बोत्सवाना में हाथियों के शिकार से प्रतिबंध हटा

हाल ही में बोत्सवाना में हाथियों के शिकार पर लगे प्रतिबंध को हटा लिया गया है। इस फैसले से वहां के संरक्षणवादी काफी हैरान हैं। बोत्सवाना के पर्यावरण, प्राकृतिक संसाधन संरक्षण और पर्यटन मंत्रालय द्वारा 22 मई को जारी किए गए बयान के अनुसार यह फैसला ‘सभी हितधारकों के साथ व्यापक और विस्तृत विचार-विमर्श’ के बाद लिया गया है।

एलीफेंट विदाउट बॉर्डर्स नामक संगठन के मुताबिक बोत्सवाना में हाथियों की संख्या लगभग 1,30,000 है, जो पूरे अफ्रीका में पाए जाने वाले हाथियों की संख्या की एक तिहाई है। दूसरी ओर, सरकारी अनुमान के मुताबिक 2018 में बोत्सवाना में हाथियों की संख्या लगभग 2 लाख 37 हज़ार थी। अफ्रीका में हाथी दांत की तस्करी के चलते पिछले एक दशक में लगभग एक तिहाई हाथी खत्म हो गए। लेकिन बोत्सवाना लंबे समय से जानवरों के लिए एक सुरक्षित आश्रय स्थल रहा और हाथी दांत की अवैध तस्करी और शिकार से बचा रहा। हालांकि कुछ अपवाद भी सामने आए थे। सितंबर 2018 मेंएलीफेंट विदाउट बॉर्डर्स नामक संस्था ने अपने एक हवाई सर्वेक्षण में यह बताया था कि बोत्सवाना में 87 हाथियों का शिकार हुआ था, लेकिन बाद में बोत्सवाना के वैज्ञानिकों और सरकारी अधिकारियों ने कहा कि एलीफेंट विदाउट बॉर्डर्स ने संख्याओं को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया था।

साल 2014 में तत्कालीन संरक्षणवादी राष्ट्रपति इयान खामा ने हाथियों के शिकार पर प्रतिबंध लगाया था, जिसकी परिवीक्षा अवधि पांच साल थी। वर्तमान राष्ट्रपति, मोगवीत्सी ई.के. मासीसी ने पिछले साल प्रतिबंध के आर्थिक और अन्य प्रभावों पर चर्चा करने के लिए एक समिति बनाई थी। इस समिति में स्थानीय सदस्य, हाथियों के संरक्षण से प्रभावित समुदाय के लोग, संरक्षण कार्यकर्ता और शोधकर्ता शामिल थे। उनके अनुसार प्रतिबंध को इसलिए हटाया गया क्योंकि देश मे हाथियों की संख्या बढ़ने लगी थी, हाथियों के शिकारियों की आजीविका प्रभावित हो रही थी, और प्रतिबंध से हाथी-मानव टकराव और संघर्ष बढ़ रहा था।

नेशनल जियोग्राफिक के अनुसार, सूखे के कारण हाथी पानी की तलाश में उन इलाकों में आने लगे थे जिनमें वे पहले कभी नहीं आते थे। जिसके कारण हाथियों का मनुष्यों से संपर्क बढ़ा। फलस्वरूप मनुष्यों, फसलों और संपत्ति को खतरा बढ़ा है।

सरकारी बयान में यह भी कहा गया है कि शिकार व्यवस्थित और नैतिक तरीके से किए जाएंगे, हालांकि यह स्पष्ट नहीं किया गया है कि इसका क्या अर्थ है और यह कैसे सुनिश्चित किया जाएगा।

वाइल्डलाइफ डायरेक्ट की सीईओ पौला कहुम्बु ने समिति के इस फैसले पर ट्वीट करते हुए कहा है कि हाथियों के शिकार करने से मनुष्य और हाथियों के बीच संघर्ष कम नहीं होगा क्योंकि कोई भी शिकारी गांव में हाथियों का शिकार करने नहीं जाएगा, उन्हें तो शिकार के लिए बड़े-बड़े दांतों वाले हाथी चाहिए। उन्होंने यह भी कहा कि शिकार की वजह से हाथी तनावग्रस्त होकर कहीं अधिक खतरनाक बन जाते हैं।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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बड़े शहर अपने बादल बनाते हैं

लोग अक्सर यह कहते हैं कि बड़े शहरों का माहौल खुशनुमा नहीं लगता। हम यह भी जानते हैं कि शहरों में, कांक्रीटी निर्माण और इमारतों के कारण वहां का तापमान शहरों के आस-पास के इलाकों की तुलना में अधिक होता है। लेकिन हाल ही में पता चला है कि ये बड़े शहर अपने बादलों के आवरण को देर तक बांधे रख सकते हैं और इनके ऊपर गांवों की तुलना में अधिक बादल छाए रहते हैं।

विभिन्न मौसमों के दौरान लंदन और पेरिस के आसमान के उपग्रह चित्रों के अध्ययन से पता चला कि वसंत और गर्मी की दोपहरी व शाम में शहरों के ऊपर आसपास के छोटे इलाकों की तुलना में अधिक बादल छाए रहे। ये बादल आसपास के इलाकों की तुलना में 5 से 10 प्रतिशत तक अधिक थे। ये नतीजे हैरान करने वाले थे क्योंकि आम तौर पर बड़े शहरों में पेड़-पौधे कम होते हैं जिसके कारण वहां का मौसम काफी खुश्क रहता है। इस स्थिति में पानी कम वाष्पीकृत होगा और बादल भी कम बनना चाहिए।

मामले को समझने के लिए युनिवर्सिटी ऑफ रीडिंग की नताली थीउवेस ने ज़मीनी आंकड़ों पर ध्यान दिया। ऐसा क्यों हुआ इसके स्पष्टीकरण में शोधकर्ता बताती हैं कि दोपहर तक इमारतें (और कांक्रीट के निर्माण) काफी गर्म हो जाती हैं, और उसके बाद ये इमारतें ऊष्मा छोड़ने लगती हैं जिसके कारण वहां की हवा ऊपर उठने लगती है जो हवा में रही-सही नमी को भी अपने साथ ऊपर ले जाती है, फलस्वरूप बादल बनते हैं। और खास बात यह है कि ये बादल आसानी से बिखरते भी नहीं हैं।

शोधकर्ताओं की यह रिपोर्ट एनपीजे क्लाइमेट एंड एटमॉस्फेरिक साइंस में प्रकाशित हुई है।(स्रोत फीचर्स)

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कयामत की घड़ी – एक घड़ी जो बड़े संकट की सूचक है – भारत डोगरा

विश्व में ‘कयामत की घड़ी’ अपने तरह की एक प्रतीकात्मक घड़ी है जिसकी सुइयों की स्थिति के माध्यम से यह दर्शाने का प्रयास किया जाता है कि विश्व किसी बहुत बड़े संकट की संभावना के कितने नज़दीक है।

इस घड़ी का संचालन बुलेटिन ऑफ एटॉमिक साइंटिस्ट्स नामक वैज्ञानिक पत्रिका द्वारा किया जाता है। इसके परामर्शदाताओं में 15 नोबल पुरस्कार विजेता भी हैं। ये सब मिलकर प्रति वर्ष तय करते हैं कि इस वर्ष घड़ी की सुइयों को कहां रखा जाए।

इस घड़ी में रात के 12 बजे को धरती पर बहुत बड़े संकट का पर्याय माना गया है। घड़ी की सुइयां रात के 12 बजे के जितने नज़दीक रखी जाएंगी, उतनी ही किसी बड़े संकट से धरती (व उसके लोगों व जीवों) की नज़दीकी की स्थिति मानी जाएगी।

साल 2018-19 में इन सुइयों को (रात के) 12 बजने में 2 मिनट के वक्त पर रखा गया है। संकट सूचक 12 बजे के समय से इन सुइयों की इतनी नज़दीकी कभी नहीं रही। दूसरे शब्दों में, यह घड़ी दर्शा रही है कि इस समय धरती किसी बहुत बड़े संकट के इतने करीब कभी नहीं थी।

‘कयामत की घड़ी’ के वार्षिक प्रतिवेदन में इस स्थिति के तीन कारण बताए गए हैं। पहली वजह यह है कि जलवायु बदलाव के लिए ज़िम्मेदार जिन ग्रीन हाऊस गैसों के उत्सर्जन में वर्ष 2013-17 के दौरान ठहराव आया था उनमें 2018 में फिर वृद्धि दर्ज की गई है। जलवायु बदलाव नियंत्रित करने की संभावनाएं धूमिल हुई हैं।

दूसरी वजह यह है कि परमाणु हथियार नियंत्रित करने के समझौते कमज़ोर हुए हैं। मध्यम रेंज के परमाणु हथियार सम्बंधी आईएनएफ समझौते का नवीनीकरण नहीं हो सका है।

तीसरी वजह यह है कि सूचना तकनीक का बहुत दुरुपयोग हो रहा है जिसका सुरक्षा पर भी प्रतिकूल असर पड़ रहा है।

इन तीन कारणों के मिले-जुले असर से आज विश्व बहुत बड़े संकट की संभावना के अत्यधिक नज़दीक आ गया है और इस संकट को कम करने के लिए ज़रूरी कदम तुरंत उठाना ज़रूरी है। क्या ‘कयामत की घड़ी’ के इस अति महत्वपूर्ण संदेश को विश्व नेतृत्व समय रहते समझेगा? (स्रोत फीचर्स)

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कितना सही है मायर्स-ब्रिग्स पर्सनैलिटी टेस्ट?

क्सर व्यक्तित्व परीक्षण के लिए मायर्स-ब्रिग्स पर्सनालिटी टेस्ट (एमबीटी) का उपयोग किया जाता है। इस परीक्षण में लोगों को 16 श्रेणियों में वर्गीकृत किया जाता है।

एमबीटी का आविष्कार 1942 में कैथरीन कुक ब्रिग्स और उनकी बेटी, इसाबेल ब्रिग्स मायर्स ने किया था। उनका मकसद ऐसे टाइप इंडिकेटर विकसित करना था, जिनसे लोगों को खुद की प्रवृत्ति को समझने और उचित रोज़गार चुनने में मदद मिले। परीक्षण में कुछ सवालों के आधार पर निम्नलिखित लक्षणों का आकलन किया जाता है: 

·         अंतर्मुखी (I) बनाम बहिर्मुखी (E)

·         सहजबोधी (N) बनाम संवेदना-आधारित (S)

·         विचारशील (T) बनाम जज़्बाती (P)

·         फैसले सुनाने वाला (J) बनाम समझने की कोशिश करने वाला (P)

इस परीक्षण के आधार पर लोगों को 16 लेबल प्रकार प्रदान दिए जाते हैं, जैसे  INTJP, ENPF

मायर्स ब्रिग्स परीक्षण का प्रबंधन करने वाली कंपनी के अनुसार हर साल लगभग 15 लाख लोग इसकी ऑनलाइन परीक्षा में शामिल होते हैं। कई बड़ी-बड़ी कंपनियों और विद्यालयों में इस परीक्षण का उपयोग में किया जाता है। और तो और, हैरी पॉटर जैसे काल्पनिक पात्र को भी एमबीटी लेबल दिया गया है।

लोकप्रियता के बावजूद कई मनोवैज्ञानिक इसकी आलोचना करते हैं। मीडिया में कई बार इसको अवैज्ञानिक, अर्थहीन या बोगस बताया गया है। लेकिन कई लोग परीक्षण के बारे में थोड़े उदार हैं। ब्रॉक विश्वविद्यालय, ओंटारियो के मनोविज्ञान के प्रोफेसर माइकल एश्टन एमबीटी को कुछ हद तक वैध मानते हैं लेकिन उसकी कुछ सीमाएं भी हैं। 

एमबीटी के साथ मनोवैज्ञानिकों की मुख्य समस्या इसके पीछे के विज्ञान से जुड़ी है। 1991 में, नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ की समिति ने एमबीटी अनुसंधान के आंकड़ों की समीक्षा करते हुए कहा था कि इसके अनुसंधान परिणामों में काफी विसंगतियां हैं।

एमबीटी उस समय पैदा हुआ था जब मनोविज्ञान एक अनुभवजन्य विज्ञान था और इसे व्यावसायिक उत्पाद बनने से पहले उन विचारों का परीक्षण तक नहीं किया गया था। लेकिन आधुनिक मनोवैज्ञानिकों की मांग है कि किसी व्यक्तित्व परीक्षण को कुछ मानदंड पूरे करने चाहिए।

कुछ शोध एमबीटी को अविश्वसनीय बताते हैं क्योंकि एक ही व्यक्ति दोबारा टेस्ट ले तो परिणाम भिन्न हो सकते हैं। अन्य अध्ययनों ने एमबीटी की वैधता पर सवाल उठाया है कि इसके लेबल वास्तविक दुनिया से मेल नहीं खाते, जैसे यह पक्का नहीं है कि एक तरह से वर्गीकृत लोग किसी कार्य में कितना अच्छा प्रदर्शन करेंगे। मायर्स-ब्रिग्स कंपनी के अनुसार एमबीटी को बदनाम करने वाले ऐसे अध्ययन पुराने हैं।

हालांकि, परीक्षण की कुछ सीमाएं इसकी डिज़ाइन में ही निहित हैं। जैसे इसमें श्रेणियां सिर्फ हां या नहीं के रूप में हैं। किंतु हो सकता है कोई व्यक्ति इस तरह वर्गीकृत न किया जा सके। एमबीटी व्यक्तित्व के केवल चार पहलुओं का आकलन करके बारीकियों पर ध्यान नहीं दे रहा है। फिर भी, कई लोग मानते हैं कि एमबीटी पूरी तरह से बेकार भी नहीं है। उनका मानना है कि यह व्यक्तित्व के कुछ मोटे-मोटे रुझान तो बता ही सकता है। (स्रोत फीचर्स)

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पृथ्वी को हिला देने वाले क्षुद्र ग्रह – नरेन्द्र देवांगन

क क्षुद्र ग्रह अक्टूबर की रात को दूरबीन की फोटोग्राफी प्लेट पर एक हल्की सी सफेद लकीर छोड़ता हुआ चुपके से निकल गया था। जर्मनी की हाइडेलबर्ग वेधशाला के कार्ल राइनमुट तथा अन्य नक्षत्र शास्त्रियों ने 1937 में लगभग 35,000 किलोमीटर प्रति घंटे की गति से पृथ्वी के पास से गुज़रते इस आकाशीय पिंड की कक्षा की गणना की और बाद में इसका नाम हर्मिस रखा गया। वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि यह पृथ्वी से चंद्रमा की दूरी की दोगुनी से भी कम दूरी पर था। इसे नक्षत्र शास्त्र की भाषा में बाल बराबर दूरी माना जाता है। एक मायने में यह पृथ्वी से टकराते-टकराते ‘बाल-बाल’ बच गया था।

हर्मिस उन क्षुद्र ग्रहों (एस्टीरॉइड) में से एक है जिन्हें लघु आकारों तथा अनियमित आकृतियों के कारण यदा-कदा ‘उड़ते हुए पर्वत’ कहा जाता है। लेकिन बड़े ग्रहों से भिन्न, कुछ क्षुद्र ग्रह सूर्य के चारों ओर पृथ्वी के वार्षिक मार्ग को काटने वाली विषम कक्षाओं में यात्रा करते हैं। इस प्रकार वे कभी-कभी हमारे ग्रह से टकरा सकते हैं।

यदि हर्मिस हमारे ग्रह से टकराता तो इस टकराव से एक मेगाटन के 1 लाख बमों के बराबर ऊर्जा उत्पन्न होती। हर्मिस का व्यास तो मात्र एक किलोमीटर है। यदि उससे 10 गुना बड़ा क्षुद्र ग्रह हमसे टकराए तो समूची पृथ्वी का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा। पृथ्वी ज़ोर से हिलाए गए घंटे की भांति डगमगाने लगेगी। इससे भूकंप तथा ज्वार तरंगें पैदा होंगी। धूल, धुएं अथवा जलवाष्प से (जो इस बात पर निर्भर करता है कि क्षुद्र ग्रह भूमि से टकराया है अथवा जल से) वर्षों के लिए वातावरण प्रदूषित हो जाएगा। पृथ्वी की जलवायु बदल जाएगी और वह प्राणियों के लिए जानलेवा सिद्ध होगी।

पृथ्वी अभी तक क्षुद्र ग्रहों के अनेक प्रहार झेल चुकी है। उदाहरण के लिए, लगभग 3 करोड़ वर्ष पहले एक क्षुद्र ग्रह के टकराने से वर्तमान शिकागो नगर के 110 किलोमीटर दक्षिण में 13 किलोमीटर चौड़ा एक गड्ढा बन गया था। एक अन्य लगभग 35 किलोमीटर चौड़ा गड्ढा मेन्सन (आयोवा) के आसपास के मक्का के खेतों के नीचे छिपा है। पृथ्वी पर कुल मिलाकर क्षुद्र ग्रह निर्मित 100 गड्ढे पाए जा चुके हैं।

मंगल एवं बृहस्पति ग्रहों के मध्य स्थित क्षुद्र ग्रह पट्टी 10 अरब से अधिक पिंडों से भरी है। ये पिंड आकार में सूक्ष्म धूल कणों से लेकर करीब 1025 किलोमीटर व्यास वाले विशालतम क्षुद्र ग्रह सेरेस के आकार के हैं। अमरीकी नक्षत्र शास्त्री डेनियल किर्कवुड ने यह पता लगाया था कि क्षुद्र ग्रह पट्टी विभिन्न क्षेत्रों में विभाजित है। हर क्षेत्र के बीच एक रहस्यपूर्ण अंतराल है जिसे अब किर्कवुड अंतराल कहा जाता है।

जैक विज़डम ने 1982 में यह खोज की थी कि बृहस्पति तथा अन्य ग्रहों का गुरुत्वाकर्षण क्षुद्र ग्रह पट्टी को प्रभावित करता है। क्षुद्र ग्रहों में से जो भी पिंड किर्कवुड अंतराल में आ घुसता है, वह झटका खाकर अंतत: पृथ्वी की निकटतर कक्षा में पहुंच जाता है। और ऐसे झटके से फेंके गए क्षुद्र ग्रहों में से हर पांच में से एक क्षुद्र ग्रह पृथ्वी की कक्षा को काटते हुए गुज़रता है।

इन क्षुद्र ग्रहों का उद्भव कैसे हुआ? क्या वे किसी नष्ट ग्रह का कचरा हैं? यह सिद्धांत प्रस्तुत अवश्य किया गया है, पर आजकल इसे व्यापक मान्यता प्राप्त नहीं है। अनेक वैज्ञानिक एक अन्य संभव परिकल्पना में विश्वास करते हैं। करीब 4.6 अरब वर्ष पहले गैसों तथा धूल के चक्राकार पिंड से ग्रह बन रहे थे। सूर्य की परिक्रमा करते समय उस धूल के कुछ हिस्से छूट गए। सौर मंडल धीरे-धीरे साफ हुआ। इसका एकमात्र अपवाद रह गई क्षुद्र ग्रह पट्टी, जहां बृहस्पति का गुरुत्व सूर्य के विरोधी आकर्षण का मुकाबला करने में समर्थ था और इसी कारण ये पिंड जुड़कर एकाकार होने से रह गए। इस मत के अनुसार, क्षुद्र ग्रह उस समय की बची-खुची सामग्री है।

क्षुद्र ग्रहों के निर्माण का कारण जो भी हो मगर इनके पृथ्वी पर टकराने से जो उथल-पुथल मच सकती है उसा अंदाज़ इस बात से लगाया जा सकता है कि करीब 6.5 करोड़ वर्ष पहले 10-16 किलोमीटर चौड़ा एक क्षुद्र ग्रह पृथ्वी से टकराया, जिससे हमारा वि·ा हमेशा के लिए बदल गया। टकराव के फलस्वरूप भूकंप आए और ज्वार तरंगें उठीं, प्रचंड ज्वालामुखी विस्फोट हुए और दावानल भड़क उठे। टनों धूल तथा पत्थर वातावरण में भर गए और वर्षों तक वहीं बने रहे जिससे सूर्य का प्रकाश ढंक गया इससे प्रकाश संश्लेषण रुक गया और डायनासौर सहित हज़ारों प्रजातियां भूख से मर गर्इं। वैसे 6.5 करोड़ वर्ष पुराने उस क्षुद्र ग्रह को हम अपना सौभाग्य मान सकते हैं – उस तथा अन्य क्षुद्र ग्रहों के प्रहारों ने उस वि·ा का निर्माण किया होगा जो आज हमारे सामने है तथा मनुष्य के अस्तित्व एवं जीवन को संभव बनाया होगा।

साइबेरियाई वनों के एक दूरवर्ती भाग के ऊपर 30 जून 1908 को एक दीप्तिमान वस्तु कौंधी और 12 मेगाटन के हाइड्रोजन बम की ऊर्जा के साथ फट गई। उस विस्फोट से जो भूकंपीय तरंगें तुंगुस्का (रूस) में उत्पन्न हुर्इं वे दूर इंग्लैंड तक महसूस की गर्इं। आघात तरंगों ने करीब 80 किलोमीटर क्षेत्र में हर वृक्ष को धराशायी कर दिया। इस विस्फोट से उठी धूल तथा कचरा विश्व भर में फैल गया। तुंगुस्का का वह भयंकर विस्फोट किसी लुप्त होते धूमकेतु ने उत्पन्न किया था या किसी पथरीले क्षुद्र ग्रह ने? वैज्ञानिक इस विषय पर बहस करते रहे। अमरीकी भूगर्भ सर्वेक्षण संस्थान के अनुसंधानी भूगर्भशास्त्री यूजीन शूमेकर के अनुसार, महत्व की बात यह है कि अगले 75 वर्षों में ऐसी ही घटना पुन: होने की काफी संभावना है।

नासा की एक सलाहकार परिषद ने 1980 में डायनासौर के विनाश सम्बंधी सिद्धांत पर चर्चा करते हुए इस आशंका पर भी विचार किया था कि भविष्य में एक ऐसा ही टकराव समूची मानव जाति का विनाश कर सकता है। उन्होंने सोचा कि क्या खतरा उत्पन्न करने वाले क्षुद्र ग्रहों का पता लगाया जा सकता है और यदि उनमें से कोई पृथ्वी के अत्यधिक निकट आ जाए तो क्या पृथ्वी की रक्षा के उपाय किए जा सकते हैं।

कुछ वैज्ञानिक पृथ्वी के निकटवर्ती क्षुद्र ग्रहों की खोज कर रहे हैं। कैलिफोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी की पालोमर वेधशाला में इलियानोर हेलिन पृथ्वी ग्रह की कक्षा को काटकर गुज़रने वाले क्षुद्र ग्रहों का सर्वेक्षण कर रहे हैं। महीने में करीब एक सप्ताह हेलिन और उनके साथी कैमरा दूरबीन से आकाश के चित्र लेते हैं। फिर वे नए क्षुद्र ग्रहों का प्रतिनिधित्व करने वाली विस्थापित छवियों की खोज में नेगेटिवों को एक-दूसरे से मिला कर देखते हैं।

पृथ्वी को चकनाचूर करने में सक्षम आकार के क्षुद्र ग्रह की टक्कर से बचने के लिए हम क्या कर सकते हैं? मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी के प्रोफेसर पाल सैंडार्फ ने 1967 में एक ऐसी ही चुनौती अपने छात्रों के समक्ष प्रस्तुत की थी। यदि करीब डेढ़ किलोमीटर व्यास का क्षुद्र ग्रह आइकेरस 6 महीने में पृथ्वी से टकराने वाला है तो आप उसकी भीषण टक्कर से पृथ्वी को कैसे बचाएंगे? छात्रों का उत्तर था कि अणु शस्त्रों से लैस प्रक्षेपास्त्र छोड़ कर क्षुद्र ग्रह के बगल में उनका विस्फोट कराया जाए ताकि क्षुद्र ग्रह का यात्रा पथ बदला जा सके। सैंडार्फ ने छात्रों की योजना की सफलता की संभावना 90 प्रतिशत मानी।

कुछ वैज्ञानिक यह तर्क देते हैं कि चंद्रमा की अपेक्षा पृथ्वी के अधिक निकट आने वाले 9 मीटर चौड़ाई वाले क्षुद्र ग्रहों का भी मार्ग बदलने की चेष्टा करनी चाहिए क्योंकि ऐसे पिंड से टक्कर एक परमाणु बम के विस्फोट जैसी होगी। उदाहरण के लिए, जापान एयरलाइंस के विमान के कर्मचारियों ने 9 अप्रैल 1984 को एक 29,000 मीटर ऊंचा तथा 320 किलोमीटर चौड़ा खुंभी जैसा बादल देखा। इस आशंका से कि वह एक रेडियोधर्मी बादल से होकर गुजरा है, उसके चालक ने उड़ान को एंकरेज स्थित अमरीकी वायु सेना अड्डे की ओर मोड़ दिया, लेकिन जांच में रेडियोधर्मिता के चिंह नहीं मिले। दो विशेषज्ञों ने मत व्यक्त किया कि विमान किसी उल्का के विस्फोट से उत्पन्न चमकते बादल के पास से गुजरा होगा।

शूमेकर के अनुसार, हर्मिस जैसा विशालकाय क्षुद्र ग्रह औसतन 1 लाख वर्ष में एक बार पृथ्वी से टकराता है। और एक मेगाटन बम की ऊर्जा उत्पन्न करने में सक्षम 25 मीटर व्यास का क्षुद्र ग्रह हर 30 वर्ष में एक बार पृथ्वी के वातावरण में प्रवेश करता है।

सट्टेबाज़ भले ही यह कह सकते हैं कि यह खतरा चिंता करने योग्य नहीं है। लेकिन क्षुद्र ग्रहों में इन सट्टेबाज़ों की रुचि उड़ती स्वर्ण खदानों के समान होगी। कुछ भविष्यवादियों का विश्वास है कि उच्च श्रेणी के निकल एवं लौह से युक्त 1600 मीटर चौड़े क्षुद्र ग्रह का मूल्य वर्तमान दरों पर 4 खबर डॉलर होगा। निकल एवं लौह के अलावा, कुछ क्षुद्र ग्रहों में स्वर्ण तथा प्लेटिनम के समृद्ध भंडार हो सकते हैं। और ऐसे कुछ खनिज बहुल क्षुद्र ग्रहों की कक्षाएं पृथ्वी की कक्षा के इतने निकट हैं कि वे चंद्रमा की भांति पहुंच में हैं और उन्हें अंतरिक्ष अड्डे बनाया जा सकता है, उनका दोहन किया जा सकता है।

एरिज़ोना अंतरिक्ष संसाधन केंद्र के अनुसंधानकर्ताओं ने रोबोट के ज़रिए अंतरिक्ष में क्षुद्र ग्रहों से धातुएं निकालने के तरीके खोज निकाले हैं। नासा ने अपने बहु विलंबित गैलीलियो उपग्रह के क्षुद्र ग्रहों के पास से गुज़रने की योजना तैयार की है। सोवियत संघ क्षुद्र ग्रहों की यात्रा की तैयारियां कर रहा है। और युरोप के देशों को आशा है कि वे करीब 16 करोड़ किलोमीटर दूर स्थित क्षुद्र ग्रह वेस्टा में एक उपग्रह भेज सकेंगे।

हो सकता है कि कोई क्षुद्र ग्रह ही अतीत में पृथ्वी पर शासन करने वाले विशालकाय डायनासौरों और अन्य जीवों के लिए मकबरे का पत्थर बना हो। हमारे सामने तो चुनौती यह है कि हम इन क्षुद्र ग्रहों को सीढ़ी के ऐसे पत्थरों में परिणित कर दें जिन पर चढ़कर हम सितारों के बीच मानव जाति के भाग्य से भेंट करने के लिए साहसपूर्वक एक-एक पग चढ़ सकें। (स्रोत फीचर्स)  

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चुनाव से गायब रहे पर्यावरणीय मुद्दे – डॉ. ओ. पी. जोशी

देश की सत्रहवीं लोकसभा के चुनाव में जलवायु परिवर्तन के प्रभाव, जल की कमी एवं बढ़ता प्रदूषण, वायु प्रदूषण का विस्तार, जैव विविधता तथा सूर्य की बढ़ती तपिश सरीखे प्रमुख पर्यावरणीय मुद्दों पर किसी भी राजनैतिक दल ने ध्यान नहीं दिया। एच.एस.बी.सी. ने पिछले वर्ष ही बताया था कि भारत में जलवायु परिर्वतन के खतरे काफी अधिक हैं। विज्ञान की प्रसिद्ध पत्रिका नेचर ने भी चेतावनी दी है कि जलवायु परिवर्तन से भारत, अमेरिका व सऊदी अरब सर्वाधिक प्रभावित होंगे।

इस संदर्भ में महत्वपूर्ण व चिंताजनक बात यह है कि इससे हमारा सकल घरेलू उत्पादन (जी.डी.पी.) भी प्रभावित होगा। श्री श्री इंस्टीट्यूट ऑफ एग्रीकल्चरल साइंस एंड टेक्नॉलॉजी ट्रस्ट बैंगलूरु के अध्ययन के अनुसार जलवायु परिवर्तन के कारण देश के जी.डी.पी. में 1.5 प्रतिशत की कमी संभव है। विश्व बैंक की 2018 की एक रिपोर्ट (दक्षिण एशिया हॉटस्पाट) में चेतावनी दी गई है कि वर्ष 2050 तक जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से देश के जी.डी.पी. में 5.8 प्रतिशत तक की कमी होगी। हमारे देश में राजनैतिक दल एवं जनता भले ही इस समस्या के प्रति जागरूक न हो परंतु विदेशों में तो जागरूक जनता (बच्चों सहित) अपनी-अपनी सरकारों पर यह दबाब बना रही है इस समस्या को गंभीरता से लेकर रोकथाम के हर संभव प्रयास किए जाएं। इसी वर्ष 15 मार्च को एशिया के 85 देशों के 957 स्कूली विद्यार्थियों ने प्रदर्शन किया। एक अप्रैल को ब्रिटेन की संसद में पहली बार पर्यावरण प्रेमियों ने प्रदर्शन कर ब्रेक्ज़िट समझौतों में जलवायु परिवर्तन का मुद्दा जोड़ने हेतु दबाव बनाया। 15 अप्रैल को मध्य लंदन के वाटरलू पुल एवं अन्य स्थानों पर जनता ने प्रदर्शन कर इस बात पर रोष जताया कि सरकार जलवायु परिवर्तन की रोकथाम पर कोई कार्य नहीं कर रही है।

जलवायु परिवर्तन के बाद देश की एक और प्रमुख पर्यावरणीय समस्या पानी की उपलब्धता एवं गुणवत्ता की है। वर्ल्ड रिसोर्स संस्थान की रिपोर्ट अनुसार देश का लगभग 56 प्रतिशत हिस्सा पानी की समस्या से परेशान है। हमारे ही देश के नीति आयोग के अनुसार देश के करीब 60 करोड़ लोग पानी की कमी झेल रहे हैं एवं देश का 70 प्रतिशत पानी पीने योग्य नहीं है। इसी का परिणाम है कि जल गुणवत्ता सूचकांक में 122 में हमारा देश 120वें स्थान पर है। केंद्रीय भूजल बोर्ड ने 2-3 वर्षों पूर्व ही अध्ययन कर बताया था कि देश के 387, 276 एवं 86 ज़िलों में क्रमश: नाइट्रेट, फ्लोराइड व आर्सेनिक की मात्रा निर्धारित स्तर से अधिक है। बाद के अध्ययन बताते हैं कि भूजल में 10 ऐसे प्रदूषक पाए जाते हैं जो जन स्वास्थ्य के लिए काफी खतरनाक हैं। इनमें युरेनियम, सेलेनियम, पारा, सीसा आदि प्रमुख हैं। केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण मंडल द्वारा 2018 में किए गए अध्ययन के अनुसार देश की 521 प्रमुख नदियों में से 302 की हालत काफी खराब है, जिनमें गंगा, यमुना, सतलज, नर्मदा तथा रावी प्रमुख हैं। आज़ादी के समय देश में 24 लाख तालाब थे। जिनमें से 19 लाख वर्ष 2000 तक समाप्त हो गए।

वायु प्रदूषण का घेरा भी बढ़ता ही जा रहा है। दुनिया के प्रदूषित शहरों की सूची में सबसे ज़्यादा शहर हमारे देश के ही हैं। वायु प्रदूषण अब महानगरों एवं नगरों से होकर छोटे शहरों तथा कस्बों तक फैल गया है। खराब आबोहवा वाले पांच देशों में भारत भी शामिल है। अमेरिकी एजेंसी नासा के अनुसार देश में 2005 से 2015 तक वायु प्रदूषण काफी बढ़ा। वर्ष 2015 में तीन लाख तथा 2017 में 12 लाख मौतों का ज़िम्मेदार वायु प्रदूषण को माना गया है। वायु प्रदूषण के ही प्रभाव से देशवासियों की उम्र औसतन तीन वर्ष कम भी हो रही है। वाराणसी सरीखे धार्मिक शहर में भी वायु गुणवत्ता सूचकांक 2017 में 490 (खतरनाक) तथा 2018 में 384 (खराब) आंका गया है।

कुछ अपवादों को छोड़ दें तो हमारी वन संपदा भी लगातार घट रही है। प्राकृतिक संतुलन हेतु देश के भूभाग के 33 प्रतिशत भाग पर वन ज़रूरी है परंतु केवल 21-22 प्रतिशत पर ही जंगल है। इसमें भी सघन वन क्षेत्र केवल 2 प्रतिशत के लगभग ही है (देश के उत्तर पूर्वी राज्यों में देश के कुल वन क्षेत्र का लगभग एक चौथाई हिस्सा है परंतु यहां भी दो वर्षों में (2015 से 2017 तक) वन क्षेत्र लगभग 650 वर्ग कि.मी.  घट गया। वनों का इस क्षेत्र में कम होना इसलिए चिंताजनक है कि यह भाग विश्व के 18 प्रमुख जैव विविधता वाले स्थानों में शामिल है। सबसे अधिक जैव विविधता (80 प्रतिशत से ज़्यादा)  वनों में ही पाई जाती है परंतु वनों के विनाश से देश के 20 प्रतिशत से ज़्यादा जंगली पौधों एवं जीवों पर विलुप्ति का खतरा मंडरा रहा है।

देश की प्रमुख पर्वत शृंखलाओं – हिमालय, अरावली, विंध्याचल, सतपुड़ा एवं पश्चिमी घाट पर वन विनाश, अतिक्रमण, वैध-अवैध खनन जैसी समस्याएं बढ़ती जा रही हैं। कई स्थानों पर अरावली की पहाड़ियां समाप्त होने से रेगिस्तान की रेतीली हवाएं दिल्ली तक पहुंच रही है।

वर्षों की अनियमितता से देश में सूखा प्रभावित क्षेत्रों का भी विस्तार हो रहा है। अक्टूबर 2018 से मार्च 2019 तक आठ राज्यों में सूखे की घोषणा की गई है। सरकार की सूखा चेतावनी प्रणाली के अनुसार देश का 42 प्रतिशत भाग सूखे की चपेट में है जिससे 50 करोड़ लोग प्रभावित हो रहे हैं।

पर्यावरणीय समस्याओं के प्रति राजनैतिक दलों एवं जनता की ऐसी उदासीनता भविष्य में खतरनाक साबित होगी। देश के जी.डी.पी., बेरोज़गारी, गरीबी, कुपोषण, कृषि व्यवस्था, स्वास्थ्य सेवाएं एवं बाढ़ व सूखे की समस्याएं प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से पर्यावरण की समस्याओं से ही जुड़ी हैं। (स्रोत फीचर्स)   

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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हज़ारों साल पुरानी चुइंगम में मिला मानव डीएनए

हाल ही में शोधकर्ताओं को स्कैन्डिनेविया के खुदाई स्थल से दस हज़ार साल से भी ज़्यादा पुरानी चुइंगम के अवशेष मिले हैं। खास बात यह है कि इन चुइंगम में  उन्होंने मानव डीएनए के नमूने प्राप्त करने में सफलता हासिल की है।

ओस्लो स्थित म्यूज़ियम ऑफ कल्चरल हिस्ट्री के नतालिज़ा कसुबा और उनके साथियों को स्वीडन के पश्चिम तटीय क्षेत्र ह्युसबी क्लेव खुदाई स्थल से 8 चुइंगम मिली हैं। ये चुइंगम भोजपत्र (सनोबर) की छाल के रस से बनी हैं। इन च्वुइंगम में मिठास नहीं थी, इनका स्वाद गोंद जैसा होता था। पाषाण युग में औज़ार बनाने में भी मनुष्य राल का उपयोग करते थे।

चुइंगम के विश्लेषण में शोधकर्ताओं को इन पर मानव डीएनए प्राप्त हुए। डीएनए की जांच में पता चला है कि ये डीएनए पाषाण युग के तीन अलग-अलग मनुष्यों के हैं, इनमें दो महिलाएं और एक पुरुष है। जिन मनुष्यों के डीएनए प्राप्त हुए हैं वे आपस में एक-दूसरे के करीबी सम्बंधी नहीं थे लेकिन इनके डीएनए पाषाण युग के दौरान स्कैन्डिनेविया और उत्तरी युरोप में रहने वाले मनुष्यों के समान हैं। असल में साल 1990 में भी इसी जगह पर खुदाई में मानव हड्डियों के अवशेष मिले थे। लेकिन तब प्राचीन मनुष्य के डीएनए को जांच पाना संभव नहीं था।

शोधकर्ताओं का कहना है कि अक्सर प्राचीन चुइंगम में चबाने वाले के दांत की छाप भी मिल जाती हैं। लेकिन उन्हें जो चुइंगम मिली हैं उनमें से तीन पर दांतों के निशान नहीं हैं। और चुइंगम का कालापन यह दर्शाता है कि उन्हें कितना चबाया गया था।

म्यूज़ियम ऑफ कल्चरल हिस्ट्री में कार्यरत और इस अध्ययन में शामिल पेर पेरसोन का कहना है कि गोंद और अन्य पदार्थों से बनी हज़ारों साल पुरानी चुइंगम दुनिया भर में कई जगह मिलती हैं, वहां भी जहां मानव अवशेष मुश्किल से मिलते हैं। इस स्थिति में ये चुइंगम डीएनए विश्लेषण और अन्य जानकारी प्राप्त करने का अच्छा स्रोत हो सकती हैं। इसके अलावा चुइंगम में मौजूद लार से प्राचीन मानवों के बारे में जेनेटिक जानकारी, उनके स्थान और उनके प्रसार के बारे में जानकारी पता चलती है। इसके अलावा विश्लेषण से उनके बीच के सामाजिक रिश्ते, उनकी बीमारियों और उनके आहार के बारे में भी पता चलता है। उनका यह शोध कम्यूनिकेशन बायोलॉजी में प्रकाशित हुआ है। (स्रोत फीचर्स)

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फिलीपींस में मिली आदिमानव की नई प्रजाति – प्रदीप

हम आधुनिक मानव (होमो सेपिएंस) पिछले दस हज़ार सालों से एकमात्र मानव प्रजाति होने के इस कदर अभ्यस्त हो चुके हैं कि किसी दूसरी मानव प्रजाति के बारे में कल्पना करना भी मुश्किल लगता है। उन्नीसवीं और बीसवीं सदी के आरंभ में मानव वैज्ञानिकों और पुरातत्वविदों ने हमारी इस सोच को बदलते हुए बताया कि वास्तव में सेपिएंस कई मानव प्रजातियों में से महज एक है। आज से तकरीबन एक लाख साल पहले पृथ्वी कम से कम सात होमो प्रजातियों का घर हुआ करती थी। और इस दिशा में खोज की दर इतनी तेज़ है कि साल-दर-साल मानव वंश वृक्ष (फैमिली ट्री) में नए-नए नाम जुड़ते जा रहें हैं। इसी कड़ी में हाल ही में पुरातत्वविदों को उत्तरी फिलीपींस में आदिमानव की एक अलग और नई प्रजाति के अवशेष खोज निकालने में सफलता मिली है।

इस हालिया खोज से यह पता चला है कि जिस समय वर्तमान मानव प्रजाति यानी होमो सेपिएंस अफ्रीका से बाहर निकलकर दक्षिण पूर्व एशिया में फैल रही थी उस वक्त फिलीपींस में एक और मानव प्रजाति मौजूद थी। मानव वैज्ञानिकों को फिलीपींस के लूज़ोन द्वीप में मानव की उस प्रजाति के पुख्ता सबूत मिले हैं। इसके अवशेष लूज़ोन द्वीप में पाए गए हैं इसलिए इस प्रजाति का नाम होमो लूज़ोनेंसिस रखा गया है। मनुष्य के ये दूर के सम्बंधी आज से 50 से 67 हज़ार साल पहले फिलीपींस के इस द्वीप पर रहते थे।

बीते 10 अप्रैल को विज्ञान पत्रिका नेचर में इस खोज का खुलासा किया गया है। नेचर पत्रिका के मुताबिक होमो लूज़ोनेंसिस के अवशेष लूज़ोन के उत्तर में मौजूद कैलाओ गुफा में मिले हैं। ये अवशेष कम से कम तीन लोगों के हैं जिनमें एक युवा है। साल 2007, 2011 और 2015 में ही इस गुफा से सात दांत, पैरों की छह हड्डियां, हाथ और टांग की हड्डियां प्राप्त हुई थीं। अब इस मानव प्रजाति को होमो लूज़ोनेंसिस नाम दिया गया है।

 होमो लूज़ोनेंसिस के अवशेषों में पैरों की उंगलियां भीतर की तरफ मुड़ी हुई हैं, जो इस बात की ओर इशारा करती हैं कि शायद इनके लिए पेड़ों पर चढ़ना एक बेहद ज़रूरी काम हुआ करता था। छोटे दांतों के आधार पर इनके छोटे कद के होने का भी दावा किया जा रहा है। इसकी कुछ विशेषताएं मौजूदा मानव प्रजाति से मिलती हैं (जैसे सीधे खड़े हो कर चलना), जबकि कई विशेषताएं आदि वानरों के एक आरंभिक जीनस ऑस्ट्रलोपीथेकस से मिलती-जुलती हैं जो करीब 20 से 40 लाख साल पहले पूर्वी अफ्रीका में पाए जाते थे। इसलिए अंदाज़ा लगाया जा रहा है कि आदि मानव के ये सम्बंधी अफ्रीका से जुड़े हो सकते हैं जो बाद में दक्षिण पूर्व एशिया में आ कर बस गए होंगे। गौरतलब है कि इस खोज से पहले ऐसा होना लगभग असंभव माना जा रहा था। इस खोज के बाद अब यह माना जा रहा है कि फिलीपींस और पूर्वी एशिया में मानव प्रजाति का विकास बेहद जटिलता से भरा हो सकता है क्योंकि यहां पहले से ही तीन या उससे ज़्यादा मानव प्रजातियां निवास कर रही थीं। इनमें से एक थे इंडोनेशिया के फ्लोर्स द्वीप के निवासी छोटे कद वाले हॉबिट या होमो फ्लोरसीएंसिस। इनकी ऊंचाई अधिकतम एक मीटर होती थी!

गौरतलब है कि होमो लूज़ोनेंसिस पूर्वी एशिया में उस समय रह रहे थे जब होमो सेपियंस, होमो निएंडरथल्स, डेनिसोवंस और होमो फ्लोरसीएंसिस भी पृथ्वी के अलग अलग हिस्सों में मौजूद थीं। अब तक वैज्ञानिकों का यह मानना था कि मनुष्य जैसी दिखने वाली सबसे पुरानी प्रजाति होमो इरेक्टस अफ्रीका से बाहर निकलकर दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में फैली और बाकी मानव प्रजातियां होमो इरेक्टस के क्रमिक विकास की ही देन हैं। इस निष्कर्ष को अब होमो लूज़ोनेंसिस की खोज से चुनौती मिलने लगी है, जो होमो इरेक्टस के वंशज प्रतीत नहीं होते हैं। नेचर पत्रिका में इस खोज के बारे में लिखा गया है कि यह खोज इस बात की सबूत है कि मानवीय विकास एक सीधी रेखा में नहीं हुआ है जैसा कि आम तौर पर समझा जाता रहा है। यह सवाल भी है कि आखिर यह प्रजाति चारों ओर पानी से घिरे लूज़ोन द्वीप पर कैसी पहुंची? अफ्रीका से प्रवास करने वाले आदिमानव के किस वंशज से ये जुड़े हैं? फिलीपींस से मानव की इस प्रजाति के खत्म होने के क्या कारण थे? लेकहेड युनिवर्सिटी के मानव वैज्ञानिक मैथ्यू टोचेरी के मुताबिक, “इससे समझ में आता है कि एशिया में मानव का क्रमिक विकास कितना जटिल और खलबली से भरा हुआ था।” (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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फसलों के मित्र पौधे कीटों से बचाव करते हैं – एस. अनंतनारायणन

बड़े पैमाने पर खेती करने से फसल को खाने वाले कीटों की आबादी में बहुत तेजी से इज़ाफा होता है, खासतौर पर तब जब फसल एक ही प्रकार की हो। कीटों की संख्या बहुत बढ़ जाने पर किसानों को कीटनाशकों का छिड़काव करना पड़ता है, जिससे लागत बढ़ती है। साथ ही कीटनाशक छिड़काव के नुकसान भी होते हैं। कीटनाशक प्रदूषणकारी तो हैं ही इसके अलावा ये मिट्टी में रहने वाले उपयोगी जीवों और पौधों को नुकसान पहुंचाते हैं। इनके कारण कीटों के प्रति पौधों की अपनी रक्षा प्रणाली गड़बड़ा जाती है। और तो और, कुछ समय बाद कीटनाशक कीटों पर भी उतने प्रभावी भी नहीं रहते।

कीटों पर काबू पाने के संदर्भ में यूके के कुछ पर्यावरण विज्ञानियों ने मालियों/बागवानों के काम करने के तौर-तरीकों की ओर ध्यान दिया। उन्होंने गौर किया कि मालियों ने टमाटर के पौधों को सफेद फुद्दियों (Greenhouse Whitefly) से बचाने के लिए उनके साथ फ्रेंच मैरीगोल्ड (गेंदे) के पौधे लगाए थे। ये फुद्दियां टमाटर को काफी नुकसान पहुंचाती हैं। वैज्ञानिकों ने अपने अध्ययनों के बारे में प्लॉस वन पत्रिका में बताया है। उनके अध्ययनों में यह जानने की कोशिश की गई थी कि कैसे गेंदे के पौधे टमाटर के पौधों की कीटों से सुरक्षा करते हैं और वे यह भी समझना चाहते थे कि क्या यह तरीका टमाटर के अलावा अन्य फसलों के बचाव में मददगार हो सकता है।

अधिकतर ग्लासहाउस के आस-पास पाई जाने वाली यह सफेद फुद्दी आकार में छोटी और पतंगे जैसी होती है। ये अपने अंडे सब्जियों या अन्य फसलों की पत्तियों पर नीचे की ओर देती हैं। अंडों से निकले लार्वा व्यस्क होने तक और उसके बाद भी पौधों से ही अपना पोषण लेते हैं। इसके लिए वे पत्तियों की शिराओं में छेद कर पौधों के रस और अन्य पदार्थ तक पहुंचते हैं। कीटों द्वारा रस निकालने की प्रक्रिया में कुछ रस पत्तियों की सतह पर जमा हो जाता है जिसके कारण पत्तियों पर फफूंद भी पनपने लगती है, जो प्रकाश संश्लेषण की क्रिया को बाधित कर देती है। और जब लार्वा व्यस्क कीट बन जाते हैं तब ये पौधों में वायरल संक्रमण फैलाते है। इस तरह ये कीट पौधे को काफी प्रभावित करते हैं।

फसलों पर गेंदे व अन्य पौधों के सुरक्षात्मक प्रभाव को समझने के लिए वैज्ञानिकों ने अलग-अलग समय पर और फसलों को सुरक्षा के अलग-अलग तरीके उपलब्ध करवाकर प्रयोग किए। पहले प्रयोग में शोधकर्ताओं ने शुरुआत से ही टमाटर की फसल के साथ गेंदे के पौधों को लगाया। और बाद में उन पौधों को भी लगाया, जो सफेद फुद्दियों को दूर भगाते थे। इनके प्रभाव की तुलना के लिए उन्होंने कंट्रोल के तौर पर एक समूह में सिर्फ टमाटर के पौधे लगाए। वैज्ञानिक यह भी देखना चाहते थे कि क्या किसान गेंदे के पौधों का उपयोग रोकथाम के लिए करने के अलावा क्या तब भी कर सकते हैं जब फुद्दियों की अच्छी-खासी आबादी पनप चुकी हो। इसके लिए गेंदे के पौधे थोड़े विलंब से लगाए गए जब सफेद फुद्दियां फसलों पर मंडराने लगीं थी। तीसरे प्रयोग में टमाटर के साथ उन पौधों को लगाया गया जो सफेद फुद्दियों को अपनी ओर आकर्षित करते थे, ताकि यह पता किया जा सके कि कीटों को टमाटर के पौधों से दूर आकर्षित करने पर कोई फर्क पड़ता है या नहीं।

अध्ययन में पाया गया कि गेंदे के पौधों की मौजूदगी ने सफेद फुद्दियों को फसल से निश्चित तौर पर दूर रखा। सबसे ज़्यादा असर तब देखा गया जब गेंदे के पौधे शुरुआत से ही फसलों के साथ लगाए गए थे। और जब गेंदे के साथ अन्य कीट-विकर्षक पौधे भी लगाए गए तब असर कमतर रहा। और तब तो लगभग कोई असर नहीं हुआ जब सफेद फुद्दियों को अपनी ओर आकर्षित करने वाले अन्य पौधे फसल के आसपास लगाए गए थे जो एक मायने में कीटों के लिए वैकल्पिक मेज़बान थे।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने उस प्रभावी घटक को गेंदे के पौधे से पृथक किया। यह लिमोनीन नाम का एक पदार्थ है। लिमोनीन नींबू कुल के फलों के छिलकों में पाया जाता है। गेंदे के पौधे से निकले रस में काफी मात्रा में लिमोनीन मौजूद पाया गया।

इसके बाद उन्होंने टमाटर की क्यारियों में गेंदें के पौधों की बजाए लिमोनीन डिसपेंसर को रखा। लीमोनीन डिस्पेंसर एक यंत्र होता है जो लगातार लीमोनीन छोड़ता रहता है। पाया गया कि लिमोनीन भी सफेद फुद्दियों को फसल से दूर रखने में प्रभावी रहा। यानी यह गेंदे का क्रियाकारी तत्व है। और आपात स्थिति यानी जब अचानक काफी संख्या में सफेद फुद्दिया फसल पर मंडराने लगी तब भी डिस्पेंसर गेंदे के पौधे लगाने की तुलना में अधिक प्रभावी रहा। लेकिन यह पता लगाना शेष है कि फसलों की सुरक्षा के लिए गेंदें के कितने पौधे लगाए जाएं या कितने लिमोनीन डिस्पेंसर लगाए जाएं।

गेंदे के अलावा, कई अन्य पौधे हैं जो सफेद फुद्दियों और अन्य कीटों को फसल से दूर भगाने में मददगार हैं। यानी कुछ पौधे और उनसे निकले वाष्पशील पदार्थ के डिस्पेंसर कीटनाशकों की जगह इस्तेमाल किए जा सकते हैं। इसके कई अन्य फायदे भी है। पहला, कीटनाशक के छिड़काव में लगने वाली लागत की बचत होगी। दूसरा, रासायनिक कीटनाशकों के उत्पादन में लगने वाली ऊर्जा की बचत होगी। तीसरा, कीटनाशकों के कारण मिट्टी, पानी और पौधों में फैल रहा प्रदूषण कम होगा। और चौथा, कीट कीटनाशकों के खिलाफ प्रतिरोध हासिल कर लेते हैं लेकिन वे पौधों के खिलाफ प्रतिरोध हासिल नहीं कर पाएंगे।

प्रतिरोध हासिल करने की प्रक्रिया यह है कि जब कोई जीव किसी बाहरी हस्तक्षेप के कारण मारे जाते हैं तो कभी-कभार कुछ जीव उस परिस्थिति के खिलाफ प्रतिरक्षा के कारण जीवित बच जाते हैं। यह प्रतिरक्षा उन्हें संयोगवश हुए किसी उत्परिवर्तन के कारण हासिल हो चुकी होती है। फिर ये जीव संतान पैदा करते हैं और संख्यावृद्धि करते हैं। कुछ ही पीढि़यों में पूरी आबादी प्रतिरोधी जीवों की हो जाती है। जब इन कीटों का सफाया करने की बजाए दूर भगाने की विधि का उपयोग किया जाता है तो कुछ कीट फिर भी दूर नहीं जाते और उन्हें भोजन पाने व प्रजनन करने में थोड़ा लाभ मिलता है। शेष कीट दूर तो चले जाते हैं लेकिन मरते नहीं हैं। अत: प्रतिरोधी कीट अन्य कीटों के मुकाबले इतने हावी नहीं हो पाते कि पूरी आबादी में प्रतिरोध पैदा हो जाए। आबादी में दोनों तरह के कीट बने रहते हैं।

वर्ष 2015 में स्वीडन और मेक्सिको सिटी के शोधकर्ताओं ने ट्रेंड्स इन प्लांट साइंस पत्रिका में बताया था कि कैसे उन पौधों को फसलों के साथ लगाना कारगर होता है, जो फसलों पर मंडराने वाले कीटों के शिकारियों को आकर्षित करने वाले रसायन उत्पन्न करते हैं। उनके अनुसार जंगली पौधे अक्सर वाष्पशील कार्बनिक यौगिक छोड़ते हैं जिनकी गंध अन्य पौधों को इस बात का संकेत देती है कि उनकी पत्तियों को खाने वाला या नुकसान पहुंचाने वाला जीव आस-पास है। ऐसी ही एक गंध, जिससे हम सब वाकिफ हैं, तब आती है जब किसी मैदान या बगीचे की घास की छंटाई की जाती है। वाष्पशील कार्बनिक यौगिक कई किस्म के होते हैं और इससे पता चल जाता है कि खतरा किस तरह का है। जैसे यदि पौधों को शाकाहारी जानवरों द्वारा खाया जा रहा है तो पौधे वाष्पशील कार्बनिक यौगिक छोड़कर उस शाकाहारी जानवर के विशिष्ट शिकारी को इसका संकेत देते हैं।

मेक्सिको सिटी के शोध पत्र के अनुसार पौधों की कई विशेषताएं जो कीटों से सीधे-सीधे प्रतिरोध प्रदान करती थीं वे पालतूकरण (खेती) की प्रक्रिया में छूटती गर्इं, क्योंकि वे क्षमताएं कुछ ऐसे गुणों की बदौलत होती थीं जो मनुष्य को अवांछित लगते थे। जैसे कड़वापन, अत्यधिक रोएं, कठोरता या विषैलापन। इनके छूट जाने के पीछे एक और कारण यह है कि यदि यह प्रतिरोध अभिव्यक्त होने के लिए पौधे के काफी संसाधनों की खपत होती है जिसकी वजह से पैदावार कम हो जाती है। सब्जि़यों के मामले में शायद यही हुआ है।

प्लॉस वन में प्रकाशित शोध पत्र यह भी कहता है कि टमाटर जैसी फसलों की सुरक्षा के लिए लगाए गए पौधे आर्थिक महत्व की दृष्टि से भी लगाए जा सकते हैं। जैसे वे खाने योग्य हो सकते हैं या सजावटी उपयोग के हो सकते हैं। ऐसा हुआ तो लोग इन्हें लगाने में रुचि दिखाएंगे। यह समाज और पर्यावरण दोनों के लिए फायदेमंद होगा। (स्रोत फीचर्स)

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घातक हो सकती है कृत्रिम बुद्धि – तनिष्का वैद्य

बीते कुछ सालों में तकनीकी जगत में एक शब्द बड़ा आम हो गया है – ‘आर्टिफिशियल इंटेललिजेंस’ यानी कृत्रिम बुद्धि। हाल ही में चीन की सिन्हुआ समाचार एजेंसी पूरी दुनिया के लिए तब समाचार बन गई जब उसने अपने यहां समाचार पढ़ने के लिए आर्टिफिशियल इंटेलिजेंट न्यूज़ एंकर (समाचार वाचक) का उपयोग किया। यह वाचक अंग्रेज़ी में खबरें पढ़ता है। इसका सबसे बड़ा फायदा यह है कि ऐसे एंकर 24X7 बिना थके या बिना छुट्टी लिए अपना काम करने में सक्षम है। इसमें वाइस रिकॉग्नीशन (वाणी पहचान) और खबरों के अनुरूप चेहरे के हाव-भाव बदलने के लिए मशीन लर्निंग का उपयोग किया गया है।

उक्त न्यूज़ एंकर से खबरें पढ़वाने के साथ ही पूरी दुनिया में एक बार फिर आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के नफे-नुकसान पर चर्चा तेज़ हो गई है। आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस या कृत्रिम बुद्धि ऐसी बुद्धिमत्ता है जो मशीनें सीखने की एक खास प्रक्रिया के तहत सीखती हैं। वे मशीनें धीरे-धीरे इस बुद्धिमत्ता को अपने में अंगीकार कर लेती हैं। इसके बाद मशीनें भी किसी मनुष्य की तरह अपेक्षित काम पूरी गंभीरता और बारीकी के साथ करने लगती हैं। चूंकि ये मशीनें कृत्रिम रूप से इसे ग्रहण करती हैं इसीलिए इन्हें कृत्रिम बुद्धिमान कहा जाता है। अलबत्ता, यह बहुत हद तक प्राकृतिक बुद्धि की तरह ही होती है।

सबसे पहले कृत्रिम बुद्धिमत्ता की अवधारणा जॉन मैक्कार्थी ने 1956 में दी थी। उन्होंने इसके लिए एक नई प्रोग्रामिंग लैंग्वेज भी बनाई थी जिसे उन्होंने लिस्प (लिस्ट प्रोसेसिंग) नाम दिया था। यह लैंग्वेज कृत्रिम बुद्धिमत्ता सम्बंधी अनुसंधान के लिए बनाई गई थी।

अब ऐसी मशीनों के साकार होने से यह बहस फिर से शुरू हो गई है कि इनका उपयोग किस हद तक किया जाना ठीक है और इसके क्या खतरे या चुनौतियां हो सकती हैं। आखिरकार ये हैं तो मशीनें ही, इनमें एक मनुष्य की तरह की भावनाएं कैसे आएंगी। ये हमारा काम ज़रूर आसान बना सकती हैं पर मानवीय भावनाएं नहीं होने के कारण ये किसी भी काम को करने से पहले गलत-सही का फैसला करने में असमर्थ रहेंगी और गलत कदम भी उठा सकती हैं।

इनमें तो भावनाओं की कोई जगह ही नहीं है। आजकल हम वैसे ही दुनिया और समाज से बेखबर अपने पड़ोस तो दूर, घर के लोगों से भी कटे-कटे से रहते हैं। ऐसे में मशीनी मानव हमें समाज से काटकर और भी अकेला बना देंगे। इससे नई पीढ़ी में मनुष्यता के गुणों का और भी ह्यास होगा। आजकल बहुसंख्य लोगों के पास मोबाइल है और कई लोग दिन-भर उस मोबाइल में लगे रहते हैं। बार-बार देखते हैं कि कहीं कोई ज़रूरी मेसेज तो नहीं आया। मोबाइल के माध्यम से हम दुनिया भर से जुड़े हैं परंतु अपने आस-पास क्या हो रहा है इसकी हमें खबर नहीं होती। कई लोग तो मोबाइल में इतने डूब जाते हैं कि पास वाले व्यक्ति की तकलीफ दिखाई तक नहीं देती। इस आभासी या वर्चुअल दुनिया में कहीं-ना-कहीं हम असल दुनिया को भूलते जा रहे हैं और इसके कारण हमारे अंदर की मनुष्यता खत्म होती जा रही है।

महान वैज्ञानिक स्टीफन हॉकिंग ने भी कहा था कि अगर आर्टिफिशियल इंटेललिजेंट मशीनों को बनाया गया तो ये मानव सभ्यता को खत्म कर देंगी। जब एक बार मनुष्य आर्टिफिशयल इंटेलीजेंट यंत्र बना लेगा तो यह यंत्र खुद ही अपनी प्रतिलिपियां बना सकेंगे और ऐसा भी हो सकता है कि भविष्य में मनुष्य कम रह जाएं और मशीनी मानव उनके ऊपर राज करें। उनकी यह आशंका कहां तक सच होगी, यह तो फिलहाल नहीं कह सकते लेकिन मशीनी मानव हमारे मानवीय गुणों और संवेदनाओं के लिए यकीनन नुकसानदायक हैं।

पहले से ही खत्म होते रोज़गार के इस दौर में यह बेरोज़गारी बढ़ाने वाला एक और कदम साबित होगा। ऐसे यंत्रों के बनने से कई लोगों की नौकरियां भी चली जाएंगी क्योंकि इनकी उपयोगिता बढ़ने के साथ हर जगह ऐसी मशीनें लोगों की जगह लेती जाएंगी। जैसे-जैसे मशीनीकरण बढ़ेगा वैसे-वैसे काम करने के लिए लोगों की ज़रूरत कम होती जाएगी। बढ़ता मशीनीकरण बेरोज़गारी तो बढ़ाएगा ही साथ ही अपराध भी बढ़ाएगा। जब लोगों के पास करने को कोई ढंग का काम नहीं होगा तो वे रोज़ी-रोटी कमाने के लिए ज़ुर्म करेंगे। इससे पूरी दुनिया में अराजकता फैल सकती है।

अंतरिक्ष यान बनाने वाली दुनिया की मशहूर कंपनी स्पेस एक्स और टेस्ला के सीईओ इलोन मस्क भी मानते हैं कि तृतीय विश्व युद्ध का मुख्य कारण आर्टिफिशयल इंटेलिजेंस होगा। इस तरह लगता है कि आर्टिफिशल इंटेलिजेंस जितना मददगार है, लंबे समय में उतना ही ज़्यादा प्रलयकारी भी। अगर इसे सही तरह से इस्तेमाल नहीं किया गया तो यह पूरी दुनिया में तबाही मचा सकता है। ऐसे यंत्र भले ही अभी हमारी भलाई के लिए बनाए जा रहे हों पर दीर्घावधि में यही सबसे ज़्यादा हानिकारक होने वाले हैं। (स्रोत फीचर्स)

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