आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) यानी कृत्रिम बुद्धि -4 – हरजिंदर सिंह ‘लाल्टू’

पिछले लेखों में हमने एआई के विज्ञान और दर्शन के पक्ष पर बात रखी थी। आम तौर पर लोग वैज्ञानिक खोज के व्यावहारिक इस्तेमाल को टेक्नॉलॉजी कह देते हैं। दरअसल बहुत सारी वैज्ञानिक जांच और खोज पहले से मौजूद टेक्नॉलॉजी की मदद से ही मुमकिन हो पाती है। एआई भी ऐसा एक क्षेत्र है जिसमें विज्ञान और टेक्नॉलॉजी परस्पर गड्ड-मड्ड हैं। टेक्नॉलॉजी महज तकनीक या औज़ार नहीं होती, बल्कि एक सांगठनिक खाके के साथ ही यह वजूद में आती है। और जैसा किसी भी टेक्नॉलॉजी के साथ होता है, जब यह सही तरीके से काम नहीं करती है तो भयंकर हादसे तक हो जाते हैं। टेक्नॉलॉजी जिस सामाजिक या सियासी खाके के साथ जुड़ी होती है, उसके निहित स्वार्थ तय करते हैं कि इसका फायदा किसे मिलेगा और नुकसान किसे होगा। एआई कुछ अलग नहीं है।

एआई के कई व्यावहारिक उपयोगों में एक यह है कि किसी तस्वीर में से चीज़ों की पहचान जल्द से जल्द कैसे की जाए। खास तौर पर किसी शख्स की पहचान करना आज एआई का आम इस्तेमाल बन गया है। दुनिया भर में सरकारें इस तकनीक का इस्तेमाल करती हैं। हमारे मुल्क में भी दिल्ली, बेंगलुरु जैसे बड़े हवाई अड्डों पर शक्ल की पहचान के कैमरे लगे हुए हैं, जिनके ज़रिए आप की तस्वीर कंप्यूटर में कैद हो जाती है। फिलहाल यह स्वैच्छिक तौर पर हो रहा है।

यह महज फोटो खींचने या वीडियो बनाने वाली बात नहीं है, जो सीसीटीवी (closed-circuit television) से होता है। जैसे हर शख्स का खास डीएनए होता है, या हाथ और उंगलियों की खास लकीरें होती हैं, वैसे ही चेहरे की खास पहचान होती है। शक्ल में हाड़-मांस-चमड़े के उतार-चढ़ाव को आकड़ों में दर्ज कर लिया जाता है। इसे मशीन विज़न सिस्टम कहा जाता है। आम नागरिकों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। पर अपने विरोधियों पर नज़र रखने के लिए सरकारें इस टेक्नॉलॉजी का भरपूर इस्तेमाल कर रही हैं। अगर यह महज आतंकवादियों की पहचान करने तक सीमित होता, तो अच्छी बात होती। खतरनाक बात यह है कि अगर दर्ज सूचना में गलती रह जाए और इस वजह से किसी की गलत पहचान हो तो नतीजे भयंकर हो सकते हैं। इसकी एक मिसाल ड्रोन (चालक-रहित हवाई जहाज़) के जरिए बमबारी या मिसाइलें दागने का है।

सोचने पर लगता है कि शक्ल से पहचान के लिए इकट्ठा किए गए आंकड़ों में ज़्यादा कुछ तो होगा नहीं, आखिर आंखें, नाक, होंठ, यही तो हैं – या दाढ़ी-मूंछ है या नहीं, बस। पर असल में शक्ल में उतार-चढ़ाव की जटिलता कल्पना से भी ज़्यादा है। हम अक्सर किसी एक आदमी को देखकर किसी और के बारे में सोचने लगते हैं। कभी-कभी तो गलती से किसी को कोई और समझ बैठते हैं। यानी बात सिर्फ शक्ल को ज़हन में दर्ज करने की नहीं है, बाद में याददाश्त भी होनी चाहिए कि दर्ज की हुई पहचान किसकी थी। औसतन इंसान की शक्ल का फैलाव तकरीबन आधा फुट की भुजा के वर्ग के आकार का है, और साथ में तीसरा आयाम उतार-चढ़ाव का है। एक ग्राफ पेपर पर इसे दिखाया जा सकता है। अगर ग्राफ में सबसे छोटा वर्ग 1 वर्ग मि.मी. का है तो फैलाव को हम 150-150 यानी 22,500 वर्गों में बांट सकते हैं। हर छोटे वर्ग में रंगों की मदद से उतार-चढ़ाव दिखाया जा सकता है। अगर हम 16 रंगों का इस्तेमाल करें तो यह 22,500X16=3,60,000 आंकड़े हो गए। इसके बाद बात आती है चमड़े की बनावट या गठन की। हर बिंदु पर यह बदलती है। बढ़ती उम्र के साथ इसमें बदलाव आते हैं। लब्बोलुबाब यह कि शक्ल की पहचान जितना आसान मसला लगता है, उतना है नहीं। जितनी जटिलता होगी, उतने ही ज़्यादा आंकड़े होंगे और उनका हिसाब रख पाना उतना ही धीमा होगा। इसलिए शक्ल की पहचान में तकरीबन सही नतीजे पर पहुंचना हाल में ही मुमकिन हो पाया है। इसके लिए न्यूरल नेटवर्क और डीप लर्निंग का इस्तेमाल हो रहा है। इसे मुख्यत: चार चरणों में रखा जा सकता है – पहले चरण में शक्ल की तस्वीर लेकर उसे आंकड़ों में तबदील किया जाता है। जिस तरह हमारे दिमाग में किसी छवि को संजोए रखने के लिए उसे टुकड़ों में बांट कर अलग-अलग कोनों में जमा रखा जाता है, वैसे ही कंप्यूटर में भी छवि को अलग-अलग खासियतों में बांट कर दर्ज किया जाता है। दूसरे चरण में पूरी शक्ल को एक से दूसरी ओर तक ट्रैक करते हुए टुकड़ों में छोटे से छोटे हिस्से की तस्वीर ली जाती है। इसे पहले पूरी तस्वीर से दर्ज किए आंकड़ों के पूरक की तरह मान सकते हैं। तीसरे चरण में आंकड़ों को इस तरह बांटा जाता है (सेग्मेंटेशन – segmentation) ताकि बाद में उन्हें किसी मॉडल में शामिल करने में आसानी हो। मसलन अगर किसी कैनवस के हर हिस्से में अलग-अलग अनुपात में नीला और पीला रंग मिलाकर बिखेरा गया है, तो हमें अलग-अलग गहराई में बिखरे हरे रंग की तस्वीर दिखती है। हम इसे दो सूचियों में बांटकर आंकड़ों में दर्ज़ कर सकते हैं। एक सूची नीले रंग के और दूसरी पीले रंग के अनुपात को दर्ज़ करेगी। बाद में हम इसी अनुपात में दोनों रंग मिलाकर मूल तस्वीर फिर से बना सकते हैं। आखिरी चरण दर्ज आंकड़ों से मूल शक्ल को तैयार करने (रेस्टोरेशन – restoration) का है।

ऐसा लगता है कि शक्ल की पहचान इतना भी मुश्किल काम नहीं है। पर आज तक एआई के शोध में यह सबसे जटिल और चुनौतियों से भरी पहेलियों में से एक है। ऊपर बताए हर चरण में जटिलताएं हैं। मसलन ट्रैकिंग को ही लें। जब कैमरा ट्रैक कर रहा है, सांस लेने-छोड़ने जैसी कई वजहों से शक्ल में त्वचा का खिंचाव बदल सकता है। कैमरे में तस्वीर का बनना रोशनी पर निर्भर है। किस तरह का प्रकाश कहां से शक्ल पर पहुंच रहा है, उसमें कितना दूसरी चीज़ों से बिखर कर आ रहा है, ये बातें ली गई तस्वीर का मान तय करती हैं। इसलिए एक ही चीज़ पर दोहराई गई ट्रैकिंग में हर बार अलग आंकड़े दर्ज होते हैं। तीसरे और चौथे चरणों में आंकड़ों को संजोने और उनकी काट-छांट में कैसे नेटवर्क इस्तेमाल किए गए हैं, इससे आंकड़ों की प्रोसेसिंग पर असर पड़ता है। यानी मूल शक्ल को तैयार करने में गलत नतीजे मिलना मुमकिन है।

शक्ल की पहचान सिर्फ इंसान के लिए नहीं, बल्कि कई तरह के संदर्भों में अहम है। जैसे बिना ड्राइवर वाली गाड़ी के कैमरों में जो कुछ दर्ज होता रहता है, उसे पहले से दर्ज तस्वीरों के साथ तुलना कर हिसाब लगाया जाता है कि गाड़ी को आगे बढ़ाना है या नहीं, और यदि बढ़ाना है तो कितनी रफ्तार से और कैसी सावधानियों के साथ बढ़ाना है आदि। पश्चिमी मुल्कों में ऐसी गाड़ियों के टेस्ट-ड्राइव के दौरान एकाध हादसे हुए हैं, यानी मशीन द्वारा सामने आ रही चीजों की सही पहचान नहीं हो पाई थी।

कुदरती चीज़ों को कंप्यूटरों में दर्ज कर बाद में उसकी सही पहचान कर पाना इसलिए भी मुश्किल है कि कुदरत में बहुत सारी बातें संजोग से होती हैं। एक गाड़ी के सामने पड़ा हुआ छोटा बेजान पत्थर कभी अचानक उछल सकता है, क्योंकि कहीं और से कुछ आ टकराए या पत्थर के अंदर किसी छेद में कुछ फूट पड़े – ऐसी कई बातें अचानक घट सकती हैं, जिनका हिसाब पहले से नहीं रखा जा सकता है। इसलिए न्यूरल नेटवर्क की गणनाओं में संभाविता के आधार पर बदलाव किए जाते हैं। एआई के शोध में यह भी एक चुनौतियों भरा काम है, क्योंकि संजोग को गणना में शामिल करने का मतलब अक्सर यह होता है कि आंकड़ों के कई समूह इकट्ठे किए जाएं और उनका सांख्यिकी के कायदों (जैसे औसत मान आदि) का इस्तेमाल कर विश्लेषण किया जाए। इससे आंकड़ों की तादाद कई गुना बढ़ जाती है। दूसरे गणितीय तरीकों को भी अपनाया जाता है, पर ऐसी हर कोशिश नई चुनौतियां पेश करती है।

कोई भी टेक्नॉलॉजी संदर्भ-निरपेक्ष नहीं होती है। इसलिए हर टेक्नॉलॉजी के विकास में ज़्यादा से ज़्यादा लोगों की भागीदारी होनी चाहिए ताकि लोग अपने भले-बुरे का फैसला कर सकें और विकास को सही दिशा दे सकें। एआई के गलत इस्तेमाल से अक्सर बड़ी तबाही हुई है। शक्ल की पहचान से आम जनता को एक दायरे में बांधे रखना लोकतांत्रिक मूल्यों के खिलाफ जाता है। आज जो जंग लड़ी जाती हैं, उनमें पहले की जंगों जैसी आमने-सामने की मुठभेड़ नहीं होती। आज धरती के एक छोर से उड़कर ड्रोन दूसरे छोर तक पहुंचते हैं। उनमें लगे कैमरों से तस्वीरें पल भर में वापस कंट्रोल-रूम तक भेजी जाती हैं, जहां फटाफट कंप्यूटरों में एआई द्वारा बमबारी का निशाना तय कर लिया जाता है और मिसाइल दाग दी जाती है। जाहिर है, मिसाइल चलाने वालों और टार्गेट के बीच न सिर्फ बहुत बड़ी भौगोलिक, बल्कि विशाल मनोवैज्ञानिक दूरी होती है। पिछले दशक में किसी ज़मीनी जंग में शामिल एक फौजी से भी ज़्यादा हत्याएं ड्रोन और मिसाइल चलाने वाले आभासी पायलटों ने की हैं। अक्सर इनमें फौजी टार्गेट की जगह आम नागरिक मारे जाते हैं। हाल में अफगानिस्तान में अमेरिकी ड्रोन द्वारा गलत निशाना तय होने की वजह से एक दर्जन से ज़्यादा आम नागरिक मारे गए थे। आम तौर पर ऐसे ड्रोन चलाने वाले भी घोर मानसिक तकलीफों से गुज़रते हैं। कई तो काम छोड़कर जंगलों में जा छिपते हैं, क्योंकि निर्दोष नागरिकों की, जिनमें अक्सर बच्चे भी होते हैं, हत्या का बोझ मनोवैज्ञानिक नासूर बनकर उन्हें ताज़िंदगी कचोटता है।

ऐसी तमाम बातें दुनिया भर में लोकतांत्रिक सोच रखने वाले लोगों को परेशान करती रही हैं। एआई की तड़क-भड़क और शोर मोहक है, पर इसके नुकसान भी कम नहीं हैं। इस बारे में सचेत रहना हरेक नागरिक की ज़िम्मेदारी है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) यानी कृत्रिम बुद्धि – 3 – हरजिंदर सिंह ‘लाल्टू’

पिछले लेख में हमने कंप्यूटर और इंसानी दिमाग में व्यावहारिक गुणों में एकरूपता (फंक्शनलिज़्म) का ज़िक्र किया था। एआई का आखिरी मकसद यह है कि एक दिन दिमाग के हरेक जैविक न्यूरॉन की जगह इलेक्ट्रॉनिक न्यूरॉन (लॉजिक गेट से गुज़रते इलेक्ट्रॉन समूह) रख दिया जाएगा, जिससे इंसान की ही छवि में मशीन बन जाएगी। यह कल्पना बेमानी नहीं है। आखिर कंप्यूटेशन के नज़रिए से जैविक न्यूरॉन और इलेक्ट्रॉनिक न्यूरॉन समकक्ष हैं। लेकिन सोचने वाली बात यह है कि क्या एक-एक करके जैविक न्यूरॉन के स्थान पर इलेक्ट्रॉनिक न्यूरॉन को लगाने पर चेतना वैसी ही बनी रहेगी जैसी कि इंसान में होती है।

मशीन में ज्ञान रोपने के लिए इस बात पर विचार करना लाज़मी है कि ज्ञान क्या है, इसे कैसे पाते हैं, कैसे संजोते हैं, आदि। लिहाज़ा दार्शनिक चिंतन एआई का अहम हिस्सा है। दार्शनिक सवालों के जवाब हमेशा नहीं मिलते, पर इससे एआई विज्ञानी घबराते नहीं हैं। तर्क पर आधारित सोच का खाका कामयाबी की ओर ले जाता है। अब तक कई तरह की कामयाब मशीनें बन चुकी हैं – अजेय शतरंज खिलाड़ी; सामान्य समझ दिखलाते और आम सवालों का जवाब देते, चलते-फिरते, छोटे-मोटे काम करते रोबोट;  कैमरे से लिए गए फोटो में कैद कई सारी चीज़ों को विस्तार से समझ लेने (कंप्यूटर विज़न) वाले रोबोट, आदि। इन सभी में परिवेश की जानकारी लेते एजेंट हैं, जो जानकारी को संज्ञान के स्तर तक संजोते हैं और फिर इस आधार पर उचित कदम उठाते हैं। यानी एहसास कर पाने और कदम उठाने के बीच संज्ञान एक पुल की तरह है। एआई की तरक्की इसी पुल के लगातार मज़बूत होते जाने की कहानी है। बेशक यह तरक्की दायरे में बंधे सवालों पर ज़्यादा और बुनियादी सवालों पर कम केंद्रित है। मसलन मशीन की मदद से एक से दूसरी ज़बान में तर्जुमा कभी मशीन में शब्दकोश डालने जैसा आसान प्रोजेक्ट माना जाता था, पर बाद में समझ बनी कि यह बहुत मुश्किल काम है। मशीनों में डालने के लिए तमाम किस्म के तथ्यों को इकट्ठा करने पर भी काम हुआ, जिसे साइक (CYC – encyclopedia) प्रोजेक्ट कहते हैं।

तथ्यों की पर्याप्त जानकारी न हो तो मशीन की क्षमता इंसान के आसपास भी नहीं आ सकती। मसलन, मेडिकल तथ्यों से लैस कोई मशीन एक खटारा गाड़ी को बीमार मानकर दवाएं लेने को कह सकती है, जो इंसान कभी नहीं करेगा। इंसानी दिमाग दसियों हज़ारों सालों के जैविक और सांस्कृतिक विकास से बना है। जीवनकाल में वह लगातार सीखता रहता है, जिससे वह आसानी से किसी बात का प्रसंग समझ लेता है। यह सब मशीन में डाल पाना आसान नहीं है।

मुश्किल आसान करने के लिए कुछ आम तरीके अपनाए जाते हैं: जैसे काम को सरल टुकड़ों में बांटना। कई लोग मानते हैं कि दिमाग दरअसल कई छोटे-छोटे कंप्यूटरों का समूह है, जिनमें से कुछ खुदमुख्तार हैं। पिछली सदी के नौवें दशक में अमरीकी दार्शनिक जेरी फोदोर ने कहा था कि मानस खास कामों के लिए बने अलग-अलग टुकड़ों से मिलकर बना है। पर कौन-सा टुकड़ा कहां है, यह कहना मुश्किल है। हर टुकड़े पर आधारित मशीन बनाई जा सकती है। जैसे भाषा ज्ञान, गणित के सवाल, चित्रकला आदि अलग-अलग काम के लिए मॉडल रोबोट बनाए जा सकते हैं और धीरे-धीरे सबको साथ रखकर एक से ज़्यादा काम कर सकने वाली मशीनें भी बनाई जा सकती हैं। साथ ही दिमाग के बारे में भी समझ बढ़ती चलेगी।

इंसान के दिमाग में तंत्रिकाओं का एक विशाल जाल-सा काम करता है, जिसमें एक से दूसरे न्यूरॉन के बीच तेज़ी से संवाद चलता रहता है। यह जैव-रासायनिक वजहों से हो रहे विद्युत के प्रवाह के ज़रिए होता है। इसी आधार पर वैज्ञानिकों ने कनेक्शनिस्ट (connectionist) मॉडल बनाए हैं, जो गणनाओं के लिए प्रभावी साबित हुए हैं। ऐसे मॉडल को कृत्रिम न्यूरल नेटवर्क (ANN – artificial neural network) कहा जाता है।

आम तौर पर कुदरत में सीधी लकीर पर चलने वाली यानी रैखिक या लीनियर घटनाएं नहीं होतीं; यानी किसी एक राशि (इनपुट) को किसी अनुपात में बढ़ाया जाए, तो कोई दूसरी राशि ठीक उसी अनुपात में घटे-बढ़े, ऐसा नहीं होता है। पर आसानी के लिए सीमित दायरे में रैखिक मॉडल बनाना आधुनिक विज्ञान की नींव रही है। इससे सर्वांगीण समझ नहीं बनती, पर कुदरत के बारे में बहुत सारी समझ ऐसे ही हमें मिली है।

अब चूंकि कंप्यूटर तेज़ी से गणनाएं कर लेते हैं, इसलिए रैखिक मॉडल की जगह कनेक्शनिस्ट मॉडल ले रहे हैं। इनपुट और आउटपुट कई राशियों के बीच सम्बंधों के अनगिनत समीकरण हो सकते हैं। अनुमान के आधार पर समीकरण तय करें तो सही आउटपुट नहीं मिलता। किंतु जिन घटनाओं के बारे में जानकारी पहले से है, उनकी गणना में असलियत से जो फर्क दिखता है, उसे वापस इनपुट में शामिल करके फिर से गणना की जाए तो पहले से बेहतर समीकरण मिलते हैं। इस प्रक्रिया को बार-बार दोहराएं यानी हर बार जो फर्क दिखे, उसे इनपुट में डालते जाएं तो धीरे-धीरे सारे समीकरण सही हो जाएंगे।

जैसे, कल्पना करें कि आप सड़क पर चल रहे हैं और रास्ते में गड्ढा दिखता है। दिमाग इस बात को दर्ज करता है और राह बदलता है। एक नवजात बच्चा अपने सामने रखी किसी चीज़ की सही दूरी तय नहीं कर पाता तो वह उंगली से उसे छूने की कोशिश करता है। दो-चार कोशिशों के बाद वह सही दिशा में सही दूरी तक पहुंच जाता है। इसी तरह मशीन को भी सिखाया जाता है। इसे मशीन लर्निंग (ML – machine learning) कहा जाता है। सिर्फ बेहतर रोबोट बनाने के लिए ही नहीं, बल्कि विज्ञान की कई पहेलियों को हल करने में एआई का आम इस्तेमाल इसी तरीके से हो रहा है और यह बड़ी तेज़ी से बढ़ रहा है। इसकी मदद से नई दवाइयां बनाई गई हैं, कोरोना जैसी बीमारी के प्रसार के पैटर्न को समझा गया है और तमाम किस्म के सवाल हल किए गए हैं। बीमा कंपनियां और स्टॉक मार्केट इसका भरपूर इस्तेमाल कर रहे हैं।

एक तरीका यह भी है कि समीकरणों के एक समूह के बाद दूसरे और समीकरण समूहों को हल किया जाए – इन समूहों को परत (layer) कहते हैं। कई परतों वाले नेटवर्क को डीप लर्निंग (deep learning) कहा जाता है। नेटवर्क के विवरण के लिए एक्सॉन (axon – न्यूरॉन में बिजली के प्रवाह के पड़ाव) जैसे लफ्ज़ों का इस्तेमाल होता है, जो तंत्रिका-विज्ञान से उधार लिए गए हैं। गौरतलब है कि जिस्म में न्यूरॉन बिजली के आवेग प्रवाहित करते हैं और मशीन में इनकी जगह गणना की राशियां होती हैं। पर बुनियादी तौर पर उनमें समानता है। जैविक न्यूरॉन एक सेकंड में हज़ार से ज़्यादा सिग्नल नहीं भेज सकते। इंसान के दिमाग की तुलना में कंप्यूटर करोड़ गुना ज़्यादा तेज़ी से गणना कर पाते हैं, फिर भी आज तक इंसान जैसी चेतना किसी मशीन में नहीं आ पाई है। इंसान का दिमाग पल भर में जटिल फैसले ले सकता है; गणनाओं में करोड़ गुना तेज़ होने के बावजूद कंप्यूटर वैसा नहीं कर पाते हैं। सड़क पर कोई परिचित मिले तो उसे पहचानने में हमें पल भर लगता है, जबकि कंप्यूटर जानकारी दर्ज करता हुआ अपनी गणनाओं में उलझा रहता है और इसमें कुछ पल लग सकते हैं। कुदरत में बहुत सारी गणनाएं समांतर चलती हैं। जब हम कुछ देखते-सुनते हैं तो एक साथ बहुत सारी बातें दिमाग में दर्ज हो रही होती हैं, भले ही सारी जानकारी हमारे काम की न हों। जो छवि दिमाग में बनती है, उस जानकारी को बांट कर अनगिनत कोनों में सर्वांगीण रूप से दर्ज किया जाता है। आधुनिक कंप्यूटर भी समांतर प्रोसेसिंग करते हैं। मोबाइल फोन तक में एक से ज़्यादा प्रोसेसर आने लगे हैं। ANN में, खास तौर से डीप लर्निंग में इस बात का भरपूर फायदा उठाया जाता है। पर इस दौड़ में अभी तक कुदरत आगे है। दूसरी बात यह कि कुदरत में कुछ भी ज़रा सी चोट लगने पर देर-सबेर अपने आप ठीक हो जाता है, पर मशीनों में यह क्षमता बहुत ही कम है।

आज कंप्यूटर जिस तरह के अर्द्धचालक (सेमी-कंडक्टर) सिलिकॉन के विज्ञान पर आधारित हैं, उसमें एक हद से आगे बढ़ना नामुमकिन है। मशहूर गणितज्ञ रॉजर पेनरोज़ का कहना है कि आगे बढ़ने के लिए क्वांटम गतिकी पर आधारित कंप्यूटेशन अपनाना होगा। आज इस्तेमाल होने वाले कंप्यूटरों को क्लासिकल कहा जाता है, हालांकि सेमी-कंडक्टर की भौतिकी में भी क्वांटम गतिकी का इस्तेमाल होता है। आज के माइक्रो-प्रोसेसर या चिप में ट्रांज़िस्टर इतने छोटे हो गए हैं कि वे कुछेक अणुओं के आकार तक पहुंच गए हैं। इससे आगे कंप्यूटरों की सूचना जमा करने की क्षमता या रफ्तार में ज़्यादा बढ़त मुमकिन न होगी। पिछले तीन दशकों से एक नई दिशा विकसित हुई है, जिसे क्वांटम कंप्यूटर कहते हैं। इसमें अणु-परमाणुओं के खास गुणों का इस्तेमाल होता है, जिन्हें क्लासिकल भौतिकी से कतई समझा नहीं जा सकता है।

पेनरोज़ का मत है कि हमें जिस्म और मानस को अलग-अलग करने की ज़रूरत नहीं है, पर चेतना के लिए जो एमर्जेंट या योगेतर गुण चाहिए वे क्वांटम गतिकी से ही मुमकिन होंगे। यानी आज के कंप्यूटरों का इस्तेमाल कर हम मशीन में इंटेलिजेंस नहीं ला सकते हैं। पेनरोज़ कुर्ट गॉडेल की मशहूर प्रमेय का सहारा लेते हैं, जिसके मुताबिक गणित के कुछ सच ऐसे हैं, जिन्हें गणनाओं के जरिए सिद्ध नहीं किया जा सकता। चूंकि कंप्यूटर से निकला हर नतीजा गणनाओं से आता है, इसलिए वे ऐसी हर बात नहीं कर सकते जो इंसान कर सकते हैं। यानी चेतना में गणना से अलग कुछ है, जिसकी खोज हमें करनी है। ये बातें शायद रहस्यवाद जैसी लग सकती हैं।

एआई अब आधी सदी की उम्र गुज़ार चुका है। समझ यह बनी है कि जिस तरह जिस्म के बिना सोचने वाला मानस नहीं होता, उसी तरह मशीन अपने आप में सोच नहीं सकती। पर इंसान की सोच पूरी तरह खुदमुख्तार नहीं होती है, वह एक बड़े परिवेश में ही फलती-फूलती है। सबक यह है कि इसी तरह मशीन को भी परिवेश में फलने-फूलने लायक बनाना होगा। जैविक विकास से मिली सीख के मुताबिक छोटी मशीनों के साथ ऐसे प्रयोग हो रहे हैं। कोशिश यह है कि छोटे स्तर पर मिली कामयाबी को धीरे-धीरे बड़े पैमाने पर विकसित किया जाए। एआई विज्ञानी आज भी दर्प के साथ भविष्यवाणियां करते हैं, और वक्त के साथ गलत साबित होते रहते हैं। फिर भी एआई हमारे जीवन का हिस्सा बन चुका है। रोबोट मशीनें और कंप्यूटर चालित हिसाब-किताब हर पल हमारे साथ हैं। शायद अगली पीढ़ियां ही जान पाएंगी कि रोबोट इंसान से ज़्यादा दानिशमंद होंगे या नहीं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) यानी कृत्रिम बुद्धि – 2 – हरजिंदर सिंह ‘लाल्टू’

पिछले लेख में हमने रोबोट और कंप्यूटर का ज़िक्र किया था। सत्तर साल पहले अपने शुरुआती दौर में रोबोट-विज्ञान या रोबोटिक्स कंप्यूटरों पर निर्भर नहीं होता था, क्योंकि तब आज जैसे तेज़ रफ्तार से चलने और बड़ी तादाद में आंकड़े संजोने वाले कंप्यूटर होते नहीं थे। जैसे एक क्रेन बिजली से काम करती है, ऐसे ही रोबोट मशीनें बनाई जाती थीं, जो सामान उठाने, उतारने या खतरनाक जगहों में (जैसे बारूदी सुरंगों से निपटना या रेडियो-सक्रिय सामग्री को समेटना) इंसान की मदद के काम आएं। यानी तब रोबोट महज़ मशीनें थीं जो इंसान जैसी दिखती थीं।

कंप्यूटर टेक्नॉलॉजी में दिन दूनी रात चौगुनी रफ्तार से तरक्की हुई। 1965 में इलेक्ट्रॉनिक्स इंजीनियर और कारोबारी गॉर्डन मूर ने कहा था कि हर साल माइक्रोचिप में ट्रांज़िस्टर की तादाद दुगनी हो जाएगी और फिर 1975 में उन्होंने अनुमान लगाया था कि ऐसा हर दो साल में होगा। आंकड़े या सूचना संजोने और तेज़ रफ्तार से सवाल हल करने या सूचना की प्रोसेसिंग दोनों में इसी रफ्तार से बढ़त हुई है। नतीजतन हर विधा की तरह रोबोटिक्स में भी कंप्यूटरों का इस्तेमाल बढ़ गया।

अस्सी के दशक में अमोनिया और मीथेन जैसे छोटे अणुओं से अमीनो अम्ल जैसे बड़े अणुओं के बनने से लेकर आखिरकार जीवन के मुमकिन हो पाने की समझ आधी सदी पहले से बनी थी। उसी आधार पर मानव-निर्मित जीवन या आर्टीफिशियल लाइफ पर बहुत काम हुआ। कंप्यूटर पर खेलने वाले प्रोग्राम लिखे गए – जैसे एक खेल का नाम ‘गेम ऑफ लाइफ’ था, जिसमें टुकड़े आपस में टकराकर छोटे-बड़े होते थे और आखिर में बड़े आकार के बन जाते थे। बाद में यह भी एआई का हिस्सा बन गया।

मनोविज्ञान और एआई, इन दोनों विषयों के बुनियादी सवाल एक जैसे हैं। आज मनोविज्ञान की एक शाखा (जिसे अब अपने-आप में अलग विषय जाना जाता है) संज्ञान का विज्ञान या कॉग्निटिव साइंस को एआई की शाखा माना जाता है। इसमें यह समझने की कोशिश होती है कि हम किसी चीज़ को समझते कैसे हैं यानी जो भी जैव-रासायनिक प्रक्रियाएं हमारे जिस्म में होती हैं, वे संज्ञान तक कैसे बढ़ जाती हैं। क्या दिमाग भी एक कंप्यूटर है? ऐसे खयालों ने एआई वैज्ञानिकों में यह मुगालता पैदा कर दिया कि बड़ी जल्दी ही समूचा मनोविज्ञान कंप्यूटर प्रोग्रामों की तरह बूझ लिया जाएगा। ज़ाहिर है, ये सवाल दार्शनिक हैं और सदियों से दुनिया भर में चिंतकों ने इन पर माथा खपाया है।

दर्शन शास्त्र में हमेशा से ही यह बहस रही है कि जिस्म और मन का क्या रिश्ता है। क्या मन और जिस्म अलग-अलग हैं या जिस्म से अलग मन का कोई वजूद नहीं है? सत्रहवीं सदी में युरोप में आधुनिक विज्ञान की शुरुआत में रेने देकार्ते ने कहा था कि जिस्म और मानस अलग चीज़ें हैं। आज ऐसा नहीं माना जाता, हालांकि इस पर कोई आखिरी समझ अभी भी नहीं बन पाई है।

कई एआई वैज्ञानिक मानते हैं कि दिमाग और मन का रिश्ता कंप्यूटर और प्रोग्राम की तरह है। यानी कंप्यूटर लोहे-लंगड़ से बनी मशीन है, पर प्रोग्राम के बिना वह कुछ भी नहीं है; इसी तरह जिस्म में दिमाग जैव-रासायनिक घटकों से बना हार्डवेयर है, पर कुछ ऐसा है जो मन या सॉफ्टवेयर है, जो उसका वजूद मानीखेज़ बनाता है। जैसे प्रोग्राम महज लिखा जाता है, उसके भौतिक वजूद पर बात बेमानी है, इसी तरह मन के बारे में कुछ कह पाना मुश्किल है।

आखिर असली और गढ़ी गई (गैरकुदरती) बुद्धि या समझ किस मायने में भिन्न हैं? हर जानवर एक हद तक सोचता-समझता है और जीवन के धागे बुनता है, पर क्या यही बुद्धि है? इस सवाल का कोई साफ जवाब नहीं है। एआई में बुद्धि को जीवन में कुछ भी कर पाने के लिए कंप्यूटर की तरह गणनाओं या सूचनाओं का लेन-देन माना जाता है। इसमें दीगर जानवरों की तुलना में इंसान ज़्यादा काबिल हैं। मसलन भाषा जैसी काबिलियत दूसरे जानवरों में कम विकसित है। एआई के शुरुआती दौर में सैद्धांतिक पक्ष को साइबरनेटिक्स कहा जाता था, जिसमें यह माना गया कि इंसान, दीगर जानवर, और मशीनें, इन सब को चलाने वाले कायदे एक जैसे हैं, हालांकि वे अलग-अलग चीज़ों से बने ढांचे हैं। इसी आधार पर ऐसे रोबोट बनाए गए जो कुछ हद तक अपने आप काम करते थे; जैसे पहियों पर चलने वाले रोशनी के पास या दूर जाने वाले कछुए जैसे रोबोट, जो बैटरी का चार्ज खत्म होने पर खुद से रीचार्ज के लिए बिजली के सॉकेट तक आ जाते हैं। रोचक बात यह है कि ऐसे रोबोट के बारे में पहले से अनुमान लगाना मुश्किल है कि वे कब कहां जाएंगे या कब रीचार्ज करेंगे यानी ऐसी जटिल बातें वो अपने आप तय कर रहे हैं। पर यह काबिलियत वह बुद्धि नहीं है, जिसे इंटेलिजेंस कहते हैं। बुद्धि में भाषा-ज्ञान, याददाश्त, सीखने की काबिलियत, तर्कशीलता आदि बातें शामिल हैं। रोबोट तो परिवेश में मौजूद चीज़ों के मुताबिक अपना व्यवहार बदलते हैं, जबकि बुद्धि में कुछ तो अंदरूनी है।

भाषाविज्ञानी नोम चोम्स्की का मानना है कि भाषा सीखने की जन्मजात काबिलियत के बरक्स परिवेश में मौजूद चीज़ों या तजुर्बों का असर भाषा-ज्ञान पर कम होता है। एआई का बहुत सारा शोध इस सोच पर हो रहा है कि ऐसी काबिलियत जिस्म की अंदरूनी प्रक्रियाओं से ही बनती है, जबकि रोबोटिक्स में परिवेश के साथ जद्दोजहद एक लगातार चल रहा संघर्ष है।

ये एआई की दो अलग-अलग धाराएं हैं। एक संज्ञान का विज्ञान और दूसरी रोबोट मशीनें। पहली धारा में कंप्यूटेशन यानी अमूर्त गणनाओं को ही संज्ञान का आधार माना गया है। इसमें कंप्यूटेशन के दार्शनिक आधार को समझना लाज़मी है, जो एक विकसित, पर साथ ही अनसुलझा मुद्दा है। वॉरेन मैकलो और वाल्टर पिट्स नामक दो वैज्ञानिकों ने यह दिखलाया था कि दिमाग में काम कर रहे न्यूरॉन का खाका सैद्धांतिक रूप से कंप्यूटर के अंदरूनी खाके की तरह है। न्यूरॉन कंप्यूटर में गणनाओं के लिए बने लॉजिक गेट की तरह काम करते हैं और इनका एक जैसा इस्तेमाल हो सकता है। दिमाग समेत ऐसी किसी भी मशीन को एक बुनियादी कंप्यूटर की तरह समझा जा सकता है।

मशहूर गणितज्ञ और दार्शनिक ऐलन ट्यूरिंग के नाम पर इस बुनियादी कंप्यूटर को ट्यूरिंग मशीन कहा जाता है, जो किसी भी तरह के (युनिवर्सल) कंप्यूटेशन का मॉडल पेश करती है। ज़ाहिर है, सिद्धांत में एक जैसी होने के बावजूद हर मशीन के काम करने का तरीका अलग होता है। यानी कंप्यूटर प्रोग्राम कीबोर्ड से लिखे जाते हैं और बिजली के सर्किटों से चलते हैं, पर दिमाग न्यूरॉन सिग्नलों (जैव-रासायनिक) से चलता है। अगर दोनों एक ही जैसे काम (फंक्शन) कर रहे हैं तो व्यावहारिक तौर पर दोनों को एक ही माना जा सकता है। मन और जिस्म में फर्क करने वाले इस खयाल को फंक्शनलिज़्म (functionalism) कहा जाता है। इसके मुताबिक संज्ञान किसी एक मशीन या दिमाग के दायरे में बंधा नहीं है, बल्कि महज़ एक ढांचे की (दिमाग या कंप्यूटर का हार्डवेयर)  मदद से यह सक्रिय हो रहा है। यानी कुछ संकेतों (लॉजिक गेट) की मदद से हम सही समझ पाते हैं और जीवन की गाड़ी चल पड़ती है। जहां तक खयाली दुनिया में गोते लगाने की बात है, इसके लिए ट्यूरिंग ने एक टेस्ट सोचा। अगर किसी मशीन से इंसान को यह भ्रम हो कि वो वाकई में मशीन नहीं, बल्कि कोई इंसान है, तो वो मशीन ट्यूरिंग टेस्ट पास कर जाएगी। 1990 में इस आधार पर एक पुरस्कार की घोषणा हुई कि कोई भी ट्यूरिंग टेस्ट पास करने वाली पहली मशीन बना ले तो उसे एक लाख डॉलर दिए जाएंगे। अभी तक यह पुरस्कार किसी को नहीं मिला है। एक समस्या यह है कि यह टेस्ट पूरी तरह इंसान और मशीन के बीच बातचीत पर निर्भर है यानी यह महज भाषा के पक्ष पर आधारित है। अगर कोई मशीन भाषा की तमाम जटिलताओं में माहिर हो जाए तो हो सकता है कि वह ट्यूरिंग टेस्ट पास कर जाए, पर क्या हम उसे इंटेलिजेंट कह सकते हैं?

एआई में जटिलता या कॉम्प्लेक्सिटी (complexity) थिअरी नामक विज्ञान की धारा का भी इस्तेमाल हुआ है, जिसमें किसी चीज़ में विकसित हुए जटिल खाके के मुताबिक उसकी फितरत में बदलाव आता है। मसलन एक छोटी चिंगारी आसपास की जलने वाली चीज़ों में आग लगा सकती है, पर एक निश्चित आकार के बाद ही वह दावानल बन भड़क सकती है। इसी तरह जब बच्चे रेत का ढेर बनाते हैं, तो देर तक वह पिरामिड-सा बढ़ता है, पर एक हद के बाद वह भरभराकर गिर पड़ता है। इसे एमर्जेंट यानी योगेतर गुण कहा जाता है – ऐसा गुण जो किसी चीज़ के अलग-अलग टुकड़ों में नहीं होता मगर पूरी चीज़ में उभरकर दिखता है। कुदरत में कई टुकड़ों के अपने-आप एक खाके में जुड़कर कुछ अनोखा होने की कई मिसालें हैं, जिसे सेल्फ-ऑर्गनाइज़ेशन (खुद को संगठित करना) कहा जाता है। पिछले कई दशकों में इस सेक्टर में, खास तौर पर जैविक मिसालों पर, बहुत शोध हुआ है। किसी चीज़ में अचानक उभरी फितरत को उसके टुकड़ों की प्रकृति को जानकर नहीं समझा जा सकता है। एआई में एक सोच यह है कि इंटेलिजेंस एक एमर्जेंट बात है। जीन्स को जानकर हम यह तो जान लेते हैं कि हम जो हैं, वह कैसे मुमकिन हुआ, पर संज्ञान को हम इस तरह नहीं जान सकते। सर्वांगीण समझ कुछ और है, जो एमर्जेंट गुण है। ज़ाहिर है, बगैर मशीन के तो समझ विकसित होना नामुमकिन है, पर यह भी नहीं कहा जा सकता कि मशीन बनने भर से समझ बन जाएगी। इसके लिए कोई सही प्रोग्राम लिखे जाने की ज़रूरत होगी। तो क्या हम फिर मन और जिस्म को अलग-अलग मान रहे हैं? दिमागी पहेलियां क्या महज प्रोग्राम का खेल हैं? इन विवादों पर हम अगले लेखों में चर्चा करेंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) यानी कृत्रिम बुद्धि – 1 – हरजिंदर सिंह ‘लाल्टू’

जकल हर कहीं ‘एआई’ का बोलबाला है। आखिर यह एआई क्या बला है? चेक नाटककार कारेल चापेक ने 1920 में एक नाटक लिखा था – आरयूआर, (रोसुमोवी युनिवर्सालनी रोबोती – Rossumovi Univerzální Roboti)। इसका अर्थ है रोसुमोव के सार्वभौमिक रोबोट। नाटक में रोसुमोव एक वैज्ञानिक हैं जिनकी कंपनी इंसान जैसी दिखने वाली रोबोट मशीनें बनाती है। (रोबोट एक चेक शब्द से बना है जिसका अर्थ होता है बंधुआ मज़दूर और अंग्रेज़ी व अन्य भाषाओं में यह शब्द चापेक के उक्त नाटक से प्रचलित हुआ था।) तब से मशीनों में इंसान जैसी काबिलियत की चर्चाएं गाहे-बगाहे होती रही हैं। पिछली सदी के छठे दशक में ये चर्चाएं कल्पनालोक से निकल कर विज्ञान के दायरे में संजीदा सवाल बन कर सामने आईं, जब पहले आधुनिक कंप्यूटर बनने लगे थे। इनमें अर्द्ध-चालक सिलिकॉन टेक्नॉलॉजी से बने ट्रांज़िस्टरों की मदद से तेज़ी से गणनाएं मुमकिन होने लगी थीं। जैसे-जैसे कंप्यूटर टेक्नॉलॉजी गणनाओं से इतर तमाम दूसरे क्षेत्रों में प्रभाव डालने लगी और सूचना यानी इन्फॉर्मेशन टेक्नॉलॉजी का कारवां बढ़ता चला, एआई पर शोध भी तेज़ी से बढ़ता रहा। नई-नई मशीनें बनीं, खास तौर पर फिल्मों में इन्हें बढ़ा-चढ़ा कर दिखलाया गया। ‘रोबोट’ लफ्ज़ घरेलू बातचीत का हिस्सा बन गया। हाल में कोरोना लॉक-डाउन के दौरान हमारे मुल्क में भी कुछ खास किस्म की मशीनें, जिन्हें रोबोट सफाई मशीनें कहा जाता है, बड़ी तादाद में बिकीं। कई घरों में ऐसी मशीनें आ गईं, जो देखने में छोटे स्पीकर जैसी हैं, और गीत-संगीत जैसे तरह-तरह के हुक्म बजाती हैं।

दुनिया के स्तर पर बड़ी कामयाबियों में शतरंज खेलने वाली मशीनें शामिल हैं, जिन्होंने शतरंज के उस्ताद खिलाड़ियों (जैसे कास्परोव) को मात दे दी। आगे चलकर अल्फागो नामक कंप्यूटर ने चीनी खेल गो में उस्ताद खिलाड़ी ली सेडोल को परास्त किया। मेडिकल रिसर्च में रोबोट का इस्तेमाल आम हो गया है, और हर दिन किसी नई खोज का पता चलता है। इंसानी काबिलियत से कहीं आगे बढ़कर आंकड़ों से मानीखेज़ जानकारी ढूंढ निकालने का काम कंप्यूटर कई दशकों से कर ही रहे हैं, जिससे नई दवाइयां बनाने में बड़ी तरक्की हुई है। भली बातों के साथ तबाही के हथियारों में भी एआई का इस्तेमाल हो रहा है और नए किस्म के कंप्यूटर से चलने वाले ड्रोन या लेज़र-गन या मिसाइल आदि अब आम असलाह में शामिल हो गए हैं, जिनके ज़रिए कोई मुल्क धरती पर कहीं भी कहर बरपा सकता है और जान-माल को नुकसान पहुंचा सकता है।

जाहिर है, एआई का ताना-बाना पूरी तरह कंप्यूटर टेक्नॉलॉजी से जुड़ा है। कंप्यूटर तो आजकल हर कहीं है; मसलन मोबाइल फोन से लेकर माली लेन-देन आदि हर सेक्टर तक यह पहुंच चुका है। लिहाज़ा एआई भी हर कहीं है। इस वजह से एआई के बुनियादी सवाल महज़ टेक्नॉलॉजी तक रुके नहीं हैं। एआई का सबसे बुनियादी सवाल दरअसल मशीन को इंसानी बुद्धि कैसे मिले यह नहीं है, बल्कि यह है कि इंसान या दूसरे जानवरों को कैसे एक मशीन की तरह समझा जा सके। साथ ही उन हालात की खोज करना भी एक बड़ा सवाल है, जिसमें न सिर्फ ज़िंदा, बल्कि कभी-कभी बेजान लगती चीज़ें भी कुछ ऐसा कमाल कर जाती हैं, जिससे कुछ ज़िंदा होने का गुमान होता है। ऐसी चीज़ों को एजेंट (यानी अभिकर्ता) कहा जाता है। एजेंट किसे कहें, वे क्या कर सकते हैं, ये सवाल विज्ञान और टेक्नॉलॉजी के तो हैं ही, साथ ही गहन दार्शनिक सवाल भी हैं। लंबे अरसे तक इंसान की बुद्धि या इंटेलिजेंस और साथ ही चेतना या कॉन्शसनेस के सवाल मूलत: दार्शनिक सवाल रहे हैं। पिछले तीस-चालीस सालों में दिमाग और चेतना पर वैज्ञानिक समझ बढ़ने के साथ अब इन सवालों में विज्ञान का हस्तक्षेप अहम हो गया है।

‘एजेंट’ शब्द से कल्पना में कोई इंसान सा आता है, जैसे सेल्स-एजेंट। पर एआई में एजेंट का मतलब ऐसा कुछ भी हो सकता है, जिससे कोई कार्रवाई शुरू हो जाए। मसलन वह रोबोट जैसी मशीन हो सकती है जो भौतिक स्तर पर अपने इर्द-गिर्द हरकत करती हो, या वह महज़ एक कंप्यूटर-प्रोग्राम हो सकता है, जो कीबोर्ड पर बटन दबाकर लिखा गया हो या जिसे किसी और कंप्यूटर-प्रोग्राम के ज़रिए लिखा गया हो और जिसे सक्रिय कर कोई कार्रवाई शुरू हो सकती है। यानी एजेंट असली या आभासी दोनों हो सकते हैं। जाहिर है कि क्या असल है और क्या आभासी यह तय करना हमेशा आसान नहीं होता है। एक रोबोट भी तो आखिर किसी प्रोग्राम द्वारा ही चल रहा होता है, तो उसकी हरकत को आभासी भी कहा जा सकता है। यहीं पर चेतना के विज्ञान के साथ एआई की टक्कर होती है। दर्शन का एक चिरंतन सवाल है कि हम जो कुछ करते हैं, क्या वह अपनी मर्ज़ी से करते हैं या कोई और हमसे करवाता है। हम जानते हैं कि सही-गलत हर तरह के खयाल हमारे मन में आते हैं, पर क्या करना है और क्या नहीं, यह फैसला हमारे हाथ में होता है। एक रोबोट ऐसा फैसला नहीं कर सकता है। हालांकि ऐसे दावे किए गए हैं कि हाल के रोबोट में इस तरह के फैसले लेने की काबिलियत मुमकिन हो पाई है, पर ऐसे दावे अभी तक गलत ही साबित होते रहे हैं।

इंसानों में भी एजेंटों जैसी फितरत पाई जाती है। लेकिन इसका एक पहलू और भी है। जैसे एक चींटी को अपने आप में समझना मुश्किल होता है, मज़दूर चींटियों और रानी समेत पूरे चींटी समाज को देखने पर ही पता चलता है कि कतार में जा रही चींटियां आखिर क्या कर रही हैं। इसी तरह अकेले में एक इंसान को जानकर हम सामाजिक, जातिगत या राष्ट्रवादी गतिविधियों को नहीं समझ सकते हैं। समूह में एजेंट क्यों खास तरह की हरकतें करते हैं, इनको समझना भी एआई में चल रहे शोध का विषय है।

आम तौर पर लोग एआई का मतलब महज तरह-तरह की रोबोट मशीनों को समझते हैं, जिनका अलग-अलग सेक्टर्स में इस्तेमाल हो रहा है। वैज्ञानिक इसे कमज़ोर या वीक (weak) एआई कहते हैं। कमज़ोर कहने का मतलब है कि इसमें जिन सवालों पर काम होता है, वे महज़ टेक्नॉलॉजी की तरक्की और बेहतरी के सवाल हैं। इसके बरक्स मज़बूत या स्ट्रॉंन्ग (strong) एआई चेतना के विज्ञान से जुड़ता है। यहां इंसान को मशीन की तरह सामने रखते हुए मशीन में इंसानी अकल और समझ कैसे लाई जाए, इस पर काम होता है। अकल और समझ के साथ चेतना, नैतिकता और तमाम जज़्बात भी जुड़ते हैं। जाहिर है, ये बड़े मुश्किल सवाल हैं; इसीलिए इसे मज़बूत एआई कहा जाता है।

ऐसा नहीं है कि कमज़ोर एआई में इंसानी बुद्धि पर काम नहीं होता है, पर वहां बुद्धि और समझ के किसी एक पक्ष को सैद्धांतिक रूप से समझ कर कंप्यूटर प्रोग्राम के द्वारा उसे मशीन में डालने की कोशिश होती है। जैसे बगैर ड्राइवर के चलने वाली गाड़ियों में तरह-तरह के सेंसर लगे होते हैं, जो सड़क पर आ रहे अवरोधों को कंप्यूटर में दर्ज करते हैं, ताकि उनसे बचाव या उन्हें दरकिनार करने के तरीके अपनाए जा सकें। लाल या हरी बत्ती को दर्ज कर सही वक्त पर रुकना या आगे चलना मुमकिन हो सके। बैटरी खत्म हो रही हो तो अपने आप वापस चार्जर तक जाना भी ऐसी मशीनें कर लेती हैं। पर ये इंसानी बुद्धि के एक ही पक्ष यानी आवागमन और उसमें भी महज़ तकनीकी पक्ष पर काम करती मशीनें हैं। एक इंसान गाड़ी चलाते हुए कई विकल्पों पर सोचता रहता है, बीच रास्ते में कहीं जाने या न जाने का फैसला बदल सकता है, देर तक रुकने या चलते रहने का फैसला ले सकता है, और यह सब कुछ पहले से तय नहीं होता है। कोई गाड़ी इंसानी दिमाग की इन जटिलताओं को कैसे पकड़े और कैसे हर पल अमल करे, ये मज़बूत एआई के सवाल हैं।

यह ज़रूरी नहीं है कि एआई के तहत बनाई गई मशीनें हमेशा इंसानी दिमाग और समझ पर ही आधारित हों। आखिर एक कंप्यूटर जिस विशाल मात्रा में आंकड़े समेट सकता है और जितनी तेज़ी से गणनाएं कर सकता है, वह इंसान की काबिलियत से कहीं ज़्यादा है। ऐसा मुमकिन है कि हमारे दिमाग अपने आकार और अंदरूनी खाके की वजह से एक दायरे में बंधे हैं और एआई कभी ऐसी मशीनें बना दे जो समझ में इंसानों से कहीं आगे की हों।

कमज़ोर एआई में इंसान और दीगर जानवरों में मौजूद समझ की बुनियाद और दायरों की खोज की जाती है। इसी का नतीजा वे तमाम मशीनें हैं, जिनमें से कुछ का ज़िक्र ऊपर किया गया है और जिनके ज़रिए हमारी ज़िंदगी भौतिक रूप से बेहतर हुई है।

इसके साथ ही इंसान के दिमाग को मशीनों के साथ जोड़कर सुपर-इंटेलिजेंट इंसान की कल्पना पर भी काम हो रहा है। दिमाग की प्रक्रियाएं तंत्रिका आवेगों या इंपल्स के ज़रिए होती हैं जो कंप्यूटर में इस्तेमाल होने वाले चिप की तुलना में बहुत ही धीमी गति से चलते हैं। पिछले कुछ दशकों से शरीर में इलेक्ट्रॉनिक चिप इम्प्लांट कर कुछ खास तरह की काबिलियत बढ़ाने पर काम हुआ है। आम तौर पर ऐसे इम्प्लांट पहचान लिए गए हैं, पर ऐसे भी इम्प्लांट हुए हैं, जिनसे हमारी दिमागी काबिलियत बढ़ती है; जैसे हाथ या उंगलियां हिलाकर पैसों का लेन-देन करना आदि (जैसे हम गूगल-पे या क्रेडिट कार्ड से करते हैं)। 

मशीनों की कामयाबी से दिमाग के काम करने के तरीकों पर भी समझ बढ़ती है। इससे बुद्धि के दीगर विषयों, जैसे फलसफा, मनोविज्ञान, भाषाविज्ञान और मनोविज्ञान या तंत्रिका विज्ञान में भी तरक्की होती है। ये सारे विषय और एआई अक्सर परस्पर गड्डमड्ड होते हैं। खास कर मनोविज्ञान और चेतना के विज्ञान का एआई से गहरा रिश्ता है। साथ ही सामाजिक और सियासी दायरों में भी एआई की घुसपैठ से बड़े बदलाव हो रहे हैं और तरह-तरह के तनाव बढ़ रहे हैं। माल उत्पादन के क्षेत्र में एआई यानी रोबोट मशीनों के इस्तेमाल से अधेड़ कामगारों की नौकरी से छंटनी बढ़ी है और इसका सीधा असर सियासत पर पड़ा है। मसलन बताते हैं कि 2016 में अमेरिका में ट्रंप के प्रेसिडेंट चुने जाने के पीछे भी एआई की वजह से लोगों में बढ़ती असुरक्षा की भावना कुछ हद तक ज़िम्मेदार थी। दूसरी ओर सर्विस सेक्टर (जैसे ऑन-लाइन खरीद-फरोख्त आदि) की बढ़ोतरी में एआई की अहम भूमिका है। अगले लेखों में हम एआई से जुड़े विज्ञान और दर्शन के दीगर मसलों पर चर्चा करेंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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बेवकूफाना सवाल पूछे तो जल्दी सीखता है एआई

दि कोई मगरमच्छ की तस्वीर दिखाकर आपसे पूछे कि क्या यह एक पक्षी है, तो हो सकता है आप उसके इस नादान सवाल पर मुस्करा दें। और फिर, शायद जानवर को पहचानने में मदद भी कर दें। अब, एक हालिया अध्ययन कहता है कि इस तरह के वास्तविक दुनिया के (और कभी-कभी नादान) सवाल-जवाब कृत्रिम बुद्धि यानी आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) के सीखने में महत्वपूर्ण हो सकते हैं। इस तरीके से एआई द्वारा नई तस्वीरों को समझने में सुधार दिखा। इससे ऐसे प्रोग्राम डिज़ाइन करने में तेज़ी आ सकती है जो रोग निदान से लेकर रोबोट या अन्य उपकरणों को निर्देश देने तक के कार्य स्वयं करते हैं।

कई आर्टिफीशियल इंटेलीजेंस तंत्र पाशविक बल पद्धति से सीखते हैं: जैसे वे फर्नीचर की हज़ारों तस्वीरों में पैटर्न ढूंढते हैं और सीखते हैं कि कुर्सी कैसी दिखती है। लेकिन विशाल डैटा सेट के बावजूद भी जानकारी में कमी छूट ही जाती है। मसलन, हो सकता है कि तस्वीरों में दिख रही वस्तु पर कुर्सी लिखा हो लेकिन अन्य सम्बंधित जानकारी न हो। जैसे वह किस चीज़ से बनी है, या क्या आप उस पर बैठ सकते हैं।

आर्टिफीशियल इंटेलीजेंस तंत्र की समझ को विस्तार देने के लिए शोधकर्ता अब एक ऐसा तरीका विकसित करने की कोशिश में हैं जो उसकी जानकारी में कमी पता कर सके, और यह समझ सके कि अजनबियों से इस जानकारी को भरने के लिए कैसे कहा जाए।

इसके लिए स्टैनफोर्ड युनिवर्सिटी के रंजय कृष्णा (अब, युनिवर्सिटी ऑफ वाशिंगटन में) और उनके साथियों ने अपने अध्ययन में मशीन-लर्निंग प्रणाली को अपने ज्ञान में कमी खोजकर ऐसे सवाल पूछने के लिए प्रशिक्षित किया जिसका लोग धैर्यपूर्वक जवाब दे सकें। (जैसे, सिंक का आकार क्या है? जवाब: वर्गाकार)

शोधकर्ताओं ने समझने योग्य सवाल करने के लिए अपने एआई सिस्टम को पुरस्कृत भी किया: लोगों के जवाब के आधार पर सिस्टम को प्रतिक्रिया मिली कि वह अपनी आंतरिक कार्यप्रणाली को समायोजित करे ताकि भविष्य में इसी तरह का व्यवहार कर सके। धीरे-धीरे, एआई ने भाषा और सामाजिक मानदंड सीखे और वाजिब व जवाब देने योग्य सवाल करने की क्षमता तराशी।

शोधकर्ता बताते हैं कि नए AI में कई घटक हैं जो मिल-जुलकर काम करते हैं। एक घटक इंस्टाग्राम पर डाली गई कोई एक तस्वीर – सूर्यास्त की तस्वीर – चुनता है, और दूसरा घटक सवाल करता है कि क्या यह तस्वीर रात में ली गई है? अन्य घटक लोगों के जवाबों से जानकारी निकालते हैं और उनसे तस्वीर के बारे में सीखते हैं।

प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में शोधकर्ता बताते हैं कि पूरे 8 महीनों में इंस्टाग्राम पर 2 लाख से अधिक सवाल पूछने के बाद एआई के जवाब देने की सटीकता में 118 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। अप्रशिक्षित एआई द्वारा सवाल करने से सटीकता में केवल 72 प्रतिशत सुधार दिखा। उम्मीद है कि ऐसे सिस्टम एआई का सामान्य ज्ञान बढ़ाने मदद करेंगे और इंटरैक्टिव रोबोट्स और चैटबॉट को बेहतर करने में मदद करेंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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3000 साल पुरानी पतलून इंजीनियरिंग का चमत्कार है

हाल ही में एक विशेषज्ञ बुनकर की मदद से पुरातत्वविदों ने दुनिया की सबसे पुरानी (लगभग तीन हज़ार साल पुरानी) पतलून की डिज़ाइन के रहस्यों को उजागर किया है। प्राचीन बुनकरों ने कई तकनीकों की मदद से घोड़े पर बैठकर लड़ने के लिए इस पतलून को तैयार किया था – पतलून इस तरह डिज़ाइन की गई थी कि यह कुछ जगहों पर लचीली थी और कुछ जगहों पर चुस्त/मज़बूत।

यह ऊनी पतलून पश्चिमी चीन में 1000 और 1200 ईसा पूर्व के बीच दफनाए गए एक व्यक्ति (जिसे अब टर्फन मैन कहते हैं) की थी, जो उसे दफनाते वक्त पहनाई गई थी। उसने ऊन की बुनी हुई पतलून के साथ पोंचों पहना था जिसे कमर के चारों ओर बेल्ट से बांध रखा था, टखने तक ऊंचे जूते पहने थे, और उसने सीपियों और कांसे की चकतियों से सजा एक ऊनी शिरस्त्राण पहना था।

पतलून का मूल डिज़ाइन आजकल के पतलून जैसा ही था। कब्र में व्यक्ति के साथ प्राप्त अन्य वस्तुओं से लगता है कि वह घुड़सवार योद्धा था।

दरअसल घुड़सवारों के लिए इस तरह की पतलून की ज़रूरत थी जो इतनी लचीली हो कि घोड़े पर बैठने के लिए पैर घुमाते वक्त कपड़ा न तो फटे और न ही तंग हो। साथ ही घुटनों पर अतिरिक्त मज़बूती की आवश्यकता थी। यह कुछ हद तक पदार्थ-विज्ञान की समस्या थी कि कपड़ा कहां लोचदार चाहिए और कहां मज़बूत और ऐसा कपड़ा कैसे बनाया जाए जो दोनों आवश्यकताओं को पूरा करे?

लगभग 3000 साल पहले चीन के बुनकरों ने सोचा कि पूरे कपड़े को एक ही तरह के ऊन/धागे से बुनते हुए विभिन्न बुनाई तकनीकों का उपयोग करना चाहिए।

जर्मन आर्कियोलॉजिकल इंस्टीट्यूट की पुरातत्वविद मेयके वैगनर और उनके साथियों ने इस प्राचीन ऊनी पतलून का बारीकी से अध्ययन किया। बुनाई तकनीकों को बेहतर ढंग से समझने के लिए एक आधुनिक बुनकर से प्राचीन पतलून की प्रतिकृति बनवाई गई।

उन्होंने पाया कि अधिकांश पतलून को ट्विल तकनीक से बुना गया था जो आजकल की जींस में देखा जा सकता है। इस तरीके से बुनने में कपड़े में उभरी हुई धारियां तिरछे में समानांतर चलती है, और कपड़ा अधिक गसा और खिंचने वाला बनता है। खिंचाव से कपड़ा फटने की गुंज़ाइश को और कम करने के लिए पतलून के कमर वाले हिस्से को बीच में थोड़ा चौड़ा बनाया गया था।

लेकिन सिर्फ लचीलापन ही नहीं चाहिए था। घुटनों वाले हिस्से में मज़बूती देने के लिए एक अलग बुनाई पद्धति (टेपेस्ट्री) का उपयोग किया गया था। इस तकनीक से कपड़ा कम लचीला लेकिन मोटा और मज़बूत बनता है। कमरबंद के लिए तीसरे तरह की बुनाई तकनीक उपयोग की गई थी ताकि घुड़सवारी के दौरान कोई वार्डरोब समस्या पैदा न हो।

और सबसे बड़ी बात तो यह है पतलून के ये सभी हिस्से एक साथ ही बुने गए थे, कपड़े में इनके बीच सिलाई या जोड़ का कोई निशान नहीं मिला।

टर्फन पतलून बेहद कामकाजी होने के साथ सुंदर भी बनाई गई थी। जांघ वाले हिस्से की बुनाई में बुनकरों ने सफेद रंग पर भूरे रंग की धारियां बनाने के लिए अलग-अलग रंगों के धागों का बारी-बारी उपयोग किया था। टखनों और पिण्डलियों वाले हिस्सों को ज़िगज़ैग धारियों से सजाया था। इस देखकर शोधकर्ताओं का अनुमान है कि टर्फनमैन संस्कृति का मेसोपोटामिया के लोगों के साथ कुछ वास्ता रहा होगा।

पतलून के अन्य पहलू आधुनिक कज़ाकस्तान से लेकर पूर्वी एशिया तक के लोगों से संपर्क के संकेत देते हैं। घुटनों पर टेढ़े में बनीं इंटरलॉकिंग टी-आकृतियों का पैटर्न चीन में 3300 साल पुराने एक स्थल से मिले कांसे के पात्रों पर बनी डिज़ाइन और पश्चिमी साइबेरिया में 3800 से 3000 साल पुराने स्थल से मिले मिट्टी के बर्तनों पर बनी डिज़ाइन से मेल खाते हैं। पतलून और ये पात्र लगभग एक ही समय के हैं लेकिन ये एक जगह पर नहीं बल्कि एक-दूसरे से लगभग 3,000 किलोमीटर की दूरी पर स्थित थे।

पतलून के घुटनों को मज़बूती देने वाली टेपेस्ट्री बुनाई सबसे पहले दक्षिण-पश्चिमी एशिया में विकसित की गई थी। ट्विल तकनीक संभवतः उत्तर-पश्चिमी एशिया में विकसित हुई थी।

दूसरे शब्दों में, पतलून का आविष्कार में हज़ारों किलोमीटर दूर स्थित संस्कृतियों की विभिन्न बुनाई तकनीकों का मेल है। भौगोलिक परिस्थितियों और खानाबदोशी के कारण यांगहाई, जहां टर्फनमैन को दफनाया गया था, के बुनकरों को इतनी दूर स्थित संस्कृतियों से संपर्क का अवसर मिला होगा। (स्रोत फीचर्स)

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गोदने की सुई से प्रेरित टीकाकरण

रीर पर टैटू बनवाने का चलन काफी पुराना है। प्रागैतिहासिक काल में शरीर पर विभिन्न आकृतियां गुदवाना एक आम बात थी। शुरुआत में गोदना यानी टैटू बनाने के लिए धातु के औज़ारों और वनस्पति रंजकों का उपयोग किया जाता था जो काफी कष्टदायी होता था। आधुनिक तकनीक से गोदना बनाना भी आसान हो गया और गुदवाने वाले को उतना कष्ट भी नहीं होता।     

टैटू बनाने में एक कुशल कलाकार टैटू की सुई को त्वचा में प्रति सेकंड 200 बार चुभोता है। लेकिन रोचक बात यह है कि इस तकनीक में इंजेक्शन के समान स्याही को दबाव डालकर मांस में नहीं भेजा जाता बल्कि जब सुई बाहर निकाली जाती है तब वहां बने खाली स्थान में स्याही खींची जाती है। टेक्सास टेक युनिवर्सिटी के रसायन इंजीनियर इडेरा लावल की रुचि इस तकनीक को टीकाकरण में आज़माने में है।

आम तौर पर टीकाकरण के लिए उपयोग की जाने वाली खोखली सुई ऊपर से पिस्टन को दबाकर डाले गए दबाव पर निर्भर करती है। इसमें सुई मांसपेशियों तक पहुंचती है और फिर सिरिंज के पिस्टन पर दबाव बनाया जाता है जिससे तरल दवा शरीर में प्रवेश कर जाती है।

लावल का ख्याल है कि यह तकनीक हर प्रकार के टीके के लिए उपयुक्त नहीं है। जैसे, आजकल विकसित हो रहे डीएनए आधारित टीके आम तौर पर काफी गाढ़े होते हैं जिनको इंजेक्शन की सुई से दे पाना संभव नहीं होता। यह काम टैटू तकनीक से किया जा सकता है क्योंकि टैटू की सुई का विज्ञान काफी अलग है।

टैटू की स्याही-लेपित सुई त्वचा में प्रवेश करने पर वहां 2 मिलीमीटर गहरा छेद बना देती है। जब सुई त्वचा से बाहर निकलती है, तब इस छोटे छेद में निर्मित निर्वात स्याही को अंदर खींच लेता है। लावल ने इसे एक मांस-नुमा जेल में प्रयोग करके भी दर्शाया है।

कई अन्य विशेषज्ञ लावल के इस प्रयोग को काफी प्रभावी मानते हैं। डैटा पर गौर करें तो आधी स्याही 50 में से 10 टोंचनों से ही पहुंच गई थी। इष्टतम संख्या पर अध्ययन जारी है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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रेडियोधर्मी कचरे का एक लाख वर्ष तक भंडारण!

कोयला संयंत्रों की तुलना में परमाणु उर्जा को स्वच्छ उर्जा माना जाता है। परमाणु उर्जा संयंत्रों की दक्षता भी अधिक होती है – समान मात्रा में कोयले की तुलना में 20,000 गुना अधिक उर्जा प्राप्त होती है। लेकिन इन संयंत्रों से निकलने वाला रेडियोधर्मी कचरा एक बड़ी समस्या है। यह कचरा सैकड़ों हज़ारों वर्षों तक सक्रिय रहता है और पर्यावरण व स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाता रहता है। वर्तमान में, परमाणु संयंत्रों से निकलने वाले अधिकांश रेडियोधर्मी कचरे को बिजली संयंत्रों में ही संग्रहित किया जाता है लेकिन स्थान की कमी के कारण इस कचरे को स्थानांतरित करना आवश्यक हो जाता है।     

इस कचरे को धरती में दफनाने में भी कई समस्याएं हैं। यह धीरे-धीरे मिट्टी को संदूषित कर पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव डालता रहता है। ऐसे में तेज़ी से विकसित हो रहे परमाणु उर्जा संयंत्रों से भविष्य में रेडियोधर्मी अपशिष्ट का निष्पादन एक बड़ी समस्या बन सकता है। वर्तमान में नेवादा स्थित प्रसिद्ध युक्का माउंटेन पर परमाणु कचरे के स्थायी भंडारण से फ्रांस, स्वीडन और अमेरिका जैसे देशों को काफी आलोचनाओं का सामना करना पड़ा है। हाल में फिनलैंड एक दीर्घकालिक परमाणु अपशिष्ट भंडार के लिए अनुमोदन प्राप्त करने में सफल रहा है जिसे आने वाले कुछ वर्षों में शुरू करने की तैयारी है।

इस भंडारण सुविधा को फिनिश भाषा में ऑनकालो नाम दिया गया है जिसका मतलब गहरा गड्ढा है। यूराजोकी शहर के बाहरी क्षेत्र में पृथ्वी की सतह से लगभग आधा किलोमीटर नीचे युरेनियम ईंधन अपशिष्ट का भंडारण किया जाएगा। उम्मीद की जा रही है कि तांबे के पुख्ता कवच, जल-अवशोषक बेंटोनाइट मिट्टी और जलरोधी क्रिस्टलीय चट्टानों की मोटी-मोटी परतें हानिकारक रेडियोधर्मी तत्वों को इस स्थल से बाहर रिसने और स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान पहुंचाने से रोक लेंगी। लेकिन यहां की अछिद्रित चट्टानों में भी दरारें तो होती ही हैं। अत: इस परियोजना पर काम करने वाली कंपनी पोसिवा को इन दरारों का मानचित्रण करके उनसे बचने के काफी प्रयास करना पड़े हैं।

यह परियोजना फिनलैंड के परमाणु उर्जा क्षेत्र के जोखिम को कम करने के लिए काफी महत्वपूर्ण है। इस वर्ष पांचवें परमाणु उर्जा संयंत्र के शुरू होने के बाद परमाणु ऊर्जा देश की ऊर्जा की 40 प्रतिशत मांग को पूरा करेगी। यदि यह परियोजना सफल होती है तो ऑनकालो के विशाल तांबा कवच रेडियोधर्मी युरेनियम को तब तक सुरक्षित और सुखाकर रखेंगे जब तक कि यह पर्याप्त सुरक्षित स्तर तक विघटित नहीं हो जाता यानी लगभग एक लाख वर्षों तक। (स्रोत फीचर्स) 

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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समुद्री ध्वनियों की लाइब्रेरी की तैयारी

मुद्रों में अठखेलियां करने वालों ने हम्पबैक व्हेल का दर्दभरा गीत सुना है, किलर व्हेल के समूह का कोलाहल सुना है। लेकिन कांटेदार किना समुद्री साही जैसे शांत जीवों की ध्वनि अनसुनी रह जाती है; यह एक खोखले गोले के पानी में गिरने जैसी आवाज़ करता है। अब, कुछ वैज्ञानिक शांत समुद्री जीवों की ध्वनियां लोगों के ध्यान में लाना चाहते हैं। इसलिए इस महीने फ्रंटियर्स इन इकॉलॉजी एंड इवॉल्यूशन में नौ देशों के 17 शोधकर्ताओं ने समुद्री जीवों द्वारा उत्पन्न ध्वनियों को सूचीबद्ध करने, उनका अध्ययन करने और मानचित्रण के लिए एक वैश्विक लाइब्रेरी का प्रस्ताव रखा है। इस लाइब्रेरी को ग्लब्स (GLUBS) नाम दिया है, जिसमें ध्वनि विशेषज्ञों और नागरिक-वैज्ञानिकों से समुद्र के नीचे की ध्वनियां एकत्र की जाएंगी ताकि शोधकर्ताओं को यह ट्रैक करने में मदद मिले कि समुद्री पारिस्थितिक तंत्र में किस तरह के बदलाव हो रहे हैं।

इस संदर्भ में ऑस्ट्रेलियन इंस्टीट्यूट ऑफ मरीन साइंस के समुद्री जीव विज्ञानी माइल्स पार्सन्स ने स्पष्ट किया कि इस तरह की लाइब्रेरी का सुझाव नया नहीं हैं। समुद्री जीवों की कुछ लाइब्रेरी पहले से मौजूद हैं। लेकिन वे किसी क्षेत्र या कुछ चुनिंदा जंतुओं पर केंद्रित हैं। नया विचार समुद्र के भीतर के ध्वनि के स्रोतों को समझने और उनके दस्तावेज़ीकरण में मदद करेगा।

उन्होंने आगे बताया कि लाइब्रेरी में ज्ञात ध्वनियां और उनके स्रोत होंगे। इसके साथ-साथ इसमें अज्ञात ध्वनियां भी होंगी जिन्हें पहचानने की आवश्यकता होगी। इसमें शोधकर्ता अपने द्वारा रिकॉर्ड की गई किसी एक जंतु की ध्वनि या किसी एक स्थान पर होने वाली सभी आवाज़ों की सम्मिलित रिकॉर्डिंग अपलोड कर सकते हैं। ध्वनि रिकॉर्डिंग के आधार पर विभिन्न प्रजातियों के वितरण पर नज़र रखने वाले नक्शे होंगे। और आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के प्रशिक्षण के लिए एक डैटाबेस होगा।

लाइब्रेरी में ध्वनियों को सहेजने का उद्देश्य आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस को प्रशिक्षित करने का भी है ताकि वे अज्ञात ध्वनियों के (अज्ञात) स्रोतों को पता लगाने और पहचानने में सक्षम हो। आदर्श रूप से हम यह बताने में सक्षम होंगे कि हमने जो ध्वनि रिकॉर्ड की है वह किस प्राणि की है। लेकिन ऐसा करने के लिए प्रत्येक ध्वनि के हज़ारों नमूनों की आवश्यकता होगी।

इस प्रयास में लोगों को जोड़ने के लिए एक ऐसा नागरिक-विज्ञान ऐप बना सकते हैं जिसके ज़रिए वे अपने द्वारा रिकॉर्ड की गई ध्वनियों को अपलोड कर सकें और पहचान सकें। उम्मीद है कि एक दिन एक विशाल डैटाबेस तैयार हो पाएगा जिसको कोई ध्वनि सुनाते ही वह सम्बंधित प्रजाति और उसके व्यवहार को पहचान सकेगा।

समुद्री जीवन की ध्वनियां रिकॉर्ड करने के लिए बैटरी वाले हाइड्रोफोन का उपयोग किया जाता है। खास तौर से गहराई में दबाव से निपटना काफी मुश्किल हो जाता है। हाइड्रोफोन को या तो लगातार रिकॉर्डिंग के लिए या हर 15 मिनट में 5 मिनट की रिकॉर्डिंग करने के लिए प्रोग्राम किया जाता है। (स्रोत फीचर्स)

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सेंटीपीड से प्रेरित रोबोट्स

सेंटीपीड एक रेंगने वाला जीव है। कुछ मिलीमीटर से लेकर 30 सेंटीमीटर लंबे और अनेक टांगों वाले ये जीव विभिन्न परिवेशों में पाए जाते हैं। यह अकशेरुकी जीव रेत, मिट्टी, चट्टानों और यहां तक कि पानी पर भी दौड़ सकता है। जॉर्जिया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी के जीव विज्ञानी डेनियल गोल्डमैन और उनके सहयोगी सेंटीपीड की इस विशेषता का अध्ययन कर रहे थे। हाल ही में टीम ने सोसाइटी ऑफ इंटीग्रेटिव एंड कम्पेरेटिव बायोलॉजी की बैठक के दौरान बताया कि उन्होंने एक ऐसा सेंटीपीड रोबोट तैयार किया है जो खेतों से खरपतवार निकालने में काफी उपयोगी साबित होगा।

दरअसल, सेंटीपीड का लचीलापन ही उसे विभिन्न प्रकार के व्यवहार प्रदर्शित करने में सक्षम बनाता है। वैसे नाम के अनुरूप सेंटीपीड के 100 पैर तो नहीं होते लेकिन हर खंड में एक जोड़ी टांगें होती हैं। यह संरचना उन्हें तेज़ रफ्तार और दक्षता से तरह-तरह से चलने-फिरने की गुंजाइश देती है हालांकि सेंटीपीड की चाल को समझना लगभग असंभव रहा है।

गोल्डमैन के एक छात्र इलेक्ट्रिकल इंजीनियर और रोबोटिक्स वैज्ञानिक यासेमिन ओज़कान-आयडिन ने जब यह पता किया कि कई खंड और टांगें होने का क्या महत्व है तो अध्ययन का तरीका सूझा। इसके लिए ओज़कान-आयडिन ने चार पैर वाले दो-तीन रोबोट्स को एक साथ जोड़ दिया। साइंस रोबोटिक्स में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार यह संयुक्त मशीन चौड़ी दरारों और बड़ी-बड़ी बाधाओं को पार करने के सक्षम थी। इसके अलावा युनिवर्सिटी की एक अन्य छात्र एवा एरिकसन ने अन्य जीवों की तुलना में सेंटीपीड की चाल को और गहराई से समझने का प्रयास किया। गौरतलब है कि घोड़े और मनुष्य अपनी रफ्तार बढ़ाने के लिए अपने पैरों अलग-अलग ढंग से चलाते हैं। वीडियो ट्रैकिंग प्रोग्राम का उपयोग करते हुए एरिकसन ने बताया कि सेंटीपीड अपनी चाल में परिवर्तन उबड़-खाबड मार्ग की चुनौतियों के अनुसार करता है।

आम तौर पर सेंटीपीड के पैर एक तरंग के रूप में चलते हैं। लेकिन कई बार इस तरंग की दिशा में परिवर्तन आता है। समतल सतहों पर इस लहर की शुरुआत पिछले पैर से होते हुए सिर की ओर जाती है लेकिन कठिन रास्तों पर इस लहर की दिशा बदल जाती है और कदम जमाने के लिए सबसे पहले आगे का पैर हरकत में आता है। और तो और, प्रत्येक पैर ठीक उसी स्थान पर पड़ता है जहां पिछला कदम पड़ा था।

सेंटीपीड खुद को बचाने के लिए पानी पर तैरने में भी काफी सक्षम होते हैं। तैरने के लिए भी वे अपनी चाल में परिवर्तन करते हैं। लिथोबियस फॉरफिकैटस प्रजाति का सेंटीपीड अपने पैरों को पटकता है और फिर अपने शरीर को एक ओर से दूसरी ओर लहराते हुए आगे बढ़ता है। यहां दो तरंगें पैदा होती हैं – एक पैरों की गति की तथा दूसरी शरीर के लहराने की। इन दो तरंगों के बीच समन्वय को समझने के लिए एक अन्य छात्र ने गणितीय मॉडल का उपयोग किया। इस मॉडल में पैरों और शरीर की तरंगों के विभिन्न संयोजन तैयार किए गए। पता चला कि दो तरंगों के एक साथ चलने की बजाय इनके बीच थोड़ा अंतराल होने पर रोबोट अधिक तेज़ी से आगे बढ़ता है। इसी तरह से कुछ संयोजनों से रोबोट को पीछे जाने में भी मदद मिलती है। गोल्डमैन और टीम ने इसको आगे बढ़ाते हुए बताया कि यदि रोबोट के पैरों में जोड़ हों और शरीर के खंडों में लोच हो तो रोबोट ज़्यादा बेहतर काम कर सकता है। गोल्डमैन द्वारा तैयार किए गए वर्तमान रोबोट काफी लचीले हैं और वे किसी भी स्थान के कोने-कोने तक पहुंच सकते हैं। आगे वे इन्हें प्रशिक्षित करना चाहते हैं ताकि वे खरपतवार को पहचान सकें और निंदाई का काम कर सकें। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.science.org/do/10.1126/science.ada1651/abs/_20220223_on_centipede.jpg