भारत में हाथियों की आबादी करीब 25-30 हज़ार बची है। नतीजतन, इन्हें ‘लुप्तप्राय’ श्रेणि में रखा गया है। अनुमान है कि पहले हाथी जितने बड़े क्षेत्र में फैले हुए थे, उसकी तुलना में आज ये उसके मात्र 3.5 प्रतिशत क्षेत्र में सिमट गए हैं – अब ये हिमालय की तलहटी, पूर्वोत्तर भारत, मध्य भारत के कुछ जंगलों और पश्चिमी एवं पूर्वी घाट के पहाड़ी जंगलों तक ही सीमित हैं।
विशेष चिंता का विषय उनके प्राकृतवास का छोटे-छोटे क्षेत्रों में बंट जाना है: हाथियों को भोजन एवं आश्रय देने वाले वन मनुष्यों द्वारा विकसित भू-क्षेत्रों (रेलमार्ग, सड़कमार्ग, गांव-शहर वगैरह बनने) की वजह से खंडित होकर छोटे-छोटे वन क्षेत्र रह गए हैं। इस विखंडन से हाथियों के प्रजनन विकल्प भी सीमित हो सकते हैं। इससे आनुवंशिक अड़चनें पैदा होती हैं और आगे जाकर झुंड की फिटनेस में कमी आती है।
हाथियों का अपने आवास क्षेत्र में लगातार आवागमन उन्हें सड़कों और रेलवे लाइनों के संपर्क में लाता है। दरअसल, एक हथिनी के आवास क्षेत्र का दायरा लगभग 500 वर्ग किलोमीटर होता है, और टुकड़ों-टुकड़ों में बंटे अपने आवास में इतनी दूरी तय करते हुए उसकी सड़क या रेलवे लाइन से गुज़रने की संभावना (और इसके चलते दुर्घटना की संभावना) बहुत बढ़ जाती है।
सौभाग्य से, सभी हाथी-मार्गों (जिन रास्तों से वे आवागमन करते हैं) पर इस तरह के खतरे नहीं हैं। बांदीपुर, मुदुमलाई और वायनाड के हाथी गर्मियों में मौसमी प्रवास पर जाते हैं। वे पानी और हरी घास के लिए काबिनी बांध के बैकवाटर की ओर जाते हैं। अध्ययनों से पता चला है कि तमिलनाडु और केरल के बीच हाथियों के 18 प्रवास-मार्ग मौजूद हैं।
इस समस्या का एक समाधान वन्यजीव गलियारे हैं – ये गलियारे मनुष्यों के साथ कम से कम संपर्क के साथ जानवरों को प्रवास करने का रास्ता देते हैं। इसका एक अच्छा उदाहरण उत्तराखंड का मोतीचूर-चिल्ला गलियारा है, जो कॉर्बेट और राजाजी राष्ट्रीय उद्यानों के बीच हाथियों के आने-जाने (और इस तरह जीन के प्रवाह) को सुगम बनाता है। हालांकि, मनुष्यों के साथ संघर्ष का खतरा तो हमेशा बना रहता है – हाथी कभी-कभी फसलों को खा जाते हैं, या सड़कों और रेल पटरियों पर आ जाते हैं।
ट्रेनकीरफ्तार
कनाडा में हुई एक पहल ने पशु-ट्रेन टकराव को कम करने का प्रयास किया है – इस प्रयास में ट्रेन के आने की चेतावनी देने के लिए पटरियों के किनारे विभिन्न स्थानों पर जल-बुझ लाइट्स और घंटियां लगाई गई थीं। ये लाइट्स और घंटियां ट्रेन के आने के 30 सेकंड पहले चालू हो जाती थीं – इन संकेतों का उद्देश्य जानवरों में इन चेतावनियों और ट्रेन आने के बीच सम्बंध बैठाना था।
चेतावनी प्रणाली युक्त और चेतावनी प्रणाली रहित सीधी और घुमावदार दोनों तरह की पटरियों पर कैमरों ने ट्रेन आने के प्रति जानवरों की प्रतिक्रियाओं को रिकॉर्ड किया। देखा गया कि बड़े जानवर, जैसे हिरण परिवार के एल्क और धूसर भालू चेतावनी प्रणाली विहीन ट्रैक पर ट्रेन आने से लगभग 10 सेकंड पहले पटरियों से दूर चले जाते हैं, जबकि चेतावनी प्रणाली युक्त ट्रैक पर ट्रेन आने से लगभग 17 सेकंड पहले। (यह अध्ययन ट्रांसपोर्टेशनरिसर्चजर्नल में प्रकाशित हुआ है।)
घुमावदार ट्रैक पर आती ट्रेन के प्रति प्रतिक्रिया कम दिखी, संभवत: कम दृश्यता के कारण। ऐसी जगहों पर, जानवर ट्रेन की आहट का आवाज़ से पता लगाते हैं। अलबत्ता, ट्रेन आ रही है या नहीं इसकी टोह आवाज़ से मिलना ट्रेन की तेज़ रफ्तार जैसे कारकों से काफी प्रभावित होती है।
कृत्रिमबुद्धि (एआई) कीमदद
हाथियों के आवास वाले जंगलों से गुज़रते समय इंजन चालक को कब ट्रेन की रफ्तार कम करनी चाहिए? भारतीय रेलवे के पास ऑप्टिकल फाइबर केबल का एक विशाल नेटवर्क है। ये केबल दूरसंचार और डैटा के आवागमन को संभव बनाते हैं, और सबसे महत्वपूर्ण रूप से ट्रेन नियंत्रण के लिए संकेत भेजते हैं। हाल ही में शुरू की गई गजराज नामक प्रणाली में, इन ऑप्टिकल फाइबल केबल की लाइनों पर जियोफोनिक सेंसर लगाए गए हैं, जो हाथियों के भारी और ज़मीन को थरथरा देने वाले कदमों के कंपन को पकड़ सकते हैं।
एआई-आधारित प्रणाली इन सेंसर से प्राप्त डैटा का विश्लेषण करती है और प्रासंगिक जानकारियां निकालती है – जैसे आवागमन की आवृत्ति और कंपन की अवधि। यदि हाथी-जनित विशिष्ट कंपन का पता चलता है, तो उस क्षेत्र के इंजन ड्राइवरों को तुरंत अलर्ट भेजा जाता है, और ट्रेन की रफ्तार कम कर दी जाती है। ऐसी प्रणालियां फिलहाल उत्तर पश्चिम बंगाल के अलीपुरद्वार क्षेत्र में लगाई गई हैं, जहां पूर्व में कई दुर्घटनाएं हुई हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.sanctuarynaturefoundation.org/uploads/Article/1586787578209_railway-minister-urged-1920×599.jpg
1957 में पहले कृत्रिम उपग्रह के प्रक्षेपण के बाद पृथ्वी की कक्षा, खासकर लो अर्थ ऑर्बिट (LEO), में उपग्रहों की भरमार हो गई है; अब तक तकरीबन 14,450 उपग्रह पृथ्वी की विभिन्न कक्षाओं में छोड़े जा चुके हैं।
लेकिन ये सभी उपग्रह हमेशा सक्रिय या ‘जीवित’ नहीं रहते। अपनी तयशुदा उम्र या काम के बाद वे ‘मर’ जाते हैं। बेकार पड़ चुके उपग्रहों को वहां से हटाना होता है वरना वे अंतरिक्ष में बढ़ रही उपग्रहों की भीड़ और मलबे को और बढ़ाएंगे। इसलिए पृथ्वी की भूस्थैतिक कक्षा में स्थापित उपग्रहों को धक्का देकर अधिक ऊंचाई की ‘कब्रस्तान कक्षा’ में भेज दिया जाता है, हालांकि इस तरह अंतरिक्ष में मलबा तो बरकरार ही रहता है। वहीं पृथ्वी की करीबी कक्षा में स्थापित उपग्रहों को धीमा किया जाता है। रफ्तार धीमी पड़ने पर ये पृथ्वी के वायुमण्डल में प्रवेश करते हैं, और जलकर नष्ट हो जाते हैं। लेकिन जलकर नष्ट होने से इनमें से एल्यूमीनियम ऑक्साइड और अन्य धातु कण वायुमण्डल में फैल जाते हैं, जो खतरा साबित हो सकते हैं।
जियोफिज़िकल रिसर्च लेटर्स में प्रकाशित एक अध्ययन बताता है कि 250 किलोग्राम का एक उपग्रह वायुमण्डल में जलने पर करीब 30 किलोग्राम एल्यूमीनियम ऑक्साइड छोड़ता है। पाया गया है कि वर्ष 2022 में उपग्रहों को इस तरह ठिकाने लगाने के चलते वायुमण्डल में एल्यूमीनियम ऑक्साइड की मात्रा में 29.5 प्रतिशत (17 मीट्रिक टन) की वृद्धि हुई है। भविष्य में उपग्रह प्रक्षेपण की योजना के आधार पर अनुमान है कि वायुमण्डल में प्रति वर्ष करीब 360 मीट्रिक टन एल्यूमीनियम ऑक्साइड की वृद्धि होगी। नतीजतन ओज़ोन परत को क्षति पहुंचेगी।
इसी समस्या को ध्यान में रखते हुए क्योटो युनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने लकड़ी का उपग्रह, लिग्नोसैट (LignoSat), बनाया है। शोधकर्ताओं का कहना है कि लिग्नोसैट पारंपरिक उपग्रहों में इस्तेमाल की जाने वाली धातुओं की तुलना में अधिक टिकाऊ और कम प्रदूषणकारी है। शोधकर्ताओं का कहना है कि अपना काम समाप्त कर जब यह पृथ्वी पर वापस आएगा तो इसकी लकड़ी पूरी तरह से जल जाएगी और केवल जलवाष्प और कार्बन डाईऑक्साइड वायुमण्डल में मुक्त होगी। लकड़ी से उपग्रह बनाने का जो एक और फायदा दिखाई देता है वह है कि यह अंतरिक्ष के पर्यावरण को झेल सकता है और रेडियो तरंगों को अवरुद्ध नहीं करता है, जिसके चलते एंटीना को इसके अंदर लगाया जा सकता है।
घनाकार लिग्नोसैट की लंबाई-चौड़ाई-ऊंचाई लगभग 10-10 सेंटीमीटर है। इसका ढांचा मैग्नोलिया लकड़ी का बनाया गया है। इस पर सौर पैनल, सर्किट बोर्ड और सेंसर लगाए गए हैं जिनकी मदद से लकड़ी पर पड़ रहे दबाव, तापमान, भू-चुंबकीय बलों और विकिरण को मापा जाएगा। साथ ही साथ इससे रेडियो सिग्नल भेजने और प्राप्त करने की क्षमता का परीक्षण भी किया जाएगा। इसकी तख्तियों को जोड़ने के लिए गोंद या स्क्रू की बजाय लकड़ी जोड़ने की पारंपरिक जापानी विधि से एल्यूमीनियम के फ्रेम में कसा गया है।
लिग्नोसैट को इस साल सितम्बर में प्रक्षेपित किया जाएगा। उपग्रह की लकड़ी की तख्तियां वास्तविक परिस्थितियों में कितना कारगर रहती हैं यह तो कक्षा में पहुंचकर काम शुरू करने के बाद ही अच्छे से स्पष्ट होगा। यदि सफल रहा तो भावी अंतरिक्ष मिशनों में लकड़ी के उपयोग की संभावना बढ़ सकती है।
हालांकि लिग्नोसैट जलने पर मात्र जलवाष्प और कार्बन डाईऑक्साइड ही छोड़ता है लेकिन कार्बन डाईऑक्साइड की समस्याओं से भी हम भलीभांति अवगत हैं। इसलिए बड़े पैमाने पर लकड़ी-उपग्रहों के उपयोग के पर्यावरणीय असर का आकलन भी ज़रूरी है। (स्रोत फीचर्स)
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जानलेवा सैन्य हथियारों की स्वायत्तता इन दिनों गहन विचार मंथन और चर्चाओं के दौर से गुज़र रही है। कृत्रिम बुद्धि निर्देशित जानलेवा स्वायत्त हथियारों के सृजन को रोकने के लिए अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अभियान शुरू हुआ है। जुलाई 2023 में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद द्वारा कृत्रिम बुद्धि निर्देशित हथियारों के विभिन्न पहलुओं पर व्यापक मंथन किया गया था। विचार मंथन का दौर अभी थमा नहीं है। इसी साल के उत्तरार्द्ध में संयुक्त राष्ट्र महासभा में कृत्रिम बुद्धि निर्देशित जानलेवा स्वायत्त हथियारों पर विभिन्न कोणों से नज़र डालने के लिए बैठक होगी। लेकिन इस बैठक के पहले अप्रैल में ऑस्ट्रिया में एक सम्मेलन आयोजित हो चुका है।
कृत्रिम बुद्धि निर्देशित जानलेवा स्वायत्त हथियारों की तुलना रासायनिक, जैविक और परमाणु हथियारों से की जाए तो ये हथियार खतरनाक होने के पैमाने पर एक कदम आगे निकल गए हैं। हाल के वर्षों में दुनिया की बड़ी सैन्य ताकतों ने जानलेवा स्वायत्त हथियारों को मज़बूत करने पर विशेष ज़ोर दिया है। यही मुद्दा विचार मंथन का विषय है। रक्षा वैज्ञानिक, विधिवेत्ता, रोबोट विज्ञान के अध्येता, सैन्य योजनाकार और नैतिकतावादी जानलेवा स्वायत्त हथियारों के विभिन्न मुद्दों पर बहस में जुट गए हैं।
जानलेवा स्वायत्त हथियारों पर प्रतिबंध के संदर्भ में नैतिक कारण भी अहम हैं। यह सवाल सहज रूप से किया जा सकता है कि युद्ध के मैदान में किसी भी अनैतिक गतिविधि के लिए एक मशीन को कैसे ज़िम्मेदार ठहराया जा सकता है? इस सवाल का कोई तर्क आधारित उत्तर किसी के पास नहीं है और यही कारण है कि इन हथियारों पर प्रतिबंध की मांग उठी है। नैतिक कारणों पर गंभीरता से गौर करें तो एक और बात जोड़ना लाज़मी है। क्या किसी मशीन द्वारा जीवन और मृत्यु का फैसला करना नैतिक रूप से स्वीकार्य है?
कृत्रिम बुद्धि निर्देशित जानलेवा स्वायत्त हथियारों का इस्तेमाल पिछले कई दशकों से हो रहा है। इनमें हीट सीकिंग मिसाइलें और प्रेशर ट्रिगर बारूदी सुरंगें भी सम्मिलित हैं। हाल के वर्षों में चीन, अमेरिका, ब्रिटेन, रूस और इस्राइल जैसे देशों ने युद्ध के मैदान में इन हथियारों की तैनाती को प्राथमिकता दी है। भारत ने स्वायत्त हथियारों पर अनुसंधान का समर्थन किया है।
सेना में कृत्रिम बुद्धि का इस्तेमाल जिन कुछ कार्यों के लिए किया जा सकता है, उनमें रसद और आपूर्ति प्रबंधन, डैटा विश्लेषण, खु़फिया जानकारियां जुटाने, सायबर ऑपरेशन और हथियारों की स्वायत्त प्रणाली सम्मिलित है। इनमें सबसे ज़्यादा विवादित हथियारों की स्वायत्त प्रणाली है।
क्याहैंस्वायत्तहथियार
इसके तहत वे हथियार आते हैं, जो अपने आप कार्य करने में सक्षम हैं; इन्हें मनुष्य की ज़रूरत नहीं पड़ती।
इंटरनेशनल कमेटी ऑफ दी रेड क्रॉस की परिभाषा के अनुसार स्वायत्त हथियार ऐसे हथियार हैं, जो मानवीय हस्तक्षेप के बिना लक्ष्य का चुनाव और इस्तेमाल करते हैं। वास्तव में स्वायत्त हथियार सेंसर और सॉफ्टवेयर से संचालित होते हैं। इनका इस्तेमाल उन इलाकों में किया जाता है, जहां बहुत कम आबादी होती है। दरअसल जानलेवा स्वायत्त हथियार अपने लक्ष्य की पहचान के लिए एल्गोरिदम का इस्तेमाल करते हैं।
हथियारों की यह प्रणाली ‘प्रक्षेपास्त्र प्रतिरक्षा प्रणाली’ से लेकर एक लघु ड्रोन के रूप में हो सकती है। इन हथियारों का लड़ाई के दौरान इस्तेमाल करने के कारण एक नया शब्द ईजाद किया गया है, जिसे ‘लीथल ऑटोनामस वेपन’ कहा जा रहा है। इन हथियारों का इस्तेमाल ज़मीन से लेकर अंतरिक्ष तक में किया जा सकता है, पानी पर अथवा पानी के नीचे भी किया जा सकता है। विशेषज्ञों का विचार है कि जानलेवा स्वायत्त हथियारों के सृजन में प्रौद्योगिकी की अहम भूमिका है। वस्तुत: प्रौद्योगिकी हथियारों को रफ्तार, बचाव और अन्य प्रकार की विशेषताओं से युक्त और कारगर बनाने में भूमिका निभाती है।
प्रौद्योगिकी के प्रसंग में कैलिफोर्निया युनिवर्सिटी, बर्कले के कंप्यूटर अध्येता और कृत्रिम बुद्धि से सृजित हथियारों के विरोधी स्टुअर्ट रसेल का सोचना है कि किसी सिस्टम के लिए इंसान का पता लगाकर उसे मारने की प्रौद्योगिकी क्षमता का विकास सेल्फ ड्राइविंग कार विकसित करने से कहीं अधिक आसान है।
वास्तव में पूछा जाए तो ये हथियार अब विज्ञान कथाओं के काल्पनिक भवन से बाहर निकल कर वास्तविक रूप में लड़ाई के मैदान में नज़र आ रहे हैं। इनका धीरे-धीरे विस्तार हो रहा है।
जहां एक ओर कृत्रिम बुद्धि निर्देशित जानलेवा स्वायत्त हथियारों की ज़ोरदार वकालत की गई है, वहीं दूसरी ओर इन्हें भारी विरोध और तीखी आलोचनाओं का सामना भी करना पड़ा है। आलोचकों के अनुसार ये हथियार बहुत महंगे हैं। इनका रचनात्मकता से ज़रा भी सरोकार नहीं है। भावनाओं से कोई लेना-देना नहीं है। जवाबदेही का सवाल ही नहीं उठता। एक अध्ययन में बताया गया है कि इन हथियारों के इस्तेमाल से बेरोज़गारी बढ़ेगी।
दूसरी ओर, ऐसे हथियारों की ज़ोरदार वकालत कर रहे लोगों का कहना है कि ये अत्यधिक उन्नत कार्यों को सम्पादित करने में पूरी तरह सक्षम हैं। युद्ध के दौरान मनुष्य से होने वाली त्रुटियों में कमी आएगी। ये त्वरित फैसला करने में सक्षम हैं। कुल मिलाकर, ये हथियार सटीक साबित हुए हैं और हर पल उपलब्ध हैं। इस प्रकार के हथियारों ने नए आविष्कारों और नवाचारों को भी जन्म देने में भूमिका निभाई है। पारम्परिक हथियारों की तुलना में इनसे कम नुकसान पहुंचता है, नागरिक कम हताहत होते हैं।
हाल के वर्षों में छिड़े युद्धों में कृत्रिम बुद्धि निर्देशित जानलेवा स्वायत्त हथियारों का इस्तेमाल किया गया है। इसका एक उदाहरण रूस और यूक्रेन के बीच लड़ाई है, जिसमें एआई ड्रोन का इस्तेमाल भी किया गया है। अमेरिका के रक्षा विभाग ने अपने ‘रेप्लिकेटर’ कार्यक्रम के तहत लघु हथियारयुक्त स्वायत्त वाहनों का बेड़ा तैयार किया है। इसके अलावा, प्रायोगिक पनडुब्बियां और जहाज़ बनाए हैं, जो स्वयं को चलाने के लिए कृत्रिम बुद्धि छवि का उपयोग कर सकते हैं। स्वायत्त हथियार एक मॉडल विमान के आकार का हो सकता है। इनका मूल्य लगभग पचास हज़ार डॉलर आंका गया है।
स्वायत्त हथियार प्रणालियों का समर्थन दो हिस्सों में बांटा जा सकता है। पहला, सैन्य स्तर पर फायदे और दूसरा, नैतिक औचित्य। अमेरिकी सेना के एक अधिकारी का मानना है कि युद्ध क्षेत्रों से मनुष्यों को हटाकर रोबोट का इस्तेमाल करने के नैतिक फायदे हो सकते हैं।
जुलाई 2015 में कृत्रिम बुद्धि पर आयोजित अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में प्रतिभागी राष्ट्रों ने मानवीय नियंत्रण से परे स्वायत्त हथियारों पर रोक लगाने का आव्हान करते हुए एक खुला पत्र जारी किया था, जिसमें कहा गया था कि कृत्रिम बुद्धि में मानवता को फायदा पहुंचाने की क्षमताएं हैं, लेकिन अगर कृत्रिम बुद्धि निर्देशित हथियारों की स्पर्धा शुरू हो जाती है तो एआई की प्रतिष्ठा धूमिल पड़ सकती है। इस पत्र पर हस्ताक्षर करने वालों में टेस्ला कंपनी के संस्थापक एलन मस्क भी शामिल हैं। दरअसल स्वायत्त हथियार प्रणालियों के कुछ विरोध न केवल उत्पादन और तैनाती बल्कि इन पर रिसर्च, विकास और परीक्षण पर भी पाबंदी लगाना चाहते हैं।
रक्षा विज्ञान के दस्तावेज़ों में स्वायत्तता को अलग-अलग तरह से परिभाषित किया गया है। रेड क्रॉस की अंतर्राष्ट्रीय समिति के अनुसार स्वायत्त हथियार ऐसे हथियार हैं, जो स्वतंत्र रूप से लक्ष्यों का चुनाव और आक्रमण करने में सक्षम हैं। हारवर्ड लॉ स्कूल की मानव अधिकार अधिवक्ता बोनी डॉचेर्टी ने स्वायत्तता को तीन श्रेणियों में विभाजित किया है: ह्युमैन-इन-दी-लूप (निर्णय शृंखला में मानव शामिल); ह्युमैन-ऑन-दी-लूप (निर्णय शृंखला पर मानव) और तीसरा ह्युमैन-आउट-ऑफ-दी-लूप (मानव निर्णय शृंखला के बाहर) हैं। ‘निर्णय शृंखला में मानव शामिल’ श्रेणी में हथियारों की कार्रवाई इंसान द्वारा की जाती है, लेकिन लोगों को कहां और कैसे सम्मिलित किया जाना चाहिए, यह विचार मंथन का मुद्दा है। ‘निर्णय शृंखला पर मानव’ में एक मनुष्य किसी कार्रवाई को रद्द कर सकता है। ‘मानव निर्णय शृंखला के बाहर’ श्रेणी में कोई मानवीय हस्तक्षेप नहीं है। अनुसंधानकर्ताओं और सैन्य विज्ञान के जानकारों ने सैद्धांतिक तौर पर पहले प्रकार पर सहमति ज़ाहिर की है।
कृत्रिम बुद्धि से निर्देशित जानलेवा स्वायत्त हथियारों के मामले में एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा यह भी है कि युद्ध के मैदान में इनके बेहतर प्रदर्शन का पता लगाना बेहद कठिन कार्य है क्योंकि किसी भी देश की सेना इस प्रकार की सूचनाओं का सार्वजनिक तौर पर खुलासा नहीं करती। सैन्य अधिकारी केवल इतना ही बताते हैं कि इस प्रकार के डैटा अथवा सूचनाओं का उपयोग स्वायत्त और गैर-स्वायत्त प्रणालियों के बेंचमार्क अध्ययन में किया जाता है।
परमाणु हथियारों के मामले में ‘साइट निरीक्षण’ और ‘न्यूक्लियर मटेरियल’ के ऑडिट के लिए एक अच्छी तरह से स्थापित निगरानी व्यवस्था है, लेकिन कृत्रिम बुद्धि जनित हथियारों के मामले में तथ्यों को छिपाना या बदलना बेहद आसान है।
सितंबर में संयुक्त राष्ट्र के प्रस्तावित सम्मेलन में ऐसे कुछ गंभीर मुद्दों पर विचार और निर्णय करने के लिए एक कार्य समूह गठित किए जाने के अच्छे आसार हैं। (स्रोत फीचर्स)
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एक हालिया उपलब्धि में कृत्रिम बुद्धि (एआई) द्वारा प्रबंधित स्वचालित प्रयोगशालाओं की एक टीम ने ऐसे पदार्थ की खोज करने में सफलता प्राप्त की है जो अत्यंत कार्य-कुशलता से लेज़र उत्पन्न करता है। साइंस जर्नल में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार इस विशिष्ट उपलब्धि से लगता है कि एआई संचालित प्रयोगशालाएं अनुसंधान के कुछ क्षेत्रों में मानव वैज्ञानिकों को पछाड़ सकती हैं, खासकर वे ऐसी खोज कर सकती हैं जो मनुष्यों की नज़रों से चूक गई हों।
दरअसल, नए अणु और सामग्री बनाने के पारंपरिक तरीके अक्सर धीमे और श्रम-साध्य होते हैं। शोधकर्ताओं को कई विधियों से और अभिक्रिया की कई स्थितियों में प्रयोग करना पड़ता है, प्रत्येक चरण में नए यौगिकों के साथ वही परीक्षण दोहराना पड़ता है और बड़े पैमाने पर उत्पादन के लिए उनकी क्षमता का मूल्यांकन करना होता है।
पिछले दशक से इनमें से कई तरह की अभिक्रियाओं को दोहराने का काम रोबोट्स ने संभाल लिया है। मसलन 2015 में, इलिनॉय युनिवर्सिटी के रसायनज्ञ मार्टिन बर्क द्वारा छोटे अणुओं के संश्लेषण के लिए एक स्वचालित प्रणाली शुरू की गई थी। इस प्रणाली में एआई को शामिल करने से फीडबैक लूप तैयार किया जा सका जिससे नई विशेषता वाले यौगिकों का डैटा भविष्य के संश्लेषण प्रयासों का मार्गदर्शन कर सकता है।
इस आधार पर, बर्क और टोरंटो विश्वविद्यालय के रसायनज्ञ एलन असपुरु-गुज़िक ने समन्वित रूप से काम करने वाली स्व-चालित प्रयोगशालाओं के नेटवर्क की कल्पना की। उन्होंने कई प्रयोगशालाओं – दक्षिण कोरिया के इंस्टीट्यूट फॉर बेसिक साइंस, ग्लासगो विश्वविद्यालय, ब्रिटिश कोलंबिया युनिवर्सिटी (यूबीसी) और जापान की क्यूशू युनिवर्सिटी की प्रयोगशाला – को जोड़ा। प्रत्येक प्रयोगशाला की संश्लेषण की प्रक्रिया में अपनी विशेषज्ञता थी। लक्ष्य था अत्यधिक शुद्ध लेज़र प्रकाश उत्सर्जित करने में सक्षम कार्बनिक यौगिकों की खोज करना। इससे उन्नत किस्म के डिस्प्ले और दूरसंचार तंत्र स्थापित करने में मदद मिलेगी।
सबसे पहले ग्लासगो और यूबीसी प्रयोगशालाओं ने थोड़ी मात्रा में आधारभूत सामग्री का निर्माण किया। फिर इन्हें बर्क और असपुरु-गुज़िक की टीमों को भेजा गया, जहां रोबोट ने इन पदार्थों से विभिन्न संयोजन (मिश्रण) बनाए। इन संभावित उत्सर्जकों को टोरंटो प्रयोगशाला भेजा गया, जहां अन्य रोबोट ने उनके प्रकाश उत्सर्जक गुणों का मूल्यांकन किया। सबसे अच्छे प्रदर्शन करने वाले उत्सर्जकों को यूबीसी भेजा गया, जहां यह पता किया गया कि बड़े पैमाने पर उपयोग के लिए इन पदार्थों का संश्लेषण और शोधन कैसे किया जाएगा, और फिर इन्हें व्यावहारिक लेज़रों में परिवर्तित करने और उसके परीक्षण के लिए क्यूशू विश्वविद्यालय भेजा गया।
इस पूरी प्रक्रिया को क्लाउड-आधारित एआई प्लेटफॉर्म द्वारा संचालित किया गया था, जिसे मुख्य रूप से टोरंटो और दक्षिण कोरिया की टीमों द्वारा विकसित किया गया है। इस प्लेटफॉर्म ने प्रत्येक प्रयोग से सीखा और अगली पुनरावृत्तियों में फीडबैक को शामिल किया, जिससे एक कुशल और फुर्तीली शोध प्रक्रिया विकसित हुई।
इस सहयोगी प्रयास से 621 नए यौगिक तैयार हुए, जिनमें 21 ऐसे थे जो अत्याधुनिक लेज़र उत्सर्जकों से मेल खाते थे और एक तो ऐसा था जो किसी भी अन्य ज्ञात कार्बनिक पदार्थ की तुलना में अधिक कुशलता से नीले रंग की लेज़र रोशनी उत्सर्जित करता था।
गौरतलब है कि हाल ही में मिली सफलता एआई-संचालित प्रयोगशाला अनुसंधान में एकमात्र सफलता नहीं है। पिछले साल, मिलाद अबुलहसानी की प्रयोगशाला ने रिकॉर्ड-सेटिंग फोटोल्यूमिनेसेंस के साथ नैनोकणों का निर्माण किया था।
एआई के क्षेत्र में भविष्य की संभावनाओं को देखते हुए बर्क को उम्मीद है कि स्वचालन और एआई में प्रगति वैश्विक स्तर पर अधिक प्रयोगशालाओं को सहयोग करने में सक्षम बनाएगी। इस तरह की साझेदारी वैज्ञानिकों को ढर्रा कार्यों से मुक्त करेगी, ताकि वे अनुसंधान के अधिक जटिल और रचनात्मक पहलुओं पर ध्यान केंद्रित कर सकें। (स्रोत फीचर्स)
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डैल-ई और चैटजीपीटी जैसे जनरेटिव एआई (नया निर्माण करने में सक्षम) नवाचारों को विकसित करने वाली कंपनी ओपनएआई ने हाल ही में अपना नया उत्पाद ‘सोरा’ जारी किया है। यह एक ऐसा एआई मॉडल है जो टेक्स्ट से वीडियो निर्माण करने के लिए तैयार किया गया है। कल्पना करें तो यह कुछ ऐसा है कि आप कोई संगीत वीडियो या विज्ञापन देख रहे हैं लेकिन इनमें से कुछ भी वास्तविक दुनिया में मौजूद नहीं है। यही कमाल सोरा ने कर दिखाया है।
इस अत्याधुनिक कृत्रिम बुद्धि साधन को इनपुट के तौर पर तस्वीरें या संक्षिप्त लिखित टेक्स्ट दिया जाता है और वह उसे एक मिनट तक लंबे वीडियो में बदल देता है। कल्पना कीजिए कि एक महिला रात में शहर की एक हलचल भरी सड़क पर आत्मविश्वास से चल रही है, और आसपास जगमगाती रोशनी और पैदल लोगों की भीड़ है। सोरा द्वारा तैयार किए वीडियो में उसकी पोशाक से लेकर सोने की बालियों की चमक तक, हर बारीक से बारीक विवरण सावधानीपूर्वक तैयार किया गया है। कुछ नमूने देखने के लिए इन लिंक्स पर जाएं:
गौरतलब है कि ओपनएआई द्वारा 15 फरवरी को सोरा को जारी करने की घोषणा की गई है लेकिन फिलहाल इसे परीक्षण के लिए कुछ चुनिंदा कलाकार समूहों तथा ‘रेड-टीम’ हैकर्स के उपयोग तक ही सीमित रखा गया है। इस परीक्षण का उद्देश्य इस नवीन और शक्तिशाली तकनीक के सकारात्मक अनुप्रयोगों और संभावित दुरुपयोग दोनों का पता लगाना है।
सोरा की मदद से ऐसे वीडियो निर्मित करना बहुत आसान है। केवल एक साधारण निर्देश से यह ऐसे दृश्य उत्पन्न कर सकता है जिन्हें बनाने के लिए व्यापक संसाधनों और विशेषज्ञता की आवश्यकता होती है। फिल्मों में कहानी सुनाने से लेकर विज्ञापनों में आभासी यथार्थ के अनुभवों में क्रांति लाने तक, सोरा से रचनात्मक संभावनाओं की पूरी दुनिया खुलती है।
लेकिन ओपनएआई को इस शक्तिशाली साधन को जारी करने के साथ बड़ी ज़िम्मेदारी भी निभानी है। हालांकि कंपनी सोरा की क्षमताओं के नैतिक निहितार्थों को ध्यान में रखते हुए सावधानी से आगे बढ़ रही है, फिर भी इस साधन के नैतिक और ज़िम्मेदार उपयोग पर चर्चा को बढ़ावा देना ज़रूरी है।
ऐसी दुनिया में जहां यथार्थ और सिमुलेशन के बीच की रेखा धुंधली होती जा रही है, सोरा मानवीय सरलता और कृत्रिम बुद्धि की असीमित क्षमता के प्रमाण के रूप में उभरा है। बहरहाल, हम जिस उत्सुकता से इसके सार्वजनिक रूप से जारी होने का इंतज़ार कर रहे हैं उससे एक बात तो निश्चित है कि वीडियो के ज़रिए कहानी सुनाने का भविष्य पहले जैसा नहीं होगा। (स्रोत फीचर्स)
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अंतरिक्ष अन्वेषण के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण प्रयास करते हुए नासा के वैज्ञानिकों ने रोटेटिंग डेटोनेशन इंजन (आरडीई) नामक एक अभूतपूर्व तकनीक का इजाद किया है। इस नवीन तकनीक को रॉकेट प्रणोदन के क्षेत्र में एक क्रांतिकारी परिवर्तन के रूप में देखा जा रहा है।
नियंत्रित दहन प्रक्रिया पर निर्भर पारंपरिक तरल ईंधन आधारित इंजनों के विपरीत आरडीई विस्फोटन तकनीक पर काम करते हैं। इसमें एक तेज़, विस्फोटक दहन को अंजाम दिया जाता है जिससे अधिकतम ईंधन दक्षता प्राप्त होती है। गौरतलब है कि पारंपरिक रॉकेट इंजनों में ईंधन को धीरे-धीरे जलाया जाता है और नियंत्रित दहन से उत्पन्न गैसें नोज़ल में से बाहर निकलती हैं और रॉकेट आगे बढ़ता है। दूसरी ओर आरडीई में, संपीड़न और सुपरसॉनिक शॉकवेव की मदद से विस्फोट कराया जाता है जिससे ईंधन का पूर्ण व तत्काल दहन होता है। देखा गया कि इस तरह से करने पर ईंधन का ऊर्जा घनत्व ज़्यादा होता है।
पर्ड्यू विश्वविद्यालय के इंजीनियर स्टीव हेस्टर ने आरडीई के अंदर होने वाले दहन को ‘दोजख की आग’ नाम दिया है जिसमें इंजन के भीतर का तापमान 1200 डिग्री सेल्सियस हो जाता है। यह तकनीक न केवल बेहतर प्रदर्शन प्रदान करती है, बल्कि अंतरिक्ष यान को अधिक दूरी तय करने, उच्च गति प्राप्त करने और बड़े पेलोड ले जाने में सक्षम भी बनाती है।
यह तकनीक ब्रह्मांड की खोज के लिए अधिक कुशल और लागत प्रभावी तरीका प्रदान करती है। जैसे-जैसे वैज्ञानिक इस अत्याधुनिक तकनीक को परिष्कृत और विकसित करते जाएंगे, भविष्य के अंतरिक्ष अभियानों की संभावनाएं पहले से कहीं अधिक उज्जवल होती जाएंगी। (स्रोत फीचर्स)
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आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस (एआई) से होने वाली आसानियों और मिलने वाली सहूलियतों से तो हम सब वाकिफ हैं। लेकिन इसे विकसित करने वाले वैज्ञानिक इससे जुड़े संकट और चिंताओं से भलीभांति अवगत हैं। एआई से जुड़ी ऐसी ही एक चिंता जताते हुए वे कहते हैं कि विशाल भाषा मॉडल (LLM) नस्लीय और सांस्कृतिक पूर्वाग्रहों को कायम रख सकते हैं।
वैसे तो वैज्ञानिकों की कोशिश है कि ऐसा न हो। इसके लिए उन्होंने इन मॉडल्स को ट्रेनिंग देने वाली टीम में विविधता लाने की कोशिश की है ताकि मॉडल को प्रशिक्षित करने वाले डैटा में विविधता हो, और पूर्वाग्रह-उन्मूलक एल्गोरिद्म बनाए हैं। सुरक्षा के लिए उन्होंने ऐसी प्रोग्रामिंग तैयार की है जो चैटजीपीटी जैसे एआई मॉडल को हैट स्पीच जैसी गतिविधियों/वक्तव्यों में शामिल होने से रोकती है।
दरअसल यह चिंता तब सामने आई जब क्लीनिकल सायकोलॉजिस्ट क्रेग पीयर्स यह जानना चाह रहे थे कि चैटजीपीटी के मुक्त संस्करण (चैटजीपीटी 3.5) में अघोषित नस्लीय पूर्वाग्रह कितना साफ झलकता है। मकसद चैटजीपीटी 3.5 के पूर्वाग्रह उजागर करना नहीं था बल्कि यह देखना था कि इसे प्रशिक्षित करने वाली टीम पूर्वाग्रह से कितनी ग्रसित है? ये पूर्वाग्रह हमारी हमारी भाषा में झलकते हैं जो हमने विरासत में पाई है और अपना बना लिया है।
यह जानने के लिए उन्होंने चैटजीपीटी को चार शब्द देकर अपराध पर कहानी बनाने को कहा। अपराध कथा बनवाने के पीछे कारण यह था कि अपराध पर आधारित कहानी अन्य तरह की कहानियों की तुलना में नस्लीय पूर्वाग्रहों को अधिक आसानी से उजागर कर सकती है। अपराध पर कहानी बनाने के लिए चैटजीपीटी को दो बार कहा गया – पहली बार में शब्द थे ‘ब्लैक’, ‘क्राइम’, ‘नाइफ’ (छुरा), और ‘पुलिस’ और दूसरी बार शब्द थे ‘व्हाइट’, ‘क्राइम’, ‘नाइफ’, और ‘पुलिस’।
फिर, चैटजीपीटी द्वारा गढ़ी गई कहानियों को स्वयं चैटजीपीटी को ही भयावहता के 1-5 के पैमाने पर रेटिंग देने को कहा गया – कम खतरनाक हो तो 1 और बहुत ही खतरनाक कहानी हो तो 5। चैटजीपीटी ने ब्लैक शब्द वाली कहानी को 4 अंक दिए और व्हाइट शब्द वाली कहानी को 2। कहानी बनाने और रेटिंग देने की यह प्रक्रिया 6 बार दोहराई गई। पाया गया कि जिन कहानियों में ब्लैक शब्द था चैटजीपीटी ने उनको औसत रेटिंग 3.8 दी थी और कोई भी रेटिंग 3 से कम नहीं थी, जबकि जिन कहानियों में व्हाइट शब्द था उनकी औसत रेटिंग 2.6 थी और किसी भी कहानी को 3 से अधिक रेटिंग नहीं मिली थी।
फिर जब चैटजीपीटी की इस रचना को किसी फलाने की रचना बताकर यह सवाल पूछा कि क्या इसमें पक्षपाती या पूर्वाग्रह युक्त व्यवहार दिखता है? तो उसने इसका जवाब हां में देते हुए बताया कि हां यह व्यवहार पूर्वाग्रह युक्त हो सकता है। लेकिन जब उसे कहा गया कि तुम्हारी कहानी बनाने और इस तरह की रेटिंग्स देने को भी क्या पक्षपाती और पूर्वाग्रह युक्त माना जाए, तो उसने इन्कार करते हुए कहा कि मॉडल के अपने कोई विश्वास नहीं होते हैं, जिस तरह के डैटा से उसे प्रशिक्षित किया गया है यहां वही झलक रहा है। यदि आपको कहानियां पूर्वाग्रह ग्रसित लगी हैं तो प्रशिक्षण डैटा ही वैसा था। मेरे आउटपुट (यानी प्रस्तुत कहानी) में पूर्वाग्रह घटाने के लिए प्रशिक्षण डैटा में सुधार करने की ज़रूरत है। और यह ज़िम्मेदारी मॉडल विकसित करने वालों की होनी चाहिए कि डैटा में विविधता हो, सभी का सही प्रतिनिधित्व हो, और डैटा यथासम्भव पूर्वाग्रह से मुक्त हो। (स्रोत फीचर्स)
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हाल ही में एक आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस (एआई) मॉडल ने एक शिशु की आंखों के ज़रिए ‘crib (पालना)’ और ‘ball (गेंद)’ जैसे शब्दों को पहचानना सीखा है। एआई के इस तरह सीखने से हमें यह समझने में मदद मिल सकती है कि मनुष्य कैसे सीखते हैं, खासकर बच्चे भाषा कैसे सीखते हैं।
शोधकर्ताओं ने एआई को शिशु की तरह सीखने का अनुभव कराने के लिए एक शिशु को सिर पर कैमरे से लैस एक हेलमेट पहनाया। जब शिशु को यह हेलमेट पहनाया गया तब वह छह महीने का था, और तब से लेकर लगभग दो साल की उम्र तक उसने हर हफ्ते दो बार लगभग एक-एक घंटे के लिए इस हेलमेट को पहना। इस तरह शिशु की खेल, पढ़ने, खाने जैसी गतिविधियों की 61 घंटे की रिकॉर्डिंग मिली।
फिर शोधकर्ताओं ने मॉडल को इस रिकॉर्डिंग और रिकॉर्डिंग के दौरान शिशु से कहे गए शब्दों से प्रशिक्षित किया। इस तरह मॉडल 2,50,000 शब्दों और उनसे जुड़ी छवियां से अवगत हुआ। मॉडल ने कांट्रास्टिव लर्निंग तकनीक से पता लगाया कि कौन सी तस्वीरें और शब्द परस्पर सम्बंधित हैं और कौन से नहीं। इस जानकारी के उपयोग से मॉडल यह भविष्यवाणी कर सका कि कतिपय शब्द (जैसे ‘बॉल’ और ‘बाउल’) किन छवियों से सम्बंधित हैं।
फिर शोधकर्ताओं ने यह जांचा कि एआई ने कितनी अच्छी तरह भाषा सीख ली है। इसके लिए उन्होंने मॉडल को एक शब्द दिया और चार छवियां दिखाईं; मॉडल को उस शब्द से मेल खाने वाली तस्वीर चुननी थी। (बच्चों की भाषा समझ को इसी तरह आंका जाता है।) साइंस पत्रिका में शोधकर्ताओं ने बताया है कि मॉडल ने 62 प्रतिशत बार शब्द के लिए सही तस्वीर पहचानी। यह संयोगवश सही होने की संभावना (25 प्रतिशत) से कहीं अधिक है और ऐसे ही एक अन्य एआई मॉडल के लगभग बराबर है जिसे सीखने के लिए करीब 40 करोड़ तस्वीरों और शब्दों की जोड़ियों की मदद से प्रशिक्षित किया गया था।
मॉडल कुछ शब्दों जैसे ‘ऐप्पल’ और ‘डॉग’ के लिए अनदेखे चित्रों को भी (35 प्रतिशत दफा) सही पहचानने में सक्षम रहा। यह उन वस्तुओं की पहचान करने में भी बेहतर था जिनके हुलिए में थोड़ा-बहुत बदलाव किया गया था या उनका परिवेश बदल दिया गया था। लेकिन मॉडल को ऐसे शब्द सीखने में मुश्किल हुई जो कई तरह की चीज़ों के लिए जेनेरिक संज्ञा हो सकते हैं। जैसे ‘खिलौना’ विभिन्न चीज़ों को दर्शा सकता है।
हालांकि इस अध्ययन की अपनी सीमाएं हैं क्योंकि यह महज एक बच्चे के डैटा पर आधारित है, और हर बच्चे के अनुभव और वातावरण बहुत भिन्न होते हैं। लेकिन फिर भी इस अध्ययन से इतना तो समझ आया है कि शिशु के शुरुआती दिनों में केवल विभिन्न संवेदी स्रोतों के बीच सम्बंध बैठाकर बहुत कुछ सीखा जा सकता है।
ये निष्कर्ष नोम चोम्स्की जैसे भाषाविदों के इस दावे को भी चुनौती देते हैं जो कहता है कि भाषा बहुत जटिल है और सामान्य शिक्षण प्रक्रियाओं के माध्यम से भाषा सीखने के लिए जानकारी का इनपुट बहुत कम होता है; इसलिए सीखने की सामान्य प्रक्रिया से भाषा सीखा मुश्किल है। अपने अध्ययन के आधार पर शोधकर्ता कहते हैं कि भाषा सीखने के लिए किसी ‘विशेष’ क्रियाविधि की आवश्यकता नहीं है जैसे कि कई भाषाविदों ने सुझाया है।
इसके अलावा एआई के पास बच्चे के द्वारा भाषा सीखने जैसा हू-ब-हू माहौल नहीं था। वास्तविक दुनिया में बच्चे द्वारा भाषा सीखने का अनुभव एआई की तुलना में कहीं अधिक समृद्ध और विविध होता है। एआई के पास तस्वीरों और शब्दों के अलावा कुछ नहीं था, जबकि वास्तव में बच्चे के पास चीज़ें छूने-पकड़ने, उपयोग करने जैसे मौके भी होते हैं। उदाहरण के लिए, एआई को ‘हाथ’ शब्द सीखने में संघर्ष करना पड़ा जो आम तौर पर शिशु जल्दी सीख जाते हैं क्योंकि उनके पास अपने हाथ होते हैं, और उन हाथों से मिलने वाले तमाम अनुभव होते हैं। (स्रोत फीचर्स)
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एक बार फिर ऐप्पल कंपनी के सीईओ टिम कुक ने हरे-भरे ऐप्पल पार्क में कंपनी के नवीनतम, सबसे तेज़ और सबसे सक्षम आईफोन (इस वर्ष आईफोन 15 और आईफोन 15-प्रो) को गर्व से प्रस्तुत किया। पिछले वर्ष सितंबर के इस ऐप्पल इवेंट के बाद दुनियाभर में हलचल मच गई थी और पिछले वर्ष की तुलना में इस वर्ष प्री-ऑर्डर में 12% की वृद्धि देखी गई; अधिकांश प्री-ऑर्डर अमेरिका और भारत से रहे।
वास्तव में ऐप्पल कई उदाहरणों में से एक है कि कैसे आम लोग नासमझ उपभोक्तावाद के झांसे में आ जाते हैं और तकनीकी कंपनियां नए-नए आकर्षक उत्पादों के प्रति हमारी अतार्किक लालसा का फायदा उठाती हैं। निर्माता हर वर्ष स्मार्टफोन, लैपटॉप, कैमरे, इलेक्ट्रिक वाहन, टैबलेट जैसे अपने उत्पादों को रिफ्रेश करते हैं। अलबत्ता सच तो यह है कि किसी को भी हर साल एक नए स्मार्टफोन की ज़रूरत नहीं होती, नई इलेक्ट्रिक कार की तो बात ही छोड़िए।
एक दिलचस्प बात तो यह है कि ये इलेक्ट्रॉनिक गैजेट, कार्बन तटस्थ और पर्यावरण-अनुकूल के बड़े-बड़े दावों के बावजूद, केवल सतही तौर पर ही इस दिशा में काम करते हैं। कुल मिलाकर, सच्चाई उतनी हरी-भरी नहीं है जितनी ऐप्पल पार्क के बगीचों में नज़र आती है जिस पर टिम कुक चहलकदमी करते हैं।
पर्यावरणअनुकूलताकासच
आज हमारे अधिकांश उपकरण जैसे स्मार्टफोन, टैबलेट, लैपटॉप, कैमरा, हेडफोन, स्मार्टवॉच या फिर इलेक्ट्रिक वाहन, सभी में धातुओं, मुख्य रूप से तांबा, कोबाल्ट, कैडमियम, पारा, सीसा इत्यादि का उपयोग होता है। ये अत्यंत विषैले पदार्थ हैं जो खनन करने वालों के साथ-साथ पर्यावरण के लिए भी हानिकारक हैं। इसका एक प्रमुख उदाहरण कांगो लोकतांत्रिक गणराज्य (डीआरसी) में देखा जा सकता है। हाल ही में डीआरसी में मानव तस्करी का मुद्दा चर्चा में रहा है जहां बच्चों से कोबाल्ट खदानों में जबरन काम करवाया जा रहा है। कोबाल्ट एक अत्यधिक ज़हरीला पदार्थ है जो बच्चों में कार्डियोमायोपैथी (इसमें हृदय का आकार बड़ा और लुंज-पुंज हो जाता है और अपनी संरचना को बनाए रखने और रक्त पंप करने में असमर्थ हो जाता है) के अलावा खून गाढ़ा करता है तथा बहरापन और अंधेपन जैसी अन्य समस्याएं पैदा करता है। कई बार मौत भी हो सकती है। कमज़ोर सुरक्षा नियमों के कारण ये बच्चे सुरंगों में खनन करते हुए कोबाल्ट विषाक्तता का शिकार हो जाते हैं। गैस मास्क या दस्ताने जैसे सुरक्षा उपकरणों के अभाव में कोबाल्ट त्वचा या श्वसन तंत्र के माध्यम से रक्तप्रवाह में आसानी से प्रवेश कर जाता है। इन सुरंगों के धंसने का खतरा भी होता है।
कोबाल्ट और कॉपर का उपयोग इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के साथ-साथ अर्धचालकों के सर्किट निर्माण में किया जाता है, जिन्हें मोबाइल फोन और टैबलेट में सिस्टम ऑन-ए-चिप (एसओसी) और कंप्यूटर में प्रोसेसर कहा जाता है। सीसा, पारा और कैडमियम बैटरी में उपयोग की जाने वाली धातुएं हैं। कैडमियम का उपयोग विशेष रूप से रोज़मर्रा के इलेक्ट्रॉनिक्स में लगने वाली लीथियम-आयन बैटरियों को स्थिरता प्रदान करने के लिए किया जाता है।
एमनेस्टी इंटरनेशनल की एक रिपोर्ट के अनुसार, खनन उद्योग ने डीआरसी की सेना के साथ मिलकर संसाधन-समृद्ध भूमि का उपयोग करने के उद्देश्य से पूरे के पूरे गांवों को ज़मींदोज़ करके हज़ारों नागरिकों को विस्थापित कर दिया है।
एक अन्य रिपोर्ट में फ्रांस की दो सरकारी एजेंसियों ने यह गणना की है कि एक फोन के निर्माण के लिए कितने कच्चे माल की आवश्यकता होती है। इस रिपोर्ट के अनुसार सेकंड हैंड फोन खरीदने या नया फोन खरीदने को टालकर हम कोबाल्ट और तांबे के खनन की आवश्यकता को 81.64 किलोग्राम तक कम कर सकते हैं। रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि अगर अमेरिका के सभी लोग एक और साल के लिए अपने पुराने स्मार्टफोन का उपयोग करते रहें, तो हम लगभग 18.14 लाख किलोग्राम कच्चे माल के खनन की आवश्यकता से बच जाएंगे। इसे भारतीय संदर्भ में देखा जाए, जिसकी जनसंख्या अमेरिका की तुलना में 4.2 गुना है, तो हम 76.2 लाख किलोग्राम कच्चे माल के खनन की आवश्यकता से बच सकते हैं।
संख्याएं चौंका देने वाली लगती हैं लेकिन दुर्भाग्य से यही सच है। और तो और, ये संख्याएं बढ़ती रहेंगी क्योंकि दुनियाभर की सरकारें इलेक्ट्रॉनिक वाहनों और अन्य तथाकथित ‘पर्यावरण-अनुकूल’ जीवन समाधानों को प्रोत्साहित कर रही हैं। ये उद्योग विषाक्त पदार्थों का खनन करने वाले बच्चों के कंधों पर खड़े हैं, उनकी क्षमताओं का शोषण कर रहे हैं और उन्हें उनकी इच्छा के विरुद्ध कार्य करने के लिए मजबूर कर रहे हैं। हाल के वर्षों में तांबे के खनन में 43% और कोबाल्ट के खनन में 30% की वृद्धि हुई है।
यह सच है कि इलेक्ट्रिक वाहन के उपयोग से प्रत्यक्ष उत्सर्जन कम होता है, लेकिन इससे यह सवाल भी उठता है कि पर्यावरण की रक्षा करने की ज़िम्मेदारी क्या सिर्फ आम जनता पर है। व्यक्तिगत रूप से देखा जाए तो एक व्यक्ति इतना कम उत्सर्जन करता है कि भारी उद्योग में किसी एक कंपनी के वार्षिक उत्सर्जन की बराबरी करने के लिए उसे कई जीवन लगेंगे। आइए अब हमारी पसंदीदा टेक कंपनियों की कुछ गुप्त रणनीतियों पर एक नज़र डालते हैं जो हमें उन नई और चमचमाती चीज़ों की ओर आकर्षित करती हैं जिनकी वास्तव में हमें आवश्यकता ही नहीं है।
टेककंपनियोंकीतिकड़में
आम तौर पर टेक कंपनियां ऐसे उपकरण बनाती हैं जो बहुत लम्बे समय तक कार्य कर सकते हैं। स्मार्टफोन, टैबलेट या कंप्यूटर के डिस्प्ले तथा एंटीना और अन्य सर्किटरी दशकों तक काफी अच्छा प्रदर्शन करने में सक्षम होते हैं। हर हार्डवेयर सॉफ्टवेयर पर चलता है जो अंततः उपयोगकर्ता के अनुभव को निर्धारित करता है। इसका मतलब यह है कि सॉफ्टवेयर को ऑनलाइन अपडेट करके उपयोगकर्ता द्वारा संचालन के तरीके को बदला जा सकता है। हम यह भी जानते हैं कि टेक कंपनियों का मुख्य उद्देश्य लंबे समय तक चलने वाले उपकरण बनाना नहीं है, बल्कि उपकरण बेचना है और यदि उपभोक्ता नए-नए फोन न खरीदें तो कारोबर में पैसों का प्रवाह नहीं हो सकता है। इसका मतलब है कि फोन बेचते रहना उनकी ज़रूरत है और टिकाऊ उपकरण बनाना टेक कंपनियों के इस प्राथमिक उद्देश्य के विरुद्ध है।
नियोजित रूप से चीज़ों को अनुपयोगी बना देना भी टेक जगत की एक प्रसिद्ध तिकड़म है। हर साल सैमसंग, श्याओमी और ऐप्पल जैसे प्रमुख टेक निर्माता ग्राहकों को अपने उत्पादों के प्रति लुभाने के लिए नए-नए लैपटॉप, स्मार्टफोन और घड़ियां जारी करते हैं, ताकि ग्राहक जीवन भर ऐसे नए-नए उपकरण खरीदते रहें जिनकी उनको आवश्यकता ही नहीं है। अभी हाल तक प्रमुख एंड्रॉइड फोन और टैबलेट निर्माता अपने उपकरणों के सॉफ्टवेयर और सुरक्षा संस्करणों को 2 साल के लिए अपडेट करते थे। यह एक ऐसा वादा था जो शायद ही पूरा होगा। ऐप्पल कंपनी 5-6 साल के वादे के साथ अपडेट के मामले में सबसे आगे थी, जो उन लोगों के लिए अच्छी खबर थी जो अपने फोन को लंबे समय तक अपने पास रखना चाहते थे। लेकिन सच तो यह है कि प्रत्येक अपडेट में पिछले की तुलना में अधिक कम्प्यूटेशनल संसाधनों की आवश्यकता होती है। जिसके परिणामस्वरूप फोन धीमा हो जाता है और उपभोक्ताओं को 6 साल तक अपडेट चक्र से पहले ही नया फोन खरीदने के लिए मजबूर होना पड़ता है।
ऐप्पल जैसी कंपनियां फोन के विभिन्न पार्ट्स को क्रम संख्या देने और उन्हें लॉजिक बोर्ड में जोड़ने के लिए भी बदनाम हैं ताकि दूसरी कंपनी के सस्ते पार्ट्स उनके हार्डवेयर के साथ काम न करें। यह बैटरी या फिंगरप्रिंट या भुगतान के दौरान चेहरे की पहचान करने वाले सेंसर जैसे पार्ट्स के लिए तो समझ में आता है जो हिफाज़त या सुरक्षा की दृष्टि से आवश्यक हैं। लेकिन एक चुंबक को क्रम संख्या देना एक मरम्मत-विरोधी रणनीति है। यह लैपटॉप को बस इतना बताता है कि उसका ढक्कन कब नीचे है और उसकी स्क्रीन बंद होनी चाहिए। वैसे कैमरा, लैपटॉप और स्मार्टफोन बनाने वाली प्रमुख कंपनियां कार्बन-तटस्थ होने का दावा तो करती हैं लेकिन इन कपटी रणनीतियों से ई-कचरे में वृद्धि होती है।
यह मामला टेस्ला जैसे विद्युत वाहन निर्माताओं और जॉन डीरे जैसे इलेक्ट्रिक कृषि उपकरण निर्माताओं के साथ भी है। फरवरी 2023 में, अमेरिकी न्याय विभाग ने इलिनॉय संघीय न्यायालय से अपने उत्पादों की मरम्मत पर एकाधिकार स्थापित करने की कोशिश के लिए जॉन डीरे के खिलाफ प्रतिस्पर्धा-विरोधी (एंटी-ट्रस्ट) मुकदमे को खारिज न करने का निर्देश दिया था। 2020 में जॉन डीरे पर पहली बार अपने ट्रैक्टरों की मरम्मत के लिए बाज़ार पर एकाधिकार स्थापित करने और उसे नियंत्रित करने की कोशिश करने का आरोप लगाया गया था। कंपनी ने उत्पादों को इस प्रकार बनाया था कि उनकी मरम्मत के लिए एक सॉफ्टवेयर की आवश्यकता अनिवार्य रहे जो केवल कंपनी के पास था। टेस्ला ने कारों में भी इन-बिल्ट सॉफ्टवेयर का उपयोग किया था जिससे यह पता लग जाता है कि थर्ड पार्टी या आफ्टरमार्केट रिप्लेसमेंट पार्ट्स का इस्तेमाल किया गया है। ऐसा करने वाले ग्राहकों को अमेरिका भर में फैले टेस्ला के फास्ट चार्जिंग इंफ्रास्ट्रक्चर से ब्लैकलिस्ट करके दंडित किया जाता है जिसकी काफी आलोचना भी हुई है।
इस मामले में यह समझना आवश्यक है कि निर्माता कार्बन-तटस्थ और पर्यावरण-अनुकूल होने के बारे में बड़े-बड़े दावे तो करते हैं लेकिन सच्चाई कहीं अधिक कपटपूर्ण और भयावह है। टेक कंपनियों की रुचि मुनाफा कमाने और अपने निवेशकों को खुश रखने के लिए हर साल नए उत्पाद लॉन्च करके निरंतर पैसा कमाने की है। उन्हें पर्यावरण-अनुकूल होने की चिंता नहीं है, बल्कि उनके लिए यह सरकार को खुश रखने का एक दिखावा मात्र है जबकि इन उपकरणों के लिए आवश्यक कच्चे माल से समृद्ध देशों में बच्चों का सुनियोजित शोषण एक अलग कहानी बताते हैं। इन सामग्रियों की विषाक्त प्रकृति के कारण बच्चों का जीवन छोटा हो जाता है। कंपनियां अपना खरबों डॉलर का साम्राज्य बाल मज़दूरों की कब्रों पर बना रही हैं।
निष्कर्ष
तो इन कंपनियों के साथ संवाद करते समय उपभोक्ता के रूप में हम किन बातों का ध्यान रखें? हमें यह ध्यान रखना ज़रूरी है कि विज्ञापन का हमारे अवचेतन पर व्यापक प्रभाव पड़ता है और ये हमें ऐसी चीज़ें खरीदने के लिए मजबूर करते हैं जिनकी हमें ज़रूरत नहीं है। ऐसा विभिन्न कारणों से हो सकता है – कभी-कभी हम इन वस्तुओं को अपनी प्रतिष्ठा से जोड़ते हैं, हो सकता है कोई व्यक्ति नए आईफोन को अपने दोस्तों के बीच प्रतिष्ठा में वृद्धि के रूप में देखता हो। कोई हर साल नया उत्पाद इसलिए भी खरीद सकता है क्योंकि मार्केटिंग हमें यह विश्वास दिलाता है कि हमें हर साल नए उत्पादों में होने वाले मामूली सुधारों की आवश्यकता है। यह सच्चाई से कोसों दूर है। अगर हम केवल कॉल करते हैं, सोशल मीडिया ब्राउज़ करते हैं और ईमेल और टेक्स्ट भेजते और प्राप्त करते हैं तो हमें 12% अधिक फुर्तीले फोन की आवश्यकता कदापि नहीं है। यदि सड़कों पर 100 किमी प्रति घंटे की रफ्तार से गाड़ी चला ही नहीं सकते, तो ऐसी कार की क्या ज़रूरत है जो पिछले साल के मॉडल के 4 सेकंड की तुलना में 3.5 सेकंड में 0-100 की रफ्तार तक पहुंच जाए। यहां मुद्दा यह है कि हम अक्सर, अतार्किक कारणों से ऐसी चीज़ें खरीदते हैं जिनकी हमें आवश्यकता नहीं होती और ऐसा करते हुए इन उत्पादों की मांग पैदा करके पर्यावरण को नुकसान पहुंचाते हैं।
उत्पाद खरीदते समय हमें इस बात पर भी ध्यान देना चाहिए कि इन उत्पादों के पार्ट्स को बदलना या मरम्मत करना कितना कठिन या महंगा होने वाला है। मरम्मत करने में कठिन उत्पाद उपभोक्ता को एक नया उत्पाद खरीदने के लिए मजबूर करता है जिससे अर्थव्यवस्था में इन उत्पादों की मांग पैदा होती है। नतीजतन अंततः पर्यावरण को नुकसान पहुंचता है तथा मानव तस्करी और बाल मज़दूरी के रूप में मानवाधिकारों का उल्लंघन होता है।
ऐसे मामलों में जब भी बड़ी कंपनियों की प्रतिस्पर्धा-विरोधी (एंटी-ट्रस्ट) प्रथाओं की बात आती है तो जागरूकता की सख्त ज़रूरत होती है। मानव तस्करी और बाल श्रम जैसी संदिग्ध नैतिक प्रथाओं तथा प्रतिस्पर्धा-विरोधी नीतियों में लिप्त कंपनियों से उपभोक्ताओं को दूर रहना चाहिए और उनका बहिष्कार करना चाहिए। इन बहिष्कारों का कंपनियों पर गहरा प्रभाव पड़ता है क्योंकि मुनाफे के लिए वे अंतत: उपभोक्ताओं पर ही तो निर्भर हैं। दिक्कत यह है कि उपभोक्ता संगठित नहीं होते हैं। दरअसल बाज़ार उपभोक्ताओं को उनके पसंद की विलासिता प्रदान करता है, ऐसे में उपभोक्ता की यह ज़िम्मेदारी भी है कि वह बाज़ार को सतत और नैतिक विनिर्माण विधियों की ओर ले जाने के लिए अपनी मांग की शक्ति का उपयोग करे। अब देखने वाली बात यह है कि हम अपनी बेतुकी मांग से पर्यावरण व मानवाधिकारों को होने वाले नुकसान के प्रति जागरुक होते हैं या नहीं। (स्रोत फीचर्स)
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दुनिया के सबसे अमीर कारोबारियों में शुमार एलन मस्क एक लंबे अर्से से मनुष्य और मशीनों के बीच तालमेल बढ़ाने तथा मानवीय क्षमताओं को मौलिक रूप से बढ़ाने के लिए विज्ञान और प्रौद्योगिकी के उपयोग की वकालत करते रहे हैं। हाल ही में मस्क ने घोषणा की है कि उनकी कंपनी न्यूरालिंक ने पहली बार अपने ब्रेन चिप या ब्रेन-कंप्यूटर इंटरफेस को एक इंसान के दिमाग में सफलतापूर्वक प्रत्यारोपित किया है और वह तेज़ी से ठीक हो रहा है।
मस्क ने इंटरनेट मीडिया प्लेटफार्म एक्स पर लिखा कि “प्रारंभिक नतीजे उत्साहवर्धक हैं और ये न्यूरॉन स्पाइक का पता लगाने की उम्मीद जगाते दिखते हैं।” दरअसल न्यूरॉन स्पाइक, वे विद्युत संकेत होते हैं, जिससे तंत्रिकाएं आपस में संपर्क स्थापित करती हैं। मस्क ने इसके बाद लिखा कि न्यूरालिंक के पहले उत्पाद को ‘टेलीपैथी’ के नाम से जाना जाएगा। कंपनी का दावा है कि ब्रेन चिप इंप्लांट का उद्देश्य दृष्टिहीनता, बधिरता, टिनिटस, मस्तिष्क आघात या जन्मजात तंत्रिका विकारों से ग्रस्त रोगियों के जीवन को आसान बनाना है।
मस्क के मुताबिक, ब्रेन चिप इम्प्लांट केवल सोचने मात्र से, आपके मोबाइल या कंप्यूटर और उनके माध्यम से लगभग किसी भी डिवाइस का नियंत्रण संभव बना देता है। इसके आरंभिक उपयोगकर्ता वे दिव्यांग होंगे, जिनके अंगों ने काम करना बंद कर दिया है। कल्पना करें, अगर स्टीफन हॉाकिंग होते तो इसकी मदद से वे एक स्पीड टायपिस्ट या नीलामीकर्ता के मुकाबले ज़्यादा तेज़ी से संवाद कर पाते।
गौरतलब है कि अमेरिकी फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन (एफडीए) ने मई 2023 में न्यूरालिंक को मानव परीक्षण के लिए मंज़ूरी दी थी। इसके बाद सितंबर में कंपनी ने घोषणा की थी कि वह अपने शुरुआती परीक्षण के लिए उपयुक्त लोगों की तलाश कर रही है। इसलिए मनुष्य में चिप इंप्लांट की हालिया घोषणा ने तंत्रिका विज्ञानियों को आश्चर्यचकित नहीं किया, उनके लिए यह खबर काफी हद तक अपेक्षित ही थी।
यह कल्पना ही बड़ी रोमांचक लगती है कि हमारे दिमाग में एक चिप इंप्लांट कर दिया जाए तथा हम हाथ-पैर हिलाए बिना बस पड़े रहें और हमारे सोचने भर से ही मोबाइल, कंप्यूटर, टीवी जैसे उपकरण काम करने लगें। इंसानी दिमाग में चिप इंप्लांट की खबर के साथ यह कल्पना अब हकीकत का रूप लेती नज़र आ रही है। अगर न्यूरालिंक का यह प्रयोग पूरी तरह सफल हुआ तो चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में क्रांति आ जाएगी।
2016 में मस्क ने कुछ वैज्ञानिकों और इंजीनियरों के साथ मिलकर न्यूरालिंक कंपनी की स्थापना की थी। इस कंपनी का उद्देश्य ऐसी ब्रेन-कंप्यूटर इंटरफेस तकनीकों का अविष्कार करना है, जिससे इंसान अपने दिमाग को सीधे कंप्यूटर से जोड़ सके। लंबे समय से वैज्ञानिकों की यह मान्यता रही है कि इंसानी दिमाग को सीधे कंप्यूटर से जोड़ने से मस्तिष्क के जटिल रहस्यों को समझा जा सकता है और शारीरिक व मानसिक रोगों से पीड़ित मरीजों को नया जीवन मिल सकता है। इसका सबसे अधिक लाभ उन लोगों को मिल सकता है, जो किसी वजह से अपने हाथ-पांव नहीं चला सकते और अपने मन में चल रही बातों को व्यक्त नहीं कर पाते। इससे मोबाइल, कंप्यूटर, टीवी आदि को चलाने या नियंत्रित करने के लिए हाथ-पांव हिलाने की ज़रूरत नहीं रह जाएगी और मूक-बधिर भी मशीनों के माध्यम से अपनी भावनाओं को व्यक्त कर सकेंगे तथा बाहरी दुनिया से संवाद स्थापित कर सकेंगे।
इंसानी दिमाग को सीधे कंप्यूटर से जोड़ने की बात साइंस-फिक्शन फिल्मों जैसी लगती है। उदाहरण के लिए, 2018 में आई हॉलीवुड फिल्म ‘अपग्रेड’ को ही लीजिए। इसका नायक ग्रे एक हमले के दौरान लकवाग्रस्त हो जाता है। एक अरबपति, उसके शरीर में स्टेम नामक एक ऐसी कंप्यूटर चिप इंप्लांट करवाता है जिससे वह वापस चलने-फिरने लगता है। विशेषज्ञों के मुताबिक, भले ही आज हमें शारीरिक रूप से अक्षम व्यक्तियों के चलने-फिरने और दृष्टिहीनों के दिखाई देने जैसी बातें साइंस-फिक्शन फिल्मों जैसी लगें, लेकिन मौजूदा तकनीकी प्रगति के मद्देनजर निकट भविष्य में यह पूरी तरह संभव होगा।
दिसंबर 2022 में एक वेब शो के दौरान मस्क ने न्यूरालिंक की सफलताओं और उपलब्धियों को सार्वजनिक करते हुए कहा था कि कंपनी द्वारा निर्मित ब्रेन चिप को मानव परीक्षण के बाद वे स्वयं डेमो के तौर पर अपने दिमाग में इंप्लांट करवाएंगे। इस वेब शो में एक वीडियो भी प्रदर्शित किया गया था, जिसमें एक बंदर अपने हाथों का इस्तेमाल किए बिना अपने दिमाग की मदद से टाइपिंग करता दिखाई दे रहा था। इस वीडियो को रिकॉर्ड करने से छह हफ्ते पहले बंदर के दिमाग में एक ब्रेन चिप इंप्लांट किया गया था। यह चिप कंप्यूटर या स्मार्टफोन और दिमाग के बीच एक इंटरफेस का काम कर रहा था। इससे भविष्य में हम सोचने भर से ही मशीनों को संचालित कर सकेंगे।
मौजूदा समय में ब्रेन-कंप्यूटर इंटरफेस जैसी तकनीकों का मुख्य उद्देश्य चिकित्सा ही है। मसलन लकवाग्रस्त लोगों के लिए ऐसी सुविधा उपलब्ध करना जिससे वे सोचने भर से अपने ज़रूरी काम कर सकें। इसके समर्थक कहते हैं कि याददाश्त घटने, बहरापन, दृष्टिहीनता, अवसाद, पार्किंसन, मिर्गी और नींद न आने जैसी परेशानियां भी इस तकनीक से दूर की जा सकती हैं। न्यूरालिंक अभी जिस ब्रेन चिप का मानव परीक्षण कर रही है, उसे अगले 5-6 वर्षों में व्यावसायिक उपयोग में लाने का लक्ष्य है।
मस्क के मुताबिक, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) पर मनुष्य की श्रेष्ठता स्थापित करने के लिए ब्रेन-कंप्यूटर इंटरफेस बहुत ज़रूरी है और न्यूरालिंक इसको विकसित करने के लिए प्रतिबद्ध है। उनके शब्दों में, “लंबी अवधि में इस तकनीक का उपयोग एआई से हमारे अस्तित्व सम्बंधी खतरे को दूर करने में किया जाएगा।” संभवत: यहाँ मस्क हालीवुड फिल्म ‘दी मैट्रिक्स’ की ओर संकेत कर रहे थे, जिसमें एआई से लैस कंप्यूटर प्रोग्राम पूरी दुनिया पर कब्ज़ा कर लेता है और इंसान अपने दिमाग में ऐसा ही कोई यंत्र इंप्लांट करके दिमागी स्तर पर उस कंप्यूटर प्रोग्राम से लड़ते हैं और जीत हासिल करते हैं।
ऐसा हो सकता है कि आगे चलकर इंसान, ब्रेन-कंप्यूटर इंटरफेस की सहायता से स्वयं को अपग्रेड कर सकें, लेकिन यह भी हो सकता है कि इस टेक्नॉलॉजी के चलते इंसान किसी बड़े खतरे में पड़ जाएं। क्या होगा अगर ब्लूटूथ टेक्नॉलॉजी से संचालित किसी के ब्रेन-कंप्यूटर इंटरफेस को हैक कर लिया जाए? ताकतवर लोग इसका गलत इस्तेमाल भी कर सकते हैं। बड़ा सवाल यह होगा कि इंसानी दिमाग का कंट्रोल कंप्यूटर पर होगा या फिर कंप्यूटर ही दिमाग को चलाएगा? अगर कंप्यूटर ही दिमाग को नियंत्रित करेगा तो 21वीं सदी में वैश्वीकरण और मशीनीकरण के विस्तार के साथ शताब्दियों से चली आ रही मनुष्य की बल और बुद्धि की श्रेष्ठता के खत्म हो जाने का खतरा मंडराने लगेगा। उपरोक्त फिल्म ‘अपग्रेड’ के अंत में भी यही होता है। ब्रेन चिप ग्रे को अपने वश में कर लेता है और उसे अपने मनमुताबिक कंट्रोल करता है।
डर यह भी है कि इससे किसी इंसान की याददाश्त का कोई खास हिस्सा मिटाकर या जोड़कर उसे अपने फायदे के लिए इस्तेमाल किया जा सकेगा। इसके अलावा सबसे बड़ा डर प्रायवेसी (निजता) का है, क्योंकि यह किसी के दिमाग की सभी जानकारियां, समस्त अनुभव, यहां तक कि सारी निजी बातें इकट्ठी करके एक चिप में डाल देने जैसा है। बहरहाल, कोई चिप दिमाग की मदद के नाम पर देह और दिमाग दोनों को नियंत्रित करे, इस बात को लेकर वैज्ञानिक और दर्शनशास्त्री दोनों ही चिंतित हैं। कहना न होगा कि अगर हम इसके दुरुपयोग की आशंकाओं और चुनौतियों को दूर या कम कर सके तो निश्चित रूप से भविष्य में न्यूरालिंक चिप दुनिया भर के लाखों लोगों के लिए वरदान साबित हो सकती है। (स्रोत फीचर्स)
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