ठंडक के लिए कुकुरमुत्ते

हाल ही में पता लगा है कि कुकुरमुत्ते (मशरूम) और अन्य फफूंदें अपने परिवेश के तापमान की तुलना में अधिक ठंडे बने रहते हैं। नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ के अनुसार इसका कारण उनमें भरपूर मात्रा में पानी की उपस्थिति है। लगभग हमारे पसीने की तरह यह पानी धीरे-धीरे वातावरण में वाष्पित होता रहता है, और तापमान कम करता है।

मशरूम तथा अन्य फफूंदों की इस विशेषता के बारे में तब पता चला जब जॉन्स हॉपकिन्स युनिवर्सिटी के सूक्ष्मजीव विज्ञानी रैडामेस कॉर्डेरो अपनी प्रयोगशाला के नए थर्मल कैमरे का परीक्षण कर रहे थे। यह कैमरा इन्फ्रारेड-ऊष्मा को छवि के रूप में रिकॉर्ड कर सकता है। कॉर्डेरो और उनके सहयोगी आर्टुरो कैसाडेवल ने कैमरे से यह पता लगाने का प्रयास किया कि कुछ कवक के गहरे रंग के रंजक उनकी सतह के तापमान को कैसे प्रभावित करते हैं। अध्ययन में उन्होंने लगभग 20 प्रकार के जंगली मशरूम की छवियां तैयार की जो अपने परिवेश की तुलना में काफी ठंडे थे।

प्रयोगशाला जांच में उन्होंने पाया कि ब्राउन अमेरिकन स्टार-फूटेड एमेनाइटा जैसी कुछ प्रजातियों का तापमान अपने परिवेश की तुलना में एक या दो डिग्री कम था जबकि ओइस्टर मशरूम का तापमान अपने परिवेश से लगभग छह डिग्री सेल्सियस कम था। शराब बनाने वाली खमीर सहित 19 प्रकार के फफूंदों में इसी तरह के पैटर्न दिखाई दिए। यहां तक कि ठंडे मौसम में भी इनकी कॉलोनियों का तापमान लगभग एक डिग्री सेल्सियस कम था। एक-कोशिकीय कवकों के तापमान में इस तरह के पैटर्न काफी आश्चर्यजनक हैं। कॉलोनी के रूप में भी देखा जाए तो मशरूम की तुलना में इन कवकों का सतह-क्षेत्र प्रति आयतन बहुत कम होता है। ऐसे में सतह से गर्मी विकिरित होकर तापमान को कम करना आश्चर्यजनक है।

शीतलन क्षमता के मापन से पता चला है कि शीतलन प्रभाव कवक से वाष्पित होने वाले पानी के कारण होता है जो एक गर्म दिन में हमारे शरीर से निकलने वाले पसीने जैसा काम करता है। मशरूम के नीचे की गलफड़ेनुमा बनावट सतह क्षेत्र में वृद्धि करती हैं। हालांकि अभी तक यह स्पष्ट नहीं है कि इस विशेषता से मशरूम को क्या फायदा होता है।

बहरहाल इन मशरूमों की ठंडक का इस्तेमाल तो किया ही जा सकता है। इसके लिए शोधकर्ताओं ने लगभग आधा-किलोग्राम बटन मशरूम को एक छोटे स्टायरोफोम पैकिंग बॉक्स में रखा। इसमें हवा के लिए दो छेद रखे। हवा खींचने के लिए एक छेद में एक कंप्यूटर एग्ज़ॉस्ट फैन लगाया और बॉक्स को एक बड़े स्टायरोफोम कंटेनर में रख दिया। पंखा चालू होने के 40 मिनट के अंदर बड़े कंटेनर का तापमान 10 डिग्री सेल्सियस तक गिर गया और आधे घंटे तक कम ही बना रहा। इस व्यवस्था से बर्फ तो नहीं जमेगा लेकिन यदि आपका पिकनिक का कोई प्रोग्राम है तो खाना ठंडा रखने के लिए मशरूम एक अच्छा विकल्प है। और तो और, बाद में आप इसे खा भी सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पतझड़ के बाद पेड़ों को पानी कैसे मिलता है? – डॉ. किशोर पंवार

सतपुड़ा, विंध्याचल या अरावली पर्वत शृंखलाओं के जंगलों में कभी फरवरी-मार्च के महीनों में पैदल चल कर देखिए; सूखे पत्तों की चरचराहट की आवाज़ साफ सुनाई देगी। मानो पत्ते कह रहे हों कि जनाब आप पतझड़ी जंगल में विचर रहे हैं। इन जंगलों में कहीं-कहीं पर तो सूखे पत्तों की यह चादर एक फीट तक मोटी होती है जो सेमल, पलाश, अमलतास, सागौन वगैरह के पत्तों के गिरने से बनी होती है।

अप्रैल-मई के महीनों में जब तेज़ गर्म हवाएं चल रही होती हैं, हवा भी सूखी होती है, धरती का कंठ भी सूखने लगता है। उस समय देखने में आता है कि इन पतझड़ी पेड़ों के ठूठ हरे होने लगते हैं। पलाश, अमलतास, सुनहरी टेबेबुइया और पांगरा फूलने लगते हैं।

लेकिन बिना पानी के यह कैसे संभव होता है? हमारे बाग-बगीचों की तरह जंगल में तो कोई पानी देने भी नहीं जाता। तब पेड़ों पर फूटने वाली नई कोपलों और फूलों के लिए भोजन-पानी कहां से आता है? जबकि ये पेड़ अपनी पाक शालाएं (पत्तियां) तो दो महीने पहले ही झड़ा चुके थे।

इस सवाल का जवाब एक शब्द ‘सुप्तावस्था’ में छुपा हुआ है। दरअसल ये पेड़-पौधे आने वाले सूखे गर्म दिनों को भांप लेते हैं। अत: आने वाली गर्मियों (या ठंडे देशों में जाड़े) के मुश्किल दिनों को टालने के लिए ये पेड़ दो-तीन महीनों की विश्राम की अवस्था में चले जाते हैं, लेकिन पूरी तैयारी के साथ। जब तैयारी पूरी हो जाती है तब सूचना पटल के रूप में पेड़ों की ये लाल-पीली पत्तियां इन पेड़ों की टहनियों पर टंगी नज़र आती है कि अब दुकान बंद हो गई है। फिर कुछ ही दिनों में हवा के झोंकों से ये पत्तियां भी गिर जाती हैं।

इन पतझड़ी पेड़ों की ही तरह ठंडे देशों में ग्रिज़ली बेयर यानी भूरा भालू और डोरमाइस, जो कि एक प्रकार का चूहे जैसा रात्रिचर जीव है, सुप्तावस्था (या शीतनिद्रा) में चले जाते हैं। ग्रिज़ली भालू जाड़ा पड़ने के पहले खा-खाकर अपने शरीर में वसा की इतनी मोटी परत चढ़ा लेता है कि पूरी सर्दियों जीवित रह सके।

पतझड़ी पेड़ भी सुप्तावस्था की तैयारी बिल्कुल ऐसे ही करते हैं। सूर्य की ऊर्जा से वे शर्करा और अन्य पदार्थ बनाते हैं जिन्हें वे अपनी त्वचा के नीचे भंडारित करके रखते हैं। पेड़ों की त्वचा यानी उनकी मोटी छाल ऊपर से तो मरी-मरी लगती है पर अंदर से जीवित होती है। एक निश्चित बिंदु पर आकर पेड़ों का पेट भर जाता है; इस स्थिति में पेड़ थोड़े मोटे भी लगने लगते हैं। ठंडे देशों के चेरी कुल के जंगली पेड़ों की पत्तियां अक्टूबर के पहले ही लाल होने लगती हैं और इसका सीधा अर्थ यह होता है कि उनकी छाल और जड़ों में भोजन संग्रह करने वाले स्थान भर चुके हैं, और यदि वे और शर्करा बनाते हैं तो उसे भंडारित करने के लिए अब उनके पास कोई जगह नहीं बची है।

ठंडे देशों में पहली ज़ोरदार बर्फबारी होने तक उन्हें अपनी सभी गतिविधियां बंद करनी होती हैं। इसका एक महत्वपूर्ण कारण पानी है; सजीवों के उपयोग हेतु इसे तरल अवस्था में होना ज़रूरी होता है। परंतु लगता है कुछ पेड़ अभी जाड़े के मूड में नहीं हैं।

ऐसा दो कारणों से होता है पहला कि वे अंतिम गर्म दिनों का उपयोग ऊर्जा संग्रह के लिए करते रहते हैं, और दूसरा अधिकांश प्रजातियां पत्तियों से ऊर्जा संग्रह कर अपने तनों और जड़ों में भोजन भेजने में लगी होती हैं। और सबसे महत्वपूर्ण यह कि उन्हें अपने हरे रंग के क्लोरोफिल को उसके घटकों में तोड़कर उन घटकों को संग्रह करना होता है ताकि आने वाले बसंत में नई पत्तियों में क्लोरोफिल के निर्माण में इनका उपयोग हो सके।।

गर्म देशों के हों या ठंडे देशों के, पतझड़ी पेड़ों के लिए बासी पत्तियों को खिराना एक प्रभावी सुरक्षा योजना होती है। यह पेड़ों के लिए अपने व्यर्थ या अवांछित पदार्थों को त्यागने का एक अवसर भी होता है। व्यर्थ पदार्थ ज़मीन पर इधर-उधर उनकी त्यागी हुई पत्तियों के रूप में उड़ते रहते हैं। जब पत्तियों में भंडारित ऊर्जा वापस शाखाओं और जड़ों में अवशोषित कर ली जाती है, तब पेड़ों की कोशिकाओं में एक विलगन परत बनती है जो पत्तियों और शाखाओं के बीच का संपर्क बंद कर देती है। ऐसे में हल्की हवा का झोंका लगते ही पत्तियां ज़मीन पर आ जाती है।

यह तो हुई ऊर्जा की बात। पानी की व्यवस्था के लिए जब पानी उपलब्ध होता है तब जड़ें उसे तनों की छाल में व स्वयं अपने आप में संग्रह करती रहती हैं। पौधों का एक नाम पादप भी है अर्थात पांव से पानी पीने वाले जीव। पांव (जड़ों) से पीकर पानी को तने और जड़ों में संग्रह कर लिया जाता है।

मई-जून के महीनों में इन मृतप्राय पेड़ों में नई पत्तियां और फूलों के खिलने के लिए जो ऊर्जा और पानी लगते हैं, वे शाखाओं और जड़ों के इसी संग्रह से मिलते हैं। किंतु अब बहाव की दिशा उल्टी है।

पानी का परिवहन

वनस्पति विज्ञान की किताबें कहती हैं कि सौ से डेढ़ सौ फीट ऊंचे पेड़ों में पानी को ज़मीन से खींचकर शीर्ष तक पहुंचाने में पत्तियों में होने वाली वाष्प उत्सर्जन क्रिया की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इस सिद्धांत को वाष्पोत्सर्जन खिंचाव बल नाम दिया गया है। पर यह सवाल गर्मियों के दिन में बड़ा रोचक हो जाता है – जब पेड़ों पर पानी खींचने वाले छोटे-छोटे पंप अर्थात पत्तियां नहीं हैं, तो फिर पत्ती विहीन पेड़ों के शीर्ष पर फूटने वाली नई कोपल और कलियों को पानी कौन और कैसे पहुंचाता है। अत: लगता है मामला कुछ और भी है जो हम अभी तक नहीं जानते। सचमुच प्रकृति के क्रियाकलाप अद्भुत हैं और जानने को आज भी बहुत कुछ है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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रुद्राक्ष के चमत्कार: क्या कहता है विज्ञान? – डॉ. किशोर पंवार

जकल एक गुठली की चर्चा कुछ ज़्यादा ही हो रही है। इसके चमत्कारी प्रभाव का लाभ लेने के लिए इसे अभिमंत्रित कर मुफ्त में बांटा जा रहा है ताकि आमजन को विभिन्न व्याधियों से मुफ्त में मुक्ति दिलाई जा सके। आप समझ गए होंगे कि बात रुद्राक्ष की हो रही है।

इसी संदर्भ में हाल ही में रुद्राक्ष के औषधि महत्व पर आज तक जो शोध विभिन्न लोगों ने किए हैं उसका एक समीक्षा पर्चा मुझे पढ़ने में आया है। यह पंजाब युनिवर्सिटी विज्ञान शोध पत्रिका में 2018 में छपा था। यह महत्वपूर्ण सामयिक कार्य डी. वी. राय, शिव शर्मा और मनीषा रस्तोगी ने किया है। तीनों शोभित युनिवर्सिटी (मेरठ) में कार्यरत हैं।

क्या है रुद्राक्ष?

इसके चमत्कारिक औषधि प्रभाव के बारे में बात करने के पहले जरा यह जान लें कि रुद्राक्ष है क्या। रुद्राक्ष एक पेड़ (विज्ञान की भाषा में एलियोकार्पस गैनिट्र्स) का बीज है। इसके पेड़ 10 से 20 मीटर तक ऊंचे होते हैं और हिमालय की तलहटी में गंगा के मैदानों से लेकर चीन, दक्षिण पूर्वी एशिया, ऑस्ट्रेलिया के कुछ हिस्सों और हवाई तक पाए जाते हैं। रुद्राक्ष नेपाल से लेकर जावा और सुमात्रा के पहाड़ी क्षेत्रों में बहुतायत में पाए जाते हैं।

दुनिया भर में एलियोकार्पस की 350 से ज़्यादा प्रजातियां पाई गई हैं। इनमें से 33 भारत में मिलती हैं। भारतीय अध्यात्म में रुद्राक्ष को पृथ्वी और सूर्य के बीच एक कड़ी के रूप में देखा जाता है।

रुद्राक्ष इस पेड़ के पके फलों (जिन्हें ब्लूबेरी कहा जाता है) की गुठली है। बीजों का अध्ययन बताता है कि इसके बीज की मध्य आंतरिक भित्ती नारियल की तरह कठोर होती है। इसके भीतर नारियल जैसा ही एक भ्रूणपोष (खोपरा) होता है जिसमें कैल्शियम ऑक्सलेट के ढेर सारे रवे पाए जाते हैं। रुद्राक्ष का फल बेर जैसा ही होता है। इसका गूदा नरम और उसके अंदर एक गुठली और गुठली के अंदर बीज। जिसे हम रुद्राक्ष का बीज कहते हैं वह तो इसकी गुठली ही है, ठीक वैसे ही जैसे बेर की गुठली।

रुद्राक्ष के फलों से गुठली प्राप्त करने के लिए इसे कई दिनों तक पानी में गला कर रखा जाता है। फिर गूदा साफ करके इन्हें चमका कर रोज़री अर्थात मालाएं बनाई जाती है। इन मनकों पर जो दरारें नजर आती हैं वे इसके अंडाशय में पाए जाने वाले प्रकोष्ठों की संख्या से जुड़ी हुई है। ये सामान्यत: पांच होती हैं परंतु एक से लेकर 21 तक भी देखी गई हैं। इन खड़ी लाइनों को ही मुख कहा जाता है। ज़्यादा मुखी होने पर उसका महत्व/कीमत बढ़ जाती है क्योंकि ऐसा माना जाता है कि असामान्य गुठलियों में ज़्यादा जादुई शक्ति होती है। इनकी गुठलियों का रंग सफेद, लाल, बादामी, पीला या गहरा काला भी हो सकता है। बादामी रुद्राक्ष सबसे आम है।

रुद्राक्ष के फलों का बाहरी छिलका नीला होता है इसलिए इन्हें ब्लूबेरी कहा जाता है। यह नीला रंग किसी रंजक की वजह से नहीं बल्कि इसके छिलकों की बनावट की वजह से होता। यानी रंग नज़र तो आता है किंतु मसलने पर हाथ नहीं आएगा।

पौराणिक उत्पत्ति

एक पौराणिक कथा के अनुसार रुद्राक्ष की उत्पत्ति भगवान शिव के आंसुओं से हुई थी। इसलिए इसे पवित्र माना जाता है और शिव भक्तों में इसका महत्वपूर्ण स्थान है। देवी भागवत पुराण के अनुसार त्रिपुरासुर का वध करने के लिए जब देवताओं ने शिव से आग्रह किया तो उन्होंने अपने नेत्र योग मुद्रा में बंद कर लिए और जब थोड़ी देर बाद आंखें खोली तो उनकी आंखों से आंसू टपके। मान्यता है कि जहां-जहां धरती पर उनके आंसू टपके वहां-वहां रुद्राक्ष के पेड़ उत्पन्न हुए।

अब बात करते हैं उस महत्वपूर्ण समीक्षा पर्चे की जिसमें अब तक प्रकाशित विभिन्न शोध पत्रों का पुनरावलोकन किया गया है। इन शोध पत्रों में रुद्राक्ष का उपयोग कई विकारों, जैसे तनाव, चिंता, अवसाद, घबराहट, तंत्रिका विकार, माइग्रेन, एकाग्रता की कमी, दमा, उच्च रक्तचाप, मधुमेह, गठिया, यकृत रोग और कैंसर आदि तक में करने की बात कही गई है। इन सबका सार पढ़कर तो लगेगा कि लाख दुखों की एक दवा है रुद्राक्ष। तो क्यों न आज़माएं?

इन शोध पत्रों के मुताबिक इन गुठलियों में कई औषधीय महत्व के रसायन भी पाए गए हैं जैसे अल्केलॉइड्स, फ्लेवोनॉइड्स, स्टेराड्स, कार्डिएक ग्लाइकोसाइड्स आदि। कहना न होगा कि किसी भी पेड़, बीज, गुठली का विश्लेषण करने पर कम-ज़्यादा मात्रा में इसी तरह के रसायन मिलने की उम्मीद की जा सकती है। रुद्राक्ष के संघटन की तुलना किसी अन्य से नहीं की गई है। 

कुछ शोधार्थियों ने रुद्राक्ष की गुठलियों के विद्युत-चुंबकीय गुणों का अध्ययन किया है और बताया है कि इन मनकों का विद्युत-चुंबकीय गुण कई असाध्य रोगों (जैसे उच्च रक्तचाप, हृदय की गति, मधुमेह, स्त्री रोग, तंत्रिका सम्बंधी गड़बड़ी, नींद ना आना, गठिया) आदि को ठीक करता है। कहा गया है कि ये गुण इसकी माला धारण करने के असर का ‘वैज्ञानिक’ आधार हैं। लेकिन एक अहम बात यह देखने में आती है कि चुंबकीय गुणों के सारे परीक्षण रुद्राक्ष गुठली के चूर्ण पर किए गए हैं, साबुत गुठली पर नहीं।

इस संदर्भ में शिव शर्मा, डी. वी. राय और मनीषा रस्तोगी के एक पर्चे (इंटरनेशन जर्नल ऑफ साइन्टिफिक एंड टेक्नॉलॉजी रिसर्च) में रुद्राक्ष चूर्ण के तमाम मापन के आंकड़े प्रस्तुत किए गए हैं – जैसे कोएर्सिविटी, रिटेंटिविटी, रेमनेंस, मैग्नेटाइज़ेशन और चुंबकीय गुणों की तापमान पर निर्भरता। कई ग्राफ और तालिकाएं भी दी गई हैं। एक्सरे फ्लोरेसेंस के परिणाम प्रस्तुत किए गए हैं। लेकिन आईसर, पुणे के वैज्ञानिक डॉ. भास बापट के अनुसार, “यह तीन नमूनों के साथ विभिन्न तकनीकों से प्राप्त विविध चुंबकीय गुणधर्मों की सूची है और कोई कोशिश नहीं की गई है कि इन गुणों का आकलन जैविक या औषधीय प्रभावों की दृष्टि से किया जाए।” और तो और, जैसा कि ऊपर कहा गया है, ये सारे मापन चूर्ण के साथ किए गए हैं।

एस. त्रिपाठी व अन्य के शोध पत्र (2016) में बताया गया है कि दो तांबे के सिक्कों के बीच रुद्राक्ष का घूमना इसके विद्युत-चुंबकीय गुणों का स्पष्ट प्रमाण है परंतु समीक्षा पर्चे में इस पर सवाल उठाते हुए कहा गया है कि इस क्रिया के सत्यापन की ज़रूरत है; अर्थात यह संदिग्ध है।

इसी तरह एस. प्रजापति और अन्य (2016) के प्रयोगों को भी वनस्पति विज्ञान के शोधकर्ताओं द्वारा परखा जाना चाहिए। उन्होंने ड्रेसिना के कुछ पौधों को रुद्राक्ष माला पहनाकर और कुछ को ऐसी माला पहनाए बगैर उनका विद्युत विभव तने और पत्तियों के बीच नापा। इस प्रयोग के आधार पर उनका निष्कर्ष था कि रुद्राक्ष में केपेसिटिव, रेज़िस्टिव और इंडक्टिव गुण होते हैं। यह स्पष्ट नहीं है कि शोधकर्ताओं ने यह प्रयोग कोई अन्य माला पहनाकर किया था या नहीं। वैसे भी उन्होंने पौधों को दो भागों में बांट दिया था – धनात्मक तना और ऋणात्मक पत्ती। यह सच है कि तने से पत्ती की ओर कई धनात्मक आयनों का प्रवाह पानी के माध्यम से होता है किंतु इस आधार पर उन्हें धनात्मक और ऋणात्मक क्षेत्रों में बांटने की बात बेमानी है। पत्तियों में तो सबसे ज़्यादा जैव रासायनिक क्रियाएं होती रहती है। अतः उसे ऋणात्मक मानना उचित नहीं होगा।

इसी तरह त्रिपाठी व साथियों (2016) ने रुद्राक्ष के बीजों के इम्यूनिटी सम्बंधी गुणों का अध्ययन किया। उन्होंने 15 लोगों को रुद्राक्ष की माला पहनाई और 15 को नहीं। उन्होंने पाया कि जो लोग नियमित रूप से रुद्राक्ष माला पहनते थे वे स्वस्थ थे। उनका सीबीसी व मूत्र परीक्षण किया गया तो उनका हिमोग्लोबिन, आरबीसी, डीएलसी अधिक था। सवाल यह है कि क्या उन दोनों समूहों का पूर्व परीक्षण किया गया था इन्हीं पैरामीटर्स के लिए। माला कितने दिनों तक पहनाई गई और क्या दोनों समूह को भोजन एक-सा दिया गया था और उनकी दिनचर्या भी क्या एक समान थी। ये सभी सवाल इसलिए महत्वपूर्ण हो जाते हैं कि छद्म विज्ञान और सच्चे विज्ञान में यही अंतर है। ऐसे ही एक अन्य अध्ययन (कुमावत व अन्य, 2022) में रुद्राक्ष की खुराक के साथ-साथ तमाम परहेज भी करवाए गए थे और तुलना के लिए कोई समूह नहीं था। तुलना का प्रावधान अर्थात कंट्रोल वैज्ञानिक प्रयोगों में एक महत्वपूर्ण घटक होता है जो प्रयोगों की सत्यता को प्रमाणित करता है।

रुद्राक्ष के प्रतिरक्षा तंत्र को प्रभावित करने की क्रिया पर भी कई लोगों ने कार्य किए हैं। यहां जयश्री और अन्य (2016) का ज़िक्र लाज़मी है। उन्होंने पत्ती, छाल तथा बीज के जलीय और एसीटोन निष्कर्ष की जांच की और पाया कि बीजों को पानी में  रखकर उसका पानी पीना उतना उपयोगी नहीं है जितना कि अन्य रसायनों में बनाए गए आसव।

कुछ परीक्षण जीवों पर भी किए गए हैं। जैसे चूहों पर उच्च-रक्तचाप रोधी गुणों का पता लगाने के लिए बीजों को पीसकर उनका चूर्ण विभिन्न मात्रा में खिलाया गया। पता चला कि चूहों का रक्तचाप कम हुआ। इसी तरह अल्कोहल निष्कर्षण बीजों में अवसाद रोधी प्रभाव पाए गए हैं। चूहों के अलावा जैन और अन्य द्वारा 2016 एवं 2017 में खरगोश पर भी इसी तरह के प्रयोग किए गए हैं। जिनसे पता चला कि बीजों का अल्कोहल आसव उनके खून में कोलेस्ट्रॉल स्तर कम करने में सहायक पाया गया है। किडनी रोगों में भी प्रभावी पाया गया है।

राय व साथी अपने समीक्षा पर्चे के निष्कर्ष के तौर पर यही कहते हैं कि प्राचीन भारतीय चिकित्सा प्रणाली में विविध विकारों के उपचार में रुद्राक्ष मनकों को जो महत्व दिया गया है, उसे देखते हुए, यही कहा जा सकता है कि मानक पद्धतियों से प्राप्त निष्कर्ष और इसकी कार्यविधि सम्बंधी नतीजे निहायत अपर्याप्त हैं। विभिन्न जीर्ण रोगों के कुप्रभावों से निपटने में एक समग्र तरीके के तौर पर इसकी प्रभाविता, लागत-क्षमता, उपयोगकर्ता के लिए सुविधा, आसानी से उपलब्धता और सुरक्षा को साबित करने के लिए गहन शोध अध्ययनों की ज़रूरत है ताकि सर्वे भवंतु सुखिनः सर्वे भवंतु निरामया के सूत्र के आधार पर समस्त मानव जाति को इसके चमत्कारिक विभिन्न स्वास्थ्य लाभों से वंचित ना रहना पड़े।

ऐसे अनुसंधान से कोई लाभ नहीं होगा जो पहले से मान लिए गए सत्य को प्रमाणित करने के लिए किया जाए। अनुसंधान तो सत्य के अन्वेषण के लिए होना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

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सालों तक उपज देने वाली धान की किस्म

चीन के वैज्ञानिकों ने धान की एक ऐसी किस्म तैयार की है जो एक बार लगाने पर कई वर्षों तक उपज देती रहेगी। दूसरे शब्दों में, यह धान की एक बहुवर्षी किस्म है जबकि आम तौर पर धान हर साल नए सिरे से रोपना होता है। वैज्ञानिकों का मत है कि इस किस्म के उपयोग से रोपाई में लगने वाली लागत और मेहनत दोनों कम हो जाएंगी और मिट्टी की गुणवत्ता में भी सुधार होगा।

वैसे तो गेहूं, मक्का, ज्वार आदि के समान धान भी एकवर्षी पौधा है यानी एक बार फूल आने के बाद यह नष्ट हो जाता है। लेकिन वैज्ञानिकों ने देखा कि इनमें एक अंतर भी है। जहां गेहूं, मक्का के वगैरह के पौधे एक बार फूलने के बाद पूरी तरह नष्ट हो जाते हैं, वहीं धान काटने के बाद बचे ठूंठ पर फिर से कोपलें फूटती हैं और फिर से फूल भी लगते हैं। लेकिन दूसरी बार में उपज बहुत कम होती है।

वैज्ञानिकों ने धान की इसी मूल बहुवर्षी प्रवृत्ति का फायदा उठाकर नई किस्म तैयार की है। उन्होंने एशिया में उगाई जाने वाली धान का संकरण नाइजीरिया में पाई जाने वाली एक जंगली बहुवर्षी धान से करवाया। इससे जो संकर बीज तैयार हुए उन्हें सही मायने में बहुवर्षी बनाने में कई साल लगे और वर्ष 2018 में इस नई किस्म (पेरेनियल राइस 23, पीआर-23) को चीन में किसानों के उपयोग के लिए जारी कर दिया गया है।

यह पता करने के लिए कि पीआर-23 कितनी बार अच्छी उपज देगी, युनान विश्वविद्यालय के कृषि वैज्ञानिक फेंगी ह्यू ने तीन स्थानों के किसानों के सहयोग से एक अध्ययन किया। इन किसानों ने कुछ ज़मीन पर नई किस्म का धान लगाया और पांच साल तक साल में दो बार इससे उपज प्राप्त करते रहे। साथ ही कुछ भूमि पर सामान्य धान भी लगाया गया था।

पहले चार वर्षों तक पीआर-23 की उपज 6.8 टन प्रति हैक्टर रही जो सामान्य एकवर्षी धान से थोड़ी अधिक थी। नेचर सस्टेनेबिलिटी में प्रकाशित शोध पत्र में शोधकर्ताओं ने बताया है कि पांचवे साल में अलबत्ता उपज कम होने लगी।

यह भी पता चला कि पीआर-23 उगाने से मिट्टी की गुणवत्ता में भी सामान्य धान की तुलना में सुधार आया। मिट्टी में जैविक कार्बन और नाइट्रोजन की मात्रा बढ़ी और उसमें पानी को रोके रखने की क्षमता में भी सुधार हुआ। अब शोधकर्ता यह भी देखने का प्रयास कर रहे हैं कि पीआर-23 ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन के मामले में कहां बैठता है क्योंकि धान के खेत मीथेन का एक प्रमुख स्रोत हैं, जो एक ग्रीनहाउस गैस है और वैश्विक तापमान वृद्धि में योगदान देती है।

पीआर-23 और वार्षिक धान की उत्पादन लागत की तुलना में पता चला कि पहले वर्ष के बाद पीआर-23 की उत्पादन लागत साधारण धान से आधी होती है। इसके चलते 2020 में पीआर-23 का रकबा बढ़कर 15,333 हैक्टर हो गया हाालंकि यह चीन के कुल धान रकबे (2.7 करोड़ हैक्टर) का अंश मात्र ही था। चीन सरकार भी इस किस्म को प्रोत्साहन दे रही है और उम्मीद की जा रही है कि यह किसानों के बीच लोकप्रिय साबित होगी। गौरतलब है कि यह नई किस्म जेनेटिक रूप से परिवर्तित उत्पाद नहीं है, बल्कि दो किस्मों के संकरण का नतीजा है। (स्रोत फीचर्स)

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खीरे, खरबूज़े और लौकी-तुरैया – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

दुनिया के सभी भागों के लोग एक वनस्पति कुल, कुकरबिटेसी, से बहुत करीब से जुड़े हैं। इस विविधता पूर्ण कुल में तरबूज़, खरबूज़, खीरा और कुम्हड़ा-कद्दू शामिल हैं। जिन कुकरबिट्स की खेती कम की जाती है उनमें करेला, कुम्हड़ा, चिचड़ा, लौकी, गिलकी और तुरई शामिल हैं।

कुकरबिट्स आम तौर पर रोएंदार बेलें होती हैं। इनमें नर और मादा फूल अलग-अलग होते हैं जो एक ही बेल पर या अलग-अलग बेलों पर लगे हो सकते हैं। इनके फल स्वास्थ्यवर्धक माने जाते हैं, जो विधिध रंग, स्वाद और आकार में मिलते हैं। ये भारत की भू-जलवायु में अच्छी तरह पनपते हैं। इनकी बुवाई का मौसम आम तौर पर नवंबर से जनवरी तक होता है, और गर्मियों में इनके फल पक जाते हैं।

कुकरबिटेसी कुल में मीठे तरबूज़ से लेकर कड़वे करेले तक का स्वाद है और छोटे चिचोड़े से लेकर बड़े आकार का कद्दू तक है। यह विविधता उनके मोज़ेक-सरीखे गुणसूत्रों के अवयवों में फेरबदल का परिणाम है। इसलिए, एक ही जीनस (कुकुमिस) के सदस्य होने के बावजूद खीरे में सात गुणसूत्र होते हैं और खरबूजे में 12।

आलू के विपरीत, जो केवल 450 साल पहले पूरे विश्व में फैला, कुकुरबिट्स सहस्राब्दियों से दुनिया भर की खाद्य अर्थव्यवस्थाओं का महत्वपूर्ण हिस्सा रहे हैं। ये समुद्री लहरों पर सवार होकर किनारों पर पहुंचे और स्थानीय परिस्थितियों के अनुकूल ढल गए। आधुनिक जीनोमिक तकनीकों की मदद से उनके मूल स्थान को पहचानने की आवश्यकता है।

खीरा भारत का स्वदेशी है। खीरा की जंगली प्रजातियां हिमालय की तलहटी में पाई जाती हैं। इन्हें रोमन लोग दूसरी शताब्दी ईसा पूर्व युरोप ले गए थे।

रेगिस्तानी खरबूज़े

राजस्थान के थार रेगिस्तान में स्थानीय लोग अल्प मानसून से जमा हुए पानी से तरबूज़-खरबूज़ की जंगली किस्में उगाते हैं। कम गूदे और ज़्यादा बीज वाले ये फल छोटे होते हैं, जिन्हें सब्ज़ियों के रूप में पकाया जाता है।

हालिया अध्ययनों ने यह स्थापित किया है कि भारत में आज हम तरबूज़-खरबूज़ की जो किस्में देखते हैं, वे पालतूकरण (खेती) करने की दो स्वतंत्र घटनाओं की उत्पाद हैं। इन्होंने जंगली प्रजातियों की कड़वाहट और खट्टापन खो दिया है, और इनके पत्ते, बीज और फल बड़े होते हैं। अफ्रीका में पाई जाने वाली खरबूज़ की प्रजातियों का स्वतंत्र रूप से पालतूकरण हुआ था, लेकिन अफ्रीकी खरबूज़ छोटा होता है और इसके स्वाद में थोड़ी कड़वाहट बरकरार है। तब कोई आश्चर्य नहीं कि पूरी दुनिया में उगाए जाने वाले तरबूज़-खरबूज़ भारतीय मूल के हैं।

दुनिया के विभिन्न हिस्सों में लोगों के स्वाद में विविधता का असर करेले में दिखाई देता है। हाल ही में (800 साल पहले) थाईलैंड और पड़ोसी देशों में पाई जाने वाली करेले की देशी किस्में बड़ी, कम कड़वी और चिकनी और लगभग सफेद होती हैं। इसकी तुलना में, कंगूरेदार छिलके वाली भारतीय किस्में छोटी और अधिक कड़वी होती हैं, और काफी लंबे समय से उगाई जा रही हैं।

पोषण

करेला खनिज पदार्थों और विटामिन सी का समृद्ध स्रोत है। रोज़ाना 100 ग्राम करेले का सेवन औसत व्यक्ति के लिए आवश्यक विटामिन सी की पूरी (और आधे विटामिन ए) की आपूर्ति कर सकता है, जबकि इससे केवल 150 मिलीग्राम वसा ही मिलती है। सामान्य तौर पर, पोषण के मामले में कुकुरबिट्स वसा और कार्बोहाइड्रेट से भरपूर प्रोसेस्ड खाद्य पदार्थों के ठीक उलट होते हैं। कुकुरबिट्स में लगभग 85-95 प्रतिशत पानी होता है, और ये कम कैलोरी देते हैं।

आहार में शामिल होने और औषधीय महत्व होने के अलावा, कुकुबिट्स के दिलचस्प उपयोग भी हैं। गिलकी जब पककर सूख जाती है तो त्वचा की देखभाल के लिए स्पंज की तरह उपयोग की जाती है। सूखी लौकी (तमिल में सुरक्कई) सरोद, सितार और तानपुरा जैसे वाद्य यंत्रों में गुंजन यंत्र की तरह उपयोग की जाती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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एक लोकप्रिय पौधे का नाम बदलना – डॉ. किशोर पंवार

स्नेक प्लांट एक सजावटी पौधा है, जिसका उपयोग ऑफिस के अंदर और घर की हवा की गुणवत्ता सुधार हेतु आजकल बड़े पैमाने पर किया जा रहा है। ऑनलाइन दुकानों पर भी यह पौधा खूब बिक रहा है। इसका एक नाम मदर-इन-लॉज़ टंग (mother-in-law’s tongue) भी है।

वनस्पति विज्ञान में इसे अभी तक सेंसिविएरिया ट्रायफेसिएटा  (Sansevieria trifasciata) के नाम से जाना जाता था। अब इस पौधे का नाम बदल दिया गया है। अब इसे ड्रेसीना ट्रायफेसिएटा (Dracaena trifasciata) कहा जाने लगा है।

लेकिन क्यों?

सवाल यह है कि पौधों के नाम आखिर बदले ही क्यों जाते हैं? जो चलन में है उन्हें ही चलने दें। लेकिन यहां बात चलन की नहीं है, सही होने की है। दरअसल, नाम बदलने के तीन कारण होते हैं –

पहला, सबसे पुराना नाम वह माना जाता है जो सबसे पहले प्रकाशित हुआ हो। यदि ऐसी कोई प्रामाणिक जानकारी मिलती है कि जो नाम आजकल चलन में है उससे पूर्व का भी कोई नाम प्रकाशित हुआ था, तो नए नाम को छोड़कर पुराना नाम अपना लिया जाता है।

दूसरा, यदि पौधे का जो नाम चलन में है, उस पौधे की पहचान ही गलत हुई हो, तो गलती को सुधारा जाता है।

नाम बदलने का तीसरा कारण यह है कि पौधे को नए सिरे से वर्गीकृत किया गया हो। दरअसल पूर्व के वर्गीकरणविदों ने पेड़-पौधों का जो नामकरण किया था उसका मुख्य आधार उनका रूप-रंग, आकार-प्रकार, फूलों की आपसी समानता आदि थे। यानी मुख्य रूप से आकारिकी आधारित वर्गीकरण था। फिर पादप रसायन शास्त्र, भ्रूण विज्ञान, आंतरिक संरचना, पुराजीव विज्ञान आदि के आधार पर पौधों को फिर से वर्गीकृत किया गया।

नाम बदलने का एक महत्वपूर्ण उदाहरण है बबूल का। पहले इसे अकेसिया अरेबिका (Acacia arabica) कहते थे और फिर बदलकर अकेसिया निलोटिका (Acacia nilotica) कर दिया गया था। लेकिन एक बार फिर नाम बदला गया और बबूल हो गया वेचेलिया निलोटिका (Vachellia nilotica)

यहां यह बात गौरतलब है कि सामान्यत: वानस्पतिक नामों में दो पद होते हैं। इसे द्विनाम प्रणाली कहते हैं। इनमें से पहला पद (जैसे अकेशिया अथवा वेचेलिया) वंश या जीनस दर्शाता है और दूसरा पद (अरेबिका अथवा निलोटिका) प्रजाति बताता है। इसका मतलब है कि अकेशिया अरेबिका से बदलकर अकेशिया निलोटिका करने का मतलब था कि यह पौधा अभी भी उसी वंश (अकेशिया) में माना गया था लेकिन इसे बदलकर वेचेलिया निलोटिका करने का मतलब है कि इस पौधे को एक नए वंश में शामिल कर लिया गया है।

और अब तो ज़माना जीनोम अनुक्रमण और जेनेटिक सम्बंधों का है। जब से जिनोम अनुक्रमण ने वर्गीकरण के मैदान में कदम रखा है तब से चीज़ें बहुत बदल गई हैं। जीनोम अनुक्रमण (यानी किसी जीवधारी की संपूर्ण जेनेटिक सामग्री यानी डीएनए में क्षारों का क्रम पता लगाना) की मदद से जीवधारियों के बीच सम्बंध ज़्यादा स्पष्टता से सामने आते हैं और इसके आधार पर यह तय किया जा सकता है कि कौन-से पौधे या प्राणि ज़्यादा निकटता से सम्बंधित हैं। इस नई जानकारी के आधार पर वर्गीकरण में परिवर्तन स्वाभाविक है।

स्नेक प्लांट यानी मदर- इन-लॉज़ टंग के मामले में यही हुआ। वर्ष 2017 तक जिसे वनस्पति वैज्ञानिक सेंसेविएरिया ट्रायिफेसिएटा कहते थे, जीनोम अनुक्रमण से प्राप्त जानकारी के चलते उसे ड्रेसीना वंश में समाहित कर दिया गया है। कारण यह है कि सेंसेविएरिया प्रजातियों के जीनोम और ड्रेसीना वंश की प्रजातियों के जीनोम में काफी समानता देखी गई है।

ड्रेसीना एक बड़ा वंश है जिसमें लगभग 120 प्रजातियां शामिल हैं। सेंसेविएरिया वंश में करीब 70 प्रजातियां शामिल थीं और अब सबकी सब ड्रेसीना वंश में समाहित हो गई हैं। दोनों वंशों की अधिकांश प्रजातियां अफ्रीका, दक्षिण एशिया से लेकर उत्तरी ऑस्ट्रेलिया की मूल निवासी हैं।

ड्रेसिना ट्राइफेसिएटा मूल रूप से दक्षिण अफ्रीका, नाइजीरिया और कांगों तक पाया जाता है। इसमें कड़क हरी पत्तियां सीधी खड़ी लंबाई में वृद्धि करती है। पत्तियों के किनारे पीले होते हैं और पूरी पत्ती पर हल्के भूरे रंग के आड़े पट्टे बने होते हैं। पत्तियों की लंबाई 70 से 90 सेंटीमीटर और चौड़ाई 5 से 6 सेंटीमीटर होती है। और यह 2 मीटर तक लंबा हो सकता है।

नासा ने अपनी स्टडी में सिक बिल्डिंग सिंड्रोम के लिए ज़िम्मेदार 5 ज़हरीले रसायनों में से चार को फिल्टर करने में स्नेक प्लांट को उपयोगी पाया है। इसे घर के बाहर और अंदर दोनों जगह बड़े आराम से लगाया जा सकता है। हालांकि हवा को साफ करने की इसकी क्षमता बहुत ही धीमी है। अतः इस कार्य हेतु इसका उपयोग व्यावहारिक नहीं है।

इस हेतु दूसरा पौधा है सेंसिविएरिया सिलेंड्रिका, जिसे सिलेंड्रिकल स्नेक प्लांट, अफ्रीकन स्पीयर, सेंट बारबरास स्वॉर्ड कहते हैं। यह अंगोला का मूल निवासी है। इसमें पत्तियां 3 सेंटीमीटर तक मोटी और 2 मीटर तक लंबी, लगभग गोल, चिकनी और हरे रंग की होती हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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एक पौधे ने नाशी कीट को मित्र बनाया

सलों पर हमला करने वाले पादप बग्स किसानों के बड़े दुश्मन होते हैं। आकार में मटर के दाने जितने बड़े, पंखों वाले ये कीट फलों, पत्तेदार सब्ज़ियों सहित अन्य फसलों को सफाचट कर जाते हैं जिससे हर वर्ष करोड़ों का नुकसान होता है। हाल ही में किए गए एक अध्ययन से पता चला है कि कोस्टा रिका में पाया जाने वाला एक फूल इन भक्षक कीटों को रक्षक में बदल देता है।

एरम की एक प्रजाति परागणकर्ता के रूप में गुबरैलों की बजाय बग की एक प्रजाति को आकर्षित करने के लिए विकसित हो गई है। यह ऐसा पहला ज्ञात पौधा है जिसने बग का उपयोग अपने परागण के लिए किया है। डेनमार्क के जीव विज्ञानी और परागण विशेषज्ञ जेफ ओलर्टन के अनुसार यह अध्ययन दर्शाता है कि जैव विकास के दौरान फूलधारी पौधों ने मधुमक्खियों, तितलियों और हमिंगबर्ड जैसे परंपरागत परागणकर्ताओं के अलावा अन्य परागणकर्ताओं के साथ भी सम्बंध विकसित किए हैं।

दरअसल, विएना युनिवर्सिटी के शोध छात्र फ्लोरियन एट्ल परागण में गुबरैलों की भूमिका की जांच कर रहे थे।

आम तौर पर रात में एरम पौधे का तापमान बढ़ता है और एक ऐसी महक निकलती है जिससे गुबरैले आकर्षित होते हैं। लेकिन एक रात एट्ल ने एरम प्रजाति (सिन्गोनियम हैस्टिफेरम) के पौधे में इस प्रक्रिया को देखने के लिए पूरी रात इंतज़ार किया। आखिरकार सुबह-सुबह एक तेज़ महक महसूस की लेकिन इस गंध ने गुबरैलों की बजाय बग्स को आकर्षित किया। एट्ल और उनके सहयोगियों ने इस गंध का रासायनिक विश्लेषण किया। इसका प्रमुख घटक एक अज्ञात रसायन था जिसे उन्होंने गैम्बनोल नाम दिया है।

करंट बायोलॉजी में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार जब एट्ल ने इस गंध को कागज़ के फूलों पर लगाया तो इससे बड़ी संख्या में बग्स आकर्षित हुए। और तो और, जब एक जाली की मदद से बग्स को फूलों तक पहुंचने से रोका गया तो बीज नहीं बने। स्पष्ट है कि परागण की प्रक्रिया में बग्स महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।  

इसके अलावा एट्ल ने पाया कि सिन्गोनियम हैस्टिफेरम में परागण कुछ अलग तरह था। अपने निकट सम्बंधियों के विपरीत यह पौधा अलिंगी फूल नहीं बनाता, जो परागणकर्ता के लिए भोजन का काम करते हैं। इसके परागकण चिकने और चिपचिपे नहीं, बल्कि कांटेदार और पावडरी होते हैं। इस तरह से यह चिपकते तो हैं लेकिन बग के शरीर के बालों के बीच उलझते नहीं हैं।

देखा जाए तो परागण के लिए गुबरैलों को छोड़कर बग्स का हाथ थामना एक बड़ा वैकासिक परिवर्तन है क्योंकि इसके लिए पौधे को महक छोड़ने का अपना समय और परागकणों की बनावट भी बदलनी पड़ी है। शोधकर्ताओं को लगता है कि इस तरह के आपसी सम्बंध अन्य प्रजातियों में भी हो सकते हैं। एट्ल ऐसी अन्य संभावनाओं की तलाश में हैं। वैसे यह नहीं कहा जा सकता कि यह खोज कीटों से लड़ने में किसानों के लिए कितनी मददगार होगी। (स्रोत फीचर्स)

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कमाल का संसार कुकुरमुत्तों का – डॉ. ओ. पी. जोशी

रसात के दिनों में सड़ी-गली वस्तुओं पर पैदा होकर जल्द ही गायब होने वाले सुंदर, नाज़ुक एवं रंग-बिरंगे कुकुरमुत्ते हमेशा ही ध्यान आकर्षित करते हैं। प्राचीन समय में मनुष्य इस दुविधा में था कि ये पौधे हैं या फिर जंतु। अलबत्ता, प्रसिद्ध वैज्ञानिक थियोफ्रेस्टस (371–287 ईसा पूर्व) का मत था कि ये एक प्रकार की वनस्पति हैं।

कुकुरमुत्ते मृतोपजीवी (सेप्रोफाइट) हैं, जो सड़े गले पदार्थों से भोजन प्राप्त करते है। जीवजगत के आधुनिक वर्गीकरण में इन्हें कवक (फंजाई) समुदाय में रखा गया है। अंग्रेज़ी में इन्हें मशरूम तथा हिंदी में कई नामों से जाना जाता है, जैसे खुंभ, खुंभी, गुच्छी, धींगरी तथा भींगरी। इनकी ज़्यादातर प्रजातियां छतरी समान होने के कारण इन्हें छत्रक भी कहा जाता है। इनका ऊपर का छतरी समान भाग (पायलियस) एक ठंडल समान रचना (स्टेप) से जुड़ा रहता है। इस रचना के ज़मीन से सटे भाग से जड़ों के समान धागे जैसी रचनाएं (माइसीलियम) निकलकर पोषक पदार्थों का अवशोषण करती हैं। छतरी समान रचना में कई छोटे-छोटे खांचे (गिल्स) होते हैं जहां बीजाणु (स्पोर्स) बनते हैं। इनका प्रसार धागेनुमा रचना एवं बीजाणु दोनों से होता है। कुछ कुकुरमुत्ते पूरी तरह भूमिगत होते हैं जिन्हें ट्रफल कहा जाता है।

कुकुरमुत्तों का वर्णन कई देशों के प्राचीन साहित्य में मिलता है। बेबीलोन, यूनान एवं रोम सभ्यता के पुराने धार्मिक ग्रंथों में इनके विविध उपयोगों का ज़िक्र है। चीन की पुरानी पुस्तकों में इनको उगाने की विधि बताई गई है। हमारे देश के प्राचीन ग्रंथ चरक संहिता में इन्हें तीन प्रकार का बताया गया है – खाने योग्य, विषैले एवं औषधीय। कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि प्राचीन काल में प्रचलित सोमरस भी एमेनिटा मस्केरिया नामक कुकुरमुत्ते से बनाया जाता था जो फ्लाय-एगेरिक के नाम से मशहूर है।

प्राचीन युरोप एवं रोम की मान्यता के अनुसार कुकुरमुत्ते बादलों में कड़कती बिजली के कारण धरती पर पैदा होते है। मेक्सिको में प्राचीन समय में इन्हें दैवी शक्ति मानकर पूजा की जाती थी। यूनानवासी एक समय मूर्ख लोगों को कुकुरमुत्ता कहते थे। प्रसिद्ध वैज्ञानिक चार्ल्स डार्विन ने 19वीं सदी में दक्षिण अमेरिका के एक द्वीप पर वहां के निवासियों को मांस-मछली के साथ कुकुरमुत्ते एवं स्ट्रॉबेरी खाते देखा था। इन कुकुरमुत्तों को बाद में सायटेरिया डार्विनाई कहा गया। जूलियस सीज़र के समय एक ताकत देने वाला कुकुरमुत्ता (एगेरिकस प्रजाति) सैनिकों को खिलाया जाता था।

कुकुरमुत्तों को उगाने या खेती करने का इतिहास भी काफी पुराना है। चीन एवं जापान के लोग लगभग दो हज़ार वर्ष पूर्व पेड़ों के तनों के टुकड़ों पर अपनी पसंद के कुकुरमुत्ते उगाते थे। 17वीं सदी में पेरिस के निर्माण के लिए खोदी गई चूना पत्थर की बेकार पड़ी खदानों में घोड़े की लीद पर फ्रांसीसियों ने इनकी खेती की। यहां से इनकी खेती का चलन पूरे युरोप, अमेरिका एवं अन्य देशों में फैला। वर्तमान में इनकी खेती में कम्पोस्ट खाद एवं भूसी का उपयोग किया जाता है। यदि गर्मियों में ठंडक तथा जाड़ों गर्म रखने की व्यवस्था हो तो कुकुरमुत्तों की खेती वर्ष भर की जा सकती है। हमारे देश में इनकी खेती 1962 में प्रारम्भ हुई।

कुछ प्रजातियों के कुकुरमुत्तों का आकार छतरी से भिन्न भी होता है – जैसे अंडाकार (पोडेक्सिस एवं क्लेवेरिया), सीप समान (प्लूटियस), कुप्पी (फनल) के समान (क्लाइटोसाइब) एवं चिड़ियों के घोसले में रखे अंडों के समान (साएथस)। कुछ कुकुरमुत्ते (प्लूरोटस तथा आर्मेलेरिया प्रजातियां) रात में जंगलों में ऐसे चमकते हैं मानों छोटे-छोटे बिजली के बल्ब लगे हों।

कुकुरमुत्ते खाद्य तथा चिकित्सा के क्षेत्र में काफी उपयोगी पाए गए हैं। वैसे तो दुनिया भर में कई प्रकार के कुकुरमुत्ते उगाए एवं खाए जाते हैं परंतु तीन प्रमुख हैं – बटन खुंभी (एगेरिकस प्रजातियां), धान पुआल खुंभी (वॉल्वेरिया प्रजातियां) एवं ढोंगरी (प्लूरोटस प्रजातियां)।

पोषण वैज्ञानिकों के मुताबिक 100 ग्राम ताज़े कुकुरमुत्ते में औसतन 5 ग्राम ऐसा प्रोटीन होता है जो शरीर में पूरी तरह पच जाता है। इसके अलावा कार्बोहायड्रेट, विटामिन्स, वसा, रेशे एवं खनिज पदार्थ भी पाए जाते हैं। वसा एवं कार्बोहायड्रेट की मात्रा कम होने से मोटापा के प्रति चिंतित लोगों में कुकुरमुत्तों के खाद्य पदार्थ काफी लोकप्रिय हैं। मधुमेह एवं हृदय रोगियों के लिए भी इनका भोजन आदर्श बताया गया है। जलवायु बदलाव से भविष्य में खाद्यान्न पैदावार में कमी की संभावना के मद्देनज़र भोजन में कुकुरमुत्तों के उपयोग को बढ़ावा दिया जाना चाहिए।

चिकित्सा के क्षेत्र में भी ये काफी उपयोगी पाए गए हैं। होम्योपैथी की कई दवाइयों में एगेरिक का उपयोग किया जाता है। लायकोपरडॉन का उपयोग ड्रेसिंग के लिए मुलायम पट्टियां बनाने में किया जाता है। कई प्रजातियों से क्रमश: हृदय रोग एवं रक्तचाप नियंत्रण की दवाई बनाने के प्रयास जारी हैं। अमेरिका तथा जापान के राष्ट्रीय कैंसर शोध संस्थाओं ने ग्रिफोला-फानड्रोसा तथा एक अन्य प्रजाति में कैंसर-रोधी गुणों की खोज की है। यह संभावना भी व्यक्त की गई है कि गेनोडर्मा से एड्स, कैंसर एवं मधुमेह का उपचार संभव है। त्रिसुर (केरल) के अमाला कैंसर शोध संस्थान ने पाया कि गेनोडर्मा से बनाई दवा कीमोथेरेपी के साइड प्रभावों को कम कर देती है। उत्तर कोरिया के वैज्ञानिकों ने कुकुरमुत्तों की कुछ प्रजातियों से एक ऐसा पेय पदार्थ तैयार किया है जिसका सेवन खिलाड़ियों की थकावट को दूर कर तरोताज़ा बना देता है। पेनसिल्वेनिया स्टेट विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने ऐसा पेय तैयार किया है जिसका सेवन लोगों को अवसाद से उबारकर स्फूर्ति प्रदान करता है। सोलन स्थित राष्ट्रीय मशरूम अनुसंधान केन्द्र में इसे सफलता पूर्वक उगाया गया है।

कुकुरमुत्तों का सेवन नशे के लिए किए जाने के भी प्रमाण मिले हैं। मेक्सिको के लोग एमेनिटा को खाकर आनंद की अनुभूति करते थे। एक अन्य कुकुरमुत्ते में मौजूद एल्केलाइड भी नशा पैदा करता है। कुकुरमुत्तों को देखकर, छूकर, सूंघकर या रंग देखकर यह पता नहीं लगाया जा सकता है कि ये विषैले हैं या विषहीन। एक मान्यता है कि रंगीन विशेषकर बैंगनी कुकुरमुत्ते विषैले होते हैं। दूध का फटना भी विषैले कुकुरमुत्तों की एक पहचान बताई गई है।

और तो और, डिज़ाइनर व वास्तुकार फिलिप रॉस ने इनकी मायसीलियम से मज़बूत ईंट का निर्माण किया है। (स्रोत फीचर्स)

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गाजर घास के लाभकारी नवाचारी उपयोग – डॉ. खुशाल सिंह पुरोहित

पिछले दिनों इंदौर के प्राध्यापक डॉ. मुकेश कुमार पाटीदार ने गाजर घास से बायोप्लास्टिक बनाने में सफलता प्राप्त की है। 

इंदौर के महाराजा रणजीत सिंह कॉलेज ऑफ प्रोफेशनल साइंसेज़ के बायोसाइंस विभाग के प्राध्यापक डॉ. मुकेश कुमार पाटीदार ने जुलाई 2020 में गाजर घास से बायोप्लास्टिक बनाने की कार्ययोजना पर काम शुरू किया था। इस कार्य में उन्हें भारतीय प्रोद्योगिकी संस्थान इंदौर की प्राध्यापक अपूर्वा दास और शोधार्थी शाश्वत निगम का भी सहयोग मिला। गाजर घास के रेशों से बायोप्लास्टिक बनाया गया, जो सामान्य प्लास्टिक जैसा ही मज़बूत हैं। डॉ. पाटीदार के अनुसार पर्यावरण पर इसका कोई दुष्प्रभाव नहीं होगा और 45 दिनों में यह 80 प्रतिशत तक नष्ट भी हो जाएगा। बाज़ार में वर्तमान में उपलब्ध बायोप्लास्टिक से इसका मूल्य भी कम होगा।  

बरसात का मौसम शुरू होते ही गाजर जैसी पत्तियों वाली एक वनस्पति काफी तेज़ी से फैलने लगती है। सम्पूर्ण संसार में पांव पसारने वाला कम्पोज़िटी कुल का यह सदस्य वनस्पति विज्ञान में पार्थेनियम हिस्ट्रोफोरस के नाम से जाना जाता है और वास्तव में घास नहीं है। इसकी बीस प्रजातियां पूरे विश्व में पाई जाती हैं। यह वर्तमान में विश्व के सात सर्वाधिक हानिकारक पौधों में से एक है, जो मानव, कृषि एवं पालतू जानवरों के स्वास्थ्य के साथ-साथ सम्पूर्ण पर्यावरण के लिये अत्यधिक हानिकारक है।

कहा जाता है कि अर्जेन्टीना, ब्राज़ील, मेक्सिको एवं अमरीका में बहुतायत से पाए जाने वाले इस पौधे का भारत में 1950 के पूर्व कोई अस्तित्व नहीं था। ऐसा माना जाता है कि इस ‘घास’ के बीज 1950 में पी.एल.480 योजना के तहत अमरीकी संकर गेहूं के साथ भारत आए। आज यह ‘घास’ देश में लगभग सभी क्षेत्रों में फैलती जा रही है। उत्तर प्रदेश, बिहार, पंजाब, हरियाणा, म.प्र. एवं महाराष्ट्र जैसे महत्वपूर्ण कृषि उत्पादक राज्यों के विशाल क्षेत्र में यह ‘घास’ फैल चुकी है।

तीन से चार फुट तक लंबी इस गाजर घास का तना धारदार तथा पत्तियां बड़ी और कटावदार होती है। इस पर फूल जल्दी आ जाते हैं तथा 6 से 8 महीने तक रहते हैं। इसके छोटे-छोटे सफेद फूल होते हैं, जिनके अंदर काले रंग के वज़न में हल्के बीज होते हैं। इसकी पत्तियों के काले छोटे-छोटे रोमों में पाया जाने वाला रासायनिक पदार्थ पार्थेनिन मनुष्यों में एलर्जी का मुख्य कारण है। दमा, खांसी, बुखार व त्वचा के रोगों का कारण भी मुख्य रूप से यही पदार्थ है। गाजर घास के परागकण का सांस की बीमारी से भी सम्बंध हैं।

पशुओं के लिए भी यह घास अत्यन्त हानिकारक है। इसकी हरियाली के प्रति लालायित होकर खाने के लिए पशु इसके करीब तो आते हैं, लेकिन इसकी तीव्र गंध से निराश होकर लौट जाते हैं।

गाजर घास के पौधों में प्रजनन क्षमता अत्यधिक होती है। जब यह एक स्थान पर जम जाती है, तो अपने आस-पास किसी अन्य पौधे को विकसित नहीं होने देती है। वनस्पति जगत में यह ‘घास’ एक शोषक के रूप में उभर रही है। गाजर घास के परागकण वायु को दूषित करते हैं तथा जड़ो से स्रावित रासायनिक पदार्थ इक्यूडेर मिट्टी को दूषित करता है। भूमि-प्रदूषण फैलाने वाला यह पौधा स्वयं तो मिट्टी को बांधता नहीं है, दूसरा इसकी उपस्थिति में अन्य प्रजाति के पौधे भी शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं।

गाजर घास का उपयोग अनेक प्रकार के कीटनाशक, जीवाणुनाशक और खरपतवार नाशक दवाइयों के निर्माण में किया जाता है। इसकी लुगदी से विभिन्न प्रकार के कागज़ तैयार किए जाते हैं। बायोगैस उत्पादन में भी इसको गोबर के साथ मिलाया जाता है। पलवार के रूप में इसका ज़मीन पर आवरण बनाकर प्रयोग करने से दूसरे खरपतवार की वृद्धि में कमी आती है, साथ ही मिट्टी में अपरदन एवं पोषक तत्व खत्म होने को भी नियंत्रित किया जा सकता है।

इलाहाबाद विश्वविद्यालय के जैव-रसायन  विभाग के डॉ. के. पांडे ने इस पर अध्ययन के बाद बताया कि गाजर घास में औषधीय गुण भी हैं। इससे बनी दवाइयां बैक्टीरिया और वायरस से होने वाले विभिन्न रोगों के इलाज में कारगर हो सकती हैं।

पिछले वर्षों में गाजर घास का एक अन्य उपयोग वैज्ञानिकों ने खोजा है जिससे अब गाजर घास का उपयोग खेती के लिए विशिष्ट कम्पोस्ट खाद निर्माण में किया जा रहा है। इससे एक ओर, गाजर घास का उपयोग हो सकेगा वहीं दूसरी ओर किसानों को प्राकृतिक

पोषक तत्व (प्रतिशत में)गाजर घास खादकेंचुआ खादगोबर खाद
नाइट्रोजन1.051.610.45
फॉस्फोरस10.840.680.30
पोटेशियम1.111.310.54
कैल्शियम0.900.650.59
मैग्नीशियम0.550.430.28

और सस्ती खाद उपलब्ध हो सकेगी। उदयपुर के सहायक प्राध्यापक डॉ. सतीश कुमार आमेटा ने गाजर घास से विशिष्ट कम्पोस्ट खाद का निर्माण किया है। इस तकनीक से बनी खाद में नाइट्रोजन, फॉस्फोरस, पोटेशियम की मात्रा साधारण खाद से तीन गुना अधिक होती है, जो कृषि के लिए एक वरदान है। मेवाड़ युनिवर्सिटी गंगरार चित्तौड़गढ़ में कार्यरत डॉ. आमेटा के अनुसार इस नवाचार से गाजर घास के उन्मूलन में सहायता मिलेगी और किसानों को जैविक खाद की प्राप्ति सुगम हो सकेगी।

जैविक खाद बनाने की इस तकनीक में व्यर्थ कार्बनिक पदार्थों, जैसे गोबर, सूखी पत्तियां, फसलों के अवशेष, राख, लकड़ी का बुरादा आदि का एक भाग एवं चार भाग गाजर घास को मिलाकर बड़ी टंकी या टांके में भरा जाता है। इसके चारों ओर छेद किए जाते हैं, ताकि हवा का प्रवाह समुचित बना रहे और गाजर घास का खाद के रूप में अपघटन शीघ्रता से हो सके। इसमें रॉक फॉस्फेट एवं ट्राइकोडर्मा कवक का उपयोग करके खाद में पोषक तत्वों की मात्रा को बढ़ाया जा सकता है। निरंतर पानी का छिडकाव कर एवं मिश्रण को निश्चित अंतराल में पलट कर हवा उपलब्ध कराने पर मात्र 2 महीने में जैविक खाद का निर्माण किया जा सकता है।

गाजर घास से बनी कम्पोस्ट में मुख्य पोषक तत्वों की मात्रा गोबर खाद से दुगनी होती है। गाजर घास की खाद, केंचुआ खाद और गोबर खाद की तुलना तालिका में देखें। स्पष्ट है कि तत्वों की मात्रा गाजर घास से बने खाद में अधिक होती है। गाजर घास कम्पोस्ट एक ऐसी जैविक खाद है, जिसके उपयोग से फसलों, मनुष्यों व पशुओं पर कोई भी विपरीत प्रभाव नहीं पड़ता है। (स्रोत फीचर्स)

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कुकुरमुत्तों का संवाद

हां-वहां उग रहे कुकुरमुत्तों (मशरूम) को देखकर ऐसा लगता है कि वे भी कहीं आपस में बात करते होंगे। लेकिन एक नए अध्ययन से पता चलता है कि वे ‘बातूनी’ हो सकते हैं।

मशरूम दरअसल एक प्रकार की फफूंद हैं। इनके द्वारा एक-दूसरे को भेजे जाने वाले विद्युत संकेतों के गणितीय विश्लेषण में ऐसे पैटर्न पहचाने गए हैं जो मानव भाषा से आश्चर्यजनक संरचनात्मक समानता दर्शाते हैं।

पूर्व अध्ययनों में देखा गया था कि फफूंद अपनी लंबी, भूमिगत तंतुनुमा रचनाओं (कवकतंतु या हाइफे) के माध्यम से विद्युत संकेतों का संचालन करते हैं – ठीक वैसे ही जैसे मनुष्यों में तंत्रिका कोशिकाएं सूचना प्रसारित करती हैं।

यहां तक देखा गया है कि जब लकड़ी पचाने वाली फफूंद के कवकतंतु किसी लकड़ी के टुकड़े के संपर्क में आते हैं तो इन संकेतों के प्रेषण की दर बढ़ जाती है। इससे लगता है कि फफूंद इस विद्युत ‘भाषा’ का उपयोग भोजन उपलब्ध होने या क्षति पहुंचने की जानकारी अपने अन्य हिस्सों के साथ या कवकतंतुओं के माध्यम से जुड़ी वनस्पतियों के साथ साझा करने के लिए करती हैं।

लेकिन क्या ये विद्युत गतिविधियां मानव भाषा से कुछ समानता रखती हैं? यह जानने के लिए युनिवर्सिटी ऑफ दी वेस्ट ऑफ इंग्लैंड के प्रोफेसर एंड्रयू एडमात्ज़की ने फफूंद की चार प्रजातियों – एनोकी, स्प्लिट गिल, घोस्ट और कैटरपिलर फफूंद द्वारा बहुत कम समय के लिए उत्पन्न विद्युत आवेगों के पैटर्न का विश्लेषण किया।

रॉयल सोसाइटी ओपन साइंस में प्रकाशित नतीजों के अनुसार ये विद्युत आवेग अक्सर समूहों में होते हैं, और ऐसा लगता है कि 50 ‘शब्दों’ का ककहरा हो। और इन कवक ‘शब्दों’ की लंबाई मानव भाषा से काफी मेल खाती है। सड़ती-गलती लकड़ी पर पनपने वाली फफूंद स्प्लिट गिल उपरोक्त चार में से सबसे जटिल ‘वाक्य’ बनाती हैं।

इन विद्युत गतिविधियों का सबसे संभावित कारण फफूंद द्वारा अपने समूह को जोड़े रखना लगता है – जैसे भेड़िए करते हैं। या यह भी हो सकता है कि इनकी भूमिका कवकजाल के अन्य हिस्सों को भोजन या खतरों के बारे में आगाह करने की है। एक संभावना यह भी हो सकती है कि फफूंद कुछ भी न कहते हों बल्कि यह हो सकता है कि कवकजाल के सिरे विद्युत आवेशित होते हैं, इसलिए जब आवेशित सिरे इलेक्ट्रोड्स से संपर्क में आते होंगे तो विभवांतर में तीक्ष्ण वृद्धि हो जाती होगी।

बहरहाल इन विद्युत संकेतो का कुछ भी मतलब हो लेकिन ये बेतरतीब या रैंडम नहीं लगते। फिर भी, इन संकेतों को भाषा के रूप में स्वीकार करने के लिए और अधिक प्रमाणों की ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स) 

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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