गर्भावस्था में पोषण, स्वास्थ्य व देखभाल – डॉ. पूनम विशाल ज्वैल और सुदर्शन सोलंकी

प्रजनन आयु (15-49 वर्ष) की महिलाओं में खराब पोषण (poor nutrition) के दीर्घकालिक परिणाम होते हैं। महिला के स्वास्थ्य पर प्रतिकूल असर के अलावा, इससे कुपोषित बच्चे को जन्म देने का जोखिम भी बढ़ जाता है, जिससे कुपोषण का चक्र पीढ़ियों तक चलता रहता है।

गर्भावस्था और मातृत्व के दौरान अलग-अलग पोषण सम्बंधी ज़रूरतें होती (pregnancy nutrition requirements, prenatal care) हैं। गर्भावस्था से पहले, महिलाओं को स्वस्थ शरीर के लिए पौष्टिक और संतुलित आहार की ज़रूरत होती है। गर्भावस्था और स्तनपान के दौरान, ऊर्जा और पोषक तत्वों की ज़रूरत बढ़ जाती है।

किंतु दुनिया के कई देशों में महिलाओं की पोषण(global malnutrition in women) सम्बंधी स्थिति खराब बनी हुई है। बहुत-सी महिलाएं – विशेषकर वे जो पोषण सम्बंधी जोखिम में हैं, उन्हें वे पोषण सेवाएं नहीं मिल रही हैं जो उन्हें स्वस्थ रहने और अपने बच्चों को जीवित रहने, बढ़ने और विकसित होने का सबसे अच्छा मौका देने के लिए आवश्यक हैं।

भारत में बच्चों के बीच खराब पोषण और स्वास्थ्य परिणामों का मुख्य कारण गर्भावस्था से पहले और उसके दौरान माताओं का खराब पोषण है (child malnutrition India, maternal health and child growth)। शोध से पता चलता है कि दो साल की उम्र तक विकास में लगभग 50 प्रतिशत विफलता गर्भधारण और प्रसव के बीच घटिया पोषण के कारण होती है। इसलिए बच्चों में कुपोषण से प्रभावी ढंग से निपटने के लिए मातृ कुपोषण से निपटना महत्वपूर्ण है।

एक कुपोषित मां अनिवार्य रूप से एक कुपोषित बच्चे को जन्म देती है (malnourished mother and child)। भारत में कुपोषण की समस्या गंभीर है, और संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार, 2019-2021 के बीच 22.4 करोड़ से अधिक लोग कुपोषित थे (UN malnutrition report India); जिनमें से अधिकांश महिलाएं और बच्चे हैं। भारत में लगभग आधी महिलाओं, विशेष रूप से गर्भवती महिलाओं में कुपोषण और एनीमिया का प्रकोप देश की खाद्य सुरक्षा पर गंभीर बोझ डालता है (anemia in pregnant women, nutrition and food security India)

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (NFHS-5) भी दर्शाता है कि भारत में कुपोषण की समस्या लगातार बनी हुई है (NFHS-5 findings on nutrition)। पांच साल से कम उम्र का हर तीसरा बच्चा और देश की हर पांचवी महिला कुपोषित है, और अधिक वज़न वाली महिलाओं की संख्या बढ़कर एक चौथाई हो गई है। आधे से ज़्यादा बच्चे, किशोर और महिलाएं एनीमिया से पीड़ित हैं (anemia in adolescents and women)

गर्भावस्था के दौरान पोषण का अत्यधिक महत्व होता है, क्योंकि यह न केवल मां के स्वास्थ्य को प्रभावित करता है, बल्कि गर्भ में पल रहे शिशु के विकास और भविष्य के स्वास्थ्य पर भी गहरा असर डालता है (importance of nutrition in pregnancy, baby development during pregnancy)। संतुलित और पोषक तत्वों से भरपूर आहार गर्भवती महिला और शिशु दोनों के लिए आवश्यक है (balanced diet in pregnancy, nutrients for pregnant women)। उचित आहार योजना और स्वस्थ जीवनशैली अपनाकर गर्भवती  महिलाएं स्वस्थ गर्भावस्था और स्वस्थ शिशु के जन्म की दिशा में कदम बढ़ा सकती हैं।

ऊर्जा (Energy)

गर्भावस्था के दौरान ऊर्जा की आवश्यकता बढ़ जाती है। भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (ICMR Pregnancy guidelines) के अनुसार, गर्भ की दूसरी और तीसरी तिमाही में प्रतिदिन 350 किलो कैलोरी अतिरिक्त ऊर्जा की आवश्यकता होती है। जिसकी पूर्ति प्रत्येक भोजन में थोड़ा-थोड़ा आहार बढ़ाकर की जाती है।

प्रोटीन (Protein)

प्रोटीन गर्भाशय, स्तनों और शिशु के शरीर के ऊतकों (protein for fetal growth) के विकास के लिए आवश्यक है। आईसीएमआर के अनुसार, महिला के प्रति किलो वज़न पर पहली तिमाही में 1 ग्राम प्रतिदिन, दूसरी तिमाही में 8 ग्राम और तीसरी तिमाही में 18 से 20 ग्राम अतिरिक्त प्रोटीन की आवश्यकता होती है। दूध और पनीर, दही जैसे दुग्ध उत्पाद, अंडे, मांस, चिकन, सैल्मन मछली, दालें, नट्स वगैरह प्रोटीन के अच्छे स्रोत (sources of protein) हैं।

कैल्शियम (Calcium)

कैल्शियम शिशु की हड्डियों (baby bone health) और दांतों के विकास के लिए महत्वपूर्ण है। गर्भवती महिलाओं को प्रतिदिन 1 ग्राम अतिरिक्त  कैल्शियम की आवश्यकता होती है। दूध, दही, पनीर जैसे डेयरी उत्पाद, हरी पत्तेदार सब्जियां, सूखे मेवे. तिल के बीज इसके बढ़िया स्रोत हैं।

फोलिक एसिड (Folic acid)

फोलिक एसिड न्यूरल ट्यूब सम्बंधी दोषों (neural tube defect prevention) की रोकथाम में मदद करता है। गर्भवती महिलाओं को प्रतिदिन 600 माइक्रोग्राम फोलिक एसिड की आवश्यकता होती है। यह हरी पत्तेदार सब्ज़ियों, संतरा, केला, चना, राजमा, साबुत अनाज, दलिया वगैरह में पाया जाता है।

लौह (Iron)

गर्भावस्था के दौरान लौह की आवश्यकता बढ़ जाती है ताकि शिशु और मां दोनों के लिए हीमोग्लोबिन का उत्पादन सुनिश्चित हो सके। गर्भवती महिलाओं को प्रतिदिन 36 मिलीग्राम अतिरिक्त लौह की आवश्यकता (iron requirement during pregnancy) होती है। हरी पत्तेदार सब्ज़ियां, काले किशमिश, खुबानी, लाल मांस, चिकन, खड़े मसूर, चना, राजमा वगैरह लौह के अच्छे स्रोत (soruces of iron) हैं।

आयोडीन (Iodene)

आयोडीन शिशु के मस्तिष्क के विकास (brain development fetus) के लिए आवश्यक है। गर्भवती महिलाओं को प्रतिदिन 200-220 माइक्रोग्राम अतिरिक्त आयोडीन की आवश्यकता होती है। आयोडीन युक्त नमक, समुद्री खाद्य पदार्थ, मछली, झींगा, दुग्ध उत्पाद इसके अच्छे स्रोत (Iodene sources) हैं।

विटामिन डी (Vitamin D)

विटामिन डी कैल्शियम के अवशोषण में मदद करता है और हड्डियों के स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण है। सूर्य का प्रकाश (Sunlight for vitamin D) (प्रतिदिन सुबह या शाम की धूप में 15-20 मिनट बिताना), मछली,  सैल्मन, मैकेरल, अंडे का पीला भाग इसके बढ़िया स्रोत (sources of vitamin D) हैं।

पानी

गर्भावस्था के दौरान पर्याप्त मात्रा में पानी पीना आवश्यक (hydration during pregnancy) है। प्रतिदिन कम से कम 3 लीटर (10-12 गिलास) पानी का सेवन करें। गर्मी के मौसम में 2 गिलास अतिरिक्त पानी पीना चाहिए। थोड़े-थोड़े अंतराल पर पानी, जूस या वेजिटेबल सूप पीते रहें।

कुछ सावधानियां

– कैफीन का सेवन सीमित करें प्रतिदिन 200 मिलीग्राम से अधिक कैफीन लेने से गर्भपात और शिशु के कम वजन वाला रह जाने का खतरा बढ़ सकता है (caffeine limit in pregnancy)

– मदिरा और धूम्रपान (alcohol and smoking risks pregnancy) शिशु के विकास पर नकारात्मक प्रभाव डालते हैं।

– कच्चे या अधपके खाद्य पदार्थों (raw food in pregnancy) से बचें।

– अत्यधिक मसालेदार, तले हुए खाद्य पदार्थों और पैक्ड प्रोसेस्ड भोजन से परहेज करें (avoid processed food in pregnancy), ये अपच और एसिडिटी का कारण बन सकते हैं।

गर्भावस्था के दौरान मानसिक स्वास्थ्य का ख्याल रखना उतना ही ज़रूरी है जितना शारीरिक स्वास्थ्य का (mental and emotional health during pregnancy)। यह न केवल मां के लिए, बल्कि शिशु के विकास और भावनात्मक सेहत के लिए भी महत्वपूर्ण है। इस दौरान तनाव, चिंता और मूड स्विंग्स होना आम बात है। इन्हें सही तरीके से मैनेज करना ज़रूरी है।

भारत को सतत विकास लक्ष्य-2 (‘भूख से मुक्ति’) को प्राप्त करने और 2030 तक सभी प्रकार की भूख और कुपोषण को समाप्त करने के लिए संतुलित आहार, उचित पोषण को हर महिला व शिशु तक पहुंचाकर कुपोषण व एनीमिया की व्यापकता को समाप्त करना होगा (SDG 2 Zero Hunger, nutrition targets India 2030)। इसके लिए समुदाय में जागरूकता बढ़ाना आवश्यक है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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निकोबार द्वीप समूह की कीमत पर विकास

डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

वृक्ष हमारे जीवन के लिए अत्यावश्यक हैं, इस बात पर दृढ़ विश्वास रखने वाले प्रसिद्ध वृक्ष प्रेमी और वृक्ष योद्धा श्री ‘वनजीवी’ रमैया (vanjeevi ramaiah) का पिछले महीने निधन हो गया। पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित इस शख्सियत ने तेलंगाना में एक करोड़ से अधिक पौध-रोप लगायीं (tree plantation in Telangana), ताकि हम प्रकृति के साथ सामंजस्य में रह सकें। लेकिन कांचा गच्चीबावली क्षेत्र को लेकर तेलंगाना राज्य सरकार और हैदराबाद विश्वविद्यालय के बीच मौजूदा विवाद ने रमैया को निराश ही किया होगा। विश्वविद्यालय चाहता है कि यह क्षेत्र एक हरे-भरे वन क्षेत्र (urban green space) के रूप में बना रहे, जिसमें निसर्ग की उपहार रूपी 700 किस्म की वनस्पतियां, 200 तरह के पक्षी और 10-20 स्तनधारी प्रजातियां संरक्षित रहें। लेकिन राज्य सरकार चाहती है कि इसमें क्षेत्र प्रौद्योगिकी पार्क (technology park development)  और ऐसे ही अन्य निर्माण किए जाएं। ज़मीन की यह ‘लड़ाई’ सर्वोच्च न्यायालय (Supreme Court case) तक पहुंच गई है, और हम न्यायलय के फैसले के मुंतज़िर हैं।

दुर्भाग्य से, भारत के कई अन्य राज्यों में भी यही हालात हैं। राज्य ऐसी वन भूमि पर हाई-टेक शहर (hi-tech city projects), फार्माश्युटिकल क्षेत्र, राजमार्ग, तेज़ रफ्तार ट्रेन ट्रैक और हवाई अड्डे निर्माण किए जा रहे हैं। हालांकि ये सभी निर्माण सार्वजनिक ज़रूरत के लिए ज़रूरी हैं, लेकिन सवाल यह है कि क्या इन ज़रूरतों की पूर्ति हरियाली, फूलदार पौधों (biodiversity loss) और इन पर निर्भर रहने वाले आदिवासी लोगों के विनाश की कीमत पर होना चाहिए? ऐसा करना क्या वनजीवी रमैया के कामों और विचारों के साथ विश्वासघात नहीं माना जाएगा?

हमने यहां ‘विश्वासघात’ शब्द प्रोफेसर पंकज सेकसरिया के नज़रिए से उपयोग किया है। पंकज सेकसरिया समाज, पर्यावरण (environmental justice), विज्ञान और प्रौद्योगिकी के बीच के जटिल सम्बंधों के साथ-साथ पर्यावरण और वन्यजीव संरक्षण को जानने-समझने का काम करते हैं, इस परिप्रेक्ष्य में उन्होंने निकोबार द्वीप समूह पर तीन दशकों से अधिक समय तक काम किया है। उन्होंने दी ग्रेट निकोबार बिट्रेयल नामक एक पुस्तक संकलित की है। इस पुस्तक में बताया गया है कि केंद्र सरकार ने प्रस्ताव दिया है कि वह किस तरह निकोबार द्वीप समूह का उपयोग कई उद्देश्यों के लिए करेगी: मालवाहक जहाज़ के लिए गैलाथिया खाड़ी में एक ट्रांस-शिपमेंट सुविधा (transshipment port project) बनेगी, एक अंतर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा (international airport construction) बनेगा और बिजली के लिए एक बिजली संयंत्र लगेगा। इसके अलावा, छुट्टियां बिताने और उपरोक्त परियोजनाओं के संचालन के लिए मुख्य भारत भूमि से लोगों को यहां बुलाया और बसाया जाएगा, जिससे यहां की आबादी 8000 (मूल निवासियों) से बढ़कर लगभग 3.5 लाख तक हो जाएगी। इस आबादी को बसाने के लिए एक ग्रीनफील्ड टाउनशिप (greenfield township) बनाने की योजना भी है।

पुस्तक में पारिस्थितिक भव्यता से सम्बंधित कई महत्वपूर्ण मुद्दे उठाए गए हैं, जो निकोबार द्वीप समूह की 2000 से अधिक जंतु प्रजातियों और 811 वनस्पति प्रजातियों के भविष्य और यहां के मूल निवासियों के भविष्य की चिंता से सम्बंधित हैं। ये सभी केंद्र सरकार द्वारा नियोजित ‘विकास’ से प्रभावित होंगे। इसके अलावा, मूल निकोबारी जनजातियों की आजीविका जंगलों पर निर्भर है, जंगल उनके लिए अनिवार्य हैं। लेकिन ‘विकास’ के चलते जैसे-जैसे वनों की कटाई के लिए भूमि का अधिग्रहण किया जाएगा, मूल निकोबारी जनजातियां – खासकर असुरक्षित आदिवासी समुदाय शोम्पेन (Shompen tribe displacement) – इससे प्रभावित होंगी। फिर, विकास के लिए समुद्र तट भी हथियाया जाएगा, इसके चलते समुद्र तट पर हर मौसम में पाए जाने वाले विशालकाय लेदरबैक कछुओं (leatherback turtles endangered) पर भी खतरा मंडराने लगेगा। आदिवासी कल्याण मंत्रालय ने इन चिंताओं पर अब तक कोई जवाब नहीं दिया है।

लेकिन, जनवरी 2023 में पूर्व लोक सेवकों के एक समूह ने भारत के राष्ट्रपति को पत्र लिखकर बताया था कि कैसे भारत सरकार विभिन्न दुर्लभ और देशज प्रजातियों के प्राचीन प्राकृतिक आवास को नष्ट करने पर उतारू है। आगे वे कहते हैं कि कैसे सरकार निकोबार से 2600 किलोमीटर दूर हरियाणा में जंगल लगाकर इस नुकसान की ‘क्षतिपूर्ति’ (forest offset policy) करेगी!

भारत विश्व के उन 200 देशों में से एक है जिन्होंने जैव विविधता समझौते (biodiversity agreement) पर हस्ताक्षर किए हैं। इसके तहत भारत अधिक पारिस्थितिक समग्रता वाले पारिस्थितिकी तंत्रों सहित उच्च जैव विविधता महत्व वाले क्षेत्रों के ह्रास (विनाश) को लगभग शून्य करने के लिए प्रतिबद्ध है। पूर्व लोक सेवकों का राष्ट्रपति और भारत सरकार से अनुरोध है कि वे ग्रेट निकोबार में शुरू की जा रही विनाशकारी परियोजनाओं को तुरंत रोक दें। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्या सिंधु नदी का पानी रोक पाना संभव और उचित है?

डॉ. इरफान ह्यूमन

सिंधु नदी (indus river) भारत की प्रमुख नदियों में से एक है, और दक्षिण एशिया (south asia) की सबसे महत्वपूर्ण नदियों में गिनी जाती है। यह तिब्बत की मानसरोवर झील के पास कैलाश पर्वत से निकलती है और जम्मू-कश्मीर, हिमाचल प्रदेश व पंजाब से होकर पाकिस्तान में प्रवेश करती है, जहां यह अरब सागर में मिलती है। इसकी कुल लंबाई लगभग 3180 किलोमीटर है।

1960 में भारत और पाकिस्तान के बीच सिंधु नदी के पानी के बंटवारे के लिए एक समझौता (Indus Water Treaty) हुआ था, जिसके तहत भारत को तीन पूर्वी नदियों (सतलुज, ब्यास, रावी) और पाकिस्तान को तीन पश्चिमी नदियों (सिंधु, चिनाब, झेलम) के पानी का अधिकांश उपयोग करने का अधिकार मिला। भारत ने 23 अप्रैल, 2025 को सिंधु जल समझौते को निलंबित करने की घोषणा की है, जिसके तहत सिंधु और इसकी सहायक नदियों (झेलम, चिनाब) के पानी को पाकिस्तान की ओर बहने पर नियंत्रण करने की योजना बनाई गई है। कारण है पिछले दिनों हुआ पहलगाम आतंकी हमला(Pahalgam terror attack)।

सवाल यह उठता है कि क्या सिंधु नदी के पानी को रोका जा सकता है? भारत से पाकिस्तान जाने वाली सिंधु नदी के पानी को पूरी तरह रोकना तकनीकी(engineering challenges), कानूनी(legal complications), और भौगोलिक दृष्टिकोण (geopolitical limitations)  से बेहद जटिल है और वर्तमान में पूरी तरह संभव नहीं है। हालांकि, भारत की घोषणा के बाद पानी के प्रवाह को नियंत्रित करने की संभावनाएं बढ़ी हैं। लेकिन हमें इसकी तकनीकी और बुनियादी ढांचे की सीमाओं को भी समझना होगा। साथ ही यदि ऐसा किया गया तो इससे पड़ने वाले पर्यावरणीय प्रभावों का भी आकलन करना होगा।

सिंधु नदी और इसकी सहायक नदियों (झेलम, चिनाब) पर भारत के मौजूदा बांध, जैसे सलाल, बगलिहार, और किशनगंगा, अधिकतर ‘रन-ऑफ-दी-रिवर’ जलविद्युत परियोजनाएं (hydropower projects) हैं। इनकी भंडारण क्षमता बहुत कम (लगभग 3.6 अरब घन मीटर) है, जिससे पानी को लंबे समय तक रोकना मुश्किल है। उदाहरण के लिए, विशेषज्ञों के अनुसार, भारत अधिकतम 9 दिन तक पानी रोक सकता है। मतलब भारत के पास बड़े बांधों की कमी एक बाधा है।

पानी को पूरी तरह रोकने या मोड़ने के लिए बड़े पैमाने पर बांध, जलाशय, और नहरों की आवश्यकता होगी। ऐसी परियोजनाओं को पूरा होने में 10 से 20 साल लग सकते हैं, क्योंकि यह भूकंप संवेदनशील क्षेत्रों और दुर्गम पहाड़ी क्षेत्रों में हैं। एक विशेष बात और, सिंधु नदी का भारी जल प्रवाह(monsoon river flow), खासकर मानसून के दौरान, रोकना असंभव है। बिना पर्याप्त बुनियादी ढांचे के पानी का अतिप्रवाह भारत में ही जलभराव या बाढ़ का कारण बन सकता है।

सिंधु जल समझौता (1960) (Indus Water Treaty 1960) के तहत भारत की पश्चिमी नदियां (सिंधु, झेलम, चिनाब) मुख्य रूप से पाकिस्तान को आवंटित हैं। भारत इनका गैर-खर्चीला उपयोग (जैसे जलविद्युत) कर सकता है, लेकिन प्रवाह को रोकने की अनुमति नहीं थी। अप्रैल 2025 में समझौते के निलंबन के बाद, भारत को कानूनी रूप से बांध बनाने या पानी रोकने की छूट मिल गई है, लेकिन यह निलंबन अंतर्राष्ट्रीय दबाव (global diplomatic pressure) का विषय हो सकता है। विश्व बैंक, जो समझौते का मध्यस्थ है, एवं अन्य वैश्विक मंच इस निलंबन पर सवाल उठा सकते हैं। पाकिस्तान ने पानी रोकने को ‘युद्ध का कृत्य’ करार दिया है, जिससे क्षेत्रीय तनाव बढ़ सकता है।

सिंधु नदी का पानी रोकने में चीन एक बड़ी समस्या बन सकता है। पानी रोकने से भारत-पाकिस्तान तनाव बढ़ेगा, और चीन ब्रह्मपुत्र नदी (Brahmaputra River) पर पानी रोक सकता है (क्योंकि सिंधु का उद्गम तिब्बत में है), जिससे भारत की 30 प्रतिशत ताज़ा पानी और 44 प्रतिशत जलविद्युत क्षमता प्रभावित हो सकती है। साथ ही हिमालयी क्षेत्र की नाज़ुक पारिस्थितिकी (fragile Himalayan ecology) को और भी नुकसान हो सकता है।

इस दिशा में भारत की वर्तमान रणनीति की बात करें तो भारत ने समझौते को निलंबित करने के बाद त्रिस्तरीय योजना (अल्पकालिक, मध्यकालिक, दीर्घकालिक) (short-term, mid-term, long-term strategy) बनाई है, जिसमें शामिल हैं – मौजूदा बांधों की भंडारण क्षमता बढ़ाना, जल प्रवाह डैटा साझा करना और सिल्ट (गाद) (glaical silt management) को बिना चेतावनी के छोड़ना, जो पाकिस्तान में नुकसान कर सकता है। जम्मू-कश्मीर में नई जलविद्युत परियोजनाओं (जैसे रातले, किशनगंगा) को तेज़ करना, जिन्हें पहले पाकिस्तान ने रोका था। बड़े बांध और नहरें बनाकर पानी को मोड़ना, जैसे मरुसुदर परियोजना, लेकिन यह लंबा समय लेगा। यदि देखा जाए तो भारत ने पहले ही रावी नदी का पानी शाहपुर-कांडी बैराज के माध्यम से रोक लिया है, जो समझौते के तहत उसका अधिकार था। यह पानी अब जम्मू-कश्मीर और पंजाब में उपयोग हो रहा है।

भारत से पाकिस्तान जाने वाली सिंधु नदी के पानी को रोकने की कोशिश से कई गंभीर पर्यावरणीय जोखिम (environmental risks) उत्पन्न हो सकते हैं, जो भारत, पाकिस्तान और क्षेत्रीय पारिस्थितिकी तंत्र पर व्यापक प्रभाव डाल सकते हैं। सबसे पहले बात करते हैं नदी के प्राकृतिक प्रवाह में व्यवधान की। बड़े बांध या जलाशय बनाकर पानी रोकने से सिंधु और इसकी सहायक नदियों (झेलम, चिनाब) का प्राकृतिक प्रवाह बाधित होगा। इसका दुष्प्रभाव यह होगा कि मछलियों (जैसे महसीर, हिल्सा) और अन्य जलीय प्रजातियों का प्रवास रुक सकता है, जिससे उनकी आबादी घटेगी। पाकिस्तान का सिंधु डेल्टा और भारत के जम्मू-कश्मीर, पंजाब की नदी पर निर्भर आर्द्रभूमि और डेल्टा क्षेत्र सूख सकते हैं, जिससे जैव-विविधता नष्ट (biodiversity loss) हो सकती है।

दूसरा सबसे बड़ा खतरा है भारत में जलभराव और बाढ़ का। भारत के पास पानी भंडारण की सीमित क्षमता है। पानी रोकने से मानसून के दौरान जम्मू-कश्मीर और लद्दाख में जलभराव या बाढ़ हो सकती है, जिससे कृषि भूमि, बस्तियों, और बुनियादी ढांचे को बड़ा नुकसान हो सकता है। वहीं, मिट्टी का कटाव और गाद जमा होने से बांधों की दक्षता कम हो सकती है। यहां एक बड़ा खतरा जैव-विविधता के नुकसान का है, क्योंकि पानी का प्रवाह कम होने से नदी पर निर्भर प्रजातियां और उनके आवास नष्ट हो सकते हैं, जिससे इंडस रिवर डॉल्फिन (Indus River Dolphin – endangered species) (पाकिस्तान में लुप्तप्राय) और अन्य जलीय जीव विलुप्त हो सकते हैं। इसके साथ प्रवासी पक्षी (जैसे साइबेरियन क्रेन) और नदी किनारे की वनस्पतियां प्रभावित हो सकती हैं।

इस कृत्य से मिट्टी और जल की गुणवत्ता पर असर पड़ सकता है, जिससे पानी रोकने से जलाशयों में गाद जमा होगी और नदी में प्रदूषण की सांद्रता बढ़ेगी। गाद जमा होने से भारत के जलाशयों की क्षमता और जल की गुणवत्ता कम होगी। वहीं, पाकिस्तान में कम पानी के कारण प्रदूषक (औद्योगिक और घरेलू) अधिक सघन होंगे, जिससे सिंचाई और पेयजल की गुणवत्ता प्रभावित होगी। यह समस्या मिट्टी की उर्वरता में कमी तक सीमित नहीं रहेगी बल्कि इससे अनेक स्वास्थ्य समस्याएं जन्म लेंगी। सिंधु नदी पर पाकिस्तान की 80 प्रतिशत कृषि और 90 प्रतिशत खाद्य उत्पादन निर्भर है। पानी कम होने से सूखा (drought) और मरुस्थलीकरण बढ़ेगा। सिंधु डेल्टा के सूखने के साथ समुद्र के खारे पानी का अतिक्रमण (saltwater intrusion) होगा, जिससे तटीय पारिस्थितिकी नष्ट होने की कगार पर पहुंच सकती है। इसके दीर्घकालिक जोखिम के चलते बड़े क्षेत्र बंजर हो सकते हैं।

सिंधु नदी हिमालयी ग्लेशियरों (Himalayan glaciers) पर निर्भर है, जो जलवायु परिवर्तन (climate change impact) के कारण तेज़ी से पिघल रहे हैं। अनुमान है कि 1900 से अब तक हिमालय के ग्लेशियर 30-50 प्रतिशत सिकुड़ चुके हैं, और 2100 तक 66 प्रतिशत तक गायब हो सकते हैं। पानी रोकने से जल प्रवाह और भी अनिश्चित हो जाएगा। बड़े बांध और जलाशय स्थानीय जलवायु को प्रभावित कर सकते हैं, जिससे हिमालयी क्षेत्र में तापमान बढ़ सकता है। इससे ग्लेशियर और तेज़ी से पिघलेंगे, जिससे दीर्घकालिक जल संकट उत्पन्न हो सकता है, क्योंकि ग्लेशियरों का जल भंडार समाप्त हो जाएगा। जलाशयों में जैविक पदार्थों के सड़ने से मीथेन (एक शक्तिशाली ग्रीनहाउस गैस) (methane emission) का उत्सर्जन बढ़ेगा, जो जलवायु परिवर्तन को और तेज़ करेगा। इससे वैश्विक तापमान और हिमालयी पारिस्थितिकी पर दबाव में वृद्धि होगी।

सिंधु नदी का पानी रोकने के लिए बनाए जाने वाले बड़े-बड़े बांधों से भूकंपीय जोखिम पैदा हो सकता है; वैसे भी जम्मू-काश्मीर जैसे भूकंप संवेदनशील क्षेत्रों में बड़े बांध बनाना खतरनाक सिद्ध हो सकता है। भूकंप से बांध टूटने का खतरा बना रहेगा, जिससे बाढ़ और तबाही हो सकती है। जलाशयों का वज़न ‘प्रेरित भूकंप’ को ट्रिगर कर सकता है। यदि देखा जाए तो हिमालयी क्षेत्र में पहले से ही भूकंपीय गतिविधियां उच्च हैं। सारतः सिंधु नदी का पानी रोकना भारत और पकिस्तान, दोनों के लिए पर्यावरणीय और सामाजिक जोखिम (environmental and geopolitical risks) भरा सिद्ध हो सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पत्ती है या पतंगा?

हां दी गई तस्वीर को ध्यान से देखिए। आपके ख्याल से यह किसकी तस्वीर है? यदि आपका कहना है कि यह तो किसी सूखी सी, मुड़ी हुई पत्ती की तस्वीर है तो इस कीट की युक्ति सफल हुई है और आप धोखा खा गए हैं। वास्तव में, इस तस्वीर में जो दिखाई दे रहा है वह कोई पत्ती नहीं बल्कि एक तरह का पतंगा (Eudocima salaminia) (camouflage moth) है। इस पतंगे के पत्ती सरीखे शरीर का उद्देश्य ही है अपने शिकारियों को चकमा देना ([mimicry in insects], [natural camouflage]) और उनसे बचना। और, मज़ेदार बात यह है कि सिर्फ हम-आप या इसके शिकारी ही नहीं बल्कि एआई (कृत्रिम बुद्धि – artificial intelligence) भी इसके इस रूप-रंग के कारण धोखा खा गया और इसे पत्ती या पेड़ की छाल मान बैठा।

बताते चलें कि यह पत्तीरूपिया पतंगा मुख्यत: भारत और दक्षिण-पूर्व एशिया (India and Southeast Asia insects) में पाया जाता है, और साइट्रस फलों (जैसे नींबू, संतरा, मौसंबी) को पसंद करता है।

अब आते हैं इस बात पर कि एआई ने इसे कहां देख लिया और कैसे धोखा खा गया। असल में शोधकर्ता डीप लर्निंग एआई (deep learning model, AI in biology) से छद्मावरणधारी छह तरह के पतंगों की 3-डी तस्वीर बनवाना चाह रहे थे। इसके लिए उन्होंने पैटर्न पहचानने में दक्षता रखने वाले एक डीप लर्निंग एआई को जानकारी के तौर पर उन्हीं पतंगों की 2-डी तस्वीरें दिखाई जिनकी 3-डी तस्वीर उन्हें बनवानी थी। इन्हीं छह पतंगों में Eudocima salaminia पतंगे की तस्वीरें भी शामिल थीं।

बस यहीं एआई पतंगे के शरीर का पैटर्न समझने में धोखा खा गया और उसने Eudocima salaminia की पतंगेनुमा तस्वीर बनाने की बजाय मुड़े हुए पत्ते या पेड़ की छाल जैसी 3-डी छवियां बना डालीं। यह खबर शोधकर्ताओं ने जर्नल ऑफ दी रॉयल सोसाइटी इंटरफेस (journal of royal society interface) में प्रकाशित की है।

अब आगे वैज्ञानिक एआई को अलग-अलग दिशा से आती रोशनी में खींची गई और अलग-अलग पृष्ठभूमि में खींची गई तस्वीरें दिखा कर देखना चाहते हैं कि क्या इन प्राकृतिक परिवेश (natural environments) में भी एआई धोखा खाता है या पत्ती और पतंगे में भेद कर पाता है। साथ ही वे शिकारियों को धोखा देने के उद्देश्य के अलावा अन्य उद्देश्य से छद्मावरण धारण करने वाले विभिन्न जीवों पर भी ऐसे प्रयोग करके देखना चाहते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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प्रकृति के रहस्यों की खोज

सत्यवती एम. सिरसाट

सत्यवती एम. सिरसाट
(अक्टूबर 1925 – जुलाई 2010)

पने बारे में लिखने बैठें, तो बचपन से जुड़े अनुभव और यादें उभर ही आती हैं। मेरा जन्म कराची में हुआ था, और मेरे पिता के शिपिंग व्यवसाय के कारण हम कई देशों में भटक ते रहे। मेरे माता-पिता कट्टर थियोसॉफिस्ट (theosophist) थे इसलिए उन्होंने मुझे बेसेंट मेमोरियल स्कूल में भेजा, जिसे डॉ. जॉर्ज और रुक्मणी अरुंडेल चलाते थे। रुक्मणी ने कलाक्षेत्र में रहते हुए प्राचीन भारतीय कला (ancient indian art) और संगीत का पुनर्जागरण किया था। किशोरावस्था में मैंने पॉल डी क्रुइफ की किताब दी माइक्रोब हंटर्स पढ़ी, जिसने मुझ पर गहरा प्रभाव डाला। औपचारिक शिक्षा के साथ मुझे सांस्कृतिक धरोहर का भी लाभ मिला। मैंने मुंबई के सेंट ज़ेवियर्स कॉलेज से माइक्रोबायोलॉजी (Microbiology Degree) में डिग्री प्राप्त की। पहली बार जब मैंने प्रकाशीय सूक्ष्मदर्शी (Light Microscope) से ग्राम पॉज़िटिव व ग्राम नेगेटिव जीवाणुओं (Gram Positive and Gram Negative Bacteria) की मिली-जुली स्लाइड देखी तो मुझे ऐसा जज़बाती रोमांच हुआ जिसे मैं कभी भूल नहीं सकती।

डिग्री प्राप्त करने के अगले ही दिन मैं बिना सोचे-समझे प्रयोगशाला के अध्यक्ष और टाटा मेमोरियल हॉस्पिटल (Tata Memorial Hospital) के प्रमुख पैथोलॉजिस्ट (कैंसर और सम्बंधित रोग) (Pathologist for Cancer)  डॉ. वी. आर. खानोलकर के कार्यालय के बाहर खड़ी थी। न कोई फोन कॉल, न कोई अपॉइंटमेंट – मैं तो बस उनसे मुलाकात के इंतज़ार में खड़ी रही। करीब दो घंटे बाद उन्होंने मुझे अंदर बुलाया और लंबी बातचीत की। मुझे नहीं पता था कि यह उनका युवाओं का साक्षात्कार लेने का तरीका था। अंत में उन्होंने मुझसे पूछा कि अभी जिस बारे में बातचीत हुई है, क्या मैं वह सब संभाल पाऊंगी। मैंने युवा अक्खड़पन के साथ कहा, “बिलकुल!” और इस तरह मेरे विज्ञान के जीवन की शुरुआत हुई!

डॉ. खानोलकर बहुआयामी व्यक्तित्व थे। वे एक चिकित्सक थे जिनमें वैज्ञानिक सोच (Scientific Temperament)  तो स्वाभाविक रूप से थी। साथ ही वे कला प्रेमी, भाषाविद और कई भाषाओं के साहित्य के विद्वान भी थे। मैंने उनसे व्यापक वैज्ञानिक और कलात्मक दृष्टिकोण सीखा।

1948 में, भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय ने टाटा मेमोरियल के पैथोलॉजी विभाग को एक पूर्ण कैंसर अनुसंधान संस्थान (Cancer Research Institute)  बनाने का निर्णय लिया। एक वरिष्ठ शोध छात्र से ऊपर उठकर मैं इस नए शोध केंद्र की संस्थापक सदस्य बनी। हम तीन लोगों को विदेश भेजा गया ताकि हम जैव-चिकित्सा अनुसंधान (Biomedical Research) में उपयोगी नई तकनीकों जैसे जेनेटिक्स (Genetics), टिशू कल्चर (Tissue Culture) और इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोपी (Electron Microscopy) सीखकर लौटें। विज्ञान के दिग्गजों – हैंसस सेलिये, अल्बर्ट ज़ेंट-गेओरगी, लायनस पॉलिंग, एलेक्स हैडो, चार्ल्स ओबरलिंग और विलियम ऐस्टबरी – की प्रयोगशालाओं में काम करके विज्ञान की विधियों के साथ-साथ, मैंने वह वैज्ञानिक तहजीब भी सीखी जो आधुनिक जैव-चिकित्सा अनुसंधान के लिए आवश्यक है।

लौटकर मैंने अल्ट्रास्ट्रक्चरल सायटोलॉजी और डायग्नोस्टिक मॉलिक्यूलर पैथोलॉजी (Molecular Pathology) में भारत की पहली बायोमेडिकल प्रयोगशाला स्थापित की। इस केंद्र में विद्यार्थियों की भीड़ जुटने लगी, और यह अपने काम के लिए दुनिया भर में प्रसिद्ध हो गया। इस प्रयोगशाला में हमने कोशिका झिल्ली के सामान्य से असामान्य में परिवर्तित होने, कैंसर, जंक्शनल कॉम्प्लेक्स और कैंसर के फैलाव, वायरस, रक्त, स्तन और नाक के कैंसर पर अध्ययन किए। हमारा मुख्य ध्यान मुंह के कैंसर (Oral Cancer from Tobacco) की कैंसर-पूर्व स्थितियों (Oral Pre-Cancer), जैसे ल्यूकोप्लाकिया (Leukoplakia) और ओरल सबम्यूकस फाइब्रोसिस (Oral Submucous Fibrosis) तथा, सच कहूं तो, भारत में पान और तंबाकू के सेवन से फैलने वाले मुंह के कैंसर पर था। प्रयोगशाला में प्रशिक्षित शोधार्थियों को औपचारिक वैज्ञानिक प्रशिक्षण के साथ-साथ और भी बहुत कुछ सीखने को मिला। जब बॉम्बे युनिवर्सिटी ने लाइफ साइंसेज़ में स्नातक और स्नातकोत्तर कार्यक्रम शुरू किए तो यह एक वरदान था।

मैं हमेशा अस्पताल के गलियारों में पीड़ित मानवता के प्रति जागरूक रही। हम अपने काम के वैज्ञानिक पहलुओं (जैसे इलेक्ट्रॉन हिस्टोकेमिस्ट्री, इम्यून इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोपी, इलेक्ट्रॉन ऑटोरेडियोग्राफी, क्रायोइलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोपी) के साथ-साथ मानवीय पक्ष को लेकर भी सचेत थे। कैंसर रोगियों के जीवन और उनकी मृत्यु की निकटता ने मुझे शांति अवेदना आश्रम – भारत का पहला हॉस्पाइस (India’s First Hospice) (मरणासन्न रोगियों का आश्रय) – शुरू करने के लिए प्रेरित किया। मैं इस संस्थान की संस्थापक ट्रस्टी और काउंसलर रही।

मैं यह बता चुकी हूं कि कैसे युवावस्था में रोमांस और यथार्थ ने मेरे मन पर गहरा प्रभाव डाला और मुझे इस रास्ते पर धकेल दिया। जहां तक मार्गदर्शकों की बात है, मेरे पहले गुरु मेरे पिता थे। वे स्वभाव से एक अध्येता थे जिन्होंने शुरुआत सेंट ज़ेवियर कॉलेज में अंग्रेज़ी के प्रोफेसर के रूप में की थी, लेकिन बाद में शिपिंग के क्षेत्र में चले गए। वे खूब पढ़ते थे और संस्कृत के विद्वान थे। ये गुण उन्होंने अपने बच्चों को भी दिए। वे लेखक भी थे।

वैज्ञानिक जीवन में मेरे पहले मार्गदर्शक डॉ. खानोलकर थे, और दूसरे मेरे पति, डॉ. एम. वी. सिरसाट, जिन्होंने मेरे जीवन में बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। हमारे बीच उम्र का काफी अंतर था, लेकिन वे मेरे दोस्त, दार्शनिक और मार्गदर्शक थे। वे एक अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर जाने-माने ऑन्को-पैथोलॉजिस्ट (कैंसर-निदान विशेषज्ञ) (Onco-Pathologist)  थे, जो सामान्य से रोगग्रस्त अवस्था की ओर संक्रमण, विशेषकर नियोप्लेसिया और दुर्दम्यता (मैलिगनेंसी) के संदर्भ में गहन जानकारी रखते थे। वे नौजवान पैथोलॉजिस्ट्स के बीच बेहद लोकप्रिय शिक्षक थे। जब भी मुझे इस भयावह बीमारी (Cancer Diagnosis) की जटिलताओं से जूझना पड़ता, वे इसे धैर्य और स्नेह से हल कर देते। हमारा यह साथ काफी अद्भुत था। उन्होंने मेरे शोध को हर संभव समर्थन दिया और मेरी पेशेवर उपलब्धियों पर गर्व महसूस किया।

क्या मैंने कभी अपना करियर बदलने पर विचार किया? नहीं, कभी नहीं! मैं कभी भी अपने पेशे को बदलने के बारे में सोच नहीं सकी। यह सिर्फ एक नौकरी नहीं थी, यह टाटा मेमोरियल सेंटर और पूरी दुनिया की प्रयोगशालाओं में मेरी साधना और तपस्या थी। यह मेरे काम के साथ एक “प्रेम कहानी” (Passion for Science Career) थी, जिसमें मैंने जो ज्ञान अर्जित किया, उसे भारत और दक्षिण-पूर्व एशिया के सैकड़ों विद्यार्थियों तक पहुंचाया।

सेवानिवृत्त के बाद भी मैं टाटा मेमोरियल सेंटर की मेडिकल एथिक्स कमेटी (Medical Ethics Committee)  के अध्यक्ष के रूप में काम करती रही। मैंने 17 साल तक भारतीय विद्या भवन आयुर्वेदिक केंद्र में ‘प्राचीन ज्ञान और आधुनिक खोज’ पर काम किया। इस कार्य में संस्कृत के ज्ञान ने मेरी काफी मदद की। मैंने वृद्धात्रयी – चरक, सुश्रुत और वाग्भट में कैंसर वर्गीकरण (Cancer Classification in Ayurveda)  के एक प्रोजेक्ट पर काम किया। यह देखकर हैरानी होती है कि इन प्राचीन विद्वानों के विवरण आधुनिक विज्ञान से कितनी अच्छी तरह मेल खाते हैं। उन्हें विभिन्न ऊतकों (टिश्यू) के ट्यूमर और उनके जैविक व्यवहार, सौम्य और घातक (Benign and Malignant Tumors) (बेनाइन और मैलिग्नेंट) कैंसर तथा हड्डी और रक्त कैंसर (Bone and Blood Cancer) के बारे में गहरी जानकारी थी। उनके पास तो केवल मानव शरीर, मृत व्यक्ति का बारीकी से निरीक्षण तथा उनका अंतर्ज्ञान ही एकमात्र साधन था।

आखिर में युवा वैज्ञानिकों के लिए कुछ बातें: क्या आप एक सम्मानित वैज्ञानिक कहलाना चाहते हैं? जीवन के सिद्धांत सख्त होते हैं! अपने काम के प्रति ईमानदार रहें और खुद से सच्चे रहें। अनुशासन बनाए रखें। अपने साथी वैज्ञानिकों के काम का कभी अपमान न करें। सतर्क रहें – अपनी लॉगबुक या रिकॉर्ड में किसी पहले से तय सिद्धांत के अनुसार कभी हेरा-फेरी न करें। सबसे ज़रूरी, जीवन सीखने के लिए है – तो सीखते रहिए, सीखते रहिए और सीखते रहिए! आप बहुत रोमांचक यात्रा पर हैं – वह यात्रा है प्रकृति के रहस्यों की खोजबीन की यात्रा! (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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महामारी संधि के लिए एकजुटता, अमेरिका बाहर

तीन साल की बातचीत के बाद, दुनिया के देशों ने आखिरकार एक ऐतिहासिक संधि पर सहमति जताई है, जिसका उद्देश्य भविष्य की महामारियों (pandemic treaty) के लिए बेहतर तैयारी करना है। विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) द्वारा समर्थित नई वैश्विक संधि, कोविड-19 (covid-19) महामारी के दौरान हुई गलतियों से सीखकर, खासकर टीकों (vaccines), दवाओं (drugs) और सूचनाओं के आदान-प्रदान को बेहतर बनाने की कोशिश है।

संधि का मुख्य उद्देश्य महामारी से निपटने के तरीकों को त्वरित और निष्पक्ष बनाना है एवं देशों को एकजुट करना है। गौरतलब है कि इस समझौते से एक महत्वपूर्ण पक्ष, यानी अमेरिका, गायब है। शुरुआती बातचीत में अहम भूमिका निभाने के बावजूद, अमेरिका ने इन वार्ताओं से दूरी बना ली है। फिर भी, अधिकांश देशों ने लोगों की भलाई के लिए समझौता वार्ता को जारी रखा। संधि की कुछ मुख्य बातें यहां दी प्रस्तुत हैं।

स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं की सुरक्षा

संधि की पहली सहमति स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को बेहतर सुरक्षा देने से सम्बंधित है। कोविड-19 संकट के दौरान, अग्रिम पंक्ति (healthcare frontline workers) के कई कार्यकर्ताओं (डॉक्टर, नर्स, लैब तकनीशियन वगैरह) को व्यक्तिगत सुरक्षा उपकरणों (PPE) की गंभीर कमी का सामना करना पड़ा था। संधि में इन अग्रिम पंक्ति कार्यकर्ताओं के लिए बेहतर नीतियां बनाने की बात की गई है ताकि उन्हें सही उपकरण, प्रशिक्षण और समर्थन मिल सके। उनकी सुरक्षा महत्वपूर्ण है क्योंकि अगर स्वास्थ्य कार्यकर्ता बीमार पड़ते हैं तो पूरी स्वास्थ्य प्रणाली ठप हो जाती है।

नए टीकों दवाओं को मंज़ूरी

संधि देशों से आव्हान करती है कि नए टीकों और दवाओं के परीक्षण और मंज़ूरी प्रक्रिया को, सुरक्षा से समझौता किए बगैर, गति दें। इसका उद्देश्य वैश्विक प्रणाली को अधिक प्रभावी बनाना है ताकि जीवन रक्षक उपचार (emergency vaccine approval) लोगों तक जल्दी पहुंच सकें। इसके लिए संधि में देशों को अपनी दवा नियामक प्रणालियां मज़बूत करने का सुझाव दिया गया है।

छलकने को थामना

कई महामारियां, जैसे कोविड-19, तब शुरू हुईं जब वायरस जीवों से मनुष्यों में पहुंचे। इसे (छलकना) ‘स्पिलओवर’ कहा जाता है। संधि में ऐसे स्पिलओवर का खतरे कम करने के लिए अधिक निवेश का सुझाव है। इसमें जंतुओं में रोगों की निगरानी, वन्यजीव व्यापार पर सख्त नियंत्रण और जीवित जंतुओं के बाज़ारों में स्वच्छता और निगरानी में सुधार शामिल है।

त्वरित डैटा साझेदारी

कोविड-19 के दौरान, वायरस के नमूनों और जेनेटिक जानकारी साझा करने में देरी से टीकों और परीक्षणों के विकास में बाधा आई। संधि में देशों से नए वायरसों और बैक्टीरिया के बारे में जानकारी तुरंत और सार्वजनिक करने (real-time data sharing) की अपील की गई है, ताकि दुनिया भर के वैज्ञानिक मिलकर उपचार विकसित कर सकें।

पहुंच में समता

पिछली महामारी में, समृद्ध देशों ने ज़रूरत से ज़्यादा टीके जमा कर लिए थे, जबकि गरीब देशों को बहुत लंबा इंतज़ार करना पड़ा था। अमीर हो या गरीब, संधि सभी देशों को टीका, उपचार और निदान (vaccine quity) का उचित हिस्सा, उचित समय पर देने की बात करती है। संधि में उत्पादकों को टीकों वगैरह का एक हिस्सा आपातकालीन स्थितियों में आपूर्ति हेतु दान करने या सस्ती कीमतों पर उपलब्ध कराने के लिए प्रोत्साहित किया गया है।

इस संधि की मुख्य बात यह है कि यह कोविड-19 महामारी के अनुभव से जन्मी है। जिन देशों के पास टीका कारखाने थे, उनके पास टीकों की भरपूर खुराकें थीं, जबकि गरीब देशों को टीके मुश्किल से मिल रहे थे। यदि टीकों का समान वितरण होता तो लाखों संक्रमण और जानें बचाई जा सकती थीं। इसी समस्या के मद्देनज़र, WHO के 194 सदस्य देशों ने दिसंबर 2021 में एक वैश्विक संधि का मसौदा (draft pandemic accord) तैयार करना शुरू किया, ताकि भविष्य में ऐसी दिक्कतों से बचा जा सके।

संधि पर सहमति तक पहुंचना आसान नहीं था। वार्ता में सबसे मुश्किल मुद्दा समानता का था: यह कैसे सुनिश्चित किया जाए कि जो गरीब देश खतरनाक वायरस की जानकारी साझा करें, उन्हें उस जानकारी के आधार पर विकसित टीकों और उपचारों तक भी समान पहुंच मिले। इससे एक नया सिस्टम बना – रोगजनकों तक पहुंच व लाभों की साझेदारी (Pathogen Access and Benefit Sharing  – PABS)। इसे इस तरह समझें: अगर कोई देश नया वायरस खोजता है और उसे पूरी दुनिया वैज्ञानिकों के साथ साझा करता है तो उसे इसके खिलाफ विकसित टीकों व दवाइयों का एक उचित हिस्सा मिलना चाहिए। न सिर्फ टीके मिलना चाहिए बल्कि टीका तैयार करने की विधि भी मिलना चाहिए ताकि ऐसे देश खुद अपना टीका बना सकें।

एक और प्रमुख बहस प्रौद्योगिकी हस्तांतरण के बारे में थी। इसका उद्देश्य विकासशील देशों को अपनी खुद की दवाइयां और टीके बनाने के लिए सहायता प्रदान करना है। कई निम्न-आय वाले देशों का मानना था कि उन्हें भविष्य में महामारी के दौरान समृद्ध देशों पर निर्भर नहीं रहना चाहिए, और उन्हें खुद को आत्मनिर्भर बनाना चाहिए।

लेकिन यह कैसे हो? प्रारंभिक मसौदों में कहा गया था कि प्रौद्योगिकी “आपसी सहमति से तय शर्तों” पर साझा की जाएगी। हालांकि, कुछ समृद्ध देशों ने इसमें “स्वैच्छिक” शब्द जोड़ने की इच्छा जताई, जिसका मतलब था कि किसी भी देश को प्रौद्योगिकी साझा करने के लिए मजबूर नहीं किया जा सकता। गरीब देशों के लिए यह अस्वीकार्य था क्योंकि उन्हें डर था कि इससे संधि कमज़ोर हो जाएगी और भविष्य के लिए गलत मिसाल बनेगी। लंबी चर्चाओं के बाद, दोनों पक्षों ने “आपसी सहमति से तय शर्तों” शब्द को बरकरार रखा और एक फुटनोट जोड़ा, जिसमें यह स्पष्ट किया गया कि इसका मतलब “इच्छा से लिया गया” है।

संधि के अंतिम संस्करण में निर्माताओं (दवा और टीका निर्माताओं) (vaccine manufacturers commitment) ने यह संकल्प लिया है: अपने महामारी उत्पादों (टीकों, दवाइयों, नैदानिक परीक्षणों) का 10 प्रतिशत हिस्सा WHO को वैश्विक वितरण के लिए दान करेंगे; इसके अलावा, 10 प्रतिशत सस्ती कीमतों पर ज़रूरतमंद देशों को उपलब्ध कराएंगे। अगले वर्ष इन प्रतिशतों पर अंतिम सहमति बनने के बाद ही सारे देश संधि पर हस्ताक्षर करेंगे।

इस संधि में कुछ कमियां भी लगती हैं; जैसे इसमें देशों के लिए नियम नहीं हैं, यह महज़ दिशानिर्देश देती है। फिर भी, केवल तीन वर्षों में एक नया अंतर्राष्ट्रीय समझौता (international health agreement) बनाना बड़ी बात है। सामान्यत: ऐसे समझौते बनाने में ज़्यादा समय लगता है। बहरहाल, संधि के अंतिम रूप में पहुंचने और मंज़ूरी का बेसब्री से इंतज़ार है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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दुनिया भर की मिट्टी में विषैली धातुएं

ज़ारों सालों से इंसान ज़मीन ने धातुएं निकालकर तरह-तरह के औज़ार और उपकरण बनाते आए हैं – पुराने तांबे-कांसे-लोहे के औज़ारों से लेकर वर्तमान जटिल इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों तक (heavy metals in soil)। लेकिन इस तरक्की की एक भारी कीमत भी चुकानी पड़ी है: मृदा में ज़हरीली धातुओं का संदूषण(soil contamination)। हाल ही में वैज्ञानिकों बताया है कि पृथ्वी की ऊपरी मृदा (टॉप-सॉइल) का एक बड़ा हिस्सा ज़हरीली धातुओं से संदूषित है। यह संदूषण लगभग एक से डेढ़ अरब लोगों के लिए खतरा बन सकता है (toxic metals health risk)।

साइंस पत्रिका में प्रकाशित यह अध्ययन वैश्विक स्तर पर मृदा में मौजूद ज़हरीली धातुओं का पहला व्यापक विश्लेषण (global soil pollution study) है। इसमें दुनिया भर से जुटाए गए लगभग 8 लाख मृदा नमूनों का डैटा इस्तेमाल किया गया है। अध्ययन के अनुसार दक्षिणी युरोप से चीन तक फैले एक बड़े इलाके और अफ्रीका तथा अमेरिका के कई हिस्सों में मृदा खतरनाक स्तर तक संदूषित है। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि दुनिया की 14-17 प्रतिशत कृष्य भूमि इससे प्रभावित है, जिससे लोगों की सेहत और खाद्य सुरक्षा दोनों पर असर पड़ेगा (agricultural land contamination)।

गौरतलब है कि आर्सेनिक, कैडमियम, सीसा जैसी ज़हरीली धातुएं इंसानी सेहत के लिए अत्यंत नुकसानदायक होती हैं (arsenic cadmium lead effects)। ये कैंसर, दिल और फेफड़ों की बीमारियों के साथ-साथ बच्चों के मानसिक विकास में रुकावट पैदा कर सकती हैं। थोड़ी मात्रा में तो ये धातुएं मृदा में प्राकृतिक रूप से होती हैं, लेकिन खनन, धातु संगलन जैसी गतिविधियों से इनकी मात्रा बहुत बढ़ जाती है (metal mining pollution)।

वैश्विक स्तर पर इनका प्रसार जानने के लिए ज़िंगहुआ विश्वविद्यालय के वैज्ञानिक डेयी हॉउ के दल ने मृदा में ज़हरीली धातुओं पर हुए 1493 अध्ययनों से डैटा जुटाया। फिर मशीन लर्निंग तकनीक की मदद से उन्होंने उन इलाकों में भी धातुओं की मौजूदगी का अनुमान लगाया, जहां इस तरह के अध्ययन नहीं हुए थे (AI in environmental research)। इस तरह से तैयार विस्तृत वैश्विक नक्शा दर्शाता है कि विश्व के किन-किन हिस्सों में मृदा में खतरनाक मात्रा में ज़हरीली धातुएं हो सकती हैं।

इस अध्ययन में पाया गया कि कैडमियम सबसे व्यापक रूप से फैली संदूषक (cadmium soil levels) है – लगभग 9 प्रतिशत ऊपरी मृदा में इसका स्तर उच्च पाया गया। कैडमियम प्राकृतिक रूप से चट्टानों के अपरदन और इंसानी गतिविधियों, जैसे ज़िंक खनन और बैटरी उत्पादन से आती है। इसका मिट्टी में मिलना खास तौर पर चिंताजनक है क्योंकि यह आसानी से फैलती है और खाद्य शृंखला (food chain contamination) में प्रवेश कर सकती है।

हालांकि मृदा में धातु संदूषण से खतरा इस बात पर निर्भर करता है कि पौधे इन धातुओं को कितनी आसानी से अवशोषित करते हैं। उदाहरण के लिए, क्षारीय या चूनेदार मृदा में, कैडमियम जैसी धातुएं फसलों द्वारा कम अवशोषित होती हैं। फिर भी, वैज्ञानिक अधिक शोध पर ज़ोर देते हैं। वे विशेष रूप से यह समझना चाहते हैं कि ये धातुएं विभिन्न प्रकार की मृदाओं में कैसे व्यवहार (metal uptake in plants) करती हैं।

इस अध्ययन की एक सीमा भी है: इसमें धातुओं के अलग-अलग यौगिकों का विश्लेषण नहीं किया गया जिससे यह निर्धारित किया जा सके कि वे कितनी विषैली हैं। केवल जैविक रूप से उपलब्ध धातुएं, जिन्हें पौधे और जीव अवशोषित कर सकते हैं, ही गंभीर खतरा होती हैं। फिर भी, इन निष्कर्षों को नज़रअंदाज़ नहीं किया जाना चाहिए।

इस अध्ययन में पहचाने गए सबसे अधिक जोखिम वाले क्षेत्र (high risk zones soil pollution) हैं दक्षिणी चीन, उत्तरी भारत, और मध्य पूर्व। सबसे हैरत की बात धातु संदूषण के प्रसार का एक गलियारा है जो दक्षिण युरोप से लेकर पूर्वी एशिया तक फैला है। यह गलियारा विश्व की कुछ सबसे प्राचीन सभ्यताओं से होकर गुज़रता है जहां खनन, उद्योग और बदलते मौसमों का लंबा इतिहास रहा है। यहां की कुछ मृदाएं क्षारीय हैं और विषाक्तता को कम कर सकती हैं। समग्र चित्र दर्शाता है कि यह मानव द्वारा पृथ्वी की सतह पर गहरा प्रभाव डालने का परिणाम है। बहरहाल, दुनिया को बैटरी और सौर पैनलों जैसी हरित प्रौद्योगिकियों (green technology metals demand) के लिए अधिक धातुओं की आवश्यकता है; इससे मृदा संदूषण का जोखिम बढ़ सकता है। अध्ययन के लेखकों ने सरकारों से अनुरोध किया है कि वे मृदा की जांच बढ़ाएं, विशेष रूप से अफ्रीका के उप-सहारा क्षेत्रों जैसी जगहों में जहां अध्ययन कम हुए हैं। कुल मिलाकर यह अध्ययन दर्शाता है कि हमारे पैरों तले की ज़मीन उतनी सुरक्षित नहीं है जितना हम सोचते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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कोलोसल स्क्विड को जीवित देखा गया

रीब एक सदी से वैज्ञानिकों को एक जीव की तलाश थी – यह जीव था एक प्रकार का स्क्विड (Mesonychoteuthis hamiltoni) (colossal squid)। हाल ही में शोधकर्ता इस आधा टन वज़नी स्क्विड को उसके अपने प्राकृतवास में जीवित देख पाए हैं। और तो और, उन्होंने इसे इसकी शैशवावस्था (baby colossal squid) में देखा है।

दरअसल, करीब सौ साल पहले वैज्ञानिकों ने स्पर्म व्हेल के पेट में पहली बार इस स्क्विड (कोलोसल स्क्विड) के अवशेषों को देखा था (deep sea creatures)। तब से उन्हें इसकी तलाश थी। हालांकि मछुआरों द्वारा मछली पकड़ने के लिए फेंके गए जाल में कभी-कभी ये स्क्विड भी फंस जाते हैं, लेकिन मृत अवस्था में। मृत कोलोसल स्क्विड के अवलोकन के आधार पर वैज्ञानिक इसके बारे में कुछ बुनियादी बातें बता पाए थे। जैसे वह कैसा दिखता है, उसका भोजन क्या होगा वगैरह। उनका यह भी अनुमान था कि यह समुद्री जीवन का संभवत: सबसे वज़नी अकेशरुकी जीव होगा(largest invertebrate in ocean)।

लेकिन जीवित मिल जाए तो इसके बारे में बहुत कुछ बताया जा सकता है। इसलिए लगातार इसकी तलाश जारी थी। इस तलाश को विराम मिला विगत 9 मार्च को, जब श्मिट ओशियन इंस्टीट्यूट (Schmidt Ocean Institute) का शोधपोत दक्षिण अटलांटिक महासागर में सर्वेक्षण अभियान पर था। जब शोधपोत दक्षिणी सेंडविच द्वीप के पास था, तब रिमोट नियंत्रित किए जा सकने वाले वीडियो कैमरे से लैस एक गाड़ी समुद्र में 600 मीटर की गहराई पर भेजी गई (underwater ROV), जिसके ज़रिए जीवविज्ञानी समुद्र की इस गहराई पर मौजूद जीवन का जायज़ा ले रहे थे। इसी दौरान उन्होंने 30 सेंटीमीटर लंबे शिशु स्क्विड को देखा। स्क्विड के विशिष्ट टेंटेकल्स और पिच्छों की आकृति से जीव वैज्ञानिकों ने इसके कोलोसल स्क्विड होने की पुष्टि की है। शिशु अवस्था में इसका शरीर पारदर्शी होता है। वैज्ञानिकों का ऐसा अनुमान है कि उम्र बढ़ने के साथ इसका पारदर्शी शरीर अपारदर्शी और लाल रंग का हो जाएगा।

इसके थोड़े ही पहले, जनवरी माह में एक अन्य अभियान में अंटार्कटिका के नज़दीक बेलिंग्सहॉसन सागर में इस स्क्विड के एक सम्बंधी, ग्लेशियल ग्लास स्क्विड (Galiteuthis glacialis) (glacial glass squid) को भी पहली बार देखा गया था। दो अभियानों में दो अलग-अलग स्क्विड को पहली बार देखा जाना दर्शाता है कि हम महासागरीय जीवन से कितना अनभिज्ञ (mysteries of deep sea) हैं। बहरहाल, इन खोजों से उम्मीद है कि वैज्ञानिक इन जीवों के बारे में अधिक जान पाएंगे। (स्रोत फीचर्स)  

कोलोसल स्क्विड का वीडियो यहां देखें।

https://www.science.org/content/article/colossal-squid-filmed-its-natural-habitat-first-time?utm_source=sfmc&utm_medium=email&utm_content=alert&utm_campaign=WeeklyLatestNews&et_rid=17088531&et_cid=5592648

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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भोजन में को-एंज़ाइम की भूमिका – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

एंज़ाइम (enzyme) ऐसे प्रोटीन होते हैं जो कोशिका में अभिक्रियाओं को उत्प्रेरित करते हैं, इससे चयापचय कुशलता से होता है। कुशल कामकाज के लिए कई एंज़ाइमों को सहकारक के रूप में कुछ अणु चाहिए होते हैं। इन सहायक अणुओं को को-एंज़ाइम (co-enzyme) कहा जाता है।

को-एंज़ाइम नैसर्गिक रूप से पाए जाने वाले कार्बनिक अणु होते हैं जो एंज़ाइम के साथ जुड़कर उनके कार्य में मदद करते हैं। को-एंज़ाइम क्यू (Coenzyme Q), जिसे यूबिक्विनोन के रूप में भी जाना जाता है, एक अणु है जिसमें कई आइसोप्रीन इकाइयां होती हैं। गौरतलब है कि आइसोप्रीन एंटीऑक्सिडेंट (antioxidants) होते हैं और तनाव की स्थिति से उबरने में मदद करते हैं।

यूबिक्विनोन हर कोशिका झिल्ली में मौजूद होता है और ऊर्जा उत्पादन के लिए महत्वपूर्ण होता है। यूबिक्विनोन 10 प्रकार (CoQ1…CoQ10) के होते हैं। प्रत्येक यूबिक्विनोन श्वसन शृंखला का एक अणु होता है (cellular respiration)। ये पानी में अघुलनशील है लेकिन वसीय माध्यम में घुलनशील एंटीऑक्सीडेंट (fat soluble antioxidants) होते हैं। ये सभी को-एंज़ाइम कोशिका के प्रमुख ऊर्जा उत्पादक उपांग, माइटोकॉन्ड्रिया, के कार्य में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। इस लेख में, हम मुख्य रूप से दो को-एंज़ाइम – CoQ9 और CoQ10 – पर बात करेंगे।

CoQ9 में नौ आइसोप्रीन इकाइयां होती हैं। गेहूं, चावल, जई, जौं, मक्का और बाजरा जैसे अधिकांश अनाजों में CoQ9 प्रचुर मात्रा में पाया जाता (sources of coenzymes) है। इसके अलावा यह बांस और दालचीनी, एवोकाडो और काली मिर्च जैसे फूल वाले पौधों में भी प्रचुर मात्रा में पाया जाता है।

CoQ10 का महत्व

मनुष्यों में, CoQ10 माइटोकॉन्ड्रिया (mitochondria) में इलेक्ट्रॉन परिवहन शृंखला का एक घटक है –  यही वह प्रक्रिया है जिससे शरीर की अधिकांश कोशिकीय ऊर्जा (cellular energy) का उत्पादन होता है। हृदय जैसे अंगों को बहुत ज़्यादा ऊर्जा चाहिए होती है और उनमें CoQ10 अधिक मात्रा में पाया जाता है। CoQ9 तो हमें अपने दैनिक भोजन के साथ खूब मिल जाता है। लेकिन कभी-कभी हमें अच्छे स्वास्थ्य के लिए अतिरिक्त CoQ10 की आवश्यकता होती है, क्योंकि कतिपय जेनेटिक कारकों, उम्र बढ़ने और तंत्रिका सम्बंधी समस्याओं के लिए इस यूबिक्विनोन की अधिक ज़रूरत होती है।

2008 में, इटली के मोंटिनी और उनके साथियों ने न्यू इंग्लैंड जर्नल ऑफ मेडिसिन  (new England journal of medicine) में बताया था कि CoQ10 की खुराक देने से उन रोगियों को मदद मिली जिन्हें तंत्रिका सम्बंधी समस्याएं (neurological disorders) थीं। इसी तरह, 2012 में, लंदन के न्यूरोलॉजी एंड नेशनल हॉस्पिटल की शमीमा अहमद और उनके साथियों ने बताया था कि CoQ10 की कमी वाले शिशुओं को यूबिक्विनोन एनालॉग (CoQ10 जैसा पदार्थ) देकर मदद की जा सकती है। और कई आहार विशेषज्ञ ऐसी दवाएं लिखते हैं और कंपनियां बेचती हैं जो CoQ10 के समान होती हैं।

CoQ10 का उत्पादन

जापान के इबाराकी स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एग्रोबायोलॉजिकल साइंसेज़ के कोइचि कोदोवाकी और उनके दल ने 2006 में फेडरेशन ऑफ युरोपियन बायोसाइन्स सोसायटीज़ (FEBS) लेटर्स में प्रकाशित एक अध्ययन में बताया था कि धान के पौधों को जेनेटिक रूप से परिवर्तित करके उनमें CoQ10 बनाया जा सकता है। शोधकर्ता धान के पौधों में ‘DdsA’ नामक जीन को प्रविष्ट करवाकर CoQ10 का उत्पादन भी कर पाए थे। उनमें CoQ10 का निर्माण 1.3 से 1.6 गुना अधिक हुआ और शर्करा भी उसी अनुपात में अधिक बनी। फिर, 2021 में नेचर सेल बायोलॉजी में मुनीकी नाकामुरा और उनके साथियों ने नोबेल फेम की मशहूर तकनीक, CRISPR-Cas9 की मदद से इसी उद्देश्य से सफलतापूर्वक जीन संपादन किया था।

खेत से कारखाने तक

‘जीन-संपादित पौधे खेत से कारखाने तक’, यह शीर्षक है नेचर जर्नल के 20 फरवरी, 2025 के अंक में प्रकाशित शोधपत्र का। इस शोधपत्र की लेखक चाइनीज़ एकेडमी ऑफ साइंसेज़ के सेंटर ऑफ एक्सीलेंस इन मॉलीक्यूलर प्लांट साइंसेज़ की जिंग-जिंग शू और उनके साथी हैं। इसमें शोधकर्ताओं ने CoQ1 पर ध्यान केंद्रित करते हुए पौधों की सैकड़ों प्रजातियों का अध्ययन किया। यह एक ऐसा एंज़ाइम है जो CoQ की आइसोप्रिनॉइड शृंखला को संश्लेषित करता है। एंज़ाइम के जीन को उन्होंने जेनेटिक रूप से परिवर्तित किया, ताकि धान की ऐसी किस्म तैयार हो जो 75 प्रतिशत तक CoQ10 से युक्त हो। शू के इस श्रमसाध्य काम से यह पता चलता है कि एंटीऑक्सीडेंट अनुपूरक का कारखाना उत्पादन करने के लिए विभिन्न प्रकार की खाद्य फसलों को कैसे तैयार किया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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एक पादप मॉडल का अनदेखा पहलू

रसों परिवार (ब्रेसिकेसी) का एक छोटा सा पौधा है थेल क्रेस (Arabidopsis thaliana)। 20-25 से.मी. लंबे इस पौधे में अधिकतर पत्तियां ज़मीन से सटकर, फूलनुमा आकृति बनाते हुए लगती हैं और बहुत थोड़ी पत्तियां ऊपर तने पर भी लगती हैं। इसके फूल सफेद रंग के होते हैं। यह पौधा मूलत: युरेशिया और अफ्रीका (Eurasia native weed plant) में पाया जाता है। भारत में यह हिमालयी क्षेत्र में पाया जाता है। यह खाली पड़े मैदान, सड़क किनारे, रेललाइन किनारे, खेतों में, कहीं भी उगता देखा जा सकता है, इसलिए इसे खरपतवार की तरह देखा जाता है, हालांकि कुछ जगहों पर इसे खाया भी जाता है।

थेल क्रेस पौधे की कुछ खास बातें हैं। एक तो इसका जीवन चक्र छोटा होता है, अंकुरण से लेकर वापस बीज बनने तक का इसका चक्र 6 हफ्तों में पूरा हो सकता है; यह खरपतवार की तरह आसानी से फल-फूल जाता है; इसका पौधा साइज़ में छोटा तो होता ही है, साथ ही इसका जीनोम भी सरल होता है (simple genome model plant)। अपनी इन सभी खूबियों के कारण 1900 के दशक से ही पादप विज्ञान में थेल क्रेस पर अध्ययन किए जाने लगे थे(model organism in plant biology)। फूलदार पौधों की जेनेटिक, आणविक कार्यप्रणाली को समझने में थेल क्रेस ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। सबसे पहला संपूर्ण जीनोम अनुक्रमण भी इसी पौधे का किया गया था(first plant genome sequencing)। और तो और, पादप विज्ञान का यह मॉडल पौधा 2019 में चांग ई-4 लैंडर के साथ चांद की भी सैर कर चुका है(Arabidopsis on Moon)।

और अब, इस पौधे के एक अनछुए पहलू का अध्ययन कर पादप विज्ञानी रियुशिरो कासाहारा और उनके दल ने इसकी एक ओर खासियत उजागर की है जो खेती के लिए फायदेमंद साबित हो सकती है(crop yield improvement)। पता चला है कि (कम से कम) यह पौधा बड़ी चतुराई से अपने सिर्फ उन्हीं बीजांडों तक पोषण पहुंचने देता है जो निषेचित हो चुके होते हैं। और, अपने गैर-निषेचित बीजांड तक पोषण पहुंचने से रोकता है, जिससे पोषण का सदुपयोग होता है और बीज बड़ा बनता है(seed size enhancement)। और, बड़ा बीज यानी पैदावार में वृद्धि।

लेकिन अन्य फसलों में बीज कैसे बड़ा किया जाए? इस पर बात करने के पहले थोड़ा इस पर बात कर लेते हैं कि शोधकर्ताओं को यह बात पता कैसे चली। दरअसल, कासाहारा यह समझना चाह रहे थे कि पौधे बीज कैसे बनाते हैं(seed development in plants)? इसके लिए कासाहारा ने थेल क्रेस को अध्ययन के लिए चुना और अपना सारा ध्यान इसके फूल के उस स्थान पर केंद्रित किया जहां कई सारी नलिकाओं (फ्लोएम) के माध्यम से पोषक तत्व पहुंचकर विकासशील भ्रूण को पोषण देते हैं(phloem transport in plants)।

नीले रंजक का इस्तेमाल कर उन्होंने इस हिस्से में कैलोस का असर देखा। गौरतलब है कि कैलोस पौधों में अस्थायी कोशिका भित्ति बनाकर पौधों के लिए कई काम करता है और पौधों को सुरक्षा प्रदान करता है; जैसे यह पौधों के घावों को भरने में मदद करता है। पता चला कि फ्लोएम के अंतिम छोर पर बीजांड के पास की कोशिकाओं में कैलोस बन रहा था (callose formation in plants)। कैलोस ने फ्लोएम के सिरे के चारों ओर एक तश्तरी जैसा अवरोध (भित्ति) बना दिया था। फिर, अधिकांश निषेचित बीजांडों से वह अवरोध गायब हो गया था, और वहां मात्र एक छल्ला रह गया था – जल्द ही वह छल्ला भी लुप्त हो गया था। लेकिन जो बीजांड निषेचित नहीं हुए थे उनमें अवरोध जस-का-तस बना रहा। इससे समझ आया कि कैलोसयुक्त कोशिकाएं एक दीवार का काम करती हैं, जो फ्लोएम के पोषक तत्वों को गैर-निषेचित बीजांडों में जाने से रोकती हैं(nutrient regulation in fertilized ovules)। इस तरह पौधा गैर-निषेचित बीजांड में अतिरिक्त पोषण ज़ाया करने से बच जाता है।

अब सवाल था कि वह क्या शय है जो निषेचित बीजांड से कैलोस-अवरोध हटा देती है। शोधकर्ताओं की यह तलाश एक ऐसे एंज़ाइम, AtBG_ppap, पर जाकर खत्म हुई जो कैलोस को विघटित करने (या हटाने) की क्षमता रखता है(AtBG_ppap enzyme function)। और इसी एंज़ाइम को बनाने वाले जीन को अधिक सक्रिय कर कुछ फसलों की पैदावार बढ़ाई जा सकती है(gene expression for higher yield)।

इस बात का खुलासा भी थेल क्रेस पर किए गए अध्ययन से हुआ। शोधकर्ताओं ने जब इस पौधे में AtBG_ppap एंज़ाइम को बनाने वाले जीन को शांत किया तो पाया कि पौधे में सभी बीजांड (निषेचित और गैर-निषेचित) पर कैलोस भित्ति काफी हद तक वैसी की वैसी बनी रही थी। इसके कारण इस जीन के प्रभाव से मुक्त पौधों के बीज सामान्य पौधों के बीज के साइज़ की तुलना में 8 प्रतिशत छोटे बने थे। लेकिन जब टीम ने इन पौधों में AtBG_ppap एंज़ाइम के जीन को अति सक्रिय किया तो पाया कि ऐसा करने पर बीज सामान्य पौधों के बीजों की तुलना में 17 प्रतिशत बड़े विकसित हुए(enhanced seed size via gene editing)। संभवत: इसलिए कि निषेचित बीजांड की कैलोस-भित्ति आसानी से टूट गई होगी और अधिक पोषक तत्व निषेचित बीजांड तक पहुंचे होंगे।

ऐसा ही उन्होंने धान के पौधों पर भी करके देखा तो उन्हें ऐसे ही नतीजे मिले – AtBG_ppap एंज़ाइम के जीन को अधिक व्यक्त करवाने पर चावल के दाने की साइज़ 9 प्रतिशत बढ़ गई थी(larger rice grain size)। लेकिन चावल के बड़े दाने होने से शायद इसके स्वाद पर फर्क पड़े, हालांकि स्वास्थ्य पर प्रभाव पड़ने जैसी बात तो अध्ययन में सामने नहीं आई है। लेकिन बड़े बीज वाली फसलें सोयाबीन, मक्का और गेहूं जैसी फसलों के लिए फायदेमंद हो सकती हैं (yield optimization in soybean and maize)। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/thumb/a/ae/Arabidopsis_thal_kz1.jpg/250px-Arabidopsis_thal_kz1.jpg