धरती को ठंडा रखने के लिए धूल का शामियाना

कुछ खगोल भौतिकविदों ने प्लॉस क्लाइमेट में पृथ्वी को ठंडा रखने के लिए सुझाव दिया है कि चंद्रमा से धूल का गुबार बिखेरा जाए ताकि सूर्य के प्रकाश को कुछ हद तक पृथ्वी तक पहुंचने से रोक जा सके।

शोधकर्ताओं की टीम ने एक ऐसा मॉडल तैयार किया है जिसमें अंतरिक्ष में बिखेरी गई धूल से पृथ्वी तक पहुंचने वाली धूप के प्रभाव को 1 से 2 प्रतिशत तक कम किया जा सकता है। टीम के मुताबिक इसका सबसे सस्ता और प्रभावी तरीका चंद्रमा से धूल के गुबार प्रक्षेपित करना है जो एक शामियाना सा बना देगी। इस विचार को कार्यान्वित करने के लिए जटिल इंजीनियरिंग की आवश्यकता होगी।

वैसे जलवायु परिवर्तन के प्रभाव को कम करने की और भी रणनीतियां हैं जिनको निकट भविष्य में अपनाया जा सकता है लेकिन कई शोधकर्ता इस विचार को एक बैक-अप के रूप में देखते हैं। कुछ जलवायु वैज्ञानिक ऐसे विचारों को वास्तविक समाधान से भटकाने वाला मानते हैं।  

सूर्य के प्रकाश को रोकने के लिए किसी पर्दे के उपयोग का प्रस्ताव पहली बार नहीं आया है। लॉरेंस लिवरमोर नेशनल लेबोरेटरी के जेम्स अर्ली ने वर्ष 1989 में सूर्य और पृथ्वी के बीच 2000 किलोमीटर चौड़ी कांच की ढाल स्थापित करने का और 2006 में खगोलशास्त्री रॉजर एंजेल ने धूप को रोकने के लिए खरबों छोटे अंतरिक्ष यानों से छाते जैसी ढाल तैयार करने का विचार रखा था। इसके अलावा पिछले वर्ष एमआईटी शोधकर्ताओं के समूह ने बुलबुलों का बेड़ा तैनात करने का विचार रखा था।

लेकिन इन सभी विचारों से जुड़े असंख्य मुद्दे हैं। जैसे सामग्री की आवश्यकता एवं अंतरिक्ष में खतरनाक और अपरिवर्तनीय निर्माण। उदाहरण के लिए  सूर्य की रोशनी के प्रभाव को कम करने के लिए 10 अरब किलोग्राम से अधिक धूल की आवश्यकता होगी। अलबत्ता, नए प्रस्ताव के प्रवर्तक अंतरिक्ष में धूल फैलाकर सूर्य के प्रकाश को रोकने के विचार को काफी प्रभावी मानते हैं। टीम के मॉडल के मुताबिक चंद्रमा की धूल इसके लिए सबसे उपयुक्त है। इसमें सबसे बड़ी समस्या 10 अरब कि.ग्रा. धूल को एकत्रित करना है जिसको बार-बार फैलाना होगा। इस सामग्री को सही स्थान पर पहुंचाना भी होगा। टीम ने धूल को प्रक्षेपित करने के विभिन्न तरीकों को कंप्यूटर पर आज़माया है।       

वर्तमान सौर इंजीनियरिंग तकनीक से हटकर कई वैज्ञानिकों ने जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए अन्य तरीकों का भी सुझाव दिया है। एक विचार समताप मंडल में गैस और एयरोसोल भरने का है। ऐसा करने से अंतरिक्ष में सूर्य के प्रकाश को परावर्तित करने वाले बादल तैयार किए जा सकते हैं। लेकिन इस तकनीक को विकसित करने में अभी समय लगेगा और ज़ाहिर है कि इसको अपनाने में कई चुनौतियां भी होंगी। इसमें एक बड़ी समस्या अंतर्राष्ट्रीय स्तर की सहमति बनाना होगी जिसको सभी राष्ट्र, वैज्ञानिक समुदाय और संगठन स्वीकार करें। इस बीच यह विचार करना आवश्यक लगता है कि जलवायु परिवर्तन से निपटने के पारंपरिक उपायों पर गंभीरता से अमल किया जाए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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सोना निर्माण की प्रक्रिया काफी उग्र रही है

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वैज्ञानिक हीलियम से लेकर लोहे तक हल्के तत्वों (जिनके नाभिक में 2 से लेकर 26 प्रोटान होते हैं) के निर्माण के बारे में अच्छे से जानते हैं। यह पता है कि ये तत्व तारों के अंदर क्रमिक रूप से प्रोटॉन जुड़ने से बनते हैं। लेकिन सोना, प्लेटिनम, रैडॉन जैसे अधिक प्रोटान की संख्या (यानी परमाणु संख्या) वाले भारी तत्व कैसे बने इसके बारे में अब तक पूरी तरह से पता नहीं चल सका था क्योंकि ये उपरोक्त क्रमिक प्रक्रिया से नहीं बन सकते। एक हालिया रिपोर्ट ने इस दिशा में कुछ उम्मीद जगाई है।

वैज्ञानिकों का अनुमान था कि इन दुर्लभ तत्वों के बनने के पीछे ब्रह्मांड की कोई भयंकर हिंसक या विनाशकारी घटना होगी – जैसे दो न्यू़ट्रॉन तारों की टक्कर। इसलिए वे लगातार ब्रह्मांड पर नज़रें टिकाए हुए थे।

ब्लैक होल के बाद न्यूट्रॉन तारे ही ब्रह्मांड के सबसे घने पदार्थ हैं। ये तब बनते हैं जब कोई भारी तारा मर जाता है और उसका कोर सिकुड़ने लगता है। अत्यधिक गुरुत्व बल परमाणुओं को अत्यधिक पास लाने लगता है, इससे प्रोटॉन और इलेक्ट्रॉन टूटकर न्यूट्रॉन बन जाते हैं। अंत में एक ऐसा पिंड बनता है जो लगभग पूरी तरह से न्यूट्रॉन से बना होता है। इसे न्यूट्रॉन तारा कहते हैं।

कुछ साल पहले वैज्ञानिकों को इसी तरह की घटना से गुरुत्वाकर्षण तरंगों का पता चला था, और उसी समय इस घटना से उत्पन्न प्रकाश भी देखा गया। उन्हें इस प्रकाश में इन भारी तत्वों के रासायनिक संकेत मिले हैं जो इस सिद्धांत के समर्थन में पहले साक्ष्य हैं कि भारी धातुओं का निर्माण दो न्यूट्रॉन तारों की टक्कर जैसी किसी उग्र घटना का परिणाम है।

जब दो न्यूट्रॉन तारे टकराते हैं तो यह भिड़ंत अत्यधिक ऊष्मा और दाब पैदा करती है। यह टक्कर बहुत सारे मुक्त न्यूट्रॉन को भी बाहर भी फेंक देती है – अंतरिक्ष के 1-1 घन सेंटीमीटर क्षेत्र में 1-1 ग्राम तक न्यूट्रॉन बिखर जाते हैं।

ये दुर्लभ स्थितियां तीव्र न्यूट्रॉन-ग्रहण प्रक्रिया (R-प्रोसेस) को शुरू करती हैं। प्रक्रिया एक लोहे जैसे किसी मूल नाभिक से शुरू होती है। सामान्यत: लोहे के नाभिक में 26 प्रोटॉन और लगभग 30 न्यूट्रॉन होते हैं। लेकिन जब R-प्रोसेस शुरू होती है तो मिलीसेकेंड के भीतर ही इसमें बहुत अधिक न्यूट्रॉन आ जाते हैं। न्यूट्रॉन की इतनी अधिक संख्या के कारण नया नाभिक बहुत अस्थिर हो जाता है, इसलिए कुछ न्यूट्रॉन प्रोटॉन में बदल जाते हैं। इस प्रक्रिया का परिणाम एक नया तत्व – सोना (परमाणु संख्या 79, प्लेटिनम (परमाणु संख्या 78) वगैरह – हो सकता है। ज़रा सोचिए, आपकी सोने या प्लेटिनम की अंगूठी, या कानों की बालियां ब्रह्मांड की किसी उग्र घटना की सौगात हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मंगल ग्रह पर कभी चुंबकीय क्षेत्र था

वैज्ञानिकों के अनुसार एक समय ऐसा भी था जब मंगल ग्रह वर्तमान स्थिति से बिलकुल अलग था। घाटियों से निकलती हुई नदियां और झीलें मौजूद थीं और विशेष रूप से चुंबकीय क्षेत्र ने अंतरिक्ष विकिरण से ग्रह को सुरक्षित रखा था। कुछ प्रमुख सिद्धांतों के अनुसार ग्रह के आंतरिक भाग के ठंडे होकर ठोस बनने के कारण चुंबकीय क्षेत्र खत्म हो गया जिससे ग्रह का वातावरण असुरक्षित हो गया और नमी और गर्मी का युग समाप्त हो गया। अलबत्ता, वैज्ञानिकों के बीच इस घटना के समय को लेकर मतभेद हैं।

हाल ही में मंगल ग्रह के सुप्रसिद्ध उल्कापिंड ALH84001, जो यह उल्का पिंड 1984 में अंटार्कटिका के एलन हिल्स नामक स्थान पर मिला था, का नए प्रकार के क्वांटम सूक्ष्मदर्शी से अध्ययन करने पर इस बात के साक्ष्य मिले हैं कि ग्रह का चुंबकीय क्षेत्र 3.9 अरब वर्ष पूर्व तक मौजूद था। यह समय वर्तमान के सबसे स्वीकार्य समय से करोड़ों वर्ष पहले का है। मंगल ग्रह से पृथ्वी तक पहुंचने वाले इस छोटे से उल्कापिंड की मदद से मंगल पर जीवन के संकेतों का पता लगाया जा सकता है। इसके अलावा यह अध्ययन पृथ्वी के समान मंगल के चुंबकीय ध्रुवों के पलटने के विचार का भी समर्थन करता है। इसकी मदद से ग्रह के बाहरी कोर में तरल डायनमो की जानकारी मिल सकती है जो एक समय में चुंबकीय क्षेत्र को ऊर्जा प्रदान करता था।         

वास्तव में जब लौह-युक्त खनिज पिघली हुई चट्टानों से क्रिस्टलीकृत होते हैं तो उन क्रिस्टल के चुंबकीय क्षेत्र ग्रह के चुंबकीय क्षेत्र की लाइन में जम जाते हैं। और ये मूल चुंबकीय क्षेत्र की दिशा की छाप के रूप में संरक्षित हो जाते हैं। इसके बाद कोई चट्टान ग्रह के किसी स्थान पर टकराई तो वहां के कुछ हिस्से गर्म होकर पिघलते हैं और एक नया चुंबकीय क्षेत्र बन जाता है।  

गौरतलब है कि मंगल ग्रह की परिक्रमा करने वाले ऑर्बाइटर्स ने मंगल की सतह पर चुंबकीय अवशेषों की पहचान की है। लेकिन मंगल पर क्षुद्रग्रहों की टक्कर से बनने वाले सबसे प्राचीन गड्ढों – हेलास, अर्जायर और इसिडिस क्रेटर्स – में चुंबकीय चट्टानें नहीं मिली हैं।

अधिकांश शोधकर्ताओं का मत है कि लगभग 4.1 अरब वर्ष पूर्व इन क्रेटर्स के बनने तक चुंबकीय डायनमो कमज़ोर हो गया होगा जिसके कारण इसका प्रभाव देखने को नहीं मिला है। फिर भी ऑर्बाइटर्स को मंगल ग्रह के कुछ अन्य हिस्सों, जो उक्त क्रेटर्स से कई लाख वर्षों बाद के हैं, के लावा में चुंबकीय निशान प्राप्त हुए। इससे यह स्पष्ट होता है कि चुंबकीय क्षेत्र काफी समय बाद भी मौजूद रहा था।

इसी संदर्भ में हारवर्ड युनिवर्सिटी की सारा स्टील ने उल्कापिंड एलन हिल्स 84001 का अध्ययन करने का विचार किया। 1990 के दशक में इस उल्कापिंड के बारे में दावा किया गया था कि इसमें बैक्टीरिया के जीवाश्म मौजूद हैं। हालांकि इस दावे को खारिज कर दिया गया था और इसके चलते 2 किलोग्राम की यह चट्टान काफी बदनाम हो गई थी। बहरहाल, यह उल्कापिंड 4.1 अरब वर्ष पुराना है इसलिए मंगल के उस समय के इतिहास का अध्ययन करने के लिए यह उपयुक्त नमूना है।       

चुंबकीय क्षेत्र का अध्ययन करने के लिए स्टील और हारवर्ड प्लेनेटरी वैज्ञानिक रॉजर फू ने क्वांटम डायमंड माइक्रोस्कोप से एलन हिल्स के 0.6 ग्राम के टुकड़े के तीन पतले स्लाइस की इमेजिंग की। यह माइक्रोस्कोप हीरे में उपस्थित परमाणु स्तर की अशुद्धियों पर निर्भर करता है जो चुंबकीय क्षेत्र में मामूली परिवर्तनों के प्रति संवेदनशील होती हैं। इस उच्च क्षमता वाले माइक्रोस्कोप से नमूने में तीन अलग-अलग स्थानों पर आयरन-सल्फाइड के साक्ष्य प्राप्त हुए। इनमें से दो स्थान अलग-अलग दिशाओं में शक्तिशाली रूप से चुंबकित थे जबकि एक में उल्लेखनीय चुंबकीय चिंह का अभाव था।

स्टील और फू का कहना है कि इन तीन स्थानों का चुंबकत्व तीन अलग-अलग घटनाओं से उत्पन्न हुआ जिनकी समयरेखा 4 अरब, 3.9 अरब और 1.1 अरब वर्ष पहले की पाई गई हैं। फू के अनुसार दो अत्यधिक चुंबकीय स्थान इस ओर संकेत देते हैं कि पूरे ग्रह पर चुंबकीय क्षेत्र 3.9 अरब वर्ष पहले तक उपस्थित रहा होगा। यह चुंबकीय क्षेत्र काफी शक्तिशाली रहा होगा: लगभग 17 माइक्रोटेस्ला जो पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र का लगभग एक-तिहाई है। कुछ अन्य वैज्ञानिकों के अनुसार यह चुंबकीय क्षेत्र हानिकारक कॉस्मिक किरणों से सुरक्षा प्रदान करने के लिए पर्याप्त था। इसके अलावा यह मंगल के वायुमंडल को सौर हवाओं से भी सुरक्षा प्रदान करता था। हालांकि, कुछ वैज्ञानिक इस निष्कर्ष के विरुद्ध चेता रहे हैं। जैसे युनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के प्लेनेटरी वैज्ञानिक रॉब लिलिस के अनुसार हो सकता है कि इस चुंबकीय क्षेत्र ने सौर हवाओं के प्रवाह को ध्रुवों की ओर बढ़ा दिया हो जिससे वायुमंडल को अधिक तेज़ी से नुकसान पहुंचा होगा।    

उल्कापिंडों से प्राप्त खनिजों में ग्रह की आंतरिक गतिविधियों के साक्ष्य भी उपस्थित रहते हैं। नमूनों में उपस्थित दो चुंबकीय क्षेत्र लगभग विपरीत दिशा में हैं। शोधकर्ताओं को लगता है कि मंगल पर चुंबकीय उत्तर-दक्षिण ध्रुवों की अदला-बदली हुई थी, जैसा पृथ्वी पर कई लाख वर्षों में होता रहता है। कंप्यूटर सिमुलेशन से पता चलता है कि किसी ग्रह के तरल डायनमो में परिवर्तन बाहरी कोर में संवहन धाराओं की कुछ विशेष परिस्थितियों में ही होता है। इसके आधार पर मंगल ग्रह की आंतरिक स्थिति को समझने और समय-सीमाएं निर्धारित करने में भी मदद मिलेगी। ध्रुवों के पलटने के आधार पर यह भी समझने में मदद मिलेगी कि कई प्राचीन क्रेटर्स में चुंबकीय चिंह अनुपस्थित क्यों है। (स्रोत फीचर्स)

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मंगल भूकंप संवेदी लैंडर को अलविदा

मेरिकी स्पेस एजेंसी नासा से प्राप्त जानकारी के अनुसार इनसाइट मिशन का अंत हो गया है। यह मार्स लैंडर चार वर्षों से अधिक समय तक मंगल ग्रह पर होने वाले भूकंपों (मंगल-कंपों) की जानकारी देता रहा जिससे ग्रह की आंतरिक संरचना को समझने में काफी मदद मिली। लैंडर से आखिरी बार 15 दिसंबर, 2022 को संपर्क हुआ। दो बार संपर्क का प्रयास करने के बाद एजेंसी का ऐसा मानना है कि लैंडर की बैटरी खत्म हो गई होगी और धूल से ढंके सौर-पैनल बिजली पैदा नहीं कर पा रहे होंगे।     

83 करोड़ डॉलर की लागत वाले इस मिशन का उद्देश्य मंगल के छोटे मंगलकंपों की कंपन तरंगों को रिकॉर्ड करना था। ये तरंगें ग्रह की गहराई में सीमाओं से टकराकर लैंडर पर स्थित कंपनमापी तक पहुंचती हैं। शोधकर्ताओं ने इन तरंगों के आगमन के समय में अंतर का उपयोग करते हुए ग्रह की आंतरिक तस्वीर तैयार करने की कोशिश की है।

टीम ने पाया कि मंगल ग्रह एक पतली पर्पटी, एक ठंडे मेंटल और एक बड़े कोर से निर्मित है। ग्रह के कोर में एक पिघली हुई बाहरी परत भी है।  

वैसे इस मिशन में कुछ दिक्कतें भी रहीं। लैंडर में उपस्थित हीट प्रोब ग्रह की लौंदेदार मिट्टी में घुसकर अपना बिल नहीं बना पाया। लेकिन अपने पूरे जीवनकाल में लैंडर ने क्षुद्रग्रह की टक्करों सहित 1319 मंगलकंपों का पता लगाया। पिछले वर्ष मई में इसने 4.7 तीव्रता वाले सबसे विशाल मंगलकंप का पता लगाया जिसने मंगल की ऊपरी सतह को 10 घंटों तक कंपाया। 

इस ज़ोरदार मंगलकंप के ठीक बाद इस मिशन ने अंत की तैयारी शुरू कर दी। बैटरी की शक्ति को बचाने के लिए लैंडर के विभिन्न हिस्सों को बंद करते हुए केवल कंपनमापी को चालू रखा गया ताकि वह लंबे समय तक चलता रहे। मिशन का अंत तो हो गया लेकिन इसने मंगल ग्रह का अंदरूनी नक्शा बनाने में बहुत मदद की है। (स्रोत फीचर्स)

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चंद्रमा पर पहुंचने की दौड़ में निजी क्षेत्र

जापानी कंपनी आईस्पेस द्वारा निर्मित एम1 लैंडर शायद चांद पर उतरने वाला पहला निजी यान होगा। इसे शीघ्र ही फ्लोरिडा स्थित केप कार्निवल से प्रक्षेपित किया जाएगा। इस लैंडर में संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) और जापानी स्पेस एजेंसी JAXA के मून रोवर्स सहित अन्य पेलोड भेजने की योजना है। मिशन सफल रहा तो ये दोनों देश अमेरिका, चीन और सोवियत संघ के साथ चंद्रमा पर उतरने वाले देशों की श्रेणी में शामिल हो जाएंगे।

एम1 को एक अन्य निजी कंपनी स्पेस-एक्स के रॉकेट की मदद से अंतरिक्ष में भेजा जाएगा। चंद्रमा तक पहुंचने के लिए यह एक घुमावदार मार्ग अपनाते हुए मार्च-अप्रैल 2023 में चांद पर उतरेगा।

इसके अलावा, टेक्सास स्थित इंट्यूटिव मशीन्स नामक यूएस फर्म के नोवा-सी मिशन को मार्च 2023 में प्रक्षेपित करने की योजना है। यह चंद्रमा तक पहुंचने के लिए सीधा रास्ता अपनाएगा और केवल 6 दिन का समय लेगा।      

एम1 वास्तव में पृथ्वी और सूर्य के गुरुत्वाकर्षण बल का उपयोग करते हुए चंद्रमा तक पहुंचेगा इस तकनीक से कम ईंधन की आवश्यकता होगी और एम1 कम लागत में अधिक भारी पेलोड ले जा पाएगा।  

चंद्रमा के नज़दीक पहुंचने के बाद लैंडर चंद्रमा की परिक्रमा बढ़ते दीर्घवृत्ताकार पथ पर करेगा और फिर सीधे उर्ध्वाधर लैंडिंग करेगा। यह सबसे जोखिम भरा हिस्सा है। लैंडर को चंद्रमा के एटलस क्रेटर के निकट उतारने का लक्ष्य है। इस स्थल का चुनाव इसलिए किया गया है क्योंकि यह समतल है और बोल्डर-मुक्त है। लेकिन चंद्रमा से सम्बंधित डैटा की कमी के चलते नए स्थान पर लैंडर को उतारना काफी रोमांचक हो सकता है।

इस रॉकेट के माध्यम से मोहम्मद बिन राशिद स्पेस सेंटर द्वारा निर्मित राशिद रोवर भेजा जा रहा है। यूएई सरकार द्वारा निर्धारित 2024 की समय सीमा से काफी पहले राशिद रोवर रवाना हो रहा है। यह रोवर मात्र 50 सेंटीमीटर लंबा और 10 किलोग्राम वज़नी है। मिशन राशिद केवल एक चंद्र दिवस के लिए चलेगा जो पृथ्वी के 14 दिनों के बराबर होता है। यह रोवर एआई एल्गोरिदम द्वारा निर्देशित होगा और इलाके की विशेषताओं की पहचान करेगा।  

रोवर के उपकरणों में चार लांगम्यूर प्रोब हैं जो चंद्रमा की सतह पर धूल की गति को प्रभावित करने वाले आवेशित कणों के तापमान और घनत्व की गणना करेंगे। राशिद में चार कैमरे भी लगाए गए हैं जिनमें से दो कैमरे पर्यावरण का निरीक्षण करेंगे, रेगोलिथ नामक एक माइक्रोस्कोपिक कैमरा चंद्रमा की मिट्टी का अध्ययन करेगा और एक थर्मल इमेजर कैमरा लैंडिंग साइट की भूगर्भीय विशेषताओं का अध्ययन करेगा। इसके अलावा ग्रैफीन आधारित कम्पोज़िट सामग्रियों के नमूने भी रोवर के पहियों में चिपकाए जाएंगे ताकि चंद्रमा के कठोर वातावरण में उनका परीक्षण किया जा सके। राशिद रोवर के प्रोजेक्ट मैनेजर हमद अल मर्ज़ूकी के अनुसार राशिद से प्राप्त डैटा भावी खोज में और रोवर तथा रोबोट के विकास को बेहतर बनाने में मददगार होगा।  

एम1 में एक दो पहिया JAXA रोबोट भी शामिल है जो केवल कुछ घंटों के लिए काम करेगा। एजेंसी के अनुसार यह रोवर चंद्रमा की सतह के चारों ओर चक्कर लगाकर डैटा एकत्रित करेगा जिसका उपयोग भविष्य के मानवयुक्त रोवर डिज़ाइन करने में किया जाएगा। इसके अलावा एम1 में एक 360-डिग्री कैमरा भी शामिल है जो जापानी फर्म एनजीके स्पार्क प्लग द्वारा निर्मित एक सॉलिड स्टेट बैटरी का परीक्षण करेगा।

आईस्पेस 2024 में एम2 को प्रक्षेपित करने की योजना भी बना रहा है। देखा जाए तो पिछले कुछ समय में कई राष्ट्रीय अंतरिक्ष एजेंसियों और निजी कंपनियों के लिए चंद्रमा एक लोकप्रिय गंतव्य बन गया है। आईस्पेस के मुख्य प्रौद्योगिकी अधिकारी रयो उजी आईस्पेस और इसी तरह के अन्य कार्यक्रमों को चंद्रमा पर एक पारिस्थितिकी तंत्र विकसित करने के लिए काफी महत्वपूर्ण मानते हैं। यह चंद्रमा पर जल दोहन की दिशा में एक कदम है। कुछ कंपनियों को उम्मीद है कि चंद्रमा पर उपस्थित पानी का उपयोग रॉकेट ईंधन के रूप में किया जा सकता है जिससे सौर मंडल की खोज को काफी सस्ता बनाया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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शनि के उपग्रह पर ड्रोन भेजने की तैयारी में नासा – प्रदीप

बीते चार-पांच दशकों में शनि का सबसे बड़ा चंद्रमा टाइटन आकर्षण का केंद्र रहा है। टाइटन पृथ्वी के अलावा सौरमंडल का इकलौता ऐसा पिंड है, जिसकी सतह पर नहरों, सागरों आदि की उपस्थिति के ठोस प्रमाण मिले हैं। विज्ञानियों का मानना है कि एक समय हमारी पृथ्वी टाइटन की तरह ही थी। टाइटन के वायुमंडल में बादलों की मौजूदगी और तड़ित की घटनाएं पृथ्वी जैसे मौसम का वायदा करती हैं। इसलिए वहां सूक्ष्मजीवी जीवन की मौजूदगी की पूरी संभावना है।

पृथ्वी से बाहर जीवन की मौजूदगी की जिज्ञासा में दुनिया भर की स्पेस एजेंसियां लंबे समय से टाइटन की ओर टकटकी लगाए बैठी हैं। इसी क्रम में अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा टाइटन पर जीवन की संभावनाओं की पड़ताल के लिए ड्रैगनफ्लाई नामक ड्रोन भेजने की तैयारी में है। मिशन ड्रैगनफ्लाई को 2027 में लांच किया जाना है और 2034 में इसके टाइटन पर पहुंचने की उम्मीद है।

हाल ही में कॉर्नेल युनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं की एक टीम ने टाइटन पर ड्रैगनफ्लाई की लैंडिंग साइट निर्धारित करने के लिए कैसिनी मिशन द्वारा ली गई तस्वीरों का विश्लेषण किया है ताकि ड्रैगनफ्लाई की लैंडिंग के लिए एक आदर्श स्थान चुना जा सके। अंतत: सेल्क क्रेटर के पास के साग्रीला टीले को चुना गया है।

दी प्लेनेटरी साइंस जर्नल में प्रकाशित शोधपत्र के प्रधान लेखक ली बोनेफाय का कहना है कि ड्रैगनफ्लाई टाइटन की विषुवत रेखा के सूखे इलाके में उतरेगा जहां बहुत ही ठंडे और घने वायुमंडल वाले हाइड्रोकार्बन का संसार है। कई बार वहां तरल मीथेन की बारिश होती है। लेकिन कई जगह धरती के रेगिस्तानों जैसी हैं, जहां रेत के टीले हैं, छोटे पहाड़ हैं और इम्पैक्ट क्रेटर भी हैं। अभी तक बहुत सारी जानकारियां (जैसे सेल्क क्रेटर का आकार और ऊंचाई) अनुमान ही हैं इसलिए इस सम्बंध में 2034 से पहले ज़्यादा से ज़्यादा सटीक जानकारी जुटाने की ज़रूरत है।

तकरीबन 85 करोड़ डॉलर के इस मिशन के तहत ड्रोन की मदद से टाइटन की सतह से नमूने एकत्रित कर उसकी संरचना समझने की कोशिश होगी। नासा को कैसिनी मिशन के दौरान ऐसे संकेत मिले थे कि टाइटन पर कुछ ऐसे कार्बनिक पदार्थ मौजूद हैं, जिन्हें जीवन के लिए ज़रूरी माना जाता है। तरल पानी की मौजूदगी का भी दावा किया गया था। ड्रैगनफ्लाई छोटी-छोटी उड़ानें भरेगा और विभिन्न स्थानों पर उतर कर वहां से नमूने इकट्ठा करेगा। इसकी उड़ानें आठ किलोमीटर तक की होंगी और यह कुल 175 किलोमीटर की उड़ान भरेगा। यह दूरी मंगल पर समस्त रोवरों द्वारा मिलकर तय की गई दूरी से दोगुनी होगी। उम्मीद है कि ड्रैगनफ्लाई टाइटन के सघन वायुमंडल को भेदकर उसकी बहुतेरी गुत्थियों से पर्दा उठाने में मददगार साबित होगा। (स्रोत फीचर्स)

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चीन ने बनाई विश्व की सबसे बड़ी सौर दूरबीन

हाल ही में चीन ने तिब्बती पठार पर विश्व की सबसे विशाल सौर दूरबीन स्थापित की है। डाओचेंग सोलर रेडियो टेलिस्कोप (डीएसआरटी) नामक यह दूरबीन 300 से अधिक तश्तरी के आकार के एंटीनाओं का समूह है जो 3 किलोमीटर के दायरे में फैला हुआ है। इसको स्थापित करने का कार्य 13 नवंबर को पूरा हुआ और इसका परीक्षण जून में शुरू किया जाएगा। इस वेधशाला से सौर विस्फोटों का अध्ययन करने और पृथ्वी पर इनके प्रभावों को समझने में मदद मिलेगी। आने वाले कुछ वर्षों में सूर्य अत्यधिक सक्रिय चरण में प्रवेश कर रहा है, ऐसे में डीएसआरटी द्वारा एकत्र रेडियो-आवृत्ति डैटा अन्य आवृत्ति बैंड में काम कर रही दूरबीनों के डैटा का पूरक होगा।

पिछले कुछ वर्षों में सौर अध्ययन के क्षेत्र में काफी महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए हैं। 2018 में नासा द्वारा पार्कर सोलर प्रोब और 2020 में युरोपियन स्पेस एजेंसी द्वारा सोलर ऑर्बाइटर प्रक्षेपित किए गए थे। चीन ने भी पिछले दो वर्षों में अंतरिक्ष सौर वेधशाला सहित सूर्य का अध्ययन करने वाले चार उपग्रहों का प्रक्षेपण किया है। ये उपग्रह पराबैंगनी और एक्स-रे आवृत्तियों पर सूर्य का अध्ययन कर रहे हैं। चीन स्थित वेधशालाएं सौर गतिविधियों से सम्बंधित महत्वपूर्ण डैटा प्रदान करेंगी जो अन्य टाइम ज़ोन की दूरबीनों द्वारा देख पाना संभव नहीं है।

डीएसआईटी जैसी रेडियो दूरबीन सूर्य के ऊपरी वायुमंडल (कोरोना या आभामंडल) में होने वाली गतिविधियों (जैसे सौर लपटों और सूर्य से पदार्थों का फेंका जाना यानी कोरोनल मास इजेक्शन, सीएमई) का अध्ययन करने में काफी उपयोगी होंगी। आम तौर पर सूर्य के चुम्बकीय क्षेत्र में परिवर्तन होने पर सौर लपटों या सीएमई जैसे विशाल विस्फोट होते हैं। सीएमई के दौरान उत्सर्जित उच्च-ऊर्जा कण कृत्रिम उपग्रहों को नुकसान पहुंचाते हैं और पॉवर ग्रिड को तहस-नहस कर सकते हैं। इस वर्ष फरवरी में एक कमज़ोर सीएमई ने स्पेसएक्स द्वारा प्रक्षेपित 40 स्टारलिंक संचार उपग्रहों को नष्ट कर दिया था। अंतरिक्ष में उपग्रहों की बढ़ती संख्या के चलते अंतरिक्ष मौसम के बेहतर पूर्वानुमान की भी आवश्यकता है।

अंतरिक्ष मौसम का अनुमान लगाना काफी चुनौतीपूर्ण है। डीएसआरटी के प्रमुख इंजीनियर जिनग्ये यान के अनुसार डीएसआरटी सूर्य की डिस्क से कम से कम 36 गुना अधिक क्षेत्र में नज़र रख सकता है। यह सीएमई को ट्रैक करने और अंतरिक्ष में उच्च-ऊर्जा कणों के प्रसार की प्रक्रिया को समझने में काफी उपयोगी होगा। इससे प्राप्त जानकारी की मदद से वैज्ञानिक सीएमई उत्सर्जन और इसके पृथ्वी तक पहुंचने का अनुमान लगा सकते हैं।

यान के अनुसार डीएसआरटी से प्राप्त डैटा अंतर्राष्ट्रीय शोधकर्ताओं को भी उपलब्ध कराया जाएगा। इसके अलावा, भविष्य में डीएसआरटी का उपयोग रात के समय में पल्सर अनुसंधान वगैरह हेतु करने की भी योजना है। इसके अलावा चीन ने तिब्बती पठार में सिनचुआन पर एक नई दूरबीन स्थापित करने की भी योजना बनाई है जिसके 2026 तक पूरी होने की उम्मीद है। (स्रोत फीचर्स)

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चंद्रमा और पृथ्वी का लगभग एक-सा अतीत

चंद्रमा की सतह छोटे-बड़े हज़ारों गड्ढों (क्रेटर) से अटी पड़ी है, जो क्षुदग्रहों की टक्कर के कारण बने हैं। पृथ्वी पर हुई उल्कापिंड की ज़ोरदार टक्कर तो विख्यात है, जिसके कारण किसी समय पृथ्वी पर राज करने वाले डायनासौर पृथ्वी से खत्म हो गए थे। अब, साइंस एडवांसेस पत्रिका में प्रकाशित हालिया अध्ययन बताता है कि लाखों साल पहले चंद्रमा और पृथ्वी पर उल्कापिंडों की बौछार लगभग एक समय पर हुई थी। यह शोध खगोलविदों को आंतरिक सौर मंडल को बेहतर ढंग से समझने में मदद कर सकता है और यह अनुमान लगाने में मदद कर सकता है कि भविष्य में विनाशकारी टक्कर लगभग कब होगी?

ऑस्ट्रेलिया की कर्टिन युनिवर्सिटी के स्पेस साइंस एंड टेक्नॉलॉजी सेंटर के शोधकर्ता चीन के चांग’ई-5 चंद्र मिशन द्वारा पृथ्वी पर लाई गई चंद्रमा की मिट्टी में मिले सूक्ष्म कांच के मनकों का अध्ययन करके इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं।

उन्होंने विभिन्न तकनीकों और सांख्यिकीय मॉडलिंग और भूगर्भीय सर्वेक्षणों के आधार पर यह भी अनुमान लगाया कि चंद्रमा पर कांच के ये सूक्ष्म मनके कैसे बने और कब। उन्होंने पाया कि ये मनके उल्का पिंडों की टक्कर के कारण उत्पन्न हुई तीव्र गर्मी और दबाव के कारण बने थे। तो यदि शोधकर्ता यह पता कर लेते हैं कि इन मनकों की उम्र क्या है तो इससे चंद्रमा पर हुई उल्का पिंडों की बौछार का समय भी निर्धारित किया जा सकता है।

जब ऐसा किया गया तो पता चला कि चंद्रमा और पृथ्वी पर क्षुद्रग्रहों के टकराने का समय और आवृत्ति लगभग एक समान है। चंद्रमा पर पाए गए कुछ मनके लगभग 6.6 करोड़ साल पहले बने थे, यानी चंद्रमा की सतह पर टक्कर 6.6 करोड़ वर्ष पहले हुई थी। और लगभग इसी समय डायनासौर को खत्म कर देने वाला उल्कापिंड, चिक्सुलब इंपेक्टर, मेक्सिको के युकाटन प्रायद्वीप के पास पृथ्वी से टकराया था। यह टक्कर इतनी भीषण थी कि इसके कारण पृथ्वी का लगभग तीन-चौथाई जीवन खत्म हो गया था।

करीब 70,000 कि.मी. प्रति घंटे की रफ्तार से टकराए 10 कि.मी. चौड़े इस उल्कापिंड ने पृथ्वी में 150 कि.मी. चौड़ा और 19 कि.मी. गहरा गड्ढा बना दिया था। टक्कर से उपजी भूकंपनीयता के अलावा पृथ्वी पर धूल का गुबार छा गया था जिसने सूर्य का प्रकाश रोक दिया था। फलस्वरूप जीवन के विकास ने नया मोड़ लिया था।

टीम अब चांग’ई-5 द्वारा लाई गई मिट्टी के नमूनों की तुलना चंद्रमा से लाई गई मिट्टी के अन्य नमूनों और चंद्रमा की सतह पर बने गड्ढों की उम्र के साथ करना चाहती है ताकि चंद्रमा पर हुई अन्य टक्करों के बारे में समझ सकें, और इसकी मदद से पृथ्वी पर होने वाली क्षुद्रग्रह टक्कर से जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों को समझ सकें। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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सौर मंडल से बाहर के ग्रह में कार्बन डाईऑक्साइड

जेम्स वेब दूरबीन की मदद से सौर मंडल से बाहर के एक ग्रह के वातावरण में कार्बन डाईऑक्साइड के साक्ष्य मिले हैं। शनि के आकार का यह ग्रह पृथ्वी से 700 प्रकाश वर्ष दूर है। यह पहली बार है कि किसी बाह्य ग्रह में इस गैस के साक्ष्य मिले हैं। किसी ग्रह पर कार्बन डाईऑक्साइड की उपस्थिति से उस ग्रह की उत्पत्ति के महत्वपूर्ण सुराग मिलते हैं। खगोलविदों का विश्वास है कि जल्द ही जेम्स वेब दूरबीन से मीथेन और अमोनिया जैसी गैसों की पहचान भी की जा सकेगी जो किसी ग्रह पर जीवन की उपस्थिति का अंदाज़ देंगी।

वेब दूरबीन अवरक्त तरंगों के प्रति संवेदनशील है जिन्हें पृथ्वी का वायुमंडल अवरुद्ध करता है। जब कोई ग्रह कक्षा में चक्कर लगाते हुए अपने तारे के सामने से गुज़रता है तो तारे का प्रकाश ग्रह के वायुमंडल से होकर गुज़रता है। वायुमंडल से गुज़रने के दौरान प्रकाश में जो परिवर्तन होते हैं वे ग्रह के वायुमंडल के संघटन का सुराग देते हैं क्योंकि वायुमंडल में उपस्थित गैसें विभिन्न तरंग लंबाई के प्रकाश का अवशोषण करती हैं। हमारी रुचि की अधिकांश गैसें अवरक्त प्रकाश का अवशोषण करती हैं।          

हालिया अध्ययन के लिए खगोलविदों ने वैस्प-39बी नामक गैसीय गर्म विशाल ग्रह को चुना जो हर 4 दिनों में अपने तारे की परिक्रमा करता है। इस ग्रह के अवशोषण स्पेक्ट्रम में वेब टीम ने कार्बन डाईऑक्साइड गैस की यकीनी उपस्थिति देखी। वैसे इसी डैटा से कार्बन डाईऑक्साइड के अलावा एक और गैस का पता चला है लेकिन अभी तक टीम ने इसके बारे में कोई जानकारी नहीं दी है। जल्द ही परिणाम नेचर पत्रिका में प्रकाशित किए जाएंगे जिसमें इस ग्रह पर उपस्थित सभी रसायनों की जानकारी होगी।   

किसी भी ग्रह पर कार्बन डाईऑक्साइड की उपस्थिति से उस ग्रह की ‘धात्विकता’ का पता चलता है। ‘धात्विकता’ का अर्थ है कि किसी ग्रह पर हाइड्रोजन व हीलियम तथा अन्य तत्वों का अनुपात क्या है। गौरतलब है कि बिग बैंग के बाद ब्रह्मांड में हाइड्रोजन और हीलियम का निर्माण हुआ था। आगे चलकर इन दो तत्वों से अधिक भारी तत्वों का निर्माण तारों में हुआ। शोधकर्ताओं के अनुसार भारी तत्वों ने विशाल ग्रहों के निर्माण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। जब किसी नए तारे के इर्द-गिर्द सामग्री के डिस्क से ग्रह का निर्माण होता है तब भारी तत्व ठोस पत्थरों और चट्टानों को जोड़कर कोर का निर्माण करते हैं जो अंततः अपने स्वयं के गुरुत्वाकर्षण से गैसों को अपनी ओर खींचते हैं और एक विशाल ग्रह का रूप ले लेते हैं।         

वैस्प-39बी से मिले कार्बन डाईऑक्साइड के साक्ष्यों से वेब टीम का अनुमान है कि इस ग्रह की धात्विकता लगभग शनि ग्रह के समान है। उम्मीद है कि वेब दूरबीन कई आश्चर्यजनक परिणाम देगी। शायद हमें कोई ऐसा ग्रह मिल जाए जो जीवन के योग्य हो। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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चांद पर दोबारा उतरने की कवायद – प्रदीप

आर्टेमिस मिशन के ज़रिए नासा इंसानों को एक बार फिर चांद पर उतारने की योजना बना रहा है। हाल ही में अपोलो-11 चंद्र लैंडिंग की 53वीं वर्षगांठ के अवसर पर नासा के एक्सप्लोरेशन सिस्टम डेवलपमेंट मिशन निदेशालय के सह-प्रशासक जिम फ्री ने बताया है कि आर्टेमिस-I मेगा मून रॉकेट जल्द ही लांच किया जा सकता है। आर्टेमिस-I एक मानव रहित मिशन होगा। यह मिशन आर्टेमिस कार्यक्रम के प्रारंभिक परीक्षण के तौर पर चांद पर जाएगा और फिर वापस धरती पर लौट आएगा। आर्टेमिस मिशन के ज़रिए नासा 2025 तक इंसानों को एक बार फिर चांद पर उतारने के अपने लक्ष्य को पूरा करना चाहता है। इस मिशन के तहत एक महिला भी चांद पर जाएगी, जो चांद पर जाने वाली विश्व की पहली महिला बनेगी।

आर्टेमिस मिशन अंतरिक्ष अन्वेषण के क्षेत्र में एक नए युग की शुरुआत करेगा। नासा का कहना है कि भले ही यह मिशन चांद से शुरू होगा पर यह निकट भविष्य के मंगल अभियानों के लिए भी वरदान सिद्ध होगा क्योंकि चांद पर जाना, मंगल पर पहुंचने से पहले आने वाला एक बेहद अहम पड़ाव है। दरअसल, नासा चांद को मंगल पर जाने के लिए एक लांच पैड की तरह इस्तेमाल करना चाहता है।

रणनीतिक और सामरिक महत्व के चलते चांद पर जाने की होड़ एक नए सिरे से शुरू हो चुकी है। जो भी देश चांद पर सबसे पहले कब्जा करेगा उसका अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में दबदबा बढ़ेगा। चंद्रमा की दुर्लभ खनिज संपदा, खासकर हीलियम-3, ने भी इसे सबका चहेता बना दिया है। अमेरिका के अलावा रूस, जापान, दक्षिण कोरिया और भारत भी 2022-23 में अपने चंद्र अन्वेषण यान भेजने वाले हैं। यही नहीं, कई निजी कंपनियां चांद पर सामान व उपकरण पहुंचाने और प्रयोगों को गति देने के उद्देश्य से सरकारी अंतरिक्ष एजेंसियों के ठेके हासिल करने की कतार में खड़ी हैं।

भारत के चंद्रयान-2 मिशन के विफल होने के बाद, भारत 2023 की पहली तिमाही में चंद्रयान-3 मिशन के तहत दोबारा लैंडर और रोवर चांद पर भेजने की योजना बना रहा है। चंद्रयान-2 मिशन के सबक के आधार पर चंद्रयान-3 मिशन की तैयारी की गई है। चंद्रयान-2 के दौरान लांच किए गए ऑर्बाइटर का उपयोग भी किया जाएगा।

चांद पर जाने की तैयारी में विभिन्न देशों की सरकारी और निजी स्पेस एजेंसियां पूरे दमखम के साथ जुटी हैं। दक्षिणी कोरिया अगले महीने अपना पहला ‘कोरिया पाथफाइंडर ल्यूनर ऑर्बाइटर मिशन’ भेजेगा। यह ऑर्बाइटर चंद्रमा की भौगोलिक और रासायनिक संरचना का अध्ययन करेगा। इसी साल रूस भी अपने लैंडर लूना-25 को चांद की सतह पर उतारने की तैयारियों में जुटा हुआ है। गौरतलब है कि पिछले 45 वर्षों में यह चांद की ओर रूस का पहला मिशन होगा। इनके अलावा जापान भी अगले साल अप्रैल में चांद पर अपना स्मार्ट लैंडर उतारने की तैयारी कर रहा है। दुनिया भर के देशों में चांद को लेकर एक होड़-सी लगी दिखती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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