नाइट्रोजन को उपयोगी रूप में बदलने वाली शैवाल – किशोर पंवार

कार्बन, हाइड्रोजन, ऑक्सीजन, फॉस्फोरस के समान नाइट्रोजन भी एक ज़रूरी पोषक तत्व है। पृथ्वी के वायुमंडल में लगभग 80 प्रतिशत नाइट्रोजन है लेकिन मज़ेदार बात है कि पेड़-पौधे इसका उपयोग तब तक नहीं कर सकते जब तक कि इसे यौगिकों में न बदल दिया जाए। नाइट्रोजन स्थिरीकरण का यह अत्यंत महत्वपूर्ण काम पृथ्वी पर सिर्फ आर्किया और बैक्टीरिया समूह के सूक्ष्मजीव कर पाते हैं और इन्हीं की बदौलत नाइट्रोजन पेड़-पौधों को मिलती है। लेकिन हालिया अध्ययन से पता चला है कि एक शैवाल भी यह काम कर सकती है। 

हाल ही में वैज्ञानिकों ने पहली ऐसी शैवाल की खोज की है जो उसमें पाए जाने वाली एक छोटी कोशिका संरचना की बदौलत हवा की नाइट्रोजन को उपयोगी रूप में बदल सकती है। नाइट्रोजन सजीवों की वृद्धि एवं जीवन क्रियाओं के लिए एक अनिवार्य तत्व है लेकिन पेड़-पौधे, शैवाल वगैरह तात्विक नाइट्रोजन का उपयोग नहीं कर सकते, बल्कि तभी कर सकते हैं जब वह यौगिकों के रूप में मिले। शोधकर्ताओं ने इस शैवाल में पाई गई इस संरचना को अंगक यानी ऑर्गेनेल कहा है। और इसे नाम दिया गया है नाइट्रोप्लास्ट।

यह शोध अप्रैल 2023 में साइंस जर्नल में प्रकाशित हुआ था। शोधकर्ताओं के अनुसार जेनेटिक इंजीनियरिंग की तकनीक से इस संरचना के जीन्स को पौधों में रोप दिया जाए तो वे स्वयं नाइट्रोजन को परिवर्तित करने में सक्षम हो सकते हैं। इससे फसलों की पैदावार बढ़ सकती है और रासायनिक उर्वरकों पर निर्भरता कम हो सकती है।

अध्ययन के एक सह लेखक कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के समुद्री पारिस्थितिक वैज्ञानिक के. जोनाथन ज़ेहर कहते हैं कि अब तक पाठ्यपुस्तकों के अनुसार नाइट्रोजन स्थिरीकरण (यानी नाइट्रोजन तत्व को यौगिकों में बदलने) की क्षमता केवल बैक्टीरिया और आर्किया समूह में ही पता थी। ये प्रोकैरियोटिक जीव हैं। कोशिका बनावट के आधार पर जीव दो तरह के होते हैं – प्रोकैरियोट (जिनमें केंद्रक नहीं पाया जाता) और यूकैरियोट (जिनमें सुस्पष्ट केंद्रक पाया जाता है और जेनेटिक पदार्थ केंद्रक में होता है)। उनका अध्ययन बताता है कि शैवाल की यह प्रजाति पहला यूकैरियोटिक जीव है जिसमें नाइट्रोजन स्थिरीकरण की क्षमता है। यूकैरियोटिक जीवों में पौधे और जंतु शामिल हैं।

2012 में ज़ेहर के शोधदल ने बताया था कि ब्रारुडोस्फेरा बिगलोवी (Braarudosphaera bigelowii) नामक एक समुद्री शैवाल UCYN-A नाम के बैक्टीरिया से करीबी रूप से जुड़ा रहता है। लगता था कि यह बैक्टीरिया शैवाल की कोशिका के अंदर या उसके ऊपर रहता है। शोधकर्ताओं का अनुमान था कि यह बैक्टीरिया नाइट्रोजन गैस को अमोनिया जैसे यौगिकों में बदल देता है जिसका उपयोग शैवाल अपनी वृद्धि में करता है। माना गया था कि नाइट्रोजन के बदले में बैक्टीरिया को शैवाल से कार्बनिक ऊर्जा स्रोत अर्थात पोषक पदार्थ मिलते होंगे।

लेकिन नवीनतम अध्ययन के आधार पर शोधकर्ताओं का निष्कर्ष है कि UCYN-A बैक्टीरिया को एक स्वतंत्र जीव के रूप में नहीं बल्कि इस शैवाल के अंदर रहने वाले एक अंगक के रूप में देखा जाना चाहिए।

ज़ेहर का कहना है कि एक पूर्व अध्ययन में किए गए जेनेटिक विश्लेषण के अनुसार इस शैवाल और बैक्टीरिया के पूर्वजों के बीच लगभग 10 करोड़ वर्ष पूर्व एक सहजीवी सम्बंध स्थापित हुआ था। इस सहजीवी सम्बंध ने अंतत: एक अंगक का रूप ले लिया है – नाइट्रोप्लास्ट। यह अब ब्रारुडोस्फेरा बिगलोवी शैवाल के अंदर विराजमान है।

इसे अंगक क्यो कहें?

आखिर किसी कोशिका के अंदर रहने वाले जीव को स्वतंत्र जीव न मानकर अंगक क्यों माना जाए? किसी मेज़बान कोशिका के अंदर रहने वाला बैक्टीरिया अंगक है या नहीं, यह तय करने के लिए दो प्रमुख मापदंडों का उपयोग किया जाता है। पहला तो यह है कि विचाराधीन कोशिका संरचना (बैक्टीरिया) मेज़बान कोशिका में पीढ़ी-दर-पीढ़ी साथ चलना चाहिए। अर्थात जब मेज़बान कोशिका विभाजित होकर दो कोशिकाएं बनें तो दोनों में वह संरचना पहुंचनी चाहिए।

दूसरी कसौटी यह है कि वह संरचना मेज़बान कोशिका द्वारा मिलने वाले प्रोटीन पर निर्भर होना चाहिए।

नाइट्रोप्लास्ट इन दोनों मापदंडों पर खरा पाया गया है। इस कोशिका के विभाजन के विभिन्न चरणों में दर्जनों शैवाल कोशिकाओं की इमेजिंग करके शोधकर्ताओं ने पाया कि मेज़बान कोशिका के विभाजन के ठीक पूर्व नाइट्रोप्लास्ट दो भागों में विभाजित हो जाता है। इस तरह यह नाइट्रोप्लास्ट मूल कोशिका से उसकी संतान कोशिकाओं में स्थानांतरित होता रहता है।

यह ठीक वैसा ही है जैसा कि कोशिका में उपस्थित अन्य अंगकों में होता है। उल्लेखनीय है कि क्लोरोप्लास्ट और माइटोकॉण्ड्रिया भी अंगक ही हैं और उनमें भी कोशिका विभाजन के दौरान ऐसा ही होता है। इसके अलावा क्रोमोप्लास्ट, एमायलोप्लास्ट आदि भी अंगक ही हैं। माना जाता है कि ये भी कभी स्वतंत्र रूप से रहने वाले जीव थे जो अब पौधों की कोशिकाओं में स्थाई रूप से बस गए हैं और पादप अंगक कहलाते हैं। क्लोरोप्लास्ट के कारण ही पौधों में प्रकाश संश्लेषण संभव हुआ है और माइटोकॉण्ड्रिया ऑक्सी-श्वसन क्रिया को संभव बनाता है।

शोधकर्ताओं ने यह भी पाया कि इस नाइट्रोप्लास्ट को सारे ज़रूरी प्रोटीन्स शैवाल की कोशिका से ही मिलते है। हालांकि नाइट्रोप्लास्ट मेज़बान कोशिका के आयतन का 8 प्रतिशत से ज़्यादा होता है लेकिन इसके पास वे मुख्य प्रोटीन ही नहीं होते जो प्रकाश संश्लेषण और आनुवंशिक पदार्थ बनाने के लिए ज़रूरी हैं। ये प्रोटीन उसे शैवाल से ही प्राप्त होते हैं।

आंतरिक सहजीवी

सर्व प्रथम एंड्रियास शिंपर ने सन 1883 में यह प्रस्ताव रखा था कि वर्तमान पेड़-पौधों की कोशिकाओं में पाया जाने वाला क्लोरोप्लास्ट कोशिकीय सहजीविता का एक उदाहरण है। इस परिकल्पना के अनुसार क्लोरोप्लास्ट उन सायनोबैक्टीरिया के वंशज हैं जो किसी जीव द्वारा भक्षण के दौरान कोशिका के अंदर ले लिए गए थे। किसी कारण से ये पचने से बच गए और अब वहां आंतरिक सहजीवी के रूप में निवास कर रहे हैं। सायनोबैक्टीरिया और क्लोरोप्लास्ट द्वारा निर्मित प्रोटीन में समानताओं के आधार पर इस परिकल्पना को बल मिलता है। समय के साथ यह आंतरिक सहजीवी स्वतंत्र रूप से रहने की क्षमता खो बैठे क्योंकि उनकी अनुवांशिक सूचनाओं (डीएनए) का एक बड़ा हिस्सा धीरे-धीरे मेज़बान कोशिका के केंद्रक में स्थानांतरित हो गया।

उपरोक्त तथ्यों के चलते क्लोरोप्लास्ट व माइटोकॉण्ड्रिया के लिए आंतरिक सहजीवी शब्द का उपयोग उचित ही लगता है। इन अंगों की आंतरिक झिल्ली प्रोटोक्लोरोफाइट की प्लाज़्मा झिल्ली से मिलती-जुलती है और बाहरी झिल्ली मेज़बान कोशिका की भित्ति से। यह सिद्धांत माइटोकॉण्ड्रिया की दोहरी दीवार की उपस्थिति को भी उचित रूप से समझाता है। माइटोकॉण्ड्रिया की बाहरी दीवार पर उपस्थित छिद्र (पोरिंस) भी इसका एक प्रमाण है। गौरतलब है कि पोरिंस कुछ बैक्टीरिया की बाहरी झिल्ली में भी पाए जाते हैं। इससे भी उनके आंतरिक सहजीवी होने की पुष्टि होती है। सायनोबैक्टीरिया सामान्य रूप से कई जंतुओं और पौधों के अंदर आज भी मिलते हैं।

पौधों में फेरबदल

ज़ेहर कहते हैं कि नाइट्रोप्लास्ट मेज़बान कोशिका के साथ कैसे तालमेल बैठाता है यह समझ में आने से जेनेटिक इंजीनियरिंग के प्रयासों में मदद मिलेगी। फसलों की पैदावार काफी हद तक नाइट्रोजन की सीमित उपलब्धि से प्रभावित होती है। जेनेटिक इंजीनियरिंग के ज़रिए यदि नाइट्रोप्लास्ट को कोशिकाओं में डाल दिया जाता है तो यह एक उल्लेखनीय उपलब्धि होगी। नाइट्रोप्लास्ट युक्त पौधे अपनी नाइट्रोजन सम्बंधी ज़रूरतें स्वयं पूरी कर सकेंगे। यदि ऐसा हो जाता है तो नाइट्रोजन आधारित कृत्रिम उर्वरकों जैसे यूरिया, अमोनियम आदि की आवश्यकता कम हो जाएगी। साथ ही रासायनिक उर्वरकों के मृदा और पर्यावरण पर होने वाले हानिकारक प्रभावों से भी काफी हद तक बचा जा सकेगा।

लेकिन नाइट्रोप्लास्ट को फसली पौधों में रोपना कोई आसान काम नहीं होगा। नाइट्रोप्लास्ट के जीन्स युक्त पादप कोशिकाओं को इस तरह से इंजीनियर करने की आवश्यकता होगी कि नाइट्रोप्लास्ट पादप कोशिका के साथ पीढ़ी-दर-पीढ़ी स्थानांतरित होते रहें। ऐसा क्लोरोप्लास्ट और माइटोकॉण्ड्रिया में तो प्राकृतिक रूप से होता रहता है। यदि नाइट्रोप्लास्ट के मामले में भी ऐसा हो पाता है तो कृषि जगत में एक क्रांतिकारी परिवर्तन का मार्ग प्रशस्त होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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चंदन के पेड़ उगाने की जुगत – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

शायद ही किसी को चंदन के बारे में बताने की ज़रूरत पड़ेगी। इसके सुगंधित तेल, बेशकीमती लकड़ी और कई औषधीय गुणों के कारण इसे सदियों से महत्व मिलता रहा है। लेकिन चंदन का पेड़, जिससे यह सारी चीज़ें हमें मिलती हैं, उससे हम इतना वाकिफ नहीं हैं।

चंदन का पेड़ पतझड़ी जंगलों में उगने वाला पेड़ है। यह आंशिक या अर्ध-परजीवी वृक्ष है, जिसके चारों ओर चार-पांच अन्य तरह के पेड़ों की उपस्थिति ज़रूरी होती है। चंदन की जड़ें ज़मीन के नीचे एक हौस्टोरियम (चूषक-जाल) बनाती हैं। यह चूषक-जाल आसपास के मेज़बान पेड़ों की जड़ों पर ऑक्टोपस जैसी पकड़ बनाती हैं, और उनके ज़रिए पानी और अन्य पोषक तत्व प्राप्त करती हैं।

चंदन के फल से तो शायद हम और भी अधिक अपरिचित हैं। इसका फल लगभग 1.5 से.मी. व्यास का (करीब बेर/जामुन जितना बड़ा), रसीला-गूदेदार और पकने पर चमकदार जामुनी-काले रंग का होता है। इसके अंदर एक बीज होता है। इस बीज की रक्षा करने के लिए सख्त खोल नहीं होती बल्कि वह सूखी गिरी में कैद होता है। इस कारण बीज का एक मौसम से अधिक समय तक जीवित रहना मुश्किल होता है।

चंदन के उपरोक्त दोनों गुण – प्रारंभिक विकास चरण में अन्य पेड़ों की मदद की आवश्यकता, और अल्पकाल तक ही सलामत रहने वाले बीज जो संग्रहित नहीं किए जा सकते – के अलावा अत्यधिक दोहन किए जाने के चलते इन पेड़ों की मुश्किलें बढ़ गई हैं। इस वजह से दक्षिण भारत के जंगलों में चंदन के पेड़ों की संख्या में भारी गिरावट आई है। अंतर्राष्ट्रीय प्रकृति संरक्षण संघ (IUCN) ने चंदन को एक जोखिमग्रस्त प्रजाति की श्रेणी में रखा है। इसमें आश्चर्य की बात नहीं कि अब चंदन और चंदन के तेल का दुनिया का सबसे बड़ा आपूर्तिकर्ता देश ऑस्ट्रेलिया है।

पक्षियों द्वारा फैलाव

इसका फल कड़वा होता है, इसका स्वाद मनुष्यों को नहीं भाएगा। लेकिन यह पक्षियों को प्रिय है। एशियाई कोयल और भूरा धनेश जैसी लगभग 10 प्रजातियां इसके फल को साबुत ही निगल जाती हैं, और समय के साथ बीज को उस पेड़ से काफी दूरी पर गिरा देती हैं। ये पक्षी भारत के बड़े फल खाने वाले (फलभक्षी) पक्षियों में से हैं। चंदन के पेड़ का फल कोयल और धनेश के लिए एकदम उपयुक्त है। जानी-मानी बात है कि चंदन के जिन पेड़ों के बीज बड़ी साइज़ के होते हैं, उनके बीज आम तौर पर मूल पेड़ के आसपास ही बिखरते हैं। हालांकि बड़े बीज अंकुरण के लिए बेहतर होते हैं, लेकिन पक्षी बड़े बीजों को निगल नहीं पाते हैं और गूदे पर चोंच मारने के बाद उन्हें वहीं नीचे गिरा देते हैं।

बीजों के अंकुरण के लिए अच्छा होता है कि वे पक्षियों के पाचन तंत्र से होकर गुज़रें। इससे गुज़रने के बाद बीज बहुत तेज़ी से अंकुरित होते हैं और उनके पेड़ बनने की संभावना अधिक होती है। यही कारण है कि हमें बड़े-बड़े परिपक्व चंदन के पेड़ जंगलों में देखने को मिलते हैं न कि वृक्षारोपण स्थलों (प्लांटेशन) में। अफसोस की बात है कि जंगलों के कम होने से पक्षियों की आबादी भी कम हो गई है, और इसलिए उचित बीज फैलाव की संभावना भी कम हो गई है।

इस मामले में, क्या मनुष्य पक्षियों की बराबरी कर सकते हैं? फॉरेस्ट जर्नल में प्रकाशित अध्ययन में त्रिशूर के केरल कृषि विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने, युरोप के साथियों के साथ मिलकर चंदन के बीजों को अंकुरण के लिए विभिन्न तरीकों से तैयार करने की कोशिश की है। सर्वोत्तम परिणाम तब मिले जब ताज़े एकत्रित किए हुए बीजों को पॉलीएथिलीन ग्लाइकॉल-6000 के 5% घोल में दो दिनों के लिए भिगोया गया। यह दिलचस्प सिंथेटिक पदार्थ बीज की कोशिकाओं पर परासरण दाब पैदा करता है और अंकुरण प्रक्रिया को आगे बढ़ाता है। इसे ऑस्मोप्रायमिंग कहा जाता है, और सही ढंग से करने पर यह बीजों को केवल पानी में भिगोने से अधिक प्रभावी होता है। ऑस्मोप्रायमिंग की प्रक्रिया से गुज़रने के बाद बीजों की अंकुरण दर 79 प्रतिशत थी जबकि सीधे बीज बोने में यह दर सिर्फ 45 प्रतिशत थी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्या फूल पौधों के कान हैं – डॉ. किशोर पंवार

रंग-बिरंगे, रस भरे फूलों पर तितलियां, भंवरे और शकरखोरा (सनबर्ड) जैसे पक्षी सुबह-शाम मंडराते हैं। रात के वक्त इनका स्थान पतंगे और छोटे चमगादड़ ले लेते हैं। तितलियों या पक्षियों का फूलों पर बार-बार आना-जाना बेसबब नहीं होता। यह रिश्ता लेन-देन का है। फूल अपना मीठा रस इन हवाई मेहमानों को देते हैं और बदले में ये जीव इन फूलों के पराग को यहां से वहां ले जाते हैं। इस लेन-देन में तितलियों, पक्षियों, चमगादड़ों को भोजन मिल जाता है और फूलों का परागण हो जाता है जो नए फल और बीज बनने के लिए ज़रूरी है।

कभी दुश्मन, कभी दोस्त

पत्तियों को कुतरने वाली इल्लियां और फुदकने वाले तरह-तरह के टिड्डे, ये सब पत्तियों के दुश्मन हैं। टिड्डों की बात छोड़ दें, परंतु तितलियां और पतंगे तो इन्हीं इल्लियों के उड़ने वाले रूप हैं जो पेड़-पौधों से दोस्तियां निभाते हैं। ये इन जीवों के जीवन चक्र की दो अलग-अलग अवस्थाएं हैं। इनमें से कुछ जीव अपूर्ण कायांतरण दर्शाते हैं (जैसे कि टिड्डे) तो कुछ पूर्ण कायांतरण का मुज़ाहिरा करते हैं (जैसे तितलियां और पतंगे)। जीवन चक्र की इनकी ये अवस्थाएं इतनी अलग-अलग दिखती हैं कि आप पहचान ही नहीं पाएंगे कि ये एक ही जीव के दो रूप हैं।

जीवन चक्र की शुरुआती अवस्था (इल्ली रूप) में ये पत्तियों को कुतरते हैं, उन्हें छेद देते हैं और कभी-कभी तो पूरा पौधा ही चट कर जाते हैं। ऐसी स्थिति में ये पौधों के दुश्मन नज़र आते हैं। दूसरी ओर, वयस्क अवस्था अर्थात उड़ने वाले जीव के रूप में ये रस भरे फूलों का रसपान करते हैं और चलते-चलते (उड़ते-उड़ते) उन फूलों का परागण कर देते हैं।

तथ्य यह है कि 87.5 प्रतिशत पुष्पधारी पौधे परागण के लिए इन तितलियों, मधुमक्खियों और विभिन्न पक्षियों और चमगादड़ों पर निर्भर है। इनमें कई महत्वपूर्ण फसलें, तथा आर्थिक महत्व के पेड़-पौधे शामिल हैं।

क्या पौधे सुनते हैं

फूलों के बारे में यह तो जानी-मानी बात है कि वे अपने रंगों से, सुगंध से परागणकर्ता कीट-पतंगों को आकर्षित करते हैं और अपनी प्रजनन सफलता को बढ़ाते हैं। और अब, हाल ही में हुए एक अध्ययन से पता चला है कि पौधे इन जीवों की आवाज़ भी सुनते हैं। और सिर्फ सुनते नहीं, उस पर महत्वपूर्ण प्रतिक्रिया भी देते हैं। यह प्रतिक्रिया फूलों को फायदा पहुंचाती है। तो क्या पेड़-पौधों के कान होते हैं? अध्ययन से तो लगता है कि यह बात सही है। अध्ययन से यह भी पता चला है कि ‘सुनने-सुनाने’ का यह काम फूल करते हैं। यहां एक बात स्पष्ट कर देना ज़रूरी है कि सुनने से आशय हवाई कंपनों के प्रति प्रतिक्रिया से है। ज़रूरी नहीं कि इन कंपनों से ध्वनि की संवेदना पैदा हो।

शोधकर्ता लिलैक हैडानी व उनके साथियों की परिकल्पना थी कि पौधे ध्वनियों के प्रति कुछ न कुछ प्रतिक्रिया ज़रूर देते होंगे। खास तौर पर उन्हें लगता था कि परागणकर्ताओं के पंखों के फड़फड़ाने की आवृत्ति का फूलों पर कुछ असर ज़रूर होता होगा। उनका यह भी विचार था कि परागणकर्ता (तितली वगैरह) के आसपास मंडराने पर फूलों में ऐसे परिवर्तन होते होंगे जो परागणकर्ताओं को आकर्षित करने में मदद करते हैं या उनको कुछ तोहफा देते हैं। जैसे, हो सकता है कि ऐसी ध्वनियों के असर से वे ज़्यादा या बेहतर मकरंद तैयार करते हों। शोधकर्ता जांचना चाहते थे कि क्या परागणकर्ता द्वारा उत्पन्न ध्वनि का मकरंद की मात्रा या गुणवत्ता पर कोई असर पड़ता है?

शोधकर्ताओं का यह भी विचार था कि यदि फूलों के माध्यम से ही ध्वनि के कंपन पर प्रतिक्रिया होती है, तो खुद फूल भी कंपन करते होंगे; खासकर कटोरेनुमा आकार वाले फूल। तो उन्होंने अपने प्रयोग इन दो परिकल्पनाओं की जांच के हिसाब से बनाए। और इन प्रयोगों के लिए उन्होंने वसंती गुलाब को चुना। इस पौधे को अलग-अलग तरह की ध्वनि के संपर्क में लाकर उसकी प्रतिक्रियाओं का नाप-जोख किया और परिणाम चौंकाने वाले रहे। पहले तो यह देखते हैं कि प्रयोग किस तरह किए गए थे।

प्रयोग की योजना

प्रयोग के एक सेट में पौधे प्राकृतिक वातावरण में, खुले में उगाए गए थे जबकि गर्मियों में घर के अंदर उगाए गए थे। और पौधे प्राकृतिक ध्वनियों के संपर्क में थे। दूसरे सेट में (कंट्रोल के तौर पर) कोई ध्वनि नहीं सुनाई गई और तीसरे में ऐसी ध्वनियों की रिकॉर्डिंग उन्हें सुनाई गई जो कीटों के पंख फड़फड़ाने की आवृत्ति के आसपास थी। एक अन्य प्रयोग सेट में उच्च आवृत्ति की ध्वनि की रिकॉर्डिग सुनाई गई। शोधकर्ताओं ने यह भी सावधानी बरती थी कि स्पीकर के विद्युत चुंबकीय क्षेत्र के संभावित प्रभाव को नियंत्रित किया जाए।

जिस फूल पर ये प्रयोग किए गए उसका नाम है बीच इवनिंग प्रिमरोज़ या वसंती गुलाब (Oenothera drummondii)। यह पौधा 400 मीटर से नीचे के तटीय इलाकों में रेतीले क्षेत्र में पाया जाता है। यह मेक्सिको और दक्षिण पूर्वी यूएस का मूल निवासी है। इसके फूल चटख पीले रंग के होते हैं। फूल शाम को खिलते हैं और सूरज की रोशनी आने पर बंद हो जाते हैं। प्रत्येक फूल में चार पंखुड़ियां और चार अंखुड़ियां तथा आठ परागकोश होते हैं। इन कटोरानुमा फूलों का रात और अलसुबह परागण पतंगों द्वारा होता है, और संध्याकाल और सुबह में मधुमक्खी के द्वारा। ये प्रयोग इस्राइल में किए गए थे।

एक प्रयोग में घर के अंदर उगाए गए पौधों को एक अकेली मंडराती मधुमक्खी की रिकॉर्डिंग का प्लेबैक सुनाया गया जबकि एक प्रयोग में पौधे की प्रतिक्रिया का परीक्षण कुछ निम्न और मध्यम आवृत्ति के ध्वनि उद्दीपनों के लिए किया गया था।

उपरोक्त विभिन्न उद्दीपनों पर फूलों की प्रतिक्रिया नापने के लिए पहले उसका मकरंद खाली करके तुरंत उपरोक्त उद्दीपनों में से एक के संपर्क में लाया गया लाया गया और नवनिर्मित मकरंद को 3 मिनट के अंदर निकालकर मापन किया गया। उद्दीपन से पहले और बाद में मकरंद में चीनी की सांद्रता भी पता की गई।

इकॉलॉजी लेटर्स के जुलाई 2019 अंक में प्रकाशित इस मज़ेदार प्रयोग में वैज्ञानिकों ने पाया कि मधुमक्खी के पंखों की फड़फड़ाहट की प्राकृतिक ध्वनि (रिकॉर्डिंग) के संपर्क में आने के बाद वसंती गुलाब के फूलों के मकरंद में शर्करा की सांद्रता में काफी अधिक (1.2 गुना) वृद्धि हो गई थी, जबकि उच्च आवृत्ति की ध्वनियों या बिना किसी ध्वनि के संपर्क में आने वाले फूलों में ऐसा कोई परिवर्तन नहीं देखा गया। मधुमक्खी जैसी आवृत्ति वाली ध्वनियों का भी शर्करा की सांद्रता पर उल्लेखनीय असर रहा।

प्रयोग 900 पौधों के 650 से अधिक फूलों पर किया गया था। कीट-पतंगे, पक्षी, चमगादड़ वगैरह जीव जब हवा में उड़ते हैं तो उनके पंखों की गति हवा में ध्वनि तरंगें पैदा करती है। जब ये फूलों के आसपास मंडराते हैं तो पंखुड़ियों में कंपन होने लगता है। ऐसा होने पर फूल ज़्यादा मकरंद बनाते हैं। मात्र 3 मिनट की फड़फड़ाहट शर्करा की मात्रा लगभग डेढ़ गुना बढ़ा देती है। दरअसल, परागणकर्ता की ध्वनि का मकरंद की कुल मात्रा पर कोई असर नहीं देखा गया। शोधकर्ताओं का कहना है कि शर्करा की सांद्रता में परिवर्तन पानी की मात्रा में परिवर्तन का परिणाम है।

लरज़ते फूल

प्रयोग में यह भी देखा गया कि इन फूलों की पंखुड़ियां कीटों के पंखों से उत्पन्न ध्वनि पर कंपन भी करती हैं। लेज़र वाइब्रोमेट्री की मदद से पता चला कि कंपन का आयाम 0.01 मिलीमीटर तक रहा। पंखुड़ियों की हिलने-डुलने की आवृत्ति आम तौर पर मधुमक्खी और पतंगे के पंखों की फड़फड़ाहट से उत्पन्न ध्वनि की आवृत्तियों के करीब थी। पंखुड़ियों में कंपन का यह कार्य मैकेनोरिसेप्टर द्वारा किया जाता है जो आम तौर पर पौधों में पाए जाते हैं।

परागण से आगे

पौधों में हवा में उत्पन्न होने वाली इन ध्वनियों को महसूस करने की क्षमता इससे कहीं और आगे भी जा सकती है। संभवत: पौधे शाकाहारियों, शिकारियों और अन्य पौधों द्वारा उत्पन्न ध्वनियों पर अपनी प्रतिक्रिया दे सकते हैं। इस तरह की प्रतिक्रियाओं के कई दूरगामी निहितार्थ हो सकते हैं। ध्वनि के प्रति पौधों की यह प्रतिक्रिया परागणकर्ताओं और पौधों के बीच दो-तरफा प्रतिक्रिया है जो उनके बीच समन्वय में सुधार कर सकती है, और मकरंद को व्यर्थ जाने से बचा सकती है और शायद बदलते पर्यावरण में परागण की दक्षता में सुधार कर सकती है। अंत में यह कहा जा सकता है कि वायु जनित ध्वनियों को महसूस करने की पौधों की क्षमता परागण से कहीं अधिक महत्व की है। शायद पौधे अन्य ध्वनियों (जैसे मानवजनित ध्वनियों) पर भी प्रतिक्रिया देते हों। इसके बारे में अभी और बहुत कुछ जानना बाकी है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्या मानव मूत्र वन संरक्षण में मदद कर सकता है?

स्पेन स्थित ग्रेनाडा विश्वविद्यालय द्वारा किए गए एक हालिया अध्ययन में शोधकर्ताओं ने पुनर्वनीकरण के उद्देश्य से जंगल के पेड़-पौधों के बीज़ों को कृंतकों और अन्य बीजभक्षी जीवों से बचाने के लिए मानव मूत्र का उपयोग किया है। यह असामान्य प्रयोग पारिस्थितिकीविद जॉर्ज कास्त्रो के नेतृत्व में दक्षिण-पूर्वी स्पेन के सिएरा नेवादा पहाड़ों में किया गया है।

इस प्रयोग का प्राथमिक उद्देश्य टाइनी वुड माउस (Apodemus sylvaticus), पक्षियों और अन्य जंगली प्राणियों को सदाबहार बलूत (Quercus ilex) के बीज खाने से रोकना था जिन्हें जंगल को बहाल करने के लिए बोया गया था। कास्त्रो का विचार था कि कोयोट, लिनेक्स और लोमड़ियों जैसे शिकारियों के मूत्र से मिलता-जुलता और अमोनिया जैसी गंध वाला मानव मूत्र इन जीवों को दूर रख सकता है। आम तौर पर कृतंक वगैरह ऐसी गंध से दूर रहना पसंद करते हैं। विचार यह था कि बोने से पूर्व इन बीजों के पेशाब में भिगो दिया जाएगा। अब इन जंगली शिकारियों से मूत्र प्राप्त करना तो काफी मुश्किल होता इसलिए उन्होंने आसानी से उपलब्ध विकल्प के रूप में मानव मूत्र का उपयोग किया।

रिस्टोरेशन इकोलॉजी में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार, दुर्भाग्यवश, अध्ययन के परिणाम उम्मीद के मुताबिक नहीं रहे। अध्ययन क्षेत्र की वीडियो रिकॉर्डिंग से पता चला कि कृंतक और अन्य जंगली जीव मूत्र से सने बीजों की गंध से काफी हद तक अप्रभावित रहे।

इस प्रयोग के निराशाजनक परिणाम के बावजूद, कास्त्रो असफल अध्ययनों/नकारात्मक परिणामों को प्रकाशित करने के महत्व पर ज़ोर देते हैं ताकि अन्य शोधकर्ता ऐसे बेकार प्रयोग न दोहराएं। इसके अलावा, कास्त्रो का मत है कि भले ही मानव मूत्र कृंतकों को रोकने में प्रभावी नहीं है, लेकिन यह हिरण जैसे अन्य शाकाहारी जीवों के विरुद्ध उपयोगी हो सकता है। ये शाकाहारी जीव पौधों को खाकर वन बहाली के प्रयासों में बाधा डालते हैं।

यह सही है कि इस प्रयोग से पुनर्वनीकरण के कार्य में मानव मूत्र उपयोगी नहीं लगता लेकिन इससे जंगलों और पारिस्थितिक तंत्र की बहाली के लिए एक नया और अपरंपरागत दृष्टिकोण तो ज़रूर सामने आया है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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हर्बेरियम का अवसान: वनस्पति शास्त्र अध्ययन पर संकट – डॉ. भोलेश्वर दुबे

पिछले कुछ दिनों से प्रकृति वैज्ञानिकों, खासतौर पर वनस्पति शास्त्रियों को एक खबर ने विचलित कर रखा है। हुआ यूं कि अमेरिका की एक पुरानी और ख्याति प्राप्त संस्था ड्यूक विश्वविद्यालय ने अपने सौ साल पुराने प्रतिष्ठित हर्बेरियम को बंद करने की घोषणा कर डाली। घोषित कार्ययोजना के अनुसार अगले 2-3 वर्षों में विश्वविद्यालय के छात्रों, प्राध्यापकों और शोधार्थियों से यह सुविधा छिन जाएगी। हालांकि इस निर्णय के खिलाफ वैज्ञानिक समुदाय पुरज़ोर तरीके से आवाज उठा रहा है किन्तु विश्वविद्यालय प्रशासन हर्बेरियम के रख-रखाव पर होने वाले भारी भरकम खर्च के बहाने इसे बंद या अन्यत्र स्थानांतरित करने पर अड़ा हुआ है।

ड्यूक विश्वविद्यालय प्रकृति विज्ञान संकाय की अध्यक्ष सुसान अल्बर्ट्स का कहना है कि 8,25,000 संरक्षित नमूनों को फिलहाल गई-गुज़री हालत में रखा हुआ है जिसकी व्यवस्थित साज-संभाल के लिए भरपूर धन की आवश्यकता होगी। यद्यपि वे इस प्रतिष्ठित संग्रह और जीव विज्ञान के क्षेत्र में इसकी महत्ता की भी भरपूर तारीफ करती हैं।

येल विश्वविद्यालय के वैकासिक जीव वैज्ञानिक माइकल डॉनोग्हू का तो कहना है कि अपने विश्व स्तरीय हर्बेरियम से मुक्त होने का ड्यूक विश्वविद्यालय का निर्णय एक त्रासद भूल है, यह ड्यूक विश्वविद्यालय में पर्यावरण और मानविकी की चुनौतियों का अध्ययन करने वाले छात्रों और शिक्षकों को मिलने वाली अकादमिक सुविधा को हमेशा के लिए खत्म कर देगी। वे पूछते हैं, अगर ऐसा ही चलता रहा तो बंद होने की कतार में क्या अगला नंबर ग्रंथालयों का होगा?

आइए पहले यह जानने की कोशिश करें कि आखिर ड्यूक विश्वविद्यालय के हर्बेरियम की ऐसी क्या खासियत है।

ड्यूक हर्बेरियम, जिसे संक्षेप में DUKE कहते हैं, संयुक्त राज्य अमेरिका के बड़े हर्बेरियमों में से एक है। देश में यह 12वें क्रम पर आता है और प्रायवेट विश्वविद्यालयों में हारवर्ड के बाद दूसरे क्रम पर। यह हर्बेरियम स्थानीय, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक समुदाय के लिए एक विशिष्ट और मूल्यवान संसाधन साबित हुआ है।

हर्बेरियम में लाखों संवहनी पौधों (vascular plants) के अलावा ब्रायोफाइट्स, शैवाल (एल्गी), लाइकेन और फफूंदों (कवकों) के नमूने संरक्षित हैं। यह एक विशेष बात है क्योंकि संवहनी पौधों के संग्रह तो कई जगह मिल जाते हैं किन्तु इतनी बड़ी संख्या में मॉसेस, शैवाल और कवकों का दुर्लभ संयोग ड्यूक को वैश्विक सम्मान का हकदार बनाता है।

इनमें 2000 वे नमूने भी शामिल हैं जिनके आधार पर पौधों का प्रारंभिक नामकरण किया गया है। इसी के साथ इस हर्बेरियम में विशेषज्ञों द्वारा पहचान किए गए कई महत्वपूर्ण पौधों के प्रतिनिधि नमूने भी संरक्षित हैं, जिन्हें ‘वाउचर स्पेसिमेन’ कहते हैं। आणविक जीवविज्ञान, जैव रसायन और आनुवंशिकी शोध में इनकी महत्वपूर्ण भूमिका है। इस पादप संग्रहालय में लगभग चार लाख संवहनी पौधों का संग्रह है। यह संस्था कैरोलिनास और पूरी दुनिया के इलाकों (खासतौर से मीसोअमेरिकन क्षेत्र) में इन पौधों की पारिस्थितिकी, विविधता और वितरण की सूचनाएं भी देती है। ड्यूक हर्बेरियम के 60 प्रतिशत नमूने दक्षिण-पूर्व यूएस से हैं जो कि अमेरिका का जैव-विविधता का हॉट-स्पॉट है। यही कारण है कि जैव-विविधता, पारिस्थितिक विज्ञानियों और संरक्षण जीव वैज्ञानिकों के लिये यह स्थान किसी तीर्थ से कम नहीं है। यह हर्बेरियम संग्रहित पौधों के नमूनों के चित्र और उनसे सम्बंधित जानकारियों को ऑनलाइन डैटाबेस के रूप में शोधार्थियों को उपलब्ध करवाने में भी अग्रणी है।

क्या होता है हर्बेरियम

असल में हर्बेरियम पौधों के नमूनों का संग्रह है जिन्हें लंबे समय तक संरक्षित रखने की व्यवस्था की जाती है। प्रकृति विज्ञान, विशेष रूप से वनस्पति शास्त्र में रुचि रखने वाले व्यक्ति अपने क्षेत्र में पाए जाने वाले विभिन्न पौधों की जानकारी हासिल करने का प्रयास करते हैं। पुरानी वनस्पतिशास्त्र की पुस्तकों में प्राय: ऐसे चित्र देखने को मिलते हैं कि कुछ व्यक्ति हाफ पैंट और घुटनों तक के बूट पहने, सिर पर हैट लगाए, कंधे पर पेटी नुमा चीज़ लिए कुछ वनस्पतियां इकट्ठी कर रहे हैं। असल में आज भी यही कुछ किया जाता है किंतु तरीका बदल गया है। हर्बेरियम बनाने के लिए छोटे-छोटे पूरे पौधे, बड़ी झाड़ियों या वृक्षों की पत्तियों, फूलों सहित टहनियां, और संभव हो तो फल और बीज इकट्ठे कर लिए जाते हैं। पौधों की इस सामग्री को पहले टिन की पेटी (जिसे वेस्कुलम कहते हैं) में रखकर लाया जाता था जिसमें गत्ते या अखबार का अस्तर बिछा होता था ताकि यह सामग्री सूखे नहीं। अब यह काम पॉलीथीन की थैलियों में किया जाता है। इस सामग्री को प्लांट प्रेस में दबाया जाता है। हम जैसे महाविद्यालयीन छात्र इन्हें पत्रिकाओं के बीच व्यवस्थित रख कर किताबों के वजन से दबा दिया करते थे और 1-2 दिन में उलटते-पलटते रहते थे। दबाते समय इस बात का ध्यान रखा जाता है कि पौधे का हर भाग और उसकी विशेषताएं स्पष्ट रूप से दिखाई दें। प्लांट प्रेस से या अन्य विधि से दबाए गए नमूनों को या तो धूप में या फिर गर्म हवा वाली ड्राइंग प्रेस या बिजली के बल्ब वाले ओवन में सुखाया जाता है। शैवाल, कवक, जलीय पौधों और मांसल पौधों को संरक्षित करने के लिए अलग विधि अपनाई जाती है। जलीय पौधों को प्रेसिंग पेपर के छोटे टुकड़े पर धीरे से फैला कर उठा लिया जाता है और इसे सीधे प्रेसिंग शीट पर रख देने से वे चिपक जाते हैं। सामान्य पौधों के नमूने सूख जाने पर इन्हें 29X41 सेंटीमीटर की मोटी शीट पर सरेस, गोंद या पारदर्शी गोंद युक्त कपड़े की पट्टियों या सैलोटेप से चिपका दिया जाता है। कहीं-कहीं नमूनों को शीट पर इथाइल सेल्यूलोज़ और रेज़िन के मिश्रण से भी चिपकाते हैं। इस प्रकार एकत्रित किए गए नमूने की एक शीट तैयार होती है, जिस पर उस पौधे से सम्बंधित जानकारियां (जैसे संग्रह का स्थान, कुल का नाम, संग्रह करने की तारीख, प्राकृतवास, संग्राहक का नाम, पहचान हो गई हो तो पौधे के वंश और प्रजाति का नाम) अंकित की जाती हैं।

हर्बेरियम शीट्स को हर्बेरियम केबिनेट में मानक वर्गीकरण के आधार पर नियत खण्ड (पिजन होल) में रखा जाता है। कवक और कीटों से सुरक्षा के लिए उन्हें समय-समय पर उल्टा-पल्टा जाता है तथा कीटनाशक रसायनों का फ्यूमिगेशन किया जाता है और केबिनेट में नेफ्थालिन की गोलियां भी रखी जाती हैं। इस तरह से सुखाकर शीट पर चिपकाए गए पौधों के भाग हर्बेरियम नमूने कहलाते हैं। इसके अलावा हर्बेरियम में बीज, सूखे फल, शैवाल, कवक, काष्ठ की काट, पराग कण, सूक्ष्मदर्शी स्लाइड द्रव में संरक्षित फल और फूल, सिलिका में दबाकर संग्रहित चीज़ें, यहां तक कि डीएनए निष्कर्षण भी उपलब्ध होते हैं। आधुनिक विकसित हर्बेरियम में डैटा संग्रह, वानस्पतिक चित्र, नक्शे और उस क्षेत्र से सम्बंधित पौधों के बारे में साहित्य भी उपलब्ध होता है।

हर्बेरियम बनाने की शुरुआत सोलहवीं शताब्दी में पिसा विश्वविद्यालय में औषधि और वनस्पतिशास्त्र के प्राध्यापक ल्यूका घिनि ने की थी। उन्होंने एक ही शीट पर कई पौधों को सुन्दर तरीके से चिपकाया और ऐसी कई शीट की जिल्दबंद किताबें बना दी थीं, जिनका उपयोग ग्रंथालय में संदर्भ के लिए किया जाने लगा। इस विधि में नमूनों को एक बार जिस क्रम में चिपका दिया उसे बदलने की कोई संभावना नहीं थी। अतः वर्गीकरण के मान से सुधार की गुंजाइश खतम हो गई। इस समस्या को ध्यान में रखते हुए प्रसिद्ध प्रकृतिविद, वनस्पतिशास्त्र के विद्वान केरोलस लीनियस ने 1751 में अपनी कृति फिलॉसॉफिया बॉटेनिका में सुझाव दिया था कि एक शीट पर एक ही नमूना चिपकाया जाए और इसकी जिल्द न बनाई जाए। लीनियस ने इन शीट को रखने के लिये विशेष प्रकार की केबिनेट भी बनाई थी। ऐसा करने से शीट को एक स्थान से दूसरे स्थान पर रखने व वर्गीकरण के मान से होने वाले नवाचार के अनुसार उनका स्थान बदलने की गुंजाइश हमेशा बनी रही। तब से लेकर आज तक विश्व के सभी प्रमुख हर्बेरियम में यही विधि अपनाई जा रही है।

वनस्पतिशास्त्र, मुख्यतः वर्गीकरण विज्ञान तथा जैव विविधता, के अध्ययन में हर्बेरियम का बहुत महत्व है। हर्बेरियम में संरक्षित मूल नमूनों (जिन्हें टाइप स्पेसिमेन कहा जाता है) से मिलान करके किसी भी क्षेत्र में पाए जाने वाले पौधों की पहचान सुनिश्चित की जाती है। प्रामाणिक हर्बेरियम में उपलब्ध पौधे से यदि पौधा मेल नहीं खाता तो उसे नई प्रजाति माना जाता है। पौधों की नई प्रजातियों की जानकारी को वनस्पतिशास्त्र में शामिल करने का काम यहीं से शुरू होता है।

ज़ाहिर है, सभी प्राचीन विश्वविद्यालयों, वानस्पतिक शोध संस्थानों और बड़े महाविद्यालयों के अपने व्यवस्थित हर्बेरियम होते हैं जो उस क्षेत्र की वनस्पतियों के नमूनों का संग्रह वनस्पतिशास्त्र के विद्यार्थियों को उपलब्ध करवाते हैं। आज भी दुनिया भर में कई हर्बेरियम को उनके वर्षों पुराने पौधों के संग्रह और दी जाने वाली सेवाओं के लिये विशेष सम्मान दिया जाता है। इनमें लंदन स्थित रॉयल बॉटेनिकल गार्डन, फ्रांस में पेरिस का नेचुरल हिस्ट्री नेशनल म्यूज़ियम, न्यूयॉर्क का न्यूयॉर्क बॉटेनिकल गार्डन का हर्बेरियम प्रमुख हैं।

आज दुनिया भर के 183 देशों के करीब 3500 हर्बेरियम पंजीकृत हैं जिनमें कुल मिलाकर 40 करोड़ नमूने संग्रहित हैं। भारत में भी बॉटेनिकल सर्वे ऑफ इंडिया के विभिन्न क्षेत्रीय संस्थानों में 30 लाख नमूने संरक्षित हैं। इसी के साथ 1795 में हावड़ा में स्थापित सेन्ट्रल नेशनल हर्बेरियम में बीस लाख, फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट (देहरादून) में साढ़े तीन लाख और नेशनल बॉटेनिकल गार्डन (लखनऊ) में ढाई लाख से ज़्यादा नमूने संरक्षित हैं।

हर्बेरियम नमूनों की मदद से पौधों की पहचान करने में मदद मिलती है। इनके माध्यम से पौधों के आवास की भौगोलिक सीमा, फूलने-फलने के समय की जानकारी भी मिलती है। पौधों के वर्गीकरण और नामकरण में तो हर्बेरियम की प्रमुख भूमिका है ही। इसके साथ पौधों के उद्विकास (जाति वृत्त), आनुवंशिकी, पारिस्थितिकी, वानिकी, औषधि विज्ञान, प्रदूषण, चिकित्सा विज्ञान तथा विज्ञान की अन्य कई शाखाओं में भी इनका अच्छा खासा योगदान है।

विज्ञान जगत का दुर्भाग्य ही है कि पिछले 30 वर्षों में कई छोटे-बड़े हर्बेरियम बंद हो गए हैं। इनमें सबसे ज़्यादा सदमा पहुंचाने वाली घटना 2015 में मिसौरी विश्वविद्यालय द्वारा 119 वर्ष पुराने डन पामर हर्बेरियम को बंद करने का निर्णय था जहां एक लाख सत्तर हज़ार से अधिक पौधों के नमूने संरक्षित थे। इन नमूनों को 200 कि.मी. दूर स्थानांतरित कर दिया गया था जिससे विश्वविद्यालय के छात्र और प्राध्यापक उस का लाभ लेने से वंचित हो गए। यही कहानी आज ड्यूक विश्वविद्यालय में भी दोहराई जा रही है।

1921 में ट्रिनिटी कॉलेज से शुरू हुए ड्यूक विश्वविद्यालय के हर्बेरियम को विश्वस्तरीय पहचान दिलाने के लिए ह्यूगो एल. ब्लोमक्विस्ट ने नॉर्थ केरोलिना के पी.ओ. शैलर्ट का 16,000 नमूनों का संग्रह खरीदा था। इसके बाद ख्याति प्राप्त पारिस्थितिक वैज्ञानिक हेनरी ऊस्टिंग और अन्य वैज्ञानिकों के प्रयासों से 1963 में यह संस्था उष्णकटिबंधीय अध्ययन संगठन (OTS) का हिस्सा बनी और नवउष्णकटिबंधीय वनस्पतियों के अध्ययन का प्रमुख केन्द्र बन गई।

एक शताब्दी से अधिक समय से किए गए अथक परिश्रम से इस हर्बेरियम ने जो ऊंचाइयां हासिल की उसे आर्थिक संकट के चलते बंद या स्थानांतरित करने का निर्णय गंभीर वनस्पतिशास्त्रियों को झकझोर देने वाला समाचार है। हर्बेरियम के शुभचिंतकों ने न केवल विरोध के स्वर मुखर किए हैं बल्कि उन्होंने इसे बचाने के लिए वित्तीय मदद हेतु दानदाताओं से अपील भी की है। एक दानी ने दस लाख डॉलर देने की पेशकश भी की है। मगर विश्वविद्यालय प्रशासन ढाई करोड़ डॉलर की आवश्यकता बता रहा है।

कुल मिलाकर विज्ञान विषयों की आधारभूत सुविधाओं जैसे प्रयोगशालाओं, ग्रंथालयों, वानस्पतिक उद्यानों, परिभ्रमणों, हर्बेरियम, म्यूज़ियम आदि को समाप्त कर कहीं हम प्रयोग और प्रयोगशाला विहीन विज्ञान को बढ़ावा देने की ओर कदम तो नहीं बढ़ा रहे हैं। एक कहावत है –“बुढ़िया मर गई इसका अफसोस नहीं है मगर मौत ने घर देख लिया यह चिंता की बात है।’’ स्थिति यही है आज ड्यूक विश्वविद्यालय के हर्बेरियम का अस्तित्व मिट रहा है; ऐसा न हो, सभी विश्वविद्यालय उसी राह पर चल पड़ें। अतः वैश्विक वैज्ञानिक समुदाय को गंभीरता पूर्वक विचार कर इस प्रवृत्ति को रोकना होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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भीषण गर्मी में भी फूल ठंडा रहता है

क्षिणी स्पेन की चिलचिलाती गर्मी में हर चीज़ सूखी-सूखी नज़र आती है, घास सूख कर सरकंडे बन जाती है, पतझड़ी पेड़ों से पत्तियां झड़ कर सूख चुकी होती हैं। बस कुछ ही तरह की वनस्पतियों पर हरियाली दिखाई पड़ती है। ऐसा ही एक झंखाड़ है झुंड में उगने वाली कारलाइन थिसल (Carlina corymbosa)।

भटकटैया सरीखा, कांटेदार पत्तियों और पीले फूल वाला यह पौधा अगस्त महीने की चरम गर्मी में भी खिला रहता है। ज़ाहिर है मकरंद के चंद स्रोत में से एक होने के कारण स्थानीय मधुमक्खियां और अन्य परागणकर्ता इस पर मंडराते रहते हैं।

स्पैनिश नेशनल रिसर्च काउंसिल के वैकासिक पारिस्थितिकीविद कार्लोस हेरेरा की टीम सिएरा डी कैज़ोरला पर्वत शृंखला के निकट इन्हीं परागणकर्ताओं की आबादी की गणना कर रही थी। जब उन्होंने यह देखने के लिए फूल को छुआ कि उसके अंदर कितना मकरंद है तो उन्हें आश्चर्य हुआ कि इतनी कड़ी धूप में भी फूल ठंडा था। इसी अचंभे ने इस अध्ययन को दिशा दी। हेरेरा ने थिसल फूलों के ऊपरी भाग के भीतर का तापमान मापा और इससे करीबन एक इंच दूर के परिवेश का तापमान मापा।

साइंटिफिक नेचुरलिस्ट में उन्होंने बताया है कि सामान्य गर्म दिनों में फूलों का तापमान अपने परिवेश की तुलना में पांच डिग्री सेल्सियस कम था। और तो और, सबसे गर्म दिनों में तो कुछ फूलों का तापमान परिवेश के तापमान से 10 डिग्री सेल्सियस तक कम हो गया था।

ये नतीजे इस बात की पुष्टि करते हैं कि पौधे खुद को जिलाए रखने के लिए थोड़ा जोखिम उठाते हैं। हालांकि पेड़-पौधों की पत्तियों में स्व-शीतलन देखा गया है, लेकिन यह उनमें संयोगवश होता लगता है। दरअसल, प्रकाश संश्लेषण के लिए कार्बन डाईऑक्साइड की आवश्यकता होती है, जो पत्ती की सतह पर उपस्थित स्टोमेटा नामक छिद्रों के माध्यम से प्रवेश करती है। जब कार्बन डाईऑक्साइड के अंदर जाने के लिए स्टोमेटा खुलते हैं तो थोड़ी जलवाष्प भी बाहर निकल जाती है। नतीजतन पत्ती का तापमान थोड़ा कम हो जाता है। लेकिन स्पैनिश थिसल के मामले में वाष्पीकरण द्वारा शीतलन पौधों की (सोची-समझी) रणनीति हो सकती है। वरना सूखे गर्म मौसम में इतने कीमती पानी को वाष्पित कर वे सूखे की मार क्यों झेलना चाहेंगे? संभवत: अपने नाज़ुक प्रजनन अंगों (फूलों) को अत्यधिक गर्मी में ठंडा रखने के लिए।

आगे शोधकर्ता इसकी पंखुड़ियों के स्टोमेटा का अध्ययन करना चाहते हैं और देखना चाहते हैं कि क्या वास्तव में पौधा शीतलन के लिए पानी त्यागता है या किसी और कारण से। साथ ही देखना चाहते हैं कि शीतलन के लिए इतना पानी ज़मीन से खींचने में जड़ें कैसे मदद करती हैं। (स्रोत फीचर्स)

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हर्बेरियम को बंद करने के फैसले पर आक्रोश

हाल ही में ड्यूक विश्वविद्यालय ने घोषणा की है कि वह अपने प्रतिष्ठित वनस्पति संग्रहालय (हर्बेरियम) को अगले 2-3 वर्षों में बंद कर देगा या अन्यत्र स्थानांतरित कर देगा। वैज्ञानिक समुदाय उसके इस निर्णय का जमकर विरोध कर रहा है। वित्तीय समस्याओं और बुनियादी ढांचे को अद्यतन करने की आवश्यकता से उत्पन्न इस निर्णय ने वनस्पति अनुसंधान और जैव विविधता अध्ययन के भविष्य को लेकर चिंताएं पैदा कर दी हैं। एक ओर तो विश्वविद्यालय के अधिकारी जीव विज्ञान के क्षेत्र में विश्वविद्यालय की प्रतिष्ठा को बढ़ाने में संग्रहालय की भूमिका को स्वीकार करते हैं लेकिन दूसरी ओर उनका अधिक ज़ोर संस्था के अन्य वित्तीय दायित्वों को प्राथमिकता देने पर है।

गौरतलब है कि हर्बेरियम बनाना सदियों पुराना काम रहा है। हर्बेरियम ने वनस्पति अध्ययन को चिकित्सा से अलग एक स्वतंत्र विषय का रूप देने में काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इसके अलावा दूर-दराज के स्थानों और लंबी अवधि में प्राप्त होने वाली पौध सामग्री के लिए भी हर्बेरियम काफी उपयोगी रहे हैं। 1921 में स्थापित ड्यूक विश्वविद्यालय का हर्बेरियम वनस्पति विज्ञान की एक विशाल संपदा है जिसमें 8,25,000 से अधिक पौधों के नमूने हैं। इनमें विविध प्रकार के शैवाल, लाइकेन, कवक और काई भी शामिल हैं। यह न केवल वनस्पति की जानकारी का अमूल्य भंडार है, बल्कि पारिस्थितिक पैटर्न को समझने और पर्यावरणीय परिवर्तनों पर नज़र रखने के लिए एक महत्वपूर्ण संसाधन हैं।

येल विश्वविद्यालय के माइकल डोनोग्यू और स्मिथसोनियन इंस्टीट्यूशन की कैथरीन पिकार्ड जैसे प्रमुख वैज्ञानिकों ने ड्यूक विश्वविद्यालय के इस फैसले का कड़ा विरोध किया है। उनका तर्क है कि संग्रहालय को बंद करना ‘भारी भूल’ होगी और यह वर्तमान में पर्यावरणीय चुनौतियों का समाधान खोजने का प्रयास कर रहे शोधकर्ताओं और आने वाली पीढ़ियों के लिए अहितकारी होगा। संग्रहालय के बंद होने से न केवल वर्तमान अनुसंधान बाधित होंगे, बल्कि इसके नमूनों का व्यापक संग्रह भी खतरे में पड़ जाएगा। इनमें कई नमूने ऐसे भी हैं जो क्षेत्रीय जैव विविधता और पारिस्थितिक गतिशीलता को समझने के लिए महत्वपूर्ण हैं।

संग्रहालय को बचाने के लिए संग्रहालय की निदेशक कैथलीन प्रायर और उनकी टीम ने विभिन्न रणनीतियों से पूर्ण प्रस्ताव दिए। इनमें बाहर से वित्तीय मदद लेना, दो प्रतियों को अन्यत्र भेजना और मौजूदा संसाधनों और जगह का बेहतर प्रबंधन करना शामिल हैं। उनके इन प्रस्तावों के बावजूद, आवश्यक धनराशि जुटाने में ड्यूक विश्वविद्यालय की अनिच्छा उसके इरादों पर संदेह पैदा करती है।

गौरतलब है कि पिछले 30 वर्षों में कई छोटे-बड़े वनस्पति संग्रहालय बंद किए गए हैं। सबसे हालिया मामला 2015 का है जब मिसौरी विश्वविद्यालय ने डन-पामर संग्रहालय को बंद करने का फैसला किया था जिसमें 1,70,000 से अधिक पौधे और हज़ारों काई, शैवाल और कवक के 119 साल पुराने नमूने संग्रहित थे। इन नमूनों को विश्वविद्यालय के छात्रों और शिक्षकों से 200 किलोमीटर दूर मिसौरी बॉटनिकल गार्डन में भेज दिया गया था।

ड्यूक विश्वविद्यालय के हर्बेरियम का बंद होना वित्तीय अनिश्चितता और भविष्य में अन्य संग्रहालयों के बंद होने की व्यापक प्रवृत्ति को दर्शाता है। ड्यूक हर्बेरियम की दुर्दशा बुनियादी वैज्ञानिक ढांचे की नाज़ुकता और वैज्ञानिक विरासत के संरक्षण को प्राथमिकता देने की अनिवार्यता का संकेत देती है। पादप वर्गिकी और जैव विविधता विज्ञान की दृष्टि से ऐसे संग्रहालय बचाने के लिए रणनीतिक दृष्टिकोण की दरकार है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पारदर्शी लकड़ी की मज़बूती

तीन दशक पूर्व एक जर्मन वनस्पतिशास्त्री सिगफ्राइड फिंक ने पौधों के प्राकृतिक स्वरूप को बाधित किए बिना उनकी आंतरिक कार्यप्रणाली का निरीक्षण करने की एक सरल इच्छा के साथ काम शुरू किया था। इसके लिए उन्होंने पौधों की कोशिकाओं के रंजक को ब्लीच करके पारदर्शी लकड़ी बनाई थी। अलबत्ता, उनकी यह खोज काफी समय तक अनदेखी रही। हाल ही में स्वीडन स्थित केटीएच रॉयल इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी के पदार्थ विज्ञानी लार्स बर्गलुंड इस अध्ययन को एक बार फिर चर्चा में लाए हैं।

फिंक के अध्ययन से प्रेरित बर्गलुंड ने वनस्पति शास्त्र के परे इसे पारदर्शी प्लास्टिक के एक अधिक मज़बूत विकल्प के रूप में देखा। वहीं, मैरीलैंड विश्वविद्यालय के शोधकर्ता भी काफी समय से लकड़ी की शक्ति का उपयोग अपरंपरागत उपयोगों के लिए करने का प्रयास करते रहे थे।

इन दोनों समूहों द्वारा कई वर्षों के प्रयोगों से अब कुछ रोमांचक संभावनाएं उत्पन्न हो रही हैं। और इसमें अत्यंत-मज़बूत स्मार्टफोन स्क्रीन से लेकर नरम, चमकदार प्रकाश उपकरण और रंग बदलने वाली खिड़कियां बनाने की संभावना दिख रही है।

पारदर्शी लकड़ी के निर्माण में काष्‍ठ अपद्रव्य को संशोधित किया जाता है। यह गोंदनुमा पदार्थ लकड़ी की कोशिकाओं को एक साथ जोड़े रखता है। इस पदार्थ को हटाने या ब्लीच करने से खोखली कोशिकाओं का एक दूधिया-सफेद ढांचा बना रहता है। इस परिणामी ढांचे की कोशिका दीवारों और खाली जगहों से हुए प्रकाश अपवर्तन में फर्क के कारण यह अपारदर्शी रहता है। इन खाली जगहों में एपॉक्सी रेज़िन जैसे पदार्थ डालने से लकड़ी पारदर्शी हो जाती है।

इससे प्राप्त एक मिलीमीटर से लेकर एक सेंटीमीटर से भी कम पतला उत्पाद मधुमक्खी के छत्ते जैसे एक मज़बूत ढांचे का निर्माण करता है। इसमें लकड़ी के छोटे फाइबर की मज़बूती सबसे बेहतरीन कार्बन फाइबर से भी अधिक होती है। इस पर किए गए परीक्षणों से पता चला है कि रेज़िन के मिश्रण से पारदर्शी लकड़ी प्लास्टिक और कांच से बेहतर प्रदर्शन करती है। इसमें प्लेक्सीग्लास की तुलना में तीन गुना अधिक ताकत और कांच की तुलना में दस गुना अधिक कठोरता होती है।

अलबत्ता, मोटाई बढ़ने पर पारदर्शिता कम हो जाती है। इसकी पतली चादरें 80 से 90 प्रतिशत प्रकाश को पार जाने देती हैं जबकि लगभग एक सेंटीमीटर मोटी लकड़ी केवल 40 प्रतिशत प्रकाश को आर-पार जाने देती है।

गौरतलब है कि इस शोध का मुख्य उद्देश्य पारदर्शी लकड़ी के वास्तुशिल्प अनुप्रयोगों पर केंद्रित है जो विशेष रूप से खिड़कियों के लिए उपयोगी माना जा रहा है। इसके साथ ही कांच की तुलना में यह बेहतर इन्सुलेशन दे सकता है। इसके अतिरिक्त, लकड़ी के ऐसे संस्करण कांच की तुलना में ऊष्मा के बेहतर कुचालक भी होते हैं।

हालांकि पारदर्शी लकड़ी की खिड़कियां मज़बूती और बेहतर तापमान नियंत्रण प्रदान करती हैं लेकिन घिसे हुए कांच की तुलना में काफी धुंधली होती हैं। फिर भी यह कम रोशनी चाहने वालों के लिए काफी उपयोगी है। इसके अलावा मोटी लकड़ी की वहन क्षमता को देखते हुए इसे आंशिक भार वहन करने वाले प्रकाश स्रोत के रूप में उपयोग किया जा सकता है। यह कमरे में नैसर्गिक रोशनी प्रदान करने में काफी उपयोगी हो सकती है।

वर्तमान शोध में पारदर्शी लकड़ी की कार्यक्षमता को बढ़ाने का प्रयास किया जा रहा है। उदाहरण के लिए, इस लकड़ी को स्मार्ट खिड़कियों में परिवर्तित किया जा सकता है जो विद्युत प्रवाह देने पर पारदर्शी से रंगीन हो सकती हैं।

पर्यावरण के दृष्टिकोण से यह नई खोज ज़हरीले रसायनों और जीवाश्म-आधारित पॉलीमर को सीमित कर सकती है। हालांकि इस नई खोज के बावजूद वर्तमान विश्लेषणों से संकेत मिलता है कि पारदर्शी लकड़ी की तुलना में कांच का पर्यावरणीय प्रभाव कम होता है। फिलहाल एक टिकाऊ सामग्री के रूप में इसकी क्षमता को देखते हुए, पारदर्शी लकड़ी को बाज़ार में लाने के लिए हरित उत्पादन और बड़े पैमाने पर उत्पादन की आवश्यकता है। (स्रोत फीचर्स)

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नमकीन स्राव से पनपता रेगिस्तानी पौधा

ध्य पूर्व के शुष्क क्षेत्र में एथल टमारिस्क (Tamarix aphylla) नामक एक रेगिस्तानी पेड़ ज़िंदा रहने के लिए एक अनूठी रणनीति अपनाता है। यह पौधा झुलसाने वाली गर्मी में पानी प्राप्त करने के लिए नमकीन स्राव का फायदा उठाता है।

प्रोसीडिंग्स ऑफ नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में प्रकाशित यह अध्ययन संकेत देता है कि पौधे दूभर परिस्थितियों में जीवित रहने के लिए किस तरह के रासायनिक जुगाड़ करते हैं। गौरतलब है कि लवण से समृद्ध तटीय मिट्टी में पनपने वाला यह पौधा एक लवणमृदोद्भिद (हैलोफाइट) है जो अतिरिक्त लवण को ग्रंथियों से बूंदों के रूप में स्रावित करके पत्तियों पर जमा करता है। जैसे-जैसे दिन गर्म होता है, इन चमकदार बूंदों का पानी तो वाष्पित हो जाता है जिससे पौधे पर सफेद रवों की परत जम जाती है जो अंतत: तेज़ हवा से झड़ जाते हैं।

इस रणनीति का खुलासा तब हुआ जब अबू धाबी स्थित न्यूयॉर्क युनिवर्सिटी की वैज्ञानिक मारियेह अल-हंदावी ने संयुक्त अरब अमीरात के गर्म, आर्द्र रेगिस्तानों से गुज़रते समय इन रवों पर पानी को संघनित होते देखा। उनका अनुमान था कि इस प्रक्रिया में उत्सर्जित लवण-मिश्रण के रासायनिक संघटन की महत्वपूर्ण भूमिका रही होगी।

व्यापक शोध के बाद अल-हंदावी और उनकी टीम ने पाया कि दिन के समय में उत्सर्जन से बने नमक के रवे रात में पानी सोख कर फूल जाते हैं। टीम द्वारा की गई जांच से साबित हुआ कि जल संचयन में लवणों का प्राथमिक योगदान है, क्योंकि विशिष्ट परिस्थितियों में प्राकृतिक रूप से रवेदार परत वाली शाखाएं धुली हुई शाखाओं की तुलना में काफी अधिक पानी एकत्र करती है। यहां तक कि 50 प्रतिशत से कम आर्द्रता पर भी रवों पर ओस बन सकती है।

एथल टमारिस्क की विशिष्टता इसके द्वारा उत्सर्जित लवणों का जटिल मिश्रण है, जिसमें सोडियम क्लोराइड, जिप्सम (कैल्शियम सल्फेट) और एक अन्य घटक – लिथियम सल्फेट – शामिल है जिसमें सोडियम क्लोराइड और जिप्सम की अपेक्षा कम आर्द्रता पर भी नमी को अवशोषित करने की क्षमता कहीं अधिक होती है।

कई विशेषज्ञों के अनुसार यह अध्ययन एक नए स्तर की समझ प्रदान करता है जिससे यह पता चलता है कि कैसे रेगिस्तानी पौधे लवणों से छुटकारा भी पाते हैं और हवा से पानी संचय के लिए इनका उपयोग भी करते हैं। इन लवणों का संघटन रेगिस्तानी पौधों द्वारा विकसित जटिल रणनीतियों को उजागर करता है।

शोधकर्ताओं द्वारा किया गया यह अध्ययन अन्य रेगिस्तानी पौधों में भी इस प्रकार की विशेषता का संकेत देता है। संभव है कि अपना अस्तित्व बचाने के लिए हर पौधे के पास कोई विशिष्ट गुप्त नुस्खा हो। बहरहाल, इस अध्ययन से हमें विश्व भर में पानी की कमी से निपटने के तरीके के बारे में बहुमूल्य जानकारी प्राप्त हुई है जो आगे खोज की संभावना का संकेत देती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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भारत में हरित क्रांति के पुरौधा स्वामिनाथन नहीं रहे

त 28 सितंबर के दिन मशहूर कृषि वैज्ञानिक डॉ. एम. एस. स्वामिनाथन का निधन हो गया। वे 98 वर्ष के थे। उन्होंने भारत में हरित क्रांति की बुनियाद रखी थी जिसकी बदौलत किसी समय खाद्यान्न के अभाव से पीड़ित देश न सिर्फ आत्मनिर्भर बना बल्कि निर्यातक भी बन गया।

वे सात दशकों तक कृषि अनुसंधान, नियोजन और प्रशासन के अलावा किसानों को नई तकनीकें अपनाने के लिए प्रशिक्षित करने में भी सक्रिय रहे।

1925 में तमिलनाडु के एक छोटे कस्बे में जन्मे डॉ. स्वामिनाथन ने आलू संवर्धन में विशेषज्ञता हासिल की थी और विस्कॉन्सिन विश्वविद्यालय में इसी विषय पर पोस्ट-डॉक्टरल अनुसंधान किया था। यूएस में ही आगे काम करते रहने का अवसर मिलने के बावजूद वे 1954 में भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान में काम करने को भारत लौट आए थे।

1979 से 1982 तक वे कृषि एवं सिंचाई मंत्रालय में प्रमुख सचिव रहे। डॉ. स्वामिनाथन योजना आयोग के सदस्य और मंत्रिमंडल की विज्ञान सलाहकार समिति के अध्यक्ष भी रहे। 1982 में उन्हें इंटरनेशनल राइस रिसर्च इंस्टीट्यूट (फिलिपाइन्स) का महानिदेशक नियुक्त किया गया और 1988 तक वे इस पद पर रहे। भारत लौटकर वे पर्यावरण नीति व भूजल नीति सम्बंधी समितियों के अध्यक्ष रहे और राज्य सभा के मनोनीत सदस्य भी रहे।

भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान में पादप आनुवंशिकीविद के रूप में कार्य करते हुए उन्होंने देखा कि मेक्सिको में नॉर्मन बोरलॉग द्वारा विकसित गेहूं की नई किस्में परीक्षण के दौरान अद्भुत पैदावार दे रही हैं। स्वामिनाथन और बोरलॉग के बीच एक लाभदायक साझेदारी विकसित हुई और स्वामिनाथन ने बोरलॉग द्वारा विकसित किस्मों का संकरण मेक्सिको व जापान की अन्य किस्मों से करवाकर बेहतर गेहूं पैदा करने में सफलता हासिल की। गेहूं के ये नए पौधे ज़्यादा मज़बूत थे और दाना सुनहरा था।

भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के निदेशक के नाते उन्होंने सरकार को राज़ी किया कि मेक्सिको से 18,000 टन गेहूं के बीज का आयात किया जाए। असर यह हुआ कि 1974 तक भारत गेहूं व धान के मामले में आत्मनिर्भर हो चुका था।

डॉ. स्वामिनाथन को 1987 में प्रथम विश्व खाद्य पुरस्कार दिया गया; उन्होंने इस पुरस्कार के साथ प्राप्त 2 लाख डॉलर का उपयोग एम. एस. स्वामिनाथन रिसर्च फाउंडेशन की स्थापना हेतु किया जो आज भी देश में एक अग्रणी नवाचार संस्थान है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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