वैज्ञानिकों को यह तो काफी पहले से पता था कि यदि ऑक्टोपस की एक भुजा घायल हो जाए तो उनका यह उपांग दो शाखाओं में विभाजित हो जाता है और एक नई भुजा विकसित होती है (octopus limb regeneration)। अलबत्ता यह पता नहीं था कि यह नौवीं भुजा कितनी कामकाजी होती है और ऑक्टोपस क्षतिग्रस्त भुजा के साथ काम चलाना कैसे सीखता (octopus behavior after injury) है।
अब वैज्ञानिकों ने पहली बार प्राकृवास (natural habitat) में ऑक्टोपस का अध्ययन कर न सिर्फ टूटी हुई भुजा को फिर से विकसित होते देखा है बल्कि उसमें संवेदनशीलता का विकास भी देखा (octopus sensory recovery) है।
अध्ययन में शोधकर्ताओं ने स्पैनिश द्वीप इबीसा (Ibiza) के तट पर एक युवा ऑक्टोपस (Octopus vulgaris) को देखा, जिस पर शिकारी ने हमला किया था और उसकी आठ में से पांच भुजाएं घायल (octopus injury in wild) हो गई थीं। हालांकि, अधिकांश भुजाएं तो ठीक हो गईं, लेकिन सामने की दाहिनी भुजा दो हिस्सों में बंट गई, जिससे उसके पास नौ भुजाएं (nine arms in octopus) हो गईं।
शुरुआत में, ऑक्टोपस ने दर्द की वजह से घायल भुजा का इस्तेमाल शिकार (hunting behavior) जैसे खतरनाक कामों में नहीं किया। उसकी बजाय पास की दूसरी भुजा ने काम संभाला, जिससे पता चलता है कि घायल भुजा की सुरक्षा के लिए वे अपना व्यवहार कैसे बदलते (adaptive behavior in octopus) हैं।
लेकिन समय के साथ एक विचित्र चीज़ देखी गई। इस टूटी भुजा की दोनों शाखाएं मज़बूत होने लगीं और जटिल, जोखिमपूर्ण काम करने लगीं, जैसे चीज़ों को छूना और शिकार पकड़ना (prey capture with regrown arm)। यह बदलाव ऑक्टोपस के लचीलेपन (behavioral flexibility) को बखूबी उजागर करता है; न सिर्फ शरीर बल्कि उसके व्यवहार के लचीलेपन को भी। ऑक्टोपस की भुजाएं कुछ हद तक मस्तिष्क से स्वतंत्र (octopus decentralized nervous system) काम करती है, यानी ये मस्तिष्क के दखल के बिना संवेदी प्रतिक्रिया देने में सक्षम होती हैं। एनिमल पत्रिका (animal journal) में प्रकाशित इस अध्ययन में बताया गया है कि यह व्यवहार उसकी नव-निर्मित नौवीं भुजा में भी नज़र आया जब वह स्वस्थ होकर नए-नए काम करने लगी।(स्रोतफीचर्स)
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पैंगोलिन दुनिया के इकलौते स्तनधारी जीव हैं जिनके शरीर पर सुरक्षात्मक कवच (pangolin with scales) होता है। लेकिन दुर्भाग्य से इनकी आबादी बहुत तेज़ी से कम हो रही है। इसके लिए इनकी खाल की अवैध तस्करी (illegal pangolin trade) को दोष दिया जाता है, लेकिन एक नए अध्ययन से पता चला है कि नाइजीरिया के क्रॉस रिवर जंगलों में इनकी संख्या घटने की वजह कुछ और है – इनके मांस के लिए स्थानीय लोगों द्वारा शिकार (pangolin meat hunting)।
कैम्ब्रिज युनिवर्सिटी के वैज्ञानिकों ने 3 साल तक 33 गांवों में 800 से ज़्यादा शिकारियों और व्यापारियों से बातचीत में पाया कि हर साल करीब 21,000 पैंगोलिन मारे जाते हैं। हैरानी की बात यह है कि ज़्यादातर पैंगोलिन का शिकार इरादतन नहीं होता, बल्कि खेतों में काम करते समय ये अचानक मिल जाते हैं और मारे जाते हैं या जाल में फंस जाते हैं। चिंताजनक बात यह है कि अन्य शिकारी जीवों से बचाव की पैंगोलिन की रणनीति – सिकुड़कर गोल गेंदनुमा (pangolin defense mechanism) बन जाना – मनुष्यों के लिए इन्हें पकड़ना आसान बना देती है।
इस शोध से पता चला है कि पैंगोलिन के शिकार की सबसे बड़ी वजह है उसका मांस (pangolin meat consumption)। पकड़े गए करीब तीन-चौथाई पैंगोलिन शिकारी खुद खाते हैं और बाकी को स्थानीय बाज़ारों (local wildlife markets, bushmeat in Nigeria) में बेच देते हैं। इसके उलट, उनकी खाल या तो फेंक दी जाती है या बहुत कम कीमत पर बिकती है। इसकी तुलना में मांस से तीन-चार गुना अधिक कमाई होती है।
असल में, स्थानीय इलाकों में पैंगोलिन का मांस बीफ या चिकन से भी अधिक स्वादिष्ट (pangolin meat preference over beef) माना जाता है। कुछ पारंपरिक मान्यताएं तो इसे गर्भवती महिलाओं के लिए फायदेमंद भी मानती हैं, ताकि बच्चा स्वस्थ हो। ऐसी सांस्कृतिक मान्यताओं के चलते शिकार और इन जानवरों की धीमी प्रजनन दर (pangolin reproduction rate) मिलकर इनकी संख्या दोबारा बढ़ने नहीं देती। ऊपर से, तेज़ी से हो रही जंगलों की कटाई और खेती की वजह से पैंगोलिन का प्राकृतवास खत्म (pangolinhabitat loss) होता जा रहा है।
वैज्ञानिकों का मानना है कि इस संकट से निपटने के लिए सिर्फ अंतर्राष्ट्रीय नियमों से काम नहीं चलेगा, स्थानीय स्तर (community-based conservation) पर भी ठोस कदम उठाने होंगे। इनमें शामिल हैं: गांवों में मज़बूत निगरानी दल, स्थानीय रूप से लागू वन्यजीव सुरक्षा कानून, और ऐसी योजनाएं जो लोगों की जंगली जानवरों के शिकार से हासिल मांस पर निर्भरता घटाएं (wildlife protection laws) ।
प्रोफेसर एंड्रयू बामफोर्ड के अनुसार जब तक लोगों के व्यवहार का कारण (understanding local hunting behavior) नहीं समझा जाता, तब तक कोई कारगर संरक्षण योजना नहीं बन सकती। साथ ही संरक्षण के प्रयासों में सहभागिता के लिए ज़रूरी है कि स्थानीय लोग पैंगोलिन के पारिस्थितिकी महत्व को समझें (ecological role of pangolins)।
अध्ययन के मुख्य शोधकर्ता डॉ. चार्ल्स एमोगोर ‘पैंगोलिनो’ (Pangolino) नामक एक स्थानीय संगठन चलाते हैं जो ऐसी ही एक पहल कर रहा है। उनका कहना है कि यदि हमने पैंगोलिन को खो दिया तो हम जैव विकास की 8 करोड़ साल पुरानी धरोहर (evolutionary significance of pangolins, pangolin extinction threat) खो देंगे। ये एकमात्र शल्कधारी स्तनधारी हैं और इनके पूर्वज डायनासौर के समकालीन थे। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/thumb/d/d5/Pangolin_brought_to_the_Range_office%2C_KMTR_AJTJ_cropped.jpg/1200px-Pangolin_brought_to_the_Range_office%2C_KMTR_AJTJ_cropped.jpg
इमली, नींबू, कैरी जैसी खट्टी चीज़ें (sour fruits) वैसे तो हम चटखारे लेकर खाते हैं, लेकिन इनको खाने से चेहरे पर उभरी तरह-तरह की भंगिमाओं से भी हम खूब वाकिफ हैं – भिंची हुई अधखुली आंखें, सिकुड़ा-कसकर बंद मुंह और मुंह में आता पानी! हम खट्टा तो खाते हैं या खा सकते हैं लेकिन एक हद तक, थोड़ी मात्रा में। हम इन्सानों की वरीयता मीठे स्वाद की अधिक (sweet vs sour taste, human taste preference) होती है, खासकर फलों के मामले में। लेकिन, शायद आपने गौर किया हो, कई पक्षी खट्टे फल (नींबू, कैरी) वगैरह बड़े मज़े से खाते हैं, और वो भी बिना ‘मुंह बिगाड़े’। और तो और, हमारी तरह थोड़ी मात्रा में नहीं बल्कि ये खट्टे फल इनका भोजन होते हैं। लेकिन कैसे वे इतना खट्टा खा लेते हैं? क्या उनको खट्टा नहीं लगता है?
इसी गुत्थी को सुलझाया है चाइनीज़ एकेडमी ऑफ साइंसेज़ के जीवविज्ञानी लेई लुओ, वैकासिक जीवविज्ञानी हाओ झांग और उनके दल ने। उनका कहना है कि हमारे लिए जो घोर खट्टी चीज़ें है, कुछ पक्षियों को वे उतनी खट्टी लगती ही नहीं हैं (bird sour taste tolerance, why birds eat lemon)। और, ऐसा होता है उनके खास विकसित स्वाद ग्राहियों की वजह से, जो खट्टेपन को दबा देते हैं।
दरअसल, पिछले कुछ सालों में अध्ययनों का दायरा ‘पक्षी क्या खाते हैं’ से ‘पक्षी जो खाते हैं वो क्यों-कैसे खाते हैं’ समझने तक बढ़ा है (avian feeding behavior)। इसी के साथ ही, खट्टे स्वाद को भी तफसील से समझा जाने लगा। अभी, सात साल पहले ही यह मालूम चला है कि कशेरुकियों में खट्टे स्वाद के ग्राही कौन से हैं। इन ग्राहियों को OTOP1 (OTOP1 taste receptor) की संज्ञा दी गई है।
तो, शोधकर्ताओं के मन में सवाल थे कि क्या उनके खट्टे स्वाद के ग्राही कुछ भिन्न होते हैं और यदि होते हैं तो क्या अंतर है? जैव-विकास में यह अंतर कब आया? इसका फायदा क्या है?
इसे समझने के लिए शोधकर्ताओं ने चूहों, कबूतर और एक तरह की सॉन्ग बर्ड कैनरी के OTOP1 ग्राहियों को अलग-अलग सांद्रता के अम्लीय घोल (खट्टे घोल) ‘चखाए’ और उनकी प्रतिक्रिया (taste receptor comparison, mouse vs bird sour taste) देखी। पाया गया कि खट्टापन बढ़ने के साथ चूहों के ग्राहियों की सक्रियता बढ़ती गई। अधिक खट्टे खाद्य पदार्थ चूहों और हम जैसे अन्य स्तनधारियों को अधिक खट्टे लगते हैं। लेकिन कबूतर और कैनरी के खट्टे स्वाद के (OTOP1) ग्राही नींबू जितनी खटास वाले घोल पर भी कम सक्रिय रहे। यानी उन्हें खट्टा स्वाद उतना खट्टा नहीं लगता। इसके अलावा यह भी देखा गया कि कैनरी पक्षी के OTOP1 स्वाद ग्राही कबूतर की तुलना में खट्टे के प्रति अधिक सहनशील (canary taste tolerance) हैं।
अब देखना था कि विभिन्न कशेरुकियों के OTOP1 स्वाद ग्राही इतनी अलग-अलग प्रतिक्रिया क्यों करते हैं। इसे समझने के लिए शोधकर्ताओं ने OTOP1 ग्राही को एन्कोड करने वाले जीन के अलग-अलग हिस्सों में उत्परिवर्तन (mutation and taste adaptation) करके देखे। इससे उन्हें चार ऐसे अमीनो एसिड मिले जो खट्टेपन की सहनशीलता को बढ़ाने के लिए ज़िम्मेदार हो सकते हैं। अंतत: उन्हें एक ऐसा अमीनो एडिस – G378 (G378 amino acid) – मिला जो खट्टेपन की सहनशीलता को बढ़ाने के लिए ज़िम्मेदार होता है। और, यह अमीनो एसिड सिर्फ कैनरी जैसे सॉन्ग बर्ड्स में पाया जाता है। अध्ययन में भी तो सॉन्ग बर्ड्स के स्वाद ग्राही ही खट्टे स्वाद के प्रति सबसे अधिक सहनशील दिखे थे।
फिर, शोधकर्ताओं ने विभिन्न पक्षियों (खट्टा खाने और न खाने वाले पक्षियों) के OTOP1 के प्रोटीन अनुक्रमों की तुलना की। उन्होंने पाया कि सॉन्ग बर्डस में G378 – और इससे हासिल खटास के प्रति सहनशीलता – करीब ढाई से साढ़े तीन करोड़ साल पहले प्रकट (evolution of taste in birds) हुई है। दिलचस्प बात यह है कि सॉन्ग बर्ड्स में G378 का प्राकट्य मीठे स्वाद के ग्राहियों के उद्भव के साथ हुआ है।
ऐसा अनुमान है कि पक्षियों द्वारा खट्टे फल खाने को वरीयता देना अन्य जीवों के साथ भोजन प्रतिस्पर्धा (food competition in animals) को कम करता है। जब फल खाने वाले अन्य स्तनधारी जीव, खासकर बड़े जीव, मीठे फल खाते हैं, तो खट्टे फल पक्षियों के लिए बचे रहते हैं। खासकर आपदा की स्थिति में खट्टे फल खाकर ऊर्जा ले पाना जीवित रहने का एक अच्छा तरीका है।
एक संभावना यह भी है कि पक्षियों में खट्टेपन की सहनशीलता और पौधों में पक्षी-अनुकूल फलों का स्वाद सह-विकास (co-evolution plants and birds, seed dispersal by birds) का परिणाम है। पक्षी फल खाकर अपने मल (बीट) के माध्यम से दूर-दूर तक बीज फैलाते हैं, यदि पेड़-पौधों के फलों का स्वाद पक्षियों को भाएगा तो उसके बीज दूर-दूर तक पहुंचेंगे। जो पेड़-पौधे के हित में होगा। इसलिए, एक मान्यता है कि पेड़-पौधे अपने फलों का स्वाद पक्षी अनुकूल करते गए होंगे।
बहरहाल, इस क्षेत्र में अध्ययन अभी शुरू ही हुए हैं। दुनिया भर में पक्षियों की 10,000 से अधिक प्रजातियां हैं, जिनका विविध तरह का भोजन (bird species diet diversity) है। इन पर व्यापक अध्ययन कई परतें खोल सकता है। (स्रोतफीचर्स)
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हमें रेल्वे स्टेशनों पर मंडराते चूहे या घर की रसोई में विचरते कॉकरोच (cockroach infestation) तो खूब नज़र आते हैं और हम मान लेते हैं कि ये शहरी नाशी-कीटों (urban pests) में सर्वोपरि हैं। लेकिन हाल ही में बायोलॉजीलेटर्स में प्रकाशित एक अध्ययन कहता है कि इन सबसे पहले खटमल (bed bugs) ने शहरी बस्तियों को त्रस्त किया था। जी हां, वही खटमल जो ट्रेन की सीटों में, टॉकीज़ों में और घरों के बिस्तरों (mattress pests) में रहता है और खून चूसता है।
खटमलों की कई प्रजातियां हम पर आश्रित हैं और उनका जीवन हमारा खून पीकर ही चलता है। लेकिन जेनेटिक साक्ष्य बताते हैं सुदूर अतीत में खटमलों का पसंदीदा, या शायद एकमात्र, शिकार चमगादड़ हुआ करते थे। जेनेटिक प्रमाण यह भी बताते हैं कि लगभग 2 लाख 45 हज़ार वर्ष पूर्व कुछ खटमलों ने छलांग लगाकर मनुष्यों को अपना पोषक (evolution of bed bugs) बना लिया।
कहते हैं कि इस छलांग के चलते खटमलों के दो वंश उभरे थे – एक जो चमगादड़ों का खून चूसते रहे और मुख्य रूप से गुफाओं तथा युरोप और मध्य पूर्व के प्राकृत वासों में बसे रहे। दूसरे वंश ने आधुनिक बस्तियों में मनुष्य को ‘साथी’ बनाया (human-host bed bugs)।
इस प्रक्रिया को समझने के प्रयास में वर्जीनिया पोलीटेक्निक इंस्टीट्यूट (Virginia Tech) के जीव वैज्ञानिक वॉरेन बूथ और उनके साथियों ने चेक गणतंत्र में रहने वाले आम खटमलों की 19 किस्मों (10 चमगादड़ों का खून चूसने वाले और 9 पूर्णत: मनुष्यों पर आश्रित) के संपूर्ण जीनोम्स का विश्लेषण (genome analysis) किया। इन दो समूहों के डीएनए में हुए उत्परिवर्तनों की तुलना की और यह मॉडलिंग किया इस तरह के परिणाम आने के लिए प्रत्येक समूह की आबादी (population genetics of parasites) कितनी रही होगी। इस आधार पर बूथ समूह ने अनुमान लगाया कि प्रत्येक खटमल किस्म की आबादी में दसियों हज़ार सालों में कैसे उतार-चढ़ाव आए होंगे। उन्होंने पाया कि चमगादड़-सम्बंधी खटमलों की आबादी 60,000 सालों तक निरंतर घटती गई जबकि मानव सम्बंधी वंशों की आबादी भी 60,000 साल पहले घटी थी लेकिन 13,000 साल पहले और 7000 साल पहले यह फिर से बढ़ी (human settlements and pest evolution) थी।
इस परिवर्तन के कारण के तौर पर बूथ की टीम का मत है कि ठंडी होती जलवायु ने खटमलों की आबादी में शुरुआती गिरावट पैदा की लेकिन जब मनुष्य घुमंतू जीवन शैली छोड़कर बसने लगे (early human settlements) तो खटमलों ने नए आरामदायक जीवन का फायदा उठाया और उनकी आबादी बढ़ी। और 7000 साल पहले तो बड़ी शहरी बस्तियों (urban development) के विकास ने उन्हें एक और मौका दे दिया। यदि यह कालक्रम सही है, तो खटमल को दुनिया का सबसे पहला शहरी नाशी-कीट (world’s first urban pest)होने का खिताब मिलेगा जो पूरी तरह मनुष्यों पर आश्रित हैं। तुलना के लिए देखें कि कॉकरोच ने हमसे निकट सहवासी सम्बंध मात्र 2000 साल पहले तथा काले चूहे (black rats) ने मात्र 5000 साल पहले स्थापित किया है। खटमल तो हमारा खून तब से चूसते आ रहे हैं जब हमारे पूर्वज बस्तियां बनाकर रहने लगे थे। वैसे, कई शोधकर्ताओं का मत है कि खटमल को यह खिताब देने से पहले यह समझना होगा कि कई अन्य जंतुओं को लेकर ऐसे अध्ययन हुए ही नहीं हैं (pest history research gap)। (स्रोत फीचर्स)
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हाल ही में ऑस्ट्रेलिया में मिले प्राचीन पंजों (Australia fossil discovery) के निशानों ने वैज्ञानिकों को हैरान कर दिया है। इन निशानों से पता चलता है कि सरीसृप (जैसे छिपकली) (ancient reptile footprints) और उनके निकट सम्बंधी शायद हमारे अनुमान से करोड़ों साल पहले ही धरती पर आ गए थे। नेचर पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार, ये निशान एम्नीओट्स (early amniotes) प्राणियों ने बनाए होंगे। इस समूह में सरीसृप, पक्षी और स्तनधारी आते हैं।
एम्नीओट्स की खास बात यह है कि ये ज़मीन पर अंडे (land egg-laying animals) देते हैं या भ्रूण को गर्भ में पालते हैं। इन अंडों के चारों ओर एक झिल्ली (amniotic egg evolution) होती है जो उसे सूखने से बचाती है। इन जीवों का अब तक का सबसे प्राचीन जीवाश्म कनाडा से मिला था, जो करीब 31.9 करोड़ साल पुराना था। लेकिन अब ऑस्ट्रेलिया में मिले इन निशानों से पता चलता है कि ये प्राणी इससे भी कम से कम 35 लाख साल पहले (Carboniferous period) से, यानी 35.5 करोड़ साल पहले से मौजूद थे। यह वही समय है जब कार्बोनिफेरस युग (उभयचर जीवों और सरीसृपों के उद्भव के दौर) की शुरुआत हुई थी।
ये निशान ऑस्ट्रेलिया स्थित विक्टोरिया (paleontology site Victoria) इलाके में ब्रोकन नदी (broken river fossil) के किनारे बलुआ पत्थर की एक चट्टान में मिले हैं। वहां के स्थानीय ताउंगुरंग आदिवासी इस जगह को ‘बेरेपिट’ (Indigenous heritage site) कहते हैं। उसी चट्टान में कुछ पुराने जलीय जीवों के अवशेष भी मिले हैं, जो बताते हैं कि ये निशान वाकई उस दौर के हो सकते हैं।
इस प्रकार के नुकीले और मुड़े हुए पंजे सिर्फ सरीसृपों (distinct claw fossil) में पाए जाते हैं, जबकि उभयचरों (जैसे मेंढकों) के ऐसे पंजे नहीं होते हैं। साथ ही पेट या पूंछ घसीटने के कोई निशान नहीं मिले, जिससे लगता है कि ये जानवर चलने (reptilian locomotion) में अपने शरीर को ऊपर उठा सकते थे। हालांकि, कुछ वैज्ञानिक मानते हैं कि शायद ये जीव उथले पानी (shallow water) में चलते होंगे, न कि पूरी तरह सूखी ज़मीन पर।
बहरहाल, यह खोज जीवन के कालक्रम की समझ को बदलती है और बताती है कि ज़मीन पर अंडे देने वाले प्राणी (land animals origin) हमारी सोच से कहीं पहले अस्तित्व में आ चुके थे। (स्रोत फीचर्स)
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गाहे-बगाहे आने वाली सुर्खियों से हमें इतना तो पता है कि वैज्ञानिक अन्य ग्रहों पर लगातार नए तरह के जीवन की तलाश में लगे हुए हैं। लेकिन एक सच्चाई यह भी है कि अभी हमारी पृथ्वी पर ही मौजूद जीवन के कई रूप अनदेखे, अनखोजे हैं, खासकर समुद्री (या जलीय) जीवन (marine biodiversity) रूप। ऐसा अनुमान है कि हम अब तक जितने भी समुद्री जीवन के बारे में जानते हैं वह वास्तव में मौजूदा जैव-विविधता का मात्र 10 प्रतिशत (ocean species discovery) है।
वैज्ञानिक अनखोजे जीवों की खोज में भी हैं; कभी इरादतन खोजते हुए तो कभी इत्तेफाकन वैज्ञानिकों को नई-नई प्रजातियां (new marine species) मिलती हैं। दिलचस्प बात है कि गैर-मुनाफा संस्था ओशिएन सेंसस द्वारा चलाए जा रहे एक खोजी अभियान ने तकरीबन 850 नई समुद्री प्रजातियां खोजी (deep sea exploration) हैं। वाकई कितना कुछ खोजा जाना बाकी है। तो चलिए जानते हैं पिछले कुछ समय में विभिन्न समूहों द्वारा खोजी गई कुछ नई दिलचस्प समुद्री प्रजातियों के बारे में।
अकॉर्डियनकृमि – सबसे पहले इसे 2021 में देखा गया था। स्पेन की अराउसा नदी के मुहाने से लगभग एक किलोमीटर दूर और महज 32 मीटर गहराई पर एक गोताखोर ने इसे एक सीपी के नीचे देखा था। इसकी खास बात है कि यह अकॉर्डियन की तरह फैल-सिकुड़ (accordion worm discovery) सकता है। फैलने पर इसकी पूरी लंबाई 25 सेंटीमीटर होती है, और सिकुड़ने पर यह मात्र 5 सेंटीमीटर लंबा रह जाता है। सिकुड़ने पर इसके शरीर पर छल्ले दिखाई देते हैं, जिनकी संख्या करीब 60 है। इन्हीं छल्लों की वजह से इसे आम बोलचाल में अकॉर्डियन कृमि कहा गया है, वैसे औपचारिक द्विनाम पद्धति में इसे पैरारोसाविगारे (Pararosa vigarae) नाम दिया गया है। यह रिबन कृमि की एक नई प्रजाति है। हालांकि इसे रिबन कृमि की एक नई प्रजाति कहना इतना सीधा काम नहीं था। क्योंकि सभी रिबन कृमि देखने में एक जैसे दिखते हैं। उन्हें मात्र देखकर अलग-अलग प्रजाति नहीं कहा जा सकता। इसलिए डीएनए अनुक्रमण (DNA barcoding marine species) किया गया और हाल ही में वैज्ञानिकों ने इसे एक नई प्रजाति की मान्यता दी है।
पिगमीपाइपहॉर्स – दक्षिण अफ्रीका के नज़दीक हिंद महासागर में पिगमी पाइपहॉर्स (pygmy pipehorse Indian Ocean) की यह प्रजाति मिली है। महज़ 4 सेंटीमीटर लंबा यह जीव सीहॉर्स, सीड्रैगन और पाइपफिश का सम्बंधी है और सिंग्नेथिडे कुल का सदस्य है, जिसे साइलिक्सनोसी (Cylix nkosi) नाम दिया गया है। अपने सम्बंधियों की तरह यह भी छद्मावरणधारी है। यानी इसका हुलिया अपने परिवेश, अपने प्राकृतवास (कोरल रीफ) से इतना मेल खाता है कि इसे आसानी से नहीं ढूंढा जा सकता है; इसे देखने के लिए गोताखोर और इसके शिकारियों को पैनी निगाहें चाहिए (camouflage marine animal)। खास बात यह है कि इस वंश का यह पहला सदस्य है जो अफ्रीका के नज़दीकी समुद्र में मिला है, वर्ना अब तक इसके बाकी सदस्य न्यूज़ीलैंड के पास ठंडे क्षेत्रों में पाए गए हैं।
गिटारशार्क– मोज़ाम्बिक और तंज़ानिया के नज़दीकी समुद्र में करीब 200 मीटर की गहराई पर गिटार शार्क (guitarfish discovery Africa) की एक नई प्रजाति खोजी गई है। इस प्रजाति के मिलने के बाद गिटार शार्क प्रजातियों की कुल संख्या 38 हो गई है (Rhynobatos species list)। गिटार शार्क की खास बात उनका चपटा शरीर और चौड़ा सिर है, और इसी बनावट के कारण उन्हें गिटार शार्क कहा जाता है। इस प्रजाति को डेविड एबर्ट (David Ebert shark expert) ने खोजा है जिन्होंने अपना करियर अनभिज्ञ शार्क प्रजातियों को खोजने में लगाया हुआ है। इस गिटार शार्क को राइनोबाटोस कुल में रखा गया है। लेकिन दुखद बात यह है कि गिटार शार्क की दो-तिहाई प्रजातियां जोखिमग्रस्त (endangered shark species) की श्रेणी में हैं।
एक तरह का शंख टूरीड्रूपा मैग्नीफिका – प्रशांत महासागर में स्थित दो द्वीप न्यू कैलेडोनिआ और वनौतू के नज़दीक समुद्र में करीब 500 मीटर की गहराई पर यह प्रजाति (Turidrupa magnifica shell) मिली है। शिकारी प्रवृत्ति का यह गैस्ट्रोपॉड हालिया पहचानी गई 100 टूरीड गैस्ट्रोपॉड में से एक है। इस शंख की खासियत इसके विषैले और नुकीले दांत (venomous sea snail) हैं, जिन्हें यह अपने शिकारियों में चुभोकर उनका शिकार करता है।
स्क्वैट लोबस्टर – श्मिट ओशिएन इंस्टीट्यूट के खोजी अभियान में यह चिली के समुद्री तट के नज़दीक स्थित नाज़्का रिज (squat lobster Nazca Ridge) पर लगभग 400 मीटर की गहराई पर मिला है। वैज्ञानिकों ने इसे गैलेथिया वंश (Galathea genus crustacean) के सदस्य के रूप में पहचाना है। दिलचस्प बात यह है कि गैलेथिया वंश का यह पहला सदस्य है जो दक्षिण-पूर्वी प्रशांत महासागर में पाया गया है (new crustacean species discovery)। (स्रोत फीचर्स)
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यहां दी गई तस्वीर को ध्यान से देखिए। आपके ख्याल से यह किसकी तस्वीर है? यदि आपका कहना है कि यह तो किसी सूखी सी, मुड़ी हुई पत्ती की तस्वीर है तो इस कीट की युक्ति सफल हुई है और आप धोखा खा गए हैं। वास्तव में, इस तस्वीर में जो दिखाई दे रहा है वह कोई पत्ती नहीं बल्कि एक तरह का पतंगा (Eudocima salaminia) (camouflage moth) है। इस पतंगे के पत्ती सरीखे शरीर का उद्देश्य ही है अपने शिकारियों को चकमा देना ([mimicry in insects], [natural camouflage]) और उनसे बचना। और, मज़ेदार बात यह है कि सिर्फ हम-आप या इसके शिकारी ही नहीं बल्कि एआई (कृत्रिम बुद्धि – artificial intelligence) भी इसके इस रूप-रंग के कारण धोखा खा गया और इसे पत्ती या पेड़ की छाल मान बैठा।
बताते चलें कि यह पत्तीरूपिया पतंगा मुख्यत: भारत और दक्षिण-पूर्व एशिया (India and Southeast Asia insects) में पाया जाता है, और साइट्रस फलों (जैसे नींबू, संतरा, मौसंबी) को पसंद करता है।
अब आते हैं इस बात पर कि एआई ने इसे कहां देख लिया और कैसे धोखा खा गया। असल में शोधकर्ता डीप लर्निंग एआई (deep learning model, AI in biology) से छद्मावरणधारी छह तरह के पतंगों की 3-डी तस्वीर बनवाना चाह रहे थे। इसके लिए उन्होंने पैटर्न पहचानने में दक्षता रखने वाले एक डीप लर्निंग एआई को जानकारी के तौर पर उन्हीं पतंगों की 2-डी तस्वीरें दिखाई जिनकी 3-डी तस्वीर उन्हें बनवानी थी। इन्हीं छह पतंगों में Eudocima salaminia पतंगे की तस्वीरें भी शामिल थीं।
बस यहीं एआई पतंगे के शरीर का पैटर्न समझने में धोखा खा गया और उसने Eudocima salaminia की पतंगेनुमा तस्वीर बनाने की बजाय मुड़े हुए पत्ते या पेड़ की छाल जैसी 3-डी छवियां बना डालीं। यह खबर शोधकर्ताओं ने जर्नल ऑफ दी रॉयल सोसाइटी इंटरफेस (journal of royal society interface) में प्रकाशित की है।
अब आगे वैज्ञानिक एआई को अलग-अलग दिशा से आती रोशनी में खींची गई और अलग-अलग पृष्ठभूमि में खींची गई तस्वीरें दिखा कर देखना चाहते हैं कि क्या इन प्राकृतिक परिवेश (natural environments) में भी एआई धोखा खाता है या पत्ती और पतंगे में भेद कर पाता है। साथ ही वे शिकारियों को धोखा देने के उद्देश्य के अलावा अन्य उद्देश्य से छद्मावरण धारण करने वाले विभिन्न जीवों पर भी ऐसे प्रयोग करके देखना चाहते हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://pbs.twimg.com/card_img/1917679665671540736/8zemDjkR?format=jpg&name=small
करीब एक सदी से वैज्ञानिकों को एक जीव की तलाश थी – यह जीव था एक प्रकार का स्क्विड (Mesonychoteuthis hamiltoni) (colossal squid)। हाल ही में शोधकर्ता इस आधा टन वज़नी स्क्विड को उसके अपने प्राकृतवास में जीवित देख पाए हैं। और तो और, उन्होंने इसे इसकी शैशवावस्था (baby colossal squid) में देखा है।
दरअसल, करीब सौ साल पहले वैज्ञानिकों ने स्पर्म व्हेल के पेट में पहली बार इस स्क्विड (कोलोसल स्क्विड) के अवशेषों को देखा था (deep sea creatures)। तब से उन्हें इसकी तलाश थी। हालांकि मछुआरों द्वारा मछली पकड़ने के लिए फेंके गए जाल में कभी-कभी ये स्क्विड भी फंस जाते हैं, लेकिन मृत अवस्था में। मृत कोलोसल स्क्विड के अवलोकन के आधार पर वैज्ञानिक इसके बारे में कुछ बुनियादी बातें बता पाए थे। जैसे वह कैसा दिखता है, उसका भोजन क्या होगा वगैरह। उनका यह भी अनुमान था कि यह समुद्री जीवन का संभवत: सबसे वज़नी अकेशरुकी जीव होगा(largest invertebrate in ocean)।
लेकिन जीवित मिल जाए तो इसके बारे में बहुत कुछ बताया जा सकता है। इसलिए लगातार इसकी तलाश जारी थी। इस तलाश को विराम मिला विगत 9 मार्च को, जब श्मिट ओशियन इंस्टीट्यूट (Schmidt Ocean Institute) का शोधपोत दक्षिण अटलांटिक महासागर में सर्वेक्षण अभियान पर था। जब शोधपोत दक्षिणी सेंडविच द्वीप के पास था, तब रिमोट नियंत्रित किए जा सकने वाले वीडियो कैमरे से लैस एक गाड़ी समुद्र में 600 मीटर की गहराई पर भेजी गई (underwater ROV), जिसके ज़रिए जीवविज्ञानी समुद्र की इस गहराई पर मौजूद जीवन का जायज़ा ले रहे थे। इसी दौरान उन्होंने 30 सेंटीमीटर लंबे शिशु स्क्विड को देखा। स्क्विड के विशिष्ट टेंटेकल्स और पिच्छों की आकृति से जीव वैज्ञानिकों ने इसके कोलोसल स्क्विड होने की पुष्टि की है। शिशु अवस्था में इसका शरीर पारदर्शी होता है। वैज्ञानिकों का ऐसा अनुमान है कि उम्र बढ़ने के साथ इसका पारदर्शी शरीर अपारदर्शी और लाल रंग का हो जाएगा।
इसके थोड़े ही पहले, जनवरी माह में एक अन्य अभियान में अंटार्कटिका के नज़दीक बेलिंग्सहॉसन सागर में इस स्क्विड के एक सम्बंधी, ग्लेशियल ग्लास स्क्विड (Galiteuthis glacialis) (glacial glass squid) को भी पहली बार देखा गया था। दो अभियानों में दो अलग-अलग स्क्विड को पहली बार देखा जाना दर्शाता है कि हम महासागरीय जीवन से कितना अनभिज्ञ (mysteries of deep sea) हैं। बहरहाल, इन खोजों से उम्मीद है कि वैज्ञानिक इन जीवों के बारे में अधिक जान पाएंगे। (स्रोतफीचर्स)
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बाघ, तेंदुआ, कुत्ता, बिल्ली जैसे बड़े-बड़े जानवर अपना इलाका बांधते हैं (animal territorial behavior)। यानी वे कुछ संकेतों के ज़रिए अपना अधिकार क्षेत्र चिंहित करते हैं। इस इलाके के संसाधनों, खासकर मादाओं, पर उनका अधिकार होता है। और, इलाके में अतिक्रमण की कोशिश हो तो चेतावनियों से लेकर मुठभेड़ तक की स्थिति बन सकती है (animal conflict over territory)।
लेकिन क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि 2 मिलीमीटर छोटी वार्टी बर्च इल्ली (caterpillar territorial behavior) भी इलाका बांधती होगा। जी हां, इतनी छोटी-सी इल्ली 1 सेंटीमीटर लंबी जगह का इलाका बांधती है।
उत्तरी अमेरिका में दो-धारियों वाली एक पतंगा मादा (Falcaria bilineata) सनोबर की टहनियों और पत्तियों पर अपने अंडे देती है। जब अंडे फूटते हैं तो इनसे निकलने वाली इल्ली (वार्टी बर्च कैटरपिलर) तुरंत ही करीब की पत्तियों की नोंक पर चली जाती हैं। वैज्ञानिकों ने काफी समय से इल्लियों के इस व्यवहार के अलावा एक और व्यवहार पर गौर किया था – ये इल्लियां पत्तियों पर कम्पन (caterpillar vibration signals) करती हैं। इस व्यवहार को देखकर लगा कि संभवत: यह इलाका बांधने का संकेत है।
अनुमान की जांच करने के लिए कार्लटन विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने कुछ वार्टी बर्च इल्लियों को पकड़कर प्रयोगशाला में यह देखने के लिए जमाया कि यदि किसी पत्ती पर कोई वार्टी बर्च इल्ली पहले से है और उसी प्रजाति की दूसरी इल्ली आती है तो पहले से बैठी इल्ली क्या प्रतिक्रिया देती है? उन्होंने पाया कि जब कोई घुसपैठिया इल्ली आती है तो पहली इल्ली अधिक ज़ोर-ज़ोर से कम्पन करना शुरू कर देती है। वह अपने शरीर को पत्ती पर ठोंककर आवाज़ पैदा करती है और अपने शरीर को पत्ती पर रगड़ती (insect communication through vibration) है। यह ध्वनि इस बात का संकेत होती है कि यह इलाका आरक्षित है, कहीं और चले जाओ। यदि घुसपैठिया इल्ली फिर भी आगे बढ़ती है तो कम्पन पहले से भी 14 गुना तेज़ी से होने लगते हैं।
जर्नलऑफएक्सपेरीमेंटलबायोलॉजी(Journal of Experimental Biology) में प्रकाशित शोध पत्र में बताया गया है कि इन कम्पनों से उन्हें अपना छोटा-सा इलाका बचाए रखने में मदद मिलती है; 71 प्रतिशत मामलों में इल्लियां इस तरह अपना इलाका महफूज़ रख पाईं लेकिन जिन मामलों में घुसपैठिया इल्ली हावी हुई तो देखा गया कि निवासी इल्ली रेशम के धागे के सहारे पत्ती से नीचे कूद गई।
शोधकर्ताओं का कहना है कि इल्ली पत्ती के सिरे पर इसलिए जाती हैं क्योंकि पत्ती की नोंक लचीली होती है जिसके चलते कम्पन को बढ़ाने में मदद (leaf tip flexibility vibration) मिलती है, और जान पर आने के समय रेशमी धागे के सहारे कूदना भी आसान है ही। (स्रोतफीचर्स)
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अमूमन प्रतिरक्षा कोशिकाएं शरीर को संक्रमण से बचाने का काम करती हैं, लेकिन रेग्युलेटरी टी कोशिकाओं (ट्रेग्स) का काम एक तरह से सामंजस्य की स्थिति बनाए रखना होता है — ये सूजन कम करती हैं, घाव भरने में मदद करती हैं (immune system regulation) और प्रतिरक्षा तंत्र को स्वयं अपने शरीर के विरुद्ध काम करने से रोकती (autoimmune response control) हैं। और अब, वैज्ञानिकों ने पाया है कि कुछ ट्रेग्स कोशिकाएं दर्द भी कम कर सकती (pain modulation by Tregs) हैं, हालांकि यह असर केवल मादा चूहों में देखा गया है।
साइंस(science) पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन में शोधकर्ता यह समझने की कोशिश कर रहे थे कि ट्रेग्स दर्द को कैसे प्रभावित करती हैं। उन्होंने मस्तिष्क और रीढ़ की हड्डी को ढंकने वाली सुरक्षा झिल्लियों (मेनिन्जेस)( meninges Tregs study) में मौजूद ट्रेग्स पर ध्यान दिया, जहां ये कोशिकाएं सामान्य से कहीं ज़्यादा पाई जाती हैं।
परीक्षण के लिए उन्होंने ऐसे चूहे तैयार किए जिनमें इन खास ट्रेग्स को एक बैक्टीरिया विष के माध्यम से खत्म किया जा सकता था। जब मादा चूहों से ट्रेग्स हटाईं गईं, तो उनकी यांत्रिक दर्द (जैसे दबाने या छूने से होने वाला दर्द) (mechanical pain sensitivity) के प्रति संवेदनशीलता बढ़ गई। लेकिन नर चूहों में ऐसा कोई असर नहीं देखा गया। हालांकि ट्रेग्स ने गर्मी या ठंड से जुड़ी दर्द की संवेदनशीलता (thermal pain response) पर कोई असर नहीं डाला – न मादा में और न ही नर में।
दिलचस्प बात यह है कि जब वैज्ञानिकों ने IL-2 नामक एक प्रोटीन के ज़रिए ट्रेग्स कोशिकाओं की संख्या बढ़ाई तो चोटिल मादा चूहों में दर्द पर प्रतिक्रिया बेहतर हो गई – यानी दर्द कम महसूस हुआ (IL-2 Treg pain relief)। लेकिन जब मादा हार्मोन (जैसे एस्ट्रोजन) को बाधित कर दिया गया अथवा अंडाशय को हटा दिया गया तो IL-2 का असर नहीं हुआ। इससे साफ है कि ट्रेग्स कोशिकाएं दर्द से राहत देने का अपना काम मादा हार्मोन, खास तौर पर एस्ट्रोजन (estrogen and pain regulation), की मदद से करती हैं।
इतना ही नहीं, ट्रेग्स कोशिकाएं दर्द कम करने के लिए सिर्फ सूजन रोकने के ज़रिए काम नहीं करतीं बल्कि सीधे तंत्रिका कोशिकाओं पर असर डालती हैं (Tregs direct neuron effect)। ये एंकेफेलिन्स नामक प्राकृतिक दर्दनाशक अणु छोड़ती (natural painkillers enkephalins) हैं, जो तंत्रिका कोशिकाओं के दर्दरोधी ग्राहियों को सक्रिय करके दर्द की तीव्रता कम कर देते हैं।
वैज्ञानिकों का कहना है कि महिलाओं और जेंडर पुष्टि देखभाल (जेंडर अफर्मिंग केयर) ले रहे लोगों के लिए दर्द की समस्या ज़्यादा होती है (pain management in gender-affirming care)। उनके संदर्भ में यह खोज महत्वपूर्ण साबित हो सकती है। कई शोधकर्ता आत्म-प्रतिरक्षा रोगों के लिए ट्रेग कोशिकाओं की संख्या बढ़ाने पर कार्य कर रहे हैं। उसमें दर्द प्रबंधन के दृष्टिकोण को जोड़ना मददगार हो सकता है (Treg therapy for autoimmune diseases)।
अलबत्ता, इस राह में कई चुनौतियां हैं – मनुष्यों के मस्तिष्क और रीढ़ की झिल्ली तक ट्रेग्स को सही-सलामत पहुंचाना आसान नहीं होगा (Treg delivery challenges in humans)। लेकिन ऐसा लगता है कि आत्म-प्रतिरक्षा रोगों के इलाज में इस्तेमाल हो रहा प्रतिरक्षा-वृद्धि उपचार इस राह को आसान कर सकता है। (स्रोत फीचर्स)
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