कोशिकाओं की इच्छा मृत्यु – एपोप्टोसिस – डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

वर्षा ऋतु में प्रकृति सजीव हो उठती है। कीट-पतंगे, मकडि़यां और नाना प्रकार के जीव जंतु दिखाई पड़ने लगते हैं। मेंढकों का भी यह प्रजनन काल होता है। नर मेंढक ज़ोर-ज़ोर से टर्रा कर मादा को आमंत्रित करते हैं। और मादा भी उनके प्रणय निवेदन को स्वीकार कर खिंची चली आती है।प्रजनन के दौरान मादा मेंढक पानी में अंडे देती है और नर अपने शुक्राणु उनपर छिड़क देता है। अंडों से टैडपोल बनता है और उसके बाद मेंढक। संरचना और स्वभाव में टैडपोल मेंढक से काफी भिन्न होते हैं। टैडपोल पानी में रहते हैं, गलफड़ों से श्वसन करते हैं, शाकाहारी होते हैं और काई कुतर कर खाते हैं। इनकी आंत बहुत लंबी होती है और तैरने के लिए इनमें पूंछ भी होती है। दूसरी ओर, मेंढक पानी और ज़मीन दोनों जगह रहते हैं। त्वचा और फेफड़ों से श्वसन करते हैं। मांसाहारी होते हैं, छोटे-मोटे जीव जंतुओं का शिकार करते हैं। इनकी आंत भी छोटी होती है, पूंछ नहीं होती लेकिन चलने और तैरने के लिए इनके पास बढि़या अनुकूलित टांगें होती हैं।

जब टैडपोल से वयस्क मेंढक बनता है तो उसकी पूंछ और गलफड़े कहां चले जाते हैं? ये टूट कर गिरते नहीं बल्कि अवशोषित कर लिए जाते हैं।

टैडपोल से मेंढक बनने जैसा ही कुछ-कुछ तितली के जीवन में भी घटता है। इनके अंडों से कैटरपिलर (इल्ली) निकलते हैं। कैटरपिलर खूब फूल-पत्तियां खाते हैं। उसके बाद वे एक प्यूपा (शंखी) में बदल जाते हैं। और फिर एक दिन प्यूपा में से तितली निकलती है। तितली कैटरपिलर से बिल्कुल अलग होती है। जहां लंबे कैटरपिलर में चलने के लिए अनेक टांगों जैसी रचनाएं होती हैं, पत्तियों को कुतर-कुतर कर खाने के लिए मज़बूत जबड़े होते हैं वहीं तितलियों में फूल का रस पीने के लिए लंबी स्ट्रॉ के समान सूंड (प्रोबोसिस) नाम की नली होती है, चलने के लिए 3 जोड़ी टांगें और उड़ने के लिए पंख होते हैं।

टैडपोल और कैटरपिलर दोनों में ही अनेक अंग वयस्क होने पर बदल जाते हैं। पुराने अंग नष्ट होकर अवशोषित हो जाते हैं और नए अंगों का निर्माण होता है। अर्थात प्रत्येक प्राणी में विकास के दौरान अनेक पुरानी और टूटी-फूटी कोशिकाएं बेकार हो जाने पर निर्धारित कार्यक्रम के अनुसार नष्ट हो जाती हैं। कोशिका के नष्ट होने की इस प्रक्रिया को एपोप्टोसिस या तयशुदा कोशिका मृत्यु (प्रोग्राम्ड सेल डेथ) कहते हैं।

हमारे शरीर की प्रत्येक कोशिका की निश्चित आयु होती है। जैसे रक्त में पाई जाने वाली लाल रक्त कोशिकाएं मात्र 120 दिन जीवित रहती हैं। इनकी भरपाई के लिए कोशिका विभाजन द्वारा निरंतर नई कोशिकाएं बनती रहती हैं।

प्राय: कोशिकाओं की मृत्यु चोट, संक्रमण, विकिरण या रसायनों आदि के कारण होती हैं। यह आत्मघात नहीं है। इसे नेक्रोसिस कहते हैं। इसमें कोशिकाएं स्वेच्छा से नहीं मरतीं, उनकी हत्या होती है। किन्तु एपोप्टोसिस आंतरिक या बाह्य कारणों से, शरीर के हित में स्वैच्छिक आत्म बलिदान है, मृत्यु का वरण है। शरीर के रोगों से और दर्द से बचाने का तरीका है।

नेक्रोसिस और एपोप्टोसिस में कोशिकाएं भिन्न प्रकार से नष्ट होती हैं। कोशिका मृत्यु के दोनों प्रकार नेक्रोसिस और एपोप्टोसिस की विधियों में भिन्नता आसानी से पहचानी जा सकती है।

नेक्रोसिस के प्रारंभ में प्राय: कोशिकाओं में सूजन आ जाती है और सूजन के सभी लक्षण परिलक्षित होते हैं। दर्द महसूस होता है। कोशिकाएं फूल जाती है और उनका ढांचा और उनकी अखंडता नष्ट हो जाती है। कोशिकांग फूल कर फूटने लगते हैं। यह सब अव्यवस्थित ढंग से होता है।

एपोप्टोसिस में कोशिकाएं फूलने के बजाए सूखने और सिकुड़ने लगती हैं, छोटी हो जाती हैं। कोशिका झिल्ली की बाहरी सतह पर बुलबुलों के समान रचनाएं (ब्लेब) बनने लगती हैं। कोशिका द्रव्य और केन्द्रक सिकुड़ने लगते हैं। क्रोमेटिन यानी डीएनए और प्रोटीन नष्ट होने लगते हैं और अन्तत: कोशिका छोटे-छोटे पैकेट्स में टूट जाती हैं जिन्हें भक्षी कोशिकाएं (फेगोसाइट्स) अपने अंदर लेकर नष्ट कर देते हैं।

कोशिकाएं आत्मघात क्यों करती हैं? शरीर की वृद्धि के लिए जिस प्रकार कोशिका विभाजन आवश्यक है उसी प्रकार स्थान बनाने के लिए आत्मघात भी आवश्यक है। कुछ कोशिकाएं विशेष कार्य के लिए बनती हैं। कार्य की समाप्ति पर ये अनावश्यक और शरीर पर अवांछित बोझ हो जाती हैं। जैसे मेंढक की पूंछ, गलफड़े और लंबी आंत।

इसी प्रकार नए अंगों के निर्माण में भी आत्मघात महत्वपूर्ण है। उदाहरण के लिए मानव भ्रूण में हाथ-पैर चप्पू जैसे होते हैं। उंगलियों के बीच में जाल होने के कारण उंगलियां पकड़ के लिए स्वतंत्र नहीं होती। अंगूठा भी उंगलियों से जुड़ा होता है और पकड़ने लायक नहीं होता। आत्मघात से ही कार्यशील उंगलियां निर्मित होती हैं। शरीर की वे कोशिकाएं जो संक्रमित हो जाती हैं उन्हें भी आत्मघात के द्वारा संक्रमण को बढ़ने से रोक कर पूरे शरीर को संक्रामक रोग से बचा लिया जाता है।

कैंसर का एपोप्टोसिस से गहरा नाता है। वायरस कैंसर कोशिकाओं को आत्मघात नहीं करने देता अन्यथा वायरसयुक्त कोशिकाएं आत्मघात करके शरीर को कैंसर जैसे घातक रोगों से बचा सकती हैं। अंग प्रत्यारोपण में आत्मघात की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। यदि किसी प्रकार से प्रतिरक्षा कोशिकाएं आत्मघात से नष्ट हो जाएं तो प्रत्यारोपित अंगों को शरीर स्वीकार कर लेता है।

आत्मघात के अध्ययन में सिनोरैब्डाइटिस एलेगेंस नामक कृमि को मॉडल जीव के रूप में प्रयुक्त कर बहुत से रहस्यों पर से पर्दा उठाने में मदद मिली है।

सन 2002 में चिकित्सा/कार्यिकी का नोबेल पुरस्कार तीन वैज्ञानिकों को मिला था। इन्होंने भ्रूणीय विकास के दौरान अंगों के निर्माण तथा कोशिका आत्मघात में आनुवंशिक नियंत्रण की भूमिका को समझाने के लिए मौलिक खोज की थी। छोटी आयु, भरपूर प्रजनन क्षमता, पारदर्शी शरीर एवं आसानी से प्रयोगशाला में कल्चर हो जाने की सुविधाओं के कारण वैज्ञानिकों ने सिनोरैब्डाइटिस एलेगेंस कृमि का चुनाव किया था। उन्होंने पाया कि कृमि के 1090 में से 131 कोशिकाएं नियत समय पर कोशिका आत्मघात से मर जाती है।

उन्होंने यह भी बताया कि भ्रूण से कृमि बनने की प्रक्रिया के दौरान कुछ कोशिकाएं कोशिका आत्मघात से गुजरती हैं क्योंकि उनका कार्य कृमि शरीर में खत्म हो चुका होता है। उन्होंने कोशिका आत्मघात की प्रक्रिया के लिए जि़म्मेदार जीन भी खोज निकाला। आत्मघात के लिए जि़म्मेदार जीन में म्यूटेशन होने से मरने की बजाय कोशिकाएं विभाजन करने लगती हैं। उन्होंने यह भी बताया कि ये जीन मानव में भी पाए जाते हैं।

जब टैडपोल या कैटरपिलर को क्रमश: मेंढक और तितली (यानी वयस्क) में बदलने का समय आ जाता है तो उनकी अनेक कोशिकाओं को आत्महत्या के लिए मजबूर होना पड़ता है। टैडपोल के परिवर्धन में थायरॉइड हार्मोन की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। थायरॉइड हार्मोन वहां पर जुड़ जाता है जहां कोशिका के केन्द्रक में थायरॉइड ग्राही हो। थायरॉइड हार्मोन के जुड़ते ही कोशिका आत्मघात करने वाले जीन को अभिव्यवित करने लगती है। इसके साथ ही आत्मघात के आंतरिक एवं बाहरी रास्ते भी खुल जाते हैं।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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लंबे जीवन का रहस्य

लोगों से उनकी लंबी उम्र का राज़ पूछो तो वे इसका श्रेय अपने खान-पान, व्यायाम, नृत्य, दिमागी कसरत जैसी तमाम गतिविधियों को देते हैं। 109 वर्षीय जेसी गैलन से जब उनकी लंबी आयु का राज़ पूछा गया तो उन्होंने एक जवाब यह भी दिया कि वे पुरुषों से दूर रहती हैं। लेकिन किसी के मन में यह ख्याल नहीं आता कि इसमें गुणसूत्र (क्रोमोसोम) की भी भूमिका हो सकती है। इसी संदर्भ में हाल ही में बायोलॉजी लेटर्स में प्रकाशित एक अध्ययन बताता है कि असमान लैंगिक गुणसूत्र वाले जीवों की तुलना में समान लैंगिक गुणसूत्र वाले जीव अधिक जीते हैं।

अधिकतर जानवरों में नर और मादा का निर्धारण लैंगिक गुणसूत्रों से होता है। स्तनधारियों में, मादाओं में दोनों लैंगिक गुणसूत्र समान (XX) होते हैं जबकि नर में असमान (XY) होते हैं। पक्षियों में नर में लैंगिक गुणसूत्र समान (ZZ) होते हैं जबकि मादा में असमान (ZW) होते हैं। नर ऑक्टोपस जैसे कुछ जीवों में एक ही लैंगिक गुणसूत्र होता है। 

युनिवर्सिटी ऑफ न्यू साउथ वेल्स के इकॉलॉजिस्ट ज़ो ज़ाइरोकोस्टास और उनके साथी जानना चाहते थे कि क्या असमान लैंगिक गुणसूत्र (जैसे XY) वाले जीवों में आनुवंशिक उत्परिवर्तनों का खतरा अधिक होता है, जिसके कारण उनका जीवन काल छोटा हो जाता है? शोधकर्ताओं ने वैज्ञानिक शोध पत्रों, किताबों और ऑनलाइन डैटाबेस को खंगाला और लैंगिक गुणसूत्र और आयु सम्बंधी डैटा निकाला। उन्होंने 99 कुल, 38 गण और 8 वर्गों की 229 प्रजातियों के नर और मादाओं के जीवन काल की तुलना की। उन्होंने पाया कि किसी भी प्रजाति में समान लैंगिक गुणसूत्र वाले लिंग का जीवन काल 17.6 प्रतिशत तक अधिक होता है। जीवन काल का यह पैटर्न मनुष्यों, जंगली जानवरों और पालतू जानवरों में दिखाई दिया।

शोधकर्ताओं का कहना है कि लिंगों के बीच जीवन काल का यह अंतर विभिन्न प्रजातियों में अलग-अलग होता है। जैसे जर्मन कॉकरोच (Blattellagermanica प्रजाति) के नर (सिर्फ X) की तुलना में मादा (XX) 77 प्रतिशत अधिक जीवित रहती है। यह अंतर इस बात पर भी निर्भर करता है कि समान लैंगिक गुणसूत्र वाला जीव नर है या मादा। अध्ययन में उन्होंने पाया कि समान लैंगिक गुणसूत्र वाली मादा (स्तनधारी, सरीसृप, कीट और मछलियां) अपनी प्रजाति के नर की तुलना में 20.9 प्रतिशत अधिक समय तक जीवित रहती हैं। दूसरी ओर, समान लैंगिक गुणसूत्र वाले नर (पक्षी और तितलियां) अपनी प्रजाति की मादाओं की तुलना में सिर्फ 7 प्रतिशत ही अधिक जीते हैं।

शोधकर्ताओं का कहना है कि समान लैंगिक गुणसूत्र वाले नर और मादा के जीवन काल में फर्क देखकर लगता है कि दीर्घायु को लैंगिक गुणसूत्र के अलावा अन्य कारक भी प्रभावित करते हैं। इनमें से एक कारक हो सकता है प्रजनन-साथी चयन का दबाव। मादाओं को रिझाने के लिए कुछ प्रजातियों के नर की शारीरिक बनावट और व्यवहार आकर्षक होते हैं, जिसके लिए उन्हें काफी ऊर्जा खर्च करनी पड़ती है जिसका खामियाज़ा उनके स्वास्थ्य को भुगतना पड़ता है और जिससे उनकी मृत्यु जल्दी हो जाती है।

आगे शोध से यह समझने में मदद मिलेगी कि लैंगिक गुणसूत्र जीवन काल को कैसे प्रभावित करते हैं। जैसे क्या एक लैंगिक-गुणसूत्र का छोटा आकार नर और मादाओं की आयु में अंतर के लिए जि़म्मेदार है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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एम्बर में सुरक्षित मिला डायनासौर का सिर

गभग दस करोड़ वर्ष पुराने एम्बर में अब तक पाए गए सबसे छोटे डायनासौर का सिर सुरक्षित मिला है। रेजि़न में फंसा यह सिर (चोंच सहित) लगभग 14 मिलीमीटर का है। इससे लगता है कि यह डायनासौर बी-हमिंगबर्ड जितना बड़ा रहा होगा। यह सिर जिस डायनासौर समूह का है, माना जाता है कि उससे आधुनिक पक्षियों का विकास हुआ है।

म्यांमार से प्राप्त इस जीवाश्म को ओकुलुडेंटेविस खौंगरेई यानी आई-टूथ बर्ड का नाम दिया गया है। आधुनिक छिपकली की तरह, इसके सिर के दोनों ओर बड़ी-बड़ी आंखें हैं। और इसकी आंखों का छिद्र छोटा है जो आंखों में प्रवेश करने वाली रोशनी को सीमित करता है। इससे लगता है कि यह जानवर दिन में सक्रिय रहता था।

आदिम पक्षियों की तरह ओकुलुडेंटेविस के ऊपरी और निचले जबड़े में नुकीले दांत थे, जिससे लगता है कि यह एक शिकारी जीव था जो कीटों और छोटे अकशेरुकी जीवों का शिकार करता था। नेचर पत्रिका में प्रकाशित शोध में शोधकर्ताओं को लगता है कि डायनासौर की यह प्रजाति द्वीपीय बौनेपन का एक उदाहरण है, जो टापुओं की उस अर्ध वलय पर रहते थे जहां वर्तमान म्यांमार स्थित है।

शोधकर्ताओं का कहना है कि शरीर के बाकी हिस्सों के बिना पक्के तौर पर यह नहीं कहा जा सकता कि ओकुलुडेंटेविस अन्य डायनासौर से कितना करीबी था, या वह उड़ सकता था या नहीं। लेकिन उन्हें लगता है कि यह शायद आर्कियोप्टेरिक्स और जेहोलॉर्निस प्रजाति के पक्षियों के समान है जो लगभग 15 से 12 करोड़ वर्ष पूर्व अस्तित्व में थे।(स्रोत फीचर्स)

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प्राचीन एम्बर: सुरक्षित मिला तिलचट्टा

म्बर (जीवाश्मित रेजि़न) में तिलचट्टों का मल सुरक्षित मिलना तो काफी आम है। लेकिन उत्तरी म्यांमार की हुकॉन्ग घाटी से बरामद किए गए करीब 1 करोड़ वर्ष पुराने एम्बर नमूनों में तिलचट्टा (कॉकरोच) और उसका मल दोनों साथ मिले हैं। एम्बर में किसी जीव का मल और सम्बंधित जीव दोनों का साथ मिलना काफी दुर्लभ है।

नेचरविसेनशाफ्टेन (प्रकृति विज्ञान) में प्रकाशित अध्ययन में शोधकर्ताओं ने मल का बहुत बारीकी से अवलोकन किया है। उन्हें कॉकरोच की विष्ठा में संरक्षित परागकण दिखे, जिससे पता चलता है कि साइकस वृक्षों के परागण में तिलचट्टों की महत्वपूर्ण भूमिका थी। (साइकस वृक्षों से ऐसा रस निकलता है जिसमें यह बदकिस्मत कॉचरोच फंस गया।) विष्ठा में शोधकर्ताओं को प्रोटोज़ोआ और बैक्टीरिया भी मिले हैं जो आजकल की दीमक और कॉकरोच की आंतों में पाए जाने वाले सूक्ष्मजीवों से मिलते-जुलते हैं, जिससे लगता है कि कीट और उनकी आंत के सूक्ष्मजीवों का साथ लगभग एक करोड़ वर्ष पहले से है।

वैज्ञानिकों को उम्मीद है कि यह अध्ययन अन्य वैज्ञानिकों को रेजि़न में फंसे जीवों की ही नहीं बल्कि उनकी विष्ठा का भी बारीकी से पड़ताल करने को प्रोत्साहित करेगा।(स्रोत फीचर्स)

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हवा में से बिजली पैदा करते बैक्टीरिया

क ताज़ा अध्ययन में पता चला है कि कुछ बैक्टीरिया ऐसे नैनो (अति-सूक्ष्म) तार बनाते हैं जिनमें से होकर बिजली बहती है, हालांकि अभी शोधकर्ता यह नहीं जानते कि इस बिजली का स्रोत क्या है। वैसे एक बात पक्की है कि ये बैक्टीरिया और उनके द्वारा बनाए गए नैनो तार बिजली का उत्पादन तब तक ही करते हैं, जब तक कि हवा में नमी हो। दरअसल ये नैनो तार और कुछ नहीं, प्रोटीन के तंतु हैं जो इलेक्ट्रॉन्स को बैक्टीरिया से दूर ले जाते हैं। इलेक्ट्रॉन का प्रवाह ही तो बिजली है।

यह देखा गया है कि जब पानी की सूक्ष्म बूंदें ग्रेफीन या कुछ अन्य पदार्थों के साथ अंतर्क्रिया करती हैं तो विद्युत आवेश पैदा होता है और इन पदार्थों में से इलेक्ट्रॉन का प्रवाह होने लगता है। लगभग 15 वर्ष पूर्व मैसाचुसेट्स विश्वविद्यालय के सूक्ष्मजीव वैज्ञानिक डेरेक लवली ने खोज की थी कि जियोबैक्टर नामक बैक्टीरिया इलेक्ट्रॉन्स को कार्बनिक पदार्थों से धात्विक यौगिकों (जैसे लौह ऑक्साइड) की ओर ले जाता है। उसके बाद यह पता चला कि कई अन्य बैक्टीरिया हैं जो ऐसे प्रोटीन नैनो तार बनाते हैं जिनके ज़रिए वे इलेक्ट्रॉन्स को अन्य बैक्टीरिया या अपने परिवेश में उपस्थित तलछट तक पहुंचाते हैं। इस प्रक्रिया के दौरान बिजली पैदा होती है।

फिर लगभग 2 वर्ष पहले एक शोधकर्ता ने पाया कि इन नैनो तारों को बैक्टीरिया से अलग कर दिया जाए, तो भी इनमें विद्युत धारा पैदा होती रहती है। देखा गया कि जब नैनो तारों से बनी एक झिल्ली को सोने की दो चकतियों के बीच सैंडविच कर दिया जाता है, तो इस व्यवस्था में से 20 घंटे तक बिजली मिलती रहती है। इस व्यवस्था में जुगाड़ यह करना पड़ता है कि ऊपर वाली तश्तरी थोड़ी छोटी हो ताकि नैनो तार की झिल्ली नम हवा के संपर्क में रहे।

शोधकर्ताओं को इतना तो समझ में आ गया कि इलेक्ट्रॉन का स्रोत सोने की चकती नहीं है क्योंकि कार्बन चकतियों ने भी यही असर पैदा किया, जबकि कार्बन आसानी इलेक्ट्रॉन से नहीं छोड़ता। दूसरी संभावना यह हो सकती थी कि नैनो तार विघटित हो रहे हैं लेकिन पता चला कि वह भी नहीं हो रहा है। तीसरा विचार था कि हो न हो, यह प्रकाश विद्युत प्रभाव के कारण काम कर रहा है लेकिन यह विचार भी निरस्त करना पड़ा क्योंकि बिजली तो अंधेरे में भी बहती रही। अंतत: लगता है कि शायद नमी ही बिजली का स्रोत है। नेचर में प्रकाशित शोध पत्र में शोधकर्ताओं ने कयास लगाया है कि संभवत: पानी के विघटन के कारण बिजली बन रही है।

अब शोधकर्ताओं ने जियोबैक्टर के स्थान पर आसानी से मिलने व वृद्धि करने वाले बैक्टीरिया ई. कोली की मदद से यह जुगाड़ जमाने में सफलता प्राप्त कर ली है। यह इतनी बिजली देता है कि मोबाइल फोन जैसे उपकरणों का काम चल सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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सत्रहवीं शताब्दी की पहेली भंवरे की मदद से सुलझी

साल 1688 में एक आयरिश दार्शनिक विलियम मोलेनो ने अपने सहयोगी जॉन लॉके से एक सवाल पूछा था: कोई जन्मजात दृष्टिहीन व्यक्ति जिसने मात्र स्पर्श से चीज़ों को पहचानना सीखा है, यदि आगे चलकर उसमें देखने की क्षमता आ जाए, तो क्या वह सिर्फ देखकर चीज़ों को पहचान पाएगा? उनका यह सवाल मोलेनो समस्या के नाम से जाना जाता है। सवाल मूलत: यह है कि क्या मनुष्य में आकृतियां पहचानने की क्षमता जन्मजात होती है या क्या वे देखकर, स्पर्श से और अन्य इंद्रियों के माध्यम से इसे सीखते या अर्जित करते हैं? यदि दूसरा विकल्प सही है, तो इसमें बहुत समय लगना चाहिए।

कुछ वर्ष पूर्व इस गुत्थी को सुलझाने के एक प्रयास में कुछ ऐसे बच्चे शामिल किए गए थे जो जन्म से अंधे थे लेकिन बाद में उनकी दृष्टि बहाल हो गई थी। ये बच्चे तत्काल तो देखकर आकृतियां नहीं पहचान पाए थे लेकिन बहुत समय भी नहीं लगा था। लेकिन कुछ तो सीखना पड़ा था। यानी परिणाम अस्पष्ट थे। हाल ही में लंदन स्थित क्वीन मैरी युनिवर्सिटी के लार्स चिटका और उनके साथियों ने इस सवाल का जवाब खोजने की कोशिश एक बार फिर से की है।

प्रयोग भंवरों पर किया गया। अपने अध्ययन में उन्होंने पहले भंवरों को उजाले में गोले और घन में अंतर सीखने का प्रशिक्षण दिया – उजाले में, दो बंद पेट्री डिश में गोले और घन आकृतियां रखी गर्इं और उनमें से किसी एक को चुनने पर शकर का इनाम दिया गया। गोले और घन बंद पेट्री डिश में रखे थे इसलिए भंवरे उन्हें देख तो सकते थे लेकिन छू नहीं सकते थे। देखा गया कि भंवरे उस आकृति के साथ ज़्यादा समय बिताते हैं, जिसका सम्बंध शकर रूपी इनाम से है; यानी वे उस आकृति को पहचानते हैं।

इसके बाद उन्होंने यही जांच अंधेरे में की। यानी भंवरे वस्तुओं को छू तो सकते थे लेकिन देख नहीं सकते थे। शोधकर्ताओं ने पाया कि जिस आकृति के लिए भंवरों को शकर का पुरस्कार मिला था, उस आकृति के साथ भंवरों ने अधिक समय बिताया।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने यही अध्ययन उल्टी तरह से किया – पहले उन्हें अंधेरे में प्रशिक्षित किया और उजाले में जांच की। इसमें भी, दोनों ही स्थितियों में जहां उन्हें वस्तु छूकर पहचानना था या देखकर, जिस आकृति के लिए भंवरों को शकर दी गई थी उस आकृति के पास अधिक वक्त बिताया।

कीटों में दृश्य पैटर्न को पहचानने की क्षमता का काफी अध्ययन हुआ है। शोधकर्ताओं को यह तो पहले से पता था कि कीट फूलों और मनुष्य के चेहरों के पेचीदा रंग-विन्यास को पहचान सकते हैं। लेकिन विन्यास पहचान के लिए ज़रूरी नहीं है कि मस्तिष्क में उस विन्यास का कोई चित्र बने। तो सवाल यह था कि क्या हमारे मस्तिष्क के समान कीटों के मस्तिष्क में भी वस्तु का कोई चित्रण बनता है।

लेकिन शोधकर्ताओं का मत है कि उनके अध्ययन में ये कीट एक किस्म की संवेदना से प्राप्त सूचना को किसी अन्य किस्म की संवेदना में तबदील करके वस्तु का चित्रण कर पाए। इसके आधार पर उनका कहना है कि इन भंवरों ने मोलेनो के सवाल का जवाब दे दिया है। अर्थात एक किस्म की संवेदना से निर्मित चित्र दूसरे किस्म की संवेदना द्वारा इस्तेमाल किया जा सकता है।

अलबत्ता, अन्य वैज्ञानिक इस प्रयोग की वास्तविक दुनिया में वैधता के बारे में शंकित हैं। जैसे भंवरे फूलों को पहचानने के लिए दृष्टि और गंध दोनों संकेतों पर निर्भर होते हैं। इसलिए ऐसे अध्ययन करना होंगे जो भंवरों की प्राकृतिक स्थिति से मेल खाएं। (स्रोत फीचर्स)

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तोतों में मनुष्यों के समान अंदाज़ लगाने की क्षमता

नुष्यों में अनुभवों, जानकारियों और आंकड़ों के आधार पर निर्णय लेने की क्षमता होती है। हाल के एक अध्ययन में सामने आया है कि न्यूज़ीलैंड में पाए जाने वाले किआ तोते भी ऐसा कर सकते हैं। वानरों के अलावा किसी अन्य प्रजाति में पहली बार इस तरह का संज्ञान देखा गया है।

जैतूनी भूरे रंग के ये तोते अपनी हरकतों के लिए बदनाम हैं। अतीत में ये चोंच का छुरी की तरह उपयोग कर भेड़ों की चमड़ी को भेदते हुए उनकी रीढ़ की हड्डी के इर्द-गिर्द जमा वसा तक पहुंच जाते थे। आजकल ये खाने के सामान के लिए लोगों के पिट्ठू बैग को चीर देते हैं, और कार के वाइपर निकाल देते हैं।

यह देखने के लिए कि क्या किआ तोतों की शैतानी के साथ बुद्धिमत्ता जुड़ी है, युनिवर्सिटी ऑफ ऑकलैंड की मनोविज्ञानी एमालिया बास्टोस और उनके साथियों ने न्यूज़ीलैंड के क्राइस्टचर्च के पास स्थित अभयारण्य के छह किआ तोतों का अध्ययन किया। पहले तो शोधकर्ताओं ने तोतों को यह सिखाया कि काले रंग का टोकन चुनने पर हमेशा स्वादिष्ट भोजन मिलता है जबकि नारंगी टोकन से कभी भोजन नहीं मिलता। फिर उनके सामने पारदर्शी मर्तबानों में काले और नारंगी रंग के टोकन रखे गए। जब शोधकर्ताओं ने बंद मुट्ठी में मर्तबान से टोकन निकाले तब किआ तोते ने अधिकतर उन हाथों को चुना जिन्होंने उस मर्तबान से टोकन निकाले थे जिनमें नारंगी टोकन की तुलना में काले टोकन अधिक थे। ऐसा उन्होंने तब भी किया जब मर्तबानों में काले और नारंगी टोकन के बीच अंतर बहुत कम था (63 काले और 57 नारंगी)।

अगले परीक्षण में शोधकर्ताओं ने किआ तोतों के सामने दो पारदर्शी मर्तबान में दोनों रंगों के टोकन बराबर संख्या में रखे। लेकिन मर्तबानों को एक शीट की मदद से ऊपरी व निचले दो हिस्सों में बांटा गया था। हालांकि दोनों मर्तबानों में काले व नारंगी टोकन बराबर संख्या में थे लेकिन एक में ऊपर वाले खंड में ज़्यादा काले टोकन थे। शोधकर्ता मात्र ऊपर वाले खंड में हाथ डाल सकता था। इस स्थिति में किआ ने उन हाथों को चुना जिन्होंने उस मर्तबान से टोकन निकाले जिसके ऊपरी हिस्से में काले टोकन अधिक थे। इसके बाद किए गए अंतिम परीक्षण में भी किआ तोते ने उस शोधकर्ता के हाथ से टोकन लेना ज़्यादा पसंद किया जिसने काले टोकन अधिक बार निकाले थे।

इन परीक्षणों के आधार पर नेचर कम्युनिकेशन पत्रिका में शोधकर्ताओं का कहना है कि किआ तोतों में आंकड़ों के आधार पर अनुमान लगाने की क्षमता होती है। इससे लगता है कि मनुष्यों की तरह किआ में भी कई किस्म की सूचनाओं को एकीकृत करने की बौद्धिक क्षमता होती है। गौरतलब है कि पक्षियों और मनुष्यों के साझे पूर्वज लगभग 31 करोड़ वर्ष पूर्व थे, और दोनों की मस्तिष्क की संरचना भी काफी अलग है। एक मत यह रहा है कि इस तरह की बुद्धि के लिए भाषा की ज़रूरत होती है।

अलबत्ता, हार्वड युनिवर्सिटी की तोता संज्ञान विशेषज्ञ आइरीन पेपरबर्ग को लगता है कि किआ ने सहज ज्ञान का प्रदर्शन किया है ना कि सांख्यिकीय समझ का। लेकिन उन्हें यह भी लगता है यदि किआ में सांख्यिकीय अनुमान लगाने की क्षमता होती है तो इस तरह की क्षमता से लैस जानवर भोजन की मात्रा की उपलब्धता और प्रजनन-साथियों की संख्या का अंदाज़ा लगा पाएंगे जो फायदेमंद होगा। (स्रोत फीचर्स)

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भेड़ियों की नई प्रजाति विकसित हुई

पृथ्वी के सबसे ऊंचे पहाड़ों के घास के मैदानों में विशेष प्रकार के भेड़िए पाए जाते हैं। उत्तरी भारत, नेपाल, और चीन में पाए जाने वाले ये भेड़िए अपनी लंबी थूथन, हल्के रंग की ऊनी खाल और मोटी आवाज़ के लिए जाने जाते हैं। लेकिन हालिया अध्ययन से पता चला है कि ये रंग-रूप में ही नहीं बल्कि आसपास के इलाकों में पाए जाने वाले अन्य मटमैले भेड़ियों से जेनेटिक रूप से भी अलग हैं। ये जेनेटिक परिवर्तन उनको 4000 मीटर ऊंचाई की विरल हवा में जीने में मदद करते हैं।

इस अध्ययन के प्रमुख और कैलिफोर्निया युनिवर्सिटी के कैनाइन विकास विशेषज्ञ बेन सैक्स के अनुसार यह इन हिमालयी भेड़ियों को विशिष्ट बताने वाले प्रथम प्रमाण हैं। यह खोज  इस बात का समर्थन करती है कि इन्हें एक अलग प्रजाति के रूप में पहचाना जाना चाहिए। नए अध्ययन से यह भी पता चला है कि इस भेड़िए का इलाका पहले के अनुमान से दुगना है।  

हिमालयी भेड़िए अन्य मटमैले भेड़ियों की तुलना में अधिक ऊंचाई पर रहते हैं और इनकी आदतें भी अलग हैं। ये पूर्वी चीन, मंगोलिया और किर्गिज़स्तान के इलाकों में पाए जाते हैं। मटमैले भेड़िए जहां चूहे, गिलहरी आदि जीवों का शिकार करते हैं वहीं हिमालयी भेड़िए इनके साथ कभी-कभी तिब्बती चिकारों का भी शिकार करते हैं। इनकी गुर्राहट मटमैले भेड़ियों की तुलना में छोटी अवधि की और भारी आवाज़ वाली होती है।  

अब किर्गिज़स्तान, चीन के तिब्बतीय पठार और ताजीकस्तान के भेड़ियों के मल से प्राप्त नमूनों के विश्लेषण से इनके एक अलग नस्ल होने का जेनेटिक प्रमाण मिला है। शोधकर्ताओं ने 86 हिमालयी भेड़ियों के मल में डीएनए का अध्ययन किया। विश्लेषण से पता चला कि मटमैले भेड़ियों की तुलना में हिमालयी भेड़ियों में कुछ विशेष जीन होते हैं जो उन्हें ऑक्सीजन की कमी से निपटने में मदद करते हैं। ये जीन उनके ह्मदय को भी मज़बूत करते हैं और रक्त के ज़रिए ऑक्सीजन के प्रवाह को बढ़ाते हैं। जर्नल ऑफ बायोजियोग्राफी में प्रकाशित शोध पत्र के अनुसार इसी प्रकार के अनुकूलन तिब्बती लोगों और उनके पालतू कुत्तों और याक में भी पाए जाते हैं।  

शोधकर्ताओं के अनुसार ऊंचे इलाकों में रहने वाले इस जीव को एक अलग प्रजाति के रूप में देखा जाना चाहिए। कम से कम, इसे जैव विकास की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण इकाई तो माना ही जाना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्यों करती है व्हेल हज़ारों किलोमीटर का प्रवास

वैज्ञानिकों को समझ नहीं आता था कि तमाम किस्म की व्हेल – हम्पबैक, ब्लू व्हेल, स्पर्म व्हेल और किलर व्हेल – हर साल हज़ारों किलोमीटर की प्रवास यात्राएं क्यों करती हैं। ये व्हेल आर्कटिक और अंटार्कटिक के अपने सामान्य भोजन स्थल से कई हज़ार कि.मी. दूर गर्म समुद्रों में प्रवास करती हैं। आने-जाने में यह यात्रा करीब 18,000 कि.मी. की होती है।

पहले कुछ वैज्ञानिकों ने सुझाया था कि शायद ये व्हेल प्रजनन हेतु प्रवास करती हैं। उनका कहना था कि आर्कटिक और अंटार्कटिक में कई शिकारी पाए जाते हैं, जिसकी वजह से यहां बच्चे पैदा करना खतरे से खाली नहीं है। लेकिन इनके प्रवास के सही कारण का पता करने हेतु हाल ही में किए गए अध्ययन से पता चला है कि ये व्हेल प्रजनन हेतु नहीं बल्कि अपनी त्वचा को स्वस्थ रखने हेतु प्रवास करती हैं।

ओरेगन विश्वविद्यालय के मरीन मैमल्स इंस्टिट्यूट के रॉबर्ट पिटमैन और उनके साथियों ने चार किस्म की किलर व्हेल पर 62 उपग्रह बिल्ले चस्पा कर दिए जिनकी मदद से वे इनकी गतिविधियों पर नज़र रख सकते थे। दक्षिणी गोलार्ध की 8 गर्मियों तक नज़र रखने के बाद शोधकर्ताओं ने निष्कर्ष निकाला कि ये व्हेल पश्चिमी दक्षिण अटलांटिक महासागर तक 9400 कि.मी. की यात्रा करती हैं। लेकिन वे यह यात्रा प्रजनन के लिए नहीं करतीं क्योंकि तस्वीरों में साफ दिख रहा था कि उनके नवजात शिशु तो अंटार्कटिक महासागर में अठखेलियां कर रहे थे। यानी प्रजनन हेतु प्रवास की परिकल्पना सही नहीं है।

शोधकर्ता जानते थे कि मनुष्यों के समान व्हेल की त्वचा की कोशिकाएं भी लगातार झड़ती रहती हैं। यह झड़ना इतना अधिक होता है कि आप सिर्फ झड़ी हुई कोशिकाओं की लकीर देखकर पता कर सकते हैं कि व्हेल किस ओर गई है। लेकिन व्हेल के सामान्य निवास अंटार्कटिक का पानी बहुत ठंडा होता है जिसकी वजह से शायद व्हेल की त्वचा की कोशिकाएं झड़ नहीं पाती हैं। इन कोशिकाओं पर डायटम नामक सूक्ष्मजीवों की मोटी परत बन जाती है जहां बैक्टीरिया वगैरह घर बना लेते हैं। यह व्हेल के लिए हानिकारक होता है। पिटमैन का कहना है कि व्हेल इतनी लंबी यात्रा गर्म समुद्रों में कोशिकाओं की इस परत और बैक्टीरिया से छुटकारा पाने के लिए करती हैं। वैसे कुछ शोधकर्ताओं ने 2012 में सुझाया था कि अंटार्कटिक के ठंडे पानी में शरीर की गर्मी को बचाने के लिए किलर व्हेल खून का प्रवाह चमड़ी से थोड़ा दूर अंदर की ओर कर देती हैं। इसकी वजह से त्वचा की कोशिकाओं का पुनर्निर्माण रुक-सा जाता है। इसी वजह से अंतत: व्हेल गर्म पानी की ओर चल पड़ती हैं जहां उनकी शरीर क्रियाएं और त्वचा का झड़ना और पुनर्निर्माण तेज़ हो जाता है। मरीन मैमल साइन्स में प्रकाशित नए अध्ययन के आधार पर सुझाया गया है कि सिर्फ किलर व्हेल ही नहीं बल्कि तमाम किस्म की व्हेल त्वचा-मोचन के लिए यात्रा करती हैं। वैसे देखा जाए तो यह भी अभी एक परिकल्पना ही है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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नींद को समझने में छिपकली की मदद

नींद की उत्पत्ति को समझते हुए वैज्ञानिकों ने ऑस्ट्रेलिया की एक छिपकली में कुछ महत्वपूर्ण सुराग हासिल किए हैं। ऑस्ट्रेलियन दढ़ियल ड्रेगन (Pogona vitticeps) में नींद से जुड़े तंत्रिका संकेतों को देखकर शोधकर्ताओं ने निष्कर्ष निकाला है कि जटिल नींद का विकास शायद पक्षियों और स्तनधारियों से बहुत पहले हो चुका था। और उनका मानना है कि यह अनुसंधान मनुष्यों को चैन की नींद सुलाने में मददगार साबित होगा।

गौरतलब है कि पक्षियों और स्तनधारियों में नींद दो प्रकार की होती है। एक है रैपिड आई मूवमेंट (REM) नींद जिसके दौरान आंखें फड़फड़ाती हैं, विद्युत गतिविधि मस्तिष्क में गति करती है और मनुष्यों में सपने आते हैं। ङकग् नींद के बीच-बीच में ‘धीमी तरंग’ नींद होती है। इस दौरान मस्तिष्क की क्रियाएं धीमी पड़ जाती हैं और विद्युत सक्रियता एक लय में चलती हैं। कुछ अध्ययनों से पता चला है कि इस हल्की-फुल्की नींद के दौरान स्मृतियों का निर्माण होता है और उन्हें सहेजा जाता है।

2016 में मैक्स प्लैंक इंस्टिट्यूट फॉर ब्रेन रिसर्च के गिल्स लॉरेन्ट ने खोज की थी कि सरिसृपों में भी दो तरह की नींद पाई जाती है। हर 40 सेकंड में दढ़ियल ड्रेगन इन दो नींद के बीच डोलता है। लेकिन यह पता नहीं लग पाया था कि मस्तिष्क का कौन-सा हिस्सा इन दो तरह की नींदों का संचालन करता है। लॉरेन्ट की टीम ने दढ़ियल ड्रेगन के मस्तिष्क की पतली कटानों में इलेक्ट्रोड्स की मदद से देखने की कोशिश की कि कौन-सी विद्युतीय गतिविधि धीमी तरंग नींद से सम्बंधित है। गौरतलब है कि ऐसी विद्युतीय सक्रियता मृत्यु के बाद भी जारी रह सकती है।

पता चला कि ड्रेगन के मस्तिष्क के अगले भाग में विद्युत क्रिया होती है। यह एक हिस्सा है जिसका कार्य अज्ञात था। और इसके बाद एक अनपेक्षित मददगार बात सामने आई।

लॉरेन्ट के कुछ शोध छात्र छिपकली के मस्तिष्क के विभिन्न हिस्सों में जीन्स की सक्रियता की तुलना चूहों के मस्तिष्क में जीन अभिव्यक्ति से करने की कोशिश कर रहे थे। उन्होंने पाया कि छिपकली के मस्तिष्क का जो हिस्सा धीमी तरंग नींद पैदा करने के लिए ज़िम्मेदार है उसमें जीन्स की सक्रियता चूहों के दिमाग के उस हिस्से से मेल खाती है जिसे क्लॉस्ट्रम कहते हैं। जीन अभिव्यक्ति में इस समानता से संकेत मिला कि संभवत: सरिसृपों में भी क्लॉस्ट्रम पाया जाता है। लॉरेन्ट का कहना है कि क्लॉस्ट्रम नींद को शुरू या खत्म नहीं करता बल्कि मस्तिष्क में नींद के केंद्र से संकेत ग्रहण करता है और फिर पूरे दिमाग में धीमी तरंगें प्रसारित करता है।

चूंकि सरिसृपों में भी क्लॉस्ट्रम पाया गया है, इसलिए ये जंतु नींद के अध्ययन के लिए अच्छे मॉडल का काम कर सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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