तन पैदा करते हैं।

क्या ऐसे तनाव एक के बाद एक उत्परिवर्तन क्रमिक रूप से उत्पन्न करते हैं या जीनोम अपेक्षाकृत थोक में (झटके के साथ रुकरुककर) प्रतिक्रिया देता है? क्रमिकता में विश्वास रखने वाले जीव विज्ञानी इन वैज्ञानिकों को जर्क’ (झटका) कहते हैं। इसके जवाब में झटकेदार उत्परिवर्तन में विश्वास करने वाले वैज्ञानिक क्रमिकता में विश्वास करने वालों को क्रीप (सरका) कहते हैं।

मक्का, गेहूं, कपास या चावल जैसे पौधों को देखें। इन्हें जलवायु में बड़े बदलावों का सामना करना पड़ा है। इनमें से कई परिवर्तन पुरातन काल में पृथ्वी पर हुए थे। जब मनुष्य ने पालतू बनाने की प्रक्रिया में उन्हें नए वातावरण प्रदान किए तब भी इन्हें परिवर्तनों का सामना करना पड़ा था।

सवाल है कि पौधे इस तरह के तनाव में कैसी प्रतिक्रिया देते हैं? क्या उनके जीन में क्रमिक परिवर्तनों के ज़रिए सदियों में अनुकूलन होगा, जिसमें एक के बाद एक प्रत्येक उत्परिवर्तन पहले वाले उत्परिवर्तन की मदद करेगा? या एक बड़े पैमाने पर एक झटके में थोक परिवर्तन हो सकते हैं जिनकी वजह से नई किस्में एवं संकर उत्पन्न हो जाएंगे?

जीव विज्ञानी डॉ. बारबरा मैकलिंटॉक मक्का (मकई) में आनुवंशिक परिवर्तन का अध्ययन कर रही थीं। कई वर्षों के की अथक मेहनत के बाद यह देखकर उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा कि जीनोम के भीतर जीन अनुक्रमों का थोक स्थानांतरण होता रहता है।

उन्होंने पाया कि जीनोम के भीतर डीएनए के टुकड़े कटकर अलग होते हैं, कहीं औेर चिपक जाते हैं, या उनकी प्रतिलिपि बनकर कहीं और जुड़ जाती है। इस प्रकार से जीनोम एक जड़ाऊ काम है, जिसका अनुक्रम बदलता रहता है और अनुक्रम बदलने के साथ संदेश भी बदलता है और नई किस्में पैदा हो सकती हैं।

(उदाहरण के तौर पर, एक वाक्य देखिए: मारो मत, जाने दो। अब काटछांट या शब्दों को कॉपीपेस्ट करने पर वाक्य का संदेश बदल जाएगा: मारो, मत जाने दो)। मैकलिंटॉक ने ऐसे चलतेफिरते डीएनए अनुक्रमों को ट्रांसपोज़ॉन या ट्रांसपोज़ेबल घटक का नाम दिया था। इस खोज के लिए उन्हें 1983 में नोबेल पुरस्कार मिला।

ट्रांसपोज़ॉन्स या फुदकते जीनअनुक्रम तनाव होने पर या पालतूकरण का दबाव होने पर विकास के लिए एक व्यवस्था प्रदान करते हैं। हाल ही में इस बिंदु को वारविक विश्वविद्यालय, यूके में कपास के पौधे का अध्ययन करने वाले एक समूह द्वारा रेखांकित किया गया है।

उन्होंने कपास के पुरातात्विक नमूने लिए (पेरू से दो, एकएक ब्राज़ील और मिरुा से)। इनके डीएनए अनुक्रमों का विश्लेषण करने पर देखा कि पालतू बनाई गई किस्मों में काफी जीनोमिक पुनर्गठन हुआ है, जबकि इन्हीं से सम्बंधित जंगली किस्मों में जीनोम अनुक्रम काफी स्थिर बना रहा है।

पालतूकरण और इससे उत्पन्न तनाव पौधों को मजबूर करते हैं कि वे ट्रांसपोज़ॉन्स का उपयोग करके जीन्स का स्थानांतरण करें।

मनुष्यों की सांस्कृतिक प्रथाओं के कारण इस तरह के एपिसोडिक (घटनाआधारित) परिवर्तनों का अनुभव अकेले कपास ने नहीं किया है। बल्कि साथसाथ, कपास के कारण मानव व्यवहार और सभ्यता में भी एपिसोडिक परिवर्तन आए हैं।

यह प्राचीन पौधा पहली बार सिंधु घाटी में 6000 ईसा पूर्व में पालतू बनाया गया था। वहां से यह अफ्रीका और अरेबिया तक फैल गया, जहां इसे अल कुत्न नाम दिया गया (स्पैनिश में यह अलगोडन हुआ और अंग्रेज़ी में कॉटन)

स्वतंत्र रूप से, मेक्सिको में 3000 ईसा पूर्व में, इसकी एक और प्रजाति उगाई गई थी। शुरुआती एशियाई और मेक्सिकन लोग इसे कातते और पहनते थे। मसाले, सोना और चांदी के साथ, कपास भी प्राचीन विश्व का खज़ाना था जिसे उपनिवेशवादी लूटा करते थे।

कपास की इस लूटपाट और व्यावसायीकरण ने गुलामी के अपमानजनक और अक्षम्य इतिहास को बढ़ावा दिया। जब युरोपीय लोगों ने अमेरिका की खोज की, और उसके अधिकांश दक्षिणी राज्यों को कपास के खेतों में परिवर्तित कर दिया तो उन्हें मज़दूरों की आवश्यकता पड़ी।

सिर्फ 1700 से 1900 के बीच, कपास खेतों में काम करने के लिए 40 लाख अफ्रीकी लोगों को गुलाम बनाकर यू.एस. लाया गया ताकि उन पर जानवरों की तरह अधिकार जताकर खरीदा और बेचा जा सके। (यहां तक कि अमेरिका के संस्थापक भी नीग्रो गुलामों के मालिक थे और उनका इस्तेमाल करते थे)

फलस्वरूप, कपास फलनेफूलने लगा। 1800 के दशक के मध्य तक अमेरिका प्रतिवर्ष लगभग दो अरब टन कपास निर्यात कर रहा था।

यह सही है कि इस अमानवीय प्रथा के खिलाफ असंतोष था, लेकिन जब इसने गृहयुद्ध का रूप ले लिया तब राष्ट्रपति लिंकन ने हस्तक्षेप करके युद्ध जीता और देश को एकीकृत किया।

लेकिन काले और गोरे लोगों को समान अधिकार तो तब मिले जब गांधीवादी नेता मार्टिन लूथर किंग के नेतृत्व में अश्वेत लोगों ने (अपने गोरे समर्थकों के साथ) इस लड़ाई को बहादुरी से बढ़ाया। उनका नारा था, हम होंगे कामयाब, हम होंगे आज़ाद एक दिन।

भारत में, ईस्ट इंडिया कंपनी की एक प्रमुख खोज कैलिको था। यह कोज़िकोड (कालीकट, इसलिए कैलिको) में बनाया गया एक कपड़ा था जिसे सूत और बिनौले के छिलके दोनों का उपयोग करके बनाया जाता था।

भारतीय (और मिस्र) सूत की मेहरबानी से कंपनी और साम्राज्य ने सालाना लाखों पाउंड कमाए। जब औद्योगिक क्रांति के दौरान इंग्लैंड में कपड़ा मिलों की स्थापना हुई, तो सूती कपड़ा और अधिक महीन व बेहतर हो गया और उसकी मांग बढ़ी। भारतीय सूती कपड़े ने यूके (जहां इसे प्रतिबंधित किया गया था) और खुद भारत में भी अपना मूल्य खो दिया।

गांधीजी ने मिलनिर्मित कपड़े के सांस्कृतिक और शोषक मूल्य को समझा। इसी के चलते उन्होंने चरखे और घर की बनी खादी को महत्व दिया। आर्थिक मूल्य के अलावा, यह आज भी राष्ट्रीय गौरव और देशभक्ति की भावना जगाता है। अर्थात कपास एक क्रमिक परिवर्तन नहीं लाया, बल्कि राष्ट्रवाद की भारतीय भावना में एक गहरे परिवर्तन को झटके से शुरू किया। यह कितना अन्यायपूर्ण है कि वर्तमान समय के खद्दरधारी नेताओं के युग में, ढाई लाख से अधिक किसान सिर्फ इस कारण आत्महत्या कर चुके हैं कि वे कपास की खेती करने के लिए उठाए गए ऋणों का भुगतान नहीं कर सके। और राहत की कोई उम्मीद भी नज़र नहीं आती (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit :  https://www.thehindu.com/migration_catalog/article12928220.ece/alternates/FREE_660/TH12-COTTON-BRSC