डॉल्फिन साथियों से सीखती हैं शिकार का नया तरीका

गभग दस साल पहले पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया की शार्क बे में वैज्ञानिकों का ध्यान बॉटलनोज़ डॉल्फिन (Tursiopsaduncus) के विचित्र व्यवहार की ओर गया था। उन्होंने देखा कि ये डॉल्फिन किसी मछली को विशाल घोंघों की खाली खोल के अंदर ले जाती हैं। जब मछली खोल के अंदर चली जाती है तो डॉल्फिन खोल को समुद्र की सतह पर लाती हैं और उसे ज़ोर-ज़ोर से हिलाती हैं जिससे मछली सीधे उनके खुले हुए मुंह में गिरती हैं। शिकार के इस तरीके, जिसे शेलिंग कहते हैं, से उन्हें निश्चित तौर पर भोजन मिलता है। और अब करंट बायोलॉजी में शोधकर्ता बताते हैं कि डॉल्फिन शिकार के लिए घोंघे की खोल का इस्तेमाल करने की तकनीक अपने दोस्तों से सीखती हैं।

बॉटलनोज़ डॉल्फिन द्वारा किसी खोल का उपयोग करना औज़ार के उपयोग का एक उदाहरण है। औज़ार की मदद से शिकार करने का उनका यह दूसरा ज्ञात उदाहरण है। 1997 में देखा गया था कि बॉटलनोज़ डॉल्फिन समुद्र के पेंदे में मछली पकड़ने के लिए समुद्री स्पंज को अपनी चोंच के ऊपर सुरक्षात्मक दस्ताने जैसे पहनती हैं।

वैसे तो वैज्ञानिकों ने शेलिंग का अवलोकन 10 साल पहले किया था लेकिन इस व्यवहार में वृद्धि 2011 में पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया में आई एक असामान्य समुद्री ग्रीष्म लहर के बाद देखी गई थी। बढ़े हुए तापमान के कारण समुद्री घोंघों सहित कई जीवों की मृत्यु हो गई। संभवत: डॉल्फिन ने घोंघों की इस मृत्यु का लाभ उठाया। इस घटना के अगले साल शेलिंग में ज़बर्दस्त वृद्धि देखी गई थी। इसने मैक्स प्लांक इंस्टीट्यूट ऑफ एनिमल बिहेवियर की सोन्जा वाइल्ड और उनके साथियों को यह पता लगाने को प्रेरित किया कि युवा डॉल्फिन शेलिंग सीखती कैसे हैं।

साल 2007 से 2018 के बीच हुए खाड़ी सर्वेक्षण के दौरान शोधकर्ताओं का लगभग 5300 डॉल्फिन के समूह से सामना हुआ और जिसमें उन्होंने 1000 से अधिक डॉल्फिन की पहचान की। 19 ऐसी डॉल्फिन भी दिखीं जो तीन आनुवंशिक वंशावली की थी और 42 बार शेलिंग करते हुए पाई गर्इं थी।

यह जानने के लिए कि डॉल्फिन यह तकनीक कैसे सीखती हैं शोधकर्ताओं ने सामाजिक नेटवर्क विश्लेषण किया। जिसमें उन्होंने आनुवंशिक सम्बंधों, पर्यावरणीय कारकों और डॉल्फिन किन जानवरों के साथ समय बिताना पसंद करती है का विश्लेषण किया। उन्होंने पाया कि शेलिंग मां से सीखने की बजाए अपने मित्रों या साथियों से सीखा जाता है। वाइल्ड बताती हैं कि शेलिंग वयस्क डॉल्फिन करती हैं। जितना अधिक समय युवा डॉल्फिन किसी निपुण शेलर के साथ बिताती हैं उसके तकनीक सीखने की संभावना उतनी ही अधिक होती है।

फिर भी, चूंकि शिशु डॉल्फिन अपनी माताओं के साथ लगभग 30,000 घंटों से अधिक समय बिताते हैं, तो यह भी एक संभावना हो सकती है कि कुछ डॉल्फिन ने यह तकनीक अपनी मां से सीखी हो। ऐसा माना जाता है कि शेलिंग जैसे कौशल किसी असम्बंधित सदस्य से सीखने के लिए अधिक संज्ञानात्मक क्षमता की ज़रूरत होती हैं क्योंकि सीखने वाले और सिखाने वाले, दोनों को ‘सामाजिक रूप से सहिष्णु’ होना ज़रूरी है – विशेषकर शिकार के समय।

ये नतीजे बदलते पर्यावरण का सामना कर रहीं डॉल्फिन के अस्तित्व के लिए आशाजनक हो सकते हैं। जैसे पक्षियों की कुछ नवाचारी प्रजातियां नए आवास तलाशने में बेहतर होती हैं, उसी तरह हो सकता है कि शिकार के इस तरीके को अपना कर डॉल्फिन की संख्या और विविधता भी बढ़ जाए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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घोड़ों के पक्षपाती चयन की जड़ें प्राचीन समय में

घोड़ों के बारे में भी कई मिथक हैं। जैसे कई घुड़सवार कहते हैं कि वे ‘तुनकमिजाज़’ घोड़ी की बजाय ‘अनुमान योग्य’ बधिया घोड़े पसंद करते हैं, जबकि वास्तव में दोनों के व्यवहार में कोई अंतर नहीं होता। और अब जर्नल ऑफ आर्कियोलॉजिकल साइंस में प्रकाशित एक नया अध्ययन बताता है कि संभवत: घोड़ों के प्रति हमारे पक्षपाती विचारों की जड़ें प्राचीन समय में हैं। सैकड़ों प्रचीन घोड़ों के कंकालों के डीएनए विश्लेषण के आधार पर शोधकर्ताओं का कहना है कि कांस्य युगीन युरेशियाई लोग नर घोड़ों को वरीयता देते थे।

संभवत: मनुष्य ने घोड़ों को पालतू बनाने का काम युरेशियन घास के मैदानों पर लगभग 5500 साल पहले किया था। उससे पहले शायद वे घोड़े का शिकार भोजन के लिए करते थे। शोधकर्ताओं को मनुष्यों के हज़ारों साल पुराने आवास स्थलों के पास से बड़ी संख्या में घोड़े दफन मिले थे। लेकिन सिर्फ हड्डियों को देखकर घोड़े के लिंग का पता लगाना मुश्किल था।

इसलिए पॉल सेबेटियर विश्वविद्यालय के पुरा-जीनोम वैज्ञानिक एन्तोन फेजेस और उनके साथियों ने 268 प्राचीन घोड़ों की हड्डियों के डीएनए का विश्लेषण किया। ये हड्डियां लगभग 40,000 ईसा पूर्व से 700 ईसवीं के दौरान की थीं जो युरेशिया के विभिन्न पुरातात्विक स्थलों से बरामद हुई थीं। इनमें से कुछ घोड़ों को सोद्देश्य दफनाया गया था, जबकि शेष अन्य को ऐसे ही कचरे के ढेर में छोड़ दिया गया था।

अध्ययन में शोधकर्ताओं को सबसे प्राचीन स्थलों पर मादा घोड़ों और नर घोड़ों की संख्या में संतुलन देखने को मिला जिससे लगता है कि शुरुआती युरेशियन मनुष्य दोनों लिंग के घोड़ों का समान रूप से शिकार करते थे। यहां तक कि बोटाई शिकारी-संग्रहकर्ता समुदाय, जो लगभग 5500 साल पहले मध्य एशिया में घोड़ों को पालतू बनाने वाले प्रथम लोग थे, भी घोड़ों के किसी एक लिंग को प्राथमिकता नहीं देते थे।

लेकिन लगभग 3900 साल पहले घोड़ों के चयन में भारी बदलाव आया। इस समय के बाद से, युरेशिया की कई संस्कृतियों की पुरातात्विक खोज में काफी संख्या में नर घोड़े मिले। मादा घोड़ों की तुलना में नर घोड़ों की संख्या तीन गुना अधिक थी। इनमें दोनों तरह के घोड़े थे – जिन्हें सोद्देश्य दफनाया गया था या यूं ही कचरे के ढेर में छोड़ दिया गया था। लेकिन नर घोड़े ही बहुतायत में क्यों? फेजेस का कहना है कि सामाजिक और टेक्नॉलॉजिकल परिवर्तनों के कारण मनुष्यों में एक खास ‘लिंग’ के प्रति झुकाव हुआ।

कांस्य युगीन कलाकृतियों में हमेशा पुरुषों को महिलाओं से अलग तरीके से विभूषित, चित्रित किया गया, और दफन किया गया है। जबकि ऐसा व्यवहार इसके पूर्व नवपाषाण युग में नहीं दिखाई देता। कई शोधकर्ता इन संकेतों की व्याख्या इस तरह करते हैं कि दूरस्थ जगहों पर व्यापार करने और धातु उत्पादन ने पुरुषों का वर्चस्व बढ़ाया जिसके कारण नई सामाजिक व्यवस्था बनी। जैसे-जैसे धातुकर्मियों, योद्धाओं और शासकों के बीच वर्ग विभाजन हुआ, पुरुषों और महिलाओं के बीच भेद भी बढ़ा। यदि समाज अधिक पुरुष-पक्षी हो तो संभव है कि वे इस तरह की धारणाओं को अपने वफादार घोड़ों पर भी लागू करेंगे – और मानने लगेंगे कि नर घोड़े अधिक शक्तिशाली या सक्षम होते हैं।

कुछ शोधकर्ताओं का कहना है कि एक संभावना यह भी हो सकती है कि मादा घोड़ों को प्रजनन के उद्देश्य से जीवित रखा गया हो और नर घोड़ों को छोड़ दिया गया हो जिसके कारण वे अधिक दिखाई देते हैं – खासकर प्राचीन कचरे के ढेरों में। इस पर फेजेस कहते हैं कि यदि ऐसा है तो (नदारद) मादा घोड़ों के अवशेष मानव बस्तियों के आसपास कहीं तो मिलना चाहिए, लेकिन वैज्ञानिक अब तक उन्हें खोज नहीं पाए हैं।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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इम्यूनिटी बढ़ाने का नया धंधा – डॉ. सत्यजित रथ से साक्षात्कार

जकल इम्यूनिटी को लेकर बहुत चर्चा है। काढ़ों, विभिन्न इम्यूनिटी उत्पादों के अलावा लगभग सारे पोषण-पूरकों में इम्यूनिटी शब्द जुड़ गया है। सारे मामले को समझने के लिए स्रोत ने प्रतिरक्षा विज्ञान विशेषज्ञ डॉ. सत्यजित रथ के सामने कुछ सवाल रखे। प्रस्तुत है उन सवालों के जवाब डॉ. रथ की ज़ुबानी…। सवालों का जवाब देने से पहले डॉ. रथ ने समस्या की पृष्ठभूमि स्पष्ट की।

आजकल भारत की सड़कों-गलियों का आम नज़ारा देखिए। हम दुकानों पर भीड़ लगा रहे हैं, धक्का-मुक्की कर रहे हैं और मास्क नहीं पहन रहे हैं। कभी-कभार मास्क को गले में पट्टे की तरह ज़रूर डाल लेते हैं। हम उन बातों पर बिलकुल कान नहीं दे रहे हैं जो कोविड-19 के लिए ज़िम्मेदार वायरस SARS-CoV-2 के प्रसार को थाम सकती हैं और गंभीर रूप से बीमार लोगों की संख्या को कम कर सकती हैं। शारीरिक दूरी (सामाजिक दूरी नहीं), नाक-मुंह को ढंकना और बार-बार साबुन से हाथ धोना इस महामारी के दौरान कुछ सामाजिक ज़िम्मेदारियां हैं, जिन्हें हम नहीं निभाते।

इसकी बजाय हम क्या करते हैं? हम डरे हुए हैं कि ‘हम’, ‘मैं’ कोरोना के संपर्क में आ गया तो बीमार होकर मर जाऊंगा। यानी हम संसर्ग (छूत) के विचार को उसके सामुदायिक संदर्भ से काटकर एक व्यक्तिगत भय में बदल देते हैं। हम हर उस चीज़ का ‘शुद्धिकरण’ करते हैं जिसे हम छूते हैं (जिसकी हमारे यहां परंपरा भी रही है), और हम खुद को और अपने साज़ो-सामान को ऐसी जादुई चीज़ों से नहलाते हैं, जो हमें व्यक्तिगत रूप से ‘सुरक्षित’ रखेंगी।

हमने निर्णय कर लिया है कि बाज़ार हमें बचाएगा। हमने निर्णय कर लिया है कि हममें से प्रत्येक को खुद को बचाना है और इसके लिए हमें बाज़ार से कोई जादू खरीद लेना है। हमने तय किया है कि ‘औरों’ या ‘अन्य लोगों’ को बचाना हमारी ज़िम्मेदारी नहीं है। हमने निर्णय किया है कि वास्तव में ‘अन्य लोग’ ही इस समस्या के लिए ज़िम्मेदार हैं क्योंकि वे गंदे और फूहड़ ‘अन्य’ हैं जो ‘हमारी’ तरह नहीं हैं। हम सचमुच ‘हममें’ से उन संक्रमित ‘बदनसीबों’ की परवाह करने की बजाय उनको बहिष्कृत कर देते हैं। यह वह पृष्ठभूमि जिसमें हमें ‘इम्यूनिटी वर्धकों’ की महामारी पर गौर करना होगा, जो हमें घेर रही है – जीवन शैली सम्बंधी उपदेशों के रूप में भी और उत्पादों के रूप में भी। तो कुछ सवालों के जवाब देकर बात को आगे बढ़ाते हैं।

सवाल क्या इम्यूनिटी नाम की कोई एक सामान्य चीज़ है? या क्या समस्त इम्यूनिटी किसी सूक्ष्मजीव के लिए विशिष्ट होती है? आप इम्यूनिटी को मात्रात्मक रूप में कैसे परिभाषित करेंगे?

जवाब – सबसे पहले तो यह समझ लें कि शरीर का कोई एक हिस्सा नहीं है जिसे इम्यूनिटी कहा जा सके। वास्तव में शरीर के कई हिस्से कई अलग-अलग ढंग से सूक्ष्मजीवों द्वारा प्रस्तुत चुनौती की प्रतिक्रिया देते हैं, और इन सारे किरदारों के सामंजस्य का परिणाम होता है इम्यूनिटी। ये सारे किरदार अपना-अपना काम करते हैं। यानी इम्यूनिटी एक जुगाड़ु परिणाम है जो समन्वय से उभरती है, न कि पहले से निर्धारित कोई योजना होती है जिसे निष्ठापूर्वक क्रियांवित किया जाता है।

एक उपमा से शायद मदद मिले। किसी संगीत कार्यक्रम की उपमा से।

सुर बांधने के लिए एक तानपुरा होता है। हो सकता है बीच-बीच में वह थोड़ा ज़ोर से या धीमे बजे और ऐसा होने पर गायक/वादक मुस्कराकर उसका स्वागत करेगा या भवें तान लेगा। थोड़े फेरबदल से वह तानपुरा नाटकीय परिवर्तन पैदा करेगा या माहौल को बरबाद कर देगा।

फिर तबला होता है, जो रफ्तार को पकड़ता है। एक ओर तो वह गायक की गति से तालमेल रखता है लेकिन बीच-बीच में अपना खेल भी दिखाता है। लेकिन इसे हटा दीजिए और संगीत का पूरा परिदृश्य ही बदल जाएगा, चाहे गायक वही रहे।

गायक तो किसी राग की जोड़-तोड़ कर रही है, एक ऐसे ढांचे पर जो उसके दिमाग में है। तानपुरा सुर का ख्याल रखता है और तबला रफ्तार का। लेकिन दोनों को ही पता नहीं कि गायक क्या कोशिश कर रही है और गायक को भी अंदाज़ नहीं है कि आज की महफिल में क्या सामने आने वाला है। वह तो आगे बढ़ते-बढ़ते जुगाड़ करती है, खुद को सुनती है, तानपुरे, तबले को सुनती है, मौसम और श्रोताओं को सुनती है, परिस्थिति की बारीकियों को सुनती है। राग के अनुशासन के तहत उसका संगीत इन सारे ‘उद्दीपनों’ से आकार पाता है।

इम्यूमिटी नामक शारीरिक प्रतिक्रिया भी इसी तरह पैदा होती है। एक ही संक्रमण में, कोशिकाएं और अणु अलग-अलग उद्दीपनों को पहचानते हैं और अपने विशिष्ट तरीके से प्रतिक्रिया देते हैं। ये प्रतिक्रियाएं एक-दूसरे में गूंथ जाती हैं, एक-दूसरे को तीव्र-मंद करती हैं, बदलती हैं और जो कुछ उभरता है वह इम्यून प्रतिक्रिया होती है। यह शरीर का एक तरीका है अंदर वाले सूक्ष्मजीव से निपटकर जीवित रहने का।

इनमें से कुछ कोशिकाएं और अणु उद्दीपनों और ट्रिगर्स को पहचानते हैं और उन पर प्रतिक्रिया देते हैं। इनमें से कुछ उद्दीपन कई सारे सूक्ष्मजीवों, वायरसों और बैक्टीरिया में एक जैसे होते हैं। ये अलग-अलग प्रतिक्रियाएं अपने-आप में भी एक किस्म की इम्यूनिटी होती हैं। बहुत बढ़िया नहीं, लेकिन ठीक-ठाक तो होती हैं।

गायक अलग ढंग से प्रतिक्रिया देता है। वह कुछ आज़माइशी स्वरों से शुरू करता है ताकि वह देख सके कि सब कुछ ठीक तरह से चल रहा है और इसके आधार पर वह उस बुनियादी संगीत को आकार देता है, जो वह निर्मित करने वाला है। लेकिन फिर वह आसपास नज़र दौड़ाता है (या अपने अंदर झांकता है) और अपने संगीत को आकार देना शुरू करता है, हौले-हौले लेकिन बढ़ते आत्म-विश्वास और जटिलता के साथ। यह संगीत उस विशिष्ट मौके के लिए, वहां उपस्थित श्रोताओं के लिए और उस स्थान-विशेष के लिए होता है।

शरीर की कुछ कोशिकाएं प्रवेश करने वाले सूक्ष्मजीव के विशिष्ट खंडों को, सिर्फ उस विशिष्ट सूक्ष्मजीव या उसके निकट सम्बंधियों पर उपस्थित आकृतियों को पहचानती हैं। पहचानने के बाद वे प्रतिक्रिया देती हैं, लेकिन प्रत्येक आकृतिनुमा लक्ष्य को पहचानने वाली कोशिकाओं की संख्या बहुत कम होती है। लिहाज़ा उनकी पहली सार्थक प्रतिक्रिया यह होती है कि वे बार-बार विभाजन करके अपनी संख्या बढ़ाती हैं। और जब उनकी संख्या बढ़ती है और वे परिपक्व होती हैं, तो वे विशिष्ट रूप से उस आकृति (जिसने उन्हें जन्म दिया था) पर केंद्रित कामकाजी प्रतिक्रिया हासिल करके उसका क्रियांवयन करती हैं। ये प्रतिक्रियाएं शरीर को सूक्ष्मजीव से निपटने में मदद करती हैं। किसी गायक के समान ही ये कोशिकाएं भी अपनी प्रतिक्रिया को उस मौके, उस स्थान और उस सूक्ष्मजीव के अनुसार आकार देती हैं। वे अनुकूलन करती हैं। लेकिन उन्हें तानपुरा-तबला कोशिकाओं की मदद लगती है ताकि वे अपने परिपक्व होते संगीत के बारे में जटिल निर्णय कर सकें और खुलकर पेश कर सकें।

तो क्या इम्यूनिटी नाम की कोई सामान्य चीज़ है? अपने संघटन में तो नहीं, सिर्फ उसके उभरते प्रभाव के रूप में होती है। क्या सारी इम्यूनिटी किसी सूक्ष्मजीव के लिए विशिष्ट होती है? जवाब हां भी है और नहीं भी। जो प्रतिक्रियाएं मिलकर इम्यूनिटी का निर्माण करती हैं, उनमें से कुछ अन्य की अपेक्षा ज़्यादा विशिष्ट होती हैं। लेकिन वास्तविक इम्यूनिटी तब प्रकट होती है जब ये सब मिलकर काम करते हैं।

सवाल क्या इम्यूनिटी को नापा जा सकता है? यदि हां, तो कैसे? और यदि नहीं, तो आप ऐसे उत्पादों की बात कैसे कर सकते हैं जो इम्यूनिटी बढ़ाने का दावा करते हैं? क्या कुछ ऐसे रसायन हैं जो प्रामाणिक इम्यूनिटीवर्धक हैं? और इम्यूनिटी का सामान्य पोषण की हालत से क्या सम्बंध है?

जवाब –  हमने यहां जिस तरह की इम्यूनिटी की बात की है, उसे नापेंगे कैसे? ज़ाहिर है, ऐसा कोई इकलौता आसान माप नहीं हो सकता जिसका कोई वास्तविक अर्थ हो। हम यह नाप सकते हैं कि सारे घटक मौजूद हैं या नहीं। अधिकांश लोगों में ये मौजूद होते हैं। हम यह भी मापन कर सकते हैं कि क्या ये घटक एक सामान्य रूप में प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं। अधिकांश लोगों में ये करते हैं। लेकिन ये माप हमें यह नहीं बताएंगे कि क्या वास्तविक इम्यूनिटी उभरेगी। इस बात का अंदाज़ लगाने के लिए हमें यह देखना होगा कि क्या शरीर ने वास्तव में अतीत में कतिपय विशिष्ट सूक्ष्मजीवों के विरुद्ध प्रतिक्रिया दर्शाई थी। क्या हमें ऐसी विगत इम्यूनिटी के अवशिष्ट प्रमाण मिल सकते हैं? अधिकांश लोगों में मिल सकते हैं।

क्या लोगों के बीच इन मापों में छोटे-मोटे अंतर दिखते हैं? क्या इन अंतरों का विभिन्न सूक्ष्मजीवों के प्रति हमारी प्रतिक्रियाओं में कोई उल्लेखनीय असर दिखता है। हां। लेकिन क्या हम यह भविष्यवाणी कर सकते हैं कि इम्यूनिटी के इन तरह-तरह के मापों में अंतरों का किसी विशिष्ट सूक्ष्मजीव के प्रति हमारी प्रतिक्रिया पर क्या असर पड़ेगा? नहीं। जैसा कि ऊपर संगीत के रूपक में बताया गया था, इसके बारे में अटकल लगाना भी लगभग असंभव है, निश्चित भविष्यवाणी तो दूर की बात है। यह बताना असंभव है कि इनपुट (यानी सूक्ष्मजीव) के कौन-से कारक इम्यूनिटी के परिणाम को बदल देंगे और वह बदलाव क्या होगा। दरअसल, ऐसी परिस्थिति में, यदि हम इम्यूनिटी के एक घटक को ‘समृद्ध’ करें, ‘बढ़ावा दें’ तो परिणाम ‘अलग’ होगा, ज़रूरी नहीं कि वह ‘बेहतर’ हो या ‘बदतर’ हो। तबला वादक बदल दीजिए और गायक की आवाज़ महफिल में एक अलग संगीत पैदा करेगी। शायद कुछ लोगों को बेहतर लगे, कुछ को नहीं।

यही हाल इम्यूनिटी के परिणाम का भी होगा जो परिस्थिति-विशेष पर निर्भर करेगा। तो, जी नहीं, हम किसी भी विवेकशील अर्थ में इम्यूनिटी बढ़ाने की बात नहीं कर सकते। और यदि हम सार्थक ढंग से यह बात नहीं कर सकते तो इम्यूनिटी बढ़ाने का दावा करने वाले उत्पादों के बारे में क्या कहा जाए? ऐसे अधिकांश इम्यूनिटी वर्धक उत्पाद दरअसल कुछ नहीं करते, अर्थात इनका इम्यूनिटी के घटकों पर कोई असर नहीं होता, स्वास्थ्य पर लाभदायक असर की तो बात ही जाने दें।

तो ऐसी स्थिति में हम कह सकते हैं, ‘गनीमत है’ क्योंकि यदि इन उत्पादों का इम्यूनिटी के घटकों पर सचमुच कोई असर होता, तो वह एक बड़ी समस्या होती। परिणामों को अच्छा या बुरा कहना तो आपके नज़रिए पर है। देखा जाए, तो इनमें से अधिकांश उत्पाद फील-गुड-विज्ञापन वाले उत्पाद हैं जिन पर हम सिर्फ इसलिए भरोसा करते हैं क्योंकि हमने उनका दाम चुकाया है। यह भरोसा सच्चे उपभोगवादी पूंजीवाद के शिकार की निशानी है।

क्या हमें परेशान होना चाहिए कि लोग इन पर भरोसा करते हैं? क्या हमें चिंतित होना चाहिए कि लोग ऐसी चीज़ों पर विश्वास करते हैं जिन्हें अंधविश्वास कहते हैं?

शायद नहीं, हम सबको जीते रहने के लिए, अपने मस्तिष्क की निजता में, तरह-तरह के सहारों की ज़रूरत होती है। लेकिन क्या उपभोगवादी पूंजीवादी ढांचा चिंता का विषय नहीं होना चाहिए जो अनैतिक मुनाफाखोरों को प्रोत्साहित करता है कि वे हमारी हताशाओं से पैसा कमाएं? तो क्या ऐसा कुछ नहीं है जिसे खाकर/पीकर/करके हम अपनी इम्यूनिटी को समृद्ध कर सकें? ज़रूर है। लेकिन वह नहीं है जिसके बारे में हम अब तक सोचते रहे हैं।

कुल मिलाकर, इम्यूनिटी के जिन घटकों की बात हम करते आए हैं वे हमारे शरीर की कोशिकाएं और अणु हैं। शरीर के किसी भी अन्य हिस्से की तरह ये भी तभी विकसित होते हैं और काम करते हैं, जब सूक्ष्म पोषक तत्व और विटामिन्स सहित अच्छा और संतुलित पोषण मिले, जब विषैले पदार्थों से अपेक्षाकृत मुक्त साफ कुदरती पर्यावरण हो, जब एक ऐसा समर्थक सामाजिक माहौल हो जिसमें हम काम करें, खेलें, एक-दूसरे के साथ दोस्ताना सम्बंधों में जीएं, और अपने-आप में मूल्यवान महसूस करें। क्या यह ज़रूरी नहीं कि हम सब मिलकर काम करें कि यह सब, सबको, हर जगह उपलब्ध हो सके।

इन बातों पर आम प्रतिक्रिया होती है: ये सब अव्यावहारिक आदर्शवादी बातें हैं। आप तो यह बताइए कि जिस विकट परिस्थिति में हम फंस गए हैं (कोई नहीं कहेगा कि हमने खुद को फंसा लिया है) उसमें इम्यूनिटी को लेकर क्या किया जा सकता है। इस सवाल एकमात्र व्यावहारिक जवाब यह है कि यथासंभव अच्छे से खाएं।

दुख की बात तो यह है कि उपभोक्ता पूंजीवाद हमारे लिए वास्तविक किफायती भोजन से विटामिन और खनिज तत्व प्राप्त करना असंभव बना देता है। हममें से जो लोग इनका खर्च उठा सकते हैं, वे ये चीज़ें पूरक गोलियों के रूप में ले लेते हैं।

ऐसे पूरकों के बारे में भी एक सावधानी रखना ज़रूरी है। हर चीज़ की अति नुकसान कर सकती है। जैसे नमक अच्छा है, किंतु इसकी अधिकता शरीर के लिए समस्याएं पैदा कर सकती है। यही बात विटामिन व खनिज तत्वों पर भी लागू होती है। यह बात खास तौर से उन चीज़ों के बारे में सही है शरीर जिनका संग्रहण करता है। जैसे विटामिन ए व डी का संग्रहण वसा में होता है। इसलिए सरल पूरकों के मामले में भी अति करना संभव है।

अलबत्ता, शरीर के ‘प्रतिरक्षा तंत्र’ के संदर्भ में इन सामान्य बातों में भी एक दिलचस्प पेंच है। शरीर के जिन घटकों की प्रतिक्रियाएं अंतत: ‘इम्यूनिटी’ के रूप में प्रकट होती हैं, वे थोड़े विचित्र हैं। कारण यह है कि वे सूक्ष्मजीवों को पहचानकर प्रतिक्रिया देते हैं। सूक्ष्मजीव हमेशा तो शरीर में उपस्थित नहीं होते। विभिन्न सूक्ष्मजीव शरीर में आते-जाते रहते हैं और बार-बार ऐसा करते हैं। और जब वे शरीर में आते हैं, तो सूक्ष्मजीव अचानक पूरे शरीर में नहीं पहुंच जाते। वे शरीर के किसी हिस्से में, त्वचा के किसी बिंदु पर प्रवेश करते हैं। जैसे जहां घाव हो, या नाक में सांस के साथ, खानपान के साथ आंतों में। इस वजह से इम्यूनिटी के घटक ज़बर्दस्त यात्री होते हैं। वे हर समय, पूरे शरीर में भटकते रहते हैं, धक्का-मुक्की करते हुए। और ऐसा करते हुए वे लगातार ‘ऑफ’ और ‘ऑन’ के बीच डोलते रहते हैं – जब कोई सूक्ष्मजीव न हो तो वे ‘ऑफ’ रहते हैं और जब वे स्थानीय स्तर पर सूक्ष्मजीव से टकराते हैं तो ‘ऑन’ होकर प्रतिक्रिया देते हैं। यह कोशिकाओं पर लगातार बदलते दबाव का द्योतक है। तब कोई अचरज की बात नहीं कि प्रतिरक्षा कोशिकाएं इस गहमा-गहमी के जीवन में काफी क्षतियां-चोटें झेलती हैं और मर जाती हैं। इसका मतलब है कि शरीर को नई-नई प्रतिरक्षा कोशिकाएं और अणु बनाने पड़ते हैं (और बनाता भी है)। यह, उदाहरण के लिए, मस्तिष्क की कोशिकाओं से काफी अलग है। मस्तिष्क की कोशिकाएं इतनी जल्दी-जल्दी प्रतिस्थापित नहीं होतीं। लेकिन शरीर का अस्तर बनाने वाली कोशिकाएं भी ऐसी ही होती हैं, जैसे त्वचा की कोशिकाएं या वायु मार्ग, आंतों के अस्तर की कोशिकाएं या लाल रक्त कोशिकाएं जो पूरे शरीर में भटकती रहती हैं और ऑक्सीजन व कार्बन डाईऑक्साइड का परिवहन करती हैं। ये भी लगातार जल्दी-जल्दी प्रतिस्थापित होती हैं।

इसका मतलब है कि लगातार प्रतिस्थापन के लिए पोषण की ज़रूरतें काफी अधिक होती हैं। जैव विकास के लंबे दौर में शरीर में ऐसी क्रियाविधियां विकसित हुई हैं जो यह सुनिश्चित करती हैं कि भोजन के अभाव के समय भी इन कोशिकाओं का ठीक-ठाक रख-रखाव होता रहे। लेकिन यह बात प्रोटीन और कार्बोहायड्रेट जैसे स्थूल पोषक तत्वों पर ज़्यादा लागू होती है, ‘सूक्ष्म पोषक तत्वों’ पर नहीं। हम नहीं जानते कि यह फर्क क्यों पैदा हुआ होगा। लेकिन जादुई इम्यूनिटी-बूस्टर औषधियों के प्रवर्तकों के विपरीत हम तो बहुत कुछ नहीं जानते।

अलबत्ता, इम्यूनिटी की इस निजी सम्पत्ति अवधारणा की परीकथाओं से आगे बढ़कर थोड़ी ज़्यादा पेचीदा व दिलचस्प यह बात करते हैं कि कैसे व्यक्ति और समुदाय उन्हें संक्रमित करने वाले सूक्ष्मजीवों के साथ सुरक्षात्मक सामंजस्य बनाते हैं।

सवाल आप किसी रोगजनक के प्रति इम्यून कैसे हो जाते हैं? क्या ऐसा हर व्यक्ति में होगा? क्या इम्यूनिटी एक से दूसरे व्यक्ति में प्रेषित की जा सकती है? कोई समुदाय इम्यूनिटी कैसे हासिल करता है?   

जवाब हम किसी रोगजनक के प्रति इम्यून कैसे हो जाते हैं? एक उदाहरण लेकर बात करते हैं – जैसे SARS-CoV-2 और कोविड-19। यहां यह ध्यान रखना ज़रूरी है कि मानव शरीर और संक्रमित करने वाले सूक्ष्मजीव की अंतर्क्रिया के बारे में ‘लड़ाई’ जैसी उपमा का उपयोग न करना बेहतर है। कई बार शरीर किसी वायरस को बर्दाश्त कर लेता है। कई बार वायरस शरीर की कोशिकाओं को नुकसान पहुंचाने की बजाय उनके हमसफर बन जाते हैं, और कई बार शरीर की प्रतिक्रिया वास्तव में वायरस संक्रमण से ‘लड़ती’ नहीं है।

इतना कहने के बाद, वायरस संक्रमण को सीमित रखने के लिए शरीर के पास तीन प्रमुख तरीके होते हैं।

प्रत्यक्ष ‘वायरस-रोधी’ तरीकों के अलावा, शरीर वायरल, बैक्टीरियल, फंगल या अन्य घुसपैठियों से निपटने के लिए यह भी करता है कि उन्हें शरीर में किसी एक जगह कैद कर देता है (और उन्हें पूरे शरीर में फैलने से रोकता है)। आजकल की भाषा में ऐसी प्रतिक्रियाएं संक्रमण को ‘कंटेनमेंट’ ज़ोन में ‘क्वारेंटाइन’ करने जैसी होती हैं। प्रतिक्रियाओं की इस श्रेणी को हम ‘शोथ’ या इंफ्लेमेशन कहते हैं।

तो चलिए प्रत्यक्ष वायरस-रोधी प्रतिक्रियाओं पर लौटते हैं। एक तरीका यह है कि शोथ के साथ-साथ एक प्रक्रिया शुरू होती है: अपनी खुद की कोशिकाओं को संदेश दिया जाता है कि वे कोशिका के अंदर ही वायरस-रोधी प्रक्रियाएं शुरू करके वायरस का जीना हराम कर दें। इंटरफेरॉन-अल्फा और इंटरफेरॉन-बीटा यही करते हैं (और इन्हें कोविड-19 के उपचार में आज़माया भी जा रहा है)।

दो अन्य वायरस-रोधी प्रतिक्रियाएं काफी कारगर होती हैं, शायद उपरोक्त प्रतिक्रिया से भी ज़्यादा। लेकिन उन्हें शुरू होने में वक्त लगता है। ऐसा इसलिए है कि, जैसा कि हमने ऊपर देखा, शरीर की कुछ कोशिकाएं प्रवेश करने वाले सूक्ष्मजीव के कुछ विशिष्ट टुकड़ों को पहचानती हैं – ऐसे आकार जो सिर्फ उसी सूक्ष्मजीव (या उसके निकट सम्बंधियों) पर पाए जाते हैं। तो ये भी प्रतिक्रिया देना शुरू कर देती हैं, लेकिन दिक्कत यह होती है कि किसी भी लक्षित आकार के लिए जो कोशिकाएं होती हैं, उनकी संख्या बहुत कम होती है। इसलिए ठीक-ठाक प्रतिक्रिया देने के लिए पहले इन्हें बार-बार विभाजित होकर अपनी संख्या बढ़ानी पड़ती है। संख्यावृद्धि करते हुए, वे परिपक्व होकर उस विशिष्ट आकार के विरुद्ध प्रतिक्रिया की क्षमता हासिल करती जाती हैं।

दूसरा है कि शरीर प्रोटीन या एंटीबॉडी बनाता है जो वायरस की सतह के ठीक उस हिस्से पर चिपक जाते हैं जिसके ज़रिए वायरस कोशिका पर चिपकता है। परिणामस्वरूप, एंटीबॉडी से ढंका वायरस कोशिका में घुस नहीं पाता। प्लाज़्मा उपचार और मोनोक्लोनल एंटीबॉडी जैसे तरीके यही करने की कोशिश करते हैं। SARS-CoV-2  के विरुद्ध अधिकांश टीकों से भी यही करने की उम्मीद है।

शरीर के पास वायरस को सीमित रखने का एक तीसरा तरीका यह है कि हाल ही में वायरस से संक्रमित कोशिकाओं को पहचानकर ‘किलर’ कोशिकाओं की मदद से उन्हें मार दिया जाए, इससे पहले कि वायरस अपनी प्रतिलिपियां बनाना शुरू कर सके।

इन दोनों तरीकों को अनुकूलक प्रतिक्रियाएं कहते हैं क्योंकि ये प्रवेश करने वाले वायरस को ‘देखती’ हैं, अपने खजाने में उससे मिलते-जुलते तत्वों को खोजती और तलाश करती हैं, फिर खजाने के उस तत्व को विस्तार देती हैं और उन्हें तैनात करती हैं – एंटीबॉडी के रूप में या किलर कोशिका के रूप में। यह विस्तारित खजाना शरीर में वायरस से निपट लेने के बाद भी बना रहता है।

तो, वायरस संक्रमण के समय हरेक व्यक्ति में शोथ व इंटरफेरॉन प्रतिक्रियाएं मौजूद होती हैं। ये प्रतिक्रियाएं संक्रमण के तुरंत बाद, चंद मिनटों से लेकर कुछ घंटों के अंदर, सक्रिय हो जाती हैं।

इसके विपरीत, अनुकूलक प्रतिक्रिया को शुरू होने में समय लगता है, खासकर यदि हमारे शरीर ने वह वायरस या उस जैसा कुछ पहले न देखा हो। कारण यह है कि शुरुआत में खजाने को विस्तार देने में समय लगता है (आम तौर पर दो दिन, कभी-कभी ज़्यादा)। दूसरी ओर, यदि वायरस किसी ऐसे शरीर में प्रवेश करता है जिसके पास पहले से विस्तारित खजाना है जो उस वायरस को पहचान सके, तो अनुकूलक प्रतिक्रिया भी कुछेक मिनट या घंटों में शुरू हो जाती है। यही वजह है कि हम उसी वायरस से पुन:संक्रमण (या टीकाकरण) से हम ज़्यादा सुरक्षित होते हैं। यहां बता देना लाज़मी है कि चाहे हमारा सामना किसी वायरस से पहली बार हो, हमें उपरोक्त प्रतिक्रियाओं की सुरक्षा हासिल होती है। बात सिर्फ इतनी है कि यदि पहले से विस्तारित खजाना मौजूद हो तो वह बेहतर और त्वरित सुरक्षा देता है।

अलबत्ता, ये विस्तारित अनुकूलक खजाने समय के साथ चुक भी सकते हैं। यदि वैसा होता है तो हम उस संक्रमण के प्रति उतने ही दुर्बल होते हैं जितने पहली बार थे।

क्या प्रत्येक व्यक्ति घुसपैठी सूक्ष्मजीव के प्रति इस तरह इम्यून हो जाता है? हां, यह बात कमोबेश सही है, हालांकि प्रतिक्रिया की मात्रा और अवधि में अंतर हो सकता है। क्या ऐसा सारे सूक्ष्मजीवों के संदर्भ में होता है? जी हां, लगभग, हालांकि सूक्ष्मजीवी अपवाद भी होते हैं।

क्या हम यह इम्यूनिटी एक संक्रमित व्यक्ति से किसी अन्य वायरस-अनभिज्ञ व्यक्ति को दे सकते हैं? तथाकथित सुरक्षा प्रतिक्रियाएं या तो रक्त में एंटीबॉडी कहे जाने वाले प्रोटीन्स के रूप में होती है या वायरस को पहचानने वाली किलर कोशिकाओं के रूप में होती है। एक व्यक्ति से दूसरे को कोशिकाएं प्रत्यारोपित करने की समस्याओं से तो हम अंग प्रत्यारोपण के संदर्भ में परिचित ही हैं। अधिकांश प्रत्यारोपण शरीर (के प्रतिरक्षा तंत्र) द्वारा अस्वीकार कर दिए जाते हैं। इसी तरह इम्यून कोशिकाओं को भी अस्वीकार कर दिया जाता है।

दूसरी ओर, हम एंटीबॉडी स्थानांतरित कर सकते हैं। प्लाज़्मा उपचार या मोनोक्लोनल एंटीबॉडी उपचार इसी उम्मीद में किए जाते हैं। लेकिन एंटीबॉडी कुछेक सप्ताह में समाप्त हो जाती हैं, तो सुरक्षा भी लंबे समय के लिए नहीं होती। कोशिकाएं – एंटीबॉडी बनाने वाली कोशिकाएं या किलर कोशिकाएं – बेहतर साबित होंगी लेकिन उन्हें आसानी से स्थानांतरित नहीं किया जा सकता। सबसे अच्छा तो यह होगा कि एक टीका हो जो शरीर को स्वयं की वायरस-रोधी प्रतिक्रिया निर्मित करने में मदद करे।

सवाल हर्ड इम्यूनिटी क्या है?

जवाब – यह देखते हैं कि कोई वायरस समुदाय में कैसे फैलेगा। मान लीजिए एक व्यक्ति का संपर्क (मान लीजिए किसी दूर-दराज के घने जंगल में) वायरस से होता है और वह संक्रमित हो जाता है। इस व्यक्ति का शरीर अंतत: वायरस से निपट लेगा। लेकिन तब तक वायरस की प्रतिलिपियां किसी प्रकार से शरीर से बाहर निकलती रहेंगी – अक्सर शारीरिक तरल पदार्थों के माध्यम से – और यदि ये तरल पदार्थ उपयुक्त ढंग से अन्य लोगों के संपर्क में आ जाएं तो वायरस नए व्यक्तियों में संक्रमण स्थापित कर सकता है। यानी वह प्रसारित हो गया। जब तक पहला व्यक्ति अपने शरीर से वायरस का सफाया करेगा, तब इन नए संक्रमित व्यक्तियों के शरीर में वायरस बन-बनकर कई और लोगों को संक्रमित करने लगेगा।

तो वायरस की ‘सफलता’ का एक निर्णायक कारक यह है कि वह एक संक्रमित व्यक्ति से कितने व्यक्तियों को सफलतापूर्वक संक्रमित कर सकता है। यदि यह संख्या 1 से कम है, तो प्रसार का हर चक्र उससे पहले वाले चक्र से कम लोगों को संक्रमित करेगा और संक्रमण बहुत अधिक नहीं फैल पाएगा। यह संख्या 1 से जितनी अधिक होगी संक्रमण उतनी तेज़ी से फैलेगा।

वायरस की दिक्कत (!) यह है कि यह संख्या (जिसे ङ कहते हैं) काफी हद तक इस बात पर निर्भर करती है कि संक्रमित व्यक्ति के संपर्क में आने वाले लोग कितने संवेदनशील हैं। यदि संक्रमित व्यक्ति बहुत सारे लोगों के संपर्क में तो आता है, लेकिन यदि उनमें से अधिकांश लोग ऐसे हैं जो उस वायरस से पहले टकरा चुके हैं और जिनके शरीर में अनुकूलक खजाना विस्तार पा चुका है और वे अनुकूलित प्रतिरोधी हैं, तो अब वे ठीक से संक्रमित नहीं हो पाते, और परिणाम यह होता है कि वायरस का प्रसार अकार्यक्षम हो जाता है। यही स्थिति तब भी होगी जब एक बड़े अनुपात में लोगों का टीकाकरण हो चुका हो।

यदि समुदाय में काफी सारे लोग ‘अनुकूलित प्रतिरोधी’ हो जाते हैं तो वायरस का प्रसार कमोबेश थम जाएगा। इस स्थिति को ‘हर्ड इम्यूनिटी’ कहते हैं। टीकाकरण से हर्ड इम्यूनिटी इसी प्रकार हासिल होती है। जैसे कि हम देख ही सकते हैं, अधिकांश संक्रमण देर-सबेर ‘सामुदायिक प्रतिरोध’ के बिंदु पर पहुंच जाएंगे। अर्थात हर्ड इम्यूनिटी एक प्राकृतिक नतीजा है। यह स्वीडन या जनाब बोरिस जॉनसन द्वारा डिज़ाइन की गई कोई नीतिगत रणनीति नहीं है। वैसे एक रणनीति के तौर पर इसके भरोसे रहना मूर्खता ही कही जाएगी।

सवाल यह है कि हर्ड इम्यूनिटी तक पहुंचने के लिए कितने लोगों को SARS-CoV-2 के खिलाफ अनुकूलक इम्यूनिटी हासिल करनी होगी। हमें पक्का पता नहीं है; विशिष्ट संक्रमण और सूक्ष्मजीव से सम्बंधित कई कारकों के चलते यह अनुपात बदलता रहता है। अलबत्ता, 50 से लेकर 80 प्रतिशत तक के आंकड़े सामने आए हैं। चूंकि SARS-CoV-2 के खिलाफ अनुकूलक प्रतिरोध फिलहाल करीब 20 प्रतिशत लोगों में रिकॉर्ड हुआ है, इसलिए अभी दुनिया हर्ड इम्यूनिटी के आसपास भी नहीं पहुंची है।

स्पष्ट है कि हर्ड इम्यूनिटी की स्थिर स्थिति हासिल होने के लिए ज़रूरी होगा कि वायरस के संक्रमण की वजह से बढ़िया सुरक्षात्मक प्रतिक्रिया पैदा हो और यह प्रतिक्रिया (जैसे एंटीबॉडी) जल्दी खत्म नहीं होनी चाहिए। SARS-CoV-2 के मामले में जहां पहली शर्त तो काफी सारे संक्रमित लोगों में पूरी होती दिख रही है, लेकिन इस बात को लेकर अनिश्चितता है कि ये एंटीबॉडी कितने समय तक बनी रहेंगी। तो हो सकता है कि SARS-CoV-2 के खिलाफ हर्ड इम्यूनिटी थोड़ी अस्थिर-सी होगी। इसे स्थिरता प्रदान करने के लिए हमें टीके की ज़रूरत होगी, जो शायद अगले साल तक ही सामने आएंगे।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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एक झींगे की तेज़ गति वाली आंखें

क मामूली माचिस की तीली जितने बड़े स्नैपिंग झींगे (Alpheus heterochaelis) अपने जबड़ों को झटके से बंद करके ऊंची आवाज़ निकालने के लिए मशहूर हैं। इस आवाज़ के कंपन से उनका शिकार या शत्रु भौंचक्का रह जाता है। इन्हें पिस्तौल झींगा भी कहते हैं। और अब शोधकर्ताओं ने जबड़ों की इस रफ्तार से मेल खाती उनकी दृष्टि की भी खोज की है।

इस नए अध्ययन में वैज्ञानिकों ने एक जीवित मगर ठंड से अचेत झींगे की आंख में एक पतला विद्युत चालक तार चिपकाया और झिलमिलाते प्रकाश के जवाब में आंखों से उत्पन्न होने वाले विद्युत आवेगों को रिकॉर्ड किया। बायोलॉजी लैटर्स में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार स्नैपिंग झींगा अपनी आंखों में दृश्य को एक सेकंड में 160 बार तरोताज़ा करता है।

पानी में रहने वाले जीवों में यह अब तक देखी गई सबसे अधिक दृश्य-नवीनीकरण दर है। कबूतरों में यह प्रति सेकंड 143 है और मनुष्यों में केवल 60 प्रति सेकंड। इस मामले में मात्र दिन में उड़ने वाले कीट ही स्नैपिंग झींगे को टक्कर दे सकते हैं। दृश्य-नवीनीकरण का मतलब होता है रेटिना पर से एक छवि को मिटाकर दूसरी छवि का बनना।

अर्थात जो वस्तु हमें और अन्य कशेरुकी जीवों को धुंधली नज़र आती है वे स्नैपिंग झींगे को अलग-अलग छवियों के रूप में नज़र आती है। कारण यह है कि हमारी आंखों पर यदि बहुत तेज़ गति से छवियां बदलें, तो एक के मिटने से पहले ही दूसरी बनने लगती है, जिसके परिणामस्वरूप वे एक-दूसरे में व्यवधान पैदा करती हैं।

हाल तक शोधकर्ताओं का मानना था कि स्नैपिंग झींगे को अच्छे से दिखाई नहीं देता होगा क्योंकि उनके ऊपर कठोर हुड होता है जो उनकी आंखों को ढंके रहता है। यह हुड पारभासी होता है लेकिन यह स्पष्ट नहीं था कि यह प्रकाश को कितनी अच्छी तरह से पार जाने देता है। अब इस अध्ययन से यह पता चला है कि एक तेज़ शिकार पर हमला करना या फिर खुद शिकार होने से बचना इस झींगे के लिए कोई मुश्किल काम नहीं है। यह उनके लिए काफी महत्वपूर्ण भी है क्योंकि वे मटमैले पानी में रहते हैं जहां शिकारी का पता लगाना काफी मुश्किल होता है।(स्रोत फीचर्स)

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बहु-कोशिकीय जीवों का एक-कोशिकीय पूर्वज – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

पृथ्वी पर जीवन के शुरुआती रूप की चर्चा करते हुए अमेरिका का स्मिथसोनियन संस्थान बताता है कि ऑक्सीजन रहित और मीथेन की अधिकता वाला वातावरण जंतुओं के जीवन के लिए उपयुक्त नहीं था। फिर भी इस वातावरण में ऐसे सूक्ष्मजीव रह सकते थे जो सूर्य के प्रकाश का सामना कर, इसकी मदद से जीवित रहने के लिए ऊर्जा उत्पन्न करने में सक्षम थे।

पृथ्वी पर ऐसा वातावरण आज से लगभग 3.4 अरब साल पहले और पृथ्वी के अस्तित्व में आने के लगभग एक अरब साल बाद था। अपने भोजन बनाने की प्रक्रिया में सूक्ष्मजीवों ने ऑक्सीजन नामक गैसीय गौण उत्पाद बनाया। इस ‘महान ऑक्सीकरण घटना’ की बदौलत इसके लगभग 2 अरब साल बाद ऑक्सीजन पृथ्वी की सतह का एक महत्वपूर्ण घटक बन गई और पृथ्वी जीवों के जीवन के अनुकूल हो गई।

इस ऑक्सीजन का बाहरी ऊर्जा के रूप में उपयोग करके जंतु कोशिकाएं अपने शारीरिक विकास और संख्या वृद्धि के लिए भोजन बना सकती हैं। लेकिन इसके लिए उनकी शारीरिक रचना और जीव विज्ञान में तबदीली की ज़रूरत थी (बहु-कोशिकता के उद्भव और उसकी ज़रूरत पर एक उत्कृष्ट सारांश टी. केवेलियर-स्मिथ द्वारा रॉयल सोसायटी बी में प्रकाशित किया गया है, इसे आप इस लिंक पर पढ़ सकते हैं: https://doi.org/10.1098/rstb.2015.0476)। वे यह भी बताते है कि क्यों एक एक-कोशिकीय जीव (कोएनोफ्लैजिलेट) का उपयोग मनुष्य जैसे बहु-कोशिकीय जीवों के जैव विकास और विविधीकरण का अध्ययन करने के लिए एक मॉडल के रूप में किया जा सकता है। कोएनोफ्लैजिलेट जंतुओं के ऐसे सबसे करीबी जीवित रिश्तेदार हैं जो लगभग एक अरब साल पहले अस्तित्व में आए थे। कोएनोफ्लैजिलेट जंतुओं के सबसे करीबी रिश्तेदार माने जाते हैं। इनके अंडाकार शरीर पर एक चाबुक जैसा उपांग (कशाभ) होता है जिसके आधार पर एक कीप जैसी कॉलर होती है। इसलिए इन्हें कीप-कशाभिक भी कहते हैं। ये अकेले भी रहते हैं और कॉलोनियों में भी।

पिछले कुछ समय में हुए जीनोम अनुक्रमण के प्रयासों की बदौलत यह पता चला है कि कोएनोफ्लैजिलेट में भी कुछ ऐसी प्रक्रियाएं होती हैं जिनके बारे में अब तक ऐसा लगता था कि ये सिर्फ बहुकोशिकीय जीवों में ही होती हैं। इनमें कोशिकाओं के बीच संदेशों का आदान-प्रदान, कोशिका से कोशिका के चिपकने की प्रवृत्ति वगैरह शामिल हैं।

त्रुटिसुधार

समय के साथ जंतु कोशिकाएं क्रियाशील ऑक्सीजन मूलक (आरओएस) नामक अणु अधिक मात्रा में बनाने के लिए विकसित हुर्इं, ये अणु कई आवश्यक कोशिकीय गतिविधियों के लिए ज़रूरी होते हैं लेकिन इनका उच्च स्तर विषाक्तता पैदा करता है। आरओएस प्रतिरक्षा, तनाव प्रतिक्रिया और परिवर्धन जैसी प्रक्रियाओं में संकेतक अणु की एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इसके अलावा अधिक जटिलता के लिए ज़रूरी होता है कि जंतु के जीनोम के आकार में भी पर्याप्त वृद्धि हो। इसके साथ कोशिका में सभी कार्यों में भी वृद्धि होती है, जैसे डीएनए (विभिन्न अंगों की कोशिकाओं में मौजूद आनुवंशिक सामग्री), उसको संदेशवाहक आरएनए (mRNA) के रूप में लिप्यांतरित करना, और फिर tRNA की मदद से इन्हें कोशिकाओं में विशिष्ट प्रोटीन बनाने वाले अमीनो एसिड अनुक्रम में बदलना। tRNA की इस बढ़ी हुई संख्या (किसी सामान्य सूक्ष्मजीव में लगभग 50 से लेकर जंतुओं में सैकड़ों) का मतलब यह हुआ इन्हें कम से कम गलतियों के साथ सावधानीपूर्वक चुना जाना ज़रूरी है।

यदि प्रोटीन के स्तर पर आनुवंशिक कोड की गलत व्याख्या हो जाए तो यह गलती कार्यात्मक विकार और रोगों को जन्म देगी। (उदाहरण के लिए, सही अमीनो एसिड के स्थान पर, एक ‘गलत’ अमीनो एसिड आ जाने से प्रोटीन की आकृति, आकार या घुलनशीलता बदल सकती है जिसके कारण लायनस पौलिंग के शब्दों में ‘आणविक रोग’ हो सकते हैं। यदि हीमोग्लोबिन में एक एमिनो एसिड बदल जाए तो एनीमिया हो सकता है। और यदि आंख के लेंस के प्रोटीन में एक गलत एमीनो एसिड आ जाए तो मोतियाबिंद हो सकता है।) गलत अमीनो एसिड वाला प्रोटीन बनने से रोकने के लिए कोशिकाओं में ऐसे एंज़ाइम होते हैं जो गलत अमीनो एसिड को हटाने में मदद करते हैं। हैदराबाद स्थित सेंटर फॉर सेल्यूलर एंड मॉलीक्यूलर बायोलॉजी के राजन शंकरनारायणन और उनके साथियों का हालिया शोध, जंतु कोशिकाओं में एंज़ाइम की मदद से प्रूफ-रीडिंग के इसी पहलू पर केंद्रित है। यह शोध ईलाइफ पत्रिका के 28 मई, 2020 के अंक में प्रकाशित हुआ है। (जीनोमिक नवाचार ATD जीव जगत में बहुकोशिकता में होने वाले गलत रूपांतरणों को कम करता है, DOI: https: // doi. org / 10.7554 / eLife.58118)।

इस शोध के दिलचस्प शीर्षक ने मुझे डॉ. शंकरनारायणन से बात करने को उकसाया। उन्होंने मुझे जो समझाया वही यहां बता रहा हूं। उनके समूह को ATD नामक एक ऐसा जंतु विशिष्ट प्रूफ-रीडिंग एंज़ाइम मिला था जो थ्रेओनिन (T) नामक एमिनो एसिड के वाहक tRNA से (गलत) एमिनो एसिड एलेनिन (A) को हटा देता है। इस तरह सही प्रोटीन संश्लेषण बहाल होता है और कोशिका सामान्य तरीके से कार्य करती रहती है। वे आगे बताते हैं कि जंतु कोशिकाओं में ThrRS नामक एक अन्य एंज़ाइम भी होता है जो ATD की तरह ही कार्य करता है, लेकिन कोशिकाओं में उच्च आरओएस स्तर होने पर यह एंजाइम अपनी क्षमता खो देता है। जबकि ATD एंज़ाइम कोशिकाओं में आरओएस का उच्च स्तर होने पर भी सक्रिय बना रहता है।

शोधकर्ताओं द्वारा प्रयोगशाला में, मानव गुर्दे की कोशिकाओं और चूहों के भ्रूणीय स्टेम कोशिकाओं पर इन परिणामों की पुष्टि की गई थी। नई जीनोम एडिटिंग तकनीक, CRISPR-Cas9, का उपयोग करके कोशिकाओं से यह जीन हटाया गया, जिससे समूचा प्रोटीन गलत संश्लेषित हुआ और परिणामस्वरूप कोशिका की मृत्यु हो गई। और खास बात यह रही कि वे उपरोक्त परिघटना के पीछे के आणविक कारण को भी पहचान सके।

वे बताते हैं कि वास्तव में कि ATD रहित कोशिकाओं में थ्रेओनिन के स्थान पर कई जगह एलेनिन रख कर प्रोटीन बनाने की गलती हुई थी। शोधकर्ता अब आरओएस के उच्च स्तर वाले ऊतकों, जैसे वृषण और अंडाशय में ATD की विशिष्ट भूमिका की जांच करना चाहते हैं। शोधकर्ता बताते हैं कि जंतुओं में प्रोटीन के गलत संश्लेषण की समस्या के लिए ज़िम्मेदार tRNA के विशेष समूह की बढ़ी हुई संख्या से एक संभावना यह बनती है कि इनमें प्रोटीन संश्लेषण के अलावा अन्य कोई कार्य करने क्षमता भी विकसित हो सकती है। जैसे एपिजेनेटिक्स, प्रोग्राम्ड सेल डेथ (एपोप्टोसिस) और प्रजनन क्षमता भी। इनका विस्तार से परीक्षण करना उपयोगी हो सकता है।

विकास को आकार देना

अंत में एक सवाल यह उठता है कि क्या कोएनोफ्लैजिलेट जंतु मॉडल में प्रूफ-रीडर ATD मौजूद होता है और क्या यह इसी तरह काम करता है? इसका जवाब हां है, जैसा कि कुंचा और उनके साथी लिखते हैं: ‘एटीडी एक ऐसा एंज़ाइम है जो केवल जंतुओं में पाया जाता है। … आगे के अध्ययन में यह पता चला है कि ATD की उत्पत्ति लगभग 90 करोड़ साल पहले, कोएनोफ्लैजिलेट्स और जंतुओं के विकास के अलग-अलग दिशा में आगे बढ़ने के पहले, हुई थी। इससे लगता है कि इस एंज़ाइम ने जंतुओं के विकास को आकार देने में मदद की होगी।’ दूसरे शब्दों में कहें तो, ये स्पंज सरीखे एक-कोशिकीय जीव पृथ्वी के सभी जंतुओं के पूर्वज हैं, जिनमें हम मनुष्य भी शामिल हैं। कितना सादगीभरा विचार है!

तो पेड़-पौधों के बारे में क्या कहेंगे? वह एक अलग कहानी है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कृत्रिम अंगों पर कोरोनावायरस का अध्ययन

जकल शोधकर्ता कृत्रिम अंगों पर नए कोरोनावायरस के प्रभाव का अध्ययन कर रहे हैं। इन अध्ययनों से पता चला है कि इस वायरस में फेफड़ों से लेकर लीवर, गुर्दे और आंत तक में संक्रमण करने का लचीलापन है। चिकित्सकों ने देखा है कि शरीर के विभिन्न अंगों पर नए कोरोनावायरस, SARS-CoV-2, के विनाशकारी असर होते हैं लेकिन अभी यह स्पष्ट नहीं है कि ये प्रभाव सीधे वायरस के कारण हैं या संक्रमण की जटिलताओं के कारण। ऐसे अध्ययनों के लिए कोशिकाओं की बजाय कृत्रिम अंग वास्तविक परिस्थिति से ज़्यादा मेल खाते हैं।

क्योटो विश्वविद्यालय, जापान के स्टेम-सेल जीव विज्ञानी काज़ुओ ताकायामा और उनके सहयोगियों ने चार अलग-अलग प्रकार के श्वसनी कृत्रिम अंग तैयार किए हैं। SARS-CoV-2 से संक्रमित करने पर टीम ने पाया कि यह वायरस मुख्य रूप से स्टेम-कोशिकाओं पर हमला करता है। इसने मुख्यत: एपिथेलियम की आधार कोशिकाओं को लक्ष्य किया लेकिन सुरक्षात्मक रुाावी क्लब कोशिकाओं में आसानी से प्रवेश नहीं कर पाया। शोधकर्ता अब यह देखने का प्रयास कर रहे हैं कि क्या वायरस आधार कोशिकाओं से अन्य कोशिकाओं में फैल सकता है।  

ऊपरी श्वसन मार्ग से वायरस फेफड़ों में प्रवेश कर सकता है। कृत्रिम फेफड़ों पर अध्ययन करते हुए वेइल कोर्नेल मेडिसिन, न्यू यॉर्क के स्टेम-सेल जीव विज्ञानी शुईबिंग चेन ने पाया कि संक्रमण के परिणामस्वरूप कुछ कोशिकाएं तो नष्ट हो जाती हैं और वायरस कीमोकाइन्स और सायटोकाइन्स नामक प्रोटीन्स के उत्पादन को प्रेरित करता है। इसकी वजह से बड़े स्तर पर प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया सक्रिय हो जाती है। कोविड-19 के कई गंभीर रोगियों में साइटोकाइन सैलाब शुरू हो जाता है, जो जानलेवा हो सकता है। चेन के अनुसार यह अभी भी एक पहेली ही है कि रोगियों में फेफड़ों की कोशिकाओं क्यों नष्ट हो रही हैं। क्या वे वायरस द्वारा पहुंचाई गई क्षति के कारण नष्ट होती हैं या खुदकुशी कर लेती हैं या उन्हें प्रतिरक्षा कोशिकाएं चट कर जाती हैं।

फेफड़ों से शरीर के अन्य अंगों में SARS-CoV-2 के फैलने की प्रक्रिया पर मोंटसेराट और उनके सहयोगियों का अध्ययन सेल पत्रिका में प्रकाशित हुआ है। स्टेम-कोशिकाओं से विकसित कृत्रिम अंग के अध्ययन में उन्होंने पाया कि SARS-CoV-2 एंडोथेलियम यानी रक्त नलिकाओं के अस्तर वाली कोशिकाओं को संक्रमित कर सकता है। यहां से वायरस रक्त प्रवाह में प्रवेश कर पूरे शरीर में विचर सकते हैं। कोविड-19 ग्रस्त लोगों की पैथोलॉजी रिपोर्ट में भी क्षतिग्रस्त रक्त नलिकाओं की पुष्टि हुई है। अध्ययन से पता चलता है कि एक बार रक्त में प्रवेश करने पर यह वायरस गुर्दों समेत विभिन्न अंगों को संक्रमित कर सकता है।     

कृत्रिम लीवर पर किए गए एक अन्य अध्ययन में पाया गया है कि यह वायरस पित्त उत्पादन करने वाली कोशिकाओं, कोलेनजियोसाइट्स, को संक्रमित करके नष्ट कर सकता है। इससे पहले शोधकर्ताओं का मानना था कि कोविड-19 संक्रमित लोगों में अतिसक्रिय प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया के कारण लीवर को क्षति पहुंचती है। लेकिन कृत्रिम लीवर पर किया गया अध्ययन दर्शाता है कि वायरस सीधे-सीधे लीवर कोशिकाओं को संक्रमित कर सकता है। साइंस में प्रकाशित एक अन्य अध्ययन के अनुसार यह वायरस छोटी और बड़ी आंत के अस्तर की कोशिकाओं में भी संख्यावृद्धि कर सकता है।

हालांकि, कृत्रिम अंगों पर किए गए प्रयोगों से प्राप्त निष्कर्ष महत्वपूर्ण है लेकिन ये सभी प्रयोग अभी शुरुआती अवस्था में हैं और कहा नहीं जा सकता कि ये कितने प्रासंगिक हैं।

इसके अलावा वैज्ञानिक कृत्रिम अंगों पर दवाओं के प्रभाव का अध्ययन भी कर रहे हैं। इनमें से कुछ तो जीवों पर व्यापक परीक्षण के बिना नैदानिक परीक्षण तक पहुंच गई हैं। चेन ने यू.एस. खाद्य एवं औषधि प्रशासन द्वारा अन्य रोगों के लिए अनुमोदित 1200 दवाओं की जांच की है। उन्होंने कैंसर की दवा इमैटिनिब को SARS-CoV-2 के विरुद्ध प्रभावी बताया है। इसके बाद से ही कोविड-19 उपचार के लिए कई क्लीनिकल परीक्षण शुरू किए गए हैं।(स्रोत फीचर्स)

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संक्रमण-रोधी इमारतें और उर्जा का उपयोग – ज़ुबैर सिद्दिकी

कोविड-19 महामारी के परिणामस्वरूप सरकार द्वारा अनिवार्य सामाजिक दूरी का अनुपालन आने वाले समय में कार्यस्थल की ज़रूरतों और डिज़ाइन को प्रभावित करने वाला है। ऐसे में निर्माण उद्योग को कर्मचारियों के स्वास्थ और इन इमारतों की ऊर्जा दक्षता को ध्यान में रखते हुए एक ‘न्यू नार्मल’ पर विचार करना होगा। इसके कुछ मुख्य बिंदु इस प्रकार है:

1. सामाजिक दूरी

विशेष रूप से व्यावसायिक इमारतों में काम करने वाली कंपनियों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे सामाजिक सुरक्षा के मानदंडों का पालन करें और किसी भी अनपेक्षित स्वास्थ्य समस्या का सामना करने के लिए भी तैयार रहें। इकॉनॉमिक टाइम्स में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार कई कंपनियां, विशेष रूप से आईटी कंपनियां, अपने खर्चे को कम करने के लिए प्रति कर्मचारी 60-80 वर्ग फुट जगह आवंटित करती हैं जबकि निर्धारित मानक 125 वर्ग फुट प्रति व्यक्ति है।

अभी मौजूदा कार्यालयों का विस्तार तो नहीं किया जा सकता लेकिन एक कुशल योजना और डिज़ाइन के साथ कुछ बेहतर उपाय अवश्य तलाश किए जा सकते हैं।

हालांकि सामाजिक दूरी के साथ कोई निश्चित या स्थायी समाधान निकालने में समय लगेगा लेकिन विशेषज्ञों के अनुसार फिलहाल कंपनियां 30 प्रतिशत कर्मचारियों को रोटेशन में घर से काम करने की अनुमति देने का विकल्प अपनाएंगी। वर्तमान में कई जगह ऐसा किया भी जा रहा है। इसके लिए ‘हॉट डेÏस्कग’ प्रणाली को भी अपनाया जा सकता है जिसमें एक ही मेज़ का उपयोग विभिन्न समय में अलग-अलग लोगों द्वारा किया जाता है। स्वास्थ्य, स्वच्छता और उत्पादकता की चुनौतियों के साथ कंपनियां कोशिश करेंगी कि वे अपने कार्यों को विकेंद्रीकृत करें ताकि कंटेनमेंट की स्थिति में भी काम की निरंतरता बनी रहे।

2. फिल्टरेशन

अभी इस विषय में कोई पर्याप्त अध्ययन तो नहीं है लेकिन ऐसा माना जाता है कि इमारतों में बाहरी हवा को अंदर लाने वाले विशिष्ट एयर फिल्टर एयरोसोल रूपी किसी भी हवाई वायरस को रोकने के लिए पर्याप्त हैं। कई इमारतों में फिल्टरेशन के बाद हवा का पुन:संचरण किया जाता है। आम तौर पर पुन:संचरण डक्ट में उपयोग किए जाने वाले फिल्टर वायरस को रोकने में कुशल नहीं होते हैं। यदि हाई एफिशिएंसी पार्टिकुलेट एयर (HEPA) फिल्टर का उपयोग किया जाए तो रोगजनकों को दूर तो किया जा सकता है लेकिन इसका ऊर्जा खर्च पर काफी अधिक बोझ पड़ता है। HEPA फिल्टर के साथ स्टैंड-अलोन एयर प्यूरीफायर भी काफी प्रभावी हो सकते हैं। ऐसे में विशेषज्ञों का मानना है कि इमारतों में वेंटिलेशन में सुधार करना अधिक फायदेमंद हो सकता है। 

इसके अलावा, हवा में मौजूद बैक्टीरिया और वायरस से निपटने के लिए पैराबैंगनी प्रकाश का उपयोग किया जा सकता है। विशेष रूप से इनका उपयोग स्वास्थ्य सुविधाओं में लोगों की अनुपस्थिति में किया जाता है। ऐसे में इनका उपयोग भी सीमित अवधि के लिए ही होता है और ऊर्जा भी कम खर्च होती है।

3. ताज़ी हवा

लगभग सभी विशेषज्ञों का मानना है कि किसी भी इमारत में संक्रमण को फैलने से रोकने का सबसे प्रभावी तरीका ताज़ा हवा की मात्रा बढ़ाना है। फेडरेशन ऑफ युरोपियन हीटिंग, वेंटिलेशन एंड एयर कंडीशनिंग एसोसिएशन्स (REHVA) भी इमारतों में हवा के पुन: संचरण का विरोध करता है। फेडरेशन काम शुरू होने के 2 घंटे पहले इमारतों में ताज़ा हवा संचारित करने का सुझाव देता है। शौचालय के लिए तो 24/7 वेंटिलेशन का सुझाव दिया जाता है। यदि इन उपायों को अपनाया जाता है तो कृत्रिम वेंटिलेशन वाली इमारतों में ऊर्जा की खपत में भारी वृद्धि होगी। यानी बाहर से आने वाली गर्म हवा को ठंडा करने में और अधिक समय लगेगा जो वेंटिलेशन के कारण निरंतर इमारत में प्रवेश करेगी। हालांकि प्राकृतिक रूप से हवादार इमारतें बिना किसी ऊर्जा खपत के आवश्यक बाहरी हवा प्रदान कर सकती हैं। फिर भी ऐसी इमारतों को ठंडा रखने पर विचार करने की आवश्यकता है।

4. तापमान और आर्द्रता

अधिकांश वायरसों के संक्रमण को एक विशेष तापमान और आर्द्रता पर सीमित किया जा सकता है, लेकिन कोविड-19 के लिए यह मान काफी अधिक (आपेक्षिक आर्द्रता 80 प्रतिशत या उससे अधिक और तापमान 30 डिग्री सेल्सियस से अधिक) होता है। यानी इस तापमान पर वायरस का संक्रमण थोड़ा कम हो जाता है और किसी सतह पर इसके जीवित रहने की संभावना भी कम हो जाती है। लेकिन संक्रमण को इस तरीके से नियंत्रित करना काफी मुश्किल व महंगा है।  

फिर भी, जैसा कि वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों का मानना है कि अब हमें इस वायरस के साथ ही रहना सीखना होगा। आईसीएमआर के अनुसार तो भारत में नवंबर माह में संक्रमण का पीक आने की संभावना है। ऐसे में कार्यस्थलों और घरों पर उन तरीकों को अपनाना होगा जिनसे हम सुरक्षित रह सकें। ज़मीनी स्तर पर कार्यस्थलों की मौजूदा रूपरेखा में बदलाव के लिए लगभग 4-6 महीने का समय तो लग ही जाएगा। कंपनियों को इसके लिए अतिरिक्त लागत की आवश्यकता भी हो सकती है। यह लागत काम की निरंतरता बनाए रखने के लिए आवश्यक है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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हमारा शरीर है सूक्ष्मजीवों का बगीचा – कालू राम शर्मा

ब हम स्वच्छता की बात करते हैं तो यही कहा जाता है कि हाथों की उंगलियों, नाखूनों व हाथों की लकीरों में सूक्ष्मजीव होते हैं। स्वच्छता का पैमाना मात्र इन सूक्ष्मजीवों से छुटकारा पाने का होता है। लोगों को लगता है कि सभी सूक्ष्मजीव रोग फैलाते हैं। लेकिन यह पूरी तौर पर सही नहीं है। हमारे आसपास और हमारे शरीर के अंदर व त्वचा पर कईं सूक्ष्मजीव ऐसे होते हैं जो हमारे लिए बेहद ज़रूरी है। बल्कि यह कहा जाए कि हमारी अच्छी सेहत के लिए इनका साथ होना ज़रूरी है, तो गलत न होगा।

हमारे शरीर में बड़ी तादाद में सूक्ष्मजीव बसते हैं। एक अनुमान के मुताबिक इन सूक्ष्मजीवों की संख्या हमारे शरीर की कुल कोशिकाओं से सवा गुना अधिक है। यह दिलचस्प है कि हमारे शरीर में कुल कोशिकाओं में से आधी से ज़्यादा बैक्टीरिया कोशिकाएं हैं।

यह देखा गया है कि 500 से अधिक प्रजातियों के बैक्टीरिया हमारी आंत में पाए जाते हैं। सोचा जा सकता है कि विविधता केवल बाहरी वातावरण में ही नहीं, हमारी आहार नाल में भी है। विभिन्न प्रजातियों के सूक्ष्मजीव जो हमारी आंत में पाए जाते हैं उनके समूह को माइक्रोबायोम कहा जाता है। दिलचस्प यह भी है कि हम जिस भोजन का सेवन करते हैं वह भी हमारी आहार नाल के माइक्रोबायोम को प्रभावित करता है।

विकास के दौरान सूक्ष्मजीवों ने सहभोजी रिश्ता कायम किया। बिना सूक्ष्मजीवों के मानव का अस्तित्व संकट में हो सकता है। इस कहानी में जीवाणुओं ने भी अहम भूमिका अदा की। बायफिडोबैक्टीरिया इनमें से एक है।

जन्म के बाद शिशु जब मां का दूध पीता है तो उसे पचाने वाले बायफिडोबैक्टीरिया आहार नाल में पनपने लगते हैं। ये शर्कराओं को पचाने का लाभदायक काम करते हैं जो शरीर की वृद्धि में सहायक होता है। जैसे-जैसे हम बड़े होते जाते हैं, कुछ बैक्टीरिया भोजन में वनस्पति रेशों को पचाने में भूमिका अदा करते हैं जो हमारी आंत के लिए अहम होते हैं। रेशे हमें अधिक वज़नी होने से बचाते हैं। साथ ही मधुमेह, दिल की बीमारी व कैंसर के खतरों से भी बचाते हैं।

आहार नाल का माइक्रोबायोम रोगों से लड़ने की क्षमता को बढ़ाता है। इतना ही नहीं, नए अध्ययनों में यह बात भी सामने आई है कि आहार नाल का माइक्रोबायोम केंद्रीय तंत्रिका तंत्र को भी नियंत्रित करता है।

जन्म के पूर्व शिशु की आहार नाल सूक्ष्मजीवों से रहित होती है। सामान्य प्रसव के दौरान शिशु योनि मार्ग से गुज़रते हुए सूक्ष्मजीवों के संपर्क में आता है और मुंह के रास्ते ये उसकी आंत में प्रवेश कर जाते हैं। हालिया शोध बताते हैं कि सिज़ेरियन प्रसव से जन्मे शिशुओं की आहार नाल में सूक्ष्मजीव विविधता सामान्य जन्म लेने वाले शिशुओं से कम होती है। जो बच्चे सामान्य प्रसव (योनि मार्ग से प्रसव) से जन्म लेते हैं उन शिशुओं की आंत में लैक्टोबेसिलस, प्रेवोटेला, बायफिडोबैक्टीरियम, बैक्टेरॉइड्स और एटोपोबियम पाए जाते हैं। ये सूक्ष्मजीव सिज़ेरियन प्रसव से जन्मे शिशुओं में नहीं पाए जाते। सिज़ेरियन प्रसव से जन्मे शिशुओं में मुख्य रूप से क्लॉस्ट्रीडियम डिफिसाइल, .कोलीस्ट्रोप्टोकोकाई जैसे बैक्टीरिया पाए जाते हैं। जैसे-जैसे शिशु बड़ा होने लगता है उसकी आहार नाल के माइक्रोबायोम की विविधता बढ़ती जाती है। यह देखा गया है कि जिनकी आहार नाल में माइक्रोबायोम की विविधता अधिक होती है, वे अधिक स्वस्थ रहते हैं।

बायफिडोबैक्टीरियम अचल किस्म के ग्राम-पाज़िटिव बैक्टीरिया हैं, जिनमें अनॉक्सी श्वसन होता है। सन 1900 के दौरान हेनरी टिसियर ने नजवात शिशु के मल में बायफिडोबैक्टीरिया देखा था। इसके ठीक बाद टिसियर के साथी मेचनीकोव का ध्यान टिसियर द्वारा खोजे गए बैक्टीरिया की ओर गया। मेचनीकोव तब किण्वित दूध पर काम कर रहे थे। मेचनीकोव पहले व्यक्ति थे जिन्होंने बताया कि दही, छांछ जैसी चीज़ें हमारी सेहत के लिए काफी फायदेमंद हैं। मेचनीकोव ने किण्वित दूध को प्रोबायोटिक कहा। इसका अर्थ है ऐसे खाद्य पदार्थ जिसमें कुछ सूक्ष्मजीव होते हैं जो हमारे शरीर को भोजन पचाने में मदद करते हैं, तंत्रिका तंत्र को मजबूत करते हैं और हमें तंदुरुस्त व दीर्घायु बनाते हैं। इसी शोध के लिए मेचनीकोव को 1908 में नोबल पुरस्कार मिला था।

स्तनपान करने वाले शिशुओं में बायफिडोबैक्टीरिया की किण्वक व अम्लीय प्रकृति और मानव पोषण और पेट के स्वास्थ्य के बीच लाभदायक सम्बंध को काफी पहले पहचान लिया गया था और यह प्रचारित भी खूब हो रहा था। प्रोबायाटिक आहार का जितना महत्व आज है उतना ही तब भी हुआ करता था। हालांकि बायफिडोबैक्टीरिया के साथ ही अन्य स्ट्रेप्टोकोकस, एंटरोकोकस, यीस्ट और अन्य सूक्ष्मजीवों ने भी प्रोबायोटिक के इस्तेमाल की ओर ध्यान खींचा। इसके बाद इस पर व्यापक अध्ययन हुए। न केवल मनुष्यों में बल्कि इसके बेहतर प्रभावों को पालतू पशुओं में भी पहचाना गया और प्रोबायोटिक संस्कृति को अपनाया जाने लगा।

नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ (एनआईएच) द्वारा 2007 में ह्यूमन माइक्रोबायोम प्रोजेक्ट (एचएमपी) की स्थापना मानव कल्याण के लिए माइक्रोबायोम के प्रभाव का अध्ययन करने और विशेषज्ञता को बढ़ावा देने के मकसद से की गई थी ताकि विशिष्ट बीमारियों में इनकी भूमिका को रेखांकित किया जा सके। परियोजना के पहले चरण में सूक्ष्मजीवों के प्रकार (बैक्टीरिया, फफूंद और वायरस) के संदर्भ में डैटाबेस तैयार किया गया जो शरीर के पांच विशिष्ट हिस्सों पर केंद्रित था – त्वचा, मुखगुहा, श्वसन मार्ग, आहार नाल व मूत्र-जनन मार्ग। परियोजना का लक्ष्य यह समझना था कि शरीर को नुकसान पहुंचाने वाले सूक्ष्मजीवों की जेनेटिक संरचना में बदलाव करके इन्हें कैसे लाभदायक सूक्ष्मजीवों में बदला जा सकता है।

उल्लेखनीय है कि इस परियोजना को भारत में भी प्रारंभ किया जा चुका है। भारतीय लोगों के शरीर के विभिन्न अंगों जैसे त्वचा, लार, रक्त व मल में सूक्ष्मजीवों के वास का अध्ययन किया जा रहा है। यह देशव्यापी अध्ययन है जिसमें केंद्र सरकार ने 150 करोड़ रुपए का निवेश किया है। इस अध्ययन में भारत की 32 जनजातियों को भी शामिल किया गया है। 

इस परियोजना में सूक्ष्मजीव संसार का विश्लेषण करने के लिए मानव जीनोम परियोजना द्वारा विकसित डीएनए सिक्वेंसिंग का इस्तेमाल किया गया है।

दरअसल, मानव एक जीव ही नहीं है बल्कि वह एक पारिस्थितिकी तंत्र भी है। इसमें इन सारे सूक्ष्मजीवों के जीनोम मौजूद हैं जिसे माइक्रोबायोम कहते हैं। ऐसे अनेक काम हैं जो हमारे जीनोम में अंकित नहीं है। इन कार्यों को हम माइक्रोबायोम की मदद से करते हैं। हर सूक्ष्मजीव अपना-अपना काम करता है और पूरे इकोसिस्टम में योगदान देता है। वैसे यह दिलचस्प है कि जो सूक्ष्मजीव हमारी आहार नाल में बसते हैं वे हमारे जीनोम से कुछ जीनों का इस्तेमाल अपनी कार्यप्रणाली के लिए करते हैं। दरअसल, सूक्ष्मजीवों व मानव के बीच का यह रिश्ता साझेदारी व सहयोग का है। दोनों पक्ष एक-दूसरे को लाभ पहुंचाते हैं। जैसे हमारे द्वारा जिस कार्बोहाइड्रेट का पाचन नहीं हो पाता है उन्हें ये सूक्ष्मजीव पचाते हैं या विटामीन बी का संश्लेषण हमारी आंत के बैक्टीरिया ही करते हैं। और आंत में जिस भोजन का पाचन होता है उसका फायदा ये सूक्ष्मजीव भी उठाते हैं।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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भविष्य में महामारियों की रोकथाम का एक प्रयास

न दिनों हार्वर्ड स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ के प्रतिरक्षा विज्ञानी और महामारी विज्ञान विशेषज्ञ माइकल मीना रक्त के लाखों नमूने जमा कर रहे हैं। उनका उद्देश्य ग्लोबल इम्यूनोलॉजी ऑब्ज़र्वेटरी (जीआईओ) के माध्यम से आबादी में फैलने वाले रोगजनक सूक्ष्मजीवों के संकेतों की निगरानी करना है। यह एक ऐसी तकनीक पर आधारित है जो रक्त की माइक्रोलीटर मात्रा में भी विभिन्न एंटीबॉडी को माप सकेगी। यदि जीआईओ तकनीकी बाधाओं को दूर करके निरंतर वित्तीय सहायता प्राप्त कर पाता है तो हमारे पास महामारियों की निगरानी करने और निपटने का एक प्रभावी साधन होगा।

फिलहाल, अमेरिका में रोगों से जुड़ी असामान्य घटनाओं की रिपोर्ट राज्य के स्वास्थ्य विभागों के माध्यम से सेंटर फॉर डिसीज़ कंट्रोल एंड प्रिवेंशन (सीडीसी) को भेजी जाती है। लेकिन कोविड-19 के प्रसार को देखते हुए मीना एक त्वरित और व्यापक निगरानी प्रक्रिया के पक्ष में हैं। मीना नियमित रूप से एंटीबॉडी के माध्यम से महामारियों का पता लगाना चाहते हैं। इसके लिए वे रक्त बैंकों से लेकर प्लाज़्मा केंद्रों जैसे हर संभव स्रोत से निरंतर रक्त के नमूने जमा कर रहे हैं। आनुवंशिक रोगों की पहचान के लिए अधिकांश राज्यों में लगभग सभी नवजात शिशुओं के रक्त के नमूने जमा किए जाते हैं। इनको भी इस कार्य में शामिल कर लिया जाएगा। इन नमूनों की पहचान केवल भौगोलिक क्षेत्र के आधार पर की जाएगी। फिलहाल कुछ कंपनियों द्वारा पहले से ही चिप-आधारित तकनीक से हज़ारों एंटीबॉडीज़ की पहचान करने के उपकरण बनाए जा रहे हैं। इन कंपनियों की मदद से यह काम और व्यापक स्तर पर किया जा सकता है।

फिलहाल विचार यह है कि प्रतिदिन 10,000 और आगे चलकर एक लाख नमूनों का विश्लेषण किया जाएगा। वर्तमान निगरानी प्रणाली की तुलना में इस ऑब्ज़र्वेटरी की मदद से इससे भी कम संख्या में महामारी के प्रकोप का जल्द पता लग सकता है। जीआईओ की मदद से मौसमी इन्फ्लुएंज़ा की निगरानी को भी तेज़ किया जा सकता है ताकि अस्पतालों को तैयारी करने का पर्याप्त समय मिल सके और टीके वितरित किए जा सकें।

जीआईओ कोविड-19 जैसे नए संक्रामक रोगों के प्रसार को ट्रैक कर सकता है। इसके लिए एंटीबॉडी का पता लगाने वाली चिप्स को नए रोगजनक के लिए अपडेट करना ज़रूरी नहीं होगा। इसकी सहायता से शोधकर्ता उन एंटीबॉडी की बढ़ोतरी का पता लगा सकते हैं जो ज्ञात रोगजनकों को अविशिष्ट रूप से लक्षित करती हैं। संक्रमण शुरू होने के 1 से 2 सप्ताह बाद दिखाई देने वाली एंटीबॉडी न केवल वर्तमान संक्रमित लोगों की जानकारी देंगी बल्कि उन लोगों के बारे में भी बताएंगी जो इस रोग से ठीक हो चुके हैं। क्योंकि हर एंटीबॉडी की एक अलग पहचान होती है, जीआईओ में बैक्टीरिया या वायरस संक्रमित लोगों के विशेष स्ट्रेंस की पहचान भी हो सकेगी।(स्रोत फीचर्स)

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खतरनाक डॉयाक्सीन के बढ़ते खतरे – डॉ. ओ. पी. जोशी

डॉयाक्सीन अत्यंत विषैले रसायनों का समूह है। इन्हें उन खतरनाक मानव निर्मित रसायनों में शामिल किया गया है जिनकी सक्रियता रेडियो सक्रिय पदार्थ के बाद दूसरे नंबर पर आती है।

डॉयाक्सीन पर हमारा ध्यान इटली के सेवासो कस्बे में 10 जुलाई 1976 को एक कारखाने में हुए विस्फोट ने आकर्षित किया था। इससे डॉयाक्सीन आसपास के वातावरण में फैल गया था। इसके विषैले प्रभाव से हज़ारों पशु-पक्षी मारे गए थे। मनुष्यों में भी एक चर्म रोग फैला था जो लंबे समय तक उपचार के बाद ठीक हुआ। बाद में कैंसर एवं ह्रदय रोग के भी कई प्रकरण सामने आए। प्रारंभ में गर्भवती महिलाओं एवं बच्चों पर कोई विशेष प्रभाव तो नहीं देखा गया था परंतु बाद में नर बच्चों की जन्म दर काफी घट गई थी। अमरीका की पर्यावरण सुरक्षा एजेंसी ने वहां की ज़्यादातर जनता को डॉयाक्सीन से प्रभावित बताया था। डॉयाक्सीन के प्रभावों में कैंसर, चर्म रोग, प्रतिरोध क्षमता में कमी, तंत्रिका तंत्र पर प्रतिकूल प्रभाव एवं मृत शिशुओं का जन्म प्रमुख हैं।

रासायनिक दृष्टि से डॉयाक्सीन क्लोरीन युक्त हाइड्रोकार्बन हैं जो काफी टिकाऊ होते हैं तथा कीटनाशी डीडीटी के समान वसा में घुलनशील होते हैं। इस घुलनशीलता के कारण ये भोजन शृंखला में प्रवेश कर वसायुक्त अंगों में एकत्र होते रहते हैं।

अभी तक इनकी कोई सुरक्षित सीमा निर्धारित नहीं है परंतु स्वास्थ्य पर इनका प्रभाव चंद अंश प्रति ट्रिलियन (यानी 10 खरब अंशों में एक अंश) सांद्रता पर ही देखा गया है। हमारे वायुमंडल में 95 प्रतिशत डॉयाक्सीन उन भस्मकों (इंसीनरेटर्स) से आते हैं जिनमें क्लोरीन युक्त कचरा जलाया जाता है। कागज़ के उन कारखानों से भी इनका प्रसार होता है जो ब्लीचिंग कार्य में क्लोरीन का उपयोग करते हैं। कई शहरों में सफाई के नाम पर अवैध रूप से कचरा जलाने में भी डॉयाक्सीन पैदा होते हैं, क्योंकि कचरे में प्लास्टिक एवं पीवीसी के अपशिष्ट भी होते हैं।

पिछले 50 वर्षों में क्लोरीन युक्त रसायनों व प्लास्टिक का निर्माण एवं उपयोग काफी बढ़ा है। रसायनों में कीटनाशी व शाकनाशी तथा प्लास्टिक में पीवीसी की वस्तुएं प्रमुख हैं। वाहनों के सीटकवर, टेलीफोन-बिजली के तार, शैम्पू की बॉटल, बैग, पर्स, सेनेटरी पाइप, वॉलपेपर एवं कई अन्य वस्तुएं पीवीसी से ही बनती हैं। इन सभी के निर्माण के समय एवं उपयोग के बाद कचरा जलाने से डॉयाक्सीन का ज़हर फैलता है।

जलने के दौरान पैदा डॉयाक्सीन वायुमंडल में उपस्थित महीन कणीय पदार्थों के साथ सैकड़ों किलोमीटर दूर तक फैल जाते हैं। फसलों एवं अन्य पौधों की पत्तियों तथा भूमि पर जमा होकर फिर ये शाकाहारी एवं मांसाहारी प्राणियों से होते हुए अंत में मानव शरीर में एकत्र होने लगते हैं। मानव शरीर में ज़्यादातर डॉयाक्सीन दूध, मांस व अन्य डेयरी पदार्थों के ज़रिए पहुंचते हैं।

जापान के स्वास्थ्य व कल्याण मंत्रालय ने कुछ वर्ष पूर्व महिलाओं के दूध का अध्ययन कर बतलाया था कि महिलाएं जैसे-जैसे दूध व अन्य डेयरी पदार्थों का उपयोग बढ़ाती हैं वैसे-वैसे उनके दूध में डॉयाक्सीन की मात्रा बढ़ती जाती है। भस्मकों के आसपास के क्षेत्र में रहने वाली महिलाओं में इनकी मात्रा ज़्यादा आंकी गई। ब्रिटिश जर्नल ऑफ कैंसर में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार नगरीय निकायों का कचरा जलाने वाले भस्मकों के आसपास सात किलोमीटर के क्षेत्र में बसे रहवासियों में डॉयाक्सीन के कारण कई प्रकार के कैंसर होने की संभावना बढ़ जाती है। भस्मकों की चिमनी से निकले धुंए में कैंसरजन्य रसायनों के साथ भारी धातुएं, अम्लीय गैसें, अधजले कार्बनिक पदार्थ, पॉलीसायक्लिक हाइड्रोकार्बन्स तथा फ्यूरॉन एवं डॉयाक्सीन की उपस्थिति भी वैज्ञानिकों ने दर्ज की है। दुनिया में कई स्थानों पर, डॉयाक्सीन की मात्रा बढ़ने से गांव व शहर खाली भी कराए गए हैं। इनमें लवकेनाल (नियाग्रा फॉल),टाइम्स बीच (मिसोरी), पैंसाकोला (फ्लोरिडा) व मिडलैंड शहर प्रमुख हैं।

वर्ष 2002 में एंवायरमेंटल साइंस एंड टेक्नॉलॉजी पत्रिका में प्रकाशित रिपोर्ट में बताया गया था कि डॉयाक्सीन का प्रदूषण भारत में भी बहुत है। मनुष्य, डॉल्फिन, मुर्गा, मछली, बकरी एवं मांसाहारी पशुओं में इसकी उपस्थिति आंकी गई थी। पक्षियों में सर्वाधिक 1800 तथा गंगा की डॉल्फिन में 20-120 पीपीजी (पिकोग्राम प्रति ग्राम) का आकलन किया गया था। पर्यावरण एवं वन मंत्रालय के तत्कालीन सचिव ने भी इसे स्वीकारते हुए कहा था कि देश में डॉयाक्सीन की व्यापकता अनुमान से अधिक है। कम्यूनिटी एंवायरमेंटल मॉनीटरिंग ने स्मोक स्कैन नाम से एक रिपोर्ट लगभग 15 वर्ष पूर्व जारी की थी। इसमें देश के 13 स्थानों पर हवा के नमूनों में 45 ज़हरीले रसायनों की उपस्थिति बतलाई थी। केरल के एक औद्योगिक क्षेत्र में एक रसायन हेक्साक्लोरो ब्यूटाडाइन की पहचान की गई थी जो डॉयाक्सीन का निर्माण करता है।

देश में डॉयाक्सीन की मात्रा पश्चिमी देशों द्वारा दिए गए घटिया तकनीक के भस्मकों तथा क्लोरीन आधारित उद्योगों के कारण बढ़ी है जिनमें पीवीसी, पल्प व कागज़ तथा कीटनाशी कारखाने प्रमुख हैं। खुलेआम प्लास्टिक युक्त कचरा जलाना भी इसकी मात्रा बढ़ा रहा है। डॉयाक्सीन से पैदा प्रदूषण पर ध्यान दिया जाना ज़रूरी है, अन्यथा यह स्वास्थ्य का नया संकट पैदा करेगा। केंद्र सरकार ने 2009 में कई प्रदूषणकारी पदार्थों की मात्रा व स्तर में संशोधन कर कुछ नए प्रदूषणकारी पदार्थं शामिल किए हैं परंतु इसमें डॉयाक्सीन नहीं हैं।

भस्मकों में कचरा जलाए जाने से पैदा डॉयाक्सीन के प्रदूषण के कारण अब दुनिया के कई देशों में इसके विरुद्ध ना केवल आवाज़ उठाई जा रही है अपितु ये बंद भी किए जा रहे हैं। वर्ष 2002 में ज़्यादा डॉयाक्सीन उत्सर्जन के कारण जापान में लगभग 500 भस्मक बंद किए गए थे। यू.के में 28 में से 23 भस्मक बंद किए गए एवं यू.एस.ए. में 1985 से 1994 के मध्य 250 भस्मकों की प्रस्तावित योजनाएं निरस्त की गर्इं।  फिलीपाइंस में भस्मक लगाना प्रतिबंधित किया गया है। हमारे देश में भी इस संदर्भ में ध्यान देकर सावधानी बरतना ज़रूरी है।(स्रोत फीचर्स)

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