साफ-सफाई की अति हानिकारक हो सकती है

स्वच्छता का एक नकारत्मक पहलू भी हो सकता है। हाल ही में किए गए एक अध्ययन से पता चला है कि सफाई के लिए सुगंधित उत्पादों का उपयोग करने से लगभग उतने ही वायुवाहित सूक्ष्म कणों का उत्पादन होता है जितना शहर की एक व्यस्त सड़क पर होता है। और इन छोटे कणों के निरंतर संपर्क में रहने से सफाईकर्मियों के स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव पड़ सकता है।

कभी-कभी घरों, स्कूलों और कार्यालयों के अंदर का वातावरण बाहर के वातावरण से भी अधिक प्रदूषित हो सकता है। मोमबत्ती, धूप, सिगरेट जलाना स्थिति को और गंभीर बना सकते हैं। गैस स्टोव और खाना पकाने से भी हवा में हानिकारक कण उत्सर्जित होते हैं जो दमा और अन्य समस्याओं को जन्म देते हैं।

इसके अतिरिक्त, साफ-सफाई में उपयोग होने वाले उत्पादों से भी प्रदूषण होता है जिनमें उपस्थित वाष्पशील कार्बनिक यौगिक हवा में उपस्थित ओज़ोन के साथ क्रिया करते हैं और एयरोसोल में परिवर्तित हो जाते हैं। इन उत्पादों में मौजूद लिमोनीन तथा अन्य मोनोटरपीन इमारतों में उपस्थित ओज़ोन से अभिक्रिया कर परॉक्साइड, अल्कोहल और अन्य कणों में परिवर्तित होते हैं। ये कण फेफड़ों में गहराई तक प्रवेश कर दमा जैसी समस्याओं को जन्म दे सकते हैं। कुछ लोगों में ये कण दिल के दौरे और स्ट्रोक का कारण बन सकते हैं।

अध्ययन के लिए शोधकर्ताओं ने एक छोटे कमरे (50 क्यूबिक मीटर) का उपयोग किया। सुबह टरपीन आधारित क्लीनर से फर्श को 12-14 मिनट तक साफ किया गया। इसके बाद अत्याधुनिक उपकरणों की मदद से अगले 90 मिनट तक कमरे में अणुओं और कणों की निगरानी की गई।

एकत्रित डैटा के आधार पर शोधकर्ताओं ने यह गणना की कि पोंछा लगाने वाला व्यक्ति आधे माइक्रॉन से छोटे कितने कण सांस में लेगा। एडवांसेस साइंस में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार एक व्यक्ति के शरीर में सांस के साथ प्रति मिनट एक अरब से 10 अरब नैनोपार्टिकल्स प्रवेश करेंगे। यह किसी व्यस्त सड़क के बराबर है।  

इसके अलावा शोधकर्ताओं ने हाइड्रॉक्सिल और हाइड्रोपेरॉक्सिल जैसे रेडिकल्स (अल्पकालिक अणुओं) का भी पता लगाया जो आम तौर पर बाहरी (आउटडोर) वातावरण के कणों में पाए जाते हैं। ऐसे अणु कमरे के भीतर भी पाए गए जो मोनोटरपीन्स और ओज़ोन की क्रियाओं से उत्पन्न होते हैं।

तो क्या किया जाए? पर्याप्त वेंटिलेशन एक अच्छा उपाय है लेकिन यह बाहर से खतरनाक ओज़ोन को भी अंदर आने का रास्ता देता है। इसके लिए एक्टिवेटिड कार्बन फिल्टर का उपयोग किया जा सकता है।

ओज़ोन स्तर को सीमित रखना भी एक उपाय हो सकता है। सफाई का काम सुबह-शाम करना उचित होगा क्योंकि इस समय वातावरण में ओज़ोन का स्तर काफी कम होता है। लिमोनीन और अन्य प्रकार के टरपीन आधारित उत्पादों के उपयोग को भी खत्म करना चाहिए। इसके अलावा, सफाई के कुछ घंटों बाद इन छोटे कणों का आकार बड़ा हो जाता है और वे भारी होकर नीचे बैठ जाते हैं। तब ये हानिरहित हो जाते हैं। (स्रोत फीचर्स) 

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.ada1701/full/_20220225_on_indoorairquality.jpg

बाल्ड ईगल में सीसा विषाक्तता

हाल ही में किए गए एक अध्ययन में अमेरिका के लगभग आधे बाल्ड और गोल्डन ईगल पक्षियों में सीसा (लेड) विषाक्तता पाई गई है। गौरतलब है कि बाल्ड ईगल यूएसए का राष्ट्रीय पक्षी है। इस स्तर की विषाक्तता को देखते हुए इन प्रजातियों का पुनर्वास काफी मुश्किल प्रतीत होता है।

गौरतलब है कि 1960 के दशक में डीडीटी के इस्तेमाल के कारण बाल्ड ईगल (हैलीएटस ल्यूकोसेफेलस) लगभग विलुप्त हो गए थे। डीडीटी के प्रभाव से पक्षियों के अंडे के छिलके कमज़ोर होते थे और चूज़े अंडे से बाहर आने से पहले ही मर जाते थे। 1972 में डीडीटी पर प्रतिबंध लगने और 1973 के जोखिमग्रस्त प्रजाति अधिनियम ने बाल्ड ईगल को सुरक्षा प्रदान की। वर्तमान में जंगलों में 3 लाख से अधिक बाल्ड ईगल उपस्थित हैं।

यानी बाल्ड ईगल की आबादी तो ठीक-ठाक है लेकिन गोल्डन ईगल (एक्विला क्रायसाटोस) जैसे अन्य शिकारी पक्षियों की स्थिति काफी नाज़ुक है। डीडीटी की बजाय गोलाबारूद सहित अन्य सीसा संदूषक अभी भी काफी मात्रा में उपस्थित हैं। शिकार किए गए हिरण में उपस्थित कारतूस या किसी अन्य जीव के माध्यम से ग्रहण किया गया सीसा खून और लीवर में पहुंच जाता है। यदि लंबे समय तक भोजन में सीसा मिलता रहे तो यह हड्डियों में भी संग्रहित होने लगता है।

वन्यजीव पुनर्वास क्लीनिक लंबे समय से चील के पेट में कारतूस के टुकड़ों के मिलने की सूचना देते रहे हैं। चीलों में विषाक्तता के व्यापक स्तर पर फैलने के संकेत मिले हैं। इसलिए एक गैर-मुनाफा संगठन कंज़रवेशन साइंस ग्लोबल के जीव विज्ञानी विन्सेंट स्लेब और उनके सहयोगियों ने 8 वर्षों तक 1210 बाल्ड और गोल्डन ईगल के ऊतक एकत्रित किए।       

लगभग 64 प्रतिशत बाल्ड ईगल और 47 प्रतिशत गोल्डन ईगल में दीर्घकालिक सीसा विषाक्तता के साक्ष्य मिले। वैज्ञानिकों को 27 से 33 प्रतिशत बाल्ड ईगल और 7 से 35 प्रतिशत गोल्डन ईगल में सीसा के हालिया संपर्क के संकेत मिले हैं। साइंस में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार इसकी वजह से बाल्ड ईगल और गोल्डन ईगल की जनसंख्या वृद्धि में क्रमश: 3.8 प्रतिशत और 0.8 प्रतिशत की कमी आएगी। शोधकर्ताओं के अनुसार जनसंख्या वृद्धि में 3.8 प्रतिशत की गिरावट से बाल्ड ईगल की जनसंख्या पर कोई खास प्रभाव तो नहीं पड़ेगा क्योंकि कई स्थानीय आबादियों में प्रजनन न कर रहे व्यस्कों का एक समूह होता है जो फिर से प्रजनन शुरू कर सकता है। फिर भी स्थिति चिंताजनक है।

विशेषज्ञों के अनुसार सीसा विषाक्तता का प्रभाव मछलियों, स्तनधारियों और अन्य पक्षियों पर भी हुआ है। संरक्षणवादी सीसा आधारित कारतूस पर प्रतिबंध लगाने की मांग कर रहे हैं। कैलिफोर्निया में तो 2019 में कैलिफोर्निया कोंडोर की रक्षा के लिए इस पर प्रतिबंध लगाया जा चुका है। शोधकर्ता शिकारियों को सीसा विषाक्तता के बारे में जागरूक करने और तांबे के कारतूस का इस्तेमाल करने का सुझाव देते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://akm-img-a-in.tosshub.com/indiatoday/images/bodyeditor/202202/Bald_eagle_1-x675.jpeg?zpCEmE_4hkvW10SNb5gmAi4MLrpqhUMH

जीएम खाद्यों पर पूर्ण प्रतिबंध ही सबसे उचित नीति है – भरत डोगरा

जेनेटिक रूप से परिवर्तित (जीएम) खाद्यों के नियमन के लिए सरकारी नीति पर हाल के समय पर तीखी बहस देखी गई है। सरकारी स्तर पर जनता व विशेषज्ञों से इस बारे में राय मांगी गई। अनेक संगठनों व संस्थानों ने कहा कि जीएम खाद्यों पर पहले से जो पूर्ण प्रतिबंध चला आ रहा है, वही जारी रहना चाहिए। हाल ही में भारत के 160 डॉक्टरों का एक संयुक्त बयान जारी हुआ है जिसमें जीएम खाद्यों के अनेक खतरों को बताते हुए इन पर लगे प्रतिबंध को जारी रखने का आग्रह किया गया है।

भारत में जीएम सरसों व बीटी बैंगन पर बहस के दौरान भी जीएम खाद्यों पर पर्याप्त जानकारियां सामने आ चुकी हैं। दूसरी ओर, आयातित जीएम खाद्यों व विशेषकर प्रोसेस्ड आयातों पर से रोक हटाने के लिए दबाव बढ़ रहा है।

जेनेटिक इंजीनियरिंग से प्राप्त की गई फसलों का मनुष्यों व सभी जीवों के स्वास्थ्य पर बहुत प्रतिकूल असर पड़ सकता है। निष्ठावान वैज्ञानिकों के अथक प्रयासों से जीएम फसलों के गंभीर खतरों को बताने वाले दर्जनों अध्ययन उपलब्ध हैं। जैफरी एम. स्मिथ की पुस्तक जेनेटिक रुले (जुआ) में ऐसे दर्जनों अध्ययनों का सार-संक्षेप उपलब्ध है। इनमें चूहों पर हुए अनुसंधानों में आमाशय, लीवर, आंतों जैसे विभिन्न अंगों के बुरी तरह क्षतिग्रस्त होने की चर्चा है। जीएम फसल या उत्पाद खाने वाले पशु-पक्षियों के मरने या बीमार होने तथा मनुष्यों में भी गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं का वर्णन है।

वैज्ञानिकों के संगठन युनियन ऑफ कंसर्न्ड साइंटिस्ट्स ने कुछ समय पहले कहा था कि जेनेटिक इंजीनियरिंग उत्पादों पर फिलहाल रोक लगनी चाहिए क्योंकि ये असुरक्षित हैं। इनसे उपभोक्ताओं, किसानों व पर्यावरण को कई खतरे हैं। 11 देशों के वैज्ञानिकों की इंडिपेंडेंट साइंस पैनल ने जीएम फसलों के स्वास्थ्य के लिए अनेक संभावित दुष्परिणामों की ओर ध्यान दिलाया है। जैसे प्रतिरोधक क्षमता पर प्रतिकूल असर, एलर्जी, जन्मजात विकार, गर्भपात आदि। भारत में सेंटर फॉर सेल्यूलर एंड मॉलीक्यूलर बायोलॉजी के पूर्व निदेशक प्रो. पुष्प भार्गव ने कहा था कि बीटी बैंगन को स्वीकृति देना एक बड़ी आपदा बुलाने जैसा है।

भारत में बीटी बैंगन के संदर्भ में विश्व के 17 विख्यात वैज्ञानिकों ने एक पत्र लिखकर इस बारे में नवीनतम जानकारी उपलब्ध करवाई थी। पत्र में कहा गया है कि जीएम प्रक्रिया से गुज़रने वाले पौधे का जैव-रासायनिक संघटन व कार्यिकी बुरी तरह अस्त-व्यस्त हो जाते हैं जिससे उसमें नए विषैले या एलर्जी उत्पन्न करने वाले तत्त्वों का प्रवेश हो सकता है व उसके पोषण गुण/परिवर्तित हो सकते हैं। उदाहरण के लिए गैर-जीएम मक्का की तुलना में मक्के की जीएम किस्म जीएम एमओएन 810 में 40 प्रोटीनों की उपस्थिति महत्त्वपूर्ण हद तक बदल जाती है।

जीव-जंतुओं पर जीएम खाद्य के नकारात्मक स्वास्थ्य असर किडनी, लीवर, आहार नली, रक्त कोशिका, रक्त जैव रसायन व प्रतिरोधक क्षमता पर सामने आ चुके हैं।

17 वैज्ञानिकों के इस पत्र में आगे कहा गया कि जिन जीएम फसलों को स्वीकृति मिल चुकी है उनके संदर्भ में भी अध्ययनों में यही नकारात्मक स्वास्थ्य परिणाम नज़र आए हैं, जिससे पता चलता है कि कितनी अपूर्ण जानकारी के आधार पर जीएम फसलों स्वीकृति दे दी जाती है।

बीटी मक्का पर मानसेंटो कंपनी के अनुसंधान का जब पुनर्मूल्यांकन हुआ तो अल्प-कालीन अध्ययन में भी नकारात्मक स्वास्थ्य परिणाम दिखाई दिए। बीटी के विषैलेपन से एलर्जी का खतरा जुड़ा हुआ है। बीटी बैंगन जंतुओं को खिलाने के अध्ययनों पर महिको-मानसेंटो ने के दस्तावेज में लीवर, किडनी, खून व पैंक्रियास पर नकारात्मक स्वास्थ्य परिणाम नज़र आते हैं। अल्पकालीन (केवल 90 दिन या उससे भी कम) अध्ययन में भी प्रतिकूल परिणाम नज़र आए। लंबे समय के अध्ययन से और भी प्रतिकूल परिणाम सामने आते। अत: इन वैज्ञानिकों ने कहा कि बीटी बैंगन के सुरक्षित होने के दावे का कोई औचित्य नहीं है।

बीटी कपास या उसके अवशेष खाने के बाद या ऐसे खेत में चरने के बाद अनेक भेड़-बकरियों के मरने व अनेक पशुओं के बीमार होने के समाचार मिले हैं। डॉ. सागरी रामदास ने इस मामले पर विस्तृत अनुसंधान किया है। उन्होंने बताया है कि ऐसे मामले विशेषकर आंध्र प्रदेश, हरियाणा, कर्नाटक व महाराष्ट्र में सामने आए हैं। पर अनुसंधान तंत्र ने इस पर बहुत कम ध्यान दिया है। भेड़ बकरी चराने वालों ने स्पष्ट बताया कि सामान्य कपास के खेतों में चरने पर ऐसी स्वास्थ्य समस्याएं पहले नहीं देखी गई थीं। हरियाणा में दुधारू पशुओं को बीटी काटन बीज व खली खिलाने के बाद उनमें दूध कम होने व प्रजनन की गंभीर समस्याएं सामने आईं।

बीटी बैंगन पर रोक लगाते हुए तत्कालीन पर्यावरण मंत्री जयराम रमेश ने जो दस्तावेज जारी किया था, उसमें उन्होंने बताया था कि स्वास्थ्य के खतरे के बारे में उन्होंने भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद के महानिदेशक व भारतीय सरकार के औषधि नियंत्रक से चर्चा की थी। इन दोनों अधिकारियों ने कहा कि विषैलेपन व स्वास्थ्य के खतरे सम्बंधी स्वतंत्र परीक्षण होने चाहिए।

लगभग 100 डाक्टरों के एक संगठन ‘खाद्य व सुरक्षा के लिए डाक्टर’ ने भी पर्यावरण मंत्री को जीएम खाद्य व विशेषकर बीटी बैंगन के खतरे के बारे में जानकारी भेजी। उनके दस्तावेज में बताया गया कि पारिस्थितिकीय चिकित्सा शास्त्र की अमेरिका अकादमी ने अपनी संस्तुति में कहा है कि जीएम खाद्य से बहुत खतरे जुड़े हैं व इन पर मनुष्य के स्वास्थ्य की सुरक्षा की दृष्टि से पर्याप्त परीक्षण नहीं हुए हैं।

तीन वैज्ञानिकों मे वान हो, हार्टमट मेयर व जो कमिन्स ने जेनेटिक इंजीनियंरिंग की विफलताओं की पोल खोलते हुए एक महत्त्वपूर्ण दस्तावेज इकॉलाजिस्ट पत्रिका में प्रकाशित किया है। इस दस्तावेज के अनुसार बहुचर्चित चमत्कारी ‘सूअर’ या ‘सुपरपिग’, जिसके लिए मनुष्य की वृद्वि के हारमोन प्राप्त किए गए थे, बुरी तरह ‘फ्लॉप’ हो चुका है। इस तरह जो सूअर वास्तव में तैयार हुआ उसको अल्सर थे, वह जोड़ों के दर्द से पीड़ित था, अंधा था और नपुसंक था।

इसी तरह तेज़ी से बढ़ने वाली मछलियों के जीन्स प्राप्त कर जो सुपरसैलमन मछली तैयार की गई उसका सिर बहुत बड़ा था, वह न तो ठीक से देख सकती थी, न सांस ले सकती थी, न भोजन ग्रहण कर सकती थी व इस कारण शीघ्र ही मर जाती थी।

बहुचर्चित भेड़ डॉली के जो क्लोन तैयार हुए वे असामान्य थे व सामान्य भेड़ के बच्चों की तुलना में जन्म के समय उनकी मृत्यु की संभावना आठ गुणा अधिक पाई गई।

इन अनुभवों को देखते हुए जीएम खााद्यों को हम कितना सुरक्षित मानेंगे यह विचारणीय विषय है। इनके बारे में सामान्य नागरिक को सावधान रहना चाहिए व उपभोक्ता संगठनों को नवीनतम जानकारी नागरिकों तक पहुंचानी चाहिए। पर सबसे ज़रूरी कदम तो यह उठाना चाहिए कि जीएम फसलों के प्रसार पर कड़ी रोक लगा देनी चाहिए।

इन सब तथ्यों को ध्यान में रखते हुए रेखांकित करना ज़रूरी है कि जीएम खाद्यों पर जो विज्ञान आधारित प्रतिबंध भारत में लगा हुआ है उसे जारी रहना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.azernews.az/media/pictures/gmo-no.jpg

छिपकली की पूंछ की गुत्थी

ब जान पर बनती है तो कुछ जीव अपने अंग त्याग कर जान बचाने का विकल्प चुनते हैं। इस तरह स्वेच्छा से अंग त्यागने की क्षमता को आत्म-विच्छेदन (ऑटोटॉमी) कहते हैं। खतरा आने पर मकड़ियां अपने पैरों को त्याग देती हैं, केंकड़े पंजे त्याग देते हैं और कुछ छोटे कृंतक थोड़ी त्वचा त्याग देते हैं। कुछ समुद्री घोंघे तो परजीवी-संक्रमित शरीर से छुटकारा पाने के लिए सिर धड़ से अलग कर लेते हैं।

ऑटोटॉमी का जाना-माना उदाहरण छिपकलियों का है। शिकारियों से बचने के लिए कई छिपकलियां अपनी पूंछ त्याग देती हैं और पूंछ छटपटाती रहती है। यह व्यवहार शिकारी को भ्रमित कर देता है और छिपकली को भागने का समय मिल जाता है। हालांकि छिपकली के पूंछ खोने के घाटे भी हैं – पूंछ पैंतरेबाज़ी करने, साथी को रिझाने और वसा जमा करने के काम आती हैं – लेकिन उसे त्यागकर जान बच जाती है। और तो और, कई छिपकलियां में नई पूंछ बनाने में की क्षमता भी होती है।

वैज्ञानिकों के लिए छिपकली का यह व्यवहार अध्ययन का विषय रहा है। लेकिन यह अनसुलझा ही रहा कि ऐसी कौन सी संरचनाएं हैं जिनकी मदद से छिपकली अपनी पूंछ को एक पल में छिटक सकती है जबकि सामान्य स्थिति में वह कसकर जुड़ी रहती है? न्यूयॉर्क युनिवर्सिटी अबू धाबी के बायोमेकेनिकल इंजीनियर योंग-अक सोंग इसे ‘पूंछ की गुत्थी’ कहते हैं।

डॉ. सोंग और उनके साथियों ने कई ताज़ा कटी हुए पूंछों का अध्ययन करके गुत्थी हल करने का सोचा। उन्होंने तीन प्रजातियों की छिपकलियों पर अध्ययन किया: दो प्रकार की गेको और एक रेगिस्तानी छिपकली (श्मिट्स फ्रिंजटो छिपकली)।

अध्ययन के लिए उन्होंने छिपकलियों की पूंछ को अपनी अंगुलियों से खींचा, ताकि वे अपनी पूंछ त्याग दें। छिपकलियों की इस प्रतिक्रिया को उन्होंने 3,000 फ्रेम प्रति सेकंड की रफ्तार से कैमरे में कैद किया। फिर वैज्ञानिकों ने छटपटाती पूंछों का इलेक्ट्रॉन माइक्रोस्कोप से अवलोकन किया। उन्होंने पाया कि हर वह जगह जहां से पूंछ शरीर अलग हुई थी, कुकुरमुत्तों जैसे खंभों से भरी हुई थी। अधिक ज़ूम करने पर उन्होंने देखा कि प्रत्येक संरचना की टोपी पर कई सूक्ष्म छिद्र थे। शोधकर्ता यह देखकर हैरत में थे कि पूंछ के शरीर से जुड़ाव वाली जगह इंटरलॉकिंग के बजाय प्रत्येक खंड पर सघनता से सूक्ष्म खंभे केवल हल्के से स्पर्श कर रहे थे।

कटी हुई पूंछ का ठूंठ

हालांकि, पूंछ के विच्छेदन वाली जगह की कंप्यूटर मॉडलिंग करने पर पता चला कि ये सूक्ष्म संरचनाएं संग्रहित ऊर्जा को मुक्त करने में माहिर होती हैं। इसका एक कारण यह है कि इन संरचनाओं की टोपियों में सूक्ष्म रिक्त स्थान होते हैं। ये रिक्त स्थान हर झटके की ऊर्जा अवशोषित कर लेते हैं और पूंछ को जोड़े रखते हैं।

शोधकर्ताओं ने पाया कि ये सूक्ष्म संरचनाए खींचने जैसे झटके तो झेल जाती हैं और पूंछ जोड़े रखती हैं लेकिन ऐंठनको नहीं झेल पाती हैं – हल्की सी ऐंठन से ही पूंछ अलग हो सकती है। पूंछ खींचने की तुलना में पूंछ मोड़ने पर पूंछ अलग होने की संभावना 17 गुना अधिक थी। शोधकर्ताओं द्वारा लिए गए स्लोमोशन वीडियो में दिखा कि छिपकलियों ने शरीर से पूंछ को अलग करने के लिए बहुत ही सफाई से अपनी पूंछ को घुमाया था। साइंस पत्रिका में प्रकाशित  निष्कर्ष बताते हैं कि कैसे पूंछ में मज़बूती और नज़ाकत के बीच संतुलन दिखता है।

इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी कानपुर के केमिकल इंजीनियर अनिमांगशु घटक बताते हैं कि छिपकली की पूंछ की संरचना गेको और पेड़ के मेंढकों के पैर की उंगलियों पर पाई जाने वाली चिपचिपी सूक्ष्म संरचनाओं की याद दिलाते हैं। वे बताते हैं कि चिपकने और अलग होने के बीच सही संतुलन होना चाहिए, क्योंकि यह इन जानवरों को खड़ी सतहों पर चढ़ने में सक्षम बनाता है। शोधकर्ताओं का कहना है कि छिपकली की पूंछ को अलग करने की प्रणाली को समझकर इस तंत्र उपयोग का कृत्रिम अंग लगाने, त्वचा प्रत्यारोपण वगैरह में किया जा सकता है। इससे रोबोट को टूटे हुए हिस्सों को अलग करने में भी सक्षम बनाया जा सकेगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : http://4.bp.blogspot.com/-0Ec-R5Km9QY/UrQn1lhWDvI/AAAAAAAAAsk/oRSYJ4342eg/s400/White-headed_dwarf_gecko.jpg
https://www.realclearscience.com/images/wysiwyg_images/lizardtail.jpg

सूर्य के पड़ोसी तारे का पृथ्वी जैसा ग्रह मिला

हाल ही में खगोलविदों ने एक नए ग्रह की खोज की है। यह सूर्य के निकटतम तारे प्रॉक्सिमा सेंटोरी की परिक्रमा करने वाला तीसरा ग्रह है जिसे प्रॉक्सिमा सेंटोरी-डी नाम दिया गया है, और यहां तरल पानी का समंदर होने की संभावना है।

युनिवर्सिटी ऑफ पोर्तो के इंस्टीट्यूट ऑफ एस्ट्रोफिज़िक्स एंड स्पेस साइंस के खगोलविद जोआओ फारिया और उनके साथियों ने प्रॉक्सिमा सेंटोरी तारे से आने वाले प्रकाश वर्णक्रम में सूक्ष्म विचलन को मापकर प्रॉक्सिमा सेंटोरी-डी का पता लगाया है – ग्रह का गुरुत्वाकर्षण परिक्रमा के दौरान सूर्य को अपनी ओर खींचता है। खगोलविदों ने एस्प्रेसो नामक एक अत्याधुनिक दूरबीन की मदद से यह ग्रह खोजा है। यह दूरबीन चिली की युरोपीय दक्षिणी वेधशाला में स्थापित है। ये नतीजे एस्ट्रोनॉमी एंड एस्ट्रोफिज़िक्स पत्रिका में प्रकाशित हुए हैं।

‘डगमगाने’ की इस तकनीक में पृथ्वी की सीध में तारे की गति में बदलाव देखा जाता है; एस्प्रेसो 10 सेंटीमीटर प्रति सेकंड तक की डगमग भी पता लगा सकता है। फारिया बताते हैं कि प्रॉक्सिमा सेंटोरी पर ग्रह का कुल प्रभाव लगभग 40 सेंटीमीटर प्रति सेकंड तक है।

विचलन का पता लगाने के लिए शोधकर्ताओं ने दो वर्ष से कुछ अधिक समय तक प्रॉक्सिमा सेंटोरी के वर्णक्रम के 100 से अधिक अवलोकन किए। एस्प्रेसो को वेधशाला के एक विशेष कमरे में एक (भूमिगत) टंकी के अंदर रखा गया है ताकि इसका दाब और तापमान स्थिर रहे। इससे माप सुसंगत रहते हैं और दोहराए जा सकते हैं। एस्प्रेसो वर्णक्रम की तरंग दैर्ध्य को 10-5 ऑन्गस्ट्रॉम तक, यानी हाइड्रोजन परमाणु के व्यास के दस-हज़ारवें हिस्से तक सटीकता से माप सकता है।

तारे के स्पेक्ट्रम पर पड़ने वाले इसके प्रभाव के आधार पर शोधकर्ताओं का अनुमान है कि यह ग्रह संभवत: पृथ्वी से छोटा है, लेकिन इसका द्रव्यमान हमारी पृथ्वी के द्रव्यमान के 26 प्रतिशत से कम नहीं है।

एस्प्रेसो को मुख्य रूप से बाह्य ग्रहों की खोज करने के साथ-साथ क्वासर जैसे अत्यंत उज्ज्वल दूरस्थ पिण्डों से आने वाले प्रकाश का अध्ययन करने के लिए बनाया गया था।

खगोलविदों के लिए प्रॉक्सिमा सेंटोरी का एक विशेष महत्व है। हमारा नज़दीकी तारा होने के कारण इसके बारे में हमेशा बहुत उत्सुकता रही है। यह जानना रोमांचक है कि तीन छोटे ग्रह हमारे इस निकटतम पड़ोसी तारे की परिक्रमा कर रहे हैं। उनकी समीपता ही आगे अध्ययन का मुख्य कारण है – उनकी प्रकृति कैसी है और वे कैसे बने वगैरह। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://media.nature.com/lw800/magazine-assets/d41586-022-00400-3/d41586-022-00400-3_20120706.jpg

गुमशुदा मध्ययुगीन साहित्य की तलाश

हाल ही में युनिवर्सिटी ऑफ एंटवर्प के कंप्यूटेशनल टेक्स्ट शोधकर्ता माइक केस्टेमोंट और उनके सहयोगियों ने गुमशुदा मध्ययुगीन रचनाओं का पता लगाने का प्रयास किया। गौरतलब है कि युरोप के मध्ययुग, यानी छठी सदी की शुरुआत से लेकर 15वीं सदी के अंत, के दौरान काफी कथा साहित्य रचा गया था। साहित्याकरों ने राक्षसों से लड़ते शूरवीरों और उनकी विदेश यात्राओं की कहानियां लिखीं जो आजकल की एक्शन फिल्मों जैसी थीं। उदाहरण के लिए, नीदरलैंड में 13वीं सदी में मैडॉक नामक एक पात्र रचा गया था जो संभवतः एक कविता का शीर्षक था लेकिन किसी को उस कविता की विषयवस्तु के बारे में कोई जानकारी नहीं है। 

गुमशुदा रचनाओं का पता ऐसे चलता है कि अन्य लेखक अपनी रचनाओं में उनका ज़िक्र करते हैं। कभी-कभी प्राचीन कैटलॉग पुस्तकों की उपस्थिति दर्शाते हैं। लेकिन इन रचनाओं में से एक अंश ही आज उपलब्ध है। गौरतलब है कि प्रिंटिंग प्रेस के आविष्कार से किसी भी कृति की ढेर सारी प्रतियां नहीं होती थीं। ऐसे में यदि कोई विशेष रचना आग से नष्ट हो जाए या कीड़ों द्वारा खा ली जाए तो वह हमेशा के लिए खो जाएगी।

तो यह अनुमान लगाने के लिए कि वास्तव में कितनी रचनाएं रही होंेगी, इतिहासकार अपूर्ण प्राचीन पुस्तक कैटलॉग की तुलना वर्तमान ग्रंथों और उनके दायरे से करते हैं। इस संदर्भ में अतीत में मौजूद रहे साहित्य का बेहतर अनुमान लगाने के लिए केस्टेमोंट और उनके सहयोगियों ने “अनदेखी प्रजाति” मॉडल नामक तकनीक का उपयोग किया जिसका विकास किसी पारिस्थितिक तंत्र में अनदेखी प्रजातियों का पता लगाने के लिए किया गया था।

इसका विकास नेशनल त्सिंग हुआ युनिवर्सिटी की सांख्यिकीविद एनी चाओ द्वारा किया गया है। इसमें सांख्यिकी तकनीकों का उपयोग करते हुए वास्तविक मैदानी गणना के आंकड़ों के आधार पर उन प्रजातियों का अनुमान लगाया जाता है जो उपस्थित तो हैं लेकिन वैज्ञानिकों की नज़रों में नहीं आईं।

माइक केस्टेमोंट और उनके सहयोगियों ने अपने अध्ययन के लिए 600 से 1450 के दौरान डच, फ्रेंच, आइसलैंडिक, आयरिश, अंग्रेज़ी और जर्मन में लिखी गई वर्तमान में उपलब्ध और संदिग्ध गुमशुदा मध्ययुगीन ग्रंथों की सूची को देखा। कुल रचनाओं की संख्या 3648 थी। साइंस में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार अनदेखी प्रजाति मॉडल ने बताया कि मध्ययुगीन ग्रंथों के केवल 9 प्रतिशत ग्रंथ वर्तमान समय में उपलब्ध हैं। यह आंकड़ा 7 प्रतिशत के पारंपरिक अनुमानों के काफी करीब है। अलबत्ता, इस नए अध्ययन ने क्षेत्रीय वितरण उजागर किया। इस मॉडल के अनुसार अंग्रेज़ी के केवल 5 प्रतिशत जबकि आइसलैंडिक और आयरिश के क्रमशः 17 प्रतिशत और 19 प्रतिशत टेक्स्ट आज के समय में उपलब्ध हैं।

इस तकनीक के इस्तेमाल की काफी सराहना की जा रही है। आने वाले समय में इस तकनीक का उपयोग सामाजिक विज्ञान और मानविकी में भी किया जा सकता है।

बहरहाल, हारवर्ड युनिवर्सिटी में मध्ययुगीन सामाजिक और सांस्कृतिक इतिहास का अध्ययन करने वाले डेनियल स्मेल का कहना है कि यह मॉडल सिद्धांतकारों और सांख्यिकीविदों का खेल है। स्मेल के अनुसार लेखकों ने मान लिया है कि सांस्कृतिक रचनाएं सजीव जगत के नियमों का पालन करती हैं। और तो और, इस अध्ययन से कोई अतिरिक्त जानकारी भी नहीं मिल रही है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://headtopics.com/images/2022/3/1/newsfromscience/lost-medieval-literature-uncovered-by-techniques-used-to-track-wildlife-1498411440126021634.webp

पाकिस्तान का पोलियोवायरस अफ्रीका पहुंचा

लावी सरकार ने सूचना दी है कि पकिस्तान में पाया जाने वाला प्राकृतिक पोलियोवायरस संस्करण अब अफ्रीकी महाद्वीप पहुंच चुका है। 1992 के बाद से देश में प्राकृतिक पोलियोवायरस का यह पहला मामला है जिसने एक तीन वर्षीय बच्ची को लकवाग्रस्त कर दिया है। इस नए मामले ने पोलियो को जड़ से खत्म करने के वैश्विक अभियान को काफी धक्का पहुंचाया है। हालांकि, ग्लोबल पोलियो उन्मूलन अभियान (जीपीईआई) को उम्मीद है कि इस प्रकोप को जल्द से जल्द नियंत्रित किया जा सकेगा।

वर्तमान में पाकिस्तान और अफगानिस्तान ही ऐसे देश हैं जहां वायरस फैलने की घटनाएं निरंतर होती रही हैं। इसका पिछला मामला 2013 में देखने को मिला था जिसमें पाकिस्तान से निकले वायरस ने सीरिया में प्रकोप बरपाया था। गौरतलब है कि अफ्रीका महाद्वीप पहले से ही टीका-जनित पोलियो वायरस के बड़े प्रकोप से जूझ रहा है।

इस तरह का वायरस मुख्य रूप से कम टीकाकरण वाले क्षेत्रों में पाया जाता है जहां ओरल पोलियो टीके में पाया जाने वाला जीवित लेकिन निष्क्रिय वायरस लकवाग्रस्त करने की क्षमता विकसित कर लेता है। हालांकि अफ्रीकी महाद्वीप में प्राकृतिक पोलियो का आखिरी मामला 2016 में पाया गया था और अगस्त 2020 में अफ्रीका को प्राकृतिक पोलियो मुक्त घोषित कर दिया गया था।           

गौरतलब है कि पोलियो संक्रमण खामोशी से फैलता है और 200 संक्रमित बच्चों में से मात्र एक बच्चे को लकवाग्रस्त करता है। ऐसे में यदि वायरस का एक भी मामला सामने आता है तो उसे प्रकोप माना जाता है। वैसे जीपीईआई का इतिहास रहा है कि 6 माह के अंदर इस प्रकार के आयातित प्रकोपों को खत्म किया गया है। मलावी में पाया गया वाइल्ड टाइप 1 पोलियोवायरस का निकट सम्बंधी निकला जो अक्टूबर 2019 में सिंध प्रांत में फैला था। लगता है, वायरस तभी से ही गुप्त रूप से उपस्थित था।

पिछले दो वर्षों में कोविड महामारी के कारण जीपीईआई के विश्लेषकों के पास वायरस के आगमन और फैलाव के बारे में कोई स्पष्ट जानकारी नहीं है। मलावी से मोज़ांबिक, ज़ाम्बिया और तंज़ानिया में लोगों की अत्यधिक आवाजाही के कारण अन्य देशों में वायरस के फैलने के जोखिम का आकलन और व्यापक टीकाकरण रणनीति पर भी विचार किया जा रहा है।

पोलियो के इस नए मामले से इतना तो स्पष्ट है कि इस वायरस का खतरा अभी भी बच्चों पर मंडरा रहा है। विशेषज्ञों के अनुसार पाकिस्तान और अफगानिस्तान में पोलियो संचरण को स्थायी रूप से बाधित करने पर ध्यान केंद्रित करते हुए दुनिया भर में टीकाकरण को प्राथमिकता देने की ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://media.nature.com/lw800/magazine-assets/d41586-020-02501-3/d41586-020-02501-3_18325462.jpg

भारत के जंगली संतरे – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

नींबू और संतरा हमारे भोजन को स्वाद देने वाले और पोषण बढ़ाने वाले अवयव हैं। ऐसा अनुमान है कि पृथ्वी पर नींबू (साइट्रस) वंश के लगभग एक अरब पेड़ हैं। वर्तमान में दुनिया में नींबू वंश के 60 से अधिक अलग-अलग फल लोकप्रिय हैं। ये सभी निम्नलिखित तीन फल प्रजातियों के संकर हैं या संकर के संकर हैं या संकर के संकर के संकर… हैं: (1) बड़ा, मीठा और स्पंजी (मोटे) छिलके वाला चकोतरा (साइट्रस मैक्सिमा; अंग्रेज़ी पोमेलो, तमिल बम्बलिमा); (2) स्वादहीन साइट्रॉन, जिसका उपयोग पारंपरिक चिकित्सा में किया जाता है (साइट्रस मेडिका; गलगल, मटुलंकम या कोमाट्टी-मटुलै), और (3) ढीले-पतले छिलके वाला और मीठे स्वाद का मैंडरिन ऑरेंज (साइट्रस रेटिकुलेटा, संतरा, कमला संतरा) जिसका सम्बंध हम नागपुर के साथ जोड़ते हैं।

नींबू वंश के हर फल की कुछ खासियत होती है: उदाहरण के लिए, दुर्लभ ताहिती संतरा, जो भारतीय रंगपुर नींबू का वंशज है, नारंगी रंग के नींबू जैसा दिखता है और स्वाद में अनानास जैसा होता है।

संतरे की उत्पत्ति                               

साइट्रस (नींबू) वंश की उत्पत्ति कहां से हुई? नींबू वंश के भारतीय मूल का होने की बात सबसे पहले चीनी वनस्पति शास्त्री चोज़ाबुरो तनाका ने कही थी। वर्ष 2018 में नेचर पत्रिका में गुओहांग अल्बर्ट वू और उनके साथियों द्वारा प्रकाशित नींबू वंश की कई किस्मों के जीनोम के एक विस्तृत अध्ययन का निष्कर्ष है कि आज हम इसकी जितनी भी किस्में देखते हैं, उनके अंतिम साझे पूर्वज लगभग अस्सी लाख वर्ष पूर्व उस इलाके में उगते थे जो वर्तमान में पूर्वोत्तर भारत के मेघालय, असम, अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड और मणिपुर और उससे सटे हुए म्यांमार और दक्षिण पश्चिमी चीन में है। गौरतलब है कि यह क्षेत्र दुनिया के सबसे समृद्ध जैव विविधता हॉटस्पॉट में से एक है। जैव विविधता हॉटस्पॉट ऐसे क्षेत्र को कहते हैं जहां स्थानिक वनस्पति की कम से कम 1500 प्रजातियां पाई जाती हों, और वह क्षेत्र अपनी कम से कम 70 प्रतिशत वनस्पति गंवा चुका हो। पूर्वोत्तर में भारत के 25 प्रतिशत जंगल हैं और जैव विविधता का एक बड़ा हिस्सा है। यहां आपको खासी और गारो जैसी जनजातियां और बोली जाने वाली लगभग 200 भाषाएं मिलेंगी। यह क्षेत्र नींबू वंश के जीनोम का एक समृद्ध भंडार भी है। वर्तमान में यहां 68 किस्म के जंगली और संवर्धित साइट्रस पाए जाते हैं।

प्रेतों का फल

जंगली भारतीय संतरा विशेष दिलचस्पी का केंद्र है। यह पूर्वोत्तर भारत के देशज साइट्रस (साइट्रस इंडिका तनाका) की पूर्वज प्रजाति है। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि यह इस समूह का आदिम पूर्वज भी हो सकता है। कलकम मोमिन और उनके साथियों ने मेघालय की गारो पहाड़ियों में हमारे अपने जंगली संतरे का अध्ययन किया था, जहां ये अब सिर्फ बहुत छोटे हिस्सों में ही बचे हैं। यह अध्ययन वर्ष 2016 में  इंटरनेशनल जर्नल ऑफ माइनर फ्रूट्स, मेडिसिनल एंड एरोमैटिक प्लांट्स में प्रकाशित हुआ था।

विस्तृत आणविक तुलनाओं वाली हालिया खोज में मणिपुर के तमेंगलांग ज़िले में जंगली भारतीय संतरा पुन: खोजा गया है; इलाके का जनसंख्या घनत्व बहुत कम है जंगल अत्यंत घना। यह अध्ययन हुइद्रोम सुनीतिबाला और उनके साथियों द्वारा इस वर्ष जेनेटिक रिसोर्स एंड क्रॉप इवॉल्यूशन में प्रकाशित हुआ है। मणिपुर के इस शोध दल को यहां साइट्रस इंडिका के तीन अलग-अलग झुंड मिले हैं, जिनमें से सबसे बड़े झुंड में 20 पेड़ हैं। यह भारी वर्षा और उच्च आर्द्रता वाला क्षेत्र है, जहां वार्षिक तापमान 4 और 31 डिग्री सेल्सियस के बीच रहता है।

मणिपुरी जनजाति इसे गरौन-थाई (केन फ्रूट) कहती है, लेकिन ऐसा लगता है कि उन्होंने इस फल की न तो खेती की और न ही इसे सांस्कृतिक रूप से अपनाया, जैसा कि खासी और गारो लोगों ने किया है। गारो भाषा में इस फल का नाम मेमंग नारंग (प्रेतों का फल) है, क्योंकि इसका उपयोग वे अपने मृत्यु अनुष्ठानों में करते हैं। पारंपरिक चिकित्सा प्रणालियों में इसे पाचन सम्बंधी समस्याओं और सामान्य सर्दी के लिए उपयोग किया जाता है। गांव अपने मेमंग पेड़ों की देखभाल काफी लगन से करता है।

इसका फल छोटा होता है, जिसका वजन 25-30 ग्राम होता है और यह गहरे नारंगी से लेकर लाल रंग का होता है। जनजातियां पके फल को उसके तीखे खट्टेपन के साथ बहुत पसंद करती हैं। इसका स्वाद फीनॉलिक यौगिकों (जो सशक्त एंटी-ऑक्सीडेंट होते हैं) और फ्लेवोनॉइड्स से आता है। ये फीनॉलिक्स और फ्लेवोनॉइड्स प्रचलित एंटी-एजिंग (बुढ़ापा-रोधी) स्किन लोशन्स में पाए जाते हैं।

ऐसा लगता है मानव जाति मीठा पसंद करती है, और संतरा प्रजनकों ने इसी बात का ख्याल रखा है। हालांकि हम भारतीय खट्टे स्वाद के खिलाफ नहीं हैं! हम नींबू (साइट्रस औरेंटिफोलिया स्विंगल) के बहुत शौकीन हैं। दुनिया में भारत इनका अग्रणी उत्पादक है। हमारे प्रजनकों ने इसमें बहुत अच्छा काम किया है। परभणी और अकोला के कृषि विश्वविद्यालयों द्वारा विकसित नई किस्में (विक्रम, प्रेमलिनी वगैरह) अर्ध-शुष्क इलाके में भी अच्छी पैदावार दे रही हैं।

इस चक्कर में, साइट्रस इंडिका उपेक्षित पड़ी हुई है। यह गंभीर जोखिम में है, इसकी खेती केवल कुछ ही गांवों में की जाती है। और इसका जीनोम अनुक्रमण भी नहीं किया गया है।

ज़रूरी नहीं कि नींबू वंश के (खट्टे) फलों में फीनॉलिक और फ्लेवोनॉइड यौगिकों को कम करना अच्छा ही साबित हो क्योंकि ये पौधों को रोगजनकों से बचाने का काम करते हैं। पूर्वोत्तर में साइट्रस की बची हुई जंगली किस्मों की सावधानीपूर्वक पहचान करने, उनका संरक्षण करने और उनका विस्तार से अध्ययन करने से केवल ज्ञान ही नहीं मिलेगा। बल्कि यह वर्तमान में उगाए जा रहे संतरों और नींबू को भविष्य के लिए सुरक्षित रखने में मदद करेगा। इनसे रोग प्रतिरोधक क्षमता में सुधार होगा और साथ ही साथ इन अद्भुत फलों से मिलने वाले स्वास्थ्य लाभ भी मिलेंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.thehindu.com/sci-tech/science/xtjh97/article38419748.ece/alternates/LANDSCAPE_615/13TH-SCIORANGEjpg

आंत के सूक्ष्मजीव अवसाद का कारण हैं

हमारे शरीर में भीतर और बाहर अरबों-खरबों बैक्टीरिया पलते हैं और ये हमें स्वस्थ रखने और बीमार करने दोनों में भूमिका निभाते हैं। अब, फिनलैंड में हज़ारों लोगों पर किए गए अध्ययन से लगता है कि अवसाद (डिप्रेशन) के कुछ मामलों के लिए ज़िम्मेदार सूक्ष्मजीवों की पहचान हुई है।

वैज्ञानिक दिमागी स्वास्थ्य और आंत के सूक्ष्मजीवों के बीच सम्बंधों की छानबीन करते रहे हैं और बढ़ते क्रम में ऐसे सम्बंध देखे गए हैं। जैसे ऑटिज़्म और मूड की गड़बड़ी वाले लोगों की आंत में कुछ प्रमुख बैक्टीरिया की कमी दिखती है। फिलहाल यह स्पष्ट नहीं है कि आंत में इन सूक्ष्मजीवों की कमी क्या वास्तव में विकार पैदा करती है, लेकिन इन निष्कर्षों के आधार पर आंत के सूक्ष्मजीवों और उनके द्वारा उत्पादित पदार्थों का उपयोग विभिन्न तरह के मस्तिष्क विकारों के संभावित उपचार के रूप में करने की भागमभाग शुरू भी हो गई है।

हाल ही में शोधकर्ताओं ने फ्रंटियर्स इन साइकिएट्री में बताया है कि मल प्रत्यारोपण से दो अवसाद ग्रस्त रोगियों के लक्षणों में सुधार दिखा है।

बेकर हार्ट एंड डायबिटीज़ इंस्टीट्यूट के सूक्ष्मजीव जैव-सूचनाविद गिलौम मेरिक वास्तव में अवसाद के लिए ज़िम्मेदार सूक्ष्मजीव खोजने की दिशा में काम नहीं कर रहे थे। उनकी टीम तो फिनलैंड में किए गए स्वास्थ्य और जीवन शैली के एक बड़े अध्ययन के डैटा का विश्लेषण कर रही थी। यह अध्ययन 6000 प्रतिभागियों पर किया गया था जिसमें उनकी आनुवंशिक बनावट का आकलन किया गया, प्रतिभागियो की आंत में पल रहे सूक्ष्मजीव पता लगाए गए, और उनके आहार, जीवन शैली, ली गई औषधियों और स्वास्थ्य सम्बंधी व्यापक डैटा संकलित किया गया था। यह अध्ययन फिनिश लोगों में जीर्ण रोगों के अंतर्निहित कारणों को पहचानने के लिए 40 वर्षों से किए जा रहे प्रयास का हिस्सा था।

शोधकर्ता यह जानने का प्रयास कर रहे थे कि किसी व्यक्ति की आंतों के सूक्ष्मजीव संसार पर आहार और आनुवंशिकी का क्या प्रभाव होता है। नेचर जेनेटिक्स में शोधकर्ताओं ने बताया है कि मानव जीनोम के दो हिस्से इस बात को काफी प्रभावित करते हैं कि आंत में कौन से सूक्ष्मजीव मौजूद हैं। इनमें से एक हिस्से में दुग्ध शर्करा लैक्टोज़ को पचाने वाला जीन मौजूद है, और दूसरा हिस्सा रक्त समूह का निर्धारण करता है। (नेचर जेनेटिक्स में प्रकाशित एक अन्य अध्ययन में भी नीदरलैंड के 7700 लोगों के जीनोम और आंत के सूक्ष्मजीवों के बीच सम्बंधों के विश्लेषण किया गया था और उसमें भी इन्हीं आनुवंशिक हिस्सों की पहचान हुई थी।)

मेरिक की टीम ने यह भी पता लगाया कि कौन से आनुवंशिक संस्करण कुछ सूक्ष्म जीवों की संख्या को प्रभावित कर सकते हैं – और उनमें से कौन से संस्करण 46 सामान्य बीमारियों से जुड़े हैं। दो बैक्टीरिया, मोर्गनेला और क्लेबसिएला, अवसाद में भूमिका निभाते हैं। और एक सूक्ष्मजीवी सर्वेक्षण में 181 लोगों में मोर्गनेला बैक्टीरिया की काफी वृद्धि देखी गई थी, आगे जाकर ये लोग अवसाद से ग्रसित हुए थे।

पूर्व के अध्ययनों में भी अवसाद में मोर्गनेला की भूमिका पहचानी गई है। वर्ष 2008 में हुए अध्ययन में शोधकर्ता अवसाद और शोथ के बीच एक कड़ी तलाश रहे थे, इसमें उन्होंने अवसाद से ग्रसित लोगों में मोर्गनेला और आंत में मौजूद अन्य ग्राम-ऋणात्मक बैक्टीरिया द्वारा उत्पादित रसायनों के प्रति मज़बूत प्रतिरक्षा प्रतिक्रिया देखी थी। अब, यह नवीनतम अध्ययन पूर्व के इन निष्कर्षों को मज़बूती प्रदान करता है कि आंत के रोगाणुओं के कारण होने वाली शोथ मूड को प्रभावित कर सकती है।

बहरहाल, इस क्षेत्र के अध्ययन अभी प्रारंभिक अवस्था में है; अवसाद कई तरह के होते हैं और सूक्ष्मजीव कई तरीकों से इसे प्रभावित कर सकते हैं। कुछ लोग इसके आधार पर चिकित्सकीय हस्तक्षेप की बात कह रहे हैं लेकिन इन निष्कर्षों को चिकित्सा में लागू करना अभी दूर की कौड़ी ही है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://magazine.jhsph.edu/sites/default/files/styles/feature_image_og_image/public/GutBrain_3200x1600.jpg?itok=RqUR2Y2C

फफूंद से सुरक्षित है जीन-संपादित गेहूं

पावडरी माइल्ड्यू नामक फफूंद गेहूं की खेती करने वाले किसानों के लिए एक बड़ी समस्या है। यह फसलों को संक्रमित करती है, पत्तियों का रंग पीला पड़ जाता है और वृद्धि धीमी पड़ जाती है। यह फसल को 40 प्रतिशत तक नष्ट कर सकती है।

हाल ही में शोधकर्ताओं ने एक ऐसा जीन-संपादित गेहूं विकसित किया है जो दाने के विकास को बाधित किए बिना फफूंद से सुरक्षा प्रदान करता है। शोधकर्ताओं के अनुसार यह तकनीक स्ट्रॉबेरी और खीरे जैसी अन्य फसलों में भी अपनाई जा सकती है।

फसलों में रसायनों का उपयोग कम करना पर्यावरण के लिए अच्छा होगा और साथ ही रोग प्रतिरोधी पौधे ऐसे देशों के लिए बेहतर साबित होंगे जिनकी कीटनाशकों तक पहुंच नहीं है।     

गौरतलब है कि कुछ पौधे प्राकृतिक रूप से पावडरी माइल्ड्यू से अपना बचाव कर सकते हैं। 1940 के दशक में इथोपिया की यात्राओं के दौरान वैज्ञानिकों ने जौं की ऐसी किस्में देखी थी जिन पर फफूंद का बहुत कम प्रभाव था। लेकिन ये पौधे और इनके आधार पर पौध संवर्धकों द्वारा बनाए गए पौधे ठीक से विकसित नहीं हो पाते थे और अनाज की उपज भी कम थी। फिर भी संवर्धकों के प्रयासों से जौं के ऐसे संस्करण तैयार हो सके जो कवकों से सुरक्षित रहते थे और पर्याप्त रूप से विकसित होने में सक्षम थे। इस तरह से विकसित जौं काफी सफल रही।

कई रोगजनक जीव पौधों की रोग प्रतिरोधक क्षमता को चकमा देने के तरीके विकसित कर लेते हैं लेकिन इन नई किस्मों में पाउडरी माइल्ड्यू से दशकों तक सुरक्षा मिलती रही। इसका कारण MLO नामक जीन है जो उत्परिवर्तित होने पर फफूंद का संक्रमण रोकता है। यह जीन फफूंद हमले के दौरान कोशिका भित्ति को मोटा करके पौधे को सुरक्षा प्रदान करता है।

गेहूं में यह तकनीक सफल नहीं रही। गेहूं में MLO में उत्परिवर्तन से पौधों का विकास रुक गया और पैदावार में 5 प्रतिशत की कमी आई। किसानों को फफूंदनाशी का इस्तेमाल करना ही बेहतर लगा। समस्या के समाधान के लिए कुछ वर्ष पूर्व चीन के इंस्टीट्यूट ऑफ जेनेटिक्स एंड डेवलपमेंटल बायोलॉजी के पादप विज्ञानी गाओ कैक्सिया और उनके सहयोगियों ने क्रिस्पर सहित विभिन्न जीन-संपादन तकनीकों का उपयोग करते हुए गेहूं में MLO जीन की छह प्रतियों में सुरक्षा देने वाले उत्परिवर्तन तैयार किए।        

वैसे ऐसे परिवर्तन पारंपरिक तरीकों से हासिल किए जा सकते हैं लेकिन उसमें कई वर्षों का समय लग जाता है। वैसे भी अब कई देशों की सरकारों ने हाल ही में जीन संपादन तकनीक से बनाए गए पौधों के अध्ययन और व्यवसायीकरण को आसान बना दिया है।

नेचर में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार टीम ने कुछ सीमित मैदानी परीक्षणों में जीन-संपादित गेहूं और अन्य गेहूं की वृद्धि में कोई उल्लेखनीय अंतर नहीं पाया। लेकिन सिर्फ एक-एक पौधे को माप कर उपज का विश्वसनीय अनुमान नहीं लगाया जा सकता। इसके लिए बड़े प्लॉट में परीक्षण की आवश्यकता होगी। 

जीन-संशोधित पौधों की वृद्धि सामान्य रहना अचरज की बात थी। गाओ और उनके सहयोगियों ने पाया कि जीन संपादन से MLO जीन का एक भाग ही नहीं हटा बल्कि गुणसूत्र का एक बड़ा हिस्सा भी हट गया था। नतीजतन TMT3 नामक एक नज़दीकी जीन अधिक सक्रिय हो गया जिसने पौधे की वृद्धि को सामान्य रखा। TMT3 जीन एक ऐसे प्रोटीन का निर्माण करता है जो शर्करा के अणुओं के परिवहन में मदद करता है लेकिन अभी तक यह स्पष्ट नहीं है कि MLO उत्परिवर्तन के कारण उपज में होने वाली हानि की क्षतिपूर्ति कैसे हुई है।

गाओ और उनके सहयोगी स्ट्रॉबेरी, मिर्च और खीरे में भी जीन संपादन का प्रयास कर रहे हैं जो पाउडरी माइल्ड्यू के प्रति अति संवेदनशील हैं। इसी दौरान उन्होंने गेहूं की चार किस्मों का जीन-संपादन किया है जिनको चीन के किसानों ने काफी पसंद किया और बड़े मैदानी परीक्षणों में अच्छे परिणाम दिए हैं। बहरहाल, चीन में जीन-संपादित गेहूं को किसानों को बेचने से पहले कृषि मंत्रालय की मंज़ूरी की आवश्यकता होगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.ada1504/listitem/_20220219_on_bacteriophage.jpg