हाइड्रोजन: भविष्य का स्वच्छ ईंधन – डॉ. रुचिका मिश्रा

र्तमान समय की सबसे महत्वपूर्ण चुनौती है पर्यावरण को बचाते हुए ऊर्जा की अपूरणीय मांग को पूरा करना, जो कि मानव जाति के विकास के लिए महत्वपूर्ण है। वैश्विक अर्थव्यवस्था पेट्रोलियम, कोयला, गैस आदि जैसे जीवाश्म ईंधनों पर बहुत अधिक निर्भर है, लेकिन ये तेज़ी से चुक रहे हैं। स्पष्ट है कि ये संसाधन हमेशा उपलब्ध नहीं रहने वाले, और ये हमारे ग्रह को गंभीर नुकसान पहुंचा रहे हैं। इससे सभी देशों में एक गंभीर बहस छिड़ गई है कि पर्यावरण दिन-ब-दिन बदहाल हो रहा है और पृथ्वी धीरे-धीरे भावी पीढ़ी के लिए अनुपयुक्त होती जा रही है। अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ाने के लिए हमें ऊर्जा संकट से उबरना होगा, और इसके लिए नए एवं बेहतर ऊर्जा स्रोतों की खोज करना अत्यंत आवश्यक है। हाल के दिनों में, शोधकर्ताओं का ध्यान ऊर्जा के एक स्वच्छ और टिकाऊ नवीकरणीय स्रोत विकसित करने पर केंद्रित हुआ है। इस सम्बंध में, हाइड्रोजन एक संभावित उम्मीदवार की तरह उभरी है जो स्वच्छ और नवीकरणीय ऊर्जा प्रदान करके बढ़ती जलवायु चुनौतियों का समाधान करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। देखें तो यह विचार क्रिन्यावित करने में बहुत सरल और आसान-सा लगता है। लेकिन, एक सुस्थापित जीवाश्म ईंधन आधारित वैश्विक अर्थव्यवस्था से हाइड्रोजन आधारित अर्थव्यवस्था में तबदीली इतना सीधा-सहज मामला नहीं है। इसके लिए समग्र रूप से वैज्ञानिकों, उद्योगपतियों और समाज के बीच सहज और निर्बाध सहयोग की दरकार है। साथ ही ऐसी कई चुनौतियां हैं, जिनसे हाइड्रोजन का व्यावसायीकरण करने से पहले निपटना होगा। इसलिए, यह समझना ज़रूरी है कि यह नई ‘रामबाण दवा’ किस तरह हमारी समस्याओं को हल करने का दावा करती है और आगे के मार्ग में किस तरह की चुनौतियां हैं। आगे बढ़ने से पहले, हाइड्रोजन के बारे में संक्षेप में जान लेते हैं।

हाइड्रोजन ब्रह्मांड में सबसे प्रचुर मात्रा में पाया जाने वाला तत्व है, जो द्रव्यमान के हिसाब से सभी सामान्य पदार्थों का 74 प्रतिशत है। तात्विक हाइड्रोजन गैसीय H2 के रूप में हो सकती है, और यह गैर-विषाक्त एवं निहायत हल्की होती है। ब्रह्मांड का सबसे प्रचुर तत्व होने के बावजूद मुक्त हाइड्रोजन गैस पृथ्वी के वायुमंडल में बहुत दुर्लभ है क्योंकि यह अत्यधिक क्रियाशील होती है और हल्की होने के कारण आसानी से पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण से निकल जाती है। इसलिए, हम वायुमंडल से सीधे हाइड्रोजन प्राप्त करने के बारे में नहीं सोच सकते। फिर, इसका सबसे आम स्रोत पानी है जो सभी जीवित प्राणियों में भी मौजूद है। दूसरे शब्दों में कहें तो, हाइड्रोजन हम सभी में मौजूद है!

कई वैज्ञानिकों एवं समृद्धजनों ने हाइड्रोजन को कार्बन आधारित ईंधन के आकर्षक और आशाजनक विकल्प के रूप में सुझाया है। यह सुझाव निम्नलिखित तथ्यों से उपजा है:

  1. हाइड्रोजन ब्रह्मांड में सबसे प्रचुर मात्रा में पाया जाने वाला तत्व है।
  2. हाइड्रोजन से चलने वाले ईंधन सेल बिजली, ऊष्मा और पानी का उत्पादन करते हैं एवं बहुत ही कम कार्बन फुटप्रिंट छोड़ते हैं।
  3. आणविक हाइड्रोजन के ऑक्सीजन के साथ दहन से ऊष्मा उत्पन्न होती है और इसका एकमात्र उपोत्पाद पानी होता है। दूसरी ओर, जीवाश्म ईंधन का दहन कई हानिकारक प्रदूषक और भारी मात्रा में कार्बन डाईऑक्साइड पैदा करता है।
  4. उल्लेखनीय है कि कई वाहन निर्माता कंपनियों ने यह दर्शाया है कि हाइड्रोजन का उपयोग सीधे अंत:दहन इंजन में किया जा सकता है। इसलिए, परिवहन उद्योग अब वाहनों के लिए हाइड्रोजन आधारित ईंधन में भारी निवेश कर रहे हैं।

अलबत्ता, इस बात पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि ऐसा पहली बार नहीं है जब हाइड्रोजन को ऊर्जा के स्रोत के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। किसी ज़माने में, ‘टाउन गैस’ नामक मिश्रण का महत्वपूर्ण घटक हाइड्रोजन थी, इसका उपयोग खाना पकाने और घरों एवं सड़कों को रोशन करने के ईंधन के रूप में व्यापक तौर पर किया जाता था। बाद में, टाउन गैस की जगह तेज़ी से प्राकृतिक गैस और तेल जैसे जीवाश्म ईंधनों ने ले ली। विद्युत के आने से टाउन गैस का महत्व और भी कम हो गया। कहा गया कि बिजली स्वच्छ ऊर्जा है।

समस्याएं

क्रांतिकारी ईंधन के रूप में हाइड्रोजन का महत्व काफी बढ़ा दिया गया है, और यह माना जा रहा है कि यह जल्द ही पेट्रोलियम जैसे पारंपरिक ईंधन की जगह ले लेगी और दुनिया की ऊर्जा एवं पर्यावरण सम्बंधी समस्याओं का समाधान करेगी। दुर्भाग्य से, हमें यह मानना होगा कि इसे साकार करना इतना आसान नहीं है। हाइड्रोजन अर्थव्यवस्था स्थापित करने की तीन मुख्य चुनौतियां हैं: हाइड्रोजन का स्वच्छ उत्पादन, कुशल और रिसाव रोधी भंडारण और सुरक्षित परिवहन।

स्वच्छ उत्पादन

जैसा कि पहले बताया गया है, पृथ्वी पर तात्विक हाइड्रोजन बहुत अधिक मात्रा में मौजूद नहीं है। इसे पानी से प्राप्त करना आसान नहीं है, और महंगा भी है। बेशक ऐसा लगता है हाइड्रोजन जीवाश्म ईंधन की भूमिका निभा सकता है, लेकिन वास्तव में यह ऊर्जा का प्राथमिक स्रोत नहीं बल्कि ऊर्जा का वाहक है। इसका उत्पादन कुछ अन्य स्रोतों से करना होगा और उसके बाद ही इसकी रासायनिक ऊर्जा का उपयोग विभिन्न कार्यों के लिए किया जा सकेगा। वर्तमान में, अधिकांश हाइड्रोजन का उत्पादन जीवाश्म ईंधनों से ही होता है, जो परोक्ष रूप से कार्बन फुटप्रिंट बढ़ाता है। अगर हम मौजूदा मांग को देखें, मसलन सिर्फ परिवहन के लिए ही देखें, तो इसकी आपूर्ति के लिए बहुत अधिक मात्रा में हाइड्रोजन की आवश्यकता होगी। और हाइड्रोजन उत्पादन के मौजूदा संसाधनों से इस मांग की आपूर्ति करना बेहद मुश्किल है। इसलिए, यदि हम हाइड्रोजन अर्थव्यवस्था पर आना चाहते हैं तो हमें हाइड्रोजन उत्पादन के लिए अधिक टिकाऊ, गैर-प्रदूषणकारी और कम लागत वाली विधियों की दरकार है। इस संदर्भ में स्वच्छ ऊर्जा के इस स्रोत के उत्पादन के लिए कार्यक्षम सामग्री व विधियां विकसित करने के कई प्रयास किए जा रहे हैं।

सुरक्षित भंडारण

दूसरी महत्वपूर्ण चुनौती है हाइड्रोजन के लिए सुरक्षित भंडारण व्यवस्था बनाना ताकि औद्योगिक, घरेलू और परिवहन के लिए पर्याप्त ईंधन उपलब्ध हो सके। गौरतलब है कि समान मात्रा में ऊर्जा उत्पन्न करने के लिए आयतन के हिसाब से गैसोलीन की तुलना में हाइड्रोजन 3000 गुना अधिक लगती है, यानी आयतन के हिसाब से इसका ऊर्जा घनत्व कमतर है। इसका मतलब है कि इसका उपयोग करने के लिए इसके भंडारण हेतु विशाल टैंकों की आवश्यकता होगी। इस बात को ध्यान में रखते हुए हम समझ सकते हैं कि हाइड्रोजन टैंक कारों जैसे छोटे वाहनों के लिए मुनासिब नहीं हो सकते हैं, और इन छोटे वाहनों की कॉम्पैक्ट डिज़ाइन में टैंकों को फिट करना बहुत मुश्किल है। इसके अलावा, हाइड्रोजन की एक खासियत यह है कि वह कई धातुओं में से रिस जाती है। इसलिए धातु-आधारित मौजूदा ईंधन तंत्रों (टैंक, पाइप, चैम्बर वगैरह) को ठीक से इन्सुलेट करना होगा। उचित प्रौद्योगिकी के बिना हाइड्रोजन का भंडारण हाइड्रोजन रिसाव का कारण बन सकता है, जिससे न केवल ईंधन ज़ाया होगा बल्कि सुरक्षा सम्बंधी गंभीर खतरे भी पैदा हो सकते हैं क्योंकि हाइड्रोजन अत्यधिक ज्वलनशील और विस्फोटक गैस है। कुल मिलाकर, वाहनों के लिए हाइड्रोजन का भंडारण एक चुनौतीपूर्ण कार्य है जिसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता। वैसे, भंडारण को लेकर कई प्रस्ताव हैं ताकि उसका ऊर्जा घनत्व बढ़ाया जा सके – चाहे गैस के रूप में या अन्य तत्वों के साथ जोड़कर।

सुरक्षित परिवहन

भंडारण की तरह ही हाइड्रोजन का परिवहन भी तकनीकी रूप से पेचीदा है, और इसके भंडारण के विभिन्न चरणों में हाइड्रोजन के प्रबंधन की अपनी अलग-अलग सुरक्षा चुनौतियां हैं। वर्तमान में, हाइड्रोजन की आपूर्ति मुख्यत: स्टील सिलेंडर में संपीड़ित गैस, या टैंक में तरल हाइड्रोजन के रूप में की जाती है। इस तरह से आपूर्ति करना किफायती नहीं है, और यह अंतिम उपयोगकर्ताओं की जेब पर भारी पड़ता है। दूसरे शब्दों में कहें तो, वह दिन अभी दूर है जब हम अपनी कारों में पेट्रोल-डीज़ल की तरह हाइड्रोजन भरवा सकेंगे। जब तक हाइड्रोजन के सुरक्षित और निरंतर परिवहन के लिए उचित बुनियादी ढांचा नहीं बनेगा, तब तक हाइड्रोजन से चलने वाले वाहन आम आदमी को लुभा नहीं पाएंगे। अलबत्ता, यदि भंडारण का मुद्दा सुलझ गया, तो परिवहन सम्बंधी समस्याएं भी धीरे-धीरे कम हो सकेंगी।

स्वच्छ भविष्य का वरदान यानी हाइड्रोजन को ईंधन के रूप में उपयोग करने के फायदे और चुनौतियां हमने इस लेख में देखीं। लेकिन, आदर्श बदलाव लाने के लिए विभिन्न हितधारकों का समन्वित प्रयास आवश्यक है। लोगों के बीच हाइड्रोजन के फायदों को प्रचारित कर इसे लोकप्रिय बनाया जा सकता है, और एक व्यापक वर्ग से भागीदारी का आग्रह किया जा सकता है।

कई देशों ने वास्तव में इन समस्याओं पर काम करना शुरू कर दिया है। सरकारों, उद्योग व शिक्षा जगत को एकजुट होकर काम करना होगा ताकि इस कठिन परिस्थिति का उपयोग स्वच्छ एवं हरित हाइड्रोजन आधारित अर्थव्यवस्था पर स्थानांतरित होने के अवसर के रूप में हो सके। हाइड्रोजन में पूरे ऊर्जा क्षेत्र में क्रांति लाने की ताकत है, लेकिन इसकी कई वैज्ञानिक और तकनीकी बाधाओं को दूर करना होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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शार्क व अन्य समुद्री जीवों पर संकट – सुदर्शन सोलंकी

मानवीय गतिविधियां समस्त जीव-जंतुओं के लिए संकट उत्पन्न कर रही हैं। समुद्री जीवों के शिकार व इंसानों द्वारा फैलाए गए प्रदूषण के कारण समुद्र के तापमानन में भी वृद्धि हुई है। नतीजतन समुद्री जीवों की कई प्रजातियां समाप्ति की ओर बढ़ रही हैं।

वर्ष 2019 में नेचर पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार वैज्ञानिकों ने दो अलग-अलग वातावरण में शार्क की एक प्रजाति की वृद्धि और उनकी शारीरिक स्थिति की तुलना करके पाया था कि बड़े आकार की रीफ शार्क के शिशुओं का विकास कम हो रहा है। शार्क अपने वातावरण में हो रहे परिवर्तनों के साथ तालमेल नहीं बिठा पा रही हैं।

नेचर साइंटिफिक रिपोर्ट में छपे एक शोध से पता चला है कि समुद्री तापमान में होने वाले परिवर्तन के कारण शार्क के बच्चे समय से पहले ही जन्म ले रहे हैं, साथ ही उनमें पोषण की कमी भी देखी गई है। इस कारण से उनका ज़िंदा रहना चुनौतीपूर्ण होता जा रहा है एवं वे दुबले-पतले/बौने रह जाते हैं।

वर्ष 2013 में डलहौज़ी युनिवर्सिटी द्वारा किए एक शोध के अनुसार हर साल करीब 10 करोड़ शार्क को मार दिया जाता है। अनुमान है कि यह दुनिया भर में शार्क का करीब 7.9 फीसदी है। वर्ष 2016 में भारत को सबसे अधिक शार्क का शिकार करने वाला देश घोषित किया गया था।

शार्क और रे की 24 से 31 प्रजातियों पर विलुप्ति का संकट मंडरा रहा है जबकि शार्क की तीन प्रजातियां संकटग्रस्त श्रेणी में आ गई है। शोधकर्ताओं ने चिंता जताई है कि हिंद महासागर में वर्ष 1970 के बाद शॉर्क और रे की संख्या लगातार कम हो रही है। यहां तक कि अब तक इनकी आबादी में कुल 84.7 फीसदी तक की कमी आ चुकी है।

सिमोन फ्रेज़र युनिवर्सिटी और युनिवर्सिटी ऑफ एक्सेटर के वैज्ञानिकों ने अपने अध्ययन से पता लगाया कि हिंद महासागर में वर्ष 1970 से अब तक मत्स्याखेट का दबाव 18 गुना बढ़ गया है जिसके कारण निश्चित ही समुद्र के पारिस्थितिकी तंत्र पर प्रभाव पड़ा है और कई जीव विलुप्त हो रहे हैं। अधिक मात्रा में मछली पकड़े जाने से न केवल शार्क बल्कि रे मछलियों पर भी विलुप्ति का खतरा बढ़ गया है।

दरअसल शार्क शिशुओं को प्रजनन करने लायक होने में सालों लग जाते हैं। अपने जीवन काल में ये कुछ ही बच्चों को जन्म दे पाते हैं। ऐसे में अत्यधिक मात्रा में इन्हें पकड़े जाने से स्वाभाविक रूप से इनकी आबादी में गिरावट आ रही है।

शार्क की विशेष पहचान उसके हमलवार स्वभाव के कारण है, जो समुद्र के पारिस्थितिकी तंत्र के लिए अत्यधिक महत्वपूर्ण है। यदि ये शिकारी न हों तो इनके बिना पूरा पारिस्थितिकी तंत्र ही ध्वस्त हो सकता है। बावजूद इसके हमारा ध्यान इनकी सुरक्षा और संरक्षण पर नहीं है।

इनके संरक्षण के लिए वैश्विक स्तर पर कदम उठाने की ज़रूरत है। इनके प्रबंधन के लिए आम लोगों को सहयोग करना होगा ताकि समुद्री प्रजातियों और उनके आवासों को लंबे समय तक संरक्षित किया जा सके। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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हर वर्ष नया फोन पर्यावरण के अनुकूल नहीं है – सोमेश केलकर

क बार फिर ऐप्पल कंपनी के सीईओ टिम कुक ने हरे-भरे ऐप्पल पार्क में कंपनी के नवीनतम, सबसे तेज़ और सबसे सक्षम आईफोन (इस वर्ष आईफोन 15 और आईफोन 15-प्रो) को गर्व से प्रस्तुत किया। पिछले वर्ष सितंबर के इस ऐप्पल इवेंट के बाद दुनियाभर में हलचल मच गई थी और पिछले वर्ष की तुलना में इस वर्ष प्री-ऑर्डर में 12% की वृद्धि देखी गई; अधिकांश प्री-ऑर्डर अमेरिका और भारत से रहे।

वास्तव में ऐप्पल कई उदाहरणों में से एक है कि कैसे आम लोग नासमझ उपभोक्तावाद के झांसे में आ जाते हैं और तकनीकी कंपनियां नए-नए आकर्षक उत्पादों के प्रति हमारी अतार्किक लालसा का फायदा उठाती हैं। निर्माता हर वर्ष स्मार्टफोन, लैपटॉप, कैमरे, इलेक्ट्रिक वाहन, टैबलेट जैसे अपने उत्पादों को रिफ्रेश करते हैं। अलबत्ता सच तो यह है कि किसी को भी हर साल एक नए स्मार्टफोन की ज़रूरत नहीं होती, नई इलेक्ट्रिक कार की तो बात ही छोड़िए।

एक दिलचस्प बात तो यह है कि ये इलेक्ट्रॉनिक गैजेट, कार्बन तटस्थ और पर्यावरण-अनुकूल के बड़े-बड़े दावों के बावजूद, केवल सतही तौर पर ही इस दिशा में काम करते हैं। कुल मिलाकर, सच्चाई उतनी हरी-भरी नहीं है जितनी ऐप्पल पार्क के बगीचों में नज़र आती है जिस पर टिम कुक चहलकदमी करते हैं।

पर्यावरण अनुकूलता का सच

आज हमारे अधिकांश उपकरण जैसे स्मार्टफोन, टैबलेट, लैपटॉप, कैमरा, हेडफोन, स्मार्टवॉच या फिर इलेक्ट्रिक वाहन, सभी में धातुओं, मुख्य रूप से तांबा, कोबाल्ट, कैडमियम, पारा, सीसा इत्यादि का उपयोग होता है। ये अत्यंत विषैले पदार्थ हैं जो खनन करने वालों के साथ-साथ पर्यावरण के लिए भी हानिकारक हैं। इसका एक प्रमुख उदाहरण कांगो लोकतांत्रिक गणराज्य (डीआरसी) में देखा जा सकता है। हाल ही में डीआरसी में मानव तस्करी का मुद्दा चर्चा में रहा है जहां बच्चों से कोबाल्ट खदानों में जबरन काम करवाया जा रहा है। कोबाल्ट एक अत्यधिक ज़हरीला पदार्थ है जो बच्चों में कार्डियोमायोपैथी (इसमें हृदय का आकार बड़ा और लुंज-पुंज हो जाता है और अपनी संरचना को बनाए रखने और रक्त पंप करने में असमर्थ हो जाता है) के अलावा खून गाढ़ा करता है तथा बहरापन और अंधेपन जैसी अन्य समस्याएं पैदा करता है। कई बार मौत भी हो सकती है। कमज़ोर सुरक्षा नियमों के कारण ये बच्चे सुरंगों में खनन करते हुए कोबाल्ट विषाक्तता का शिकार हो जाते हैं। गैस मास्क या दस्ताने जैसे सुरक्षा उपकरणों के अभाव में कोबाल्ट त्वचा या श्वसन तंत्र के माध्यम से रक्तप्रवाह में आसानी से प्रवेश कर जाता है। इन सुरंगों के धंसने का खतरा भी होता है।

कोबाल्ट और कॉपर का उपयोग इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के साथ-साथ अर्धचालकों के सर्किट निर्माण में किया जाता है, जिन्हें मोबाइल फोन और टैबलेट में सिस्टम ऑन-ए-चिप (एसओसी) और कंप्यूटर में प्रोसेसर कहा जाता है। सीसा, पारा और कैडमियम बैटरी में उपयोग की जाने वाली धातुएं हैं। कैडमियम का उपयोग विशेष रूप से रोज़मर्रा के इलेक्ट्रॉनिक्स में लगने वाली लीथियम-आयन बैटरियों को स्थिरता प्रदान करने के लिए किया जाता है।

एमनेस्टी इंटरनेशनल की एक रिपोर्ट के अनुसार, खनन उद्योग ने डीआरसी की सेना के साथ मिलकर संसाधन-समृद्ध भूमि का उपयोग करने के उद्देश्य से पूरे के पूरे गांवों को ज़मींदोज़ करके हज़ारों नागरिकों को विस्थापित कर दिया है।

एक अन्य रिपोर्ट में फ्रांस की दो सरकारी एजेंसियों ने यह गणना की है कि एक फोन के निर्माण के लिए कितने कच्चे माल की आवश्यकता होती है। इस रिपोर्ट के अनुसार सेकंड हैंड फोन खरीदने या नया फोन खरीदने को टालकर हम कोबाल्ट और तांबे के खनन की आवश्यकता को 81.64 किलोग्राम तक कम कर सकते हैं। रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि अगर अमेरिका के सभी लोग एक और साल के लिए अपने पुराने स्मार्टफोन का उपयोग करते रहें, तो हम लगभग 18.14 लाख किलोग्राम कच्चे माल के खनन की आवश्यकता से बच जाएंगे। इसे भारतीय संदर्भ में देखा जाए, जिसकी जनसंख्या अमेरिका की तुलना में 4.2 गुना है, तो हम 76.2 लाख किलोग्राम कच्चे माल के खनन की आवश्यकता से बच सकते हैं।

संख्याएं चौंका देने वाली लगती हैं लेकिन दुर्भाग्य से यही सच है। और तो और, ये संख्याएं बढ़ती रहेंगी क्योंकि दुनियाभर की सरकारें इलेक्ट्रॉनिक वाहनों और अन्य तथाकथित ‘पर्यावरण-अनुकूल’ जीवन समाधानों को प्रोत्साहित कर रही हैं। ये उद्योग विषाक्त पदार्थों का खनन करने वाले बच्चों के कंधों पर खड़े हैं, उनकी क्षमताओं का शोषण कर रहे हैं और उन्हें उनकी इच्छा के विरुद्ध कार्य करने के लिए मजबूर कर रहे हैं। हाल के वर्षों में तांबे के खनन में 43% और कोबाल्ट के खनन में 30% की वृद्धि हुई है।

यह सच है कि इलेक्ट्रिक वाहन के उपयोग से प्रत्यक्ष उत्सर्जन कम होता है, लेकिन इससे यह सवाल भी उठता है कि पर्यावरण की रक्षा करने की ज़िम्मेदारी क्या सिर्फ आम जनता पर है। व्यक्तिगत रूप से देखा जाए तो एक व्यक्ति इतना कम उत्सर्जन करता है कि भारी उद्योग में किसी एक कंपनी के वार्षिक उत्सर्जन की बराबरी करने के लिए उसे कई जीवन लगेंगे। आइए अब हमारी पसंदीदा टेक कंपनियों की कुछ गुप्त रणनीतियों पर एक नज़र डालते हैं जो हमें उन नई और चमचमाती चीज़ों की ओर आकर्षित करती हैं जिनकी वास्तव में हमें आवश्यकता ही नहीं है।

टेक कंपनियों की तिकड़में

आम तौर पर टेक कंपनियां ऐसे उपकरण बनाती हैं जो बहुत लम्बे समय तक कार्य कर सकते हैं। स्मार्टफोन, टैबलेट या कंप्यूटर के डिस्प्ले तथा एंटीना और अन्य सर्किटरी दशकों तक काफी अच्छा प्रदर्शन करने में सक्षम होते हैं। हर हार्डवेयर सॉफ्टवेयर पर चलता है जो अंततः उपयोगकर्ता के अनुभव को निर्धारित करता है। इसका मतलब यह है कि सॉफ्टवेयर को ऑनलाइन अपडेट करके उपयोगकर्ता द्वारा संचालन के तरीके को बदला जा सकता है। हम यह भी जानते हैं कि टेक कंपनियों का मुख्य उद्देश्य लंबे समय तक चलने वाले उपकरण बनाना नहीं है, बल्कि उपकरण बेचना है और यदि उपभोक्ता नए-नए फोन न खरीदें तो कारोबर में पैसों का प्रवाह नहीं हो सकता है। इसका मतलब है कि फोन बेचते रहना उनकी ज़रूरत है और टिकाऊ उपकरण बनाना टेक कंपनियों के इस प्राथमिक उद्देश्य के विरुद्ध है।

नियोजित रूप से चीज़ों को अनुपयोगी बना देना भी टेक जगत की एक प्रसिद्ध तिकड़म है। हर साल सैमसंग, श्याओमी और ऐप्पल जैसे प्रमुख टेक निर्माता ग्राहकों को अपने उत्पादों के प्रति लुभाने के लिए नए-नए लैपटॉप, स्मार्टफोन और घड़ियां जारी करते हैं, ताकि ग्राहक जीवन भर ऐसे नए-नए उपकरण खरीदते रहें जिनकी उनको आवश्यकता ही नहीं है। अभी हाल तक प्रमुख एंड्रॉइड फोन और टैबलेट निर्माता अपने उपकरणों के सॉफ्टवेयर और सुरक्षा संस्करणों को 2 साल के लिए अपडेट करते थे। यह एक ऐसा वादा था जो शायद ही पूरा होगा। ऐप्पल कंपनी 5-6 साल के वादे के साथ अपडेट के मामले में सबसे आगे थी, जो उन लोगों के लिए अच्छी खबर थी जो अपने फोन को लंबे समय तक अपने पास रखना चाहते थे। लेकिन सच तो यह है कि प्रत्येक अपडेट में पिछले की तुलना में अधिक कम्प्यूटेशनल संसाधनों की आवश्यकता होती है। जिसके परिणामस्वरूप फोन धीमा हो जाता है और उपभोक्ताओं को 6 साल तक अपडेट चक्र से पहले ही नया फोन खरीदने के लिए मजबूर होना पड़ता है।

ऐप्पल जैसी कंपनियां फोन के विभिन्न पार्ट्स को क्रम संख्या देने और उन्हें लॉजिक बोर्ड में जोड़ने के लिए भी बदनाम हैं ताकि दूसरी कंपनी के सस्ते पार्ट्स उनके हार्डवेयर के साथ काम न करें। यह बैटरी या फिंगरप्रिंट या भुगतान के दौरान चेहरे की पहचान करने वाले सेंसर जैसे पार्ट्स के लिए तो समझ में आता है जो हिफाज़त या सुरक्षा की दृष्टि से आवश्यक हैं। लेकिन एक चुंबक को क्रम संख्या देना एक मरम्मत-विरोधी रणनीति है। यह लैपटॉप को बस इतना बताता है कि उसका ढक्कन कब नीचे है और उसकी स्क्रीन बंद होनी चाहिए। वैसे कैमरा, लैपटॉप और स्मार्टफोन बनाने वाली प्रमुख कंपनियां कार्बन-तटस्थ होने का दावा तो करती हैं लेकिन इन कपटी रणनीतियों से ई-कचरे में वृद्धि होती है।

यह मामला टेस्ला जैसे विद्युत वाहन निर्माताओं और जॉन डीरे जैसे इलेक्ट्रिक कृषि उपकरण निर्माताओं के साथ भी है। फरवरी 2023 में, अमेरिकी न्याय विभाग ने इलिनॉय संघीय न्यायालय से अपने उत्पादों की मरम्मत पर एकाधिकार स्थापित करने की कोशिश के लिए जॉन डीरे के खिलाफ प्रतिस्पर्धा-विरोधी (एंटी-ट्रस्ट) मुकदमे को खारिज न करने का निर्देश दिया था। 2020 में जॉन डीरे पर पहली बार अपने ट्रैक्टरों की मरम्मत के लिए बाज़ार पर एकाधिकार स्थापित करने और उसे नियंत्रित करने की कोशिश करने का आरोप लगाया गया था। कंपनी ने उत्पादों को इस प्रकार बनाया था कि उनकी मरम्मत के लिए एक सॉफ्टवेयर की आवश्यकता अनिवार्य रहे जो केवल कंपनी के पास था। टेस्ला ने कारों में भी इन-बिल्ट सॉफ्टवेयर का उपयोग किया था जिससे यह पता लग जाता है कि थर्ड पार्टी या आफ्टरमार्केट रिप्लेसमेंट पार्ट्स का इस्तेमाल किया गया है। ऐसा करने वाले ग्राहकों को अमेरिका भर में फैले टेस्ला के फास्ट चार्जिंग इंफ्रास्ट्रक्चर से ब्लैकलिस्ट करके दंडित किया जाता है जिसकी काफी आलोचना भी हुई है।

इस मामले में यह समझना आवश्यक है कि निर्माता कार्बन-तटस्थ और पर्यावरण-अनुकूल होने के बारे में बड़े-बड़े दावे तो करते हैं लेकिन सच्चाई कहीं अधिक कपटपूर्ण और भयावह है। टेक कंपनियों की रुचि मुनाफा कमाने और अपने निवेशकों को खुश रखने के लिए हर साल नए उत्पाद लॉन्च करके निरंतर पैसा कमाने की है। उन्हें पर्यावरण-अनुकूल होने की चिंता नहीं है, बल्कि उनके लिए यह सरकार को खुश रखने का एक दिखावा मात्र है जबकि इन उपकरणों के लिए आवश्यक कच्चे माल से समृद्ध देशों में बच्चों का सुनियोजित शोषण एक अलग कहानी बताते हैं। इन सामग्रियों की विषाक्त प्रकृति के कारण बच्चों का जीवन छोटा हो जाता है। कंपनियां अपना खरबों डॉलर का साम्राज्य बाल मज़दूरों की कब्रों पर बना रही हैं।

निष्कर्ष

तो इन कंपनियों के साथ संवाद करते समय उपभोक्ता के रूप में हम किन बातों का ध्यान रखें? हमें यह ध्यान रखना ज़रूरी है कि विज्ञापन का हमारे अवचेतन पर व्यापक प्रभाव पड़ता है और ये हमें ऐसी चीज़ें खरीदने के लिए मजबूर करते हैं जिनकी हमें ज़रूरत नहीं है। ऐसा विभिन्न कारणों से हो सकता है – कभी-कभी हम इन वस्तुओं को अपनी प्रतिष्ठा से जोड़ते हैं, हो सकता है कोई व्यक्ति नए आईफोन को अपने दोस्तों के बीच प्रतिष्ठा में वृद्धि के रूप में देखता हो। कोई हर साल नया उत्पाद इसलिए भी खरीद सकता है क्योंकि मार्केटिंग हमें यह विश्वास दिलाता है कि हमें हर साल नए उत्पादों में होने वाले मामूली सुधारों की आवश्यकता है। यह सच्चाई से कोसों दूर है। अगर हम केवल कॉल करते हैं, सोशल मीडिया ब्राउज़ करते हैं और ईमेल और टेक्स्ट भेजते और प्राप्त करते हैं तो हमें 12% अधिक फुर्तीले फोन की आवश्यकता कदापि नहीं है। यदि सड़कों पर 100 किमी प्रति घंटे की रफ्तार से गाड़ी चला ही नहीं सकते, तो ऐसी कार की क्या ज़रूरत है जो पिछले साल के मॉडल के 4 सेकंड की तुलना में 3.5 सेकंड में 0-100 की रफ्तार तक पहुंच जाए। यहां मुद्दा यह है कि हम अक्सर, अतार्किक कारणों से ऐसी चीज़ें खरीदते हैं जिनकी हमें आवश्यकता नहीं होती और ऐसा करते हुए इन उत्पादों की मांग पैदा करके पर्यावरण को नुकसान पहुंचाते हैं।

उत्पाद खरीदते समय हमें इस बात पर भी ध्यान देना चाहिए कि इन उत्पादों के पार्ट्स को बदलना या मरम्मत करना कितना कठिन या महंगा होने वाला है। मरम्मत करने में कठिन उत्पाद उपभोक्ता को एक नया उत्पाद खरीदने के लिए मजबूर करता है जिससे अर्थव्यवस्था में इन उत्पादों की मांग पैदा होती है। नतीजतन अंततः पर्यावरण को नुकसान पहुंचता है तथा मानव तस्करी और बाल मज़दूरी के रूप में मानवाधिकारों का उल्लंघन होता है।

ऐसे मामलों में जब भी बड़ी कंपनियों की प्रतिस्पर्धा-विरोधी (एंटी-ट्रस्ट) प्रथाओं की बात आती है तो जागरूकता की सख्त ज़रूरत होती है। मानव तस्करी और बाल श्रम जैसी संदिग्ध नैतिक प्रथाओं तथा प्रतिस्पर्धा-विरोधी नीतियों में लिप्त कंपनियों से उपभोक्ताओं को दूर रहना चाहिए और उनका बहिष्कार करना चाहिए। इन बहिष्कारों का कंपनियों पर गहरा प्रभाव पड़ता है क्योंकि मुनाफे के लिए वे अंतत: उपभोक्ताओं पर ही तो निर्भर हैं। दिक्कत यह है कि उपभोक्ता संगठित नहीं होते हैं। दरअसल बाज़ार उपभोक्ताओं को उनके पसंद की विलासिता प्रदान करता है, ऐसे में उपभोक्ता की यह ज़िम्मेदारी भी है कि वह बाज़ार को सतत और नैतिक विनिर्माण विधियों की ओर ले जाने के लिए अपनी मांग की शक्ति का उपयोग करे। अब देखने वाली बात यह है कि हम अपनी बेतुकी मांग से पर्यावरण व मानवाधिकारों को होने वाले नुकसान के प्रति जागरुक होते हैं या नहीं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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आर्कटिक में प्रदूषण से ध्रुवीय भालू पर संकट – सुदर्शन सोलंकी

ध्रुवीय भालू (उर्सूस मैरीटिमस) आर्कटिक महासागर व उसके आसपास के क्षेत्रों में पाया जाता है। यह दुनिया का सबसे बड़ा मांसभक्षी और सबसे बड़ा भालू भी है। 14 मई 2008 को, अमेरिकी गृह विभाग ने ध्रुवीय भालू को एक जोखिमग्रस्त प्रजाति के रूप में सूचीबद्ध किया था।

नेचर क्लाइमेट चेंज पत्रिका में प्रकाशित एक शोध के अनुसार जलवायु परिवर्तन ध्रुवीय भालुओं को भूखा मार रहा है, जिसके कारण इनकी संख्या विलुप्ति की कगार पर पहुंच गई है। ग्लोबल वार्मिंग के कारण ध्रुवीय क्षेत्रों में बर्फ तेज़ी से पिघल रही है। इस वजह से यहां के भालुओं के स्वभाव में परिवर्तन हो रहा है। एनवायरनमेंटल साइंस एंड टेक्नॉलॉजी पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन के अनुसार भालुओं ने रिंग्ड सीलों (पूसा हिस्पिडा) को खाना कम कर दिया है। दूसरी ओर, रिंग्ड सील के बच्चों को पैदा होने से लेकर बड़े होने तक बर्फ की आवश्यकता होती है, किंतु पिघलती बर्फ की वजह से नए बच्चों के जीवित रहने की दर भी कम हो गई है।

जलवायु परिवर्तन के कारण ध्रुवीय भालुओं के आवास नष्ट होने एवं उन्हें पर्याप्त भोजन न मिलने के कारण ज़िंदा रहने के लिए वे अपने ही शिशुओं को मारकर खाने को मजबूर होने लगे हैं। पोलर बेयर इंटरनेशनल के वैज्ञानिक स्टीवन एमस्ट्रुप के अनुसार वर्ष 2100 तक कनाडा के आर्कटिक द्वीपसमूह में क्वीन एलिज़ाबेथ द्वीप को छोड़कर, अन्य जगहों पर ध्रुवीय भालू का जन्म लेना असंभव-सा हो जाएगा।

एक नए अध्ययन से पता चला है कि हमारे द्वारा उपयोग किए जाने वाले रसायन आर्कटिक तक पहुंच रहे हैं जो इन दुर्लभ भालुओं का जीना दूभर कर सकते हैं।

लैंकेस्टर युनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं द्वारा की गई एक रिसर्च में पता चला है कि आर्कटिक के बर्फ में पॉली और परफ्लोरो अल्काइल यौगिक मिले हैं, जो पर्यावरण में विघटित नहीं होते और ऐसे ही बने रहते हैं जो इंसानों व जानवरों के लिए खतरनाक होते हैं। ये खतरनाक रसायन आर्कटिक के भालुओं के लिए भी काफी नुकसानदायक हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार इनमें सबसे ज़्यादा मात्रा सौंदर्य प्रसाधनों में उपयोग किए जाने वाले रसायनों की है। रिसर्च में पता चला है कि खतरनाक सिंथेटिक पदार्थों को ऐसे ही फेंक दिया जाता है जो युनाइटेड किंगडम और आसपास के देशों के द्वारा आर्कटिक तक पहुंच जाते हैं। कुछ रसायन हवा के माध्यम से आर्कटिक तक पहुंच रहे हैं और यहां बर्फ से चिपक कर आर्कटिक को ज़हरीला बना रहे हैं।

ओशियनवाइज़ संरक्षण समूह और कनाडा के मत्स्य और महासागर विभाग द्वारा किए गए नए अध्ययन में, शोधकर्ताओं ने आर्कटिक से समुद्री जल का नमूना लिया जिसमें 92 प्रतिशत माइक्रोप्लास्टिक पाया गया। ओशियनवाइज़ और ब्रिटिश कोलंबिया विश्वविद्यालय के प्रमुख शोधकर्ता पीटर रॉस के अनुसार इसमें लगभग 73 प्रतिशत पॉलिएस्टर था, जो सिंथेटिक वस्त्रों से निकलता है। इससे स्पष्ट है कि यह यूरोप और उत्तरी अमेरिका के घरों के कपड़ों की धोवन के माध्यम से आर्कटिक तक पहुंच रहा है।

जब बर्फ पिघलता है तो उसमें चिपके ज़हरीले रसायन और माइक्रोप्लास्टिक पानी में चले जाते हैं, जिसे भालू पी लेते हैं। शरीर में पहुंचकर ये रसायन ध्रुवीय भालुओं के हार्मोन तंत्र को खराब कर उनकी मौत का कारण बन रहे हैं।

अर्थात हमारे द्वारा उपयोग किया जा रहा प्लास्टिक व अन्य रसायन जल में बहते हुए अथवा वायु के साथ आर्कटिक पहुंचकर ध्रुवीय भालुओं के स्वभाव एवं रहन-सहन को बुरी तरह से प्रभावित कर रहे हैं। इसलिए ज़रूरी है कि वैज्ञानिक आर्कटिक तक पहुंचने वाले रसायनों को वहां तक पहुंचने से रोकने के उपाय खोजें। साथ ही इनका उपयोग नियंत्रित तरीके से किया जाए ताकि ध्रुवीय भालू को विलुप्त होने से बचाया जा सके। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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चींटियों ने शेरों की नाक में किया दम

क्सर यह सुनने में आता है कि चींटी अगर हाथी की सूंड में घुस जाए तो वह हाथी को पस्त कर सकती है। यह बात तो ठीक है लेकिन हालिया अध्ययन में यह बात सामने आई है कि चींटियों ने परोक्ष रूप से शेरों की नाक में दम कर दिया है। साइंस पत्रिका में प्रकाशित अध्ययन में यह बात सामने आई है कि अफ्रीकी सवाना जंगलों में मनुष्यों द्वारा पहुंचाई गई बड़ी सिर वाली चींटियों ने वहां की स्थानीय चींटियों का सफाया कर दिया है; ये स्थानीय चींटियां वहां मौजूद बबूल के पेड़ों को हाथियों द्वारा भक्षण से बचाती थीं। इन रक्षक चींटियों के वहां से हटने से हाथियों को बबूल के पेड़ खाने को मिल गए। फिर पेड़ खत्म होने के कारण शेरों को घात लगाकर ज़ेब्रा का शिकार करने की ओट खत्म होती गई। नतीजतन शेरों के लिए ज़ेब्रा का शिकार करना मुश्किल हो गया, और उन्हें ज़ेब्रा की जगह भैंसों को अपना शिकार बनाना पड़ा।

पूर्वी अफ्रीका के हज़ारों वर्ग किलोमीटर में फैले जंगलों में मुख्यत: एक तरह के बबूल (Vachellia drepanolobium) के पेड़ उगते हैं। इस इलाके का अधिकतर जैव पदार्थ (70-99 प्रतिशत) यही पेड़ होता है। और इनकी शाखाओं पर नुकीले कांटे होते हैं। साथ ही साथ इनकी शाखाओं पर खोखली गोल संरचनाएं बनती हैं, जिनमें स्थानीय बबूल चींटियां (Crematogaster spp.) रहती हैं और बबूल का मकरंद पीती हैं। बदले में ये चींटियां शाकाहारी जानवरों, खासकर हाथियों, से पेड़ों को बचाती हैं – कंटीले पेड़ों को खाने आए अफ्रीकी जंगली हाथियों की सूंड में चीटियां घुस जाती हैं, जिसके चलते वे इन्हें खाने का इरादा छोड़ देते हैं।

लेकिन 2000 के दशक की शुरुआत में, हिंद महासागर के एक द्वीप की मूल निवासी बड़े सिर वाली चींटियां (Pheidole megacephala) केन्या में पहुंच गईं – संभवत: मनुष्यों ने ही उन्हें वहां पहुंचाया था। केन्या पहुंचकर इन चींटियों ने बबूल पर बसने वाली चीटिंयों पर हमला करना शुरू किया और उनके शिशुओं को खाने लगीं। जब पेड़ों के रक्षक ही सलामत नहीं बचे, तो फिर पेड़ कैसे सलामत बचते। नतीजतन हाथी अब मज़े से कंटीले पेड़ खाने लगे और सवाना जंगलों में इन पेड़ों की संख्या गिरने लगी।

पेड़ों के इस विनाश को देखते हुए व्योमिंग विश्वविद्यालय के वन्यजीव पारिस्थितिकीविज्ञानी जैकब गोहेन जानना चाहते थे कि इस विनाश ने अन्य प्राणियों को कैसे प्रभावित किया होगा, खासकर शेर को। क्योंकि शेर पेड़ों की ओट में घात लगाकर अपना शिकार बड़ी कुशलता से कर लेते हैं। तो क्या इस कमी ने शेरों के लिए ज़ेब्रा का शिकार करना मुश्किल बनाया होगा?

इसके लिए उन्होंने 360 वर्ग किलोमीटर से अधिक के क्षेत्र में फैले सवाना जंगलों में, ढाई-ढाई हज़ार वर्ग मीटर के एक दर्ज़न अध्ययन भूखंड चिन्हित किए। हर अध्ययन भूखंड पर शोधकर्ताओं की एक टीम ने वहां के परिदृश्य में दृश्यता, मैदानी ज़ेब्रा का आबादी घनत्व, बड़े सिर वाली चींटियों का आगमन और शेरों द्वारा ज़ेब्रा के शिकार पर नज़र रखी। साथ ही छह शेरनियों पर जीपीएस कॉलर भी लगाए ताकि यह देखा जा सके कि इन भूखंडों में उनकी हरकतें कैसी रहती हैं।

तीन साल की निगरानी के बाद शोधकर्ताओं ने पाया कि जिन पेड़ों से वहां की स्थानीय बबूल चींटियां नदारद थीं, हाथियों ने उन पेड़ों का सात गुना अधिक तेज़ी से विनाश किया बनिस्बत उन पेड़ों के जिनमें स्थानीय संरक्षक चींटियां मौजूद थीं। जहां पेड़ और झाड़ियों का घनापन नाटकीय रूप से छंट गया है, वहां शेरों के लिए ज़ेब्रा पर हमला करना मुश्किल हो गया है। इसके विपरीत, बड़े सिर वाली चींटियों से मुक्त क्षेत्रों में प्रचुर मात्रा में कंटीले पेड़ और उनकी झुरमुट थी, जहां शेर छिप सकते थे। नतीजतन इन जगहों पर शेर ज़ेब्रा के शिकार में तीन गुना अधिक सक्षम थे।

इन निष्कर्ष से यह बात और स्पष्ट होती है कि कोई भी पारिस्थितिकी तंत्र आपस में कितना गुत्थम-गुत्था और जटिल होता है – यदि आप इसकी एक चीज़ को भी थोड़ा यहां-वहां करते हैं तो पूरा तंत्र डगमगा जाता है।

लेकिन इन नतीजों से यह सवाल उभरा कि जब कम घने क्षेत्र में शेर अपने शिकार (ज़ेब्रा) से चूक रहे हैं तब भी उनकी आबादी स्थिर कैसे है? इसी बात को खंगालने वाले अन्य अध्ययनों ने पाया है कि 2003 में 67 प्रतिशत ज़ेब्रा शेरों के शिकार के कारण मरे थे, जबकि 2020 में केवल 42 प्रतिशत ज़ेब्रा शिकार के कारण मरे। इसी दौरान, शेरों द्वारा अफ्रीकी भैंसे का शिकार शून्य प्रतिशत से बढ़कर 42 प्रतिशत हो गया। यानी शेरों ने अपना शिकार बदल लिया है।

फिलहाल यह स्पष्ट नहीं है कि यह परिवर्तन टिकाऊ है या नहीं। क्योंकि शेरों के लिए भैंसों को मारना बहुत मुश्किल है। ज़ेब्रा की तुलना में भैसों में बहुत अधिक ताकत होती है, और भिड़ंत में कभी-कभी भैंस शेरों को मार भी डालती है।

यह भी समझने वाली बात है कि यदि भैसों का शिकार जारी रहा तो क्या उनकी संख्या घटने लगेगी, और यदि हां तो तब शेरों का क्या होगा? और ज़ेब्रा की संख्या बढ़ने से जंगल की वनस्पति किस तरह प्रभावित होगी? साथ ही यह भी देखने की ज़रूरत है कि बड़े सिर वाली चींटियां कैसे फैलती हैं ताकि उनके प्रसार को रोकने के प्रयास किए जा सकें। (स्रोत फीचर्स)

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हमारे पास कितने पेड़ हैं? – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

पृथ्वी पर कितने पेड़ हैं, कुछ साल पहले इसका विस्तृत विश्लेषण किया गया था। वृक्षों की गणना के इस विश्व स्तरीय प्रयास में ज़मीनी वृक्षों की गणना प्रादर्श के आधार पर की गई थी, और उपग्रहों से प्राप्त तस्वीरों के साथ रखकर उन आंकड़ों को देखा गया था। और फिर एक परिष्कृत एल्गोरिदम की मदद से आंकड़ों का विश्लेषण करके वृक्षों की कुल संख्या का अनुमान लगाया गया था। अध्ययन का अनुमान था कि हमारी पृथ्वी पर करीब तीस खरब पेड़ हैं। यह संख्या चौंकाने वाली है, क्योंकि यह पूर्व में वैज्ञानिकों द्वारा लगाए गए सभी अनुमानों से बहुत ज़्यादा है। अध्ययन का निष्कर्ष था कि विश्व में प्रति व्यक्ति औसतन 400 से थोड़े अधिक पेड़ हैं। उपग्रह चित्रों से यह भी पता चला कि ये पेड़ पृथ्वी पर किस तरह वितरित हैं।

पृथ्वी पर मौजूद कुल पेड़ों का 15-20 प्रतिशत हिस्सा दक्षिण अमेरिकी वर्षा वनों में है। इसके बाद बारी आती है कनाडा और रूस में फैले बोरियल जंगलों या टैगा में शंकुधारी (कोनिफर) वनों की। शंकुधारी वृक्षों की इस प्रचुरता के परिणामस्वरूप, कनाडा का प्रत्येक बाशिंदा लगभग 9000 वृक्षों से ‘समृद्ध’ है।

इसके ठीक विपरीत, मध्य पूर्वी द्वीप राष्ट्र बाहरीन के 15 लाख वासियों को मात्र 3100 पेड़ों का सहारा है। यहां प्रति वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल में मात्र पांच पेड़ हैं।

अन्य ऑक्सीजन स्रोत

यह गौरतलब है कि पृथ्वी के विशाल क्षेत्र अपेक्षाकृत कम पेड़ों वाले घास के मैदान हैं। कुल मिलाकर, घास उतनी ही ऑक्सीजन बना सकती है जितना कि दुनिया भर के पेड़। फिर, हमारे पास समुद्री सायनोबैक्टीरिया और शैवाल हैं – इन सूक्ष्मजीवों के प्रकाश संश्लेषण से उतनी ही ऑक्सीजन बनती है जितनी कि सभी स्थलीय पेड़-पौधों से।

पेड़ ऑक्सीजन बनाने के अलावा वातावरण से कार्बन हटाने में अहम भूमिका निभाते हैं। लाखों साल पहले उगे पेड़ दलदल में डूबने और दबने के बाद धीरे-धीरे कोयले में बदल गए, और इस तरह उन्होंने कार्बन को बहुत लंबे समय तक वायुमंडल में जाने से थामे रखा। बेशक, आप बिजली पैदा करने के लिए थर्मल पावर प्लांट में कोयले को जला कर कार्बन को वायुमंडल में वापस जाने से रोकने की पेड़ों की सारी मेहनत पर फटाफट पानी फेर सकते हैं, साथ ही साथ कार्बन डाईऑक्साइड को वायुमंडल में छोड़कर ग्लोबल वार्मिंग बढ़ा सकते हैं।

भारत का वन आवरण

हमारे अपने देश के लिए अनुमान है कि भारत के प्रत्येक व्यक्ति पर लगभग 28 पेड़ हैं। उच्च जनसंख्या घनत्व और लंबे समय से हो रही वनों की कटाई के कारण यह संख्या इतनी ही रह गई है। बांग्लादेश, जिसका जनसंख्या घनत्व भारत से तीन गुना अधिक है, वहां प्रति नागरिक छह पेड़ हैं। नेपाल और श्रीलंका दोनों देशों में प्रति व्यक्ति सौ से थोड़े अधिक पेड़ हैं।

भारत की भौगोलिक विविधता के चलते प्राकृतिक वन क्षेत्र में बड़ा फर्क है। पश्चिमी घाट और पूर्वी घाट में, पूर्वोत्तर भारत में और अंडमान एवं निकोबार द्वीप समूह में नम उष्णकटिबंधीय वनों का घना आच्छादन, उच्च वर्षा और समृद्ध जैव विविधता देखी जाती है। अरुणाचल प्रदेश का अस्सी प्रतिशत भूक्षेत्र वनों से आच्छादित है; वहीं राजस्थान में यह वन आच्छादन 10 प्रतिशत से भी कम है।

भारत के एक-तिहाई हिस्से को वन आच्छादित बनाने की वन नीति के लक्ष्य को हासिल करने के लिए अभी काफी लंबा रास्ता तय करना बाकी है। पुनर्वनीकरण के प्रयास इस लक्ष्य को हासिल करने में योगदान देते हैं, लेकिन इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए अधिक महत्वपूर्ण है वनों की कटाई को रोकना। इस मामले में दक्षिणी राज्यों ने बेहतर प्रदर्शन किया है। भारत राज्य वन रिपोर्ट (ISFR) 2021 की रिपोर्ट के अनुसार वन आवरण में सबसे अच्छा सुधार करने वाले तीन राज्य हैं कर्नाटक, आंध्र प्रदेश और तमिलनाडु। (स्रोत फीचर्स)

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उम्मीद से भी अधिक गर्म रहा पिछला वर्ष

पिछले सभी रिकॉर्ड तोड़ते हुए वर्ष 2023 अब तक का सबसे गर्म साल रहा है। कॉपरनिकस जलवायु परिवर्तन सर्विस की हालिया रिपोर्ट में औसत सतही तापमान में लगभग 0.2 डिग्री सेल्सियस की अतिरिक्त वृद्धि दर्ज की गई है। 2023 का तापमान पूर्व-औद्योगिक स्तर से 1.48 डिग्री सेल्सियस अधिक रहा। यह झुलसा देने वाली गर्मी उस जलवायु से चिंताजनक प्रस्थान का संकेत देती है जिसमें हमारी सभ्यता विकसित हुई।

यह तो स्थापित है कि इस दीर्घकालिक वार्मिंग के प्रमुख दोषी जीवाश्म ईंधन हैं। लेकिन 2023 में हुई अतिरिक्त वृद्धि से वैज्ञानिक असमंजस में हैं। इस अतिरिक्त वृद्धि को मात्र जीवाश्म ईंधन दहन के आधार पर नहीं समझा जा सकता।

लगता है कि वैश्विक तापमान में वृद्धि का एक कारक दो जलवायु पैटर्न के बीच अंतर है। 2020 से 2022 तक ला-नीना जलवायु पैटर्न रहा। इसके तहत प्रशांत महासागर की गहराइयों का ठंडा पानी सतह पर आ जाता है और वातावरण को ठंडा रखता है। लेकिन 2023 में ला नीना समाप्त हो गया और उसके स्थान पर एक अन्य पैटर्न एल नीनो प्रभावी हो गया जिसने प्रशांत महासागर पर गर्म पानी की चादर फैला दी और वातावरण गर्म होने लगा। आम तौर पर एल नीनो अपनी शुरुआत के एक वर्ष बाद वैश्विक तापमान पर असर दिखाता है। लेकिन इस बार 2023 में एल नीनो शुरू हुआ और इसी वर्ष असर दिखाने लगा। और तो और, प्रभाव एल नीनो क्षेत्र से दूर तक हुआ है – उत्तरी अटलांटिक और प्रशांत महासागरों से ऊपर तक।

2022 में हुए हुंगा टोंगा-हुंगा हपाई ज्वालामुखी विस्फोट को तापमान में वृद्धि का प्रमुख ज़िम्मेदार माना जा रहा था। यह दक्षिणी प्रशांत क्षेत्र में स्थित है। यह माना गया था कि इस विस्फोट ने समताप मंडल में भारी मात्रा में जलवाष्प छोड़ी जिसकी वजह से वातावरण गर्म हुआ। लेकिन एक तथ्य यह भी है कि विस्फोट के साथ सल्फेट कण भी बिखरे होंगे और इन कणों ने प्रकाश को परावर्तित कर दिया होगा जिसके चलते वातावरण ठंडा हुआ होगा। गणनाओं के अनुसार इन सल्फेट कणों ने जलवाष्प द्वारा उत्पन्न वार्मिंग प्रभाव को काफी हद तक कम किया होगा। गणनाएं यह भी बताती हैं कि इन दो विपरीत घटनाओं के प्रभाव के चलते यह विस्फोट तापमान वृद्धि की दृष्टि से उदासीन ही रहा होगा।

2023 में अतिरिक्त तापमान वृद्धि की सर्वोत्तम व्याख्या शायद यह है कि वातावरण में प्रकाश अवरोधी प्रदूषण का स्तर कम हो गया है। इसका प्रमुख कारण स्वच्छ ऊर्जा स्रोतों का बढ़ता उपयोग है।

नासा के गोडार्ड स्पेस फ्लाइट सेंटर के वायुमंडलीय भौतिक विज्ञानी तियानले युआन के अनुसार प्रदूषण में कमी, विशेषत: जहाजों द्वारा उत्सर्जित सल्फर कणों में कमी, ने अनजाने में प्रकाश को वापिस अंतरिक्ष में परावर्तित करने वाले बादलों को कम किया है। उपग्रह अवलोकनों से पता चला है कि 2022 के बाद से इन बादलों में कमी आई है। सिर्फ इन बादलों का कम होना पिछले दशक में हुई तापमान वृद्धि का महत्वपूर्ण कारण हो सकता है।

प्रसिद्ध जलवायु वैज्ञानिक जेम्स हेन्सन द्वारा नवंबर 2023 में प्रकाशित शोधपत्र के अनुसार प्रदूषण में कमी से तापमान में 0.27 डिग्री सेल्सियस प्रति दशक की वृद्धि हुई है, जबकि 1970 और 2010 के बीच प्रति दशक वृद्धि 0.18 डिग्री सेल्सियस ही रही थी। यह वृद्धि अभी तक गहरे समुद्र के तापमान में नहीं देखी गई है। इसकी मदद से दीर्घकालिक रुझानों की अधिक सटीक जानकारी मिल सकती है।

बहरहाल, पिछले वर्ष की इन गुत्थियों ने भविष्य के अनुमानों पर अनिश्चितता पैदा की है। इसके साथ ही एल नीनो अस्थायी रूप से वैश्विक तापमान को पेरिस समझौते में निर्धारित 1.5 डिग्री सेल्सियस से आगे बढ़ा सकता है। लेकिन इस इन्तहाई गर्मी का उत्तरी महासागरों के तापमान में वृद्धि का रूप लेने में समय लगेगा और तभी पूरे विश्व के स्तर पर पेरिस सीमा का उल्लंघन होगा। फिर भी, दीर्घकालिक वार्मिंग पैटर्न की निरंतरता तब तक जारी रहेगी जब तक जीवाश्म ईंधन जलाना बंद नहीं हो जाता। यह निष्कर्ष कार्रवाई की ज़रूरत का आह्वान है। (स्रोत फीचर्स)

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वर्ष 2023 सबसे गर्म साल रहा

हां दिए गए ग्राफ में साफ दिखता है कि वर्ष 2023 में धरती की सतह का औसत तापमान उद्योग पूर्व समय (1850-1900) के औसत तापमान से 1.48 डिग्री सेल्सियस से अधिक रहा। अर्थात यह पिछले 50 वर्षों में सबसे अधिक गर्म साल रहा है। ये आंकड़े युरोपीय संघ के कॉपरनिकस क्लायमेट चेंज सर्विस द्वारा प्रस्तुत किए गए हैं। (स्रोत फीचर्स)


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जलवायु परिवर्तन से कुछ जीव निशाचर बन रहे हैं

लवायु परिवर्तन के कारण कुछ जीवों के व्यवहार में परिवर्तन हो रहा है। निरंतर बढ़ते तापमान की स्थिति में जीवित रहने के लिए वे निशाचर बन रहे हैं। हाल ही में ब्राज़ील के पेंटानल वेटलैंड्स में पाए जाने वाले सफेद होंठ वाले पेकेरी (Tayassu pecari) पर अध्ययन ने यह चौंकाने वाला खुलासा किया है। शोधकर्ताओं के अनुसार आम तौर पर दिन के समय सक्रिय रहने वाला यह जीव अत्यधिक गर्मी के दौरान रात के समय अधिक गतिविधि करता पाया गया है।

बायोट्रॉपिका में प्रकाशित अध्ययन की सहलेखक मिशेला पीटरसन ने जलवायु परिवर्तन से जूझ रही प्रजातियों के लिए अनुकूलन विधि के रूप में इस प्रकार के व्यवहारिक लचीलेपन पर प्रकाश डाला है। अध्ययन से पता चलता है कि लगभग 27 डिग्री सेल्सियस से कम तापमान में पेकेरी दोपहर के समय सबसे अधिक सक्रिय थे। लेकिन जैसे-जैसे तापमान बढ़ा, उनकी गतिविधि सुबह के समय होने लगी, और दिन का तापमान 34 डिग्री सेल्सियस से अधिक होने पर, उनकी चरम सक्रियता सूर्यास्त के बाद देखी गई।

शोधकर्ताओं ने विशाल एंट-ईटर और चीतों जैसी अन्य प्रजातियों के व्यवहार में भी इसी तरह के बदलाव देखे हैं, जो जीवों के व्यवहार में व्यापक परिवर्तन का संकेत देते हैं। दूसरी ओर, लीडेन विश्वविद्यालय के पारिस्थितिकी विज्ञानी माइकल वेल्डुई के अनुसार इन परिवर्तनों के दीर्घकालिक प्रभाव पर अभी भी अनिश्चितता है तथा और अधिक शोध की आवश्यकता बनी हुई है।

गौरतलब है कि जीवों का निशाचर व्यवहार दिन की गर्मी से राहत देता है लेकिन यह प्यूमा जैसे निशाचर शिकारियों का शिकार बनने का जोखिम भी पैदा करता है। इसके अतिरिक्त, रात की गतिविधि में परिवर्तन इन जीवों को भोजन स्रोतों का पता लगाने में भी मुश्किल पैदा कर सकता है। हालांकि, शोधकर्ता अभी भी इस व्यवहारिक समायोजन को एक स्थायी बदलाव के रूप में नहीं देख रहे हैं। उनका मानना है कि संभवत: ये जीव अभी भी दिन की गतिविधि को प्राथमिकता दे रहे हों और केवल अत्यधिक गर्मी के दौरान रात में भोजन की तलाश का विकल्प अपना रहे हों।

कुछ विशेषज्ञों का सुझाव है कि दिन के उजाले के आदी जीव संभव होने पर रात की गतिविधि से परहेज़ कर सकते हैं। पेकेरी की सुबह की गतिविधि में प्रारंभिक बदलाव इस ओर संकेत देता है कि वे रात की स्थितियों की तुलना में अधिक उपलब्ध रोशनी के साथ ठंडे तापमान को प्राथमिकता देते हैं।

इस दिशा में चल रहे अध्ययन जलवायु परिवर्तन की स्थिति में जीवों के अनुकूलन की जटिलता पर ज़ोर देते हैं। यह वन्यजीवों के बदलते आवासों में बढ़ते तापमान से निपटने के लिए लचीलापन और संभावित चुनौतियों का भी संकेत देते हैं।(स्रोत फीचर्स)

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पक्षियों की विलुप्ति का चौंकाने वाला आंकड़ा

हाल ही में नेचर कम्युनिकेशंस पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन ने पिछले 1,26,000 वर्षों में मानव गतिविधियों के कारण पक्षियों की विलुप्ति के चौंकाने वाले आंकड़े उजागर किए हैं। पूर्व में किए गए अनुमानों से आगे जाकर इस शोध ने लगभग 1500 पक्षी प्रजातियों के विलुप्त होने के पीछे मनुष्यों को दोषी पाया है। यह आंकड़ा पूर्व अनुमानित संख्या से दुगना है जो पक्षियों की जैव विविधता पर मानव गतिविधियों के गहरे प्रभाव का संकेत देता है।

सदियों से ज़मीनें साफ करके, शिकार और बाहरी प्रजातियों को नए इलाकों में पहुंचाने जैसे मानवीय कारकों की वजह से पक्षियों की विलुप्ति होती रही है। यह प्रभाव विशेष रूप से द्वीपों जैसे अलग-थलग पारिस्थितिक तंत्रों में विनाशकारी रहा है और पक्षियों की 90 प्रतिशत ज्ञात विलुप्तियां ऐसे ही स्थानों पर होने की संभावना है। स्थिति को समझने में सबसे बड़ी चुनौती पक्षियों का हल्का वज़न और खोखली हड्डियां हैं जिनके कारण उनके अवशेषों का जीवाश्म के रूप में भलीभांति संरक्षण नहीं होता है। इसलिए पक्षी विलुप्ति के अधिकांश विश्लेषण लिखित रिकॉर्ड के आधार पर किए गए हैं जो पिछले 500 वर्षों से ही उपलब्ध हैं।

इस दिक्कत से निपटने के लिए, यूके सेंटर फॉर इकॉलॉजी एंड हाइड्रोलॉजी के रॉब कुक और उनकी टीम ने 1488 द्वीपों में दस्तावेज़ीकृत विलुप्तियों, जीवाश्म रिकॉर्ड और अनुमानित अनदेखी विलुप्तियों के अनुमानों को जोड़कर कुल विलुप्तियों का एक व्यापक मॉडल तैयार किया। अनदेखी विलुप्तियों का अनुमान लगाने के लिए उन्होंने द्वीप के आकार, जलवायु और अलग-थलग होने की स्थिति जैसे कारकों के आधार पर प्रजातियों की समृद्धता का आकलन किया। उनका निष्कर्ष है कि मानवीय गतिविधियों के कारण प्लायस्टोसीन युग के अंतिम दौर के बाद से वैश्विक स्तर पर लगभग 12 प्रतिशत पक्षी प्रजातियां विलुप्त हुई हैं। अध्ययनकर्ताओं का मत है कि इनमें से आधे से अधिक पक्षियों को तो इंसानों ने देखा भी नहीं होगा और न ही उनके जीवाश्म बच पाए होंगे।

इस विलुप्ति में विशेष रूप से प्रशांत क्षेत्र के हवाई द्वीप, मार्केसस द्वीप और न्यूज़ीलैंड को सबसे अधिक खामियाज़ा भुगतना पड़ा जहां विलुप्त पक्षियों का लगभग दो-तिहाई हिस्सा केंद्रित था। अध्ययन से पता चलता है कि महाविलुप्ति की शुरुआत लगभग 700 वर्ष पूर्व हुई जब इन द्वीपों पर मनुष्यों का आगमन हुआ। इसके नतीजे में विलुप्त होने की दर में 80 गुना वृद्धि हुई।

शोध के ये परिणाम नीति निर्माताओं और संरक्षणवादियों के लिए काफी महत्वपूर्ण हैं। कार्लस्टेड विश्वविद्यालय के फोल्मर बोकमा के अनुसार इन नुकसानों को समझकर अधिक प्रभावी जैव विविधता लक्ष्य निर्धारित किए जा सकते हैं। एडिलेड विश्वविद्यालय के जेमी वुड का कहना है कि इस अध्ययन ने दर्शाया है कि पक्षियों की विलुप्ति के अनुमान कम लगाए गए थे और वास्तविक स्थिति शायद इस अध्ययन के आकलन से भी ज़्यादा भयावह है। (स्रोत फीचर्स)

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