चिकित्सा नोबेल पुरस्कार – डॉ. सुशील जोशी

इस वर्ष चिकित्सा/कार्यिकी का नोबेल पुरस्कार दो वैज्ञानिकों को संयुक्त रूप से दिया गया है। इन दोनों ने ही कैंसर के उपचार में शरीर के प्रतिरक्षा तंत्र के उपयोग का मार्ग प्रशस्त करने के लिए महत्वपूर्ण बुनियादी अनुसंधान किया है। अलबत्ता, कैंसर के उपचार में प्रतिरक्षा तंत्र की भूमिका को समझने के प्रयासों का इतिहास काफी पुराना है।

आम तौर पर कैंसर के उपचार में कीमोथेरपी, विकिरण और सर्जरी का सहारा लिया जाता है। इन सबकी अपनीअपनी समस्याएं है। उनमें न जाते हुए हम बात करेंगे कि हमारा प्रतिरक्षा तंत्र किस तरह से कैंसर का मुकाबला कर सकता है और जब कर सकता है, तो करता क्यों नहीं है। और नए अनुसंधान ने इसे कैसे संभव बनाया है।

यह बात काफी समय से पता रही है कि प्रतिरक्षा तंत्र कैंसर के नियंत्रण में कुछ भूमिका तो निभाता है। जैसे अट्ठारवीं सदी में ही यह समझ में आ गया था कि एकाध लाख मरीज़ों में से एक में कैंसर स्वत: समाप्त हो जाता है। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में दो जर्मन वैज्ञानिकों ने स्वतंत्र रूप से देखा कि कुछ मरीज़ों में एरिसिपेला बैक्टीरिया के संक्रमण के बाद उनका ट्यूमर सिकुड़ गया। इनमें से एक वैज्ञानिक ने 1868 में एक कैंसर मरीज़ को जानबूझकर एरिसिपेला से संक्रमित किया और पाया कि उसका ट्यूमर सिकुड़ने लगा। यह भी देखा गया कि कभीकभी तेज़ बुखार के बाद भी ट्यूमर दब जाता है। 1891 में विलियम कोली नाम के एक सर्जन ने लंबे समय के प्रयोगों के बाद बताया कि 1000 से ज़्यादा मरीज़ों में एरिसिपेला संक्रमण के बाद ट्यूमर सिकुड़ता है। इन सारे अवलोकनों के चलते मामला ज़ोर पकड़ने लगा। यह स्पष्ट होने लगा कि संक्रमण के कारण जब शरीर का प्रतिरक्षा तंत्र सामान्य से ज़्यादा सक्रिय होता है तो वह कैंसर कोशिकाओं को भी निशाना बनाता है।

मगर इस बीच कैंसर के उपचार के लिए कीमोथेरपी और विकिरण चिकित्सा का विकास हुआ और प्रतिरक्षा तंत्र की भूमिका की बात आईगई हो गई। मगर आगे चलकर विलियम कोली की बात सही साबित हुई। 1976 में वैज्ञानिकों की एक टीम ने मूत्राशय के कैंसर के मरीज़ों को बीसीजी की खुराक सीधे मूत्राशय में दी और उत्साहवर्धक परिणाम प्राप्त हुए। इससे पहले चूहों में बीसीजी टीके का कैंसररोधी असर दर्शाया जा चुका था। बीसीजी का पूरा नाम बैसिलस काल्मेटगुएरिन है और इसे टीबी के बैक्टीरिया को दुर्बल करके बनाया जाता है। आज यह मूत्राशय कैंसर के उपचार की जानीमानी पद्धति है।

यह तो स्पष्ट हो गया कि प्रतिरक्षा तंत्र (कम से कम) कुछ कैंसर गठानों का सफाया कर सकता है। लेकिन आम तौर पर कैंसर इस तंत्र से बच निकलता है और अनियंत्रित वृद्धि करता रहता है। सवाल है कि ऐसा क्यों है।

प्रतिरक्षा तंत्र कई घटकों से मिलकर बना होता है। इसमें से एक हिस्सा जन्मजात होता है और उसे बाहरी चीज़ों से लड़ने के लिए किसी प्रशिक्षण की ज़रूरत नहीं होती। दूसरा हिस्सा वह होता है जो किसी बाहरी चीज़ के संपर्क में आने पर उसे पहचानना और नष्ट करना सीखता है और इसे याद रखता है। आम तौर पर बाहर से आए किसी जीवाणु वगैरह पर कुछ पहचान चिंह (एंटीजन) होते हैं जो प्रतिरक्षा तंत्र को यह समझने में मददगार होते हैं कि वह अपना नहीं बल्कि पराया है।

अब कैंसर कोशिकाओं को देखें। यह तो सही है कि कैंसर कोशिकाओं के डीएनए में कई उत्परिवर्तन यानी म्यूटेशंस के कारण उनकी पहचान थोड़ी अलग हो जाती है, उनकी सतह पर विशेष पहचान चिंह होते हैं और प्रतिरक्षा कोशिकाएं उन्हें पहचान सकती हैं। किंतु कैंसर कोशिकाएं एक बात का फायदा उठाती हैं।

हमारी प्रतिरक्षा तंत्र की कोशिकाओं को कोई शत्रु नज़र आए तो वे उसे मारने के साथसाथ स्वयं की संख्या बढ़ाने लगती हैं। समस्या यह आती है कि यदि यह संख्या बहुत अधिक बढ़ जाए तो हमारे शरीर की शामत आ जाती है क्योंकि ये कोशिकाएं सामान्य कोशिकाओं पर भी हल्ला बोल सकती हैं। ऐसा होने पर कई बीमारियां पनपती हैं जिन्हें स्वप्रतिरक्षा रोग या ऑटोइम्यून रोग कहते हैं। इसलिए प्रतिरक्षा कोशिकाओं की सतह पर कुछ स्विच होते हैं। हमारी सामान्य कोशिकाएं इन स्विच की मदद से इन्हें काम करने से रोकती हैं। कैंसर कोशिकाएं इन्हीं स्विच का उपयोग करके प्रतिरक्षा कोशिकाओं को काम करने से रोक देती हैं। ऐसी स्थिति में होता यह है कि कैंसर कोशिकाएं तो बेलगाम ढंग से संख्यावृद्धि करती रहती हैं किंतु प्रतिरक्षा कोशिकाओं की संख्या नहीं बढ़ती।

जिस खोज के लिए इस साल का नोबेल पुरस्कार मिला है उसका सम्बंध इन्हीं स्विच से है जो एक तरह से ब्रोक का काम करते हैं। टेक्सास विश्वविद्यालय के ह्रूस्टन स्थित एम.डी. एंडरसन कैंसर सेंटर के जेम्स एलिसन और क्योटो विश्वविद्यालय के तसाकु होन्जो ने अलगअलग काम करते हुए दो ऐसे स्विच खोज निकाले हैं जो प्रतिरक्षा तंत्र पर ब्रोक का काम करते हैं। एक स्विच का नाम है सायटोटॉक्सिक टीलिम्फोसाइट एंटीजन-4 (सीटीएलए-4) तथा दूसरे का नाम है प्रोग्राम्ड सेल डेथ 1 (पीडी-1)। शोधकर्ताओं ने इन ब्रोक को नाकाम करके प्रतिरक्षा तंत्र की कोशिकाओं को सक्रिय करने में सफलता प्राप्त की है और दोनों के ही आधार पर औषधियां बनाई जा चुकी हैं। हालांकि अभी प्रतिरक्षा तंत्र के ब्रोक्स को हटाकर कैंसर से लड़ाई में सफलता कुछ ही किस्म के कैंसर में मिली है किंतु पूरी उम्मीद है कि जल्दी ही यह एक कारगर विधि साबित होगी।

लेकिन कैंसर कोशिकाओं के पास बचाव के और भी तरीके हैं। इसलिए प्रतिरक्षा तंत्र पर आधारित कैंसर उपचार की चुनौतियां समाप्त नहीं हुई हैं। जैसे कैंसर कोशिकाएं एक और हथकंडा अपनाती हैं। वे अपने आसपास सामान्य कोशिकाओं का एक सूक्ष्म पर्यावरण बना लेती हैं। दूसरे शब्दों में कैंसर कोशिका सामान्य कोशिकाओं के बीच में छिपी बैठी रहती है और प्रतिरक्षा तंत्र की कोशिकाएं वहां तक पहुंच नहीं पाती। शोधकर्ता कोशिश कर रहे हैं कि इन कोशिकाओं को उजागर करें ताकि प्रतिरक्षा तंत्र इन्हें नष्ट कर पाए।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://akm-img-a-in.tosshub.com/indiatoday/images/story/201810/Tasuku_Honjo_647__1_.jpeg?Ty_5LNhj9U.cD0TNJagV_cCYHnEDIQ8_

खरपतवारनाशी – सुरक्षित या हानिकारक

ग्लायफोसेट, दुनिया में सबसे अधिक इस्तेमाल किया जाने वाला खरपतवारनाशी यानी हर्बीसाइड है। ऐसा बताया गया था कि यह जंतुओं के लिए हानिकारक नहीं है। लेकिन शायद यह मधुमक्खियों के लिए घातक साबित हो रहा है। यह रसायन मधुमक्खियों के पाचन तंत्र में सूक्ष्मजीव संसार को तहस-नहस करता है, जिसके चलते वे संक्रमण के प्रति अधिक संवेदनशील हो जाती हैं। इस खोज के बाद दुनिया में मधुमक्खियों की संख्या में गिरावट की आशंका और भी प्रबल हो गई है।

ग्लायफोसेट कई महत्वपूर्ण एमिनो अम्लों को बनाने वाले एंज़ाइम की क्रिया को रोककर पौधों को मारता है। जंतु तो इस एंज़ाइम का उत्पादन नहीं करते हैं, लेकिन कुछ बैक्टीरिया द्वारा अवश्य किया जाता है।

टेक्सास विश्वविद्यालय की एक जीव विज्ञानी नैंसी मोरन ने अपने सहकर्मियों के साथ एक छत्ते से लगभग 2000 मधुमक्खियां लीं। कुछ को चीनी का शरबत दिया और अन्य को चीनी के शरबत में मिलाकर ग्लायफोसेट की खुराक दी गई। ग्लायफोसेट की मात्रा उतनी ही थी जितनी उन्हें पर्यावरण से मिल रही होगी। तीन दिन बाद देखा गया कि ग्लायफोसेट का सेवन करने वाली मधुमक्खियों की आंत में स्नोडग्रेसेला एल्वी नामक बैक्टीरिया की संख्या कम थी। लेकिन कुछ परिणाम भ्रामक थे। ग्लायफोसेट का कम सेवन करने वाली मक्खियों की तुलना में जिन मधुमक्खियों ने अधिक का सेवन किया था उनमें 3 दिन के बाद अधिक सामान्य दिखने वाले सूक्ष्मजीव संसार पाए गए। शोधकर्ताओं को लगता है कि शायद बहुत उच्च खुराक वाली अधिकांश मधुमक्खियों की मृत्यु हो गई होगी और केवल वही बची रहीं जिनके पास इस समस्या से निपटने के तरीके मौजूद थे।

मधुमक्खी में सूक्ष्मजीव संसार में परिवर्तन घातक संक्रमण से बचाव की उनकी प्रक्रिया को कमजोर बनाते हैं। परीक्षणों में ग्लायफोसेट का सेवन करने वाली केवल 12 प्रतिशत मधुमक्खियां ही सेराटिया मार्सेसेंस के संक्रमण से बच सकीं। सेराटिया मार्सेसेंस मधुमक्खियों के छत्तों में पाए जाने वाले आम जीवाणु हैं। दूसरी ओर, ग्यालफोसेट से मुक्त 47 प्रतिशत मधुमक्खियां ऐसे संक्रमण से सुरक्षित रहीं।

प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ जर्नल में प्रकाशित इस शोध ने मधुमक्खियों की तादाद में कमी के लिए एक संभावित कारण और जोड़ दिया है।

यह खोज मानव तथा जंतुओं पर ग्लायफोसेट के प्रभाव पर भी सवाल उठाती है। क्योंकि मानव आंत और मधुमक्खी की आंत में सूक्ष्म जीवाणुओं की भूमिका में कई समानताएं हैं। इस खोज ने विवादास्पद खरपतवारनाशी को दोबारा से शोध का विषय बना दिया है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit :  https://www.sciencemag.org/sites/default/files/styles/inline__450w__no_aspect/public/bees_16x9_1.jpg?itok=utmJr-HM

 

 

क्षुद्रग्रह पर पहली बार चलता-फिरता रोवर

जापान के क्षुद्रग्रह मिशन हयाबुसा-2 ने एक क्षुद्रग्रह पर दो रोवर उतारने में सफलता प्राप्त की है। 22 सितंबर के दिन जापान एयरोस्पेस एक्प्लोरेशन एजेंसी ने घोषणा की कि मिशन के दो रोवर मिनर्वा-II IA और IB रयूगु नामक क्षुद्रग्रह पर उतार दिए गए और दोनों ही उसकी सतह पर घूम-फिर रहे हैं। उन्होंने क्षुद्रग्रह की तस्वीरें भी भेजी हैं।

यह क्षुद्रग्रह बहुत छोटा है – चौड़ाई मात्र 1 कि.मी.। हयाबुसा पहले तो इन दो रोवर्स को लेकर क्षुद्रग्रह से मात्र 55 मीटर की ऊंचाई पर पहुंचा। इतने करीब पहुंचकर उसने दोनों रोवर्स को सतह पर तैनात किया और वापिस अपनी कक्षा में लौट गया। शुरुआत में जब ये रोवर्स क्षुद्रग्रह की सतह पर उतरे तो इनका पृथ्वी पर स्थित स्टेशन से संपर्क टूट गया। ऐसा शायद इसलिए हुआ था क्योंकि तब ये दोनों रोवर्स क्षुद्रग्रह के उस साइड पर थे जो हमसे ओझल थी। मगर जल्दी ही इन्होंने संकेत भेजना शुरू कर दिया।

इससे पहले भी क्षुद्रग्रहों पर यान उतारे जा चुके हैं मगर यह पहली बार है कि ये यान वहां की सतह पर चल-फिर रहे हैं। इनमें मोटर लगी हैं जिनकी मदद से ये फुदकते हैं। क्षुद्रग्रह के कम गुरुत्वाकर्षण बल के चलते रोवर्स की प्रत्येक उछाल काफी लंबी होती है।

ऐसा माना जाता है कि यह क्षुद्रग्रह शुरुआती सौर मंडल के पदार्थ से निर्मित हुआ है। इसका अध्ययन सौर मंडल की प्रारंभिक स्थितियों को समझने तथा पृथ्वी व अन्य ग्रहों की उत्पत्ति को समझने के उद्देश्य से किया जा रहा है। हयाबुसा-2 कुछ समय बाद एक बार फिर क्षुद्रग्रह की सतह के नज़दीक जाएगा तथा दो और रोवर्स को वहां उतारेगा। इसके अलावा स्वयं हयाबुसा-2 भी सतह पर उतरेगा ताकि वहां की मिट्टी के नमूने पृथ्वी पर ला सके। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://cdn.cnn.com/cnnnext/dam/assets/180921112535-minerva-ii-1-approach-vehicle-jaxa-exlarge-169.jpg

चोर के घर चोरी की मिसाल – डॉ. किशोर पंवार

कुछ ततैया पौधों पर परजीवी होती हैं। उनमें से एक है बेलोनानीमा ट्रीटी जो उत्तरी अमेरिका के दक्षिणी फ्लोरिडा में पाई जाती है। यह एक ओक वृक्ष पर अंडे देती है जिनसे इल्लियां निकलती हैं। ये इल्लियां कुछ वृद्धि हारमोन छोड़ती हैं जिनकी वजह से पौधों पर गठानें बन जाती हैं। ये गठानें युवा ततैया को रहने के लिए सुरक्षित स्थान प्रदान करती हैं। इन छोटी-छोटी गठानों को वैज्ञानिक गाल कहते हैं। ये गठानें ततैया की इल्लियों को लगातार पोषक पदार्थ भी उपलब्ध कराती हैं। इन ततैया के लिए तो ये गठानें वरदान हैं पर पौधे के लिए अभिशाप क्योंकि उनका पोषण ततैया के बच्चे चुरा लेते हैं।

पोषक पदार्थों से लबरेज़ ये लड्डू जैसे गाल अन्य परजीवियों की निगाहों से ओझल रह जाएं ऐसा कैसे हो सकता है। हाल ही में हुए एक अध्ययन से पता चला है कि पोषक पदार्थों से भरे ये गाल लव वाइन नामक एक परजीवी लता के निशाने पर हैं। एक सर्वे से पता चला कि यह लव वाइन (प्रेमलता) ऐसे गाल के आसपास लिपटी रहती है। ध्यान से देखा गया तो पता चला कि इस प्रेमलता ने वास्तव में गाल की दीवार को भेद रखा है जिसमें परजीवी ततैया वृद्धि कर रही थी। यह लता वहां से पोषक पदार्थ भी चूसती है। मज़ेदार बात है कि यह पोषक पदार्थ वह सीधे वृक्ष से नहीं बल्कि ततैया के शरीर से प्राप्त करती है। अंतत: वहां ततैया की लाश ही शेष बचती है। बेल के तो मज़े हैं पर ततैया की शामत। इसी को कहते हैं चोर के घर चोरी।

इस खोज के बाद वैज्ञानिकों ने परजीवी पर परजीवी सम्बंध की और जांच-पड़ताल की। उन्होंने पाया कि 51 मामलों में प्रेमलता ततैया के बनाए गाल पर चिपकी थी, और उनमें से आधे से ज़्यादा में ततैया मृत मिली। करंट बायोलॉजी के एक ताज़ा अंक में यह रपट प्रकाशित हुई है। 101 गाल पर प्रेमलता नहीं लिपटी थी और उनमें से केवल 2 में ही ततैया मृत मिली। पेड़ के लिए इसका क्या अर्थ है इस बारे में अभी कुछ स्पष्ट पता नहीं है।

क्या है प्रेमलता

प्रेमलता यानी लव वाइन एक पूर्ण परजीवी बेल है। यह अमेरिका, इन्डोमलाया, ऑस्ट्रेलेशिया, पोलीनेशिया और कटिबंधीय अफ्रीका की मूल निवासी है। इसका वानस्पतिक नाम कैसिथा फिलीफॉर्मिस है। वैसे कैरेबियन क्षेत्र में कई बेलों को लव वाइन कहा जाता है। यह उनमें से एक है। लव वाइन अर्थात प्रेमलता नामकरण के पीछे यह मान्यता है कि इसमें कामोत्तेजक गुण होते हैं। वैसे ऑस्ट्रेलिया में इसे डोडर-लॉरेल भी कहते हैं और डेविल्स गट्स भी। दक्षिण भारत में छांछ को स्वादिष्ट बनाने के लिए इसका उपयोग किया जाता है। इसका औषधीय महत्व भी है।

भारत में ऐसी ही एक परजीवी बेल बहुतायत से मिलती है जिसका नाम है अमरबेल (कस्कुटा)। इसकी करीब 100-170 प्रजातियां खोजी जा चुकी हैं। इनका तना नारंगी, लाल या हल्का पीला होता है। इस पूर्ण परजीवी बेल का बीज अंकुरित होकर पौधों के आसपास सर्पिल क्रम में वृद्धि करता है जब तक कि यह किसी सही पोषक पौधे के सम्पर्क में न आ जाए। इसकी पत्तियां शल्क पत्र के रूप में होती हैं, वे भी मात्र 1 मि.मी. लंबी। पत्तियां सूक्ष्म हैं और तना भी हरा नहीं होता। यानी पूरी बेल क्लोरोफिल विहीन होती है। ऐसे में इस बेल के पास दूसरों से भोजन चुराने के अलावा कोई और चारा नहीं है।

गंगा सहाय पांडेय तथा कृष्ण चंद्र चुनेकर द्वारा सम्पादित भाव प्रकाश निघण्टु में अमरबेल नाम कस्कुटा रिफ्लेक्सा के लिए और आकाशबेल कैसिथा फिलीफॉर्मिस के लिए प्रयुक्त किया गया है। दोनों ही भारत में मिलती है। अमरबेल लगभग सभी जगह और आकाश बेल समुद्र तट के पेड़ों और झाड़ियों पर। वासुदेवन नायर अपनी किताब कॉन्ट्रोवर्सियल ड्रग प्लांट्स में कहते हैं कि इसके बारे में भ्रम है कि आकाश वल्ली आखिर कौन है – कस्कुटा रिफ्लेक्सा या कैसिथा फिलीफार्मिस।

क्यों बनते हैं पौधों पर गाल

पौधो पर विभिन्न कीटों द्वारा बनाए जाने वाले ये गाल्स इन जीवों के लिए सुरक्षित वास स्थान और भोजन का स्रोत दोनों का कार्य करते हैं। इन गठानों के अंदर ये कीट परजीवियों और शिकारियों से आंशिक रूप से सुरक्षित रहते हैं।

गाल की आंतरिक भित्ती नम होती है जिसका द्रव सामान्यत: प्रोटीन और शर्करा से भरा होता है। जबकि पौधों के सामान्य ऊतकों में इन पोषक पदार्थों की मात्रा कम होती है। पोषक पदार्थों की सहज उपलब्धता के कारण कई कीट इन गठानों में सहयोगी के रूप में रहते हैं। इन्हें जीव वैज्ञानिक पर-निलय वासी (इनक्विलाइन) कहते हैं। यानी दूसरे के घर में रहने वाले। उदाहरण के तौर पर एक वैज्ञानिक ने एक गाल में ऐसे 31 रहवासियों की सूची बनाई है। जिनमें 10 पर-निलय वासी, 16 परजीवी और 5 यदा-कदा आने वाली प्रजातियां शामिल थीं।

ये गाल्स बैक्टीरिया, कवक, कृमि, माहू, मिजेस, ततैया और घुन बनाते हैं। यदि प्रभावित भागों पर अंडे या कीट दिखाई दें तो यह पता लगाया जा सकता है कि ये गाल कीट ने बनाए हैं या नहीं। ओक के पौधों पर गाल्स बहुतायत से देखे जाते हैं। ओक 500 से ज़्यादा ततैया, 3 एफिड (माहू), घुन और मिजेस का पोषक पौधा है जो इसकी पत्तियों और टहनियों पर गाल्स बनाते हैं।

सामान्यत: कीट और पिस्सू गाल बनाने वाले सबसे आम जीव हैं। कुछ लोग इन्हें बागवान भी कहते हैं क्योंकि ये पौधों पर नई रचनाएं बनाते हैं। पौधों मे दो तरह के गाल्स देखे जाते हैं – खुले और बंद। खुले गाल एफिड, काकसिड और माइट्स जैसे जीव बनाते हैं। जबकि बंद प्रकार के गाल कीटों की इल्लियों द्वारा बनाए जाते हैं।

पत्तियों और तनों पर बने ये गाल ज़्यादा जाने-पहचाने हैं बजाय उन कीटों के जो इन्हें बनाते हैं। ये कीट बहुत छोटे होते हैं और इन्हें पहचानना भी मुश्किल होता हैं। गाल बनाने वाले कीट अपने अंडे पोषक पौधे के ऊपर या अंदर देते हैं। अंडों से निकली इल्ली जहां पौधे के संपर्क में आती है, वहीं से गठान बनने की शुरुआत होती है।

ये गठानें असामान्य वृद्धि का नतीजा होती हैं और पत्तियों, शाखाओं, जड़ों और फूलों पर भी बनती हैं। ये गठानें इल्लियों द्वारा इन भागों को कुतरने के फलस्वरूप उत्पन्न उद्दीपन के कारण बनना शुरू होती हैं। ये गेंद, घुंडी, मस्सों आदि के रूप में होती है। इस तरह की गठानें आप करंज, सप्तपर्णी और गूलर, पाकड़ की पत्तियों पर देख सकते हैं। एक समय में ऐसा माना जाता था कि इनमें औषधीय गुण होते हैं। वर्तमान में इनका इस हेतु उपयोग नहीं किया जाता।

जहां तक इनके आर्थिक महत्व का सवाल है, इनमें टैनिक अम्ल बहुत अधिक मात्रा में होता है। युरोपियन सिनिपिड द्वारा बनाए गए गाल से लगभग 65 प्रतिशत टैनिक अम्ल जबकि अमेरिकन सुमेक गाल से 50 प्रतिशत टैनिक अम्ल प्राप्त होता है। इन गाल से रंग भी मिलते हैं। टर्की रेड रंग मैड एप्पल गाल से निकाला जाता है। पूर्वी अफ्रीका में इन गठानों का उपयोग टेटू बनाने में रंग के लिए किया जाता था। सिनिप्स गैली टिंक्टोरी नामक कीट से उत्पन्न गाल से स्याही बनायी जाती है। एक समय कुछ देशों में कानूनी दस्तावेज़ इसी स्याही से लिखे जाते थे। यहां तक कि यूएस टे्रज़री, बैंक आफ इंग्लैंड, जर्मन चांसलरी और डेनमार्क सरकार के पास एलेप्पो गाल से स्याही बनाने के विशेष फार्मूले हैं। अधिकांश गाल्स का स्वाद उनके पोषक पौधे जैसा होता है।

तो इस गाल में हैं शामिल हैं, एक स्वपोषी पौधा (ओक), एक शाकाहारी परपोषी जन्तु (बेलोनानीमा ट्रीटी) और साथ में एक परजीवी प्रेमलता (कैसिथा फिलीफॉर्मिस)। ऐसा तिहरा सम्बंध जीवजगत में काफी पाया जाता है और जीवन की रणनीति का एक हिस्सा है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://static1.squarespace.com/static/544591e6e4b0135285aeb5b6/t/5b7b7e7d758d462bead7ec09/1534819977361/?format=750w

आंत और दिमाग की हॉटलाइन

वैज्ञानिकों के दो समूहों ने खोज की है कि हमारी आंतों का सीधा कनेक्शन दिमाग से होता है और यह कनेक्शन तंत्रिकाओं के ज़रिए होता है।

यह तो पहले से ही पता था कि हमारी आंतों के अंदरुनी अस्तर में कई कोशिकाएं होती हैं जो समय-समय पर रक्त वाहिनियों में हारमोन्स छोड़ती हैं। ये हारमोन्स दिमाग में पहुंचकर आंतों का हाल बयां कर देते हैं। दिमाग को पता चल जाता है कि पेट भर गया है या भूखा है। मगर हारमोन्स के ज़रिए दिमाग तक यह संदेश पहुंचाने में लगभग 10 मिनट का समय लगता है। मगर नए अध्ययन दर्शा रहे हैं कि आंतों का दिमाग से वार्तालाप मात्र हारमोन्स के भरोसे नहीं है। इसमें तंत्रिकाओं की भी भूमिका है और आंतों से मस्तिष्क को संदेश विद्युतीय रूप से भी पहुंचाए जाते हैं। और तंत्रिका द्वारा संप्रेषण में चंद सेकंड का ही समय लगता है।

आंतों और मस्तिष्क के बीच तंत्रिका संप्रेषण की खोज की दिशा में पहला कदम यह था कि डरहम विश्वविद्यालय के डिएगो बोहोरक्वेज़ ने इलेक्ट्रॉन सूक्ष्मदर्शी से अवलोकन में पाया कि आंतों के अस्तर में उपस्थित हारमोन पैदा करने वाली कोशिकाओं में पैरों जैसे उभार हैं। ये उभार तंत्रिका कोशिकाओं के उन उभारों जैसे थे जो दो तंत्रिकाओं के बीच संपर्क बनाने में मददगार होते हैं। बोहोरक्वेज़ ने सोचा कि शायद ये उभार तंत्रिका संदेशों के आवागमन में मदद करते होंगे।

उन्होंने अपने साथियों के साथ मिलकर कुछ चूहों की आंतों में एक चमकने वाला वायरस इंजेक्ट कर दिया। यह वायरस तंत्रिकाओं के संपर्क बिंदुओं (सायनेप्स) के माध्यम से फैलता है। साइंस नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित पर्चे में बताया गया है कि जल्दी ही हारमोन बनाने वाली उक्त कोशिकाओं में चमक पैदा हुई और यह चमक उनके आसपास की कोशिकाओं में भी फैली। ये आसपास की कोशिकाएं वेगस नामक तंत्रिका की कोशिकाएं थीं। मतलब यह हुआ कि हारमोन बनाने वाली कोशिकाएं संदेशों को तंत्रिकाओं के ज़रिए भी आगे बढ़ाती हैं।

जब एक तश्तरी में प्रयोग किए गए तो देखा गया कि हारमोन बनाने वाली कोशिकाओं के उभार वेगस तंत्रिका के साथ जुड़ जाते हैं और सायनेप्स बना लेते हैं। यदि तंत्रिकाओं के माध्यम से संवाद चल रहा है, तो आपके दिमाग को पेट भरने की सूचना काफी जल्दी मिल जानी चाहिए। अब वैज्ञानिक यह जानना चाहते हैं कि मोटापे जैसी समस्याओं से निपटने में इस जानकारी का उपयोग कैसे किया जा सकता है।

इसी से सम्बंधित एक और शोध पत्र में बताया गया है कि जब आंतों की तंत्रिकाओं को लेज़र से उत्तेजित किया गया तो चूहों में सुखानुभूति पैदा हुई। लेज़र किरणों ने चूहों में मूड सुधारने वाले रसायन भी पैदा किए। अब देखना यह है कि इन परिणामों का चिकित्सा के क्षेत्र में क्या उपयोग किया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.loyolamedicine.org/sites/default/files/blog/fb-1200×630-brain-gut.jpg

वैज्ञानिक गोपनीय जानकारी बेचने के आरोप से मुक्त

भारत के एक शीर्ष अंतरिक्ष वैज्ञानिक शंकरलिंगम नंबी नारायणन को सुप्रीम कोर्ट ने निर्दोष पाया है। नारायणन पर आरोप थे कि उन्होंने इसरो के अंतरिक्ष कार्यक्रम की गोपनीय जानकारी पाकिस्तान को बेची है।

साल 1994 में इसरो के वैज्ञानिक नारायणन और डी. शशिकुमार पर इसरो की गोपनीय जानकारी पाकिस्तान को बेचने के आरोप लगाए गए थे। इस मामले में सभी की गिरफ्तारी हुई और मुकदमे चले। 1996 में स्थानीय अदालत ने नारायणन और अन्य सभी लोगों को आरापों से बरी कर दिया था। सीबीआई ने भी तब जांच में उन्हें निर्दोष पाया था। किंतु उसके बाद भी, 20 सालों तक, अन्य अदालतों में मुकदमे चलते रहे। नारायणन का कहना है कि हम सभी की जिंदगी बिखर गई और हम सभी ने बहुत कुछ झेला है।

साल 2001 में, राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने नारायणन को 10 लाख रुपए की अंतरिम राहत देने का आदेश दिया था। किंतु वह भी उन्हें 11 साल बाद मिली, दो बार उच्च न्यायालय में गुहार लगाने के बाद।

14 सितंबर को हुई सुनवाई में शीर्ष न्यायालय ने नारायणन पर लगे आरोपों को मनगढ़ंत बताया है और उन्हें 50 लाख रुपए बतौर हर्ज़ाना देने का आदेश दिया है। अदालत ने कहा कि केरल राज्य पुलिस द्वारा शुरू की गई कार्रवाई संदेहपूर्ण थी। इस पूरी प्रक्रिया में पुलिस और जांच दल का व्यवहार नारायणन के लिए पीड़ादायक था। सुप्रीम कोर्ट ने सम्बंधित पुलिस अफसरों पर ज़रूरी कार्रवाई का भी आदेश दिया है।

इस मामले ने इसरो को अंदर तक हिला दिया। दरअसल 1990 के दशक में भारत सोवियत संघ और संयुक्त राज्य अमेरिका से क्रायोजेनिक तकनीक खरीदने की बात कर रहा था। इस तकनीक से ईंधन को कम तापमान पर तरल अवस्था में स्टोर किया जा सकता है। अंतत: भारत सोवियत संघ से तकनीक खरीदने के लिए सहमत हो गया। लेकिन सोवियत संघ के विघटन के बाद संयुक्त राज्य अमेरिका ने रूस पर भारत को तकनीक ना देने का दबाव बनाया। इस तरह यह महत्वपूर्ण तकनीक भारत के हाथ निकल गई।

नारायणन को शक है कि इसमें अंतर्राष्ट्रीय साज़िश है। इसमें भारत की खुफिया एजेंसियों की भी भूमिका रही है। इससे इसरो की अंतरिक्ष योजनाओं में लगभग 15 साल की देरी हो गई।

असल में भारत में इस तकनीक के आने से उम्मीद थी कि भारत से उपग्रह प्रक्षेपण नासा या युरोपीय संस्थाओं के मुकाबले कम कीमत पर किए जा सकेंगे। आज उपग्रह प्रक्षेपण में भारत का महत्वपूर्ण स्थान है लेकिन भारी उपग्रहों को छोड़ने में स्थान बनाने में अभी वक्त लगेगा, क्योंकि भारत ने कुछ ही वर्षों पहले इस तकनीक में महारत हासिल की है। नारायणन शीर्ष अदालत के फैसले से खुश हैं। देर से ही सही, दोषमुक्त करने के लिए उन्होंने कोर्ट का आभार व्यक्त किया है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : http://d2r2ijn7njrktv.cloudfront.net/IL/uploads/2018/05/Nambi-Narayana_Wikipedia.jpg

दुनिया का सबसे ऊष्मा प्रतिरोधी पदार्थ – डॉ. दीपक कोहली

वैज्ञानिकों ने एक ऐसे पदार्थ की पहचान कर ली है जो लगभग 4000 डिग्री सेल्सियस के तापमान को सहन कर सकता है। यह खोज बेहद तेज़ हाइपरसोनिक अंतरिक्ष वाहनों के लिए बेहतर ऊष्मा प्रतिरोधी कवच बनाने का रास्ता खोल सकती है। ब्रिटेन के इम्पीरियल कॉलेज, लंदन के शोधकर्ताओं ने खोज की है कि हैफिनयम कार्बाइड का गलनांक अब तक दर्ज किसी भी पदार्थ के गलनांक से ज़्यादा है।

टैंटेलम कार्बाइड और हैफ्नियम कार्बाइड रीफ्रैक्ट्री सिरेमिक्स हैं। इसका अर्थ यह है कि ये असाधारण रूप से ऊष्मा के प्रतिरोधी हैं। अत्यधिक ऊष्मा को सहन कर सकने की इनकी क्षमता का अर्थ यह है कि इनका इस्तेमाल तेज़ गति के वाहनों में ऊष्मीय सुरक्षा प्रणाली में और परमाणु रिएक्टर के बेहद गर्म वातावरण में र्इंधन के आवरण के रूप में किया जा सकता है।

इन दोनों के गलनांक के परीक्षण प्रयोगशाला में करने के लिए प्रौद्योगिकी उपलब्ध नहीं थी। ऐसे परीक्षण से यह देखा जा सकता है कि यह कितने अधिक गर्म वातावरण में काम कर सकते हैं। शोधकर्ताओं ने इन दोनों यौगिकों की गर्मी सहन कर सकने की क्षमता के परीक्षण के लिए लेज़र का इस्तेमाल करके तीक्ष्ण गर्मी पैदा करने वाली एक नई प्रौद्योगिकी विकसित की है।

उन्होंने पाया कि यदि इन दोनों यौगिकों को मिश्रित कर दिया जाए तो उनका गलनांक 3905 डिग्री सेल्सियस था, लेकिन दोनों यौगिकों को अलग-अलग गर्म किए जाने पर उनके गलनांक अब तक ज्ञात पदार्थों के गलनांक से ज़्यादा पाए गए। टैंटेलम कार्बाइड 3768 डिग्री सेल्सियस पर पिघल गया जबकि हैफ्नियम कार्बाइड का गलनांक 3958 डिग्री सेल्सियस रिकॉर्ड किया गया। यह निष्कर्ष नई पीढ़ी के हाइपरसोनिक वाहनों, यानी अब तक के सबसे तेज़ रफ्तार अंतरिक्ष यानों का मार्ग प्रशस्त कर सकता है। (स्रोत फीचर्स)

 नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://www.imperial.ac.uk/news/image/mainnews2012/36544.jpg

शाकाहारी, अति-शाकाहारी और परखनली मांसभक्षी – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान, जब हिटलर ने यह दावा किया कि तीन हफ्तों में इंग्लैंड की गर्दन एक मुर्गे की तरह मरोड़ दी जाएगी, तब विंस्टन चर्चिल ने उपेक्षापूर्ण जवाब दिया था: some chicken, some neck (इंग्लैंड कोई मुर्गा नहीं है)। कुछ ही समय बाद इंग्लैंड व मित्र सेनाओं ने युद्ध जीत लिया।

लेकिन 1930 के दशक में चर्चिल ने मुर्गे सम्बंधी एक टिप्पणी और की थी जो आज के लिए भी काफी प्रासंगिक है: आज से 50 साल बाद मुर्गे की टांग खाने के लिए हम पूरे चिकन को पालने के बेतुकेपन से बचेंगे क्योंकि तब हम इन अंगों को अलग से प्रयोगशाला में बना सकेंगे।

जी हां, चर्चिल की भविष्यवाणी आने वाले सालों में सच हो सकती है। शोधकर्ता प्रयोगशाला में कोशिका और ऊतक इंजीनियरिंग की मदद से खाद्य-मांस विकसित कर रहे हैं। इस प्रकार हमारे बीच न केवल वीगन यानी अति-शाकाहारी (वे लोग जो दूध या अन्य डेयरी उत्पादों का भी उपयोग नहीं करते हैं), शाकाहारी और मांसाहारी लोग होंगे बल्कि परखनली में बनाए गए मांसभक्षी यानी इन-विट्रोटेरियंसलोग भी होंगे।

प्रयोगशाला में मांस क्यों विकसित किया जा रहा है? क्योंकि हमें पशुओं के चारे के लिए फसलें उगानी पड़ती हैं। इन फसलों को उगाने में उपलब्ध ज़मीन का 26 प्रतिशत और काफी मात्रा में पानी का भी इस्तेमाल होता है। इसके अलावा, मवेशी ग्लोबल वार्मिंग में 18 प्रतिशत का योगदान करते हैं।

चर्चिल की बात को दूसरे शब्दों में कहें, तो जानवर प्रोटीन के कार्यक्षम कारखाने नहीं हैं; मांस के रूप में हम जो भी खाते हैं वह प्रोटीन (मांसपेशियां) ही है। तो फिर क्यों न प्रयोगशाला में मात्र मांस विकसित करें जिससे जगह और पानी की बचत हो सके और ग्लोबल वार्मिंग को कम किया जा सके?

यहीं स्टेम कोशिका का प्रवेश होता है। निकोल जोन्स ने नेचर के 9 दिसंबर 2010 के अंक में लिखा था कि भ्रूणीय स्टेम कोशिकाएं एक अनश्वर (और इसलिए सस्ता) भंडार प्रदान करती हैं जिससे मांस की अंतहीन आपूर्ति की जा सकती है। लेकिन पालतू जानवरों से भ्रूणीय स्टेम कोशिकाओं का उत्पादन करने का प्रयास सफल नहीं रहा है। इसलिए वैज्ञानिकों ने वयस्क स्टेम कोशिकाओं की ओर ध्यान दिया। इन्हें मायोसेटेलाइट कोशिका कहते हैं और यही मांसपेशियों की वृद्धि और मरम्मत के लिए जिम्मेदार हैं।

प्रयोगशाला में मांस (जिसे इन-विट्रो मांस या आईवीएम भी कहा जाता है) बनाने के लिए पहले से ही तीन समूह इन कोशिकाओं के उपयोग में भिड़े हैं। इस सम्बंध में हॉलैंड में एक और अमेरिका में दो पेटेंट लिए जा चुके हैं। इनमें से एक डॉ. केदारनाथ चल्लाकेरे हैं जिनकी कंपनी मोक्षगुंडम बायोटेक्नोलॉजीज़ कैलिफोर्निया में स्थित है। (मोक्षगुंडम एक स्थान का नाम है जो पहली बार सर एम. विश्वेश्वरैया के कारण जाना गया था। विश्वेश्वरैया इसी स्थान से थे)।

यह होता कैसे है? उदाहरण के लिए सबसे पहले एक सूअर की बायोप्सी से मायोसेटेलाइट कोशिका को निकाला जाता है और एक उचित माध्यम का उपयोग कर प्रयोगशाला में पनपाया जाता है। फिर उन्हें एक ढांचे पर रोपकर रेशों का रूप दिया जाता है, जो एक साथ बांधने पर मांसपेशी का रूप ले लेते हैं। इसके बाद, कुछ प्रयोगके माध्यम से मांसपेशियों में प्रोटीन उत्पादन को बढ़ाया जाता है। मांसपेशियों की इन पट्टियों को पीसकर उनमें स्वाद के लिए रसायन, विटामिन और आयरन मिलाकर सॉसेज मांस तैयार किया जाता है। इसे पकाकर खा सकते हैं।

अभी कई ऐसे तकनीकी मुद्दे हैं जिन्हें हल किया जाना है। इनमें सबसे पहला मुद्दा कोशिकाओं के स्रोत का है।

चूंकि भ्रूणीय स्टेम कोशिकाएं एक आदर्श प्रारंभिक बिंदु हैं, इसलिए मुर्गे, टर्की, भेड़ और मवेशी (और यहां तक कि कई खाद्य मछली) से भ्रूणीय स्टेम कोशिकाओं के उत्पादन पर काम करना होगा। दूसरी बात है कि यदि वयस्क स्टेम कोशिकाएं ली जाएं (जिनका उपयोग अभी किया गया है) तो वे लगभग 30 बार के बाद आगे विभाजित नहीं होतीं।

उनके गुणसूत्र के डीएनए में सुरक्षात्मक सिरे (टीलोमेयर) प्रत्येक विभाजन में छोटे होते जाते हैं और आगे अधिक विभाजन के बाद गायब हो जाते हैं। कल्चर माध्यम में एंज़ाइम टीलोमरेज़ मिलाने से मदद मिल सकती है।

एक मुद्दा यह भी है कि आदर्श रूप से हम जंतु-मुक्त माध्यम का उपयोग करना चाहते हैं। कुछ समूहों ने इसके लिए मैटेक मशरूम का उपयोग किया है जबकि कुछ अन्य ने नीले हरे शैवाल को इस्तेमाल किया। ध्यान दें कि ये दोनों शुद्ध शाकाहारी माध्यम हैं। लेकिन इनमें धन और सामग्री जैसे बड़े मुद्दे शामिल हैं। कोशिका पालन के लिए प्रयुक्त माध्यम बहुत महंगा है, और लागत में 90 प्रतिशत हिस्सा इसी का है।

दूसरा, मांस के रेशों को मांसपेशी की पट्टियों में ढालने की प्रक्रिया है, जिसके लिए ऊर्जा की ज़रूरत होगी और बड़े पैमाने पर संभव बनाने की भी।

तीसरा मुद्दा है कि जैसे-जैसे मांसपेशियों की पट्टियां बड़ी होने लगती हैं, उनकी अंदरूनी कोशिकाएं मरने लगती हैं क्योंकि उन्हें पोषण नहीं मिल पाता। वास्तविक परिस्थिति में उन्हें ज़रूरी पोषण रक्त प्रवाह द्वारा प्रदान किया जाता है। इसलिए इन-विट्रो में रक्त वाहिकाएंबनाने की ज़रूरत है।

इन सभी बातों को ध्यान में रखते हुए एक अनुमान है कि प्रयोगशाला में मांस की पहली खेप तैयार करने के लिए प्रति टन 3,500 यूरो खर्च होगा। तुलना के लिए देखें कि सामान्यत: मांस उत्पादन का खर्च 1,800 यूरो प्रति टन होता है। हालांकि, यह भी याद रखें कि पहला सेल फोन बनाने के लिए लाखों यूरो खर्च किए गए थे लेकिन आज एक साधारण मॉडल 30 यूरो में खरीदा जा सकता है। एक बार विज्ञान ठीक तरह से काम कर गया, तो लागत कम होगी और तकनीक में प्रगति से उत्पादन में वृद्धि के साथ कीमतें भी नीचे आएंगी।

लेकिन फिर भी, क्या प्रयोगशाला में बने मांस को स्वीकार किया जाएगा? मुझे तो लगता है कि किया जाएगा। सबसे पहले, प्रीवेंशन ऑफ एट्रोसिटीज़ अगेन्स्ट एनिमल्स (पेटा) जैसे समूह इसे स्वीकार कर रहे हैं और बढ़ावा दे रहे हैं। दूसरी बात है कि यह जेनेटिक रूप से परिवर्तित (जीएम) भोजन नहीं है क्योंकि इसमें जेनेटिक इंजीनियरिंग का उपयोग नहीं किया गया है। तीसरा, हालांकि आज इसमें कोई स्वाद नहीं है, आगे चलकर भोजन और पोषण वैज्ञानिक स्वाद बढ़ाने में सक्षम होंगे।

चौथा, क्या इन-विट्रो मांस अनैतिक या अप्राकृतिक है? ज़रूरी नहीं; इन-विट्रो कंसोर्टियम (एक संस्थान जो इन-विट्रो मांस के विचार को बढ़ावा देता है) के डॉ. जेसन मैथेनी पूछते हैं: क्या 10,000 मुर्गियों को बाड़े में रखना जहां वे अपने ही मल में जीती हैं और उनमें तरह-तरह के रसायन भर देना नैतिक या प्राकृतिक है?” मैथेनी हाई स्कूल के दिनों से शाकाहारी नहीं बल्कि वीगन रहे हैं। जब पूछा कि क्या वे आईवीएम खाएंगे, तो उन्होंने कहा, हां, ज़रूर। यह मांस के प्रति मेरी सभी चिंताओं का उत्तर देगा। चर्चिल भी ज़रूर इसे खाते।

मुझे लगता है कि महात्मा गांधी (चर्चिल अधनंगा फकीर कहकर जिनकी खिल्ली उड़ाया करते थे) भी इस परखनली उत्पादित मांस को स्वीकृति देते, हालांकि शायद खुद नहीं खाते। आने वाले दिनों की बात करूं, तो सोचता हूं कि पशु अधिकार समर्थक सुश्री मेनका गांधी या सुश्री अमाला अक्किनेनी क्या कहेंगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://cdn-a.william-reed.com/var/wrbm_gb_food_pharma/storage/images/1/3/8/0/1710831-1-eng-GB/Lab-grown-meat-to-revolutionise-food-sector_wrbm_large.jpg

आपदाओं की क्षति कम करने की नीतियां – भारत डोगरा

किसी भी आपदा के आने पर उसके नियंत्रण के उपाय उच्च प्राथमिकता के आधार पर किए जाते हैं। पर यदि नीतिगत स्तर पर कुछ सावधानियों व समाधानों पर निरंतरता से कार्य हो तो आपदाओं की संभावना भी कम होगी तथा किसी आपदा से होने वाली क्षति भी कम होगी।

जल संरक्षण व हरियाली बढ़ाने के छोटेछोटे लाखों कार्यों में सरकार को निवेश बड़ी मात्रा में बढ़ाना चाहिए। साथ ही यह कार्य जन भागीदारी से करने की व्यवस्था करनी चाहिए। जल संरक्षण के साथ नमी संरक्षण की सोच को महत्त्व मिलना चाहिए। हरियाली स्थानीय वनस्पतियों से बढ़नी चाहिए। वृक्षारोपण में जल व मिट्टी संरक्षण के साथ पौष्टिक खाद्य उपलब्धि को भी महत्व देना चाहिए। जिन गांवों में जल संरक्षण व हरियाली की उत्तम व्यवस्था है, वे विभिन्न आपदाओं के प्रकोप को झेलने में अन्य ग्रामीण क्षेत्रों से अधिक सक्षम हैं। कुछ अलग तरह से यह प्राथमिकता शहरी व अर्धशहरी क्षेत्रों में भी अपनानी चाहिए।

विभिन्न संदर्भों में पर्यावरण रक्षा की नीतियों को मज़बूत करने से आपदाओं में होने वाली क्षति को कम करने में सहायता मिलेगी। चाहे खनन नीति हो या वन नीति या कृषि नीति, यदि इनमें पर्यावरण की रक्षा पर समुचित ध्यान दिया जाता है तो इससे आपदाओं की संभावना व क्षति को कम करने में भी मदद मिलेगी।

विभिन्न क्षेत्रों की संभावित आपदा की दृष्टि से मैपिंग करने, पहचान करने व आपदा का सामना करने की तैयारी पर पहले से समुचित ध्यान देना ज़रूरी है। जलवायु बदलाव के इस दौर में केवल सामान्य नहीं अपितु असामान्य स्थितियों की संभावना को भी ध्यान में रखने की ज़रूरत है। इसके लिए बजट बढ़ाने के साथसाथ अनुभवी स्थानीय लोगों के परामर्श को महत्व देना आवश्यक है। अधिक जोखिमग्रस्त स्थानों में रहने वाले लोगों से परामर्श के बाद नए स्थान पर पुनर्वास ज़रूरी समझा जाए तो उसकी व्यवस्था भी करनी चाहिए।

मौसम के पूर्वानुमान की बेहतर व्यवस्था, इसके समुचित प्रसार को सुनिश्चित करना भी आवश्यक है।

देश के ढांचागत या इन्फ्रास्ट्रक्चर विकास में आपदा पक्ष को भी स्थान मिलना चाहिए। दूसरे शब्दों में, विभिन्न ढांचागत विकास की परियोजनाओं (सड़क, हाईवे, नहर, बांध, बिजलीघर आदि) के नियोजन का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष यह भी होना चाहिए कि उनसे किसी आपदा की संभावना या उससे होने वाली क्षति न बढ़े। उदाहरण के लिए सड़कों में निकासी की उचित व्यवस्था न होने से बाढ़ व जलजमाव की समस्या बहुत बढ़ सकती है। विभिन्न ढांचागत परियोजनाओं में बड़े पैमाने पर पेड़ काटने या डायनामाइट दागने से भूस्खलन की समस्या बहुत बढ़ सकती है। इस बारे में पहले से सावधानी बरती जाए तो अनेक महंगी गलतियों से बचा जा सकता है। इस तरह की सावधानियां विशेषकर उन क्षेत्रों में अपनाना ज़रूरी है जहां बहुत बड़े पैमाने पर ढांचागत विकास होने वाला है। यह स्थिति इस समय देश के अनेक क्षेत्रों की है, जो पर्यावरण की दृष्टि से अति संवेदनशील माने गए हैं। जैसे हिमालय व पश्चिमी घाट क्षेत्र।

बांध प्रबंधन में सुधार की ज़रूरत काफी समय से महसूस की जा रही है। इस बारे में उच्च अधिकारियों व विशेषज्ञों ने वर्तमान समय में कहा है कि बांध प्रबंधन में बाढ़ से रक्षा को अधिक महत्व देना व इसके अनुकूल तैयारी करना महत्वपूर्ण है।

आपदाओं की स्थिति में कैसा व्यवहार करना चाहिए, कैसी तैयारी घरपरिवार व स्कूलकॉलेजों में पहले से रखनी चाहिए, इसके लिए समयसमय पर प्रशिक्षण दिए जाएं व इसकी ड्रिल की जाए तो यह कठिन वक्त में सहायक सिद्ध होंगे।

शौच व्यवस्था या स्वच्छता के क्षेत्र में प्रगति से भी आपदाओं के नियंत्रण में मदद मिलेगी। विशेषकर प्लास्टिक व पोलीथीन के कचरे पर नियंत्रण से बाढ़ व जल जमाव की समस्या को कम करने में सहायता मिलेगी। बाढ़ व जल जमाव से अधिक प्रभावित होने वाले क्षेत्रों में यदि परिस्थितियों के अनुकूल स्वच्छ शौच व्यवस्था हो जाए तो इससे यहां के लोगों को राहत मिलेगी। दूसरी ओर जल्दबाज़ी में की गई व ज़रूरी सावधानियों की अवहेलना करने वाली व्यवस्थाएं यहां के लिए हानिकारक भी हो सकती हैं। ऐसे क्षेत्रों में भूजल स्तर ऊपर होता है। अत: शौचालय बनाते समय यह ध्यान में रखना ज़रूरी होता है कि कहीं इनका डिज़ाइन ऐसा न हो कि उससे भूजल के प्रदूषित होने की संभावना हो।

यदि उचित नीतियां अपनाकर उनके क्रियांवयन में निरंतरता रखते हुए सावधानियों व समाधानों पर ध्यान दिया जाए तो आपदाओं की संभावना व उनसे होने वाली क्षति को काफी कम किया जा सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : http://floodlist.com/wp-content/uploads/2014/06/bosnia-floods.jpg

जेंडर समानता के लिए वैज्ञानिकों की पहल

हाल ही में न्यूरोसाइंटिस्ट रोज़र कीविट को एक जर्नल के संपादक मंडल का सदस्य बनने का न्यौता मिला। उन्होंने उस मंडल के सदस्यों में महिलाओं और पुरुषों का अनुपात देखा। मंडल में 21 पुरुष और 3 महिला सदस्य थे। लिंग अनुपात में इतने अंतर को कारण बताते हुए उन्होंने मंडल का सदस्य बनने से इंकार कर दिया। रोज़र कीविट कैम्ब्रिज युनिवर्सिटी में जूनियर फैकल्टी हैं और उन वैज्ञानिकों में से है जो पेशेवर क्षेत्र में महिलाओं की कम उपस्थिति की ओर ध्यान आकर्षित करने के लिए अवसरों को अस्वीकार करते रहे हैं।

अक्सर अकादमिक सभाओं में वक्ता, संपादक मंडल के सदस्यों या अन्य अकादमिक पदों पर पुरुषों की तुलना में महिलाओं की उपस्थिति बहुत कम होती है। इन जगहों पर किन्हें आमंत्रण देना है, यह तय करने वाले एकदो ही व्यक्ति होते हैं। इन जगहों को पुरुषोचित कहा जाने लगा है। ट्विटर व अन्य सोशल मीडिया के माध्यम से वैज्ञानिक अब महिलापुरुष के अनुपात में अंतर के प्रति आवाज़ उठाने लगे हैं। कुछ वेबसाइट (जैसे Bias Watch Neuro और All Male Panels) इस समस्या को उजागर करते हैं। और इसी का नतीजा है कि पिछले कुछ सालों में इन क्षेत्रों में लिंग भेद दर्शाने के लिए वैज्ञानिक उन्हें मिलने वाले अवसरों को अस्वीकार कर रहे हैं। कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के सूक्ष्मजीव वैज्ञानिक जोनाथन इसेन ने सबसे पहले, साल 2014 में पुरुष प्रधान संस्थाओं में शामिल होने से इंकार कर दिया था। उसके बाद से उन्होंने कई पुरुषप्रधान मीटिंग्स के बारे में अपने ब्लॉग में लिखना शुरू किया। 

विज्ञान के क्षेत्र में लिंग असमानता के मामले में जागरूकता आई है। कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के पुरासमुद्र वैज्ञानिक हीदर फोर्ड और उनके साथियों ने साल 2014 से 2016 के दौरान होने वाली सभी अमेरिकन जियोफिज़िकल मीटिंग्स में महिलापुरुष वक्ताओं का अनुपात देखा। उन्होंने पाया कि पुरुषों के मुकाबले महिला वक्ता बहुत कम थी।

यू बायोम की संपादकीय निदेशक सूक्ष्मजीव वैज्ञानिक एलिज़ाबेथ बिक का कहना है कि उन्होंने सभाओं और अन्य जगहों पर वक्ताओं के तौर पर आमंत्रित लोगों में महिलाओं का अनुपात पहले से बेहतर देखा है, खास तौर से सूक्ष्मजीव विज्ञान के क्षेत्र में। उन्होंने इस क्षेत्र में में काम करने वाली महिलाओं की सूची भी प्रकाशित की है ताकि पुरुषप्रधानता की समस्या ना हो। फिर भी कई सभाओं में एक भी महिला की भागीदारी देखने को नहीं मिलती और ना ही वे सभाएं इसमें कोई बदलाव करना चाहती। अलबत्ता, कुछ बोर्ड व सभाएं इस तरह का असंतुलन बताए जाने पर स्वीकार करते हैं और बदलाव भी करते हैं।

जोनाथन इसेन का कहना है कि एकएक व्यक्ति के स्तर पर इसे हल नहीं किया जा सकता है। संस्थाओं, विभागों, समाज, और पत्रिकाओं को मिलकर ही इस समस्या को सुलझाना होगा। कीविट का कहना है कि संपादक मंडल में महिलाओं की ज़्यादा भागीदारी से जर्नल को ही फायदा होगा। यदि आपका संपादक मंडल एकरस होगा तो आपके द्वारा प्रकाशित शोधपत्रों में भी एकरसता होगी, जो विज्ञान की दृष्टि से अच्छा नहीं है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://i.guim.co.uk/img/static/sys-images/Guardian/Pix/pictures/2015/3/17/1426579244110/4928df36-33f3-4cad-81e8-138870068f51-2060×1549.jpeg?width=300&quality=85&auto=format&fit=max&s=7c3b57eefe04dc6a2585b1de38454399