नई लार ग्रंथियों की खोज – स्निग्धा दास

भी-कभी ऐसा होता है कि हम करने कुछ जाते हैं और करके कुछ और आते हैं। हाल ही में ऐसा ही कुछ नीदरलैंड्स के डॉक्टरों के साथ हुआ। प्रोस्टेट कैंसर में रेडिएशन द्वारा उपचार के दुष्प्रभाव का अध्ययन करने वाले इन डॉक्टरों ने एक नया अंग खोज निकाला है।

नीदरलैंड्स कैंसर इंस्टिट्यूट के रेडियो ऑन्कोलॉजी संकाय के डॉक्टरों ने हाल ही में एक जोड़ी नई लार ग्रंथियों की खोज का दावा किया है। चिकित्सा क्षेत्र में स्कैन सम्बंधी तकनीकों में लगातार उन्नति के चलते यह खोज संभव हुई। रेडियोलॉजिस्ट वूटर वी. वोगल एवं सर्जन मैथियास एस. वेलस्टर और उनके साथियों ने लार ग्रंथियों के इस नए जोड़े को नाक एवं गले के बीच नासाग्रसनी के पास स्थित पाया है। इन्हें ट्यूबेरियल लार ग्रंथि नाम दिया गया है।

सिर एवं गले के कैंसर में रेडिएशन उपचार के लार ग्रंथियों पर प्रभाव के अध्ययन के दौरान इन ग्रंथियों की उपस्थिति की पुष्टि की गई। इस खोज का विवरण जर्नल ऑफ रेडियोथेरेपी में प्रकाशित हुआ है। इससे यह संभावना बढ़ जाती है कि हमारे शरीर के अंदर कई और अंग होंगे जिनकी जानकारी हमें नहीं है।

लगभग चार सेंटीमीटर लंबी इन लार ग्रंथियों से म्यूकस का स्राव होता है। नासाग्रसनी व उसके आसपास के हिस्से का चिकनापन बनाए रखने, निगलने व खाने में इन ग्रंथियों की भूमिका है। यह बहुत महत्वपूर्ण खोज है क्योंकि इससे कैंसर के मरीज़ों के जीवन की गुणवत्ताा बढ़ाई जा सकती है।

हमारे मुंह में तीन जोड़ी बड़ी एवं हज़ारों छोटी लार ग्रंथियां हैं। लार में लगभग 98 प्रतिशत पानी, कुछ एंज़ाइम्स, इलेक्ट्रोलाइट आदि पाए जाते हैं। किसी व्यक्ति की लार ग्रंथियों के रेडिएशन से क्षतिग्रस्त होने पर मुंह में लार बनने की प्रक्रिया मंद पड़ जाती है। अत: मुंह सूख-सा जाता है। स्वाद अनुभव करने, पाचन, निगलने एवं बोलने की प्रक्रिया प्रभावित होती है एवं मुंह में संक्रमण की संभावना भी बढ़ जाती है।

शोधकर्ताओं ने सिर एवं गले के कैंसर के 723 मरीज़ों में रेडिएशन के प्रभावों का अध्ययन करने पर पाया कि ट्यूबेरियल लार ग्रंथियां क्षतिग्रस्त होने से मरीज़ों में मुंह सूख जाना, भोजन निगलने व बात करने में दिक्कत होना जैसे ही दुष्प्रभाव नज़र आते हैं। 100 मरीज़ों के स्कैन एवं दो शवों के विच्छेदन से इन अंगों की उपस्थिति की पुष्टि की गई है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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नर चीतों के भी अड्डे होते हैं

हाल ही में हुए एक अध्ययन में पता चला है कि अफ्रीका में पाए जाने वाले नर चीते कुछ खास पेड़ों या बड़ी चट्टानों को अपना ‘अड्डा’ बना लेते हैं। इन अड्डों की मदद से वे अपने लिए साथी तलाशते हैं और अन्य नर चीतों को संकेत देते हैं। इस तरह ये अड्डे उनके संचार केंद्र बन जाते हैं। शोधकर्ताओं को लगता है कि चीतों के संचार केंद्र के बारे में जानकारी चीतों को नाराज़ किसानों के हमले से बचा सकती है।

1980 के दशक में युनिवर्सिटी ऑफ ब्रिस्टल के व्यवहार पारिस्थितिकी विज्ञानी टिम कैरो ने पाया था कि चीतों का सामाजिक ढांचा अनोखा होता है: मादा चीता का अधिकार क्षेत्र बहुत विशाल होता है, और यह क्षेत्र कई नर चीतों के छोटे-छोटे अधिकार क्षेत्रों पर फैला होता है। अधिकार क्षेत्र के लिए नर चीतों में भयानक प्रतिस्पर्धा रहती है, अपने अधिकार क्षेत्र की रक्षा के लिए वे एक-दो असम्बंधित नर चीतों के साथ सांठ-गांठ भी बना लेते हैं। और बिना क्षेत्र वाले ‘बेघर’ नर चीते (फ्लोटर्स) अन्य नर चीतों के क्षेत्र पर कब्ज़ा जमाने की फिराक में घूमते रहते हैं।

कैरो ने यह भी पाया था कि चीतों के अपने कुछ खास स्थान होते हैं (जैसे कोई पेड़ या बड़ी चट्टान) जहां वे नियमित रूप से वे अपनी गंध छोड़कर जाते हैं। लीबनिज़ इंस्टीट्यूट फॉर ज़ू एंड वाइल्डलाइफ रिसर्च के स्थानिक पारिस्थितिकी विज्ञानी जोर्ग मेलज़ाइमर को लगा कि ये अड्डे महत्वपूर्ण हो सकते हैं।

इसलिए उनकी टीम ने 2007 से 2018 के बीच 106 वयस्क चीतों पर रेडियो कॉलर लगाए। ये चीते सेंट्रल नामीबिया में लगभग 11,000 वर्ग किलोमीटर में फैले मवेशियों के फार्म के पास रहते थे। शोधकर्ताओं ने पाया कि अधिकार क्षेत्र से लैस चीते अपना आधा वक्त ‘अड्डों’ पर बिताते हैं, और पेशाब करके अपनी पहचान (गंध) वहां छोड़ देते हैं। फ्लोटर चीते भी नियमित आते-जाते हैं, लेकिन वे वहां सूंघने मात्र के लिए ही रुकते हैं। इन जगहों पर कभी-कभी मादा भी आती है और कामोन्माद के दौरान वहां अपनी पहचान छोड़ जाती है। ये अड्डे आम तौर पर नर चीते के अधिकार क्षेत्र के केंद्र में होते हैं और किसी चाय-पान की मशहूर दुकान की तरह काम करते हैं, जहां चीते अपने लिए बेहतर साथी की तलाश करते हैं। जो स्थान अड्डा बन चुके हैं वे स्थान हमेशा अड्डे बने रहते हैं। अधिकार क्षेत्र पर नए चीते का अधिकार हो जाए, तब भी अड्डों में बदलाव नहीं होता।

चीतों के अड्डों की जानकारी संरक्षण की दृष्टि से महत्वपूर्ण हो सकती है। कई जानवरों की तरह चीते भी जोखिम में हैं। उनके सिकुड़ते आवास स्थल, शिकार की घटती आबादी और मनुष्यों के साथ उनके बढ़ते संघर्ष के कारण आज चीतों की आबादी महज़ 7000 रह गई है।

हालांकि चीते बड़े मवेशियों का शिकार नहीं करते लेकिन हिरण, चिंकारा वगैरह ना मिलने पर वे बछड़ों का शिकार करते पाए गए हैं। नामीबिया और अन्य जगहों पर किसान अपने पशुओं की रक्षा या प्रतिशोध में चीतों को मार देते हैं। इस तरह की हत्याएं चीतों के लिए मुख्य खतरा मानी जा रही हैं।

अध्ययन में शोधकर्ताओं ने उन 35 किसानों से संपर्क किया जिनके मवेशी चीते के शिकार बने थे। इनमें से छह किसानों की ज़मीन पर चीतों का अड्डा था, और उन्होंने मवेशियों पर हमला भी किया था। इसलिए शोधकर्ताओं ने किसानों को सुझाव दिया कि अगर वे अपने मवेशियों और बछड़ों को इन अड्डों से दूर ले जाएं तो चीते इन्हें नहीं मारेंगे। किसानों द्वारा सलाह मानने पर पाया गया कि चीतों के द्वारा बछड़ों के शिकार में 86 प्रतिशत की कमी आई। ये नतीजे प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में प्रकाशित हुए हैं।

शोधकर्ता बताते हैं कि वास्तव में समस्या चीतों के कारण नहीं बल्कि स्थान के कारण थी। वहीं यह अध्ययन सीधे तौर पर तो सभी बिल्ली प्रजातियों पर लागू नहीं होता क्योंकि उनकी सामाजिक संरचना और अड्डे अलग तरह के होते हैं, लेकिन यह अध्ययन वन्य जीव और मनुष्य के बीच के संघर्ष के बारे में सोचने का एक नया दृष्टिकोण ज़रूर देता है। शोधकर्ताओं की सलाह को उन क्षेत्रों में लागू किया जा सकता है जहां चीतों, कृषि और पशुओं के बीच संघर्ष दिखता है। साथ ही अध्ययन हमें संरक्षण प्रबंधन की नीतियां बनाने के पहले जंगली जानवरों के व्यवहार को समझने का महत्व भी बताता है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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छिपकली द्वारा परागण का अनूठा मामला – डॉ. किशोर पंवार

धिकांश पौधों में वंशवृद्धि बीजों के माध्यम से होती है जो शंकुधारी पौधों में शंकु और बीजधारी पौधों में फूलों से बनते हैं। फूलों का परागण होने का नतीजा होते हैं फल। जब एक फूल का पराग किसी दूसरे या उसी फूल के मादा भाग पर पहुंचता है या किसी अन्य माध्यम से पहुंचाया जाता है तो यह क्रिया परागण कहलाती है।

सुंदर सुगंधित रंगीन फूलों के मालिक पौधों में यह कार्य तरह-तरह के कीटों द्वारा संपन्न होता है जिसे विज्ञान की भाषा में एंटोमोफिली कहते हैं। यह एक लेन-देन की प्रक्रिया है जिसमें परागकणों और मकरंद के ‘लेन’ और बदले में कुछ परागकणों का फूलों का मादा भाग पर ‘देन’ होता है। परागकण दरअसल  पौधों की नर प्रजनन इकाइयां हैं जिन्हें हम जंतुओं में शुक्राणुओं के नाम से जानते हैं। जंतुओं के शुक्राणु में तो गति की क्षमता होती है अर्थात वे सचल हैं। परंतु परागकण-रूपी शुक्राणु अचल होते है। अत: इन इकाइयों को तरह-तरह के जंतु अपनी सवारी कराते हैं। परागकणों को अपनी सवारी उपलब्ध कराने वाले जंतुओं को हम परागणकर्ता कहते हैं और परागकणों का यह स्थानांतरण परागण कहलाता है।

जब हम परागणकर्ताओं की एक सामान्य सूची देखते हैं तो उसमें पक्षियों और कीट-पतंगों के नाम प्रमुखता से उभरते हैं। चमगादड़ और घोंघे जैसे जीव भी इस सूची में अपना स्थान पाते हैं। परंतु छिपकली (जो ड्रैगन और डायनासौर की पूर्वज मानी जाती है) का नाम इस सूची में नहीं मिलता। हाल ही में इस तरह की कुछ खोज हुई है जो परागण में इनकी इस भूमिका को उजागर करती है। जैसे गुथरीया यानी हिडन फ्लॉवर और ट्रोकेशिया ब्लेकबर्मियाना में परागण।

लगभग 90 प्रतिशत फूलधारी पौधे अपने परागणकर्ता को आकर्षित करने के लिए चटख भड़कीले रंगों का उपयोग करते हैं। परंतु गुथरिया के फूलों की बात कुछ अलग ही है – ये आसानी से नज़र नहीं आते और अन्य फूलों की तरह लाल-पीले रंगों के भी नहीं हैं। इस पौधे के सामान्य नाम ‘हिडन फ्लॉवर’ से ही पता चलता है कि इसके फूल ज़मीन की सतह पर पत्तियों के नीचे छिपे रहते हैं, और पत्तियों की ही तरह हरे रंग के होते हैं। हालांकि तेज़ गंध के मालिक ये फूल मकरंद से भरे होते हैं। इससे पता चलता है कि कोई तो जंतु है जो मीठा-पौष्टिक मकरंद पाने के लिए इन फूलों को ढूंढ निकालता है। परंतु सवाल यह है कि वह है कौन?

गुथरीया केपेंसिस का सबसे पहले 1876 में वर्णन किए जाने के लगभग 150 साल बाद भी इसके परागण की प्रक्रिया के बारे में कोई जानकारी नहीं थी। इसमें नर और मादा फूल अलग-अलग होते हैं, पास-पास, एक ही पौधे पर। घंटीनुमा नर फूलों के सिरों पर 5 हरे रंग के पुंकेसर लगे होते हैं। फूलों के केंद्र में पांच नारंगी रंग की मकरंद ग्रंथियां स्पष्ट रूप से देखी जा सकती हैं। मादा फूल में पंचमुखी लौंग के आकार का वर्तिकाग्र बाहर झांकता रहता है।

दक्षिण अफ्रीका के क्वा-ज़ुलु नेटल विश्वविद्यालय और नेदरलैंड की पारिस्थितिकी शोध प्रयोगशाला के शोधार्थियों ने इनके परागण की पहेली का जवाब ढूंढ निकाला है और जर्नल आफ इकॉलॉजी में प्रकाशित किया है। इस दल ने दक्षिण अफ्रीका के विश्व धरोहर स्थल मलोटी-ड्रेकन्सबर्ग राष्ट्रीय उद्यान में इन फूलों को खोजा है। इन फूलों के परागणकर्ता की तलाश के लिए वहां पर गति संवेदी कैमरे लगाए गए और चूहे, गिलहरी जैसे कृंतकों को ललचाने के लिए मूंगफली के दाने भी डाले गए। इस शोध दल का यह विश्वास था कि इन फूलों का परागण निशाचर कृंतकों द्वारा ही होता होगा। अत: कैमरे रात की रिकॉर्डिंग के लिए लगाए गए। पांच दिन के निराशाजनक नतीजों के बाद दल ने अपनी कार्ययोजना को बदलते हुए दिन में भी रिकॉर्डिंग चालू की और कैमरे की गति संवेदनशीलता और बढ़ा दी ताकि छोटे जीव भी इसकी पकड़ में आ सकें। इस युक्ति ने काम किया; एक रात की रिकॉर्डिंग में एक छिपकली नज़र आई जो फूलों के पास आ-जा रही थी। यह लगभग 26 सेंटीमीटर लंबी ड्रैकनबर्ग क्रैग लिज़ार्ड (सुडोकारडायल्स सबविरिडिस) थी। शोधकर्ताओं का कहना है कि उस क्षेत्र में यह बहुतायत से मिलती है परंतु सोचा नहीं था कि छिपकली भी एक प्रमुख परागणकर्ता हो सकती है।

वनस्पति विज्ञानियों के अनुसार छिपकलियों द्वारा फूलों का परागण सबसे बिरला एवं सर्वाधिक कम अध्ययन किया गया परागण तंत्र है। पूरी दुनिया में पहला ऐसा प्रकरण मॉरिशस के मेडेरा द्वीप में देखा गया था। तब से लगभग 40 गेको और छिपकलियों का पता लगाया जा चुका है जो फूलों के आसपास देखी जाती हैं। परंतु फूलों के आसपास मंडराने का मतलब यह नहीं है कि वे उनका परागण भी करती हों। अधिकतर छिपकलियां तो फूलों को खाती है।

पूरी दुनिया में छिपकलियां केवल पांच प्रजातियों के पौधों की परागणकर्ता के रूप में पहचानी गई हैं और मात्र दो प्रजातियां ही प्राथमिक परागणकर्ता के रूप में सरीसृपों की मदद लेती हैं। छिपकलियों द्वारा परागण अक्सर मुश्किल और दुर्गम पर्यावरण में ही होता है। शोधकर्ता यह पता लगाने का प्रयास कर रहे हैं कि वे कौन से लक्षण हैं जो छिपकलियों को फूलों की ओर आकर्षित करते हैं, वे कैसे विकसित हुए हैं और कितने महत्वपूर्ण हैं।

यह पता लगाने के लिए उन्होंने प्रयोगशाला में कुछ नर फूलों पर एक रंगीन पाउडर छिड़क दिया और पाया कि गुलाबी गालों वाली इस छिपकली के मुंह पर रंग लगा था और इस तरह इसने परागकणों को मादा फूलों पर फैला दिया है।

ड्रैकनबर्ग क्रैग छिपकली जब मकरंद भरे फूलों को चाटती है तो इस फूल के परागकण उसके मुंह पर चिपक जाते हैं। कैमरों के फुटेज देखने पर पता लगा कि यह छिपकली ही इसकी परागणकर्ता है। पर यह पक्का करने के लिए जब इन छिपकलियों को पौधों से दूर रखा गया तो इन पौधों द्वारा बनाए जाने वाले फलों का प्रतिशत 95 प्रतिशत तक गिर गया। इस तरह यह तो पक्का हो गया कि यह एक प्राथमिक परागणकर्ता है।

शोध दल के सदस्यों के अनुसार यह तो पता था कि इस द्वीप की कुछ छिपकलियां फूलों पर जाती हैं और यह भी मालूम था कि जहां गुथरिया के फूल मिलते हैं वहां छिपकली बहुतायत में पाई जाती हैं। दोनों की पसंद ऊंचे चट्टानी आवास हैं। पर दोनों के सम्बंध पर विचार नहीं किया गया था। हिडन फ्लॉवर पौधे के फूल अन्य वैसे ही फूलों से मिलते-जुलते हैं जिन्हें चूहे और छछूंदर परागित करते हैं। हालांकि पिछले कुछ वर्षों से यह ज्ञात है कि कुछ छिपकलियां फूलों से पोषण प्राप्त करती हैं पर उन्हें कभी महत्वपूर्ण परागणकर्ता नहीं माना गया था। इस शोध से यह तो पता चल गया कि यह छिपकली इस फूल की परागणकर्ता है परंतु यह पता लगाना बाकी था कि ये छिपकलियां इन फूलों को ढूंढती कैसे हैं, वह भी रात के अंधेरे में। अधिकतर छिपकलियां निशाचर होती हैं। लगता है कि जैव विकास के दौरान उन्होंने कीटों की दावत को मकरंद के चटखारे से बदल लिया है। छिपकली अपने भोजन को केवल गंध के माध्यम से पता लगाती है। हिडन फ्लॉवर्स की गंध के रासायनिक विश्लेषण से पता चला कि इसके यौगिक वनस्पति जगत में अनूठे हैं। ऐसा लगता है कि यही रसायन छिपकलियों को अपनी ओर आकर्षित करते हैं।

अफ्रीकन महाद्वीप पर पहला और विश्व भर में यह दूसरा उदाहरण है जिसमें छिपकली प्राथमिक परागणकर्ता है। सरीसृपों से परागित होने वाला दुनिया का पहला खोजा गया पौधा ट्रोकेशिया ब्लैकबर्मियाना था। यह पौधा तीन मीटर ऊंचा होता है और इस पर लाल रंग के फूल खिलते हैं। यह एक नर गेको (छिपकली जैसा जीव) द्वारा परागित होता है, जिसका आवास केवड़े की झाड़ियां हैं। इस परागणकर्ता गेको में चिपकने वाले पंजे नहीं होते। अत: यह छिपकली की तरह दीवारों पर नहीं चल सकती। ये दिन में भी सक्रिय रहती हैं, इनमें बाहरी कान भी नहीं होते।

नारंगी रंग का जादू 

अध्ययन करने पर पता चला कि गुथरिया के फूलों के आधार पर छोटी-छोटी नारंगी रंग की मकरंद ग्रंथियां होती है। आश्चर्य की बात यह है कि ये ग्रंथियां नर छिपकलियों में विकसित होने वाले नारंगी धब्बों से मेल खाती हैं जो मादा छिपकलियों को आकर्षित करने का काम करते हैं। और तो और, ट्रोकेशिया फूलों का रंग भी गेको के शरीर पर पाई जाने वाली नारंगी-लाल धारियों से मिलता-जुलता है। इससे यह लगता है कि छिपकलियों से परागित होने वाले फूल उन संकेतों से मेल बैठा रहे हैं जिन्हें ये परागणकर्ता पहले से ही इस्तेमाल करते आए हैं। दोनों की यह समानता दर्शाती है कि ये फूल उस रंग का इस्तेमाल करते हैं जिससे ये सरिसृप फूलों में छिपे मकरंद का पता लगा सकें। ट्रोकेशिया और गुथरिया की ये समानता यहीं समाप्त नहीं होती। दोनों के फूल घंटी नुमा है और इनका मकरंद भी पीला-नारंगी रंग का है। यानी नारंगी रंग एक महत्वपूर्ण लक्षण है इस परागण तंत्र का। छिपकलियों के परागण में योगदान का यह अनूठा संयोजन छिपकलियों की पारिस्थितिकी और ऐसे असामान्य फूलों की कार्यप्रणाली, रूप-रंग के बीच सम्बंधों के अनुसंधान के नए द्वार खोलता है। (स्रोत फीचर्स)

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हाथी शरीर का 10 प्रतिशत तक पानी गंवा सकते हैं

क हालिया अध्ययन से पता चला है कि किसी गर्म दिन में हाथी अपने शरीर का 10 प्रतिशत तक पानी गंवा देते हैं। यह ज़मीन पर पाए जाने वाले किसी भी जीव की तुलना में अधिक है।

यह समाचार लाड़-प्यार में पलने वाले चिड़ियाघर के हाथियों के लिए तो कोई मायने नहीं रखता, लेकिन वैश्विक तापमान में वृद्धि को देखते हुए जंगली हाथियों के लिए यह चिंता का विषय है। गौरतलब है कि हाथियों पर पहले से ही विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है, ऐसे में पानी की कमी से उनकी जन्म-दर में कमी, बच्चे के लिए दूध की कमी और निर्जलीकरण के कारण मृत्यु की संभावना बढ़ जाएगी।

हाथियों को हर दिन सैकड़ों लीटर पानी की आवश्यकता होती है, लेकिन जलवायु परिवर्तन से उनकी पानी की ज़रूरतों में किस तरह के बदलाव होंगे यह अभी तक स्पष्ट नहीं है। इसके लिए संरक्षण जीव विज्ञानी खोरीन केंडल ने नार्थ कैरोलिना चिड़ियाघर के पांच अफ्रीकी सवाना हाथियों पर अध्ययन किया। साधारण पानी हाइड्रोजन और ऑक्सीजन से बना अणु होता है। केंडल और उनकी टीम ने तीन वर्षों के दौरान छह अवसरों पर हाथियों को हाइड्रोजन की बजाय हाइड्रोजन के भारी समस्थानिक ड्यूटेरियम से बने पानी (‘भारी पानी’) की खुराक दी। ड्यूटेरियम हानिरहित है। यह भारी पानी शरीर के पानी में घुल जाता है और जीवों द्वारा उत्सर्जित तरल में ट्रेस किया जा सकता है। वैज्ञानिकों ने नियमित रूप से 10 दिनों तक ‘भारी पानी’ की नपी-तुली खुराक देने के बाद रक्त के नमूने लिए और ड्यूटेरियम की बची हुई मात्रा के आधार पर यह पता लगाया कि हाथी कितनी तेज़ी से शरीर का पानी गंवा रहे हैं।  

रॉयल सोसाइटी ओपन साइंस में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार ठंडे मौसम (6 से 14 डिग्री सेल्सियस तापमान पर) में नर हाथी औसतन 325 लीटर तक पानी गंवा देते हैं जबकि गर्म दिनों (24 डिग्री सेल्सियस तापमान पर) में यह मात्रा औसतन 427 लीटर होती है और कभी-कभी 516 लीटर तक हो सकती है। यह मात्रा शरीर में उपस्थित कुल पानी का 10 प्रतिशत या शरीर के द्रव्यमान का 7.5 प्रतिशत तक है। इसलिए हाथियों को निर्जलीकरण के खतरनाक स्तर से बचने के लिए हर 2 से 3 दिन में कम से कम एक बार खूब पानी पीना पड़ता है। तुलना के लिए किसी गर्म वातावरण में घोड़े प्रतिदिन 40 लीटर पानी गंवाते हैं जो उनके शरीर के द्रव्यमान का 6 प्रतिशत है। मनुष्यों में यह मात्रा 3-5 लीटर प्रतिदिन है जो हमारे शरीर के द्रव्यमान का 5 प्रतिशत है। यह मात्रा मैराथन धावकों और फौजियों में दो गुनी होती है।

इस चर्चा में एक महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि वैश्विक तापमान में बढ़ोतरी के साथ हाथियों को अधिक पानी की आवश्यकता होगी। लेकिन पानी के स्रोत और पानी से भरपूर पेड़ों में कमी आने से समस्या काफी जटिल हो सकती है। ऐसे में संसाधनों की कमी के चलते मनुष्यों और हाथियों में संघर्ष के हालात और बिगड़ सकते हैं। कभी-कभी हाथी फसलों पर हमला कर देते हैं या फिर भूमिगत जल संरचनाओं को नष्ट करते हैं। इससे दोनों प्रजातियों में टकराव घातक हो जाता है।(स्रोत फीचर्स)

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बिल्लियों की धारियां कैसे बनती हैं?

चीतों, तेंदुओं के शरीर पर धब्बे या बिल्लियों के शरीर पर धारियां पाई जाती हैं। यह सवाल अनसुलझा रहा है कि कुछ जानवरों के शरीर के पैटर्न कैसे बनते हैं? अब, हडसनअल्फा इंस्टीट्यूट फॉर बायोटेक्नॉलॉजी के ग्रेगरी बार्श बताते हैं कि प्रकृति में पैटर्नों की व्याख्या करने वाला 70 साल पुराना सिद्धांत इस पहेली को सुलझाने में भी सक्षम है।

दरअसल 1952 में कंप्यूटिंग में अग्रणी एलन ट्यूरिंग ने बताया था कि प्रकृति में दिखने वाले पैटर्न संभवत: तब बनते हैं जब एक-दूसरे के कार्य को प्रेरित और बाधित करने वाले अणु ऊतकों में अलग-अलग गति से बहते हैं। इसके तीस साल बाद कुछ वैज्ञानिकों ने ट्यूरिंग के इस सिद्धांत पर एक परिकल्पना बनाई थी कि उत्प्रेरक अणु कोशिकाओं को रंग प्रदान करते हैं लेकिन साथ ही वे अणु अवरोधकों का भी निर्माण करने लगते हैं। अवरोधक अणु प्रेरकों की तुलना में अधिक तेज़ी से फैलते हैं और रंजकों का निर्माण रोक देते हैं। इस सिद्धांत के आधार पर विभिन्न रंग के फर या बालों के रंजक के पैटर्न के स्रोत का स्पष्टीकरण तो हुआ लेकिन शरीर पर पैटर्न बनने की शुरुआत कब और कहां होती है, यह सवाल अनसुलझा ही था।

इसलिए बार्श की टीम ने घरेलू बिल्लियों की चमड़ी के रंग के प्रेरकों और अवरोधकों को देखा। करीब एक दशक पहले उन्होंने बिल्लियों में टैबी नामक जीन की पहचान की थी। इस जीन में उत्परिवर्तन हो जाए तो टैबी बिल्लियों में धारियों की जगह काले धब्बे बन जाते हैं। हडसनअल्फा के आनुवंशिकीविद क्रिस्टोफर कैलिन ने बड़े और काले धब्बों वाले किंग चीतों में भी इसी जीन का उत्परिवर्तन पाया था। इससे लगता है कि जंगली व घरेलू दोनों बिल्लियों में रंग एक ही जीन के कारण आता है।

लेकिन विकास के दौरान अन्य जीन और उनमें हुए उत्परिवर्तन क्या करते हैं यह जानने के लिए कैलिन और उनके साथियों ने कई वर्षों तक जंगली बिल्लियों का गर्भाशय निकालकर बांझ बनाने वाले क्लीनिक से उनके हटाए गए ऊतकों का अध्ययन किया, इनमें कई गर्भवती बिल्लियों के भी ऊतक थे। उन्हें पहली बार त्वचा में अस्थायी मोटाई 28 से 30 दिन के भ्रूण में दिखी, बाद में इन्हीं जगहों पर काली धारियां बनती हैं।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने प्रारंभिक अवस्था के भ्रूण की एक-एक त्वचा कोशिका से सक्रिय जीन पृथक किए और उन्हें अनुक्रमित किया। लगभग 20 दिन के भ्रूण में त्वचा के उस हिस्से में, जहां स्थायी रूप से काली धारियां बनने वाली थीं, Wnt संकेतों से सम्बंधित कुछ जीन्स की गतिविधि में तेज़ी दिखाई दी। Wnt संकेत कई जानवरों में विकास के दौरान कोशिका की भूमिका तय करने और वृद्धि के लिए ज़िम्मेदार होते हैं। इनमें सबसे सक्रिय जीन था Dkk4। बायोआर्काइव में शोधकर्ताओं ने बताया है कि Dkk4 जीन को निष्क्रिय करने वाले उत्परिवर्तन के कारण ही बिल्लियों की कुछ किस्मों (एबिसिनियन और सिंगापुरा) के शरीर के निशान बहुत छोटे-छोटे हो गए हैं। यह भी पाया गया कि घरेलू बिल्लियों में Wnt और Dkk4 जीन्स प्रेरक और अवरोधक की तरह कार्य करते हैं। गहरे रंग की त्वचा में ये लगभग समान मात्रा में मौजूद रहते हैं। लेकिन पीली रंगत वाली त्वचा में तेज़ी से फैलने वाला Dkk4 प्रोटीन Wnt संकेतों को बाधित कर देता है जिससे रंजक का निर्माण बंद हो जाता है। इसी के परिणामस्वरूप धारियां बनती हैं।(स्रोत फीचर्स)

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छिपकलियां भी परागण करती हैं!

मकरंद पान करती स्यूडोकॉर्डिलस सबविरिडिस

साल 2017 के अंत में दक्षिण अफ्रीका के ड्रैकन्सबर्ग पहाड़ों में परागण पारिस्थितिकी विज्ञानी रूथ कोज़ियन की नज़र एक अजीब से पौधे पर पड़ी। इस पौधे के फूलों का रंग हरा था और वे पौधे की पत्तियों के बीच नज़र नहीं आ रहे थे। फूल की गंध बहुत तीखी थी, और उनमें इतना मकरंद था कि कोई कीट उसमें डूब ही जाए।

आम तौर पर फूल चटख रंग के होते हैं जो पक्षियों, मधुमक्खियों और तितलियों जैसे परागणकर्ताओं को आकर्षित करते हैं। लेकिन इस पौधे के फूल हरे रंग के थे जो पत्तियों के बीच दिखाई ही नहीं पड़ते थे, और ज़मीन से बहुत करीब खिले थे। कोज़ियन को लगा कि यह पौधा, गुथरीया कैपेंसिस, पौधों की उस प्रजाति से सम्बंधित होगा जिनका परागण चूहे, हाथीनुमा छछूंदर जैसे छोटे स्तनधारी जीव करते हैं।

इसलिए शुरुआत में उन्होंने कैमरे से रिकार्डिंग सिर्फ रात में की। लेकिन जब पांच दिन तक कैमरे की पकड़ में वह परागणकर्ता नहीं आ सका तो उन्होंने कैमरे की गति-संवेदनशीलता सेटिंग्स बदलकर पूरे 24 घंटों की रिकॉर्डिंग करना शुरू कर दिया।

ऐसा करने पर उन्हें फूलों पर आती-जाती छिपकली की छवि दिखाई दी। यह ड्रेकेन्सबर्ग में पाई जाने वाली 26 सेंटीमीटर लंबी स्यूडोकॉर्डिलस सबविरिडिस थी। शोधकर्ताओं ने फुटेज में पाया कि मकरंद पीने के लिए ये छिपकलियां फूलों में अपने थूथन को अंदर तक धंसा देती हैं।

वैसे गेको और छिपकलियों की लगभग 40 प्रजातियां देखी गई हैं जो फूलों का मकरंद पीती हैं। लेकिन मकरंद पीने और परागण करने में अंतर है। अक्सर छिपकलियां पूरा फूल ही खा जाती हैं।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने कुछ छिपकलियां पकड़ी तो पाया कि छिपकलियों के चिकने थूथन पर गुथरीया पौधे के पराग कण चिपके हुए थे। इसके बाद शोधकर्ताओं ने कुछ पौधों के पास छिपकलियों को जाने से रोका। तो उन्होंने पाया कि जिन पौधों के पास छिपकलियों को नहीं जाने दिया गया था, कुछ हफ्तों के बाद उन पौधों पर अन्य की तुलना में 95 प्रतिशत कम फल आए थे। फल बनने के लिए परागण आवश्यक होता है। फिर, शोधकर्ताओं ने प्रयोगशाला में कुछ नर फूलों के पराग कोशों को साफ किया और उन पर रंगीन पावडर छिड़का, और देखा कि अब भी ये छिपकलियां मादा फूलों के प्रजनन अंग तक रंगीन पावडर ले जाती हैं।

गुथरीया फूल

परागण विशेषज्ञ आज भी यह समझने में लगे हैं कि छिपकलियों को इन फूलों की ओर क्या चीज़ आकर्षित करती है और सरिसृपों द्वारा परागण किन परिस्थितियों में विकसित होता है और यह कितना महत्व रखता है। कारण यह है कि छिपकली द्वारा परागण की प्रक्रिया कठिन पर्यावरणों में ही विकसित होती है।

गुथरिया अब तक का ज्ञात दूसरा ऐसा पौधा है जो परागणकर्ता के रूप में छिपकली जैसे सरीसृपों का उपयोग करता है। इसके पहले मॉरीशस द्वीप पर पाए जाने वाले ट्रोकेशिया ब्लैकबर्नियाना के बारे में पता चला था। ट्रोकेशिया ब्लैकबर्नियाना का पेड़ औसतन तीन मीटर ऊंचा होता है जिस पर सुर्ख लाल रंग के फूल खिलते है, इस पेड़ का परागण एक गेको द्वारा किया जाता है। यह दिलचस्प है कि ट्रोकेशिया के लाल फूलों का रंग गेको के शरीर के लाल धब्बों से मेल खाता है और गुथरीया के फूलों के नीचे के हिस्से का नारंगी रंग छिपकली के शरीर के नारंगी धब्बों से मेल खाता है। इससे लगता है पौधों के फूल परागणकर्ता के अनुरूप हो गए थे।

ट्रोकेशिया और गुथरीया के बीच सिर्फ यही समानता नहीं है, बल्कि दोनों पौधों के फूल कप के आकार के होते हैं जिनमें पीले-नारंगी रंग का मकरंद होता है। देखा गया है कि ट्रोकेशिया के फूलों का रंगीन मकरंद परागणकर्ता गेको को आकर्षित करता है, इसलिए ऐसा लगता है कि गुथरिया में भी मकरंद का यह रंग पत्थरों के नीचे भी फूलों को खोजने में परागणकर्ता की मदद करता होगा।

बहरहाल, शोधकर्ता इस अनपेक्षित परागणकर्ता की खोज को लेकर काफी उत्साहित हैं।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पतंगों का ध्वनि-शोषक लबादा

ब्रिस्टल विश्वविद्यालय के ध्वनि जीव विज्ञानी मार्क होल्डरीड और उनकी टीम ने हाल ही में पता लगाया है कि पतंगों के ध्वनि-शोषक पंख उन्हें चमगादड़ों का शिकार बनने से बचाते हैं। पतंगों के पंख से जुड़ी शल्कों की परतें चमगादड़ द्वारा भेजी गई पराध्वनि (यानी ऊंची आवृत्ति की ध्वनि) को सोख लेती हैं। जिससे प्रतिध्वनि चमगादड़ों तक नहीं पहुंच पाती और पतंगे बच जाते हैं। गौरतलब है कि चमगादड़ आवाज़ें फेंकते हैं और किसी वस्तु से टकराकर आई उनकी प्रतिध्वनि की मदद से वस्तुओं की स्थिति का अनुमान लगाते हैं।

टीम को ये शल्की लबादे पतंगों की दो प्रजातियां, चीनी टसर मोथ (एंथेरा पेर्नी) और अफ्रीकी पतंगा डैक्टिलोसेरस ल्यूसिना, में दिखे। कांटे (फोर्क) जैसी संरचना वाले इन शल्कों की कई परतें पतंगों के पंखों की झिल्ली से जुड़ी होती हैं। शिकारी चमगादड़ों द्वारा छोड़ी गई अल्ट्रासाउंड आवृत्तियां जब इन शल्कों से टकराती हैं तो वे मुड़ जाते हैं और ध्वनि की ऊर्जा गतिज ऊर्जा में परिवर्तित हो जाती है। इससे वापस चमगादड़ों तक पहुंचने वाली प्रतिध्वनि बहुत दुर्बल होती है। अर्थात ये पतंगे चमगादड़ों के सोनार से ओझल या लगभग ओझल रहते हैं और शिकार होने से बच जाते हैं। इन दो पतंगों के चयन का एक विशेष कारण यह भी था कि इनमें चमगादड़ों द्वारा प्रेषित आवाज़ को सुनने के लिए कान नहीं होते। इन पतंगों में यह क्षमता शायद इसलिए विकसित हुई होगी क्योंकि ये निकट आते शिकारी चमगादड़ की ध्वनि को सुन नहीं सकते।

ये शल्क एक मिलीमीटर से भी छोटे होते हैं, और इनकी मोटाई केवल चंद सौ माइक्रोमीटर होती है। प्रत्येक शल्क ध्वनि की एक विशेष आवृत्ति पर अनुनाद करता है। लेकिन दसियों हज़ार शल्क मिलकर ध्वनि के कम से कम तीन सप्तक को अवशोषित कर सकते हैं। कुल मिलाकर स्थिति यह है कि प्रत्येक शल्क एक खास आवृत्ति पर अनुनाद करके उसे सोख लेता है लेकिन इनकी जमावट कुछ ऐसी होती है कि सब मिलकर एक महा-अवशोषक की तरह काम करते हैं।

पंख पर उभरे फोर्क जैसे शल्क

यह ध्वनि-शोषक लबादा 20 किलोहर्ट्ज़ से 160 किलोहर्ट्ज़ आवृत्ति के बीच काम करता है। और यह सबसे बढ़िया काम उन निम्नतर आवृत्तियों पर करता है जो चमगादड़ अपने शिकार का पता करने के लिए उपयोग करते हैं। लबादे ने 78 किलोहर्ट्ज़ पर सबसे अधिक ध्वनि, लगभग 72 प्रतिशत का अवशोषण किया।

पहले ये शोधकर्ता दर्शा चुके हैं कि कुछ पतंगों के पंखों पर उपस्थित रोम भी ध्वनि को सोखकर बचाव में मदद करते हैं। अब उन्होंने यह नई तकनीक खोज निकाली है। उम्मीद है कि ध्वनि अवशोषण की नई तकनीक से बेहतर ध्वनि अवशोषक उपकरण बनाने में मदद मिलेगी। घरों-दफ्तरों में ध्वनि-अवशोषक पैनल का स्थान ध्वनि-अवशोषक वॉलपेपर ले सकते हैं।(स्रोत फीचर्स)

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नरों को युद्ध करने पर मज़बूर करती मादाएं – डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

ब बेन्डेड नेवलों की दो सेनाएं आमने-सामने आती हैं तो उनके बीच वैसा ही युद्ध होता है जैसा मानव प्रतिद्वंद्वियों के बीच होता है। अक्सर विजेता समूह हारने वाले समूह के अड़ियल नेवलों को घेरकर खून से लथपथ कर देते हैं। जब नर युद्धरत होते हैं, एक मादा नेवला चुपके से अपने बच्चों के जीन में विविधता तथा जीवित रहने की संभावना बढ़ाने के लिए दुश्मन गुट में से अपना प्रजनन साथी तलाश लेती है।

प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेस में प्रकाशित शोधपत्र के मुताबिक अफ्रीकी बेन्डेड नेवलों (मंगोस मंगो) के गुटों में आपसी संघर्ष आम घटना है। परंतु आश्चर्यजनक बात तो यह है कि इन लड़ाइयों के पीछे एक मादा नेवला होती है। नेवलों के इस झगड़े में हमेशा मादा के दोनों हाथों में लड्डू होते हैं। एक तो नरों के कत्लेआम के चलते उनकी आबादी संतुलित रहती है। दूसरा, मादा को दुश्मन गुट के बहादुर नरों से प्रजनन करके बेहतर जीन्स प्राप्ति का फायदा मिलता है।

उपरोक्त नतीजे युगांडा के क्वीन एलिज़ाबेथ नेशनल पार्क में 20 वर्षों के अध्ययन से मिले हैं। सवाना में पाए जाने वाले बेन्डेड नेवले औसतन 20-20 सदस्यों के समूहों में रहते हैं जिनमें नर, मादा एवं बच्चे सम्मिलित होते हैं। इनका आवास भूमिगत सुरंगों में होता है जिसके बहुत से द्वार होते हैं। ये अपने मूल गुट में बने रहते हैं। निष्कासन अथवा सदस्यों की अधिक संख्या के कारण समूह के कुछ सदस्य नए गुट बनाते हैं। मूल गुट के साथ बने रहने से सदस्यों की सुरक्षा तो होती है किंतु एक ही समूह में प्रजनन होने के कारण आनुवंशिक विविधता की हानि होती है। ऐसे में गुट की मादाएं प्रजनन के लिए दूसरे गुटों के नरों की ओर आकर्षित होती हैं। अपनी प्रजाति और संतति के अस्तित्व को सुनिश्चित करने के लिए मादा अक्सर प्रतिद्वंद्वी समूहों के उपयुक्त नरों से प्रजनन करने के लिए अपने समूह के नरों को दूसरों के इलाके में ले जाकर युद्ध शुरू करवा देती है।

जब कोई मादा नेवला प्रजननशील होती है तो गुट के चौकीदार उसकी चौबीसों घंटे सुरक्षा करते हैं और गुट का प्रमुख नर ही उससे प्रजनन करता है। चौकीदारों की उपस्थिति में मादा का बाहरी गुट के नरों से प्रजनन करना असंभव होता है। ऐसी परिस्थितियों में चौकीदार नरों को दुश्मन गुट के इलाके में ले जाकर मादा उन्हें युद्ध में झोंक देती है। वैज्ञानिकों ने पाया कि प्रजननशील मादाएं गुट के फैसलों को नरों की तुलना में अधिक प्रभावित करती हैं। मादा के नरों के साथ इस अनुचित व्यवहार को वैज्ञानिक ‘शोषणमूलक नेतृत्व’ कहते हैं, जहां मादा को शायद ही कभी नुकसान होता है और कई बार बहुत सारे नर मारे जाते हैं। वयस्क नरों में से 10 प्रतिशत की मृत्यु अक्सर इसी प्रकार होती है। जैव विकास के नज़रिए से मादा की करतूत उचित लगती है। वैज्ञानिकों का आकलन है कि गुट के बाहर के नरों से उत्पन्न बच्चों के जीवित रहने की संभावना समूह के नरों से उत्पन्न बच्चों से अधिक होती है। अन्य किसी सामाजिक स्तनधारी में ऐसी घटना नहीं देखी गई है। प्लिस्टोसिन तथा होलोसिन युग के प्रारंभ में मानव की शिकारी आबादी में भी ‘शोषणमूलक नेतृत्व’ के कारण गुटीय युद्धों के दौरान 14-18 प्रतिशत नर मारे जाते थे। क्या अफ्रीकी बेन्डेड नेवले के समान मनुष्यों में भी शीर्ष नेतृत्व, बाकी समुदाय को युद्ध में भेजकर खुद सुरक्षित व फायदे में नहीं बना रहता?(स्रोत फीचर्स)

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क्या व्हेल नौकाओं पर हमला करती हैं?

पिछले दिनों स्पेन और पुर्तगाल के तटों पर किलर व्हेल द्वारा नौकाओं पर हमले की लगभग 40 घटनाएं रिपोर्ट हुई हैं। एक घटना में पुर्तगाल तट से 30 कि.मी. दूर नाविकों की शुरुआती जिज्ञासा तब डर में बदल गई जब किलर व्हेल लगभग 2 घंटों तक उनकी 45 फीट लंबी नौका के पेंदे में ज़ोरदार टक्कर मारती रहीं। किशोर व्हेल सबसे अधिक सक्रिय थीं। और लगता था कि वे जान-बूझकर नौकाओं पर हमला कर रही हैं। 

इस वर्ष जुलाई से अक्टूबर के दौरान स्पेन और पुर्तगाल के तटों पर इन जीवों द्वारा नौकाओं पर हमला करने के कई मामले सामने आए हैं। फॉरेंसिक समुद्र वैज्ञानिक अभी भी इन जटिल, बुद्धिमान और अत्यधिक सामाजिक समुद्री स्तनधारियों (तथाकथित ‘दुष्ट किलर व्हेल’) के इस व्यवहार को समझने की कोशिश कर रहे हैं।

अटलांटिक में किलर व्हेल का होना कोई आश्चर्य की बात नहीं है। ये हज़ारों वर्षों से पुर्तगाल और स्पेन से सैकड़ों किलोमीटर के तट पर प्रवास करती ब्लूफिन ट्यूना मछलियों का शिकार करती हैं। लेकिन जब से मनुष्यों ने ब्लूफिन ट्यूना का शिकार करना शुरू किया है तब से किलर व्हेल्स के साथ हमारे सम्बंध काफी तनावपूर्ण हो गए हैं। स्पैनिश संरक्षण संगठन के अनुसार मनुष्यों द्वारा ब्लूफिन ट्यूना के शिकार के कारण 2011 में किलर व्हेल की संख्या घटकर 39 रह गई थी। लेकिन 2010 में अंतर्राष्ट्रीय नियंत्रण के बाद से वार्षिक कैच में कमी के बाद से जैसे ही ब्लूफिन ट्यूना की संख्या में वृद्धि हुई वैसे ही किलर व्हेल की संख्या भी बढ़कर 60 हो गई। फिर भी यह विलुप्तप्राय प्रजाति की श्रेणी में है।

सितंबर माह से शोधकर्ताओं ने कुछ तथ्य जुटाने का प्रयास शुरू किया। उन्होंने इन जीवों की पहचान करने के लिए संरक्षण संगठन द्वारा ली गई तस्वीरों का उपयोग किया। गौरतलब है कि प्रत्येक किलर व्हेल के पृष्ठीय पंख के पीछे एक विशिष्ट मटमैला पैच होता है जो फिंगरप्रिंट के रूप में काम करता है। इन तस्वीरों और वीडियो से अधिकांश घटनाओं में तीन युवा किलर व्हेल – ब्लैक ग्लैडिस, वाइट ग्लैडिस और ग्रे ग्लैडिस – को अधिक सक्रिय पाया गया। आम तौर पर किलर व्हेल (Orcinus orca) अपने परिवार के साथ काफी निकटता से जुड़े होते हैं। ये परिवार मातृ-प्रधान होते हैं और कई की अपनी बोली होती है। हालांकि अब तक के अध्ययन से शोधकर्ता यह नहीं बता पाए हैं कि ये तीन किस परिवार से सम्बंधित हैं। शोधकर्ताओं ने यह भी देखा है कि वाइट ग्लैडिस के सिर पर गंभीर चोट है जो शायद नौका की पतवारों को टक्कर मारने के कारण हो सकती है। ऐसी खबरें आते ही सोशल मीडिया पर कहा जाने लगा कि ये किलर व्हेल ‘बदले की कार्रवाई’ कर रही हैं। अलबत्ता, वैज्ञानिकों का निष्कर्ष है कि यह किलर व्हेल्स का एक खेल है जिसमें वे नौकाओं को टक्कर मारती हैं।

व्हेल सैंक्चुअरी प्रोजेक्ट की प्रमुख और तंत्रिका वैज्ञानिक लोरी मरीनो और उनके सहयोगियों ने वर्ष 2004 में एक मृत किलर व्हेल के मस्तिष्क का अध्ययन किया था। लोरी बताती हैं कि हम अक्सर प्रजातियों के व्यवहार को अच्छे या बुरे, आक्रामक या चंचल जैसी सरल श्रेणियों में रखने का प्रयास करते हैं जो उनको समझने का गलत तरीका है। हम इन घटनाओं का विवरण देने के लिए जिस भाषा का इस्तेमाल करते हैं वही घटना को रंगत देती है। लोरी और उनकी टीम इन घटनाओं को हमला नहीं बल्कि अंतर्क्रिया का नाम देते हैं।

समुद्र वैज्ञानिक रेनॉड स्टेफैनिस कुछ अलग तरह के व्यवहारों का संकेत देते हैं। अपनी नौका में जाते समय वे बताते हैं कि एक किशोर किलर व्हेल उनकी नौका का ऐसे पीछा कर रहा था जैसे वह उसे अपने जैसा कोई जीव समझ रहा हो। ऐसा करते हुए वो अपने चेहरे को नौका के प्रोपेलर में धकेल रहा था। ऐसे व्यवहार का कारण जो भी हो लेकिन यह चिंता का विषय तो है क्योंकि यह स्वयं किलर व्हेल्स के लिए और मछुआरों के लिए खतरनाक साबित हो सकता है। रेनॉड का एक अंदाज़ा यह भी है कि ऐसी घटनाओं से इन जीवों का मछुआरों से सीधे संघर्ष भी हो सकता है क्योंकि मछुआरों को ये अपनी रोज़ी-रोटी और जान दोनों के लिए खतरा नज़र आएंगे। यह स्थिति वास्तव में ऐसी कई जगहों पर देखी जा सकती है जहां मनुष्य तेंदुओं, बाघों या भेड़ियों जैसे जीवों को अपने करीब होने पर मार देते हैं। यदि इस तरह की घटनाएं होती रहीं तो मनुष्य किलर व्हेल को भी अपने लिए जानलेवा मानते हुए उनकी जान ले सकते हैं।

अंत में यह एक ऐसी जैविक पहेली है जिसको हल करना काफी महत्वपूर्ण है। रेनॉड अभी भी किलर व्हेल द्वारा बदला लेने की भावना के आम विचार को खारिज करते हैं। वे दशकों के अनुसंधान का हवाला देते हुए कहते हैं की यह एक सांस्कृतिक बदलाव का हिस्सा हो सकता है जो वास्तव में जीवों को जीवित रहने में मदद करता है। उदाहरण के रूप में वे बताते हैं कि एक समय पर कुछ किलर व्हेल्स ने नौकाओं से ट्यूना चुराने का हुनर हासिल कर लिया था और ऐसे किलर व्हेल परिवारों की संख्या काफी बढ़ गई थी। उनके पास कोई प्रमाण तो नहीं है, लेकिन हो सकता है कि उक्त ग्लैडिस उसी कुल के सदस्य हों।(स्रोत फीचर्स)

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एक बच्चा-चोर जंतु: नैकेड मोल रैट – डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

पूर्वी अफ्रीका के शुष्क घास के मैदानों के नीचे भूल-भूलैया जैसी सुरंगों में एक प्रकार की बदसूरत छछूंदर, नैकेड मोल रैट(Heterocephalusglaber) पाई जाती है। त्वचा पर बाल नहीं होते, इसलिए इन्हें नग्न मोल रैट कहते हैं। अधिकांश कृंतकों के विपरीत ये सामाजिक होती हैं। इनके समूहों में सदस्यों की संख्या 300 तक हो जाती है। पूरे समुदाय में केवल एक प्रजननशील जोड़ा रहता है और शेष सभी मज़दूर होते हैं।

हाल ही के शोध में पाया गया है कि चींटी और दीमकों के समान ही यह मोल रैट भी भोजन की उपलब्धता और इलाके में विस्तार करने के लिए आसपास मौजूद अन्य मोल रैट कॉलोनियों पर आक्रमण करते हैं और उनके बच्चों को चुराकर अपने समूह के मज़दूरों की संख्या में वृद्धि करते हैं। इनके इस व्यवहार से छोटी एवं कम एकजुटता वाली मोल रैट कॉलोनियां सिकुड़ती हैं और आक्रामक कॉलोनियों का विस्तार होता जाता है।

कीन्या के मेरु राष्ट्रीय उद्यान में शोध टीम को उपरोक्त व्यवहार नैकेड मोल रैट की गतिविधियों के अध्ययन के दौरान संयोगवश देखने को मिला।

एक दशक से चल रहे शोध में शोधकर्ताओं ने इनकी गतिविधियों पर नज़र रखने के लिए दर्जनों कॉलोनियों से मोल रैट पकड़-पकड़कर उनकी त्वचा के नीचे एक बहुत छोटी रेडियो फ्रिक्वेन्सी ट्रांसपॉन्डर चिप लगा दी थी। नई कॉलोनी के सदस्यों में चिप लगाने के दौरान शोधकर्ताओं को वहां पड़ोसी कालोनी के वे सदस्य दिखाई दिए जिन पर वे पहले ही चिप लगा चुके थे। आगे खोजबीन करने पर ज्ञात हुआ कि नई कॉलोनी की रानी के चेहरे पर युद्ध के दौरान बने घाव थे। शोध से जुड़े सेन्ट लुईस की वाशिंगटन युनिवर्सिटी के स्टेन ब्राउडे के लिए यह बात आश्चर्यजनक और नई थी क्योंकि इनकी कॉलोनियों के बीच प्रतिस्पर्धा की कोई बात ज्ञात ही नहीं थी बल्कि उन्हें तो आपसी सहयोग की भावना से रहने वाले जीव ही माना जाता था। ब्राउडे और उनके साथियों ने शोध के दौरान पाया कि 26 कॉलोनियों ने अपनी सुरंग की सरहदों को विस्तार देकर पड़ोसी कॉलोनियों पर अधिकार जमा लिया है। आक्रमण के आधे मामलों में तो छोटी कॉलोनी के सभी मोल रैट बेदखल कर दिए गए थे तथा आधे मामलों में छोटी कॉलोनी के सदस्यों को सुरंगों के किनारों तक खदेड़ दिया गया था। इसी अध्ययन के दौरान वैज्ञानिकों को ऐसा लगा कि हमले के दौरान छोटी कॉलोनी के बच्चों को भी चुरा लिया गया है। परंतु तब उन्नत जेनेटिक तकनीक के अभाव में वंशावली ज्ञात कर पुख्ता तथ्य परखना कठिन था। लेकिन बाद के वर्षों में ज्ञात हुआ कि अन्य कॉलोनियों के बच्चे मज़दूर बनकर बड़ी कॉलोनी के अंग बन गए थे। वैज्ञानिकों ने इन पर निगाह रखी और इनके जेनेटिक विश्लेषण से ज्ञात हुआ कि ये दूसरी कॉलोनी के चुराए हुए बच्चे थे। इन छछूंदरों के सामाजिक जीवन के अध्ययन से वैज्ञानिक यह जान पाए हैं कि इनके लिए सुरंगें बहुत मूल्यवान होती है। सुरंगों को खोदने के दौरान ही ज़मीन में पाए जाने वाले कंद इनका आहार होते हैं। कॉलोनी में जितने ज़्यादा मज़दूर होंगे सुरंगें उतनी ही बड़ी होंगी और अधिक भोजन उपलब्ध करा पाएंगी। इसलिए ये आस-पड़ोस की कॉलोनियों पर आक्रमण करके वयस्क सदस्यों को बेदखल कर देते हैं और केवल निश्चित उम्र के बच्चों को ही चुरा कर अपने समूह में सम्मिलित कर लेते हैं जो बड़े होकर इनके लिए मज़दूरी कर सकें।(स्रोत फीचर्स)

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