वुडरैट के घोंसलों में एंटीबायोटिक निर्माता बैक्टीरिया

वुडरैट चूहे जैसा एक जंतु होता है जो अपने बिल में प्राय: टहनियां वगैरह जमा करता है। फ्लोरिडा के निकट छोटे-छोटे टापुओं पर पाए जाने वाले की लार्गो वुडरैट्स जंगल में फेंकी गई पुरानी कारों, नौकाओं और छोटे प्लास्टिक घरों में अपने घोंसले बनाने लगे हैं। उनके आवास गंदगी से घिरे होने के कारण, उनका जीवन जोखिमपूर्ण लगता है। लेकिन हाल के एक अध्ययन से सर्वथा विपरीत स्थिति सामने आई है। उनके घोंसले ना सिर्फ कृंतकों यानी कुतरने वाले जंतुओं में होने वाले आम रोगों से मुक्त थे, बल्कि उनमें एंटीबायोटिक बनाने वाले बैक्टीरिया भी थे।

1800 के अंत में, अनानास की खेती के लिए की लार्गो के जंगलों को साफ किया गया था। तब वुडरैट बचे-खुचे जंगलों में रहने लगे लेकिन जिन पेड़ों पर वे अपने बिल बनाते थे वे अधिकांश नष्ट हो चुके थे। 1980 के आसपास द्वीप के उत्तरी छोर पर फिर से जंगल पनपना शुरू हुआ, और अब वहां 1000 हैक्टर से भी कम संरक्षित क्षेत्र में कुछ हज़ार वुडरैट बसे हैं।

लेकिन द्वीप पर सीमित जगह होने की वजह से यह जंगल पुरानी कारों और वाशिंग मशीन का डंपिंग ग्राउंड बन गया। तब अप्रत्याशित रूप से वुडरैट्स इस डंपिंग ग्राउंड में बसने लगे। कबाड़ बन चुकी कारों में वुडरैट्स लकड़ी और पत्तियों से अपने घोंसले बनाने लगे। संरक्षणकर्ताओं ने इस ओर ध्यान दिया और जिन इलाकों में घोंसला बनाने की प्राकृतिक सामग्री कम थी वहां उन्हें कबाड़ मुहैया कराया। और प्लास्टिक पाइप और पत्थरों से 1000 से अधिक कृत्रिम घोंसले भी तैयार किए।

यह जानने के लिए कि कृत्रिम घोंसलों में रोगजनक सूक्ष्मजीव तो नहीं पनप रहे, कैलिफोर्निया युनिवर्सिटी के सूक्ष्मजीव पारिस्थितिकीविद मेगन थेम्स और उनके साथियों ने 10 कृत्रिम घोंसलों में पनपने वाले सूक्ष्मजीवों का पता लगाया। इसकी तुलना उन्होंने लकड़ियों और पत्तियों से बने 10 ‘प्राकृतिक’ घोंसलों, उनके आसपास के स्थानों की मिट्टी और वुडरैट्स की त्वचा से लिए गए नमूनों से की। उन्होंने बैक्टीरिया के डीएनए का अनुक्रमण भी किया।

शोधकर्ताओं को किसी भी घोंसले में बैक्टीरिया जनित कोई रोग नहीं मिला। यहां तक कि चूहों में आम तौर पर फैलने वाली बीमारी प्लेग और लेप्टोस्पायरोसिस भी घोंसलों से नदारद थी। इकोस्फीयर पत्रिका में शोधकर्ता बताते हैं कि वुडरैट्स में भी बीमारियों का प्रसार कम दिखा। वहीं वुडरैट के कृत्रिम और प्राकृतिक दोनों घोंसलों में ऐसे बैक्टीरिया मिले जो एरिथ्रोमाइसिन सहित कई एंटीबायोटिक बनाते हैं। हालांकि अभी यह स्पष्ट नहीं है कि एंटीबायोटिक बनाने वाले ये बैक्टीरिया ही रोगजनकों को घोंसलों से दूर रखते हैं। लेकिन घोंसले में सूक्ष्मजीवों की विविधता और प्रचुरता एक कारक ज़रूर हो सकता है।

अध्ययन रेखांकित करता है कि जीवों के संरक्षण प्रयास में यह जानना महत्वपूर्ण है कि संरक्षण के प्रयास जानवरों और पर्यावरण के सूक्ष्मजीव संसार की विविधता को किस तरह प्रभावित करते हैं। सौभाग्यवश वुडरैट के संरक्षण के फलस्वरूप कृत्रिम आवास में उनका सूक्ष्मजीव संसार नहीं बदला था। शोधकर्ता यह जानना चाहते हैं कि वुडरैट्स के घोंसलों मे एंटीबायोटिक बनाने वाले बैक्टीरिया आते कहां से हैं।

अन्य स्तनधारियों में रोगजनकों का सफाया करने वाले सूक्ष्मजीव किस तरह कार्य करते हैं इसे समझना मनुष्यों के अपने रोगों के खिलाफ लड़ने वाले बैक्टीरिया की वृद्धि में मददगार हो सकता है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/Neo001-1280×720.jpg?itok=aMlzrhbw

हमिंगबर्ड की जीवन-रक्षक तंद्रा

ऊंचे एंडीज़ पर्वतों पर पाई जाने वाली हमिंगबर्ड की प्रजातियां वहां कुल्फी जमा देने वाली ठंड का सामना करती हैं। ये नन्हीं और फुर्तीली हमिंगबर्ड ठंड से बचने के लिए विचित्र रास्ता अपनाती हैं। वे अपने शरीर का तापमान रात में कम कर लेती हैं। और अब हालिया अध्ययन में पता चला है कि बर्फीली रातों में जीवित बचने के लिए ये अपने शरीर का तापमान सामान्य की तुलना में 33 डिग्री सेल्सियस तक कम कर सकती हैं।

अपने छोटे आकार के हिसाब से हमिंगबर्ड की चयापचय दर सभी कशेरुकी जीवों की तुलना में सबसे अधिक होती है। यह मनुष्यों की चयापचय दर से लगभग 77 गुना अधिक होती है। इसी वजह से उन्हें लगातार खाते रहना पड़ता है। लेकिन जब बहुत ठंड हो जाती है या अंधेरा हो जाता है तो भोजन तलाशना मुश्किल हो जाता है। यदि शरीर का तापमान सामान्य बनाए रखना है तो बहुत अधिक ऊर्जा की खपत होती है, जिसकी पूर्ति के लिए भोजन मिलना मुश्किल होता है। इसलिए ये अपने शरीर का तापमान बहुत कम कर लेती हैं, जो उन्हें भूख से मरने से बचाता है।

इस अवस्था को टॉरपोर या तंद्रा की अवस्था कहते हैं। टॉरपोर में पक्षी गतिहीन हो जाते हैं और किसी तरह की कोई प्रतिक्रिया नहीं देते। इस अवस्था में इन्हें देखने पर पता भी नहीं चलता कि ये जीवित हैं या नहीं। लेकिन सुबह होते ही वापस सक्रिय होकर भोजन की तलाश शुरू कर देते हैं।

युनिवर्सिटी ऑफ न्यू मेक्सिको के वुल्फ और उनके साथी देखना चाहते थे कि इन ऊंचे स्थानों पर हमिंगबर्ड की विभिन्न प्रजातियां टॉरपोर अवस्था का कितना उपयोग करती हैं। इसके लिए उन्होंने मार्च 2015 में समुद्र तल से लगभग 3800 मीटर ऊपर पेरू एंडीज़ पर्वत से छह विभिन्न प्रजातियों की 26 हमिंगबर्ड पकड़ीं, जिनमें मेटालुरा फीब सबसे छोटी और पैटागोना गिगाससबसे बड़ी थी। यहां रात का तापमान शून्य के करीब पहुंच जाता है।

अध्ययनकर्ताओं ने हरेक हमिंगबर्ड को कैंप के नज़दीक चिड़ियों के एक छोटे दड़बे में रखा। और उनके क्लोएका (मल त्यागने, अंडे देने का मार्ग) में एक तार फिट कर दिया। इस तार की मदद से उन्होंने पूरी रात पक्षियों के शरीर के तापमान पर नज़र रखी।

ना सिर्फ प्रत्येक प्रजाति की हमिंगबर्ड टॉरपोर अवस्था में गई, बल्कि कई हमिंगबर्ड के शरीर का तापमान शून्य डिग्री के करीब पहुंच गया। मेटालुरा फीब हमिंगबर्ड के शरीर का तापमान तो 3.3 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच गया था, जो पक्षियों और गैर-हाइबरनेटिंग जीवों में सबसे कम दर्ज तापमान है। बायोलॉजी लेटर्स में प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक टॉरपोर की अवस्था में हमिंगबर्ड्स के शरीर का तापमान सक्रिय अवस्था की तुलना में औसतन 26 डिग्री सेल्सियस घट जाता है (यानी यह औसतन 5 से 10 डिग्री सेल्सियस तक हो जाता है), जो कि लगभग वातावरण के तापमान के बराबर है। इससे उनकी चयापचय दर 95 प्रतिशत तक कम हो जाती है, और शरीर को गर्म रखने और ह्रदय गति सामान्य बनाए रखने जैसे कार्यों में लगने वाली ऊर्जा की बचत होती है। सामान्यत: उड़ान के वक्त हमिंगबर्ड का ह्रदय एक मिनट में 1000 से 1200 बार धड़कता है लेकिन टॉरपोर अवस्था में यह एक मिनट में महज़ 50 बार धड़कता है।

वैसे तो किसी जीव का सुप्तावस्था में जाना जोखिमपूर्ण हो सकता है, क्योंकि इस अवस्था में वे आसानी से शिकार हो सकते हैं। लेकिन ऊंचाई पर शिकारी अपेक्षाकृत कम होते हैं तो शिकार बनने का खतरा भी कम होता है। शोधकर्ता अपने अध्ययन में आगे देखना चाहते हैं कि हमिंगबर्ड अपने शरीर को इतना ठंडा कैसे कर लेती हैं।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/BlackMetalTailHummingbird_1280x720.jpg?itok=nVzdhlNG

मधुमक्खियों की क्षति से जुड़ी हैं गंभीर समस्याएं – भारत डोगरा

देश व दुनिया दोनों स्तरों पर समाचार आ रहे हैं कि अनेक देशों व क्षेत्रों में मधुमक्खियों की संख्या में भारी कमी आ रही है। इसका एक स्पष्ट प्रतिकूल असर यह नज़र आता है कि अच्छी गुणवत्ता के प्राकृतिक शहद की उपलब्धि में कमी होगी। बाज़ार में इसकी डिब्बाबंद उपलब्धि अधिक नज़र आएगी पर इसमें शुद्धता व पौष्टिकता की कमी होगी, कृत्रिम पदार्थों की मिलावट अधिक होगी।

इस प्रतिकूल परिणाम के अतिरिक्त एक अन्य दुष्परिणाम इससे भी कहीं अधिक गंभीर है, वह है परागण में कमी। अनेक खाद्य फसलों व पौधों के परागण में मधुमक्खियों की बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका होती है। यदि मधुमक्खियों में अत्यधिक कमी आएगी तो इसका निश्चय ही खेती व बागवानी,फसलों व पौधों पर प्रतिकूल असर पड़ेगा। यह एक ऐसी गंभीर क्षति है जिसकी पूर्ति अन्य किसी तरीके से नहीं हो सकती है।

यह क्षति तो तभी कम हो सकती है जब मधुमक्खियों की, विशेषकर स्थानीय प्रजातियों की, रक्षा की जाए। प्राय: यह देखा गया कि परागण की जो प्राकृतिक भूमिका बहुत स्वाभाविक ढंग से और मुस्तैदी से स्थानीय प्रजातियों की मधुमक्खियां निभाती हैं, वह बाहरी प्रजातियों की मधुमक्खियां नहीं निभा सकतीं। उदाहरण के लिए, कई बार ठंडी जलवायु के देशों (जैसे इटली) की मधुमक्खियों को गर्म जलवायु के देशों (जैसे भारत) में यह कह कर लाया गया है कि इससे शहद का बेहतर उत्पादन हो सकेगा, पर हकीकत में नए इलाके की गर्म जलवायु में ये मधुमक्खियां परागण में अधिक रुचि ही नहीं लेती हैं या स्वभावगत तत्परता नहीं दिखाती हैं।

भारत के कुछ भागों में बाहरी मधुमक्खियों की प्रजातियों को लाने पर भी कुछ समस्याएं आर्इं। केरल व दक्षिण भारत के कुछ भागों में एपिस मेलीफेरा मधुमक्खी को बाहर से लाने पर एक वायरसजन्य बीमारी फैली जिससे स्थानीय मधुमक्खियां बड़ी संख्या में मारी गई। दूसरी ओर, स्थानीय परिवेश में अनुकूलन न होने के कारण बाहरी प्रजाति की मधुमक्खियां भी मरने लगीं। बाहरी प्रजातियों की मधुमक्खी के पालन पर खर्च अधिक होता है, अत: छोटे किसान व निर्धन परिवार इसे नहीं अपना पाते।

यह भी देखा गया है कि मधुमक्खियों में विविधता स्थानीय पौधों की प्रजातियों की जैव विविधता से जुड़ी हुई है। इस तरह स्थानीय प्रजातियों की मधुमक्खियों के क्षतिग्रस्त होने से पौधों की जैव विविधता की बहुत क्षति हो रही है।

कर्नाटक के वैज्ञानिक डॉ. चन्द्रशेखर रेड्डी ने एक अनुसंधान में पाया कि राज्य में बाहरी प्रजातियों की जो मधुमक्खियों कृत्रिम ढंग से स्थापित की गर्इं थी उनमें से 95 प्रतिशत खत्म हो गर्इं या विफल हो गर्इं। जो बचीं उन्हें भी बहुत चीनी खिलाकर व दवा के बल पर जीवित रखा गया। पश्चिमी घाट में कई अनुकूल पौधे होने के बावजूद ये मधुमक्खियां वहां भी बहुत कम शहद तैयार कर पार्इं।

मधुमक्खियों सम्बंधी इन विसंगति भरी नीतियों में सुधार करने के लिए यहां के प्रमुख सामाजिक कार्यकर्ता पांडुरंग हेगड़े ने परंपरागत शहद का कार्य करने वाले गांववासियों को जोड़कर मधुमक्खी रक्षा अभियान (सेव हनी बी कैम्पैन) आरंभ किया है।

इस तरह के अभियान विश्व के कुछ अन्य भागों में भी सक्रिय हो रहे हैं। इनकी एक मुख्य मांग यह भी है कि कृषि में रासायनिक कीटनाशकों, खरपतवारनाशकों व जंतुनाशकों का उपयोग न्यूनतम किया जाए क्योंकि इनका ज़हरीला संपर्क मधुमक्खियों के लिए बहुत खतरनाक सिद्ध होता है। जेनेटिक रूप से परिवर्तित फसलों का प्रसार भी मधुमक्खियों के लिए बहुत हानिकारक माना गया है।

ग्लायफोसेट कीटनाशक से स्वास्थ्य के गंभीर खतरों के बारे में जानकारियां समय-समय पर मिलती रही हैं। भारत में भी इसका उपयोग होता है। ग्लायफोसेट का उपयोग जेनेटिक रूप से परिवर्तित फसलों के साथ भी नज़दीकी तौर से जुड़ा रहा है। ऐसे खरपतवारनाशकों का उपयोग खेतों के अतिरिक्त शहरों के बाग-बगीचों आदि में भी हो रहा है। ग्लायफोसेट को प्रतिबंधित करने की मांग विश्व स्तर पर ज़ोर पकड़ रही है।

पारिस्थितिकी में मधुमक्खियों की महत्वपूर्ण भूमिका को देखते हुए इन विभिन्न सावधानियों को ध्यान में रखते हुए मधुमक्खियों की रक्षा की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए। यदि प्राकृतिक वनों की रक्षा हो व जैविक खेती का प्रसार हो तो इससे मधुमक्खियों की रक्षा में बहुत सहायता मिलेगी।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://opimedia.azureedge.net/-/media/images/men/editorial/articles/online-articles/2015/04-01/challenges-facing-bees-honey-bee-population-loss/varroa-mite-jpg.jpg

अमीबा भूलभुलैया में रास्ता ढूंढ सकते हैं

भूलभुलैया में जाना और खुद से बाहर निकलना मुश्किल भी होता है और रोचक भी। देखा गया है कि चूहे भी भूलभुलैया से बाहर निकल आते हैं। और मज़ेदार बात यह है कि एक नए अध्ययन में पता चला है कि चूहे ही नहीं, अमीबा जैसे एक-कोशिकीय जीव और एक इकलौती कैंसर कोशिका भी भूलभुलैया से बाहर निकलने का रास्ता ढूंढ लेती है। वे रासायनिक संकेतों की मदद से अपने आकार से सैकड़ों गुना बड़ी और पेचीदा भूलभुलैया से बाहर निकल सकते हैं।

प्रत्येक कोशिका चाहे वह कैंसर कोशिका हो, त्वचा कोशिका हो, या बैक्टीरिया सरीखे एक-कोशिकीय जीव हों, सामान्यत: जानते हैं कि उन्हें किस दिशा में आगे बढ़ना है। वे अपने पर्यावरण में मौजूद आकर्षी रसायनों को पहचानकर उनकी दिशा में आगे बढ़ते हैं। इसे कीमोटैक्सिस (रसायन-संचालित गति) कहते हैं। कोशिकाओं का यह बुनियादी दिशाज्ञान छोटी दूरी, लगभग आधे मिलीमीटर तक के लिए तो बढ़िया काम करता है लेकिन मुश्किल और लंबा रास्ता तय करने के लिए कोशिकाएं सिर्फ रासायनिक संकेतों के भरोसे नहीं रह सकतीं। उन्हें इन रसायनों को प्रोसेस करके सही रास्ता निर्धारित करना पड़ता है। कोशिकाएं यह करती कैसे हैं?

यह पता लगाने के लिए शोधकर्ताओं ने लंबा फासला तय करने वाली दो तरह की कोशिकाओं – अमीबा (डिक्टियोस्टेलियम डिसोइडम) और चूहों के अग्न्याशय की कैंसर कोशिका – पर अध्ययन किया। शोधकर्ताओं ने विभिन्न सूक्ष्म भूलभुलैया तैयार कीं, इनमें पर्याप्त मोड़ और रास्तों के विकल्प थे। इन भूलभुलैया के आखिरी छोर पर आकर्षी रसायन भरे गए थे। और ऐसे ही आकर्षी रसायन भूलभुलैया के अंदर भी भरे गए थे ताकि कोशिकाएं अपना रासायनिक रास्ता (चिन्ह) बना सकें। ये भूलभुलैया लगभग वैसी ही जटिल थीं जैसी ज़मीन के अंदर की सुरंगें अथवा रक्त नलिकाओं का जाल होता है।

शोधकर्ताओं ने पाया कि दोनों तरह की कोशिकाएं विभिन्न 0.85 मिलीमीटर लंबी भूलभुलैया से सफलतापूर्वक बाहर निकल आईं । साइंसपत्रिका में प्रकाशित शोध पत्र के मुताबिक सबसे लंबी भूलभुलैया (हैम्पटन कोर्ट पैलेस की प्रतिकृति) को सिर्फ अमीबा सुलझा पाए। कैंसर कोशिकाएं बहुत धीमी गति से आगे बढ़ती हैं, इसलिए शोधकर्ताओं का विचार है कि हो सकता है कि इतनी लंबी भूलभुलैया को पार करने के दौरान वे बीच में ही नष्ट हो गई होंगी।

इसके अलावा, भूलभुलैया में अमीबा की पहली टोली रसायनों को प्रोसेस कर भूलभुलैया के बंद-सिरों (जिनमें सीमित मात्रा में आकर्षी रसायन था) और बाहर निकलने के खुले रास्तों के बीच अंतर कर पार्इं। लेकिन इनके पीछे आने वाली कोशिकाओं की टोली यह अंतर नहीं कर पाई। प्रकृति में, आम तौर पर आगे वाली कोशिकाएं अपनी अनुगामी कोशिकाओं को रास्ते का अनुसरण करने के संकेत देती हैं। लेकिन प्रयोग में वैज्ञानिकों ने आगे वाली कोशिकाओं में बदलाव कर इन संकेतों को बाधित कर दिया था। इसलिए जब आगे वाली कोशिकाएं रसायनों को संसाधित कर आगे बढ़ीं (यानी रास्ते से रसायन हटा दिए गए), तो पीछे आने वाली कोशिकाएं रास्ता भटक गईं ।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_large/public/cell-maze-thumb.png?itok=nnAAvqBv

मच्छरों के युगल गीत – डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

दिन भर कठोर परिश्रम करने के बाद आप चैन की नींद लेने के लिए बिस्तर पर लेटकर नींद में गोते लगाने ही वाले थे कि कानों में मच्छरों की भिनभिनाहट ने आपको बैचेन कर दिया। क्या मच्छर आपके कान में भिनभिनाहट करके यह देखना चाहते थे कि आप सो गए हैं या नहीं? मच्छरों की भिनभिनाहट एक प्रकार का गाना है जिससे वे विपरीत सेक्स के सदस्य की पहचान करते हैं। मच्छरों की भिनभिनाहट भले ही हमारी नींद उड़ा देती है किंतु मच्छरों के लिए यह रोमांस का आमंत्रण गीत है।

तीन जोड़ी पैर वाले सभी सदस्यों को कीट परिवार (इनसेक्टा) में रखा गया है। इस परिवार के बहुत से सदस्य अपने प्रेम का प्रस्ताव आवाज़ उत्पन्न करके करते हैं। जब पूरा शहर या गांव सो जाता है तो शांत वातावरण में या बगीचों में इनकी आवाज़ आप बहुत अच्छी तरह से सुन सकते हैं।

जैसे हमारे कान में पर्दा, ऑसिकल एवं कॉकलिया होते हैं, जो सुनने में मदद करते हैं, वैसे ही कीटों के पास भी सुनने के अंग होते हैं जो हमसे भिन्न हैं परंतु हैं बेजोड़।

मच्छरों की भिनभिनाहट पंखों के फड़फड़ाने के कारण पैदा होती है। मच्छरों को अपनी छोटी-सी ज़िंदगी में केवल दो ही कार्य संपन्न करने होते हैं। एक तो भोजन ढूंढना और दूसरा प्रजनन के लिए साथी खोजना। अगर दृष्टि अच्छी नहीं है तो भोजन के लिए शिकार एवं प्रजनन के लिए मनपसंद साथी खोजना मुश्किल कार्य हो जाता है।

वैज्ञानिकों को लगता है कि उद्विकास में मादा मच्छरों ने अपने शिकार का खून पीना जब प्रारंभ किया तो वे गंध पर ज़्यादा आश्रित हो गए। ऐसा शिकार जिसके शरीर से तेज़ गंध आती थी या जो ज़्यादा कार्बन डाईऑक्साइड छोड़ते थे वे प्राणी मच्छरों को ज़्यादा आकर्षित करते थे। गंध पर ज़्यादा निर्भरता के कारण कालांतर में मच्छरों की आंखे ज़्यादा बेहतर विकसित नहीं हुई। और इसलिए विपरीत सेक्स को खोजने के लिए पंखों की भिनभिनाहट का उपयोग होने लगा। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि छोटे-से मच्छर में श्रवण अंगों में 15,000 श्रवण कोशिकाएं होती है जबकि उससे कहीं बड़े आकार के मनुष्यों में मात्र 17,500। इतने छोटे-से मच्छर में इतनी सारी श्रवण कोशिकाएं अपने साथी को ढूंढने का कार्य अपेक्षाकृत आसान कर देती हैं।

शाम होते ही आसमान में नर मच्छरों के झुंड एकत्रित हो जाते हैं। मादा के इंतज़ार में एकत्रित नर हवा में गोते लगाते रहते हैं। एक नर मच्छर के पंख फड़फड़ाने से उच्च आवृत्ति की भिनभिनाहट उत्पन्न होती है क्योंकि मादा मच्छर की तुलना में नरों का आकार छोटा होता है और छोटे पंख तेजी से फड़फड़ाते हैं। मच्छर के एंटीना मनुष्य के कान के समान सुनने का कार्य करते हैं। मादा मच्छरों की भिनभिनाहट को ग्रहण करने के लिए नर के एंटीना बड़े और बहुत झबरीले होते हैं।

नर की तुलना में मादा मच्छरों का आकार बड़ा होता है तो उनके पंख भी बड़े होते हैं और उनके धीमे-धीमे फड़फड़ाने से कम आवृत्ति की आवाज उत्पन्न होती है। मादा मच्छर में एंटीना छोटा तथा बेहद कम बालों से ढंका होता है, इसलिए मादाओं की सुनने की शक्ति कम होती है।

यद्यपि हम मच्छरों की भिनभिनाहट को सुनकर मच्छरों की भिन्न प्रजातियों में अंतर नहीं कर पाते हैं किंतु प्रत्येक मच्छर प्रजाति की भिनभिनाहट अलग होती है। मच्छरों की कुल 3500 प्रजातियों में से लगभग 20-25 प्रजातियां ही मनुष्यों में रोगाणुओं की वाहक बन कर बीमारियां फैलाने का कार्य करती हैं। केवल मलेरिया से ही प्रति वर्ष विश्व में दस लाख लोग मरते हैं।

स्टेनफोर्ड विश्वविद्यालय के कुछ वैज्ञानिकों ने मच्छरों की विविधता को जानने के लिए एबज़ प्रोजेक्ट प्रारंभ किया है। प्रोजेक्ट का डैटा है मच्छरों की आवाज़ की ऑडियो रिकॉर्ड की हुई फाइल। हम सभी अपने आसपास मच्छरों की भिनभनाहट को मोबाइल में रिकॉर्ड कर फाइल सम्बंधित प्रोजेक्ट को भेज सकते हैं। इस प्रकार हम सभी के द्वारा भेजी गई आवाज़ से मच्छर की प्रजाति को पहचान कर मच्छर विविधता ज्ञात की जा सकती है। किसी स्थान पर कौन-सी मच्छर प्रजाति बहुलता में है यह पता लगााकर उस स्थान पर मच्छरों से होने वाली बीमारी के सह-सम्बंध को ज्ञात किया जा सकता है।

मच्छरों की भिनभिनाहट कैसे रिकॉर्ड की जाती है? इसके लिए, जाली में मच्छरों को एकत्रित करके उन्हें ठंडे स्थान पर रखा जाता है। ठंड या कम तापमान निश्चेतक का कार्य करता है और मच्छर हिलना-डुलना बंद कर देते हैं। आलपिन के मोटे हिस्से पर गोंद या फेवीक्विक की एक बूंद लगाकर मच्छर के सिर से चिपकाकर सूखने के लिए रख दिया जाता है। गर्म स्थान पर आलपिन से चिपके मच्छर भिनभिनाने लगते हैं और उनकी आवाज को रिकॉर्ड कर यह भी देखा जाता है कि इस भिनभिनाहट की आवृत्ति कितनी है। आप मदद करना चाहें तो निम्नलिखित में से किसी वेबसाइट पर जाएं:

यदि सिर से चिपके नर एवं मादा मच्छर को पास लाया जाता है तो नर मच्छर मादा मच्छर की आवाज़ एंटीना से पहचानकर अपने पंखों की गति को कम कर मादा की भिन-भिन की आवृत्ति से मिलाने की कोशिश करता है। कुछ ही देर में नर ऐसा कर लेते हैं। दोनों के सुरों का मिलना और युगल गीत गाने का मतलब दोनों ने एक-दूसरे को पसंद कर लिया है। युगल गीत के बाद प्रजनन होता है। मच्छर का दुर्भाग्य है कि वे अपने जीवन काल में केवल एक बार ही प्रजनन कर सकते हैं। मादा मच्छर को प्रजनन के बाद अंडों के विकास के लिए प्रोटीन की खुराक की आवश्यकता होती है जो गर्म खून वाले प्राणियों के रक्त से पूरी होती है। भरपेट रक्त पीने के बाद दो सप्ताह के जीवनकाल में मादा लगभग 200 अंडे देती है।

मच्छर-वाहित बीमारियों से निपटने के लिए कई तरह के उपाय एक साथ करने पर कारगर हो सकते हैं। यंत्रों द्वारा विपरीत लिंग की भिनभिनाहट उत्पन्न कर युगल को आकर्षित करके मारने के तरीके मच्छरों को प्रजनन करने से रोक सकते हैं और उनकी संख्या को नियंत्रित किया जा सकता है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://media.pri.org/s3fs-public/styles/amp_metadata_content_image_min_696px_wide/public/story/images/ABUZZtrim.jpg?itok=0gcmLcyX

चमगादड़ों की हज़ारों किलोमीटर की उड़ान

क नए अध्ययन से पता चला है कि उड़न लोमड़ी कहे जाने वाले ऑस्ट्रेलिया के सबसे बड़े चमगादड़ विश्व के सबसे अथक खानाबदोशों में से हैं। ये एक वर्ष में लगभग 6000 किलोमीटर का सफर करते हैं जो किसी भी अन्य थलचर स्तनधारी जीव से अधिक है। इसकी तुलना केवल व्हेल या प्रवासी पक्षियों से ही की जा सकती है।

इन चमगादड़ों का वज़न लगभग 1 किलोग्राम और पंखों का फैलाव 1 मीटर तक होता है। लेकिन अन्य चमगादड़ों की तरह शिकार करने की बजाय वे रात में फूलों के मकरंद, पराग और बीजों की तलाश करते हैं और दिन में पेड़ों पर डटे रहते हैं। पूर्व में शोधकर्ताओं का अनुमान था कि ये चमगादड़ स्थानीय हैं और अपना ठिकाना एक विशेष जगह को ही चुनते हैं लेकिन पूर्वी ऑस्ट्रेलिया की तीन प्रजातियों के 201 चमगादड़ों पर उपग्रह ट्रांसमीटर लगाने पर सभी अनुमान गलत साबित हुए। बीएमसी बायोलॉजी में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार ये चमगादड़ एक वर्ष में 1487 से लेकर 6073 किलोमीटर तक का सफर तय करते हैं।

इन सभी प्रजातियों में से ब्लैक फ्लाइंग फॉक्स (Pteropusalecto) की विचरण सीमा सबसे कम, उसके बाद ग्रे-हेडेड फ्लाइंग फॉक्स (P. poliocephalus) की उससे अधिक और सबसे अधिक लिटिल रेड फ्लाइंग फॉक्स (P. scapulatus) की पाई गई। लिटिल रेड फ्लाइंग फॉक्स प्रति वर्ष औसतन 5000 किलोमीटर का फासला तय करता है। यह दूरी रेनडियर जैसे जांबाज़ स्तनधारी प्रवासियों की तुलना में कहीं अधिक है। रेनडियर प्रति वर्ष 1200 किलोमीटर तक की यात्रा करते हैं और अफ्रीकी बारहसिंघे अपनी प्रत्येक यात्रा में लगभग 2900 किलोमीटर का फासला तय करते हैं।  

गौरतलब है कि फ्लाइंग फॉक्स किसी मौसमी रास्ते का पालन नहीं करते हैं। उदाहरण के लिए, उत्तर से दक्षिण के 1300 किलोमीटर के सफर में वे कई स्थानों पर अपना ठिकाना बनाते हैं और इनकी आबादी में नए प्रवासियों का उतार-चढ़ाव होता रहता है। अध्ययन में पता चला कि कुल मिलाकर चमगादड़ 755 ठिकानों पर रुके जो पिछली जानकारी की तुलना में दो गुना से भी अधिक हैं।

चूंकि ये चमगादड़ बीज फैलाने और परागण के लिए महत्वपूर्ण हैं, इनके विचरण से मानव गतिविधि या आग से खंडित जंगलों को जोड़ने में मदद मिलती है। लेकिन इनके अनिश्चित और दूर-दराज़ के भ्रमण के चलते संरक्षण और रोग प्रबंधन का काम जटिल हो जाता है क्योंकि ये मुद्दे स्थानीय अधिकार क्षेत्र में आते हैं न कि राष्ट्रीय। अब शोधकर्ता इस विचरण के कारणों का पता लगाने की कोशिश कर रहे हैं।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_large/public/flyingfox_1280p.jpg?itok=FnXrosEV

चींटियां कई जंगली पौधे उगाती हैं

चींटियां कई जंगली पौधों के बीज फैलाती हैं। इस सेवा के बदले में पौधे चींटियों के लिए अपने बीज के आवरण पर एक पोषण-युक्त हिस्सा, इलेयोसम, जोड़ देते हैं। यह न सिर्फ चींटियों के बच्चों के लिए पोषण उपलब्ध कराता है बल्कि इसकी मदद से चींटियों को बीजों को पकड़ने में भी मदद मिलती है। लेकिन इकोलॉजिकल सोयायटी ऑफ अमेरिका की ऑनलाइन वार्षिक बैठक में यह बात सामने आई है कि बीज और चींटियों के बीच रिश्ता इस लेन-देन से अधिक है।

एक तो यह पता चला है कि चींटियां सिर्फ बीजों को ढोकर अपनी बांबी तक ले जाने का काम नहीं करती हैं बल्कि वे कुशल बागवान की तरह इनके उगने में भी मदद करती हैं। यह देखा गया है कि जिन जंगलों में चींटियां कम हो जाती हैं, वहां ये बीज उपयुक्त उपजाऊ मिट्टी तक पहुंच नहीं पाते। यानी यदि चींटियां न रहीं तो ये पौधे भी खतरे में पड़ जाएंगे।

अब तक यही माना जाता था कि ये चींटियां बीज को अपनी बांबी तक ले जाती हैं और वहां उनके बच्चे इनके इलेयोसम को खा डालते हैं और बीज को छोड़ दिया जाता है जहां उगने के लिए अनुकूल परिस्थिति मिल जाती है। लेकिन टेनेसी विश्वविद्यालय के चार्ल्स क्विट को लगा कि शायद बात इतनी ही नहीं है।

यह देखा गया है कि अन्य चींटियों की तरह बीज-वाहक चींटियां भी खुद को और अपनी साथी चींटियों को साफ रखने के लिए सूक्ष्मजीव-रोधी रसायनों का रुााव करती हैं। क्विट के मन में सवाल आया कि ये सूक्ष्मजीवनाशक (विसंक्रामक) रसायन बीजों के सूक्ष्मजीव समुदाय और उनके स्वास्थ्य पर क्या प्रभाव डालते होंगे? इसका जवाब तलाशने के लिए उनकी टीम ने तीन इस तरह के पौधों – जंगली अदरक, ब्लडरूट और ट्विनलीफ – के बीजों के छिलके पर मौजूद सूक्ष्मजीवों के डीएनए को अलग करके अनुक्रमित किया। इनके बीजों को फैलाने का काम चींटियां करती हैं। उन्होंने देखा कि पहले तो प्रत्येक प्रजाति के बीज में एक जटिल और अनूठा सूक्ष्मजीव संसार था, लेकिन चींटी द्वारा बीज ले जाने के बाद बीजों का सूक्ष्मजीव संसार सीमित हो गया और सभी प्रजातियों के बीजों का सूक्ष्मजीव संसार लगभग एक-जैसा हो गया। शोधकर्ताओं के अनुसार सूक्ष्मजीव संसार में परिवर्तन बीजों के फैलाव के बाद के भक्षण, सुप्तावस्था, जीवनक्षमता, अंकुरण के समय और नए-नवेले पौधों के स्वास्थ्य को प्रभावित करता होगा।

यह भी पाया गया कि चींटियां कुछ बीजों को प्राथमिकता देती हैं। शोधकर्ताओं ने जब चींटियों को ट्रिलियम की विभिन्न प्रजातियों के बीज दिए तो चींटियों ने कुछ प्रजातियों के बीजों को चुना जबकि अन्य बीजों को छोड़ दिया।

चींटियां बीजों को किस आधार पर वरीयता देती हैं यह जानने के लिए शोधकर्ताओं ने इलेयोसम का मास स्पेक्ट्रोस्कोपी और अन्य तकनीकों की मदद से विश्लेषण किया। उन्होंने पाया कि चींटियां पौधे द्वारा बनाए गए ओलीक एसिड और अन्य यौगिकों के विशिष्ट संयोजन और सांद्रता के आधार पर बीज चुनती हैं। इस तरह चींटियों का स्वाद या चुनाव पौधों की प्रजातियों के विस्तार को प्रभावित कर सकता है।

शोधकर्ता बताते हैं कि मानव गतिविधियां भी बीज-चींटी साझेदारी को प्रभावित करती हैं। कई लोगों को लगता था कि चींटियां जंगल की सफाई जैसे हस्तक्षेप के बाद पुन: अपने स्थान पर लौट आती हैं। लेकिन होल्डन वृक्ष उद्यान की इकॉलॉजिस्ट केटी स्टबल ने अपने अध्ययन में पाया कि जिन जंगलों को मानव द्वारा कभी साफ नहीं किया गया था उन जंगलों की तुलना में जिन जंगलों को दशकों पहले साफ किया गया था उनमें आक्रामक केंचुए अधिक थे और और बीज-वाहक चींटियों की संख्या कम थी। इससे पता चलता है पूर्व में हुए हस्तक्षेप के प्रभाव काफी लंबे समय तक बने रहते हैं। इन प्रभावों से यह समझा जा सकता है कि क्यों द्वितीयक वन कम घने होते हैं और वहां वे पेड़-पौधे दुर्लभ होते हैं जिनके बीजों की वाहक चींटियां होती हैं।

इसी तरह, उत्तर-पूर्वी उत्तर अमेरिका के एक सर्वेक्षण में पाया गया था कि कभी साफ ना किए गए जंगलों की तुलना में द्वितीयक वनों में बीज-वाहक चींटियों की संख्या कम थी।

यदि चींटियां विलुप्त हो गईं तो मुमकिन है कि इन चीटियों पर निर्भर पौधे और उन पौधों पर निर्भर जीवों की प्रजातियां भी नष्ट हो जाएंगी। यदि पेड़-पौधों को बहाल करना है तो हमें इनके बीजों को फैलाने वाली प्रजातियों को भी बहाल करने के बारे में सोचना चाहिए।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_large/public/ca_0814NID_Aphaenogaster_Ants_online2_0.jpg?itok=iUyaHl7a

डायनासौर भी कैंसर का शिकार होते थे

डायनासौर पर अध्ययन करते हुए जीवाश्म वैज्ञानिकों को डायनासौर की एक विकृत हड्डी का जीवाश्म मिला था। यह हड्डी एक सींग वाले शाकाहारी सेंट्रोसौरस के पैर के निचले हिस्से की फिबुला हड्डी थी। यह जीव लगभग 7.6 करोड़ वर्ष पहले वर्तमान के दक्षिणी अल्बर्टा (कनाडा) में पाया जाता था। इस स्थान पर आजकल एक डायनासौर पार्क है।

पहले तो पुराजीव वैज्ञानिकों को लगा कि हड्डी का विचित्र आकार फ्रेक्चर के बाद हड्डी के ठीक से ना जुड़ पाने के कारण बना है लेकिन दी लैंसेंट ऑन्कोलॉजी में प्रकाशित एक नए अध्ययन में इस जीवाश्म की आंतरिक संरचना की तुलना एक मनुष्य के अस्थि ट्यूमर से की गई है। अध्ययन में पाया गया कि यह डायनासौर एक विशेष किस्म के कैंसर (ऑस्टियोसरकोमा) से पीड़ित था। इस प्रकार का कैंसर मनुष्यों में मुख्य रूप से किशोरों और युवाओं पर हमला करता है। इससे कमज़ोर हड्डियों के अपरिपक्व ऊतकों के ट्यूमर विकसित होते हैं जो अक्सर पैर की लंबी हड्डी में पाए जाते हैं।

गौरतलब है कि इससे पहले भी वैज्ञानिकों को जीवाश्मों में कैंसर के प्रमाण मिले हैं। टायरेनोसॉरस रेक्स के जीवाश्म में ट्यूमर, डक-बिल्ड डैड्रोसौर के जीवाश्म में गठिया रोग और 24 करोड़ वर्ष पुराने कछुए के जीवाश्म में ऑस्टियोसरकोमा की पहचान की गई है। लेकिन यह पहली बार है कि कोशिकीय स्तर पर डायनासौर में कैंसर के निदान की पुष्टि हुई है।    

इसके लिए वैज्ञानिकों ने उच्च-रेज़ोल्यूशन कंप्यूटरीकृत टोमोग्राफी (सीटी) स्कैन की मदद से पूरे जीवाश्म की जांच की और इसकी पतली कटानों का माइक्रोस्कोप से अध्ययन किया ताकि कोशिकाओं की संरचना को ठीक तरह से समझा जा सके। निष्कर्ष के तौर पर उन्होंने पाया कि यह ट्यूमर काफी विकसित हो चुका था जो मनुष्यों के समान उस जीव के लिए काफी घातक रहा होगा। क्योंकि यह जीवाश्म सेंट्रोसौरस के अन्य नमूनों के साथ मिला था इसलिए ऐसी संभावना है कि इसकी मृत्यु कैंसर से नहीं बल्कि अपने अन्य साथियों के साथ बाढ़ में डूबने की वजह से हुई होगी। बहरहाल शोधकर्ताओं को लगता है कि इस खोज के बाद आधुनिक तकनीकों से असामान्य जीवाश्मों की जांच पर ध्यान दिया जाना चाहिए ताकि जैव विकास में कैंसर की उत्पत्ति को समझा जा सके।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit :

https://media.npr.org/assets/img/2020/08/04/gettyimages-166352928-1-1_wide-7ca313d19c03d1447250fc8863b68ec60fa96661-s800-c85.jpg
https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/article_main_image_-1280w__no_aspect/public/dino-bone-thumb_0.jpg?itok=FsmERqfe

वायरस व ततैया की जुगलबंदी में एक इल्ली की शामत – कालू राम शर्मा

सार्स-कोव-2 के कहर के चलते मार्च से जून के लंबे व सतत लॉकडाउन में वीडियो व टेलीफोन कॉन्फ्रेंसिंग के ज़रिए काम करने के दौरान आसपास ततैया को उड़ते देखना मेरे लिए आम बात थी। इसी दौरान एक बावली (क्रेज़ी) ततैया दीवार पर मिट्टी के लौंदे ला-लाकर घरौंदा बनाने के मिशन में जुटी दिखी। इस ततैया पर मेरा ध्यान टिक गया। जब घरौंदा बन गया तो फिर वह बाहर जाती और मुंह और टांगों में देसी मटर की फली जैसी इल्लियों को दबाकर लाती और घरौंदे के अंदर दफन कर देती। इन इल्लियों को अपने डंक से बेहोश कर उसके शरीर में मादा ततैया अंडे देती है। अंडों से निकले बच्चे बेहोश इल्ली को नोंच-नोंचकर खाते हैं। 

इस पर एक मामूली से सवाल ने मुझे बैचेन कर दिया। सवाल यह कि ततैया जिस इल्ली को पकड़कर दफन करती है वह ततैया के अंडों व उनसे निकलने वाली इल्लियों की खिलाफत क्यों नहीं करती? इल्ली का प्रतिरक्षा तंत्र ततैया के अंडों व परिवर्धित हो रही इल्ली व प्यूपा के विरुद्ध प्रतिक्रिया क्यों नहीं करता? जाहिर है कि दुनिया के समस्त जीवों में प्रतिरक्षा प्रणाली होती है जो शरीर में किसी भी बाहरी आक्रमण या संक्रमण के प्रति सजग होती है और उसके खिलाफ प्रतिक्रिया व्यक्त करती है। तो उस दफन इल्ली और ततैया की संतान के मामले में राज़ क्या है?

1967 के दौरान वैज्ञानिकों को पता चला कि मादा ततैया जब बेहोश की गई तितली के शरीर में ओविपोज़िटर के रास्ते से अंडे देती है तो वे अंडों के साथ कुछ छोटे कणों को भी इंजेक्ट करती है। यह समझने में लगभग एक दशक का वक्त लगा कि दरअसल मादा ततैया अंडों के साथ जो इंजेक्ट करती है वे वायरस हैं जिन्हें पोलीड्नावायरस (पीडीवी) कहा जाता है। यह देखा गया है कि ततैया की प्रत्येक प्रजाति में एक खास तरह का पोलीड्नावायरस होता है। इन वायरसों का काम एक ही है – ये भक्षण की शिकार इल्ली की प्रतिरक्षा प्रणाली को कमज़ोर बना देते हैं ताकि उस पर पनप रहे ततैया के अंडे व अंडों से निकली इल्लियां व प्यूपा सुरक्षित रहते हुए वयस्क में कायांतरित हो सकें।

अगर ये वायरस न हों तो इल्ली का प्रतिरक्षा तंत्र ततैया के बच्चों के खिलाफ प्रतिक्रिया व्यक्त करेगा और उन्हें पनपने से रोकेगा। तो, एक ओर जो पोलीड्नावायरस बेहोश मेज़बान इल्ली की प्रतिरक्षा प्रणाली को ध्वस्त करता है वही ततैया और वायरस के बीच सहजीविता की एक मिसाल है।

पोलीड्नावायरस डबल डीएनए वायरस का एक परिवार है जो खास तौर पर ततैया से ताल्लुक रखता है। ये पोलीड्नाविरिडी कुल के सदस्य हैं। इस परिवार में वायरस की 53 प्रजातियां हैं जो शिकारी परजीवी ततैयाओं में ही पाई जाती हैं।

ये वायरस एक अनोखे जैविक तंत्र का हिस्सा हैं जिसमें एक अंत:परजीवी (यानी ततैया की इल्ली), एक मेज़बान (इल्ली) व वायरस शामिल हैं। वायरस का संपूर्ण जीनोम अंतर्जात होता है जो मादा ततैया के अंडाशय में अपनी प्रतिलिपियां बनाता हैं। जब मादा अंडे देती है तो अंडों के साथ यह वायरस मेज़बान इल्ली में इंजेक्ट करती है जो इल्ली को संक्रमित कर कमज़ोर कर देते हैं। खास बात यह है कि पोलीड्नावायरस मेज़बान इल्ली में अपनी प्रतिलिपियां नहीं बना पाता है बल्कि मादा ततैया द्वारा इंजेक्ट किए गए वायरस ही उसे संक्रमित करते हैं। पोलीड्नावायरस की प्रतिलिपियां मात्र ततैया के प्रजनन तंत्र के अंडाशय की विशेषीकृत कोशिकाओं (कैलिक्स) के केंद्रक में ही बनना संभव है। ऐसा इसलिए कि ततैया के जीनोम में पोलीड्नावायरस के ऊपर प्रोटीन का खोल चढ़ाने वाले जीन मौजूद होते हैं। ये जीन इल्ली के जीनोम में अनुपस्थित रहते हैं। इसलिए पोलीड्नावायरस इल्लियों के शरीर में प्रजनन करके अपनी प्रतिलिपियां बनाने में असमर्थ होता है।  इस प्रकार मेज़बान इल्ली पर ततैया का जीवन चक्र पूरा हो पाता है।

पोलीड्नावायरस ततैया प्रजातियों में आम तौर पर नर व मादा दोनों में पाए जाते हैं। लेकिन ये केवल अंडे देने के दौरान ही मादा द्वारा इंजेक्ट किए जाते हैं। यह देखा गया है कि ततैया के जीवन चक्र की प्यूपा अवस्था में अंडाशय में पोलीड्नावायरस की प्रतिलिपियां बनने की प्रक्रिया शुरू होती है जो वयस्क अवस्था तक जारी रहती है।

पोलीड्नावायरस की दूसरी खासियत यह है कि यह वायरस मेज़बान इल्ली की कोशिकाओं में डीएनए को पहुंचाने का काम करता है ताकि परजीवीता को सफल बना सके। उद्विकास की प्रक्रिया में पोलीड्नावायरस व ततैया के बीच तालमेल हुआ और परजीविता को अंजाम दिया गया।

ततैया के वायरस कैसे इल्ली की प्रतिरक्षा प्रणाली को कमज़ोर बनाते हैं इसका अध्ययन नैन्सी बैकेज के नेतृत्व में किया गया। ततैया कई सारे अंडे इल्ली के शरीर में डालती है। ततैया के अंडों से निकली इल्लियां मेज़बान इल्ली के खून (हीमोलिंफ) से अपना पेट भरती हैं। ततैया जब अंडे देती है तो हिमोलिंफ में मौजूद हिमोसाइट्स का काम प्रभावित होता है। हिमोसाइट्स ततैया द्वारा दिए गए अंडों व उनसे निकली इल्लियों के प्रति संवेदनशून्य हो जाता है। यह भी देखा गया कि इल्ली के शरीर में अगर पोलीड्नावायरस डाले जाएं तो वे वैसा ही व्यवहार करते हैं जैसा ततैया द्वारा अंडों के साथ डालने पर करते हैं। और अगर पोलीड्नावायरस रहित अंडे इल्ली के शरीर में डाले जाएं तो मेज़बान इल्ली का प्रतिरक्षा तंत्र बखूबी काम करता रहता है। ये सारे तथ्य दर्शाते हैं कि पोलीड्नावायरस स्पष्ट तौर पर मेज़बान इल्ली के विकास और प्रतिरक्षा तंत्र दोनों में हेरफेर करके उसे खतरे में डाल देता है जो ततैया के लिए फायदेमंद साबित होता है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://media.springernature.com/m685/springer-static/image/art%3A10.1038%2Fnrmicro2491/MediaObjects/41579_2011_Article_BFnrmicro2491_Fig1_HTML.jpg

मेंढक के पेट से ज़िंदा बच निकलता है यह गुबरैला

मेंढक द्वारा ज़िंदा निगल लिए जाने पर अधिकांश कीटों की मौत तो तय ही समझो, लेकिन एक प्रजाति का गुबरैला, रेजिम्बार्टिया एटेनुएटा, पचकर मेंढक का नाश्ता बनने की बजाय गुदा के रास्ते जीवित बाहर निकल जाता है।

जापान के कोबे विश्वविद्यालय के ग्रेजुएट स्कूल ऑफ एग्रीकल्चरल साइंस के एसोसिएट प्रोफेसर शिनजी सुगिउरा को यकीन था कि आर. एटेनुएटा गुबरैलों ने मेंढकों का भोजन बनने से बचने का तरीका विकसित कर लिया है। उनका अनुमान था कि अपने बचाव की प्रक्रिया में गुबरैले मेंढकों द्वारा मुंह से ही बाहर निकाल दिए जाएंगे। जांच के लिए उन्होंने प्रयोगशाला में एक किशोर तालाबी मेंढक, पेलोफाइलैक्स निग्रोमैकुलैटस, को एक वयस्क जलीय गुबरैला (आर. एटेनुएटा) भोजन के लिए दिया जिसे मेंढक ने पूरा का पूरा ज़िंदा निगल लिया। इस घटना के लगभग 105 मिनट बाद शोधकर्ताओं ने देखा कि वह गुबरैला मेंढक के शरीर से जीवित बाहर निकल आया, लेकिन मुंह के रास्ते नहीं बल्कि मल के साथ गुदा के रास्ते। यह देखकर शोधकर्ता हैरान रह गए।

उन्होंने एक दर्जन से अधिक बार इस प्रयोग को दोहराया और पाया कि 93 प्रतिशत गुबरैले मल के साथ बाहर आ गए और हर बार गुबरैलों का सिर पहले बाहर आया। ये नतीजे शोधकर्ताओं ने करंट बायोलॉजी पत्रिका में रिपोर्ट किए हैं। गुबरैले बाहर आने पर मल में धंसे हुए थे लेकिन जल्दी ही उससे बाहर निकल गए और इसके बाद कम से कम दो सप्ताह तक जीवित रहे।

खाए जाने के बाद एक घंटे से छह घंटे के भीतर गुबरैले मेंढक के शरीर से बाहर आ गए थे। सामान्यत: मांसपेशियां गुदा-द्वार को कसकर बंद रखती हैं, ये मांसपेशियां तभी शिथिल होती हैं जब मेंढक मल त्याग करता है। देखा गया है कि आम तौर पर मेंढक भोजन के बाद इतनी जल्दी मल त्याग नहीं करते हैं। उक्त अवलोकनों से तो लगता है कि गुबरैले मेंढकों को विष्ठा त्याग के लिए उकसाते हैं।

एक सोच यह थी कि गुबरैले ऐसा अपने पैरों की मदद से करते हैं। इस बात की जांच के लिए शोधकर्ताओं ने गुबरैले के पैरों को मोम से चिपका दिया और फिर उन्हें मेंढक को भोजन के रूप में दिया। उन्होंने पाया कि इनमें से एक भी गुबरैला जीवित नहीं बचा।

प्रयोग में अन्य जलीय गुबरैले इतने भाग्यशाली नहीं थे। शोधकर्ताओं ने जब अन्य गुबरैलों (जैसे एनोक्रस जेपोनिकस) मेंढकों को पेश किए तो वे सभी मेंढकों द्वारा निगले जाने के बाद अंदर ही मर गए और निगले जाने के 24 घंटे बाद टुकड़ों में बाहर आए।

हालांकि शिकार के शरीर में पचने से बचने का यह पहला उदाहरण नहीं है। 2018 में सुगिउरा ने पाया था कि बम्बार्डियर गुबरैले (फेरोपोफस जेसेओन्सिस) मेंढक द्वारा निगले जाने पर ऐसा ज़हरीला रसायन छोड़ते हैं कि शिकारी उल्टी कर देता है और वे बाहर आ जाते हैं। लेकिन गुदा के रास्ते मल के साथ बाहर आने का यह पहला उदाहरण है।

बहरहाल, यह विस्तार से देखने की ज़रूरत है कि गुबरैले बाहर निकलने के लिए मांसपेशियों को शिथिल होने के लिए कैसे प्रेरित करते हैं।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://bgr.com/wp-content/uploads/2020/08/aninsectspec.jpg?quality=70&strip=all&w=834