क्या वाकई भलाई का ज़माना नहीं रहा?

ह काफी सुनने में आता है कि अब लोग पहले जैसे भले नहीं रहे, ज़माना खराब हो गया है, भलाई का ज़माना नहीं रहा, लोग विश्वास के काबिल नहीं रहे वगैरह-वगैरह। तो क्या वाकई ये बातें सच हैं? अपने अध्ययन में कोलंबिया युनिवर्सिटी के मनोविज्ञानी एडम मेस्ट्रोइनी और उनके दल ने इसी सवाल के जवाब की तलाश की है।

उन्होंने दशकों के दौरान किए गए विभिन्न सर्वेक्षणों के नतीजों और विभिन्न अध्ययनों के डैटा का विश्लेषण किया और पाया कि पिछले सत्तर सालों में पूरी दुनिया के लोगों ने नैतिकता के पतन की बात कही है। लेकिन इन्हीं आंकड़ों में यह भी दिखता है कि नैतिकता के व्यक्तिगत मूल्यांकन के मुताबिक तब से अब तक उनके समकालीन लोगों की नैतिकता वैसी ही है। और नेचर पत्रिका में प्रकाशित इस अध्ययन के आधार पर शोधकर्ताओं का कहना है कि लोगों का यह मानना कि लोगों में नैतिकता में गिरावट आई है, महज एक भ्रम है।

इन नतीजों पर पहुंचने के लिए शोधकर्ताओं ने 1949-2019 के बीच अमेरिका में नैतिक मूल्यों पर किए गए सर्वेक्षण खंगाले। और पाया कि 84 प्रतिशत सवालों के जवाब में अधिकतर लोगों ने कहा कि नैतिकता का पतन हुआ है। 59 अन्य देशों में किए गए अन्य सर्वेक्षणों में भी कुछ ऐसे ही नतीजे देखने को मिले।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने अमेरिका के प्रतिभागियों के साथ 2020 में स्वयं कई अध्ययन किए। अध्ययन में विभिन्न राजनीतिक विचारों, नस्ल, लिंग, उम्र और शैक्षणिक योग्यता के लोग शामिल थे। इसमें भी लोगों ने कहा कि उनके बचपन के समय की तुलना में लोग अब कम दयालु, ईमानदार और भले रह गए हैं।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने उन सवालों को भी देखा जिनमें लोगों से अपने और अपने साथियों की वर्तमान नैतिकता का हाल बताने को कहा गया था। शोधकर्ताओं ने विश्लेषण के लिए उन अध्ययनों को चुना जो कम से कम दस साल के अंतराल में दोहराए गए हों ताकि एक अवधि में प्रतिभागियों के जवाबों की तुलना की जा सके।

यदि वास्तव में समय के साथ लोगों की नैतिकता का पतन हुआ होता तो प्रतिभागी पहले की तुलना में बाद वाले सर्वेक्षण में अपने साथियों के बारे में अधिक नकारात्मक कहते। लेकिन उनके जवाब बताते थे कि अपने साथियों के बारे में प्रतिभागियों के विचार समय के साथ नहीं बदले। इस आधार पर शोधकर्ताओं का कहना है कि नैतिक पतन के बारे में लोगों की धारणा मिथ्या है।

भला लोग ऐसा क्यों सोचते हैं कि ज़माना खराब हो रहा है? शोधकर्ताओं का अनुमान है कि इसका ताल्लुक चुनिंदा स्मृति जैसे कारकों से है; अक्सर अच्छी यादों की तुलना में बुरी यादें जल्दी धुंधला जाती हैं।

शोधकर्ताओं का कहना है कि नैतिक पतन की भ्रामक धारणा के व्यापक सामाजिक और राजनीतिक अंजाम हो सकते हैं। मसलन 2015 के एक सर्वेक्षण में अमेरिका के 76 प्रतिशत लोगों ने कहा कि सरकार की प्राथमिकता देश को नैतिक पतन की ओर जाने से बचाने की होनी चाहिए।

बड़ी चुनौती लोगों को यह स्वीकार कराने की है कि यह भ्रम है जो सर्वव्याप्त है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://news.harvard.edu/wp-content/uploads/2023/06/20230614_moral-1200×800.jpg

प्रातिक्रिया दे