‘फेयर एंड लवली’ बनाम ‘डार्क एंड हैंडसम’ – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

किसी चीज़ का नामकरण एक कला है, जो चीज़ का रुतबा बढ़ा या घटा सकती है। सरकारों में और जन संपर्क से जुड़ी संस्थाओं में इस कला का उत्कृष्ट इस्तेमाल किया जाता है। संयुक्त सचिव में एक (संयुक्त) विशेषण होने के बावजूद भी शासन में संयुक्त सचिव का ओहदा सचिव की तुलना में कम है। जहां पूरे भारत का एक उपराष्ट्रपति होता है वहीं जन संपर्क संस्थाओं में दर्जनों हो सकते हैं।

इस तरह के नामकरण कृषि में भी हुए हैं। दलिया और रागी, ज्वार, जौं, बाजरा, वरगु जैसे अनाजों को मोटा अनाज कहा जाता है जबकि गेहूं और चावल को महीन अनाज कहा जाता है। पर ऐसा क्यों? क्या अनाज का आकार इतना मायने रखता है? या यह रंगभेद जैसा है? क्या महीन अनाज ‘फेयर एंड लवली’ हैं और बाजरा जैसे गहरे रंग वाले अनाज दोयम दर्जे के हैं, जिन्हें शहरी लोग नहीं खाते? ऐसी वरीयताएं मूर्खतापूर्ण है। गेहूं-चावल की तुलना में तथाकथित मोटे अनाजों में प्रति ग्राम अधिक पोषण होता है।

हाल ही में यह बात दो पेशेवर संदर्भों में व्यापक परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत हुई। पहला था डॉ. एम. एस. स्वामीनाथन के सम्मान में आयोजित सेमीनार। यह सेमीनार 7 अगस्त को स्वामीनाथन के 90 वर्ष पूरे करने के उपलक्ष्य में आयोजित किया गया था। सेमीनार की थीम थी ‘भूख से पूर्ण मुक्ति की चुनौती पूरी करने के लिए विज्ञान, टेक्नॉलाजी और जन नीतियां’। दूसरे शब्दों में, भूख मुक्त दुनिया का लक्ष्य कैसे पूरा करें। क्या दबंग लक्ष्य है! दूसरा, कोलंबिया विश्वविद्यालय की डॉ. रुथ डीफ्राइस और उनके सहकर्मियों द्वारा साइंस पत्रिका के 17 जुलाई के अंक में प्रकाशित एक रिपोर्ट में, जिसका शीर्षक है: ‘भूमि के अभाव में कृषि के मानक’ और उपशीर्षक है ‘पौष्टिकता को योजनाओं में शामिल किया जाना चाहिए’।

स्वामिनाथन ‘हरित क्रांति’ के योजनाकार रहे हैं। हरित क्रांति से भारत का खाद्य उत्पादन 60 सालों में 5 गुना बढ़ गया। इसकी बदौलत 4 गुना बढ़ी जनसंख्या की खाद्यान्न आपूर्ति होती है। (डीफ्राइस और अन्य भी यही कहते हैं कि खाद्यान्न उत्पादन में वृद्धि के चलते अनाज आपूर्ति में 3.2 गुना की वृद्धि हुई है और इसने 2.3 गुना बढ़ी जनसंख्या को पीछे छोड़ दिया है।) पिछले कुछ वर्षों में स्वामिनाथन ने ‘सदाहरित क्रांति’ की ज़रूरत पर बल दिया है। उनके द्वारा उजागर की गई ‘छिपी भूख’ को संबोधित करने की ज़रूरत है।

भूख का मतलब तो हम सभी समझते हैं मगर यह ‘छिपी भूख’ क्या बला है? चाहे हम गेहूं और चावल का अधिक उत्पादन और अधिक खपत कर रहे हैं तो भी क्या हमारे शरीर और मस्तिष्क को विकास और वृद्धि के लिए पर्याप्त पोषण मिला है? छिपी भूख का सम्बंध स्टार्च से मिली कैलोरी के अलावा शरीर में बाकी ज़रूरी पोषक तत्वों की पूर्ति से है। ये विटामिन, लौह, जस्ता, आयोडीन, कैल्शियम और अन्य तत्व हैं, जिन्हें ‘सूक्ष्म पोषक तत्व’ कहते हैं। इनकी शरीर में थोड़ी मात्रा में ज़रूरत होती है। पोषक तत्वों के मामले में मोटे अनाज गेहूं और चावल से बाजी मार लेते हैं। (गांधीजी संभवत: यह बात जानते थे, इसीलिए वे चाहते थे कि हम अनाज को पॉलिश ना करें बल्कि हाथ से कुटा धान खाएं। इस प्रक्रिया में सूक्ष्म पोषक तत्व सुरक्षित रहते हैं)। मक्का, जई या बाजरा की तुलना में महीन अनाज में आयरन और ज़िंक की बहुत कम मात्रा होती है। बाजरा में आयरन की मात्रा चावल से चार गुना अधिक है। जौं में ज़िंक गेंहू की तुलना में चार गुना ज़्यादा है। और सारे अनाज़ों की तुलना में मक्के में सबसे ज़्यादा पोषण है। ग्रामीण गरीब ज़्यादातर यही मोटे अनाज खाते हैं, पर अफसोस कि यह उन्हें पर्याप्त मात्रा में नहीं मिल पाता।

तो कृषि क्रांति के अगले चरण में हम कैसी योजना बनाएं कि पूरी दुनिया को संपूर्ण आहार मुहैया करा सकें, ना कि सिर्फ कैलोरी युक्त अनाज। पर्यावरणीय परिणामों – अधिक मात्रा में उर्वरक पानी की गुणवत्ता को प्रभावित करते हैं, कीटनाशकों का विषैलापन, जैव विविधता में कमी वगैरह – के चलते हरित क्रांति की आलोचना की गई है (चिड़िया द्वारा खेत चुग लिए जाने के बाद)।

इसे ज़्यादा स्वीकार्य बनाने के प्रयास चालू हो चुके हैं। अपेक्षा है कि पोषण युक्त मोटे अनाज की खेती पर्यावरण पर कम दबाव डालेगी (कम पानी और उर्वरक की ज़रूरत) और इसके अधिक पर्यावरण अनुकूल होने की भी उम्मीद है।

वास्तव में हमें अपनी सोच बदलने और मिश्रित खेती की रणनीति अपनाने की ज़रूरत है। डीफ्राइस के अनुसार उत्पादन को टन प्रति हैक्टर में नापने (जैसा आज किया जाता है) की बजाय हमें एक नया पैमाना अपनाना चाहिए, जिसे उन्होंने ‘पोषण उपज’ कहा है। इसका मतलब यह है कि प्रति वर्ष 1 हैक्टर में इतना खाद्य उत्पादन हो कि 100 वयस्कों को साल भर ज़रूरी पौष्टिक भोजन मिल सके।

इस नए पैमाने का उपयोग मिश्रित फसलों की ऐसी नीतियां तैयार करने के लिए किया जा सकता है जिनमें पोषण युक्त अनाज और पैदावार का संतुलन बना रहे। यह छिपी भूख की समस्या का समाधान करेगा और आने वाली पीढ़ी स्वस्थ और सुपोषित होगी।

अलग तरह से कहें, तो ‘डार्क एंड हैंडसम’ और ‘फेयर एंड लवली’ साथ-साथ चलें ताकि दुनिया भर के 16.5 करोड़ (अकेले भारत में 2.3 करोड़) कुपोषित बच्चों की संख्या को अगले एक दशक में बहुत कम किया जा सके। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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आंखों के आंसू पीता पतंगा

नवंबर 2017 में नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ अमेज़ोनियन रिसर्च, ब्राज़ील के पारिस्थितिकी विज्ञानी लिएंड्रो मोरास को मध्य अमेज़ोनिया में अपने एक शोध के दौरान कुछ विचित्र दिखा। एक काली ठोढ़ी वाली एंटबर्ड (Hypocnemoides melanopogon) पेड़ की एक डाल पर आराम से बैठी हुई थी। उसकी गर्दन के पीछे इरेबिड मॉथ (Gorgone macarea) था। यह पतंगा (मॉथ) एंटबर्ड की आंख में कुछ देख रहा था और ऐसा लग रहा था कि उसकी आंखों से कुछ पी रहा है। इसके लगभग 45 मिनट बाद उन्होंने एक और पतंगे को एक अन्य एंटबर्ड की आंख से आंसू पीते देखा।

कुछ तितलियां और मधुमक्खियां अन्य जानवरों के आंसू पीती हैं। तितलियां किनारों पर धूप सेंकते मगरमच्छों के आंसू पीती हैं और मधुमक्खी कछुओं के। किंतु कीट द्वारा फुर्ती से उड़ने वाले पक्षियों के आंसू पीना थोड़ा विचित्र था। शोधकर्ता का अनुमान है कि रात में जब पक्षियों की चयापचय क्रिया धीमी हो जाती है तब निशाचर पतंगे उनके आंसू पीते हैं। आराम से बैठी एंटबर्ड की आंखों से आंसू पीने की प्रक्रिया के दौरान ये उसके आराम में खलल पैदा नहीं करते, बल्कि एक सुरक्षित दूरी बनाए रखते हैं।

शोधकर्ताओं ने इकॉलॉजी पत्रिका में बताया कि पतंगों को इस पक्षी के आंसुओं से सोडियम, प्रोटीन जैसे कुछ पोषक तत्व मिलते होंगे। (स्रोत फीचर्स)

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शांतिस्वरूप भटनागर पुरस्कार के छह दशक – चक्रेश जैन

विख्यात वैज्ञानिक विक्रम साराभाई, जयंत नार्लीकर, एम. जी. के. मेनन, आसिमा चटर्जी, एम. एस. स्वामीनाथन, के. कस्तूरीरंगन और डी. बालसुब्रमण्यन भारत के सबसे बड़े और प्रतिष्ठित शांतिस्वरूप भटनागर पुरस्कार से नवाज़े जा चुके हैं। अब तक 535 वैज्ञानिकों का चयन किया गया है – 519 पुरुष और 16 महिलाएं।

1942 में वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) की स्थापना के 16 वर्षों बाद 1958 में विज्ञान और प्रौद्योगिकी में मौलिक अनुसंधान को बढ़ावा देने के लिए प्रतिष्ठित वैज्ञानिक डॉ. शांतिस्वरूप भटनागर की स्मृति में यह पुरस्कार शुरू किया गया था। डॉ. भटनागर को भारत में अनुसंधान प्रयोगशालाओं के संस्थापक के रूप में याद किया जाता है।

इस वर्ष पुरस्कार के छह दशक पूरे हो रहे हैं। यह पुरस्कार प्रति वर्ष 26 सितंबर को सीएसआईआर के स्थापना दिवस पर नई दिल्ली में आयोजित एक समारोह में प्रदान किया जाता है। प्रत्येक पुरस्कृत वैज्ञानिक को पांच लाख रुपए नकद, प्रशस्ति-पत्र और स्मृति चिन्ह प्रदान किए जाते हैं। पुरस्कार विज्ञान की 7 शाखाओं में दिया जाता है – जीव विज्ञान, रसायन विज्ञान, इंजीनियरिंग, गणित, चिकित्सा विज्ञान, भौतिक शास्त्र तथा पृथ्वी, वायुमंडल, महासागर एवं खगोल विज्ञान।

प्रथम भटनागर पुरस्कार भौतिक विज्ञान में डॉ. के. एस. कृष्णन को दिया गया था। उन्होंने नोबेल विजेता वैज्ञानिक सी. वी. रमन के साथ ‘रमन प्रभाव’ पर शोध किया था। भौतिक शास्त्र में 1958 से 2017 के दौरान 96 भौतिक वैज्ञानिकों को सम्मानित किया जा चुका है। चिकित्सा विज्ञान पुरस्कार की स्थापना 1961 में की गई और प्रथम पुरस्कार ह्मदय-रक्त संचार औषधि विज्ञान में विशेष योगदान के लिए डॉ. राम बिहारी अरोरा को प्रदान किया गया। इस पुरस्कार के लिए 2017 तक 61 वैज्ञानिकों का चयन किया गया। गणित विज्ञान में 1959 में पुरस्कार आरंभ हुआ और अभी तक 67 गणितज्ञ सम्मानित हो चुके हैं। प्रथम पुरस्कार नंबर थ्योरी में कार्य के लिए के. चन्द्रशेखर को मिला था।

इंजीनियरिंग विज्ञान में पुरस्कार 1960 में शुरु हुआ और पहला पुरस्कार नाभिकीय वैज्ञानिक एच. एन. सेठना को दिया गया। अभी तक यह सम्मान 77 व्यक्तियों को मिल चुका है। रसायन विज्ञान में पुरस्कार 1960 में स्थापित किया गया और टी. आर. गोविंदाचारी को सम्मानित किया गया। लगभग छह दशकों के दौरान 92 वैज्ञानिक यह सम्मान प्राप्त कर चुके हैं। जीव विज्ञान विषय में 1960 में भटनागर पुरस्कार शुरू हुआ और प्रथम पुरस्कार वनस्पति विज्ञानी टी. एस. सदाशिवन को दिया गया। पुरस्कार की स्थापना से लेकर अभी तक 95 वैज्ञानिक सम्मानित हो चुके हैं। भू विज्ञान, वायुमंडल, महासागर और खगोल विज्ञान में अनुसंधान को बढ़ावा देने के लिए 1972 में पुरस्कार आरंभ हुआ। प्रथम पुरस्कार के लिए चुने जाने का सम्मान प्रोफेसर के. नाहा को प्राप्त हुआ। अभी तक 47 वैज्ञानिकों को यह सम्मान मिल चुका है।

नौ वैज्ञानिक मध्यप्रदेश से

पुरस्कार की शुरुआत से लेकर अब तक सम्मानित 535 वैज्ञानिकों में से नौ वैज्ञानिक ऐसे हैं, जिनका किसी-न-किसी रूप में मध्यप्रदेश से सम्बंध रहा है। 1974 में प्लाज़्मा भौतिकी में विशेष योगदान के लिए पुरस्कृत डॉ. एम. एस. सोढ़ा देवी अहिल्या विश्वविद्यालय, इंदौर और बरकतउल्ला विश्वविद्यालय, भोपाल के कुलपति रह चुके हैं। डॉ. जे. जी. नेगी को 1980 में पृथ्वी विज्ञान में विशेष योगदान के लिए भटनागर पुरस्कार मिला था। नेगी ने अपने कैरियर की शुरुआत होल्कर साइंस कालेज, इंदौर से व्याख्याता के रूप में की थी। बाद में सीएसआईआर की हैदराबाद स्थित एनजीआरआई प्रयोगशाला में वैज्ञानिक नियुक्त रहे। डॉ. नेगी दो बार म. प्र. विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी परिषद के महानिदेशक भी रह चुके हैं।

लेज़र विज्ञान विशेषज्ञ डॉ. डी. डी. भवालकर मध्यप्रदेश के सागर में पैदा हुए और उन्होंने यहां के डॉक्टर हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त की। उन्हें 1982 में इंदौर स्थित राजा रामन्ना प्रगत प्रौद्योगिकी केंद्र का संस्थापक निदेशक नियुक्त किया गया। डॉ. भवालकर को 1984 में शांतिस्वरूप भटनागर पुरस्कार दिया गया। ग्वालियर में जन्मे डॉ. अजय कुमार सूद को 1990 में भौतिक विज्ञान में नैनो प्रौद्योगिकी में विशिष्ट शोधकार्य के लिए भटनागर पुरस्कार प्रदान किया गया। जबलपुर मेडिकल कालेज से चिकित्सा विज्ञान की उपाधि प्राप्त शशि वाधवा को चिकित्सा विज्ञान में शोध के लिए भटनागर पुरस्कार मिला। डॉ. गया प्रसाद पाल को 1993 में चिकित्सा विज्ञान में विशेष अनुसंधान के लिए पुरस्कृत किया गया। इंदौर में पैदा हुए डॉ. पाल ने यहां के एमजीएम मेडिकल कालेज से चिकित्सा विज्ञान की पढ़ाई की थी।

डॉ. राजीव लक्ष्मण करंदीकर को वर्ष 1999 में गणित में संभाविता सिद्धांत में शोध के लिए भटनागर पुरस्कार प्रदान किया गया था। उन्होंने इंदौर के होल्कर साइंस कालेज से गणित विषय में स्नातक शिक्षा ग्रहण की थी। डॉ. उमेश वाष्र्णेय ने ग्वालियर के जीवाजी विश्वविद्यालय से स्नातक उपाधि प्राप्त की थी, जिन्हें 2001 में आणविक जीव विज्ञान में विशेष योगदान के लिए पुरस्कृत किया गया था। प्रो. विनोद कुमार सिंह भोपाल स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस एजूकेशन एंड रिसर्च (आइसर) के संस्थापक निदेशक हैं, जिन्हें 2004 में रसायन विज्ञान में शोध के लिए भटनागर पुरस्कार के लिए चुना गया।

सिर्फ 16 महिला वैज्ञानिक

भटनागर पुरस्कार की शुरुआत से लेकर अब तक केवल 16 महिला वैज्ञानिकों का चयन किया गया है। आसिमा चटर्जी, शांतिस्वरूप भटनागर पुरस्कार के लिए चयनित पहली महिला वैज्ञानिक थीं। उन्हें 1961 में रसायन विज्ञान में यह सम्मान मिला था। अन्य 15 वैज्ञानिकों में अर्चना शर्मा (वर्ष 1975, जीव विज्ञान), इंदिरा नाथ (1983, चिकित्सा विज्ञान), रामन परिमाला (1987, गणित), मंजू रे (1989, जीव विज्ञान), सुदीप्ता सेनगुप्ता (1991, पृथ्वी, वायुमंडल, महासागर एवं खगोल विज्ञान), शशि वाधवा (1991, चिकित्सा विज्ञान), विजयलक्ष्मी रवींद्रनाथ (1996, चिकित्सा विज्ञान), सुजाता रामदुराई (वर्ष 2004, गणित), रमा गोविंदराजन (2007, इंजीनियरिंग विज्ञान), चारुसीता चक्रवर्ती (2009, रसायन विज्ञान), शुभा तोले (2010, जीव विज्ञान), संघमित्रा बंधोपाध्याय (2010, इंजीनियरिंग विज्ञान), मिताली मुखर्जी (वर्ष 2010, चिकित्सा विज्ञान), यमुना कृष्णन (2013, रसायन विज्ञान) और वी. अशोक वैद्य (2015, चिकित्सा विज्ञान) शामिल हैं।

वर्ष 2010 में चुने गए कुल 9 वैज्ञानिकों में से तीन महिला वैज्ञानिकों की सहभागिता से यह अनुमान व्यक्त किया गया था कि महिला वैज्ञानिकों की हिस्सेदारी में बढ़ोतरी होगी। परंतु 2011, 2012 और 2014 में किसी भी महिला वैज्ञानिक का चयन नहीं हुआ। एक अध्ययन से पता चला है कि विज्ञान की विभिन्न विधाओं में स्थापित इस राष्ट्रीय पुरस्कार में महिलाओं ने जगह तो बनाई है, लेकिन अभी स्थिति चिंताजनक है।

राज्य सभा में नामजद वैज्ञानिकों में डॉ. शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार से सम्मानित व्यक्तियों में आसिमा चटर्जी और डॉ. के. कस्तूरीरंगन शामिल हैं। भटनागर पुरस्कार से सम्मानित वैज्ञानिकों की सूची में मराठी और हिंदी के सुप्रसिद्ध विज्ञान कथा लेखक और विज्ञान संचारक जयंत विष्णु नार्लीकर और लंबे समय से अंग्रेज़ी में नियमित रूप से विज्ञान विषय पर लिख रहे डी. बालसुब्रामण्यन शामिल हैं। (स्रोत फीचर्स)

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इस वर्ष के इगनोबल पुरस्कार

विभिन्न वैज्ञानिक क्षेत्रों में हर साल इगनोबल पुरस्कार दिए जाते हैं। इगनोबल पुरस्कार उन शोध या अध्ययन को दिए जाते हैं जो सुनने में थोड़े हास्यापद लगते हैं किंतु उतने ही महत्वपूर्ण होते हैं और इन्हें उतनी ही संजीदगी से किया जाता है।

इन पुरस्कार की शुरुआत एनल्स ऑफ इमप्रॉबेबल रिसर्च पत्रिका द्वारा की गई थी। हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी 10 क्षेत्रों में इगनोबल पुरस्कार दिए गए। वैसे इस वर्ष के पुरस्कार की थीम दी हार्ट थी किंतु अधिकांश पुरस्कार शरीर के कम शायराना अंगों पर शोध या अध्ययन के लिए दिए गए।

इस वर्ष चिकित्सा में पुरस्कार डॉक्टर की उस जोड़ी को दिया गया जिन्होंने साल 2016 में इस सवाल पर अनुसंधान किया था कि क्या रोलर कोस्टर की सवारी करने से किडनी स्टोन (पथरी) से निजात मिल सकती है। उन्होंने किडनी के त्रिआयामी मॉडल लिए और उन्हें डिस्नी के रोलर कोस्टर झूले की 20 सवारियां करवार्इं। उन्होंने पाया कि झूले के पिछले हिस्से में बैठने पर 64 प्रतिशत संभावना होती है कि स्टोन निकल जाए। जबकि आगे की सीट पर सवारी करने पर यह संभावना 17 प्रतिशत ही रहती है। तो सवारी का मज़ा भी और इलाज भी।

रिप्रोडक्टिव मेडिसिन में शोधकर्ताओं की एक तिकड़ी को यह पुरस्कार दिया गया है। उन्होंने 4 दशक पहले उनके ही द्वारा इजाद तकनीक से पुरुषों में रात के समय शिश्न में कितना इरेक्शन होता है का पता लगाया। उनकी यह तकनीक 100 प्रतिशत सटीक है।

चिकित्सा शिक्षा के लिए जापान के अकीरा होरिउची को पुरस्कार दिया गया। उन्होंने यह पता किया कि बैठेबैठे खुद की कोलानोस्कोपी कितनी सहजता और दक्षता से की जा सकती है। खुद पर प्रयोग करके उन्होंने पाया कि इसमें ज़्यादा परेशानी महसूस नहीं होती।

साहित्य का इगनोबल पुरस्कार उस टीम को मिला है जिन्होंने अपने अध्ययन में यह दर्शाया कि जटिल उत्पाद या मशीन का उपयोग करने वाले अधिकतर लोग उसका मैनुएल नहीं पढ़ते।

ड्रायविंग में टक्कर के समय बात नोकझोंक या गालीगलौज तक पहुंच जाती है। ऐसा कितनी बार होता है, किन कारणों से हाता है और इसके प्रभाव को समझने के लिए शांति का इगनोबल पुरस्कार दिया गया।

अर्थ शास्त्र का पुरस्कार उस अध्ययन के लिए मिला जिसमें पता किया गया कि परेशान करने वाले बॉस के पुतले पर सुइयां चुभोने से लोग तनावमुक्त महसूस करते हैं या नहीं।

रसायन के लिए पुरस्कार उन शोधकर्ताओं को मिला जिन्होंने बताया कि थूक से चीज़ें चमकाने पर ज़्यादा चमकेंगी। उन्होंने 1800 साल पुरानी मूर्तियों को थूक और अलगअलग एल्कोहल क्लीनर से साफ किया। थूक की सफाई बेहतर थी।

समारोह में पुरस्कार विजेताओं को आभार भाषण में सिर्फ 60 सेकंड बोलने की इज़ाजत थी। इससे लंबा होता तो वहां बैठी एक बच्ची कहने लगती, कृपया बस करें, मैं बोर हो रही हूं।

समारोह के अंत में दी ब्रोकन हार्ट ऑपेरा प्रस्तुत किया गया जिसके दौरान बच्चे मशीनी दिल बना रहे थे जिसे ऑपेरा के अंत में उन्होंने तोड़ दिया। और फिर जैसे ही हाउ केन यू मेन्ड ए ब्राकन हार्ट (तुम टूटा हुआ दिल कैसे जोड़ सकते हो) शुरु हुआ बच्चों ने उसे टूटे दिल को फिर जोड़ना शुरू कर दिया। (स्रोत फीचर्स)

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अंडों का आकार कैसे तय होता है?

अंडे विविध आकारों के होते हैं एकदम गोल से लेकर शंकु तथा अंडाकार तक। यह सवाल वैज्ञानिक काफी समय से पूछते आ रहे हैं कि अंडों के आकार में इतनी विविधता क्यों है और किसी प्रजाति के पक्षियों के अंडे के आकार पर किन बातों का असर पड़ता है।

पिछले वर्ष प्रिंसटन विश्वविद्यालय की जीव वैज्ञानिक मैरी स्टोडार्ड ने 1400 प्रजातियों के करीब 50 हज़ार अंडों का अध्ययन करके यह निष्कर्ष प्रस्तुत किया था कि अंडों के आकार का सम्बंध उड़ने की ज़रूरत से निर्धारित होता है। अध्ययन तो काफी विशाल था किंतु कई वैज्ञानिक स्टोडार्ड के इस निष्कर्ष से सहमत नहीं थे। इससे पहले कई अन्य वैज्ञानिक इस मामले में अपने विचार रख चुके हैं। कुछ का कहना है कि अंडों के आकार से तय होता है कि घोंसले में कितने अंडे रखे जा सकेंगे, अन्य मानते हैं कि अंदर विकसित होते भ्रूण को ऑक्सीजन की सप्लाई आकार का मुख्य निर्धारक है जबकि कुछ वैज्ञानिकों का मत है कि घोंसलों में से अंडों को लुढ़ककर गिरने से बचाने में आकार की भूमिका है।

अब शेफील्ड विश्वविद्यालय के टिम बर्कहेड ने कुछ प्रयोगों के आधार एक नई व्याख्या पेश की है। इससे पहले वे गणितज्ञों के साथ काम करके अंडों के विभिन्न आकारों को गणितीय रूप में परिभाषित करने का प्रयास करते रहे हैं। अंडों के आकार में विविधता के कारणों को समझने के लिए उन्हें सामान्य मुर्रे (Uria aalge) और उसके निकट सम्बंधी पक्षियों के अंडों का अध्ययन किया। ये सभी पक्षी चट्टानों की कगारों पर अंडे देते हैं।

मुर्रे के अंडे नाशपाती के आकार के होते हैं। ये एक बार में एक नीले रंग का चितकबरा अंडा देते हैं और एक छोटीसी जगह में बहुत सारे पक्षी अंडे देते हैं। इस जगह पर अंडे का टिक पाना थोड़ा मुश्किल होता है क्योंकि थोड़ासा असंतुलन पैदा होने पर अंडा लुढ़ककर टपक सकता है। बर्कहेड और उनके साथियों ने मुर्रे के अंडा देने के ऐसे एक स्थल की अनुकृति अपनी प्रयोगशाला में बनाई। इस पर रेगमाल चिपका दिया गया था ताकि चट्टान का खुरदरापन बना रहे। अब इसकी कगार पर एक अंडा मुर्रे का रखा और दूसरा अंडा उसके एक निकट सम्बंधी का रखा जो थोड़ा लंबा दीर्घवृत्ताकार था।

देखा गया कि मुर्रे का अंडा इस परिवेश में कहीं ज़्यादा स्थिर रहा। जब चट्टान की ढलान बढ़ाई गई तो भी वह टिका रहा। बर्कहेड का कहना है कि मुर्रे का अंडा एक तरफ से थोड़ा नुकीला होता है। इस वजह से जब वह लुढ़कने लगता है तो सीधी रेखा में न लुढ़ककर गोलाई में लुढ़कता है जिसकी वजह से वह गिरता नहीं बल्कि गोलगोल घूमता रहता है।

यही प्रयोग 30 अन्य प्रजातियों के अंडों पर भी दोहराए। इस आधार पर उन्होंने दी ऑक व आइबिस नामक शोध पत्रिकाओं में निष्कर्ष दिया है कि अंडा देने की जगह अंडों के आकार में दोतिहाई विविधता की व्याख्या करती है।

एक अन्य समूह ने कृत्रिम रूप से निर्मित अंडों पर प्रयोग करके यही निष्कर्ष निकाला है। न्यूयॉर्क सिटी युनिवर्सिटी और हंटर कॉलेज के शोधकर्ताओं ने 11 प्रजातियों के पक्षियों के अंडों के 3-डी प्रिंटर से बनाए गए मॉडल्स का अध्ययन किया। जर्नल ऑफ एक्सपेरिमेंटल बायोलॉजी में प्रकाशित उनके शोध पत्र का भी यही निष्कर्ष है कि अंडों के टिके रहने का उनके आकार के निर्धारण में मुख्य महत्व है। वैसे अभी मामला पूरी तरह सुलझा नहीं है और आगे शोध तथा नए निष्कर्षों की प्रतीक्षा करनी होगी। (स्रोत फीचर्स)

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मकड़ियों के रेशम से बने वैक्सीन – डॉ. विपुल कीर्ति शर्मा

कैंसर की कोशिकाएं सामान्य कोशिकाओं से प्रमुख रूप से इस बात में भिन्न होती हैं कि वे निरंतर विभाजित होती हैं। इस कारण उनकी संख्या में लगातार अनावश्यक वृद्धि होती जाती है। हमारे शरीर की प्रतिरक्षा तंत्र की कोशिकाएं इन्हें नष्ट करने की कोशिश तो करती हैं किंतु हर बार ही इनकी कोशिश सफल हो इसकी संभावना कम ही होती है। कैंसर के इलाज के लिए वैक्सीन के द्वारा प्रतिरक्षा तंत्र की कोशिकाओं को उत्तेजित किया जाता है ताकि वे भी तेज़ी से विभाजित होकर अपनी संख्या बढ़ाएं और कैंसर कोशिकाओं को मार सकें।

जेनेवा व फ्राइबर्ग विश्वविद्यालय तथा जर्मनी के म्युनिक और बायरुथ विश्वविद्यालय के साथ एक स्टार्टअप कंपनी ए.एम. सिल्क के मित्रों की मंडली ने संयुक्त रूप से एक आश्चर्यजनक प्रयोग किया है। उन्होंने मकड़ी के जाले से बने सूक्ष्म कैप्सूल में वैक्सीन को भरकर प्रतिरक्षा तंत्र की कोशिकाओं में प्रविष्ट करा दिया। इससे ये कोशिकाएं तेज़ी से विभाजित होंगी और कैंसर कोशिकाओं की भारी संख्या को पराजित करने के लिए इनकी भी पर्याप्त संख्या उपलब्ध होने लगेगी। अगर यह प्रयोग सफल हुआ तो इस प्रकार के कैप्सूल अनेक गंभीर बीमारियों के इलाज में प्रयुक्त हो सकेंगे।

हमारे शरीर में हर पल रोगाणु प्रवेश करते रहते हैं। शरीर को स्वस्थ रखने की ज़िम्मेदारी प्रतिरक्षा तंत्र के दो तरीकों पर निर्भर करती है। एक तरीका सेल मेडिएटेड प्रतिरक्षा कहलाता है, जिसमें विशेष टीकोशिकाएं रोगाणुओं को चुनचुन कर मारती हैं। दूसरे प्रकार का तरीका ह्युमोरल प्रतिरक्षा कहलाता है। इसमें बीकोशिकाएं उत्तेजित होकर प्लाज़्मा कोशिकाओं का उत्पादन करती हैं जो एंटीबॉडी बनाकर रोगाणुओं को नष्ट करती हैं।

कैंसर और टी.बी. जैसी कुछ संक्रमणकारी बीमारियों में टीकोशिका को उत्तेजित करने की ज़रूरत होती है। टीकोशिकाएं तभी कार्य करती हैं जब रोगाणुओं की पहचान बताने वाले प्रोटीन के अंश (पेप्टाइड्स) टीकोशिका द्वारा पहचान लिए जाते हैं।

एक अकेली टीकोशिका की बजाय अनेक प्रकार की टीकोशिकाएं ट्यूमर कोशिका पर सम्मिलित रूप से आक्रमण करके मारती हैं। ये टीकोशिकाएं हैं CL, TC और NK कोशिकाएं। इस कार्य को अंजाम देने के लिए कुछ मित्र कोशिकाएं भी साथ देती हैं जैसेमेक्रोफेज, मास्ट कोशिकाएं तथा डेंड्राइटिक कोशिकाएं।

वर्तमान में उपयोग में आने वाले अधिकांश वैक्सीन केवल बीकोशिकाओं को उत्तेजित करते हैं। अब तक हम टीकोशिकाओं की कार्यक्षमता का दोहन नहीं कर पाए हैं। टी एवं बी दोनों कोशिकाओं को उत्तेजित करने से वैक्सीन बेहद कारगर हो सकते हैं।

सूक्ष्म कैप्सूल बनाना

कैंसरकारी ट्यूमर कोशिकाओं को नष्ट करने के लिए उपयोग में लाए गए कैप्सूल मकड़ी के जाले में प्रयुक्त रेशम प्रोटीन से बनाए गए हैं। इस कार्य के लिए युरोपियन वैज्ञानिकों ने वहां पर पाई जाने वाली बेहद आम मकड़ी एरेनियस डायाडेमेटस का उपयोग किया है। पहिए के समान रोज़ नए जाले बनाने वाली इस मकड़ी की पीठ पर क्रॉस बने होने के कारण इसे क्रॉस मकड़ी भी कहते हैं। क्रॉस मकड़ी के जाले के धागे बेहद हल्के, प्रतिरोधी और अविषैले होते हैं तथा इन्हें कृत्रिम रूप से प्रयोगशाला में संश्लेषित किया जा सकता है। वैज्ञानिकों नें क्रॉस मकड़ी के रेशम को प्रयोगशाला में बनाकर तथा पेप्टाइड में लपेटकर टीकोशिकाओं के अंदर प्रविष्ट हो सकने वाला सूक्ष्म कैप्सूल बनाया है। मकड़ी के रेशम से बना यह कैप्सूल पेप्टाइड को सुरक्षित रखकर कोशिका के भीतर तक ले जाता है। यह वैक्सीनेशन विधि बेहद कारगर और उपयोगी साबित हुई है तथा शोध के परिणाम प्रभावशाली रहे हैं।

मकड़ियों के रेशम से बने वैक्सीन का क्या लाभ है यह प्रश्न महत्वपूर्ण है। एक लाभ तो यह है कि इन्हें ठंडे वातावरण में रखने की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि ये बेहद खराब वातावरण में भी संरक्षित रहते हैं। इसलिए इनका एक्सपायरी टाइम भी बहुत लंबा होगा। सामान्य वैक्सीन को दूरस्थ स्थान तक ले जाते समय ठंडा रखना आवश्यक होता है क्योंकि गर्मी में ये बेअसर हो जाते हैं। किंतु सिंथेटिक रेशमी कैप्सूल में गर्मी सहन करने की इतनी क्षमता होती है कि ये कई घंटों तक 100 डिग्री सेल्सियस पर भी बगैर किसी नुकसान के कारगर सिद्ध होते हैं।

यद्यपि इस पूरी प्रक्रिया में कैप्सूल का सूक्ष्म आकार सर्वाधिक महत्वपूर्ण होता है, क्योंकि रेशम के साथ पेप्टाइड जुड़कर अणु बड़ा हो जाता है, और उसे ही कोशिका में प्रवेश करना होता है। अगर बड़े पेप्टाइड को रेशम से जोड़कर पहुंचाना है तो कुछ उपाय निकालने होंगे। फिर भी सैद्धांतिक रूप से पूरी प्रक्रिया बेहद सरल और कारगर है। और इसे व्यावहारिक बनाने के प्रयत्न निरंतर चल रहे हैं।

मकड़ियां भी वैज्ञानिक अनुसंधान में महत्वपूर्ण सिद्ध हो सकती है। किंतु ये उपेक्षा की शिकार हुई हैं। इनके जाले के रेशम का महत्व अब पहचाना जा रहा है। मकड़ियों पर और अधिक शोध की महत्ता को समझा जाना चाहिए तथा वैज्ञानिक शोध में मकड़ियों को भी उचित स्थान प्राप्त होना चाहिए। क्या पता आपके आसपास रहने वाली कोई मकड़ी विज्ञान के चमत्कारों को आगे ले जाने में मील का पत्थर साबित हो। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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