जलवायु परिवर्तन से कीटों पर विलुप्ति का संकट – अली खान

लवायु परिवर्तन के चलते होने वाले नुकसान का अधिकांश आकलन इंसानों, पशु-पक्षियों और पेड़ पौधों पर होने वाले प्रभावों को केंद्र में रखकर होता रहा है। लेकिन जलवायु परिवर्तन और कीट-पतंगों के बीच के सम्बंधों पर बहुत कम ही अध्ययन हुए हैं।

इस विषय पर हुए एक हालिया अध्ययन से पता चला है कि जलवायु परिवर्तन की वजह से अधिकांश कीट पतंगों की आबादियां विलुप्त होने वाली है। इस अध्ययन में यह भी बताया गया है कि जलवायु परिवर्तन की वजह से जानवरों और अन्य जीवों में विलुप्त होने का जोखिम पूर्व अनुमानों की तुलना में ज़्यादा हो गया है‌। दरअसल, अमरीकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने अपने अध्ययन में पाया है कि मौसमी बदलावों की वजह से धरती के 65 फीसदी कीट अगली सदी तक विलुप्त हो जाएंगे। तापमान में हो रहा बदलाव कीटों की आबादी को अस्थिर करते हुए विलुप्ति के जोखिम को बढ़ाएगा। शोधकर्ताओं ने पाया कि अध्ययन में शामिल 38 कीट प्रजातियों में से 25 को विलुप्ति का सामना करना पड़ेगा। मौसमी बदलावों की स्थिति में कीटों का अस्तित्व सबसे ज़्यादा खतरे में है, क्योंकि ये अपने शरीर के तापमान को नियंत्रित करने में समर्थ नहीं होते।

कीटों की विलुप्ति पारिस्थितिक तंत्र को प्रभावित करेगी, क्योंकि ये परागण के माध्यम से फलों, सब्ज़ियों और फूलों के उत्पादन में सहायता करते हैं। यानी कीटों पर विलुप्ति का संकट किसी बड़ी चुनौती से कम आंकना खतरनाक साबित हो सकता है। लिहाज़ा, समय रहते जलवायु परिवर्तन के कारणों पर अंकुश लगाने की आवश्यकता है।

अमेरिका के मैरीलैंड विश्वविद्यालय की एक रिपोर्ट में भी कहा गया था कि जलवायु परिवर्तन से कुछ कीट जीवित रहने के लिए ठंडे वातावरण की ओर पलायन को मजबूर होंगे, जबकि अन्य की प्रजनन क्षमता, जीवन चक्र और अन्य प्रजातियों के साथ समन्वय प्रभावित होगा। जलवायु परिवर्तन के अलावा कीटनाशक, प्रकाश प्रदूषण, आक्रामक प्रजातियां और कृषि व भूमि उपयोग में बदलाव भी इनके लिए बड़े खतरे हैं। बता दें कि दुनिया भर के सभी ज्ञात जीवों में से 75 प्रतिशत कीट हैं। वर्ष 2019 में हुए एक शोध में भी वैज्ञानिकों ने चेताया था कि एक दशक बाद 25 फीसदी, 50 साल में आधे और 100 साल में सभी कीट धरती से पूरी तरह से गायब हो जाएंगे। हालांकि तब इनकी विलुप्ति का बड़ा कारण कीटनाशकों को माना गया था। नए अध्ययन में पाया गया है कि 20वीं सदी की शुरुआत से ही कीटों की तादाद घटने लगी थी। इसके लिए कीटनाशकों को ज़िम्मेदार ठहराया गया है। लेकिन सबसे चिंताजनक बात यह है कि बीते दशकों में दुनिया भर में कीटों की कई प्रजातियां 70 फीसदी तक कम हुई हैं। वैश्विक स्तर पर इनकी तादाद 2.5 फीसदी प्रति वर्ष की दर से कम हो रही है। अध्ययन में चेताया गया है कि इन्हें जानवरों, सरीसृपों और पक्षियों की तुलना में विलुप्ति का खतरा 8 गुना ज़्यादा है। यह बेहद चिंताजनक स्थिति को दर्शाता है।

कीटों के बिना प्रकृति का संतुलन बिगड़ना तय है। आम आदमी के मस्तिष्क में इस सवाल का कौंधना स्वाभाविक है कि आखिर ये कीट हमारे पारिस्थितिकी संतुलन बनाए रखने में कैसे मददगार हैं? कीट पोषक पदार्थों के चक्रण, पौधों के परागण और बीजों के प्रसार में सहायक होते हैं। इसके अतिरिक्त, ये मृदा संरचना को बनाए रखने, उर्वरता में सुधार करने तथा अन्य जीवों की जनसंख्या को नियंत्रित करने के साथ-साथ खाद्य शृंखला में एक प्रमुख खाद्य स्रोत के रूप में भी कार्य करते हैं। पृथ्वी पर लगभग 80 फीसदी पादपों का परागण कीटों द्वारा किया जाता है। इसके अतिरिक्त, लेडीबर्ड बीटल्स, लेसविंग, परजीवी ततैया जैसे कीट अन्य हानिकारक कीटों, आर्थ्रोपोड्स और कशेरुकियों को नियंत्रित करते हैं। गुबरैला एक रात में अपने वज़न के लगभग 250 गुना गोबर को निस्तारित कर सकता है। ये गोबर को खोदकर और उपभोग करके मृदा पोषक-चक्र व उसकी संरचना में सुधार करते हैं। गुबरैले की अनुपस्थिति गोबर पर मक्खियों को एक प्रकार से निवास प्रदान कर सकती है। पर्यावरण की सफाई में भी इनकी महती भूमिका है। ये मृत और जैविक अपशिष्टों के विघटन में सहायक होते हैं। विघटन की प्रक्रिया के बिना बीमारियों का प्रसार तेज़ होने के साथ-साथ कई जैविक-चक्र भी प्रभावित होंगे। कीट पारिस्थितिकी तंत्र के स्वास्थ्य संकेतक के रूप में कार्य करते हैं। साथ ही, वैज्ञानिक अनुसंधान में मॉडल के रूप में इन कीटों का उपयोग होता आया है।

कई प्रयासों के बावजूद हम जलवायु परिवर्तन को रोकने में नाकामयाब रहे हैं। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम की एक रिपोर्ट की मानें तो विश्व में प्रतिदिन औसतन 50 प्रकार के जीवों का विनाश हो रहा है जो वास्तव में आनुवंशिक विनाश है। ऑस्ट्रेलिया के पूर्वी तट पर प्रवाल जीवों के असामयिक विनाश का मुख्य कारण भी ओज़ोन परत में ह्रास को माना जा रहा है जिसके लिए ग्रीन हाउस गैसें ज़िम्मेदार है। ग्रीन हाउस गैसों में तीव्र वृद्धि के परिणामस्वरूप भूमंडलीय ताप में वृद्धि हुई है। एक अनुमान के मुताबिक, वायुमंडल में कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा में लगातार इजाफा होता रहा तो 1900 की तुलना में 2030 में वैश्विक तापमान में 3 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि हो सकती है।

इसलिए हमें जलवायु परिवर्तन को रोकने के भरसक प्रयास करने होंगे। अगर समय रहते जलवायु परिवर्तन को नहीं रोका गया तो संभव है कि निकट भविष्य में खाद्य असुरक्षा, संक्रामक बीमारियों के प्रसार जैसे गंभीर हालातों से गुज़रना पड़े। कहना न होगा कि पर्यावरण संरक्षण की दिशा में सतत प्रयासों की सख्त दरकार है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.zylemsa.co.za/wp-content/uploads/2020/07/Dung-beetles-saves-farmers-money-1-scaled-1.webp

रजोनिवृत्ति यानी मेनोपॉज़ पर बात करना ज़रूरी है – सीमा

मेरी दोस्‍त पिछले कुछ दिनों से थोड़ा अजीब-सा व्‍यवहार कर रही थी। छोटी-छोटी बातों पर चिड़-चिड़ करने लगती थी। और फिर अपनी बेमतलब चिड़चिड़ाहट पर खुद ही परेशान हो जाती थी।

मेनोपॉज या रजोनिवृति महिलाओं के प्रजनन चक्र से जुड़ा मामला है। आम तौर पर किसी लड़की को 12-15 की आयु में मासिक स्राव शुरू होता है और यह अमूमन 45-50 की उम्र तक चलता है। मेनोपॉज़ का मतलब होता है मासिक स्राव का बंद हो जाना। यह कोई बीमारी नहीं है बल्कि जीवन के एक नए चरण की शुरुआत है। वास्तव में जन्म के समय ही किसी लड़की के अंडाशय में लाखों अंडाणु होते हैं। लगभग 12-13 वर्ष की उम्र में ये अंडाणु परिपक्व होना शुरू करते हैं। प्रति माह एक अंडाणु (कभी-कभी दो) परिपक्व होकर अंडाशय से निकलता है। इसका नियंत्रण एस्ट्रोजेन नामक हार्मोन करता है। एक अन्य हार्मोन प्रोजेस्टेरोन महिला के शरीर को गर्भावस्था के लिए तैयार करता है। प्रोजेस्टरोन के प्रभाव से गर्भाशय की दीवार पर रक्त वाहिनियों का एक अस्तर बनता है। यदि अंडे का निषेचन होकर गर्भ नहीं ठहरता तो यह अस्तर झड़ जाता है। यही खून मासिक स्राव के रूप में बहता है। और इसे मासिक धर्म कहते हैं। समय के साथ धीरे-धीरे महिलाओं के अंडाशय एस्ट्रोजन और प्रोजेस्टेरोन का उत्पादन कम करने लगते हैं – इसे पेरिमेनोपॉज़ अवस्था कहते हैं। और जब इन हार्मोन्स का उत्पादन पूरी तरह समाप्त हो जाता है तब मासिक स्राव पूरी तरह बंद हो जाते हैं।  यही मेनोपॉज़ है।

काफी पूछने पर उसने बताया कि पिछले कुछेक महीनों से उसके पीरियड नियमित नहीं आ रहे हैं। 2-3 महीने में एक बार आते हैं और फिर जब आते हैं तो 15-15 दिनों तक रहते हैं। खून भी काफी जाता है। “बहुत जल्‍दी थक जाती हूं और बिना किसी बात के चिढ़ने लगती हूं। मेरे साथ ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। मेरे पीरियड तो बहुत आराम से हो जाते थे। किंतु अब…”

मैंने उसे बीच में ही रोककर पूछा, “तुमने किसी डॉक्‍टर से बात की?”

“नहीं, उसकी क्‍या ज़रूरत है, कुछ हुआ थोड़ी ना है।”

“तो और क्‍या होने का इंतज़ार कर रही हो… हम आज शाम ही डॉक्‍टर से मिलने चलेंगे।”

डॉक्‍टर साहिबा ने तो सवालों की झड़ी ही लगा दी – ऐसा कब से हो रहा है, और क्‍या-क्‍या परेशानियां होती है, डायबिटीज़ तो नहीं है, बीपी तो नहीं है, शादी हुई, बच्‍चे हैं क्‍या, तुम्‍हारी क्‍या उम्र होगी, जो तुम्हारे साथ आई हैं वे आपकी कौन हैं, वगैरह-वगैरह।

सब कुछ जान लेने के बाद उन्‍होंने मेरी दोस्‍त को सोनोग्राफी कराकर आने को कह दिया। सोनोग्राफी में निकलकर आया कि अंडाशय नीचे आ गए हैं यानी मेनोपॉज़ (रजोनिवृत्ति) की शुरुआत हो गई है। 

सोनोग्राफी की रिपोर्ट देखकर डॉक्‍टर साहिबा थोड़ी परेशान हो गईं, “अभी तो आप 40 की ही हुई हो, आपको बच्‍चे भी तो चाहिए होंगे। मैं ऐसा करती हूं आपको हार्मोनल गोलियां लिख देती हूं। नॉर्मल पीरि‍यड आने लगेंगे, चिंता की कोई बात नहीं है।”

हार्मोनल गोलियां खाने की बात सुनकर मेरी दोस्‍त थोड़ा घबरा गई। दवाई से तो वह हमेशा बचने की कोशिश करती थी।

उसने डॉक्‍टर से कहा, “अरे, नहीं, नहीं, मुझे बच्‍चे नहीं चाहिए। मेरे पीरियड जल्‍दी शुरू हुए थे इसलिए मेनोपॉज़ भी जल्‍दी शुरू हो गया होगा। हार्मोनल गोलियां मत लिखिए।”

“पीरियड जल्‍दी शुरू हो गए थे, उससे क्‍या होता है? पीरियड जल्‍दी शुरू हुए थे इसलिए मेनोपॉज़ भी जल्‍दी होगा ऐसा कोई नियम नहीं है। क्‍या तुम्‍हारी मां या बहन को भी इसी उम्र में मेनोपॉज़ शुरू हो गया था?”

डॉक्‍टर साहिबा के इस सवाल का मेरी दोस्‍त के पास कोई जवाब नहीं था। उसने कहा कि इस विषय पर उसकी अपनी मां या बहन से कभी कोई बातचीत ही नहीं हुई। पीरियड शुरू होने पर मां ने यह ज़रूर बताया था कि क्‍या करना चाहिए और क्‍या नहीं किंतु खुद अपने पीरियड के सम्बंध में उन्‍हें कभी किसी से बात करते नहीं सुना।

“ठीक है तो अब पूछ लेना।”

चूंकि सोनोग्राफी में कुछ गड़बड़ नहीं निकली थी इसलिए मेरी दोस्‍त तो डॉक्‍टर साहिबा के साथ हुई बातचीत को भूल ही गई, मैं भी भूल गई। फिर कुछ महीनों बाद मुझे मेनोपॉज़ के बारे में एक लेख पढ़ने को मिला – Why Menopause Matters in the Academic Workplace (मेनोपॉज़ अकादमिक कार्यस्थल पर क्या महत्व रखता है)। इस लेख में बताया गया था कि मेनोपॉज़ के दौरान औरतें किन-किन परेशानियों से गुज़रती हैं, मेनोपॉज़ से गुज़र रही औरतों के लिए काम की जगह को कैसे फ्रेंडली बनाया जा सकता है, वगैरह-वगैरह। इस लेख को पढ़ते हुए मुझे मेरी दोस्‍त व डॉक्‍टर साहिबा की बातचीत याद आ गई – उन्‍होंने मेरी दोस्‍त से कितने तो सवालात किए पर मेनोपॉज़ में किस-किस तरह की परेशानियां आ सकती हैं, उसका एक मर्तबा भी ज़िक्र नहीं किया।

इस लेख को पढ़ने से पहले मुझे भी एहसास नहीं था कि मेनोपॉज़-पूर्व (पेरि-मेनोपॉज़) से गुज़र रही महिलाओं को इतनी तकलीफें होती हैं। कभी मां, बहन या किसी दोस्‍त ने अपने अनुभव साझा ही नहीं किए और न ही इस बारे में कहीं कुछ पढ़ने को मिला। वर्कशॉप में या दोस्‍तों से बातचीत के दौरान माहवारी के अनुभवों पर तो काफी बातें हुईं लेकिन माहवारी समाप्त होने (मेनोपॉज़) पर चर्चा करने का कभी कोई मौका नहीं मिला। और वहीं से यह लेख लिखने का ख्याल पनपा ताकि लोग इस प्रक्रिया को समझ सकें और संवेदनशील हो सकें व खुद के साथ-साथ दूसरों को भी जागरूक कर सकें।

मेनोपॉज़ को लेकर कई तरह की भ्रांतियां हैं; जैसे, मेनोपॉज़ शुरू होने के बाद महिलाओं को सेक्‍स करने की इच्‍छा नहीं होती, वो एक तरह से बुढ़ा जाती हैं, चीज़ें भूलने लगती हैं, आदि-आदि।

अमूमन मेनोपॉज़ 45 से 55 की उम्र के बीच शुरू होता है। इस प्रक्रिया के दौरान अंडाशयों से निकलने वाले सेक्‍स हॉर्मोन्स में कमी आने लगती है और इस वजह से पीरियड अनियमित हो जाते हैं। आपको कई तरह के शारीरिक, मानसिक व भावनात्‍मक बदलाव महसूस होते हैं।

इस उम्र में अधिकतर महिलाएं अपने करियर के ऊंचे पड़ाव या नेतृत्व की भूमिका में होती हैं। काम की अधिकतर जगहों पर मेनोपॉज़ – और उस वक्‍त होने वाले शारीरिक, मानसिक व भावनात्‍मक बदलाव – को इस तरह से नहीं देखा जाता कि उसके लिए कोई सपोर्ट सिस्‍टम निर्मित किया जाए। और महिलाएं भी इस डर से कुछ नहीं बोलतीं कि उन पर आलसी होने, बहानेबाज़ी या अकेले काम न कर पाने, समस्‍या खड़ी कर देने वाली का ठप्‍पा लगा दिया जाएगा। कुछ बोलने की बजाय वे छुट्टियां लेकर घर में वक्‍त बिताना पसंद करती हैं। कभी-कभी नौकरी छोड़ देती हैं या फिर प्रमोशन नहीं लेतीं।

मज़दूर तबके की औरतों या घरेलू कामगार महिलाओं के पास तो ये सुविधाएं भी नहीं होतीं। अगर छुट्टी ली तो उन्‍हें तो काम से ही हाथ धोना पड़ जाएगा। और इस वजह से सिर्फ महिलाएं ही मुश्किलें नहीं झेल रही होतीं बल्कि संस्थान भी एक सीनियर महिला के अनुभवों से महरूम रह जाते हैं।

मेनोपॉज़ शुरू होने पर या सही शब्‍दों में कहें तो पेरि-मेनोपॉज़ के दौरान जब आप डॉक्‍टर से सलाह लेने पहुंचती हैं तो वे भी सिर्फ कैल्शियम की गोलियां और खान-खुराक की ही बात करते हैं, या ज्‍़यादा हुआ तो परिवार की हिस्‍ट्री जानकर सोनोग्राफी कराने की सलाह देते हैं। लेकिन इस बारे में कोई बात नहीं करते कि उस दौरान सेक्‍स हार्मोन में कमी आने से किस तरह की शारीरिक या मानसिक दिक्‍कतें हो सकती हैं, जैसे – मूड में उतार-चढ़ाव, एकदम से गर्मी लगने लगना या पसीना आना वगैरह।

दफ्तर में साथ काम करने वाले लोगों या घर के लोगों को कोई अंदाज़ा ही नहीं होता कि औरतें किस परिस्थिति से गुज़र रही हैं, और ऐसे में हम उनकी तकलीफों को और बढ़ा देते हैं। हम यह तो कहते हैं कि आजकल मैडम बहुत चिड़चिड़ी हो गई हैं और छोटी-छोटी बात पर भड़क जाती हैं लेकिन ऐसा क्‍यों हो रहा है कभी जानने-समझने की कोशिश नहीं करते।

मेनोपॉज़ उन व्‍यक्तियों के लिए ज़िंदगी की एक प्राकृतिक अवस्‍था है जिनको अंडाशय व गर्भाशय होते हैं और जिनको माहवारी होती है। जैसे कि औरतें, कुछ ट्रांसजेंडर आदमी, नॉन-बाइनरी लोग।

अगर किसी व्‍यक्ति को लगातार एक साल तक पीरियड नहीं आएं तो कहा जा सकता है कि मेनोपॉज़ हो गया है। लेकिन मेनोपॉज़ तक पहुंचने के दौरान जो शारीरिक, मानसिक व भावनात्‍मक बदलाव होते हैं उनको पेरि-मेनोपॉज़ अवस्‍था कहा जाता है। इसमें अंडाशय से निकलने वाले एस्‍ट्रोजन व प्रोजेस्टेरोन हार्मोन की मात्रा कम होने लगती है। पेरि-मेनोपॉज़ अवस्‍था कई सालों तक रह सकती है। इसमें अनियमित या अत्यधिक रक्तस्राव, मूड में उतार-चढ़ाव होना, नींद आने में दिक्कत, अचानक गर्मी लगना या पसीना आना (hot flushes), भूलने लगना, योनि में सूखापन, वज़न बढ़ना, डिप्रेशन, सेक्‍स करने की इच्‍छा न होना आदि लक्षण होते हैं। इसके अलावा, कुछ स्‍वास्‍थ्‍य सम्बंधी दिक्‍कतें जैसे – अस्थिछिद्रता, हृदय रोग भी हो सकते हैं।

दुनिया भर में कार्यस्‍थलों पर मेनोपॉज़ के अनुभवों को लेकर जानकारी बहुत कम ही है। 2015 में Menopause में प्रकाशित हुई यूएस की एक स्‍टडी में बताया गया था कि हॉट फ्लशेज़ (शरीर के ऊपरी हिस्से में अचानक गर्मी महसूस होना) और रात में पसीना आना (नाइट स्वेट्स) की वजह से ऐसी औरतों ने अन्य औरतों की तुलना में 60 फीसदी ज्‍़यादा काम के दिन गंवाए हैं। लंदन में जेंडर-बराबरी पर काम करने वाले संगठन फॉसिट सोसाइटी की 2021 की रिपोर्ट बताती है कि मेनोपॉज़ से गुज़र रहीं आधी से ज्‍़यादा औरतों और ट्रांसजेंडर आदमियों ने इस दौरान होने वाली परेशानियों की वजह से प्रमोशन के लिए एप्‍लाई नहीं किया।

ऑस्‍ट्रेलिया में, स्‍वास्‍थ्‍य व उच्च शिक्षा के क्षेत्र में काम कर रही मेनोपॉज़ से गुज़र रही औरतों के एक सर्वे में पता चला था कि कई औरतें ठीक से काम न कर पाने के लिए खुद को दोषी मानती हैं। कइयों ने यह भी कहा कि वे अपने स्‍वास्‍थ्‍य व काम के संतुलन को बेहतर करने के लिए अपने काम के घंटे कम करना चाहती हैं।

जापान ब्रॉडकास्टिंग कॉर्पोरेशन ने पिछले साल मेनोपॉज़ से गुज़र रही महिलाओं का एक सर्वे किया था। इस सर्वे में लगभग 20 फीसदी महिलाओं ने नौकरी छोड़ने, प्रमोशन न लेने, काम के घंटे कम करने या पदावनति करने की बात कही।

साइंस, टेक्‍नॉलॉजी, इंजीनियरिंग व मेथ (STEM) के क्षेत्र में काम कर रही महिलाओं को लगता है कि अगर वे अपने बॉस या साथी स्‍टाफ के साथ मेनोपॉज़ की दिक्‍कतों के बारे में बात करेंगी तो वे महिलाओं के खिलाफ और भी पूर्वाग्रहों से भर जाएंगे। परिणाम यह होता है कि वे रिसर्च की बजाय प्रशासनिक काम ज़्यादा पसन्‍द करती हैं।

कार्यस्‍थलों के लिए मेनोपॉज़ नीति बनाने की सख्‍त ज़रूरत है। और ऐसी नीति बनाते वक्‍त महिलाओं को भागीदार बनाना तथा उनसे सुझाव लेना ज़रूरी होगा। काम करने की व्‍यवस्‍था को लचीला बनाया जाए। जैसे, वे महिलाएं कुछ घंटों की छुट्टी लेकर डॉक्‍टर से मिल सकें, घर से काम कर सकें, ऑफिस में एक ऐसी जगह हो जहां हालत बिगड़ने पर कुछ देर आराम कर सकें, ऐसा माहौल हो कि वे अपनी परेशानियों के बारे में किसी व्‍यक्ति या फोरम में खुलकर बात कर सकें।

यूके और यूएस जैसे देशों में तो इस दिशा में प्रयास शुरू भी हो गए हैं। मेनोपॉज़ गाइडेंस, मेनोपॉज़ नेटवर्क, मेनोपॉज़ काफे वगैरह बनाने की पहल हुई हैं। सेलेब्रेटी भी इस पर खुलकर बातें कर रहे हैं।

तो आइए, हम जहां भी काम करते हैं वहां प्री-मेनोपॉज़ पर संवाद शुरू करें। काम की जगहों को प्री-मेनोपॉज़ से गुज़र रही महिलाओं के अनुकूल बनाने की कोशिश करें। मेनोपॉज़ को एक बीमारी या विकार की तरह न देखकर ज़िंदगी के एक दौर की तरह देखें।

कार्यस्‍थलों पर औरतों की संख्‍या जितनी बढ़ेगी, मेनोपॉज़, गर्भावस्था, स्तनपान जैसी चीज़ों पर लोगों के पूर्वाग्रह उतने ही कम होंगे और लोग संवेदनशील भी बनेंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://static.vecteezy.com/system/resources/previews/011/430/701/non_2x/female-personal-health-concern-worry-woman-getting-checked-by-doctors-menopause-women-climacteric-hormone-replacement-therapy-concept-flat-modern-illustration-vector.jpg

कैंसर कोशिकाएं गाढ़े द्रव में तेज़ चलती हैं

कैंसर फैलने में अहम मोड़ मेटास्टेसिस चरण में आता है, जब कोशिकाएं प्रारंभिक ट्यूमर से अलग होकर शरीर में फैलने लगती हैं और नए ट्यूमर बनाने लगती हैं। लेकिन कैंसर कोशिकाओं को आगे बढ़ने के लिए शरीर में मौजूद तरल माध्यम से गुज़रते हुए उसके प्रतिरोध का सामना पड़ता है। पूर्व में हुए प्रयोगशाला अध्ययनों में पता चला था कि (सहज बोध के विपरीत) ये कोशिकाएं गाढ़े द्रव में अधिक तेज़ी से आगे बढ़ती हैं।

अब, नेचर पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन में पता चला है कि कैंसर कोशिकाएं शारीरिक द्रव के गाढ़ेपन को भांप लेती हैं और उसके मुताबिक प्रतिक्रिया देती हैं। सिरप जैसे द्रव में रखे जाने पर देखा गया कि कोशिकाएं अपनी बनावट में ऐसे परिवर्तन करती हैं जो उन्हें बाहरी प्रतिरोध में अधिक कुशलता से आगे बढ़ने में मदद करते हैं। यहां तक कि वे द्रव के गाढ़ेपन की स्मृति को सहेजकर रखती हैं और अपेक्षाकृत पतले द्रव में लौटने पर भी तेज़ी से आगे बढ़ना जारी रखती हैं।

यह जानने के लिए कि कोशिकाएं गाढ़े माध्यम में कैसे आगे बढ़ती हैं, पोम्पे फेबरा युनिवर्सिटी के आणविक जीव विज्ञानी मिगुएल वेल्वरडे और उनके साथियों ने कोशिकाओं की चाल पता करने के लिए उपयोग किए गए अपने गणितीय मॉडल को थोड़ा बदलकर इसे गाढ़े द्रव के लिए अनुकूलित किया।

संशोधित मॉडल ने बताया कि बाहरी प्रतिरोध कोशिकाओं को उनके अग्रभाग की ओर एक्टिन को पुनर्गठित करने के लिए उकसाता है – एक्टिन एक प्रोटीन है जो कोशिका का आंतरिक कंकाल बनाता है। इसके बाद NHE1 नामक परिवहन प्रोटीन झिल्ली पर इकट्ठा होने लगता है और पानी के अवशोषण में मदद करता है। इससे कोशिका फूल जाती है, जिसकी वजह से झिल्ली में तनाव पैदा हो जाता है। इस तनाव के परिणामस्वरूप TRPV4 आयन चैनल खुल जाता है। इससे कैल्शियम आयन कोशिका में भर जाते हैं जो इसे सिकुड़ने के लिए उकसाते हैं। इससे एक बल उत्पन्न होता है जो कोशिका को अधिक गाढ़े द्रव के प्रतिरोध का सामना करके आगे बढ़ने में मदद करता है।

पुष्टि के लिए शोधकर्ताओं ने मानव स्तन कैंसर कोशिकाओं को अत्यधिक आवर्धन क्षमता वाले सूक्ष्मदर्शी से देखा। पाया गया कि जब कोशिकाएं गाढ़े माध्यम में होती हैं तो उनके अग्रभाग पर एक्टिन जमा होता है। फिर शोधकर्ताओं ने व्यवस्थित रूप से प्रत्येक घटक की जांच करके घटनाओं के क्रम की पुष्टि की। उदाहरण के लिए, NHE1 रहित कोशिकाओं में जब TRPV4 को सक्रिय किया गया तो कोशिकाओं में तेज़ी से चलने की क्षमता बहाल हो गई, जिससे पता चलता है कि TRPV4 चैनल तरल के बहाव की विपरीत दिशा में कार्य करता है। ये नतीजे इस मान्यता को चुनौती देते हैं कि बाहरी चीज़ों के प्रति प्रतिक्रिया देने की शुरुआत आयन चैनल करती हैं।

यह भी देखा गया कि गाढ़े द्रव की परिस्थितियों की स्मृति कोशिकाएं बरकरार रखती है: मानव स्तन कैंसर कोशिकाओं को गाढ़े द्रव में छह दिनों तक रखकर फिर पानी जितनी सांद्रता वाले में माध्यम में स्थानांतरित करने पर पाया गया कि इन कोशिकाओं ने अपनी गति बरकरार रखी। इसी तरह, लसलसे तरल में कोशिकाओं को पनपाने के बाद जब इन्हें चूहों के शरीर में डाला गया तो इन कोशिकाओं ने कम लसलसे तरल में पनपाई गई कोशिकाओं की तुलना में अधिक व्यापक मेटास्टेसिस किया। इसी तरह के नतीजे ज़ेब्राफिश और भ्रूण-चूज़े में भी देखे गए।

ऐसा लगता है कि इस स्मृति का विकास TRPV4 पर निर्भर करता है। कोशिकाओं को एक लसलसे घोल में छह दिन तक रखने के बाद पानी के समान द्रव में स्थानांतरित किया गया तो पता चला कि जिन कोशिकाओं में आयन चैनल व्यक्त नहीं हुआ था उन्होंने चूहों में तुलनात्मक रूप से कम ट्यूमर बनाए। इससे पता चलता है कि आयन चैनल के अभाव में गाढ़ापन गति को प्रभावित नहीं करता।

शोधकर्ताओं का कहना है कि कैंसर के मेटास्टेसिस को अवरुद्ध करने के लिए TRPV4 एक संभावित लक्ष्य हो सकता है। लेकिन अन्य शोधकर्ताओं का कहना है कि पहले सामान्य कोशिकाओं में TRPV4 की भूमिका को पूरी तरह समझना ज़रूरी है। यदि यह कोई खास भूमिका निभाता होगा तो इसे अवरुद्ध करने के घाटे भी हो सकते हैं। इसके अलावा, निष्कर्षों की सावधानीपूर्वक व्याख्या की जानी चाहिए। कोशिकाएं गाढ़े घोल में तेज़ चलती हैं, इसका मतलब यह नहीं है कि वे अधिक कैंसर गठानें (द्वितियक कैंसर) बनाएंगी; ट्यूमर मेटास्टेसिस एक बहुत ही जटिल घटना है जिसके कई चरण होते हैं, इनमें से कुछ चरण कोशिका के विचरण से स्वतंत्र हैं।

बहरहाल, भले ही ये नतीजे सीधे तौर पर कैंसर चिकित्सा में मदद न करें लेकिन ये कोशिका-आधारित कैंसर अनुसंधान में बदलाव ला सकते हैं। फिलहाल अधिकांश अध्ययन पानी जैसी सांद्रता वाले द्रवों में किए जाते हैं। शरीर के तरल जैसी सांद्रता वाले द्रव का उपयोग मेटास्टेसिस-अवरुद्ध करने वाले लक्ष्य पहचानने में अधिक मदद कर सकते हैं। कृत्रिम वातावरण जितना अधिक शरीर के वातावरण के समान होगा उतने सटीक परिणाम मिलने की उम्मीद की जा सकती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://cdn.the-scientist.com/assets/articleNo/70781/aImg/48671/cancer-cells-article-l.webp

वनीकरण का मतलब महज़ पेड़ लगाने से नहीं है

संयुक्त राष्ट्र ने 2021-2030 के दशक को पारिस्थितिकी तंत्र की बहाली का दशक घोषित किया है। और कई देशों ने वित्तदाताओं की मदद से उजाड़ जंगलों को बहाल करने के महत्वाकांक्षी कार्यक्रम भी शुरू कर दिए हैं। पिछले हफ्ते कॉप-27 में, युरोपीय संघ और 26 देशों ने जलवायु परिवर्तन को धीमा करने के लिए वनों को बढ़ावा देने के लिए 16 अरब डॉलर खर्चने का वादा किया है चूंकि पेड़ कार्बन सोखकर जलवायु परिवर्तन को थाम सकते हैं। इसका एक बड़ा हिस्सा पुनर्वनीकरण पर खर्च किया जाएगा। लेकिन इस बारे में मालूमात बहुत कम है कि इसे कैसे किया जाए।

विश्व संसाधन संस्थान के अनुसार वर्ष 2000 से 2020 के बीच वन क्षेत्र में कुल 13 लाख वर्ग किलोमीटर की वृद्धि हुई है, जिसमें चीन और भारत अग्रणि रहे हैं। लेकिन इन नए वनों में से लगभग 45 प्रतिशत प्लांटेशन हैं, यानी इन वनों में एक ही प्रजाति के वृक्षों का वर्चस्व है। प्राकृतिक वनों की तुलना में ये जैव विविधता और दीर्घकालिक कार्बन भंडारण के लिहाज़ा कम लाभप्रद हैं।

कई पुनर्वनीकरण परियोजनाएं  इस बात पर ज़्यादा ध्यान देती हैं कि कितने पेड़ लगाए गए और इन बातों पर कम ध्यान देती हैं कि कितने जीवित बचे, कितने स्वस्थ हैं, उन वनों में कितनी विविधता है, या वे कितना कार्बन सोखते हैं। दरअसल, हम इस बारे में बहुत कम जानते हैं कि किस तरह का वनीकरण कारगर है, कहां कारगर है, और क्यों।

पिछले हफ्ते प्रकाशित फिलॉसॉफिकल ट्रांज़ेक्शन ऑफ रॉयल सोसाइटी का एक विशेषांक इस बारे में मार्गदर्शक है। इनमें से एक अध्ययन दक्षिण और दक्षिण-पूर्व एशिया की वनीकरण परियोजनाओं पर गहराई से नज़र डालता है जो इसकी चुनौतियां उजागर करती हैं। यूके सेंटर फॉर इकॉलॉजी एंड हाइड्रोलॉजी की वन पारिस्थितिकीविद लिंडसे बैनिन और उनके साथियों ने इस बाबत डैटा का अध्ययन किया कि 176 पुनर्विकसित स्थलों की अलग-अलग मिट्टी और जलवायु में अलग-अलग तरह के पेड़-पौधे कितनी अच्छी तरह से पनपे। पाया गया कि कुछ स्थानों पर, पांच में से मात्र एक पौधा जीवित रहा, जबकि औसतन मात्र 44 प्रतिशत पौधे ही 5 वर्ष से अधिक जीवित रह पाए।

अलबत्ता, इस अध्ययन ने एक उत्साहजनक बात दर्शाई है: परिपक्व पेड़ों के पास रोपे गए पौधों में से औसतन 64 प्रतिशत पौधे जीवित रहे, शायद इसलिए क्योंकि ये जगहें उतनी बर्बाद नहीं हुई थीं। अन्य अध्ययन बताते हैं कि बागड़ लगाकर मवेशियों को बाहर रखने और मिट्टी की हालत में सुधार करने जैसे उपायों से भी पौधों के जीवित रहने की संभावना बढ़ सकती है, लेकिन ये उपाय महंगे हो सकते हैं।

एकाध ऐसी प्रजातियों के पौधे लगाने से भी मदद मिल सकती है जो अपने आप आसानी से फल-फूल-फैल जाती हैं। ये प्रजातियां अन्य प्रजातियों के पनपने का मार्ग प्रशस्त करती हैं। चियांग माई विश्वविद्यालय के पादप पारिस्थितिकीविद स्टीफन इलियट और पिमोनरेट तियानसावत के अध्ययन का निष्कर्ष है कि प्रारंभिक प्रजातियां ऐसी होनी चाहिए जो उस क्षेत्र की स्थानीय हों, जो खुले क्षेत्रों में पनपती हों, तेज़ी से बढ़ती हों, खरपतवार को पनपने से रोकती हों और बीज फैलाने वाले पशु-पक्षियों को आकर्षित करती हों। ऑस्ट्रेलिया में एक झाड़ी, (ब्लीडिंग हार्ट – होमलैंथस नोवोगुइनेंसिस) का उपयोग प्रभावी स्टार्टर के तौर पर किया जाता है। इसकी जड़ें मिट्टी को पोला करती हैं और इसकी पत्तियां मिट्टी में पोषक तत्व जोड़ती हैं, जो अन्य प्रजातियों को वहां पनपने में मदद करता है। और इसके गूदेदार हरे फल बीज फैलाने वाले जानवरों को आकर्षित करते हैं।

पौधारोपण के लिए सही जगह का चुनाव भी महत्वपूर्ण है। वेगनिंगेन युनिवर्सिटी एंड रिसर्च के पारिस्थितिकीविद लुइस कोनिग और कैटरीना जेकोवैक ने 25 वर्षों तक ब्राज़ील की बंद हो चुकी टिन खदानों के कारण बंजर हो चुकी भूमि में पुर्नवनीकरण के प्रयासों का अध्ययन किया। वे बताते हैं कि डंपिंग एरिया, जहां की मिट्टी अनुपजाऊ और ज़हरीली हो गई हो वहां पेड़ों को वृद्धि करने में कठिनाई होती है। खनन गड्ढों और बचे-खुचे जंगलों के पास पौधारोपण के परिणाम बेहतर रहे।

एक किफायती तरीका हो सकता है कि किसी संपूर्ण क्षेत्र को पौधों से पूरा पाटने की बजाय छोटे-छोटे भूखंडों में पौधारोपण करें जो जंगल को पनपाने का काम करेंगे और उनके चारो ओर जंगल अपने-आप फैलेगा। कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय की एंडी कुलिकोव्स्की और कैरेन होल द्वारा कोस्टा रिका के 13 प्रायोगिक स्थलों के अध्ययन में पाया गया कि किसी जगह पर एक या चंद प्रजाति के पौधों लगाने की तुलना में यह तरीका विविधतापूर्ण जंगल के पुन: उगने में बेहतर हो सकता है। इसे एप्लाइड न्यूक्लिएशन कहा गया है। इस तरीके से पेड़ों को अधिक जगह के साथ-साथ अधिक प्रकाश मिलता है।

वैसे जंगल अपने दम पर भी काफी कुछ बहाल कर सकते हैं। वन पारिस्थितिकीविद रॉबिन शेडॉन 1997 से उत्तरी कोस्टा रिका के पूर्व में चारागाह रहे एक उजाड़ भू-क्षेत्र की निगरानी कर रहे थे, जहां एक भी पेड़ नहीं लगाया गया था। अब, वहां एक स्वस्थ प्राकृतिक जंगल है।

योजना बनाने में एक महत्वपूर्ण कारक यह भी है कि पुनर्वनीकरण स्थानीय लोगों को कैसे प्रभावित करता है और स्थानीय लोग पुनर्वनीकण को कैसे प्रभावित करते हैं। पुनर्वनीकरण खेती के लिए उपलब्ध भूमि में कमी ला सकता है, लेकिन स्थानीय समुदाय को इसका मुआवज़ा दिया जा सकता है – और नया जंगल उन्हें इमारती लकड़ी, शिकार के अवसर और आय के अन्य स्रोत दे सकता है। यह सुनिश्चित करना चाहिए कि पुनर्वनीकरण स्थानीय लोगों के लिए फायदेमंद हो।

यॉर्क विश्वविद्यालय के संरक्षण विज्ञानी रॉबिन लोवरिज और एंड्रयू मार्शल ने पूर्वी तंज़ानिया में पुनर्वनीकरण परियोजनाओं के अध्ययन में पाया कि वह जंगल बेहतर हाल में था और लोग अधिक खुश थे जहां प्रबंधन समुदाय के लोग कर रहे थे।

विषय विशेषांक के सह-संपादक मार्शल का कहना है कि कई अन्य मुद्दों पर भी ध्यान देने की ज़रूरत है। जैसे बेलें और काष्ठ-लताएं – जो वनों को तूफानों से बचा भी सकती हैं और प्रकाश को रोककर पुनर्वनीकरण को थाम भी सकती हैं। इसी प्रकार से परियोजनाओं की सफलता का पैमाना और प्रबंधन के तौर-तरीके के मुद्दे भी शामिल हैं। इनके जवाब स्थानीय परिस्थितियों पर निर्भर करेंगे।

युनिवर्सिटी कॉलेज लंदन के वन पारिस्थितिकीविद सिमोन लुईस पुनर्वनीकरण की गति को लेकर उत्साहित हैं लेकिन नवीन जंगल की गुणवत्ता को लेकर चिंतित हैं। चिंता का एक विषय यह है कि जहां देश वनों की क्षति को कम करने के कठिन लक्ष्यों को हासिल करने की जीतोड़ कोशिश कर रहे हैं, वहीं पुराने जंगलों को अब भी काटा जा रहा है, और उनकी जगह नए जंगल अन्यत्र लगाए जा रहे हैं। इसका मतलब है कि कुल मिलाकर वनों में तो कोई कमी नहीं आ रही है लेकिन अधिक जैव विविधिता और अधिक कार्बन सोखने की क्षमता वाले वनों की जगह कम जैव विविधता और कम कार्बन सोखने की क्षमता वाले वन लेते जा रहे हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://media.istockphoto.com/id/951136424/photo/beautiful-path-in-forest-with-lush-green-trees.jpg?s=170667a&w=0&k=20&c=L6l0XENgkVaiPd5QL3uG3bjUphEnDEmwJ6A9qOuFHxI=

27वां जलवायु सम्मेलन: आशा या निराशा

हाल ही में मिस्र में आयोजित 27वें जलवायु सम्मेलन (कॉप-27) का समापन हुआ। इस सम्मेलन में जीवाश्म ईंधन के उपयोग को चरणबद्ध तरीके से खत्म करने के प्रयासों की धीमी गति को लेकर शोधकर्ताओं में काफी निराशा देखने को मिली। हालांकि, जलवायु परिवर्तन के प्रभावों की भरपाई के लिए ‘हानि व क्षतिपूर्ति’ (लॉस एंड डैमेजेस) फंड के निर्माण ने निम्न और मध्यम आय देशों में एक नई उम्मीद भी जगाई। यह फंड इन देशों को जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से निपटने में मदद करेगा।

सम्मेलन के अंतिम दिन जारी किए गए 10 पन्नों के दस्तावेज़ में कहा गया है कि वैश्विक तापमान वृद्धि को उद्योग-पूर्व स्तर से 1.5 डिग्री सेल्सियस अधिक तक सीमित रखने के लिए ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को तेज़ी से कम करना होगा। लेकिन जीवाश्म ईंधन को चरणबद्ध तरीके से खत्म करने के आह्वान का तेल उत्पादक देशों ने जमकर विरोध किया; कुछ प्रतिनिधियों ने तो कार्बन-मुक्ति की धीमी रफ्तार को भी संतोषप्रद ठहराने की कोशिश की। कई ने जीवाश्म ईंधन के मामले में प्रगति की कमी के लिए रूस-यूक्रेन युद्ध को ज़िम्मेदार ठहराया। कई विशेषज्ञों का मत था कि तापमान वृद्धि को 1.5 डिग्री तक सीमित रखने का समय बीतता जा रहा है और यह तभी हासिल हो सकता है जब कार्बन डाईऑक्साइड को वातावरण से हटाने के ज़ोरदार प्रयास किए जाएं।

इस बार सम्मेलन में पूरे 45,000 लोगों ने पंजीकरण किया जिसके चलते कई लोगों ने सवाल उठाया कि क्या आपात स्थिति को संभालने की दृष्टि से सम्मेलन का यह प्रारूप सही है। नई दिल्ली स्थित सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरनमेंट की महानिदेशक सुनीता नारायण सम्मेलन के दौरान हुई बातचीत को वास्तविकता से काफी दूर मानती हैं। नारायण के अनुसार सम्मेलन का यह प्रारूप लोगों को साथ लाने और विचार साझा करने का मौका तो प्रदान करता है लेकिन मुख्य उद्देश्य – विश्व नेताओं पर ठोस कार्यवाही के लिए दबाव बनाना और उन्हें जवाबदेह ठहराना – से भटकाता है। यह सम्मेलन एक तरह के भव्य जलसे में बदलता नज़र आ रहा है। सम्मेलन में पहली बार आए शोधकर्ता और कार्यकर्ता सरकारी वार्ताकारों द्वारा दस्तावेज़ के एक-एक शब्द पर अंतहीन बहस को लेकर चिंतित दिखे।

वित्तीय सहायता के लिए संघर्ष

निम्न-मध्य आय देशों और चीन के प्रतिनिधि ‘हानि व क्षतिपूर्ति’ कोश के निर्माण को लेकर काफी आश्वस्त थे क्योंकि इस मुद्दे को सम्मेलन के आरंभ में एजेंडा में शामिल किया गया था। इस कोश का उपयोग जलवायु परिवर्तन से प्रभावित देशों के लिए किया जाएगा। जैसे, सोमालिया जहां 70 लाख लोग भुखमरी का सामना कर रहे हैं या पाकिस्तान जहां इस वर्ष बाढ़ से लगभग 30 अरब डॉलर का नुकसान हुआ है।

वैसे तो, अमेरिकी जलवायु दूत जॉन केरी ऐसे किसी कोश का विरोध करते हुए सम्मेलन में पहुंचे थे। उनका कहना था कि मौजूदा फंड से ही जलवायु सम्बंधी नुकसान की भरपाई की जा सकती है। इसके अलावा अमेरिकी वार्ताकारों ने उच्च ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जकों को अपने अतीत के उत्सर्जन का दायित्व स्वीकार करने के विचार का भी विरोध किया। उनको डर है कि इस विचार को स्वीकार करने का मतलब खरबों डॉलर का भुगतान करना होगा।

शुरुआत में युरोपीय संघ ने भी इस विचार को लेकर आशंका ज़ाहिर की लेकिन अंतत: अपना विचार बदल दिया जिसके चलते अमेरिका को दबाव का सामना करना पड़ा। कोश में कुल कितनी राशि जमा की जाएगी और विभिन्न देश कितना योगदान देंगे यह आने वाले सम्मेलन पर छोड़ दिया गया है।  

यह पहला जलवायु सम्मेलन था जिसके अंतिम दस्तावेज़ में अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोश (आईएमएफ) और विश्व बैंक जैसी बड़ी वित्तीय संस्थाओं की नीतियों में सुधार की भी बात कही गई है। ये संस्थाएं वैश्विक अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। फिलहाल, वित्तीय संकट में फंसे देशों को कर्ज़ देने के लिए आईएमएफ एक खरब डॉलर की राशि देता है लेकिन इसका मामूली हिस्सा ही जलवायु परिवर्तन सम्बंधी होता है।

उर्जा संकट का प्रभाव

सम्मेलन में रूस-यूक्रेन युद्ध से उत्पन्न उर्जा संकट चर्चा में रहा। प्राकृतिक गैस की ऊंची कीमतों ने वैश्विक उर्जा बाज़ार को प्रभावित किया है और कुछ युरोपीय देशों को प्राकृतिक गैस के नए स्रोत खोजने तथा अस्थायी रूप से कोयले का उपयोग जारी रखने को बाध्य किया है। वैसे इंडोनेशिया में आयोजित जी-20 शिखर सम्मेलन में घोषित समझौते से कॉप-27 की बात आगे बढ़ी जहां धनी देशों ने इंडोनेशिया को कोयला उपयोग से दूर करने के लिए 20 अरब डॉलर देने पर सहमति जताई है। इसके अलावा जर्मनी ने हरित हाइड्रोजन और तरलीकृत प्राकृतिक गैस के निर्यात को आगे बढ़ाने के लिए मिस्र के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं। इसी तरह कुछ अन्य सरकारें और कंपनियां भी सेनेगल, तंज़ानिया और अल्जीरिया जैसे देशों में इस तरह की परियोजनाएं शुरू कर रही हैं।

गौरतलब है कि युरोपीय नेता इन उपायों को अल्पकालिक तिकड़में मानते हैं जिनका प्रभाव उनकी दीर्घकालिक प्रतिबद्धताओं पर नहीं पड़ेगा। लेकिन नारायण के अनुसार नज़ारा अच्छा नहीं है; इस संकट से पूर्व समृद्ध देश कह रहे थे कि कम आय वाले देशों में जीवाश्म-ईंधन परियोजनाओं को वे पैसा नहीं देंगे लेकिन अब वे इन देशों से आपूर्ति बढ़ाने के लिए कह रहे हैं। इन तनावों का कॉप-27 सम्मेलन पर काफी प्रभाव पड़ा और जीवाश्म ईंधन को चरणबद्ध तरीके से खत्म करने की बात को अंतिम दस्तावेज़ से हटा दिया गया और कम-उत्सर्जन प्रणालियों की बात रखी गई। संभवत: भविष्य में इसका उपयोग प्राकृतिक-गैस के विकास को सही ठहराने के लिए किया जाएगा। इसके चलते आने वाले दिनों में जीवाश्म ईंधन पर लगाम लगाने सम्बंधी बातचीत धरी की धरी रह जाएगी।

खाद्य सुरक्षा पर ध्यान

कॉप-27 सम्मेलन के समझौते  में कहा गया है कि ‘खाद्य सुरक्षा और भुखमरी को खत्म करना’ एक प्राथमिकता है। यदि जल तंत्रों की रक्षा और संरक्षण किया जाए तो समुदाय जलवायु परिवर्तन का सामना करने में ज़्यादा सक्षम होंगे। ग्लासगो जलवायु समझौते में कृषि, भोजन या पानी का कोई ज़िक्र नहीं किया गया था। कई विशेषज्ञों ने कहा है कि कम से कम शब्दों के स्तर पर तो प्रगति हुई है लेकिन वास्तविक कार्रवाइयों की कमी खलती है।     

कॉप-26 में सरकारों ने खाद्य प्रणालियों के लिए बहुत कम निधि रखी थी। जबकि इसके विपरीत बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन ने छोटे किसानों को जलवायु परिवर्तन के तत्काल और दीर्घकालिक प्रभावों से बचाने के लिए चार वर्षों में 1.4 अरब डॉलर खर्च करने का संकल्प लिया था। कॉप-27 के दस्तावेज़ में जलवायु सम्बंधी अंतर्सरकारी पैनल के इस निष्कर्ष का भी कोई ज़िक्र नहीं है कि वैश्विक उत्सर्जन में 21-37 प्रतिशत योगदान खाद्य प्रणाली का है। इस निष्कर्ष के मद्देनज़र जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने के लिए ‘जैविक खेती’ और भूमि उपयोग परिवर्तन पर विचार करना भी ज़रूरी है जिसे इस सम्मेलन में पूरी तरह अनदेखा कर दिया गया है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.unesco.org/sites/default/files/styles/paragraph_medium_desktop/public/2022-10/COP27_logo_web.jpg?itok=nwgoAG9t

शनि के उपग्रह पर ड्रोन भेजने की तैयारी में नासा – प्रदीप

बीते चार-पांच दशकों में शनि का सबसे बड़ा चंद्रमा टाइटन आकर्षण का केंद्र रहा है। टाइटन पृथ्वी के अलावा सौरमंडल का इकलौता ऐसा पिंड है, जिसकी सतह पर नहरों, सागरों आदि की उपस्थिति के ठोस प्रमाण मिले हैं। विज्ञानियों का मानना है कि एक समय हमारी पृथ्वी टाइटन की तरह ही थी। टाइटन के वायुमंडल में बादलों की मौजूदगी और तड़ित की घटनाएं पृथ्वी जैसे मौसम का वायदा करती हैं। इसलिए वहां सूक्ष्मजीवी जीवन की मौजूदगी की पूरी संभावना है।

पृथ्वी से बाहर जीवन की मौजूदगी की जिज्ञासा में दुनिया भर की स्पेस एजेंसियां लंबे समय से टाइटन की ओर टकटकी लगाए बैठी हैं। इसी क्रम में अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा टाइटन पर जीवन की संभावनाओं की पड़ताल के लिए ड्रैगनफ्लाई नामक ड्रोन भेजने की तैयारी में है। मिशन ड्रैगनफ्लाई को 2027 में लांच किया जाना है और 2034 में इसके टाइटन पर पहुंचने की उम्मीद है।

हाल ही में कॉर्नेल युनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं की एक टीम ने टाइटन पर ड्रैगनफ्लाई की लैंडिंग साइट निर्धारित करने के लिए कैसिनी मिशन द्वारा ली गई तस्वीरों का विश्लेषण किया है ताकि ड्रैगनफ्लाई की लैंडिंग के लिए एक आदर्श स्थान चुना जा सके। अंतत: सेल्क क्रेटर के पास के साग्रीला टीले को चुना गया है।

दी प्लेनेटरी साइंस जर्नल में प्रकाशित शोधपत्र के प्रधान लेखक ली बोनेफाय का कहना है कि ड्रैगनफ्लाई टाइटन की विषुवत रेखा के सूखे इलाके में उतरेगा जहां बहुत ही ठंडे और घने वायुमंडल वाले हाइड्रोकार्बन का संसार है। कई बार वहां तरल मीथेन की बारिश होती है। लेकिन कई जगह धरती के रेगिस्तानों जैसी हैं, जहां रेत के टीले हैं, छोटे पहाड़ हैं और इम्पैक्ट क्रेटर भी हैं। अभी तक बहुत सारी जानकारियां (जैसे सेल्क क्रेटर का आकार और ऊंचाई) अनुमान ही हैं इसलिए इस सम्बंध में 2034 से पहले ज़्यादा से ज़्यादा सटीक जानकारी जुटाने की ज़रूरत है।

तकरीबन 85 करोड़ डॉलर के इस मिशन के तहत ड्रोन की मदद से टाइटन की सतह से नमूने एकत्रित कर उसकी संरचना समझने की कोशिश होगी। नासा को कैसिनी मिशन के दौरान ऐसे संकेत मिले थे कि टाइटन पर कुछ ऐसे कार्बनिक पदार्थ मौजूद हैं, जिन्हें जीवन के लिए ज़रूरी माना जाता है। तरल पानी की मौजूदगी का भी दावा किया गया था। ड्रैगनफ्लाई छोटी-छोटी उड़ानें भरेगा और विभिन्न स्थानों पर उतर कर वहां से नमूने इकट्ठा करेगा। इसकी उड़ानें आठ किलोमीटर तक की होंगी और यह कुल 175 किलोमीटर की उड़ान भरेगा। यह दूरी मंगल पर समस्त रोवरों द्वारा मिलकर तय की गई दूरी से दोगुनी होगी। उम्मीद है कि ड्रैगनफ्लाई टाइटन के सघन वायुमंडल को भेदकर उसकी बहुतेरी गुत्थियों से पर्दा उठाने में मददगार साबित होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://d3i6fh83elv35t.cloudfront.net/static/2019/12/dragonfly1-1024×576.jpg

एक लोकप्रिय पौधे का नाम बदलना – डॉ. किशोर पंवार

स्नेक प्लांट एक सजावटी पौधा है, जिसका उपयोग ऑफिस के अंदर और घर की हवा की गुणवत्ता सुधार हेतु आजकल बड़े पैमाने पर किया जा रहा है। ऑनलाइन दुकानों पर भी यह पौधा खूब बिक रहा है। इसका एक नाम मदर-इन-लॉज़ टंग (mother-in-law’s tongue) भी है।

वनस्पति विज्ञान में इसे अभी तक सेंसिविएरिया ट्रायफेसिएटा  (Sansevieria trifasciata) के नाम से जाना जाता था। अब इस पौधे का नाम बदल दिया गया है। अब इसे ड्रेसीना ट्रायफेसिएटा (Dracaena trifasciata) कहा जाने लगा है।

लेकिन क्यों?

सवाल यह है कि पौधों के नाम आखिर बदले ही क्यों जाते हैं? जो चलन में है उन्हें ही चलने दें। लेकिन यहां बात चलन की नहीं है, सही होने की है। दरअसल, नाम बदलने के तीन कारण होते हैं –

पहला, सबसे पुराना नाम वह माना जाता है जो सबसे पहले प्रकाशित हुआ हो। यदि ऐसी कोई प्रामाणिक जानकारी मिलती है कि जो नाम आजकल चलन में है उससे पूर्व का भी कोई नाम प्रकाशित हुआ था, तो नए नाम को छोड़कर पुराना नाम अपना लिया जाता है।

दूसरा, यदि पौधे का जो नाम चलन में है, उस पौधे की पहचान ही गलत हुई हो, तो गलती को सुधारा जाता है।

नाम बदलने का तीसरा कारण यह है कि पौधे को नए सिरे से वर्गीकृत किया गया हो। दरअसल पूर्व के वर्गीकरणविदों ने पेड़-पौधों का जो नामकरण किया था उसका मुख्य आधार उनका रूप-रंग, आकार-प्रकार, फूलों की आपसी समानता आदि थे। यानी मुख्य रूप से आकारिकी आधारित वर्गीकरण था। फिर पादप रसायन शास्त्र, भ्रूण विज्ञान, आंतरिक संरचना, पुराजीव विज्ञान आदि के आधार पर पौधों को फिर से वर्गीकृत किया गया।

नाम बदलने का एक महत्वपूर्ण उदाहरण है बबूल का। पहले इसे अकेसिया अरेबिका (Acacia arabica) कहते थे और फिर बदलकर अकेसिया निलोटिका (Acacia nilotica) कर दिया गया था। लेकिन एक बार फिर नाम बदला गया और बबूल हो गया वेचेलिया निलोटिका (Vachellia nilotica)

यहां यह बात गौरतलब है कि सामान्यत: वानस्पतिक नामों में दो पद होते हैं। इसे द्विनाम प्रणाली कहते हैं। इनमें से पहला पद (जैसे अकेशिया अथवा वेचेलिया) वंश या जीनस दर्शाता है और दूसरा पद (अरेबिका अथवा निलोटिका) प्रजाति बताता है। इसका मतलब है कि अकेशिया अरेबिका से बदलकर अकेशिया निलोटिका करने का मतलब था कि यह पौधा अभी भी उसी वंश (अकेशिया) में माना गया था लेकिन इसे बदलकर वेचेलिया निलोटिका करने का मतलब है कि इस पौधे को एक नए वंश में शामिल कर लिया गया है।

और अब तो ज़माना जीनोम अनुक्रमण और जेनेटिक सम्बंधों का है। जब से जिनोम अनुक्रमण ने वर्गीकरण के मैदान में कदम रखा है तब से चीज़ें बहुत बदल गई हैं। जीनोम अनुक्रमण (यानी किसी जीवधारी की संपूर्ण जेनेटिक सामग्री यानी डीएनए में क्षारों का क्रम पता लगाना) की मदद से जीवधारियों के बीच सम्बंध ज़्यादा स्पष्टता से सामने आते हैं और इसके आधार पर यह तय किया जा सकता है कि कौन-से पौधे या प्राणि ज़्यादा निकटता से सम्बंधित हैं। इस नई जानकारी के आधार पर वर्गीकरण में परिवर्तन स्वाभाविक है।

स्नेक प्लांट यानी मदर- इन-लॉज़ टंग के मामले में यही हुआ। वर्ष 2017 तक जिसे वनस्पति वैज्ञानिक सेंसेविएरिया ट्रायिफेसिएटा कहते थे, जीनोम अनुक्रमण से प्राप्त जानकारी के चलते उसे ड्रेसीना वंश में समाहित कर दिया गया है। कारण यह है कि सेंसेविएरिया प्रजातियों के जीनोम और ड्रेसीना वंश की प्रजातियों के जीनोम में काफी समानता देखी गई है।

ड्रेसीना एक बड़ा वंश है जिसमें लगभग 120 प्रजातियां शामिल हैं। सेंसेविएरिया वंश में करीब 70 प्रजातियां शामिल थीं और अब सबकी सब ड्रेसीना वंश में समाहित हो गई हैं। दोनों वंशों की अधिकांश प्रजातियां अफ्रीका, दक्षिण एशिया से लेकर उत्तरी ऑस्ट्रेलिया की मूल निवासी हैं।

ड्रेसिना ट्राइफेसिएटा मूल रूप से दक्षिण अफ्रीका, नाइजीरिया और कांगों तक पाया जाता है। इसमें कड़क हरी पत्तियां सीधी खड़ी लंबाई में वृद्धि करती है। पत्तियों के किनारे पीले होते हैं और पूरी पत्ती पर हल्के भूरे रंग के आड़े पट्टे बने होते हैं। पत्तियों की लंबाई 70 से 90 सेंटीमीटर और चौड़ाई 5 से 6 सेंटीमीटर होती है। और यह 2 मीटर तक लंबा हो सकता है।

नासा ने अपनी स्टडी में सिक बिल्डिंग सिंड्रोम के लिए ज़िम्मेदार 5 ज़हरीले रसायनों में से चार को फिल्टर करने में स्नेक प्लांट को उपयोगी पाया है। इसे घर के बाहर और अंदर दोनों जगह बड़े आराम से लगाया जा सकता है। हालांकि हवा को साफ करने की इसकी क्षमता बहुत ही धीमी है। अतः इस कार्य हेतु इसका उपयोग व्यावहारिक नहीं है।

इस हेतु दूसरा पौधा है सेंसिविएरिया सिलेंड्रिका, जिसे सिलेंड्रिकल स्नेक प्लांट, अफ्रीकन स्पीयर, सेंट बारबरास स्वॉर्ड कहते हैं। यह अंगोला का मूल निवासी है। इसमें पत्तियां 3 सेंटीमीटर तक मोटी और 2 मीटर तक लंबी, लगभग गोल, चिकनी और हरे रंग की होती हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/f/fb/Snake_Plant_%28Sansevieria_trifasciata_%27Laurentii%27%29.jpg

नींद क्यों ज़रूरी है? – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

ब मेरे जैसे अति-बुज़ुर्ग बच्चे हुआ करते थे तब हमें रात 8 बजे तक सो जाना पड़ता था। फिर सुबह 4 बजे उठकर मंजन करना, नहाना, फिर बचा-खुचा होमवर्क पूरा करना, नाश्ता करना और टिफिन बॉक्स लेकर स्कूल के लिए निकल जाना होता था।

स्कूल और खेलने के बाद हम शाम 6 बजे तक घर वापस आ जाते थे। वापिस आकर अपना होमवर्क करते, रेडियो सुनते, अखबार पढ़ते, रात का खाना खाते और रात 8 बजे तक बिस्तर पर गिरते और सो जाते। लेकिन अफसोस कि आजकल चीज़ें बदल गई हैं।

आईआईटी या आईआईएम जैसे पेशेवर संस्थानों में दाखिला पाने की चाह रखने वाले विद्यार्थियों के लिए सेवा निवृत्त प्रोफेसरों द्वारा चलाई जा रही कोचिंग क्लासेस (जो अल्सुबह – आम तौर पर सुबह 4 या 5 बजे) शुरू होती हैं, के चलते नींद का समय कम हो गया है जबकि यह उनके लिए ज़रूरी है।

अमेरिकन एकेडमी ऑफ स्लीप मेडिसिन ने सिफारिश की है कि 6-12 साल के बच्चों को रोज़ाना 9-12 घंटे की नींद लेनी चाहिए। और 13-18 साल के किशोरों के लिए रोज़ाना 8-10 घंटे की नींद ज़रूरी है।

लेकिन हम देख रहे हैं कि आजकल के बच्चों को इतनी नींद नहीं मिल रही है, क्योंकि वे पूरे दिन कक्षाओं में रहते हैं। और तो और, उनके ‘प्रशिक्षक’ भी पर्याप्त नींद नहीं ले पाते हैं, जो आम तौर पर 40-70 साल के होते हैं, और स्वस्थ जीवन के लिए उन्हें सात घंटे की नींद की ज़रूरत है।

हाल ही में डॉ. जे. एलन हॉब्सन ने नेचर पत्रिका में प्रकाशित एक समीक्षा का आकर्षक शीर्षक दिया है: ‘नींद दिमाग की, दिमाग के द्वारा, दिमाग के लिए होती है’ (Sleep is of the brain, by the brain and for the brain)। इसमें वे बताते हैं कि हमारी नींद के दो चरण होते हैं। एक जिसे रैपिड आई मूवमेंट (REM) कहा जाता है, और दूसरा गैर-REM कहलाता है। REM नींद कुल नींद के लगभग 20 प्रतिशत समय होती है और इसमें सपने आते हैं, जबकि गैर- REM नींद कुल नींद के लगभग 80 प्रतिशत समय होती है और इसे सुदृढ़ता लाने, याददाश्त को मज़बूत करने और नई चीजें सीखने के लिए जाना जाता है।

पोषण और नींद

यूएस नेशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन की वेबसाइट मेडिसिन प्लस बताती है कि पोषण का सम्बंध स्वस्थ और संतुलित आहार लेने से है। भोजन और पेय आपको स्वस्थ रहने के लिए आवश्यक ऊर्जा और पोषक तत्व प्रदान करते हैं। पोषण सम्बंधी इन बातों को समझने से आपके लिए भोजन के बेहतर विकल्प चुनना आसान हो सकता है।

यूएस का स्लीप फाउंडेशन बताता है कि आहार और पोषण आपकी नींद की गुणवत्ता को प्रभावित कर सकते हैं, और कुछ फल और पेय आपके लिए आवश्यक नींद लेने को मुश्किल बना सकते हैं। कैल्शियम, विटामिन A, C, D, E और K जैसे प्रमुख पोषक तत्वों की कमी के कारण नींद की समस्या हो सकती है।

रात के भोजन में उच्च ग्लायसेमिक सूचकांक वाले कार्बोहाइड्रेट युक्त भोजन (जैसे, पॉलिश किया हुआ चावल या मैदा. शकर), शराब या तम्बाकू के सेवन से व्यक्ति उनींदा बन सकता है। यह बार-बार जगाकर आवश्यक नींद की अवधि कम कर सकता है।

स्लीप फाउंडेशन आगे बताता है कि हमें मेडिटेरेनियन आहार अपनाना चाहिए, जिसमें वनस्पति आधारित खाद्य, वसारहित मांस, अंडे और उच्च फाइबर वाले खाद्य पदार्थ शामिल हैं। ऐसा आहार न केवल व्यक्ति के हृदय की सेहत में सुधार करता है बल्कि नींद की गुणवत्ता में भी सुधार लाता है।

खुशी की यह बात है कि अधिकांश भारतीय भोजन मेडिटेरेनियन आहार का ही थोड़ा बदला हुआ रूप है। और हमें यह सलाह भी दी जाती है कि अच्छी नींद लेने के लिए पर्याप्त भोजन करना चाहिए। तो आइए हम कामना करते हैं कि सभी को स्वस्थ और ‘अच्छी’ नींद आए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://th-i.thgim.com/public/news/national/9oqf1w/article66188644.ece/alternates/FREE_1200/istock.JPG

परिवर्तनशील रोबोट नए हुनर सीखते हैं

क्कीसवीं सदी के कारखानों से लेकर शल्य क्रिया कक्ष तक छोटे-बड़े, हर आकार-प्रकार के रोबोट्स से भरते जा रहे हैं। कई रोबोट्स मशीन लर्निंग के ज़रिए गलती कर-करके नए कौशल सीख लेते हैं। लेकिन हालिया दिनों में एक नई विधि ने अलग-अलग तरह के रोबोट्स में इस तरह के कौशल स्थानांतरित करने में काफी मदद की है। इस तकनीक से उनको हर कार्य शुरू से सिखाने की आवश्यकता नहीं होती है। कॉर्नेजी मेलन युनिवर्सिटी के कंप्यूटर वैज्ञानिक और इस अध्ययन के प्रमुख ज़िन्गयू ल्यू ने इसे इंटरनेशनल कॉन्फ्रेंस ऑन मशीन लर्निंग में प्रस्तुत किया है।

रोबोट्स के बीच कौशल स्थानांतरण को एक उदाहरण से समझा जा सकता है। मान लीजिए आपके पास एक रोबोटिक हाथ है जो हू-ब-हू मानव हाथ के समान है। आपने इसे पांचों अंगुलियों से हथौड़ा पकड़ने और कील ठोकने के लिए प्रशिक्षित किया है। अब आप इसी काम को दो-उंगलियों वाली पकड़ से करवाना चाहते हैं। इसके लिए वैज्ञानिकों ने इन दो हाथों के बीच क्रमिक रूप से बदलते रोबोट्स की एक शृंखला बनाई जो धीरे-धीरे मूल स्वरूप से अंतिम रूप में परिवर्तित हो जाते हैं। प्रत्येक मध्यवर्ती रोबोट निर्दिष्ट कार्य का अभ्यास करता है जो एक कृत्रिम न्यूरल नेटवर्क को सक्रिय कर देता है जब तक कि सफलता का एक स्तर हासिल नहीं हो जाता। अगले रोबोट में नियंत्रक कोड भेजा जाता है।

वर्चुअल स्रोत से लक्षित रोबोट में स्थानांतरण के लिए टीम ने एक ‘गति वृक्ष’ तैयार किया। जिसमें नोड्स भुजाओं के द्योतक हैं और उनके बीच की कड़ियां जोड़ों को दर्शाती हैं। हथौड़ा मारने के कौशल को दो-उंगली की पकड़ में स्थानांतरित करने के लिए टीम ने तीन उंगलियों के नोड्स के वज़न और आकार को शून्य कर दिया। इस तरह प्रत्येक मध्यवर्ती रोबोट की उंगलियों का आकार और वज़न थोड़ा छोटा होता गया और उनको नियंत्रित करने वाले नेटवर्क को समायोजित करना सीखना पड़ा। शोधकर्ताओं ने प्रशिक्षण पद्धति में ऐसे परिवर्तन किए कि सीखने की प्रक्रिया में रोबोट्स के बीच अंतर बहुत ज़्यादा या बहुत कम न हों।

वैज्ञानिकों ने इस सिस्टम को रिवॉल्वर (Robot-Evolve-Robot) नाम दिया है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://static.scientificamerican.com/sciam/cache/file/4236CB75-BEF2-4532-80F5F0D692942457_source.jpg?w=590&h=800&E907F3C9-139A-47A9-A3F49391CD530F9C

चंद्रमा पर पहुंचने की दौड़ में निजी क्षेत्र

जापानी कंपनी आईस्पेस द्वारा निर्मित एम1 लैंडर शायद चांद पर उतरने वाला पहला निजी यान होगा। इसे शीघ्र ही फ्लोरिडा स्थित केप कार्निवल से प्रक्षेपित किया जाएगा। इस लैंडर में संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) और जापानी स्पेस एजेंसी JAXA के मून रोवर्स सहित अन्य पेलोड भेजने की योजना है। मिशन सफल रहा तो ये दोनों देश अमेरिका, चीन और सोवियत संघ के साथ चंद्रमा पर उतरने वाले देशों की श्रेणी में शामिल हो जाएंगे।

एम1 को एक अन्य निजी कंपनी स्पेस-एक्स के रॉकेट की मदद से अंतरिक्ष में भेजा जाएगा। चंद्रमा तक पहुंचने के लिए यह एक घुमावदार मार्ग अपनाते हुए मार्च-अप्रैल 2023 में चांद पर उतरेगा।

इसके अलावा, टेक्सास स्थित इंट्यूटिव मशीन्स नामक यूएस फर्म के नोवा-सी मिशन को मार्च 2023 में प्रक्षेपित करने की योजना है। यह चंद्रमा तक पहुंचने के लिए सीधा रास्ता अपनाएगा और केवल 6 दिन का समय लेगा।      

एम1 वास्तव में पृथ्वी और सूर्य के गुरुत्वाकर्षण बल का उपयोग करते हुए चंद्रमा तक पहुंचेगा इस तकनीक से कम ईंधन की आवश्यकता होगी और एम1 कम लागत में अधिक भारी पेलोड ले जा पाएगा।  

चंद्रमा के नज़दीक पहुंचने के बाद लैंडर चंद्रमा की परिक्रमा बढ़ते दीर्घवृत्ताकार पथ पर करेगा और फिर सीधे उर्ध्वाधर लैंडिंग करेगा। यह सबसे जोखिम भरा हिस्सा है। लैंडर को चंद्रमा के एटलस क्रेटर के निकट उतारने का लक्ष्य है। इस स्थल का चुनाव इसलिए किया गया है क्योंकि यह समतल है और बोल्डर-मुक्त है। लेकिन चंद्रमा से सम्बंधित डैटा की कमी के चलते नए स्थान पर लैंडर को उतारना काफी रोमांचक हो सकता है।

इस रॉकेट के माध्यम से मोहम्मद बिन राशिद स्पेस सेंटर द्वारा निर्मित राशिद रोवर भेजा जा रहा है। यूएई सरकार द्वारा निर्धारित 2024 की समय सीमा से काफी पहले राशिद रोवर रवाना हो रहा है। यह रोवर मात्र 50 सेंटीमीटर लंबा और 10 किलोग्राम वज़नी है। मिशन राशिद केवल एक चंद्र दिवस के लिए चलेगा जो पृथ्वी के 14 दिनों के बराबर होता है। यह रोवर एआई एल्गोरिदम द्वारा निर्देशित होगा और इलाके की विशेषताओं की पहचान करेगा।  

रोवर के उपकरणों में चार लांगम्यूर प्रोब हैं जो चंद्रमा की सतह पर धूल की गति को प्रभावित करने वाले आवेशित कणों के तापमान और घनत्व की गणना करेंगे। राशिद में चार कैमरे भी लगाए गए हैं जिनमें से दो कैमरे पर्यावरण का निरीक्षण करेंगे, रेगोलिथ नामक एक माइक्रोस्कोपिक कैमरा चंद्रमा की मिट्टी का अध्ययन करेगा और एक थर्मल इमेजर कैमरा लैंडिंग साइट की भूगर्भीय विशेषताओं का अध्ययन करेगा। इसके अलावा ग्रैफीन आधारित कम्पोज़िट सामग्रियों के नमूने भी रोवर के पहियों में चिपकाए जाएंगे ताकि चंद्रमा के कठोर वातावरण में उनका परीक्षण किया जा सके। राशिद रोवर के प्रोजेक्ट मैनेजर हमद अल मर्ज़ूकी के अनुसार राशिद से प्राप्त डैटा भावी खोज में और रोवर तथा रोबोट के विकास को बेहतर बनाने में मददगार होगा।  

एम1 में एक दो पहिया JAXA रोबोट भी शामिल है जो केवल कुछ घंटों के लिए काम करेगा। एजेंसी के अनुसार यह रोवर चंद्रमा की सतह के चारों ओर चक्कर लगाकर डैटा एकत्रित करेगा जिसका उपयोग भविष्य के मानवयुक्त रोवर डिज़ाइन करने में किया जाएगा। इसके अलावा एम1 में एक 360-डिग्री कैमरा भी शामिल है जो जापानी फर्म एनजीके स्पार्क प्लग द्वारा निर्मित एक सॉलिड स्टेट बैटरी का परीक्षण करेगा।

आईस्पेस 2024 में एम2 को प्रक्षेपित करने की योजना भी बना रहा है। देखा जाए तो पिछले कुछ समय में कई राष्ट्रीय अंतरिक्ष एजेंसियों और निजी कंपनियों के लिए चंद्रमा एक लोकप्रिय गंतव्य बन गया है। आईस्पेस के मुख्य प्रौद्योगिकी अधिकारी रयो उजी आईस्पेस और इसी तरह के अन्य कार्यक्रमों को चंद्रमा पर एक पारिस्थितिकी तंत्र विकसित करने के लिए काफी महत्वपूर्ण मानते हैं। यह चंद्रमा पर जल दोहन की दिशा में एक कदम है। कुछ कंपनियों को उम्मीद है कि चंद्रमा पर उपस्थित पानी का उपयोग रॉकेट ईंधन के रूप में किया जा सकता है जिससे सौर मंडल की खोज को काफी सस्ता बनाया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://media.nature.com/lw767/magazine-assets/d41586-022-03675-8/d41586-022-03675-8_23701596.jpg?as=webp