मई, 2024 में नेचर पत्रिका में एक लेख प्रकाशित हुआ था जिसका शीर्षक था: ‘सुमात्रा के एक नर ओरांगुटान द्वारा जैविक रूप से सक्रिय पौधे से चेहरे के घाव का सायास स्व-उपचार’ (‘Active self-treatment of a facial wound with a biologically active plant by a male Sumatran orangutan’)।
इस शोधपत्र में मैक्स प्लांक इंस्टीट्यूट ऑफ एनिमल बिहेवियर [Animal Behavior Research] की इसाबेल लॉमर और उनके साथियों ने बताया था कि इंडोनेशिया में इस प्रायमेट जंतु [Primates in Indonesia] ने किस तरह एक स्थानीय पौधे फाइब्रौरिया टिंक्टोरिया का लुग्दीनुमा लेप बनाया और इसे अपने चेहरे के घाव पर लगाकर घाव का इलाज किया।
इसी तरह 2012 में नेचर पत्रिका में मैट कापलान ने एक लेख प्रकाशित किया था जिसका शीर्षक था: ‘(स्वस्थ रहने के लिए) निएंडरथल हरी पत्तेदार सब्ज़ियां खाते हैं’ (Neanderthals ate their greens)। इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने उत्तरी स्पेन के कुछ निएंडरथलों के दांतों के प्लाक का विश्लेषण किया और पाया कि वे संक्रमण वगैरह से निजात पाने और सामान्य स्वास्थ्य के लिए येरो (संभवत: सहस्रपर्णी) और कैमोमाइल जैसे पौधों का इस्तेमाल करते थे।
ऐसे कई पौधों का इस्तेमाल दुनिया भर के लोगों द्वारा पारंपरिक चिकित्सा [Traditional Medicine] में, संक्रमण से उबरने के लिए और स्वस्थ रहने के लिए किया जाता है। मार्च 2009 के रेज़ोनेंस के अंक में आर. रमन और एस. कंदुला की एक विस्तृत समीक्षा प्रकाशित हुई थी, जो बताती है कि पेनसिल्वेनिया विश्वविद्यालय के पारिस्थितिकीविद डी. एच. जैनज़ेन ने एक शब्द गढ़ा था ‘ज़ुओफार्मेकोग्नॉसी’। (यानी जंतुओं द्वारा औषधीय गुणों वाली वनस्पतियों, कीटों या मिट्टी से स्वयं का उपचार करने का व्यवहार)। डी. एच. जैनज़ेन वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने उन जंतुओं की सूची तैयार की थी जो विशिष्ट पौधों, मिट्टी या कीटों को खाकर या उनका लेप लगाकर खुद का उपचार कर लेते हैं।
ब्राज़ील के बाहिया के डॉ. ई. एम. कोस्टा-नेटो ने 2012 में एनवायरमेंटल साइंस, बायोलॉजी [Environmental Science, Biology] में ‘ज़ुओफार्मेकोग्नॉसी: जानवरों का स्व-उपचार का व्यवहार’ (Zoopharmacognosy: the self-medication behaviour of animals)’ शीर्षक से, और बाल्टीमोर के जोएल शर्किन ने प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में कई ऐसे पौधों और उनकी जड़ों, पत्तियों और फलों की सूची प्रकाशित की है जिन्हें वानर, बंदर, बारहसिंगा, भालू और कुछ पक्षी (स्टारलिंग) स्वस्थ रहने के लिए खाते हैं। कुत्ते पेट के संक्रमण से छुटकारा पाने के लिए घास खाकर और उसे उल्टी करके खुद को ठीक करते हैं। गर्भवती लीमर दूध बनने में सहायता के लिए इमली के पत्ते कुतरती हैं, और केन्या में गर्भवती हथिनी प्रसव को शुरू करने के लिए बोरागिनेसी कुल के कुछ पौधों की पत्तियां खाती हैं।
रोमन प्रकृतिविद प्लिनी ने 2000 वर्ष पहले बताया था कि कई जानवरों ने कुछ पौधों के चिकित्सीय/औषधीय गुण [Medicinal Properties] खोजे थे, जो स्थानीय लोगों के लिए उपयोगी ज्ञान बन गया। इनमें से कई औषधीय पौधों के बारे में अफ्रीका, मिस्र, मध्य पूर्व, भारत और चीन में 3000 से अधिक वर्ष पहले से पता है, और आज भी इनका उपयोग किया जाता है।
पारंपरिक दवाएं
सुमात्रा के ओरांगुटान द्वारा घाव भरने में इस्तेमाल किए जाने वाले औषधीय पौधे फाइब्रौरिया टिंक्टोरिया में शोथ-रोधी अणु बर्बेराइन होता है। इस पौधे का स्थानीय नाम ‘अकर कुन्यी’ है, और इसका उपयोग वहां की पारंपरिक चिकित्सा [Traditional Medicine in Sumatra] में किया जाता है। दक्षिणी उपोष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में, इसी पौधे जैसा कनेर (ओलिएंडर) पौधा मिलता है, जिसका उपयोग पीलिया के उपचार [Jaundice Treatment] में किया जाता है। भारत में और एशिया व अफ्रीका के कई हिस्सों में पाई जाने वाले ग्वारपाठा (एलो वेरा) में रोगाणु-रोधी, शोध-रोधी और घाव भरने वाले गुण होते हैं।
कई सभ्यताओं ने हज़ारों वर्षों से प्राकृतिक चिकित्सा प्रणालियों [Natural Medicine Systems] को समझा है/दर्ज किया है और उनका उपयोग किया है। चीन में पिछले 5000 वर्षों से झोंग्यी प्रणाली है, अरेबिया 4000 वर्षों से है और भारतीय आयुर्वेदिक चिकित्सा प्रणाली 5000 वर्षों से है। इन सभी में उपचार के लिए विभिन्न पौधों, फलों और जड़ों का उपयोग किया जाता है। जैसे सर्पगंधा (Rauwolfina serpentina), तुलसी, एलो वेरा, जंगली लहसुन, प्याज़, अजवायन, आर्टिचोक, कपूर, नारियल और अरंडी का तेल। च्यवनप्राश भारत में लोकप्रिय है; इसको बनाने का एक नुस्खा लगभग 700 ईसा पूर्व से चरक संहिता में दर्ज है। अब हम नए प्राकृतिक उत्पाद अणुओं के बारे में बताने के लिए जैव रसायनज्ञों और दवा कंपनियों [Biochemists and Pharmaceutical Companies] से उम्मीद रखते हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://th-i.thgim.com/public/incoming/d0xn4p/article68537183.ece/alternates/LANDSCAPE_1200/orangutan.jpg
मनुष्य सहित अधिकांश स्तनधारी प्राणियों में उम्र बढ़ने के साथ सुनने की क्षमता (hearing ability) क्षीण पड़ जाती है। लेकिन बड़े-भूरे चमगादड़ (big brown bats) (एप्टेसिकस फ्यूस्कस) इस मामले में अपवाद हैं। बायोआर्काइव (bioRxiv) में प्रकाशित हालिया शोध से पता चलता है कि ये चमगादड़ जीवन भर अपनी सुनने की क्षमता बनाए रखते हैं। इसका कारण संभवत: इकोलोकेशन (echolocation) (प्रतिध्वनि की मदद से स्थान निर्धारण) पर उनकी निर्भरता है। यह शोध मनुष्यों में श्रवण क्षमता के ह्रास (hearing loss) के उपचार में मदद कर सकता है।
गौरतलब है कि चमगादड़ों में दो उल्लेखनीय गुण होते हैं: एक है इकोलोकेशन, जो वस्तुओं से टकराकर वापस आईं ध्वनि तरंगों के माध्यम से मार्ग निर्धारण (navigation) करने और शिकार (hunting) करने में मदद करता है। और दूसरा, वे अपने आकार के हिसाब से असाधारण रूप से लंबा जीते हैं। अधिकांश छोटे स्तनधारियों का जीवनकाल (lifespan) छोटा होता है, लेकिन बड़े-भूरे चमगादड़ 19 साल तक जीवित रह सकते हैं, जो लगभग बराबर डील-डौल के चूहों से पांच गुना अधिक है।
इसी गुण के कारण वैज्ञानिक बुढ़ाने (aging) और सुनने की क्षमता की तुलना के लिए इन्हें शक्तिशाली मॉडल-जंतु (model organisms) के तौर पर देख रहे हैं। गौरतलब है कि चमगादड़ों की श्रवण प्रणाली (auditory system) मूलत: अन्य स्तनधारियों के समान ही होती है।
बड़े-भूरे चमगादड़ों की उम्र के साथ सुनने की क्षमता का पता लगाने के लिए जॉन हॉपकिंस यूनिवर्सिटी (Johns Hopkins University) की शोधकर्ता ग्रेस कैपशॉ (Grace Capshaw) और उनकी टीम ने 23 जंगली चमगादड़ों को युवा और बूढ़े समूहों में विभाजित किया, जिसमें छह साल की उम्र को विभाजन रेखा के रूप में इस्तेमाल किया गया। अध्ययन में अधिकतम संभव उम्र के करीब वाले चमगादड़ शामिल नहीं थे। चमगादड़ों की उम्र जेनेटिक विधि (genetic method) से निर्धारित की गई और श्रवण परीक्षण (hearing tests) लगभग वैसे ही किए गए जैसे मानव शिशुओं (human infants) पर किए जाते हैं। चमगादड़ों के सिर पर लगे इलेक्ट्रोड्स (electrodes) से विभिन्न ध्वनियों के जवाब में श्रवण तंत्रिका द्वारा उत्पन्न विद्युत संकेतों को मापा।
परिणामों से पता चला कि युवा और बूढ़े दोनों चमगादड़ सबसे धीमी ध्वनियों (low-frequency sounds) को समान रूप से अच्छी तरह से सुन सकते हैं, विशेष रूप से उन आवृत्तियों को जो वे इकोलोकेशन और संवाद में उपयोग करते हैं। मनुष्यों में अक्सर आंतरिक कान (कॉक्लिया) में रोम कोशिकाओं की मृत्यु के कारण सुनने की क्षमता क्षीण पड़ जाती है, जबकि इस अध्ययन में पाया गया कि सबसे बूढ़े चमगादड़ों में भी रोम कोशिकाएं और कॉक्लिया (cochlea) सलामत थे।
लेकिन सभी चमगादड़ प्रजातियां इतनी सौभाग्यशाली नहीं हैं। मसलन, मिस्र के रूसेटस एजिप्टियाकस (Rousettus aegyptiacus) चमगादड़ उम्र के साथ सुनने की क्षमता खो देते हैं। संभवत: इसका कारण यह है कि वे शिकार के लिए ध्वनि की अपेक्षा देखने (vision) पर अधिक निर्भर होते हैं।
बहरहाल, इन चमगादड़ों की असाधारण श्रवण क्षमता को पूरी तरह समझने के लिए और अधिक शोध की ज़रूरत है।(स्रोत फीचर्स)
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कई लोग जानते हैं कि कुत्ते हमारी भावनाओं, हमारे मूड को महसूस कर पाते हैं। संभव है कि उनकी यह क्षमता जन्मजात हो। हाल ही में एनिमलबिहेवियर में प्रकाशित अध्ययन बताता है कि उनमें यह क्षमता मनुष्यों के संग सह-विकास का परिणाम है।
यह तो देखा गया है कि घोड़े मनुष्यों की हंसी की तुलना में उनके गुर्राने पर अधिक गौर करते हैं। इसी प्रकार से, सूअर मनुष्यों की आवाज़ पर अधिक सशक्त प्रतिक्रिया देते हैं बजाय जंगली सूअरों की आवाज़ पर। लेकिन इस बात को बहुत कम समझा गया है कि जानवर केवल इंसानी ध्वनियों पर प्रतिक्रिया देते हैं, या वे उनके पीछे की भावनाओं को समझते भी हैं।
अधिकांश जानवर केवल अपनी प्रजाति के अन्य सदस्यों की भावनाओं को ही सटीकता से प्रतिध्वनित कर सकते हैं। लेकिन कुछ अध्ययन बताते हैं कि कुत्ते (Canis familiaris) अपने आसपास के लोगों की भावनाओं को हूबहू व्यक्त कर सकते हैं।
लेकिन एक सवाल यह उठता है कि क्या इस भावनात्मक ‘छूत’ का आधार ‘भावनाओं के सार्वभौमिक ध्वनि संकेतों’ में है जिन्हें सभी पालतू जानवर समझ सकते हैं, या यह विशेषता सिर्फ कुत्तों जैसे संगी जानवरों में है? इसका जवाब पाने के लिए शोधकर्ताओं ने मानव ध्वनियों के प्रति कुत्तों और पालतू सूअरों (Sus scrofa domesticus) की तनाव प्रतिक्रिया की तुलना की।
कुत्तों की तरह, पालतू सूअर भी सामाजिक जानवर होते हैं जिन्हें बचपन से ही पाला जाता है। इसलिए यदि भावनात्मक लगाव महज लोगों के साथ निकटता से सीखा जा सकता है, तो कुत्तों और पालतू सूअरों की इंसानी भावनात्मक ध्वनियों के प्रति प्रतिक्रिया समान होनी चाहिए। लेकिन एक अंतर है – कुत्तों के विपरीत, सूअरों को मनुष्यों ने अपने साथ सिर्फ पशुधन के रूप में रखा है, साथी के रूप में नहीं।
फैनी लेहोज़्की, इओटवॉस लौरेंड और पौला पेरेज़ फ्रैगा की टीम ने दुनिया भर के कुत्तों और सूअर मालिकों को अध्ययन में शामिल किया। और उन्हें उनके पालतू जानवरों के साथ एक कमरे में रखा। जानवरों को रोने या गुनगुनाने की रिकॉर्डेड आवाज़ें सुनाई गईं। इन आवाज़ों के प्रति जानवरों के व्यवहार – जैसे कुत्तों के मामले में कराहना और जम्हाई लेना, और सूअरों के मामले में कान तेज़ी से फड़फड़ाना का अवलोकन किया गया – और देखा गया कि किसने इस तरह कितनी बार प्रतिक्रिया दी।
जैसा कि अपेक्षित था, कुत्ते हमारी ध्वनियों की भावनाओं को समझने में काफी कुशल थे – वे रोने की आवाज़ पर तनावग्रस्त हो जाते थे और गुनगुनाने की आवाज़ पर काफी हद तक अप्रभावित रहते थे। हालांकि सूअरों ने भी रोने की आवाज़ पर थोड़ा तनाव ज़ाहिर किया लेकिन उनके व्यवहार से लगता है कि उनके लिए गुनगुनाना कहीं अधिक तनावपूर्ण आवाज़ थी।
जैसा कि परिणाम से ज़ाहिर है पशुधन जानवरों की तुलना में साथी जानवरों में मनुष्यों के साथ भावनात्मक लगाव अधिक दिखता है। लेकिन विशेषज्ञ इस पर अधिक अध्ययन करने की ज़रूरत बताते हैं, क्योंकि सूअर भी काफी संवेदनशील होते हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.aae0219/full/sn-dogs.jpg
गिद्धों को अक्सर मृत जीव-जंतुओं के भक्षण के लिए जाना जाता है। इस तरह ये हमारे पारिस्थितिक तंत्र को साफ रखते हैं और बीमारियों के प्रसार को कम करके मानव जीवन की रक्षा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इस संदर्भ में अमेरिकनइकॉनॉमिकएसोसिएशन जर्नल में प्रकाशित एक हालिया अध्ययन का निष्कर्ष है कि 1990 के दशक के दौरान भारत में गिद्धों के लगभग विलुप्त होने से बड़े पैमाने पर सार्वजनिक स्वास्थ्य संकट पैदा हुआ जिसके परिणामस्वरूप वर्ष 2000 से 2005 के बीच लगभग पांच लाख अतिरिक्त मौतें हुईं।
1990 के दशक में, पशु चिकित्सा में डाइक्लोफेनेक दवा के व्यापक उपयोग के कारण भारतीय गिद्ध की आबादी में गिरावट आई। इस दवा का इस्तेमाल मवेशियों में दर्द, शोथ व अन्य तकलीफों के लिए काफी मात्रा में किया गया था। इन पशुओं के शवों को खाने वाले गिद्धों के लिए यह घातक साबित हुई। इससे गिद्धों की बड़ी आबादी के गुर्दे खराब हो गए और एक दशक में गिद्धों की आबादी 5 करोड़ से घटकर मात्र कुछ हज़ार रह गई।
गौरतलब है कि गिद्ध शवों का कुशलतापूर्वक सफाया करते हैं, जिसकी वजह से जंगली कुत्तों और चूहों जैसे जीवों को भोजन कम मिल पाता है और उनकी आबादी नियंत्रण में रहती है। ये जीव रेबीज़ जैसे रोगाणुओं को मानव आबादी तक पहुंचा सकते हैं। इसके अतिरिक्त, गिद्धों की अनुपस्थिति में किसान अक्सर मृत पशुओं को नदी-नालों में फेंक देते हैं, जिससे पानी दूषित होता है तथा और अधिक बीमारियां फैलती हैं।
वार्विक विश्वविद्यालय के पर्यावरण अर्थशास्त्री अनंत सुदर्शन ने गिद्धों की अनुपस्थिति के परिणामों का प्रत्यक्ष रूप से अध्ययन किया। उन्होंने पाया कि गिद्धों की अनुपस्थिति में चमड़े के कारखानों और शहर की सीमाओं के बाहर शवों का ढेर लग गया था जिसका भक्षण जंगली (फीरल) कुत्ते व अन्य रोगवाहक जीव कर रहे थे। भारत सरकार ने चमड़ा कारखानों को शवों के निपटान के लिए रसायनों के उपयोग का निर्देश दिया लेकिन इन रसायनों से जलमार्ग प्रदूषित हो गए।
सुदर्शन और शिकागो विश्वविद्यालय के पर्यावरण अर्थशास्त्री इयाल फ्रैंक ने गिद्धों की संख्या में कमी के कारण मानव स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभाव को मापने के लिए एक विस्तृत विश्लेषण किया। उन्होंने भारत के 600 से अधिक ज़िलों के स्वास्थ्य रिकॉर्ड के साथ गिद्धों के आवासों के मानचित्रों को जोड़कर देखा। इस विश्लेषण में उन्होंने पानी की गुणवत्ता, मौसम और अस्पतालों की उपलब्धता जैसे कारकों का ध्यान रखा।
उन्होंने पाया कि 1994 से पहले, जिन ज़िलों में कभी गिद्धों की बड़ी आबादी हुआ करती थी, वहां मानव मृत्यु दर औसतन प्रति 1000 लोगों पर लगभग 0.9 थी जबकि 2005 के अंत तक इस मृत्यु दर में 4.7 प्रतिशत की वृद्धि हुई। यानी हर साल लगभग एक लाख अतिरिक्त मौतें हुईं। वहीं, जिन ज़िलों में पहले भी गिद्धों की आबादी बहुत ज़्यादा नहीं थी, वहां मृत्यु दर में कोई बदलाव नहीं देखा गया। इन अतिरिक्त मौतों की आर्थिक लागत की गणना भारतीय समाज द्वारा जीवन को बचाने के महत्व के आधार पर की गई थी। पूर्व सांख्यिकीय अध्ययनों के अनुसार यह प्रति व्यक्ति 5.5 करोड़ रुपए है। इस हिसाब से वर्ष 2000 से 2005 तक गिद्धों के न होने से कुल आर्थिक क्षति प्रति वर्ष लगभग 6000 अरब रुपए थी।
यह अध्ययन जन स्वास्थ्य में गिद्धों की महत्वपूर्ण भूमिका और उनकी आबादी में गिरावट के गंभीर परिणामों पर प्रकाश डालता है। 2006 में भारत सरकार द्वारा डाइक्लोफेनेक पर प्रतिबंध लगाने के बावजूद गिद्धों की आबादी पूरी तरह बहाल होने की संभावना नहीं है। ये परिणाम भविष्य में इसी तरह के संकटों को रोकने के लिए सक्रिय संरक्षण उपायों की आवश्यकता पर ज़ोर देते हैं। साथ ही इस तरह के आकलन मानव स्वास्थ्य पर ज्ञात प्रभावों वाली अन्य प्रजातियों के संरक्षण के बारे में सोचने को भी प्रेरित करते हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/article.37322/full/2000090131.gif
क्रेफिश (झिंगा मछली) के नाम में मछली है लेकिन ये जंतु मछली नहीं होते बल्कि केंकड़े, लॉबस्टर वगैरह जैसे क्रस्टेशियन वर्ग के जंतु हैं। क्रेफिश की लगभग 700 प्रजातियां ज्ञात हैं। ये भूमिगत बिलों में रहते हैं और सिर्फ रात के अंधेरे में ही ज़मीन पर आते हैं। लेकिन इनके रंग चटख होते हैं – गहरे नीले, नारंगी, बैंगनी-जामुनी और लाल। जैव विकास की दृष्टि से यह एक पहेली रही है। अंधेरे में जब इन रंगों को कोई देख नहीं सकता तो इनका विकास ही क्यों हुआ?
हाल ही में प्रोसीडिंग्सऑफदीरॉयलसोसायटीबी में प्रकाशित शोध पत्र में वेस्ट लिबर्टी युनिवर्सिटी के पारिस्थितिकीविद ज़ेकरी ग्राहम और उनके सहयोगियों ने इस संदर्भ में एक परिकल्पना सुझाई है। उनकी परिकल्पना है कि इन भूमिगत क्रेफिशों की रंग-बिरंगी छटाएं किसी खास मकसद से विकसित नहीं हुई हैं, बल्कि ये महज संयोग का परिणाम हैं।
वैकासिक जीव वैज्ञानिक आम तौर पर मानते हैं कि चटख रंगों वाले जंतुओं का विकास किसी कारण से होता है। जैसे पक्षी अपने रंगों से अपनी फिटनेस का प्रदर्शन करते हैं, जबकि कुछ ज़हरीले मेंढक शिकारियों को दूर रखने के लिए चमकीले रंगों और पैटर्न का सहारा लेते हैं।
ग्राहम की टीम यही समझने को उत्सुक थी कि क्या यह बात क्रेफिश पर लागू होती है। कुछ क्रेफिश तो अधिकांश समय नदियों के खुले पानी में मटरगश्ती करते बिताते हैं जबकि कुछ हैं जो कीचड़ में बिल बनाकर रहते हैं और रात में बाहर निकलते हैं। तो क्या उनकी आवास की पसंद ने उनके रंगों को संजोया होगा?
शोधकर्ताओं ने दक्षिण अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, युरोप और उत्तरी अमेरिका की 400 क्रेफिश प्रजातियों के मौजूदा आंकड़े देखे और इन्हें रंग व प्राकृतवास के आधार पर वर्गीकृत किया। फिर उन्होंने यह देखा कि वर्तमान प्रजातियां और उनके पूर्वज किसी तरह परस्पर सम्बंधित हैं – यानी उनका एक वंशवृक्ष तैयार किया।
पता चला कि नीले, नारंगी, जामुनी और लाल चटख रंगत वाले क्रेफिश तो भूमिगत बिलों के वासी हैं जबकि पानी में रहने वाले क्रेफिश प्राय: भूरे, कत्थई और अन्य फीके रंगों के थे। तो बिल में रहने वाले क्रेफिश में ऐसे रंग क्यों विकसित हुए होंगे जबकि उन्हें अंधेरे में बसर करना है – रंगों के दम पर वे न तो साथियों को आकर्षित कर सकते हैं और शिकारियों से तो वे अपने बिलों में महफूज़ ही हैं।
क्या यह संभव है कि इनके पूर्वजों में बेतरतीब ढंग से यह रंगीनियत पैदा हो गई थी और फिर इसे बदलने का कोई कारण न रहा हो। एक तथ्य यह है कि भूमिगत क्रेफिश अपने बिलों में ही अपने सम्बंधियों के साथ प्रजनन करते हैं। इसका मतलब यह होगा उनमें कोई लक्षण कई पीढ़ियों तक बरकरार रहेगा।
शोध के दौरान एक रोचक तथ्य यह सामने आया कि पिछले 26 करोड़ वर्षों में क्रेफिश के चटख रंगों का विकास 50 मर्तबा स्वतंत्र रूप से हुआ है। इसका मतलब है कि कई फीके रंग वाले क्रेफिश में किसी समय नीला या नारंगी या लाल होने की क्षमता पैदा हो गई होगी। ग्राहम का कहना है कि हर मौजूदा लक्षण अनुकूलनकारी हो, यह ज़रूरी नहीं है। कई लक्षण उपस्थित रहते हैं जबकि उनका कोई ज़ाहिर उपयोग नहीं होता। यह भी संभव है कि कई लक्षण सिर्फ इसलिए बन जाते है और बने रहते हैं कि उनकी वजह से जंतु को कोई नुकसान भी नहीं होता। जब कोई दीदावर नहीं है तो क्या फर्क पड़ता है आप कैसी पोशाक पहने हैं। कहने का मतलब कि भूमिगत क्रेफिशों में रंगों पर कोई चयनात्मक दबाव नहीं है। (स्रोत फीचर्स)
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एक हालिया और दिलचस्प अध्ययन से पता चला है कि संभवत: कन्फ्यूशियसॉर्निस वंश के प्राचीन पक्षी आधुनिक चिड़ियाओं के सामान पंख छोड़ते थे। पक्षियों में उड़ान दक्षता बनाए रखने के लिए पंखों का निर्मोचन (यानी पुराने पंख झड़कर नए पंख आना) एक महत्वपूर्ण प्रक्रिया है जो बायोलॉजीलेटर्समें प्रकाशित अध्ययन के अनुसार इन प्राचीन पक्षियों में मौजूद थी।
पंखों की उत्पत्ति संभवत: डायनासौर और टेरोसौर के साझा पूर्वजों में लगभग 25 करोड़ वर्ष पहले ट्राएसिक काल में हुई थी। इन पक्षियों के शुरुआती पंख हल्के रोएं से अधिक कुछ नहीं होते थे। समय के साथ, शिकारी पक्षियों (रैप्टर्स) और पक्षियों की पूर्ववर्ती प्रजातियों (जैसे मांसाहारी डायनासौर) में केरेटिन से बने जटिल पंख विकसित हुए। केरेटीन वही प्रोटीन है जिससे मनुष्यों में बाल और नाखून का निर्माण होता है। लेकिन नाखूनों के विपरीत पंख अपने आधार से निरंतर नहीं बढ़ते। परिपक्व होने के बाद ये मृत संरचना ही होते हैं। इसलिए पक्षियों को अपने पुराने पंखों को छोड़ना पड़ता है। विभिन्न पक्षियों में इसके तरीके अलग-अलग होते हैं।
उड़ने में असमर्थ पेंगुइन जैसे पक्षी एक बार में बहुत सारे पंख गिराते हैं, जबकि उड़ने वाले पक्षी अपनी उड़ने की क्षमता बनाए रखने के लिए एक बार में कुछ ही पंख गिराते हैं। इसे क्रमिक निर्मोचन कहते हैं। इस तरीके में उनके डैनों पर छोटी-छोटी रिक्तियां रह जाती हैं, जहां नए पंख उगते हैं।
इस अध्ययन के लिए फील्ड म्यूज़ियम ऑफ नेचुरल हिस्ट्री के जीव विज्ञानी योसेफ किआट और उनकी टीम ने चीन के एक म्यूज़ियम के 600 से अधिक पक्षी जीवाश्मों का अध्ययन किया। ये पक्षी शुरुआती क्रेटेशियस काल (लगभग 12.5 करोड़ साल पूर्व) के दौरान वर्तमान के पूर्वी चीन में रहते थे। इनमें कन्फ्यूशियसॉर्निस सबसे आम पक्षी था। कौवे की साइज़ के इस पक्षी की खोपड़ी सरीसृपों के समान, पंजे मुड़े हुए, घने पंख और दांत-विहीन चोंच होती थी। यह संरचना डायनासौर और पक्षी दोनों से मिलती-जुलती थी। टीम को कन्फ्यूशियसॉर्निस के दो ऐसे जीवाश्म भी मिले जो निर्मोचन प्रक्रिया के दौरान ही अश्मीभूत हुए थे। उनके परिपक्व पंखों के बीच रिक्तियों में काले, बढ़ते पंख दिखाई दे रहे थे। ये नए पंख दोनों डैनों में सममित रूप से मौजूद थे। यह आधुनिक सॉन्गबर्ड में देखी जाने वाली क्रमिक निर्मोचन प्रक्रिया के समान ही है। टीम के अनुसार ये जीवाश्म पक्षियों में निर्मोचन के सबसे पुराने ज्ञात साक्ष्य हैं। अनुमान है कि पंख निर्मोचन की यह प्रक्रिया साल में एक बार न होते हुए उनके शारीरिक विकास में उछाल के अनुरूप होती होगी।
ये साक्ष्य 12 करोड़ वर्ष पहले पाए जाने वाले चार डैनों वाले डायनासौर माइक्रोरैप्टर में क्रमिक निर्मोचन के साक्ष्यों से भी मेल खाते हैं और इस विचार का समर्थन करते हैं कि माइक्रोरैप्टर उड़ सकता था, क्योंकि क्रमिक निर्मोचन अक्सर उड़ने वाली प्रजातियों में देखा जाता है।
यह अध्ययन कई डायनासौर में निर्मोचन की संभावना जताता है और उड़ान के विकास में इस प्रक्रिया का महत्व बताता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.z1qy3t5/files/_20240702_on_bird_molting_secondary.jpg
कई बार डॉक्टरों को किसी घायल मरीज़ की जान बचाने के लिए नागंवार फैसला करना पड़ता है – मरीज़ की भुजा या कोई अंग काटकर अलग करना। इसे अंग-विच्छेद या एम्प्यूटेशन कहते हैं। क्या अन्य जंतु भी ऐसा करते हैं?
हाल ही में जर्मनी के वुर्ज़बर्ग विश्वविद्यालय के जीव वैज्ञानिक एरिक फ्रैंक ने ऐसा ही एक चौंकाने वाला अवलोकन रिपोर्ट किया है। वे और उनके सहयोगी फ्लोरिडा कारपेंटर चींटियों (Camponotus floridanus) को अपनी प्रयोगशाला में लाए। वे देखना चाहते थे कि चोट लगने पर ये चींटियां क्या करती हैं।
देखा गया है कि अधिकांश प्रजातियों की चीटियां अपने घायल साथी की चोटग्रस्त या कटी हुई भुजा पर सूक्ष्मजीव-रोधी लेप लगा देती हैं। अधिकांश प्रजातियों में कुछ ग्रंथियां सूक्ष्मजीव-रोधी पदार्थों का स्राव करती हैं और ये पदार्थ बैक्टीरिया व फफूंद संक्रमण से बचाव करते हैं।
लेकिन कारपेंटर चींटियां अलग तरीका अपनाती हैं। वे तो शेष बची भुजा को चबा डालती हैं। कहा जा सकता है कि वे उस भुजा का एम्प्यूटेशन कर देती हैं। मनुष्य के अलावा यह पहला जंतु देखा गया है जो इस तकनीक का सहारा लेता है। इन चींटियों में उद्विकास के दौरान किसी वजह से उक्त ग्रंथियां नदारद हो गईं। तो फिर ये अपना बचाव कैसे करती होंगी?
इसी सवाल का जवाब पाने की दृष्टि से फ्रेंक के दल ने चींटियों की टांग को फीमर नामक हड्डी के निकट से काट दिया और घाव को मिट्टी में पाए जाने वाले एक बैक्टीरिया स्यूडोमोनासएरुजिनोसा (Pseudomonas aeruginosa) के संपर्क में रखा। इसके बाद कुछ चींटियों को अलग-थलग रहने दिया गया जबकि कुछ को उनकी बांबी में छोड़ दिया गया।
जिन चींटियों को बांबी में छोड़ा गया था, जल्दी ही उनके पास एक-दो साथी चींटियां पहुंच गईं। उन्होंने टांग के फीमर के ऊपर वाले हिस्से को कुतर डाला और पूरी टांग को अलग कर दिया। जिन चींटियों को यह ‘शल्य क्रिया’ मिली थी उनमें से 90 प्रतिशत जी गईं जबकि अलग-थलग रखी गई चींटियों में से मात्र 40 प्रतिशत ही बच पाईं।
कुछ मामलों में शोधकर्ताओं ने टांग को थोड़ा नीचे (टिबिया के पास) क्षतिग्रस्त किया। ऐसा करने पर उनकी साथी चींटियों ने टांग को काटकर अलग नहीं किया बल्कि सिर्फ घाव को चाटा ताकि अपनी जीभ से बैक्टीरिया वगैरह को साफ कर सकें। इस मामले में भी अलग-थलग पड़ी घायल चींटियों में से मात्र 10 प्रतिशत जीवित रहीं जबकि बांबियों में रखी गईं 75 प्रतिशत जीवित रहीं।
शोधकर्ताओं ने यह भी समझने की कोशिश की कि कारपेंटर चींटियां ये अलग-अलग रणनीतियां क्यों अपनाती हैं। उन्होंने पाया कि इसका सम्बंध चीटिंयों की शरीर क्रिया से है। फ्लोरिडा कारपेंटर चींटी की फीमर हड्डी से जुड़ी कई मांसपेशियां होती हैं जो हीमोलिंफ (हमारे रक्त जैसा) के बहाव को रोकती हैं, और प्रवाह बाधित होने पर बैक्टीरिया शरीर में अंदर प्रवेश नहीं कर पाते। हो सकता है कि इसी वजह से फीमर की चोट के मामले में एम्प्यूटेशन का सहारा लिया जाता है क्योंकि उन्हें इतना समय मिल जाता है। दूसरी ओर, टिबिया के इर्द-गिर्द इतनी मांसपेशियां नहीं होतीं जो हिमोलिंफ के प्रवाह को रोक सकें। अर्थात टिबिया चोट का उपचार तुरंत करना ज़रूरी होता है। वास्तव में शोधकर्ताओं ने जांच की तो पाया कि फीमर चोट के बाद एम्प्यूटेशन से बैक्टीरिया संक्रमण सचमुच रुक जाता है जबकि टिबिया चोट के संदर्भ में नहीं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/content/article/ants-may-be-only-animal-performs-surgical-amputations
भारत में हाथियों की आबादी करीब 25-30 हज़ार बची है। नतीजतन, इन्हें ‘लुप्तप्राय’ श्रेणि में रखा गया है। अनुमान है कि पहले हाथी जितने बड़े क्षेत्र में फैले हुए थे, उसकी तुलना में आज ये उसके मात्र 3.5 प्रतिशत क्षेत्र में सिमट गए हैं – अब ये हिमालय की तलहटी, पूर्वोत्तर भारत, मध्य भारत के कुछ जंगलों और पश्चिमी एवं पूर्वी घाट के पहाड़ी जंगलों तक ही सीमित हैं।
विशेष चिंता का विषय उनके प्राकृतवास का छोटे-छोटे क्षेत्रों में बंट जाना है: हाथियों को भोजन एवं आश्रय देने वाले वन मनुष्यों द्वारा विकसित भू-क्षेत्रों (रेलमार्ग, सड़कमार्ग, गांव-शहर वगैरह बनने) की वजह से खंडित होकर छोटे-छोटे वन क्षेत्र रह गए हैं। इस विखंडन से हाथियों के प्रजनन विकल्प भी सीमित हो सकते हैं। इससे आनुवंशिक अड़चनें पैदा होती हैं और आगे जाकर झुंड की फिटनेस में कमी आती है।
हाथियों का अपने आवास क्षेत्र में लगातार आवागमन उन्हें सड़कों और रेलवे लाइनों के संपर्क में लाता है। दरअसल, एक हथिनी के आवास क्षेत्र का दायरा लगभग 500 वर्ग किलोमीटर होता है, और टुकड़ों-टुकड़ों में बंटे अपने आवास में इतनी दूरी तय करते हुए उसकी सड़क या रेलवे लाइन से गुज़रने की संभावना (और इसके चलते दुर्घटना की संभावना) बहुत बढ़ जाती है।
सौभाग्य से, सभी हाथी-मार्गों (जिन रास्तों से वे आवागमन करते हैं) पर इस तरह के खतरे नहीं हैं। बांदीपुर, मुदुमलाई और वायनाड के हाथी गर्मियों में मौसमी प्रवास पर जाते हैं। वे पानी और हरी घास के लिए काबिनी बांध के बैकवाटर की ओर जाते हैं। अध्ययनों से पता चला है कि तमिलनाडु और केरल के बीच हाथियों के 18 प्रवास-मार्ग मौजूद हैं।
इस समस्या का एक समाधान वन्यजीव गलियारे हैं – ये गलियारे मनुष्यों के साथ कम से कम संपर्क के साथ जानवरों को प्रवास करने का रास्ता देते हैं। इसका एक अच्छा उदाहरण उत्तराखंड का मोतीचूर-चिल्ला गलियारा है, जो कॉर्बेट और राजाजी राष्ट्रीय उद्यानों के बीच हाथियों के आने-जाने (और इस तरह जीन के प्रवाह) को सुगम बनाता है। हालांकि, मनुष्यों के साथ संघर्ष का खतरा तो हमेशा बना रहता है – हाथी कभी-कभी फसलों को खा जाते हैं, या सड़कों और रेल पटरियों पर आ जाते हैं।
ट्रेनकीरफ्तार
कनाडा में हुई एक पहल ने पशु-ट्रेन टकराव को कम करने का प्रयास किया है – इस प्रयास में ट्रेन के आने की चेतावनी देने के लिए पटरियों के किनारे विभिन्न स्थानों पर जल-बुझ लाइट्स और घंटियां लगाई गई थीं। ये लाइट्स और घंटियां ट्रेन के आने के 30 सेकंड पहले चालू हो जाती थीं – इन संकेतों का उद्देश्य जानवरों में इन चेतावनियों और ट्रेन आने के बीच सम्बंध बैठाना था।
चेतावनी प्रणाली युक्त और चेतावनी प्रणाली रहित सीधी और घुमावदार दोनों तरह की पटरियों पर कैमरों ने ट्रेन आने के प्रति जानवरों की प्रतिक्रियाओं को रिकॉर्ड किया। देखा गया कि बड़े जानवर, जैसे हिरण परिवार के एल्क और धूसर भालू चेतावनी प्रणाली विहीन ट्रैक पर ट्रेन आने से लगभग 10 सेकंड पहले पटरियों से दूर चले जाते हैं, जबकि चेतावनी प्रणाली युक्त ट्रैक पर ट्रेन आने से लगभग 17 सेकंड पहले। (यह अध्ययन ट्रांसपोर्टेशनरिसर्चजर्नल में प्रकाशित हुआ है।)
घुमावदार ट्रैक पर आती ट्रेन के प्रति प्रतिक्रिया कम दिखी, संभवत: कम दृश्यता के कारण। ऐसी जगहों पर, जानवर ट्रेन की आहट का आवाज़ से पता लगाते हैं। अलबत्ता, ट्रेन आ रही है या नहीं इसकी टोह आवाज़ से मिलना ट्रेन की तेज़ रफ्तार जैसे कारकों से काफी प्रभावित होती है।
कृत्रिमबुद्धि (एआई) कीमदद
हाथियों के आवास वाले जंगलों से गुज़रते समय इंजन चालक को कब ट्रेन की रफ्तार कम करनी चाहिए? भारतीय रेलवे के पास ऑप्टिकल फाइबर केबल का एक विशाल नेटवर्क है। ये केबल दूरसंचार और डैटा के आवागमन को संभव बनाते हैं, और सबसे महत्वपूर्ण रूप से ट्रेन नियंत्रण के लिए संकेत भेजते हैं। हाल ही में शुरू की गई गजराज नामक प्रणाली में, इन ऑप्टिकल फाइबल केबल की लाइनों पर जियोफोनिक सेंसर लगाए गए हैं, जो हाथियों के भारी और ज़मीन को थरथरा देने वाले कदमों के कंपन को पकड़ सकते हैं।
एआई-आधारित प्रणाली इन सेंसर से प्राप्त डैटा का विश्लेषण करती है और प्रासंगिक जानकारियां निकालती है – जैसे आवागमन की आवृत्ति और कंपन की अवधि। यदि हाथी-जनित विशिष्ट कंपन का पता चलता है, तो उस क्षेत्र के इंजन ड्राइवरों को तुरंत अलर्ट भेजा जाता है, और ट्रेन की रफ्तार कम कर दी जाती है। ऐसी प्रणालियां फिलहाल उत्तर पश्चिम बंगाल के अलीपुरद्वार क्षेत्र में लगाई गई हैं, जहां पूर्व में कई दुर्घटनाएं हुई हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sanctuarynaturefoundation.org/uploads/Article/1586787578209_railway-minister-urged-1920×599.jpg
कोविड महामारी ने हम सबको वायरस के अस्तित्व और महत्व से दर्दनाक ढंग से परिचित करा दिया है। दरअसल, वायरसों की खोज 1800 के दशक के उत्तरार्ध में हुई थी। ये छोटी-से-छोटी कोशिकाओं से भी छोटे होते हैं। इनमें एक प्रोटीन कवच होता है और उस कवच के अंदर ज़्यादा कुछ नहीं, बस चंद जीन्स होते हैं। लेकिन इनकी दिक्कत यह है कि इनके पास वह व्यवस्था नहीं होती कि इन जीन्स की प्रतिलिपियां बना सकें। अपनी प्रतिलिपि बनाने के लिए ये किसी अन्य कोशिका के ताम-झाम पर निर्भर होते हैं। लिहाज़ा, खोज के साथ ही यह बहस शुरू हो गई कि ये वायरस कण सजीव माने जाएं या निर्जीव। ये तो अपनी प्रतिलिपि तभी बना पाते हैं जब ये किसी उपयुक्त कोशिका में प्रवेश कर पाएं।
लेकिन इनकी सरल संरचना ने जीव वैज्ञानिकों को बहुत लुभाया। कई लोग तो मानते हैं कि वायरसों के अध्ययन ने ही आधुनिक जीव विज्ञान (खासकर जेनेटिक्स, जेनेटिक इंजीनियरिंग, बायोटेक्नॉलॉजी वगैरह) को संभव बनाया है। कोशिकाओं की जटिलताओं से मुक्त वायरसों के अध्ययन से वे नियम उजागर हुए जिनसे जीन्स के कामकाज को समझा जा सका। लेकिन धीरे-धीरे पता चला कि सरलता एक तरफ, वायरसों में कई जटिलताएं भी होती हैं।
हाल के दशकों में हुए अनुसंधान ने वायरसों के कई ऐसे गुणधर्म उजागर किए हैं जिनकी कल्पना तक नहीं गई थी। नए अनुसंधान ने सबसे महत्वपूर्ण बात यह उजागर की है कि वायरसों को एक-दूसरे से स्वतंत्र कण मानकर उनके सारे गुणों को नहीं समझा जा सकता। दरअसल नए अनुसंधान से वायरसों के सामाजिक संसार की बातें सामने आने लगी हैं। कई वायरस-विज्ञानी मानने लगे हैं कि वायरसों की वास्तविकता को तभी समझा जा सकता है जब आप उन्हें एक समुदाय का सदस्य मानें – इस अर्थ में कि वे एक-दूसरे से सहयोग करते हैं, एक-दूसरे को ठगते हैं और अन्य तरह से परस्पर क्रिया करते हैं।
पूरी सोच की शुरुआत 1940 के दशक में एक डैनिश वायरस विज्ञानी प्रेबेन फॉन मैग्नस के प्रयोगों से हुई थी। फॉन मैग्नस जब अपनी प्रयोगशाला में वायरस पनपा रहे थे, तब उन्होंने एक विचित्र बात पर गौर किया। वायरसों की वृद्धि के लिए वे मुर्गी के अंडे में वायरस स्टॉक का इंजेक्शन लगाते थे और फिर उन्हें संख्यावृद्धि करने देते थे। आम तौर पर बैक्टीरिया वगैरह को पनपने के लिए पोषक पदार्थों से परिपूर्ण माध्यम पर्याप्त होता है। लेकिन चूंकि वायरस के पास अपनी प्रतिलिपि बनाने के लिए आवश्यक जीन्स नहीं होते, इसलिए उन्हें किसी सजीव कोशिका में ही पनपाना होता है। फॉन मैग्नस के प्रयोग में जीवित कोशिका के रूप में मुर्गी के अंडे का उपयोग किया गया था। उन्होंने पाया कि एक अंडे में तैयार कई वायरस दूसरे अंडे में इंजेक्ट करने पर वृद्धि नहीं कर पाते थे। ऐसे तीन चक्र पूरा होने के बाद 10,000 में से मात्र एक वायरस ही संख्यावृद्धि कर पा रहा था। लेकिन इसके बाद के चक्रों में ‘दोषपूर्ण’ वायरसों की संख्या कम होती गई और संख्यावृद्धि योग्य वायरसों की संख्या बढ़ गई।
फॉन मैग्नस ने माना कि संख्यावृद्धि न कर पाने वाले वायरस पूरी तरह विकसित नहीं हो पाए हैं और उन्हें ‘अपूर्ण’ घोषित कर दिया। आगे चलकर, अपूर्ण वायरसों के उतार-चढ़ाव की इस तरह की घटनाएं कई बारी देखी गईं और इसे नाम दे दिया गया ‘फॉन मैग्नस प्रभाव’। लेकिन वायरस वैज्ञानिकों के लिए यह मात्र एक समस्या थी जिसे हल करने की ज़रूरत थी क्योंकि यह प्रयोगों में अड़चन पैदा करती थी। वैसे भी किसी ने प्रयोगशाला से बाहर यानी प्राकृतिक परिस्थिति में अपूर्ण वायरस नहीं देखे थे, इसलिए माना गया कि यह प्रयोगशाला कल्चर तक सीमित मामला है।
बहरहाल, 1960 के दशक में शोधकर्ताओं ने देखा कि अपूर्ण वायरस के जीनोम सामान्य वायरसों के जीनोम से छोटे होते हैं। इस खोज के चलते वायरस विज्ञानियों का यह विश्वास और दृढ़ हो गया कि अपूर्ण वायरस इसलिए संख्या-वृद्धि नहीं कर पाते क्योंकि उनमें प्रतिलिपि बनाने के लिए ज़रूरी जीन नहीं होता। यानी ये दोषपूर्ण हैं। लेकिन 2010 के दशक में शक्तिशाली जीन अनुक्रमण टेक्नॉलॉजी की मदद से यह स्पष्ट हो गया कि तथाकथित अपूर्ण वायरस स्वयं हमारे शरीर में बहुतायत में पाए जाते हैं।
2013 में प्रकाशित एक अध्ययन में पिट्सबर्ग विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने विचित्र अवलोकन किया। उन्होंने फ्लू से पीड़ित व्यक्तियों की नाक व मुंह से फोहों पर नमूने (स्वाब) एकत्रित किए। इन नमूनों में से उन्होंने फ्लू के वायरसों का जेनेटिक पदार्थ अलग किया और देखा कि उनमें से चंद वायरसों में कुछ जीन्स नदारद हैं। ये ‘बौने’ वायरस तब बनते हैं जब संक्रमित मेज़बान कोशिका किसी कामकाजी वायरस के जीनोम की गलत नकल कर देती है, और कुछ जीन्स की नकल करना चूक जाती है। इस खोज की पुष्टि कई अन्य अध्ययनों से भी हुई। अन्य अध्ययनों से अपूर्ण वायरसों के बनने के कई अन्य रास्ते भी सामने आए।
जैसे कुछ वायरसों में जीनोम गड्ड-मड्ड हुए होते हैं। होता यह है कि संक्रमित कोशिका वायरस जीनोम की नकल करने लगती है और किसी वजह से बीच में रुककर उल्टी नकल कर डालती है और प्रारंभिक बिंदु तक फिर से नकल कर देती है। कुछ अन्य अपूर्ण वायरस तब बनते हैं जब कोई उत्परिवर्तन किसी जीन के अनुक्रम को तहस-नहस कर देता है और फिर वह जीन कोई काम का प्रोटीन नहीं बना पाता।
इन तमाम अध्ययनों से यह स्पष्ट हो गया कि फॉन मैग्नस के अपूर्ण वायरस मात्र प्रयोगशालाओं तक सीमित नहीं हैं, बल्कि वायरस जैविकी का कुदरती हिस्सा है। फिर हमारे अपने शरीरों में अपूर्ण वायरसों की खोज ने इनमें दिलचस्पी में इजाफा किया। और तो और, यह भी पता चला कि अपूर्ण वायरस मात्र फ्लू तक सीमित नहीं हैं बल्कि कई अन्य संक्रमणों (जैसे आरएसवी और खसरा) से बीमार व्यक्तियों के शरीर में पाए गए अधिकांश वायरस अपूर्ण होते हैं।
समस्या यह है कि अपूर्ण वायरस कोशिकाओं में बाकी वायरसों के समान ही घुस सकते हैं लेकिन घुसने के बाद वे अपनी प्रतिलिपि नहीं बना सकते। उनके पास वे जीन्स ही नहीं होते जो मेज़बान की प्रोटीन-निर्माण मशीनरी को अगवा करने के लिए ज़रूरी होते हैं। जैसे उनके पास जीन-प्रतिलिपिकरण का एंज़ाइम (पोलीमरेज़) बनाने के लिए ज़रूरी जीन होता ही नहीं। लेकिन वे अपनी प्रतिलिपि बनाते तो हैं। इसके लिए वे ठगी का सहारा लेते हैं। वे अपने हमसफर वायरसों का फायदा उठाते हैं।
ठगों के लिए अच्छी बात यह होती है कि अमूमन कोई भी कोशिका एक से अधिक वायरसों द्वारा संक्रमित की जाती है। यदि ऐसी संक्रमित कोशिका में कोई कामकाजी वायरस हो, तो वह पोलीमरेज़ बनाएगा। तब ठग वायरस इस पोलीमरेज़ का लाभ लेकर अपने जीन्स की प्रतिलिपि बनवा सकता है।
वास्तव में, ऐसी मेज़बान कोशिका में दोनों वायरस अपने-अपने जीनोम की प्रतिलिपि बनवाने की होड़ करते हैं। ठग वायरस इस होड़ में फायदे में रहता है: उसके पास प्रतिलिपिकरण के लिए कम सामग्री है। लिहाज़ा वही पोलीमरेज़ एक अपूर्ण जीनोम की प्रतिलिपियां जल्दी बना देता है। और जब ये पूर्ण व अपूर्ण वायरस संक्रमण को आगे बढ़ाते हैं (यानी एक से दूसरी कोशिका में जाते हैं) तो ठग को और फायदा मिलता है। यह फायदा संक्रमण बढ़ने के साथ बढ़ता जाता है।
ठगों की अन्य रणनीतियां भी होती हैं। जैसे कुछ अपूर्ण वायरसों में पोलीमरेज़ का जीन तो होता है लेकिन उनके पास वह प्रोटीन कवच बनाने का जीन नहीं होता जिसके अंदर वे अपनी जेनेटिक सामग्री को सहेज सकें। ऐसे ठग प्रतिलिपिकरण करके इंतज़ार करते रहते हैं कि कोई पूर्ण कामकाजी वायरस उस मेज़बान कोशिका में प्रवेश करके कवच बनाए। वे चुपचाप उस कवच में घुस जाते हैं। अनुसंधान से पता चला है कि कवच में घुसने के मामले में ठग का जीनोम कहीं फुर्तीला होता है, छोटा जो है।
एशर लीक येल विश्वविद्यालय में एक पोस्ट-डॉक छात्र के रूप में ऐसे वायरसों पर शोध करते रहे हैं जिनके लिए ज़रूरी होता है कि वे एक ही कोशिका में एक साथ उपस्थित हों, तभी वे प्रतिलिपियां बना सकते हैं। इन्हें मल्टीपार्टाइट वायरस कहते हैं। उनके अनुसार, लगता तो है कि ये वायरस परस्पर सहयोग कर रहे हैं लेकिन शायद यह व्यवहार ठगी से ही उपजा है। बहरहाल, अपूर्ण वायरस जो भी रणनीति अपनाएं, एक बात स्पष्ट है – वे इसकी कीमत नहीं चुकाते।
लेकिन एक समस्या पर विचार करना ज़रूरी है। ठग खुद तो अच्छा प्रदर्शन नहीं कर सकता, लेकिन किसी अन्य (पूर्ण) वायरस की उपस्थिति में उसका प्रदर्शन पूर्ण वायरस की अपेक्षा बेहतर रहता है। समस्या यह है कि यदि इस तरह से बहुत सारे ठग इकट्ठे हो गए तो वे ठगेंगे किसे? दूसरे शब्दों में कहें, तो ठग की बेइन्तहा सफलता का परिणाम होना चाहिए कि वायरसों का सफाया हो जाए, वे विलुप्त हो जाएं। क्योंकि हर पीढ़ी के बाद अपूर्ण वायरसों की संख्या बढ़ती जाएगी और वे हावी हो जाएंगे। अब यदि उनका अनुपात बहुत बढ़ गया तो उनके अपने प्रतिलिपिकरण में मददगार वायरस बहुत कम बचेंगे और वायरस का नामोनिशान मिटने की कगार पर होगा।
ज़ाहिर है, ऐसा होता नहीं। फ्लू के वायरस इस तरह के विलुप्तिकरण के शिकार नहीं हुए हैं। यानी इस ठगी-चालित मृत्यु के चक्र में कुछ और पहलू भी हैं जो वायरसों की रक्षा करते हैं। वॉशिंगटन विश्वविद्यालय की कैरोलिना लोपेज़ का मत है कि ठगी में लिप्त वायरस संभवत: कोई अन्य भूमिका भी निभाते होंगे। शायद वे अपने हमसफर वायरसों को लूटने की बजाय उन्हें पनपने में सहयोग करते हैं। लेकिन कैसे?
लोपेज़ सैन्डाई वायरस का अध्ययन करती हैं। यह वायरस चूहों को संक्रमित करता है। अध्ययनों से पता चल चुका था कि इस वायरस की दो किस्में (स्ट्रेन्स) अलग-अलग ढंग से व्यवहार करती हैं। इनमें से एक को SeV-52 कहते हैं और यह प्रतिरक्षा तंत्र से ओझल रहता है। इसके चलते SeV-52 ज़ोरदार संक्रमण पैदा कर पाता है। लेकिन एक अन्य किस्म (SeV-Cantell) के खिलाफ त्वरित व शक्तिशाली प्रतिरक्षा उत्पन्न होती है जिसके चलते इसके संक्रमण के परिणाम ज़्यादा घातक नहीं होते। लोपेज़ की टीम ने पाया कि इस अंतर की वजह यह है कि SeV-Cantell बड़ी संख्या में अपूर्ण वायरस उत्पन्न करता है।
तो सवाल यह उठा कि ये अपूर्ण वायरस चूहों में इतनी शक्तिशाली प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया क्यों उत्पन्न करते हैं। काफी अनुसंधान के बाद लोपेज़ की टीम यह दर्शाने में सफल रही कि अपूर्ण वायरस संक्रमित कोशिका के चेतावनी तंत्र को सक्रिय कर देते हैं। इसके चलते कोशिका इंटरफेरॉन नामक एक संदेशवाहक अणु बनाने लगती है जो आसपास की कोशिकाओं को चेता देता है कि कोई घुसपैठिया आया है। इस चेतावनी का परिणाम यह होता है कि वे कोशिकाएं वायरस के खिलाफ तैयारी कर लेती हैं और वायरस का त्वरित प्रसार थम जाता है।
लोपेज़ ने परिकल्पना बनाई कि किसी कोशिका के अंदर अपूर्ण वायरस कामकाजी वायरसों से ठगी करता होगा लेकिन कुल मिलाकर असर यह होता है कि संक्रमण के प्रसार पर अंकुश लग जाता और यह पूरे वायरस समुदाय के लिए लाभदायक होता है। और तो और, लोपेज़ के दल ने पाया कि यह स्थिति सिर्फ सेन्डाई वायरस के साथ नहीं होती। जब उन्होंने RSV पर ध्यान दिया तो पाया कि उसमें भी संक्रमण के दौरान अपूर्ण वायरस शक्तिशाली प्रतिरक्षा उत्पन्न करता है।
स्थिति बहुत ही दिलचस्प है। क्योंकि यदि अपूर्ण वायरस ठग हैं तो उनके लिए यह तो कदापि लाभदायक नहीं होगा कि वे संक्रमण को जल्दी खत्म करवा दें। यदि प्रतिरक्षा तंत्र ने सारे कामकाजी वायरसों को नष्ट कर दिया तो ठग किसे ठगेंगे?
उपरोक्त परिणामों को एक ही ढंग से देखने पर कोई अर्थ निकलता है। लोपेज़ ने अपूर्ण वायरसों को ठग के तौर पर देखने की बजाय यह विचार करना शुरू किया कि शायद अपूर्ण वायरस और कामकाजी वायरस मिल-जुलकर काम कर रहे हैं। और इस सहयोग का अंतिम लक्ष्य है समुदाय का लंबे समय तक जी पाना। लोपेज़ ने विचार किया कि यदि कामकाजी वायरस अनियंत्रित ढंग से नए-नए वायरस बनाते रहे तो वे अपने मेज़बान पर हावी होकर उसकी जान ले लेंगे, इससे पहले कि वे किसी नए मेज़बान तक पहुंच सकें। यह तो आत्मघाती होगा। लोपेज़ कहती हैं कि एक स्तर की प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया ज़रूरी है तभी मेज़बान कम से कम इतने समय जीवित रहेगा कि वायरस नए मेज़बान में पहुंच सके।
इसी मुकाम पर अपूर्ण वायरस प्रकट होते हैं। वे संक्रमण पर लगाम लगाते हैं ताकि अगले मेज़बान तक पहुंचा जा सके। इस तरह से देखें तो शायद अपूर्ण और कामकाजी वायरस परस्पर सहयोग कर रहे हैं। हाल के वर्षों में लोपेज़ की टीम ने पता किया है कि अपूर्ण वायरस कई तरीकों से संक्रमण पर लगाम लगा सकते हैं। उदाहरण के लिए, वे कोशिका में ऐसी स्थिति उत्पन्न कर सकते हैं कि जैसे वह गर्मी या ठंड के कारण तनाव में है। ऐसी स्थिति में कोशिका की एक प्रतिक्रिया यह होती है कि वह अपनी प्रोटीन-निर्माण मशीनरी को बंद कर देती है। ऐसा होने पर वायरसों का बनना स्वत: कम हो जाएगा।
हाल ही में इलिनॉय विश्वविद्यालय के क्रिस्टोफर ब्रुक ने बताया है कि संक्रमित कोशिका सैकड़ों विचित्र प्रोटीन बनाने लगती है जो अपूर्ण वायरस जीनोम के जीन्स के ज़रिए बनते हैं। वे भी इस बात से सहमत हैं कि वायरस अकेले-अकेले नहीं बल्कि समुदाय के रूप में रहते हैं। ब्रुक अब इसी तरह के प्रमाण फ्लू वायरस के संदर्भ में खोजने की जुगाड़ में हैं। गौरतलब है कि एक संपूर्ण फ्लू वायरस में 8 जीन खंड होते हैं जो आम तौर पर 12 या अधिक प्रोटीन बनाते हैं। लेकिन जब संक्रमित कोशिकाएं अपूर्ण वायरस पैदा करती हैं, तब किसी जीन का मध्य भाग छोड़ दिया जाता है और शेष भागों को आपस में जोड़ दिया जाता है। इतनी उथल-पुथल के बावजूद ये परिवर्तित जीन्स प्रोटीन बनाते रहते हैं। अलबत्ता, इन प्रोटीन्स के काम सर्वथा भिन्न हो सकते हैं। हाल ही में प्रकाशित एक अध्ययन में ब्रुक ने बताया है कि फ्लू संक्रमित कोशिकाओं में उन्हें ऐसे सैकड़ों नए प्रोटीन्स मिले हैं। ये विज्ञान के लिए एकदम नए हैं। शोधकर्ता पता करने की कोशिश कर रहे हैं कि ये प्रोटीन करते क्या हैं।
ऐसे एक प्रोटीन पर किए गए प्रयोगों से पता चला है कि यह जाकर संपूर्ण वायरस द्वारा बनाए गए पोलीमरेज़ से चिपक जाता है और उसे नए वायरस जीनोम बनाने से रोक देता है। लेकिन फिलहाल वैज्ञानिक नहीं जानते कि अपूर्ण वायरस द्वारा बनाए गए इतने सारे प्रोटीन करते क्या हैं।
लेकिन ये दो परिकल्पनाएं महत्वपूर्ण हैं – ठगी और सहयोग। इनके बीच फैसला कर पाना मुश्किल है।
इस संदर्भ में एक महत्वपूर्ण उदाहरण नैनोवायरसों का है। ये वायरस पार्सले और फेवा बीन्स जैसे पौधों को संक्रमित करते हैं। इनका प्रतिलिपिकरण का तरीका बहुत अजीब होता है। इनमें कुल मिलाकर 8 जीन्स होते हैं लेकिन दिलचस्प बात यह है कि प्रत्येक वायरस कण में इन 8 में से एक ही जीन पाया जाता है। तो होता यह है कि जब ऐसे सारे 8 अलग-अलग जीनधारी वायरस कण एक साथ एक ही कोशिका में उपस्थित हों, तभी वे अपनी प्रतिलिपि बना सकते हैं। पौधे की कोशिका सभी 8 जीन्स के प्रोटीन बनाती है और उनके जीन्स की प्रतिलिपि भी बनाती है जो नए कवचों में पैक हो जाते हैं।
यह तो सहयोग का शास्त्रोक्त मामला लगता है। देखा जाए तो इन आठों वायरस कणों को मिल-जुलकर काम करना पड़ेगा, तभी प्रतिलिपि बन पाएगी। लेकिन लीक्स और उनके साथियों ने दर्शाया है कि नैनोवायरस (जिन्हें मल्टीपार्टाइट वायरस भी कहते हैं) में यह सहयोग बारास्ता ठगी भी विकसित हो सकता है।
मान लीजिए कि शुरुआत में नैनोवायरसों में सारे जीन्स एक ही जीनोम में मौजूद थे। यह संभव है कि इस वायरस ने गलती से कोई अपूर्ण वायरस उत्पन्न कर दिया जिसमें एक ही जीन है। यह अपूर्ण ठग वायरस तभी जी सकता है जब कोई पूर्ण वायरस इसके जीन की प्रतिलिपि बनवा दे। इसी प्रकार से किसी दूसरे जीन से युक्त कोई अन्य अपूर्ण ठग बन सकता है और उसे भी किसी पूर्ण वायरस को लूटकर ऐसा ही लाभ मिल जाएगा। लीक्स के दल ने इस तरह की क्रियाविधि का गणितीय मॉडल बनाया तो समझ में आया कि वायरस काफी तेज़ी से ठगों का रूप ले सकते हैं। यानी लगेगा सहयोग, लेकिन शुरुआत होगी ठगी से। इनके बीच फैसला करने के लिए बहुत अनुसंधान की ज़रूरत होगी, लेकिन वैज्ञानिकों के बीच एक उम्मीद भी जगी है।
सामाजिक वायरस विज्ञानी यह देखने की कोशिश कर रहे हैं कि क्या वायरसों में उपस्थित ठगी और सहयोग की घटना का उपयोग वायरस से लड़ने में किया जा सकता है। उदाहरण के लिए सिंगापुर एजेंसी फॉर साइन्सेज़ के मार्को विग्नुज़ी की टीम ने इस विचार की जांच ज़िका वायरस के संदर्भ में की है। उन्होंने जेनेटिक इंजीनियरिंग की तकनीक से ऐसे अपूर्ण ज़िका वायरस तैयार किए जो कामकाजी वायरसों का भरपूर शोषण कर सकते थे। जब उन्होंने ऐसे ठगों को संक्रमित चूहों में प्रविष्ट किया तो उनमें कामकाजी वायरसों की संख्या में तेज़ी से कमी आई। अब इसे एक उपचार विधि के रूप में विकसित करने पर काम चल रहा है। न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय में शोधकर्ता बेन टेनोवर की टीम फ्लू वायरस के ठग वायरस विकसित करने की कोशिश कर रहे हैं। इसके लिए वे वायरस के ही एक लक्षण का फायदा उठाने की फिराक में हैं। ऐसा देखा गया है कि कभी-कभार एक ही कोशिका को एक ही समय पर संक्रमित करने वाले दो अलग-अलग वायरसों की जेनेटिक सामग्रियां एक ही कवच में पैक हो जाती हैं और एक नया वायरस प्रकट हो जाता है। टेनोवर का दल ऐसे अपूर्ण वायरस विकसित करना चाहता है जो फ्लू वायरस के जीनोम में घुसपैठ कर सकें।
इस दिशा में टेनोवर की टीम ने ठग वायरस से एक नेज़ल स्प्रे तैयार किया है। यह स्प्रे चूहों की नाक में छिड़क दिया जाए तो वे फ्लू के संक्रमण को झेल जाते हैं। न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय की इस टीम ने फ्लू संक्रमित कोशिकाओं से अपूर्ण वायरस हासिल किए हैं। इनमें से उन्होंने कुछ महा-ठग पहचाने हैं जो अपने जीन्स को कामकाजी फ्लू वायरस में पहुंचाने में कामयाब रहते हैं। इसके बाद जो वायरस बनता है वह संख्या-वृद्धि करने में कमज़ोर रहता है। जब कुछ चूहों को जानलेवा फ्लू से संक्रमित करने के बाद इस महा-ठग के संपर्क में लाया गया तो उनका संक्रमण काफी नियंत्रण में आ गया। यही प्रयोग उन्होंने गंधबिलावों पर भी करके अच्छे परिणाम हासिल किए।
अचरज की बात तो यह रही कि संक्रमित गंधबिलावों ने अन्य को जो वायरस हस्तांतरित किए उनमें काफी सारे महा-ठग भी थे। अर्थात यह संभव है कि ये महा-ठग वायरस के प्रसार पर भी अंकुश लगा सकते हैं।
अलबत्ता, कई शोधकर्ताओं ने चेताया है कि हम इस विषय में अभी बहुत कुछ नहीं जानते हैं। इसलिए इन ठगों के चिकित्सकीय उपयोग से पहले काफी अध्ययन की ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://media.wired.com/photos/664794450289e528557fbd67/4:3/w_1920,h_1440,c_limit/Science_1_Quanta_VirusSocialLives-byCarlosArrojo-Lede-scaled.jpg
एक अभूतपूर्व अध्ययन में, शोधकर्ताओं ने पाया है कि हाथी एक-दूसरे को संबोधित करने के लिए विशिष्ट नामों का उपयोग करते हैं। अभी तक ऐसे व्यवहार को मनुष्यों के लिए अद्वितीय माना जाता था। हालांकि डॉल्फिन और तोतों के बारे में यह देखा गया है कि वे अपने साथियों द्वारा निकाली गई ध्वनि की नकल करके उन्हें पुकारते हैं, लेकिन हाथी अपने झुंड के प्रत्येक सदस्य के लिए विशिष्ट ध्वनि का उपयोग करते हैं।
इस अध्ययन में शोधकर्ताओं की एक अंतर्राष्ट्रीय टीम ने कृत्रिम बुद्धि (एआई) का उपयोग करके केन्या स्थित अफ्रीकी सवाना हाथियों के दो जंगली झुंडों की आवाज़ों का विश्लेषण किया। उन्होंने 469 अलग-अलग आवाज़ों की पहचान की, जिसमें 101 ध्वनि संकेत हाथियों द्वारा उत्पन्न किए गए थे और 117 प्राप्त ध्वनि संकेत शामिल थे। नेचर इकॉलॉजी एंड इवॉल्यूशन में प्रकाशित इस अध्ययन से पता चलता है कि हाथी अपने नाम की पुकार को पहचानते हैं और उनका जवाब देते हैं। वे अन्य को दी जा रही पुकार को अनदेखा कर देते हैं। यह मनुष्यों के समान अमूर्त विचारों के परिष्कृत स्तर का संकेत देता है।
इसके अवाला शोधकर्ताओं ने केन्या स्थित सांबुरु नेशनल रिज़र्व और एम्बोसेली नेशनल पार्क से 1986 और 2022 के बीच रिकॉर्ड की गई हाथियों की ‘चिंघाड़’ ध्वनियों का विश्लेषण करके पाया कि नामों का इस्तेमाल अक्सर लंबी दूरी पर और ज़्यादातर वयस्कों द्वारा शिशु हाथियों को संबोधित करने के लिए किया जाता था। नन्हे हाथियों की तुलना में वयस्कों द्वारा नामों के अधिक उपयोग से लगता है कि इस कौशल में महारत हासिल करने में वर्षों लगते होंगे।
अध्ययन से पता चला कि सबसे आम आवाज़ कम आवृत्ति की संगीतमय ध्वनि होती है। जब हाथियों ने अपने किसी करीबी द्वारा पैदा की गई अपने नाम की रिकॉर्डिंग सुनी, तो उनकी प्रतिक्रिया अधिक उत्साहपूर्ण थी।
इस अध्ययन के वरिष्ठ लेखक जॉर्ज विटमायर इस खोज के आधार पर बताते हैं कि एक-दूसरे के लिए नाम गढ़ना मनुष्यों और हाथियों में ही नज़र आता है, जो अमूर्त विचार की उन्नत क्षमता का द्योतक है।
‘सेव दी एलीफेंट्स’ के सीईओ फ्रैंक पोप का कहना है कि सारे अंतरों के बावजूद मनुष्यों और हाथियों के बीच विस्तृत सामाजिक ताने-बाने की उपस्थिति जैसी समानताएं भी हैं जो एक विकसित दिमाग का प्रमाण है। यह अध्ययन हाथियों के बीच संवाद को समझने की शुरुआत मात्र है और जैव विकास में नामकरण की उत्पत्ति का अध्ययन करने के लिए नए रास्ते खोलता है तथा हाथियों की गहन संज्ञानात्मक क्षमताओं को और उजागर करता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://i.guim.co.uk/img/media/677388999bdddd37da7886fe477e625fe9eee226/0_300_4000_2400/master/4000.jpg?width=620&dpr=1&s=none