होमो सेपिएंस, धर्म और विज्ञान – गंगानंद झा

क्रमिक जैव विकास के फलस्वरूप आज से लगभग पच्चीस लाख साल पहले मानव के विकास की शृंखला की शुरुआत अफ्रीका में होमो वंश के उद्भव के साथ हुई। फिर काल क्रम में इसकी कई प्रजातियां विकसित हुर्इं और अंत में आधुनिक मानव प्रजाति (होमो सेपिएंस) का विकास आज से करीब दो लाख वर्ष पूर्व पूर्वी अफ्रीका में हुआ।

आधुनिक मनुष्य के इतिहास की शुरुआत आज से सत्तर हजार पहले संज्ञानात्मक क्रांति (Cognitive revolution) के रूप में हुई जब उसने बोलने की, शब्द गठन करने की क्षमता पाई। और तब वह अपने मूल स्थान से अन्य क्षेत्रों — युरोप, एशिया वगैरह में पसरता गया।

इतिहास का अगला पड़ाव करीब 12 हज़ार साल पहले कृषि क्रांति के साथ आया, जब मनुष्य ने खेती करना शुरू किया। मनुष्य अब यायावर नहीं रह गया, वह स्थायी बस्तियों में रहने लगा। सभ्यता और संस्कृति के विकास की कहानियां बनने लगीं।

अब जब मनुष्य ने समझने और अपनी समझ ज़ाहिर करने की क्षमता हासिल कर ली थी, तो उसने अपने चारों ओर के परिवेश के साथ अपने रिश्ते को समझने की कोशिश की। धरती, आसमान और समंदर को समझने की कोशिश की। जानकारियां इकठ्ठी होती चली गर्इं। ये जानकारियां विभिन्न समय में अनेक धाराओं में प्रतिष्ठित हुई। ये धाराएं धर्म कहलार्इं। 

अब मनुष्य के पास अपनी समस्याओं, कौतूहल और सवालों के जवाब पाने का एक जरिया हासिल हो गया था।

जीवनयापन के लिए आवश्यक सारी महत्वपूर्ण जानकारियां प्राचीन काल के मनीषियों द्वारा हमें धार्मिक ग्रंथों अथवा मौखिक परंपराओं में उपलब्ध कराई जा चुकी हैं। मान्यता यह बनी कि इन ग्रंथों और परंपराओं के समीचीन अध्ययन और समझ के ज़रिए ही हम ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। लोगों की आस्था थी कि वेद, कुरान और बाइबिल जैसे धर्मग्रंथों में विश्व ब्राहृांड के सारे रहस्यों का विवरण उपलब्ध है। इन धर्मग्रंथों के अध्ययन या किसी जानकार, ज्ञानी व्यक्ति से संपर्क करने पर सारे सवालों के जवाब मिल जाएंगे। इसलिए नया कुछ आविष्कार करने की ज़रूरत नहीं रह गई है। 

ज़िम्मेदारी के साथ कहा जा सकता है कि सोलहवीं सदी के पहले मनुष्य प्रगति और विकास की आधुनिक अवधारणा में विश्वास नहीं करते थे। उनकी समझ थी कि स्वर्णिम काल अतीत में था और विश्व अचर है। जो पहले नहीं हुआ, वह भविष्य में नहीं हो सकता। युगों की प्रज्ञा के श्रद्धापूर्वक अनुपालन से स्वर्णिम अतीत को वापस लाया जा सकता है और मानवीय विदग्धता हमारी रोज़मर्रा ज़िंदगी के कई पहलुओं में सुधार ज़रूर ला सकती है लेकिन दुनिया की बुनियादी समस्याओं से उबरना मनुष्य की कूवत में नहीं है। जब सर्वज्ञाता बुद्ध, कन्फ्यूशियस, ईसा मसीह, और मोहम्मद तक अकाल, भुखमरी, रोग और युद्ध रोकने में नाकामयाब रहे तो इन्हें रोकने की उम्मीद करना दिवास्वप्न ही है।

हालांकि तब की सरकारें और संपन्न महाजन शिक्षा और वृत्ति के लिए अनुदान देते थे, किंतु उनका उद्देश्य उपलब्ध क्षमताओं को संजोना और संवारना था, न कि नई क्षमता हासिल करना। तब के शासक पुजारियों, दार्शनिकों और कवियों को इस आशा से दान दिया करते थे कि वे उनके शासन को वैधता प्रदान करेंगे और सामाजिक व्यवस्था को कायम रखेंगे। उन्हें इनसे ऐसी कोई उम्मीद नहीं रहती थी कि वे नई चिकित्सा पद्धति का विकास करेंगे या नए उपकरणों का आविष्कार करेंगे और आर्थिक वृद्धि को प्रोत्साहित करेंगे। सोलहवीं शताब्दी से जानकारियों की एक स्वतंत्र धारा उभरी। इसे वैज्ञानिक धारा के रूप में पहचाना जाता है।

वैज्ञानिक क्रांति ने सन 1543 में कॉपर्निकस की विख्यात पांडुलिपि डी रिवॉल्युशनिबस ऑर्बियम सेलेस्चियम (आकाशीय पिंडों की परिक्रमा) के प्रकाशन के साथ आहट दी थी। इस पांडुलिपि ने स्पष्टता के साथ ज्ञान की पारंपरिक धाराओं की स्थापित मान्यता (कि पृथ्वी ब्राहृांड का केंद्र है) के साथ अपनी असहमति की घोषणा की। कॉपर्निकस ने कहा कि पृथ्वी नहीं, बल्कि सूर्य ब्राह्मांड का केंद्र है। पारंपरिक प्रज्ञा (wisdom) के साथ असहमति वैज्ञानिक नज़रिए की पहचान है।

कॉपर्निकस की पांडुलिपि के प्रकाशन के 21 साल पहले मेजेलान का अभियान पृथ्वी की परिक्रमा कर स्पेन लौटा था। इससे यह स्थापित हुआ कि पृथ्वी गोल है। इससे इस विचार को आधार मिला कि हम सब कुछ नहीं जानते। नई जानकारियां हमारी जानकारियों को गलत साबित कर सकती हैं। कोई भी अवधारणा, विचार या सिद्धांत ऐसा नहीं होता जो पवित्र और अंतिम हो और जिसे चुनौती न दी जा सके।

अगली सदी में फ्रांसीसी गणितज्ञ रेने देकार्ते ने वैज्ञानिक तरीकों से सारे स्थापित सत्य की वैधता का परीक्षण करने की वकालत की। अंतत: सन 1859 में चार्ल्स डार्विन द्वारा प्राकृतिक वरण से विकास के महत्वपूर्ण सिद्धांत का प्रतिपादन किए जाने के साथ ही वैज्ञानिक विचारधारा को व्यापक स्वीकृति और सम्माननीयता मिली।

विज्ञान की पहचान इस बात में निहित है कि वह सबसे अधिक महत्वपूर्ण विषयों के बारे में सामूहिक अज्ञान को खुले तौर पर स्वीकार करता है। विज्ञान का वक्तव्य है कि डार्विन ने कभी नहीं दावा किया कि वे जीव वैज्ञानिकों की आखिरी मोहर हैं और उनके पास सारे सवालों के अंतिम जवाब हैं। धर्म का आधार आस्था है, विज्ञान का आधार है परंपरा से मिली प्रज्ञा से असहमति। विज्ञान सवाल पूछने को प्रोत्साहित करता है, जबकि धर्म सवाल उठाने को निरुत्साहित करता है। 

आधुनिक विज्ञान का आधार यह स्वीकृति है कि हम सब कुछ नहीं जानते। और भी अधिक महत्वपूर्ण है कि विज्ञान स्वीकार करता है कि नई जानकारियां हमारी जानकारियों को गलत साबित कर सकती हैं।

विज्ञान अज्ञान को कबूल करने के साथ-साथ नई जानकारियां इकट्ठा करने का लक्ष्य रखता है। अवलोकनों को इकट्ठा कर उन्हें व्यापक सिद्धातों में बदलने के लिए गणितीय उपकरणों का उपयोग कर ऐसा किया जाता है। आधुनिक विज्ञान नए सिद्धांत देने तक सीमित नहीं रहता, इन सिद्धांतों का उपयोग नई क्षमताएं हासिल करने और नई तकनीकों को विकसित करने में होता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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इक्कीसवीं सदी की सबसे बड़ी चुनौती अभी उपेक्षित है – भारत डोगरा

ह दिन-प्रतिदिन स्पष्ट होता जा रहा है इक्कीसवीं शताब्दी की सबसे बड़ी चुनौती यह है कि धरती की जीवनदायिनी क्षमताएं और विशेष परिस्थितियां, मानव-निर्मित कारणों से गंभीर खतरे में पड़ गई हैं।

यह एक बहुपक्षीय संकट है पर इसमें दो पक्ष विशेष उल्लेखनीय हैं। पहला कि अनेक पर्यावरणीय समस्याएं सहनीय दायरे से बाहर जा रही हैं। इनमें सबसे प्रमुख जलवायु बदलाव की समस्या है पर इससे कम या अधिक जुड़ी हुई अन्य गंभीर समस्याएं भी हैं। इन समस्याओं के साथ ‘टिपिंग पॉइंट’ की अवधारणा जुड़ी है: समस्याओं का एक ऐसा स्तर जहां पहुंचकर उनमें अचानक बहुत तेज़ वृद्धि होती है और ये समस्याएं नियंत्रण से बाहर जा सकती हैं।

दूसरा पक्ष यह है कि धरती पर महाविनाशक हथियारों का बहुत बड़ा भंडार एकत्र हो गया है। इनके उपयोग से धरती पर जीवन का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जाएगा। इस समय विश्व में लगभग 14,500 परमाणु हथियार हैं जिनमें से 3750 हमले की पूरी तैयारी के साथ तैनात हैं। यदि परमाणु हथियारों का बड़ा उपयोग एक बार भी हुआ तो इसका असर केवल हमलास्थल पर ही नहीं बल्कि दूर-दूर होगा। उन देशों में भी होगा जहां परमाणु हथियार हैं ही नहीं। हमले के स्थानों पर तुरंत दसियों लाख लोग बहुत दर्दनाक ढंग से मारे जाएंगे। इसके दीर्घकालीन असर दुनिया के बड़े क्षेत्र में होंगे जिससे जीवनदायिनी क्षमताएं बुरी तरह क्षतिग्रस्त होंगी।

परमाणु हथियारों की दिक्कत यह है कि विपक्षी देशों में एक-दूसरे की मंशा को गलत समझ कर परमाणु हथियार दागने की संभावना बढ़ती है। परमाणु हथियारों के उपयोग की संभावना को रोकने वाली संधियों के नवीनीकरण की संभावनाएं कम हो रही है।

इस समय नौ देशों के पास परमाणु हथियार हैं। निकट भविष्य में परमाणु हथियार वाले देशों की संख्या बढ़ सकती है। संयुक्त राज्य अमेरिका व रूस दोनों ने अपने हथियारों की विध्वंसक क्षमता बढ़ाने के लिए हाल में बड़े निवेश किए हैं, खासकर संयुक्त राज्य अमेरिका ने।

इसके अतिरिक्त बहुत खतरनाक रासायनिक व जैविक हथियारों के उपयोग की संभावना भी बनी हुई है। हालांकि इन दोनों हथियारों को प्रतिबंध करने वाले अंतर्राष्ट्रीय समझौते हुए हैं, पर अनेक देश ज़रूरी जानकारी पारदर्शिता से नहीं देते हैं व इन हथियारों के चोरी-छिपे उत्पादन की अनेक संभावनाएं हैं।

रोबोट हथियारों के विकास की तेज़ होड़ भी आरंभ हो चुकी है जो बहुत ही खतरनाक सिद्ध हो सकते हैं। इसके बावजूद इनमें भारी निवेश अनेक देशों द्वारा हो रहा है, विशेषकर संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस व चीन द्वारा।

आतंकवादी संगठनों के हाथ में यदि इनमें से किसी भी तरह के महाविनाशक हथियार आ गए तो विश्व में विध्वंस की नई संभावनाएं उत्पन्न होंगी।

इन खतरों को विश्व स्तर पर उच्चतम प्राथमिकता मिलनी चाहिए। सबसे गंभीर खतरों को दूर करने या न्यूनतम करने में अभी तक की प्रगति आशाजनक नहीं रही है। अविलंब इन्हें विश्व स्तर पर उच्चतम प्राथमिकता बनाकर इन खतरों को समाप्त करने या न्यूनतम करने की असरदार कार्रवाई शीघ्र से शीघ्र होनी चाहिए। यह इक्कीसवीं सदी का सबसे बड़ा सवाल है कि क्या समय रहते मानव सभ्यता इन सबसे बड़े संकटों के समाधान के लिए समुचित कदम उठा सकेगी। इस सवाल को विश्व स्तर पर विमर्श के केंद्र में लाना ज़रूरी है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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फूलों में छुपकर कीटनाशकों से बचाव

गुलाब का फूल और उसकी खूशबू कई लोगों को आकर्षित करती है। इसके व्यासायिक महत्व के चलते विश्व में कई जगह इसकी खेती भी की जाती है। लेकिन गुलाब की कलियों पर रहने वाली घुन पौधों को रोज़ रोज़ेट नामक वायरस से ग्रस्त कर देती हैं जिसके कारण पौधे को काफी नुकसान होता है। वैज्ञानिक अब तक गुलाब पर रहने वाली इस घुन पर काबू नहीं कर पाए थे।

लेकिन हाल ही में जर्नल ऑफ एनवायरनमेंटल हार्टिकल्चर में प्रकाशित शोध कहता है कि वैज्ञानिकों ने इस बात का पता कर लिया है कि क्यों इस घुन तक पहुंचना और उस पर काबू पाना मुश्किल था। शोध के अनुसार ये घुन गुलाब के आंतरिक अंगों में छिपकर अपने आपको हानिकारक रसायनों और कीटनाशकों के छिड़काव से बचाने में सफल हो जाती हैं।

नमक के एक कण से भी छोटी घुन (Phyllocoptes fructiphilus) गुलाब के फूलों से अपना भोजन लेते समय फूलों में रोज़ रोज़ेट वायरस पहुंचा देती हैं जिससे पौधा रोग-ग्रस्त हो जाता है। इस रोग के कारण गुलाब के पौधे पर बहुत अधिक कांटे उग आते हैं, फूलों का आकार बिगड़ जाता है और पौधों में बहुत पास-पास कलियां खिलने लगती हैं जिसके कारण पौधा बदरंग और अनुपयोगी हो जाता है। इसके कारण पूरी फसल बर्बाद हो जाती है।

पौधों में यह रोग सबसे पहले कैलिफोर्निया में दिखा था और उसके बाद यह लगभग 30 प्रांतों में फैल गया। वैज्ञानिक पौधे में हुए इस रोग पर काबू पाने की कोशिश में लगे हुए थे। लेकिन पौधों पर किसी भी तरह के रसायन और कीटनाशकों का असर नहीं हो रहा था।

इस गुत्थी को सुलझाने के लिए वैज्ञानिकों ने 10 अलग-अलग राज्यों से रोग-ग्रस्त और स्वस्थ दोनों तरह के पौधों के तने, पत्ती और फूलों का बारीकी से अध्ययन किया। उन्होंने पौधे के विभिन्न अंगो की आवर्धित तस्वीरें खीचीं। तस्वीरों के अध्ययन में उन्होंने पाया कि ये घुन फूलों की अंखुड़ियों की महीन रोमिल संरचना में धंसी रहती हैं। इस तरह ये कीटनाशक और हानिकारक रसायनों के छिड़काव से बच निकलती हैं। उम्मीद है कि इस शोध से गुलाब की फसलों में फैलने वाले रोज़ रोज़ेट रोग पर काबू पाया जा सकेगा। (स्रोत फीचर्स)

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हिमनद झील के फूटने के अनुमान की तकनीक

इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस, बेंगलुरु के वैज्ञानिकों ने हिमनद झीलों के फैलने और फूटने की भविष्यवाणी करने की एक नई तकनीक विकसित की है। वास्तव में हिमनद झीलें तब बनती हैं जब हिमनद खिसकने से खोखली जगहों में बर्फ के बड़े जमाव रह जाते हैं जिनके पिघलने से झीलों का निर्माण होता है।

अध्ययन के लिए सिक्किम की सबसे बड़ी झील, दक्षिण ल्होनाक झील, पर इस नई तकनीक को लागू किया गया। वैसे तो यह झील पहले से ही संभावित खतरे की श्रेणी में है और इस तकनीक के उपयोग से इस बात कि पुष्टि भी हो गई। नेचर इंडिया में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार दिवेचा सेंटर फॉर क्लाइमेट चेंज के वैज्ञानिक रेम्या नंबूदिरी ने सिक्किम स्टेट काउंसिल ऑफ साइंस एंड टेक्नॉलॉजी के साथ किए गए अध्ययन में बताया कि इस झील का आकार तेज़ी से बढ़ रहा है जो आने वाले संभावित खतरे की ओर इशारा करता है।

शोधकर्ताओं का अनुमान है कि 51.4 मीटर गहरी झील का आयतन 2015 में लगभग 6 करोड़ क्यूबिक मीटर था जो बढ़कर 9 करोड़ क्यूबिक मीटर होने की संभावना है। यदि यह झील फूट गई तो इतनी बड़ी मात्रा में पानी के अचानक बहाव से निचले इलाके में खतरनाक हालात बन सकते हैं। पूर्व में हिमालयी क्षेत्र में कई बार प्रलय की स्थिति बन चुकी है। जैसे 1926 का जम्मू-कश्मीर जलप्रलय, 1981 में किन्नौर घाटी, हिमाचल प्रदेश में बाढ़ और 2013 में केदारनाथ, उत्तराखंड का प्रकोप।

हिमनद में छिपी इन झीलों पर उपग्रहों की मदद से लगातार नज़र रखी जा रही है। किंतु रिमोट सेंसिंग से न तो झीलों की गहराई का पता लगाया जा सकता है और न ही आपदा के संभावित समय का, इसलिए शोधकर्ताओं ने झीलों के आयतन और उसके विस्तार का अनुमान और असुरक्षित स्थानों की पहचान करने के लिए हिमनद की सतह का वेग, ढलान और बर्फ के प्रवाह जैसे मापदंडों का उपयोग करते हुए एक तकनीक विकसित की है।

उन्होंने इस क्षेत्र में नौ अन्य हिमनद झीलों और तीन स्थलों का भी चित्रण किया है जहां भविष्य में नई झीलें बन सकती हैं। रिपोर्ट के अनुसार, इस तकनीक का उपयोग हिमालय के अन्य हिमनदों की निगरानी के लिए भी किया जा सकता है ताकि लोगों को अचानक आने वाली बाढ़ के बारे में पहले से  चेतावनी दी जा सके। फिलहाल तो भारत के पास हिमनद झील के फूटने की कोई चेतावनी प्रणाली नहीं है लेकिन इस तकनीक की मदद से प्रारंभिक चेतावनी प्रणाली को एक ऐसे मॉडल के साथ जोड़ा जा सकता है जो आकस्मिक बाढ़ के आगमन के समय की भविष्यवाणी करने में सक्षम हो। (स्रोत फीचर्स)

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पिघलते एवेरस्ट ने कई राज़ उजागर किए

माउंट एवरेस्ट की चोटी पर पहुंचना हमेशा से एक बड़ी उपलब्धि माना जाता है। इसके शिखर पर पहुंचने का रास्ता जितना रहस्यों से भरा है उतना ही बाधाओं से भी भरा है। गिरती हुई बर्फ, उबड़ खाबड़ रास्ते, कड़ाके की ठंड और अजीबो-गरीब ऊंचाइयां इस सफर को और चुनौतीपूर्ण बनाती हैं। अभी तक जहां लगभग 5,000 लोग सफलतापूर्वक पहाड़ की चोटी पर पहुंच चुके हैं, वहीं ऐसा अनुमान है कि 300 लोग रास्ते में ही मारे गए हैं।

पर्वतारोहियों के अनुसार अगर उनका कोई साथी ऐसे सफ़र के दौरान मर जाता है तो वे उसको पहाड़ों पर ही छोड़ देते हैं। तेज़ ठंड और बर्फबारी के चलते शव बर्फ में ढंक जाते हैं और वहीं दफन रहते हैं। लेकिन वर्तमान जलवायु परिवर्तन से शवों के आस-पास की बर्फ पिघलने से शव उजागर होने लगे हैं।

पिछले वर्ष शोधकर्ताओं के एक समूह ने एवरेस्ट की बर्फ को औसत से अधिक गर्म पाया। इसके अलावा चार साल से चल रहे एक अन्य अध्ययन में पाया गया कि बर्फ पिघलने से पर्वत पर तालाबों के क्षेत्र में विस्तार भी हो रहा है। यह विस्तार न केवल हिमनदों के पिघलने से हुआ है बल्कि नेपाल में खम्बु हिमनद की गतिविधि के कारण भी हुआ है।

अधिकांश शव पहाड़ के सबसे खतरनाक क्षेत्रों में से एक, खम्बु में जमे हुए जल प्रपात वाले इलाके में पाए गए। वहां बर्फ के बड़े-बड़े खंड अचानक से ढह जाते हैं और हिमनद प्रति दिन कई फीट नीचे खिसक जाते हैं। 2014 में, इस क्षेत्र में गिरती हुई बर्फ के नीचे कुचल जाने से 16 पर्वतारोहियों की मौत हो गई थी।

पहाड़ से शवों को निकालना काफी खतरनाक काम होने के साथ कानूनी अड़चनों से भरा हुआ है। नेपाल के कानून के तहत वहां किसी भी तरह का काम करने के लिए सरकारी एजेंसियों को शामिल करना आवश्यक होता है। एक बात यह भी है कि ऐसे पर्वतारोही शायद चाहते होंगे कि यदि एवरेस्ट के रास्ते में जान चली जाए तो उनके शव को वहीं रहने दिया जाए। (स्रोत फीचर्स)

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आखिर समुदाय ने अपनाया स्वच्छता अभियान – भारत डोगरा

हाल के समय में भारत में स्वच्छता अभियान का मुख्य उद्देश्य खुले में शौच को समाप्त करना रहा है और इसके लिए रिकार्ड तोड़ गति से शौचालय बनाए गए हैं। इस अभियान की टिकाऊ सफलता के लिए समुदाय की स्वीकृति और इस स्वीकृति पर आधारित भागीदारी ज़रूरी है। यह स्वीकृति प्राप्त करने में समय तो लगा है पर अब बहुत से स्थानों पर समुदाय की यह स्वीकृति प्राप्त होने लगी है जिससे टिकाऊ सफलता की संभावना भी बढ़ गई है।

पूर्वी उत्तर प्रदेश में बहराईच, श्रावस्ती, बलरामपुर आदि ज़िलों के दौरे में ऐसे कई गांव नज़र आए जहां समुदाय की स्वीकृति स्पष्ट नज़र आई। बहराईच ज़िले के चितोरा ब्लॉक में समसातरह गांव हो या केसरगंज ब्लॉक का झोपड़वा गांव हो, लगभग सभी परिवारों के शौचालय बन गए हैं व लगभग सभी परिवार इनका उपयोग भी कर रहे हैं। यह एक बड़ा बदलाव है। विशेषकर महिलाओं ने बार-बार कहा कि इनसे उन्हें बहुत राहत मिली है। लोगों ने कहा कि इस कारण बीमारी का प्रकोप भी कम हो रहा है।

पर बाद में दोनों गांवों के लोगों ने यह भी कहा कि अन्य कारणों से दूषित पानी की समस्या बढ़ रही है। समसातरह में पानी की कमी भी बनी रही है। जल-संकट होगा तो शोैचालय का उपयोग भी कठिन होगा। झोपड़वा में पानी पहले से दूषित था, पर हाल में एक फैक्ट्री से पास के नाले का प्रदूषण इतना बढ़ गया है कि पशुओं की मौतें होने लगी है। लोग शौचालयों से प्रसन्न हैं, पर साथ में चाहते हैं कि जल-संकट भी दूर हो व साफ पानी सुनिश्चित हो।

बलरामपुर ज़िले के बेल्हा गांव में स्वच्छता ने व वहां के स्कूल ने बहुत प्रगति की है। बाढ़ को ध्यान में रखकर शौचालय ऊंचा बनवाया गया है पर यह चिंता बनी हुई है कि अधिक बाढ़ का शौचालय पर क्या असर पड़ेगा। कहीं जल-स्तर बहुत ऊंचा हो तो शौचालयों के रिसाव से जल-प्रदूषण का खतरा भी कुछ स्थानों पर बना हुआ है। यह खतरा वहां अधिक है जहां निर्माण शौचालय के मानकों के अनुसार नहीं हो पाया है। ऐसे शौचालयों को सुधारना होगा।

कुल मिलाकर शौचालयों की गुणवत्ता में आंरभिक दिनों की अपेक्षा सुधार हुआ है। अनेक अधिकारियों ने निष्ठा से कार्य किया है व स्वैच्छिक संगठनों का भी उपयोगी सहयोग भी उन्हें मिला है। विशेषकर समुदाय आधारित पूर्ण स्वच्छता (कम्यूनिटी लेड टोटल सेनिटेशन) के अभियान में आगा खां फाउंडेशन का यहां महत्वपूर्ण योगदान रहा जिसकी समुदायों की स्वीकृति प्राप्त करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। यूनिसेफ से सहयोग प्राप्त कर इस संस्था ने गांव, स्कूल, आंगनवाड़ी, स्वास्थ्य केन्द्र आदि में स्वच्छता अभियान की मॉनिटरिंग के लिए सूचना तकनीक का भी बेहतर उपयोग किया, जिससे समस्याओं के यथासमय समाधान में मदद मिली। स्वच्छता अभियान के लिए प्रधानों, उनके सचिवों, मिस्त्रियों, प्रेरकों आदि के जो प्रशिक्षण स्वैच्छिक संस्था द्वारा हुए, उनसे भी सफलता में योगदान मिला।

बहराईच के धोबहा गांव का स्कूल हो या श्रावस्ती ज़िले के पांडेयपुर व डंडौली गांव का या बलरामपुर ज़िले के बेल्हा गांव का, ये सब स्कूल ऐसे हैं जहां हाल में बहुत सुधार हुआ है व इसका एक महत्त्वपूर्ण पक्ष है शौचालय व स्वच्छता में सुधार। अच्छे शौचालय बने हैं, जल-आपूर्ति बेहतर हुई है पर फिर भी लगभग सभी ग्रामीण स्कूलों में एक बड़ी कमी खलती है कि यहां कोई सफाईकर्मी नहीं है। जो पंचायत का सफाईकर्मी है उसी को स्कूल की सफाई की ज़िम्मेदारी दी जाती है व अधिक कार्यभार होने पर वह ठीक से यह ज़िम्मेदारी संभाल नहीं पाता है। यह कमी उत्तर प्रदेश के ग्रामीण सरकारी स्कूलों में ही नहीं है अपितु बिहार व अनेक अन्य राज्यों में भी यह समस्या है। लगभग सभी अध्यापक व अभिभावक स्वीकार करते हैं कि प्रत्येक स्कूल में कम से कम 2 घंटे के लिए एक सफाई कर्मचारी की ज़रूरत है पर यह व्यवस्था अभी हो नहीं पाई है। इस कमी को पूरा करने से स्कूलों को स्वच्छ रखने में सहायता मिलेगी।

इसके अतिरिक्त कूड़े के सही प्रबंध की चुनौती अभी सामने है जिसकी ज़रूरत शहरों में ही नहीं गांवों में भी महसूस की जा रही है। कूड़े को एकत्र करने से पहले ही इसके तीन या कम से कम दो भागों में वर्गीकरण के महत्त्व को स्वीकार कर रहे हैं पर इस दिशा में उल्लेखनीय प्रगति अभी बहुत कम नज़र आती है। इस क्षेत्र में बहुत रचनात्मक कार्य करने की संभावना है। उम्मीद है कि आगे स्वच्छता अभियान में इसे और महत्त्व मिलेगा। (स्रोत फीचर्स)

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स्कूल स्वच्छता अभियान से शिक्षा व स्वास्थ्य में सुधार – भारत डोगरा

स्कूलों में स्वच्छता अभियान अपने आप में तो बहुत ज़रूरी है ही, साथ ही इससे शिक्षा व स्वास्थ्य में व्यापक स्तर पर सुधार की बहुत संभावनाएं हैं। अनेक किशोरियों के स्कूल छोड़ने व अध्यापिकाओं के ग्रामीण स्कूलों में न जाने का एक कारण शौचालयों का अभाव रहा है। अब शौचालय का निर्माण तो तेज़ी से हो रहा है, पर निर्माण में गुणवत्ता सुनिश्चित करना ज़रूरी है। चारदीवारी न होने से शौचालय के रख-रखाव में कठिनाई होती है। छात्राओं व अध्यापिकाओं के लिए अलग शौचालयों का निर्माण कई जगह नहीं हुआ है।

एक बहुत बड़ी कमी यह है कि हमारे मिडिल स्तर तक के अधिकांश स्कूलों में, विशेषकर दूर-दूर के गांवों में एक भी सफाईकर्मी की व्यवस्था नहीं है। इस वजह से सफाई का बहुत-सा भार छोटी उम्र के बच्चों पर आ जाता है। सफाई रखने की आदत डालना, स्वच्छता अभियान में कुछ हद तक भागीदारी करना तो बच्चों के लिए अच्छा है, पर सफाई का अधिकांश बोझ उन पर डालना उचित नहीं है। अत: शीघ्र से शीघ्र यह निर्देश निकलने चाहिए कि प्रत्येक स्कूल में कम से कम एक सफाईकर्मी अवश्य हो। जो स्कूल छोटे से हैं, वहां सफाईकर्मी को सुबह के 2 या 3 घंटे के लिए नियुक्त करने से भी काम चलेगा।

मध्यान्ह भोजन पकाने की रसोई को साफ व सुरक्षित रखना बहुत आवश्यक है। रसोई में स्वच्छता के उच्च मानदंड तय होने चाहिए व इसके लिए ज़रूरी व्यवस्थाएं होनी चाहिए। मध्यान्ह भोजन पकाने वाली महिलाओं का वेतन बढ़ाना बहुत ज़रूरी है। इस समय तो उनका वेतन बहुत कम है जबकि ज़िम्मेदारी बहुत अधिक है।

मध्यान्ह भोजन कार्यक्रम की वजह से स्कूल में स्वच्छ पानी की ज़रूरत पहले से कहीं अधिक बढ़ गई है। इस ओर समुचित ध्यान देना चाहिए। ठीक से हाथ धोने की आदत वैसे तो सदा ज़रूरी रही है, पर अब और ज़रूरी हो गई है। ऐसी व्यवस्था स्कूल में होनी चाहिए कि बच्चे आसानी से खाना खाने से पहले व बाद में तथा शौचालय उपयोग करने के बाद भलीभांति हाथ धो सकें।

इनमें से कई कमियों को दूर कर स्कूल में स्वच्छता का एक मॉडल मैयार करने का प्रयास आगा खां विकास नेटवर्क से जुड़े संस्थानों ने बिहार, उत्तर प्रदेश और गुजरात के सैकड़ों स्कूलों में किया है। बिहार में ऐसे कुछ स्कूल देखने पर पता चला कि छात्र-छात्राओं के लिए अलग-अलग अच्छी गुणवत्ता के शौचालय बनवाए गए हैं। उनमें भीतर पानी की व्यवस्था है व बाहर वाटर स्टेशन है। पानी के नलों व बेसिन की एक लाइन है जिससे विद्यार्थी बहुत सुविधा से हाथ धो सकते हैं। स्कूलों में साबुन उपलब्ध रहे इसके लिए सोप बैंक बनाया गया है। बच्चे अपने जन्मदिन पर इस सोप बैंक को एक साबुन का उपहार देते हैं।

किशोरियों को मीना मंच के माध्यम से माहवारी सम्बंधी स्वच्छता की जानकारी दी जाती है। स्कूल में एक ‘स्वच्छता कोना’ बनाकर वहां स्वच्छता सम्बंधी जानकारी या उपकरण रखवाए जाते हैं। बाल संसद व मीना मंच में स्वच्छता की चर्चा बराबर होती है। छात्र समय-समय पर गांव में स्वच्छता रैली निकालते हैं। स्वच्छता की रोचक शिक्षा के लिए विशेष पुस्तक व खेल तैयार किए गए हैं। सप्ताह में एक विशेष क्लास इस विषय पर होती है। स्वच्छता के खेल को सांप-सीढ़ी खेल के मॉडल पर तैयार कर रोचक बनाया गया है।

इन प्रयासों में छात्रों व अध्यापकों दोनों की बहुत अच्छी भागीदारी रही है, जिससे भविष्य के लिए उम्मीद मिलती है कि ऐसे प्रयास अधिक व्यापक स्तर पर भी सफल हो सकते हैं। अभिभावकों ने बताया कि जब स्कूल में बच्चे स्वच्छता के प्रति अधिक जागरूक होते हैं तो इसका असर घर-परिवार व पड़ौस तक भी ले आते हैं। जिन स्कूलों में सफल स्वच्छता अभियान चले हैं व स्वच्छता में सुधार हुआ है, वहां शिक्षा के बेहतर परिणाम प्राप्त करने में भी मदद मिली है तथा बच्चों में बीमार पड़ने की प्रवृत्ति कम हुई है।

अलबत्ता, एक बड़ी कमी यह रह गई है कि बहुत से स्कूलों के लिए बजट में सफाईकर्मी का प्रावधान ही नहीं है और किसी स्कूल में एक भी सफाईकर्मी न हो तो उस स्कूल की सफाई व्यवस्था पिछड़ जाती है। इस कमी को सरकार को शीघ्र दूर करना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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एक लाख वर्षों से बर्फ के नीचे छिपे महासागर की खोज

जुलाई 2017 में, अंटार्कटिक प्रायद्वीप के पूर्वी भाग में लार्सन सी आइस शेल्फ से एक विशाल हिमखंड टूट गया था। इसके टूटने के साथ ही वर्षों से बर्फ के नीचे ओझल समुद्र की एक बड़ी पट्टी सामने आ गई। इस समुद्र में जैव विकास और समुद्री जीवों की गतिशीलता तथा जलवायु परिवर्तन के प्रति उनकी प्रतिक्रिया के सुराग मिल सकते हैं।

जर्मनी के अल्फ्रेड वेगेनर इंस्टीट्यूट फॉर पोलर एंड मरीन रिसर्च के वैज्ञानिक बोरिस डोर्सेल के नेतृत्व में 45 वैज्ञानिकों की एक अंतर्राष्ट्रीय टीम इस समुद्र की खोजबीन के लिए रवाना होने की योजना बना रही है। किंतु इस दूरस्थ क्षेत्र तक पहुंचना और इतने कठिन मौसम में शोध करना चुनौतीपूर्ण हो सकता है, अलबत्ता यह काफी रोमांचकारी भी होगा।

लार्सन सी से अलग हुआ बर्फ का यह टुकड़ा 5,800 वर्ग किलोमीटर का है और 200 किलोमीटर उत्तर की ओर बह चुका है। वैज्ञानिक यह जानने को उत्सुक हैं कि कौन-सी प्रजातियां बर्फ के नीचे पनप सकती हैं, और उन्होंने अचानक आए इस बदलाव का सामना कैसे किया होगा। छानबीन के लिए पिछले वर्ष कैंब्रिज विश्वविद्यालय की जीव विज्ञानी कैटरीन लिनसे की टीम का वहां पहुंचने का प्रयास समुद्र में जमी बर्फ के कारण सफल नहीं हो पाया था। परिस्थिति अनुकूल होने पर नई टीम वहां समुद्र और समुद्र तल के नमूने तो ले पाई, लेकिन ज़्यादा आगे नहीं जा पाई।

अल्फ्रेड वेगेनर इंस्टीट्यूट द्वारा संचालित पोलरस्टर्न जर्मनी का प्रमुख ध्रुवीय खोजी पोत है और दुनिया में सबसे अच्छा सुसज्जित अनुसंधान आइसब्रोकर है। इसमें मौजूद दो हेलीकॉप्टर सैटेलाइट इमेजरी और उड़ानों का उपयोग करके बर्फ की चादर में जहाज़ का मार्गदर्शन करेंगे।

यदि बर्फ और मौसम की स्थिति सही रहती है तो टीम कुछ ही दिनों में वहां पहुंच सकती है। वहां दक्षिणी गर्मियों और विभिन्न आधुनिक उपकरणों की मदद से वैज्ञानिकों को काफी समय मिल जाएगा जिससे वे समुद्र के जीवों और रसायन के नमूने प्राप्त कर सकेंगे। टीम का अनुमान है कि वेडेल सागर जैसे गहरे समुद्र का पारिस्थितिकी तंत्र बर्फ के नीचे अंधेरे में विकसित हुआ है।

यदि नई प्रजातियां इस क्षेत्र में बसना शुरू करती हैं, तो कुछ वर्षों के भीतर पारिस्थितिकी तंत्र में काफी बदलाव आ सकता है। गैस्ट्रोपोड्स और बाईवाल्व्स जैसे जीवों के ऊतक के समस्थानिक विश्लेषण से आइसबर्ग के टूटने के बाद से खाद्य  शृंखला में बदलाव का पता लगाया जा सकता है, क्योंकि जानवरों के ऊतकों में रसायनों की जांच से उनके आहार के सुराग मिल जाते हैं।

मानवीय गतिविधियों से अप्रभावित इस क्षेत्र से लिए जाने वाले नमूने शोधकर्ताओं के लिए एक अमूल्य संसाधन साबित होंगे। इस डैटा से वैज्ञानिकों को समुद्री समुदायों के विकास से जुड़े प्रश्नों को सुलझाने में तो मदद मिलेगी ही, यह भी अनुमान लगाया जा सकता है कि इस समुद्र के नीचे पाई जाने वाली ये प्रजातियां कितनी जल्दी बर्फीले क्षेत्र में रहने के सक्षम हो जाएंगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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भारत में वनों का क्षेत्रफल बढ़ा – नरेन्द्र देवांगन

भारत के जीडीपी में वनों का योगदान 0.9 फीसदी है। इनसे र्इंधन के लिए सालाना 12.8 करोड़ टन लकड़ी प्राप्त होती है। हर साल 4.1 करोड़ टन इमारती लकड़ी मिलती है। महुआ, शहद, चंदन, मशरूम, तेल, औषधीय पौधे प्राप्त होते हैं। पेड़-पौधों का हर अंग अचंभित करता है। पत्तियां, टहनियां और शाखाएं शोर को सोखती हैं, तेज़ बारिश का वेग धीमा कर मृदा क्षरण रोकती है। पेड़ पक्षियों, जानवरों और कीट-पतंगों को आवास मुहैया कराते हैं। शाखाएं, पत्ते छाया प्रदान करते हैं, हवा की रफ्तार कम करने में सहायक होते हैं। जड़ें मिट्टी के क्षरण को रोकती हैं।

6.4 लाख गांवों में से 2 लाख गांव जंगलों में या इनके आसपास बसे हैं। 40 करोड़ आबादी प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से वनों पर निर्भर है। इनकी आय में वन उत्पादों का योगदान 40 से 60 फीसदी है। वन हर साल 27 करोड़ मवेशियों को 74.1 करोड़ टन चारा उपलब्ध कराते हैं। हालांकि इससे 78 फीसदी जंगलों को नुकसान पहुंच रहा है। 18 फीसदी जंगल बुरी तरह से प्रभावित हो रहे हैं। खुद को कीटों से बचाने के लिए पेड़-पौधे वाष्पशील फाइटोनसाइड रसायन हवा में छोड़ते हैं। इनमें एंटी बैक्टीरियल गुण होता है। सांस के ज़रिए जब ये रसायन हमारे शरीर में जाते हैं तो हमारी रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ जाती है।

8 करोड़ हैक्टर भूमि हवा और पानी से होने वाले अपरदन से गुज़र रही है। 50 फीसदी भूमि को इसके चलते गंभीर नुकसान हो रहा है। भूमि की उत्पादकता घट रही है। इस भूमि को पेड़-पौधों के ज़रिए ही बचाया जा सकता है। पेड़-पौधे वातावरण से कार्बन डाईऑक्साइड सोखकर ऑक्सीजन देते हैं। एक एकड़ में लगे पेड़ उतना कार्बन सोखने में सक्षम हैं जितनी एक कार 40,000 कि.मी. चलने में उत्सर्जित करती है। साथ ही वे वातावरण में मौजूद हानिकारक गैसों को भी कैद कर लेते हैं। पेड़-पौधे धूप की अल्ट्रा वायलेट किरणों के असर को 50 फीसदी तक कम कर देते हैं। ये किरणें त्वचा के कैंसर के लिए ज़िम्मेदार होती हैं। घर के आसपास, बगीचे और स्कूलों में पेड़ लगाने से बच्चे धूप की हानिकारक किरणों से सुरक्षित रहते हैं। यदि किसी घर के आसपास पौधे लगाए जाएं तो ये गर्मियों के दौरान उस घर की एयर कंडीशनिंग की ज़रूरत को 50 फीसदी तक कम कर देते हैं। घर के आसपास पेड़-पौधे लगाने से बगीचे से वाष्पीकरण बहुत कम होता है, नमी बरकरार रहती है।

ऐसा नहीं है कि सिमटती हरियाली और उसके दुष्प्रभावों को लेकर लोग चिंतित नहीं है। लोग चिंतित भी हैं और चुपचाप बहुत संजीदा तरीके से अपने फर्ज़ को अदा भी कर रहे हैं। अपनी इस मुहिम में वे नन्हे-मुन्नों को सारथी बना रहे हैं, जिससे आज के साथ कल भी हरा-भरा हो सके। जहां दुनिया के तमाम देशों के वन क्षेत्र का रकबा लगातार कम होता जा रहा है, वहीं भारत ने अपने वन और वृक्ष क्षेत्र में एक फीसदी की बढ़ोतरी दर्ज की है। इंडिया स्टेट फॉरेस्ट रिपोर्ट 2017 के अनुसार 2015 से 2017 के बीच कुल वन और वृक्ष क्षेत्र में 8021 वर्ग किलोमीटर का इजाफा हुआ है। लगातार चल रहे सरकारी-गैर सरकारी प्रयासों और जागरूकता कार्यक्रमों से ही ऐसा संभव हो सका है।

कुल वन क्षेत्र के लिहाज़ से दुनिया में हम दसवें स्थान पर हैं और सालाना वन क्षेत्र में होने वाली वृद्धि के लिहाज़ से दुनिया में आठवें पायदान पर। अच्छी बात यह है कि जनसंख्या घनत्व को देखा जाए तो शीर्ष 9 देशों के लिए यह आंकड़ा 150 प्रति वर्ग कि.मी. है जबकि भारत का 350 है। इसका मतलब है कि आबादी और पशुओं के दबाव के बावजूद भी हमारे संरक्षण और संवर्धन के प्रयासों से ये नतीजे संभव हुए हैं। 

आज के दौर में पेड़-पौधों की महत्ता और बढ़ गई है। शहरीकरण की दौड़ में बढ़ते कार्बन उत्सर्जन को रोकना भी बड़ी चुनौती बन गया है। ऐसे में कार्बन डाईऑक्साइड को सोखने के लिए वनीकरण को बढ़ावा देने के अलावा और कोई चारा नहीं है। जलवायु परिवर्तन पर आयोजित पेरिस जलवायु समझौते में भारत संयुक्त राष्ट्र को भरोसा दिला चुका है कि वह वर्ष 2030 तक कार्बन डाईऑक्साइड के उत्सर्जन में 2.5 से 3 अरब टन तक की कमी करेगा। यह इतनी बड़ी चुनौती है कि इसके लिए 50 लाख हैक्टर में वनीकरण की ज़रूरत है। मात्र अधिसूचित वनों की बदौलत यह लक्ष्य हासिल करना संभव नहीं है।

यह तभी हो पाएगा, जब आज की पीढ़ी भी इस काम में मन लगाकर जुटेगी। निजी व कृषि भूमि पर वनीकरण को बढ़ावा देकर पेरिस समझौते के मुताबिक परिणाम दिए जा सकते हैं। इस काम के लिए युवाओं को जागरूक करना बेहद जरूरी है।

हर साल एक से सात जुलाई तक देश में वन महोत्सव मनाया जाता है। इसमें पौधे लगाने के लिए लोगों को जागरूक किया जाता है। हमें एक सप्ताह के इस हरियाली उत्सव को साल भर चलने वाले अभियान में बदलना होगा। जैसे ही मानूसनी बारिश धरती को नम करे, चल पड़े पौधारोपण का सिलसिला। अगर सांस लेने के लिए शुद्ध ऑक्सीजन चाहिए तो इतना तो करना ही होगा। (स्रोत फीचर्स)

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समुद्री जीवों के लिए जानलेवा हैं गुब्बारे

गभग 1,700 से अधिक मृत समुद्री पक्षियों के हालिया सर्वेक्षण में मालूम चला है कि एक चौथाई से अधिक मौतें प्लास्टिक खाने से हुई हैं। इसमें देखा जाए तो 10 में से चार मौतें गुब्बारे जैसा नरम कचरा खाने से हुई हैं जो अक्सर प्लास्टिक से बने होते हैं। भले ही पक्षियों के पेट में केवल 5 प्रतिशत अखाद्य कचरा मिला हो लेकिन यह जानलेवा साबित हुआ है।

समुद्री पक्षी अक्सर भोजन की तरह दिखने वाले तैरते हुए कूड़े को खा जाते हैं। एक बार निगलने के बाद यह पक्षियों की आंत में अटक जाता है और मौत का कारण बनता है। शोधकर्ताओं के अनुसार अगर कोई समुद्री पक्षी गुब्बारा निगलता है, तो उसके मरने की संभावना 32 गुना अधिक होती है।

इस अध्ययन के प्रमुख यूनिवर्सिटी ऑफ तस्मानिया, ऑस्ट्रेलिया के डॉक्टरेट छात्र लॉरेन रोमन के अनुसार अध्ययन किए गए पक्षियों की मृत्यु का प्रमुख कारण आहार नाल का ब्लॉकेज था, जिसके बाद संक्रमण या आहार नाल में अवरोध के कारण अन्य जटिलताएं उत्पन्न हुई थीं।

ऐसा माना जाता है कि दुनिया भर में लगभग 2,80,000 टन तैरता समुद्री कचरा लगभग आधी समुद्री प्रजातियों द्वारा निगला जाता है। जिसमें पक्षियों द्वारा गुब्बारे निगलने की संभावना सबसे अधिक होती है क्योंकि वे उनके भोजन स्क्विड जैसे दिखते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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