कोरोनावायरस के चलते मिंक के कत्ले आम की तैयारी

कुछ समय पहले डेनमार्क के स्वास्थ्य अधिकारियों ने कहा था कि मिंक और लोगों में सार्स-कोव-2 के उत्परिवर्तनों के चलते कोविड-19 टीकों की प्रभावशीलता खतरे में पड़ सकती है। इस खबर के मद्देनज़र डेनमार्क के प्रधानमंत्री ने 4 नवंबर को घोषणा की कि मिंक-पालन समाप्त किया जाए और डेढ़ करोड़ से भी अधिक मिंक को मौत के घाट उतार दिया जाए। इस घोषणा से बहस छिड़ गई और वैज्ञानिकों द्वारा डैटा विश्लेषण किए जाने तक इस फैसले को स्थगित कर दिया गया। गौरतलब है कि मिंक एक प्रकार का उदबिलाव होता है जिसे विर्सक भी कहते हैं।

अब, डैटा की समीक्षा में युनिवर्सिटी ऑफ ऑक्सफोर्ड की एस्ट्रिड इवर्सन का कहना है कि ये उत्परिवर्तन अपने आप में चिंताजनक नहीं हैं क्योंकि इस बात के बहुत कम सबूत हैं कि मिंक में हुए ये उत्परिवर्तन सार्स-कोव-2 वायरस को लोगों में आसानी से फैलने में मदद करते हैं,या वायरस को अधिक घातक बनाते हैं या चिकित्सा और टीकों की प्रभाविता को कम करते हैं।

लेकिन फिर भी कुछ वैज्ञानिकों को लगता है कि मिंक को मारना शायद आवश्यक है क्योंकि जून के बाद से 200 से अधिक मिंक फार्म में यह वायरस तेज़ी से और अनियंत्रित तरीके से फैला है। इसके चलते ये वायरस के स्रोत हो गए हैं जहां से वह लोगों को आसानी से संक्रमित कर सकता है। डेनमार्क में मिंक की संख्या वहां की लोगों की आबादी की तीन गुना है, और देखा गया है कि जिन फार्म के मिंक संक्रमित हुए हैं उन इलाकों के लोगों में कोविड-19 के मामले बढ़े हैं। अंतत: 10 नवंबर को डेनमार्क सरकार ने किसानों से मिंक का खात्मा करने का आग्रह किया।

40 मिंक फार्म से लिए गए नमूनों में वायरस के 170 संस्करण दिखे। और डेनमार्क के कुल कोविड-19 मामलों के 20 प्रतिशत मामलों में लगभग 300 संस्करण दिखे, ये संस्करण मिंक में भी देखे गए। अत: माना जा रहा है कि ये उत्परिवर्तन पहले मिंक में उभरे थे।

मिंक और लोगों के सार्स-कोव-2 के स्पाइक प्रोटीन में भी कई उत्परिवर्तन देखे गए थे। यह वायरस स्पाइक प्रोटीन के ज़रिए ही कोशिकाओं में प्रवेश करता है। स्पाइक प्रोटीन में परिवर्तन प्रतिरक्षा प्रणाली की संक्रमण को पहचानने की क्षमता को प्रभावित कर सकता है। कई टीके प्रतिरक्षा प्रणाली को स्पाइक प्रोटीन की पहचान करवाकर उसे अवरुद्ध करने पर आधारित हैं। विशेष रूप से स्पाइक प्रोटीन का क्लस्टर-5 नामक उत्परिवर्तन अधिक चिंता का विषय है। इसमें तीन एमिनो एसिड में बदलाव और दो स्पाइक प्रोटीन में दो एमिनो एसिड का विलोपन देखा गया। प्रारंभिक प्रयोगों में, कोविड-19 से उबर चुके लोगों की एंटीबॉडीज़ के लिए अन्य उत्परिवर्तित वायरस के मुकाबले क्लस्टर-5 उत्परिवर्तन वाले वायरस की पहचान करना ज़्यादा मुश्किल था। इससे लगता है कि इस संस्करण पर एंटीबॉडी उपचार या टीकों का कम असर पड़ेगा। और इसलिए मिंक को मारने की सलाह दी गई। मिंक में हुआ एक अन्य उत्परिवर्तन (Y453F) 300 से अधिक लोगों में दिखा था। इस संस्करण के भी स्पाइक प्रोटीन के एमिनो एसिड परिवर्तन में परिवर्तन हुआ है। और यह भी मोनोक्लोनल एंटीबॉडी से बच निकलता है। समीक्षकों का कहना है कि ये दावे संदेहास्पद हैं क्योंकि क्लस्टर-5 संस्करण बहुत कम मामलों में दिखा है – 5 मिंक फार्म और 12 लोगों में। जो संक्रमित लोग मिले हैं उनमें से कई मिंक फार्म पर काम करते थे और सितंबर के बाद से यह संस्करण दिखा भी नहीं है। लिहाज़ा टीकों और उपचार की प्रभाविता को लेकर कोई भी निष्कर्ष निकालना जल्दबाज़ी होगी। अलबत्ता, मिंकों की बलि तो चढ़ाई ही जाएगी।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कठफोड़वा में अखाड़ेबाज़ी – डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

दो जंतुओं में भोजन एवं प्रजनन के लिए झगड़ा होना आम बात है परंतु झगड़े से पूरे समुदाय का दो पक्षों में बंटवारा और गुटों का निर्माण जंतुओं के समाज में कम ही देखा गया है। कठफोड़वा (मेलानिर्पस फार्मिसिवोरस) समूह में रहने और प्रजनन करने वाले पक्षी हैं। शरद ऋतु के आगमन पर ये मेवे (नट्स) एकत्रित कर, पेड़ों में बनाए गए छेदों (भंडार) में रख देते हैं। इससे भीषण ठंड के समय भोजन की उपलब्धता उनके जीवित रहने की संभावना और प्रजननशीलता दोनों को बढ़ाती है। प्रजननकारी सदस्य की असामयिक मृत्यु और उसके इलाके को हथियाने के लिए नर या मादाओं के बीच सत्ता संघर्ष प्रारंभ हो जाता है। पड़ोसी दल भी इस गुटबाज़ी में शरीक हो जाते हैं।

हाल ही में वैज्ञानिकों ने एक स्वचालित रेडियो-टेलीमेट्री प्रणाली का उपयोग कर कठफोड़वों में भोजन तथा प्रजनन के लिए संघर्ष, सत्ता परिवर्तन और सामाजिक ढांचे को बेहतर तरीके से समझा है। ओल्ड डोमेनियन युनिवर्सिटी के बायोलॉजिकल साइंस विभाग में कार्यरत डॉ. सहस बर्वे का शोध करंट बायोलॉजी नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित हुआ है। डॉ. बर्वे और उनकी टीम ने अपना शोध कार्य कैलिफोर्निया और दक्षिण-पश्चिम संयुक्त राज्य अमेरिका के तटीय जंगलों में किया।

कठफोड़वा का समाज जटिल होता है। प्रत्येक परिवार में अधिकतम 7 वयस्क नर होते हैं जो रिश्ते में भाई होते हैं। पूरा परिवार लगभग 15 एकड़ के शाहबलूत (ओक) पेड़ों के इलाके की रखवाली करके एक साथ रहता है। प्रत्येक नर एक से तीन मादाओं से प्रजनन करता है जो अक्सर दूर के रिश्ते की बहनें होती हैं। इनके परिवार में बाद में जन्मे सदस्य भी होते हैं जिन्हें हेल्पर या मददगार कहते हैं। मददगार सदस्य अपने मूल परिवार के साथ 5-6 वर्षों तक बने रहकर अपने सहोदरों के लिए दाई मां यानी पालन-पोषण का कार्य करते हैं। जब वे खुद का परिवार बनाने जितने बड़े हो जाते हैं तो नए इलाके खोजकर मूल परिवार से दूर चले जाते हैं। यदि हेल्पर दाई मां के कार्य छोड़कर उसी समूह में प्रजनन का प्रयास करते हैं तो सत्ता संघर्ष प्रारंभ हो जाता है। ऐसी परिस्थितियां तब निर्मित होती हैं जब मुखिया और उसकी मादाएं वृद्ध और कमज़ोर हो जाते हैं।

डॉ. बर्वे और उनकी शोध टीम ने 2018 से 2019 के बीच मादाओं के अभाव के कारण तीन कठफोड़वा परिवारों के सत्ता संघर्ष का नज़दीकी से अध्ययन किया। इलाके पर अपना अधिकार जमाने के लिए बलशाली मादा या नर कठफोड़वों के बीच आपस में युद्ध होता है। प्रतिदिन युद्ध प्रारंभ होने के पहले ही सभी कठफोड़वों को संदेश मिल जाता है और तमाशा-ए-युद्ध को देखने के लिए एक ही घंटे में दूर-दूर से अनेक तमाशबीन कठफोड़वा जमा हो जाते हैं। प्रत्येक कठफोड़वा पंख फैलाकर तथा चोंच से हमले कर अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करता है और प्रतिद्वंदी को खून से लथपथ, अंधा तथा अपंग कर देता है। विजेता कठफोड़वा को दर्जन भर परिवारों की लगभग 50 मददगार मादाओं का साथ मिलता हैं।

नई वयस्क कठफोड़वा मादाएं प्रतिदिन आसपास के इलाकों से आकर युद्ध करती थीं और वापस अपने आवास में लौट जाती थीं। मादाएं कई बार चार दिनों तक लगातार दस-दस घंटों तक युद्ध करती थीं। वैज्ञानिकों ने अनुमान लगाया है कि इस दौरान सभी तमाशबीन कठफोड़वा अपने समाज के सदस्यों के बारे में जानकारी प्राप्त करते हैं। दर्शकों के रूप में मौजूद रहने से उनके लिए सहोदरों के साथ नए गठजोड़, नए इलाके, योद्धाओं का स्वास्थ्य, इलाकों की संपन्नता आदि का आकलन करना संभव होता हैं। दर्शक के रूप में आए कठफोड़वा अपने अनाज के भंडार, इलाकों की रखवाली, रोज़मर्रा के कार्य और युद्ध-स्थल तक पहुंचने की थकान जैसे जोखिम भी मोल ले लेते हैं। ऐसा लगता है कि इतने जोखिम लेने के फायदे भी होंगे। वैज्ञानिकों को लगता है कि कठफोड़वा समाज के प्रत्येक सदस्य का व्यवहार पूरे समाज को प्रभावित करता है।(स्रोत फीचर्स)

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टार्डिग्रेड का सुरक्षा कवच है प्रतिदीप्ति

सूक्ष्मजीव टार्डिग्रेड (या जलीय भालू) के बारे में अब तक हमें यह तो पता था कि ये जीवन के लिए घातक परिस्थितियों जैसे अत्यधिक गर्मी, विकिरण और अंतरिक्ष के निर्वात में भी जीवित रह सकते हैं। और अब, वैज्ञानिकों को टार्डिग्रेड की एक ऐसी प्रजाति मिली है जो इतने घातक अल्ट्रावायलेट विकिरण को भी झेल सकती जिनका उपयोग उन वायरस और बैक्टीरिया को मारने के लिए किया जाता है जिनका खात्मा आसानी से नहीं किया जा सकता।

दरअसल बैंगलुरु स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस के शोधकर्ता टार्डिग्रेड्स पर अत्यंत कठोर परिस्थितियों के प्रभाव देख रहे थे। ये टार्डिग्रेड्स उन्होंने इंस्टीट्यूट के परिसर से ही एकत्रित किए थे। उनकी प्रयोगशाला में कीटाणुओं को नष्ट करने के लिए अल्ट्रावायलेट (यूवी) लैंप भी था। तो उन्होंने टार्डिग्रेड्स पर इसका प्रभाव भी देखा। उन्होंने पाया कि प्रति वर्ग मीटर एक किलोजूल यूवी विकिरण से लगातार 15 मिनट का संपर्क बैक्टीरिया और गोल कृमि को सिर्फ पांच मिनट में मार देता है और हिप्सिबियस एग्ज़ेमप्लेरिस प्रजाति के अधिकांश टार्डिग्रेड्स भी 15 मिनट के संपर्क से मारे गए। लेकिन जब विकिरण की इतनी ही मात्रा टार्डिग्रेड्स की लाल-भूरे रंग की एक अज्ञात प्रजाति पर डाली गई तो सब के सब जीवित बचे रहे। और तो और, जब विकिरण की मात्रा चार गुना बढ़ा दी तब भी लगभग 60 प्रतिशत से अधिक लाल-भूरे टार्डिग्रेड्स 30 दिन से अधिक समय तक जीवित रहे।

इस परिणाम के आधार पर शोधकर्ताओं ने निष्कर्ष निकाला कि उन्हें टार्डिग्रेड्स की एक नई प्रजाति मिली है। यह पैरामैक्रोबायोटस जीनस की सदस्य है। शोधकर्ता समझना चाहते थे कि दीवार पर लगी काई में रहने वाली टार्डिग्रेड्स की यह नई प्रजाति इतने घातक यूवी विकिरण के बाद भी जीवित कैसे रह पाती है। इसकी जांच के लिए उन्होंने इंवर्टेड फ्लोरेसेंट माइक्रोस्कोप का उपयोग किया। देखा गया कि लाल-भूरे रंग के ये टार्डिग्रेड यूवी प्रकाश में नीले रंग के हो गए थे। बायोलॉजी लैटर्स में शोधकर्ता बताते हैं कि टार्डिग्रेड्स की त्वचा के नीचे मौजूद फ्लोरेसेंट रंजक यूवी प्रकाश को हानिरहित नीली रोशनी में बदल देते हैं। और जिन पैरामैक्रोबायोटस टार्डिग्रेड्स में कम फ्लोरोसेंट रंजक थे उनकी यूवी प्रकाश के संपर्क में आने के लगभग 20 दिन बाद मृत्यु हो गई।

इसके बाद, शोधकर्ताओं ने टार्डिग्रेड्स से फ्लोरोसेंट रंजक निकाले और एच. एग्ज़ेमप्लेरिस टार्डिग्रेड्स और कई सीनोरेब्डाइटिस एलिगेंस कृमियों पर इन रंजकों का लेप किया और फिर इन्हें यूवी प्रकाश में रखा। पाया गया कि जिन जीवों को फ्लोरेसेंट रंजक का सुरक्षा कवच चढ़ाया गया था वे ऐसे सुरक्षा कवच रहित जीवों की तुलना में यूवी प्रकाश में दोगुना समय तक जीवित रहे। इन परिणामों से शोधकर्ता संभावना जताते हैं कि दक्षिण भारत के गर्म दिनों के तीव्र यूवी विकिरण से बचने के लिए टार्डिग्रेड्स में फ्लोरेसेंस सुरक्षा विकसित हुई होगी।(स्रोत फीचर्स)

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चीन के दुर्लभ पक्षियों के बदलते इलाके

चीन में शौकिया पक्षी प्रेमियों की बढ़ती संख्या ने जलवायु परिवर्तन के नए पहलू को उजागर किया है। एक नए अध्ययन में पिछले 2 दशकों से अधिक समय से चीन के नागरिक-वैज्ञानिकों द्वारा एकत्रित डैटा की मदद से पक्षियों की लगभग 1400 प्रजातियों का एक नक्शा तैयार किया गया है। इसमें लुप्तप्राय रेड-क्राउन क्रेन से लेकर पाइड फाल्कोनेट प्रजातियां शामिल हैं। इस डैटा के आधार पर शोधकर्ताओं ने 2070 तक के हालात का अनुमान लगाया गया है। इस नक्शे में प्रकृति संरक्षण के लिहाज़ से 14 क्षेत्रों को प्राथमिकता की श्रेणी में रखा गया है।    

गौरतलब है कि पक्षी प्रेमी नागरिकों द्वारा उपलब्ध कराए गए वैज्ञानिक डैटा का पहले भी शोधकर्ताओं ने उपयोग किया है लेकिन चीन में पहली बार इसका उपयोग राष्ट्रव्यापी स्तर पर किया जा रहा है। देखा जाए तो चीन में पिछले 20 वर्षों में पक्षी प्रेमियों की संख्या में तेज़ी से बढ़ोतरी हुई है। कई विश्वविद्यालयों में भी इनकी टीमें तैयार की गई हैं। पक्षी प्रेमी अपने अनुभवों को bird report नामक वेबसाइट पर दर्ज करते हैं, जिसकी सटीकता और प्रामाणिकता की जांच अनुभवी पक्षी विशेषज्ञ करते हैं।

इस डैटा का उपयोग करते हुए पेकिंग युनिवर्सिटी के रुओचेंग हू और उनके सहयोगियों ने 1000 से अधिक प्रजातियों के फैलाव क्षेत्र के नक्शे तैयार किए। इसके बाद उन्होंने दो परिदृश्यों, वर्ष 2100 तक 2 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि और 3.7 डिग्री सेल्सियस या उससे अधिक की वृद्धि, के साथ उनके फैलाव में आने वाले बदलाव को देखने के लिए एक मॉडल तैयार किया। इस मॉडल में उन्होंने दैनिक और मासिक तापमान, मौसमी वर्षा और ऊंचाई जैसे परिवर्तियों को शामिल किया है। प्लॉस वन पत्रिका में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार तापमान में अधिक वृद्धि होने से कई पक्षी उत्तर की ओर या अधिक ऊंचे क्षेत्रों की ओर प्रवास कर जाएंगे। हालांकि लगभग 800 प्रजातियां ऐसी होंगी जिनके इलाके में विस्तार होगा, लेकिन इनमें से अधिकांश क्षेत्र सघन आबादी वाले और औद्योगिक क्षेत्र होंगे जो पक्षियों के लिए पूरी तरह से अनुपयुक्त हैं। मोटे तौर पर 240 प्रजातियों के इलाके में कमी आएगी।

ऐसे में सबसे अधिक प्रवासी पक्षी और सिर्फ चीन में पाए जाने वाली पक्षी प्रभावित होंगे। इस पेपर के लेखकों के अनुसार प्रतिष्ठित रेड-क्राउन क्रेन का इलाका भी सिमटकर आधा रह जाएगा। चीन के मौजूदा राष्ट्रीय आरक्षित क्षेत्र इन पक्षियों के प्राकृत वासों की रक्षा के लिए पर्याप्त नहीं है। इस विनाश से बचने के लिए अध्ययन में इंगित 14 प्राथमिकता वाले क्षेत्रों पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है।

नए आरक्षित क्षेत्रों के विकास में भी काफी चुनौतियों का सामना करना होगा। इसके लिए स्थानीय हितधारकों को आश्वस्त करना होगा और भीड़-भाड़ वाले क्षेत्रों में सीमाओं को तय करना होगा। विशेषकर ऐसे नए तरीकों का पता लगाना होगा जिससे शहरी उद्यानों और कृषि क्षेत्रों को पक्षियों के अनुकूल बनाया जा सके।(स्रोत फीचर्स)

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मैडागास्कर के विशालकाय जीव कैसे खत्म हो गए

क समय मैडागास्कर में एलीफैंट बर्ड, विशाल कछुए और यहां तक कि विशालकाय लीमर रहा करते थे। लेकिन आज इस क्षेत्र में सिर्फ छोटे जीव ही पाए जाते हैं। शोधकर्ताओं के बीच इस बात को लेकर काफी बहस होती रही है कि दोष मनुष्यों का है या जलवायु परिवर्तन का। लेकिन हाल ही में हिंद महासागर के एक द्वीप की गुफाओं से प्राप्त तलछट से इसके जवाब के संकेत मिले हैं: सूखे की परिस्थितियों ने विशालकाय जीवों के लिए जीवन काफी कठिन ज़रूर बना दिया था लेकिन एलीफैंट बर्ड के ताबूत में आखरी कील तो मनुष्यों ने ही ठोंकी है।    

अफ्रीका के दक्षिण-पूर्वी तट से 425 किलोमीटर दूर मैडागास्कर मनुष्यों द्वारा बसाया गया सबसे आखिरी स्थान माना जाता था। लेकिन दो वर्ष पहले शोधकर्ताओं को 10,500 वर्ष पुरानी हाथियों की हड्डियां मिलीं हैं जिनकी हत्या की गई थी। यह इस बात का संकेत है कि मनुष्य और विशालकाय जीव हज़ारों वर्षों साथ-साथ रहे थे लेकिन ये विशाल जीव लगभग 1500 वर्ष पहले विलुप्त हो गए।

इस क्षेत्र की जलवायु का इतिहास समझने के लिए शियान जियाटोंग युनिवर्सिटी के भू-वैज्ञानिक हई चेंग और उनके स्नातक छात्र हांग्लिंग ली ने मैडागास्कर से 1600 किलोमीटर दूर स्थित एक छोटे टापू रॉड्रिग्स पर गुफाओं का रुख किया। यह टापू काफी दूर और अलग-थलग स्थित है, जिसकी वजह से यह प्राचीन जलवायु की जानकारी एकत्रित करने के लिए बढ़िया स्थान था। मानव गतिविधियां न होने से अभी भी यहां स्टैलैक्टाइट तथा स्टैलैग्माइट सलामत थे।

सबसे पहले शोधकर्ताओं ने तलछट के खंडों का काल निर्धारण किया। कई जगहों पर तो वे पिछले 8000 वर्षों के लिए दशक-दशक तक की परिशुद्धता से काल निर्धारण कर पाए। इसके बाद उन्होंने परत-दर-परत ऑक्सीजन और कार्बन के भारी समस्थानिकों तथा सूक्ष्म मात्रा में पाए गए तत्वों का विश्लेषण किया जिससे अतीत में जलवायु में नमी के स्तर का पता लगाया जा सके। साइंस एडवांसेस में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार दक्षिण-पश्चिमी हिंद महासागर ने इस दौरान चार बड़े सूखों का सामना किया था। इनमें से सूखे की एक घटना 1500 वर्ष पूर्व बड़े स्तर पर विलुप्तिकरण की घटना के साथ भी मेल खाती है। चेंग का मानना है कि इसके पूर्व में होने वाली सूखे की घटनाओं से भी ये जीव बच निकले थे। इससे ऐसा लगता है कि मनुष्यों द्वारा अत्यधिक शिकार और आवास स्थल नष्ट करना निर्णायक रहा।

इस अध्ययन से अन्य शोधकर्ताओं को मैडागास्कर और आसपास के क्षेत्र में हो रहे परिवर्तनों के बारे में स्पष्ट जानकारी प्राप्त हुई है। लेकिन अध्ययन मात्र एक छोटे टापू पर किया गया है जबकि यह क्षेत्र काफी विशाल है और यहां अलग-अलग भौगोलिक स्थितियों के अलावा अलग-अलग मानव सभ्यताएं भी मौजूद रही होंगी। ऐसे में विभिन्न स्थानों में विलुप्त होने की परिस्थितियां भी काफी अलग-अलग हो सकती हैं।(स्रोत फीचर्स)

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विद्युत-चुम्बकीय क्षेत्र से मधुमेह के उपचार की संभावना

ब तक मधुमेह के उपचार में औषधियों का या इंसुलिन का उपयोग किया जाता है। लेकिन अब सेल मेटाबॉलिज़्म पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन एक अन्य तरीके से मधुमेह के उपचार की संभावना जताता है। शोधकर्ताओं ने पाया है कि टाइप-2 मधुमेह से पीड़ित चूहों को स्थिर विद्युत और चुम्बकीय क्षेत्र के संपर्क में लाने पर उनमें इंसुलिन संवेदनशीलता बढ़ गई और रक्त शर्करा के स्तर में कमी आई। टाइप-2 मधुमेह वह स्थिति होती है जब शरीर में इंसुलिन बनता तो है लेकिन कोशिकाएं उसका ठीक तरह से उपयोग नहीं कर पातीं। दूसरे शब्दों में कोशिकाएं इंसुलिन-प्रतिरोधी हो जाती हैं, इंसुलिन के प्रति उनकी संवेदनशीलता कम हो जाती है।

आयोवा युनिवर्सिटी की वाल शेफील्ड लैब में कार्यरत केल्विन कार्टर कुछ समय पूर्व शरीर पर ऊर्जा क्षेत्र के प्रभाव का अध्ययन कर रहे थे। इसके लिए उन्होंने ऐसे उपकरण बनाए जो ऐसा चुम्बकीय क्षेत्र उत्पन्न करें जो पृथ्वी के चुम्बकीय क्षेत्र से 10 से 100 गुना अधिक शक्तिशाली और एमआरआई के चुम्बकीय क्षेत्र के हज़ारवें हिस्से के बीच का हो। चूहे इन धातु-मुक्त पिंजरों में उछलते-कूदते और वहां एक स्थिर विद्युत-चुम्बकीय क्षेत्र बना रहता। इस तरह चूहों को प्रतिदिन 7 या 24 घंटे चुम्बकीय क्षेत्र के संपर्क में रखा गया।

एक अन्य शोधकर्ता सनी हुआंग को मधुमेह पर काम करते हुए चूहों में रक्त शर्करा का स्तर मापने की ज़रूरत थी। इसलिए कार्टर ने अपने अध्ययन के कुछ चूहे, जिनमें टाइप-2 मधुमेह पीड़ित चूहे भी शामिल थे, हुआंग को अध्ययन के लिए दे दिए। हुआंग ने जब चूहों में रक्त शर्करा का स्तर मापा तो पाया कि जिन चूहों को विद्युत-चुम्बकीय क्षेत्र के संपर्क में रखा गया था उन चूहों के रक्त में अन्य चूहों की तुलना में ग्लूकोज़ स्तर आधा था।

कार्टर को आंकड़ों पर यकीन नहीं आया। तब शोधकर्ताओं ने चूहों में शर्करा स्तर दोबारा जांचा। लेकिन इस बार भी मधुमेह पीड़ित चूहों की रक्त शर्करा का स्तर सामान्य निकला। इसके बाद हुआंग और उनके साथियों ने मधुमेह से पीड़ित तीन चूहा मॉडल्स में विद्युत-चुम्बकीय क्षेत्र का प्रभाव देखा। तीनों में रक्त शर्करा का स्तर कम था और वे इंसुलिन के प्रति अधिक संवेदनशील थे। और इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ा कि चूहे विद्युत-चुम्बकीय क्षेत्र के संपर्क में सात घंटे रहे या 24 घंटे।

पूर्व में हुए अध्ययनों से यह पता था कि कोशिकाएं प्रवास के दौरान विद्युत-चुम्बकीय क्षेत्र का उपयोग करती हैं, जिसमें सुपरऑक्साइड नामक एक अणु की भूमिका होती है। सुपरऑक्साइड आणविक एंटीना की तरह कार्य करता है और विद्युत व चुंबकीय संकेतों को पकड़ता है। देखा गया है कि टाइप-2 डायबिटीज़ के मरीज़ों में सुपरऑक्साइड का स्तर अधिक होता है और इसका सम्बंध रक्त वाहिनी सम्बंधी समस्याओं और मधुमेह जनित रेटिनोपैथी से है।

आगे जांच में शोधकर्ताओं ने चूहों के लीवर से सुपरऑक्साइड खत्म करके उन्हें विद्युत-चुम्बकीय क्षेत्र में रखा। इस समय उनके रक्त शर्करा के स्तर और इंसुलिन की संवेदनशीलता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। इससे लगता है कि सुपरऑक्साइड कोशिका-प्रवास के अलावा कई अन्य भूमिकाएं निभाता है।

शोधकर्ताओं की योजना मनुष्यों सहित बड़े जानवरों पर अध्ययन करने और इसके हानिकारक प्रभाव जांचने की है। यदि कारगर रहता है तो यह एक सरल उपचार साबित होगा।(स्रोत फीचर्स)

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मछली के जीवाश्म से दुर्लभ मृदा तत्वों का खनन

श्चिमी प्रशांत महासागर और जापान के पूर्वी क्षेत्र में मिनामि-तोरी-शिमा नाम का एक छोटा-सा टापू है। यह तिकोना टापू केवल सवा तीन वर्ग कि.मी. में फैला है और आसपास एक अजीब दीवार के कारण इसका अधिकांश भाग समुद्र तल से भी नीचे है। और तो और, यह निकटतम भूमि से भी हज़ार किलोमीटर दूर है। लेकिन यह महत्वपूर्ण हो चला है क्योंकि यहां दुर्लभ मृदा तत्वों यानी रेयर अर्थ एलीमेंट्स का भंडार है।

यह भी उतना ही मज़ेदार है कि उक्त भंडार कहां स्थित है। दुर्लभ मृदा तत्व न तो इस टापू पर हैं और न ही टापू के अंदर दफन हैं। दरअसल यह टापू एक जलमग्न पर्वत पर स्थित है और यह भंडार उस पर्वत के दक्षिण में मछलियों के दांतों, शल्कों और हड्डियों के टुकड़ों पर जमा है। वास्तव में मछलियों के जीवाश्म दुर्लभ मृदा तत्वों को फांसने वाले ‘जाल’ हैं। जापानी वैज्ञानिकों के अनुसार ये ‘जाल’ इतने सक्षम हैं कि इस टापू के दक्षिण में 2500 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र की मिट्टी दुर्लभ मृदा तत्वों का इतना बड़ा भंडार है कि उससे सैकड़ों वर्षों तक दुनिया की ज़रूरतों की आपूर्ति हो सकती है।

तो यह जानना भी महत्वपूर्ण है कि ये कौन से दुर्लभ मृदा तत्व हैं और इनकी हमें क्यों आवश्यकता है?             

आज के प्रौद्योगिकी युग में ये दुर्लभ मृदा तत्व कई मशीनों के लिए काफी महत्वपूर्ण हैं। इन तत्वों का नवीकरणीय ऊर्जा के उत्पादन, टीवी, स्मार्टफोन, एलईडी, आधुनिक दौर के विद्युत-र्इंधन संकर वाहनों, चिकित्सकीय और सैन्य तकनीकों में व्यापक उपयोग किया जा रहा है। ऐसे में इनकी खपत काफी बढ़ गई है। संयोग से इन तत्वों की अधिकांश खदानें चीन में हैं। देखा जाए, तो ये तत्व मात्रा के लिहाज़ से दुर्लभ नहीं हैं लेकिन इन तत्वों के खनन योग्य भंडार काफी दुर्लभ हैं।

साइंटिफिक रिपोर्ट्स में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार जापानी वैज्ञानिक फिलहाल मिनामि-तोरी-शिमा और दक्षिण प्रशांत में इसी तरह के एक स्थल मनिहिकी पठार के दक्षिण पूर्व में मत्स्य जीवाश्मों का अध्ययन कर रहे थे ताकि यह पता किया जा सके कि ये कितने पुराने हैं। साथ ही ऐसे जीवाश्मों के अन्य स्थलों की भी तलाश कर रहे थे। पता चला कि ये जीवाश्म लगभग 3.4 करोड़ वर्ष पुराने हैं और मिनामि-तोरी-शिमा पर इनकी उपस्थिति हिमयुग के दौरान निर्मित अंटार्कटिक बर्फीली चादर का परिणाम है।

अंटार्कटिक के नीचे वाला पानी ठंडा रहा और इसी वजह से अधिक सघन रहा। यह गर्म तथा कम सघन वाले पानी के नीचे-नीचे उत्तर की ओर बहने लगा। यह निचला पानी अपेक्षाकृत सुस्त दक्षिणी समुद्र में हज़ारों वर्षों तक पोषक तत्वों को संग्रहित करता रहा था और काफी लंबे समय के बाद उभरकर ऊपर आया। ऊपर से धूप मिली तो जीवन फलने-फूलने लगा। यह प्रक्रिया लगभग एक लाख वर्ष तक चलती रही जब तक कि अंटार्कटिका के आसपास संग्रहित पोषक तत्व खत्म नहीं हो गए। अंतत: जो बचा वे थे दांत, हड्डियों के टुकड़े और शल्क जो पेंदे में जमा हो गए।

हड्डियां कैल्शियम और फॉस्फेट से बनी होती हैं, और लगता है जीवाश्मित फॉस्फेट दुर्लभ मृदा तत्वों को काफी अच्छे से बांध पाता है। इस अध्ययन के सह-लेखक जुनिचिरो ओह्टा के अनुसार पिछले 3.4 करोड़ वर्षों में जीवाश्म ने धीरे-धीरे मिट्टी में फंसे तरल पदार्थ से यिट्रियम, युरोपियम, टर्बीयम और डिस्प्रोसियम को अच्छे से जमा किया है। हड्डियों के टुकड़े हो जाने की वजह से सतह के बढ़े हुए क्षेत्रफल ने इस क्षमता को और बढ़ाया है। इसके परिणामस्वरूप यहां की मिट्टी में 20,000 पीपीएम तक दुर्लभ मृद्दा तत्व उपस्थित हैं। यही कारण है कि मिनामि-तोरी-शिमा इतना खास है।

जापानी वैज्ञानिकों की टीम के अनुसार मिनामि-तोरी-शिमा के दक्षिण में 1.6 करोड़ टन के दुर्लभ मृदा ऑक्साइड्स मौजूद हैं जो वर्तमान उपभोग की दर के हिसाब से 420 से 780 वर्षों तक की आपूर्ति के लिए पर्याप्त हैं। और सिर्फ मिनामि-तोरी-शिमा और मानिहिकी पठार ही नहीं बल्कि प्रशांत महासागर में ऐसे सैकड़ों टापू हैं जहां दुर्लभ मृदा तत्वों के मिलने की संभावना है।                   

ऐसा अनुमान है कि विभिन्न दुर्लभ मृदा तत्वों की आपूर्ति में वृद्धि होने से ऐसे उपकरणों का निर्माण किया जा सकेगा जो जीवाश्म र्इंधन से छुटकारा दिला सकते हैं। इन्हें आसानी से प्राप्त भी किया जा सकता है। कीचड़ में पाए जाने के कारण इनमें युरेनियम और थोरियम जैसे रेडियोधर्मी तत्वों का स्तर भी कम होगा। लेकिन एक समस्या भी है – जीवाश्म तीन मील से अधिक गहराई पर मौजूद हैं, जहां अब तक का कोई भी व्यावसायिक खनन कार्य लाभदायक नहीं हो पाया है। महासागरों में गहराई पर खनन से पर्यावरण को काफी क्षति की भी आशंका है।     

ट्रेंड्स इन इकोलॉजी एंड इवॉल्यूशन में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार पर्यावरणीय असंतुलन को कम आंका जा रहा है। इसके जवाब में कहा जा रहा है कि यह क्षेत्र बहुत छोटा है, और खनन से मिलने वाले फायदे पर्यावरणीय लागत से कहीं अधिक हैं। कुल मिलाकर, चाहे धरती पर हो या समुद्रों में, खनन को लेकर विवेकपूर्ण निर्णयों की ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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तालाबंदी में गोरैया ने अपना गीत बदला

गुज़रे दिनों मानव गतिविधियों पर लगी पाबंदी से जीव-जंतुओं की हलचल बढ़ने की खबरें मिली हैं। शहरों में छाई अचानक शांति में लोगों ने गौर किया कि गोरैया पक्षी कितनी तेज़ आवाज़ निकालते हैं। जबकि साइंस पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन में पाया गया कि वास्तव में उनके गीतों की आवाज़ मंद पड़ी थी। गोरैयों ने बैंडविड्थ बढ़ाकर अपने गीतों में नीचे सुरों को शामिल किया था, जो शोधकर्ताओं के मुताबिक मादाओं को ज़्यादा लुभाते हैं।

दरअसल टेनेसी विश्वविद्यालय की जंतु संप्रेषण विज्ञानी एलिज़ाबेथ डेरीबेरी काफी समय से सफेद मुकुट वाली नर गोरैया (ज़ोनोट्रीकिया ल्यूकोफ्रिस) के गीतों का अध्ययन करती रही हैं। उन्होंने सैन फ्रांसिस्को के आसपास के शोर भरे शहरी वातावरण में रहने वाली गोरैया और शांत ग्रामीण वातावरण में रहने वाली गोरैया के गीतों की तुलना की थी। (मादा गोरैया शायद ही कभी गाती हों)। उन्होंने पाया था कि ग्रामीण इलाकों की गोरैया की तुलना में शहरी गोरैया ऊंची आवाज़ में और उच्च आवृत्ति पर गाती हैं। शायद इसलिए कि यातायात और मानव जनित शोर के बीच साथियों तक उनकी आवाज़ पहुंच सके।

तालाबंदी के दौरान शहरों के शोर में आई कमी के कारण गोरैया के गीतों पर पड़े प्रभावों को जानने के लिए डेरीबेरी और उनके साथियों ने उन्हीं स्थानों पर गोरैया के गीतों का अध्ययन किया। तुलना के लिए पहले की रिकॉर्डिंग थी ही।

चूंकि डेरीबेरी सैन फ्रांसिस्को में नहीं थीं इसलिए उनकी साथी जेनिफर फिलिप ने उन्हीं स्थानों पर गोरैयों की आवाज़ और शोर रिकार्ड करके डेरीबेरी को भेजा। ध्वनि के विश्लेषण में देखा गया कि ग्रामीण इलाकों के शोर के स्तर में खास कमी नहीं आई थी लेकिन शहरी इलाके के शोर में कमी आई थी, और वह लगभग ग्रामीण इलाकों जैसे हो गए थे। यानी इस दौरान शहरी और ग्रामीण दोनों इलाकों का शोर का स्तर लगभग समान हो गया था।

यह भी देखा गया कि जब शहरों का शोर कम हुआ तो शहरी गोरैया की आवाज़ भी मद्धम पड़ गई। उनकी आवाज़ में लगभग 4 डेसिबल की कमी देखी गई। उनके गीतों की आवाज़ मंद हो जाने के बावजूद उनके गीत स्पष्ट और अधिक दूरी तक सुनाई दे रहे थे, क्योंकि उनकी आवाज़ में आई कमी शहर के शोर में आई कमी से कम थी। स्पष्ट है कि तालाबंदी के दौरान पक्षी ज़ोर से नहीं गाने लगे थे।

आवाज़ कम होने के अलावा, गोरैया के गीतों की बैंडविड्थ भी बढ़ गई थी। खासकर उन्होंने निचले सुर वाले गीत गाए, जो पहले शोर भरे माहौल में गुम हो जाते थे। पूर्व के अध्ययनों में यह देखा गया है कि मादा गोरैया को वे नर अधिक आकर्षित करते हैं जो जिनके गीतों की बैंडविड्थ अधिक होती है।

हालांकि अभी यह स्पष्ट नहीं है कि इस वसंत में परिवर्तित गीतों के कारण शहरी गोरैया की प्रजनन सफलता प्रभावित हुई है या नहीं। लेकिन यह अध्ययन बताता कि प्राकृतिक तंत्र मानव हस्तक्षेप में कमी आने पर तुरंत प्रतिक्रिया देना शुरू कर देता है।

भले ही शोरगुल फिर बढ़ने लगा है लेकिन उम्मीद है कि इन नतीजों को देखकर लोग शोर कम करने की सोचें। संभवत: वे अधिक घर से काम करने के बारे में सोचें, या ध्वनि रहित इलेक्ट्रिक वाहन लेने पर विचार करें।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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राष्ट्रीय तितली के चयन में भागीदार बनें – सुदर्शन सोलंकी

प्रत्येक राष्ट्र के अपने राष्ट्रीय पशु, पक्षी, पुष्प आदि होते हैं। इनका चयन इन क्षेत्र के विशेषज्ञों और सरकार द्वारा कई पहलुओं और तथ्यों को दृष्टिगत रखते हुए किया जाता है। अभी हमारे देश में राष्ट्रीय तितली के चयन की प्रक्रिया की जा रही है और जल्द ही हमें राष्ट्रीय तितली भी मिल जाएगी। इस बार राष्ट्रीय प्रतीक के चयन की मुख्य विशेषता यह है कि देश में पहली बार राष्ट्रीय प्रतीक का चयन आम लोगों के द्वारा किया जा रहा है। इसलिए हमें इस अवसर का लाभ उठाना चाहिए।

तितलियों के चयन की बात से पहले यह समझने का प्रयास करते हैं कि भारत के राष्ट्रीय पक्षी का खिताब मोर (Pavocristatus) को क्यों दिया गया।

अद्भुत सौंदर्य रखने वाले मोर पक्षी दक्षिणी और दक्षिण पूर्वी एशिया में पाए जाते हैं। ये खुले वनों में वन्य पक्षी की तरह रहना पसंद करते हैं। नर अपनी रंग बिरंगी पूंछ खोलकर प्रणय निवेदन के लिए नाचता है। जब यह पक्षी पंख फैलाकर नाचता है तो इसका अनोखा नाच मन मोह लेता है और इसके खुले हुए सुंदर पंख हीरे-जड़ित पोशाक की भांति लगने लगते हैं। नीला मोर भारत और श्रीलंका का राष्ट्रीय पक्षी है।

किंतु मोर को भारत का राष्ट्रीय पक्षी के रूप में चुने जाने का कारण सिर्फ उसका अद्भुत सौंदर्य ही नहीं रहा बल्कि अन्य कई कारण हैं। जब देश के राष्ट्रीय पक्षी का चयन किया जा रहा था तब मोर के अलावा कई पक्षियों के नाम भी शामिल थे। 1961 में माधवी कृष्णन ने अपने लेख में लिखा था कि उटकमंड में भारतीय वन्य प्राणी बोर्ड की बैठक हुई थी। इस बैठक में सारस क्रैन, ब्राह्मणी काइट, बस्टर्ड, और हंस के नामों पर भी चर्चा हुई थी। लेकिन इन सब में मोर को चुना गया।

राष्ट्रीय तितली के चयन में भागीदारी करें
ऑनलाइन चयन की प्रक्रिया 11 सितम्बर 2020 से वन्यजीव सप्ताह के अंत यानी 8 अक्टूबर 2020 तक चलेगी। इस तरीके से हो रहे राष्ट्रीय तितली चयन में भागीदारी करने के लिए इस लिंक पर जा कर अपनी पसंदीदा तितली को वोट कर सकते हैं: https://forms.gle/u7WgCuuGSYC9AgLG6

दरअसल, इसके लिए जो गाइडलाइन्स बनाई गई थी उसके अनुसार राष्ट्रीय पक्षी घोषित किए जाने के लिए उस पक्षी का देश के सभी हिस्सों में पाया जाना ज़रूरी है। साथ ही आम आदमी इसे पहचान सके व इसे किसी भी सरकारी प्रकाशन में चित्रित किया जा सके। इसके अलावा यह पूरी तरह से भारतीय संस्कृति और परंपरा का हिस्सा होना चाहिए। इन सब विशेषताओं के साथ मोर को 26 जनवरी 1963 को भारत का राष्ट्रीय पक्षी घोषित कर दिया गया।

अब राष्ट्रीय तितली के चयन की प्रक्रिया। भारत में पाई जाने वाली 1500 तरह की तितलियों में से तितली विशेषज्ञों की टीम ने इनके संरक्षण और पारिस्थितिकी उपयोगिता को ध्यान में रखते हुए वोटिंग के लिए सात तितलियों को चुना है। आम लोग इन सात तितलियों में से किसी एक तितली को ऑनलाइन वोटिंग के ज़रिए चुन सकते है। सर्वाधिक वोट प्राप्त करने वाली प्रथम तीन तितलियों में से किसी एक तितली को केंद्रीय पर्यावरण एवं वन मंत्रालय की एक विशेषज्ञ समिति द्वारा राष्ट्रीय तितली चुना जाएगा।

ऐसा करने से आम लोगों में तितलियों के प्रति रुचि बढ़ेगी और वे इनका संरक्षण भी करेंगे। जैविक महत्व के साथ ही तितलियों की कोमलता, सुंदरता व सादगी से इन्हें राष्ट्रीय पहचान मिलना हम सभी के लिए गर्व की बात होगी।

तितलियां प्रकृति संरक्षण में राजदूत की भूमिका निभाती हैं। साथ ही वे महत्वपूर्ण जैविक संकेतक भी हैं जो हमारे पर्यावरण के बेहतर स्वास्थ्य को प्रतिबिंबित करती हैं। राष्ट्रीय तितली होने से लोगों में तितलियों के प्रति जागरूकता पैदा होगी। आम लोग भी तितलियों को उनके नाम से जान सकेंगे व इनसे प्रेम करेंगे।

राष्ट्रीय तितली के सर्वेक्षण के लिए प्रजातियों की अंतिम सूची कैसे तैयार की गई:

1. उस तितली का राष्ट्र के साथ-साथ अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सांस्कृतिक, पारिस्थितिक और संरक्षण महत्व हो।
2. वह करिश्माई होना चाहिए।
3. उसमें कोई ऐसा जैविक पहलू होना चाहिए जो लोगों को आकर्षित करे।
4. उसे आसानी से पहचाना, देखा और याद रखा जा सके।
5. उसकी प्रजातियों के कई रूप नहीं होने चाहिए।
6. उसके कैटरपिलर हानिकारक नहीं होने चाहिए।
7. वह बहुत आम नहीं होनी चाहिए।
8. वह उन प्रजातियों के अलावा होना चाहिए जो पहले से ही किसी राज्य की तितली घोषित है।

उपरोक्त मानदंडों को ध्यान में रखते हुए टीम ने लगभग 50 तितली प्रजातियों की अंतिम सूची तैयार की। फिर टीम के सदस्यों ने मतदान में स्कोरिंग प्रणाली का उपयोग करके निम्नलिखित सात प्रजातियों की अंतिम सूचि बनाई।

1. फाइव बार स्वॉर्डटेल (Graphiumantiphates): इस प्रजाति को पहली बार 1775 में पीटर क्रैमर द्वारा वर्णित किया गया था। यह पश्चिमी घाट के सदाबहार वनों, पूर्वी हिमालय एवं उत्तर-पूर्वी भारत में पाई जाती है। इसके पीछे के पंखों पर काली तलवार के समान पूंछ जैसी संरचना से इसे पहचाना जाता है। पंखों पर काले सफेद पट्टे पर हरे-पीले रंग का विन्यास होता है।

2. इंडियन जेज़बेल या कॉमन जेज़बेल (Delias eucharis): सामान्य आकार की यह तितली पूरे भारत में पाई जाती है। इसे उद्यानों में आसानी से देखा जा सकता है। इसके पंखों की ऊपरी सतह सफेद और निचली सतह पीली होती है। पंखों पर काली धारियां होती हैं और किनारों पर नारंगी धब्बे भी होते है।

3. इंडियन नवाब या कॉमन नवाब (Charaxesbharata/Polyurabharata): लगभग पूरे भारत के नम जंगलों में पाई जाती है। तेज़ी से उड़ने और पेड़ों के ऊपरी हिस्सों में रहने के कारण आम तौर पर कम दिखाई देती है। ऊपरी पंख काले एवं नीचे के पंख चॉकलेटी होते हैं। पंखों के बीच हल्के पीले रंग की टोपी सामान संरचना के कारण इसे नवाब कहा जाता है।

4. कृष्णा पीकॉक (Papiliokrishna): अपने बड़े पंख के लिए प्रसिद्ध और उन्हीं से पहचानी जाने वाली यह तितली उत्तर-पूर्वी भारत व हिमालय में पाई जाती है। इसके पंख काले होते हैं एवं इनमें पीले रंग की धारी होती है। इनके निचले पंख पर नीले लाल रंग के पट्टे होते हैं।

5. ऑरेंज ओकलीफ (Kallimainachus): यह पश्चिमी घाट एवं उत्तर -पूर्व के जंगलों में पाई जाती है। पंखों पर नारंगी पट्टा और गहरा नीला रंग होता है। बंद होने पर पंख एक सूखी पत्ती जैसा दिखता है। पंख खुले होते हैं तो एक काला एपेक्स, एक नारंगी डिस्कल बैंड और गहरा नीला आधार प्रदर्शित होता है। जो बहुत आकर्षक लगता है। 

6. नॉर्थन जंगल क्वीन (Stichophthalmacamadeva): यह अरुणाचल प्रदेश में पाई जाती है। बड़े आकार की होती है। पंख चॉकलेटी ब्राउन के साथ सफेद धब्बेदार होते हैं। पंखों पर चॉकलेटी गोल घेरे होते हैं। यह फ्लोरेसेंट कलर में भी देखी जाती है। इस पर हल्की नीली धारियां होती है जिससे यह अधिक सुंदर लगती है।

7. येलो गोर्गन (Meandrusapayeni): यह पूर्वी हिमालय और उत्तर पूर्व भारत में पाई जाती है। इसका आकार मध्यम होता है। इसके पंखों से कोण बनता है। इसके अनूठे पंखों से इसकी पहचान है। पंखों की आंतरिक सतह गहरी पीली होती है। यह तेज़ी से ऊंचा उड़ सकती है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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हाथियों की मृत्यु का कारण सायनोबैक्टीरिया! – डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

स साल 25 मई को बोत्सवाना के ओकावांगो पैनहैंडल के ऊपर विमान से निगरानी करते हुए वन संरक्षकों की टीम को 169 मृत हाथी दिखाई दिए। और अधिक खोज करने पर 356 हाथी मृत पाए गए। हत्यारों की खोज में जुटे विशेषज्ञों को कुछ खास सुराग नहीं मिल रहा था। चूंकि इतने सारे हाथियों का एक साथ मरना कोई सामान्य घटना तो थी नहीं, इसलिए संदेह था कि या तो उन्हें ज़हर देकर मारा गया है या इलाके में कोई अज्ञात बीमारी फैली है।

दुनिया भर के एक-तिहाई हाथी बोत्सवाना में पाए जाते हैं। हाथी और गेंडे के अवैध शिकार की कुछेक छुटपुट घटनाओं के अलावा बोत्सवाना हाथियों के संरक्षण के लिए सुरक्षित एवं महत्वपूर्ण ठिकाना साबित हुआ है।

किसी भी हाथी के शरीर में गोलियों के निशान नहीं थे और हाथी दांतों का ना निकाला जाना भी इस बात का सबूत था कि शायद इनका शिकार बहुमूल्य दांतों के लिए नहीं किया गया है। ज़मीन में पाए जाने वाले एंथ्रेक्स बैक्टीरिया के संक्रमण को भी बोत्सवाना की शासकीय प्रयोगशाला ने नकार दिया था।

प्रारंभ में बोत्सवाना सरकार द्वारा देश के बाहर से सहायता ना लेने और चुप्पी साधने के कारण हाथियों की हत्याओं का रहस्य बरकरार था।

फिर महीनों तक जिम्बाब्वे, दक्षिण अफ्रीका, कनाडा और अमेरिका के विशेषज्ञों ने मामले की जांच की। बोत्सवाना के अधिकारियों ने बताया कि हाथियों की मृत्यु का कारण सायनोबैक्टीरिया द्वारा उत्पन्न तंत्रिका विष है। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि यह विष पीने के पानी के साथ हाथियों के शरीर में पहुंचा और उसने मस्तिष्क की कोशिकाओं पर बुरा असर डाला। नीले-हरे शैवाल के रूप में मशहूर सायनोबैक्टीरिया ठहरे हुए पानी में पाए जाते हैं और सायनोटॉक्सिन नामक विष बनाते हैं, जो मानव व जंतुओं को गंभीर रूप से बीमार कर सकता है। गर्मी बढ़ने से तथा फॉस्फोरस की उपलब्धता में सायनोबैक्टीरिया तेज़ी से वृद्धि करते हैं और सायनोटॉक्सिन अधिक मात्रा में उत्पन्न करते हैं। सायनोटॉक्सिन तंत्रिका तंत्र के अलावा लीवर और त्वचा पर भी गंभीर प्रभाव डालता है।

यद्यपि अधिकारिक घोषणा में सायनोबैक्टीरिया को हाथियों की मृत्यु का कारण बताया गया परंतु पानी पीने के स्थानों पर अन्य जानवरों की लाशें प्राप्त नहीं हुर्इं। कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि शायद हाथी सायनोटॉक्सिन के प्रति अति संवेदनशील होते हैं और दूसरे जानवर प्रतिरोधी। इसके अलावा हाथी एक बार में 150 लीटर पानी पी जाते हैं, इसलिए छोटे जंतुओं की तुलना में उनके शरीर में सायनोटॉक्सिन की मात्रा अधिक गई होगी। यह भी हो सकता है कि कीचड़ में लोटने और पानी से ज़्यादा देर खेलने के कारण विष त्वचा को भेदकर शरीर में फैल गया हो। परंतु गिद्धों वगैरह में विष का प्रभाव नहीं देखा गया। इसके जवाब में यह कहा जा रहा है कि तंत्रिका विष तो मस्तिष्क एवं मेरु रज्जू में जमा हुआ होगा जिसे जानवर नहीं खाते हैं। बहरहाल, उक्त निष्कर्ष को लेकर संदेह भी व्यक्त किए गए हैं। जैसे केन्या के एक संरक्षणकर्ता कैथ लिंडसे कहते हैं कि बोत्सवाना सरकार द्वारा पड़ताल के प्रारंभिक चरण में अन्य संस्थाओं से सहयोग न लेने के कारण हम एक रहस्य को उजागर करने में पीछे रह गए हैं।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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