युरोप में आज भी प्राचीन रोमन इमारतें दिखाई देती हैं। 2000 से अधिक वर्ष पूर्व निर्मित हमाम, जल प्रणालियां और समुद्री दीवारें आज भी काफी मज़बूत हैं। इस मज़बूती और टिकाऊपन का कारण एक विशेष प्रकार की कॉन्क्रीट है जो आज के आधुनिक कॉन्क्रीट की तुलना में अधिक टिकाऊ साबित हुआ है। हाल ही में इस मज़बूती का राज़ खोजा गया है।
शोधकर्ताओं का मानना है कि कॉन्क्रीट के साथ अनबुझे चूने का उपयोग करने से मिश्रण को सेल्फ-हीलिंग (स्वयं की मरम्मत) का गुण मिला होगा। प्राचीन रोमन कॉन्क्रीट का अध्ययन करने वाली भूवैज्ञानिक मैरी जैक्सन के अनुसार इससे आधुनिक कॉन्क्रीट को बेहतर बनाने में मदद मिलेगी।
गौरतलब है कि कॉन्क्रीट का उपयोग रोमन साम्राज्य से भी पहले से किया जा रहा था लेकिन व्यापक स्तर पर इसका उपयोग सबसे पहले रोमन समुदाय ने किया था। 200 ईसा पूर्व तक उनकी अधिकांश निर्माण परियोजनाओं में कॉन्क्रीट का उपयोग किया जाने लगा था। रोमन कॉन्क्रीट मुख्य रूप से अनबुझे चूने, ज्वालामुखी विस्फोट से निकलने वाली गिट्टियों (टेफ्रा) और पानी से बनाया जाता था। इसके विपरीत आधुनिक कॉन्क्रीट पोर्टलैंड सीमेंट से बनता है जिसे आम तौर पर चूना पत्थर, मिट्टी, रेत, चॉक और अन्य पदार्थों के मिश्रण को पीसकर भट्टी में बनाया जाता है। इसके बावजूद यह 50 वर्षों में उखड़ने लगता है।
पूर्व में भी वैज्ञानिकों ने रोमन कॉन्क्रीट की मज़बूती को समझने के प्रयास किए हैं। 2017 में हुए एक अध्ययन में शोधकर्ताओं ने पाया था कि समुद्र के संपर्क में आने वाली संरचनाएं जब समुद्री जल से संपर्क में आती हैं तब कॉन्क्रीट के अवयवों और समुद्री पानी की प्रतिक्रिया नए और अधिक कठोर खनिज बनाती हैं।
इसकी और अधिक संभावनाओं को तलाशने के लिए मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी के रसायनज्ञ एडमिर मैसिक और उनके सहयोगियों ने रोम के नज़दीक 2000 वर्ष पुराने प्रिवरनम नामक पुरातात्विक स्थल की एक प्राचीन दीवार से ठोस नमूने एकत्रित किए। इसके बाद उन्होंने कंक्रीट में जमा हुए छोटे-छोटे कैल्शियम के ढेगलों पर ध्यान दिया जिन्हें लाइम लम्प्स कहा जाता है।
कई वैज्ञानिकों का मानना था कि ये लम्प्स कॉन्क्रीट को ठीक से न मिलाने के कारण रह जाते होंगे। लेकिन मैसिक की टीम ने रोमन लोगों द्वारा कॉन्क्रीट में पानी मिलाने से पहले अनबूझा चूना उपयोग करने की संभावना पर विचार किया। गौरतलब है कि अनबूझा चूना चूना पत्थर को जलाकर तैयार किया जाता है। इसमें पानी मिलाने पर एक रासायनिक प्रतिक्रिया होती है जिसमें काफी मात्रा में ऊष्मा उत्पन्न होती है। इस दौरान चूना पूरी तरह से नहीं घुल पाता और कॉन्क्रीट में चूने की गिठलियां बन जाती हैं। इसे और अच्छे से समझने के लिए वैज्ञानिकों ने रोमन कॉन्क्रीट बनाया जो प्रिवरनम से एकत्रित नमूनों के एकदम समान था।
साइंस एडवांसेज़ में प्रकाशित अध्ययन में टीम ने बताया है कि उन्होंने इस कॉन्क्रीट में छोटी-छोटी दरारें बनाईं – ठीक उसी तरह जैसे समय के साथ कॉन्क्रीट में दरारें पड़ जाती हैं। फिर उन्होंने इन दरारों में पानी डाला जिससे चूने की गिलठियां घुल गईं और सभी दरारें भर गईं। इस तरह कॉन्क्रीट की मज़बूती भी बनी रही। ।
आधुनिक कॉन्क्रीट 0.2 या 0.3 मिलीमीटर से बड़ी दरारों को ठीक नहीं करता है जबकि रोमन कॉन्क्रीट ने 0.6 मिलीमीटर तक की दरारों को ठीक तरह से भर दिया था।
मैसिक को उम्मीद है कि ये निष्कर्ष कॉन्क्रीट को बेहतर बनाने में काफी मदद करेंगे। इसकी सामग्री न केवल वर्तमान कॉन्क्रीट से सस्ती है बल्कि जलवायु परिवर्तन से लड़ने में भी काफी मदद कर सकती है। वर्तमान में कुल ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में सीमेंट उत्पादन का हिस्सा 8 प्रतिशत है। इस तकनीक के उपयोग से इसे काफी हद तक नियंत्रित किया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.adg5743/abs/_20230106_on_roman_concrete_privernum_ruins.jpg
काफी लंबे समय से वैज्ञानिक ऊर्जा उत्पन्न करने के लिए सूरज की ऊर्जा और पानी का उपयोग करने का प्रयास कर रहे हैं; लगभग उसी तरह जैसे पौधे प्रकाश संश्लेषण के दौरान करते हैं। सूर्य के प्रकाश का उपयोग करते हुए पानी के अणुओं को तोड़ने की वर्तमान तकनीक इतनी कार्यक्षम नहीं है कि इसे व्यवसायिक रूप से अपनाया जा सके। अलबत्ता, हालिया शोध से कुछ उम्मीद जगी है।
पूर्व में सूर्य की ऊर्जा से पानी के अणुओं को विभाजित करने के प्रयासों में काफी समस्याओं का सामना करना पड़ा है। इस प्रक्रिया में हाइड्रोजन और ऑक्सीजन अणुओं के बंधन को तोड़ने के लिए ऊर्जावान फोटॉन की आवश्यकता होती है। इसके लिए कम तरंग लंबाई यानी अधिक ऊर्जावान (पराबैंगनी और दृश्य प्रकाश के कम) फोटॉन यह काम कर सकते हैं। लेकिन सूर्य से जो रोशनी पृथ्वी तक पहुंचती है उसमें 50 प्रतिशत तो इन्फ्रारेड (अवरक्त) फोटॉन होते हैं जिनमें पर्याप्त ऊर्जा नहीं होती।
हालिया नई तकनीक में ऑक्सीजन और हाइड्रोजन के बंधन को तोड़ने के लिए दो रणनीतियां आज़माई गई हैं।
पहली तकनीक में प्रकाश-विद्युत-रासायनिक सेल (फोटोइलेक्ट्रोकेमिकल सेल, पीईसी) का उपयोग किया जाता है। यह उपकरण एक बैटरी के समान होता है। इसके दो इलेक्ट्रोड एक तरल इलेक्ट्रोलाइट में डूबे रहते हैं। इनमें से एक इलेक्ट्रोड एक छोटे सौर सेल की तरह काम करता हैं – सूर्य के प्रकाश को अवशोषित करके उसकी ऊर्जा को विद्युत आवेश में बदल देता है। ये आवेश इलेक्ट्रोड पर उपस्थित उत्प्रेरकों को मिलते हैं और वे पानी के अणु विभाजित कर देते हैं। एक इलेक्ट्रोड पर हाइड्रोजन गैस और दूसरे पर ऑक्सीजन गैस उत्पन्न होती है।
सर्वोत्तम पीईसी सूर्य के प्रकाश की लगभग एक-चौथाई ऊर्जा को हाइड्रोजन ईंधन में परिवर्तित करता है। लेकिन इसके लिए संक्षारक इलेक्ट्रोड की आवश्यकता होती है जो काफी तेज़ी से प्रकाश-अवशोषक अर्धचालक को नष्ट करता है।
मोनोलिथिक फोटोकैटेलिटिक सेल नामक दूसरी रणनीति में बैटरी जैसा उपकरण उपयोग न करके प्रकाश-अवशोषक अर्धचालक को सीधे पानी में डुबाकर रखा जाता है। यह अर्धचालक सूर्य के प्रकाश का अवशोेषण करके विद्युत आवेश उत्पन्न करता है जो इसकी सतह पर उपस्थित उत्प्रेरक धातुओं को मिलता और वे पानी के अणु विभाजित कर देती हैं। लेकिन इस प्रक्रिया में हाइड्रोजन और ऑक्सीजन पास-पास उत्पन्न होते हैं और फिर से जुड़कर पानी बना देते हैं।
फोटोकैटेलिटिक सेल की दक्षता काफी कम है और सूर्य से प्राप्त ऊर्जा का केवल 3 प्रतिशत ही हाइड्रोजन में परिवर्तित होता है। इसका एक समाधान अर्धचालकों के आकार को पारंपरिक सौर पैनलों के बराबर करना है। लेकिन पानी को विभाजित करने वाले अर्धचालक पारंपरिक सिलिकॉन सौर पैनलों की तुलना में काफी महंगे होते हैं जिसके कारण इनका उपयोग घाटे का सौदा है।
इस नए अध्ययन में युनिवर्सिटी ऑफ मिशिगन के रसायनज्ञ ज़ेटियन मी ने फोटोकैटेलिटिक उपकरण में एक बड़े-से लेंस का उपयोग किया। लेंस ने सूर्य के प्रकाश को एक छोटे-से क्षेत्र पर केंद्रित कर दिया जिससे पानी के अणुओं को तोड़ने वाले अर्धचालक के आकार और लागत को कम किया जा सका। मी ने एक परिवर्तन यह भी किया कि पानी के तापमान को 70 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ा दिया जिससे अधिकांश हाइड्रोजन और ऑक्सीजन गैसों को पुन: पानी में परिवर्तित होने से रोका जा सका।
मी द्वारा बनाया गया नवीनतम उपकरण न केवल पराबैंगनी और दृश्य प्रकाश का उपयोग करता है बल्कि कम ऊर्जावान इन्फ्रारेड फोटोन के साथ भी काम करता है। नेचर में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार इन परिवर्तनों की मदद से वैज्ञानिक सूर्य की 9.2 प्रतिशत ऊर्जा को हाइड्रोजन ईंधन में परिवर्तित कर पाए।
मी के अनुसार पीईसी की तुलना में फोटोकैटेलिटिक सेल का डिज़ाइन काफी आसान है और बड़े पैमाने पर उत्पादन से इसकी लागत में और कमी आएगी। इसके अलावा नया सेटअप थोड़ी कम कुशलता से ही सही लेकिन समुद्री जल जैसे सस्ते संसाधन के साथ भी काम करता है। समुद्री जल को कार्बन-मुक्त ईंधन में परिवर्तित करना हरित ऊर्जा के क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण योगदान होगा। बहरहाल, इस तरह के उपकरण के व्यावसायिक उपयोग में कई समस्याएं आएंगी। जैसे एक समस्या तो यह होगी कि हाइड्रोजन व ऑक्सीजन गैसों को दूर-दूर कैसे रखा जाए क्योंकि अन्यथा उनकी अभिक्रिया क्रिया काफी विस्फोटक हो सकती है। (स्रोत फीचर्स)
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आज से पचास साल पहले 7 दिसंबर 1972 को, अपोलो-17 में सवार अंतरिक्ष यात्रियों ने चंद्रमा की ओर जाते हुए करीब 30,000 किलोमीटर की दूरी से पृथ्वी की एक सुप्रसिद्ध तस्वीर ली थी। गौरतलब है कि अपोलो-17 मिशन यात्रियों समेत चंद्रमा पर नासा का आखिरी मिशन था। इस तस्वीर को ‘ब्लू मार्बल’ के नाम से जाना जाता है – यह तस्वीर किसी व्यक्ति द्वारा ली गई पृथ्वी की पहली पूरी तरह से स्पष्ट रंगीन तस्वीर थी।
अब, वैज्ञानिकों ने इस तस्वीर को अत्याधुनिक डिजिटल जलवायु मॉडल के परीक्षण के दौरान फिर से बनाया है। यह जलवायु मॉडल सामान्य अनुकृति मॉडल की तुलना में 100 गुना अधिक आवर्धन क्षमता, एक किलोमीटर तक की विभेदन क्षमता के साथ तूफान और समुद्री तूफान जैसी जलवायु सम्बंधी घटनाओं को दर्शा सकता है।
ब्लू मार्बल की चक्रवाती हवाओं – जिसमें हिंद महासागर पर बना एक चक्रवात भी शामिल है – को फिर से बनाने के लिए शोधकर्ताओं ने वर्ष 1972 के मौसम सम्बंधी आंकड़े सुपर कंप्यूटर-संचालित सॉफ्टवेयर में डाले। परिणामी तस्वीर में क्षेत्र की अलग-अलग विशेषताएं दिखाई दे रही थीं। जैसे कि नामीबिया के तट से उमड़ते पानी (जल उत्सरण) और लंबे, बेंतनुमा बादलों का आच्छादन।
विशेषज्ञों का कहना है कि ये कलाबाज़ियां दर्शाती हैं कि उच्च-आवर्धन क्षमता वाले जलवायु मॉडल परिष्कृत होते जा रहे हैं। उम्मीद है कि ये मॉडल युरोपीय संघ के डेस्टिनेशन अर्थ प्रोजेक्ट का केंद्र बनेंगे। इस प्रोजेक्ट का उद्देश्य पृथ्वी की डिजिटल ‘जुड़वां पृथ्वी’ बनाना है ताकि चरम मौसम परिघटनाओं का बेहतर पूर्वानुमान किया जा सके और बेहतर तैयारी में मदद मिले। (स्रोत फीचर्स)
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इक्कीसवीं सदी के कारखानों से लेकर शल्य क्रिया कक्ष तक छोटे-बड़े, हर आकार-प्रकार के रोबोट्स से भरते जा रहे हैं। कई रोबोट्स मशीन लर्निंग के ज़रिए गलती कर-करके नए कौशल सीख लेते हैं। लेकिन हालिया दिनों में एक नई विधि ने अलग-अलग तरह के रोबोट्स में इस तरह के कौशल स्थानांतरित करने में काफी मदद की है। इस तकनीक से उनको हर कार्य शुरू से सिखाने की आवश्यकता नहीं होती है। कॉर्नेजी मेलन युनिवर्सिटी के कंप्यूटर वैज्ञानिक और इस अध्ययन के प्रमुख ज़िन्गयू ल्यू ने इसे इंटरनेशनल कॉन्फ्रेंस ऑन मशीन लर्निंग में प्रस्तुत किया है।
रोबोट्स के बीच कौशल स्थानांतरण को एक उदाहरण से समझा जा सकता है। मान लीजिए आपके पास एक रोबोटिक हाथ है जो हू-ब-हू मानव हाथ के समान है। आपने इसे पांचों अंगुलियों से हथौड़ा पकड़ने और कील ठोकने के लिए प्रशिक्षित किया है। अब आप इसी काम को दो-उंगलियों वाली पकड़ से करवाना चाहते हैं। इसके लिए वैज्ञानिकों ने इन दो हाथों के बीच क्रमिक रूप से बदलते रोबोट्स की एक शृंखला बनाई जो धीरे-धीरे मूल स्वरूप से अंतिम रूप में परिवर्तित हो जाते हैं। प्रत्येक मध्यवर्ती रोबोट निर्दिष्ट कार्य का अभ्यास करता है जो एक कृत्रिम न्यूरल नेटवर्क को सक्रिय कर देता है जब तक कि सफलता का एक स्तर हासिल नहीं हो जाता। अगले रोबोट में नियंत्रक कोड भेजा जाता है।
वर्चुअल स्रोत से लक्षित रोबोट में स्थानांतरण के लिए टीम ने एक ‘गति वृक्ष’ तैयार किया। जिसमें नोड्स भुजाओं के द्योतक हैं और उनके बीच की कड़ियां जोड़ों को दर्शाती हैं। हथौड़ा मारने के कौशल को दो-उंगली की पकड़ में स्थानांतरित करने के लिए टीम ने तीन उंगलियों के नोड्स के वज़न और आकार को शून्य कर दिया। इस तरह प्रत्येक मध्यवर्ती रोबोट की उंगलियों का आकार और वज़न थोड़ा छोटा होता गया और उनको नियंत्रित करने वाले नेटवर्क को समायोजित करना सीखना पड़ा। शोधकर्ताओं ने प्रशिक्षण पद्धति में ऐसे परिवर्तन किए कि सीखने की प्रक्रिया में रोबोट्स के बीच अंतर बहुत ज़्यादा या बहुत कम न हों।
वैज्ञानिकों ने इस सिस्टम को रिवॉल्वर (Robot-Evolve-Robot) नाम दिया है। (स्रोत फीचर्स)
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हाल ही में चीन ने तिब्बती पठार पर विश्व की सबसे विशाल सौर दूरबीन स्थापित की है। डाओचेंग सोलर रेडियो टेलिस्कोप (डीएसआरटी) नामक यह दूरबीन 300 से अधिक तश्तरी के आकार के एंटीनाओं का समूह है जो 3 किलोमीटर के दायरे में फैला हुआ है। इसको स्थापित करने का कार्य 13 नवंबर को पूरा हुआ और इसका परीक्षण जून में शुरू किया जाएगा। इस वेधशाला से सौर विस्फोटों का अध्ययन करने और पृथ्वी पर इनके प्रभावों को समझने में मदद मिलेगी। आने वाले कुछ वर्षों में सूर्य अत्यधिक सक्रिय चरण में प्रवेश कर रहा है, ऐसे में डीएसआरटी द्वारा एकत्र रेडियो-आवृत्ति डैटा अन्य आवृत्ति बैंड में काम कर रही दूरबीनों के डैटा का पूरक होगा।
पिछले कुछ वर्षों में सौर अध्ययन के क्षेत्र में काफी महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं। 2018 में नासा द्वारा पार्कर सोलर प्रोब और 2020 में युरोपियन स्पेस एजेंसी द्वारा सोलर ऑर्बाइटर प्रक्षेपित किए गए थे। चीन ने भी पिछले दो वर्षों में अंतरिक्ष सौर वेधशाला सहित सूर्य का अध्ययन करने वाले चार उपग्रहों का प्रक्षेपण किया है। ये उपग्रह पराबैंगनी और एक्स-रे आवृत्तियों पर सूर्य का अध्ययन कर रहे हैं। चीन स्थित वेधशालाएं सौर गतिविधियों से सम्बंधित महत्वपूर्ण डैटा प्रदान करेंगी जो अन्य टाइम ज़ोन की दूरबीनों द्वारा देख पाना संभव नहीं है।
डीएसआईटी जैसी रेडियो दूरबीन सूर्य के ऊपरी वायुमंडल (कोरोना या आभामंडल) में होने वाली गतिविधियों (जैसे सौर लपटों और सूर्य से पदार्थों का फेंका जाना यानी कोरोनल मास इजेक्शन, सीएमई) का अध्ययन करने में काफी उपयोगी होंगी। आम तौर पर सूर्य के चुम्बकीय क्षेत्र में परिवर्तन होने पर सौर लपटों या सीएमई जैसे विशाल विस्फोट होते हैं। सीएमई के दौरान उत्सर्जित उच्च-ऊर्जा कण कृत्रिम उपग्रहों को नुकसान पहुंचाते हैं और पॉवर ग्रिड को तहस-नहस कर सकते हैं। इस वर्ष फरवरी में एक कमज़ोर सीएमई ने स्पेसएक्स द्वारा प्रक्षेपित 40 स्टारलिंक संचार उपग्रहों को नष्ट कर दिया था। अंतरिक्ष में उपग्रहों की बढ़ती संख्या के चलते अंतरिक्ष मौसम के बेहतर पूर्वानुमान की भी आवश्यकता है।
अंतरिक्ष मौसम का अनुमान लगाना काफी चुनौतीपूर्ण है। डीएसआरटी के प्रमुख इंजीनियर जिनग्ये यान के अनुसार डीएसआरटी सूर्य की डिस्क से कम से कम 36 गुना अधिक क्षेत्र में नज़र रख सकता है। यह सीएमई को ट्रैक करने और अंतरिक्ष में उच्च-ऊर्जा कणों के प्रसार की प्रक्रिया को समझने में काफी उपयोगी होगा। इससे प्राप्त जानकारी की मदद से वैज्ञानिक सीएमई उत्सर्जन और इसके पृथ्वी तक पहुंचने का अनुमान लगा सकते हैं।
यान के अनुसार डीएसआरटी से प्राप्त डैटा अंतर्राष्ट्रीय शोधकर्ताओं को भी उपलब्ध कराया जाएगा। इसके अलावा, भविष्य में डीएसआरटी का उपयोग रात के समय में पल्सर अनुसंधान वगैरह हेतु करने की भी योजना है। इसके अलावा चीन ने तिब्बती पठार में सिनचुआन पर एक नई दूरबीन स्थापित करने की भी योजना बनाई है जिसके 2026 तक पूरी होने की उम्मीद है। (स्रोत फीचर्स)
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पिछले लेखों में हमने एआई के विज्ञान और दर्शन के पक्ष पर बात रखी थी। आम तौर पर लोग वैज्ञानिक खोज के व्यावहारिक इस्तेमाल को टेक्नॉलॉजी कह देते हैं। दरअसल बहुत सारी वैज्ञानिक जांच और खोज पहले से मौजूद टेक्नॉलॉजी की मदद से ही मुमकिन हो पाती है। एआई भी ऐसा एक क्षेत्र है जिसमें विज्ञान और टेक्नॉलॉजी परस्पर गड्ड-मड्ड हैं। टेक्नॉलॉजी महज तकनीक या औज़ार नहीं होती, बल्कि एक सांगठनिक खाके के साथ ही यह वजूद में आती है। और जैसा किसी भी टेक्नॉलॉजी के साथ होता है, जब यह सही तरीके से काम नहीं करती है तो भयंकर हादसे तक हो जाते हैं। टेक्नॉलॉजी जिस सामाजिक या सियासी खाके के साथ जुड़ी होती है, उसके निहित स्वार्थ तय करते हैं कि इसका फायदा किसे मिलेगा और नुकसान किसे होगा। एआई कुछ अलग नहीं है।
एआई के कई व्यावहारिक उपयोगों में एक यह है कि किसी तस्वीर में से चीज़ों की पहचान जल्द से जल्द कैसे की जाए। खास तौर पर किसी शख्स की पहचान करना आज एआई का आम इस्तेमाल बन गया है। दुनिया भर में सरकारें इस तकनीक का इस्तेमाल करती हैं। हमारे मुल्क में भी दिल्ली, बेंगलुरु जैसे बड़े हवाई अड्डों पर शक्ल की पहचान के कैमरे लगे हुए हैं, जिनके ज़रिए आप की तस्वीर कंप्यूटर में कैद हो जाती है। फिलहाल यह स्वैच्छिक तौर पर हो रहा है।
यह महज फोटो खींचने या वीडियो बनाने वाली बात नहीं है, जो सीसीटीवी (closed-circuit television) से होता है। जैसे हर शख्स का खास डीएनए होता है, या हाथ और उंगलियों की खास लकीरें होती हैं, वैसे ही चेहरे की खास पहचान होती है। शक्ल में हाड़-मांस-चमड़े के उतार-चढ़ाव को आकड़ों में दर्ज कर लिया जाता है। इसे मशीन विज़न सिस्टम कहा जाता है। आम नागरिकों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। पर अपने विरोधियों पर नज़र रखने के लिए सरकारें इस टेक्नॉलॉजी का भरपूर इस्तेमाल कर रही हैं। अगर यह महज आतंकवादियों की पहचान करने तक सीमित होता, तो अच्छी बात होती। खतरनाक बात यह है कि अगर दर्ज सूचना में गलती रह जाए और इस वजह से किसी की गलत पहचान हो तो नतीजे भयंकर हो सकते हैं। इसकी एक मिसाल ड्रोन (चालक-रहित हवाई जहाज़) के जरिए बमबारी या मिसाइलें दागने का है।
सोचने पर लगता है कि शक्ल से पहचान के लिए इकट्ठा किए गए आंकड़ों में ज़्यादा कुछ तो होगा नहीं, आखिर आंखें, नाक, होंठ, यही तो हैं – या दाढ़ी-मूंछ है या नहीं, बस। पर असल में शक्ल में उतार-चढ़ाव की जटिलता कल्पना से भी ज़्यादा है। हम अक्सर किसी एक आदमी को देखकर किसी और के बारे में सोचने लगते हैं। कभी-कभी तो गलती से किसी को कोई और समझ बैठते हैं। यानी बात सिर्फ शक्ल को ज़हन में दर्ज करने की नहीं है, बाद में याददाश्त भी होनी चाहिए कि दर्ज की हुई पहचान किसकी थी। औसतन इंसान की शक्ल का फैलाव तकरीबन आधा फुट की भुजा के वर्ग के आकार का है, और साथ में तीसरा आयाम उतार-चढ़ाव का है। एक ग्राफ पेपर पर इसे दिखाया जा सकता है। अगर ग्राफ में सबसे छोटा वर्ग 1 वर्ग मि.मी. का है तो फैलाव को हम 150-150 यानी 22,500 वर्गों में बांट सकते हैं। हर छोटे वर्ग में रंगों की मदद से उतार-चढ़ाव दिखाया जा सकता है। अगर हम 16 रंगों का इस्तेमाल करें तो यह 22,500X16=3,60,000 आंकड़े हो गए। इसके बाद बात आती है चमड़े की बनावट या गठन की। हर बिंदु पर यह बदलती है। बढ़ती उम्र के साथ इसमें बदलाव आते हैं। लब्बोलुबाब यह कि शक्ल की पहचान जितना आसान मसला लगता है, उतना है नहीं। जितनी जटिलता होगी, उतने ही ज़्यादा आंकड़े होंगे और उनका हिसाब रख पाना उतना ही धीमा होगा। इसलिए शक्ल की पहचान में तकरीबन सही नतीजे पर पहुंचना हाल में ही मुमकिन हो पाया है। इसके लिए न्यूरल नेटवर्क और डीप लर्निंग का इस्तेमाल हो रहा है। इसे मुख्यत: चार चरणों में रखा जा सकता है – पहले चरण में शक्ल की तस्वीर लेकर उसे आंकड़ों में तबदील किया जाता है। जिस तरह हमारे दिमाग में किसी छवि को संजोए रखने के लिए उसे टुकड़ों में बांट कर अलग-अलग कोनों में जमा रखा जाता है, वैसे ही कंप्यूटर में भी छवि को अलग-अलग खासियतों में बांट कर दर्ज किया जाता है। दूसरे चरण में पूरी शक्ल को एक से दूसरी ओर तक ट्रैक करते हुए टुकड़ों में छोटे से छोटे हिस्से की तस्वीर ली जाती है। इसे पहले पूरी तस्वीर से दर्ज किए आंकड़ों के पूरक की तरह मान सकते हैं। तीसरे चरण में आंकड़ों को इस तरह बांटा जाता है (सेग्मेंटेशन – segmentation) ताकि बाद में उन्हें किसी मॉडल में शामिल करने में आसानी हो। मसलन अगर किसी कैनवस के हर हिस्से में अलग-अलग अनुपात में नीला और पीला रंग मिलाकर बिखेरा गया है, तो हमें अलग-अलग गहराई में बिखरे हरे रंग की तस्वीर दिखती है। हम इसे दो सूचियों में बांटकर आंकड़ों में दर्ज़ कर सकते हैं। एक सूची नीले रंग के और दूसरी पीले रंग के अनुपात को दर्ज़ करेगी। बाद में हम इसी अनुपात में दोनों रंग मिलाकर मूल तस्वीर फिर से बना सकते हैं। आखिरी चरण दर्ज आंकड़ों से मूल शक्ल को तैयार करने (रेस्टोरेशन – restoration) का है।
ऐसा लगता है कि शक्ल की पहचान इतना भी मुश्किल काम नहीं है। पर आज तक एआई के शोध में यह सबसे जटिल और चुनौतियों से भरी पहेलियों में से एक है। ऊपर बताए हर चरण में जटिलताएं हैं। मसलन ट्रैकिंग को ही लें। जब कैमरा ट्रैक कर रहा है, सांस लेने-छोड़ने जैसी कई वजहों से शक्ल में त्वचा का खिंचाव बदल सकता है। कैमरे में तस्वीर का बनना रोशनी पर निर्भर है। किस तरह का प्रकाश कहां से शक्ल पर पहुंच रहा है, उसमें कितना दूसरी चीज़ों से बिखर कर आ रहा है, ये बातें ली गई तस्वीर का मान तय करती हैं। इसलिए एक ही चीज़ पर दोहराई गई ट्रैकिंग में हर बार अलग आंकड़े दर्ज होते हैं। तीसरे और चौथे चरणों में आंकड़ों को संजोने और उनकी काट-छांट में कैसे नेटवर्क इस्तेमाल किए गए हैं, इससे आंकड़ों की प्रोसेसिंग पर असर पड़ता है। यानी मूल शक्ल को तैयार करने में गलत नतीजे मिलना मुमकिन है।
शक्ल की पहचान सिर्फ इंसान के लिए नहीं, बल्कि कई तरह के संदर्भों में अहम है। जैसे बिना ड्राइवर वाली गाड़ी के कैमरों में जो कुछ दर्ज होता रहता है, उसे पहले से दर्ज तस्वीरों के साथ तुलना कर हिसाब लगाया जाता है कि गाड़ी को आगे बढ़ाना है या नहीं, और यदि बढ़ाना है तो कितनी रफ्तार से और कैसी सावधानियों के साथ बढ़ाना है आदि। पश्चिमी मुल्कों में ऐसी गाड़ियों के टेस्ट-ड्राइव के दौरान एकाध हादसे हुए हैं, यानी मशीन द्वारा सामने आ रही चीजों की सही पहचान नहीं हो पाई थी।
कुदरती चीज़ों को कंप्यूटरों में दर्ज कर बाद में उसकी सही पहचान कर पाना इसलिए भी मुश्किल है कि कुदरत में बहुत सारी बातें संजोग से होती हैं। एक गाड़ी के सामने पड़ा हुआ छोटा बेजान पत्थर कभी अचानक उछल सकता है, क्योंकि कहीं और से कुछ आ टकराए या पत्थर के अंदर किसी छेद में कुछ फूट पड़े – ऐसी कई बातें अचानक घट सकती हैं, जिनका हिसाब पहले से नहीं रखा जा सकता है। इसलिए न्यूरल नेटवर्क की गणनाओं में संभाविता के आधार पर बदलाव किए जाते हैं। एआई के शोध में यह भी एक चुनौतियों भरा काम है, क्योंकि संजोग को गणना में शामिल करने का मतलब अक्सर यह होता है कि आंकड़ों के कई समूह इकट्ठे किए जाएं और उनका सांख्यिकी के कायदों (जैसे औसत मान आदि) का इस्तेमाल कर विश्लेषण किया जाए। इससे आंकड़ों की तादाद कई गुना बढ़ जाती है। दूसरे गणितीय तरीकों को भी अपनाया जाता है, पर ऐसी हर कोशिश नई चुनौतियां पेश करती है।
कोई भी टेक्नॉलॉजी संदर्भ-निरपेक्ष नहीं होती है। इसलिए हर टेक्नॉलॉजी के विकास में ज़्यादा से ज़्यादा लोगों की भागीदारी होनी चाहिए ताकि लोग अपने भले-बुरे का फैसला कर सकें और विकास को सही दिशा दे सकें। एआई के गलत इस्तेमाल से अक्सर बड़ी तबाही हुई है। शक्ल की पहचान से आम जनता को एक दायरे में बांधे रखना लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ जाता है। आज जो जंग लड़ी जाती हैं, उनमें पहले की जंगों जैसी आमने-सामने की मुठभेड़ नहीं होती। आज धरती के एक छोर से उड़कर ड्रोन दूसरे छोर तक पहुंचते हैं। उनमें लगे कैमरों से तस्वीरें पल भर में वापस कंट्रोल-रूम तक भेजी जाती हैं, जहां फटाफट कंप्यूटरों में एआई द्वारा बमबारी का निशाना तय कर लिया जाता है और मिसाइल दाग दी जाती है। जाहिर है, मिसाइल चलाने वालों और टार्गेट के बीच न सिर्फ बहुत बड़ी भौगोलिक, बल्कि विशाल मनोवैज्ञानिक दूरी होती है। पिछले दशक में किसी ज़मीनी जंग में शामिल एक फौजी से भी ज़्यादा हत्याएं ड्रोन और मिसाइल चलाने वाले आभासी पायलटों ने की हैं। अक्सर इनमें फौजी टार्गेट की जगह आम नागरिक मारे जाते हैं। हाल में अफगानिस्तान में अमेरिकी ड्रोन द्वारा गलत निशाना तय होने की वजह से एक दर्जन से ज़्यादा आम नागरिक मारे गए थे। आम तौर पर ऐसे ड्रोन चलाने वाले भी घोर मानसिक तकलीफों से गुज़रते हैं। कई तो काम छोड़कर जंगलों में जा छिपते हैं, क्योंकि निर्दोष नागरिकों की, जिनमें अक्सर बच्चे भी होते हैं, हत्या का बोझ मनोवैज्ञानिक नासूर बनकर उन्हें ताज़िंदगी कचोटता है।
ऐसी तमाम बातें दुनिया भर में लोकतांत्रिक सोच रखने वाले लोगों को परेशान करती रही हैं। एआई की तड़क-भड़क और शोर मोहक है, पर इसके नुकसान भी कम नहीं हैं। इस बारे में सचेत रहना हरेक नागरिक की ज़िम्मेदारी है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://shooliniuniversity.com/blog/wp-content/uploads/2021/08/artificial-intelligence-shoolini-university-best-himachal-pradesh-university.jpg
पिछले लेख में हमने कंप्यूटर और इंसानी दिमाग में व्यावहारिक गुणों में एकरूपता (फंक्शनलिज़्म) का ज़िक्र किया था। एआई का आखिरी मकसद यह है कि एक दिन दिमाग के हरेक जैविक न्यूरॉन की जगह इलेक्ट्रॉनिक न्यूरॉन (लॉजिक गेट से गुज़रते इलेक्ट्रॉन समूह) रख दिया जाएगा, जिससे इंसान की ही छवि में मशीन बन जाएगी। यह कल्पना बेमानी नहीं है। आखिर कंप्यूटेशन के नज़रिए से जैविक न्यूरॉन और इलेक्ट्रॉनिक न्यूरॉन समकक्ष हैं। लेकिन सोचने वाली बात यह है कि क्या एक-एक करके जैविक न्यूरॉन के स्थान पर इलेक्ट्रॉनिक न्यूरॉन को लगाने पर चेतना वैसी ही बनी रहेगी जैसी कि इंसान में होती है।
मशीन में ज्ञान रोपने के लिए इस बात पर विचार करना लाज़मी है कि ज्ञान क्या है, इसे कैसे पाते हैं, कैसे संजोते हैं, आदि। लिहाज़ा दार्शनिक चिंतन एआई का अहम हिस्सा है। दार्शनिक सवालों के जवाब हमेशा नहीं मिलते, पर इससे एआई विज्ञानी घबराते नहीं हैं। तर्क पर आधारित सोच का खाका कामयाबी की ओर ले जाता है। अब तक कई तरह की कामयाब मशीनें बन चुकी हैं – अजेय शतरंज खिलाड़ी; सामान्य समझ दिखलाते और आम सवालों का जवाब देते, चलते-फिरते, छोटे-मोटे काम करते रोबोट; कैमरे से लिए गए फोटो में कैद कई सारी चीज़ों को विस्तार से समझ लेने (कंप्यूटर विज़न) वाले रोबोट, आदि। इन सभी में परिवेश की जानकारी लेते एजेंट हैं, जो जानकारी को संज्ञान के स्तर तक संजोते हैं और फिर इस आधार पर उचित कदम उठाते हैं। यानी एहसास कर पाने और कदम उठाने के बीच संज्ञान एक पुल की तरह है। एआई की तरक्की इसी पुल के लगातार मज़बूत होते जाने की कहानी है। बेशक यह तरक्की दायरे में बंधे सवालों पर ज़्यादा और बुनियादी सवालों पर कम केंद्रित है। मसलन मशीन की मदद से एक से दूसरी ज़बान में तर्जुमा कभी मशीन में शब्दकोश डालने जैसा आसान प्रोजेक्ट माना जाता था, पर बाद में समझ बनी कि यह बहुत मुश्किल काम है। मशीनों में डालने के लिए तमाम किस्म के तथ्यों को इकट्ठा करने पर भी काम हुआ, जिसे साइक (CYC – encyclopedia) प्रोजेक्ट कहते हैं।
तथ्यों की पर्याप्त जानकारी न हो तो मशीन की क्षमता इंसान के आसपास भी नहीं आ सकती। मसलन, मेडिकल तथ्यों से लैस कोई मशीन एक खटारा गाड़ी को बीमार मानकर दवाएं लेने को कह सकती है, जो इंसान कभी नहीं करेगा। इंसानी दिमाग दसियों हज़ारों सालों के जैविक और सांस्कृतिक विकास से बना है। जीवनकाल में वह लगातार सीखता रहता है, जिससे वह आसानी से किसी बात का प्रसंग समझ लेता है। यह सब मशीन में डाल पाना आसान नहीं है।
मुश्किल आसान करने के लिए कुछ आम तरीके अपनाए जाते हैं: जैसे काम को सरल टुकड़ों में बांटना। कई लोग मानते हैं कि दिमाग दरअसल कई छोटे-छोटे कंप्यूटरों का समूह है, जिनमें से कुछ खुदमुख्तार हैं। पिछली सदी के नौवें दशक में अमरीकी दार्शनिक जेरी फोदोर ने कहा था कि मानस खास कामों के लिए बने अलग-अलग टुकड़ों से मिलकर बना है। पर कौन-सा टुकड़ा कहां है, यह कहना मुश्किल है। हर टुकड़े पर आधारित मशीन बनाई जा सकती है। जैसे भाषा ज्ञान, गणित के सवाल, चित्रकला आदि अलग-अलग काम के लिए मॉडल रोबोट बनाए जा सकते हैं और धीरे-धीरे सबको साथ रखकर एक से ज़्यादा काम कर सकने वाली मशीनें भी बनाई जा सकती हैं। साथ ही दिमाग के बारे में भी समझ बढ़ती चलेगी।
इंसान के दिमाग में तंत्रिकाओं का एक विशाल जाल-सा काम करता है, जिसमें एक से दूसरे न्यूरॉन के बीच तेज़ी से संवाद चलता रहता है। यह जैव-रासायनिक वजहों से हो रहे विद्युत के प्रवाह के ज़रिए होता है। इसी आधार पर वैज्ञानिकों ने कनेक्शनिस्ट (connectionist) मॉडल बनाए हैं, जो गणनाओं के लिए प्रभावी साबित हुए हैं। ऐसे मॉडल को कृत्रिम न्यूरल नेटवर्क (ANN – artificial neural network) कहा जाता है।
आम तौर पर कुदरत में सीधी लकीर पर चलने वाली यानी रैखिक या लीनियर घटनाएं नहीं होतीं; यानी किसी एक राशि (इनपुट) को किसी अनुपात में बढ़ाया जाए, तो कोई दूसरी राशि ठीक उसी अनुपात में घटे-बढ़े, ऐसा नहीं होता है। पर आसानी के लिए सीमित दायरे में रैखिक मॉडल बनाना आधुनिक विज्ञान की नींव रही है। इससे सर्वांगीण समझ नहीं बनती, पर कुदरत के बारे में बहुत सारी समझ ऐसे ही हमें मिली है।
अब चूंकि कंप्यूटर तेज़ी से गणनाएं कर लेते हैं, इसलिए रैखिक मॉडल की जगह कनेक्शनिस्ट मॉडल ले रहे हैं। इनपुट और आउटपुट कई राशियों के बीच सम्बंधों के अनगिनत समीकरण हो सकते हैं। अनुमान के आधार पर समीकरण तय करें तो सही आउटपुट नहीं मिलता। किंतु जिन घटनाओं के बारे में जानकारी पहले से है, उनकी गणना में असलियत से जो फर्क दिखता है, उसे वापस इनपुट में शामिल करके फिर से गणना की जाए तो पहले से बेहतर समीकरण मिलते हैं। इस प्रक्रिया को बार-बार दोहराएं यानी हर बार जो फर्क दिखे, उसे इनपुट में डालते जाएं तो धीरे-धीरे सारे समीकरण सही हो जाएंगे।
जैसे, कल्पना करें कि आप सड़क पर चल रहे हैं और रास्ते में गड्ढा दिखता है। दिमाग इस बात को दर्ज करता है और राह बदलता है। एक नवजात बच्चा अपने सामने रखी किसी चीज़ की सही दूरी तय नहीं कर पाता तो वह उंगली से उसे छूने की कोशिश करता है। दो-चार कोशिशों के बाद वह सही दिशा में सही दूरी तक पहुंच जाता है। इसी तरह मशीन को भी सिखाया जाता है। इसे मशीन लर्निंग (ML – machine learning) कहा जाता है। सिर्फ बेहतर रोबोट बनाने के लिए ही नहीं, बल्कि विज्ञान की कई पहेलियों को हल करने में एआई का आम इस्तेमाल इसी तरीके से हो रहा है और यह बड़ी तेज़ी से बढ़ रहा है। इसकी मदद से नई दवाइयां बनाई गई हैं, कोरोना जैसी बीमारी के प्रसार के पैटर्न को समझा गया है और तमाम किस्म के सवाल हल किए गए हैं। बीमा कंपनियां और स्टॉक मार्केट इसका भरपूर इस्तेमाल कर रहे हैं।
एक तरीका यह भी है कि समीकरणों के एक समूह के बाद दूसरे और समीकरण समूहों को हल किया जाए – इन समूहों को परत (layer) कहते हैं। कई परतों वाले नेटवर्क को डीप लर्निंग (deep learning) कहा जाता है। नेटवर्क के विवरण के लिए एक्सॉन (axon – न्यूरॉन में बिजली के प्रवाह के पड़ाव) जैसे लफ्ज़ों का इस्तेमाल होता है, जो तंत्रिका-विज्ञान से उधार लिए गए हैं। गौरतलब है कि जिस्म में न्यूरॉन बिजली के आवेग प्रवाहित करते हैं और मशीन में इनकी जगह गणना की राशियां होती हैं। पर बुनियादी तौर पर उनमें समानता है। जैविक न्यूरॉन एक सेकंड में हज़ार से ज़्यादा सिग्नल नहीं भेज सकते। इंसान के दिमाग की तुलना में कंप्यूटर करोड़ गुना ज़्यादा तेज़ी से गणना कर पाते हैं, फिर भी आज तक इंसान जैसी चेतना किसी मशीन में नहीं आ पाई है। इंसान का दिमाग पल भर में जटिल फैसले ले सकता है; गणनाओं में करोड़ गुना तेज़ होने के बावजूद कंप्यूटर वैसा नहीं कर पाते हैं। सड़क पर कोई परिचित मिले तो उसे पहचानने में हमें पल भर लगता है, जबकि कंप्यूटर जानकारी दर्ज करता हुआ अपनी गणनाओं में उलझा रहता है और इसमें कुछ पल लग सकते हैं। कुदरत में बहुत सारी गणनाएं समांतर चलती हैं। जब हम कुछ देखते-सुनते हैं तो एक साथ बहुत सारी बातें दिमाग में दर्ज हो रही होती हैं, भले ही सारी जानकारी हमारे काम की न हों। जो छवि दिमाग में बनती है, उस जानकारी को बांट कर अनगिनत कोनों में सर्वांगीण रूप से दर्ज किया जाता है। आधुनिक कंप्यूटर भी समांतर प्रोसेसिंग करते हैं। मोबाइल फोन तक में एक से ज़्यादा प्रोसेसर आने लगे हैं। ANN में, खास तौर से डीप लर्निंग में इस बात का भरपूर फायदा उठाया जाता है। पर इस दौड़ में अभी तक कुदरत आगे है। दूसरी बात यह कि कुदरत में कुछ भी ज़रा सी चोट लगने पर देर-सबेर अपने आप ठीक हो जाता है, पर मशीनों में यह क्षमता बहुत ही कम है।
आज कंप्यूटर जिस तरह के अर्द्धचालक (सेमी-कंडक्टर) सिलिकॉन के विज्ञान पर आधारित हैं, उसमें एक हद से आगे बढ़ना नामुमकिन है। मशहूर गणितज्ञ रॉजर पेनरोज़ का कहना है कि आगे बढ़ने के लिए क्वांटम गतिकी पर आधारित कंप्यूटेशन अपनाना होगा। आज इस्तेमाल होने वाले कंप्यूटरों को क्लासिकल कहा जाता है, हालांकि सेमी-कंडक्टर की भौतिकी में भी क्वांटम गतिकी का इस्तेमाल होता है। आज के माइक्रो-प्रोसेसर या चिप में ट्रांज़िस्टर इतने छोटे हो गए हैं कि वे कुछेक अणुओं के आकार तक पहुंच गए हैं। इससे आगे कंप्यूटरों की सूचना जमा करने की क्षमता या रफ्तार में ज़्यादा बढ़त मुमकिन न होगी। पिछले तीन दशकों से एक नई दिशा विकसित हुई है, जिसे क्वांटम कंप्यूटर कहते हैं। इसमें अणु-परमाणुओं के खास गुणों का इस्तेमाल होता है, जिन्हें क्लासिकल भौतिकी से कतई समझा नहीं जा सकता है।
पेनरोज़ का मत है कि हमें जिस्म और मानस को अलग-अलग करने की ज़रूरत नहीं है, पर चेतना के लिए जो एमर्जेंट या योगेतर गुण चाहिए वे क्वांटम गतिकी से ही मुमकिन होंगे। यानी आज के कंप्यूटरों का इस्तेमाल कर हम मशीन में इंटेलिजेंस नहीं ला सकते हैं। पेनरोज़ कुर्ट गॉडेल की मशहूर प्रमेय का सहारा लेते हैं, जिसके मुताबिक गणित के कुछ सच ऐसे हैं, जिन्हें गणनाओं के जरिए सिद्ध नहीं किया जा सकता। चूंकि कंप्यूटर से निकला हर नतीजा गणनाओं से आता है, इसलिए वे ऐसी हर बात नहीं कर सकते जो इंसान कर सकते हैं। यानी चेतना में गणना से अलग कुछ है, जिसकी खोज हमें करनी है। ये बातें शायद रहस्यवाद जैसी लग सकती हैं।
एआई अब आधी सदी की उम्र गुज़ार चुका है। समझ यह बनी है कि जिस तरह जिस्म के बिना सोचने वाला मानस नहीं होता, उसी तरह मशीन अपने आप में सोच नहीं सकती। पर इंसान की सोच पूरी तरह खुदमुख्तार नहीं होती है, वह एक बड़े परिवेश में ही फलती-फूलती है। सबक यह है कि इसी तरह मशीन को भी परिवेश में फलने-फूलने लायक बनाना होगा। जैविक विकास से मिली सीख के मुताबिक छोटी मशीनों के साथ ऐसे प्रयोग हो रहे हैं। कोशिश यह है कि छोटे स्तर पर मिली कामयाबी को धीरे-धीरे बड़े पैमाने पर विकसित किया जाए। एआई विज्ञानी आज भी दर्प के साथ भविष्यवाणियां करते हैं, और वक्त के साथ गलत साबित होते रहते हैं। फिर भी एआई हमारे जीवन का हिस्सा बन चुका है। रोबोट मशीनें और कंप्यूटर चालित हिसाब-किताब हर पल हमारे साथ हैं। शायद अगली पीढ़ियां ही जान पाएंगी कि रोबोट इंसान से ज़्यादा दानिशमंद होंगे या नहीं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://shooliniuniversity.com/blog/wp-content/uploads/2021/08/artificial-intelligence-shoolini-university-best-himachal-pradesh-university.jpg
पिछले लेख में हमने रोबोट और कंप्यूटर का ज़िक्र किया था। सत्तर साल पहले अपने शुरुआती दौर में रोबोट-विज्ञान या रोबोटिक्स कंप्यूटरों पर निर्भर नहीं होता था, क्योंकि तब आज जैसे तेज़ रफ्तार से चलने और बड़ी तादाद में आंकड़े संजोने वाले कंप्यूटर होते नहीं थे। जैसे एक क्रेन बिजली से काम करती है, ऐसे ही रोबोट मशीनें बनाई जाती थीं, जो सामान उठाने, उतारने या खतरनाक जगहों में (जैसे बारूदी सुरंगों से निपटना या रेडियो-सक्रिय सामग्री को समेटना) इंसान की मदद के काम आएं। यानी तब रोबोट महज़ मशीनें थीं जो इंसान जैसी दिखती थीं।
कंप्यूटर टेक्नॉलॉजी में दिन दूनी रात चौगुनी रफ्तार से तरक्की हुई। 1965 में इलेक्ट्रॉनिक्स इंजीनियर और कारोबारी गॉर्डन मूर ने कहा था कि हर साल माइक्रोचिप में ट्रांज़िस्टर की तादाद दुगनी हो जाएगी और फिर 1975 में उन्होंने अनुमान लगाया था कि ऐसा हर दो साल में होगा। आंकड़े या सूचना संजोने और तेज़ रफ्तार से सवाल हल करने या सूचना की प्रोसेसिंग दोनों में इसी रफ्तार से बढ़त हुई है। नतीजतन हर विधा की तरह रोबोटिक्स में भी कंप्यूटरों का इस्तेमाल बढ़ गया।
अस्सी के दशक में अमोनिया और मीथेन जैसे छोटे अणुओं से अमीनो अम्ल जैसे बड़े अणुओं के बनने से लेकर आखिरकार जीवन के मुमकिन हो पाने की समझ आधी सदी पहले से बनी थी। उसी आधार पर मानव-निर्मित जीवन या आर्टीफिशियल लाइफ पर बहुत काम हुआ। कंप्यूटर पर खेलने वाले प्रोग्राम लिखे गए – जैसे एक खेल का नाम ‘गेम ऑफ लाइफ’ था, जिसमें टुकड़े आपस में टकराकर छोटे-बड़े होते थे और आखिर में बड़े आकार के बन जाते थे। बाद में यह भी एआई का हिस्सा बन गया।
मनोविज्ञान और एआई, इन दोनों विषयों के बुनियादी सवाल एक जैसे हैं। आज मनोविज्ञान की एक शाखा (जिसे अब अपने-आप में अलग विषय जाना जाता है) संज्ञान का विज्ञान या कॉग्निटिव साइंस को एआई की शाखा माना जाता है। इसमें यह समझने की कोशिश होती है कि हम किसी चीज़ को समझते कैसे हैं यानी जो भी जैव-रासायनिक प्रक्रियाएं हमारे जिस्म में होती हैं, वे संज्ञान तक कैसे बढ़ जाती हैं। क्या दिमाग भी एक कंप्यूटर है? ऐसे खयालों ने एआई वैज्ञानिकों में यह मुगालता पैदा कर दिया कि बड़ी जल्दी ही समूचा मनोविज्ञान कंप्यूटर प्रोग्रामों की तरह बूझ लिया जाएगा। ज़ाहिर है, ये सवाल दार्शनिक हैं और सदियों से दुनिया भर में चिंतकों ने इन पर माथा खपाया है।
दर्शन शास्त्र में हमेशा से ही यह बहस रही है कि जिस्म और मन का क्या रिश्ता है। क्या मन और जिस्म अलग-अलग हैं या जिस्म से अलग मन का कोई वजूद नहीं है? सत्रहवीं सदी में युरोप में आधुनिक विज्ञान की शुरुआत में रेने देकार्ते ने कहा था कि जिस्म और मानस अलग चीज़ें हैं। आज ऐसा नहीं माना जाता, हालांकि इस पर कोई आखिरी समझ अभी भी नहीं बन पाई है।
कई एआई वैज्ञानिक मानते हैं कि दिमाग और मन का रिश्ता कंप्यूटर और प्रोग्राम की तरह है। यानी कंप्यूटर लोहे-लंगड़ से बनी मशीन है, पर प्रोग्राम के बिना वह कुछ भी नहीं है; इसी तरह जिस्म में दिमाग जैव-रासायनिक घटकों से बना हार्डवेयर है, पर कुछ ऐसा है जो मन या सॉफ्टवेयर है, जो उसका वजूद मानीखेज़ बनाता है। जैसे प्रोग्राम महज लिखा जाता है, उसके भौतिक वजूद पर बात बेमानी है, इसी तरह मन के बारे में कुछ कह पाना मुश्किल है।
आखिर असली और गढ़ी गई (गैरकुदरती) बुद्धि या समझ किस मायने में भिन्न हैं? हर जानवर एक हद तक सोचता-समझता है और जीवन के धागे बुनता है, पर क्या यही बुद्धि है? इस सवाल का कोई साफ जवाब नहीं है। एआई में बुद्धि को जीवन में कुछ भी कर पाने के लिए कंप्यूटर की तरह गणनाओं या सूचनाओं का लेन-देन माना जाता है। इसमें दीगर जानवरों की तुलना में इंसान ज़्यादा काबिल हैं। मसलन भाषा जैसी काबिलियत दूसरे जानवरों में कम विकसित है। एआई के शुरुआती दौर में सैद्धांतिक पक्ष को साइबरनेटिक्स कहा जाता था, जिसमें यह माना गया कि इंसान, दीगर जानवर, और मशीनें, इन सब को चलाने वाले कायदे एक जैसे हैं, हालांकि वे अलग-अलग चीज़ों से बने ढांचे हैं। इसी आधार पर ऐसे रोबोट बनाए गए जो कुछ हद तक अपने आप काम करते थे; जैसे पहियों पर चलने वाले रोशनी के पास या दूर जाने वाले कछुए जैसे रोबोट, जो बैटरी का चार्ज खत्म होने पर खुद से रीचार्ज के लिए बिजली के सॉकेट तक आ जाते हैं। रोचक बात यह है कि ऐसे रोबोट के बारे में पहले से अनुमान लगाना मुश्किल है कि वे कब कहां जाएंगे या कब रीचार्ज करेंगे यानी ऐसी जटिल बातें वो अपने आप तय कर रहे हैं। पर यह काबिलियत वह बुद्धि नहीं है, जिसे इंटेलिजेंस कहते हैं। बुद्धि में भाषा-ज्ञान, याददाश्त, सीखने की काबिलियत, तर्कशीलता आदि बातें शामिल हैं। रोबोट तो परिवेश में मौजूद चीज़ों के मुताबिक अपना व्यवहार बदलते हैं, जबकि बुद्धि में कुछ तो अंदरूनी है।
भाषाविज्ञानी नोम चोम्स्की का मानना है कि भाषा सीखने की जन्मजात काबिलियत के बरक्स परिवेश में मौजूद चीज़ों या तजुर्बों का असर भाषा-ज्ञान पर कम होता है। एआई का बहुत सारा शोध इस सोच पर हो रहा है कि ऐसी काबिलियत जिस्म की अंदरूनी प्रक्रियाओं से ही बनती है, जबकि रोबोटिक्स में परिवेश के साथ जद्दोजहद एक लगातार चल रहा संघर्ष है।
ये एआई की दो अलग-अलग धाराएं हैं। एक संज्ञान का विज्ञान और दूसरी रोबोट मशीनें। पहली धारा में कंप्यूटेशन यानी अमूर्त गणनाओं को ही संज्ञान का आधार माना गया है। इसमें कंप्यूटेशन के दार्शनिक आधार को समझना लाज़मी है, जो एक विकसित, पर साथ ही अनसुलझा मुद्दा है। वॉरेन मैकलो और वाल्टर पिट्स नामक दो वैज्ञानिकों ने यह दिखलाया था कि दिमाग में काम कर रहे न्यूरॉन का खाका सैद्धांतिक रूप से कंप्यूटर के अंदरूनी खाके की तरह है। न्यूरॉन कंप्यूटर में गणनाओं के लिए बने लॉजिक गेट की तरह काम करते हैं और इनका एक जैसा इस्तेमाल हो सकता है। दिमाग समेत ऐसी किसी भी मशीन को एक बुनियादी कंप्यूटर की तरह समझा जा सकता है।
मशहूर गणितज्ञ और दार्शनिक ऐलन ट्यूरिंग के नाम पर इस बुनियादी कंप्यूटर को ट्यूरिंग मशीन कहा जाता है, जो किसी भी तरह के (युनिवर्सल) कंप्यूटेशन का मॉडल पेश करती है। ज़ाहिर है, सिद्धांत में एक जैसी होने के बावजूद हर मशीन के काम करने का तरीका अलग होता है। यानी कंप्यूटर प्रोग्राम कीबोर्ड से लिखे जाते हैं और बिजली के सर्किटों से चलते हैं, पर दिमाग न्यूरॉन सिग्नलों (जैव-रासायनिक) से चलता है। अगर दोनों एक ही जैसे काम (फंक्शन) कर रहे हैं तो व्यावहारिक तौर पर दोनों को एक ही माना जा सकता है। मन और जिस्म में फर्क करने वाले इस खयाल को फंक्शनलिज़्म (functionalism) कहा जाता है। इसके मुताबिक संज्ञान किसी एक मशीन या दिमाग के दायरे में बंधा नहीं है, बल्कि महज़ एक ढांचे की (दिमाग या कंप्यूटर का हार्डवेयर) मदद से यह सक्रिय हो रहा है। यानी कुछ संकेतों (लॉजिक गेट) की मदद से हम सही समझ पाते हैं और जीवन की गाड़ी चल पड़ती है। जहां तक खयाली दुनिया में गोते लगाने की बात है, इसके लिए ट्यूरिंग ने एक टेस्ट सोचा। अगर किसी मशीन से इंसान को यह भ्रम हो कि वो वाकई में मशीन नहीं, बल्कि कोई इंसान है, तो वो मशीन ट्यूरिंग टेस्ट पास कर जाएगी। 1990 में इस आधार पर एक पुरस्कार की घोषणा हुई कि कोई भी ट्यूरिंग टेस्ट पास करने वाली पहली मशीन बना ले तो उसे एक लाख डॉलर दिए जाएंगे। अभी तक यह पुरस्कार किसी को नहीं मिला है। एक समस्या यह है कि यह टेस्ट पूरी तरह इंसान और मशीन के बीच बातचीत पर निर्भर है यानी यह महज भाषा के पक्ष पर आधारित है। अगर कोई मशीन भाषा की तमाम जटिलताओं में माहिर हो जाए तो हो सकता है कि वह ट्यूरिंग टेस्ट पास कर जाए, पर क्या हम उसे इंटेलिजेंट कह सकते हैं?
एआई में जटिलता या कॉम्प्लेक्सिटी (complexity) थिअरी नामक विज्ञान की धारा का भी इस्तेमाल हुआ है, जिसमें किसी चीज़ में विकसित हुए जटिल खाके के मुताबिक उसकी फितरत में बदलाव आता है। मसलन एक छोटी चिंगारी आसपास की जलने वाली चीज़ों में आग लगा सकती है, पर एक निश्चित आकार के बाद ही वह दावानल बन भड़क सकती है। इसी तरह जब बच्चे रेत का ढेर बनाते हैं, तो देर तक वह पिरामिड-सा बढ़ता है, पर एक हद के बाद वह भरभराकर गिर पड़ता है। इसे एमर्जेंट यानी योगेतर गुण कहा जाता है – ऐसा गुण जो किसी चीज़ के अलग-अलग टुकड़ों में नहीं होता मगर पूरी चीज़ में उभरकर दिखता है। कुदरत में कई टुकड़ों के अपने-आप एक खाके में जुड़कर कुछ अनोखा होने की कई मिसालें हैं, जिसे सेल्फ-ऑर्गनाइज़ेशन (खुद को संगठित करना) कहा जाता है। पिछले कई दशकों में इस सेक्टर में, खास तौर पर जैविक मिसालों पर, बहुत शोध हुआ है। किसी चीज़ में अचानक उभरी फितरत को उसके टुकड़ों की प्रकृति को जानकर नहीं समझा जा सकता है। एआई में एक सोच यह है कि इंटेलिजेंस एक एमर्जेंट बात है। जीन्स को जानकर हम यह तो जान लेते हैं कि हम जो हैं, वह कैसे मुमकिन हुआ, पर संज्ञान को हम इस तरह नहीं जान सकते। सर्वांगीण समझ कुछ और है, जो एमर्जेंट गुण है। ज़ाहिर है, बगैर मशीन के तो समझ विकसित होना नामुमकिन है, पर यह भी नहीं कहा जा सकता कि मशीन बनने भर से समझ बन जाएगी। इसके लिए कोई सही प्रोग्राम लिखे जाने की ज़रूरत होगी। तो क्या हम फिर मन और जिस्म को अलग-अलग मान रहे हैं? दिमागी पहेलियां क्या महज प्रोग्राम का खेल हैं? इन विवादों पर हम अगले लेखों में चर्चा करेंगे। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://shooliniuniversity.com/blog/wp-content/uploads/2021/08/artificial-intelligence-shoolini-university-best-himachal-pradesh-university.jpg
आजकल हर कहीं ‘एआई’ का बोलबाला है। आखिर यह एआई क्या बला है? चेक नाटककार कारेल चापेक ने 1920 में एक नाटक लिखा था – आरयूआर, (रोसुमोवी युनिवर्सालनी रोबोती – Rossumovi Univerzální Roboti)। इसका अर्थ है रोसुमोव के सार्वभौमिक रोबोट। नाटक में रोसुमोव एक वैज्ञानिक हैं जिनकी कंपनी इंसान जैसी दिखने वाली रोबोट मशीनें बनाती है। (रोबोट एक चेक शब्द से बना है जिसका अर्थ होता है बंधुआ मज़दूर और अंग्रेज़ी व अन्य भाषाओं में यह शब्द चापेक के उक्त नाटक से प्रचलित हुआ था।) तब से मशीनों में इंसान जैसी काबिलियत की चर्चाएं गाहे-बगाहे होती रही हैं। पिछली सदी के छठे दशक में ये चर्चाएं कल्पनालोक से निकल कर विज्ञान के दायरे में संजीदा सवाल बन कर सामने आईं, जब पहले आधुनिक कंप्यूटर बनने लगे थे। इनमें अर्द्ध-चालक सिलिकॉन टेक्नॉलॉजी से बने ट्रांज़िस्टरों की मदद से तेज़ी से गणनाएं मुमकिन होने लगी थीं। जैसे-जैसे कंप्यूटर टेक्नॉलॉजी गणनाओं से इतर तमाम दूसरे क्षेत्रों में प्रभाव डालने लगी और सूचना यानी इन्फॉर्मेशन टेक्नॉलॉजी का कारवां बढ़ता चला, एआई पर शोध भी तेज़ी से बढ़ता रहा। नई-नई मशीनें बनीं, खास तौर पर फिल्मों में इन्हें बढ़ा-चढ़ा कर दिखलाया गया। ‘रोबोट’ लफ्ज़ घरेलू बातचीत का हिस्सा बन गया। हाल में कोरोना लॉक-डाउन के दौरान हमारे मुल्क में भी कुछ खास किस्म की मशीनें, जिन्हें रोबोट सफाई मशीनें कहा जाता है, बड़ी तादाद में बिकीं। कई घरों में ऐसी मशीनें आ गईं, जो देखने में छोटे स्पीकर जैसी हैं, और गीत-संगीत जैसे तरह-तरह के हुक्म बजाती हैं।
दुनिया के स्तर पर बड़ी कामयाबियों में शतरंज खेलने वाली मशीनें शामिल हैं, जिन्होंने शतरंज के उस्ताद खिलाड़ियों (जैसे कास्परोव) को मात दे दी। आगे चलकर अल्फागो नामक कंप्यूटर ने चीनी खेल गो में उस्ताद खिलाड़ी ली सेडोल को परास्त किया। मेडिकल रिसर्च में रोबोट का इस्तेमाल आम हो गया है, और हर दिन किसी नई खोज का पता चलता है। इंसानी काबिलियत से कहीं आगे बढ़कर आंकड़ों से मानीखेज़ जानकारी ढूंढ निकालने का काम कंप्यूटर कई दशकों से कर ही रहे हैं, जिससे नई दवाइयां बनाने में बड़ी तरक्की हुई है। भली बातों के साथ तबाही के हथियारों में भी एआई का इस्तेमाल हो रहा है और नए किस्म के कंप्यूटर से चलने वाले ड्रोन या लेज़र-गन या मिसाइल आदि अब आम असलाह में शामिल हो गए हैं, जिनके ज़रिए कोई मुल्क धरती पर कहीं भी कहर बरपा सकता है और जान-माल को नुकसान पहुंचा सकता है।
जाहिर है, एआई का ताना-बाना पूरी तरह कंप्यूटर टेक्नॉलॉजी से जुड़ा है। कंप्यूटर तो आजकल हर कहीं है; मसलन मोबाइल फोन से लेकर माली लेन-देन आदि हर सेक्टर तक यह पहुंच चुका है। लिहाज़ा एआई भी हर कहीं है। इस वजह से एआई के बुनियादी सवाल महज़ टेक्नॉलॉजी तक रुके नहीं हैं। एआई का सबसे बुनियादी सवाल दरअसल मशीन को इंसानी बुद्धि कैसे मिले यह नहीं है, बल्कि यह है कि इंसान या दूसरे जानवरों को कैसे एक मशीन की तरह समझा जा सके। साथ ही उन हालात की खोज करना भी एक बड़ा सवाल है, जिसमें न सिर्फ ज़िंदा, बल्कि कभी-कभी बेजान लगती चीज़ें भी कुछ ऐसा कमाल कर जाती हैं, जिससे कुछ ज़िंदा होने का गुमान होता है। ऐसी चीज़ों को एजेंट (यानी अभिकर्ता) कहा जाता है। एजेंट किसे कहें, वे क्या कर सकते हैं, ये सवाल विज्ञान और टेक्नॉलॉजी के तो हैं ही, साथ ही गहन दार्शनिक सवाल भी हैं। लंबे अरसे तक इंसान की बुद्धि या इंटेलिजेंस और साथ ही चेतना या कॉन्शसनेस के सवाल मूलत: दार्शनिक सवाल रहे हैं। पिछले तीस-चालीस सालों में दिमाग और चेतना पर वैज्ञानिक समझ बढ़ने के साथ अब इन सवालों में विज्ञान का हस्तक्षेप अहम हो गया है।
‘एजेंट’ शब्द से कल्पना में कोई इंसान सा आता है, जैसे सेल्स-एजेंट। पर एआई में एजेंट का मतलब ऐसा कुछ भी हो सकता है, जिससे कोई कार्रवाई शुरू हो जाए। मसलन वह रोबोट जैसी मशीन हो सकती है जो भौतिक स्तर पर अपने इर्द-गिर्द हरकत करती हो, या वह महज़ एक कंप्यूटर-प्रोग्राम हो सकता है, जो कीबोर्ड पर बटन दबाकर लिखा गया हो या जिसे किसी और कंप्यूटर-प्रोग्राम के ज़रिए लिखा गया हो और जिसे सक्रिय कर कोई कार्रवाई शुरू हो सकती है। यानी एजेंट असली या आभासी दोनों हो सकते हैं। जाहिर है कि क्या असल है और क्या आभासी यह तय करना हमेशा आसान नहीं होता है। एक रोबोट भी तो आखिर किसी प्रोग्राम द्वारा ही चल रहा होता है, तो उसकी हरकत को आभासी भी कहा जा सकता है। यहीं पर चेतना के विज्ञान के साथ एआई की टक्कर होती है। दर्शन का एक चिरंतन सवाल है कि हम जो कुछ करते हैं, क्या वह अपनी मर्ज़ी से करते हैं या कोई और हमसे करवाता है। हम जानते हैं कि सही-गलत हर तरह के खयाल हमारे मन में आते हैं, पर क्या करना है और क्या नहीं, यह फैसला हमारे हाथ में होता है। एक रोबोट ऐसा फैसला नहीं कर सकता है। हालांकि ऐसे दावे किए गए हैं कि हाल के रोबोट में इस तरह के फैसले लेने की काबिलियत मुमकिन हो पाई है, पर ऐसे दावे अभी तक गलत ही साबित होते रहे हैं।
इंसानों में भी एजेंटों जैसी फितरत पाई जाती है। लेकिन इसका एक पहलू और भी है। जैसे एक चींटी को अपने आप में समझना मुश्किल होता है, मज़दूर चींटियों और रानी समेत पूरे चींटी समाज को देखने पर ही पता चलता है कि कतार में जा रही चींटियां आखिर क्या कर रही हैं। इसी तरह अकेले में एक इंसान को जानकर हम सामाजिक, जातिगत या राष्ट्रवादी गतिविधियों को नहीं समझ सकते हैं। समूह में एजेंट क्यों खास तरह की हरकतें करते हैं, इनको समझना भी एआई में चल रहे शोध का विषय है।
आम तौर पर लोग एआई का मतलब महज तरह-तरह की रोबोट मशीनों को समझते हैं, जिनका अलग-अलग सेक्टर्स में इस्तेमाल हो रहा है। वैज्ञानिक इसे कमज़ोर या वीक (weak) एआई कहते हैं। कमज़ोर कहने का मतलब है कि इसमें जिन सवालों पर काम होता है, वे महज़ टेक्नॉलॉजी की तरक्की और बेहतरी के सवाल हैं। इसके बरक्स मज़बूत या स्ट्रॉंन्ग (strong) एआई चेतना के विज्ञान से जुड़ता है। यहां इंसान को मशीन की तरह सामने रखते हुए मशीन में इंसानी अकल और समझ कैसे लाई जाए, इस पर काम होता है। अकल और समझ के साथ चेतना, नैतिकता और तमाम जज़्बात भी जुड़ते हैं। जाहिर है, ये बड़े मुश्किल सवाल हैं; इसीलिए इसे मज़बूत एआई कहा जाता है।
ऐसा नहीं है कि कमज़ोर एआई में इंसानी बुद्धि पर काम नहीं होता है, पर वहां बुद्धि और समझ के किसी एक पक्ष को सैद्धांतिक रूप से समझ कर कंप्यूटर प्रोग्राम के द्वारा उसे मशीन में डालने की कोशिश होती है। जैसे बगैर ड्राइवर के चलने वाली गाड़ियों में तरह-तरह के सेंसर लगे होते हैं, जो सड़क पर आ रहे अवरोधों को कंप्यूटर में दर्ज करते हैं, ताकि उनसे बचाव या उन्हें दरकिनार करने के तरीके अपनाए जा सकें। लाल या हरी बत्ती को दर्ज कर सही वक्त पर रुकना या आगे चलना मुमकिन हो सके। बैटरी खत्म हो रही हो तो अपने आप वापस चार्जर तक जाना भी ऐसी मशीनें कर लेती हैं। पर ये इंसानी बुद्धि के एक ही पक्ष यानी आवागमन और उसमें भी महज़ तकनीकी पक्ष पर काम करती मशीनें हैं। एक इंसान गाड़ी चलाते हुए कई विकल्पों पर सोचता रहता है, बीच रास्ते में कहीं जाने या न जाने का फैसला बदल सकता है, देर तक रुकने या चलते रहने का फैसला ले सकता है, और यह सब कुछ पहले से तय नहीं होता है। कोई गाड़ी इंसानी दिमाग की इन जटिलताओं को कैसे पकड़े और कैसे हर पल अमल करे, ये मज़बूत एआई के सवाल हैं।
यह ज़रूरी नहीं है कि एआई के तहत बनाई गई मशीनें हमेशा इंसानी दिमाग और समझ पर ही आधारित हों। आखिर एक कंप्यूटर जिस विशाल मात्रा में आंकड़े समेट सकता है और जितनी तेज़ी से गणनाएं कर सकता है, वह इंसान की काबिलियत से कहीं ज़्यादा है। ऐसा मुमकिन है कि हमारे दिमाग अपने आकार और अंदरूनी खाके की वजह से एक दायरे में बंधे हैं और एआई कभी ऐसी मशीनें बना दे जो समझ में इंसानों से कहीं आगे की हों।
कमज़ोर एआई में इंसान और दीगर जानवरों में मौजूद समझ की बुनियाद और दायरों की खोज की जाती है। इसी का नतीजा वे तमाम मशीनें हैं, जिनमें से कुछ का ज़िक्र ऊपर किया गया है और जिनके ज़रिए हमारी ज़िंदगी भौतिक रूप से बेहतर हुई है।
इसके साथ ही इंसान के दिमाग को मशीनों के साथ जोड़कर सुपर-इंटेलिजेंट इंसान की कल्पना पर भी काम हो रहा है। दिमाग की प्रक्रियाएं तंत्रिका आवेगों या इंपल्स के ज़रिए होती हैं जो कंप्यूटर में इस्तेमाल होने वाले चिप की तुलना में बहुत ही धीमी गति से चलते हैं। पिछले कुछ दशकों से शरीर में इलेक्ट्रॉनिक चिप इम्प्लांट कर कुछ खास तरह की काबिलियत बढ़ाने पर काम हुआ है। आम तौर पर ऐसे इम्प्लांट पहचान लिए गए हैं, पर ऐसे भी इम्प्लांट हुए हैं, जिनसे हमारी दिमागी काबिलियत बढ़ती है; जैसे हाथ या उंगलियां हिलाकर पैसों का लेन-देन करना आदि (जैसे हम गूगल-पे या क्रेडिट कार्ड से करते हैं)।
मशीनों की कामयाबी से दिमाग के काम करने के तरीकों पर भी समझ बढ़ती है। इससे बुद्धि के दीगर विषयों, जैसे फलसफा, मनोविज्ञान, भाषाविज्ञान और मनोविज्ञान या तंत्रिका विज्ञान में भी तरक्की होती है। ये सारे विषय और एआई अक्सर परस्पर गड्डमड्ड होते हैं। खास कर मनोविज्ञान और चेतना के विज्ञान का एआई से गहरा रिश्ता है। साथ ही सामाजिक और सियासी दायरों में भी एआई की घुसपैठ से बड़े बदलाव हो रहे हैं और तरह-तरह के तनाव बढ़ रहे हैं। माल उत्पादन के क्षेत्र में एआई यानी रोबोट मशीनों के इस्तेमाल से अधेड़ कामगारों की नौकरी से छंटनी बढ़ी है और इसका सीधा असर सियासत पर पड़ा है। मसलन बताते हैं कि 2016 में अमेरिका में ट्रंप के प्रेसिडेंट चुने जाने के पीछे भी एआई की वजह से लोगों में बढ़ती असुरक्षा की भावना कुछ हद तक ज़िम्मेदार थी। दूसरी ओर सर्विस सेक्टर (जैसे ऑन-लाइन खरीद-फरोख्त आदि) की बढ़ोतरी में एआई की अहम भूमिका है। अगले लेखों में हम एआई से जुड़े विज्ञान और दर्शन के दीगर मसलों पर चर्चा करेंगे। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://shooliniuniversity.com/blog/wp-content/uploads/2021/08/artificial-intelligence-shoolini-university-best-himachal-pradesh-university.jpg
यदि कोई मगरमच्छ की तस्वीर दिखाकर आपसे पूछे कि क्या यह एक पक्षी है, तो हो सकता है आप उसके इस नादान सवाल पर मुस्करा दें। और फिर, शायद जानवर को पहचानने में मदद भी कर दें। अब, एक हालिया अध्ययन कहता है कि इस तरह के वास्तविक दुनिया के (और कभी-कभी नादान) सवाल-जवाब कृत्रिम बुद्धि यानी आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) के सीखने में महत्वपूर्ण हो सकते हैं। इस तरीके से एआई द्वारा नई तस्वीरों को समझने में सुधार दिखा। इससे ऐसे प्रोग्राम डिज़ाइन करने में तेज़ी आ सकती है जो रोग निदान से लेकर रोबोट या अन्य उपकरणों को निर्देश देने तक के कार्य स्वयं करते हैं।
कई आर्टिफीशियल इंटेलीजेंस तंत्र पाशविक बल पद्धति से सीखते हैं: जैसे वे फर्नीचर की हज़ारों तस्वीरों में पैटर्न ढूंढते हैं और सीखते हैं कि कुर्सी कैसी दिखती है। लेकिन विशाल डैटा सेट के बावजूद भी जानकारी में कमी छूट ही जाती है। मसलन, हो सकता है कि तस्वीरों में दिख रही वस्तु पर कुर्सी लिखा हो लेकिन अन्य सम्बंधित जानकारी न हो। जैसे वह किस चीज़ से बनी है, या क्या आप उस पर बैठ सकते हैं।
आर्टिफीशियल इंटेलीजेंस तंत्र की समझ को विस्तार देने के लिए शोधकर्ता अब एक ऐसा तरीका विकसित करने की कोशिश में हैं जो उसकी जानकारी में कमी पता कर सके, और यह समझ सके कि अजनबियों से इस जानकारी को भरने के लिए कैसे कहा जाए।
इसके लिए स्टैनफोर्ड युनिवर्सिटी के रंजय कृष्णा (अब, युनिवर्सिटी ऑफ वाशिंगटन में) और उनके साथियों ने अपने अध्ययन में मशीन-लर्निंग प्रणाली को अपने ज्ञान में कमी खोजकर ऐसे सवाल पूछने के लिए प्रशिक्षित किया जिसका लोग धैर्यपूर्वक जवाब दे सकें। (जैसे, सिंक का आकार क्या है? जवाब: वर्गाकार)
शोधकर्ताओं ने समझने योग्य सवाल करने के लिए अपने एआई सिस्टम को पुरस्कृत भी किया: लोगों के जवाब के आधार पर सिस्टम को प्रतिक्रिया मिली कि वह अपनी आंतरिक कार्यप्रणाली को समायोजित करे ताकि भविष्य में इसी तरह का व्यवहार कर सके। धीरे-धीरे, एआई ने भाषा और सामाजिक मानदंड सीखे और वाजिब व जवाब देने योग्य सवाल करने की क्षमता तराशी।
शोधकर्ता बताते हैं कि नए AI में कई घटक हैं जो मिल-जुलकर काम करते हैं। एक घटक इंस्टाग्राम पर डाली गई कोई एक तस्वीर – सूर्यास्त की तस्वीर – चुनता है, और दूसरा घटक सवाल करता है कि क्या यह तस्वीर रात में ली गई है? अन्य घटक लोगों के जवाबों से जानकारी निकालते हैं और उनसे तस्वीर के बारे में सीखते हैं।
प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में शोधकर्ता बताते हैं कि पूरे 8 महीनों में इंस्टाग्राम पर 2 लाख से अधिक सवाल पूछने के बाद एआई के जवाब देने की सटीकता में 118 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। अप्रशिक्षित एआई द्वारा सवाल करने से सटीकता में केवल 72 प्रतिशत सुधार दिखा। उम्मीद है कि ऐसे सिस्टम एआई का सामान्य ज्ञान बढ़ाने मदद करेंगे और इंटरैक्टिव रोबोट्स और चैटबॉट को बेहतर करने में मदद करेंगे। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.ade9591/full/_20220919_on_ai.jpg