कुत्तों और मनुष्य के जुड़ाव में आंखों की भूमिका – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

हाल ही की एक रिपोर्ट में असम के काज़ीरंगा नेशनल पार्क की एक कुतिया के विलक्षण कौशल का वर्णन किया गया है। यह कुतिया सूंघकर बाघ और गैंडों के शिकारियों की मौजूदगी भांप लेती है और इस बारे में वन अधिकारियों को आगाह कर देती है। वन अधिकारियों ने इसे क्वार्मी नाम दिया है क्योंकि यह एक चौथाई सेना के बराबर है। इसी तरह मध्यप्रदेश के जंगलों में निर्माण और मैना नाम के दो कुत्ते बाघ और उसके शिकारियों की उपस्थिति सूंघ कर भांप लेते हैं।

कुत्ते भेड़िया कुल के सदस्य हैं। भेड़िए में तकरीबन 30 करोड़ गंध ग्राही होते हैं जबकि मनुष्यों में सिर्फ 60 लाख। भेड़िए सूंघकर 3 किलोमीटर दूर से किसी की भी मौजूदगी भांप सकते हैं। उनकी नज़र पैनी और श्रवण शक्ति तेज़ होती है, वे अपने शिकार की आहट 10 किलोमीटर दूर से ही सुन लेते हैं। सूंघने, देखने और सुनने की यह विलक्षण शक्ति कुत्तों को विरासत में मिली है। हम यह भी जानते है कुत्ते सूंघकर मनुष्यों में मलेरिया, यहां तक कि कैंसर की पहचान कर लेते हैं। और अच्छी बात तो यह है कि भेड़िए की तुलना में कुत्ते ज़्यादा शांत होते हैं और हम उन्हें पाल सकते हैं।

यूके और यूएसए के शोधकर्ताओं की हालिया रिपोर्ट कुत्तों की एक और विशेषता के बारे में बताती है: पालतू बनाए जाने के बाद कैसे समय के साथ कुत्ते के चेहरे की मांसपेशियां विकसित होती गर्इं और उनमें हमारी तरह भौंह चढ़ाने की क्षमता दिखती है। शोधकर्ता तर्क देते हैं कि उनकी इसी क्षमता के कारण मनुष्यों ने उनका पालन-पोषण शुरु किया और कुत्ते हमारे अच्छे दोस्त बन गए हैं। (Kaminski et al., Evolution of facial muscle anatomy in dogs, PNAS,116: 14677-81,July 16, 2019)

 कुत्तों को लगभग 33 हज़ार साल पहले पालतू बनाया गया था। जैसे-जैसे वे हमारे पालतू होते गए हमने उन कुत्तों को चुनना और प्राथमिकता देना शुरु कर दिया जो हमारे सम्बंधों के अनुरूप थे। और इस चयन का आधार था कुत्तों द्वारा हमारे संप्रेषण को समझने और इस्तेमाल करने की क्षमता, जो अन्य जानवरों में नहीं थी। शोधकर्ता बताते हैं कि कुत्ते मनुष्य के करीबी सम्बंधी चिम्पैंजी से भी ज़्यादा मानव संप्रेषण संकेतों (जैसे किसी दिशा में इंगित करने या किसी चीज़ की तरफ देखने) का उपयोग अधिक कुशलता से करते हैं।

कुत्ते-मनुष्य के आपसी रिश्ते में आंख मिलाने का महत्वपूर्ण योगदान है। एक जापानी शोध समूह के मुताबिक कुत्ते और मनुष्य का एक-दूसरे को एकटक देखना कुत्ते और कुत्ते के मालिक दोनों में जैव-रासायनिक परिवर्तन शुरू करता है, वैसे ही जैसे मां और शिशु के बीच लगाव होता है। शोधकर्ताओं के अनुसार संभावित वैकासिक परिदृश्य यह हो सकता है कि कुत्तों के पूर्वजों ने कुछ ऐसे लक्षण दर्शाए होंगे जिनसे मनुष्यों में उनकी देखभाल करने की इच्छा पैदा होती होगी। मनुष्य ने जाने-अनजाने इस व्यवहार को बढ़ावा दिया होगा और चुना होगा जिसके चलते आज कुत्तों में समरूपी लक्षण दिखते हैं।

इस पूरी प्रक्रिया में आंखों के बीच सम्पर्क और एकटक देखने का महत्वपूर्ण योगदान है। कुत्ते के मालिक कुत्तों की टकटकी को बखूबी पहचानते हैं – वे कभी-कभी इतनी दुखी निगाहों से देखते हैं कि मालिक उन्हें गले लगाना चाहेंगे, और कभी-कभी इतनी परेशान करने वाली निगाहों से देखेंगे कि आप उन्हें सज़ा देना चाहेंगे।

इसी संदर्भ में यूके-यूएसए के शोधकर्ता यह समझना चाहते थे कि कैसे कुत्तों के चेहरे की मांसपेशियां और शरीर रचना मनुष्य द्वारा चयन के ज़रिए इस तरह विकसित हुई कि उसने मनुष्य-कुत्ते के आंखों के सम्पर्क और ऐसी टकटकी में व्यक्त भाषा में योगदान दिया। हम मनुष्य उन कुत्तों को सराहते हैं जिनकी रचना और हावभाव शिशुओं जैसे होते हैं। जैसे बड़ा माथा, बड़ी-बड़ी आंखें। शोधकर्ताओं ने यह भी बताया कि कुत्तों के चेहरे की कुछ खास पेशियां भौंहे ऊपर-नीचे करने में मदद करती हैं, जो मनुष्यों को लुभाता है।

क्या मनुष्य द्वारा पालतू बनाए जाने के दौरान कुत्तों के चेहरे की पेशियों का विकास इस तरह हुआ है जिससे मनुष्य-कुत्ते के बीच आपसी संवाद सुगम हो जाता है? इस बात का पता लगाने के लिए शोधकर्ताओं ने तफसील से घरेलू, पालतू कुत्तों और धूसर भेड़ियों के चेहरे की रचना तुलना की। उन्होंने पाया कि कुत्तों के समान भेड़िए अपनी भौंह के अंदर वाले हिस्से को नहीं हिला पाते। इसके अलावा कुत्तों में एक ऐसी पेशी होती हैं जिसकी मदद से वे पलकों को कान की ओर ले जा सकते हैं जबकि भेड़िए ऐसा नहीं कर पाते। कुत्ते अपनी भौंहों को लगातार कई बार हिला सकते और उनकी भौंहों की यह हरकत अभिव्यक्ति पूर्ण होती है। इसे लोग ‘पपी डॉग’ हरकत कहते हैं यानी दुखी होना, खुशी ज़ाहिर करना, बे-परवाही जताना, या शिशुओं जैसे अन्य व्यवहार करना। और कुत्तों की यह पपी डॉग हरकत मनुष्यों द्वारा कुत्तों पर चयन के दबाव के चलते आई है।

ज़रूरी नहीं कि बेहतरीन कुत्ता प्यारा या सुंदर हो। बेहतरीन कुत्ता तो वह होता है जो आपकी ओर देखे और आप उसका जवाब दें। यह नज़र आपसी लगाव की द्योतक होती है।

कुछ दिनों पहले कैलिफोर्निया में ‘दुनिया का सबसे बदसूरत कुत्ता’ वार्षिक प्रतियोगिता सम्पन्न हुई। इस प्रतियोगिता का विजेता स्केम्प दी ट्रेम्प नाम का कुत्ता है, जिसकी बटन जैसी आंखे हैं, दांत नदारद, और ठूंठ जैसे छोटे-छोटे पैर हैं। लेकिन उसकी मालकिन मिस यिवोन मॉरोन को उस पर फख्र है। बात सिर्फ यह नहीं है कि आपका कुत्ता कैसा दिखता है, बल्कि कुत्ता अपने मालिक को पपी छवि दिखाता है और मालिक उसे कैसे देखती है। सुंदरता तो देखने वाले की आंखों में होती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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लोग खुद के सोच से ज़्यादा ईमानदार होते हैं – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

व्यक्तिगत, सामाजिक, आर्थिक और राष्ट्रीय विकास के लिए ईमानदारी अनिवार्य है। लेकिन आजकल हम देखते हैं कि कैसे लोग, कंपनियां और सरकार अपने मतलब और फायदे के लिए धोखाधड़ी कर रहे हैं। क्या दुनिया के सभी 205 देशों में ऐसा ही होता है? क्या लोग व्यक्तिगत लेन-देन में ईमानदारी को तवज़्जो देते हैं? यही सवाल ए. कोह्न और उनके साथियों के शोध पत्र का विषय था (कोह्न और उनके साथी जानकारी संग्रहण और विश्लेषण, अर्थशास्त्र और प्रबंधन विषयों के विशेषज्ञ हैं)। उनका शोध पत्र “civic honesty around the globeसाइंस पत्रिका के जून अंक में प्रकाशित हुआ है। यह अध्ययन उन्होंने 40 देशों के 355 शहरों में लगभग 17,000 लोगों के साथ किया, जिसमें उन्होंने लोगों में ईमानदारी और खुदगर्ज़ी के बीच संतुलन को जांचा। इस अध्ययन के नतीजे काफी दिलचस्प रहे। अध्ययन में उन्होंने पाया कि लोग व्यक्तिगत स्तर पर वास्तव में उससे ज़्यादा ईमानदार होते हैं जितना वे खुद अपने बारे में सोचते हैं।

यह प्रयोग उन्होंने कैसे किया। शोधकर्ताओं ने कुछ वालन्टियर चुने जो किसी बैंक, पुलिस स्टेशन या होटल के पास एक बटुआ गिरा देते थे। हर बटुए के एक तरफ एक पारदर्शी कवर लगा था, जिसके अंदर एक कार्ड रखा होता था। इस कार्ड पर बटुए के मालिक का नाम और उससे संपर्क सम्बंधी जानकारी होती थी। कार्ड के साथ घर के लिए खरीदने के कुछ सामान (जैसे दूध, ब्रोड, दवाई वगैरह) की एक सूची भी होती थी। इस जानकारी के साथ बटुओं के अलग-अलग सेट बनाए गए। जैसे, कुछ बटुए बिना रुपयों के थे, कुछ बटुओं में थोड़े-से रुपए (14 डॉलर या उस देश के उतने ही मूल्य की नगदी) और कुछ में अधिक (95 डॉलर या समान मूल्य की नगदी) रखे गए। अर्थात बटुओं के 5 अलग-अलग सेट थे। पहले सेट में नगदी नहीं थी, दूसरे सेट में मामूली रकम थी, तीसरे सेट में अधिक रकम थी, चौथे सेट में नगदी नहीं लेकिन एक चाबी रखी गई थी, और पांचवे सेट में नगदी के साथ एक चाबी रखी थी।

वालन्टियर्स ने इन बटुओं को किसी सार्वजनिक स्थल (जैसे पुलिस स्टेशन, होटल या बैंक के पास) पर गिराया और इस बात पर नज़र रखी कि जब बटुआ किसी व्यक्ति को मिलता है तो वह उसके साथ क्या करता है। क्या वह नज़दीकी सहायता काउंटर पर जाकर सम्बंधित व्यक्ति तक बटुआ वापस पहुंचाने को कहता है? अध्ययन के नतीजे क्या रहे?

अध्ययन में उन्होंने पाया कि उन बटुओं को लोगों ने अधिक लौटाया जिनमें पैसे थे, बजाए बिना पैसों वाले बटुओं के। सभी 40 देशों में उन्हें इसी तरह के नतीजे मिले।

और यदि बटुओं में बहुत अधिक रुपए रहे हों, तो? क्या वे बटुआ लौटाने के पहले उसमें से थोड़े या सारे रुपए निकाल लेते? क्या उन्होंने सिर्फ सज़ा के डर से बटुए लौटाए? या इनाम मिलने की उम्मीद में लोगों ने पूरे रुपयों सहित बटुआ लौटाया? या ऐसा सिर्फ परोपकार की मंशा से किया गया था? यह वाला प्रयोग उन्होंने तीन देशों (यूके, यूएस और पोलैंड) में किया, जिसके नतीजे काफी उल्लेखनीय रहे। 98 प्रतिशत से अधिक लोगों ने अधिक रुपयों से भरा बटुआ भी लौटाया। (यह अध्ययन उन देशों में करना काफी दिलचस्प होगा जो आर्थिक रूप से सम्पन्न नहीं हैं।)

अपने अगले प्रयोग में उन्होंने बटुओं के तीन सेट बनाए। पहले सेट में बटुए में सिर्फ थोड़े रुपए रखे, दूसरे सेट में बटुए में थोड़ी-सी रकम और एक चाबी रखी, और तीसरे सेट में बटुए में काफी सारे रुपए और चाबी दोनों रखे। इस अध्ययन में देखा गया कि बिना चाबी वाले बटुओं की तुलना में चाबी वाले बटुओं को अधिक लोगों ने लौटाया। इन नतीजों को देखकर लगता है कि लोग बटुए के मालिक को परेशानी में नहीं देखना चाहते। इसी तरह के नतीजे सभी देशों में देखने को मिले।

भारतीय शहर

इस अध्ययन में हमारे लिए दिलचस्प बात यह है कि शोधकर्ताओं ने भारत के दिल्ली, बैंगलुरू, मुंबई, अहमदाबाद, कोयम्बटूर और कोलकाता शहर में लगभग 400 लोगों के साथ यह अध्ययन किया। इन शहरों के नतीजे अन्य जगहों के समान ही रहे। एशिया के थाईलैंड, मलेशिया और चीन, और केन्या और साउथ अफ्रीका के शहरों में भी इसी तरह के परिणाम मिले।

शोधकर्ताओं के अनुसार “हमने यह जानने के लिए 40 देशों में प्रयोग किया कि क्या लोग तब ज़्यादा बेईमान होते हैं जब प्रलोभन बड़ा हो, लेकिन नतीजे इसके विपरीत रहे। ज़्यादा नगदी से भरे बटुओं को अधिक लोगों द्वारा लौटाया गया। यह व्यवहार समस्त देशों और संस्थानों में मज़बूती से देखने को मिला, तब भी जब बटुओं में बेईमानी उकसाने के लिए पर्याप्त रकम थी। हमारे अध्ययन के नतीजे उन सैद्धांतिक मॉडल्स से मेल खाते हैं जिनमें परोपकार और आत्म-छवि को स्थान दिया जाता है, साथ ही यह भी दर्शाते हैं कि बेईमानी करने पर मिलने वाले भौतिक लाभ के साथ गैर-आर्थिक प्रेरणाओं का भी प्रत्यक्ष योगदान होता है। जब बेईमानी करने पर बड़ा लाभ मिलता है तो बेईमानी करने या धोखा देने की इच्छा बढ़ती है, लेकिन अपने आप को चोर के रूप में देखने की कल्पना इस इच्छा पर हावी हो जाती है। …तुलनात्मक अध्ययन इस बात की ओर इशारा करता है कि आर्थिक रूप से अनुकूल भौगोलिक परिवेश, समावेशी राजनैतिक संस्थान, राष्ट्रीय शिक्षा और नैतिक मानदंडों पर ज़ोर देने वाले सांस्कृतिक मूल्यों का सीधा सम्बंध नागरिक ईमानदारी से है।”

ऐसे अध्ययन भारत के विभिन्न स्थानों, गांवों (गरीब और सम्पन्न दोनों), कस्बों, नगरों, शहरों और आदिवासी इलाकों में करना चाहिए और देखना चाहिए कि यहां के नतीजे उपरोक्त अध्ययन से निकले सामान्य निष्कर्षों से मेल खाते हैं या नहीं। भारत उन 40 देशों का प्रतिनिधित्व करता है जो आर्थिक और सामाजिक आदर्शों, मूल्यों और विश्वासों को साझा करते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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खोपड़ी में इतनी हड्डियां क्यों?

अनुमान लगाइए आपकी खोपड़ी में कितनी हड्डियां होंगी। शायद आपका अनुमान दो, या शायद कुछ अधिक हड्डियों का हो। लेकिन वास्तव में मानव खोपड़ी में अनुमान से कहीं अधिक हड्डियां होती हैं। नेशनल सेंटर फॉर बॉयोटेक्नॉलॉजी इंफॉर्मेशन के मुताबिक मानव खोपड़ी में हड्डियों की संख्या 22 होती है: 8 हड्डियां कपाल में और 14 हड्डियां चेहरे की।  

अलग-अलग जीवों की खोपड़ी में हड्डियों की संख्या अलग-अलग होती है। ओहायो युनिवर्सिटी के शोधकर्ता के मुताबिक मगरमच्छ की खोपड़ी में 53 हड्डियां होती हैं। अब तक खोपड़ी में सबसे अधिक हड्डियां लुप्त हो चुकी एक मछली के जीवाश्म में मिली है (156)। सामान्यत: मछलियों की खोपड़ी में तकरीबन 130 हड्डियां होती हैं।

विभिन्न रीढ़धारी जीवों में जन्म के समय खोपड़ी में हड्डियों की संख्या अधिक होती है, लेकिन कुछ में युवावस्था आने तक कुछ हड्डियां आपस में जुड़ जाती हैं जबकि कुछ जीवों में ये हड्डियां अलग-अलग बनी रहती हैं। जैसे स्तनधारी जीवों के भ्रूण की खोपड़ी में लगभग 43 हड्डियां होती हैं, लेकिन उम्र के साथ इनमें से कुछ हड्डियां आपस में जुड़ जाती हैं। मानव शिशु में जन्म के समय के माथे की दो हड्डियां होती हैं जो उम्र बढ़ने पर जुड़कर एक हो जाती हैं।

प्रत्येक रीढ़धारी जीव की खोपड़ी में हड्डियों की संख्या, आगे चलकर कितनी हड्डियां जुड़ेंगी, जुड़ाव का स्थान और समय में विविधता होती है। और इससे पता लगता है कि उस जीव की खोपड़ी का उपयोग कैसा है, और खोपड़ी में कितने लचीलेपन की ज़रूरत है। जीव की खोपड़ी जितनी अधिक लचीली होगी, उसकी खोपड़ी में उतनी अधिक हड्डियां होंगी। मसलन मछिलयों की खोपड़ी बहुत लचीली होती है और उनकी खोपड़ी में हड्डियों की संख्या बहुत अधिक होती है और उनमें बहुत कम हड्डियां आपस में जुड़ती हैं। वैसे ज़मीन पर रहने वाले रीढ़धारी जीवों की तुलना में मछलियों को अपने सिर का संतुलन बनाए रखने के लिए गुरुत्व बल से जूझना नहीं पड़ता, इसलिए उनकी हड्डियां हल्की और लचीली होती हैं। पक्षियों की भी खोपड़ी काफी लचीली होती है। जैव विकास में जीवों की खोपड़ी अलग-अलग तरह से विकसित हुर्इं हैं। खोपड़ी की हड्डियों में यह विविधता जीव विकास की समृद्ध प्रक्रिया के बारे में बताती है। (स्रोत फीचर्स)

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अंतरिक्ष यात्रा के दौरान शरीर में बदलाव – डॉ. डी. बालसुब्रामण्यन

दुनिया के पहले अंतरिक्ष यात्री यूरी गागरिन थे, उन्होंने 12 अप्रैल 1961 को पृथ्वी का एक चक्कर पूरा किया था। इस से भड़ककर यू.एस. ने ‘प्रोजेक्ट अपोलो’ लॉन्च किया था जिसके तहत पहली बार मनुष्य चांद पर उतरा था। चंद्रमा से वापस धरती पर आने के बाद आर्मस्ट्रॉन्ग ने कहा था कि “मनुष्य का एक छोटा कदम मानवजाति के लिए बड़ी छलांग है।” उसके बाद से अब तक 37 देशों के लगभग 536 लोग अंतरिक्ष की यात्रा कर चुके हैं। और आज यदि आपके पास पर्याप्त पैसा और जज़्बा है तो दुनिया की कम-से-कम चार कंपनियां आपको अंतरिक्ष की सैर करवाने की पेशकश कर रही हैं।

लेकिन अंतरिक्ष यात्रा मानव शरीर पर क्या प्रभाव डालती है- इस दौरान शरीर के रसायन शास्त्र, शरीर क्रियाओं, जीव विज्ञान और उससे जुड़ी चिकित्सीय परिस्थितियां कैसे प्रभावित होती हैं। मसलन, मंगल से पृथ्वी की दूरी औसतन 5 करोड़ 70 लाख किलोमीटर है और वहां पहुंचने में लगभग 300 दिन लगते है। तो इस एक साल की यात्रा के दौरान शरीर में क्या-क्या बदलाव होंगे? इन सभी बातों को ध्यान में रखते हुए नासा ने अंतरिक्ष यात्रियों के शरीर में होने वाले परिवर्तनों को जानने के लिए एक प्रयोग किया था जिसमें एक अंतरिक्ष यात्री को पृथ्वी से 400 किलोमीटर दूर स्थित इंटनेशनल स्पेस स्टेशन (आइएसए) में रखा गया।

इस अध्ययन में अंतरिक्ष यात्री स्कॉट केली को एक साल तक अंतरिक्ष स्टेशन में रखा गया और इस दौरान उनकी कई जीव वैज्ञानिक पैमानों पर जांच की गई। अंतरिक्ष यात्रा के कारण होने वाले प्रभावों की पुष्टि के लिए कंट्रोल के तौर पर स्कॉट के आइडेंटिकल जुड़वां भाई मार्क केली पृथ्वी पर ही रुके थे। इस दौरान मार्क की भी उन्हीं पैमानों पर जांच की गई। इस अध्ययन में कंट्रोल रखना एक बेहतरीन योजना है, क्योंकि स्कॉट में आए बदलाव अंतरिक्ष यात्रा का ही प्रभाव है इसकी पुष्टि मार्क के साथ तुलना करके की जा सकती है।

अंतरिक्ष के कौन से कारक शरीर को प्रभावित करते हैं। शरीर को प्रभावित करने वाले कारकों में से एक कारक है अंतरिक्ष का शून्य गुरुत्वाकर्षण या माइक्रो ग्रेविटी। अंतरिक्ष में शून्य गुरुत्वाकर्षण के कारण भारहीनता का एहसास होता है, जो शरीर को प्रभावित करता है। पृथ्वी पर हमें सीधा या तनकर खड़े होने में गुरुत्वाकर्षण मदद करता है। खड़े होने या चलने की स्थिति में हमारे शरीर में रक्त या अन्य तरल का प्रवाह नीचे की ओर होता है (शरीर में मौजूद पंप और वाल्व, इस नैसर्गिक प्रवाह के विपरीत, इन तरल पदार्थों का पूरे शरीर में संचार करते हैं)। अंतरिक्ष में शून्य गुरुत्वाकर्षण के कारण शरीर का तरल या रक्त संचार प्रभावित होता है। डॉ. लॉबरिच और डॉ. जेग्गो साइंस पत्रिका में प्रकाशित अपने पेपर में बताते हैं कि पृथ्वी पर जीवन ने पृथ्वी की सतह पर लगने वाले गुरुत्वाकर्षण के अनुरूप आकार लिया है, और लगभग सभी शारीरिक क्रियाएं इसके अनुकूल ढली हैं। तो शून्य गुरुत्वाकर्षण या माइक्रो ग्रेविटी उन्हें कैसे प्रभावित करेगी।

अंतरिक्ष में शरीर को प्रभावित करने वाला दूसरा कारक है आयनीकारक विकिरण से संपर्क। आयनीकारक विकिरण ब्राहृांडीय किरणों तथा सौर किरणों जैसे रुाोत से निकलती हैं। यह विकिरण अंतरिक्ष यात्रियों पर प्रभाव डालता है। पृथ्वी पर मौजूद वायुमंडल और पृथ्वी का चुंबकीय क्षेत्र इस विकिरण से हमारी सुरक्षा करता है। यानी अध्ययन के दौरान अंतरिक्ष स्टेशन निवासी स्कॉट पृथ्वी पर रुके मार्क की तुलना में आयनीकारक किरणों के संपर्क में अधिक आए थे।

जुड़वां भाइयों के इस अध्ययन में उनके शरीर में हुए रसायनिक, भौतिक और जैव-रासायनिक बदलावों की विस्तारपूर्वक तुलना फ्रेंसिन गेरेट, बैकलमेन और उनके साथियों द्वारा की गई। उन्होंने अंतरिक्ष यात्रा से पहले, यात्रा के दौरान, यात्रा से वापसी के तुरंत और 6 महीने बाद स्कॉट में संज्ञान सम्बंधी, शारीरिक, जैव-रासायनिक परिवर्तनों, सूक्ष्मजीव विज्ञान और जीन के व्यवहार और टेलोमेयर (क्रोमोसोम के सिरों वाले खंड) का अध्ययन किया। साथ ही साथ यही अध्ययन पृथ्वी पर रुके मार्क के साथ भी किए गए। उनका यह अध्ययन 25 महीने तक चला।

अध्ययन के नतीजे क्या रहे? अध्ययन में उन्होंने पाया कि अंतरिक्ष यात्रा के दौरान शरीर की कुछ जैविक प्रक्रियाएं जैसे प्रतिरक्षा प्रणाली (टी-कोशिकाएं), शरीर का द्रव्यमान, आंत में मौजूद सूक्ष्मजीव वगैरह कम प्रभावित हुए थे। कुछ अन्य प्रक्रियाएं जैसे रक्त प्रवाह मध्यम स्तर तक प्रभावित हुए थे। लेकिन अंतरिक्ष यात्रा के दौरान टेलोमेयर गंभीर रूप से प्रभावित हुए थे; स्कॉट के टेलोमेयर छोटे हो गए थे। इससे लगता है कि आयनीकारक किरणों ने स्कॉट को प्रभावित किया था। शून्य गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव के कारण रक्त और ऊतकों का तरल ऊपरी हिस्सों में पहुंच गया था, कैरोटिड (गर्दन में मौजूद धमनी) की दीवार मोटी हो गई थी जिसके परिणाम-स्वरूप ह्मदय और मस्तिष्क की रक्त वाहिनियों में बदलाव हुए थे। साथ ही स्कॉट में रेटिना के इर्द-गिर्द रक्त प्रवाह और कोरोइड का मोटा होना देखा गया था, जिसके कारण नज़र हल्की धुंधली पड़ गई थी।

वापसी पर सामान्य स्थिति

वैज्ञानिक अंतरिक्ष यात्रा से वापसी के बाद भी स्कॉट की जांच करते रहे थे। उन्होंने पाया कि स्कॉट में जो बदलाव अंतरिक्ष यात्रा के दौरान आए थे, पृथ्वी पर लौटने के बाद वे सामान्य स्थिति में लौट आए थे। हमें इस तरह के और भी अध्ययनों की ज़रूरत है जिससे यह स्पष्ट हो सके कि लंबी अंतरिक्ष यात्रा जैविक और शारीरिक रूप से किस तरह प्रभावित करती है क्योंकि जितनी लंबी अंतरिक्ष यात्रा होगी प्रभाव भी उतना अधिक होगा। इसके अलावा अंतरिक्ष यात्रा से वापसी के बाद सामान्य अवस्था में लौटने में भी अधिक वक्त लगेगा। (स्रोत फीचर्स)

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स्मार्टफोन के उपयोग से खोपड़ी में परिवर्तन

हमारी खोपड़ी में एक परिवर्तन देखने को मिल रहा है और कई चिकित्सकों का मत है कि यह परिवर्तन कई घंटों तक गर्दन झुकाकर स्मार्टफोन के उपयोग की वजह से हो रहा है। वैसे तो कुछ लोगों में गर्दन के ऊपर खोपड़ी के निचले हिस्से की हड्डी थोड़ी उभरी होती है। इसे बाहरी पश्चकपाल गूमड़ कहते हैं। मगर हाल के कुछ अध्ययनों में पाया गया है कि सामान्य से ज़्यादा लोगों में, विशेष रूप से युवाओं में, यह गूमड़ कुछ ज़्यादा ही उभरने लगा है।

20 वर्षों से चिकित्सक रहे यूनिवर्सिटी ऑफ दी सनशाइन कोस्ट, ऑस्ट्रेलिया के स्वास्थ्य वैज्ञानिक डेविड शाहर के अनुसार उनको पिछले एक दशक में इस तरह के बदलाव देखने को मिले हैं। इसके कारण की स्पष्ट पहचान तो नहीं हो सकी है, लेकिन इस बात की संभावना है कि स्मार्ट उपकरणों को देखने के लिए असहज कोणों पर गर्दन को झुकाने से इस खोपड़ी के पिछले भाग की हड्डी बढ़ रही है। लंबे समय तक सर को झुकाकर रखने से गर्दन पर भारी तनाव पड़ता है। इसको कई बार ‘पढ़ाकू गर्दन’ (टेक्स्ट नेक) के नाम से भी जाना जाता है।

शाहर के  अनुसार पढ़ाकू गर्दन की वजह से गर्दन और खोपड़ी से जुड़ी मांसपेशियों पर दबाव बढ़ता है जिसके  जवाब में खोपड़ी के पिछले भाग (पश्चकपाल) की हड्डी बढ़ने लगती है। यह हड्डी सिर के वज़न को एक बड़े क्षेत्र में वितरित कर देती है।

वर्ष 2016 में शाहर और उनके सहयोगियों ने इस गूमड़ का अध्ययन करने के  लिए 18 से 30 वर्ष की आयु के 218 युवा रोगियों के रेडियोग्राफ देखे। एक सामान्य नियमित उभार 5 मि.मी. माना गया और 10 मि.मी. से बड़े उभार को बढ़ा हुआ माना गया।

कुल मिलाकर समूह के 41 प्रतिशत लोगों में उभार बढ़ा हुआ निकला और 10 प्रतिशत में उभार 20 मि.मी. से बड़ा पाया गया। सामान्य तौर पर, महिलाओं की अपेक्षा पुरुषों में यह उभार अधिक देखा गया। सबसे बड़ा उभार एक पुरुष में 35.7 मि.मी. का था।

18 से 86 वर्ष के 1200 लोगों पर किए गए एक अन्य अध्ययन में पाया गया कि यह समस्या कम उम्र के लोगों में अधिक दिखती है। जहां पूरे समूह के 33 प्रतिशत लोगों में बढ़ा हुआ उभार देखा गया, वहीं 18-30 वर्ष की आयु के व्यक्तियों में यह स्थिति 40 प्रतिशत से अधिक में पाई गई। यह परिणाम चिंताजनक है क्योंकि आम तौर पर इस तरह की विकृतियां उम्र के साथ बढ़ती हैं मगर हो रहा है उसका एकदम उल्टा।

शाहर का मानना है कि इस हड्डी की यह हालत बनी रहेगी हालांकि यह स्वास्थ्य की समस्या शायद न बने। बहरहाल, यदि आपको इसके कारण असुविधा हो रही है तो अपने उठने-बैठने के ढंग में परिवर्तन ज़रूरी होगा। (स्रोत फीचर्स)

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लैक्टोस पचाने की क्षमता की शुरुआत कहां से हुई

ह एक पहेली रही है कि दूध में उपस्थित एक शर्करा लैक्टोस को पचाने की क्षमता सभी मनुष्यों में नहीं पाई जाती। जिन लोगों में यह क्षमता नहीं होती उन्हें दूध नहीं सुहाता। इसके अलावा, एक बात यह भी है कि आम तौर पर लैक्टोस को पचाने की क्षमता बचपन में पाई जाती है और बड़े होने के साथ समाप्त हो जाती है। तो सवाल यह है कि यह क्षमता मनुष्य में कब आई और कैसे फैली।

आज से लगभग 5500 साल पहले युरोप में मवेशियों, भेड़-बकरियों को पालने की शुरुआत हो रही थी, लगभग उसी समय पूर्वी अफ्रीका में भी पशुपालन का काम ज़ोर पकड़ रहा था।

पूर्व में हुए पुरातात्विक शोध के अनुसार पूर्वी अफ्रीका में प्रथम चरवाहे लगभग 5000 साल पूर्व आए थे। आनुवंशिक अध्ययन बताते हैं कि ये निकट-पूर्व और आजकल के सूडान के निवासियों के मिले-जुले वंशज थे। ये चरवाहे वहां के शिकारी-संग्रहकर्ता मानवों के साथ तो घुल-मिल गए; ठीक उसी तरह जैसे पशुपालन को एशिया से युरोप लाने वाले यामनाया चरवाहों ने वहां के स्थानीय किसानों और शिकारियों के साथ प्रजनन सम्बंध बनाए थे। अलबत्ता, लगभग 1000 साल बाद भी पूर्वी अफ्रीका के चरवाहे स्वयं को आनुवंशिक रूप से अलग रख सके यानी उनके साथ संतानोत्पत्ति के सम्बंध नहीं बनाए और वहां के अन्य स्थानीय लोगों से अलग ही रहे।

अपने अध्ययन में शोधकर्ताओं ने प्राचीन समय के लगभग 41 उन लोगों के डीएनए का विश्लेषण किया जो वर्तमान के केन्या और तंज़ानिया के निवासी थे। उन्होंने पाया कि आजकल के चरवाहों के विपरीत इन लोगों में लैक्टोस को पचाने की क्षमता नहीं थी। सिर्फ एक व्यक्ति जो लगभग 2000 वर्ष पूर्व तंज़ानिया की गिसीमंगेडा गुफा में रहता था, में लैक्टोस को पचाने वाला जीन मिला है जो इस ओर इशारा करता है कि इस इलाके में लैक्टोस के पचाने का गुण किस समय विकसित होना शुरू हुआ था। इस व्यक्ति के पूर्वज चरवाहे और उसके साथी यदि दूध या दूध से बने उत्पादों का सेवन करते होंगे तो वे किण्वन के ज़रिए दही वगैरह बनाकर ही करते होंगे क्योंकि उसमें लैक्टोस लैक्टिक अम्ल में बदल जाता है। मंगोलियन चरवाहे लैक्टोस को पचाने के लिए सदियों से यही करते आए हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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अल्जीरिया और अर्जेंटाइना मलेरिया मुक्त घोषित

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने 22 मई के दिन अल्जीरिया और अर्जेंटाइना को मलेरिया मुक्त घोषित कर दिया। यह निर्णय तब किया गया जब इन दोनों देशों में पिछले तीन सालों से अधिक समय से मलेरिया का कोई मामला नहीं देखा गया। इसके साथ ही मलेरिया मुक्त देशों की संख्या 38 हो गई है।

गौरतलब है कि दुनिया के 80 देशों में हर साल करीब 20 करोड़ मलेरिया के मामले सामने आते हैं। 2017 में तकरीबन 4 लाख 35 हज़ार लोग मलेरिया की वजह से मारे गए थे।

अफ्रीकी देश अल्जीरिया में मलेरिया परजीवी पहली बार 1880 में देखा गया था। यहां मलेरिया का आखिरी मामला 2013 में सामने आया था। दक्षिण अमरीकी देश अर्जेंटाइना में मलेरिया आखिरी बार 2010 में पाया गया था। दोनों ही देशों में कई दशकों में मलेरिया प्रसार की दर काफी कम रही है। यहां मलेरिया से संघर्ष में प्रमुख भूमिका सबके लिए स्वास्थ्य की उपलब्धता और मलेरिया की गहन निगरानी की रही है। इसके अलावा अर्जेंटाइना ने विशेष प्रयास यह भी किया कि पड़ोसी देशों को राज़ी किया कि वे अपने यहां कीटनाशक छिड़काव करें और बुखारग्रस्त लोगों की मलेरिया के लिए जांच करें ताकि सीमापार फैलाव को रोका जा सके।

पहले तो विश्व स्वास्थ्य संगठन ने विश्व स्तर पर मलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम चलाया था जो मुख्य रूप से डीडीटी के छिड़काव और मलेरिया-रोधी दवाइयों पर टिका था। इस कार्यक्रम के अंतर्गत 27 देश मलेरिया मुक्त हुए थे। लेकिन साल 1969 में संगठन ने मलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम को त्याग दिया था क्योंकि वैज्ञानिकों ने स्पष्ट किया कि विश्व स्तर पर मलेरिया का उन्मूलन अल्प अवधि में संभव नहीं है।

अलबत्ता, 2000 के दशक में एक बार फिर कोशिशें शुरू हुर्इं और इस बार लक्ष्य यह रखा गया कि 2020 तक 21 देशों को मलेरिया मुक्त कर दिया जाएगा। इनमें से 2 (पेरागुए और अल्जीरिया) अब पूरी तरह मलेरिया मुक्त हैं। (स्रोत फीचर्स)

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दुनिया का सबसे छोटा जीवित शिशु सेब के बराबर था

दिसंबर 2018 के दौरान शार्प मैरी बर्च हॉस्पिटल फॉर वीमेन एंड न्यूबॉर्न्स, सैन डिएगो में मात्र लगभग 245 ग्राम वज़न की एक बच्ची का जन्म हुआ। एक बड़े सेब के वज़न की इस बच्ची को अस्पताल में काम करने वाली नर्सों ने ‘सेबी’ नाम दिया है। अस्पताल ने बताया है कि सेबी दुनिया की सबसे छोटी बच्ची है जो जीवित रह पाई है।

गर्भावस्था की जटिलताओं के चलते सेबी का जन्म ऑपरेशन के माध्यम से सिर्फ 23 सप्ताह और 3 दिनों के गर्भ से हुआ था। चूंकि उस समय गर्भ केवल 23 सप्ताह का था इसलिए बच्ची के जीवित रहने की संभावना मात्र 1 घंटे ही थी लेकिन धीरे-धीरे एक घंटा दो घंटे में परिवर्तित हुआ और फिर एक हफ्ते और अब जन्म के पांच महीने बाद सेबी का वज़न लगभग ढाई किलोग्राम है और उसे अस्पताल छोड़ने की अनुमति भी मिल गई है।

युनिवर्सिटी ऑफ आयोवा में सबसे छोटे जीवित शिशुओं का रिकॉर्ड रखा जाता है। जन्म के समय सेबी का वज़न पिछले रिकॉर्ड से 7 ग्राम कम था, जो 2015 में जर्मनी में पैदा हुआ एक बच्ची का है। इस साल फरवरी में, डॉक्टरों ने सबसे छोटे जीवित लड़के के जन्म की सूचना दी, जिसका वजन जन्म के समय 268 ग्राम था।

अस्पताल के अनुसार सेबी को केवल जीवित रखने के अलावा उनको किसी अन्य मेडिकल चुनौति का सामना नहीं करना पड़ा जो आम तौर पर माइक्रोप्रीमीस (28 सप्ताह से पहले जन्म लेने वाले बच्चों) में देखने को मिलती हैं। माइक्रोप्रीमीस में मस्तिष्क में रक्तस्राव तथा फेफड़े और ह्मदय सम्बंधी समस्याएं हो सकती हैं।

यह अस्पताल माइक्रोप्रीमीस की देखभाल करने में माहिर है। इसलिए कहा जा सकता है कि सेबी सही जगह पर पैदा हुई है। लेकिन फिर भी माइक्रोप्रीमीस को आगे चलकर काफी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। जैसे-जैसे ये बच्चे बड़े होते जाते हैं उनमें दृष्टि समस्याएं, सूक्ष्म मोटर दक्षता और सीखने की अक्षमताओं जैसी समस्याएं होने लगती हैं।

अगले कुछ वर्षों के लिए, सेबी को अस्पताल के अनुवर्ती क्लीनिक में नियमित रूप से जाना होगा जिसका उद्देश्य ऐसे शिशुओं के विकास में मदद करना है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कितना सही है मायर्स-ब्रिग्स पर्सनैलिटी टेस्ट?

क्सर व्यक्तित्व परीक्षण के लिए मायर्स-ब्रिग्स पर्सनालिटी टेस्ट (एमबीटी) का उपयोग किया जाता है। इस परीक्षण में लोगों को 16 श्रेणियों में वर्गीकृत किया जाता है।

एमबीटी का आविष्कार 1942 में कैथरीन कुक ब्रिग्स और उनकी बेटी, इसाबेल ब्रिग्स मायर्स ने किया था। उनका मकसद ऐसे टाइप इंडिकेटर विकसित करना था, जिनसे लोगों को खुद की प्रवृत्ति को समझने और उचित रोज़गार चुनने में मदद मिले। परीक्षण में कुछ सवालों के आधार पर निम्नलिखित लक्षणों का आकलन किया जाता है: 

·         अंतर्मुखी (I) बनाम बहिर्मुखी (E)

·         सहजबोधी (N) बनाम संवेदना-आधारित (S)

·         विचारशील (T) बनाम जज़्बाती (P)

·         फैसले सुनाने वाला (J) बनाम समझने की कोशिश करने वाला (P)

इस परीक्षण के आधार पर लोगों को 16 लेबल प्रकार प्रदान दिए जाते हैं, जैसे  INTJP, ENPF

मायर्स ब्रिग्स परीक्षण का प्रबंधन करने वाली कंपनी के अनुसार हर साल लगभग 15 लाख लोग इसकी ऑनलाइन परीक्षा में शामिल होते हैं। कई बड़ी-बड़ी कंपनियों और विद्यालयों में इस परीक्षण का उपयोग में किया जाता है। और तो और, हैरी पॉटर जैसे काल्पनिक पात्र को भी एमबीटी लेबल दिया गया है।

लोकप्रियता के बावजूद कई मनोवैज्ञानिक इसकी आलोचना करते हैं। मीडिया में कई बार इसको अवैज्ञानिक, अर्थहीन या बोगस बताया गया है। लेकिन कई लोग परीक्षण के बारे में थोड़े उदार हैं। ब्रॉक विश्वविद्यालय, ओंटारियो के मनोविज्ञान के प्रोफेसर माइकल एश्टन एमबीटी को कुछ हद तक वैध मानते हैं लेकिन उसकी कुछ सीमाएं भी हैं। 

एमबीटी के साथ मनोवैज्ञानिकों की मुख्य समस्या इसके पीछे के विज्ञान से जुड़ी है। 1991 में, नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ की समिति ने एमबीटी अनुसंधान के आंकड़ों की समीक्षा करते हुए कहा था कि इसके अनुसंधान परिणामों में काफी विसंगतियां हैं।

एमबीटी उस समय पैदा हुआ था जब मनोविज्ञान एक अनुभवजन्य विज्ञान था और इसे व्यावसायिक उत्पाद बनने से पहले उन विचारों का परीक्षण तक नहीं किया गया था। लेकिन आधुनिक मनोवैज्ञानिकों की मांग है कि किसी व्यक्तित्व परीक्षण को कुछ मानदंड पूरे करने चाहिए।

कुछ शोध एमबीटी को अविश्वसनीय बताते हैं क्योंकि एक ही व्यक्ति दोबारा टेस्ट ले तो परिणाम भिन्न हो सकते हैं। अन्य अध्ययनों ने एमबीटी की वैधता पर सवाल उठाया है कि इसके लेबल वास्तविक दुनिया से मेल नहीं खाते, जैसे यह पक्का नहीं है कि एक तरह से वर्गीकृत लोग किसी कार्य में कितना अच्छा प्रदर्शन करेंगे। मायर्स-ब्रिग्स कंपनी के अनुसार एमबीटी को बदनाम करने वाले ऐसे अध्ययन पुराने हैं।

हालांकि, परीक्षण की कुछ सीमाएं इसकी डिज़ाइन में ही निहित हैं। जैसे इसमें श्रेणियां सिर्फ हां या नहीं के रूप में हैं। किंतु हो सकता है कोई व्यक्ति इस तरह वर्गीकृत न किया जा सके। एमबीटी व्यक्तित्व के केवल चार पहलुओं का आकलन करके बारीकियों पर ध्यान नहीं दे रहा है। फिर भी, कई लोग मानते हैं कि एमबीटी पूरी तरह से बेकार भी नहीं है। उनका मानना है कि यह व्यक्तित्व के कुछ मोटे-मोटे रुझान तो बता ही सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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हज़ारों साल पुरानी चुइंगम में मिला मानव डीएनए

हाल ही में शोधकर्ताओं को स्कैन्डिनेविया के खुदाई स्थल से दस हज़ार साल से भी ज़्यादा पुरानी चुइंगम के अवशेष मिले हैं। खास बात यह है कि इन चुइंगम में  उन्होंने मानव डीएनए के नमूने प्राप्त करने में सफलता हासिल की है।

ओस्लो स्थित म्यूज़ियम ऑफ कल्चरल हिस्ट्री के नतालिज़ा कसुबा और उनके साथियों को स्वीडन के पश्चिम तटीय क्षेत्र ह्युसबी क्लेव खुदाई स्थल से 8 चुइंगम मिली हैं। ये चुइंगम भोजपत्र (सनोबर) की छाल के रस से बनी हैं। इन च्वुइंगम में मिठास नहीं थी, इनका स्वाद गोंद जैसा होता था। पाषाण युग में औज़ार बनाने में भी मनुष्य राल का उपयोग करते थे।

चुइंगम के विश्लेषण में शोधकर्ताओं को इन पर मानव डीएनए प्राप्त हुए। डीएनए की जांच में पता चला है कि ये डीएनए पाषाण युग के तीन अलग-अलग मनुष्यों के हैं, इनमें दो महिलाएं और एक पुरुष है। जिन मनुष्यों के डीएनए प्राप्त हुए हैं वे आपस में एक-दूसरे के करीबी सम्बंधी नहीं थे लेकिन इनके डीएनए पाषाण युग के दौरान स्कैन्डिनेविया और उत्तरी युरोप में रहने वाले मनुष्यों के समान हैं। असल में साल 1990 में भी इसी जगह पर खुदाई में मानव हड्डियों के अवशेष मिले थे। लेकिन तब प्राचीन मनुष्य के डीएनए को जांच पाना संभव नहीं था।

शोधकर्ताओं का कहना है कि अक्सर प्राचीन चुइंगम में चबाने वाले के दांत की छाप भी मिल जाती हैं। लेकिन उन्हें जो चुइंगम मिली हैं उनमें से तीन पर दांतों के निशान नहीं हैं। और चुइंगम का कालापन यह दर्शाता है कि उन्हें कितना चबाया गया था।

म्यूज़ियम ऑफ कल्चरल हिस्ट्री में कार्यरत और इस अध्ययन में शामिल पेर पेरसोन का कहना है कि गोंद और अन्य पदार्थों से बनी हज़ारों साल पुरानी चुइंगम दुनिया भर में कई जगह मिलती हैं, वहां भी जहां मानव अवशेष मुश्किल से मिलते हैं। इस स्थिति में ये चुइंगम डीएनए विश्लेषण और अन्य जानकारी प्राप्त करने का अच्छा स्रोत हो सकती हैं। इसके अलावा चुइंगम में मौजूद लार से प्राचीन मानवों के बारे में जेनेटिक जानकारी, उनके स्थान और उनके प्रसार के बारे में जानकारी पता चलती है। इसके अलावा विश्लेषण से उनके बीच के सामाजिक रिश्ते, उनकी बीमारियों और उनके आहार के बारे में भी पता चलता है। उनका यह शोध कम्यूनिकेशन बायोलॉजी में प्रकाशित हुआ है। (स्रोत फीचर्स)

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