व्हेल दोगुना जी सकती हैं, बशर्ते मनुष्य जीने दें

ह तो जानी-मानी बात है कि व्हेल (whales)  दीर्घायु (long-living mammals) स्तनधारी हैं। कई प्रजातियां तो 100 वर्ष से अधिक भी जी सकती हैं। व्हेल की उम्र का अंदाज़ा लगाने के लिए वैज्ञानिक कई तरीके अपनाते हैं; जैसे उनके कान के मैल की परतें गिनना जो पेड़ के छल्लों की तरह साल दर साल जमा होती हैं, या आंखों के प्रोटीन में एक निश्चित दर से होने वाले रासायनिक परिवर्तन को नापना, या उनके त्वचा के नीचे की वसा में शिकारी भालों के निशान गिनकर।

इन तकनीकों से विश्लेषण के लिए अक्सर तुरंत मृत व्हेलों के नमूने (whale samples) चाहिए होते हैं, जो मिलना मुश्किल है। फिर, शिकारी गतिविधियों के चलते वृद्ध व्हेल भी मिलना मुश्किल है क्योंकि अब अधिकांश युवा व्हेल ही जीवित बची हैं। इसी कारण व्हेल की सटीक आयु बता पाना मुश्किल हो जाता है। लेकिन वैज्ञानिक भी इन मुश्किलों के सामने हाथ-पर-हाथ धरे बैठे नहीं रहते, वे हल खोजते रहते हैं। अब, उन्होंने व्हेल की उम्र की गणना का एक बेहतर तरीका खोजा है जो साइंस एडवांसेस पत्रिका (Science Advances journal) में प्रकाशित हुआ है।

युनिवर्सिटी ऑफ अलास्का फेयरबैंक के इकॉलॉजिस्ट ग्रेग ब्रीड और उनके साथियों ने मृत व्हेल के नमूनों की बजाय राइट व्हेल की दो प्रजातियों – उत्तरी अटलांटिक राइट व्हेल (Eubalaena glacialis) और दक्षिणी राइट व्हेल (Eubalaena australis) पर अध्ययन किया, जिनका अंधाधुंध शिकार किया गया है। उन्होंने इन दो व्हेल प्रजातियों की 1970 से अब तक की तस्वीरों को खंगाला और उनका बारीकी से अवलोकन किया। इसकी मदद से शोधकर्ता प्रत्येक व्हेल को पहचान सकते थे और यह बता सकते थे कि कौन सी व्हेल कब (संभवत: मृत्यु के कारण) आबादी से गायब हो गई। व्हेल के गायब होने के समय के आंकड़ों को उन्होंने विभिन्न सांख्यिकीय मॉडल्स (statistical models)  में डाला जो यह बता सकते थे कि कितने प्रतिशत आबादी किस-किस उम्र तक जीवित रहेगी।

सबसे उपयुक्त परिणाम उस मॉडल से मिले जो बीमा कंपनियां (insurance companies) मनुष्यों की मृत्यु दर का पूर्वानुमान लगाने और उसके अनुसार प्रीमियम दरें तय करने के लिए करती हैं। परिणाम के अनुसार दक्षिणी राइट व्हेल का औसत जीवनकाल लगभग 73 साल है, लेकिन 10 प्रतिशत 132 साल से भी अधिक आयु तक जीवित रह सकती हैं। जबकि, पूर्व अध्ययनों का कहना था कि इस व्हेल का जीवनकाल अधिकतम 70 से 80 साल है।

उत्तरी अटलांटिक राइट व्हेल के बारे में मॉडल का विश्लेषण है कि इनका औसत जीवनकाल करीब 22 वर्ष है लेकिन 10 प्रतिशत 47 वर्ष से अधिक आयु तक जी सकती हैं। ये आंकड़े दर्शाते हैं कि काफी सारी व्हेल कुदरती रूप से नहीं बल्कि जहाज़ों से टकराकर (ship strikes) और मत्स्याखेट उपकरणों (fishing gear entanglement) में उलझकर मरती हैं। साथ ही, पूर्व में हुए अंधाधुंध शिकार से ये उबर नहीं पाई हैं और विलुप्ति की कगार (endangered whales) पर हैं। इनके अधिक असुरक्षित होने का एक कारण यह भी है कि वे मानव आबादी वाले तटीय क्षेत्रों (coastal areas)  में रहती हैं।

हालांकि दीर्घायु के मामले में बोहेड व्हेल (Balaena mysticetus) अब भी आगे हैं – वे 200 साल से अधिक जीवित रहती हैं। वैज्ञानिकों का मानना था कि बोहेड व्हेल इतने लंबे समय तक इसलिए जीवित रहती हैं क्योंकि वे सुस्त होती हैं – वे धीरे-धीरे तैरती (slow swimmers) हैं, धीरे-धीरे परिपक्व होती हैं और उनका चयापचय धीमा होता है। लेकिन राइट व्हेल तुलनात्मक रूप से फुर्तीली होती हैं, इनकी चयापचय गति (metabolism rate)  अन्य स्तनधारियों की तरह ही होती है, इसलिए यहां एक सवाल उभरता है कि वे इतना लंबा कैसे जीवित रहती हैं?

बहरहाल, व्हेल की नैसर्गिक उम्र (natural lifespan of whales) चाहे जितनी लंबी रहे लेकिन जब तक उन पर शिकार (whale hunting) और मानव गतिविधियों (human activities) का खतरा मंडराता रहेगा उनका चिरंजीवी होना मुश्किल है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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चींटियों ने खेती लाखों साल पहले शुरू की थी

खेती-किसानी (farming and agriculture) की बात निकलते ही हम सबको गांवों मे हल-बैल लेकर फसल उगाते किसान (farmers with plough and oxen) नज़र आते हैं। लेकिन आश्चर्य की बात है कि नन्हीं चींटियों (ants farming fungus) ने खेती करना करीब पौने तीन करोड़ साल पहले शुरू कर दिया था।

आजकल सैकड़ों चींटी प्रजातियां फफूंद की खेती (fungus farming by ants) करती हैं। ये चींटियां पौधों की पत्तियां कुतरती हैं और उन्हें अपनी बांबी (ant colony) में ले जाती हैं और ताज़ी हरी पत्तियां फफूंदों को खिलाती हैं। जहां इन फफूंदों को रखा जाता है, उन प्रकोष्ठों के वातावरण को भलीभांति नियंत्रित रखा जाता है। चींटियां फिर इन फफूंदों का भक्षण करती हैं।

चींटियों के उद्विकास (evolution of ants) के अध्ययन से संकेत मिलता है कि चींटी-फफूंद का यह सम्बंध करोड़ों वर्ष पुराना (millions of years old ant-fungus relationship) है। अब साइन्स में प्रकाशित (Science journal) एक अध्ययन में फफूंद के साथ चींटियों के इस सम्बंध की शुरुआत का समय अधिक सटीकता से निर्धारित किया गया है। यह अनुकूलन लगभग 6.6 करोड़ वर्ष पहले हुआ था जब एक उल्का की टक्कर (asteroid impact) ने पृथ्वी से डायनासौर (dinosaurs extinction) समेत कई प्राणियों का सफाया कर दिया था।

चींटियों के फफूंद बागानों (fungus gardens)  का सर्वप्रथम विवरण डेढ़ सौ साल पहले दिया गया था। तब से वैज्ञानिकों ने 247 ऐसी चींटी प्रजातियां खोजी हैं जो फफूंदों को पालती हैं और भोजन के लिए उन पर निर्भर हैं। शोधकर्ताओं का मत रहा है कि ऐसी सारी किसान चींटियां एक साझा पूर्वज से विकसित हुई हैं और धीरे-धीरे प्रत्येक प्रजाति ने अलग-अलग फफूंद को पालतू बना लिया और इस तरह वे अलग-अलग प्रजातियां बन गईं।

लेकिन इस फफूंद-चींटी कृषि सम्बंध (ant-fungus symbiotic relationship) में शामिल फफूंदों का वंशवृक्ष तैयार करना एक चुनौती रही है। इस वजह से यह कहना मुश्किल रहा था कि यह सम्बंध कब शुरू हुआ था। अब फफूंद जीनोम (fungal genome) के विश्लेषण की नई तकनीकें विकसित होने के बाद 475 फफूंद प्रजातियों के जीनोम का निर्धारण संभव हो पाया है। इनमें से लगभग सभी की खेती चींटियों द्वारा की जाती है। स्मिथसोनियन इंस्टीट्यूशन के टेड शूल्ज़ और उनके साथियों ने इस जानकारी को 276 चींटी प्रजातियों के जीनोम आंकड़ों के साथ रखकर देखा। इन वंशवृक्षों को जब चींटी व फफूंद के जीवाश्म रिकॉर्ड के साथ रखकर अध्ययन किया तो वे प्रत्येक जोड़ी के आरंभ की तारीख का अंदाज़ लगा पाए।

इस विश्लेषण के आधार पर शूल्ज़ का निष्कर्ष है कि किसानी में शामिल चींटी और फफूंद दोनों का उद्भव करीब 6.6 करोड़ वर्ष पूर्व (66 million years ago ant-fungus adaptation) हुआ था। उस समय उल्का की टक्कर (asteroid impact aftermath) के कारण मलबे का ऐसा गुबार फैला कि प्रकाश संश्लेषण की क्रिया कई महीनों के लिए ठप हो गई। वनस्पतियों और उन पर निर्भर जीवों का सफाया हो गया। प्रकाश संश्लेषण की प्रक्रिया वनस्पतियों के लिए तो ज़रूरी है ही, समस्त जंतु भी भोजन के लिए इसी के भरोसे हैं।

लेकिन फफूंदों की तो बन आई। फफूंद आम तौर पर वनस्पति अवशेषों का विघटन करके काम चलाती हैं। शोधकर्ताओं का मत है कि इस समय जो चींटियां फफूंदों के साथ ढीला-ढाला सम्बंध बना चुकी थीं, उन्होंने इसे और मज़बूत कर लिया। यही आगे चलकर फफूंदों के पालतूकरण (domestication of fungi by ants) के रूप में सामने आया, जिसमें फफूंद पूरी तरह चींटियों की परवरिश के भरोसे हो गईं। पहले कुछ लाख वर्षों तक तो चींटियां जंगली फफूंदों को पालती रहीं। फिर लगभग 2.7 करोड़ वर्ष पूर्व कुछ चींटियों ने फफूंद की किस्मों को पूरी तरह पालतू बना लिया जो आज अपने जंगली सम्बंधियों से पूरी तरह कट चुकी हैं।

यहां एक दिलचस्प बात बताई जा सकती है कि चींटियां सिर्फ खेती (ant agriculture) नहीं करती, बल्कि मनुष्यों के समान पशुपालन (ant animal husbandry) भी करती हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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विज्ञान समाचार संकलन

कोविड-19 की उत्पत्ति

कोविड-19 वायरस और प्रयोगशाला लीक थ्योरी (Lab Leak Theory) कोविड-19 महामारी (COVID-19 pandemic) की जांच कर रही एक अमेरिकी संसदीय समिति (US congressional committee) ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि वायरस संभवत: चीन (China lab leak) की एक प्रयोगशाला (laboratory) से लीक हुआ था। हालांकि, रिपोर्ट में कोई ठोस सबूत (concrete evidence) नहीं हैं, केवल परिस्थितिजन्य प्रमाण (circumstantial evidence) दिए गए हैं।  520 पन्नों की इस रिपोर्ट में वुहान इंस्टीट्यूट ऑफ वायरोलॉजी (Wuhan Institute of Virology) में किए गए गेन-ऑफ-फंक्शन रिसर्च (gain-of-function research) पर ध्यान दिया गया है।  एक नए खुलासे में, रिपोर्ट ने ईमेल का उल्लेख किया है, जो वायरस की उत्पत्ति (origin of the virus) से जुड़े अपराधों (potential crimes) पर एक ग्रैंड जूरी जांच (grand jury investigation) की ज़रूरत बताते हैं। इसके विपरीत, वैज्ञानिकों (scientists) और समिति के असहमत सदस्यों (dissenting members) ने प्रयोगशाला से लीक होने के सिद्धांत (lab leak hypothesis) को लेकर रिपोर्ट के निष्कर्षों को चुनौती (challenged conclusions) दी है। (स्रोत फीचर्स) 

महामारी का शैक्षणिक प्रदर्शन पर असर

ट्रेंड्स इन इंटरनेशनल मैथेमेटिक्स एंड साइंस स्टडी (Trends in International Mathematics and Science Study – TIMSS) की ताज़ा रिपोर्ट (latest report) बताती है कि 2019 के मुकाबले 2023 में 8वीं कक्षा (Grade 8) के गणित (Mathematics scores) के प्राप्तांक 39 प्रतिशत देशों में और विज्ञान (Science scores) के प्राप्तांक 42 प्रतिशत देशों में घटे हैं। वहीं, चौथी कक्षा (Grade 4) के विद्यार्थियों के अंक कुछ बेहतर (improved scores) रहे, जबकि अधिकांश देशों (most countries) में अंक स्थिर (stable scores) रहे। संयुक्त राज्य अमेरिका (United States) में दोनों कक्षाओं के अंक 1995 में पहले टेस्ट (first test in 1995) के बाद से सबसे निचले स्तर (lowest level) पर पहुंचे हैं। वहीं, सिंगापुर (Singapore), ताइवान (Taiwan), और दक्षिण कोरिया (South Korea) वैश्विक रैंकिंग (global rankings) में शीर्ष पर (top positions) बने हुए हैं।  (स्रोत फीचर्स)

नारंगी बिल्लियां का रहस्य खुला

वैज्ञानिकों ने नारंगी रंग (orange color) की बिल्लियों (cats) के फर (fur) के पीछे की आनुवंशिक गुत्थी (genetic mystery) को सुलझा लिया है, जो 60 सालों से एक रहस्य (decades-old mystery) बनी हुई थी। दो शोध टीमों ने स्वतंत्र रूप से पाया कि एक्स गुणसूत्र (X chromosome) पर एक उत्परिवर्तन (mutation) रंजक बनाने वाली कोशिकाओं (pigment-producing cells) में Arhgap36 प्रोटीन (protein) के उत्पादन को बढ़ा देता है। यह प्रोटीन एक ऐसा मार्ग सक्रिय करता है, जो हल्के लाल रंग का रंजक (light red pigment) बनाता है, जिससे बिल्लियों का नारंगी रंग का फर (orange fur) बनता है। यह खोज (discovery) जीवों में आनुवंशिकी (genetics) और फर के रंग (fur color) को समझने में एक नई दिशा (new insights) है। (स्रोत फीचर्स)

अल्ज़ाइमर की दवा परीक्षण में असफल

अल्ज़ाइमर रोग (Alzheimer’s disease) के लिए बनाई गई प्रयोगात्मक दवा सिम्यूफिलम (Simufilam experimental drug) ने अंतिम चरण के क्लीनिकल परीक्षण (clinical trial) में कोई सकारात्मक असर नहीं दिखाए। प्लेसिबो (placebo) लेने वाले रोगियों से तुलना में, एक साल तक सिम्यूफिलम लेने वाले रोगियों में न तो संज्ञानात्मक क्षमता (cognitive ability) में सुधार दिखा, और न ही रोज़मर्रा के कार्यों (daily tasks) में कोई बेहतरी दिखी। दवा बनाने वाली कंपनी कसावा साइंस (Cassava Sciences) पर शोध में धोखाधड़ी (fraud in research) और वित्तीय कदाचार (financial misconduct) के आरोप तक लगे हैं। परीक्षण (trial) में असफलता के बाद इस दवा के विकास (drug development) को रोक दिया गया है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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डायनासौर धरती पर हावी कैसे हो गए

नेचर पत्रिका में प्रकाशित एक शोध पत्र इस सवाल का जवाब देने की कोशिश करता है कि डायनासौर ने पूरी धरती पर दबदबा कैसे कायम किया था। इस बात का सुराग ट्राएसिक युग (25-20 करोड़ वर्ष पूर्व) के अंतिम दौर से लेकर प्रारंभिक जुरासिक युग (20-14.5 करोड़ वर्ष पूर्व) में डायनासौर की विष्ठा (fossilized dung analysis) और वमन जीवाश्मों (Bromalite study) के विश्लेषण से मिला है। डायनासौर के भोजन के अध्ययन से पता चलता है कि कैसे 23-20 करोड़ वर्ष पूर्व के समय में डायनासौर ने अपने सारे प्रतिद्वन्द्वियों को विस्थापित कर दिया था और स्वयं विविध आकारों और साइज़ों (Dinosaur dominance) में विकसित हुए थे। यह घटना प्राचीन सुपर महाद्वीप पैंजिया के एक हिस्से में घटी थी। यह शोध पत्र उपसला विश्वविद्यालय के पुराजीव वैज्ञानिक मार्टिन क्वार्नस्ट्रॉम (Martin Qvarnström ) और उनके साथियों का है।

क्वार्नस्ट्रॉम का कहना है कि आम तौर पर लोग जंतुओं के कंकालों के जीवाश्मों पर ध्यान देते हैं, उनकी विष्ठा पर नहीं, जबकि विष्ठा जानकारी का खज़ाना होती है।

पहले डायनासौर करीब 23 करोड़ वर्ष पूर्व पृथ्वी पर अदना किरदारों के रूप में प्रकट हुए थे। उस समय की पारिस्थितिकी में तमाम अन्य किरदार मौजूद थे – विशाल शाकाहारी (डायसिनोडोन्टDicynodonts), बड़े-बड़े शिकारी सरिसृप (रौइसुकिड्सRauisuchids) और मगरमच्छ जैसे जीव। लेकिन 3 करोड़ सालों के अंदर डायनासौर धरती पर छा गए – उन्होंने अपने प्रतिद्वन्द्वियों द्वारा घेरे गए समस्त निशे पर कब्ज़ा कर लिया। पारिस्थितिकी में निशे का मतलब होता है कि कोई प्रजाति अपने परिवेश में क्या भूमिका निभाती है – यानी परिवेश के अन्य सजीव और निर्जीव घटकों से क्या सम्बंध निर्वाह करती है। यह बहस का विषय रहा है कि क्या डायनासौर इसलिए हावी हुए थे कि उनके पास खास किस्म के शारीरिक लक्षण थे या फिर उनके प्रतिद्वन्द्वी जलवायु में हुए बदलाव के कारण परास्त हो गए थे।

क्वार्नस्ट्रॉम और उनके साथियों को लगता था कि इसका सुराग डायनासौर के भोजन में मिलेगा। डायनासौर की खुराक का खुलासा करने के लिए वे पोलिश बेसिन में डायनासौर की विष्ठा और वमन के जीवाश्म की तलाश में जुट गए। यह वह इलाका है जहां से हड्डियों के जीवाश्म और पुराजलवायु सम्बंधी विस्तृत रिकॉर्ड उपलब्ध हैं। टीम ने तीन मुख्य स्रोतों से प्राचीन भोजन शृंखला का पुनर्निर्माण किया: कोप्रोलाइट (coprolite -विष्ठा जीवाश्म), रीगर्जिएट (Regurgitated fossils – वमन के जीवाश्म) और कोलोलाइट्स (cololites – पाचन तंत्र के जीवाश्मित पदार्थ)। इन तीनों प्रकार के जीवाश्मों का मिला-जुला नाम है ब्रोमालाइट।

शोधकर्ताओं ने नौ जगहों से प्राप्त 532 ब्रोमालाइट्स की जांच की। इसके बाद उन्होंने इन ब्रोमालाइट्स को साइज़, आकृति और पदार्थों के आधार विभिन्न प्राचीन जंतु समूहों (Taxa – टैक्सा) में बांट दिया। उदाहरण के लिए, लंगफिश (Lungfish – फेफड़ों वाली मछलियां) और शार्क की आहार नाल सर्पिलाकार होती है और उनकी विष्ठा ऐंठे हुए भंवर के आकार की होती है। इससे अलग, उभयचर जीव अंडाकार विष्ठा छोड़ते हैं जिसमें मछलियों के शल्क बहुतायत में होते हैं।

खोज स्थल से भी कई सुराग मिले। जैसे कोप्रोलाइट्स प्राय: उससे सम्बंधित जीव की हड्डियों और पदचिंहों के बीच मिलते हैं। उदाहरण के लिए यदि आपको 30 से.मी. से ज़्यादा लंबी/बड़ी विष्ठा मिलती है और जहां आसपास डायनासौर के खूब पदचिंह हैं, तो पक्का है कि उसी की विष्ठा है।

इसके बाद रासायनिक विश्लेषण और सिन्क्रोट्रॉन टोमोग्राफी (Synchrotron tomography) जैसी तकनीकों की मदद से शोधकर्ताओं ने उस काल के भोजन की तहकीकात की। उदाहरण के लिए, जब उन्हें लंबी विष्ठा मिली जिसमें मछलियों के अवशेष भरपूर मात्रा में थे तो उन्होंने माना कि यह विष्ठा मगरमच्छ जैसे किसी सरिसृप ने छोड़ी होगी जिसकी थूथन लंबी होगी और दांत पैने होंगे (Paleorhinus – पैलियोराइनस)। दूसरी ओर यदि गोबर के जीवाश्म में गुबरैले हैं तो वह यकीनन कीटभक्षी सिलेसौरस की करतूत है। सिलेसौरस डायनासौर का निकट सम्बंधी था। आर्कोसौर स्मॉक की विष्ठा के जीवाश्म में उसके शिकार की चबाई हुई हड्डियां और दांत मिले। स्मॉक 5 मीटर लंबा दोपाया शिकारी था जिसके जबड़े निहायत शक्तिशाली और दांत आरीनुमा थे।

इस तरह शोधकर्ताओं ने समय के साथ भोजन में आए परिवर्तनों पर गौर किया तो उन्हें डायनासौर के दबदबा स्थापित होने के नए सुराग मिलते गए।

डायनासौर के पूर्वज छोटे-छोटे सर्वाहारी थे जो ट्राएसिक पारिस्थितिकी में गौण किरदार थे। इनसे शुरुआती डायनासौर का विकास हुआ – जैसे छोटे शिकारी थेरोपॉड्स (Theropods)। ये मूलत: कीट और मछलियां खाते थे। जुरासिक काल के उत्तरार्ध में जलवायु अपेक्षाकृत गर्म और नम होने लगी थी। इसके चलते वनस्पतियों का विस्तार हुआ और शाकाहारी डायनासौर (जाने-माने विशाल लंबी गर्दन वाले सौरोपॉड्स) (Sauropods) के लिए ज़्यादा भोजन उपलब्ध होने लगा। इन्होंने जो विष्ठा छोड़ी है उसमें वनस्पति अवशेष भरपूर मात्रा में पाए गए हैं। सारे संकेत यही दर्शाते हैं कि सौरोपॉड्स भारी मात्रा में बड़ी पत्तियों वाले फर्न खाते थे। धीरे-धीरे ये शाकाहारी विशाल हो गए और साथ ही इनका शिकार करने वाले थेरोपॉड भी।

ट्राएसिक काल के अंतिम दौर का विष्ठा रिकॉर्ड दर्शाता है कि डायनासौर पारिस्थितिकी तंत्र के हर स्तर पर छा चुके थे और उनके गैर-डायनासौर प्रतिद्वन्द्वी विस्थापित हो गए थे। यह पूर्व में अस्थि जीवाश्मों व अन्य प्रमाणों के आधार पर निकाले गए निष्कर्षों की पुष्टि करता है। इस विषय के शोधकर्ता आम तौर पर स्वीकार कर रहे हैं कि विष्ठा के विश्लेषण से यह पता करना कि कौन किसको खाता था, पारिस्थितिकी तंत्र को समझने के लिए काफी महत्वपूर्ण है। क्वार्नस्ट्रॉम को उम्मीद है कि यह शोध पत्र अन्य शोधकर्ताओं को भी इस दिशा में काम करने को प्रेरित करेगा। (स्रोत फीचर्स)

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अथाह महासागर में ये जीव सूंघकर घर लौटते हैं – स्निग्धा दास

नाब, आप तो सूंघकर लज़ीज़ भोजन या किसी खुशबूदार या बदबूदार चीज़ का बखूबी पता लगा लेते होंगे पर कोई आपसे सूंघकर घर तक पहुंचने की बात कर दे तो? यह तो नामुमकिन ही लगेगा, भला कोई अपने घर तक सूंघकर कैसे पहुंच सकता है?

लेकिन कुछ ऐसे जीव हैं जो यह कर पाते हैं। हाल ही में एक और ऐसे ही जीव का पता चला है जो समुद्र की गहराइयों में अपने घर का पता सूंघकर लगा लेते हैं!

महासागर विशाल है और अगर आप एक ऐसे जीव हैं जो महज 1 मिलीमीटर लंबा है, तो वहां खो जाना आसान है। हालांकि, माईसिड्स नामक छोटे झींगा जैसे क्रस्टेशियन्स गहरे पानी में खोह, जो उनका घर होती है, का रास्ता अपनी सूंघने की क्षमता से ढूंढ सकते हैं। यह खोज उन समुद्री जीवों की सूची में एक और जीव जोड़ती है, जो रासायनिक संकेतों का उपयोग करके रास्ता खोजते हैं। इन जीवों में सैल्मन मछली भी शामिल है।

एंडोम मरीन स्टेशन के समुद्री पारिस्थितिकीविद और अध्ययन के लेखक थेरी पेरेज़ कहते हैं, “चौंकाने वाली बात यह थी कि हमने एक सच्चा घर वापसी व्यवहार देखा, माईसिड्स अपनी खोह का पता लगा सकते हैं, लेकिन हर किसी खोह का नहीं – बल्कि वह खोह जहां वे पैदा हुए थे।”

प्रत्येक रात भूमध्य सागर के कुछ हिस्सों में, लाखों माईसिड्स (Hemimysis margalefi) दैनिक प्रवास करते हैं। सूर्यास्त के समय, वे अपने गृह-खोहों को छोड़कर खुले समुद्र में भोजन की तलाश में निकल जाते हैं। शिकारियों से बचने के लिए, वे दिन उगने से पहले खोहों में लौट आते हैं। पिछले शोधों से यह पता चला था कि जब माईसिड्स अपनी खोहों को छोड़ते हैं, तो वे प्रकाश की मदद से मार्ग-निर्धारण करते हैं। लेकिन अंधेरे में ये जीव अपने घर का रास्ता कैसे ढूंढते होंगे?

पेरेज़ और उनके सहयोगियों का विचार था कि जैसे सैल्मन, रासायनिक संकेतों का अनुसरण करके उन नदियों तक पहुंचते हैं जहां वे पैदा हुए थे, वैसे ही माईसिड्स भी अपनी सूंघने की क्षमता का उपयोग करके अंधकार में अपना रास्ता खोजते होंगे।

इस विचार को परखने के लिए, शोधकर्ताओं ने फ्रांस के मार्सेल के पास दक्षिणी तट में पानी के नीचे की दो खोहों से माईसिड्स इकट्ठा किए। फिर, प्रयोगशाला में उन्होंने इनमें से एक-एक जंतु को छोटे Y-आकार के पात्र में रखा। कभी-कभी, Y की एक भुजा माईसिड्स के गृह-खोह से लिए गए समुद्री पानी की ओर जाती थी, जबकि दूसरी भुजा किसी अन्य खोह या स्थान से लिए गए समुद्री पानी की ओर। कभी-कभी ऐसा भी होता था कि दोनों ही भुजाएं गृह-खोह के पानी की ओर नहीं जाती थी। शोधकर्ताओं ने फ्रंटियर्स इन मरीन साइंस जर्नल में बताया है कि माईसिड्स अपनी गृह-खोह का पानी ताड़ लेते थे और उसी में रहना पसंद करते थे।

अपने अध्ययन के दूसरे भाग में, शोधकर्ताओं ने दिखाया कि प्रत्येक खोह से लिया गया पानी अपनी अलग रासायनिक पहचान रखता था, जो शायद माईसिड्स का मार्गदर्शन करता है। हालांकि यह स्पष्ट नहीं है कि वास्तव में प्रत्येक खोह को उसकी अनूठी ‘गंध’ किस चीज़ से मिलती है। शोधकर्ताओं का मत है कि शायद खोहों में रहने वाले स्पंज द्वारा छोड़े गए यौगिकों की इसमें कुछ भूमिका हो सकती है।

एक समुद्री पारिस्थितिकीविद फर्नांडो काल्डेरोन गुटिरेज़ का मत है कि “अध्ययन बहुत अच्छी तरह से किया गया है, और बहुत सरल है, जो इस अध्ययन की एक खूबसूरती है।” उनका कहना है कि इसी तरह के प्रयोगों से यह पता लगाने में मदद मिल सकती है कि क्या अन्य जीव भी रास्ता खोजने के लिए गंध पर निर्भर हैं?

दूसरी ओर, पेरेज़ को कई खतरों का अंदेशा है। जैसे समुद्री प्रदूषण में वृद्धि और कुछ स्पंज प्रजातियों का खोहों से लुप्त होना वगैरह। ये अंततः समुद्र के रासायनिक परिदृश्य को नुकसान पहुंचा सकते हैं। तब, पेरेज़ को डर है कि, माईसिड्स ‘अथाह समुद्र के अंधकार में खो जाएंगे और अपने घर ढूंढने में असमर्थ हो जाएंगे।’ (स्रोत फीचर्स)

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चमकीले समुद्री घोंघे को नाम मिला

समुद्री घोंघे (Marine Snails), जिन्हें न्यूडिब्रांक (Nudibranchs) के नाम से भी जाना जाता है, मोलस्क (Mollusk) की श्रेणी में आते हैं। इनकी लगभग सभी प्रजातियां कोरल रीफ (Coral Reef) से लेकर समुद्री ज्वार (Tidal Pools) के चलते तटों पर बने पानी के पोखरों और उथले समुद्र के पेंदे में रेंगती पाई जाती हैं। लेकिन इनकी एक प्रजाति है जो समुद्र के गहरे और अंधेरे वातावरण (Deep-Sea Environment) में रहना पसंद करती है, ऐसा कहना है डीप-सी रिसर्च पार्ट-I (Deep-Sea Research Part-I) में प्रकाशित रिपोर्ट का।

दरअसल करीब 25 साल पहले मॉन्टेरे बे एक्वेरियम रिसर्च इंस्टीट्यूट (Monterey Bay Aquarium Research Institute) के वैज्ञानिकों ने मॉन्टेरे खाड़ी (Monterey Bay) में करीब ढाई किलोमीटर की गहराई में पहली बार इस जीव को देखा था। यह अपनी चौड़ी पूंछ की मदद से तैर रहा था और बीच-बीच में अपनी जैव-दीप्ति (Bioluminescence) बिखेर रहा था। और हैरत की बात थी कि यह उस गहराई पर रहने वाले किसी ज्ञात जीव जैसा नहीं था।

इसलिए अगले करीब 20-22 वर्षों तक वैज्ञानिक इस जीव पर नज़र रखे रहे। इस अवधि में उन्होंने इसे करीब 150 बार देखा और हर बार यह ओरेगन (Oregon) से लेकर दक्षिणी कैलिफोर्निया (Southern California) तक फैले तट से 1 से 4 किलोमीटर की गहराई पर तैरते हुए दिखाई दिया – इस गहराई पर सूरज की ज़रा भी रोशनी (Sunlight) नहीं पहुंचती। आकार में यह अनोखा जीव बेसबॉल (Baseball) की गेंद जितना बड़ा और पारदर्शी था। घोंघों (Snails) के समान इसका एक मांसल पैर था, इसलिए ऐसा लग रहा था कि यह शायद कोई घोंघा हो। लेकिन जहां समुद्री घोंघे अपने मांसल पैर के सहारे रेंगते हुए आगे बढ़ते हैं, वहीं यह अपने शरीर पर बनी भोंपू नुमा संरचना (Funnel-Like Structure) के सहारे तैरते हुए आगे बढ़ता था। खतरा महसूस होने पर इसकी कांटानुमा (Fork-Like) पूंछ का सिरा चमकने लगता और फिर पूंछ शरीर से छिटककर अलग हो जाती, संभवत: शिकारियों (Predators) का ध्यान भटकाने के लिए।

कुल मिलाकर इन अवलोकनों से वह घोंघों की किसी ज्ञात प्रजाति (Known Species) से मेल खाता नहीं लग रहा था। इसलिए वैज्ञानिकों ने 18 जीवों को पकड़ा और इनके शरीर की आंतरिक संरचना का बारीकी से अवलोकन और आनुवंशिक विश्लेषण (Genetic Analysis) किया। पाया गया कि यह जीव एक तरह का समुद्री घोंघा है, लेकिन ज्ञात प्रजातियों से इतने दूर का सम्बंधी है कि यह अपने कुल का एकमात्र सदस्य है। शोधकर्ताओं ने इसका नाम बेथीडेवियस कॉडेक्टाइलस (Bathydevius caudactylus) रखा है। इसकी मायावी खासियत के कारण जीनस का नाम बेथीडेवियस (Bathydevius) रखा गया है जिसका अर्थ है ‘घोर छलिया’ (Master of Disguise) और इसकी फोर्क जैसी पूंछ के कारण प्रजाति का नाम कॉडेक्टाइलस रखा गया है।

जांच-पड़ताल में इसके पेट में झींगा (Shrimp) के अवशेष भी मिले थे, हालांकि यह अभी पहेली ही है कि ये सुस्त घोंघे फुर्तीले झीगों (Agile Shrimps) का शिकार कैसे करते होंगे। संभवत: उनके शरीर पर बनी भोंपू समान रचना (Funnel Structure) उन्हें मदद करती होगी। बहरहाल, आगे अध्ययन जारी रहेंगे और इससे जुड़ी गुत्थियां सुलझती रहेंगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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तोतों के आकर्षक रंगों का रहस्य

तोते अपने आकर्षक और सुंदर रंगों (bright parrot colors) के लिए मशहूर हैं, जिनमें चटकीले लाल (red), पीले (yellow), आकर्षक हरे (green), और नीले (blue) रंग भी शामिल हैं। वर्षों से, वैज्ञानिक (scientists) इस बात पर हैरान हैं कि ये पक्षी, कई अन्य जानवरों के विपरीत, ऐसे चटकीले रंग कैसे बनाते हैं। साइंस (Science) में प्रकाशित हालिया शोध (recent research) आखिरकार इन शानदार रंगों के पीछे अनोखे जैविक तंत्र (biological mechanism) पर प्रकाश डालता है। 

दरअसल, अधिकांश पक्षियों (birds) में रंग उनके अपने शरीर में नहीं बनते बल्कि उनके खानपान (diet) के साथ आते हैं। जैसे फ्लेमिंगो (flamingo) झींगा खाकर गुलाबी हो जाते हैं। लेकिन तोतों में मामला अलग है। वे अपने बढ़ते हुए पंखों में एक एंज़ाइम (enzyme) की मदद से सिटाकोफल्विन (psittacofulvins) समूह के रंजक (pigments) बनाने के लिए विकसित हुए हैं। इनमें छिटपुट परिवर्तनों (variations) के माध्यम से विभिन्न रंग (colors) पैदा होते हैं। वैसे कुछ रंग दो रंगों के मेल से भी पैदा होते हैं (जैसे हरा रंग नीले और पीले के मेल से)। इसके अलावा कई रंग पंखों की सूक्ष्म बनावट (feather texture) से भी नज़र आते हैं। जैसे नीला रंग (blue color) इस पंख की सतह पर मौजूद सूक्ष्म रचनाओं और प्रकाश (light) की अंतर्क्रिया से पैदा होता है। 

तोतों के विभिन्न रंगों (parrot colors) को समझने में असली सफलता तब मिली जब वैज्ञानिकों (scientists) ने रासायनिक स्तर पर सिटाकोफल्विन (psittacofulvin) का विश्लेषण (chemical analysis) किया। ये रंजक (pigments) कार्बन शृंखलाओं (carbon chains) से बने होते हैं। इन शृंखलाओं के अंतिम छोर पर एक हल्का-सा रासायनिक बदलाव (chemical change) रंग को बदल देता है। यदि अंतिम छोर पर एल्डिहाइड समूह (aldehyde group) है, तो पंख लाल (red) हो जाता है। यदि एल्डिहाइड की जगह कार्बोक्सिल समूह (carboxyl group) आ जाता है, तो पंख पीला (yellow) हो जाता है। 

इस खोज (discovery) से पता चलता है कि प्रकृति (nature) में अक्सर सरल अभिक्रियाओं (simple reactions) के नाटकीय परिणाम (dramatic results) होते हैं। इस शोध (study) ने तोते में रंगों के विकास (color evolution) को नियंत्रित करने के लिए ज़िम्मेदार जीन (gene) को भी उजागर किया है। यह जीन एक एंज़ाइम को कोड करता है जो एल्डिहाइड को कार्बोक्सिल समूह में परिवर्तित करके लाल रंजक (red pigment) को पीला (yellow) कर देता है। इस जीन द्वारा उत्पादित एंज़ाइम की मात्रा (enzyme quantity) निर्धारित करती है कि पंख कितना पीला (yellow) होगा। 

रंग उत्पत्ति की इस क्रियाविधि (color production mechanism) से पता चलता है कि क्यों कुछ तोतों की प्रजातियां (parrot species) विकास (evolution) के दौरान आसानी से लाल (red), पीले (yellow), और हरे (green) रंग में परिवर्तित हो जाती हैं। यह कई तरह के रंगों का उत्पादन (color production) करने का एक लचीला और कुशल तरीका (efficient method) है। पोर्टो विश्वविद्यालय (University of Porto) के जीवविज्ञानी (biologist) और अध्ययन के सह-लेखक रॉबर्टो आर्बोरे, इसे ‘वैकासिक नवाचार (evolutionary innovation) का एक अद्भुत मामला’ कहते हैं, जो तोतों को साथी को आकर्षित (mate attraction) करने और दूसरों के साथ संवाद (communication) करने के संकेतों पर नियंत्रण देता है।  लेकिन अभी भी कई रहस्य (mysteries) बने हुए हैं। वैज्ञानिक अभी भी रंग उत्पादन (color production) में शामिल कोशिकाओं (cells) को निर्धारित करने की कोशिश कर रहे हैं और साथ ही यह भी पता लगाया जा रहा है कि ये विशेष रंग (specific colors) सबसे पहले क्यों विकसित हुए थे। (स्रोत फीचर्स)

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हाथी की सूंड कुछ खास है

अर्पिता व्यास

हाथी की सूंड महज नाक से बढ़कर बहुत कुछ है। हाथी सूंड से न केवल खाना उठाते हैं बल्कि पानी और रेत को अपनी पीठ पर छिड़कते हैं ताकि गर्मी से राहत मिले। वे सूंड से गर्जन करते हुए दूसरे हाथियों को संदेश भी भेजते हैं। नन्हें हाथी सूंड से ही दूध चूसकर मुंह में डालते हैं। इस हरफनमौला प्रकृति को देखते हुए बर्लिन विश्वविद्यालय (Berlin University) के तंत्रिका वैज्ञानिक माइकल ब्रेख्त (Michael Brecht) इसे जंतु-जगत का सबसे अद्भुत पकड़ने वाला अंग कहते हैं।

लेकिन सूंड में हड्डियां तो होती नहीं, फिर मात्र मांसपेशियों से बनी यह रचना कैसे इतने सारे अलग-अलग काम कर पाती है?

शायद सूंड पर पाई जाने वाली झुर्रियां इसका एक कारण हो सकती हैं। सूंड हाथी के शरीर में मुंह से जुड़ी संरचना है। इस पर बनी झुर्रियां अलग-अलग कामों को करने में मदद करती हैं। देखा जाए तो एक-एक झुर्री (सिलवट) एक-एक कोहनी की तरह काम करती है, और सूंड हर सिलवट पर मुड़ सकती है।

जब मैक्स प्लांक इंस्टीट्यूट (Max Planck Institute) के एंड्रू शूल्ज़ (Andrew Schulz) ने सूंड की झुर्रियों पर विचार करना शुरू किया तो वे मानकर चले थे कि ये झुर्रियां तब विकसित होती हैं जब सूंड का उपयोग ज़्यादा होता है, जैसे हमारे चेहरे पर मुस्कान की धारियां बन जाती हैं। लेकिन उन्होंने देखा कि सूंड की झुर्रियां तो जन्म से ही होती हैं और इन्हें नवजात हाथियों की सूंड पर भी देखा जा सकता है।

मनुष्य सहित कई जीवों में बच्चों को जन्म से ही झुर्रियां होती हैं क्योंकि उनके शरीर पर त्वचा शरीर के आकार के हिसाब से ज़्यादा होती है। लेकिन वे झुर्रियां बेतरतीबी से फैली होती हैं। इसके विपरीत, हाथी की झुर्रियां एक जैसी बनी रहती हैं – आकार में भी और स्थान में भी। और ये जन्म से पहले बन जाती हैं। इससे लगता है कि ये किसी उद्देश्य से बनी हैं।

इसे और अधिक समझने के लिए शूल्ज़ और उनके साथियों ने एशियाई हाथी (Asian Elephant) और अफ्रीकी हाथी (African Elephant) की सूंड की तुलना की, जो सूंड का उपयोग अलग–अलग ढंग से करते हैं। अफ्रीकी हाथी की सूंड के सिरे पर कठोर उपास्थि से बनी दो उंगलीनुमा संरचनाएं होती हैं जिनसे वे छोटी चीज़ों को भी पकड़ सकते हैं। इसके विपरीत, एशियाई हाथी की सूंड के अंत में एक ही उंगलीनुमा संरचना होती है और साथ में एक फूली हुई रचना होती है, जिससे वे तरबूज़ जैसी बड़ी चीजों को उठाकर अपने मुंह में रख पाते हैं।

शोधकर्ताओं ने संग्रहालयों में रखे नमूनों और चिड़ियाघरों में जाकर और हाथियों के बहुत सारे फोटो देखकर पता लगाया कि एशियाई हाथी की सूंड पर औसतन 126 झुर्रियां होती हैं जबकि अफ्रीकी हाथी में 83। शूल्ज़ का कहना है कि अतिरिक्त झुर्रियों से एशियाई हाथी को ज़्यादा मज़बूत पकड़ मिलती है जिससे एक उंगलीनुमा संरचना न होने की क्षतिपूर्ति हो जाती होगी। अतिरिक्त झुर्रियां एशियाई हाथी की सूंड को ज़्यादा लचीला बनाती हैं। दोनों ही प्रजातियों में झुर्रियों के जोड़ मांसपेशीय कोहनी की तरह काम करते हैं, जिससे चीज़ों को सूंड में लपेटकर उठाया जा सकता है।

ये झुर्रियां कैसे बनती हैं? यह जानने के लिए टीम ने तीन अफ्रीकी और दो एशियाई हाथियों के संग्रहालय में रखे भ्रूणों का अध्ययन किया। भ्रूण के दर्जनों चित्रों का अलग–अलग चरणों में अध्ययन किया गया। फिर इन चित्रों को विकास के समय के अनुसार क्रम में जमाया गया जिससे उन्हें यह पता चला कि झुर्रियां सूंड के साथ–साथ ही विकसित होती हैं। ये हाथी की 22 महीने की गर्भावस्था में 20वें दिन दिखाई देने लगती हैं। और अगले 150 दिन तक ये झुर्रियां दोनों प्रजातियों में बढ़ती हैं। इनकी संख्या हर तीन हफ्ते में दुगनी हो जाती है। एशियाई हाथियों में इसके बाद और भी ज़्यादा झुर्रियां बनती रहती हैं। ज़्यादा झुर्रियां उन स्थानों पर बनती हैं जहां से सूंड को मोड़ा जाएगा।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने सूंड के बारे में और अध्ययन कर पता लगाया कि सूंड या तो बाईं ओर मुड़ने में दक्ष होती है या दाईं ओर। यानी कि हाथी अपनी सूंड को मुंह के एक तरफ ही घुमाकर उपयोग में लाते हैं, जैसे मनुष्यों में कुछ लोग खब्बू होते हैं। इससे सूंड में एक तरफ की अपेक्षा दूसरी तरफ ज़्यादा झुर्रियां हो जाती हैं।

बहरहाल, हाथी एक आदर्श उदाहरण है जिसमें नरम अस्थिरहित जोड़ों का अध्ययन किया जा सकता है। वैसे प्राइमेटस (Primates) और एलिफैंट सील (Elephant Seal) में ऐसे नरम अंग होते हैं जिनमें खून प्रवाहित करके उन्हें कड़ा किया जा सकता है लेकिन उनमें हाथी की सूंड की तरह घुमाव और चीज़ों को पकड़ने की क्षमता नहीं पाई जाती। (स्रोत फीचर्स)

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बीज बिखेरने वाले जंतु और पारिस्थितिकी की सेहत

1990 के दशक में जब शिकारियों ने पश्चिमी बोर्नियो के उष्णकटिबंधीय जंगलों से अधिकतर फलभक्षी पक्षियों (fruit-eating birds) का शिकार कर डाला तब वहां का आसमान तो सूना हो ही गया था, कुछ सालों के भीतर वहां का जंगल भी उजड़ गया था। बीज बिखेरने वाले पक्षियों (seed dispersing animals) के अभाव में फलदार पौधों (fruit-bearing plants) की विविधता में जो कमी आई उसने पारिस्थितिकी तंत्र (ecosystem health) की सेहत में बीज फैलाने वाले जीवों (seed dispersers) के महत्व को नुमाया किया था। लेकिन अब, समशीतोष्ण क्षेत्रों में भी पारिस्थितिकी तंत्र की सांसें उखड़ती नज़र आ रही हैं।

साइंस पत्रिका (Science journal) में प्रकाशित एक रिपोर्ट बताती है कि कम से कम एक तिहाई युरोपीय पौधों (European plant species) की प्रजातियां शायद सिर्फ इसलिए जोखिमग्रस्त की श्रेणी में आ जाएं क्योंकि या तो उनके बीजों को फैलाने वाले ज़्यादातर जानवर (seed dispersing animals) खतरे में हैं या कम होते जा रहे हैं। बीज फैलाने वालों (seed dispersers), जिनमें पक्षियों के अलावा स्तनधारी (mammals), सरिसृप (reptiles) और चींटियां (ants) भी शामिल हैं, की संख्या में गिरावट पौधों की जलवायु परिवर्तन (climate change adaptation) से निपटने या जंगल की आग के बाद उबरने की क्षमता को खतरे में डाल सकती है, खासकर युरोप के अत्यधिक खंडित परिदृश्य में।

कोइम्ब्रा विश्वविद्यालय (Coimbra University) की सामुदायिक पारिस्थितिकी विज्ञानी सारा मेंडेस ने यह पता लगाने का बीड़ा उठाया कि कौन-से जानवर कौन-से पौधे के बीज फैलाते हैं। इसके लिए पहले तो उन्होंने 26 भाषाओं में उपलब्ध हज़ारों अध्ययनों को खंगाला और उनमें से ऐसे अध्ययनों को छांटा जिनमें बीज प्रकीर्णन (seed dispersal) जैसे शब्दों का उल्लेख था, या जो युरोप के (900 से अधिक में से किसी एक) बीजभक्षी जानवर पर केंद्रित थे।

मेंडेस को इस छंटनी में ऐसे 592 स्थानिक पौधों (endemic plants) की सूची मिली जिनके फल गूदेदार थे, या यूं कहें कि जिन पौधों में बीज फैलाने वाले जानवरों को उनके फल खाने के लिए लालच देने का अनुकूलन था। साथ ही, उन्हें इन फलों को खाने वाले 398 जानवरों (fruit-eating animals) की सूची भी मिली। इनमें से फलभक्षी जानवर (frugivorous animals) एक से अधिक प्रकार के पौधों के फल/बीज खाते हैं। तो इस तरह उनके द्वारा तैयार डैटा सेट (dataset) में हरेक पौधे और उसके बीजों को फैलाने जानवरों की 5000 से अधिक जोड़ियां बनीं।

फिर शोधकर्ताओं ने इन बीज फैलाने वालों की हालिया स्थिति का जायज़ा लिया। उन्होंने पाया कि युरोप के सभी प्रमुख जैव-भौगोलिक क्षेत्रों में पाए जाने वाले एक तिहाई से अधिक ऐसे जंतु तो अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (IUCN) द्वारा जोखिमग्रस्त (endangered) घोषित हैं, या उनकी संख्या लगातार कम होती जा रही है। उदाहरण के लिए, एक आम प्रवासी पक्षी गार्डन वार्बलर (garden warbler – Sylvia borin) लगभग 60 पौधों के बीजों को फैलाता है, और इसकी संख्या पूरे युरोप में घट रही है। यही हाल रेडविंग (redwing – Turdus iliacus) का भी है। शोधकर्ताओं का कहना है कि जोखिमग्रस्त जानवरों की संख्या को देखते हुए संकट शब्द का उपयोग अनुचित न होगा।

अध्ययन में 60 प्रतिशत से अधिक पौधों के पांच या उससे कम बीज बिखेरने वाले जानवर पाए गए हैं। अब यदि इनमें से कोई भी महत्वपूर्ण बीज वितरक (seed disperser) विलुप्त हो जाता है तो स्थिति पौधे के लिए अति-असुरक्षित (highly vulnerable) बन सकती है। इसके अलावा सूची में लगभग 80 ऐसी ‘अति चिंतनीय’ अंतःक्रियाएं (critical interactions) भी शामिल हैं जिनमें पौधे और जानवर दोनों ही खतरे में हैं या तेज़ी से घट रहे हैं। इस सूची में युरोपियन फैन पाम (European fan palm – Chamaerops humilis) शामिल है। यह पौधा 10 जंतु प्रजातियों की बीज वितरण सेवाओं (seed dispersal services) के भरोसे फलता-फूलता है। इसके बीज वितरकों में युरोपीय खरगोश (European rabbit – Oryctolagus cuniculus) शामिल है जो IUCN द्वारा स्पेन और पुर्तगाल में ‘लुप्तप्राय’ (endangered) सूची में शामिल है।

बहरहाल, अध्ययन उजागर करें, न करें लेकिन वैश्विक स्तर पर भी स्थिति कमोबेश ऐसी ही है। और इतना तो ज़ाहिर है कि जीव-जंतुओं का बेहतर संरक्षण (wildlife conservation) पारिस्थितिकी तंत्र (ecosystem restoration) को सुदृढ़ और स्वस्थ रख सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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टार्डिग्रेड में विकिरण प्रतिरोध

टार्डिग्रेड्स, जिन्हें अक्सर जलीय भालू (water bears) भी कहा जाता है, आठ पैरों वाले सूक्ष्म जीव (microscopic organisms) हैं जो अत्यंत कठिन परिस्थितियों (extreme conditions) में भी जीवित रहने के लिए जाने जाते हैं। इसमें स्वयं को अत्यधिक विकिरण (radiation) से सुरक्षित रखना भी शामिल है, जिस पर इन दिनों वैज्ञानिक गहरी समझ विकसित करने का प्रयास कर रहे हैं। गौरतलब है कि टार्डिग्रेड्स विकिरण की इतनी खुराक सहन कर सकते हैं जो इंसानों के लिए जानलेवा मात्रा से 1000 गुना ज़्यादा है।

छह वर्ष पूर्व, शोधकर्ताओं ने चीन के हेनान के फुनिउ पर्वत से मॉस के नमूने एकत्र किए थे, जिसमें टार्डिग्रेड की एक नई प्रजाति हाइप्सिबियस हेनानेंसिस (Hypsibius henanensis) मिली थी। इसके जीनोम अनुक्रमण (genome sequencing) से पता चला कि इसमें 14,701 जीन हैं, जिनमें से लगभग 30 प्रतिशत जीन मात्र टार्डिग्रेड्स में ही पाए जाते हैं।

टार्डिग्रेड्स में विकिरण झेलने की क्षमता की क्रियाविधि का पता लगाने के लिए वैज्ञानिकों ने हाइप्सिबियस हेनानेंसिस को अत्यधिक विकिरण (radiation exposure) के संपर्क में रखा। इतना विकिरण मनुष्यों के लिए घातक होता। उन्होंने पाया कि ऐसा करने पर इनमें से 2801 जीन सक्रिय हो गए। ये जीन्स डीएनए की मरम्मत, कोशिका विभाजन और प्रतिरक्षा प्रतिक्रियाओं से सम्बंधित थे। इनमें से एक जीन (TRID1) एक ऐसे प्रोटीन (protein) का निर्माण करवाता है जो क्षतिग्रस्त डीएनए की मरम्मत करता है। यह विकिरण से क्षतिग्रस्त कोशिकाओं के लिए एक महत्वपूर्ण कार्य है।

इसके अलावा, शोध से पता चला कि टार्डिग्रेड में 0.5-3.1 प्रतिशत जीन पार्श्व जीन हस्तांतरण (horizontal gene transfer) के ज़रिए आए हैं। यह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें जीन का हस्तांतरण लैंगिक माध्यम से नहीं बल्कि एक से दूसरी प्रजाति को अन्य तरीकों से होता है। ऐसा ही एक जीन है DODA1, जो संभवत: बैक्टीरिया (bacteria) से टार्डिग्रेड में आया है। यह टार्डिग्रेड को बीटालेन (betalain) नामक रंजक का उत्पादन करने में सक्षम बनाता है जो ऑक्सीकरण-रोधी (antioxidants) के रूप में कार्य करते हैं और ऐसे हानिकारक रसायनों को हटाते हैं जो कोशिकाओं में विकिरण के प्रभाव से बनते हैं।

इस अध्ययन के निष्कर्षों का महत्वपूर्ण उपयोग हो सकता है। जब शोधकर्ताओं ने मानव कोशिकाओं को टार्डिग्रेड के एक बीटालेन से उपचारित किया तो कोशिकाएं विकिरण के प्रति अत्यधिक प्रतिरोधी (radiation-resistant) हो गईं। यह खोज कैंसर उपचार (cancer treatment) में उपयोग की जाने वाली विकिरण थेरेपी (radiation therapy) में सुधार की उम्मीद जगाती है, जिससे मानव कोशिकाएं विकिरण जोखिम को बेहतर ढंग से झेलने में सक्षम हो सकती हैं।

दीर्घकालिक अंतरिक्ष मिशनों (long-term space missions) के दौरान विकिरण अंतरिक्ष यात्रियों के लिए एक बड़ा जोखिम होता है। टार्डिग्रेड में विकिरण प्रतिरोध की क्रियाविधि की समझ अंतरिक्ष यात्रियों (astronauts) को हानिकारक अंतरिक्ष विकिरण से बचाने में मदद कर सकती है।

टार्डिग्रेड्स न केवल विकिरण बल्कि निर्जलीकरण, ठंड और भुखमरी जैसी चरम स्थितियों में भी जीवित रहने के लिए प्रसिद्ध हैं। इन स्थितियों को वे कैसे सहन करते हैं, इसका अध्ययन करके शोधकर्ताओं को और अधिक रहस्यों को उजागर करने की उम्मीद है। मसलन, इन तंत्रों को समझने से टीकों (vaccines) जैसे नाज़ुक पदार्थों की शेल्फ लाइफ (shelf life) में सुधार हो सकता है।

संभव है कि टार्डिग्रेड्स की अन्य प्रजातियां इसी तरह के रहस्य उजागर करने का इंतज़ार कर रही हों। टार्डिग्रेड्स की विभिन्न प्रजातियों की तुलना करके वैज्ञानिकों का लक्ष्य जीवित रहने की उन असाधारण रणनीतियों को समझना है जो इन नन्हे जीवों को इतना आकर्षक और मूल्यवान बनाती हैं। (स्रोत फीचर्स)

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