साफ-सफाई का ध्यान रखना शरीर के लिए काफी महत्वपूर्ण है, लेकिन
एक महिला की कान साफ करने की दैनिक आदत ने उसकी खोपड़ी में जानलेवा संक्रमण पैदा
कर दिया।
एक 37 वर्षीय ऑस्ट्रेलियाई महिला जैस्मिन
को रोज़ रात को रूई के फोहे से अपने कान साफ करने की आदत थी। इसी आदत के चलते उसके
बाएं कान से सुनने में काफी परेशानी होने लगी। शुरुआत में डॉक्टर को लगा कि कान
में संक्रमण है जिसके लिए एंटीबायोटिक औषधि दी गई। लेकिन सुनने की समस्या बनी रही।
कुछ ही दिनों बाद कानों को साफ करने के बाद रूई के फोहे में खून नज़र आने
लगा।
तब कान,
नाक और गले के
विशेषज्ञ ने सीटी स्कैन सुझाव दिया जिसमें एक भयावह स्थिति सामने आई। जैस्मिन को
एक जीवाणु संक्रमण था जो उसके कान के पीछे उसकी खोपड़ी की हड्डी को खा रहा था।
विशेषज्ञ ने सर्जरी का सुझाव दिया।
आखिरकार जैस्मिन के संक्रमित ऊतकों को
हटाने और उसकी कर्ण नलिका को फिर से बनाने में 5 घंटे का समय लगा। चिकित्सकों ने
बताया कि उसके कान में रूई के रेशे जमा हो गए थे और संक्रमित हो गए थे।
आम तौर पर लोग मानते हैं कि रूई से कान साफ
करना सुरक्षित है लेकिन अमेरिकन एकेडमी ऑफ ओटोलैंरिगोलॉजी के अनुसार अपने कानों
में चीज़ों को डालने से बचना चाहिए। कान को रूई के फोहे से साफ करना वास्तव में एक
गलत तरीका है। इससे कान साफ होने के बजाय मैल कान में और अंदर चला जाता है। रूई या
कोई अन्य उपकरण कान में जलन पैदा कर सकते हैं,
कान के पर्दे को
नुकसान पहुंचा सकते हैं।
इसी वर्ष मार्च में, इंग्लैंड के एक व्यक्ति की कर्ण नलिका में भी रूई फंसने के बाद उसकी खोपड़ी में संक्रमण विकसित हो गया। सर्जरी के बाद जैस्मिन के संक्रमण का इलाज तो हो गया लेकिन उसकी सुनने की क्षमता सदा के लिए जाती रही। जैस्मिन अब रूई से कान साफ करने के खतरों से सभी को सचेत करती हैं। हमारा कान शरीर का एक नाज़ुक और संवेदनशील अंग हैं जिसकी देखभाल करना काफी आवश्यक है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://encrypted-tbn0.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcQQTaFjs5of88n8rhdnzikdnxEFp0BFkbLv3IIMvabwgLV7D_97
वैज्ञानिकों ने बताया है कि एक विशाल क्षुद्र ग्रह 14 सितंबर
के दिन पृथ्वी के नज़दीक से गुज़रेगा। गुज़रते समय इसकी रफ्तार 23000 कि.मी. प्रति
घंटा रहेगी। इस क्षुद्रग्रह यानी एस्टीरॉइड का नाम है 2000QW7 और यह दुनिया की सबसे ऊंची इमारत बुर्ज
खलीफा से थोड़ा ही छोटा है – इसका व्यास 300-650 मीटर के बीच आंका गया है। यह
जानकारी जेट प्रपल्शन लैबोरेटरी के सेंटर फॉर नीयर अर्थ ऑब्जेक्ट्स ने दी है।
खगोल शास्त्र की भाषा में उन सारे पिंडों
और क्षुद्रग्रहों को नीयर अर्थ ऑब्जेक्ट यानी पृथ्वी निकट पिंड कहा जाता है जो
पृथ्वी से 1.3 खगोलीय इकाई से कम दूरी से गुज़रते हैं। गौरतलब है कि पृथ्वी और
सूर्य के बीच की दूरी को एक खगोलीय इकाई कहते हैं और यह 14.96 करोड़ किलोमीटर है।
यानी कोई भी पिंड यदि पृथ्वी से 19 करोड़ किलोमीटर से कम दूरी पर गुज़रे तो उसे
नज़दीकी पिंड कहा जाएगा। सेंटर फॉर नीयर अर्थ ऑब्जेक्ट के मुताबिक 2000QW7 पृथ्वी से 0.03564 खगोलीय इकाई (53 लाख
कि.मी.) की दूरी से गुज़रेगा जो चांद की हमसे दूरी के मुकाबले लगभग 14 गुना है।
यह क्षुद्रग्रह भी सूर्य के चक्कर काटता है और कई वर्षों में एकाध बार इसका परिक्रमा पथ पृथ्वी की कक्षा को काटता है। पिछली बार ऐसी घटना 1 सितंबर 2000 के दिन हुई थी। 14 सितंबर के बाद 2000QW7 फिर से 19 अक्टूबर 2038 को हमारे पास से गुज़रेगा। (स्रोत फीचर्स)
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हमारे वायुमंडल के ऊपरी भाग में मौजूद ओज़ोन
परत, सूरज से आने वाले पराबैंगनी विकिरण से पृथ्वी की रक्षा करती
है। इस सुरक्षा कवच पर खतरा पैदा हुआ था, लेकिन मॉन्ट्रियल संधि के माध्यम से
अंतर्राष्ट्रीय कार्रवाई की बदौलत इसे बचा लिया गया। संधि में इस बात को पहचाना
गया था कि कुछ मानव निर्मित रसायन, मुख्य रूप से क्लोरोफ्लोरोकार्बन, ओज़ोन
परत को नुकसान पहुंचा रहे हैं। इस संधि ने इन पदार्थों के उपयोग और वायुमंडल में
इनके उत्सर्जन में कटौती करने के लिए एक वैश्विक अभियान को गति दी थी।
क्लोरोफ्लोरोकार्बन के उपयोग के मामले में
मुख्य रूप से एयरोसोल स्प्रे, औद्योगिक विलायकों और शीतलक तरल पदार्थों
को दोषी माना गया और इस अभियान का केंद्रीय मुद्दा उन्हें हटाना था। क्लोरोफॉर्म
जैसे कुछ अन्य पदार्थ भी ओज़ोन परत को प्रभावित करते हैं,
लेकिन ये बहुत तेज़ी
से विघटित हो जाते हैं, इसलिए इन्हें संधि में शामिल नहीं किया गया था। यह संधि
काफी सफल रही और उम्मीद की गई थी कि अंटार्कटिक के ऊपर बन रहा ‘ओज़ोन छिद्र’ 2050
तक खत्म हो जाएगा।
एमआईटी,
कैलिफोर्निया और ब्रिस्टल
विश्वविद्यालयों, दक्षिण कोरिया के क्युंगपुक राष्ट्रीय विश्वविद्यालय, ऑस्ट्रेलिया
के दी क्लाइमेट साइंस सेंटर और एक्सेटर के दी मेट ऑफिस के वैज्ञानिकों
के एक समूह ने नेचर जियोसाइंस जर्नल में प्रकाशित शोध पत्र में बताया है कि
क्लोरोफॉर्म जैसे पदार्थों के स्तर में वृद्धि जारी है और इसके चलते ‘ओज़ोन छिद्र’ में
हो रहे सुधार की गति धीमी पड़ सकती है।
ओज़ोन का ह्रास
ओज़ोन गैस ऑक्सीजन का ही एक रूप है जो
वायुमंडल में काफी ऊंचाई पर बनती है। गैस की यह परत सूरज से आने वाली पराबैंगनी
किरणों को सोखकर पृथ्वी की रक्षा करती है। ऑक्सीजन के परमाणु में बाहरी इलेक्ट्रॉन
शेल अधूरा होता है जिसकी वजह से ऑक्सीजन का परमाणु अन्य परमाणुओं के साथ संयोजन
करता है। ऑक्सीजन का अणु दो ऑक्सीजन परमाणुओं से मिलकर बनता है। ये दो परमाणु
बाहरी शेल के इलेक्ट्रॉनों को साझा करके एक स्थिर इकाई बनाते हैं। वायुमंडल की
ऊपरी परतों में पराबैंगनी प्रकाश के ऊर्जावान फोटोन ऑक्सीजन अणुओं को घटक परमाणुओं
में विभक्त कर देते हैं। एक अकेला परमाणु उच्च ऊर्जा स्तर पर होता है और स्थिरता
के लिए उसे बंधन बनाने की आवश्यकता होती है। वे अन्य ऑक्सीजन अणुओं के साथ बंधन
बनाकर ऑक्सीजन के तीन परमाणुओं वाला ओज़ोन का अणु बनाते हैं। ओज़ोन अणु फिर
पराबैंगनी प्रकाश को अवशोषित करते हैं और एक ‘अकेला’
ऑक्सीजन परमाणु मुक्त
करते हैं, जो फिर से ऑक्सीजन अणुओं के साथ गठबंधन करके ओज़ोन बनाते
हैं। और यह प्रक्रिया ऐसे ही चलती रहती है। यह चक्र तब तक चलता रहता है जब तक
अकेले परमाणुओं की संख्या कम नहीं हो जाती। ऐसा तब होता है, जब
दो अकेले परमाणु ऑक्सीजन का अणु बना लेते हैं।
इस प्रकार से ओज़ोन निर्माण और विघटन की एक
प्रक्रिया चलती है। यह शुरू होती है पराबैंगनी प्रकाश द्वारा ऑक्सीजन अणुओं के
विभाजन के साथ। इस क्रिया में उत्पन्न अकेले ऑक्सीजन परमाणु ऑक्सीजन के अणुओं के
साथ गठबंधन करके ओज़ोन का निर्माण करते हैं। ओज़ोन में से एक बार फिर ऑक्सीजन
परमाणु मुक्त होते हैं और ये ऑक्सीजन परमाणु आपस में जुड़कर ऑक्सीजन बना लेते हैं।
इस तरह वायुमंडल में ऊंचाई पर ओज़ोन की मात्रा का एक संतुलन बना रहता है। यह ओज़ोन
पराबैंगनी विकिरण को अवशोषित करके और उसे पृथ्वी की सतह तक पहुंचने से दूर रखने की
प्रक्रिया जारी रखती है। सतह पर पराबैंगनी विकिरण जितना कम होगा उतना मनुष्यों और
अन्य जंतुओं के लिए बेहतर है।
लेकिन ओज़ोन की इस संतुलित सुकूनदायक
स्थिति में परिवर्तन तब आता है जब ओज़ोन को ऑक्सीजन में तोड़ने वाले पदार्थ ऊपरी
वायुमंडल में पहुंच जाते हैं। इनमें से सबसे प्रमुख हैं पानी के अणु का ऋणावेशित OH हिस्सा,
नाइट्रिक ऑक्साइड का NO हिस्सा,
मुक्त क्लोरीन या ब्रोमीन
परमाणु। ये पदार्थ ओज़ोन से अतिरिक्त ऑक्सीजन परमाणुओं को खींचने में सक्षम होते
हैं और फिर ये ऑक्सीजन परमाणुओं को अन्य यौगिक बनाने के लिए छोड़ते हैं। इसके बाद
ये पदार्थ अन्य ओज़ोन अणुओं से ऑक्सीजन परमाणुओं को खींचते हैं और लंबे समय तक ऐसा
करते रहते हैं। ऊंचाई पर इनमें से सबसे अधिक महत्वपूर्ण क्लोरीन है और एक क्लोरीन
परमाणु 1,00,000 ओज़ोन अणुओं के साथ प्रतिक्रिया करते हुए दो साल तक सक्रिय रहता
है।
ओज़ोन का विघटन करने वाले पदार्थों को
वायुमंडल में भेजने वाली प्राकृतिक प्रक्रियाएं बहुत कम हैं। लेकिन फिर भी 1970 के दशक के बाद
से ऊंचाइयों पर ओज़ोन परत में गंभीर क्षति देखी गई है। इसका कारण विभिन्न क्लोरोफ्लोरोकार्बन
यौगिकों का वायुमंडल में छोड़ा जाना पहचाना गया था जिनका उपयोग उस समय उद्योगों
में बढ़ने लगा था। ये यौगिक वाष्पशील होते हैं और वायुमंडल की ऊंचाइयों तक पहुंच
जाते हैं और क्लोरीन के एकल परमाणु मुक्त करते हैं। ये क्लोरीन परमाणु ओज़ोन परत
पर कहर बरपाते हैं।
पराबैंगनी विकिरण को सोखने वाली ओज़ोन परत
हज़ारों सालों से ही मौजूद रही है और जीवन का विकास ओज़ोन की मौजूदगी में ही हुआ
है। हो सकता है कि थोड़ा पराबैंगनी विकिरण जीवन की उत्पत्ति के लिए एक पूर्व शर्त
रहा हो। लेकिन अब ओज़ोन की कमी और पराबैंगनी विकिरण में वृद्धि के गंभीर स्वास्थ्य
सम्बंधी प्रभाव हैं जिसका एक उदहारण त्वचा कैंसर की घटनाओं में वृद्धि में देखा जा
सकता है। अंटार्कटिक के ऊपर के वायुमंडल में ओज़ोन में भारी कमी यानी ‘ओज़ोन छिद्र’ का
पता लगने के परिणामस्वरूप मॉन्ट्रियल संधि अस्तित्व में आई और यह अनुमान लगाया गया
कि सीएफसी उपयोग पर रोक लगाई जाए तो 2030 तक त्वचा कैंसर के 20 लाख मामलों को रोका
जा सकेगा।
रुझान पलटा
जैसा कि हमने बताया, सीएफसी
को ओज़ोन क्षति का मुख्य कारण माना गया था और इसलिए संधि में क्लोरोफॉर्म जैसे
अन्य कारणों पर ध्यान नहीं दिया गया। ऐसा माना गया था कि वे ‘अत्यंत अल्पजीवी
पदार्थ’ (या वीएसएलएस) हैं और यह भी माना गया था कि ये मुख्य रूप से
प्राकृतिक स्रोतों से उत्पन्न होते हैं। फिर भी,
नेचर जियोसाइंस में प्रकाशित शोध पत्र के अनुसार निचले
समताप मंडल में वीएसएलएस का स्तर बढ़ता जा रहा है। अध्ययन के अनुसार दक्षिण ध्रुव
के वायुमंडल में क्लोरोफॉर्म का स्तर 1920 में 3.7 खरबवां हिस्सा था जो
बढ़ते-बढ़ते 1990 में 6.5 खरबवें हिस्से तक पहुंचा और फिर इसमें गिरावट देखने को
मिली। इसी अवधि में उत्तर घ्रुव के वायुमंडल में क्लोरोफॉर्म 5.7 खरबवें भाग से
बढ़कर 17 खरबवें भाग तक बढ़ने के बाद इसमें कमी आई। गिरावट का यह रुझान 2010 तक
अलग-अलग अवलोकन स्टेशनों पर जारी रहा। लेकिन एक बार फिर यह बढ़ना शुरू हो गया।
2015 तक के आकड़ों के अनुसार यह वृद्धि मुख्य रूप से उत्तरी गोलार्ध में हुई है।
शोध पत्र के अनुसार इससे पता चलता है कि वायुमंडल में प्रवेश करने वाले
क्लोरोफॉर्म का मुख्य स्रोत उत्तरी गोलार्ध में है।
ऑस्ट्रेलिया,
उत्तरी अमेरिका और
युरोप के पश्चिमी तट के स्टेशनों के अनुसार 2007-2015 के दौरान निकटवर्ती स्रोतों
से उत्सर्जन के कारण क्लोरोफॉर्म स्तर में वृद्धि अधिक नहीं थी। दूसरी ओर, 2010-2015
के दौरान जापान और दक्षिण कोरिया के स्टेशनों पर काफी वृद्धि दर्ज की गई थी।
इस परिदृश्य का आकलन करने के लिए, शोधकर्ताओं
ने संभावित स्रोतों से प्रेक्षण स्थलों तक क्लोरोफॉर्म के स्थानांतरण का पता करने
के लिए मॉडल का उपयोग किया। इस अध्ययन से पता चला कि 2010 के बाद से पूर्वी चीन से
उत्सर्जन में तेज़ी से वृद्धि हुई है, जबकि जापान और दक्षिण कोरिया दूसरे स्थान
पर हैं। अन्य पूर्वी एशियाई देशों से कोई महत्वपूर्ण वृद्धि देखने को नहीं मिली
है। चीन में वृद्धि ऐसे क्षेत्रों में है जहां घनी आबादी के साथ-साथ औद्योगीकरण के
कारण क्लोरोफॉर्म गैस का उत्सर्जन करने वाले कारखाने हैं। शोध पत्र में यह स्पष्ट
किया गया है कि हवा में क्लोरोफॉर्म का एक बड़ा हिस्सा उद्योगों से आता है और
क्लोरोफॉर्म के स्तर में वृद्धि मानव निर्मित है।
शोध पत्र के अनुसार क्लोरोफॉर्म जैसे अत्यंत अल्पजीवी पदार्थों में वृद्धि का वर्तमान स्तर, ओज़ोन छिद्र के सुधार में कई वर्षों की देरी कर सकता है। नेचर जियोसाइंस में जर्मनी के जियोमर हेल्महोल्ट्ज़ सेंटर फॉर ओशन रिसर्च के सुसैन टेग्टमीयर ने टिप्पणी की है कि “यह निष्कर्ष मानव-जनित अत्यंत अल्पजीवी पदार्थों के उत्सर्जन का नियमन करने की चर्चा को शुरू करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है।” (स्रोत फीचर्स) नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://encrypted-tbn0.gstatic.com/images?q=tbn:ANd9GcT1A04DCJmP6kOc5_bcYPPdVJzfc_C5Xge8fs1sEeGZ-Ge7TUHh
कई देशों में आजकल लकड़ी से बनी चीज़ों पर इस बात का प्रमाण
अंकित किया जाता है कि वह लकड़ी ऐसे जंगल से प्राप्त हुई है जिसका प्रबंधन टिकाऊ
ढंग से किया जा रहा है। इस तरह का प्रमाणन जर्मनी में फॉरेस्ट स्टुआर्डशिप कौंसिल
(एफएससी) करती है तो स्विटज़रलैंड में प्रोग्राम फॉर दी एंडोर्समेंट ऑफ फॉरेस्ट
सर्टिफिकेशन (पीईएफसी) द्वारा किया जाता है। इस प्रमाणीकरण से पूर्व जंगल से
सम्बंधित कई सारे पर्यावरणीय, सामाजिक और आर्थिक मुद्दों को परखा जाता
है। इन दो संस्थाओं ने मिलकर आज तक 44 करोड़ हैक्टर जंगल को टिकाऊ रूप से प्रबंधित
जंगल का प्रमाण पत्र दिया है। इस वर्ष भारत में ऐसी एक व्यवस्था को अंतिम रूप दिया
गया है और पीईएफसी ने इसका अनुमोदन कर दिया है।
प्रमाणन की एक शर्त यह है कि प्रमाणित वन
में जेनेटिक रूप से परिवर्तित (जीएम) पेड़ नहीं होने चाहिए। संस्थाओं के अनुसार यह
शर्त इस आधार पर लगाई गई थी कि ऐसे पेड़ों के कारण पर्यावरणीय जोखिम अनिश्चित है।
एफएससी के निदेशक स्टीफन साल्वेडोर का कहना है कि यह प्रतिबंध जेनेटिक इंजीयरिंग
टेक्नॉलॉजी के प्रति गहरी आशंकाओं का भी द्योतक है।
वैज्ञानिकों का कहना है कि टिकाऊ प्रबंधन
का प्रमाण पत्र प्राप्त जंगलों में जीएम पेड़ लगाने की अनुमति न देने का मतलब है
कि आप नई टेक्नॉलॉजी से हासिल हुए रोग-प्रतिरोधी वृक्षों को अनुमति नहीं दे रहे
हैं। वैज्ञानिकों ने उक्त दो संस्थाओं को लिखे अपने पत्र में साफ किया है कि जीएम
वृक्ष पर्यावरण की दृष्टि से उतने ही निरापद हैं जितने सामान्य संकर पेड़ होते
हैं। और वे कई रोगों से लड़ने की क्षमता से भी लैस होते हैं। एक उदाहरण के रूप में
वैज्ञानिकों ने बताया है कि एक रोग के कारण अमेरिकन चेस्टनट (शाहबलूत) का लगभग
सफाया हो गया था। अब इस पेड़ में जेनेटिक इंजीनियरिंग की मदद से ऐसे परिवर्तन किए
गए हैं कि यह रोग प्रतिरोधी हो गया है। वैज्ञानिकों ने अपील की है कि प्रमाणित
वनों में जीएम वृक्ष लगाने की अनुमति दी जाए। उनके मुताबिक प्रतिबंध के कारण शोध
कार्य में दिक्कत आती है।
पीईएफसी के प्रवक्ता का कहना है कि प्रमाणन की शर्तों को हर पांच साल में संशोधित किया जाता है। अगला संशोधन 2023 में होगा। तब शर्तों में परिवर्तन के हिमायती संशोधन प्रक्रिया में भाग ले सकते हैं। (स्रोत फीचर्स)
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देश के महानगरों और शहरों में जिस तेज़ी से वायु प्रदूषण बढ़
रहा है,
उसमें सबसे ज्यादा योगदान वाहनों से होने वाले प्रदूषण का
है। इस मुद्दे पर वर्षों से चिंता जताई जा रही है, लेकिन
ठोस परिणाम देखने में नहीं आ रहे हैं। वहीं देश में दो-पहिया और चार-पहिया वाहनों
की संख्या तेज़ी से बढ़ती जा रही है और रोज़ाना लाखों नए वाहन पंजीकृत हो रहे हैं। आज
देश में पेट्रोल और डीज़ल से चलने वाले करोड़ों वाहन हैं, और
इनसे निकलने वाला काला धुआं कार्बन उत्सर्जन का बड़ा कारण है।
पेरिस समझौते के प्रति अपनी प्रतिबद्धता के चलते भारत सरकार ने सन 2030 तक
बिजली से चलने वाले वाहनों को बढ़ावा देने के लिए एक वृहद योजना तैयार की है।
उम्मीद की जा रही है कि पूरे देश में विद्युत वाहनों का उपयोग बढ़ने से बिजली
क्षेत्र में बड़ा बदलाव आएगा और उत्सर्जन में 40 से 50 प्रतिशत की कमी आएगी। इससे देश
में कार्बन उत्सर्जन के लक्ष्य को हासिल करने में मदद मिलेगी।
इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए केंद्रीय मंत्रिमंडल ने नीति आयोग की अगुवाई
में विद्युत गतिशीलता के मिशन को मंज़ूरी दी है। ध्यान रहे कि विद्युत गतिशीलता को
सार्वजनिक परिवहन से जोड़ने के लिए केंद्र सरकार ने 2015 में हाइब्रिाड (बिजली और
र्इंधन दोनों से चलने वाले) और इलेक्ट्रिक वाहनों को तेज़ी से अपनाने और उनके
निर्माण की नीति शुरू की थी – फास्टर एडॉप्शन एंड मैन्युफैक्चरिंग ऑफ हायब्रिाड
एंड इलेक्ट्रिक वेहिकल्स (एफएएमई)। इसका पुनरीक्षण किया जा रहा है। इसके तहत नीति
आयोग ने बिजली से चलने वाले वाहनों की ज़रूरत, उनके
निर्माण और इससे सम्बंधित ज़रूरी नीतियां बनाने की शुरुआत की है।
दरअसल,
भारत विद्युत वाहनों के लिए दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा बाज़ार
है। भारत में इस वक्त लगभग 4 लाख इलेक्ट्रिक दो-पहिया वाहन और 1 लाख ई-रिक्शा हैं, कारें तो हज़ारों की संख्या में ही हैं। सोसाइटी ऑफ मैन्युफैक्चरर्स ऑफ
इलेक्ट्रिक वेहिकल्स (एसएमईवी) के अनुसार, भारत
में 2017 में बेचे गए आंतरिक दहन इंजन वाहनों में से एक लाख से भी कम बिजली से
चलने वाले वाहन थे। इनमें से 93 प्रतिशत से अधिक इलेक्ट्रिक तीन-पहिया वाहन और 6
प्रतिशत दो-पहिया वाहन थे।
भारत भले ही इलेक्ट्रिक कारों में दूसरे देशों से पीछे हो, लेकिन बैटरी से चलने वाले ई-रिक्शा की बदौलत भारत ने चीन को पीछे छोड़ दिया है।
रिपोर्ट्स के मुताबिक मौजूदा समय में भारत में करीब 15 लाख ई-रिक्शा चल रहे हैं।
कंसÏल्टग फर्म ए.टी. कर्नी की एक
की रिपोर्ट में बताया गया है कि हर महीने भारत में करीब 11,000 नए ई-रिक्शा सड़कों
पर उतारे जा रहे हैं। भारत में अभी इलेक्ट्रिक गाड़ियों को चार्ज करने के लिए कुल
425 पॉइंट बनाए गए हैं। सरकार 2022 तक इन प्वाइंट्स को 2800 करने वाली है।
गौरतलब है कि देश में बड़े पैमाने पर इलेक्ट्रिक वाहनों के उपयोग से बिजली की
मांग भी बढ़ रही है। उद्योग मंडल एसोचैम और अन्स्र्ट एंड यंग एलएलपी के संयुक्त
अध्ययन में कहा गया है कि सन 2030 तक इलेक्ट्रिक वाहनों के उपयोग से बिजली की मांग
69.6 अरब युनिट तक पहुंचने का अनुमान है।
आलोचकों का तर्क यह भी है कि भारत में 90 प्रतिशत बिजली का उत्पादन कोयले से
होता है। ऐसे में इलेक्ट्रिक कारों से प्रदूषण कम करने की बात बेमानी लगती है।
नॉर्वे के विज्ञान और प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय की ओर से कराए गए एक शोध के
मुताबिक बिजली से चलने वाले वाहन पेट्रोल और डीज़ल से चलने वाले वाहनों से कहीं
ज्यादा प्रदूषण के लिए ज़िम्मेदार हो सकते हैं। अध्ययन में कहा गया है कि यदि बिजली
उत्पादन के लिए कोयले का इस्तेमाल होता है तो इससे निकलने वाली ग्रीन हाउस गैसें
डीज़ल और पेट्रोल वाहनों की तुलना में कहीं ज़्यादा प्रदूषण फैलाती हैं। यही नहीं, जिन फैक्ट्रियों में बिजली से चलने वाली कारें बनती हैं वहां भी तुलनात्मक रूप
में ज़्यादा विषैली गैसें निकलती हैं। हालांकि शोधकर्ताओं का कहना है कि इन खामियों
के बावजूद कई मायनों में ये कारें फिर भी बेहतर हैं। लेकिन रिपोर्ट में कहा गया है
कि ये कारें उन देशों के लिए फायदेमंद हैं जहां बिजली का उत्पादन अन्य स्रोतों से
होता है।
अपने देश में इलेक्ट्रिक वाहन चलाने के लिए पर्याप्त बिजली मिल सके, अभी इस पर काम किया जाना है। उसके लिए बुनियादी सुविधाओं, संसाधनों और बजट का प्रावधान किया जाना है। वाहन निर्माता कंपनियों का कहना है कि अगर सरकार बैटरी निर्माण और चार्जिंग स्टेशनों की समस्या का समाधान कर दे तो बिजली चालित वाहन बड़ी तादाद में उतारे जा सकते हैं। ज़ाहिर है, बुनियादी सुविधाओं का बंदोबस्त सरकार को करना है और इसके लिए ठोस दीर्घावधि नीति की ज़रूरत है। (स्रोत फीचर्स)
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अंग प्रत्यारोपण के लिए अंगों का इंतज़ार करने वालों की कतार
बढ़ती ही जा रही है। इस समस्या से निपटने के लिए कुछ कंपनियां कोशिश कर रही हैं कि
सूअरों को जेनेटिक इंजीनियरिंग के ज़रिए इस तरह बदल दिया जाए उनके अंग मनुष्यों के
काम आ सकें। अलबत्ता, कुछ वैज्ञानिक एक सर्वथा नए तरीके पर
प्रयोग कर रहे हैं।
वैसे यह विचार तकनीकी रूप से अत्यंत कठिन है और नैतिकता के सवालों से घिरा हुआ
है लेकिन फिर भी वैज्ञानिक यह कोशिश कर रहे हैं कि एक प्रजाति की स्टेम कोशिकाएं
किसी दूसरी प्रजाति के भ्रूण में पनप सकें, फल-फूल
सकें। हाल ही में यूएस के एक समूह ने रिपोर्ट किया था कि उन्हें चिम्पैंज़ी की
स्टेम कोशिकाओं को बंदर के भ्रूण में पनपाने में सफलता मिली है। और तो और, जापान में नियम-कायदों में मिली छूट के चलते कुछ शोधकर्ताओं ने अनुमति चाही है
कि मानव स्टेम कोशिकाओं को चूहों जैसे कृंतक जीवों और सूअरों में पनपाएं। कई
शोधकर्ताओं का मत है कि चिम्पैंज़ी-बंदर शिमेरा का निर्माण करना अंग प्रत्यारोपण के
लिए अंगों की उपलब्धता बढ़ाने की दिशा में एक कदम है। गौरतलब है कि शिमेरा उन
जंतुओं को कहते हैं जिनमें एक जीव के शरीर में दूसरे की कोशिकाएं मौजूद होती हैं।
अंतत: विचार यह है कि किसी व्यक्ति की कोशिकाओं को उनके विकास की शुरुआती
अवस्था में लाया जाए, जो लगभग किसी भी ऊतक में विकसित हो सकती
हैं। इन कोशिकाओं (जिन्हें बहु-सक्षम स्टेम कोशिकाएं कहते हैं) को किसी अन्य
प्रजाति के भ्रूण में रोप दिया जाएगा और उस भ्रूण को किसी अन्य जीव की कोख में
विकसित होने दिया जाएगा। इस भ्रूण के अंग बाद में प्रत्यारोपण के लिए तैयार
मिलेंगे। सबसे अच्छा तो यही होगा कि जिस व्यक्ति को अंग लगाया जाना है उसी की
स्टेम कोशिकाओं का उपयोग किया जाए।
फिलहाल यह शोध मात्र कृंतक जीवों पर किया गया है। वर्ष 2010 में टोक्यो विश्वविद्यालय के हिरोमित्सु नाकाउची के दल ने रिपोर्ट किया था कि वे एक चूहे के पैंक्रियास को एक माउस में विकसित करने में सफल रहे थे। इस पैंक्रियास को चूहे में प्रत्यारोपित करके उसे डायबिटीज़ से मुक्ति दिलाई गई थी। दूसरी ओर, 2017 में कोशिका जीव वैज्ञानिक जुन वू और उनके साथियों ने रिपोर्ट किया कि जब उन्होंने मानव स्टेम कोशिकाएं एक सूअर के भ्रूण में इंजेक्ट की तो आधे से ज़्यादा भ्रूण विकसित नहीं हो पाए थे किंतु जो भ्रूण विकसित हुए उनमें मानव कोशिकाएं जीवित थीं। वू यह देखने का भी प्रयास कर रहे हैं कि मानव स्टेम कोशिकाएं प्रयोगशाला में अन्य प्रायमेट जंतुओं की स्टेम कोशिकाओं के साथ पनप पाती हैं या नहीं। ज़ाहिर है कि इन सारे प्रयोगों के साथ नैतिकता के सवाल जुड़े हैं। (स्रोत फीचर्स)
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न्यूज़ीलैण्ड से मिले एक समाचार के मुताबिक पेड़ एक-दूसरे के साथ पोषण और पानी जैसे संसाधन मिल-बांटकर इस्तेमाल करते हैं। दरअसल, शोधकर्ताओं को न्यूज़ीलैण्ड के नॉर्थ आईलैण्ड के वाइटाकेरे जंगल में एक पेड़ का ठूंठ मिला। उन्हें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि उस ठूंठ में न तो कोई शाखा थी और न ही पत्तियां मगर वह जीवित था।
उपरोक्त कौरी पेड़ (Agathis australis) का
ठूंठ पारिस्थिकीविद सेबेस्टियन ल्यूज़िंगर और मार्टिन बाडेर की नज़रों में संयोगवश
ही आया था। वे देखना चाहते थे कि क्या यह ठूंठ आसपास के पड़ोसियों के दम पर ज़िन्दा
है। वैसे वैज्ञानिक बरसों से यह सोचते आए हैं कि कई पेड़ों के ठूंठ अपने पड़ोसियों
के दम पर ही बरसों तक जीवित बने रहते हैं मगर इस बात का कोई प्रमाण नहीं था।
शोधकर्ताओं के लिए यह उक्त विचार की जांच का अच्छा मौका था। एक बात तो
उन्होंने यह देखी कि इस ठूंठ में रस का प्रवाह हो रहा था जिसकी अपेक्षा आप किसी
मृत पेड़ में नहीं करते। जब उन्होंने उस ठूंठ और आसपास के पेड़ों में पानी के प्रवाह
का मापन किया तो पाया कि इनमें कुछ तालमेल है। इससे लगा कि संभवत: आसपास के पेड़ों
ने इस ठूंठ को जीवनरक्षक प्रमाणी पर रखा हुआ है। यह आश्चर्य की बात तो थी ही, मगर साथ ही इसने एक सवाल को जन्म दिया – आखिर आसपास के पेड़ ऐसा क्यों कर रहे
हैं?
यह ठूंठ तो अब उस जंगल की पारिस्थितिकी का हिस्सा नहीं है, कोई भूमिका नहीं निभाता है, तो पड़ोसियों को क्या पड़ी है कि
अपने संसाधन इसके साथ साझा करें। ल्यूज़िंगर के दल का ख्याल है कि इस ठूंठ का जड़-तंत्र
आसपास के पेड़ों के साथ जुड़ गया है। पेड़ों में ऐसा होता है, यह बात
तो पहले से पता थी। ऐसे जुड़े हुए जड़-तंत्र से पेड़ पानी व अन्य पोषक तत्वों का
लेन-देन कर सकते हैं और पूरे समुदाय को एक स्थिरता हासिल होती है।
जीवित पेड़ों के बीच इस तरह की साझेदारी से पूरे समुदाय को फायदा होता है मगर एक ठूंठ के साथ साझेदारी से क्या फायदा। शोधकर्ताओं का मत है कि इस ठूंठ का यह जुड़ाव उस समय बना होगा जब वह जीवित पेड़ था। पेड़ के मर जाने के बाद भी वह जुड़ाव कायम है और ठूंठ को पानी मिल रहा है। है ना जीवन बीमा का मामला – जीवन में भी, जीवन के बाद भी। iScience शोध पत्रिका में प्रकाशित इस अध्ययन से लगता है कि पेड़ों के बीच कहीं अधिक घनिष्ठ सम्बंध होते हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://upload.wikimedia.org/wikipedia/commons/5/5e/00_29_0496_Waipoua_Forest_NZ_-_Kauri_Baum_Tane_Mahuta.jpg
हाल वैश्विक पोलियो उन्मूलन के प्रयास थोड़े मुश्किल में फंसते
नज़र आ रहे हैं। इस मामले में बाधाएं दो मोर्चों पर आ रही हैं। आंकड़े बता रहे हैं
कि पाकिस्तान और अफगानिस्तान में पोलियो का वायरस अभी भी मौजूद है और वहां पोलियो
के प्रकरण सामने आ रहे हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन में पोलियो अनुसंधान के प्रभारी
रोलैण्ड सटर का कहना है कि फिलहाल जिस तरह से कामकाज चल रहा है, वह हमें मंज़िल तक नहीं पहुंचा पाएगा।
वैश्विक पोलियो उन्मूलन कार्यक्रम पर पिछले तीस वर्षों में 16 अरब डॉलर खर्च
हो चुके हैं। अधिकांश देशों से पोलियो का सफाया भी हो चुका है। किंतु पाकिस्तान और
अफगानिस्तान में 2018 की इसी अवधि के मुकाबले इस वर्ष चार गुना प्रकरण सामने आए
हैं। यह सही है कि पोलियो प्रकरणों की संख्या मात्र 51 है किंतु सोचने वाली बात यह
है कि पोलियो वायरस से संक्रमित 200 में से मात्र 1 व्यक्ति को ही लकवा होता है।
यानी वास्तविक संक्रमित व्यक्तियों की संख्या कहीं ज़्यादा है। इसका मतलब यह है कि
वायरस अभी भी विचर रहा है। और तो और, हाल ही में इरान में भी
इस वायरस को देखा गया है।
एक ओर तो कुदरती पोलियो वायरस खत्म होने का नाम नहीं ले रहा है, वहीं दूसरी ओर, टीके में उपयोग किए गए दुर्बलीकृत वायरस की
वजह से भी पोलियो के प्रकरण सामने आए हैं। खास तौर से अफ्रीका में टीका-जनित
पोलियो देखा जा रहा है।
लगता है कि अफ्रीका में कुदरती वायरस का तो सफाया हो चुका है लेकिन टीका-जनित वायरस का प्रवाह में बने रहना भी घातक साबित हो सकता है। दरअसल मुंह से पिलाए जाने वाले पोलियो के टीके में वायरस का दुर्बलीकृत रूप होता है। इस दुर्बलीकृत वायरस में जेनेटिक परिवर्तन की वजह से यह एक बार फिर से संक्रामक हो जाता है। पिछले वर्ष टीका-जनित वायरस की वजह से दुनिया भर में 105 बच्चे लकवाग्रस्त हुए थे जबकि कुदरती वायरस ने मात्र 31 बच्चों को प्रभावित किया था। टीका-जनित वायरस से निपटने के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन ने सुझाव दिया है कि जब कुदरती वायरस का सफाया हो जाए तो हमें मुंह से पिलाए जाने वाले टीके को छोड़कर इंजेक्शन की ओर बढ़ना होगा। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://res.cloudinary.com/devex/image/fetch/c_scale,f_auto,q_auto,w_720/https://lh4.googleusercontent.com/C9AtclGysh20hRtniBxMUOmZPvNQNlGVeRbdu72kXxicEcB_FgjoDgZCyz6x83BAb5v9K83jtxHpWa9m1u7bRZqJTxvoBiVgSRAcxfEykFWZj9naJ3_dGdJctN6wQ-l1QIBgbhs9
हाल ही की एक रिपोर्ट में असम के काज़ीरंगा नेशनल पार्क की एक
कुतिया के विलक्षण कौशल का वर्णन किया गया है। यह कुतिया सूंघकर बाघ और गैंडों के
शिकारियों की मौजूदगी भांप लेती है और इस बारे में वन अधिकारियों को आगाह कर देती
है। वन अधिकारियों ने इसे क्वार्मी नाम दिया है क्योंकि यह एक चौथाई सेना के बराबर
है। इसी तरह मध्यप्रदेश के जंगलों में निर्माण और मैना नाम के दो कुत्ते बाघ और
उसके शिकारियों की उपस्थिति सूंघ कर भांप लेते हैं।
कुत्ते भेड़िया कुल के सदस्य हैं। भेड़िए में तकरीबन 30 करोड़ गंध ग्राही होते
हैं जबकि मनुष्यों में सिर्फ 60 लाख। भेड़िए सूंघकर 3 किलोमीटर दूर से किसी की भी
मौजूदगी भांप सकते हैं। उनकी नज़र पैनी और श्रवण शक्ति तेज़ होती है, वे अपने शिकार की आहट 10 किलोमीटर दूर से ही सुन लेते हैं। सूंघने, देखने और सुनने की यह विलक्षण शक्ति कुत्तों को विरासत में मिली है। हम यह भी
जानते है कुत्ते सूंघकर मनुष्यों में मलेरिया, यहां
तक कि कैंसर की पहचान कर लेते हैं। और अच्छी बात तो यह है कि भेड़िए की तुलना में
कुत्ते ज़्यादा शांत होते हैं और हम उन्हें पाल सकते हैं।
यूके और यूएसए के शोधकर्ताओं की हालिया रिपोर्ट कुत्तों की एक और विशेषता के
बारे में बताती है: पालतू बनाए जाने के बाद कैसे समय के साथ कुत्ते के चेहरे की
मांसपेशियां विकसित होती गर्इं और उनमें हमारी तरह भौंह चढ़ाने की क्षमता दिखती है।
शोधकर्ता तर्क देते हैं कि उनकी इसी क्षमता के कारण मनुष्यों ने उनका पालन-पोषण
शुरु किया और कुत्ते हमारे अच्छे दोस्त बन गए हैं। (Kaminski et al.,
Evolution of facial muscle anatomy in dogs, PNAS,116: 14677-81,July 16, 2019)
कुत्तों को लगभग 33 हज़ार साल पहले
पालतू बनाया गया था। जैसे-जैसे वे हमारे पालतू होते गए हमने उन कुत्तों को चुनना
और प्राथमिकता देना शुरु कर दिया जो हमारे सम्बंधों के अनुरूप थे। और इस चयन का
आधार था कुत्तों द्वारा हमारे संप्रेषण को समझने और इस्तेमाल करने की क्षमता, जो अन्य जानवरों में नहीं थी। शोधकर्ता बताते हैं कि कुत्ते मनुष्य के करीबी
सम्बंधी चिम्पैंजी से भी ज़्यादा मानव संप्रेषण संकेतों (जैसे किसी दिशा में इंगित
करने या किसी चीज़ की तरफ देखने) का उपयोग अधिक कुशलता से करते हैं।
कुत्ते-मनुष्य के आपसी रिश्ते में आंख मिलाने का महत्वपूर्ण योगदान है। एक
जापानी शोध समूह के मुताबिक कुत्ते और मनुष्य का एक-दूसरे को एकटक देखना कुत्ते और
कुत्ते के मालिक दोनों में जैव-रासायनिक परिवर्तन शुरू करता है, वैसे ही जैसे मां और शिशु के बीच लगाव होता है। शोधकर्ताओं के अनुसार संभावित
वैकासिक परिदृश्य यह हो सकता है कि कुत्तों के पूर्वजों ने कुछ ऐसे लक्षण दर्शाए
होंगे जिनसे मनुष्यों में उनकी देखभाल करने की इच्छा पैदा होती होगी। मनुष्य ने
जाने-अनजाने इस व्यवहार को बढ़ावा दिया होगा और चुना होगा जिसके चलते आज कुत्तों
में समरूपी लक्षण दिखते हैं।
इस पूरी प्रक्रिया में आंखों के बीच सम्पर्क और एकटक देखने का महत्वपूर्ण
योगदान है। कुत्ते के मालिक कुत्तों की टकटकी को बखूबी पहचानते हैं – वे कभी-कभी
इतनी दुखी निगाहों से देखते हैं कि मालिक उन्हें गले लगाना चाहेंगे, और कभी-कभी इतनी परेशान करने वाली निगाहों से देखेंगे कि आप उन्हें सज़ा देना
चाहेंगे।
इसी संदर्भ में यूके-यूएसए के शोधकर्ता यह समझना चाहते थे कि कैसे कुत्तों के
चेहरे की मांसपेशियां और शरीर रचना मनुष्य द्वारा चयन के ज़रिए इस तरह विकसित हुई
कि उसने मनुष्य-कुत्ते के आंखों के सम्पर्क और ऐसी टकटकी में व्यक्त भाषा में
योगदान दिया। हम मनुष्य उन कुत्तों को सराहते हैं जिनकी रचना और हावभाव शिशुओं
जैसे होते हैं। जैसे बड़ा माथा, बड़ी-बड़ी आंखें। शोधकर्ताओं ने
यह भी बताया कि कुत्तों के चेहरे की कुछ खास पेशियां भौंहे ऊपर-नीचे करने में मदद
करती हैं,
जो मनुष्यों को लुभाता है।
क्या मनुष्य द्वारा पालतू बनाए जाने के दौरान कुत्तों के चेहरे की पेशियों का
विकास इस तरह हुआ है जिससे मनुष्य-कुत्ते के बीच आपसी संवाद सुगम हो जाता है? इस बात का पता लगाने के लिए शोधकर्ताओं ने तफसील से घरेलू, पालतू कुत्तों और धूसर भेड़ियों के चेहरे की रचना तुलना की। उन्होंने पाया कि
कुत्तों के समान भेड़िए अपनी भौंह के अंदर वाले हिस्से को नहीं हिला पाते। इसके
अलावा कुत्तों में एक ऐसी पेशी होती हैं जिसकी मदद से वे पलकों को कान की ओर ले जा
सकते हैं जबकि भेड़िए ऐसा नहीं कर पाते। कुत्ते अपनी भौंहों को लगातार कई बार हिला
सकते और उनकी भौंहों की यह हरकत अभिव्यक्ति पूर्ण होती है। इसे लोग ‘पपी डॉग’ हरकत
कहते हैं यानी दुखी होना, खुशी ज़ाहिर करना, बे-परवाही जताना, या शिशुओं जैसे अन्य व्यवहार करना। और
कुत्तों की यह पपी डॉग हरकत मनुष्यों द्वारा कुत्तों पर चयन के दबाव के चलते आई
है।
ज़रूरी नहीं कि बेहतरीन कुत्ता प्यारा या सुंदर हो। बेहतरीन कुत्ता तो वह होता
है जो आपकी ओर देखे और आप उसका जवाब दें। यह नज़र आपसी लगाव की द्योतक होती है।
कुछ दिनों पहले कैलिफोर्निया में ‘दुनिया का सबसे बदसूरत कुत्ता’ वार्षिक प्रतियोगिता सम्पन्न हुई। इस प्रतियोगिता का विजेता स्केम्प दी ट्रेम्प नाम का कुत्ता है, जिसकी बटन जैसी आंखे हैं, दांत नदारद, और ठूंठ जैसे छोटे-छोटे पैर हैं। लेकिन उसकी मालकिन मिस यिवोन मॉरोन को उस पर फख्र है। बात सिर्फ यह नहीं है कि आपका कुत्ता कैसा दिखता है, बल्कि कुत्ता अपने मालिक को पपी छवि दिखाता है और मालिक उसे कैसे देखती है। सुंदरता तो देखने वाले की आंखों में होती है। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है। Photo Credit : https://th.thgim.com/sci-tech/science/rajkal/article28808054.ece/alternates/FREE_660/04TH-SCIKIDS
शोध पत्रिका सेल होस्ट एंड माइक्रोब में प्रकाशित एक शोध पत्र में हुआंग-जे ज़ांग व उनके साथियों ने अदरख के औषधीय गुणों का आधार स्पष्ट किया है। इससे पहले वे देख चुके थे कि चूहों में अदरख और ब्रोकली जैसे पौधों से प्राप्त कुछ एक्सोसोमनुमा नैनो कण (ELN) अल्कोहल की वजह से होने वाली लीवर की क्षति और कोलाइटिस जैसी तकलीफों की रोकथाम में मददगार होते हैं। हाल ही में जब उन्होंने अदरख से प्राप्त ELN का विश्लेषण किया तो पाया कि उनमें बहुत सारे सूक्ष्म आरएनए होते हैं। इस परिणाम ने उन्हें सोचने पर विवश कर दिया कि शायद आंतों के बैक्टीरिया इन सूक्ष्म आरएनए का भक्षण करेंगे और इसकी वजह से उनके जीन्स की अभिव्यक्ति पर असर पड़ेगा।
इसे जांचने के लिए शोधकर्ताओं ने अदरख से प्राप्त एक्सोसोमनुमा नैनो कणों (GELN) का असर कोलाइटिस पीड़ित चूहों पर करके देखा। पता चला कि GELN को ज़्यादातर लैक्टोबेसिलस ग्रहण करते हैं और इन कणों में उपस्थित आरएनए
बैक्टीरिया के जीन्स को उत्तेजित कर देते हैं। यह देखा गया कि खास तौर से
इन्टरल्यूकिन-22 के जीन की अभिव्यक्ति बढ़ जाती है। इन्टरल्य़ूकिन-22 ऊतकों की
मरम्मत में मदद करता है और सूक्ष्मजीवों के खिलाफ प्रतिरोध को बढ़ाता है। अंतत:
चूहे को कोलाइटिस से राहत मिलती है।
इसके बाद ज़ांग की टीम ने कुछ चूहों को शुद्ध GELN खिलाया। इन चूहों के आंतों के बैक्टीरिया संसार का विश्लेषण करने पर पता चला कि उनमें लाभदायक लैक्टोबेसिलस की संख्या काफी बढ़ी हुई थी। अब टीम ने कुछ चूहों में कोलाइटिस पैदा किया और उन्हें GELN खिलाया गया। ऐसा करने पर कोलाइटिस से राहत मिली। ज़ांग का कहना है कि इन प्रयोगों से स्पष्ट है कि पौधों से प्राप्त कख्र्ग़् आंतों में पल रहे सूक्ष्मजीव संघटन को बदल सकते हैं। यह फिलहाल किसी नुस्खे का आधार तो नहीं बन सकता किंतु आगे और अध्ययन की संभावना अवश्य दर्शाता है। (स्रोत फीचर्स)
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