चांदनी रात में सफेद उल्लुओं को शिकार में फायदा

बार्न उल्लू एक किस्म के उल्लू होते हैं और छोटे चूहे इनका प्रिय भोजन है। ये उल्लू दो प्रकार के होते हैं। एक जिनका रंग थोड़ा लाल-कत्थई सा होता है और दूसरे जिनका रंग सफेद होता है। चांदनी रात में सफेद उल्लू के देखे जाने की संभावना ज़्यादा होती है। इसका मतलब यह होता है कि चूहे सफेद उल्लू की उपस्थिति को जल्दी भांप लेंगे और खुद को बचा लेंगे। मगर वास्तविकता कुछ और है। यह देखा गया है कि चांदनी रात में सफेद उल्लू अनपेक्षित रूप से ज़्यादा चूहे मार लेते हैं। यह पता चला है कि अंधेरी रातों में तो दोनों रंग के उल्लुओं को लगभग 5-5 चूहे मिल जाते हैं। मगर चांदनी रात में सफेद उल्लू को तो 5 चूहे मिल जाते हैं लेकिन लाल-कत्थई उल्लू को तीन से ही संतोष करना पड़ता है। आखिर क्यों?

स्विटज़रलैंड के लौसाने विश्वविद्यालय के लुइस सैन-जोस और एलेक्ज़ेंडर रोलिन की अपेक्षा तो यह थी कि चांदनी रात में सफेद उल्लुओं को कम और लाल-कत्थई उल्लुओं को ज़्यादा चूहे मिलेंगे। लेकिन इन शोधकर्ताओं ने पाया कि यह तो सही है कि चांदनी बिखरी हो, तो सफेद उल्लू ज़्यादा आसानी से नज़र आते हैं किंतु इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। फर्क इसलिए नहीं पड़ता क्योंकि इनके शिकार यानी चूहे का व्यवहार भी विचित्र होता है। जब चूहे उल्लू को देखते हैं तो उनकी प्रतिक्रिया दो तरह की होती है। एक प्रतिक्रिया होती है जड़ हो जाने की। वे अपनी जगह शायद इस उम्मीद में दुबक जाते हैं कि उल्लू उन्हें देख नहीं पाएगा। या दूसरी प्रतिक्रिया होती है भाग निकलने की। किंतु जब वे चांदनी में चमचमाते सफेद उल्लू को देखते हैं तो वे पांच सेकंड ज़्यादा देर तक जड़ होते हैं। अपने अवलोकन के निष्कर्ष उन्होंने नेचर इकॉलॉजी एंड इवॉल्यूशन में प्रकाशित किए हैं।

वैसे इस अनुसंधान को लेकर एक विशेष बात यह है कि आम तौर पर जंतुओं के रंग परिधान को लेकर अध्ययनों में इस बात पर बहुत कम ध्यान दिया गया है कि निशाचर जीवों में शरीर के रंग से क्या और कैसा फर्क पड़ता है। अब जब ऐसे अध्ययन शुरू हुए हैं तो कई आश्चर्यजनक खोजें हो रही हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मन्टा-रे मछलियां दोस्ती भी करती हैं

वैसे तो शार्क की अधिकतर प्रजातियां एकांत प्रवृत्ति की होती हैं, लेकिन हैरानी की बात यह है कि शार्क की करीबी मंटा-रे मछलियां शार्क की तुलना में काफी मिलनसार होती हैं। ये एक-दूसरे की हरकतों की नकल करती हैं, साथ खेलती हैं और इंसानों के पास जाने को आतुर होती हैं। और अब हाल ही में पता चला है कि वे अपनी साथी मछलियों के साथ ‘दोस्ती’ भी करती हैं। उनकी ये दोस्तियां एक तरह के ढीले-ढाले सम्बंध होते हैं जो कुछ हफ्ते या महीनों तक बने रहते हैं।

मंटा-रे समूह की संरचना समझने के लिए शोधकर्ताओं ने 5 साल तक उत्तर-पश्चिमी इंडोनेशिया के समुद्र में तट से दूर, साफ पानी वाले स्थानों पर 500 से ज़्यादा रीफ मंटा-रे मछलियों (Mobula alfredi) के समूह का अध्ययन किया। अपने अध्ययन में उन्होंने इन मछलियों के 5 सामूहिक अड्डों की कई तस्वीरें निकालीं। इन 5 सामूहिक स्थानों में से तीन वे जगहें थीं जहां ये मछलियां रासे मछलियों और कोपेपॉड्स की मदद से अपने पूरे शरीर की सफाई (मैनीक्योर) करवाती हैं। बाकी दो सामूहिक स्थान उनके भोजन की जगह थे, जहां झींगा और मछलियों के लार्वा उनका भोजन बनते हैं (और कभी-कभी उनकी सफाई करने वाले कॉपेपॉड्स भी।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने उनके शरीर पर बने पैटर्न और धब्बों  की मदद से हर मछली को चिन्हित किया और उन पर नज़र रखी। उन्होंने पाया कि नर की तुलना में मादा मंटा-रे मछलियां एक-दूसरे से ज़्यादा लंबा जुड़ाव बनाती हैं लेकिन नर से दूरी बनाए रखती हैं। अध्ययन का यह निष्कर्ष बीहेवियरल इकॉलॉजी एंड सोशल बॉयोलॉजी पत्रिका में प्रकाशित हुआ है। लेकिन मंटा-रे मछलियां अन्य जीवों (जो आपस में मज़बूत समूह बनाते हैं) की तुलना मज़बूत जुड़ाव वाला समूह नहीं बनातीं। इसकी बजाय वे दो तरह के लचीले समूह बनाती हैं; एक समूह में अधिकतर मादा मछलियां होती हैं जबकि दूसरे समूह में मादा, बच्चे और नर होते हैं। दोनों समूह सफाई की जगह (क्लीनिंग स्टेशन) और भोजन की जगह पर एक-दूसरे मिलते हैं और उसके बाद हर मछली अपने-अपने स्थान पर वापस लौट जाती है। और फिर कुछ घंटों या एक दिन बाद एक बार फिर सभी वापस अपने समूह से मिलते हैं। ठीक इसी तरह चिम्पैंज़ी भी सोने और भोजन के लिए दो अलग-अलग समूह बनाते हैं। अध्ययन में यह भी पाया गया कि रे मछलियों ने कुछ स्थानों के लिए काफी स्पष्ट प्राथमिकता दिखाई। देखा गया कि मादा रे मछलियों ने ज़्यादातर समय क्लीनिंग स्टेशन पर बिताया जबकि नर रे मछलियों ने अधिकतर समय भोजन की जगह पर। (स्रोत फीचर्स)

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कुत्तों और मनुष्य के जुड़ाव में आंखों की भूमिका – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

हाल ही की एक रिपोर्ट में असम के काज़ीरंगा नेशनल पार्क की एक कुतिया के विलक्षण कौशल का वर्णन किया गया है। यह कुतिया सूंघकर बाघ और गैंडों के शिकारियों की मौजूदगी भांप लेती है और इस बारे में वन अधिकारियों को आगाह कर देती है। वन अधिकारियों ने इसे क्वार्मी नाम दिया है क्योंकि यह एक चौथाई सेना के बराबर है। इसी तरह मध्यप्रदेश के जंगलों में निर्माण और मैना नाम के दो कुत्ते बाघ और उसके शिकारियों की उपस्थिति सूंघ कर भांप लेते हैं।

कुत्ते भेड़िया कुल के सदस्य हैं। भेड़िए में तकरीबन 30 करोड़ गंध ग्राही होते हैं जबकि मनुष्यों में सिर्फ 60 लाख। भेड़िए सूंघकर 3 किलोमीटर दूर से किसी की भी मौजूदगी भांप सकते हैं। उनकी नज़र पैनी और श्रवण शक्ति तेज़ होती है, वे अपने शिकार की आहट 10 किलोमीटर दूर से ही सुन लेते हैं। सूंघने, देखने और सुनने की यह विलक्षण शक्ति कुत्तों को विरासत में मिली है। हम यह भी जानते है कुत्ते सूंघकर मनुष्यों में मलेरिया, यहां तक कि कैंसर की पहचान कर लेते हैं। और अच्छी बात तो यह है कि भेड़िए की तुलना में कुत्ते ज़्यादा शांत होते हैं और हम उन्हें पाल सकते हैं।

यूके और यूएसए के शोधकर्ताओं की हालिया रिपोर्ट कुत्तों की एक और विशेषता के बारे में बताती है: पालतू बनाए जाने के बाद कैसे समय के साथ कुत्ते के चेहरे की मांसपेशियां विकसित होती गर्इं और उनमें हमारी तरह भौंह चढ़ाने की क्षमता दिखती है। शोधकर्ता तर्क देते हैं कि उनकी इसी क्षमता के कारण मनुष्यों ने उनका पालन-पोषण शुरु किया और कुत्ते हमारे अच्छे दोस्त बन गए हैं। (Kaminski et al., Evolution of facial muscle anatomy in dogs, PNAS,116: 14677-81,July 16, 2019)

 कुत्तों को लगभग 33 हज़ार साल पहले पालतू बनाया गया था। जैसे-जैसे वे हमारे पालतू होते गए हमने उन कुत्तों को चुनना और प्राथमिकता देना शुरु कर दिया जो हमारे सम्बंधों के अनुरूप थे। और इस चयन का आधार था कुत्तों द्वारा हमारे संप्रेषण को समझने और इस्तेमाल करने की क्षमता, जो अन्य जानवरों में नहीं थी। शोधकर्ता बताते हैं कि कुत्ते मनुष्य के करीबी सम्बंधी चिम्पैंजी से भी ज़्यादा मानव संप्रेषण संकेतों (जैसे किसी दिशा में इंगित करने या किसी चीज़ की तरफ देखने) का उपयोग अधिक कुशलता से करते हैं।

कुत्ते-मनुष्य के आपसी रिश्ते में आंख मिलाने का महत्वपूर्ण योगदान है। एक जापानी शोध समूह के मुताबिक कुत्ते और मनुष्य का एक-दूसरे को एकटक देखना कुत्ते और कुत्ते के मालिक दोनों में जैव-रासायनिक परिवर्तन शुरू करता है, वैसे ही जैसे मां और शिशु के बीच लगाव होता है। शोधकर्ताओं के अनुसार संभावित वैकासिक परिदृश्य यह हो सकता है कि कुत्तों के पूर्वजों ने कुछ ऐसे लक्षण दर्शाए होंगे जिनसे मनुष्यों में उनकी देखभाल करने की इच्छा पैदा होती होगी। मनुष्य ने जाने-अनजाने इस व्यवहार को बढ़ावा दिया होगा और चुना होगा जिसके चलते आज कुत्तों में समरूपी लक्षण दिखते हैं।

इस पूरी प्रक्रिया में आंखों के बीच सम्पर्क और एकटक देखने का महत्वपूर्ण योगदान है। कुत्ते के मालिक कुत्तों की टकटकी को बखूबी पहचानते हैं – वे कभी-कभी इतनी दुखी निगाहों से देखते हैं कि मालिक उन्हें गले लगाना चाहेंगे, और कभी-कभी इतनी परेशान करने वाली निगाहों से देखेंगे कि आप उन्हें सज़ा देना चाहेंगे।

इसी संदर्भ में यूके-यूएसए के शोधकर्ता यह समझना चाहते थे कि कैसे कुत्तों के चेहरे की मांसपेशियां और शरीर रचना मनुष्य द्वारा चयन के ज़रिए इस तरह विकसित हुई कि उसने मनुष्य-कुत्ते के आंखों के सम्पर्क और ऐसी टकटकी में व्यक्त भाषा में योगदान दिया। हम मनुष्य उन कुत्तों को सराहते हैं जिनकी रचना और हावभाव शिशुओं जैसे होते हैं। जैसे बड़ा माथा, बड़ी-बड़ी आंखें। शोधकर्ताओं ने यह भी बताया कि कुत्तों के चेहरे की कुछ खास पेशियां भौंहे ऊपर-नीचे करने में मदद करती हैं, जो मनुष्यों को लुभाता है।

क्या मनुष्य द्वारा पालतू बनाए जाने के दौरान कुत्तों के चेहरे की पेशियों का विकास इस तरह हुआ है जिससे मनुष्य-कुत्ते के बीच आपसी संवाद सुगम हो जाता है? इस बात का पता लगाने के लिए शोधकर्ताओं ने तफसील से घरेलू, पालतू कुत्तों और धूसर भेड़ियों के चेहरे की रचना तुलना की। उन्होंने पाया कि कुत्तों के समान भेड़िए अपनी भौंह के अंदर वाले हिस्से को नहीं हिला पाते। इसके अलावा कुत्तों में एक ऐसी पेशी होती हैं जिसकी मदद से वे पलकों को कान की ओर ले जा सकते हैं जबकि भेड़िए ऐसा नहीं कर पाते। कुत्ते अपनी भौंहों को लगातार कई बार हिला सकते और उनकी भौंहों की यह हरकत अभिव्यक्ति पूर्ण होती है। इसे लोग ‘पपी डॉग’ हरकत कहते हैं यानी दुखी होना, खुशी ज़ाहिर करना, बे-परवाही जताना, या शिशुओं जैसे अन्य व्यवहार करना। और कुत्तों की यह पपी डॉग हरकत मनुष्यों द्वारा कुत्तों पर चयन के दबाव के चलते आई है।

ज़रूरी नहीं कि बेहतरीन कुत्ता प्यारा या सुंदर हो। बेहतरीन कुत्ता तो वह होता है जो आपकी ओर देखे और आप उसका जवाब दें। यह नज़र आपसी लगाव की द्योतक होती है।

कुछ दिनों पहले कैलिफोर्निया में ‘दुनिया का सबसे बदसूरत कुत्ता’ वार्षिक प्रतियोगिता सम्पन्न हुई। इस प्रतियोगिता का विजेता स्केम्प दी ट्रेम्प नाम का कुत्ता है, जिसकी बटन जैसी आंखे हैं, दांत नदारद, और ठूंठ जैसे छोटे-छोटे पैर हैं। लेकिन उसकी मालकिन मिस यिवोन मॉरोन को उस पर फख्र है। बात सिर्फ यह नहीं है कि आपका कुत्ता कैसा दिखता है, बल्कि कुत्ता अपने मालिक को पपी छवि दिखाता है और मालिक उसे कैसे देखती है। सुंदरता तो देखने वाले की आंखों में होती है। (स्रोत फीचर्स)

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अदरख के अणु सूक्ष्मजीव संसार को बदल देते हैं

शोध पत्रिका सेल होस्ट एंड माइक्रोब में प्रकाशित एक शोध पत्र में हुआंग-जे ज़ांग व उनके साथियों ने अदरख के औषधीय गुणों का आधार स्पष्ट किया है। इससे पहले वे देख चुके थे कि चूहों में अदरख और ब्रोकली जैसे पौधों से प्राप्त कुछ एक्सोसोमनुमा नैनो कण (ELN) अल्कोहल की वजह से होने वाली लीवर की क्षति और कोलाइटिस जैसी तकलीफों की रोकथाम में मददगार होते हैं। हाल ही में जब उन्होंने अदरख से प्राप्त ELN का विश्लेषण किया तो पाया कि उनमें बहुत सारे सूक्ष्म आरएनए होते हैं। इस परिणाम ने उन्हें सोचने पर विवश कर दिया कि शायद आंतों के बैक्टीरिया इन सूक्ष्म आरएनए का भक्षण करेंगे और इसकी वजह से उनके जीन्स की अभिव्यक्ति पर असर पड़ेगा।

इसे जांचने के लिए शोधकर्ताओं ने अदरख से प्राप्त एक्सोसोमनुमा नैनो कणों (GELN) का असर कोलाइटिस पीड़ित चूहों पर करके देखा। पता चला कि GELN को ज़्यादातर लैक्टोबेसिलस ग्रहण करते हैं और इन कणों में उपस्थित आरएनए बैक्टीरिया के जीन्स को उत्तेजित कर देते हैं। यह देखा गया कि खास तौर से इन्टरल्यूकिन-22 के जीन की अभिव्यक्ति बढ़ जाती है। इन्टरल्य़ूकिन-22 ऊतकों की मरम्मत में मदद करता है और सूक्ष्मजीवों के खिलाफ प्रतिरोध को बढ़ाता है। अंतत: चूहे को कोलाइटिस से राहत मिलती है।

इसके बाद ज़ांग की टीम ने कुछ चूहों को शुद्ध GELN खिलाया। इन चूहों के आंतों के बैक्टीरिया संसार का विश्लेषण करने पर पता चला कि उनमें लाभदायक लैक्टोबेसिलस की संख्या काफी बढ़ी हुई थी। अब टीम ने कुछ चूहों में कोलाइटिस पैदा किया और उन्हें GELN खिलाया गया। ऐसा करने पर कोलाइटिस से राहत मिली। ज़ांग का कहना है कि इन प्रयोगों से स्पष्ट है कि पौधों से प्राप्त कख्र्ग़् आंतों में पल रहे सूक्ष्मजीव संघटन को बदल सकते हैं। यह फिलहाल किसी नुस्खे का आधार तो नहीं बन सकता किंतु आगे और अध्ययन की संभावना अवश्य दर्शाता है। (स्रोत फीचर्स)

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आंगन की गौरैया – कालू राम शर्मा

गौरैया के साथ मेरा रिश्ता बचपन से ही रहा है। गौरैया छत में लकड़ी व बांस की बल्लियों के बीच की जगह और दीवारों पर टंगे फोटो के पीछे दुबकी रहती और सुबह होते ही यहां-वहां चहकती फिरती, गली-मोहल्ले में धूल में नहाती। आंगन में झूठे बर्तनों में बचे हुए अन्न कणों को चुगना आम बात थी। कई बार तो खाना खाने के दौरान इतना पास आ जाती कि बस चले तो थाली में ही चोंच मार दे। वे घर की दीवार पर टंगे शीशे में अपने को ही चोंच मारती रहती। शाम होते अनेक गौरैया एक साथ मिलकर कलरव मचाती।

बरसात के दिनों में हम बच्चों का एक प्रमुख काम होता गौरैया को पकड़ने का। तकनीक का खुलासा नहीं करूंगा। गौरैया को पकड़कर उसके पंखों को स्याही से रंगकर वापस छोड़ देते। उस रंगी हुई चिड़िया को देखकर हम खुश होते रहते।

अब गौरैया की संख्या काफी कम हो चुकी है, खासकर महानगरों व शहरों में। रहन-सहन व घरों की डिज़ाइन में बदलाव के साथ गौरैया शहरी घरों से अमूमन विदा ले चुकी है। अनेक गांवों-कस्बों में आज भी गौरैया बहुतायत से दिखाई देती है। यह सही है कि गौरैया कम होती जा रही है लेकिन इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंज़र्वेशन ऑफ नेचर (आईयूसीएन) की जोखिमग्रस्त प्रजातियों की रेड लिस्ट में गौरैया को अभी भी कम चिंताजनक ही बताया गया है।

मैं यहां यह बात करना चाहता हूं कि इसने कैसे और कब मानव के साथ जीना सीखा? माना जाता है कि गौरैया ने मानव के साथ जीना तब शुरू किया था जब उसने कृषि की शुरुआत की थी। जब गौरैया ने मानव के साथ जीना सीखा तो इसमें क्या बदलाव आया होगा? उसके खान-पान में बदलाव ज़रूर आए होंगे। इसके चलते इसकी शारीरिक बनावट में क्या कोई अंतर आए होंगे?

गौरैया (पैसर डोमेस्टिकस) को अक्सर हम पालतू चिड़िया की श्रेणी में रखने की भूल कर बैठते हैं। सच तो यह है कि वह मानव के निकट रहती है मगर पालतू नहीं है। दरअसल, गौरैया को कुत्ते, गाय, घोड़े, मुर्गी की तरह मानव ने पालतू नहीं बनाया है बल्कि इसने मानव के निकट जीना सीख लिया है। सलीम अली ने अपनी पुस्तक ‘भारत के पक्षी’ में लिखा है कि यह मनुष्य की बस्तियों से अलग नहीं रह सकती।

गौरैया एक नन्ही चिड़िया है जो पैसेराइन समूह की सदस्य है। इसकी लगभग 25 प्रजातियां हैं जो पैसर वंश के अंतर्गत आती हैं। घरेलू चिड़िया युरोप, भूमध्यसागर के तटों और अधिकांश एशिया में पाई जाती है। ऑस्ट्रेलिया, अफ्रीका, और अमेरिका व अन्य कई क्षेत्रों में इसे जानबूझकर पहुंचाया गया या आकस्मिक कारणों से पहुंच गई।

जहां भी हो, यह मानव बस्तियों के इर्द-गिर्द ही पाई जाती है। जहां-जहां मनुष्य गए, गौरैया साथ गई! घने जंगलों, घास के मैदानों और रेगिस्तान, जहां मानव की मौजूदगी नहीं होती वहां गौरैया नहीं पाई जाती।

यह अनाज और खरपतवार के बीज खाती है। वैसे यह एक अवसरवादी भक्षक है, जिसे जो मिल जाए खा लेती है। कीट और इल्लियों को भी खाती है। इसके शिकारियों में बाज, उल्लू जैसे शिकारी पक्षी और बिल्ली जैसे स्तनधारी शामिल हैं।

पक्षियों की चोंच

पक्षियों की चोंच और इससे सम्बंधित लक्षण विकास की विशेषताओं को समझने में कारगर रहे हैं। चोंच भोजन प्राप्त करने का प्रमुख औज़ार है। पक्षियों के अध्ययन के दौरान अक्सर उनकी चोंच का अवलोकन करने को कहा जाता है। चोंच के आधार पर पक्षी के भोजन का अनुमान लगाया जा सकता है।

डार्विन ने गैलापेगोस द्वीपसमूह पर फिंच पक्षियों का अध्ययन कर बताया था कि वास्तव में पक्षियों की चोंच की शक्ल और आकृति को प्राकृतिक चयन द्वारा इस तरह से तराशा जाता है कि वह उपलब्ध भोजन के साथ फिट बैठ सके। डार्विन ने बताया था कि फिंच की अलग-अलग प्रजातियों में भोजन के अनुसार चोंच का आकार विकसित हुआ है। गौरैया जब मानव के साथ रहने लगी तो खेती में उपलब्ध बीजों को खाने के मुताबिक गौरैया की चोंच में परिवर्तन हुआ।

दो गौरैया की तुलना

गौरैया की एक उप प्रजाति है: पैसर डोमेस्टिकस बैक्ट्रिएनस। यह हमारी घरेलू गौरैया पैसर डोमेस्टिकस की ही तरह दिखती है। बैक्ट्रिएनस गौरैया शर्मिली और मानवों से दूर रहने की कोशिश करती है। यह प्रवासी पक्षी है। दोनों के डीएनए विश्लेषण से पता चला है कि लगभग 10 हजार वर्ष पहले गौरैया का एक उपसमूह मुख्य समूह से अलग होकर घरेलू गौरैया बन गया।

गौरैया का मानव के साथ सहभोजिता का रिश्ता रहा है। लगभग दस हज़ार वर्ष पूर्व मनुष्यों ने जब मध्य-पूर्व में खेती प्रारंभ की उसी समय गौरैया ने मानव के साथ रिश्ता बिठाना शुरू किया। लगभग चार हज़ार वर्ष पूर्व खेती के फैलाव के साथ-साथ गौरैया भी तेज़ी से फैलती गई। हालांकि घरेलू गौरैया की कई उपप्रजातियां हैं लेकिन जेनेटिक विश्लेषण से पता चलता है कि ये हाल ही में अलग-अलग हुई हैं।

अलबत्ता, बैक्ट्रिएनस गौरैया ने आज तक अपने प्राचीन पारिस्थितिक गुणधर्म बचाकर रखे हैं। बैक्ट्रिएनस मानव के साथ नहीं जुड़ी है बल्कि मानव बस्तियों से दूर प्राकृतिक आवासों में (जैसे नदी, झाड़ियों, घास के मैदानों और पेड़ों पर) रहती है। इनकी तुलना करके हम घरेलू गौरैया के मनुष्यों से रिश्ता बनने में हुए परिवर्तनों को देख सकते हैं।

शरद ऋतु में बैक्ट्रिएनस गौरैया अपने प्रजनन स्थल मध्य एशिया से बड़ी तादाद में सर्दियां बिताने के लिए उड़कर दक्षिण-पूर्वी ईरान और भारतीय उपमहाद्वीप के पश्चिमी भागों में पहुंच जाती है। गौरतलब है कि बैक्ट्रिएनस मुख्य रूप से जंगली घास के बीज खाती है जबकि मानव के साथ रहने वाली गौरैया खेती में उगने वाली गेहूं और जौं जैसी फसलों के बीज खाती हैं। अध्ययन से पता चला है कि अस्थि संरचनाओं का विकास प्रवासी बैक्ट्रिएनस गौरैया की तुलना में घरेलू गौरैया में संभवत: जल्दी हुआ क्योंकि प्रवासी व्यवहार के चलते पक्षी पर वज़न सम्बंधी अड़चनें ज़्यादा आएंगी जबकि एक ही जगह पर रहने वाली गौरैया के लिए इस तरह की अड़चन बाधक नहीं बनेगी क्योंकि उन्हें दूर-दूर तक उड़कर तो जाना नहीं है। इसलिए प्रवासी व्यवहार का परित्याग करने के साथ ही घरेलू गौरैया की चोंच और खोपड़ी मज़बूत होने लगी।

गौरैया में प्रवास के परित्याग के फलस्वरूप चोंच व खोपड़ी में होने वाले परिवर्तन एक प्रकार से अपने नए भोजन के साथ अनुकूलन है। जंगली अनाज के दानों और खेती में उगाए गए अनाज के दानों के बीच कई अंतर हैं। फसली बीजों का आकार बढ़ने लगा और ये बीज जंगली बीजों से कठोर व बनावट में अलग थे। अत: बीजों के गुणधर्मों में परिवर्तन के चलते खोपडी और चोंच पर प्राकृतिक चयन का दबाव बढा। 

खेती में उगाए जाने वाले अनाज के दाने पौधे में एक डंडी (रेकिस) पर काफी पास-पास मज़बूती से बंधे होते हैं जबकि जंगली घास के पौधों में पकने पर रेचिस के टुकड़े-टुकड़े हो जाते हैं। बैक्ट्रिएनस उप प्रजाति मानवों से दूर ही रही और उनकी चोंच व खोपड़ी में कोई फर्क नहीं आया। यह भी देखा गया कि मानव के निकट रहने वाली गौरैया की उप प्रजाति डील-डौल में भी थोड़ी बड़ी है।

गौरैया ने मानव सभ्यता के साथ रहते हुए अपने आपको मानव-निर्भर पर्यावरण के अनुसार ढाल लिया है। प्राकृतिक चयन की प्रक्रिया ने उन आनुवंशिक परिवर्तनों को सहारा दिया या उन्हें संजोया जिनके चलते इनकी खोपड़ी के आकार में बदलाव के अलावा इनमें मांड या स्टार्च को पचाने की क्षमता भी विकसित होती गई।

आखिर कृषि ने कैसे गौरैया के जीनोम को प्रभावित किया होगा? घरेलू गौरैया में ऐसे जीन मिले हैं जो इसके करीबी जंगली रिश्तेदार में नहीं हैं।

घरेलू गौरैया में प्रमुख रूप से ऐसे दो जीन मिले हैं। इनमें से एक जीन जानवरों की खोपड़ी की संरचना के लिए ज़िम्मेदार होता है और दूसरा स्टार्च के पाचन में प्रमुख भूमिका अदा करता है। (स्रोत फीचर्स)

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तिलचट्टा जल्द ही अजेय हो सकता है

खिरकार जिस दिन का हम सबको डर था वह जल्द ही आ सकता है। एक हालिया अध्ययन से मालूम चला है कि तिलचट्टे धीरे-धीरे अजेय होते जा रहे हैं। अध्ययनों के अनुसार कम से कम जर्मन तिलचट्टा (Blattella germanica) लगभग हर तरह के रासायनिक कीटनाशकों के प्रति तेज़ी से प्रतिरोध विकसित कर रहा है।

गौरतलब है कि सभी कीटनाशक एक समान क्रिया नहीं करते। कुछ तंत्रिका तंत्र को नष्ट करते हैं, जबकि अन्य बाहरी कंकाल पर हमला करते हैं और उन्हें अलग-अलग अवधि तक छिड़कना होता है। लेकिन तिलचट्टे सहित कई कीड़ों ने सबसे ज़्यादा इस्तेमाल किए जाने वाले कीटनाशक के खिलाफ प्रतिरोध विकसित कर लिया है। तिलचट्टे का जीवन लगभग 100 दिनों का होता है, इसलिए प्रतिरोध तेज़ी से फैल सकता है। सबसे ज़्यादा प्रतिरोधी काकरोचों का प्रतिरोधी जीन अगली पीढ़ी को मिल जाता है।

जर्मन तिलचट्टे में प्रतिरोध का परीक्षण करने के लिए, शोधकर्ताओं ने 6 महीनों तक इंडियाना और इलिनॉय में कई इमारतों में तीन अलग-अलग तिलचट्टा कॉलोनियों का चयन किया किया। उन्होंने तिलचट्टों की आबादी पर तीन अलग-अलग कीटनाशकों – एबामेक्टिन, बोरिक एसिड और थियामेथोक्सैम – के खिलाफ प्रतिरोध स्तर की जांच की। एक उपचार में उन्होंने 3-3 महीने के दो चक्रों में एक-के-बाद-एक तीनों कीटनाशकों का उपयोग किया। अन्य उपचार में, शोधकर्ताओं ने पूरे 6 महीनों तक कीटनाशकों के मिश्रण का उपयोग किया। अंतिम उपचार में केवल एक रसायन का उपयोग किया गया जिसके प्रति तिलचट्टों की आबादी में कम प्रतिरोध था।

साइंटिफिक रिपोर्ट्स में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार अलग-अलग उपचारों के बावजूद, अधिकतर तिलचट्टा आबादियों में समय के साथ कोई कमी देखने को नहीं मिली। ठीक यही स्थिति तब भी रही जब कई कीटनाशकों का मिलाकर इस्तेमाल किया गया। अक्सर कीट नियंत्रण में इसी तरीके का इस्तेमाल किया जाता है। इन परिणामों से यह अनुमान लगाया गया कि तिलचट्टे तीनों रसायनों के खिलाफ तेज़ी से प्रतिरोध विकसित कर रहे हैं। एक सकारात्मक बात यह दिखी कि यदि तिलचट्टों में निम्न स्तर का प्रतिरोध है तो एबामेक्टिन उपचार कॉलोनी के एक बड़े हिस्से को मिटा सकता है।

अगर इन निष्कर्षों को मान लिया जाए तो मात्र रसायनों से तिलचट्टों के प्रकोप का मुकाबला करना असंभव हो सकता है। शोधकर्ताओं के सुझाव में एकीकृत कीट प्रबंधन का उपयोग करना होगा। रसायनों के साथ-साथ पिंजड़ों, सतहों की सफाई या वैक्यूम से खींचकर इनको खत्म किया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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चट्टान भक्षी ‘कृमि’ नदियों के मार्ग बदल सकते हैं

अठारवीं सदी में शिपवर्म (एक प्रकार का कृमि) ने लोगों को काफी परेशान किया था। जहाज़ों को डुबाना, तटबंधों को खोखला करना और यहां तक कि समुद्र की लहरों से बचाव करने वाले डच डाइक को भी खा जाना इस कृमि की करामातें थी। लकड़ी इनकी खुराक है। शोधकर्ताओं ने हाल ही में एक ऐसे शिपवर्म की खोज की है जिसका आहार लकड़ी नहीं बल्कि पत्थर है। मीठे पानी में पाया जाने वाला यह मोटा, सफेद, और कृमि जैसा दिखने वाला जीव एक मीटर तक लंबा हो सकता है। शोधकर्ताओं ने इस प्रजाति (Lithoredo abatanica) को पहली बार 2006 में फिलीपींस स्थित अबाटन नदी के चूना पत्थर में अंगूठे की साइज़ के बिलों में देखा था। लेकिन इस जीव का विस्तार से अध्ययन 2018 में किया गया।

चट्टान को चट करने वाला यह शिपवर्म लकड़ीभक्षी शिपवर्म से काफी अलग है। प्रोसीडिंग्स ऑफ दी रॉयल सोसाइटी बी में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार सभी शिपवर्म वास्तव में कृमि नहीं बल्कि क्लैम होते हैं। इनमें दो सिकुड़े हुए कवच रूपांतरित होकर बरमे की तरह काम करते हैं। लकड़ी खाने वाले कृमि के कवच पर सैकड़ों तेज़ अदृश्य दांत होते हैं वहीं चट्टान खाने वाले कृमि में दजऱ्न भर मोटे, मिलीमीटर साइज़ के दांत होते हैं जो चट्टान को खरोंचने में सक्षम होते हैं।

लकड़ीभक्षी समुद्री शिपवर्म में विशेष पाचक थैली होती है जहां बैक्टीरिया लड़की को पचाते हैं। अन्य शिपवर्म की तरह चट्टान खाने वाले शिपवर्म भी कुतरे हुए पदार्थ को निगलते ज़रूर हैं लेकिन इसमें पाचक थैली और बैक्टीरिया का अभाव रहता है। चट्टान के चूरे से इन्हें कोई पोषण नहीं मिलता। पोषण के लिए वे पिछले सिरे से चूसे गए भोजन के भरोसे रहते हैं जिसे गलफड़ों में उपस्थित बैक्टीरिया पचाते हैं। बहरहाल, लकड़ीभक्षी और चट्टानभक्षी शिपवर्म में एक समानता है। दोनों काफी नुकसान कर सकते हैं। लकड़ीभक्षी ने तो जहाज़ों और लकड़ी से बनी अन्य रचनाओं को तहस-नहस किया था और दूसरा चट्टान को खोखला कर नदी के रास्ते को भी बदल सकता है। लेकिन इसका एक उजला पक्ष भी है। कृमि द्वारा बनाई गई दरारें केकड़ों, घोंघों और मछलियों के लिए बेहतरीन घर होते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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एक पौधे और एक पक्षी की अजीब दास्तान – डॉ. किशोर पंवार

जैव विविधता पर तरह तरह के खतरों और मानवीय हस्तक्षेप के कारण प्रजातियों के ह्यास के बीच हाल में संरक्षणवादियों के लिए दो अच्छी खबरें आई है। गुड़हल की जाति के एक विलुप्त माने जा रहे पौधे को पुन: खोज लिया गया है और रेल समूह के एक पक्षी में विकास की एक दुर्लभ घटना देखी गई है।

एक समाचार यह है कि हिबिस्काडेल्फस वूडी नाम का एक पौधा शायद विलुप्त नहीं हुआ है। वनस्पतिविदों ने हवाई द्वीप पर पाए जाने वाले इस दुर्लभ फूलधारी पौधे को एक बार पुन: खोज लिया है और ऐसा संभव हुआ है एक ड्रोन की सहायता से। गौरतलब है कि ड्रोन बहुत छोटे विमान होते हैं जिन्हें सुदूर संचालन से चलाया जाता है। इनका उपयोग जासूसी कार्य के अलावा प्रकृति के अध्ययन में किया जाता है।

हिबिस्काडेल्फस वूडी हवाई द्वीप के पहाड़ों की खड़ी चट्टानों के मुहाने पर उगता है। यहां उगने के कई फायदे हैं। एक तो भूखी भेड़ें ऐसी चट्टानों पर चढ़कर इसे नहीं खा सकती, और न ही वे लोग यहां पहुंच पाते हैं जो कीमती पौधों को पैरों तले रौंद डालते हैं। हिबिस्काडेल्फस वूडी हमारे जाने पहचाने गुड़हल यानी जासौन की जाति का है। इस पौधे को अंतिम बार 2009 में देखा गया था। अप्रैल 2019 में ड्रोन की मदद से की गई नई खोज का मतलब है कि मात्र एक दशक की अवधि में यह विलुप्त प्रजातियों की सूची से बाहर आ चुका है। हिबिस्काडेल्फस वूडी को ग्रीन हाउस में उगाने के प्रयास बार-बार हुए परंतु सफलता नहीं मिली। कलम लगाना, टिप कटिंग करना और पर-परागण द्वारा भी इसे उगाना संभव नहीं हो पाया था।

सैकड़ों हजारों साल के विकास ने इस पौधे में कुछ विलक्षण गुण उत्पन्न किए हैं। जैसे इसका फूल नलिकाकार है जो उम्र बढ़ने के साथ पीले से गहरा लाल हो जाता है। इसके फूल की रचना वहीं के एक स्थानीय परागणकर्ता हनीक्रीपर नामक पक्षी की चोंच से एकदम मेल खाती है।

इसे पुन: खोजे जाने पर वनस्पति शास्त्री केन वुड का कहना है कि प्रजातियों का विलुप्तिकरण कभी भी एक सटीक विज्ञान नहीं रहा। यह इस बात पर निर्भर करता है कि आप उन्हें कहां और कैसे खोज रहे हैं। केन वुड ने अपना सारा समय नेशनल ट्रॉपिकल बॉटेनिकल गार्डन में विलुप्तप्राय वनस्पतियों की खोज में बिताया है। वे अक्सर हवाई द्वीपों की कवाई पहाडि़यों की दरारों पर हेलीकॉप्टर से बाहर लटकते हुए ऐसी प्रजातियों को बचाने में लगे रहते हैं जिनके मुश्किल से 5-10 प्रतिनिधि ही बचे हैं। इनमें से कुछ स्थान ऐसे हैं जहां पर वे और उनके साथी स्टीलमैन रस्सियों और हेलीकॉप्टर की सहायता से भी नहीं पहुंच पाए थे। 2016 में ड्रोन विशेषज्ञ बेन नायबर्ग ने नेशनल ट्रॉपिकल बॉटेनिकल गार्डन के साथ कवाई द्वीप की दुर्गम घाटियों में ऐसे स्थानों पर ड्रोन की सहायता से ऐसी दुर्गम घाटियों पर खोजबीन में मदद की। 2019 की फरवरी में एक धूप भरे दिन ड्रोन कैमरे से उन्होंने एक पौधे के झुंड को खोजा जो केलालू घाटी की खड़ी चट्टानों की दरारों से 700 फीट नीचे था। इससे और नीचे पहुंचने के लिए 800 फीट के नीचे उन्होंने वहां अपना ड्रोन उड़ाया और एक पौधे के समूह को अपने मॉनिटर पर देखा। उन्होंने पाया कि हिबिस्काडेल्फस वूडी वहां जीता-जागता खड़ा है।

यह पहला मौका था जब किसी प्रजाति को खोजने के लिए ड्रोन का उपयोग किया गया। इनका मानना है कि इन जगहों पर कुछ और नई प्रजातियां या ऐसी प्रजातियां भी मिल सकती हैं जिन्हें विलुप्त मान लिया गया है।                  

दूसरी अच्छी खबर एक पक्षी के बारे में है जो करीब 1 लाख छत्तीस हज़ार साल पहले विलुप्त हो गया था पर फिर नए अवतार में प्रकट हुआ है। इसका नाम है व्हाइट थ्रोटेड रेल। यह मुर्गी के आकार का पक्षी है। यह जैव विकास की एक विलक्षण और दुर्लभ घटना है। ज़ुऑलॉजिकल जर्नल ऑफ लिनियन सोसायटी में प्रकाशित शोध पत्र के अनुसार किस्सा यह है कि व्हाइट थ्रोटेड रेल मेडागास्कर का मूल निवासी है। मगर ये प्रवास करके अलग-अलग दीपों में समुदाय बनाकर रहते थे और संख्या बढ़ने पर ये आसपास के द्वीपों पर माइग्रेट हो जाते थे। इनमें से कई उत्तर और दक्षिण के दीपों पर चले गए जो समुद्र का तल बढ़ने से पानी में डूब कर समाप्त हो गए। जो कुछ अफ्रीका में गए थे वहां उन्हें शिकारियों ने खा लिया। वे पक्षी जो पूर्व की ओर गए वे मारीशस, रीयूनियन द्वीप और अलडबरा द्वीप पर पहुंचे। अलडबरा एक छल्ले के आकार का कोरल द्वीप है जो आज से लगभग 4 लाख वर्ष पूर्व बना था। यहां भोजन प्रचुरता से उपलब्ध था और मारीशस के द्वीपों की तरह यहां पर भी कोई शिकारी नहीं था। अत: ये रेल इस प्रकार विकसित हुए कि अपनी उड़ने की क्षमता खो बैठे।

फिर करीब 1 लाख छत्तीस हज़ार वर्ष पूर्व एक बड़ी बाढ़ के दौरान अलडबरा द्वीप समुद्र में डूब गया था। परिणामस्वरूप यहां की सारी वनस्पतियां तथा कई जंतु मारे गए। इनमें उड़ान-विहीन रेल भी शामिल थे। शोधकर्ताओं ने 1 लाख साल पुराने जीवाश्मों का अध्ययन किया है। यह वह समय था जब हिम युग के कारण समुद्र के तल में गिरावट आई थी। जीवाश्म से पता चला कि यह द्वीप पुन: न उड़ पाने वाले रेल पक्षी समुदाय से बस गया था। द्वीप के डूबने के पूर्व और द्वीप के वापिस उभरने के बाद के रेल पक्षियों के जीवाश्म की हड्डियों की तुलना से पता चलता है कि ये दोनों पक्षी मैडागास्कर से उड़कर यहां पहुंचे थे और दोनों बार इन्होंने उड़ने की क्षमता गंवाई।

इसका अर्थ यह है कि मेडागास्कर की एक ही प्रजाति ने न उड़ने वाली रेल की दो उप-प्रजातियों को अलडबरा में कुछ हजार वर्षों के अंतराल पर जन्म दिया। प्राकृतिक इतिहास संग्रहालय के जूलियन ह्रूम कहते हैं कि ये विशिष्ट जीवाश्म इस बात के अकाट-प्रमाण हैं कि इन द्वीपों पर रेल के दोनों समुदाय मेडागास्कर से ही आए थे, और यहीं आकर अलग-अलग समय पर दो न उड़ने वाले रेल बन गए। यह दोनों घटनाएं दर्शाती है कि जैव विकास के दौरान एक ही गुण का बार-बार प्रकट होना कोई अनहोनी नहीं है। जैव विकास की भाषा में इसे इटरेटिव विकास कहते हैं। इटरेटिव विकास उसे कहते हैं जब वही या मिलती जुलती रचनाएं एक साझा पूर्वज से अलग-अलग समय पर विकसित हों। इसका अर्थ यह है कि एक ही पूर्वज से शुरू करके एक-से जीव वास्तव में दो बार अलग-अलग समय अथवा स्थान पर इस धरती पर विकसित हुए हैं। यहां ध्यान देने वाली बात यह है कि चंद हज़ार सालों के अंतराल पर एक ही पूर्वज प्रजाति से दो उप-प्रजातियां निकली हैं और वे सचमुच अलग-अलग उप प्रजातियां हैं। यह किसी उप प्रजाति का पुनर्जन्म नहीं है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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गिद्धों की कमी से खतरे की घंटी – मनीष वैद्य

ध्यप्रदेश के आबादी क्षेत्रों में गिद्धों की तादाद में बड़ी कमी दर्ज की गई है। पूरे प्रदेश में एक ही दिन 12 जनवरी 2019 को एक ही समय पर की गई गिद्धों की गणना में चौंकाने वाले आंकड़े सामने आए हैं।

इन आंकड़ों पर गौर करें तो ऊपर से देखने पर मध्यप्रदेश में गिद्धों की संख्या बढ़ी हुई नज़र आती है लेकिन ज़मीनी हकीकत कुछ और बयान करती है। पूरे प्रदेश में दो साल पहले हुई गणना के मुकाबले ताज़ा गणना में आंकड़े यकीनन बढ़े हैं। लेकिन इनमें सबसे ज़्यादा गिद्ध सुरक्षित अभयारण्यों में पाए गए हैं। दूसरी तरफ गांवों, कस्बों और शहरों के आबादी क्षेत्र में गिद्ध तेज़ी से कम हुए हैं। गिद्धों के कम होने से पारिस्थितिकी तंत्र पर संकट के साथ किसानों के मृत मवेशियों की देह के निपटान और संक्रमण की भी बड़ी चुनौती सामने आ रही है।

इस बार 1275 स्थानों पर किए गए सर्वेक्षण में प्रदेश में 7906 गिद्धों की गिनती हुई है। वन विभाग के आंकड़ों के मुताबिक इसमें 12 प्रजातियों के गिद्ध मिले हैं। इससे पहले जनवरी 2016 में 6999 तथा मई 2016 में 7057 गिद्ध पाए गए थे। ऐसे देखें तो गिद्धों की तादाद 12 फीसदी की दर से बढ़ी है। पर इसमें बड़ी विसंगति यह है कि इसमें से 45 फीसदी गिद्ध प्रदेश के संरक्षित वन क्षेत्रों में मिले हैं जबकि पूरे प्रदेश के आबादी क्षेत्र में गिद्धों की संख्या आश्चर्यजनक रूप से कम हुई है।

जैसे, मंदसौर ज़िले में गांधी सागर अभयारण्य में गिद्धों को साधन सम्पन्न प्राकृतिक परिवेश हासिल होने से इनकी संख्या बढ़ी है। बड़ी बात यह भी है कि एशिया में तेज़ी से विलुप्त हो रहे ग्रिफोन वल्चर की संख्या यहां बढ़ी है। ताज़ा गणना में यहां 650 गिद्ध मिले हैं। दूसरी ओर, श्योपुर के कूनो अभयारण्य में 242 गिद्धों की गणना हुई है जो दो साल पहले के आंकड़े 361 से 119 कम है। पन्ना राष्ट्रीय उद्यान में भी 2016 के आंकड़े 811 के मुकाबले मात्र 567 गिद्ध मिले हैं। सर्वाधिक गिद्ध रायसेन ज़िले में 650 रिकॉर्ड किए गए हैं।

यदि गिद्धों की कुल संख्या में से मंदसौर अभयारण्य और रायसेन के आंकड़ों को हटा दें तो शेष पूरे प्रदेश में गिद्ध कम ही हुए हैं। नगरीय या ग्रामीण क्षेत्र में, जहां गिद्धों की सबसे ज़्यादा ज़रूरत है, वहां इन कुछ सालों में गिद्ध कम ही नहीं हुए, खत्म हो चुके हैं। दरअसल वन विभाग ने जंगल और आबादी क्षेत्र के गिद्धों के आंकड़ों को मिला दिया है। इस वजह से यह विसंगति हो रही है।

दरअसल बीते दो सालों में यहां गिद्धों की तादाद तेज़ी से कम हुई है। इंदौर में तीन साल पहले तक 300 गिद्ध हुआ करते थे, अब वहां मात्र 94 गिद्ध ही बचे हैं। उज्जैन और रतलाम ज़िलों में तो एक भी गिद्ध नहीं मिला। इसी तरह देवास ज़िले में भी मात्र दो गिद्ध पाए गए हैं। धार, झाबुआ और अलीराजपुर में भी कमोबेश यही स्थिति है। इंदौर शहर को देश का सबसे स्वच्छ शहर घोषित किया गया है। लेकिन शहर की यही स्वच्छता अब गिद्धों पर भारी पड़ती नज़र आ रही है। बीते मात्र दो सालों में इंदौर शहर और ज़िले से 136 गिद्ध गायब हुए हैं। कभी यहां के ट्रेचिंग ग्राउंड पर गिद्धों का झुण्ड जानवरों के शवों की चीरफाड़ में लगा रहता था। अब वहां गंदगी के ढेर कहीं नहीं हैं। मृत जानवरों को ज़मीन में गाड़ना पड़ रहा है। अब गणना में ट्रेंचिंग ग्राउंड पर सिर्फ 54 गिद्ध मिले हैं। दो साल पहले तक यहां ढाई सौ के आसपास गिद्ध हुआ करते थे।

इसी तरह चोरल, पेडमी और महू के जंगलों में भी महज 40 गिद्ध ही मिले हैं जहां कभी डेढ़ सौ गिद्ध हुआ करते थे। गिद्ध खत्म होने के पीछे पानी की कमी भी एक बड़ा कारण है। ट्रेंचिंग ग्राउंड के पास का तालाब सूख चुका है और एक तालाब का कैचमेंट एरिया कम होने से इसमें पानी की कमी रहती है और अक्सर सर्दियों में ही यह सूख जाता है। शहर से कुछ दूरी पर गिद्धिया खोह जल प्रपात की पहचान रहे गिद्ध अब यहां दिखाई तक नहीं देते। गणना के समय एक गिद्ध ही यहां मिला।

इन दिनों गांवों में भी कहीं गिद्ध नज़र नहीं आते। कुछ सालों पहले तक गांवों में भी खूब गिद्ध हुआ करते थे और किसी पशु की देह मिलते ही उसका निपटान कर दिया करते थे। अब शव के सड़ने से उसकी बदबू फैलती रहती है। ज़्यादा दिनों तक मृत देह के सड़ते रहने से जीवाणु-विषाणु फैलने तथा संक्रमण का खतरा भी बढ़ जाता है।

देवास के कन्नौद में फॉरेस्ट एसडीओ एम. एल. यादव बताते हैं, “करीब 75 हज़ार वर्ग किमी में फैले ज़िले में 2033 वर्ग कि.मी. जंगल है। कुछ सालों पहले तक जंगल में गिद्धों की हलचल से ही पता चल जाता था कि किसी जंगली या पालतू जानवर की मौत हो चुकी है। जंगलों में चट्टानों तथा ऊंचे-ऊंचे पेड़ों पर इनका बसेरा हुआ करता था। इन्हें स्वीपर ऑफ फॉरेस्ट कहा जाता रहा है। मृत पशुओं के मांस का भक्षण ही उनका भोजन हुआ करता था। ये कुछ ही समय में प्राणी के शरीर को चट कर देते थे। लेकिन अब ज़िले के हरे-भरे जंगलों में भी इनका कोई वजूद नहीं रह गया है।”

सदियों से गिद्ध हमारे पारिस्थितिकी तंत्र के महत्वपूर्ण सफाईकर्मी रहे हैं। ये मृत जानवरों के शव को खाकर पर्यावरण को दूषित होने से बचाते रहे हैं। लेकिन अब पूरे देश में गिद्धों की विभिन्न प्रजातियों पर अस्तित्व का ही सवाल खड़ा होने लगा है। इनमें सामान्य जिप्स गिद्ध की आबादी में बीते दस सालों में 99.9 फीसदी की गिरावट दर्ज की गई है। 1990 में तीन प्रजातियों के गिद्धों की आबादी हमारे देश में चार करोड़ के आसपास थी जो अब घटकर दस हज़ार से भी कम रह गई है। पर्यावरण के लिए यह खतरे की घंटी है।

दरअसल पालतू पशुओं को उपचार के दौरान दी जाने वाली डिक्लोफेनेक नामक दवा गिद्धों के लिए घातक साबित हो रही है। इस दवा का उपयोग मनुष्यों में दर्द निवारक के रूप में किया जाता था। अस्सी के दशक में इसका उपयोग गाय, बैल, भैंस और कुत्ते-बिल्लियों के लिए भी किया जाने लगा। इस दवा का इस्तेमाल जैसे-जैसे बढ़ा, वैसे-वैसे गिद्धों की आबादी लगातार कम होती चली गई। पहले तो इस ओर किसी का ध्यान नहीं गया लेकिन जब हालात बद से बदतर होने लगे तो खोज-खबर शुरू हुई। तब यह दवा शक के घेरे में आई। वैज्ञानिकों के मुताबिक डिक्लोफेनेक गिद्धों के गुर्र्दों पर बुरा असर डालता है। इस दवा से उपचार के बाद मृत पशु का मांस जब गिद्ध खाते हैं तो इसका अंश गिद्धों के शरीर में जाकर उनके गुर्दों को खराब कर देता है जिसकी वजह से उनकी मौत हो जाती है। खोज में यह बात भी साफ हुई है कि यदि मृत जानवर को कुछ सालों पहले भी यह दवा दी गई हो तो इसका अंश उसके शरीर में रहता है और उसका मांस खाने से यह गिद्धों के शरीर में आ जाता है।

कई सालों तक इस दवा के उपयोग को पूरी तरह प्रतिबंधित करने के लिए पर्यावरण विशेषज्ञ और संगठन मांग करते रहे तब कहीं जाकर इस दवा के पशुओं में उपयोग पर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्रतिबंध लगाया गया। लेकिन आज भी तमाम प्रतिबंधों को धता बताते हुए यह दुनिया के कई देशों में बनाई और बेची जा रही है। इससे भी खतरनाक बात यह है कि कई कंपनियां इन्हीं अवयवों के साथ नाम बदलकर दवा बना रही हैं। इसी वजह से गिद्धों को बचाने की तमाम सरकारी कोशिशें भी सफल नहीं हो पा रही हैं। अब जब गिद्धों की आबादी हमारे देश के कुछ हिस्सों में उंगलियों पर गिने जाने लायक ही बची है तब 2007 में भारत में इसके निर्माण और बिक्री पर रोक लगाई गई। लेकिन अब भी इसका इस्तेमाल धड़ल्ले से किया जा रहा है। कुछ दवा कंपनियों ने डिक्लोफेनेक के विकल्प के रूप में पशुओं के लिए मैलोक्सीकैम दवा बनाई है। यह गिद्धों के लिए नुकसानदेह नहीं है।

विशेषज्ञों के मुताबिक संकट के बादल सिर्फ गिद्धों पर ही नहीं, अन्य शिकारी पक्षियों बाज़, चील और कुइयां पर भी हैं। कुछ सालों पहले ये सबसे बड़े पक्षी शहरों से लुप्त हुए। फिर भी गांवों में दिखाई दे जाया करते थे पर अब तो गांवों में भी नहीं मिलते। कभी मध्यप्रदेश में मुख्य रूप से चार तरह के गिद्ध मिलते थे।

गिद्धों को विलुप्ति से बचाने के लिए सरकारें अब भरसक कोशिश कर रही हैं। संरक्षण के लिहाज़ से गिद्ध वन्य प्राणी संरक्षण 1972 की अनुसूची 1 में आते हैं। देश में आठ खास जगहों पर इनके ब्राीडिंग सेंटर बनाए गए हैं। हरियाणा के पिंजौर तथा पश्चिम बंगाल के बसा में ब्रीडिंग सेंटर में इनके लिए प्राकृतिक तौर पर रहवास उपलब्ध कराया गया है। पिंजौर में सबसे अधिक 127 गिद्ध हैं।

दो साल पहले भोपाल में भी केरवा डेम के पास मेंडोरा के जंगल में प्रदेश का पहला गिद्ध प्रजनन केंद्र स्थापित किया गया है। वन अधिकारियों के मुताबिक यहां गिद्धों की निगरानी के लिए सीसीटीवी कैमरे लगाए गए हैं और उनकी हर हलचल पर नज़र रखी जाती है।

हमारे पारिस्थितिकी तंत्र को बचाने के लिए गिद्धों को सहेजना बहुत ज़रूरी है। हमारे देश में किसानों के पास बीस करोड़ से ज़्यादा गायें, बैल, भैंस आदि पालतू मवेशी हैं। इन्हें पशुधन माना जाता है। लेकिन जब इनकी मृत्यु हो जाती है तब इन्हें जलाया या दफनाया नहीं जाता है, बल्कि गांव किनारे की क्षेपण भूमि में मृत देह को रख आते हैं। गिद्धों के अभाव में मृत मवेशियों की देह सड़ती रहती है। गिद्धों की कमी के कारण मांस खाने वाले कुत्तों की तादाद बढ़ने से रैबीज़ जैसे रोगों का खतरा भी बढ़ जाता है।

पारसी समुदाय में शवों को डोखमा (बुर्ज) में खुला छोड़ दिया जाता है। जहां गिद्ध जैसे बड़े पक्षी उन्हें नष्ट करते हैं। पारसी धारणा के मुताबिक शव को दफनाने से ज़मीन तथा जलाने से आग दूषित होती है। इसलिए इस समाज के लोगों के लिए तो गिद्धों का होना बहुत ज़रूरी है। अब गिद्धों की कमी के चलते बुर्जों पर सौर उर्जा परावर्तक लगाए जा रहे हैं।

गिद्धों के संरक्षण के लिए सरकारों के साथ समाज को भी आगे आना पड़ेगा। तेज़ी से कम होते जा रहे गिद्धों के नहीं रहने से बढ़ते प्रदूषण पर सोचने भर से हम सिहर उठते हैं। गिद्धों का रहना हमारे पर्यावरण की सेहत के लिए बेहद ज़रूरी है। उनके बिना प्रकृति की सफाई कौन करेगा। किसान चाहें तो खुद अपने मवेशियों को डिक्लोफेनेक देने से रोक सकते हैं। इसके विकल्प के रूप में मैलोक्सीकैम दवा का इस्तेमाल किया जाना चाहिए। इसके अलावा गिद्धों के प्राकृतिक आवास तथा घोंसलों को भी संरक्षित कर सहेजने की ज़रूरत है। कहीं ऐसा न हो कि हम अगली पीढ़ी को सिर्फ किताबों और वीडियो में दिखाएं कि कभी इस धरती पर गिद्ध रहा करते थे। (स्रोत फीचर्स)

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कौआ और कोयल: संघर्ष या सहयोग – कालू राम शर्मा

न दिनों भरी गर्मी में कौओं को चोंच में सूखी टहनी दबाए उड़कर पेड़ों की ओर जाते देखा जा सकता है। कौओं की चहल-पहल अप्रैल से जून के बीच कुछ अधिक दिखाई देती है। अगर आप इन दिनों पेड़ों पर नज़र डालें तो दो डालियों के बीच कुछ टहनियों का बिखरा-बिखरा सा कौए का घोंसला देखने को मिल सकता है।

पिछले दिनों मुझे मध्यप्रदेश के कुछ ज़िलों से गुज़रने का मौका मिला तो पाया कि पेड़ों पर कौओं ने बड़ी तादाद में घोंसले बनाए हैं। दिलचस्प बात यह लगी कि कौओं ने घोंसला बनाने के लिए उन पेड़ों को चुना जिनकी पत्तियां झड़ चुकी थीं और नई कोपलें आने वाली थीं। जब पत्तियां झड़ जाएं तो पेड़ की एक-एक शाखा दिखाई देती है। जब पत्तियां होती हैं तो कई पक्षी वगैरह इसमें पनाह पाते हैं मगर वे दिखते नहीं। पीपल के पेड़ पर अधिकतम घोंसले दिखाई दिए। एक ही पीपल के पेड़ पर सात से दस तक घोंसले दिखे।

दरअसल, कौए ऐसे पेड़ को घोंसला बनाने के लिए चुनते हैं जिस पर घने पत्ते न हो। एक वजह यह हो सकती है कि कौए दूर से अपने घोंसले पर नज़र रख सकें या घोंसले में बैठे-बैठे दूर-दूर तक नज़रें दौड़ा सकें। घोंसला ज़मीन से करीब तीन-चार मीटर की ऊंचाई पर होता है। नर और मादा मिलकर घोंसला बनाते हैं और दोनों मिलकर अंडों-चूज़ों की परवरिश भी करते हैं।

कहानी का रोचक हिस्सा यह है कि कौए व कोयल का प्रजनन काल एक ही होता है। इधर कौए घोंसला बनाने के लिए सूखे तिनके वगैरह एकत्र करने लगते हैं और नर व मादा का मिलन होता है और उधर नर कोयल की कुहू-कुहू सुनाई देने लगती है। नर कोयल अपने प्रतिद्वंद्वियों को चेताने व मादा को लुभाने के लिए तान छेड़ता है। घोंसला बनाने की जद्दोजहद से कोयल दूर रहता है।

कौए का घोंसला साधारण-सा दिखाई देता है। किसी को लग सकता है कि यह तो मात्र टहनियों का ढेर है। हकीकत यह है कि यह घोंसला हफ्तों की मेहनत का फल है। अंडे देने के कोई एक महीने पहले कौए टहनियां एकत्र करना प्रारंभ कर देते हैं। प्रत्येक टहनी सावधानीपूर्वक चुनी जाती है। मज़बूत टहनियों से घोंसले का आधार बनाया जाता है और फिर पतली व नरम टहनियां बिछाई जाती हैं। कौए के घोंसले में धातु के तारों का इस्तेमाल भी किया जाता है। ऐसा लगता है कि बढ़ते शहरीकरण के चलते टहनियों के अलावा उन्हें तार वगैरह जो भी मिल गए उनका इस्तेमाल कर लेते हैं।

कोयल कौए के घोंसले में अंडे देती है। कोयल के अंडों-बच्चों की परवरिश कौए द्वारा होना जैव विकास के क्रम का नतीजा है। कोयल ने कौए के साथ ऐसी जुगलबंदी बिठाई है कि जब कौए का अंडे देने का वक्त आता है तब वह भी देती है। कौआ जिसे चतुर माना जाता है, वह कोयल के अंडों को सेहता है और उन अंडों से निकले चूज़ों की परवरिश भी करता है।

कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने पाया है कि कोयल के पंख स्पैरो हॉक नामक पक्षी से काफी मिलते-जुलते होते हैं। स्पैरो हॉक जैसे पंख दूसरे पक्षियों को भयभीत करने में मदद करते हैं। इसी का फायदा उठाकर कोयल कौए के घोंसले में अंडे दे देती है। उल्लेखनीय है कि स्पैरो हॉक एक शिकारी पक्षी है जो पक्षियों व अन्य रीढ़धारी जंतुओं का शिकार करता है। वैज्ञानिकों ने एक प्रयोग किया जिसमें नकली कोयल और नकली स्पैरो हॉक को एक गाने वाली चिड़िया के घोंसले के पास रख दिया। देखा गया कि गाने वाली चिड़िया उन दोनों से डर गई।

तो कोयल कौए के घोंसले पर परजीवी है। कोयल माताएं विभिन्न प्रजातियों के पक्षियों के घोंसलों में अपने अंडे देकर अपनी ज़िम्मेदारी मुक्त हो जाती है। कौआ माएं कोयल के चूज़ों को अपना ही समझती है। आम समझ कहती है कि परजीविता में मेज़बान को ही नुकसान उठाना पड़ता है। लेकिन परजीवी पक्षियों के सम्बंध में हुए अध्ययन बताते हैं कि इस तरह के परजीवी की उपस्थिति से मेज़बान को भी फायदा होता है। तो क्या कोयल और कौवे के बीच घोंसला-परजीविता का रिश्ता कौए के चूज़ों को कोई फायदा पहुंचाता है? ऐसा प्रतीत होता है कि कोयल के चूज़ों की बदौलत कौए के चूज़ों को शरीर पर आ चिपकने वाले परजीवी कीटों वगैरह से निजात मिलती है।

स्पेन के शोधकर्ताओं की एक टीम ने पाया है कि कोयल की एक प्रजाति वाकई में घोंसले में पल रहे कौओं के चूज़ों को जीवित रहने में मदद करती है। टीम बताती है कि ग्रेट स्पॉटेड ककू द्वारा कौए के घोंसले में अंडे दिए जाने पर कौए के अंडों से चूज़े निकलना अधिक सफलतापूर्वक होता है। अध्ययन से पता चला कि केरिअन कौवों के जिन घोसलों में कोयल ने अंडे दिए उनमें कौवे के चूज़ों के जीवित रहने की दर कोयल-चूज़ों से रहित घोंसले से अधिक थी। और करीब से देखने पर पता चला कि कोयल के पास जीवित रखने की व्यवस्था थी जो कौवों के पास नहीं होती। जिन घोंसलों में कोयल के चूज़े पनाह पा रहे थे उन पर शिकारी बिल्ली वगैरह का हमला होने पर कोयल के चूजे दुर्गंध छोड़ते हैं। यह दुर्गंध प्रतिकारक रसायनों के कारण होती है और शिकारी बिल्ली व पक्षियों को दूर भगाने में असरकारक साबित होती है। अर्थात पक्षियों के बीच परजीवी-मेज़बान का रिश्ता जटिल है।

अब आम लोग महसूस करने लगे हैं कि पिछले बीस-पच्चीस बरसों में कौओं की तादाद घटी है। अधिकतर ऐसा एहसास लोगों को श्राद्ध पक्ष में होता है जब वे कौओं को पुरखों के रूप में आमंत्रित करना चाहते हैं। घंटों छत पर खीर-पूड़ी का लालच दिया जाता है मगर कौए नहीं आते।

कौओं को संरक्षित करने के लिए उनके प्रजनन स्थलों को सुरक्षित रखना होगा। कोयल का मीठा संगीत सुनना है तो कौओं को बचाना होगा।

जब पक्षी घोंसला बनाते हैं तो वे सुरक्षा के तमाम पहलुओं को ध्यान में रखते हैं। पिछले दिनों मैं एक शादी के जलसे में शामिल हुआ था। बारात के जलसे में डीजे से लगाकर बैंड व ढोल जैसे भारी-भरकम ध्वनि उत्पन्न करने वाले साधनों की भरमार थी। मैंने पाया कि जिन कौओं ने सड़क किनारे पेड़ों पर घोंसले बनाए थे वे इनके कानफोड़ू शोर की वजह से असामान्य व्यवहार कर रहे थे। कौए भयभीत होकर घोंसलों से दूर जाकर कांव, कांव की आवाज़ निकाल रहे थे। दरअसल, पक्षियों को भी खासकर प्रजनन काल में शोरगुल से दिक्कत होती है। इस तरह के अवलोकन तो आम हैं कि अगर इनके घोंसलों को कोई छू ले तो फिर पक्षी उन्हें त्याग देते हैं। फोटोग्राफर्स के लिए भी निर्देश हैं कि पक्षियों के घोंसलों के चित्र न खींचें। कैमरे के फ्लैश की रोशनी पक्षियों को विचलित करती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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