कोविड-19: न टीका चाहिए, न सामूहिक प्रतिरोध – मिलिंद वाटवे

मैंने पहले एक लेख में कहा था कि इस बात की प्रबल संभावना है कि वर्तमान महामारी के लिए ज़िम्मेदार वायरस (SARS-Cov-2) का विकास इस तरह होगा कि उसकी उग्रता या अनिष्टकारी प्रवृत्ति कम होती जाएगी। मुझे ऐसी उम्मीद इसलिए है कि एक ओर तो लगभग सारे देश सारे ज्ञात कोरोना-पॉज़िटिव प्रकरणों में सख्त क्वारेंटाइन लागू कर रहे हैं। लेकिन दूसरी ओर, हम बहुत व्यापक परीक्षण नहीं करवा पाएंगे, जिसका परिणाम यह होगा कि बहुत सारे प्रकरणों में लक्षण-रहित व्यक्तियों की जांच नहीं हो पाएगी। ये लोग घूमते-फिरते रहेंगे और वायरस को फैलाते रहेंगे।

वायरस बड़ी आबादी तक पहुंचता है और इसकी उत्परिवर्तन की दर भी काफी अधिक होती है। इस वजह से तमाम परिवर्तित रूप उभरते रहेंगे। जो किस्में अधिक उग्र व अनिष्टकारी होंगी, वे गंभीर संक्रमण पैदा करेंगी, जिसके चलते ऐसे मरीज़ों की जांच होगी और उन्हें क्वारेंटाइन किया जाएगा।

दूसरी ओर, कम उग्र रूप लक्षण-रहित या हल्के-फुल्के लक्षणों वाले संक्रमण पैदा करेंगे, जो शायद स्क्रीनिंग और उसके बाद होने वाले क्वारेंटाइन से बच निकलेंगे। इसका मतलब है कि ये फैलते रहेंगे। वायरस की कई पीढियों, जो बहुत लंबी अवधि नहीं होती, में प्राकृतिक चयन कम उग्र रूपों को तरजीह देगा।

जहां वायरस सम्बंधी सारा अनुसंधान टीके के विकास, उसकी रोगजनक पद्धति या उपचार विकसित करने पर है, वहीं वायरस के जैव विकास पर कोई बात नहीं हो रही है। इसके दो कारण हैं। एक तो यह है कि चिकित्सा के क्षेत्र में कार्यरत लोगों को जैव विकास के लिहाज़ से सोचने की तालीम ही नहीं दी जाती। दूसरा कारण यह है कि उग्रता/अनिष्टकारी प्रवृत्ति को नापना संभव नहीं है। वायरस के डीएनए का अनुक्रमण करना, उसके द्वारा बनाए गए प्रोटीन्स का अध्ययन करना, संक्रमित व्यक्ति में एंटीबॉडी खोजना वगैरह आसान है। शोधकर्ता आम तौर वही करते हैं, जो सरल हो, न कि वह जो वैज्ञानिक दृष्टि से ज़्यादा प्रासंगिक हो।

चूंकि आप उग्रता में परिवर्तन को आसानी से नाप नहीं सकते, इसलिए इस पर आधारित परिकल्पना की कोई बात भी नहीं करता। मैं इसे विज्ञान में ‘प्रमाण-पूर्वाग्रह’ कहता हूं। यदि किसी परिकल्पना को सिद्ध करने या उसका खंडन करने के लिए प्रमाण जुटाना मुश्किल हो, तो लोग उसके बारे में चर्चा करने से कतराते हैं, क्योंकि उसके आधार पर शोध पत्र तो तैयार नहीं हो सकता। महत्व इस बात का नहीं होता कि कोई परिकल्पना जन स्वास्थ्य के लिहाज़ से वैज्ञानिक महत्व रखती है या नहीं बल्कि इस बात का होता है कि क्या आप शोध पत्र प्रकाशित कर पाएंगे।

अलबत्ता, विश्व स्तर पर रोग प्रसार के रुझान और भारतीय परिदृश्य से भी निश्चित संकेत मिल रहे हैं कि वायरस की उग्रता कम हो रही है। यद्यपि संक्रमण बढ़ रहा है, लेकिन समय के साथ मृत्यु दर लगातार कम हो रही है। पैटर्न पर नज़र डालिए। मध्य अप्रैल से, हालांकि प्रतिदिन नए संक्रमित व्यक्तियों की संख्या बढ़ी है, लेकिन प्रतिदिन मौतों की संख्या कम हुई है।

यही भारत में भी दिख रहा है। दरअसल, भारत में रोगी मृत्यु दर (यानी कोविड-19 के मरीज़ों की संख्या के अनुपात में मौतें) पहले से ही कम थी। और यह दर लगातार कम हो रही है, हालांकि प्रतिदिन कुल मौतों की संख्या में गिरावट आना शेष है।

मैंने यहां भारत में प्रतिदिन रिपोर्टेड पॉज़िटिव केसेस को प्रतिदिन रिपोर्टेड मौतों के अनुपात के रूप में प्रस्तुत किया है। यह ग्राफ उस दिन से शुरू किया है जिस दिन प्रतिदिन मृत्यु का आंकड़ा 50 से ऊपर हो गया था। यह सही है कि दिन-ब-दिन उतार-चढ़ाव दिखते हैं लेकिन फिर भी मृत्यु में लगातार कमी की प्रवृत्ति स्पष्ट है।

अब यदि हम एक सरल सी मान्यता लेकर चलें कि यही प्रवृत्ति जारी रहेगी, तो हम कह सकते हैं कि भारत में 35 दिनों में कोविड-19  साधारण फ्लू जितना खतरनाक रह जाएगा। ज़ाहिर है, यह सरल मान्यता थोड़ी ज़्यादा ही सरल है, क्योंकि ग्राफ लगातार एक सरीखा नहीं रहेगा।

दूसरी शर्त यह है कि केस-मृत्यु दर को मृत्यु दर के तुल्य नहीं माना जा सकता। किसी बढ़ती महामारी में केस-मृत्यु दर मृत्यु दर को कम करके आंकती है। 35 दिन का उपरोक्त अनुमान थोड़ा आशावादी हो सकता है। हो सकता है थोड़ा ज़्यादा समय लगे लेकिन दिशा तसल्ली देती है। मैंने अपने कुछ चिकित्सक दोस्तों से यह भी सुना है कि अब सघन देखभाल की ज़रूरत वाले मरीज़ों की संख्या भी कम हो रही है।

टीके के परीक्षण और बड़े पैमाने पर उत्पादन में कई महीने लग जाएगे और यह तत्काल उपलब्ध नहीं हो पाएगा। और शायद यह जन साधारण के लिए बहुत महंगा साबित हो।

भारत जैसे विशाल देश के लिए सामूहिक प्रतिरोध (हर्ड इम्यूनिटी) हासिल करना दूर की कौड़ी है और यह शायद एक-दो सालों में संभव न हो।

लेकिन इन दोनों चीज़ों से पहले संभवत: जैव विकास इस वायरस की जानलेवा प्रवृत्ति से निपट लेगा। इसमें कोई शक नहीं कि हमें क्वारेंटाइन को जारी रखना होगा और लक्षण-सहित मरीज़ों की बढ़िया चिकित्सकीय देखभाल करनी चाहिए लेकिन लक्षण-रहित व्यक्तियों को लेकर ज़्यादा हाय-तौबा करने की ज़रूरत नहीं है। क्योंकि वही हमें बचाने वाले हैं। हमें एकाध महीने इन्तज़ार करके देखना चाहिए कि क्या यह भविष्यवाणी सही होती है या नहीं। यदि यह गुणात्मक या मात्रात्मक रूप से सही साबित होती है तो चिकित्सा विज्ञान के लिए अच्छी दूरगामी सीख होगी। उग्रता प्रबंधन की रणनीति सार्वजनिक स्वास्थ्य नियोजन का एक अभिन्न अंग होना चाहिए। यह पहली या आखरी बार नहीं है कि कोई नया वायरस प्रकट हुआ है। ऐसा तो होता रहेगा। सार्वजनिक स्वास्थ्य के प्रबंधन हेतु जैव विकास की गतिशीलता को समझना निश्चित रूप से ज़रूरी है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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चमगादड़ हमारे दुश्मन नहीं हैं

रावनी फिल्मों से लेकर सांस्कृतिक चित्रणों में चमगादड़ को हमेशा से एक निराधार भय से जोड़कर दिखाया गया है। और अब कोविड-19 महामारी का मुख्य रुाोत होने के कारण चमगादड़ और भी बदनाम हुए हैं। ऐसे में हो सकता है कि चमगादड़ों को खत्म करने के प्रयास किए जाएं। तब चमगादड़ों का संरक्षण करना कठिन हो जाएगा, साथ ही उनसे मिलने वाले महत्वपूर्ण लाभों की रक्षा करना भी मुश्किल हो जाएगा। संभावना तो यह भी है कि चमगादड़ों के खात्मे से नई परेशानियों खड़ी हो जाएं।

वास्तव में चमगादड़ों की कुछ रोगाणुओं के प्रति बहुत आक्रामक प्रतिरक्षा प्रणाली होती है, जिसकी वजह से वायरस और भी घातक रूप में विकसित हो जाते हैं। ऐसे में मनुष्यों में यदि इस तरह का कोई वायरस प्रवेश कर जाता है तो यह जानलेवा बन सकता है।

लेकिन यहां चमगादड़ों से मिलने वाले लाभों पर बात करना भी आवश्यक है। चमगादड़ हमारे जंगलों को पुनर्जीवित करते हैं और उर्वरक प्रदान करते हैं। ये 300 से अधिक प्रजातियों की फसलों का परागण करते हैं। ककाओ, कपास, मकई और अन्य पौधों को कीटों से बचाते हैं। कम विकसित देशों में कीटों का सफाया करते हैं। जब अमेरिका के कृषि क्षेत्रों में कीटों का सफाया करने वाले चमगादड़ों की संख्या में कमी हुई थी तब कृषि क्षेत्रों में वाइट-नोज़ सिंड्रोम से शिशु रुग्णता और मृत्यु दर में तेज़ी से वृद्धि हुई थी क्योंकि कीटों से निपटने के लिए हानिकारक कीटनाशकों का छिड़काव बढ़ा था। चमगादड़ मलेरिया फैलाने वाले कीटनाशक प्रतिरोधी मच्छरों का भी भक्षण करते हैं।

भविष्य में सार्स और एबोला के जोखिम को कम करने के लिए चमगादड़ों को नुकसान पहुंचने से रोगों का खतरा बढ़ सकता है। पूर्व में इस तरह के असफल प्रयास पेरू, युगांडा, मिस्र, ऑस्ट्रेलिया और इंडोनेशिया में किए जा चुके हैं।          

लेकिन अभी भी यह सवाल बना हुआ है कि आने वाली महामारियों को कैसे रोका जा सकता है। चमगादड़ों के संरक्षण की आवश्यकता है, साथ ही उनके क्षेत्रों में मानव गतिविधियों को कम करके संक्रमण से बचा जा सकता है। उदाहरण के लिए जंगलों के कम होने से फलभक्षी चमगादड़ों का प्रवास बांग्लादेश के खजूर के पेड़ों पर हुआ और देखते ही देखते वहां निपाह वायरस का संक्रमण शुरू हो गया। लेकिन अपने मूल निवास में रहते हुए चमगादड़ों द्वारा पालतू जानवरों में वायरस के फैलने की संभावना न के बराबर है।

ऐसे में बड़े पैमाने पर उनके प्राकृतिक वास की बहाली से हम चमगादड़ों का संपर्क मनुष्यों और पालतू जानवरों से कम कर सकते हैं। इसके अलावा हम कृत्रिम आवास और देशी फलों के वृक्षों को विशेष रूप से उनके लिए लगा सकते हैं। इसके साथ ही सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि उनके व्यापार को सीमित या समाप्त करने पर विचार करना चाहिए। यह मनुष्यों से चमगादड़ों के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष संपर्क को रोकने का सबसे आसान तरीका है। 

सौभाग्य से हमारे पास इस तरह के वायरसों से निपटने के कुछ नए तरीके सामने आ रहे हैं। आधुनिक जीनोम अनुक्रमण विधियों से चमगादड़-वायरस सम्बंध के रहस्यमयी क्षेत्र में कुछ रास्ता साफ हुआ। हालांकि टीकों और आधुनिक तकनीकों पर काम करने के साथ यह भी आवश्यक है कि हम चमगादड़ों को संरक्षित करने, उनकी उपस्थिति को स्वीकार करने और उनसे मिलने वाले लाभों के संदेश को लोगों तक पहुंचाएं ताकि स्वास्थ्यप्रद भविष्य संभव हो सके।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कोविड-19 से उत्पन्न छ: संकट – रामचंद्र गुहा

ज़ादी के बाद से ही भारत कई मुश्किल दौर से गुज़रा है। भारत ने विभाजन की पीड़ा; 1960 के दशक का अकाल और युद्ध; 1970 के दशक में इंदिरा गांधी का आपातकाल; और 1980 के दशक के अंत एवं 1990 की शुरुआत में सांप्रदायिक दंगों का दर्द झेला है। हमारा देश एक बार फिर अब तक के सबसे चुनौतीपूर्ण दौर से गुज़र रहा है। कारण यह है कि कोविड-19 महामारी ने कम से कम छह अलग-अलग संकटों को जन्म दिया है।

सबसे पहला और सबसे प्रत्यक्ष संकट चिकित्सा सम्बंधी है। जैसे-जैसे वायरस संक्रमण के मामले बढ़ेंगे, हमारे पहले से कमज़ोर और अति-व्यस्त स्वास्थ्य तंत्र पर और अधिक दबाव पड़ेगा। ऐसे समय में, महामारी से निपटने के प्रबंधन पर अत्यधिक ध्यान देने का मतलब होगा कि अन्य प्रमुख स्वास्थ्य समस्याएं उपेक्षित रह जाएंगी। टीबी, ह्रदय रोग, उच्च रक्तचाप और कई अन्य रोगों से पीड़ित करोड़ों भारतीयों को पता चल रहा है कि इलाज के लिए डॉक्टर व अस्पताल मिलना मुश्किल है, जो पहले उपलब्ध थे। इससे अधिक चिंता तो भारत में हर माह पैदा होने वाले लाखों शिशुओं की है। कई वर्षों की मेहनत से इन नवजात शिशुओं को खसरा, मम्स, पोलियो, डिप्थीरिया जैसी घातक बीमारियों के विरुद्ध टीकाकरण का एक संस्थागत ढांचा तैयार किया गया था। लेकिन हालिया ज़मीनी रिपोर्ट्स से पता चला है कि कोविड-19 की ओर अधिक ध्यान होने से राज्य सरकारें बच्चों के टीकाकरण कार्यक्रमों में पिछड़ रही हैं।        

दूसरा और स्पष्ट संकट आर्थिक संकट है। महामारी ने कपड़ा, एयरलाइन्स, पर्यटन और आतिथ्य उद्यमों जैसे रोज़गार पैदा करने वाले उद्योगों को गंभीर नुकसान पहुंचाया है। इस तालाबंदी का अनौपचारिक क्षेत्र पर और भी अधिक प्रभाव पड़ा होगा। कई हज़ारों लाखों मज़दूरों, पथ-विक्रेताओं और दस्तकारों का रोज़गार छिन गया है। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनॉमी का अनुमान है कि मार्च की शुरुआत में जो बेरोज़गारी दर 7 फीसदी थी वह अब 27 फीसदी से अधिक हो गई है। पश्चिमी युरोप के अमीर और बेहतर प्रबंधित देशों में बेरोज़गार लोगों को इस संकट से निपटने के लिए पर्याप्त वित्तीय राहत प्रदान की जा रही है। वहीं दूसरी ओर, हमारे गरीब और खराब ढंग से प्रबंधित गणराज्य में राज्य द्वारा निराश्रित लोगों की थोड़ी ही सहायता की जाती है।

हमारे सामने तीसरा सबसे बड़ा संकट मानवीय संकट है। इस महामारी को परिभाषित करने वाली छवियां वे फोटो और वीडियो होंगे जिनमें प्रवासी मज़दूर अपने पैतृक गांव या कस्बों तक पहुंचने के लिए सैकड़ों मील की दूरी पैदल तय करते दिख रहे हैं। महामारी की गंभीरता को देखते हुए शायद एक अस्थायी राष्ट्रव्यापी तालाबंदी तो अनिवार्य थी लेकिन इसकी योजना ज़्यादा अकलमंदी से बनाई जानी चाहिए थी। हालात की थोड़ी-बहुत समझ रखने वाला कोई भी व्यक्ति यह जानता है कि लाखों भारतीय प्रवासी कामगार हैं जो एक बेहतर ज़िंदगी के लिए अपने परिवारों से दूर रहकर काम कर रहे हैं। पता नहीं यह तथ्य प्रधानमंत्री या उनके सलाहकारों की नज़रों में क्यों नहीं आया। यदि देश के नागरिकों को ट्रेनों और बसों की मौजूदा सुव्यवस्थित प्रणाली के साथ एक हफ्ते (न कि 4 घंटे) का समय दिया जाता तो वे सुरक्षा और सहजता से अपने घर पहुंच जाते।        

जैसा कि विशेषज्ञों ने स्पष्ट किया है, तालाबंदी की उपयुक्त योजना बनाने में विफलता ने जन स्वास्थ्य संकट को बढ़ाया है। बेरोज़गार श्रमिकों को मार्च के शुरू में ही अपने-अपने घर लौटने की अनुमति दी जानी चाहिए थी। उस समय वायरस के वाहकों की संख्या बहुत कम थी। लेकिन अब दो महीने के बाद केंद्र सरकार द्वारा ट्रेनों को दोबारा से शुरू करने से हज़ारों वायरस-वाहक अपने गृह-ज़िलों में वायरस ले जाएंगे।

वास्तव में यह मानवीय संकट एक व्यापक सामाजिक संकट का हिस्सा है जिसका देश आज सामना कर रहा है। कोविड-19 से काफी पहले से ही भारतीय समाज वर्ग और जाति के आधार पर बंटा ही था, धर्म को लेकर भी काफी पूर्वाग्रह से ग्रस्त था। महामारी और इसके कुप्रबंधन ने इन विभाजनों को और बढ़ावा दिया है। पहले से ही आर्थिक रूप से वंचित लोगों पर इन कष्टों का बोझ अनुपात से अधिक पड़ा है। इसी दौरान, सत्तारूढ़ दल के सांसदों (और चिंताजनक रूप से वरिष्ठ सरकारी अधिकारियों) द्वारा कोविड-19 मामलों का धार्मिक चित्रण करने से भारत के पहले से ही कमज़ोर मुस्लिम अल्पसंख्यक और भी असुरक्षित महसूस करने लगे हैं। एक ओर तो मुसलमानों पर दोषारोपण बेरोकटोक चलता रहा और इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री चुप रहे। खाड़ी देशों की तीखी आलोचना के बाद ही उन्होंने एक बयान जारी कर कहा कि यह वायरस किसी धर्म के बीच फर्क नहीं करता। लेकिन उस समय तक सत्तारूढ़ दल और उसके ‘पालतू मीडिया’ द्वारा फैलाया गया ज़हर आम भारतीयों की चेतना में गहराई से घर बना चुका था।            

चौथा संकट पहले के तीन संकटों की तरह स्पष्ट तो नहीं है फिर भी यह काफी गंभीर हो सकता है। यह एक उभरता हुआ मनोवैज्ञानिक संकट है। बेरोज़गार और अपने घरों के लिए पैदल निकलने के लिए मजबूर लोगों में शायद ही छोड़े गए शहरों में वापस जाने का हौसला पैदा हो पाए। एक बड़ी चिंता स्कूली बच्चों और कॉलेज के छात्रों पर पड़ने वाले मनोवैज्ञानिक प्रभाव की है जिनका सामना आने वाले महीनों में उनको स्वयं करना है। आर्थिक असुरक्षा के कारण वयस्कों में भी अवसाद और अन्य मानसिक बीमारियों में वृद्धि हो सकती है। इसके परिणाम स्वयं उनके लिए और उनके परिवार के लिए काफी गंभीर हो सकते हैं।            

पांचवां संकट भारत के संघीय ढांचे का कमज़ोर होना है। आपदा प्रबंधन अधिनियम के आधार पर केंद्र को स्वयं में अत्यधिक शक्तियों को केंद्रित करने की अनुमति मिल गई है। कम से कम महामारी के शुरुआती महीनों में, राज्यों को इतनी ज़रूरी स्वायत्तता भी नहीं दी गई कि अपने स्थानीय संदर्भों के अनुकूल सर्वोत्तम तरीकों से चुनौतियों से निपट सकें। केंद्र ऊपर से एक के बाद एक मनमाने और परस्पर विरोधी निर्देश जारी करता रहा। इस बीच, केंद्र द्वारा राज्यों को वित्तीय संसाधनों से वंचित रखा गया; यहां तक कि उनके हिस्से के जीएसटी संग्रहण के उनके हिस्से का भुगतान भी नहीं किया गया। 

छठा संकट, जो पांचवे संकट से जुड़ा है, भारतीय लोकतंत्र का कमज़ोर होना है। इस महामारी की आड़ में बुद्धिजीवियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को गैर-कानूनी गतिविधि रोकथाम अधिनियम (यूएपीए) जैसे निष्ठुर कानूनों के तहत हिरासत में लिया जा रहा है। कई अध्यादेश पारित किए जा रहे हैं और संसद में चर्चा किए बिना ही महत्वपूर्ण नीतिगत निर्णय लिए जा रहे हैं। समाचार पत्रों और टीवी चैनलों के मालिकों पर सरकार की आलोचना न करने का दबाव डाला जा रहा है। इसी बीच, राज्य और सत्तारूढ़ दल प्रधानमंत्री के व्यक्तित्व को चमकाने में लगे हैं। आपातकाल के दौरान, एक अकेले देवकांत बरुआ ने कहा था कि ‘इंदिरा भारत है और भारत इंदिरा है’; लेकिन अब तो चाटुकारिता की होड़ लगी है।   

भारतीय चिकित्सा तंत्र अत्यंत दबाव में रहा है; भारतीय अर्थव्यवस्था जर्जर स्थिति में है; भारतीय समाज विभाजित और नाज़ुक है; भारत का संघीय ढांचा पहले से कहीं अधिक कमज़ोर है। भारतीय राज्य तेज़ी से सत्तावादी बन रहा है। इन सबका मिला-जुला प्रभाव ही इसे देश के विभाजन के बाद का सबसे बड़ा संकट बना देता है। 

एक देश के रूप में हम कैसे अपनी अर्थव्यवस्था, समाज और राजतंत्र के लिए इस कठिन समय में से बगैर किसी बड़े नुकसान के उबर सकते हैं? सबसे पहले तो, सरकार को उन समस्याओं के विभिन्न (और परस्पर सम्बंधित) आयामों को पहचानना होगा जिनका सामना वर्तमान में हमारा राष्ट्र कर रहा है। दूसरा, सरकार को 1947 में जवाहरलाल नेहरु और वल्लभभाई पटेल द्वारा लिए गए फैसलों से कुछ सीख लेना चाहिए। उन्होंने उस समय की चुनौतियों की गंभीरता को पहचानते हुए अपने वैचारिक मतभेदों को अलग रखकर बी. आर. अंबेडकर जैसे भूतपूर्व विरोधियों को भी कैबिनेट में शामिल किया था। इस तरह की एक राष्ट्रीय सरकार बनाना तो अब संभव नहीं है लेकिन प्रधानमंत्री जानकार और समझदार विपक्षी नेताओं से सक्रिय परामर्श तो ले ही सकते हैं। तीसरा, प्रधानमंत्री को बिना सोचे-विचारे लिए गए नाटकीय असर वाले आकस्मिक फैसले लेने की बजाय अर्थशास्त्र, विज्ञान और सार्वजनिक स्वास्थ्य के विशेषज्ञों का सम्मान करना चाहिए और उन पर भरोसा करना सीखना चाहिए। चौथा, केंद्र और सत्तारूढ़ दल को उन राज्यों को परेशान करने की अपनी इच्छा को पूरी तरह छोड़ देना चाहिए जहां उनका शासन नहीं है। पांचवां, केंद्र को सिविल सेवाओं, सशस्त्र बलों, न्यायपालिका और जांच एजेंसियों को सत्ता का हथियार बनाने के बजाय पूर्ण स्वायत्तता प्रदान करनी चाहिए।  

यह हमारे अतीत और वर्तमान पर एक व्यक्ति की समझ पर आधारित सुझावों की एक आंशिक सूची है। यह कोई साधारण संकट नहीं है, बल्कि शायद गणतंत्र के इतिहास की सबसे बड़ी चुनौती है। इससे निपटने के लिए हमारे सारे संसाधनों और संवेदना की आवश्यकता होगी।(स्रोत फीचर्स)

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वनों की ग्रीनहाउस गैस सोखने की क्षमता घट सकती है

कार्बन डाइऑक्साइड के बढ़ते स्तर से बचाव का सबसे अच्छा साधन ऊष्णकटिबंधीय वन हैं। पेड़ वृद्धि के लिए वातावरण से कार्बन डाईऑक्साइड सोखते हैं। एक अनुमान के मुताबिक ऊष्णकटिबंध के जंगलों में इतना कार्बन संचित है जितना इंसानों ने पिछले तीस वर्षों में कोयला, तेल और प्राकृतिक गैस जलाकर वायुमंडल में उंडेला है। लेकिन साइंस पत्रिका में वैज्ञानिकों ने यह चिंता व्यक्त की है कि बढ़ते तापमान और सूखे के कारण एक हद के बाद ऊष्णकटिबंधीय वनों की कार्बन-सिंक भूमिका कमज़ोर हो जाएगी और अंतत: वे बढ़ते वैश्विक तापमान में योगदान देंगे।

ऊष्णकटिबंधीय वन वायुमंडल से कितना कार्बन सोखेंगे यह कार्बन डाईऑक्साइड बढ़ने से पेड़ों की वृद्धि में तेज़ी और बढ़ते तापमान व सूखे के कारण पेड़ों के तनाव व मृत्यु के संतुलन पर निर्भर करता है। इसी संतुलन को आंकने के लिए लीड्स युनिवर्सिटी के ओलिवर फिलिप्स की अगुवाई में 200 से अधिक शोधकर्ताओं ने 24 देशों के 813 वनों के लगभग 5 लाख से अधिक पेड़ों को मापा। प्रत्येक पेड़ की ऊंचाई, मोटाई और प्रजाति के आधार पर गणना की कि अलग-अलग वन अभी कितना कार्बन संचित किए हुए हैं। भविष्य में कार्बन संचय कैसे बदल सकता है, इसका अनुमान लगाने के लिए शोधकर्ताओं ने सबसे गर्म वन को भविष्य के वन माना और विभिन्न जलवायु के वनों को विभिन्न काल के वन मानकर उनके कार्बन संचय की तुलना की। तुलना के लिए उनके पास 590 दीर्घकालीन निरीक्षण प्लॉट्स के आंकड़े भी थे। वे यह देखना चाहते थे कि तापमान और बारिश की मात्रा का कार्बन संचय क्षमता पर कैसा प्रभाव होता है।

पूर्व में हुए अध्ययन बताते हैं कि रात का न्यूनतम तापमान वनों की दीर्घकालीन कार्बन संचय क्षमता पर सबसे अधिक प्रभाव डालता है क्योंकि गर्म रातें पेड़ों की श्वसन दर बढ़ाती हैं। इसके चलते पेड़ अधिक कार्बन डाइऑक्साइड छोड़ते हैं। लेकिन इस अध्ययन में पाया गया कि दिन का अधिकतम तापमान पेड़ों की कार्बन संचय क्षमता को सबसे अधिक प्रभावित करता है क्योंकि शायद गर्म दिनों में पत्तियां पानी के उत्सर्जन को कम रखने के लिए अपने छिद्रों को बंद रखती हैं, जिसके चलते कार्बन डाईऑक्साइड ग्रहण करने की प्रक्रिया भी धीमी पड़ जाती है।

अध्ययन में पाया गया कि कुल मिलाकर वतर्मान में तो वन जितना कार्बन उत्सर्जित करते हैं उससे अधिक सोख रहे हैं। लेकिन जब साल के सबसे गर्म महीने में दिन का औसत अधिकतम तापमान 32.2 डिग्री सेल्सियस होगा, वनों की दीर्घकालीन कार्बन संचय क्षमता तेज़ी से कम होगी और उनके द्वारा छोड़े गए कार्बन की मात्रा बढ़ जाएगी। सूखे वनों में कार्बन संचय की क्षमता और भी कम होगी क्योंकि पानी की कमी पेड़ों को अधिक तनाव और मृत्यु की ओर धकेलेगी।

टीम की गणना बताती है कि विश्व के अधिकतम तापमान में प्रत्येक 1 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि होने पर ऊष्णकटिबंधीय वनों की कार्बन भंडारण क्षमता में 7 अरब टन की कमी आती है। यदि वैश्विक तापमान, पूर्व-औद्योगिक स्तर से 2 डिग्री सेल्सियस अधिक हो जाता है तो 71 प्रतिशत ऊष्णकटिबंधीय वन इस हद को पार कर जाएंगे, जिससे पेड़ों द्वारा कार्बन का उत्सर्जन चार गुना बढ़ जाएगा।

शोधकर्ता इन नतीजों को चेतावनी के रूप में देख रहे हैं। वैश्विक  तापमान लगभग 1 डिग्री सेल्सियस बढ़ चुका है। जल्दी कुछ करना होगा, इससे पहले कि बहुत देर हो जाए। (स्रोत फीचर्स)

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आधा मस्तिष्क भी काम करता है! – डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

‘सिर में भूसा भरा है क्या?’ ऐसे ताने अक्सर यह जताने वाले होते हैं कि मस्तिष्क नहीं है। सही भी है अगर मस्तिष्क नहीं है तो शरीर मुर्दे के समान बिस्तर पर पड़ा रहता है जैसा अक्सर ब्रोन डेथ के मामले में होता है। मस्तिष्क हमारी चेतना, विचार, स्मृति, बोलचाल, हाथ-पैरों की गति और हमारे शरीर के भीतर अनेक अंगों के कार्य को नियंत्रित करता है। कुछ लोगों को लगता है कि उनका मस्तिष्क जानकारियों से ठूंस-ठूंस कर भरा है और उसका इंच भर हिस्सा भी निकालकर अलग कर दिया जाए तो मस्तिष्क कार्य नहीं कर सकेगा। तो ऐसे व्यक्ति की कल्पना कीजिए जिसके पास आधा मस्तिष्क हो। तो क्या वह सामान्य क्रियाकलाप कर सकेगा या ज़िंदा भी बचेगा?

हेनरी के जन्म के कुछ ही घंटों के पश्चात मां मोनिका जोन्स यह समझ गई थी कि उनका नवजात बेटा एक दुर्लभ और गंभीर न्यूरोलॉजिकल समस्या से पीड़ित है। हेनरी के मस्तिष्क का एक तरफ का हिस्सा असामान्य रूप से बड़ा था और उसे प्रतिदिन सैकड़ों मिर्गी जैसे दौरे पड़ते थे। दवाएं भी बेअसर लग रही थी। फिर डॉक्टरों के सुझाव से अनेक ऑपरेशन का दौर साढ़े तीन माह की उम्र में प्रारंभ हुआ और 3 साल का होते-होते हेनरी आधा मस्तिष्क विहीन हो गया।

मस्तिष्क के ऑपरेशन की प्रक्रिया कोई नई नहीं है। 1920 में पहली बार मस्तिष्क का ऑपरेशन किया गया था जिसमें मस्तिष्क का कैंसर युक्त हिस्सा निकालकर अलग कर दिया गया था। उसके बाद कई ऑपरेशन किए जा चुके हैं। यह ज्ञात है कि यदि किसी बच्चे का आधा मस्तिष्क बीमारियों के कारण ठीक से कार्य नहीं कर पाता है तो ऑपरेशन करके निकाल देने पर भी वह भला चंगा होकर पढ़ना-लिखना, खेलना-कूदना जैसे सामान्य कार्य कर लेता है। आधे मस्तिष्क को सही तरीके से कार्य करता देखकर वैज्ञानिक भी आश्चर्य चकित हैं।

मोटे तौर पर आधे मस्तिष्क वाले ऐसे मरीज़ों में से 20 प्रतिशत तो वयस्क होकर सामान्य रोज़गार भी प्राप्त कर लेते हैं। शोध पत्रिका सेल रिपोट्र्स में प्रकाशित एक हालिया शोध से पता चलता है कि आधे मस्तिष्क में पुनर्गठन के कारण कुछ व्यक्ति पहले की तरह ठीक हो जाते हैं।

कैलिफोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नोलॉजी में कार्यरत संज्ञान वैज्ञानिक डॉरिट किलमैन कहते हैं कि मस्तिष्क बहुत ही लचीला यानी अपने कार्य को पुनर्गठित करने में सक्षम होता है। यह मस्तिष्क की संरचना में अचानक उत्पन्न हुए नुकसान की भरपाई भी कर सकता है। कुछ मामलों में नेटवर्क खो चुके हिस्से के कार्य को शेष मस्तिष्क पूरी तरह अपना लेता है।

उपरोक्त अध्ययन को आंशिक रूप से एक गैर-लाभकारी संगठन द्वारा वित्त पोषित किया गया। श्रीमती जोन्स और उनके पति ने यह संगठन ऐसे मरीज़ों की मदद के लिए बनाया था जो मिर्गी जैसे दौरे रोकने के लिए ऑपरेशन कराने के इच्छुक थे। अध्ययन के निष्कर्ष बड़े बच्चों में भी आधा मस्तिष्क निकालने के संदर्भ में उत्साहवर्धक हैं।

सेरेब्राम मस्तिष्क का सबसे बड़ा भाग है। यह वाणि, विचार, भावनाएं, पढ़ने, लिखने और सीखने तथा मांसपेशियों के कार्यों को नियंत्रित करता है। इसका दायां भाग शरीर के बार्इं ओर की मांसपेशियों और बायां भाग शरीर के दार्इं ओर की मांसपेशियों को नियंत्रित करता है। यद्यपि सेरेब्राम के दोनों भाग (हेमीस्फीयर) दिखने में एक जैसे दिखते हैं किन्तु कार्य में एक-से नहीं होते। इसका बायां भाग उन कार्यों को भी करता है जिनमें तर्क लगते हैं जैसे विज्ञान और गणित की समझ। जबकि दायां भाग अन्य कार्यों के अलावा रचनात्मक और कला से सम्बंधित कार्यों को नियंत्रित करता है। सेरेब्राम के दोनों आधे भाग कार्पस केलोसम से जुड़े हुए होते हैं। मस्तिष्क का यह भाग ऊपर से सपाट न होकर कई दरारों एवं उभारों से मिलकर बनता है और अखरोट जैसी संरचना वाला होता है। राइट हेंडेड व्यक्तियों में सेरेब्राम का बायां भाग प्रभावी होता है तथा मुख्य रूप से भाषा की समझ, बोलने को नियंत्रण करता है।

ऐसे लोग जिनका हेमिस्फेरोक्टोमी (सेरेब्राम का आधा हिस्सा निकाल देने का ऑपरेशन) हुआ हो, सामान्य व्यक्ति की तरह ही दिखते और व्यवहार करते हैं। पर मेग्नेटिक रेसोनेन्स इमेजिंग (एम.आर.आई.) की रिपोर्ट बताती है कि उनके मस्तिष्क का आधा भाग बचपन में ही निकाल दिया गया था। यह ज्ञात होते ही ऐसा लगता है कि ऐसे व्यक्तियों का सामान्य कार्य करना असंभव है। खास कर जब इसकी तुलना ह्मदय जैसे किसी अंग से की जाए।

क्या ह्मदय को दो बराबर हिस्सों में बांटने पर वह कार्य कर पाएगा? बिलकुल नहीं। आप अपने मोबाइल को अगर दो हिस्सों में बांट दे तो यह काम नहीं करेगा। इस प्रकार मस्तिष्क के बहुत से कार्य ऐसे हैं जहां सेरेब्राम के दोनों भाग मिलकर कार्य करते हैं जैसे चेहरे की पहचान। परंतु हाथ हिलाने जैसे कार्य मस्तिष्क के एक भाग से होते हैं। एक मधुर संगीत के लिए गायक और अनेक वाद्य यंत्रों की जुगलबंदी ज़रूरी है। लगभग ऐसा ही मस्तिष्क के भागों का कार्य है। इस सबकी बजाय शोधकर्ताओं ने पाया कि सामान्य कनेक्शन की तुलना में आधे बचे मस्तिष्क ने बचे हुए कनेक्शन को मज़बूत किया और तंत्रिकाओं के बीच बेहतर तालमेल एवं संवाद बैठाया। यह बिल्कुल उस परिस्थिति के जैसा था जहां युगल गीत के कार्यक्रम में जोड़ीदार की अनुपस्थिति में एक ही गायक ने महिला एवं पुरुष दोनों की आवाज निकालकर गाना गाया हो। वैसे ही मस्तिष्क के भाग भी मल्टीटाÏस्कग यानी बहु-कार्य करने लगे थे।

शोधकर्ताओं के लिए ये परिणाम उत्साहजनक हैं और वे अभी भी इस प्रक्रिया को समझने की कोशिश कर रहे हैं। लगभग 200 बच्चों में मस्तिष्क के ऑपरेशन करने वाले बाल न्यूरोलाजिस्ट डॉ. अजय गुप्ता कहते हैं कि मस्तिष्क परिस्थितियों के अनुसार अपने को ढालने में बेहद कामयाब रहता है। अक्सर हेमिस्फेरेक्टोमी के ऑपरेशन्स 4 या 5 वर्ष की आयु के बच्चों में बेहद सफल रहे हैं क्योंकि बड़े होने से पहले उनका मस्तिष्क कमियों की पूर्ति कर लेता है। यद्यपि दौरे पड़ने वाले वयस्क मरीज़ों में मस्तिष्क का ऑपरेशन अंतिम उपाय ही माना जाता है।

बच्चों में भी ये ऑपरेशन बेहद गंभीर होते हैं। मस्तिष्क के निकले हुए हिस्से में तरल भरने से लगातार सिर दुखने जैसी अवस्था बनी रहती है। ऑपरेशन के बाद बच्चे कमज़ोर हो जाते हैं और एक तरफ के हाथ-पैर पर नियंत्रण नहीं रह पाता है। इसके अलावा एक तरफ का दिखना बंद हो सकता है तथा आवाज़ किस दिशा से आ रही है यह बोध भी नहीं हो पाता है। बच्चे की शिक्षा के दौरान पढ़ने, लिखने और गणित पर ज़्यादा ध्यान देना होता है। वयस्क होते-होते ऐसे बच्चे मस्तिष्क के द्वारा मल्टी टास्किंग अपनाने के कारण सामान्य हो जाते हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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लॉकडाउन के बावजूद कार्बन उत्सर्जन में कमी नहीं

कोरोनावायरस को थामने के लिए विश्व भर के लगभग 4 अरब लोग तालाबंदी में हैं। इस विशाल संख्या को देखते हुए ग्रीनहाउस गैसों में कमी नगण्य जान पड़ रही है। यदि यह माना जाए कि सकल घरेलू उत्पाद और कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन के बीच समानुपाती सम्बंध है तो वर्तमान अति-भयानक आर्थिक गिरावट के रूबरू कार्बन डाईऑक्साइड के उत्सर्जन में जिस कमी का अनुमान लगाया जा रहा है वह कुछ नहीं है।

भविष्यवेत्ताओं अनुसार वर्ष 2020 में उत्सर्जन में 5 प्रतिशत से अधिक गिरावट की उम्मीद है लेकिन यह लक्ष्य से काफी कम है। वैज्ञानिकों का मत है कि आने वाले दशक में पृथ्वी के तापमान में वृद्धि को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने के लिए यह दर कम से कम 7.6 प्रतिशत वार्षिक की होनी चाहिए। तो यह सवाल स्वाभाविक है कि इतिहास की सबसे भयानक आर्थिक गिरावट के दौरान भी भविष्यवेत्ता कार्बन डाईऑक्साइड के स्तर में काफी गिरावट की भविष्यवाणी क्यों नहीं कर रहे हैं?   

इसका उत्तर उत्सर्जन के पूर्वानुमान लगाने के तरीकों, हमारी ऊर्जा प्रणाली की संरचना और इस बात में निहित है कि कैसे यह महामारी अन्य मंदियों से अलग ढंग की आर्थिक गिरावट पैदा कर रही है।

कार्बन ब्राीफ नामक एक शोध समूह के अनुसार चीन में शुरुआती कामबंदी के 4 हफ्तों के दौरान कार्बन उत्सर्जन में 25 प्रतिशत की गिरावट आई थी लेकिन दोबारा से सामान्य जीवन शुरू होने पर यह उत्सर्जन फिर से शुरू हो गया। इसी तरह रोडियम नामक संस्था के मुताबिक अमेरिका में भी 15 मार्च से 14 अप्रैल 2020 के बीच पिछले वर्ष उसी अवधि की तुलना में उत्सर्जन में 15-20 प्रतिशत की कमी आई थी।

फिर भी वार्षिक अनुमानों में किसी बड़ी कटौती की उम्मीद व्यक्त नहीं की जा रही है। अधिकांश भविष्यवेत्ताओं का मानना है कि इस वर्ष के उत्तरार्ध में अर्थव्यवस्था में पुन: उछाल आएगा और उत्सर्जन बढ़ सकता है। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोश (आईएमएफ) ने वैश्विक अर्थव्यवस्था में 3 प्रतिशत और अमेरिका के जीडीपी में 6 प्रतिशत की गिरावट की आशंका व्यक्त की है लेकिन उसके अनुसार भी 2020 की दूसरी छमाही में सुधार उम्मीद है।

हो सकता है कि यह आशावादी हो। अनुमान है कि दुनिया के कुछ हिस्सों में तालाबंदी 2020 में पूरे साल जारी रहेगी लेकिन कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन में मार्च-अप्रैल जैसी गिरावट शायद जारी न रहे। 

ग्लोबल कार्बन प्रोजेक्ट के अनुसार 2010 से 2018 के बीच वैश्विक उत्सर्जन में औसत 0.9 प्रतिशत की वार्षिक वृद्धि हुई। अमेरिका में, 2005 से अब तक, उत्सर्जन में 0.9 प्रतिशत वार्षिक की कमी हुई है और 2019 में तो 2.1 प्रतिशत की गिरावट दर्ज हुई। ऐसे में उत्सर्जन में 25 प्रतिशत की गिरावट के परिदृश्य में भी तीन-चौथाई वैश्विक कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन तो एक साल की तालाबंदी में भी जारी रहेगा।        

रोडियम समूह के जलवायु और ऊर्जा अनुसंधान के प्रमुख ट्रेवर हाउसर इस तालाबंदी और आर्थिक मंदी के बीच अंतर स्पष्ट करते हैं। आम तौर पर आर्थिक मंदी में कार्बन डाईऑक्साइड उत्सर्जन में  गिरावट मैन्यूफेक्चरिंग (विनिर्माण) और शिपिंग में गिरावट के कारण होती है। लेकिन वर्तमान में इसका विपरीत हुआ है। शिपिंग गतिविधियों में तो कोई कमी नहीं आई और विनिर्माण कार्य काफी धीमा होने में वक्त लगा। तालाबंदी के दौरान भी चीन में कई स्टील और कोयला संयंत्र कम स्तर पर जारी रहे।

उत्सर्जन में कमी विशेष तौर पर भूतल परिवहन में रिकॉर्ड गिरावट के कारण आ रही है। यू.के. के यातायात में 54 प्रतिशत, अमेरिका में 36 प्रतिशत और चीन में 19 प्रतिशत की कमी दर्ज की गई है। इसके साथ ही चीन में कोविड-19 के प्रथम 500 मामले सामने आने के बाद हवाई यात्रा में 40 प्रतिशत की गिरावट आई जबकि युरोप में 10 में से 9 उड़ानों को रोक दिया गया।

इसके परिणामस्वरूप जेट र्इंधन की मांग में 65 प्रतिशत की गिरावट आई। डिपार्टमेंट ऑफ एनर्जी स्टेटिस्टिक्स के अनुसार अमेरिका में 4 हफ़्तों में गैसोलीन की मांग में 41 प्रतिशत की गिरावट हुई। इंटरनेशनल एनर्जी एजेंसी के अनुसार अप्रैल माह में प्रतिदिन गैसोलीन की मांग में 1.1 करोड़ बैरल और मई में 1 करोड़ बैरल की कमी आएगी। फिर भी वैश्विक अर्थव्यवस्था काफी अधिक तेल का उपभोग कर रही है।          

एजेंसी के अनुसार पूरे वि·ा में इस वर्ष की दूसरी तिमाही में 7.6 करोड़ बैरल प्रतिदिन का उपयोग किया जाएगा। गैसोलीन और जेट र्इंधन की मांग में कमी के बाद भी अमेरिका की तेल कंपनियों से पिछले 4 हफ्तों में 55 लाख बैरल तेल बाज़ार पहुंचाया गया। डीज़ल की मांग में भी कमी आई है लेकिन शिपिंग और मालवाहक जहाज़ों में उपयोग जारी रहने से केवल 7 प्रतिशत की गिरावट ही दर्ज की गई है। पेट्रोकेमिकल क्षेत्र में भी प्रभाव एकरूप नहीं हैं। ऑटो विनिर्माण में उपयोग होने वाले प्लास्टिक में तो कमी आई है लेकिन खाद्य सामग्री की पैकेजिंग में इसका उपयोग जारी है। कुल मिलाकर एजेंसी का मानना है कि ईथेन और नेफ्था जैसे प्लास्टिक फीडस्टॉक की मांग साल के अंत तक कम हो जाएगी लेकिन गैसोलीन और डीज़ल के समान नहीं। .

ग्लोबल कार्बन प्रोजेक्ट के अनुसार 2019 में उत्सर्जन 0.6 प्रतिशत बढ़कर कुल 36.8 गीगाटन हो गया है। कुल उत्सर्जन में परिवहन का हिस्सा लगभग 20 प्रतिशत था, जिसमें से आधा सड़क परिवहन का है। वैसे यह 20 प्रतिशत काफी बड़ी संख्या है लेकिन बाकी के 80 प्रतिशत में अभी भी कोई भारी कमी नहीं आई है। इससे पता चलता है कि तेल हमारी अर्थ व्यवस्था में किस कदर गूंथा हुआ है। सारी कारें खड़ी हो जाएं, फिर भी तेल की खपत होती रहेगी।  

इस महामारी में बड़ी कमी मात्र परिवहन के क्षेत्र में आई है। कोयले के उपयोग में कमी तो आई है लेकिन दुनिया भर में बिजली उत्पादन इसी पर निर्भर करता है। वैश्विक कार्बन डाईऑक्साइड का 40 प्रतिशत उत्सर्जन कोयले से होता है जो किसी अन्य र्इंधन की तुलना में सबसे अधिक है। भारत में नेशनल ग्रिड संचालन के दैनिक आंकड़ों से पता चलता है कि अप्रैल में कोयला-आधारित बिजली उत्पादन प्रतिदिन 1.9 गिगावॉट-घंटे था जबकि 24 मार्च (जिस दिन लॉकडाउन शुरू हुआ) के दिन 2.3 गिगावॉट-घंटे था। तेल की तरह यह भी आर्थिक उत्पादन में केंद्रीय भूमिका निभाता है।  

ब्रोकथ्रू इंस्टिट्यूट में जलवायु और उर्जा निदेशक ज़ेके हॉसफादर के अनुसार यह महामारी विश्व के विकासशील हिस्सों के लिए स्वच्छ उर्जा को सस्ती बनाने की आवश्यकता को रेखांकित करती है। अर्थव्यवस्था को कार्बन-मुक्त करने के लिए टेक्नॉलॉजी की आवश्यकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मंगल पर कभी नदियां बहा करती थीं! – प्रदीप

सौरमंडल में मंगल ही इकलौता ऐसा ग्रह है जो पृथ्वी से कई समानताएं दर्शाता है। भविष्य में पृथ्वी से बाहर मानव कॉलोनी बसाने के लिए यही ग्रह सबसे उपयुक्त नज़र आता है। इसके बारे में जानकारी में वृद्धि के साथ वैज्ञानिकों और आम लोगों में इसके प्रति रुचि बढ़ी है।

लेकिन अभी भी इससे जुड़े कई अहम सवालों के जवाब मिलने बाकी हैं। जैसे, क्या कभी मंगल पर जीवन था, और अगर था तो किस रूप में था? क्या मंगल पर कभी पृथ्वी की तरह नदियां और सागर हिलोरे लेते थे? एक लंबे अरसे से इस आखरी सवाल का वैज्ञानिकों का जवाब ‘हां’ रहा है। और अब नेचर कम्यूनिकेशन में प्रकाशित शोध पत्र के मुताबिक वैज्ञानिकों की एक अंतर्राष्ट्रीय टीम को मंगल ग्रह पर एक अरब साल पहले नदियों की मौजूदगी के नए और पुख्ता संकेत मिले हैं।

वैज्ञानिकों ने नासा की दूरबीन से प्राप्त तस्वीरों का विश्लेषण कर यह निष्कर्ष निकाला है। वैज्ञानिकों ने तस्वीरों की सहायता से मंगल ग्रह के हेलास बेसिन नामक एक बहुत बड़े गड्ढे का एक 3-डी स्थलाकृति नक्शा बनाया। वैज्ञानिकों को एक पथरीले पहाड़ की चोटी के पास गहरी तलछट जमा मिली है जो तकरीबन 200 मीटर ऊंची है। यह तलछट तेज़ बहती नदी की वजह से जमा हुई होगी। इसकी चौड़ाई करीब डेढ़ किलोमीटर है। वैज्ञानिकों का कहना है कि हम फिलहाल वहां जाकर विस्तृत जानकारी नहीं ले सकते मगर पृथ्वी की तलछटी चट्टानों (सेडीमेंटरी रॉक्स) से समानता के चलते संदेह की कोई गुंजाइश नहीं है। इतने ऊंचे तलछटी निक्षेप बनने के लिए ज़रूरी है कि वहां बड़ी मात्रा में तरल पानी बहता रहा हो।

इस शोध पत्र के प्रमुख लेखक फ्रांसेस्को सेलेस का कहना है कि “यह वर्षों से पता है कि मंगल ग्रह पर अरबों वर्ष पहले बहुत-सी झीलें, नदियां और संभवत: महासागर भी रहे होंगे जो जीवन के शुरुआती स्तर के अनुकूल रहे होंगे। आज मंगल के ध्रुवों पर बर्फ जमा है और उसमें बहुत ज़्यादा धूल के तूफान आते हैं। लेकिन वहां की सतह पर तरल पानी की मौजूदगी के कोई संकेत नहीं हैं। मगर 3.7 अरब साल पहले हालात इतने विषम नहीं थे और हो सकता है कि तब वहां जीवन के अनुकूल परिस्थितियां मौजूद रही हों। पृथ्वी पर तलछटी चट्टानों के अध्ययन से हम लाखों-अरबों साल पहले की स्थितियों के बारे में जानने में सफल हुए हैं। अब हम मंगल ग्रह का अध्ययन कर पा रहे हैं जहां पृथ्वी से भी पहले के समय की तलछटी चट्टानें पाई गई हैं।”

वैज्ञानिकों ने यह भी पाया है कि इन तेज़ बहती नदियों ने इन चट्टानों को हजारों-लाखों साल पहले बनाया होगा। इन चट्टानों में सूक्ष्मजीवी जीवन के प्रमाण हो सकते हैं और मंगल ग्रह के इतिहास के बारे में बहुत-सी जानकारी हासिल हो सकती है।

बहरहाल, मंगल की खोजबीन निरंतर जारी है। नासा का इनसाइट लैंडर मंगल पर सफलतापूर्वक उतर चुका है और मंगल की भूगर्भीय बनावट का अध्ययन कर रहा है। वहीं क्यूरियोसिटी रोवर छह साल से अधिक समय से गेल क्रेटर की खोजबीन कर रहा है। और नासा का भावी मार्स 2020 रोवर और युरोपियन स्पेस एजेंसी का एक्समर्स रोवर, दोनों लॉन्च होने के बाद ऐसे रोवर मिशन बन जाएंगे, जिन्हें मुख्य रूप से लाल ग्रह पर अतीत के सूक्ष्मजीवी जीवन और नदियों, सागरों की मौजूदगी के संकेतों की तलाश के लिए बनाया जाएगा। (स्रोत फीचर्स)

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टेलीफोन केबल से भूकंप संवेदन

कैलिफोर्निया इंस्टिट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी के भूकंप विज्ञानी जोंगवेन ज़ान ने नववर्ष एक विचित्र अंदाज़ में मनाया। उन्होंने नववर्ष के जश्न के दौरान बैंड की तेज़ ध्वनि से उत्पन्न कंपन को ज़मीन के नीचे दबे प्रकाशीय तंतुओं की मदद से रिकॉर्ड किया।

गौरतलब है कि टीवी, फोन और इंटरनेट के लिए प्रकाशीय तंतु केबल का उपयोग होता है। इन महीन तारों का नेटवर्क शहरों में किसी पेड़ की जड़ों की तरह फैला है। इन तारों के भीतर कांच के कई अत्यंत बारीक तंतुओं में प्रकाश की मदद से डैटा प्रसारित किया जाता है। एक समय पर सारे तंतुओं का उपयोग नहीं होता। ऐसे ‘निष्क्रिय तंतुओं’ का उपयोग सस्ते भूकंप संवेदी के रूप में किया जा सकता है।       

ज़ान की टीम ने स्थानीय अधिकारियों से 37 किलोमीटर लंबे केबल के दो स्ट्रैंड उपयोग करने की अनुमति ली हुई थी। उन्होंने दोनों स्ट्रैंड के एक-एक छोर पर लेज़र लगा दिया जो अवरक्त प्रकाश छोड़ता था। इनमें से अधिकांश प्रकाश तो फाइबर के रास्ते आगे बढ़ा लेकिन कुछ हिस्सा फाइबर में नुक्स के कारण परावर्तित हो गया। शोधकर्ताओं ने इस परावर्तित प्रकाश के वापिस पहुंचने के समय को भी अपने उपकरणों में दर्ज किया। ज़ान के अनुसार फाइबर में खराबी के कारण प्रतिध्वनि सुनाई देती है।

कई बार मापन करके शोधकर्ताओं ने प्रतिध्वनि के पहुंचने के समय में अंतर को देखा। इसके आधार पर वे बता पा रहे थे कि कंपन कब प्रकाशीय तंतु के उस खंड को खींचकर थोड़ा लंबा कर देते हैं। उपकरणों की मदद से फाइबर में एक मीटर खंड की लंबाई में एक अरबवें हिस्से के फैलाव का पता लगाया सकता है। तो आपके पास हज़ारों संवेदी उपकरण मौजूद हैं।

इस तकनीक को डिस्ट्रिब्यूटेड एकूस्टिक सेंसिंग कहते हैं और पूर्व में इसका उपयोग सेना द्वारा पनडुब्बियों को ताड़ने में किया जाता था। अब इनका उपयोग हर उस काम में किया जा सकता जहां कंपन शामिल हैं, जैसे भूकंप की निगरानी में।    

अलबत्ता, ज़ान और अन्य शोधकर्ता भविष्य में इसके व्यापक उपयोग को लेकर चर्चा कर रहे हैं। इसका उपयोग न केवल भूकंपों की निगरानी के लिए किया जा सकता है बल्कि ट्रैफिक पैटर्न को रिकॉर्ड करने, ज़मीन के नीचे दबी पाइप लाइन में रिसाव का पता लगाने और अनधिकृत प्रवेश का पता लगाने के लिए किया जा सकता है। ज़ान का मानना है कि इस प्रणाली को लॉस एंजिलिस जैसे बड़े शहरों में निकट भविष्य में अपनाया जा सकता है जहां पहले से हज़ारों किलोमीटर का फाइबर नेटवर्क मौजूद है। (स्रोत फीचर्स) 

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समय से पहले फूल खिला देते हैं भूखे भंवरे

फास्ट फूड हमारी भूख शांत करने में मदद करता है। ऐसा ही जुगाड़ भंवरे भी करते हैं। जब मादा भंवरे शीतनिद्रा (हाइबरनेशन) से जागते हैं तो उन्हें अपनी नई कॉलोनी बनाने के लिए ढेर सारे पराग और मकरंद की ज़रूरत होती है। यदि भंवरे समय से पूर्व शीतनिद्रा से जाग जाते हैं तो पर्याप्त मात्रा में पराग जमा करने के लिए आसपास पर्याप्त फूल नहीं खिले होते हैं। साइंस पत्रिका में प्रकाशित शोध बताता है कि भंवरों ने इस समस्या का विचित्र समाधान खोजा है – वे फूलों को जल्दी खिलाने के लिए पौधों की पत्तियों में छेद कर देते हैं और फूल वास्तव में निर्धारित समय से कुछ सप्ताह पहले ही खिल उठते हैं।

ईटीएच ज़्यूरिच के शोधकर्ताओं ने भंवरों में पौधों की गंध के प्रति प्रतिक्रिया सम्बंधी एक अध्ययन के दौरान गौर किया था कि भंवरे पौधों की पत्तियों पर अर्ध-चंद्राकार छेद कर रहे हैं। पहले तो शोधकर्ताओं को लगा कि वे पत्तियों का रस चूस रहे हैं। लेकिन भंवरे पत्तियों पर इतनी देर नहीं ठहरे कि पर्याप्त रस ले सकें और ना ही वे पत्तियों का कोई हिस्सा अपनी कॉलोनी में ले गए।

विचित्र अवलोकन यह था कि जिन भंवरों की कॉलोनियों में कम भोजन उपलब्ध था उन्होंने पत्तियों में अधिक छेद किए थे। इसके आधार पर शोधकर्ता सोचने लगे कि कहीं ये छेद फूलों को जल्दी खिलाने के लिए तो नहीं किए जा रहे? यह तो पहले से पता है कि कुछ पौधों में क्षति या तनाव के चलते फूल जल्दी खिलते हैं। लेकिन किसी ने यह नहीं सोचा था कोई परागणकर्ता इस तरह से क्षति पहुंचाएगा।

माजरे को समझने के लिए वैकासिक जीव विज्ञानी मार्क मेशर और उनके साथियों ने ग्रीनहाउस में प्रयोग किया। पहले उन्होंने 3 तीन दिन से पराग से वंचित भंवरों को राई (ब्रौसिका निग्रा) के दस पौधों पर छोड़ा। उन्होंने पाया कि भवंरों ने हर पौधे में 5-10 छेद किए और इन पौधों में औसतन 17 दिन बाद फूल खिल गए जबकि जो पौधे भंवरों के संपर्क में नहीं आए थे उनमें औसतन 33 दिन बाद फूल खिले। टमाटर के पौधों पर दोहराने पर उनमें फूल सामान्य से 30 दिन पहले खिल गए।

इसी कड़ी के अगले अध्ययन के आधार पर लगता है कि भूख भवरों को पत्तियों में छेद करने को प्रेरित करती है क्योंकि पराग ले चुके भंवरों की तुलना में पराग से वंचित भंवरों ने पत्तियों में चार गुना अधिक छेद किए। और वसंत की शुरुआत में फूलों के खिलने के पहले, भंवरों ने पत्तियों में अधिक छेद किए लेकिन जैसे-जैसे वसंत आगे बढ़ा और अधिक पराग मिलने लगा तो भंवरों ने पत्तियों में कम छेद किए। यह विचित्र व्यवहार भंवरों की दो जंगली प्रजातियों में देखा गया।

क्या पत्तियों को होने वाली क्षति-मात्र ही पौधों को जल्दी पुष्पन के लिए प्रेरित करती है? यह जानने के लिए शोधकर्ताओं ने एक और अध्ययन किया जिसमें उन्होंने पत्तियों में हू-ब-हू वैसे ही छेद बनाए जैसे भंवरे बनाते हैं। उन्होंने पाया कि सामान्य पौधों की तुलना में इन पौधों में जल्दी फूल आ गए, लेकिन भंवरों द्वारा छेद किए गए पौधों की तुलना में देर से फूल आए। इससे लगता है कि भंवरों की लार में ऐसे रसायन होते होंगे जो पौधे को जल्दी पुष्पन के लिए प्रेरित करते हैं।

बहरहाल शोधकर्ता इस बात पर हैरान हैं कि भंवरों में यह व्यवहार कैसे विकसित हुआ होगा। ऐसा लगता नहीं कि भंवरे यह युक्ति सीखते होंगे क्योंकि उनका कुल जीवन बहुत छोटा होता है। और यदि यह जन्मजात है तो समझना मुश्किल है कि उनमें यह शुरू कैसे हुआ। (स्रोत फीचर्स)

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मांसाहारी पौधों में मांस के चस्के का विकास

किसी पौधे में मांस का चस्का विकसित होना काफी अजीब लगता है। लेकिन हाल ही में मांसाहारी पौधों की तीन नज़दीकी प्रजातियों पर किए गए अध्ययन से पता चला है कि कुशल आनुवंशिक फेरबदल ने उन्हें प्रोटीन युक्त भोजन को प्राप्त करने और पचाने की क्षमता विकसित करने में मदद की है।  

मांसाहारी पौधों ने शिकार के लिए कई कुटिल तरीके विकसित किए हैं। जैसे कलश पादप (पिचर प्लांट) तो एक फिसलन भरे कलश की मदद से कीड़ों को पकड़ता है जिसमें प्रोटीन को पचाने वाले एंज़ाइम होते हैं। मांसाहारी पौधों की कुछ अन्य प्रजातियां हैं: वीनस फ्लाईट्रैप (Dionaea muscipula), जलीय वॉटरव्हील प्लांट (Aldrovandavesiculosa), और सनड्यू (Droseraspatulata)। ये गतिशील ट्रैप का उपयोग करते हैं। जैसे सनड्यू पर जब कोई मच्छर बैठता है तो उस जगह को लपेट लिया जाता है। वीनस फ्लायट्रैप में विशेष पत्तियां होती हैं जो कीड़े के बैठने पर बंद हो जाती हैं।

इन गतिशील ट्रैप्स के विकास की खोजबीन के लिए युनिवर्सिटी ऑफ वुर्ज़बर्ग के कम्प्यूटेशनल वैकासिक जीव विज्ञानी जोर्ग शुल्ट्ज़ और वनस्पति विज्ञानी रेनर हेड्रिक व अन्य शोधकर्ताओं ने इन तीनों प्रजातियों के जीनोम की तुलना नौ पौधों के जीनोम से की जिनमें मांसाहारी पिचर प्लांट के अलावा चुकंदर एवं पपीते जैसे साधारण पौधे शामिल थे।

करंट बायोलॉजी में प्रकाशित एक रिपोर्ट में उन्होंने बताया है कि मांस भक्षण करने वाली इन प्रजातियों के जीनोम में लगभग 6 करोड़ वर्ष पुराने एक साझा पूर्वज के जीनोम में दोहराव हुआ है। इस दोहराव ने जड़ों, पत्तियों और संवेदी प्रणाली में उपयोग किए जाने वाले जीन की प्रतियों को मुक्त किया जो शिकार की पहचान पचाने में काम आने लगीं। उदाहरण के लिए, मांसाहारी पौधों ने कुछ जीन्स, जिनका उपयोग जड़ों द्वारा पोषक पदार्थों के अवशोषण के लिए होता था, को नए काम के लिए तैनात किया – पचे हुए कीट से पोषक तत्व सोखने में। शोधकर्ताओं के मुताबिक, यह रोचक बात है कि जड़ों के जीन्स पत्तियों में अभिव्यक्त हो रहे हैं।

टीम का निष्कर्ष है कि इन तीन प्रजातियों में और कलश पादप में मांस भक्षण की प्रवृत्ति का विकास स्वतंत्र रूप से हुआ है। दरअसल, उनका कहना है कि पौधों में मांस भक्षण की उत्पत्ति कम से कम छह बार स्वतंत्र रूप से हुई है। वैसे, युनिवर्सिटी ऑफ बफैलो के पादप जीव विज्ञानी विक्टर अल्बर्ट इन दो स्वतंत्र उत्पत्तियों के पक्ष में डैटा को अपर्याप्त बताते हैं। उनके अनुसार शिकार के लिए कुछ आवश्यक जीन तो कलश पादप और इन तीन पौधों के साझा पूर्वज में उपस्थित थे। उनकी टीम अब अन्य दो सनड्यू पौधों का अनुक्रमण कर रही है ताकि स्थित को स्पष्ट किया जा सके। हेड्रिक को यह भी लगता है कि मांसाहार के जीन कई पौधों में पाए जाते हैं। अत: मांसाहार का मार्ग सबके लिए खुला है।(स्रोत फीचर्स)

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