एक साथ रहकर भी पक्षी दो प्रजातियों में बंटे

र्जेंटीना के आइबेरा नेशनल पार्क में पिद्दी के आकार के पक्षियों की दो लगभग समान प्रजातियां साथ-साथ रहती हैं, एक ही तरह के बीज खाती हैं और एक ही तरह के स्थानों पर घोंसले बनाती हैं। वैसे तो ये प्रजातियां आपस में सफलतापूर्वक प्रजनन कर सकती हैं। लेकिन हाल ही में शोधकर्ताओं ने पाया है कि ये प्रजातियां पीढ़ियों से आपस में प्रजनन नहीं कर रही हैं। और यह रुकावट कुछ मामूली से परिवर्तनों की वजह से है – पंखों के रंग और गीत में अंतर। यह अध्ययन आनुवंशिक रूप से काफी हद तक समान दो भिन्न प्रजातियों के बनने में व्यवहार की महत्वपूर्ण भूमिका को दर्शाता है।

आम तौर पर, नई प्रजातियां तब बनती हैं जब किसी प्रजाति की आबादी या समूह के कुछ सदस्य नदी, पर्वत श्रेणी या अन्य किसी भौतिक बाधा के चलते शेष समूह से अलग-थलग हो जाते हैं। समय के साथ, इन दोनों समूह की आनुवंशिकी में, और उनके लक्षणों और व्यवहारों में बदलाव हो जाते हैं। यदि दोनों समूह में अलगाव लंबे समय तक बना रहे तो फिर ये समूह आपस में प्रजनन करने में सक्षम नहीं होते।

लेकिन जैसा कि कैपुचिनो बीज चुगने वाले पक्षियों की इन दो प्रजातियों के मामले में देखा गया है, कभी-कभी कोई भौतिक बाधा आए बिना भी, एक साथ रहते हुए एक प्रजाति दो भिन्न प्रजातियों में बंट सकती है।

कॉर्नेल विश्वविद्यालय के वैकासिक जीव विज्ञानी लियोनार्डो कैंपगना ने लगभग 20 साल पहले स्पोरोफिला कुल के दक्षिणी कैपुचिनो बीजभक्षी पक्षियों का अध्ययन शुरू किया था। अपने अध्ययन में वे जानना चाहते थे कि कैसे ये पक्षी 10 लाख सालों से भी कम समय में एक से 10 प्रजातियों में बंट गए। वर्ष 2017 में कैंपगना और उनके साथियों ने बताया था कि कैपुचिनो बीजभक्षी की 10 प्रजातियों के बीच सबसे बड़ा आनुवंशिक अंतर उनके मेलेनिन रंजक बनाने वाले जीन्स में होता है, जिससे लगता है कि नई प्रजाति के बनने में उनके पंखों के रंग की भूमिका महत्वपूर्ण हो सकती है।

इस अध्ययन में कैंपगना और कोलोरेडो विश्वविद्यालय की शीला टरबेक ने आइबेरा कैपुचिनो बीजभक्षी (स्पोरोफिला आइबेरैंसिस) और पीले पेट वाले कैपुचिनो बीजभक्षी (एस. हायपोक्सेंथा) पर ध्यान केंद्रित किया। इन दोनों प्रजातियों की मादाएं एकदम समान दिखती हैं। और दोनों ही प्रजातियां आइबेरा राष्ट्रीय उद्यान के एक ही हिस्से में रहती हैं, प्रजनन करती हैं, दाने चुगती हैं। इस तरह दोनों प्रजातियों के बीच आपस में संपर्क करने और संभवत: परस्पर प्रजनन करने के लिए पर्याप्त मौका है। दोनों प्रजातियों में जो मुख्य अंतर है वह यह है कि आइबेरा प्रजाति के नर के पेट का रंग रेतीला और गले का रंग काला होता है, जबकि एस. हायपोक्सेंथा प्रजाति के नर के पेट और गले का रंग लालिमा लिया पीला होता है। और दोनों प्रजाति के गीत में थोड़ा अंतर होता है।

यह देखने के लिए कि क्या वास्तव में दोनों प्रजातियां जंगल में एक-दूसरे के साथ प्रजनन नहीं करतीं, शोधकर्ताओं ने दोनों प्रजातियों के 126 पक्षियों पर पहचान चिन्ह लगाए। और इस तरह इन प्रजातियों के वयस्कों और 80 नवजातों की गतिविधियों पर नज़र रखी। हरेक पक्षी के डीएनए का नमूना भी लिया। आनुवंशिक विश्लेषण में पता चला कि वास्तव में ये दोनों प्रजातियां आपस में प्रजनन नहीं करती हैं। इससे ऐसा लगता है कि मादाएं अपने प्रजनन-साथी के चयन में किसी एक पंख या पेट के रंग और गीत को वरीयता देती हैं। और मादा के इस चयन या पसंद ने ही पक्षियों को दो अलग-अलग प्रजातियों में बांटा है।

दो प्रजातियों की एक जैसी लगने वाली मादाओं का अध्ययन करके यह पता लगाना मुश्किल है कि वे साथी का चयन किस आधार पर करती हैं। लेकिन कुछ पक्षियों पर हुए अध्ययनों में पाया गया है कि साथी चयन में मादा जिन लक्षणों को वरीयता देती हैं, उन लक्षणों का उपयोग नर अपने प्रतिद्वंद्वियों की पहचान करने में करते हैं। अक्सर, एक प्रजाति के नर को अन्य प्रजाति के नर की उपस्थिति से कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन अपनी ही प्रजाति या अपने जैसे दिखने वाले नर के साथ उनमें साथी के लिए प्रतिस्पर्धा होती है।

यह जांचने के लिए शोधकर्ताओं ने दोनों प्रजातियों के नर की तरह दिखने वाले रंगीन मॉडल बनाए। फिर इन मॉडल नरों को दोनों प्रजातियों के वास्तविक नरों को दिखाया और इन मॉडल के प्रति उनकी प्रतिक्रिया देखी। मॉडल दिखाते समय उन्होंने दोनों प्रजातियों में से कभी किसी एक प्रजाति के पक्षीगीत की रिकॉर्डिंग बजाई तो कभी दूसरी की। साइंस पत्रिका में प्रकाशित नतीजे बताते हैं कि नरों ने उन मॉडल नरों पर सबसे अधिक प्रतिक्रिया दी जिनके पक्षीगीत और पेट का रंग, दोनों उनकी अपनी प्रजाति के नर से मेल खाता था। ज़ाहिर है नर पक्षियों ने मॉडल नरों को मादा साथी के लिए प्रतिस्पर्धी के रूप में देखा।

दोनों प्रजातियों का आनुवंशिक विश्लेषण करने पर पाया गया कि उनके केवल तीन जीन क्षेत्र में कुल 12 जीन अलग थे जो उन्हें एक-दूसरे से अलग बनाते हैं। इनमें पंखों के रंग का जीन भी शामिल है। ये छोटे-छोटे आनुवंशिक और पेट के रंग के परिवर्तन कुछ मादाओं की पसंद बने, जिससे आगे जाकर दोनों प्रजातियां अलग हो गर्इं।

वैसे एक संभावना यह भी है कि आइबेरा और पीले पेट वाली कैपुचिनो बीजभक्षी प्रजातियां पूर्व में कभी किन्हीं अलग-अलग स्थानों पर विकसित हुई होंगी और केवल बाद में उनका आवास एक हो गया होगा।

देखा गया है कैपुचिनो बीजभक्षी की अन्य प्रजातियों के बीच अतीत में आपस में प्रजनन हुआ था इसलिए एक संभावना यह भी है कि अभी जो जीन संस्करण आइबेरा प्रजाति को अलग बनाता है वह उसमें पहले से मौजूद रहा हो उसके नए संयोजनों और फेरबदल से नई प्रजाति बन गई हो। ऐसे में किसी नए जीन के विकास की ज़रूरत नहीं पड़ी होगी और इसलिए इतनी जल्दी नई प्रजाति बन गई। पक्षी विज्ञानी लंबे समय से जानते हैं कि पक्षीगीत और पंखों का रंग प्रजातियों को अलग रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। अब यह अध्ययन दिखाता है कि ये चीज़ें जीनोमिक स्तर पर किस तरह दिखती हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.youtube.com/watch?v=-IMBpCKAwDU&t=1s

हाथी दांत से अफ्रीकी हाथी के वंशजों की कहानी – डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

र्ष 2008 में नामीबिया के तट पर खनन करने वाले मजदूरों ने मिट्टी में दफन एक खजाना खोज निकाला था – एक व्यापारिक पुर्तगाली जहाज़ बोम जीसस। वर्ष 1533 में भारत की यात्रा पर निकला यह जहाज़ दुर्घटनाग्रस्त हो गया था। जहाज़ में सोने-चांदी के सिक्कों के अलावा अन्य मूल्यवान सामग्री भरी थी। लेकिन पुरातत्वविदों और जीव विज्ञानियों की एक टीम के लिए तो बोम जीसस का सबसे कीमती खज़ाना था 100 से अधिक हाथी दांत, जो अफ्रीकी हाथी दांत का अब तक का सबसे बड़ा पुरातात्विक जानकारी का भंडार था।

हाथी दांत का आनुवंशिक और रासायनिक विश्लेषण करने पर हाथियों की उन नस्लों का पता लगा है जो कई अलग-अलग समूहों में पश्चिम अफ्रीका में सदियों पूर्व विचरण करते थे। करंट बायोलॉजी में प्रकाशित शोध पत्र के अनुसार वैज्ञानिकों का मानना है कि यह अध्ययन अफ्रीका के हाथियों की 500 वर्ष पुरानी आबादी और हाथी दांत व्यापार सम्बंधी बहुमूल्य जानकारी दे रहा है।

लगभग 500 वर्षों तक समुद्र की तलछट में दबे रहने के बावजूद हाथी दांत अविश्वसनीय रूप से अच्छी तरह से संरक्षित थे। जब जहाज़ समुद्र में डूबा तो डिब्बों में हाथी दांत के ऊपर जमी तांबे और सीसे की सिल्लियों ने हाथी दांतों को समुद्र में नीचे धकेल दिया और वे मिट्टी में धंस कर नष्ट होने से बच गए। यह भी अनुमान है कि अटलांटिक के इस क्षेत्र से ठंडा महासागरीय प्रवाह भी चलता है, जिसने डीएनए के संरक्षण में मदद की होगी।

44 हाथी दांत के डीएनए के अध्ययन में पाया गया कि ये हाथी दांत घास के मैदानों की प्रजाति (लोक्सोडोंटा अफ्रीकाना) की बजाय अफ्रीकी जंगली हाथियों (लोक्सोडोंटा साइक्लोटिस) के थे।

पहले से ज्ञात आबादियों के डीएनए से तुलना करके टीम ने निर्धारित किया कि बोम जीसस से प्राप्त हाथी दांत पश्चिम अफ्रीका में कम से कम 17 अलग-अलग आनुवंशिक समूहों के हाथियों के थे, जिनमें से केवल चार वर्तमान में मौजूद हैं। हाथी दांत में पाए गए कार्बन और नाइट्रोजन के समस्थानिकों ने इन हाथियों के आवास के बारे में अधिक जानकारी उपलब्ध कराई है।

भोजन और पानी के माध्यम से कार्बन और नाइट्रोजन ताउम्र हाथी दांत में जमा होते रहते हैं। कार्बन और नाइट्रोजन के विभिन्न समस्थानिकों की सापेक्ष मात्रा इस बात का संकेत है कि किसी हाथी ने अपना अधिकांश समय किसी वर्षा-वन में बिताया है या किसी शुष्क घास के मैदान में। बोम जीसस के हाथी दांत के समस्थानिकों से पता चला कि ये हाथी जंगलों और घास के मैदानों के मिश्रित प्रकार के आवास में रहते थे।

परंतु वैज्ञानिक शोध परिणाम से बहुत हैरान थे क्योंकि उनका अनुमान था कि वनों में रहने वाले हाथी 20वीं सदी में पहली बार जंगल से घास के मैदानों में आए थे। लेकिन परिणाम बता रहे थे कि अफ्रीकी हाथी तो दोनों आवासों में विचरते रहे हैं। आवास की जानकारी संरक्षण की दृष्टि से महत्वपूर्ण है।

बोम जीसस से प्राप्त हाथी दांत 16वीं शताब्दी में अफ्रीकी महाद्वीप से हाथी दांत के व्यापार की तस्वीर चित्रित करते हैं। लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि पुर्तगाली जहाज़ पर लादे गए ये हाथी दांत विभिन्न बंदरगाहों से आए थे या किसी एक ही जगह से। भविष्य में ऐतिहासिक बंदरगाह वाले स्थानों से प्राप्त प्रमाण हाथी आवास की जानकारी के रहस्य को सुलझाने में मदद कर सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.archaeology.wiki/wp-content/uploads/2020/12/elephant.jpg

सटीक और भरोसेमंद खबर के लिए इनाम तो बनता है

र्ष 2020 में, सोशल मीडिया के माध्यम से फैलने वाली भ्रामक खबरों, लाइक्स वगैरह में 17 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। परिमाम हैं ध्रुवीकरण, हिंसक उग्रवाद और नस्लवाद में वृद्धि। यहां तक कि जलवायु परिवर्तन से सम्बंधित कार्रवाइयों और टीकाकरण अभियानों का भी काफी विरोध हुआ है। इस विषय में सोशल मीडिया कंपनियों ने झूठी खबरों को हटाने और भ्रामक खबरों को चिंहित करने के कुछ प्रयास किए हैं। जहां फेसबुक और इंस्टाग्राम अपने उपयोगकर्ताओं को आपत्तिजनक पोस्ट की शिकायत करने का मौका देते हैं, वहीं ट्विटर किसी भी पोस्ट को री-ट्वीट करने से पहले अच्छी तरह पढ़ने की सलाह देता है।

सोशल मीडिया पर झूठी खबरों से निपटने के लिए कंपनियों द्वारा अपने एल्गोरिदम में सुधार लाने को लेकर चर्चाएं चल रही हैं लेकिन यह बात चर्चा से नदारद है कि इस बात पर कैसे असर डाला जाए कि लोग क्या साझा करना चाहते हैं। देखा जाए तो विश्वसनीयता के लिए कोई स्पष्ट और त्वरित प्रोत्साहन नहीं है। जबकि तंत्रिका वैज्ञानिकों द्वारा किए गए अध्ययनों के अनुसार यदि किसी व्यक्ति को उसके पोस्ट पर ‘लाइक’ मिलता है तो उसका अहंकार तुष्ट होता है और इससे उसके फॉलोअर्स की संख्या बढ़ती है जिसके आधार पर उसे कुछ अन्य उपलब्धियां भी मिल सकती हैं।

आम तौर पर सोशल मीडिया में यदि किसी पोस्ट की पहुंच अधिक होती है तो लोग वैसे ही पोस्ट करना पसंद करते हैं। पेंच यही है कि झूठी खबरें विश्वसनीय खबरों की तुलना में 6-20 गुना अधिक तेज़ी से फैलती हैं। इसका संभावित कारण उस सामग्री की ओर लोगों का आकर्षण है जो उनकी वर्तमान धारणाओं की पुष्टि करती है। और तो और, यह भी देखा गया है कि लोग उन जानकारियों को भी साझा करने से नहीं हिचकते जिन पर वे खुद भरोसा नहीं करते हैं। एक प्रयोग के दौरान जब लोगों को उनके राजनीतिक जुड़ाव के अनुरूप, लेकिन झूठी, खबर दिखाई गर्इं तो 40 प्रतिशत लोगों ने इसे साझा करने योग्य समझा जबकि उनमें से मात्र 20 प्रतिशत लोगों को लगता था कि खबर सच है।

देखा जाए तो सोशल मीडिया पर आमजन को अधिक आकर्षित करने वाली जानकारियों को वरीयता मिलती है, भले ही वह कम गुणवत्ता वाली ही क्यों न हो। लेकिन कंपनियों के पास अभी तक विश्वसनीय और सटीक जानकारियों को मान्यता देने के लिए कुछ नहीं है। कोई ऐसी प्रणाली अपनाने की ज़रूरत है जिसमें विश्वसनीयता और स्पष्टता को पुरस्कृत किया जाए। यह प्रणाली मनुष्य की प्राकृतिक प्रवृत्ति के साथ सटीक बैठती है जिसमें वे उन कार्यों को महत्ता देते हैं जिससे कोई इनाम या मान्यता मिले। इससे अन्य लोग भी विश्वसनीय सामग्री की ओर बढ़ेंगे।

पारितोषिक प्रणाली कई देशों में अन्य संदर्भों में काफी प्रभावी रही है। स्वीडन में गति सीमा का पालन करने वाले ड्राइवरों को पुरस्कृत किया गया जिससे औसत गति में 22 प्रतिशत की कमी आई। दक्षिण अफ्रीका में एक स्वास्थ्य-बीमा कंपनी ने अपने ग्राहकों को सुपरमार्केट से फल या सब्ज़ियां खरीदने, जिम में कसरत करने या मेडिकल स्क्रीनिंग में भाग लेने पर पॉइंट्स देना शुरू किए। वे इन पॉइंट्स को कुछ सामान खरीदने के लिए उपयोग कर सकते हैं और इस उपलब्धि को वे एक तमगे के तौर पर अपने साथियों और सहयोगियों से साझा भी कर सकते हैं। ऐसा करने से उनके व्यवहार में बदलाव आया और अस्पताल के चक्कर भी कम हुए।

सोशल मीडिया पर इस तरह की प्रणाली लागू करने में सबसे बड़ी चुनौती जानकारियों की विश्वसनीयता के आकलन करने की है। इसमें एक तरीका ‘ट्रस्ट’ बटन शामिल करना हो सकता है जिसमें यह दर्शाया जा सके कि किसी पोस्ट को कितने लोगों ने विश्वसनीय माना है। इसमें यह जोखिम तो है कि लोग इसके साथ खिलवाड़ करने लगेंगे लेकिन इससे लोगों को अपनी बात कहने का एक और रास्ता मिल जाएगा और यह सोशल मीडिया कंपनियों के व्यापार मॉडल के अनुरूप भी होगा। इसमें लोग विश्वसनीयता के महत्व पर अधिक ज़ोर देंगे। उपरोक्त अध्ययन में एक यह बात सामने आई कि जब लोगों से किसी एक वक्तव्य की सत्यता विचार करने का आग्रह किया गया तो झूठी खबरों को साझा करने की संभावना भी कम हो गई।

उपयोगकर्ताओं द्वारा मूल्यांकन के काफी सकारात्मक उदाहरण मौजूद हैं। ऑनलाइन खरीददारी वेबसाइट अमेज़न पर ऐसे समीक्षकों को अमेज़न वाइन प्रोग्राम के तरह इनाम दिया जाता है जिनकी समीक्षा से लोगों को किसी उत्पाद की पहचान करने में सहायता मिली हो। इसमें एक अच्छी बात यह भी सामने आई कि अधिक संख्या में लोगों द्वारा की गई समीक्षा पेशेवर लोगों द्वारा की गई समीक्षा से मेल खाती है।

विकिपीडिया भी एक ऐसा उदाहरण है जिसमें लोगों द्वारा किसी जानकारी की विश्वसनीयता का आकलन किया जा सकता है। वर्तमान में सोशल मीडिया कंपनियों ने फैक्ट-चेकर की टीम तैयार की है जो भ्रामक खबरों पर ‘ट्रस्ट’ बटन को हटा सकते हैं और विश्वसनीय खबरों पर ‘गोल्डस्टार’ दे सकते हैं। इसमें विश्वसनीयता में निरंतर उच्च रैंक प्राप्त करने वालों को ‘विश्वसनीय उपभोक्ता’ के बैज से सम्मानित किया जा सकता है।

वैसे, कुछ लोगों का मानना है कि सटीक जानकारी को बढ़ावा देने के लिए पारितोषिक अधिकतम लाइक्स एल्गोरिदम और भ्रामक जानकारी को बढ़ावा देने की मानवीय प्रवृत्ति के खिलाफ पर्याप्त नहीं है। लेकिन इस प्रणाली को आज़माने में कोई समस्या नहीं होनी चाहिए। और सोशल मीडिया पर इस तरह का एक स्वस्थ माहौल बनाने के लिए नेटवर्क वैज्ञानिकों, कंप्यूटर वैज्ञानिकों, मनोचिकित्सकों और अर्थशास्त्रियों के साथ अन्य लोगों के सहयोग की भी आवश्यकता होगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://s.abcnews.com/images/Technology/SocialMediaMisinformation_010620_v01_BV_hpMain_4x3_992.jpg

गुबरैला बताएगा स्थानीय निवासियों की पहचान

दि जीवविज्ञानी यह जानना चाहते हैं कि किसी स्थान के निवासी जीव कौन-से हैं, तो इसके लिए जल्द ही शमल गुबरैले इसमें सहायक हो सकते हैं। इन गुबरैलों की विशेषता है कि ये अपना पोषण काफी हद तक अन्य जंतुओं की विष्ठा से प्राप्त करते हैं। हाल ही में हुए अध्ययन में इन गुबरैलों की आंत में स्तनधारी जीवों के डीएनए पाए गए हैं, जो जैव-विविधता को सूचीबद्ध करने में मदद कर सकते हैं।

पर्यावरणीय डीएनए (eDNA) से किसी क्षेत्र की जैव-विविधता पता करने का विचार कुछ ही दशक पुराना है। इसमें वैज्ञानिक धूल, मिट्टी और विशेषकर पानी में जीवों के शरीर की त्वचा के अवशेष, म्यूकस और शरीर के अन्य तरल पदार्थ खोजते हैं। फिर इन नमूनों में वे पहचानने योग्य डीएनए ढूंढते हैं ताकि पता किया जा सके कि उस क्षेत्र में कौन-से जंतु रहते हैं।

समुद्री वैज्ञानिकों ने eDNA तकनीक का अधिक उपयोग किया है क्योंकि डीएनए पानी में कई दिनों तक बना रह सकता है और धूल या मिट्टी की तुलना में पानी से डीएनए आसानी से और अधिक मात्रा में निकाला जा सकता है। लेकिन भूमि पर eDNA तकनीक (या डीएनए बारकोडिंग) का उपयोग कम ही हो पाता है। वैसे कुछ वैज्ञानिक जोंक और मच्छरों की आंतों के रक्त से उनके मेज़बान जीवों का डीएनए पता करने की कोशिश करते हैं। दिक्कत यह है कि जोंक का इलाका बहुत सीमित होता है और मच्छरों को पकड़ना अक्सर मुश्किल होता है।

लंदन की क्वीन मैरी युनिवर्सिटी की आणविक जीव विज्ञानी रोज़ी ड्रिंकवाटर ने डीएनए-समृद्ध शमल गुबरैलों के साथ परीक्षण करने का विचार बनाया। स्कारेबैडी कुल के ये अकशेरुकी जीव अन्य जानवरों के मल पर निर्भर होते हैं। शमल गुबरैले अंटार्कटिका को छोड़कर हर महाद्वीप पर पाए जाते हैं और ये रेगिस्तान से लेकर जंगलों जैसी हर जगह पर रह सकते हैं।

ड्रिंरकवाटर और उनके साथियों ने बोर्नियो के जंगल से कैथार्सियस जीनस के अंगूठे की साइज़ के 24 शमल गुबरैलों को पकड़ा, और उनकी आंत में मिले डीएनए का अनुक्रमण किया। फिर शोधकर्ताओं ने इसकी तुलना बोर्नियो के जंगली जानवरों के जीनोम से की। बायोआर्काइव प्रीप्रिंट में शोधकर्ताओं ने बताया है कि आंत से प्राप्त डीएनए दढ़ियल सूअर, सांभर, मंटजेक (एक किस्म का हिरन), छोटा कस्तूरी मृग, साही और उस इलाके में पाए जाने वाले अन्य सभी जानवरों के डीएनए से मेल खाते हैं। उन्होंने एक दुर्लभ धारीदार उदबिलाव के डीएनए की भी पहचान की लेकिन इसका अनुक्रमण इतना स्पष्ट नहीं था कि इसकी पुष्टि की जा सके। इसके अलावा उन्हें आंत में प्रचुर मात्रा में मानव डीएनए भी मिले जो ‘चारा’ खिलाने वाले लोगों के नहीं थे; संभवत: ये डीएनए निकट स्थित ताड़ के बागानों में काम करने वाले लोगों के थे। इन परिणामों से लगता है कि शमल गुबरैलों की मदद से eDNA तकनीक का पानी के अलावा अन्यत्र भी इस्तेमाल किया जा सकेगा।

वैसे अभी इस अध्ययन की समकक्ष-समीक्षा की जानी बाकी है, और विभिन्न स्थानों और गुबरैलों के लिए इस तरीके की पुष्टि होना भी बाकी है। फिर भी शमल गुबरैले eDNA तकनीक में मददगार साबित हो सकते हैं।

अन्य शोधकर्ताओं के मुताबिक यह तरीका अच्छा तो है, लेकिन इसके लिए काफी गुबरैलों की अनावश्यक बलि चढ़ानी पड़ेगी। बेहतर होगा कि इसकी बजाय मिट्टी या तलछट आधारित गैर-हिंसक eDNA तकनीकें विकसित की जाएं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/beetle_1280p_0.jpg?itok=B0FRjrqX

भारतीय बाघों में अंत:जनन के खतरे

ह सही है कि दुनिया भर में बिल्ली कुल की विभिन्न उप-प्रजातियों की अपेक्षा भारतीय बाघ में सबसे अधिक आनुवंशिक विविधता दिखती है, लेकिन नेशनल सेंटर फॉर बायोलॉजिकल साइंसेज़ (एनसीबीएस), बैंगलोर द्वारा हाल ही में किया गया एक अध्ययन बताता है कि इनके सीमित और घटते आवास के कारण इनकी आबादी छोटे-छोटे हिस्सों में बंटती जा रही है। इस वजह से इनमें अंत:जनन की स्थिति बन सकती है और इनकी विविधता में कमी आ सकती है।

सेंटर की आणविक पारिस्थितिकी विज्ञानी डॉ. उमा रामकृष्णन बताती हैं कि जैसे-जैसे मानव आबादी फैली, पृथ्वी पर उसके हस्ताक्षर भी बढ़े। इंसानी गतिविधियों ने बाघ और उनके आवास को प्रभावित किया है, और उनके आवागमन को बाधित किया है। इसके चलते बाघ अपने संरक्षित क्षेत्र में ही सिमट गए हैं और वे केवल अपने ही क्षेत्र के अन्य बाघों के साथ प्रजनन कर पाते हैं, जिससे एक समय ऐसा आएगा जब बाघ अपने ही रिश्तेदारों के साथ प्रजनन कर रहे होंगे।

हम नहीं जानते कि यह अंत:जनन उनके स्वास्थ्य और उनके जीवित रहने की क्षमता को किस तरह प्रभावित करेगा लेकिन यह तो स्पष्ट है कि आबादी में आनुवंशिक विविधता जितनी अधिक होगी भविष्य में जीवित रहने की संभावना भी उतनी बढ़ेगी। अध्ययन के अनुसार बाघ का छोटे-छोटे इलाकों में बंटा होना उनकी आनुवंशिक विविधता में कमी लाकर भविष्य में उन्हें विलुप्ति की कगार पर पहुंचा सकता है।

हालांकि वर्तमान में बाघ के संरक्षण पर बहुत अधिक ध्यान दिया जा रहा है लेकिन फिर भी हमें उनके वैकासिक इतिहास और जीनोमिक विविधता के बारे में बहुत कम जानकारी है। विश्व के 70 प्रतिशत बाघ भारत में पाए जाते हैं। इस दृष्टि से भारतीय बाघ की आनुवंशिक विविधता को समझना दुनिया भर में बाघ संरक्षण के लिए महत्वपूर्ण है।

एनसीबीएस के इस तीन-वर्षीय अध्ययन में शोधकर्ताओं ने टाइगर की जीनोमिक विविधता और इस विविधता को पैदा करने वाली प्रक्रिया के बारे में समझ प्रस्तुत की है। इसमें उन्होंने 65 बाघों के पूरे जीनोम का अनुक्रमण किया, और आनुवंशिक विविधता में विभाजन का पता लगाया, अंत:जनन के संभावित प्रभाव देखे, जनसांख्यिकीय इतिहास पता किया और स्थानीय अनुकूलन के संभावित चिंहों की जांच की। अध्ययन में पाया गया कि अब कई बाघ आबादियों में विविधता में कमी आई है। और बाघ की अधिक आबादी किन्हीं-किन्हीं जगहों पर सीमित हो गई है जो उनमें अंत:जनन की संभावना बढ़ाती है।

शोधकर्ताओं का कहना है कि इस स्थिति से निपटने के लिए हमें बाघ के विभिन्न आवासों के बीच सुचारु संपर्क गलियारे बनाने होंगे ताकि उनका आवागमन क्षेत्र बढ़ सके। इसके अलावा उनके लिए उचित संरक्षित आवास बनाने चाहिए – जैसे उनके आवास क्षेत्रों में घनी आबादी वाली बस्तियां या अत्यधिक मानव गतिविधियां ना हों।

उत्तर-पूर्व भारत में पाए जाने वाले बाघ अन्यत्र पाए जाने वाले बाघों से सर्वथा भिन्न हैं। अत: हमें यह भी समझने की ज़रूरत है कि क्यों कुछ बंगाल बाघों में अंत:जनन की स्थिति बनी है। पिछले 20,000 वर्षों में बाघ की उप-प्रजातियों के बीच जो अलगाव पैदा हुए हैं वे बढ़ते मानव प्रभावों और एशिया महाद्वीप में हो रहे जलवायु सम्बंधी परिवर्तनों के कारण हुए हैं।

इसके अलावा शोधकर्ताओं का सुझाव है कि बाघ के जनसंख्या प्रबंधन और संरक्षण नीतियों में आनुवंशिक विविधता की जानकारी भी शामिल होनी चाहिए। उम्मीद है कि इससे भारतीय बाघ के संरक्षण मदद मिलेगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://images.hindustantimes.com/img/2021/02/23/1600×900/bandhavgarh-wildlife-officials-according-reserve-bandhavgarh-photographs_895a4e34-4b02-11eb-8fd5-05c83db08e58_1614065569158.jpg

पानी की एक बूंद में सूक्ष्मजीवों की सांठ-गांठ

हाल ही में सूक्ष्मजीव विशेषज्ञों को जल-शोधन के एक तालाब के पानी में सूक्ष्मजीवों की अनूठी सांठ-गांठ दिखी है। ज़ूफैगस इंसिडियन नामक एक सूक्ष्म कवक है जो बैक्टीरिया के साथ मिलकर अपने भोजन के इंतज़ाम के लिए जाल बिछाती है। इस जाल में उनके शिकार बनते हैं गंदे पानी में आम तौर पर पनपने वाले छोटे जलीय जीव रोटिफर्स।

जल शोधन संयंत्र के पानी का प्रकाशीय और इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी से अवलोकन कर और बैक्टीरिया, डीएनए और अन्य जीवों को चिंहित कर शोधकर्ताओं ने देखा कि किस तरह यह कवक रोटिफर्स को पकड़ने का करतब करती है। उन्होंने देखा कि कवक सबसे पहले मायसेलिया नामक पतले धागों से एक जाल-सा बुनती है। इस जाल से छोटी, लॉलीपॉप के आकार जैसी कई शाखाएं निकलती हैं, जिनमें रोटिफर्स फंस जाते हैं। इसके बाद बैक्टीरिया अपना काम शुरू करते हैं। बैक्टीरिया इन धागों के ऊपर और अंदर इकट्ठा होने लगते हैं; सबसे अधिक संख्या में वे लॉलीपॉपनुमा संरचना की सतह पर एकत्रित होते हैं। फिर कुछ वायरस और उनके डीएनए मिलकर बैक्टीरिया की इस परत पर एक झिल्ली चढ़ा देते हैं।

इंटरनेशनल जर्नल ऑफ मालीक्यूलर साइंसेज़ में शोधकर्ताओं ने बताया है कि इस तरह रोटिफर के लिए बिछाया गया यह चिपचिपा जाल रोटिफर के एक बार अंदर आने के बाद उसे बाहर जाने नहीं निकलने देता। जब रोटिफर इस जाल में फंसने लगते हैं तो जाल के धागे रोटिफर को चारों ओर से घेर लेते हैं जिससे जाल पर पनप रहे बैक्टीरिया इन तक पहुंच जाते हैं, और रोटिफर को पचाना शुरू कर देते हैं। इस प्रक्रिया में बैक्टीरिया द्वारा स्रावित वसा बूंदों से कवक अपना पोषण प्राप्त करती हैं। रोटिफर से पूरा पोषण चूसने के बाद मायसेलिया समाप्त हो जाता है और रोटिफर का केवल खोखला शरीर और उसमें बैक्टीरिया ही बचते हैं। फिर अन्य सूक्ष्मजीव इस बचे-खुचे अवशेष को भी खा डालते हैं।

कवक द्वारा बिछाए गए एक ऐसे ही जाल पर शोधकर्ताओं को लगभग 50 मृत रोटिफर फंसे दिखे। नतीजे एक बार फिर दर्शाते हैं कि सूक्ष्मजीव अपने सूक्ष्म आकार से कहीं अधिक जटिल हैं। गंदे पानी में देखी गई इस साझेदारी पर शोधकर्ताओं का कहना है कि सूक्ष्मजीवों की इस तरह की सांठ-गांठ कई अन्य आवासों में भी बहुत आम होगी, लेकिन अपने सूक्ष्म आकार के कारण वे अब तक नज़र में नहीं आर्इं हैं। बहरहाल इस पर आगे अध्ययन की ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/fungibacteria_1280p.jpg?itok=1Zq1HPlq

गर्माती दुनिया में अलग-अलग जंतुओं पर प्रभाव

न्नीसवीं सदी की शुरुआत में, जोसेफ ग्रिनेल और उनके दल ने कैलिफोर्निया के जंगलों, पहाड़ों और रेगिस्तानों का और वहां के जंतुओं का बारीकी से सर्वेक्षण किया था। कैलिफोर्निया तट से उन्होंने पॉकेट चूहों को पकड़ा और गिद्धों की उड़ान पर नज़र रखी; मोजेव रेगिस्तान में अमेरिकी छोटे बाज़ (खेरमुतिया) को कीटों पर झपट्टा मारते देखा और चट्टानों के बीच छिपे हुए कैक्टस चूहों को पकड़ा। इसके अलावा भी उन्होंने वहां से कई नमूने-जानकारी एकत्रित कीं, विस्तृत नोट्स बनाए, तस्वीरें खीचीं और इन जगहों का नक्शा तैयार किया। इस तरह उनके द्वारा एकत्रित “ग्रिनेल-युग” का फील्ड डैटा काफी विस्तृत है।

और अब, आधुनिक सर्वेक्षणों के डैटा की तुलना ग्रिनेल-युग के डैटा से करके पारिस्थितिकीविदों ने बताया है कि जलवायु परिवर्तन सभी जीवों को समान रूप से प्रभावित नहीं कर रहा है। वैज्ञानिक मानते आए हैं कि तापमान में वृद्धि पक्षियों और स्तनधारियों को एक जैसा प्रभावित करती है क्योंकि दोनों को ही शरीर का तापमान बनाए रखना होता है। लेकिन लगता है कि ऐसा नहीं है।

पिछली एक शताब्दी में मोजेव के तापमान में लगभग दो डिग्री सेल्सियस की बढ़ोतरी हुई है जिसके कारण वहां के पक्षियों की कुल संख्या और उनकी प्रजातियों की संख्या में नाटकीय कमी आई है। लेकिन इन्हीं हालात में छोटे स्तनधारी जीव (जैसे पॉकेट चूहे) अपने आपको बनाए रखने में सफल रहे हैं। शोधकर्ताओं ने साइंस पत्रिका में बताया है कि ये चूहे निशाचर जीवन शैली और गर्मी से बचाव के लिए सुरंगों में रहने की आदत के कारण मुश्किल परिस्थितियों में भी जीवित रह पाए हैं।

ग्रिनेल ने जिन जीवों का अध्ययन किया था, वे अब तुलनात्मक रूप से गर्म और शुष्क जलवायु में रहने को मजबूर हैं। पूर्व में प्रोसिडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में प्रकाशित इन स्थलों के पुनर्सर्वेक्षण में पता चला था कि प्रत्येक स्थान पर रेगिस्तानी पक्षियों (जैसे अमरीकी छोटे बाज़ या पहाड़ी बटेर) की लगभग 40 प्रतिशत प्रजातियां विलुप्त हो गर्इं हैं। और अधिकतर स्थानों पर शेष प्रजातियों की सदस्य संख्या भी बहुत कम रह गई है। लेकिन आयोवा स्टेट युनिवर्सिटी के फिज़ियोलॉजिकल इकॉलॉजिस्ट एरिक रिडेल का अध्ययन चूहों, माइस, चिपमंक्स और अन्य छोटे स्तनधारियों के संदर्भ में थोड़ी आशा जगाता है।

उन्होंने अपने अध्ययन में पाया है कि ग्रिनेल के सर्वेक्षण के बाद से अब स्तनधारियों की तीन प्रजातियों के जीवों संख्या में कमी आई है, 27 प्रजातियां स्थिर है, और चार प्रजातियों की संख्या में वृद्धि हुई है। यह जानने के लिए कि बदलती जलवायु में पक्षी इतने अधिक असुरक्षित क्यों हैं, रिडेल ने रेगिस्तानी पक्षियों की 50 प्रजातियों और 24 विभिन्न छोटे स्तनधारी जीवों के संग्रहालय में रखे नमूनों के फर और पिच्छों में ऊष्मा स्थानांतरण और प्रकाश अवशोषण को मापा। फिर, इस तरह प्राप्त डैटा और सम्बंधित प्रजातियों के व्यवहार और आवास का डैटा उन्होंने एक कंप्यूटर प्रोग्राम में डाला, जो यह बताता था कि कोई जानवर कितनी गर्मी सहन कर सकता है, और विभिन्न तापमान वाली परिस्थितियों में कोई जानवर खुद को कितना ठंडा रख सकता है। जैसे पक्षी रक्त नलिकाओं को फैला कर, पैरों या मुंह के ज़रिए पानी को वाष्पित कर अपने शरीर का तापमान नियंत्रित रखते हैं। पक्षियों में खुद को ठंडा बनाए रखने की लागत स्तनधारियों की तुलना में तीन गुना अधिक होती है। ऐसा इसलिए है क्योंकि अधिकांश छोटे स्तनधारी दिन के सबसे गर्म समय में ज़मीन के नीचे सुरंगों या बिलों में वक्त बिताते हैं। इस तरह के व्यवहार से वुडरैट जैसे स्तनधारी जीव को भी जलवायु परिवर्तन का सामना करने में मदद मिली है, जबकि वुडरैट रेगिस्तान में जीने के लिए अनुकूलित भी नहीं हैं। केवल वे स्तनधारी जो बहुत गहरे की बजाय ज़मीन में थोड़ा ऊपर ही अपना बिल बनाते हैं, वे ही बढ़ते तापमान का सामना करने में असफल हैं, जैसे कैक्टस माउस।

इसके विपरीत कई पक्षी, जैसे अमरीकी छोटा बाज़ और प्रैयरी बाज़ पर बढ़ते तापमान का बुरा असर है। यह मॉडल स्पष्ट करता है कि क्यों पक्षी और स्तनधारी जलवायु परिवर्तन पर अलग-अलग प्रतिक्रिया देते हैं।

परिणाम सुझाते हैं कि जलवायु परिवर्तन का रेगिस्तानी पारिस्थितिकी तंत्र पर भी उसी तरह का खतरा है जैसा कि तेज़ी से गर्म होते आर्कटिक के पारिस्थितिकी तंत्र पर है।

भविष्य में स्तनधारियों को भी खतरा हो सकता है। मिट्टी की पतली परत केवल दो प्रतिशत रेगिस्तान में है, जिसके अधिक शुष्क होने की संभावना है। इसलिए अब विविध सूक्ष्म आवास वाले क्षेत्रों को संरक्षित करना चाहिए। ऐसे मॉडल संरक्षण की योजना बनाने में मदद कर सकते हैं। जो प्रजातियां जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से लड़ने में सक्षम हैं उनके संरक्षण की बजाय विलुप्त होती प्रजातियों को संरक्षित कर धन और समय दोनों की बचत होगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/ca_0205NID_CactusMouse_online.jpg?itok=zZ82OF22

जीवन ज़मीन पर कैसे आया

गभग 700 साल पहले, एक डच प्रकृतिविद जैकब वान मेरलैन्ट ने एक ऐसी मछली की कल्पना की थी जिसके हाथ रहे होंगे और जो पानी से निकलकर ज़मीन पर जीवन की शुरुआत करने को तैयार होगी। और लगता है उनकी कल्पना में कुछ वास्तविकता थी।

शोधकर्ताओं ने उंगली के बराबर की ज़ेब्राफिश (Danio rerio) में एक ऐसा उत्परिवर्तन पाया है जिससे ज़ेब्राफिश के सामने के फिन (मीनपक्ष) में अतिरिक्त हड्डियां पैदा होने लगती हैं। यही उत्परिवर्तन मनुष्यों में उन जीन्स को सक्रिय करता है जिनसे हमारी भुजाएं बनती हैं। इससे पता चलता है कि शुरुआती जीवों में भी भूमि पर छलांग लगाने की संभावनाएं मौजूद थीं।

वैज्ञानिक लंबे समय से यह जानने की कोशिश करते रहे हैं कि जीवन जल से निकलकर ज़मीन पर कैसे पहुंचा था। मीनपक्ष हाथों में कैसे रूपांतरित हो गए? पुराजीव विज्ञानी तो इन सवालों का जवाब जीवाश्मों में खोजते रहे हैं। लेकिन हारवर्ड मेडिकल स्कूल के एम. ब्रेंट हॉकिन्स ने ज़ेब्राफिश के विकास का अध्ययन करते हुए कुछ सुराग देखे हैं।

दरअसल, हॉकिन्स बोस्टन चिल्ड्रन्स अस्पताल की एक प्रयोगशाला में ज़ेब्राफिश के डीएनए में उत्परिवर्तन करके यह पता करने की कोशिश कर रहे थे कि कौन-से जीन कंकाल में गड़बड़ियों के लिए ज़िम्मेदार हैं। आम तौर पर ये उत्परिवर्तन हड्डियों की विकृति या हड्डियां न बनने का कारण बनते हैं। विचार यह था कि मनुष्यों में भी इसी तरह की गड़बड़ियों के जीन्स खोजे जाएं। इस प्रयोग के दौरान एक ज़ेब्राफिश के सामने (वक्ष) वाले हिस्से में मीनपक्ष के साथ अतिरिक्त हड्डी देखकर वे हैरान रह गए।

यह जानने के लिए कि इस उत्परिवर्तन के लिए कौन-सा जीन ज़िम्मेदार है, उन्होंने जीन संपादन विधि क्रिस्पर की मदद ली। शोधकर्ताओं ने पाया कि फिन में अतिरिक्त हड्डी के लिए दो अलग-अलग गुणसूत्रों पर उत्परिवर्तित दो जीन vav2 और waslb ज़िम्मेदार हैं। सेल पत्रिका में शोधकर्ता बताते हैं कि ये जीन सिर्फ हड्डियां नहीं बनाते बल्कि हड्डियों के काम करने के लिए ज़रूरी रक्त वाहिकाएं, जोड़ और मांसपेशियों का भी निर्माण करते हैं। ज़ेब्राफिश में हड्डियों के निर्माण की यह प्रक्रिया हमारे बांह की एक लंबी हड्डी के निर्माण की प्रक्रिया जैसी है।

ये दोनों जीन्स Hox11 नामक प्रोटीन की गतिविधि को नियंत्रित करने वाले प्रोटीन को कोड करते हैं। स्तनधारियों में यह प्रोटीन भुजाओं की दो हड्डियों के निर्माण को दिशा देता है। मछलियों में आम तौर पर Hox11 प्रोटीन अन्य प्रोटीन द्वारा निष्क्रिय रखा जाता है, लेकिन यदि इन प्रोटीन्स के जीन में उत्परिवर्तन हो जाए तो फिर Hox11 उनमें भी इन्हीं भुजाओं का निर्माण शुरू कर देता है। लगभग 40 करोड़ वर्ष पूर्व मछलियों का विकास दो भिन्न दिशाओं में होना शुरू हुआ था – एक ओर मछलियों से भूमि पर रहने वाले जीव विकसित हुए, तथा दूसरी ओर जिनसे आज की ज़ेब्राफिश व अन्य जीव विकसित हुए। इससे लगता है कि यह जीन वर्तमान की लगभग सभी अस्थियुक्त मछलियों के पूर्वजों में भी मौजूद था। और जब इस जीन को सक्रिय होने का मौका मिला तो इसने पानी से ज़मीन पर जीवन संभव बनाया। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/fish_1280p_0.jpg?itok=QstmkrF8

कुत्तों को पालतू किसने, कब बनाया?

पिछले हिमयुग के अंत में मनुष्यों के समूह उत्तर-पूर्वी साइबेरिया के विशाल घास के मैदानों में नुकीले पत्थर-जड़े भालों के साथ बाइसन और मैमथ का शिकार किया करते थे। भेड़िये जैसा एक जीव भी उनके साथ दौड़ा करता था। ये भेड़िए अपने पूर्वजों की तुलना में अधिक सौम्य थे तथा अपने मनुष्य-साथियों की मदद करने को तैयार रहते थे – शिकार करने में भी और शिकार को वापस अपने शिविर तक लाने में भी। ये जीव ही विश्व के सबसे पहले कुत्ते थे जिनके वंशज युरेशिया से लेकर अमेरिका और दुनिया में सभी ओर फैलते गए।  

इस परिदृश्य ने कुत्तों और मनुष्यों, दोनों के डीएनए डैटा के एकसाथ अध्ययन का रास्ता सुझाया। दी प्रोसीडिंग्स ऑफ नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में प्रकाशित विश्लेषण का उद्देश्य कुत्तों के पालतू बनाए जाने के स्थान और समय की लंबी बहस का समापन करना है। इससे यह भी समझने में मदद मिल सकती है कि कैसे सतर्क भेड़िए मनुष्य के वफादार साथी में बदल गए।

अध्ययन के महत्व को देखते हुए वैज्ञानिकों ने विभिन्न सुझाव दिए हैं। युनिवर्सिटी ऑफ केंसास की मानव आनुवंशिकी विज्ञानी जेनिफर रफ के अनुसार निष्कर्षों की पुष्टि करने के लिए प्राचीन कुत्तों और लोगों के अधिक से अधिक जीनोम की आवश्यकता होगी।

इस अध्ययन की शुरुआत इस बात से हुई थी कि कुछ आनुवंशिक और पुरातात्विक साक्ष्य बताते हैं कि उत्तरी अमेरिका के प्राचीन कुत्तों की उत्पत्ति 10,000 वर्ष पुरानी है। तो इनकी उत्पत्ति कहां व कब हुई थी। इस संदर्भ में सदर्न मेथोडिस्ट युनिवर्सिटी के पुरातत्व विज्ञानी डेविड मेल्टज़र ने सुझाव दिया कि कुत्तों और मनुष्यों के डीएनए की तुलना करना उपयोगी होगा। इसके लिए यह पता करना भी ज़रूरी है कि कैसे और कब साइबेरिया में रहने वाले मनुष्य विभिन्न समूहों में बंटने के बाद उत्तरी अमेरिका पहुंच गए। इसी तरह से यदि कुत्तों के डीएनए में समान पैटर्न मिलते हैं तो कुत्तों के पालतूकरण की शुरुआत का पता लगाया जा सकता है।         

अपने इन अनुमानों की बारीकी से जांच करने के लिए शोधकर्ताओं की टीम ने विश्व भर के 200 से अधिक कुत्तों के माइटोकॉन्ड्रियल जीनोम का विश्लेषण किया जिनमें से कुछ 10,000 साल पूर्व के थे। गौरतलब है कि माइटोकॉण्ड्रिया नामक कोशिकांग का अपना डीएनए होता है जो किसी जीव को सिर्फ उसकी मां से मिलता है।

अध्ययन से पता चला कि सभी प्राचीन अमरीकन कुत्तों में एक जेनेटिक चिंह पाया जाता है। इसे A2b नाम दिया गया। और ये कुत्ते लगभग 15,000 वर्ष पूर्व चार समूहों में उत्तरी अमेरिका के विभिन्न हिस्सों में फैल गए। टीम ने पाया कि कुत्तों के ये समूह और इनकी भौगोलिक स्थिति प्राचीन मूल अमरीकियों के समूहों से मेल खाती है। ये सभी लोग एक ऐसे समूह के वंशज हैं जिन्हें वैज्ञानिक पैतृक मूल अमरीकी कहते हैं। यह समूह लगभग 21,000 वर्ष पहले साइबेरिया का निवासी था। टीम का निष्कर्ष है कि मनुष्य 16,000 वर्ष पूर्व अमेरिका में प्रवेश करते समय कुत्तों को भी अपने साथ लाए होंगे। ऐसा अनुमान है कि प्राचीन अमेरिकी कुत्ते अंतत: गायब हो गए। जब युरोपवासी अमेरिका आए तब वहां के कुत्ते अमेरिका में फैल गए।

शोधकर्ताओं द्वारा आनुवंशिक अतीत का और गहराई से अध्ययन करने पर पता चलता है कि A2b कुत्ते 23,000 वर्ष पूर्व साइबेरिया में पाए जाने वाले कुत्तों के वंशज हैं। टीम का अनुमान है कि प्राचीन कुत्ते संभवत: उन मानव समूहों के साथ रहते थे जिन्हें प्राचीन उत्तर साइबेरियाई के रूप में जाना जाता है। 31,000 वर्ष पूर्व में पाया जाना वाला यह मानव समूह हज़ारों वर्षों से पूर्वोत्तर साइबेरिया के अपेक्षाकृत समशीतोष्ण इलाकों में रहता था। सख्त मौसम के कारण ये समूह बहुत अधिक पूरब या पश्चिम में नहीं जा पाए। वे यहां आज पाए जाने वाले कुत्तों के सीधे पूर्वज मटमैले भेड़िये के साथ रहा करते थे।

कुत्तों के पालतूकरण का आम सिद्धांत तो यह है कि मटमैले भेड़िये भोजन की तलाश में मानव शिविरों के अधिक से अधिक करीब आते गए। इनमें से कुछ दब्बू भेड़िये सैकड़ों से हज़ारों वर्षों में विकसित होते-होते पालतू कुत्ते बन गए। अलबत्ता, यह प्रक्रिया उस स्थिति की व्याख्या नहीं करती जब मनुष्य काफी दूर-दूर यात्रा करने लगे। ऐसे में उनको हमेशा भेड़ियों की नई आबादी का सामना करना होगा। यदि टीम के निष्कर्षों को सही माना जाए तो इन दोनों प्रजातियों ने साइबेरिया में काफी लंबा समय साथ-साथ बिताया है।    

इसके अलावा कुछ आनुवंशिक साक्ष्य यह सुझाव देते हैं कि प्राचीन उत्तर साइबेरिया के लोग अमेरिका प्रवास करने से पहले पैतृक मूल के अमरीकियों के संपर्क में आ चुके थे। ऐसा अनुमान है कि प्राचीन कुत्तों के प्रजनकों ने मूल अमरीकी लोगों के साथ इस जीव का लेन-देन किया होगा। यही कारण है उत्तरी अमेरिका और युरोप दोनों जगह कुत्ते 15,000 वर्ष पूर्व से ही पाए जाने लगे थे। पूर्व में वैज्ञानिकों का ऐसा मानना था कि कुत्तों को एक से अधिक बार पालतू बनाया गया था जबकि टीम के अनुसार सच तो यह है कि सभी कुत्ते 23,000 वर्ष पूर्व के साइबेरियाई कुत्तों के वंशज हैं।  

रॉयल इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी, स्टॉकहोम के आनुवंशिकीविद पीटर सवोलैनेन यह तर्क देते रहे हैं कि कुत्तों का पालतूकरण दक्षिण पूर्व एशिया में हुआ है। लिहाज़ा वे इस अध्ययन के निष्कर्षों को लेकर शंकित हैं। पीटर के अनुसार A2b चिंह, जिसके बारे में टीम ने दावा किया है कि वह विशिष्ट रूप से अमरीकी कुत्तों में पाया जाता है, वह विश्व में अन्य जगहों पर भी पाया गया है। यह तथ्य उपरोक्त आनुवंशिक विश्लेषण पर सवाल खड़े करता है। अत: सवोलैनेन के मुताबिक इस अध्ययन के आधार पर कुत्तों के पालतूकरण के बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता है।

लेकिन जेनिफर रफ के अनुसार प्राचीन लोगों के बारे में वे जितना जानती हैं उस आधार पर यह अध्ययन मूलत: सही मालूम होता है। लेकिन माइटोकॉन्ड्रियल डीएनए किसी जीव के जीनोम का छोटा-सा अंश होता है। रफ का कहना है कि बिना नाभिकीय डीएनए की मदद से पूरी जानकारी प्राप्त करना मुश्किल है। गौरतलब है कि मूल अमेरिकी पूर्वजों के लिए भी यही बात सही हो सकती है जिन्होंने कुत्तों को अमेरिका के कोने-कोने तक फैलाया है। कई वैज्ञानिक इस अध्ययन को एक अच्छी प्रगति के रूप में तो देखते हैं लेकिन मानते हैं कि निष्कर्ष अधूरे हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_large/public/Paleoindiandog_1280p.jpg?itok=xUwNR_uE

वॉम्बेट की घनाकार विष्ठा

नाकार चीज़ें हमें आकर्षक लग सकती हैं लेकिन प्रकृति में घनाकार चीज़ें बहुत कम पाई जाती हैं। लिहाज़ा यदि कोई जंतु घनाकार विष्ठा त्यागे तो सवाल उठना स्वाभाविक है कि आखिर उसकी विष्ठा घनाकार क्यों है। इसकी व्याख्या के लिए पहले एक टीम को इगनोबल पुरस्कार मिल चुका है लेकिन वह व्याख्या गलत पाई गई थी।

वॉम्बेट एक झबरीले शरीर वाला मार्सूपियल है जो घनाकार विष्ठा त्यागता है। मार्सूपियल उन स्तनधारी प्राणियों को कहते हैं जो अल्प-विकसित शिशु को जन्म देते हैं और उनका शेष विकास शरीर के बाहर एक थैली में होता है। कंगारू सबसे जाना-माना मार्सूपियल है। हाल ही में, जॉर्जिया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी के बायोमेकेनिक्स शोधकर्ता डेविड हू ने स्पष्ट किया है कि वॉम्बेट की घनाकार विष्ठा के लिए उसका गुदा द्वार नहीं बल्कि आंत की रचना ज़िम्मेदार होती है। और संभवत: 10 मीटर लंबी आंत का अंतिम 17 प्रतिशत हिस्सा ही विष्ठा को घनाकार बनाने में भूमिका निभाता है।

वॉम्बेट (वोम्बेटस अरसीनस), ऑस्ट्रेलिया के घास के मैदानों और युकेलिप्टस के जंगलों में रहते हैं। ये रात में चरते हैं और दिन का समय भूमिगत सुरंगों में बिताते हैं। 35 किलोग्राम तक के वज़न वाले ये वॉम्बेट अपना इलाका बनाते हैं, और इस इलाके की निशानदेही उनकी विष्ठा से होती है।

दरअसल, पूर्व में एक्सीडेंट में मारे गए वॉम्बेट की आंत का अध्ययन कर वैज्ञानिक यह तो पता लगा चुके थे कि उनकी आंत की दीवार में उस जगह दो खांचे होते हैं जहां आंत अधिक लचीली होती है।

वर्तमान अध्ययन में शोधकर्ताओं ने दो और वॉम्बेट की आंतों का अध्ययन किया। इसमें उन्होंने आंत की मांसपेशियों और ऊतक की परतों का अध्ययन कर विभिन्न स्थानों पर आंत की मोटाई और कठोरता पता की। फिर उन्होंने एक ऐसा 2-डी गणितीय मॉडल बनाया जो दर्शाता था कि पाचन के साथ आंत के ये हिस्से किस तरह फैलते-सिकुड़ते हैं। सॉफ्ट मैटर नामक पत्रिका में शोधकर्ताओं ने बताया है कि आंत कई दिनों तक सिकुड़ती-फैलती रहती है। इस संकुचन के चलते मल को निचोड़ा जाता है और आंत की दीवारें उसमें से पोषक तत्व और पानी सोख लेती हैं। दरअसल, वॉम्बैट की आंतें पानी व पोषक तत्वों को सोखने में सिद्धहस्त होती हैं। यहां विष्ठा में से अधिकांश पानी सोख लिया जाता है। विष्ठा का सूखापन उसके आकार को बनाए रखने में मददगार होता है।

आंत के कठोर हिस्से तने हुए रबर बैंड की तरह कार्य करते हैं – ये नर्म हिस्सों की तुलना में तेज़ी से सिकुड़ते हैं। आंत के नर्म हिस्से धीरे-धीरे सिकुड़ते हैं और घनाकार विष्ठा के किनारों को सपाट करते हैं। अन्य स्तनधारियों में, आंत की मांसपेशियों का फैलना-सिकुड़ना हर जगह समान रूप से होता है। लेकिन वॉम्बेट की खांचेदार आंत और उसका असमान रूप से फैलना-सिकुड़ना विष्ठा को घनाकार बना देता है।

एक सवाल अभी भी है कि वॉम्बेट की घनाकार विष्ठा क्यों विकसित हुई। हू का अनुमान है कि चूंकि वॉम्बेट चट्टानों पर चढ़ते हैं और विष्ठा से अपना इलाका चिन्हित करते हैं, इसलिए यदि विष्ठा घनाकार होगी तो उसके ढलान से लुढ़कने की संभावना कम होगी।

शोधकर्ताओं का कहना है कि आंतों के इस तंत्र से इंजीनियरों को कीमती या संवेदनशील सामग्रियों को आकार देने के लिए बेहतर डिज़ाइन बनाने में मदद मिल सकती है। इसके अलावा यह जानकारी चिड़ियाघर में रखे गए वॉम्बेट के बेहतर पालन करने में मदद कर सकती है। कभी-कभी चिड़ियाघर के वॉम्बेट का मल जंगली वॉम्बेट की तुलना में कम घनाकार होता है, और विष्ठा जितनी अधिक घनाकार है वॉम्बेट उतना ही स्वस्थ है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://ascienceenthusiast.com/wp-content/uploads/2018/11/71e06ffb-wombat-poop-social.jpg