नई यादें बनने पर पुरानी यादें मिट क्यों नहीं जातीं?

मारे दिमाग (brain)ने जिन स्मृतियों/यादों (memories) को संजो लिया होता है वे इतनी आसानी से नहीं मिटती, यहां तक कि नई यादों के बनने पर भी पुरानी यादें नहीं मिटती। हां, कभी-कभी ऐसा लग सकता है कि हम कई पुरानी बातें भूल चुके हैं लेकिन एक ट्रिगर (memory trigger)मिलने पर वे वापस ताज़ा हो जाती हैं।

सवाल उठता है कि ऐसा होता कैसे है? नेचर पत्रिका (Nature Journal) में प्रकाशित अध्ययन से ऐसा लगता है कि वैज्ञानिकों (scientists) ने इस सवाल का जवाब पा लिया है। चूहों पर अध्ययन कर उन्होंने बताया है कि मस्तिष्क नई और पुरानी यादों पर नींद के अलग-अलग चरणों में काम करता है, जो दोनों तरह की यादों को गड्ड-मड्ड होने से रोकता है।

वैज्ञानिक यह तो जानते थे कि मस्तिष्क नींद में ताज़ा अनुभवों को दोहराता है: जो तंत्रिकाएं जिस अनुभव से जुड़ी होती हैं, नींद में दोहराव के समय वही तंत्रिकाएं उसी क्रम में सक्रिय होती हैं। इस दोहराव (memory consolidation) के ज़रिए कोई अनुभव पक्की याद बन जाता है और हमारी यादों के खजाने का हिस्सा भी।

लेकिन इस बात को जानना बाकी था कि नई यादें बनने पर पुरानी यादें मिटती क्यों नहीं? इसे जानने के लिए कॉर्नेल युनिवर्सिटी (Cornell University) के सिस्टम्स न्यूरोसाइंटिस्ट (systems neuroscientist) वेनबो टैंग और उनके साथियों ने चूहों के एक विचित्र गुण का फायदा उठाया: नींद के कुछ चरणों के दौरान उनकी आंखें थोड़ी खुली रहती हैं। शोधकर्ताओं ने नींद के दौरान उनकी एक आंख पर नज़र रखी। देखा गया कि गहरी नींद के एक चरण में चूहों की आंख की पुतलियां सिकुड़ कर छोटी होती हैं और फिर अपने मूल आकार में आ जाती हैं – ऐसा बार-बार होता है और प्रत्येक चक्र लगभग एक मिनट लंबा होता है। तंत्रिका रिकॉर्डिंग (neural recording) से पता चला कि मस्तिष्क में अधिकांश अनुभवों की पुनरावृत्ति तब हुई जब चूहों की पुतलियां छोटी थीं।

तो क्या पुतलियों के आकार और स्मृति (memory formation) बनने के बीच कोई सम्बंध है? इस विचार को परखने के लिए उन्होंने ऑप्टोजेनेटिक्स (optogenetics) तकनीक का सहारा लिया। इसमें प्रकाश की मदद से मस्तिष्क में जेनेटिक रूप से परिवर्तित तंत्रिका कोशिकाओं की विद्युत गतिविधि को शुरू या बंद किया जा सकता है।

सबसे पहले उन्होंने परिवर्तित चूहों को प्लेटफॉर्म पर छिपी मिठाई (hidden reward) खोजने के लिए प्रशिक्षित किया। प्रशिक्षण के तुरंत बाद जब चूहे सो गए तो उन्होंने ऑप्टोजेनेटिक्स की मदद से अनुभवों से जुड़ी तंत्रिका कोशिकाओं की सक्रियता को रोका। ऐसा उन्होंने दोनों चरणों में अलग-अलग किया – जब पुतलियां छोटी थीं और बड़ी थीं।

पाया गया कि जब छोटी-पुतली चरण (small-pupil sleep phase) में तंत्रिका कोशिकाओं की सक्रियता बाधित की गई थी, तब जागने पर चूहे मिठाई का स्थान पूरी तरह से भूल चुके थे। इसके विपरीत, यही प्रयोग बड़ी-पुतली चरण (large-pupil sleep phase) के दौरान करने पर, जागने के बाद चूहे सीधे मिठाई की जगह पर गए – इस मामले में उनकी ताज़ा यादें बरकरार थीं।

हालांकि ये नतीजे फिलहाल मात्र चूहों के लिए हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि मनुष्यों (humans) के मामले में भी ऐसा ही कुछ होता होगा। पक्के तौर पर कुछ कहने के लिए अधिक अध्ययन (further research) करने की ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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समुद्री मकड़ियां खुद को रेत में क्यों दबाती हैं?

क्षिणी अंटार्कटिक महासागर (Southern Antarctic Ocean) के ठंडे पानी में रहना कई जीवों के लिए प्रतिकूल परिस्थितियों से परिपूर्ण होगा, लेकिन एक प्रकार की समुद्री मकड़ी (Nymphon australe) के लिए यह जगह बहुत ही आरामदायक है।

लंबी टांग वाली इन समुद्री मकड़ियों की साइज़ करीब 4 से.मी. होती है। वास्तव में ये मकड़ी होती ही नहीं हैं किंतु उनके जैसी ही दिखती हैं। ये तो पाइनोगोनिडा (Pycnogonida)  नामक आर्थ्रोपोड (Arthropod)  समूह से सम्बंधित हैं। ऐसी ही एक समुद्री मकड़ी है Nymphon australe जिसके बारे में काफी बातें अनजानी हैं। इस अकेशरुकी (Invertebrate) जीव की जीवनशैली कैसी है, ये क्या खाती हैं और इन्हें कौन खाता है, इनका व्यवहार कैसा है वगैरह सवाल अभी भी अनुत्तरित हैं।

इनके बारे में जानकारी हासिल करने के उद्देश्य से सेंट्रल मिशिगन युनिवर्सिटी (Central Michigan University) के समुद्र जीवविज्ञानी एंड्रयू महोन और उनके साथियों ने इन्हें समुद्र से पकड़ा और प्रयोगशाला के एक छोटे से मछलीघर में रखा।

शोधकर्ताओं ने देखा कि इनमें से एक मकड़ी बहुत धीमे-धीमे रेत खोद रही थी, फिर उसने अपना धड़ रेत में दबा लिया और अपने आठ पैर बाहर ही रहने दिए जो लहरा रहे थे। देखा गया कि ये मकड़ियां ऐसा बार-बार ऐसा कर रहीं थीं; खुद को रेत में दफनातीं, फिर बाहर निकलतीं और वहां से दूसरी जगह चली जातीं।

लेकिन वे ऐसा करती क्यों हैं। एक बैठक (Conference)  में अपने अवलोकन प्रस्तुत करते समय शोधकर्ताओं के सामने इनके इस व्यवहार के कारण को लेकर कुछ अनुमान सामने आए। एक अनुमान था कि संभवत: वे अपने इन उपांगों के माध्यम से ‘सांस’ (Respiration)लेती होंगी, जैसा कि कुछ अन्य प्रजातियां करती हैं। एक अन्य अनुमान था कि वे रेत के नीचे दबे शिकार तलाशती होंगी, लेकिन इस अनुमान पर तर्क था कि ऐसा होने की संभावना इसलिए नहीं लगती क्योंकि अधिकांश मकड़ियां मांसाहारी (Carnivorous)होती हैं और वे अपने शिकार को हिलते-डुलते हुए महसूस करना चाहती हैं।

अब बारी थी इन अनुमानों को परखने की और उनके इस व्यवहार के कारण को समझने की। इसके लिए महोन और उनकी टीम ने समुद्री मकड़ियों की आंतों में सूक्ष्मजीवी डीएनए (Microbial DNA)  के नमूने लिए और उसे समुद्र के पेंदे के नीचे से लिए गए सूक्ष्मजीवों के नमूने से मिला कर देखा। पाया गया कि आंत के नमूने पेंदे में दफन नमूनों से मेल खा रहे थे। इससे लगता है कि ये जीव पेंदे के नीचे बैक्टीरिया और संभवत: अन्य सड़ने वाले कार्बनिक पदार्थों (Organic Matter) को खाते होंगे।

यह तो समुद्री मकड़ियों (Sea Spiders) के व्यवहार को समझने की शुरुआत भर है। अंटार्कटिका इतना प्रतिकूल परिस्थिति (Harsh Environment) भरा है कि वहां रहने वाले हर जीव के बारे में समझना रोमांचक और विस्मयकारी ही होगा। (स्रोत फीचर्स)

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यह सांप निगल जाता है मुंह से कई गुना बड़ा शिकार

दि आप किसी नन्ही-सी गिलहरी (Squirrel) को अपने से कहीं अधिक बड़ी बिल्ली को निगलते देखें तो अवश्य हैरान रह जाएंगे। वैज्ञानिक भी ऐसे ही कुछ नज़ारे से अचंभित हैं लेकिन वे गिलहरी से नहीं बल्कि पश्चिम अफ्रीका में पाए जाने वाले पक्षियों के अंडे खाने वाले सांप (Egg-Eating Snake) गान्स एग-ईटर (Dasypeltis gansi) के भोजन से अंचभित हैं। करीब एक मीटर लंबा और पतला गान्स एग-ईटर सांप अपने सिर की चौड़ाई से लगभग चार से पांच गुना बड़े अंडे को साबुत निगल जाता है और फिर उसे अपने मेरु-दंड की मदद से फोड़कर खोल को वापिस उगल देता है। यह बताते चलें कि इसे यह नाम मशहूर अमेरिकी सर्प वैज्ञानिक कार्ल गान्स के नाम पर दिया गया है।

गौरतलब है कि बोआ कांस्ट्रिक्टर (Boa Constrictor)  और ग्रीन एनाकोंडा (Green Anaconda) जैसे विशाल सांप अपने बड़े मुंह के लिए जाने जाते हैं और अपने विशाल मुंह में 100 से भी अधिक दांतों का इस्तेमाल कर अपने शिकार को फंसाते हैं और उसे पूरा का पूरा निगल जाते हैं। लेकिन हैरत इस बात की है कि एकदम पतले से गान्स एग-ईटर सांप का सिर महज 1 से.मी चौड़ा होता है और मुंह में दांत लगभग न के बराबर होते हैं। फिर कैसे यह सांप अपने मुंह से कई गुना बड़े बटेर के अंडों(Quail Eggs), फिंच (Finch) और चूज़ों (Chicks) जैसे शिकार (Prey) को कैसे निगल लेता है?

अंचभे ने सवाल को जन्म दिया और जुट गए वैज्ञानिक इसका जवाब पता करने में और जवाब उन्होंने जर्नल ऑफ एक्सपेरिमेंटल बायोलॉजी (Journal of Experimental Biology) में प्रकाशित किया है; इतने बड़े अंडों को साबुत निगलना उसकी गर्दन की अत्यंत लोचदार त्वचा (Elastic Skin) के कारण संभव होता है। देखा गया है कि शरीर के बाकी हिस्सों की त्वचा की तुलना में गर्दन की त्वचा 90 प्रतिशत तक अधिक लोचदार होती है।

अपने सवाल का जवाब खोजने के लिए वैज्ञानिकों ने विभिन्न प्रजातियों के सांपों की कांचुली (Shedded Skin) एकत्रित की – चौड़े मुंह वाले बोआ कांस्ट्रिक्टर से लेकर छोटे मुंह वाले अमेरिकी पाइप सांप (American Pipe Snake) तक की। उन्होंने शरीर के विभिन्न बिंदुओं पर बल लगाकर मापा कि किस जगह कितने बल तक ऊतक फैलते जाते हैं और कितने बल के बाद टूट जाते हैं।

पाया गया कि अन्य छोटे मुंह वाले सांपों की तुलना में गान्स एग-ईटर के सिर और गर्दन की त्वचा तीन गुना तक अधिक फैल सकती है। इसी खूबी के चलते गान्स एग-ईटर अपने से बहुत बड़े आकार के शिकार को भी निगल लेते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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कोरल भी चलते हैं, लेकिन घोंघों से भी धीमे

धिकतर कोरल को देखकर ऐसा लग सकता है कि वे बस एक जगह जमे रहते हैं, अपनी जगह छोड़कर ज़रा भी यहां-वहां टहलते नहीं। बस अपना भोजन पाने के लिए थोड़ा लहरा-लहरा कर पास से गुज़रते जंतु-प्लवकों को पकड़ लेते हैं। लेकिन इनकी कुछ प्रजातियां थोड़ा घुमक्कड़ भी होती हैं। ऐसी ही कुछ घुमक्कड़ प्रजातियां मशरूम कोरल (Fungiidae) कुल की सदस्य हैं। इस कुल के सदस्य देखने में ऐसे लगते हैं जैसे कोमल सुइयों का कोई चमकीला तकिया हों।

अवलोकनों से इतना तो पता चल चुका है कि मशरूम कोरल कुल के कुछ सदस्य स्थिर और माकूल तापमान और प्रचुर भोजन के लिए भीड़-भाड़ वाले उथले समंदर (Shallow Water) से शांत, गहरे समंदर (Deep Sea) की ओर कूच करते हैं। लेकन यह सवाल अब तक सवाल ही था कि ये कोरल गति (Coral Movement) कैसे करते हैं? क्या ये शांत गहरे पानी तक पहुंचने के लिए अन्य जीवों (के शरीर) से ‘लिफ्ट’ लेते हैं? या वे अपने ऊतकों का इस्तेमाल नाव की पाल की तरह करते हैं; जिस तरह हवाएं पाल के ज़रिए नाव को गति देती है वैसे ही पानी पालनुमा ऊतक के सहारे इन्हें बहा ले जाता है।

प्लॉस वन (PLOS One Journal) में एक अध्ययन प्रकाशित हुआ है, जिसमें कोरल के बारे में उपरोक्त अनुत्तरित सवाल का जवाब खोजने की कोशिश की गई है। डिस्क कोरल (Cycloseris cyclolites) पर अध्ययन कर शोधकर्ताओं ने पाया कि गुंबद सरीखे शरीर वाले डिस्क कोरल प्रकाश स्रोत (Light Source) की दिशा में ‘जाने’ के लिए अपने शरीर को लुढ़काते हैं, फिसलाते हैं, और क्रमाकुंचन (यानी क्रमश: फैलना-सिकुड़ना) की मदद से आगे बढ़ाते हैं। कोरल बेहतर पकड़ के लिए अपने बाहरी ऊतकों के कुछ हिस्सों को फुलाते हैं, फिर अपने ऊतकों को थोड़ा मरोड़ते हैं, फिर और संकुचित होकर अपने शरीर को आगे की और खींचते हैं। यानी कोरल काफी हद तक जेलीफिश (Jellyfish) की चाल चलते हैं।

यह भी देखा गया कि कोरल विशेष रूप से नीली रोशनी के प्रति संवेदनशील होते हैं – कुछ मामलों में कोरल प्रकाश स्रोत की ओर 22 से.मी. तक बढ़े थे। चूंकि नीला प्रकाश (Blue Wavelength Light) अन्य रंगों की तुलना में पानी में अधिक गहराई तक जाता है, इसलिए इस रंग की रोशनी मशरूम कोरल को अपनी पसंदीदा छायादार और माकूल गहराई तक पहुंचने में मदद कर सकती है। एक और बात पता चली कि जैसे-जैसे कोरल बड़े होते जाते हैं उनके लिए घूमना मुश्किल होता जाता है। इसलिए वे ऐसी गति से आगे बढ़ते हैं कि चलना भारी न पड़े। वैसे, लगता तो ऐसा है कि उन्हें अपने गंतव्य पर पहुंचने की कोई जल्दी नहीं होती। कोरल हर 24 घंटे में औसतन 4.5 से.मी. नीली रोशनी की ओर बढ़ते हैं – सुस्ती के लिए मशहूर घोंघे (Snail)  से भी बहुत, बहुत धीमी गति से। (स्रोत फीचर्स)

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दांतों ने उजागर किया स्तनपान का पैटर्न

मां के दूध (breastfeeding) के जगजाहिर फायदों को देखते हुए सलाह दी जाती है कि पहले 6 महीनों तक शिशु को केवल स्तनपान कराना चाहिए। लेकिन शिशु को स्तनपान कराना बंद कब करें? यह प्रश्न जितना महत्वपूर्ण आजकल के माता-पिता के लिए है, उतना ही महत्वपूर्ण प्राचीन रोमवासियों (ancient Romans) के लिए भी था। और प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ नेक्सस (PNAS Nexus) में प्रकाशित हालिया अध्ययन कहता है कि आधुनिक समय और प्राचीन समय के बाशिंदो की न सिर्फ स्तनपान सम्बंधी चिंताएं एक जैसी हैं, बल्कि स्तनपान बंद कराने की प्रवृत्ति भी मेल खाती है। पाया गया कि अतीत में ग्रामीण रोमवासियों की तुलना में शहरी रोमवासी बच्चे का स्तनपान जल्दी बंद करा देते थे, और स्तनपान बंद कराने के ऐसे ही पैटर्न (weaning trends) आधुनिक समय में भी दिखते हैं।

मां का दूध शिशुओं को पोषक तत्व और एंटीबॉडीज़ (antibodies)  देता है जो उन्हें बीमारियों से बचाते हैं और उनकी अपनी प्रतिरक्षा प्रणाली के विकास में मदद करते हैं। ऐसा देखा गया था कि बेबी फॉर्मूला के आगमन से पहले, जिन शिशुओं का मां का दूध बहुत जल्दी छुड़ा दिया जाता था उन्हें संक्रमण (infection risk)  होने का जोखिम अधिक होता था। द्वितीय शताब्दी ईसा पूर्व के सोरेनस जैसे चिकित्सकों ने स्तनपान के बारे में विस्तार से लिखा था, और बच्चे के लगभग दो वर्ष की आयु होने पर स्तनपान बंद करने (weaning off) की सलाह दी थी। वर्तमान में भी विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) सलाह देता है कि पहले छह महीने तक सिर्फ स्तनपान कराना चाहिए, और फिर धीरे-धीरे कम करते हुए दो साल की उम्र तक स्तनपान छुड़ाया जा सकता है।

लेकिन प्राचीन समय में स्तनपान प्रथाएं (breastfeeding practices) कैसी थीं? प्राचीन रोम के संदर्भ में हुए कुछ अध्ययनों में इसे समझने के लिए प्राचीन चिकित्सा ग्रंथों और पुरातात्विक अवशेषों (archaeological remains)  को ही खंगाला गया था। लेकिन इन ग्रंथों तक पहुंच अक्सर अमीर परिवारों की ही होती थी, जो शहरों में रहते थे और आम तौर पर अपने शिशुओं को स्तनपान कराने के लिए धाय-मां (wet nurse)  रखते थे। इसलिए रोमन साम्राज्य के ग्रामीण इलाकों में शिशुओं का खान-पान अब तक अनजाना ही था।

मैक्स प्लांक इंस्टीट्यूट ऑफ जियोएंथ्रोपोलॉजी (Max Planck Institute of Geoanthropology) के जैव पुरातत्वविद कार्लो कोकोज़ा की टीम संपूर्ण रोमन साम्राज्य (ग्रामीण और शहरी) (urban and rural Roman Empire)  में बच्चों के आहार पैटर्न समझना चाहती थी। लेकिन इसे समझने के लिए अध्ययन किसका किया जाए?

दांतों व दाढ़ों की डेंटाइन (dentine analysis) इसमें मददगार साबित हो सकती है। दरअसल डेंटाइन के ऊतकों की परतें आपने कब क्या खाया, सब बयां कर सकती हैं। और, मां के दूध में कार्बन-13 (carbon-13) के मुकाबले नाइट्रोजन-15 (nitrogen-15 isotope) आइसोटोप का स्तर काफी अधिक होता है। डेंटाइन की परतों में नाइट्रोजन आइसोटोप का स्तर देखकर स्तनपान बंद किए जाने के समय का अंदाज़ा लगाया सकता है; जब तक शिशु स्तनपान कर रहा होगा नाइट्रोजन आइसोटोप डेंटाइन की शुरुआती परतों में अधिक मिलेगा और बंद करने के बाद की परतों में अचानक से नदारद दिखेगा।

तो, शोधकर्ताओं ने पहली शताब्दी ईसा पूर्व से लेकर चौथी ईसवीं सदी के समय में रोमन साम्राज्य (ancient Roman sites)  में रहने वाले 45 वयस्कों की पहली दाढ़ (molar tooth) के डेंटाइन का अध्ययन किया। इन दाढ़ों को शहरी इलाकों – जैसे ग्रीस के थेसालोनिकी और इटली के पोम्पेई से लेकर ग्रामीण इलाकों – जैसे इंग्लैंड के बैनेस और इटली के ओस्टिया तक से प्राप्त किया गया था।

विश्लेषण में पाया गया कि रोमन साम्राज्य के शहरी स्थलों में स्तनपान दो वर्ष की आयु में बंद कर दिया जाता था, जबकि ग्रामीण स्थलों में डेढ़ साल से लेकर पांच साल की आयु तक के बच्चों को स्तनपान कराया जाता था। इससे लगता है कि रोम के शहरी केंद्रों से दूर के स्थलों पर ‘आधिकारिक’ चिकित्सा सलाह कम पहुंची होगी, साथ ही यह भी लगता है कि निम्न आय वाले ग्रामीण परिवार (low-income rural families) यह सोचकर स्तनपान लंबे समय तक जारी रखते होंगे कि सीमित भोजन (food scarcity) एक और शिशु में न बंटे।

ये नतीजे आज के स्तनपान पैटर्नों (modern breastfeeding patterns)  से मेल खाते हैं। अध्ययन बताते हैं कि वर्तमान समाज में शहरी क्षेत्रों में स्तनपान जल्दी छुड़ाया जाता है। इसका एक कारण शहरीकरण है; जीवन स्तर में सुधार के साथ लोगों के स्वास्थ्य और पोषण में सुधार (improved living standards) हुआ है, साथ ही चिकित्सा तक अधिक पहुंच (access to healthcare) भी हुई है। दूसरी ओर, ग्रामीण इलाकों (rural communities)  में लंबे समय तक स्तनपान जारी रहता है।

बहरहाल, ये निष्कर्ष सीमित नमूनों (limited sample size)  पर आधारित हैं इसलिए पर्याप्त डैटा (data collection)  के साथ अधिक अध्ययन इन नतीजों को मज़बूती दे सकते हैं। साथ ही कई अनुत्तरित सवालों के जवाब भी दे सकते हैं। जैसे, क्या आप्रवासी लोग (immigrant communities)  रोमन चिकित्सकों की सिफारिशों का पालन करते थे? (स्रोत फीचर्स)

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बढ़ते तापमान का अदृश्य स्वास्थ्य संकट

2024 अब तक का सबसे गर्म वर्ष साबित हुआ, जिसमें वैश्विक तापमान (global temperature) औद्योगिक-पूर्व स्तर से 1.5 डिग्री सेल्सियस की सीमा पार कर चुका है। ऐसे में जलवायु परिवर्तन (climate change) के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों (health effects) को अनदेखा करना मुश्किल हो गया है। इसमें लू लगने (heatstroke) से मृत्यु जैसे तुरंत दिखने वाले प्रभावों का तो पता चल जाता है लेकिन दीर्घकालिक संचयी नुकसान (long-term health impact) पर कम ही ध्यान दिया जाता है। जलवायु में हो रहे तेज़ी से बदलाव (climate crisis) को देखते हुए इस मुद्दे पर तुरंत ध्यान देने की आवश्यकता है।

लंबे समय तक ग्रीष्म लहर (heatwave) और सूखे (drought) के प्रभाव से गंभीर स्वास्थ्य समस्याएं (severe health issues) हो सकती हैं। बार-बार डीहाइड्रेशन (dehydration) और इलेक्ट्रोलाइट असंतुलन (electrolyte imbalance) से किडनी की जीर्ण बीमारियां (chronic kidney disease) हो सकती हैं। लगातार गर्म रातों (hot nights) के कारण नींद की कमी (sleep deprivation) से मानसिक क्षमता घटती है, रोग प्रतिरोधक क्षमता (immune system) कमज़ोर होती है और शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य (mental health) प्रभावित होता है। यह खतरा गर्भ में पल रहे बच्चों (fetal health risks) को भी हो सकता है। गर्भावस्था (pregnancy) के दौरान ग्रीष्म लहर जैसी पर्यावरणीय चुनौतियां (environmental stress) गर्भस्थ शिशु के विकास (fetal development) को प्रभावित कर सकती हैं और लंबे समय के उनके स्वास्थ्य पर असर डाल सकती हैं।

देखा जाए तो, जलवायु परिवर्तन (climate change impact) के दबाव जीन अभिव्यक्ति (gene expression) तक को प्रभावित कर सकते हैं। शोध बताते हैं कि जो बच्चे गर्भ में गर्म और शुष्क परिस्थितियों (extreme heat exposure) के संपर्क में आते हैं, उनमें वयस्क होने पर उच्च रक्तचाप (high blood pressure) की संभावना अधिक होती है।

कुल मिलाकर, जलवायु परिवर्तन के प्रभाव (climate change effects) गहरे और दूरगामी हो सकते हैं।

इन खतरों के बावजूद, वर्तमान जलवायु आकलन (climate assessment) स्वास्थ्य पर पूरे प्रभाव (public health impact) को सही ढंग से मापने में असफल रहे हैं। वास्तव में वर्षों में विकसित होने वाली स्वास्थ्य समस्याओं (long-term diseases) को मापना मुश्किल होता है। असंगत स्वास्थ्य डैटा (inconsistent health data) के कारण लंबे समय तक स्वास्थ्य जोखिमों (health risks) को ट्रैक करना काफी जटिल कार्य है। उदाहरण के लिए, हम यह तो समझते हैं कि गर्मी (extreme heat) शरीर को कैसे प्रभावित करती है, लेकिन यह अलग-अलग लोगों को दीर्घावधि में किस तरह प्रभावित करती है, इसे ट्रैक करना अब भी एक चुनौती बना हुआ है।

इस अंतर को पाटने के लिए, शोधकर्ताओं (researchers) और जन स्वास्थ्य अधिकारियों (public health officials) को जलवायु प्रभाव (climate impact studies) से जुड़े अध्ययनों का दायरा बढ़ाना होगा। उपलब्ध साक्ष्य (scientific evidence) बताते हैं कि जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाली बीमारियों (climate-related diseases) और मौतों का बोझ मौजूदा अंदाज़ों से कहीं अधिक है। इसलिए, बेहतर स्वास्थ्य डैटा (health data) और दीर्घकालिक प्रभावों (long-term impact) का अध्ययन करना बेहद ज़रूरी है। (स्रोत फीचर्स)

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खरपतवारनाशी से शिशु स्वास्थ्य को खतरा

क हालिया अध्ययन में खरपतवारनाशी ग्लायफोसेट (Glyphosate) के बढ़ते उपयोग का सम्बंध नवजात शिशुओं के जन्म के समय कम वज़न और गर्भावस्था के छोटा होने से देखा गया है। इस रसायन का खेती में खूब उपयोग होता है, खासकर अमेरिका में। यह अध्ययन ओरेगन विश्वविद्यालय (Oregon University) के एडवर्ड रुबिन और एमेट रेनियर द्वारा प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइन्सेज़ (PNAS Journal) में प्रकाशित किया गया है। 

शोधकर्ताओं ने 1990 से 2013 के बीच जन्मे एक करोड़ से अधिक नवजात शिशुओं के डैटा (Infant Birth Data) का विश्लेषण किया और अलग-अलग ज़िलों में ग्लायफोसेट के इस्तेमाल की मात्रा का सम्बंध गर्भावस्था अवधि (Gestation Period)  और जन्म के समय वज़न से किया। पाया गया कि जिन ज़िलों में सोयाबीन (Soybean), मक्का (Corn) और कपास (Cotton) की जेनेटिकली मॉडिफाइड (GM Crops) फसलें उगाई जाती हैं और भारी मात्रा में ग्लायफोसेट छिड़का जाता है, वहां 2005 तक नवजात शिशुओं का औसत वज़न 30 ग्राम कम और गर्भावस्था की अवधि 1.5 दिन कम हो गई थी।

ये प्रभाव 1996 से पहले नहीं दिखाई दिए थे क्योंकि तब जीएम फसलों (Genetically Modified Crops) का खूब उपयोग शुरू नहीं हुआ था। ग्लायफोसेट-सह फसलें (Glyphosate-Resistant Crops) आने के बाद ग्लायफोसेट का अत्यधिक उपयोग (Excessive Glyphosate Use) शुरू हुआ था। महज अमेरिका में हर साल यह 1,27,000 टन से अधिक छिड़का जाता है। अमेरिकी पर्यावरण सुरक्षा एजेंसी (US Environmental Protection Agency – EPA) के अनुसार ग्लायफोसेट का सावधानियों के साथ उपयोग सुरक्षित है, लेकिन कुछ शोध में इसका सम्बंध प्रजनन हार्मोन असंतुलन (Reproductive Hormone Disruption) और अल्प गर्भावधि (Preterm Birth) से देखा गया है।

शोधकर्ताओं के मुताबिक इसके आर्थिक प्रभाव (Economic Impact) भी गंभीर हैं। जन्म के समय कम वज़न (Low Birth Weight) और छोटी गर्भावधि (Short Pregnancy Duration) का सम्बंध दीर्घकालिक स्वास्थ्य समस्याओं (Long-Term Health Issues) से है, जैसे संज्ञानात्मक विकास में देरी (Cognitive Development Delay), कमज़ोर प्रतिरक्षा प्रणाली (Weakened Immune System), मधुमेह (Diabetes) व हृदय रोग (Heart Disease)। और शोधकर्ताओं का अनुमान है गर्भावधि में मामूली कमी से नवजात की देखभाल (Neonatal Care), विशेष शिक्षा (Special Education), कमज़ोर प्रतिरक्षा प्रणाली के कारण बीमारी पर खर्च, और प्रभावित व्यक्तियों की कमाई में कमी जैसी समस्याओं से हर साल 1.1 अरब डॉलर से अधिक की हानि होती है। इसके अलावा, अश्वेत परिवारों (Black Families) या अविवाहित माता-पिता (Single Parents) के बच्चों पर इसका असर अधिक देखा गया है।

यह अध्ययन कुछ वैश्विक मुद्दे (Global Issues) भी उजागर करता है। ब्राज़ील (Brazil) में, जहां अमेरिका की तुलना में दुगना ग्लायफोसेट उपयोग (Higher Glyphosate Usage) किया जाता है, वहां शिशु मृत्यु दर (Infant Mortality Rate) और बचपन में कैंसर (Childhood Cancer) की दर अधिक पाई गई है।

एक दिक्कत है कि यह अध्ययन ग्लायफोसेट के व्यक्तियों से संपर्क (Direct Human Exposure) की बजाय संपूर्ण ज़िलों के डैटा (Regional Data) पर किया गया है। गर्भावस्था के दौरान माताओं के ग्लायफोसेट से प्रत्यक्ष संपर्क (Direct Exposure to Glyphosate) को मापने जैसे अधिक सटीक अध्ययन (More Accurate Studies) ज़रूरी हैं ताकि इसके प्रभावों को बेहतर तरीके से समझा जा सके। बहरहाल, इसके परिणामों की गंभीरता (Serious Health Risks) को देखते हुए नियामक एजेंसियों (Regulatory Agencies) को इस ओर ध्यान देना चाहिए।  (स्रोत फीचर्स)

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अनौपचारिक स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं की भूमिका

तनुज लूथरा

क्षिण-पश्चिमी दिल्ली की एक झुग्गी बस्ती में नाई की दुकान और किराने की दुकान के बीच स्थित डॉ. ‘आर’ के बहुत ही छोटे से दवाखाने (clinic)  में मैंने कुछ दिलचस्प देखा। मैंने देखा कि डॉ. ‘आर’ बड़ी कुशलता से एक अधेड़ व्यक्ति की सलाइन (IV drip) बदल रहे हैं। उस मरीज़ की पत्नी पास में बैठी थी और थकी-थकी सी लग रही थी। उसने कहा, “कल तो ठीक थे, आज अचानक बेहोश (unconscious) हो गए तो मैं इन्हें यहां ले आई।”

डॉ. ‘आर’ ने 12 साल पहले इस बस्ती में अपनी प्रैक्टिस (medical practice) शुरू की थी। इससे पहले वे सफदरजंग अस्पताल (Safdarjung Hospital) में डॉक्टर के सहायक के रूप में काम करते थे। उनके पास कोई औपचारिक चिकित्सकीय प्रशिक्षण (formal medical training) या डिग्री नहीं है लेकिन उनके मरीज़ों को इससे कोई आपत्ति नहीं है। डॉ. ‘आर’ कहते हैं, “दिल्ली में उनके जैसे लाखों डॉक्टर हैं और यदि ये सभी अपनी प्रैक्टिस बंद कर दें तो अस्पतालों में भीड़ लग जाए।”

डॉ. ‘आर’ जैसे अनौपचारिक स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं (IHPs) (informal healthcare providers) की संख्या दिल्ली के गरीब इलाकों में काफी अधिक है। ये आम तौर पर किसी प्रशिक्षित डॉक्टर के सहायक (medical assistant), फार्मासिस्ट (pharmacist)/कंपाउंडर (compounder) या स्वास्थ्य सुविधाओं में गैर-चिकित्सकीय कर्मचारी (non-medical staff)  के रूप में शुरुआत करते हैं, और कुछ वर्षों के अनुभव के बाद स्वतंत्र रूप से अपनी प्रैक्टिस शुरू कर देते हैं।

अक्सर एलोपैथी (allopathy) में काम करने वाले ये अनौपचारिक स्वास्थ्य सेवा प्रदाता (IHPs) किसी एक चिकित्सा पद्धति के प्रति वफादार नहीं होते। समुदाय में बसे ये IHP (प्राय: पुरुष) बीमार या घायल लोगों द्वारा इलाज की तलाश में पहला संपर्क बिंदु होते हैं। एक तरह से ये उनके ‘फैमिली डॉक्टर’ की तरह होते हैं।

ग्रामीण भारत (rural India) पर ध्यान दें तो, IHPs के पक्ष और विपक्ष दोनों तरफ यह तर्क दिया जाता है कि वे स्वास्थ्य प्रणाली में “रिक्त स्थानों” को भरते हैं। हालांकि, औपचारिक स्वास्थ्य प्रणालियों तक गरीबों की पहुंच में रुकावट डालने वाले कारण, जैसे सरकारी अस्पतालों में भेदभावपूर्ण व्यवहार (discriminatory behavior) या औपचारिक सुविधाओं की कमी, महत्वपूर्ण हैं लेकिन यह जानना भी आवश्यक है कि किन अन्य कारणों से लोग IHPs की सेवाएं लेते हैं।

दिल्ली जैसे शहरों पर गौर करके यह समझने में मदद मिल सकती है, जहां कागज़ों पर ‘पर्याप्त’ सरकारी और निजी स्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध हैं। आखिर, IHPs वास्तव में क्या उपलब्ध कराते हैं? इस लेख में IHPs की भूमिका और भारत में ‘फैमिली डॉक्टर’ के महत्व का विश्लेषण किया गया है। साथ ही, दवाखानों में प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा की जटिलताओं पर सवाल उठाए गए हैं, जो IHPs के संदर्भ से परे होते हुए भी प्रासंगिक हैं।

फैमिली डॉक्टर (जो अक्सर जनरल प्रैक्टिशनर के पर्याय होते हैं, लेकिन हमेशा नहीं) प्राथमिक स्वास्थ्य प्रदाता होते हैं जो परिवारों में विभिन्न उम्र के लोगों की विभिन्न बीमारियों का इलाज करते हैं। अपने सर्वश्रेष्ठ रूप में, फैमिली डॉक्टर एक ‘दोहरी दृष्टि’ रखते हैं: एक ओर तो वे मरीज़ को एक शरीर या मन के रूप में देखते हैं जिसे चिकित्सकीय सहायता की आवश्यकता है और साथ ही उसे एक संपूर्ण इंसान के रूप में देखते हैं, जो अन्य लोगों के साथ जटिल सम्बंधों में उलझा है। दृष्टिकोण का यह दोहरापन और मरीज़ों तथा उनके परिवारों के साथ उनकी नज़दीकी, उन्हें ‘व्यक्तिगत स्वास्थ्य सेवा’ प्रदान करने के सक्षम बनाती है।

यह सरकारी और निजी क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाओं के बढ़ते व्यावसायीकरण के चलते डॉक्टरों से मिलने वाली नौकरशाही नुमा और बेरुखी से भरी सेवा के विपरीत है। फैमिली डॉक्टर लंबे समय तक मरीज़ों और उनके परिवारों को देखकर यह समझ सकते हैं कि अचानक होने वाली बीमारियां कैसे जीर्ण बीमारियां बन सकती हैं, और जीर्ण बीमारियों के कैसे अचानक गंभीर लक्षण उभर सकते हैं। वे मरीज़ों की विशेषताओं और व्यक्तिगत ज़रूरतों के अनुसार अपने निदान और उपचार में बदलाव करते हैं, जिसकी सफलता का स्तर अलग-अलग होता है।

समय के साथ, परिवार उनकी सलाह पर भरोसा करने लगते हैं और छोटी-बड़ी हर प्रकार की स्वास्थ्य चिंताओं पर उनकी राय लेते हैं। इस तरह, वे भरोसेमंद बन जाते हैं और मानसिक, शारीरिक और आध्यात्मिक राहत का एहसास कराते हैं।

निश्चित रूप से, भारत के दवाखानों और अस्पतालों में, खासकर हाशिए पर रहने वाले समूहों को ऐसी स्वास्थ्य सेवा मिलना दुर्लभ है। लेकिन, मुझे लगता है, IHPs इन आदर्शों को कुछ हद तक साकार करते हैं। ऐसा अक्सर वे सोच-समझकर नहीं करते, बल्कि यह उनके काम के ढांचे और स्थितियों से स्वाभाविक रूप से उभरता है।

उदाहरण के लिए, उनके दवाखाने के भौतिक वातावरण पर गौर कीजिए। डॉ. ‘आर’ के दवाखाने की तरह, आम तौर पर ये दवाखाने घनी बस्तियों में आवासीय और व्यावसायिक क्षेत्रों के बीच एक छोटे कमरे में चलते हैं, जहां कोई बड़ा साइनबोर्ड भी नहीं होता। अंदर ज़रा-सी जगह में एक मेज़, कुछ कुर्सियां, दवाइयों से भरी अलमारी, एक बिस्तर, मरीज़ और डॉक्टर, ये सब जगह के लिए होड़ करते नज़र आते हैं। इन दवाखानों के खुलने पर मरीज़ बिना किसी अपॉइंटमेंट या बिना किसी नौकरशाही के हस्तक्षेप के आ-जा सकते हैं।

मोहल्ला क्लीनिक (जो आम तौर पर दोपहर 2 बजे तक बंद हो जाते हैं) और अन्य सरकारी डिस्पेंसरी की तुलना में ये देर तक खुले रहते हैं। इनके एकदम नज़दीक जगह पर होने और ओपन-डोर (खुला दरबार) नीति के कारण यहां पहुंचना आसान होता है, जो अस्पतालों और नर्सिंग होम में आम तौर पर देखने को नहीं मिलता। जैसा कि एक मरीज़ ने बताया, “रात को काम खत्म करके हम यहां दवाइयां लेने आ सकते हैं या किसी भी समय इनसे (IHPs) फोन पर पूछ सकते हैं।”

इसके विपरीत सरकारी ‘मुफ्त’ स्वास्थ्य सेवाओं में अपनी बारी का घंटों लंबा इंतज़ार, भारी रिश्वत, सुरक्षा कर्मियों का दुर्व्यवहार और एक दिन की मज़दूरी का नुकसान का मतलब सिर्फ उनकी अक्षमता या अयोग्यता नहीं है। मानव विज्ञानी डेविड ग्रेबर के शब्दों में ये नौकरशाही-संस्थागत अनुभव ‘ढांचागत हिंसा’ के रूप में दर्ज होते हैं। हालांकि, IHPs और सरकारी अस्पताल एक-दूसरे के विकल्प नहीं हो सकते लेकिन IHPs की आसान उपलब्धता, सुलभता और सम्मानपूर्ण संवाद उन्हें छोटी बीमारियों और ज़ख्मों के लिए अधिक पसंदीदा विकल्प बनाते हैं।

जिस समुदाय की वे सेवा करते हैं, उसका सदस्य होने के नाते, IHPs का मरीज़ों के जीवन में लंबे समय का निवेश होता है। पड़ोसियों की भलाई के प्रति भावनात्मक चिंता के अलावा, उन्हें यह भी देखना होता है कि मरीज़ हमेशा इलाज के लिए आते रहें। यह आर्थिक मजबूरी उन्हें गलत या हानिकारक इलाज करने से रोकती है। उन्हें इस बात की गहरी समझ होती है कि किसी भी गलती से समुदाय के लोगों के साथ समस्या में फंस सकते हैं, इसलिए वे ‘पेचीदा’ मरीज़ों को पहचानने के तरीके विकसित कर लेते हैं। उदाहरण के लिए, वे शराब की लत के संकेतों की जांच करते हैं (जो लीवर क्षति का कारण हो सकता है) और ऐसे मरीज़ों को बड़े अस्पतालों में रेफर कर देते हैं।

डॉ. ‘टी’ (एक अन्य IHP) का कहना है कि मरीज़ों को समझने के लिए उनके आंतरिक जीवन को भी समझना होता है। उनकी परेशानी क्या है? क्या वे इसे सही ढंग से व्यक्त कर पा रहे हैं? डॉ. ‘टी’ का मानना है कि जब आप उनसे ढंग से बात करेंगे, तभी वे अपनी दिल की बात खुलकर कह पाएंगे। इस तरह से निदान केवल शरीर की जांच तक सीमित नहीं रहता बल्कि ऐसी परिस्थितियां बनाने की भी ज़रूरत होती है जहां मरीज़ अपनी बीमारी के अनुभव की बारीकियों को व्यक्त कर सकें।

IHPs और मरीज़ों के बीच का यह गहरा रिश्ता उनके संबोधन के तरीकों में भी झलकता है। लोग उन्हें ‘डाक्टर साब’, ‘अंकल’, ‘बेटा’, ‘भैया’ जैसे नामों से पुकारते हैं, जो ‘डॉक्टर – एक विशेषज्ञ’ और ‘मरीज़ – एक आम व्यक्ति’ के औपचारिक रिश्ते से परे परिचय और आत्मीयता को दर्शाता है। IHPs अपने क्लीनिकों में एक मिलनसार माहौल बनाए रखते हैं, जहां लोग सहजता से आते-जाते हैं, गपशप करते हैं या रोज़मर्रा के मामूली मुद्दों पर चर्चा करते हैं। इस तरह, सहज सम्बंध और मज़बूत होते हैं।

अक्सर बुज़ुर्ग IHPs नैतिक और सामाजिक सेवा के केंद्र बन जाते हैं। जैसे डॉ. ‘यू’ (एक अन्य IHP) का क्लीनिक छोटे बच्चों के लिए नर्सरी/ट्यूशन सेंटर के रूप में भी काम करता है। यहां वे नियमित रूप से धूम्रपान या नशीली दवाइयों के खतरों पर जागरूकता सत्र आयोजित करते हैं। देखभाल के ये नैतिक स्वरूप मरीज़ और प्रदाता के आपसी रिश्तों को भी समेट लेते हैं, जहां मरीज़ों को छूने को लेकर उन्हें कोई हिचक नहीं होती।

गंदे घावों की सफाई या खून साफ करने के बारे में बात करते हुए डॉ. ‘जी’ (एक अन्य IHP) बताते हैं “डॉक्टर को कभी घिन नहीं करना चाहिए।” बात भले ही मामूली लगे लेकिन भारत में शुद्धि-अशुद्धि से जुड़ी जाति आधारित मान्यताओं के मद्देनज़र ये छोटी-छोटी बातें काफी महत्वपूर्ण हो जाती हैं।

अपने मरीज़ों जैसी सामाजिक और भौतिक परिस्थितियों में रहने वाले IHPs यह बखूबी समझते हैं कि कैसे परिस्थितियां लोगों को बीमार बनाती हैं और कैसे उन्हें उचित इलाज से वंचित रखती हैं। बीमारियों को व्यक्तिगत जीवनशैली की बजाय अशुद्ध पानी या भोजन की कमी जैसे संरचनात्मक जोखिमों से जोड़ते हुए वे शहरी भारत की प्रमुख स्वास्थ्य समस्याओं के कुशल विश्लेषक के रूप में भी उभरते हैं।

मैंने देखा है कि मरीज़ की आर्थिक हालत को समझते हुए IHPs ने अक्सर मरीज़ों को यह छूट दी कि वे जब संभव हो फीस दे दें और लंबे समय तक उधारी में इलाज किया – जो औपचारिक चिकित्सा व्यवस्था में असंभव है। हकीकत में IHPs इस छवि से बहुत अलग होते हैं कि वे गरीबों का शोषण करने वाले ‘धोखेबाज’ होते हैं (हालांकि ऐसा करने वाले भी मौजूद हैं, जो औपचारिक क्षेत्र में भी उतने ही हैं)।

हालांकि, उनकी प्रैक्टिस कभी-कभी मरीज़ों के लिए खतरा पैदा कर सकती है लेकिन इन खतरों का इल्ज़ाम सिर्फ IHPs के सिर मढ़ना उचित नहीं होगा; बल्कि इन्हें प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा की व्यापक समस्याओं के रूप में देखना होगा। फिर भी, इन मुद्दों को गंभीरता से लेना आवश्यक है। IHPs द्वारा बिना सही निदान किए अनुभव आधारित इलाज और लक्षणों के आधार पर उपचार वास्तविक छिपी समस्याओं की गलत पहचान कर सकता है, जिससे समय के साथ स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। उनके द्वारा दी जाने वाली एंटीबायोटिक्स, दर्द निवारक दवाओं और स्टेरॉयड के उपयोग से व्यक्तिगत स्तर पर प्रतिकूल प्रभाव और सामुदायिक स्तर पर एंटी-माइक्रोबियल प्रतिरोध जैसी समस्याएं पैदा हो सकती हैं।

IHPs बताते हैं कि कभी-कभी वे दवा कंपनियों की मार्केटिंग चालों के शिकार हो जाते हैं। कंपनियों के एजेंट उन्हें संदिग्ध दवाओं को बढ़ावा देने के लिए राज़ी करते हैं और ये दवाएं फिर मरीज़ों तक पहुंचती हैं। हालांकि, ऐसे नुकसान को नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता, लेकिन अपने समुदायों में IHPs की अपरिहार्य भूमिका के कारण इस पर सीधे निष्कर्ष निकालना मुश्किल है। वे खुद को ‘सामाजिक कार्यकर्ता’ और ‘उद्यमशील सेवा प्रदाता’ के बीच कहीं देखते हैं, और इस तरह उनकी भूमिका को अनदेखा नहीं किया जा सकता।

कोविड के बाद के समय में, सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं पर बहस को अभूतपूर्व महत्व मिला है। भारत में विशेषज्ञ डॉक्टरों पर अत्यधिक निर्भरता के चलते, हाल ही में पश्चिम बंगाल जैसे राज्यों ने डॉक्टरों के लिए छोटे डिप्लोमा कोर्स प्रस्तावित किए हैं, और आंध्र प्रदेश ने फैमिली डॉक्टर कार्यक्रम शुरू किया है। ऐसे में, भारत के स्वास्थ्य सेवा तंत्र में IHPs की भूमिका पर गंभीर चर्चा का यह सही समय है।

बहरहाल, इस लेख का उद्देश्य इन बहसों से परे IHPs के दवाखानों में मरीज़ और डॉक्टर के सम्बंधों पर ध्यान केंद्रित करना है। कई लोग कहते हैं कि डैटा-आधारित स्वास्थ्य तकनीकों पर बढ़ती निर्भरता के कारण चिकित्सकीय सम्बंध कमज़ोर हो रहे हैं। लेकिन IHPs के क्लीनिक में इलाज कराने वाले लाखों लोगों के लिए यह सच नहीं है।

इसलिए, यह समझने की ज़रूरत है कि दवाखानों के अंदर के रिश्ते – जो बाहर की सामाजिक परिस्थितियों से भी प्रभावित होते हैं – स्वास्थ्य सेवा की सफलता-असफलता पर कैसे प्रभाव डालते हैं। IHPs के कार्य को गंभीरता से लेना हमें व्यावहारिक, वैचारिक और नैतिक सवाल पूछने का मौका देता है। क्या IHPs को प्रशिक्षित करने या संस्थागत रूप से शामिल करने से स्वास्थ्य परिणाम बेहतर हो सकते हैं, या यह उन्हीं औपचारिक पदानुक्रम सम्बंधों को बढ़ावा देगा?

अवधारणा के स्तर पर, IHP पर विचार करने से हमें यह पूछने का मौका मिलता है कि ‘डॉक्टर’ क्या हैं या कौन हैं? स्वास्थ्य सेवा प्रावधान में उनकी भूमिका की सीमाएं क्या होनी चाहिए? क्या डॉक्टर होने के लिए डिग्री ज़रूरी है, या सामाजिक मान्यता अधिक महत्वपूर्ण है? या ये दोनों ही ज़रूरी हैं? यदि है तो वह क्या है जो ‘डॉक्टर’ को ‘स्वास्थ्यकर्मी’ से अलग बनाती है?

अंतत:, क्या ‘गुणवत्ता’ केवल तकनीकी दक्षता, क्षमता, प्रभावशीलता और तार्किकता तक सीमित होनी चाहिए? या स्वास्थ्य सेवा के सामाजिक-नैतिक पहलू, जिन्हें नापना मुश्किल है, जैसे सहानुभूति, गरिमापूर्ण संवाद और प्रफुल्लता भी गुणवत्ता का अभिन्न हिस्सा होना चाहिए, न कि कोई अतिरिक्त वस्तु? (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://nivarana.org/article/informal-health-providers-can-their-role-in-the-society-be-ignored

जगमगाते कुकुरमुत्ते

आमोद कारखानिस

केरल वन एवं वन्यजीव विभाग तथा मशरूम्स ऑफ इंडिया समुदाय से जुड़े कुछ विशेषज्ञों ने केरल के रानीपुरम जंगलों में एक सर्वेक्षण किया था। इस सर्वेक्षण की रिपोर्ट से वनस्पति विज्ञान समुदाय बहुत उत्साहित है। इस क्षेत्र में मिलने वाले कुकुरमुत्तों (मशरूम) और कवकों की विभिन्न किस्मों का ब्यौरा देती इस रिपोर्ट में कुछ खास बात है जिसने वैज्ञानिक समुदाय को इतना उत्साहित कर दिया है।

हम सभी कुकुरमुत्ता (मशरूम) के बारे में जानते हैं। मानसून (monsoon season) में हमने कई बार सूख चुके पेड़ों के तनों पर सफेद छतरी जैसे मशरूम (wild mushrooms) उगते देखे हैं। ये अलग-अलग किस्मों, अलग-अलग रंगों के होते हैं। कुछ मशरूम खाने योग्य (edible mushrooms) भी होते हैं, और इन्हें खाने के लिए उगाया भी जाता है। अलबत्ता, कई मशरूम ज़हरीले (poisonous mushrooms) भी होते हैं। बताते हैं कि नारंगी रंग वाले मशरूम ज़हरीले होते हैं। प्राय: सफेद या काले रंग के मशरूम ही देखने को मिलते हैं।

रानीपुरम के इस जंगल (rainforest) में कई तरह के मशरूम हैं। तो क्या खास है यहां के मशरूम्स में?

ज़रा एक स्थिति की कल्पना कीजिए: घने बादलों से घिरी अंधेरी-काली रात है, बारिश अभी-अभी थमी है, और ऐसे में आप जंगल की किसी पगडंडी पर चले जा रहे हैं। यदि आप कोई शहरी व्यक्ति हैं जिसे शोर-शराबे की आदत है तो जंगल (dense forest) आपको बहुत निरव लगेगा, और जंगल का यह सन्नाटा भयावह। लेकिन जंगल में घुप सन्नाटा तो नहीं है; पत्तियों से पानी टपकने की टिप-टिप, सिकाडा (Cicada insect) का (कानफोड़ू) शोर, बीच-बीच में उल्लू की आवाज़। ये सब मिलकर एक अजीब सा माहौल बनाते हैं। और अचानक थोड़ी दूरी पर एक सफेद-सी आकृति दिखाई देती है। खैर, थोड़ा करीब जाकर देखेंगे तो वह आकृति कुल्लु (स्टर्कुलिया यूरेन्स) का पेड़ निकलती है। कोई आश्चर्य नहीं कि इसे भूतिया पेड़ (Ghost tree) कहते हैं।

जंगल के और अंदर चलिए। घने बादलों के तले, छोटी-सी टॉर्च के अलावा कोई और रोशनी नहीं है, वह भी सिर्फ पैरों के आसपास ही रास्ता दिखा पा रही है। जंगल के घुप अंधेरे को महसूस करने के लिए आप अपनी टॉर्च भी बंद कर लेते हैं। जैसे ही आंखें अंधेरे की आदी होती हैं कि फिर कुछ दिखाई देता है – कुछ हल्की हरी-सी चमक। इस चमक की तरफ बढ़कर देखते हैं तो पाते हैं कि जंगल के फर्श पर छोटी-छोटी टहनियां, पत्तों के डंठल, सबके सब चमकते हुए प्रतीत होते हैं। कहीं आप किसी आश्चर्यलोक में तो नहीं हैं? या किसी परी-लोक में? चारों ओर देखते हैं, तो पेड़ों की छाल की धारियां भी चमक रही हैं। मंत्रमुग्ध कर देने वाला नज़ारा है। एक चमकीला जंगल (glowing forest)!

यह कोई काल्पनिक नज़ारा या कहानी नहीं है, बल्कि यह वास्तविक अनुभव है। यदि कभी आप रात में जंगल में घूमे हों तो आपने भी शायद ऐसा अनुभव किया हो। मुझे यह अनुभव कई साल पहले महाराष्ट्र के भीमाशंकर के जंगलों में हुआ था। इस रोशनी को जैव-दीप्ति (बायोल्यूमिनेसेंस, Bioluminescence) कहा जाता है।

देखा जाए तो बायो-ल्यूमिनेसेंस (natural bioluminescence) हमारी जानी-पहचानी चीज़ है। हम सभी ने जुगनू (fireflies) देखे हैं। पश्चिमी घाट (Western Ghats) के आसपास रहने वालों के लिए यह एक सामान्य बात है। वैसे भी लगभग सभी जंगलों में जून के महीने में, मानसून की शुरुआत में सैकड़ों-हज़ारों की संख्या में जुगनू दिखाई देते हैं: नर और मादा दोनों प्रकाश उत्सर्जित करते हैं और टिमटिमाते हैं, लेकिन उनकी टिमटिमाने की लय अलग-अलग होती है। लगता है कि इस तरह से वे एक-दूसरे को ढूंढते हैं, प्रजनन साथी तलाशते हैं।

यह कीटों में जैव-दीप्ति (bioluminescent insects) है। वैसे और भी जीवों में जैव-दीप्ति देखने को मिलती है। लेकिन वनस्पतियों में जैव-दीप्ति मिलना दुर्लभ (rare bioluminescent fungi) है। कुछ कवक (फफूंद) चमकती हैं। कवक (fungi) की लगभग 10,000 प्रजातियों में से केवल 60 के करीब प्रजातियों में ही जैव-दीप्ति होती है। और ऐसी अधिकांश प्रजातियां केवल समुद्र (marine bioluminescence) में पाई जाती हैं।

पश्चिमी घाट के पुराने (लगभग अनछुए) वर्षा वनों में कुछ जैव-दीप्त कवक (glowing mushrooms) पाए जाते हैं। ऊपर वर्णित भीमाशंकर के जंगल के नज़ारों में जो जैव दीप्ति देखी गई है वह आर्मिलेरिया मेलिया (Armillaria mellea) कवक थी। मशरूम दरअसल कवक ही होते हैं। भारत में मायसिन (Mycena) की कुछ ऐसी प्रजातियां पाई जाती हैं जो जैव-दीप्त होती हैं।

रानीपुरम वन सर्वेक्षण (Ranipuram forest survey) की रिपोर्ट में लगभग 50 से अधिक कवक प्रजातियों की सूची है; इनमें से दो भारत के लिए नई खोजी गई प्रजातियां हैं। लेकिन इनमें से सबसे दिलचस्प है फिलोबोलेटस मैनिपुलेरिस (Phylloboletus manipularis)। यह एक बहुत ही दुर्लभ जैव-दीप्त मशरूम (rare glowing mushroom) है। यह कवक आम तौर पर ऑस्ट्रेलिया, मलेशिया और प्रशांत द्वीपों में पाई जाती है। तो फिर यह रानीपुरम तक कैसे पहुंची? सवाल दिलचस्प है और आगे अध्ययन की मांग करता है।

जैव-दीप्ति सजीवों में रासायनिक अभिक्रिया (chemical reaction in bioluminescence) के कारण होती है। यह काफी जटिल प्रक्रिया है, लेकिन इस प्रक्रिया में लूसिफेरिन (Luciferin) नामक रसायन की भूमिका होती है। (वास्तव में लूसिफेरिन रसायनों के एक समूह का नाम है। जैव-दीप्ति दिखलाने वाली हर प्रजाति में यह रसायन थोड़े-बहुत फर्क के साथ हो सकता है, लेकिन उनकी सामान्य संरचना एक-सी होती है।) लूसिफरेज़ (Luciferase) नामक एक एंज़ाइम की उपस्थिति में यह रसायन ऑक्सीकृत हो जाता है और ऑक्सीकरण की इस प्रक्रिया में कुछ ऊर्जा हरे या नीले प्रकाश (green or blue light emission) के रूप में निकलती है। दिलचस्प बात है कि इस रासायनिक अभिक्रिया में कोई ऊष्मा उत्पन्न नहीं होती है और अभिक्रिया कोशिका के सामान्य तापमान पर संपन्न होती है, इसलिए इसे शीत दहन (cold combustion) भी कहा जाता है।

महाराष्ट्र में पाए जाने वाले जैव-दीप्त कवक की रिपोर्ट एक पुराने, अछूते और बहुत नम वर्षावन (tropical rainforest) की है। लगभग 25 साल पहले भीमाशंकर के जंगल में मैंने जो कवक देखी थी, वह शिव ज्योतिर्लिंग मंदिर से कुछ दूरी पर स्थित घने जंगल में थी। लेकिन अब यह जंगल घना नहीं रहा। बढ़ते पर्यटन और भक्तों की बढ़ती संख्या ने वहां की जैव-विविधता को प्रभावित किया है। लेकिन लोनावला, मुलशी-ताम्हिनी जैसे पश्चिमी घाट के कई अंदरूनी इलाकों (करीब-करीब अछूते इलाकों) और गोवा के कुछ जंगलों में इस कवक की मौजूदगी की सूचना मिली है।

इसी संदर्भ में केरल में एक बहुत ही दुर्लभ जैव-दीप्त मशरूम (rare Kerala glowing mushroom) का मिलना बहुत महत्वपूर्ण है। इस प्रजाति का मिलना इस बात की ओर भी इशारा करता है कि हम अभी भी पश्चिमी घाट के जंगल के बारे में सब कुछ नहीं जानते हैं। इन जंगलों में कई और नई प्रजातियां होंगी जिन्हें खोजा जाना बाकी है। हम काटे गए जंगलों की क्षतिपूर्ति के लिए वृक्षारोपण करके वृक्षाच्छादन तो बढ़ा सकते हैं, लेकिन जंगलों ने हज़ारों वर्षों में जो जैव-विविधता विकसित की है, उसे वैसा का वैसा पनपाना मुश्किल है। इसलिए हमें इनके संरक्षण का हर संभव प्रयास करना चाहिए। विकास की आड़ में विनाश कर हम इस बात से अनभिज्ञ हैं कि इस प्रक्रिया में हम क्या खोते जा रहे हैं! (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.sanskritiias.com/uploaded_files/images//MANIPULRIS.jpg

सबके लिए स्वास्थ्य हासिल करने ‘मिशन पॉसिबल’

डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

चेन्नई स्थित नोशन प्रेस द्वारा प्रकाशित स्वामी सुब्रमण्यन और अपराजितन श्रीवत्सन अपनी किताब मिशन पॉसिबल में सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज (Universal Health Coverage – UHC) सुगम करने के लिए राह बनाने के तरीके सुझाते हैं। यह किताब सकारात्मक ऊर्जा से भरपूर है। किताब 143 करोड़ की जनसंख्या वाले भारत (India Population) (जहां 38% बच्चे और 11% वरिष्ठ नागरिक हैं) को ध्यान में रखते हुए सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज करने की बात कहती है। सार्वभौमिक स्वास्थ्य कवरेज कोई आसान काम नहीं है, और लेखक इसे हासिल करने के तरीके सुझाते हैं।

शुक्र है कि विश्लेषण के आधुनिक तरीकों में हुई प्रगति और सूचना प्रौद्योगिकी (Information Technology – IT) की मदद से यह हासिल करना अब संभव लगता है। यह कहना है दी लैंसेट में प्रकाशित लेख ‘रीइमेजिनिंग इंडिया’स हेल्थ सिस्टम (Reimagining India’s Health System)’ का। इस प्रयास का नेतृत्व अकादमिक लोगों, वैज्ञानिक समुदाय (Scientific Community), सिविल सोसायटी के संगठनों और निजी स्वास्थ्य सेवा (Private Healthcare Sector) के अग्रज़ों द्वारा किया जाना चाहिए। दी पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया (Public Health Foundation of India – PHFI) ने भारत में एक एकीकृत स्वास्थ्य प्रणाली (Integrated Healthcare System) के निर्माण का सुझाव दिया था, जिसके अंतर्गत सार्वभौमिक स्वास्थ्य बीमा (Universal Health Insurance) का प्रावधान, स्वास्थ्य सेवा में जवाबदेह व प्रमाण-आधारित अच्छी गुणवत्ता के तौर-तरीकों को बढ़ावा देने और प्रशिक्षित मानव संसाधन (Skilled Healthcare Workforce) के विकास के लिए स्वायत्त संस्थाओं की स्थापना, स्वास्थ्य प्रशासन का पुनर्गठन करके उसे अधिक समन्वित तथा विकेंद्रीकृत बनाना और कानून बनाकर समस्त भारतीयों को स्वास्थ्य का हक देना शामिल होगा।

गुणवत्ता में सुधार (Quality Improvement in Healthcare)

इसमें शामिल है भारत में प्रोत्साहक, निवारक और उपचारात्मक स्वास्थ्य सेवाओं (Preventive and Curative Healthcare Services) के प्राथमिक प्रदाता के रूप में सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली (Public Healthcare System) को मज़बूत करना, राष्ट्रीय स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली (National Healthcare System) के भीतर निजी क्षेत्र (Private Sector in Healthcare) का एकीकरण करके गुणवत्ता में सुधार और स्वास्थ्य सम्बंधी खर्च को कम करना। वास्तव में 1946 में, जब आधुनिक इलेक्ट्रॉनिक संचार प्रणाली नहीं थी, तब भोर समिति (Bhore Committee Report 1946) की रिपोर्ट ने भारत की सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली की नींव रखी थी। इसने एक त्रि-स्तरीय स्वास्थ्य सेवा प्रणाली (Three-Tier Healthcare System) स्थापित करने की सिफारिश की थी, जिसमें सुरक्षात्मक और निवारक सेवाओं को एकीकृत करने और उपचार की फीस भुगतान करने की क्षमता की परवाह किए बिना चिकित्सा सेवा तक सभी की पहुंच सुनिश्चित करने पर ज़ोर दिया गया था। समिति ने चिकित्सा शिक्षा प्रणाली (Medical Education System in India) में बड़े बदलाव भी सुझाए थे।

मिशन पॉसिबल बताती है कि जिस तरह आधार कार्ड (Aadhaar Card) का इस्तेमाल व्यक्तिगत पहचान और चुनाव में मतदाता पहचान के लिए किया जाता है, ठीक उसी तरह आधुनिक सूचना प्रौद्योगिकी (HealthTech – Healthcare Technology) का उपयोग करने वाले स्वास्थ्य सेवा कार्यकर्ताओं (Community Health Workers – CHWs) की टीमों द्वारा सर्वोत्तम स्वास्थ्य सेवा मुहैया कराई जा सकती है। इन टीमों में एक स्थानीय चिकित्सक (Primary Care Doctor) होगा, जिसकी मदद के लिए सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं (CHWs) का एक समूह होगा। ये सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता (आपात स्थिति को छोड़कर) डॉक्टर के कामों का लगभग 75% काम कर सकते हैं, और मोबाइल फोन (Mobile Health – mHealth) और रोगियों के इलेक्ट्रॉनिक मेडिकल रिकॉर्ड (Electronic Medical Records – EMR) जैसे साधनों का उपयोग कर सकते हैं। इस टीम में सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता से लेकर किसी एक अस्पताल में विशेषज्ञ तक शामिल हैं और जैसा कि लेखक कहते हैं, ‘प्रौद्योगिकी एक ऐसी गोंद है जो इस टीम को जोड़े रख सकती है’। प्रत्येक सामुदायिक स्वास्थ्य कार्यकर्ता लगभग 40,000 की आबादी की सेवा करेगा, और तृतीयक देखभाल देने वाले 75 बिस्तरों वाले ज़िला अस्पताल (District Hospital) के साथ काम करेगा। प्रत्येक राज्य में एक विश्व स्तरीय चिकित्सा सुविधा (Top Medical Institute in India) होनी चाहिए (जैसे, दिल्ली का AIIMS (All India Institute of Medical Sciences – AIIMS), हैदराबाद का NIMS (Nizam’s Institute of Medical Sciences – NIMS))। सभी एमबीबीएस (MBBS) (और एमएससी बायोटेक (MSc Biotechnology)) के विद्यार्थियों को सामुदायिक चिकित्सा में तीन महीने का प्रशिक्षण लेना चाहिए।

आगे लेखक का सुझाव है कि जिस तरह ज़िला प्रशासन में भारतीय प्रशासनिक सेवा (Indian Administrative Service – IAS) की भूमिका होती है, उसी तरह एक भारतीय चिकित्सा सेवा (Indian Medical Service – IMS) का गठन किया जाना चाहिए। विशेषज्ञ चिकित्सक (Specialist Doctors) राज्य स्तर पर मदद करें। इसके अलावा, सरकारी चिकित्सा तंत्र के साथ-साथ निजी चिकित्सा केंद्रों एवं संस्थाओं को गुणवत्तापूर्ण स्वास्थ्य सेवा प्रदान करने की अनुमति दी जानी चाहिए। दरअसल, दक्षिण भारत (South India Healthcare Model) में कई नेत्र विज्ञान संस्थान (Ophthalmology Institutes in India) ऐसा कर भी रहे हैं; पिरामिडनुमा चार-स्तरीय मॉडल (Four-Tier Healthcare Model) का उपयोग करते हुए, गांव और शहर के नेत्र देखभाल कर्मचारियों को अस्पतालों के ज़रिए विश्व स्तरीय नेत्र अनुसंधान केंद्रों (Eye Research Centers) से जोड़ा गया है। रोगियों को निदान के लिए नेत्र अस्पताल तक भी नहीं जाना पड़ता है, नेत्र चिकित्सक आधुनिक प्रौद्योगिकियों (Telemedicine in India) की मदद से घर पर ही रोगी की आंखों की जांच करते हैं। इस तरह, सबके लिए स्वास्थ्य (Healthcare for All) की राह बनाई जा सकती है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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