गुमशुदा मध्ययुगीन साहित्य की तलाश

हाल ही में युनिवर्सिटी ऑफ एंटवर्प के कंप्यूटेशनल टेक्स्ट शोधकर्ता माइक केस्टेमोंट और उनके सहयोगियों ने गुमशुदा मध्ययुगीन रचनाओं का पता लगाने का प्रयास किया। गौरतलब है कि युरोप के मध्ययुग, यानी छठी सदी की शुरुआत से लेकर 15वीं सदी के अंत, के दौरान काफी कथा साहित्य रचा गया था। साहित्याकरों ने राक्षसों से लड़ते शूरवीरों और उनकी विदेश यात्राओं की कहानियां लिखीं जो आजकल की एक्शन फिल्मों जैसी थीं। उदाहरण के लिए, नीदरलैंड में 13वीं सदी में मैडॉक नामक एक पात्र रचा गया था जो संभवतः एक कविता का शीर्षक था लेकिन किसी को उस कविता की विषयवस्तु के बारे में कोई जानकारी नहीं है। 

गुमशुदा रचनाओं का पता ऐसे चलता है कि अन्य लेखक अपनी रचनाओं में उनका ज़िक्र करते हैं। कभी-कभी प्राचीन कैटलॉग पुस्तकों की उपस्थिति दर्शाते हैं। लेकिन इन रचनाओं में से एक अंश ही आज उपलब्ध है। गौरतलब है कि प्रिंटिंग प्रेस के आविष्कार से किसी भी कृति की ढेर सारी प्रतियां नहीं होती थीं। ऐसे में यदि कोई विशेष रचना आग से नष्ट हो जाए या कीड़ों द्वारा खा ली जाए तो वह हमेशा के लिए खो जाएगी।

तो यह अनुमान लगाने के लिए कि वास्तव में कितनी रचनाएं रही होंेगी, इतिहासकार अपूर्ण प्राचीन पुस्तक कैटलॉग की तुलना वर्तमान ग्रंथों और उनके दायरे से करते हैं। इस संदर्भ में अतीत में मौजूद रहे साहित्य का बेहतर अनुमान लगाने के लिए केस्टेमोंट और उनके सहयोगियों ने “अनदेखी प्रजाति” मॉडल नामक तकनीक का उपयोग किया जिसका विकास किसी पारिस्थितिक तंत्र में अनदेखी प्रजातियों का पता लगाने के लिए किया गया था।

इसका विकास नेशनल त्सिंग हुआ युनिवर्सिटी की सांख्यिकीविद एनी चाओ द्वारा किया गया है। इसमें सांख्यिकी तकनीकों का उपयोग करते हुए वास्तविक मैदानी गणना के आंकड़ों के आधार पर उन प्रजातियों का अनुमान लगाया जाता है जो उपस्थित तो हैं लेकिन वैज्ञानिकों की नज़रों में नहीं आईं।

माइक केस्टेमोंट और उनके सहयोगियों ने अपने अध्ययन के लिए 600 से 1450 के दौरान डच, फ्रेंच, आइसलैंडिक, आयरिश, अंग्रेज़ी और जर्मन में लिखी गई वर्तमान में उपलब्ध और संदिग्ध गुमशुदा मध्ययुगीन ग्रंथों की सूची को देखा। कुल रचनाओं की संख्या 3648 थी। साइंस में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार अनदेखी प्रजाति मॉडल ने बताया कि मध्ययुगीन ग्रंथों के केवल 9 प्रतिशत ग्रंथ वर्तमान समय में उपलब्ध हैं। यह आंकड़ा 7 प्रतिशत के पारंपरिक अनुमानों के काफी करीब है। अलबत्ता, इस नए अध्ययन ने क्षेत्रीय वितरण उजागर किया। इस मॉडल के अनुसार अंग्रेज़ी के केवल 5 प्रतिशत जबकि आइसलैंडिक और आयरिश के क्रमशः 17 प्रतिशत और 19 प्रतिशत टेक्स्ट आज के समय में उपलब्ध हैं।

इस तकनीक के इस्तेमाल की काफी सराहना की जा रही है। आने वाले समय में इस तकनीक का उपयोग सामाजिक विज्ञान और मानविकी में भी किया जा सकता है।

बहरहाल, हारवर्ड युनिवर्सिटी में मध्ययुगीन सामाजिक और सांस्कृतिक इतिहास का अध्ययन करने वाले डेनियल स्मेल का कहना है कि यह मॉडल सिद्धांतकारों और सांख्यिकीविदों का खेल है। स्मेल के अनुसार लेखकों ने मान लिया है कि सांस्कृतिक रचनाएं सजीव जगत के नियमों का पालन करती हैं। और तो और, इस अध्ययन से कोई अतिरिक्त जानकारी भी नहीं मिल रही है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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शिशु जानते हैं जूठा खा लेने वाला अपना है

जिनके साथ हमारे आत्मीय या अंतरंग सम्बंध होते हैं, आम तौर पर उनका जूठा खाने में हमें कोई हिचक नहीं होती। अब एक ताज़ा अध्ययन बताता है कि 8 महीने के शिशु भी इस बात को समझते हैं। जब शिशुओं को कठपुतली या कार्टून चरित्र को जूठा खिलाते दिखाया गया तो वे यह अनुमान लगाने में सक्षम थे कि इन चरित्रों के बीच करीबी नाता है।

मनुष्य विविध तरह के रिश्ते बनाते हैं। जीवित रहने और पलने-बढ़ने के लिए शिशुओं को इन रिश्तों में से ‘सबसे प्रगाढ़’ रिश्ते को पहचानने की ज़रूरत होती है – ऐसे रिश्ते जो खुद से बढ़कर उनके पालन-पोषण और सुरक्षा पर ध्यान दें। लंबे समय से वैज्ञानिक इस बात को लेकर हैरत में हैं कि बच्चे कब यह समझ विकसित कर लेते हैं।

मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी की मनोवैज्ञानिक एशले थॉमस ने सोचा कि इसका पता शायद नृविज्ञान अनुसंधान में मिले। दुनिया भर की संस्कृतियों के अध्ययन में देखा गया है कि सबसे अंतरंग सम्बंध वाले लोगों को एक-दूसरे की लार (जूठा खाने, चुंबन वगैरह के माध्यम से) और अन्य शारीरिक तरल से हिचक नहीं लगती। उन्हें यकीन था कि छोटे बच्चे भी इस बात को समझते होंगे। इसके लिए उनके दल ने कॉन्फ्रेंसिंग प्लेटफॉर्म पर लगभग 400 बच्चों के साथ कुछ अध्ययन किए।

पहले अध्ययन में शोधकर्ताओं ने 5 से 7 साल के बच्चों को कुछ कार्टून दृश्य दिखाए। एक तरह के दृश्य में मैदान में खड़ी एक बच्ची या तो स्ट्रॉ से जूस पी रही थी या आइसक्रीम खा रही थी; दूसरे में, वह कूदने की रस्सी या कोई खिलौना पकड़े हुए थी। अगले दृश्य में कोई परिजन और एक शिक्षक या मित्र शामिल हो जाता है। ये तस्वीरें दिखाने के बाद बच्चों से पूछा गया कि कार्टून चरित्र को किसके साथ अपनी जूठी आइसक्रीम या जूस साझा करना चाहिए तो बच्चों ने 74 प्रतिशत मामलों में रिश्तेदार को चुना; गैर-जूठी चीज़ों के मामले में रिश्तेदार और अन्य को बराबर तरजीह दी। ये निष्कर्ष साइंस पत्रिका में प्रकाशित हुए हैं।

दूसरे अध्ययन में शोधकर्ताओं ने और भी छोटे बच्चों (8-19 माह) को शामिल किया। बच्चों को एक वीडियो दिखाया गया जिसमें एक गुड़िया किसी व्यक्ति के साथ संतरे की एक फांक बांट कर खा रही थी और दूसरे व्यक्ति के साथ गेंद खेल रही थी। फिर गुड़िया अचानक परेशानी भरे स्वर में चीख उठती है। गुड़िया के चीखने पर लगभग 80 प्रतिशत शिशुओं ने उस व्यक्ति की ओर देखा जिसके साथ गुड़िया ने जूठा साझा किया था – संभवतः इस उम्मीद में कि वह व्यक्ति उसे मुसीबत से बचाएगा। यही प्रतिक्रिया लार साझा करने के अन्य मामलों में भी दिखी, जैसे जब व्यक्ति ने गुड़िया के मुंह में अपनी उंगली डाली।

युनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के एलन फिस्क का कहना है कि यह अध्ययन यह समझने की ओर एक कदम है कि शिशु बोलना शुरू करने से पहले सामाजिकता के बारे में क्या-क्या जानते हैं। हालांकि, जूठा खाने के अलावा अन्य व्यवहारों से भी शिशुओं को गाढ़े रिश्तों का अनुमान मिल सकता है। जैसे एक ही बिस्तर पर सोना, गले लगाना और अंतरंग स्पर्श। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मस्तिष्क बड़ा होने में मांसाहार की भूमिका

ब मांसाहार की बात आती है, तो हमारे सबसे करीबी सम्बंधी चिम्पैंज़ी हमारी तुलना में बहुत ही कम मांस खाते हैं।

पुरातात्विक स्थलों पर पाए गए बूचड़खानों के निशानों की संख्या के आधार पर लंबे समय से कहा जाता रहा है कि हमारी मांस खाने की उत्कट इच्छा लगभग 20 लाख साल पहले बढ़ना शुरू हुई थी। मांस से मिलने वाली अधिक कैलोरी ने हमारे एक पूर्वज – होमो इरेक्टस – में बड़ा शरीर और मस्तिष्क विकसित करने की शुरुआत की थी।

लेकिन एक ताज़ा अध्ययन का तर्क है कि इस परिकल्पना के प्रमाण सांख्यिकीय रूप से कमज़ोर हैं क्योंकि शोधकर्ताओं ने बाद के समय के खुदाई स्थलों पर अधिक ध्यान दिया है। इसलिए यह जानना असंभव है कि मानव विकास में मांसाहार की भूमिका कितनी अहम है।

नए अध्ययन में जॉर्ज वाशिंगटन विश्वविद्यालय के जीवाश्म विज्ञानी डब्ल्यू. एंड्र्यू बार और उनके साथियों ने बूचड़खानों पर पूर्व में किए गए अध्ययनों के डैटा की समीक्षा की। ये डैटा 26 लाख से 12 लाख साल पूर्व के कालखंड के पूर्वी अफ्रीका में प्रारंभिक मानव गतिविधि वाले नौ पुरातात्विक स्थलों से थे। जैसी कि उम्मीद थी जानवरों की हड्डियों पर वध के निशान वाले साक्ष्य मिलने में वृद्धि लगभग 20 लाख वर्ष पूर्व से दिखना शुरू हुई। लेकिन, शोधकर्ताओं ने पाया कि पुरातत्वविदों को पशु वध के साक्ष्य उन स्थलों पर अधिक मिले जहां अधिक शोध किया गया था। दूसरे शब्दों में, जिस स्थल पर जितना अधिक ध्यान दिया गया, वहां मांसाहार के साक्ष्य मिलने की संभावना उतनी अधिक रही।

प्रत्येक पुरातात्विक स्थल में तलछट की कई परतें होती हैं; जितनी परत नीचे जाते जाएंगे उनमें उतनी अधिक प्राचीन वस्तुएं मिलेंगी। साफ है कि 25 लाख से 20 लाख साल पुरानी परतों को उतना नहीं खोदा गया है या उनमें दफन चीज़ों को बाहर नहीं निकाला गया है जितना कि उनके बाद वाली परतों को खोदा गया है, और इसी कारण प्राचीनतर परतों का अध्ययन कम किया गया है। पुरातत्वविद किसी खुदाई स्थल पर जितना अधिक समय और ऊर्जा लगाते हैं, वहां से उतनी ही अधिक वस्तुएं मिलती हैं। तो विभिन्न स्थलों से मिले साक्ष्यों – जैसे हड्डियों पर वध के निशान – की तुलना एक पेचीदा सांख्यिकीय मसला बन जाता है।

इससे निपटने के लिए, बार और उनकी टीम ने इन स्थलों के आंकड़ों को समायोजित किया और पाया कि वास्तव में 26 लाख वर्ष पूर्व से 12 लाख वर्ष पूर्व तक मांस खाने के साक्ष्य की संख्या स्थिर ही रही। ये नतीजे प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज में प्रकाशित हुए हैं। बार का तर्क है कि मांसाहार में वृद्धि पर ध्यान देने के बजाय अन्य परिकल्पनाओं पर ध्यान देना चाहिए। जैसे खाना पकाने की शुरुआत, जिससे भोजन का पाचन आसान हुआ होगा और अधिक कैलोरी मिलने लगी होगी, और मस्तिष्क बड़ा होने लगा होगा। सामाजिक विकास ने भी मदद की होगी। (स्रोत फीचर्स)

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मनुष्यों में खट्टा स्वाद क्यों विकसित हुआ

ट्टा पांच मुख्य स्वाद में से एक है। अन्य चार मीठा, कड़वा, नमकीन और उमामी हैं। खट्टा खाएं तो मज़ा तो आता है लेकिन वैज्ञानिकों को इस बारे में ज़्यादा जानकारी नहीं थी कि हममें खट्टे (अम्लीय) स्वाद की अनुभूति कैसे विकसित हुई।

इस सवाल के जवाब की तलाश में नॉर्थ कैरोलिना स्टेट युनिवर्सिटी के पारिस्थितिकीविद रॉब डन और उनके साथियों ने वैज्ञानिक साहित्य खंगाला और इस अध्ययन के नतीज़े प्रोसीडिंग्स ऑफ दी रॉयल सोसाइटी बी में प्रकाशित किए गए हैं। साइंस पत्रिका ने उनके साथ इस विषय पर बातचीत की। वह साक्षात्कार यहां प्रस्तुत है।

प्रश्न: क्या जानवरों को भी खट्टा खाना पसंद है?

जवाब: विकासक्रम में जानवरों ने बाकी अन्य स्वादों को लगभग खो दिया है। जैसे डॉल्फिन में नमकीन के अलावा कोई स्वाद ग्राही नहीं होते। और बिल्लियों में मीठे स्वाद के ग्राही नहीं होते। लेकिन उम्मीद के विपरीत जितनी भी प्रजातियों (लगभग 60) के साथ परीक्षण किया गया है वे सभी भोजन में अम्लीयता की पहचान करने में सक्षम हैं। सूअर और प्राइमेट प्राणि तो वास्तव में अम्लीय (खट्टे) खाद्य पदार्थ पसंद करते हैं। जंगली सूअर को खमीरी मकई और गोरिल्ला को अदरक कुल के अम्लीय फल भाते हैं।

प्रश्न: मीठे पदार्थ हमें ऊर्जा देते हैं, और कड़वा स्वाद हमें विषैलेपन के प्रति चेताता है। तो खट्टा स्वाद हममें क्यों विकसित हुआ होगा?

जवाब: खट्टे की पहचान संभवत: प्राचीन मछलियों में मौजूद थी। मछलियों में खट्टे स्वाद की अनुभूति की उत्पत्ति संभवतः भोजन का स्वाद लेने के लिए नहीं हुई थी, बल्कि समुद्र में अम्लीयता के स्तर को भांपने के लिए हुई थी। यानी वे अपने शरीर की सतह से खट्टा ‘चखती’ थीं। पानी में कार्बन डाईऑक्साइड के स्तर में बदलाव से पानी की अम्लीयता में भी उतार-चढ़ाव होता है, जो मछली के लिए खतरनाक हो सकती है। इसलिए अम्लीयता को महसूस या पहचान करने में सक्षम होना महत्वपूर्ण है।

प्रश्न: तो खान-पान में खट्टे की पहचान कैसे विकसित हुई?

जवाब: असल में हमने विटामिन सी (एस्कॉर्बिक एसिड) का निर्माण करने की क्षमता खो दी है। तो एक मत यह है कि अम्लीय खाद्य पदार्थ विटामिन सी लेने का एक तरीका हो सकता है। एक अन्य तर्क यह दिया जाता है कि प्राचीन प्राइमेट हमारे अनुमान से कहीं अधिक किण्वित खाद्य पदार्थ खाते थे। ऐसा माना जा सकता है कि सड़ रहे फल यदि खट्टे हैं तो सुरक्षित हैं क्योंकि उन्हें लैक्टिक एसिड बैक्टीरिया और एसिटिक एसिड बैक्टीरिया खट्टा बनाते हैं और ये अम्ल हानिकारक बैक्टीरिया को मारते हैं। इसलिए ऐसे फल खाना लगभग सुरक्षित होगा।

प्रश्न: किण्वन से अल्कोहल भी बनता है, तो प्राणि इन फलों को अम्लीयता के लिए खाते थे या नशे के लिए?

जवाब: ऐसा है कि 70 लाख से 2.1 करोड़ वर्ष पूर्व हमारे पूर्वजों में अल्कोहल डिहाइड्रोजिनेज़ नामक एंज़ाइम का एक शक्तिशाली संस्करण विकसित हुआ जो अल्कोहल का चयापचय करता है। मनुष्य में इसका तेज़ संस्करण पाया जाता है जो अल्कोहल से ऊर्जा प्राप्त करना 40 गुना आसान बनाता है। वहीं, लगभग इसी दौरान विकसित जीन्स के नए संस्करण लैक्टिक एसिड को पहचानने में भूमिका निभाते हैं।

हमारे पूर्वजों में ये दो बुनियादी वैकासिक परिवर्तन दिखाई देते हैं जो अम्लीयता और अल्कोहल दोनों से सम्बंधित हैं। उपलब्ध जानकारी के आधार पर संभावना है कि पहले खट्टा स्वाद लेने की क्षमता आई, लेकिन पक्के तौर पर कुछ नहीं कहा जा सकता।

प्रश्न: शराब की बात करें तो कुछ लोगों को खट्टी बीयर पसंद होती है जबकि अन्य लोग इस विचार पर हंस पड़ते हैं। वैज्ञानिक इस अंतर को कैसे देखते हैं?

जवाब: इस बात के कई सारे शुरुआती प्रमाण हैं कि ‘खट्टा स्वाद पहचानने’ वालों के अलग-अलग समूह हैं। यहां गंध भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है, और गंध की पहचान काफी हद तक सीखी जाती है। मेरे विचार में जब कोई खट्टी बीयर पसंद करना सीख रहा होता है तब असल में उसकी महक आनंद दे रही होती है और स्वाद उस आनंद से जुड़ जाता है। लेकिन अभी स्पष्ट नहीं है कि ये अंतर जीन से कैसे सम्बंधित हैं।

प्रश्न: क्या यह संभव है कि खट्टे स्वाद से सम्बंध मात्र एक संयोग है?

जवाब: खट्टे स्वाद ग्राहियों से सम्बंधित एकमात्र जीन है OTOP1 जो आंतरिक कान के कार्यों से भी जुड़ा हुआ है। यह जीन शरीर का संतुलन बनाए रखने में मदद करता है, और इस जीन में उत्परिवर्तन संतुलन सम्बंधी विकारों को जन्म देते हैं। खट्टे स्वाद से जुड़ा जीन इन अन्य कामों में भी भूमिका निभाता है, और यह संभव है कि इसे खो देने के अन्य परिणाम भी होंगे। देखा जाए तो खट्टे स्वाद की अनुभूति अब भी रहस्य ही है। (स्रोत फीचर्स)

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जेनेटिक अध्ययनों में ‘नस्ल’ शब्द के उपयोग में कमी

हाल के एक समीक्षा अध्ययन से पता चला है कि मानव जेनेटिक्स से सम्बंधित शोध पत्रों में ‘नस्ल’ (रेस) शब्द का उपयोग बहुत कम होने लगा है। खास तौर से मानव आबादियों या समूहों का विवरण देते समय उन्हें नस्ल कहने का चलन कम हुआ है। और इसका कारण यह लगता है कि जीव वैज्ञानिकों में आम तौर पर यह समझ विकसित हुई है कि नस्ल वास्तव में जीव वैज्ञानिक नहीं, बल्कि एक सामाजिक रूप से निर्मित श्रेणी है।

उन्नीसवीं और बीसवीं सदी में कई आनुवंशिकीविदों की यह धारणा थी कि मानव नस्लें वास्तव में होती हैं – जैसे नीग्रो या कॉकेशियन – और ये जीव वैज्ञानिक समूह की द्योतक हैं। इस आधार पर विभिन्न जनसमूहों के बारे में धारणाएं बना ली जाती थीं। अलबत्ता, अब वैज्ञानिकों ने यह स्पष्ट कर दिया है कि नस्ल जैसी धारणा का कोई जीव वैज्ञानिक आधार नहीं है।

इस संदर्भ में समाज वैज्ञानिक वेंस बॉनहैम देखना चाहते थे कि क्या इस बदलती समझ का असर शोध पत्रों में नज़र आता है। इसे समझने के लिए उन्होंने अमेरिकन जर्नल ऑफ ह्युमैन जेनेटिक्स (AJHG) में प्रकाशित शोध पत्रों को खंगाला। यह जर्नल जेनेटिक्स विषय का सबसे पुराना जर्नल है और 1949 से लगातार प्रकाशित हो रहा है। बॉनहैम और उनके साथियों ने 1949 से 2018 के बीच AJHG में प्रकाशित 11,635 शोध पत्रों को देखा। उन्होंने पाया कि जहां इस अवधि के पहले दशक में 22 प्रतिशत शोध पत्रों में नस्ल शब्द का उपयोग किया गया था वहीं पिछले दशक में मात्र 5 प्रतिशत शोध पत्रों में ही यह शब्द प्रकट हुआ।

इसके अलावा, अध्ययन में यह भी देखा गया कि प्रथम दशक में नस्लीय समूहों से सम्बंधित शब्दों – नीग्रो और कॉकेशियन – का इस्तेमाल क्रमश: 21 और 12 प्रतिशत शोध पत्रों में हुआ था। 1970 के दशक के बाद से इसमें गिरावट आई और आखिरी दशक में तो ऐसे शब्दों का उपयोग एक प्रतिशत से भी कम शोध पत्रों में किया गया।

आजकल जब शोध पत्रों में नस्ल शब्द का उपयोग किया जाता है तो उसके साथ ‘एथ्निसिटी’ या ‘एंसेस्ट्री’ शब्दों को जोड़ा जाता है। अन्य विशेषज्ञों का मत है कि इसकी एक वजह यह हो सकती है कि जेनेटिक्स विज्ञानी अभी भी किसी परिभाषा पर एकमत नहीं हो पाए हैं। इस संदर्भ में यूएस की नेशनल एकेडमी ऑफ साइन्स, इंजीनियरिंग एंड मेडिसिन विचार-विमर्श कर रही है। अलबत्ता, एक बात साफ है कि शोधकर्ता अब मानते हैं कि नस्ल कोई जीव वैज्ञानिक धारणा नहीं बल्कि एक सामाजिक धारणा है जिसके जैविक असर होते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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इस वर्ष चीन की जनसंख्या घटना शुरू हो सकती है

चीन के राष्ट्रीय सांख्यिकी ब्यूरो द्वारा जारी किए गए आंकड़ों के अनुसार चीन की जनसंख्या दशकों तक बढ़ने के बाद इस वर्ष घटना शुरू हो सकती है। आंकड़े बताते हैं कि वर्ष 2021 में, चीन की जन्म दर में लगातार पांचवें वर्ष गिरावट आई है, जो घटकर 7.52 प्रति 1000 व्यक्ति हो गई है। इन आंकड़ों के आधार पर जनसांख्यिकीविदों का अनुमान है कि देश की कुल प्रजनन दर प्रति व्यक्ति लगभग 1.15 है, जो प्रतिस्थापन दर (2.1) से काफी कम है। इस दर के साथ चीन विश्व का सबसे कम जनसंख्या वृद्धि दर वाला देश बन गया है।

युनिवर्सिटी ऑफ नॉर्थ कैरोलिना के जनसांख्यिकीविद योंग काय का कहना है कि अधिक बच्चे पैदा करने के लिए की जा रही सारी पहल और प्रचार के बावजूद युवा जोड़े अधिक बच्चे न पैदा करने का निर्णय ले रहे हैं। अनुमान है कि चीन की जनसंख्या में तेज़ी से गिरावट आएगी।

बढ़ती से घटती जनसंख्या की दिशा में यह बदलाव बहुत तेज़ गति से हुआ है। कुछ साल पहले अनुमान था कि चीन की आबादी लगभग 2027 तक बढ़ेगी। 2020 की जनगणना में भी कुल प्रजनन दर 1.3 आंकी गई थी।

चीन की सरकार ने लंबे समय तक सख्त जनसंख्या नियंत्रण अपनाया। लेकिन यह देखते हुए कि घटती युवा आबादी और बढ़ती वृद्ध आबादी पेंशन प्रणाली और सामाजिक सेवाओं पर बोझ बढ़ाएंगी, और आर्थिक और भू-राजनैतिक गिरावट का कारण बनेंगी, चीन ने 2016 में अपनी एक-संतान नीति को समाप्त कर दिया था। मई 2021 में यह सीमा बढ़ाकर तीन बच्चे तक कर दी गई। कुछ स्थानीय सरकारों ने दूसरा और तीसरा बच्चा करने पर जोड़ों को मासिक नकद सब्सिडी देना भी शुरू किया।

लेकिन तमाम प्रयासों के बावजूद युवा अधिक बच्चे नहीं चाहते। विशेषज्ञों के अनुसार सब्सिडी बहुत कम है। युवाओं पर पहले ही बहुत अधिक काम का बोझ है और वेतन बहुत कम, ऊपर से बच्चों की देखभाल के लिए सामाजिक मदद बहुत कम है। इन कारणों के चलते बहुत कम जोड़े ही परिवार शुरू करना या दूसरा बच्चा चाहते हैं।

सांख्यिकी ब्यूरो ने यह भी बताया है कि चीन अब और अधिक शहरीकृत हो रहा है। वर्ष 2020 से अब शहरी आबादी में 0.8 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, इस तरह चीन की लगभग 65 प्रतिशत आबादी शहरी क्षेत्रों में रह रही है। शहरों में आकर बसने वाले लोग आम तौर पर प्रजनन उम्र में भी होते हैं। और शहरों की तंग और भीड़-भाड़ वाली जगहों में आवास, महंगा जीवन यापन और महंगी शिक्षा होने के कारण लोग दूसरा बच्चा ही नहीं चाहते, तो तीसरा बच्चा तो दूर की बात है।

कुछ जनसांख्यिकीविद कहते हैं कि जनसंख्या कमी के संकट को अधिक तूल दिया जा रहा है। निश्चित ही चीन बूढ़ा हो रहा है। लेकिन चीन की आबादी स्वस्थ, बेहतर शिक्षित और हुनर से लैस होती जा रही है, और नई तकनीकों के अनुकूल हो रही है। अधिक बच्चे पैदा करने को बढ़ावा देने की बजाय जीविका प्रशिक्षण को प्रोत्साहित करने से, उत्पादकता में सुधार लाने से और वृद्धों के स्वास्थ्य को बेहतर करने से भी स्थिति संभल सकती है। (स्रोत फीचर्स)

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वृद्धावस्था में देखभाल का संकट और विकल्प – ज़ुबैर सिद्दिकी

विश्वभर में वृद्ध लोगों की बढ़ती आबादी के लिए वित्तीय सहायता और देखभाल का विषय राजनैतिक रूप से काफी पेचीदा है। इस संदर्भ में विभिन्न देशों ने अलग-अलग प्रयास किए हैं।

यू.के. में 2017 में और उसके बाद 2021 में सरकार द्वारा सोशल-केयर नीति लागू की गई थी। इसमें सामाजिक सुरक्षा हेतु धन जुटाने के मकसद से राष्ट्रीय बीमा की दरें बढ़ा दी गई थीं। यह एक प्रकार का सामाजिक सुरक्षा टैक्स है जो सारे कमाऊ वयस्क और उनके नियोक्ता भरते हैं।

कोविड-19 के दौरान वृद्धाश्रमों में मरने वाले लोगों की बड़ी संख्या ने इस मॉडल पर सवाल खड़े दिए। तो सवाल यह है कि बढ़ती बुज़ुर्ग आबादी की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए स्वास्थ्य सेवाओं में किस तरह के पुनर्गठन की ज़रूरत है।

लगभग सभी उन्नत और बढ़ती हुई अर्थव्यवस्थाएं इस चुनौती का सामना कर रही हैं। जैसे 2050 तक यूके की 25 प्रतिशत जनसंख्या 65 वर्ष से अधिक आयु की होगी जो वर्तमान में 20 प्रतिशत है। इसी तरह अमेरिका में वर्ष 2018 में 65 वर्ष से अधिक आयु के 5.2 करोड़ लोग थे जो 2060 तक 9.5 करोड़ हो जाएंगे। इस मामले में जापान का ‘अतिवृद्ध’ समाज अन्य देशों के लिए विश्लेषण का आधार प्रदान करता है। 2015 से 2065 के बीच जापान की आबादी 12.7 करोड़ से घटकर 8.8 करोड़ होने की संभावना है जिसमें 2036 तक एक तिहाई आबादी 65 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों की होगी।      

हालांकि भारत, जो विश्व का दूसरा सबसे अधिक वाली आबादी वाला देश है, की वर्तमान स्थिति थोड़ी बेहतर है लेकिन अनुमान है कि 2050 तक 32 करोड़ भारतीयों की उम्र 60 वर्ष से अधिक होगी।

मुंबई स्थित इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पापुलेशन साइंसेज़ के प्रमुख कुरियाथ जेम्स बताते हैं कि भारत में बुज़ुर्गों की देखभाल मुख्य रूप से परिवारों के अंदर ही की जाती है। वृद्धाश्रम अभी भी बहुत कम हैं। भारत में संयुक्त परिवार आम तौर पर पास-पास ही रहते हैं जिससे घर के वृद्ध लोगों की देखभाल करना आसान हो जाता है। लेकिन इस व्यवस्था को अब जनांकिक रुझान चुनौती दे रहे हैं।

गौरतलब है कि भारत अंतर्राष्ट्रीय प्रवासियों का सबसे बड़ा स्रोत है। 1990 के दशक की शुरुआत से लेकर अब तक विदेशों में काम करने वाले भारतीयों की संख्या दुगनी से अधिक होकर 2015 तक 1.56 करोड़ हो गई थी। इसके अलावा कई भारतीय काम के सिलसिले में देश के ही दूसरे शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। 2001 की जनगणना के अनुसार 30 प्रतिशत आबादी अपने जन्म स्थान पर नहीं रह रही थी। यह संख्या 2011 में बढ़कर 37 प्रतिशत हो गई थी। जेम्स के अनुसार इस प्रवास में आम तौर पर व्यस्क युवा होते हैं जो अपने माता-पिता को छोड़कर दूसरे शहर चले जाते हैं। नतीजतन घर पर ही वृद्ध लोगों की देखभाल और कठिन हो जाती है।       

2020 में लॉन्गीट्यूडिनल एजिंग स्टडी इन इंडिया की रिपोर्ट के अनुसार 60 वर्ष से अधिक आयु के 26 प्रतिशत लोग या तो अकेले या सिर्फ अपने जीवनसाथी (पति-पत्नी) के साथ रहते हैं। फिलहाल भारत में पारिवारिक जीवन अभी भी अपेक्षाकृत रूप से आम बात है जिसमें 60 से अधिक उम्र के 41 प्रतिशत लोग अपने जीवनसाथी और व्यस्क बच्चों दोनों के साथ रहते हैं जबकि 28 प्रतिशत लोग अपने व्यस्क बच्चों के साथ रहते हैं और उनका कोई जीवनसाथी नहीं है। 

वैसे, घर पर देखभाल की कुछ समस्याएं हैं। देखभाल का काम मुख्य रूप से महिलाओं के ज़िम्मे होता है और अर्थव्यवस्था में महिलाओं की भागीदारी काफी कम है क्योंकि वे घर से बाहर काम करने नहीं जा पाती हैं।

यदि प्रवासन में उपरोक्त वृद्धि जारी रही तो जल्दी ही देश की बुज़ुर्ग आबादी के पास कोई परिवार नहीं होगा और उनको देखभाल के लिए वृद्धाश्रम की आवश्यकता होगी। ऐसे में खर्चा बढ़ेगा और इन खर्चों को पूरा करने के लिए अधिक महिलाओं को काम की तलाश करना होगी।  

भारत के वृद्ध लोग अपने संयुक्त परिवारों के साथ रहना अधिक पसंद करते हैं। ऐसे परिवारों में रहने वाले ज़्यादा बुज़ुर्ग (80 प्रतिशत) अपने रहने की व्यवस्था से संतुष्ट हैं बनिस्बत अकेले रहने वाले बुज़ुर्गों (53 प्रतिशत) के। नर्सिंग-होम जैसी संस्थाओं में संतुष्टि के संदर्भ में कोई डैटा तो नहीं है लेकिन परिवार द्वारा देखभाल को बहुत अधिक महत्व दिया जाता है क्योंकि यह समाज की अपेक्षा भी है। फिर भी देश के अंदर और विदेशों की ओर प्रवास की प्रवृत्ति और कोविड-19 के दीर्घकालिक प्रभाव को देखते हुए विशेषज्ञ मानते हैं कि व्यवस्था में बदलाव की दरकार है।

महामारी के दौरान कई देशों के केयर-होम्स वायरस संक्रमण के भंडार रहे हैं। भारत के संदर्भ में पर्याप्त आंकड़े उपलब्ध नहीं हैं। लंदन आधारित इंटरनेशनल लॉन्ग टर्म केयर पालिसी नेटवर्क ने हाल ही में एक समीक्षा में बताया है कि परिवार के वृद्ध जन के कोविड-19 संक्रमित होने पर परिवार को अतिरिक्त तनाव झेलना पड़ा था। इस महामारी ने एक ऐसी व्यवस्था की सीमाओं को उजागर किया है जो वृद्ध लोगों की देखभाल के लिए मुख्यत: परिवारों पर निर्भर है।      

घर पर देखभाल के लिए देश के आधे कामगारों (महिलाओं) की उपेक्षा करना अर्थव्यवस्था पर एक गंभीर बोझ है।

इसी कारण जापान ने अपने वृद्ध लोगों की देखभाल करने के तरीके में बदलाव किए हैं। भारत की तुलना में जापान में आंतरिक प्रवास की दर कम है – वहां केवल 20 प्रतिशत लोग उस प्रांत में नहीं रहते हैं जहां वे पैदा हुए थे। लेकिन वहां भी औपचारिक अर्थव्यवस्था में महिलाओं की कम उपस्थिति एक बड़ा मुद्दा है। वर्ष 2000 में, 25 से 54 वर्ष की आयु के बीच की 67 प्रतिशत महिलाएं अधिकारिक तौर पर नौकरियों में थी जो अमेरिका से 10 प्रतिशत कम था। वैसे भी जापान सामान्य रूप से घटते कार्यबल का सामना कर रहा है।   

इस सहस्राब्दी की शुरुआत में जापान ने लॉन्ग-टर्म केयर इंश्योरेंस (एलटीसीआई) योजना की शुरुआत की थी जिसका उद्देश्य देखभाल को परिवार-आधारित व्यवस्था से दूर करके बीमा पर आधारित करना है। एलटीसीआई के तहत, 65 वर्ष से अधिक उम्र के सभी लोग जिन्हें किसी भी कारण देखभाल की आवश्यकता है, उन्हें सहायता प्रदान की जाती है। इसके लिए कोई विशेष विकलांगता की शर्त नहीं है। इसकी पात्रता एक सर्वेक्षण द्वारा निर्धारित की जाती है। इसके बाद चिकित्सक के इनपुट के आधार पर लॉन्ग-टर्म केयर अप्रूवल बोर्ड द्वारा निर्णय लिया जाता है। इसके बाद दावेदार को उसकी व्यक्तिगत आवश्यकताओं के अनुसार देखभाल प्रदान की जाती है जो नर्सिंग-होम में निवास से लेकर उनके दैनिक कार्यों में मदद के लिए सेवाएं प्रदान करने तक हो सकती हैं।

एलटीसीआई के वित्तपोषण का 50 प्रतिशत हिस्सा कर से प्राप्त राजस्व से और बाकी का हिस्सा 40 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों पर अनिवार्य बीमा प्रीमियम आरोपित करके किया जाता है। यह आयु सीमा इसलिए निर्धारित की गई है क्योंकि 40 वर्ष की आयु तक पहुंचने पर व्यक्ति के बुज़ुर्ग रिश्तेदारों को देखभाल की आवश्यकता होगी, ऐसे में वह व्यक्ति इस व्यवस्था का लाभ देख पाएगा। हितग्राही को कुल खर्च के 10 प्रतिशत का भुगतान भी करना होता है।

यदि अप्रूवल बोर्ड दीर्घकालिक देखभाल की आवश्यकता नहीं देखता तो उन्हें ‘रोकथाम देखभाल’ की पेशकश की जा सकती है। इन सेवाओं में पुनर्वास और फिज़ियोथेरेपी शामिल हैं। रोकथाम सेवा इसलिए भी आवश्यक हो गई क्योंकि एलटीसीआई योजना की सफलता के चलते नामांकन की संख्या में काफी तेज़ी से वृद्धि हुई। वर्ष 2000 में जापान सरकार ने एलटीसीआई भुगतानों पर लगभग 2.36 लाख करोड़ रुपए खर्च किए थे जो 2017 में बढ़कर 7.02 लाख करोड़ हो गए। अनुमान है कि 2025 यह आंकड़ा 9.84 लाख करोड़ रुपए हो सकता है। खर्च कम करने के लिए सरकार ने 2005 में कुछ लाभों को कम कर दिया। 2015 में सक्षम लोगों के लिए 20 प्रतिशत भुगतान भी शामिल किया गया। सरकार ने प्रीमियम योगदान की उम्र घटाने की भी कोशिश की जिसका काफी विरोध हुआ।

कुल मिलाकर सबक यह है कि इतनी व्यापक योजना का आकार समय के साथ बढ़ती ही जाएगा। एलटीसीआई के लिए उच्च स्तर का उत्साह पैदा करना आसान नहीं था। लोगों की मानसिकता में बदलाव लाना पड़ा क्योंकि घर पर वृद्ध रिश्तेदारों की देखभाल न करना एक शर्म की बात माना जाता था। हालांकि, जापान ने जो समस्याएं एलटीसीआई की मदद से दूर करने की कोशिश की थी उनमें से कई समस्याएं अभी भी मौजूद हैं।

एक रोचक तथ्य यह है कि जहां 2000 से 2018 के बीच जापान की कामकाजी उम्र की आबादी में 1.1 करोड़ से अधिक लोगों की कमी आई है वहीं कार्यबल में 6 लाख की वृद्धि हुई है। इस वृद्धि का श्रेय महिलाओं की बढ़ती भागीदारी को दिया जाता है क्योंकि एलटीसीआई ने पारिवारिक देखभाल की चिंताओं को कम किया जिससे महिलाओं को काम करने के अवसर मिले।  

हालांकि, अभी भी जापान में बढ़ती उम्र की समस्या बनी हुई है और इसी कारण उसका श्रम-बाज़ार का संकट खत्म भी नहीं हुआ है। अधिक महिलाओं को रोज़गार देने के बाद भी देश के स्वास्थ्य, श्रम और कल्याण मंत्रालय का अनुमान है कि 2040 तक कार्यबल घटकर 5.3 करोड़ रह जाएगा जो 2017 से 20 प्रतिशत कम होगा। साथ ही वृद्ध लोगों की संख्या बढ़ने के साथ एलटीसीआई के लिए पात्र लोगों की संख्या बढ़ने की उम्मीद है। ऐसे में भविष्य में योजना को वित्तपोषित करना एक बड़ी चुनौती होगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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अफवाह फैलाने में व्यक्तित्व की भूमिका

ज के दौर के सोशल मीडिया ने एक ओर जहां लोगों को जोड़ने का काम किया है, वहीं दूसरी ओर इसके माध्यम से भ्रामक खबरों को साझा करने के चलते ध्रुवीकरण, हिंसक उग्रवाद और नस्लवाद में भी काफी तेज़ी से वृद्धि हुई है। सवाल यह है कि वे कौन लोग हैं जो भ्रामक खबरों को साझा करते हैं? एक विश्लेषण के अनुसार रूढ़िवादी लोग काफी हद तक भ्रामक सूचनाओं के प्रसार के लिए ज़िम्मेदार हैं।

इन भ्रामक सूचनाओं के संकट का समाधान खोजने के लिए एक ऐसे स्पष्ट आकलन की आवश्यकता है जिससे यह पता लगाया जा सके कि झूठ और षडयंत्र के सिद्धांतों को कौन फैला रहा है। इस विषय में ड्यूक युनिवर्सिटी के मैनेजमेंट एंड आर्गेनाइज़ेशन के शोध छात्र अशर लॉसन और इसी युनिवर्सिटी में फुकुआ स्कूल ऑफ बिज़नेस के असिस्टेंट प्रोफेसर हेमंत कक्कड़ ने लोगों के व्यक्तित्व को मुख्य निर्धारक के रूप में जांचने का काम किया।

व्यक्तित्व लक्षणों की पहचान और मापन के लिए उन्होंने प्रचलित फाइव-फैक्टर थ्योरी का इस्तेमाल किया जिसे बिग फाइव भी कहा जाता है। यह थ्योरी व्यक्तित्वों को 5 श्रेणियों में बांटती है: अनुभव के प्रति खुलापन, कर्तव्यनिष्ठा, बहिर्मुखता, सहमत होने की तैयारी और उन्माद। इस ढांचे के अंतर्गत कर्तव्यनिष्ठा पर अधिक ध्यान केंद्रित किया गया जिससे लोगों की सलीकापसंदगी, उत्तेजित होने पर आत्म-नियंत्रण, रूढ़िवादिता और विश्वसनीयता में अंतरों का पता चलता है।

शोधकर्ताओं का अनुमान था कि कम-कर्तव्यनिष्ठ रूढ़िवादी  लोग (एलसीसी) अन्य रूढ़िवादियों या कम-कर्तव्यनिष्ठ उदारवादियों की तुलना में अधिक भ्रामक समाचार साझा करते हैं। उन्होंने व्यक्तित्व, राजनीति और भ्रामक समाचारों को साझा करने के बीच सम्बंधों का पता लगाने के लिए 8 अध्ययन किए जिनमें 4642 प्रतिभागी शामिल थे।

सबसे पहले शोधकर्ताओं ने विभिन्न आकलनों के माध्यम से लोगों की राजनीतिक विचारधारा और कर्तव्यनिष्ठा को मापा जिसमें प्रतिभागियों से उनके मूल्यों और व्यवहारों के बारे में पूछा गया था। इसके बाद प्रतिभागियों को कोविड से सम्बंधित कुछ सत्य और भ्रामक समाचारों की शृंखला दिखाई गई और इन समाचारों की सटीकता के बारे में सवाल किए गए। यह भी पूछा गया कि वे इन समाचारों को साझा करेंगे या नहीं। उन्होंने पाया कि उदारवादी और रूढ़िवादी, दोनों ही प्रकार के लोग कभी-कभी भ्रामक समाचार को सही मान लेते हैं। शायद उन्होंने इन समाचारों को सटीक इसलिए माना क्योंकि ये उनके विश्वासों से मेल खाते थे।

यह भी देखा गया कि विभिन्न राजनैतिक विचारधाराओं से जुड़े लोगों ने भ्रामक समाचार साझा करने की बात कही लेकिन अन्य सभी प्रतिभागियों की तुलना में एलसीसी के बीच यह व्यवहार काफी अधिक देखा गया। हालांकि, उच्च स्तर के कर्तव्यनिष्ठ उदारवादियों और रूढ़िवादियों के बीच कोई अंतर देखने को नहीं मिला जबकि कम-कर्तव्यनिष्ठ उदारवादियों ने उच्च-कर्तव्यनिष्ठ उदारवादियों की तुलना भ्रामक समाचार ज़्यादा साझा नहीं किए।

दूसरे अध्ययन में, शोधकर्ताओं ने इन परिणामों को स्पष्ट राजनीतिक रुझान वाले भ्रामक समाचारों के साथ दोहराया और पिछले अध्ययन से भी अधिक प्रभाव देखा। इस बार भी विभिन्न स्तर की कर्तव्यनिष्ठा वाले उदारवादी और उच्च कर्तव्यनिष्ठ रूढ़िवादी व्यापक स्तर पर भ्रामक जानकारी फैलाने में शामिल नहीं थे। भ्रामक समाचार फैलाने वालों में कम कर्तव्यनिष्ठ रूढ़िवादी (एलसीसी) आगे रहे।

सवाल यह था कि एलसीसी में भ्रामक समाचार को साझा करने की प्रवृत्ति क्यों होती है। इसके लिए शोधकर्ताओं ने एक ऐसा प्रयोग किया जिसमें प्रतिभागियों की राजनीतिक विचारधारा और व्यक्तित्व के बारे में जानकारी के अलावा उनमें अराजकता की चाहत, सामाजिक और आर्थिक रूप से रूढ़िवादी मुद्दों के समर्थन, मुख्यधारा मीडिया पर भरोसे और सोशल मीडिया पर बिताए गए समय का आकलन किया गया। शोधकर्ताओं के अनुसार एलसीसी ने अराजकता की ज़रूरत ज़ाहिर की, और साथ ही वर्तमान राजनीतिक-सामाजिक संस्थाओं को बाधित करने और नष्ट करने की इच्छा भी व्यक्त की। इनसे भ्रामक जानकारियों को फैलाने की उनकी प्रवृत्ति की व्याख्या हो जाती है। यह किसी अन्य विचारों और समूहों की तुलना में स्वयं को श्रेष्ठ मानने की इच्छा को भी दर्शाता है जो कम कर्तव्यनिष्ठ रूढ़िवादियों में अधिक देखने को मिलती है।         

दुर्भाग्य से, शोधकर्ताओं को यह भी पता चला कि समाचारों पर सटीकता का लेबल लगाने से भी भ्रामक जानकारी की समस्या का समाधान नहीं किया जा सकता है। इसके लिए शोधकर्ताओं ने एक प्रयोग अंजाम दिया जिसमें सोशल मीडिया पर साझा किए गए सही समाचार के लिए ‘पुष्ट’ और भ्रामक समाचार के लिए ‘विवादित’ टैग का उपयोग किया गया। उन्होंने पाया कि उदारवादियों और रूढ़िवादियों ने ‘पुष्ट’ टैग वाले समाचार को अधिक साझा किया। हालांकि, एलसीसी ने अभी भी जानकारी को गलत या भ्रामक जानते हुए भी साझा करना जारी रखा।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने एक और अध्ययन किया जिसमें प्रतिभागियों को स्पष्ट रूप से बताया गया कि जिस जानकारी को वे साझा करना चाहते हैं वह गलत है। इसके बाद उनको अपने निर्णय को बदलने का मौका भी दिया गया। इसके बाद भी एलसीसी द्वारा भ्रामक समाचार साझा करने की दर काफी उच्च रही और वे समाचार के गलत होने की चेतावनियों को भी अनदेखा करते रहे।

यह परिणाम काफी चिंताजनक है जिसमें एलसीसी भ्रामक समाचारों के प्रसार के प्राथमिक चालक नज़र आते हैं। इसके लिए सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स को चेतावनी का लेबल लगाने के बजाय कोई और समाधान खोजना होगा। एक अन्य विकल्प के रूप में सोशल मीडिया कंपनियों को ऐसे समाचारों को अपने प्लेटफॉर्म्स से हटाने के प्रयास करने चाहिए जो किसी व्यक्ति समुदाय को चोट पहुंचाने की क्षमता रखते हैं। कुल मिलाकर मुद्दा सिर्फ इतना है कि जब तक सोशल मीडिया कंपनियां कोई ठोस तरीका खोज नहीं निकालती हैं तब तक यह समस्या बनी रहेगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्या प्राचीन भारत में पालतू घोड़े थे? – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

हाल ही में फ्रांस की पॉल सेबेटियर युनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं द्वारा नेचर पत्रिका में एक रिपोर्ट प्रकाशित की गई है। इसके अनुसार, लुडोविक ऑर्लेन्डो और उनके समूह ने ऐसे क्षेत्रों से 2,000 से अधिक घोड़ों की हड्डियों और दांतों के प्राचीन नमूने एकत्रित किए है जहां पालतू घोड़ों की उत्पत्ति की संभावना है। पालतू घोड़ों की उत्पत्ति के संभावित क्षेत्र युरोप के दक्षिण-पश्चिमी कोने का आइबेरियन प्रायद्वीप, युरेशिया की सुदूर पश्चिमी सीमा, एनाटोलिया (आधुनिक समय का तुर्की), और पश्चिमी युरेशिया और मध्य एशिया के घास के मैदानों को माना जाता है। टोसिन थॉम्पसन ने नेचर पत्रिका के 28 अक्टूबर 2021 के अंक में एक टिप्पणी में लिखा है, डॉ. ऑर्लेन्डो के दल ने इन क्षेत्रों से प्राप्त लगभग 270 नमूनों के संपूर्ण जीनोम अनुक्रम का विश्लेषण कर लिया है, और साथ में पुरातात्विक जानकारी भी एकत्र कर ली है। इसके अलावा उन्होंने रेडियोधर्मी कार्बन-14 की मदद से घोड़ों के इन नमूनों की उम्र निर्धारित कर ली है (रेडियोधर्मी कार्बन-14 एक निश्चित दर से विघटित होता है)। इन मिले-जुले आंकड़ों की मदद से वे यह तय कर पाए कि लगभग 4200 ईसा पूर्व तक कई अलग-अलग तरह के घोड़ों की आबादियां युरेशिया के अलग-अलग क्षेत्रों में निवास करती थी।

घोड़े के पदचिन्ह

इसी तरह के एक अन्य आनुवंशिक विश्लेषण में यह भी पाया गया है कि आधुनिक पालतू डीएनए प्रोफाइल वाले घोड़े पश्चिमी युरेशियन स्टेपीज़, विशेष रूप से वोल्गा-डॉन नदी क्षेत्र में रहते थे।

लगभग 2200-2000 ईसा पूर्व आते-आते ये घोड़े बोहेमिया (वर्तमान के चेक गणराज्य और युक्रेन), और मध्य एशिया (कजाकिस्तान, किर्जिस्तान, तजाकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान और उजबेकिस्तान, ईरान तथा अफगानिस्तान) और मंगोलिया में फैल गए थे। इन देशों के प्रजनक इन घोड़ों को उन देशों को बेचने के लिए तैयार करते थे जहां इनकी मांग थी। इन देशों में लगभग 3300 ईसा पूर्व तक घुड़सवारी लोकप्रिय हो गई थी, और सेनाओं का गठन इनके आधार पर किया जाने लगा था – जैसे, मेसोपोटामिया, ईरान, कुवैत और “फर्टाइल क्रिसेंट” या फिलिस्तीन की सेनाओं में। थॉम्पसन ध्यान दिलाते हैं कि पहला स्पोक युक्त पहिए वाला रथ 2000-1800 ईसा पूर्व के आसपास बना था।

भारतीय कहानी

अब सवाल है कि भारत में घोड़े कब आए, और वे देशी थे या विदेशी? क्या घोड़े भारत के मूल निवासी थे? इसका उत्तर तो ‘ना’ लगता है। “वर्ल्ड एटलस” के अनुसार, भारत के मूल निवासी जानवर सिर्फ एशियाई हाथी, हिम तेंदुआ, गैंडा, बंगाल टाइगर, रीछ, हिमालयी भेड़िया, गौर बाइसन, लाल पांडा, मगरमच्छ और मोर व राजहंस हैं। वेबसाइट थॉटको (ThoughtCo) ने अपने लेख एशिया में पैदा हुए 11 घरेलू जानवरों में मृग, नीलगिरि तहर, हाथी, लंगूर, मकाक बंदर, गैंडा, डॉल्फिन, गेरियल मगरमच्छ, तेंदुआ, भालू, बाघ, बस्टर्ड (उड़ने वाला सबसे भारी पक्षी), गिलहरी, कोबरा और मोर को सूचीबद्ध किया है। इस तरह इन स्रोतों से साफ झलकता है कि घोड़ा भारत का मूल निवासी नहीं है। यह भारत में देशों के बीच अंतर-क्षेत्रीय व्यापार के माध्यम से आया होगा। भारतीयों ने अपने पड़ोसी देशों के साथ अपने हाथियों, बाघों, बंदरों, पक्षियों का व्यापार किया होगा और अपने उपयोग के लिए घोड़ों का आयात किया होगा।

तो, भारत को अपने घोड़े कब मिले? विकिपीडिया बताता है कि उत्तर हड़प्पा सभ्यता स्थलों (1900 से 1300 ईसा पूर्व) से घोड़ों से सम्बंधित अवशेष और वस्तुएं मिली हैं, और इनसे ऐसा नहीं लगता कि हड़प्पा सभ्यता में घोड़ों ने कोई महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। इसके थोड़े समय बाद वैदिक काल (1500-500 ईसा पूर्व) में स्थिति अलग दिखती है। (घोड़े के लिए संस्कृत शब्द अश्व है, जिसका उल्लेख वेदों और हिंदू ग्रंथों में मिलता है)। ये मोटे तौर पर उत्तर-कांस्य युग के अंत के समय के है।

साहित्यिक बहस

इस संदर्भ में दो हालिया किताबें भी काफी उल्लेखनीय हैं – इनमें से एक पुस्तक टोनी जोसेफ की है जिसका शीर्षक है प्रारंभिक भारतीय : हमारे पूर्वजों की कहानी और हम कहां से आए (Early Indians: The Story of our Ancestors and Where We Came From) है, और दूसरी पुस्तक यशस्विनी चंद्रा की है जिसका शीर्षक है घोड़े की कहानी (The Tale of the Horse) है। दिसंबर 2018 में फर्स्टपोस्ट में प्रकाशित डॉ. जोसेफ का हालिया लेख भारत में “आर्यो” के प्रवास के प्रमाण की पड़ताल करता है। यह बताता है कि भारत में पाए जाने वाले घोड़े ऊपर बताए गए “स्तानों” से ही आए हैं। इसके अलावा, दी प्रिंट के 17 जनवरी 2021 के अंक में प्रकाशित डॉ. चंद्रा का लेख बताता है कि भारतीय मूल के घोड़े 8000 ईसा पूर्व तक लुप्त हो चुके थे।

बहस का सबसे स्पष्ट विश्लेषण आईआईटी गांधीनगर के इतिहासकार मिशेल डैनिनो के एक लेख में मिलता है। उन्होंने जर्नल ऑफ हिस्ट्री एंड कल्चर (सितंबर 2006) में दी हॉर्स एंड आर्यन डिबेट शीर्षक के अपने शोध पत्र में और पुस्तक हिस्ट्री ऑफ एंश्यंट इंडिया (2014) में लिखा है कि पुरावेत्ता सैंडोर बोकोनी ने घोड़ों के दांतों के नमूनों का अध्ययन किया था। ये नमूने हड़प्पा-पूर्व काल के बलूचिस्तान, इलाहाबाद (2265-1480 ईसा पूर्व)) और चंबल घाटी (2450-2000 ईसा पूर्व) से थे। इनके अलावा उन्होंने कालीबंगन से प्राप्त ऊपरी दाढ़ों का भी अध्ययन किया था। उनका निष्कर्ष था कि ये पालतू घोड़ों के अवशेष थे। प्रोफेसर डैनिनो के इन शोध पत्रों ने भारत में पालतू घोड़ों के लेकर किए जा रहे परस्पर विरोधी दावों को विराम दे दिया है और हमें उनका शुक्रगुज़ार होना चाहिए। 

हड़प्पा के अवशेष

इस पृष्ठभूमि को देखते हुए यह जांचना दिलचस्प होगा कि क्या हड़प्पा स्थलों में घोड़ों के कोई अवशेष, हड्डियां, दांत या खोपड़ियां हैं जिनका डीएनए अनुक्रमण किया जा सके, जैसा कि ऑरलैंडो के समूह ने युरेशियन नमूनों के लिए किया। (स्रोत फीचर्स)

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भाषा में रंगों के नाम परिवेश से तय होते हैं

रंगों का इंद्रधनुष होता है – एक सिरे पर लाल तो दूसरे सिरे पर बैंगनी और बीच में हरा, फ़िरोज़ी और नीला। हर भाषा इन रंगों को अपनी ज़रूरत के हिसाब से नाम देती है: कुछ भाषाओं में ‘हरा’ और ‘नीला’ रंग के लिए अलग-अलग शब्द होते हैं, तो कुछ भाषाओं में दोनों रंगों के लिए एक ही नाम मिलता है। कुछ में तो रंगों के लिए नाम ही नहीं होते।

लेकिन ऐसा क्यों हैं? वैकासिक भाषाविद डैन डिडियू और मनोविज्ञानी आसिफा मज़ीद ने इसी सवाल का जवाब पता लगाया है। अध्ययन में उन्होंने पाया है कि जिन इलाकों में सूर्य की भरपूर रोशनी होती है उन इलाकों की भाषा में इस बात की संभावना अधिक रहती है कि उनमें नीले और हरे रंग के लिए एक ही नाम हो। और ऐसा संभवत: ताउम्र अधिक प्रकाश के संपर्क में रहने के कारण होता है: तेज़ धूप के कारण आंखो में “लेंस ब्रुनेसेन्स” नामक स्थिति बनती है जिसके कारण दो रंगों को अलग-अलग पहचानने में मुश्किल होती है।

एक अन्य परिकल्पना के अनुसार, जो लोग पानी के बड़े स्रोत – जैसे समुद्र या झील – के आसपास रहते हैं उनकी भाषा में ‘नीले’ रंग के लिए नाम होने की अधिक संभावना होती है। इसके अलावा, अगर कोई समुदाय नीले रंग में कपड़े रंगना शुरू करता है, तो यह भी उनकी भाषा में ‘नीले’ रंग के लिए नए नाम मिलने की संभावना को बढ़ाता है।

इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने इन सभी मुख्य सिद्धांतों को एक साथ खंगालने का सोचा। इसके लिए उन्होंने अंटार्कटिका को छोड़कर बाकी सभी महाद्वीपों के 142 आबादी समूहों से भाषा सम्बंधी डैटा इकट्ठा किया। इनमें कोरियाई और अरबी जैसी बड़े पैमाने पर बोली जाने वाली भाषाओं से लेकर ऑस्ट्रेलिया और अमेज़ॉन में केवल कुछ सैकड़ा लोगों द्वारा बोली जाने वाली भाषाएं शामिल थी। शोधकर्ताओं ने देखा कि प्रत्येक आबादी की मुख्य भाषा रंगों के लिए किन नामों का उपयोग करती है, और फिर इन नामों को प्रभावित कर सकने वाले कारकों का डैटा इकट्ठा किया – जैसे सूर्य के प्रकाश से संपर्क, या झील के नज़दीक होना।

साइंटिफिक रिपोर्ट्स में शोधकर्ता बताते हैं कि कोई भाषा हरे रंग और नीले रंग में अंतर करती है या नहीं इसमें प्रकाश से संपर्क महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। भूमध्य रेखा के करीब वाले या वर्ष भर लगभग खुले आसमान वाले इलाकों (जैसे मध्य अमेरिका और पूर्वी अफ्रीका) की भाषाओं में ’हरे’  और ’नीले’  रंग के बीच फर्क काफी कम था। इससे पता चलता है कि ताउम्र तेज़ प्रकाश का संपर्क इन समुदाय में नीले-हरे रंग के भेद को मिटाता है। शोधकर्ताओं को अन्य दो सिद्धांतों के लिए भी समर्थन दिखा: झील के पास रहने से ’नीले’ रंग के लिए एक अलग नाम की संभावना बढ़ गई। और ऐसा ही उन्हें बड़े समुदायों के लिए भी दिखा। जिसका मतलब है कि किसी भाषा में अलग-अलग रंगों को नाम देने में दृष्टि, संस्कृति और पर्यावरण, ये सभी कारक भूमिका निभाते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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