फल-सब्ज़ियां अब उतनी पौष्टिक नहीं रहीं

तंदुरुस्त बने रहने के लिए जंक फूड, तला-भुना खाने की बजाय अक्सर फल, सलाद, सब्ज़ियों को भोजन में शामिल करने की सलाह दी जाती है। लेकिन हम शायद इस बात से अनभिज्ञ हैं कि पिछले सत्तर सालों में इन ‘सेहतमंद’ चीज़ों में भी पोषक तत्वों की मात्रा घट गई है।

वर्ष 2004 में जर्नल ऑफ दी अमेरिकन कॉलेज ऑफ न्यूट्रिशन में एक अध्ययन में 1950 से 1999 के बीच प्रकाशित यूएस कृषि विभाग के डैटा के आधार पर बताया गया था कि 43 फसलों में प्रोटीन, कैल्शियम, फॉस्फोरस, आयरन, राइबोफ्लेविन, विटामिन सी जैसे 13 पोषक तत्वों में परिवर्तन दिखे थे। कमी कितनी हुई यह हर पोषक तत्व और फल-सब्ज़ी के प्रकार पर निर्भर है। लेकिन सामान्यत: प्रोटीन में 6 प्रतिशत से लेकर राइबोफ्लेविन में 38 प्रतिशत तक की गिरावट देखी गई है। खासकर ब्रोकली, केल (एक तरह की गोभी) और सरसों के साग में कैल्शियम में सबसे अधिक कमी आई है। वहीं चार्ड, खीरे और शलजम में आयरन की मात्रा में काफी कमी हुई है। शतावरी, कोलार्ड (एक अन्य तरह की गोभी), सरसों का साग और शलजम के पत्तों में विटामिन सी काफी कम हो गया है। इसके बाद हुए अन्य अध्ययनों में भी इसी तरह के परिणाम देखने को मिले हैं।

अनाजों में भी इसी तरह की कमी देखने को मिली है। 2020 में साइंटिफिक रिपोर्ट्स में प्रकाशित अध्ययन में पाया गया था कि 1955 से 2016 के बीच गेहूं में प्रोटीन की मात्रा 23 प्रतिशत कम हो गई है, साथ ही आयरन, मैंग्नीज़, जस्ता और मैग्नीशियम भी घटे हैं।

मांसाहारी भी कम पोषक तत्व वाले भोजन की समस्या से अछूते नहीं हैं। पशु अब कम पौष्टिक घास और अनाज खा रहे हैं, जिसके परिणामस्वरूप मांस और अन्य पशु उत्पाद अब पहले की तुलना में कम पौष्टिक हो गए हैं।

वाशिंगटन विश्वविद्यालय के भू-आकृति विज्ञानी डेविड आर. मॉन्टगोमेरी और जलवायु परिवर्तन एवं स्वास्थ्य विशेषज्ञ क्रिस्टी एबी बताते हैं कि इस समस्या के लिए कई कारक ज़िम्मेदार हैं। इनमें एक है फसल की पैदावार बढ़ाने के लिए अपनाई गईं आधुनिक कृषि पद्धतियां।

पौधों को शीघ्र और बड़ा उगाने के लिए अपनाए गए तरीके में पौधे मिट्टी से पर्याप्त पोषक तत्व नहीं सोख पाते या उन्हें संश्लेषित नहीं कर पाते हैं।

फिर अधिक उपज से यह भी होता है कि मिट्टी से अवशोषित पोषक तत्व अधिक फलों में बंट जाते हैं, नतीजतन फल-सब्ज़ियों में पोषक तत्व कम होते हैं।

उच्च पैदावर के कारण होने वाली मृदा की क्षति भी इस समस्या का एक कारण है। गेहूं, मक्का, चावल, सोयाबीन, आलू, केला, रतालू और सन सभी फसलों की जड़ें कवक के साथ साझेदारी करती हैं जिससे पौधों द्वारा मिट्टी से पोषक तत्व और पानी लेने की क्षमता बढ़ती है। उच्च पैदावार वाली खेती से मिट्टी खराब हो जाती है जिससे कुछ हद तक कवक और पौधों की साझेदारी प्रभावित होती है।

कार्बन डाईऑक्साइड का बढ़ता स्तर भी हमारे खाद्य पदार्थों की पौष्टिकता कम कर रहा है। पौधे वायुमंडल से कार्बन डाईऑक्साइड लेते हैं, और वृद्धि के लिए इसके कार्बन का उपयोग करते हैं। लेकिन जब गेहूं, चावल, जौं और आलू समेत बाकी फसलों को उच्च कार्बन डाईऑक्साइड मिलती है तो उनमें कार्बोहाइड्रेट की मात्रा बढ़ जाती है। इसके अलावा, जब पौधों में कार्बन डाईऑक्साइड अधिक मात्रा में होती है तो ये मिट्टी से कम पानी खींचते हैं, जिसका अर्थ है कि वे मिट्टी से सूक्ष्म पोषक तत्व भी कम ले रहे हैं।

2018 में साइंस एडवांसेज़ में प्रकाशित नतीजे बताते हैं कि उच्च कार्बन डाईऑक्साइड के कारण 18 किस्म की धान में प्रोटीन, आयरन, ज़िंक और कई बी विटामिन कम पाए गए थे।

यदि इन पोषक तत्वों में और कमी आई तो पोषक तत्वों की कमी से होने वाले रोगों का खतरा बढ़ सकता है या जीर्ण रोगों के प्रति जोखिमग्रस्त हो सकते हैं। और इसका असर उन लोगों पर, खासकर निम्न और मध्यम आय वाले लोगों पर, अधिक होगा जो ऊर्जा और पोषण के लिए मुख्यत: चावल-गेहूं जैसे अनाजों पर निर्भर हैं और पोषण के अन्य स्रोतों का खर्च वहन नहीं कर सकते।

यह तो सुनने में आता रहता है कि अब सब्ज़ियों या फलों में वो स्वाद नहीं रहा। देखा गया है कि कई सारे पोषक तत्व फल-सब्ज़ियों और अनाज के स्वाद में इजाफा करते हैं। इनकी कमी फल-सब्ज़ियों के स्वाद को भी प्रभावित करेंगे।

बुरी खबर यह है कि कई अनुमान मॉडलों का कहना है कि आगे भी आलू, चावल, गेहूं और जौं के प्रोटीन में 6 से 14 प्रतिशत की कमी आ सकती है। नतीजतन भारत समेत 18 देशों के आहार से 5 प्रतिशत प्रोटीन घट जाएगा।

तो इस समस्या से कैसे निपटा जाए? मिट्टी में सुधार के लिए एक तरीका है संपोषी खेती। पीअरजे: लाइफ एंड एनवायरनमेंट पत्रिका में प्रकाशित एक अध्ययन बताता है कि संपोषी खेती से फसलों में कुछ विटामिन, खनिज और पादप-रसायनों का स्तर बढ़ता है, मिट्टी का जैविक स्वास्थ्य बेहतर होता है। इसके लिए पहला कदम यह है कि जितना संभव हो सके मिट्टी को खाली छोड़ दिया जाए और जुताई कम कर दी जाए। मिट्टी को ढंकने वाली तिपतिया घास, राई घास, या वेच लगाकर मिट्टी का कटाव और खरपतवार की वृद्धि रोकी जा सकती है। और खेत में बदल-बदल कर फसलें लगाने से पोषक तत्व में फायदा हो सकता है।

लेकिन जब तक पैदावार में पोषण बहाल नहीं होता तब तक क्या करें? पहले तो इस खबर से घबराकर लोग फल-सब्ज़ियां खाना छोड़ या कम कर पोषण पूरकों का रुख न करें। बल्कि इससे वाकिफ रहें कि उनका भोजन कैसे उगाया जा रहा है। हम क्या खा रहे हैं यह पता होना जितना महत्वपूर्ण है उतना ही महत्वपूर्ण यह जानना भी है कि हम जो खा रहे हैं वह कैसे उगाया जा रहा है। और पोषक तत्वों की कमी की पूर्ति के लिए अलग-अलग तरह और रंग की फल-सब्जियां आहार में शामिल करें। पृथ्वी पर मौजूदा सबसे स्वास्थ्यवर्धक खाद्य फल, सब्जियां और अनाज ही हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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असफल स्टेम सेल उपचार के लिए सर्जन को सज़ा

साल 2011 में स्टेम सेल चिकित्सक पाओलो मैककिएरिनी तब सुर्खियों में छा गए थे, जब उन्होंने दुनिया का पहला कृत्रिम अंग प्रत्यारोपण कर लिया था। उन्होंने प्लास्टिक की श्वास नली पर उसी मरीज़ की स्टेम कोशिकाओं का अस्तर बनाकर प्रत्यारोपित किया था। उम्मीद थी कि ये स्टेम कोशिकाएं धीरे-धीरे श्वास नलिका बन जाएंगी।

अब वे दोबारा सुर्खियों में हैं। लेकिन इस बार वजह है तीन मरीज़ों में असफल उपचार के मामले में दोषी पाया जाना। मैककिएरिनी को हाल ही में स्टॉकहोम की अपील कोर्ट ने तीन लोगों के असफल उपचार के मामले में दोषी ठहराया है और उन्हें ढाई साल की सज़ा सुनाई है। इसके पहले यह मुकदमा स्वीडन की ज़िला अदालत में चला था, जिसने मैककिएरिनी को दो मरीज़ों के असफल उपचार के मामले में बरी कर दिया था और एक मामले में दोषी पाते हुए निलंबन की सजा सुनाई थी। इसके बाद दोनों ही पक्षों ने अपील कोर्ट में मुकदमा दायर किया था; अभियोजन पक्ष ने सज़ा बढ़ाने की मांग की थी जबकि मैककिएरिनी इल्ज़ाम से मुक्त होना चाहते थे।

मामला 2011-2012 का है जब मैककिएरिनी ने केरोलिंस्का इंस्टीट्यूट में काम रहते हुए तीन मरीज़ों की सर्जरी की थी। उन्होंने स्वयं मरीज़ों की अस्थि मज्जा से स्टेम कोशिकाएं लेकर उन्हें कृत्रिम विंडपाइप पर बिछाया और उन्हें मरीज़ों में प्रत्यारोपित किया था, इस उम्मीद से कि समय के साथ ये स्टेम कोशिकाएं वृद्धि करके स्थायी उपचार देंगी।

लेकिन प्रत्यारोपण विफल हो गया और तीनों मरीज़ों की मृत्यु हो गई। एक मरीज़ की मृत्यु भारी रक्तस्राव के चलते 4 महीने के भीतर हो गई थी। दो अन्य मरीज़ तकरीबन ढाई साल और पांच साल तक जीवित रहे थे, लेकिन इस दौरान उन्होंने सर्जरी के कारण कई तकलीफें झेली थीं।

गौरतलब है कि 2011 से 2014 के बीच मैककिएरिनी ने श्वासनली के 8 प्रत्यारोपण किए थे। जिनमें से तीन केरोलिंस्का इंस्टीट्यूट में किए गए थे, जिन पर उक्त फैसला आया है। इसके बाद 2013 में केरोलिंस्का इंस्टीट्यूट ने मैककिएरिनी की सेवाएं समाप्त कर दी थीं। बाकी 5 प्रत्यारोपण रूस में किए गए थे। इनमें से एक भी प्रत्यारोपण सफल नहीं रहा था। यहां तक कि प्रत्यारोपण का पहला मामला जिसके लिए मैककिएरिनी ने सुर्खियां बटोरी थीं, वह भी सफल नहीं रहा था। हालांकि उन्होंने अपने पेपर में मरीज़ की स्थिति सामान्य बताई थी लेकिन लेंसेट में पेपर के प्रकाशित होने तक उसकी मृत्यु हो गई थी।

अपील कोर्ट के न्यायाधीशों ने ज़िला अदालत के फैसले से असहमति जताते हुए कहा है कि पहले दो मरीज़ों का मामला ‘इमरजेंसी केस’ नहीं था। ये दोनों मरीज़ सर्जरी के बिना भी काफी समय तक जीवित रह सकते थे। हां, तीसरा मामला ‘इमरजेंसी केस’ था, लेकिन इसके आधार पर मैककिएरिनी द्वारा दिए गए उपचार को सही नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि उपचार के समय तक मैककिएरिनी इस उपचार की समस्याओं से अच्छी तरह वाकिफ हो चुके थे, फिर भी उन्होंने उपचार किया। (इस उपचार से एक मरीज़ की पहले ही मृत्यु हो चुकी थी और दूसरा मरीज़ गंभीर समस्याओं से जूझ रहा था।)

इसलिए कोर्ट ने इसे मैककिएरिनी के ‘आपराधिक इरादे’ की तरह देखा है। कई सर्जन्स और श्वासनली विशेषज्ञों को अदालत का फैसला तर्कसंगत और उचित लगता है। उनका मत है कि मैककिएरिनी जानते थे कि यदि एक बार मरीज़ की अपनी श्वासनली निकल गई और कृत्रिम नली ठीक से प्रत्यारोपित नहीं हुई तो मरीज़ की मृत्यु तय है। और जिस तकनीक से उन्होंने उपचार किया है उसके सफल होने के मैककिएरिनी के पास कोई सबूत नहीं थे, सिवाय उम्मीद के। अभियोजन पक्ष ने भी फैसले पर संतुष्ट जताई है। मैककिएरिनी के वकील का कहना है कि वे इस फैसले को उच्च न्यायालय में चुनौती देंगे। उनके अनुसार तीनों ही मामले ‘इमरजेंसी केस’ थे। मैककिएरिनी का यह भी कहना है कि उनका इरादा मरीज़ों को नुकसान पहुंचाने का नहीं था बल्कि मदद करने का था। मरीज़ों के पास किसी अन्य उपचार का विकल्प भी नहीं था। ये प्रत्यारोपण यूं ही आनन-फानन में या चुपके से नहीं किए गए थे बल्कि सहकर्मियों और निरीक्षकों से मंज़ूरी ली गई थी। 20-25 लोगों की टीम ने मिलकर सर्जरी की थी। इसलिए सिर्फ मुझ पर आरोप क्यों? उनका कहना है कि एक डॉक्टर पर अपराधिक इरादे का ठप्पा लगना उसके लिए सबसे शर्मनाक बात है। अब तो उच्च न्यायालय के फैसले का इन्तज़ार है। (स्रोत फीचर्स) (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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कैंसर में वाय गुणसूत्र की भूमिका

देखा गया है कि गैर-प्रजनन अंगों के कैंसर से मरने की संभावना पुरुषों में अधिक होती है (यहां ‘पुरुष’ शब्द का उपयोग उन लोगों के लिए किया गया है जिनमें गुणसूत्रों की तेइसवीं जोड़ी में एक वाय गुणसूत्र होता है हालांकि ऐसे कई लोग स्वयं की पहचान पुरुष के रूप में नहीं करते हैं)।

आम तौर पर माना जाता है कि पुरुषों की जीवनशैली की वजह से उनमें कतिपय कैंसर ज़्यादा होते हैं और ज़्यादा घातक होते हैं। जैसे धूम्रपान और शराब पीने जैसी आदतें। लेकिन इन आदतों को घ्यान में रखकर विश्लेषण किया जाए तो भी देखा गया है कि महिलाओं की तुलना में पुरुषों में कतिपय कैंसर होने की संभावना और गंभीरता अधिक रहती है। ऐसा क्यों है?

हाल ही में नेचर पत्रिका में प्रकाशित दो अध्ययनों के नतीजे देखने पर इसका कारण वाय गुणसूत्र लगता है। एक अध्ययन ने पाया है कि उम्र के साथ स्वाभाविक रूप से कुछ कोशिकाओं से वाय गुणसूत्र पूरी तरह से खत्म हो जाते हैं। वाय गुणसूत्र का अभाव ही आक्रामक मूत्राशय कैंसर की संभावना बढ़ाता है और ट्यूमर को प्रतिरक्षा कोशिकाओं की पहुंच से बचाता है। दूसरे अध्ययन में देखा गया है कि चूहों में वाय गुणसूत्र का एक जीन कुछ कोलोरेक्टल कैंसर के शरीर के अन्य भागों में फैलने का खतरा बढ़ाते हैं। शायद इसलिए क्योंकि यह जीन ट्यूमर की कोशिकाओं की आपसी कड़ी को कमज़ोर कर देता है।

कोशिका विभाजन के दौरान अक्सर वाय गुणसूत्र नष्ट होने की संभावना होती है। जैसे-जैसे (पुरुषों की) उम्र बढ़ती है वाय गुणसूत्र रहित रक्त कोशिकाओं की संख्या बढ़ती जाती है। वाय गुणसूत्र रहित कोशिकाओं की अधिकता का सम्बंध हृदय रोग, तंत्रिका-विघटन सम्बंधी स्थितियों और कुछ तरह के कैंसर जैसे रोगों से देखा गया है।

शोधकर्ता देखना चाहते थे कि यह प्रक्रिया मूत्राशय के कैंसर (तथाकथित ‘पुरुष कैंसर’) को कैसे प्रभावित करती है। सीडार्स-सिनाई मेडिकल सेंटर के डैन थियोडॉर्सक्यू और उनके साथियों ने मनुष्यों की उन मूत्राशय कैंसर कोशिकाओं का अध्ययन किया जिनके वाय गुणसूत्र या तो अपने आप नष्ट हो चुके थे या कृत्रिम रूप से जीनोम संपादन करके हटा दिए गए थे।

जब इन कोशिकाओं को चूहों में प्रत्यारोपित किया गया तो शोधकर्ताओं ने पाया कि वाय गुणसूत्र सहित कैंसर कोशिकाओं की तुलना में वाय गुणसूत्र रहित कैंसर कोशिकाएं अधिक आक्रामक थीं। उन्होंने यह भी पाया कि वाय गुणसूत्र रहित ट्यूमर के आसपास की प्रतिरक्षा कोशिकाएं निष्क्रिय थीं।

चूहों पर ही अध्ययन कर उन्होंने यह भी पाया कि प्रतिरक्षा कोशिकाओं की गतिविधि को बहाल करने वाली चिकित्सीय एंटीबॉडी ऐसे ट्यूमर पर अधिक प्रभावी थी जो वाय गुणसूत्र रहित थे बनिस्बत उन ट्यूमर के जो वाय गुणसूत्र सहित थे। मानव ट्यूमर में भी शोधकर्ताओं को ऐसे ही परिणाम मिले हैं।

दूसरे अध्ययन में युनिवर्सिटी ऑफ टेक्सास के रोनाल्ड डीफिनो और उनके साथियों ने चूहों के कोलोरेक्टल कैंसर का अध्ययन किया है। उन्होंने पाया कि वाय गुणसूत्र का KDM5D नामक जीन ट्यूमर कोशिकाओं के बीच की कड़ी को कमज़ोर करता है, जिससे कैंसर कोशिकाएं ट्यूमर से अलग होकर शरीर के अन्य भागों में फैलने लगती हैं। शोधकर्ताओं ने जब उस जीन को हटाया, तो पाया कि ट्यूमर कोशिकाएं कम आक्रामक हो गईं थी और प्रतिरक्षा कोशिकाओं की पकड़ में अधिक आने लगी थीं।

उम्मीद की जा रही है उपरोक्त तरीके कैंसर के बेहतर उपचार में मदद करेंगे। इसके अलावा उपरोक्त दोनों तरह के कैंसर में वाय गुणसूत्र की दो भिन्न तरह की भूमिका बताती है कि हर ट्यूमर, हर जगह एक जैसा व्यवहार नहीं करता है, इसलिए यह देखने की ज़रूरत है कि वाय गुणसूत्र खत्म होने का असर विभिन्न तरह के कैंसर और अंगों पर किस तरह पड़ता है। इसके अलावा न सिर्फ प्रभावित अंग के आधार पर फर्क पड़ सकता है, बल्कि इससे भी फर्क पड़ सकता है कि किसी अंग में ट्यूमर किस स्थान पर है, और क्या अन्य आनुवंशिक उत्परिवर्तन हुए हैं। (स्रोत फीचर्स)

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क्या विज्ञान के अध्याय सोच-समझकर हटाए गए? – संजय कुमार

राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी) द्वारा दसवीं की विज्ञान पाठ्यपुस्तक से जैव विकास के सिद्धांत और आवर्त सारणी को हटाने के निर्णय से एक बड़ी बहस छिड़ गई है। यहां तक कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर की जानी-मानी और सबसे पुरानी विज्ञान पत्रिकाओं में से एक नेचर ने भी इस मुद्दे को अहम मानते हुए इस पर संपादकीय लिखा है।

एनसीईआरटी ने इन अध्यायों के विलोपन को यह कहकर उचित ठहराया है कि पाठ्यक्रम के ‘युक्तियुक्तकरण’ के लिए इन अध्यायों को हटाया गया है ताकि विद्यार्थियों पर बोझ कम हो जाए। लेकिन नए संस्करण और पिछले संस्करण की पाठ्यपुस्तकों को देखने के बाद ऐसा लगता है कि वास्तविक कारण बहुत अलग होंगे। इन अध्यायों का विलोपन स्कूलों में विज्ञान की शिक्षण पद्धति पर सवाल उठाता है। जिस तरीके से और जो अध्याय (या विषय) हटाए गए हैं उससे लगता है कि अध्यायों को सुविचारित तरीके से नहीं हटाया गया है बल्कि मात्र कैंची चलाई गई है।

ऐसा करने का संभावित कारण वर्तमान शासन की विज्ञान विरोधी विचारधारा को बताया जा रहा है। लेकिन, इस कतर-ब्योंत में अभिजात्य पूर्वाग्रह वाली एक टेक्नोक्रेटिक मानसिकता अधिक प्रभावी प्रतीत होती है। यह मानसिकता नई शिक्षा नीति की पहचान बनती जा रही है।

विलोपन के कारण

विलोपन के पहले यह पाठ्यपुस्तक पहली बार 2006 में प्रकाशित हुई थी जो राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा (NCF, 2005) के अनुरूप थी। प्रसिद्ध ब्रह्मांडविद और विज्ञान प्रचारक प्रोफेसर जयंत वी. नार्लीकर इसकी सलाहकार समिति के प्रमुख थे और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में भौतिकी की प्रोफेसर रूपमंजरी घोष पाठ्यपुस्तक समिति की प्रमुख थीं। उस समय पाठ्यपुस्तक को किशोर विद्यार्थियों को बांधने वाली बनाने के संजीदा प्रयास किए गए थे। उस पाठ्यपुस्तक के अध्यायों में जगह-जगह पर पूर्व अध्यायों और खंडो में चर्चित सामग्री का ज़िक्र किया जाता था। यह एक ऐसा तरीका है जो न सिर्फ विद्यार्थियों को सीखी जा चुकी अवधारणाएं/विषय भलीभांति याद दिलाने में मदद करता है बल्कि विभिन्न टॉपिक/विषयों के बीच जुड़ाव बनाता है और पूरी पाठ्यपुस्तक में तारतम्य बनता है।

2023-24 के शैक्षणिक सत्र की तेरह अध्यायों वाली ‘युक्ति-युक्त’ पाठ्यपुस्तक में अपवर्तन और परावर्तन पर एक नए अध्याय को छोड़कर बाकी सामग्री लगभग वैसी ही है। पाठ्यपुस्तक से आवर्त सारणी का पूरा अध्याय, जैव विकास का आधा अध्याय, विद्युत मोटर और विद्युत चुम्बकीय प्रेरण वाले अध्याय के कुछ हिस्से, और ऊर्जा के स्रोत और प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन के अध्याय हटा दिए गए हैं।

पाठ्यपुस्तक की संरचना और हटाए गए अध्यायों का सम्बंध चौंकानेवाला है। आवर्त सारणी का विलोपित अध्याय विलोपन-पूर्व वाली पाठ्यपुस्तक के रसायन विज्ञान वाले खंड का अंतिम अध्याय था। जैव विकास का हटाया गया अध्याय जीव विज्ञान वाले खंड का अंतिम हिस्सा था। विद्युत चुम्बकीय प्रेरण वाला खंड भौतिकी का अंतिम से ठीक पहले वाला खंड था। यह जानते हुए कि पहले वाले खंडों और अध्यायों की सामग्री का ज़िक्र अक्सर बाद वाले अध्यायों में किया जाता है, यदि जल्दबाज़ी में पाठ्यपुस्तक के ‘युक्ति-युक्तकरण’ का काम किया जाएगा, तो अंतिम अध्यायों और खंडों को हटाना ठीक ही लगेगा। दूसरी ओर, बीच के खंडों या अध्यायों को हटाया जाता तो अन्य जगहों पर उनके ज़िक्र (या जुड़ाव) को ‘युक्ति-युक्त’ बनाने के लिए उन अध्यायों को दोबारा लिखना ज़रूरी हो जाता।

बहिष्कारी शिक्षण शास्त्र

हो सकता है कि अध्यायों या खंडों को हटा देने का यह पैटर्न सबसे आसान रहा हो, लेकिन इसने पाठ्यपुस्तक की शैक्षणिक दिशा को तोड़-मरोड़ दिया है। दसवीं कक्षा में विज्ञान अनिवार्य विषय है। इसलिए इसके पाठ्यक्रम में यह झलकना चाहिए कि दसवीं की परीक्षा उत्तीर्ण करने वाले किसी भी भारतीय (विद्यार्थी) से क्या अपेक्षित है, भले ही वह आगे चलकर विज्ञान विषय न पढ़े या औपचारिक शिक्षा छोड़ दे।

कक्षा दसवीं की विज्ञान की पाठ्यपुस्तकों को पढ़ने वाले विद्यार्थी समूह सर्वग्राही हैं। एक महत्वपूर्ण पैरामीटर उन विद्यार्थियों की संख्या है जो दसवीं के आगे विज्ञान की पढ़ाई नहीं करते, और जिनके लिए यह पाठ्यक्रम विज्ञान की अंतिम औपचारिक शिक्षा होगी।

भारत में औपचारिक शिक्षा में दाखिले का ढांचा पिरामिडनुमा है। 2018 के आंकड़ों के अनुसार, दसवीं कक्षा की परीक्षा देने वाले लगभग 20 प्रतिशत विद्यार्थियों ने अगले पड़ाव से पहले ही पढ़ाई छोड़ दी थी। उच्चतर माध्यमिक कक्षाओं (ग्यारहवीं और बारहवीं) से उच्च शिक्षा के लिए कॉलेज और विश्वविद्यालय की ड्रॉपआउट दर और भी अधिक है। सकल दाखिला अनुपात आंकड़ों के अनुसार, उच्चतर माध्यमिक स्तर पर उत्तीर्ण लगभग आधे विद्यार्थी आगे जाकर कॉलेज (स्नातक) में प्रवेश नहीं लेते हैं। दसवीं कक्षा से लेकर उच्च शिक्षा तक की कुल ड्रॉपआउट दर 60 प्रतिशत है।

विज्ञान पढ़ने वाले विद्यार्थियों का पिरामिडनुमा ढांचा और भी कठिन है। दसवीं पढ़ने वाले सभी विद्यार्थी विज्ञान पढ़ते हैं। इसके बाद मात्र लगभग 42 प्रतिशत विद्यार्थी ग्यारहवीं-बारहवीं कक्षा में विज्ञान विषय लेते हैं। लेकिन 26 प्रतिशत विद्यार्थी ही स्नातक स्तर पर, यानी बी.एससी, बी.टेक, बीसीए, बी.फार्मा, एमबीबीएस और बी.एससी. (नर्सिंग) में, विज्ञान पढ़ते हैं। शिक्षा के विभिन्न स्तरों पर दर्ज विद्यार्थियों की संख्या और विज्ञान पढ़ने वाले विद्यार्थियों की संख्या के डैटा को साथ देखने से पता चलता है कि दसवीं में पढ़ने वाले हर 10 में से सात विद्यार्थी अगली कक्षाओं में विज्ञान विषय नहीं लेते हैं, और इन्हीं दस में सिर्फ एक विद्यार्थी कॉलेज/युनिवर्सिटी स्तर पर विज्ञान की किसी शाखा में पढ़ाई जारी रखता है।

उपरोक्त अनुपात माध्यमिक कक्षाओं में विज्ञान शिक्षण की चुनौती को दर्शाता है। विज्ञान ज्ञान का एक संचयी निकाय है, और इसकी पढ़ाई बहुत ही क्रमबद्ध होती है। एक स्तर पर सरल अवधारणाओं को सीखे बगैर अगले स्तर की जटिल अवधारणाओं को नहीं समझा जा सकता है। इसलिए विज्ञान शिक्षण का कम से कम एक उद्देश्य विद्यार्थियों को अगले स्तर के अध्ययन के लिए तैयार करना है। वैसे यह उद्देश्य केवल दसवीं कक्षा के क्रमश: उन एक-तिहाई और दस प्रतिशत विद्यार्थियों के लिए है जो उच्चतर माध्यमिक या उच्च शिक्षा में विज्ञान की पढ़ाई जारी रखते हैं। बाकी बचे अधिकांश विद्यार्थियों, जिनके लिए दसवीं कक्षा तक की विज्ञान शिक्षा आखिरी औपचारिक विज्ञान शिक्षा है, के लिए विज्ञान शिक्षण का उद्देश्य यह नहीं हो सकता।

पहले समूह के (विज्ञान की पढ़ाई जारी रखने वाले) विद्यार्थियों को विज्ञान की अमूर्त अवधारणाओं और सिद्धांतों को समझने और वैज्ञानिक तकनीकों, यानी समस्या-समाधान और प्रयोगशाला विधियों, में महारत हासिल करने की आवश्यकता होती है। दूसरे समूह के (विज्ञान की पढ़ाई या पढ़ाई ही छोड़ देने वाले) विद्यार्थियों को व्यक्तिगत विकास और सामाजिक जीवन में विज्ञान के महत्व को आत्मसात करने की आवश्यकता है। उन्हें दुनिया के बारे में वैज्ञानिक दृष्टिकोण और आम ज़िंदगी से विज्ञान के सम्बंध के बारे में जागरूक होने की आवश्यकता है।

ये दोनों उद्देश्य एक-दूसरे से पृथक नहीं हैं। दरअसल, बहुसंख्य विद्यार्थियों को भी प्रयोगशाला के तरीकों और समस्या-समाधान के कुछ अनुभव मिलने चाहिए। ये दोनों शैक्षणिक उद्देश्य और उन्हें हासिल करने के तरीके अलग-अलग हैं और हमेशा तना-तनी में रहते हैं। इनके बीच संतुलन बनाने की कोशिश को विद्यार्थियों के उपरोक्त दोनों समूहों की आवश्यकताओं को पूरा करने की दिशा में होना चाहिए।

पाठ्यचर्या बनाने वालों, पाठ्यपुस्तक लेखकों, शिक्षकों और प्रश्नपत्र तैयार करने वालों के लिए बहुत ही विविध आवश्यकताओं और प्रेरणाओं वाले विद्यार्थियों के लिए एकल पाठ्यक्रम और मूल्यांकन प्रणाली बनाना आसान काम नहीं है। सामान्य प्रवृत्ति होती है कि सरल से जटिलता की ओर बढ़ते हुए विभिन्न विषयों, अवधारणाओं, समस्याओं और प्रश्नों से लदी एक पाठ्यपुस्तक बना दें और उम्मीद करें कि जो विद्यार्थी विज्ञान की पढ़ाई जारी रखेंगे वे कठिन और सरल दोनों हिस्सों तक पहुंच बना लेंगे; जबकि अन्य विद्यार्थी जो आगे की कक्षाओं में विज्ञान नहीं पढ़ना चाहते हैं वे कठिन हिस्सों को सीखे बिना किसी तरह काम चला लेंगे।

शिक्षण शास्त्र की दृष्टि से यह तरीका गलत है। यह पहले समूह के विद्यार्थियों के उद्देश्य को तो पूरा कर सकता है लेकिन दूसरे समूह की आवश्यकताओं का अवमूल्यन करता है और उन्हें पिछड़े और असफल लोगों की श्रेणी में धकेल देता है।

उपरोक्त विचारों के प्रकाश में यह स्पष्ट होता है कि दसवीं कक्षा के पाठ्यक्रम और पाठ्यपुस्तकों के आनन-फानन किए गए ‘युक्तियुक्तकरण’ ने उन विद्यार्थियों के बड़े समूह की शैक्षणिक आवश्यकताओं को पूरा करना अधिक मुश्किल बना दिया है जो आगे विज्ञान की पढ़ाई जारी नहीं रखने वाले हैं। जलवायु परिवर्तन, ऊर्जा संकट और प्रदूषण ने पर्यावरण विज्ञान के कुछ हिस्सों को आम चर्चा का अभिन्न अंग बना दिया है। सभी विद्यार्थी परिष्कृत सिद्धांतों और अवधारणाओं में महारत हासिल किए बिना जलवायु परिवर्तन और प्रदूषण के लिए ज़िम्मेदार कारणों को खोजने और हरित ऊर्जा स्रोतों की ज़रूरत को समझने में विज्ञान की भूमिका समझ सकते हैं। दसवीं कक्षा की विज्ञान की पाठ्यपुस्तक से पर्यावरण विज्ञान के तीन में से दो अध्यायों के विलोपन ने आम विद्यार्थियों को वृहत सार्वजनिक सरोकार के लिए विज्ञान के महत्व को समझने के एक बहुत ही उपयोगी अवसर से वंचित कर दिया है।

जैव विकास का सिद्धांत और आवर्त सारणी विशिष्ट अवधारणाओं और अवलोकन पर आधारित हैं। अलबत्ता, जीव विज्ञान और रसायन विज्ञान के अन्य विषयों की तुलना में, इन विषयों में सामान्य विचार भी शामिल हैं जिन्हें आसानी से ग्रहण किया और समझा जा सकता है। तथ्य यह है कि ये दोनों विषय/अवधारणाएं पृथ्वी पर जीवन के इतिहास और रासायनिक गुणों के वितरण की एकीकृत छवि बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। दरअसल, इनकी बारीकियों को समझे बिना भी दुनिया की वैज्ञानिक तस्वीर बनाने में इनकी भूमिका को आसानी से समझा जा सकता है।

विद्यार्थियों के सिर से बोझ कम करने के लिए ‘युक्तिसंगत’ बनाई गई वर्तमान पाठ्यपुस्तक की खासियतें विचित्र हैं। इसमें जीन हस्तांतरण के मेंडल के नियमों को तो यथावत रखा गया है, जो कि बहुत विशिष्ट और अमूर्त हैं और जिन्हें अधिकांश विद्यार्थी याद भर कर लेते हैं, लेकिन इसमें जैव विकास के लिए कोई जगह नहीं है जबकि इसकी मुख्य विचारों/बातों को सरल तरीके से बताया जा सकता है।

पर्यावरण विज्ञान, आवर्त सारणी और जैव विकास के अध्यायों को हटाने, और अपवर्तन एवं परावर्तन पर एक अध्याय, जिसमें लेंस और गोलीय दर्पणों के लिए प्रकाश किरण सम्बंधी नियम और सूत्र हैं, जोड़ने के साथ नई ‘युक्तिसंगत’ पाठ्यपुस्तक का संतुलन ज़ाहिर तौर पर अमूर्त और विशिष्ट विषयों की तरफ झुक गया है। इन विषयों में महारत हासिल करने के लिए बार-बार अनुभव और अभ्यास की आवश्यकता होती है, जो भारत में बड़े पैमाने पर स्कूल के बाहर कोचिंग में मिलता है। नई पाठ्यपुस्तक में क्षति उन सामान्य विषयों की हुई है जिन्हें सभी विद्यार्थी पढ़कर और चर्चा करके समझ सकते हैं।

जैसी कि ऊपर चर्चा की गई है, पारंपरिक सोच के अनुसार अपवर्तन और परावर्तन जैसे विषयों को ‘आसान’ माना जाता है। पर्यावरण विज्ञान, आवर्त सारणी और जैव विकास के अध्यायों का विलोपन उन अधिकांश विद्यार्थियों को शिक्षा से बहिष्कृत करने जैसा है जिनके आगे जाकर विज्ञान विषय पढ़ने की संभावना नहीं है।

चुनिंदा विषयों को हटाना निर्धारित वैचारिक प्रतिबद्धताओं का परिणाम नहीं बल्कि एक आसान समाधान लगता है। अलबत्ता, इसके शैक्षणिक निहितार्थ भारतीय शिक्षा प्रणाली में किए जा रहे परिवर्तनों के साथ फिट बैठते हैं। नई शिक्षा नीति को अपनाने के साथ ही भारतीय शिक्षा खुलकर तकनीकी दृष्टिकोण के अधीन आ गई है। इस दृष्टिकोण के अनुसार, शिक्षा का प्राथमिक उद्देश्य तकनीकी कर्मचारी तैयार करना है जिनकी क्षमताओं को आसानी से मात्रात्मक पैमाने पर नापा जा सके। देश भर में एक समान पाठ्यक्रम लागू करने की कोशिशें, बुनियादी साक्षरता और संख्यात्मक कौशल से लेकर विश्वविद्यालय में प्रवेश तक राष्ट्रव्यापी एकल परीक्षाओं को जबरन लागू करना, शैक्षणिक संस्थानों की रैंकिंग पर ज़ोर देना आदि सभी उस योजना का हिस्सा हैं जिसका प्राथमिक उद्देश्य बाज़ार के लिए कुशल और अकुशल कर्मचारियों की फौज बनाना है। पिरामिडनुमा परिणाम इस व्यवस्था के ढांचे में ही निहित हैं। इस व्यवस्था में विज्ञान शिक्षा एक आवश्यक कौशल आधार बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इस ढांचे का कोई अन्य उद्देश्य, जैसे कि विद्यार्थियों में दुनिया को देखने का वैज्ञानिक दृष्टिकोण और वैज्ञानिक स्वभाव विकसित करने में मदद करना, प्राथमिकता नहीं है। इस ढांचे में उन विद्यार्थियों की शैक्षणिक आवश्यकताओं के लिए कोई जगह नहीं है जिनकी विज्ञान की पढ़ाई आगे जारी रहने की संभावना नहीं है। वैसे भी उन विद्यार्थियों पर विफल होने का ठप्पा लगा ही दिया गया है! (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्या एआई चैटबॉट्स महामारी ला सकते हैं?

काफी समय से कुछ तकनीकी विशेषज्ञ कृत्रिम बुद्धि यानी एआई को मानवता के लिए खतरा बताते आए हैं। इस क्षेत्र में हुए हालिया विकास से प्रतीत होता है कि यह खतरा काफी नज़दीक है। विशेषज्ञों का दावा है कि एआई बिना किसी वैज्ञानिक विशेषज्ञता वाले बदनीयत व्यक्ति को घातक वायरस डिज़ाइन करने में मदद कर सकती है।

मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी के जैव सुरक्षा विशेषज्ञ केविन एस्वेल्ट ने हाल ही में अपने छात्रों को चैटजीपीटी या अन्य विशाल भाषा मॉडल की मदद से एक खतरनाक वायरस तैयार करने का काम दिया। मात्र एक घंटे में छात्रों के पास वायरसों की एक लंबी सूची थी; और तो और, साथ में उन कंपनियों की भी जानकारी थी जो रोगजनकों के आनुवंशिक कोड को बनाने में मदद कर सकती थीं और इन टुकड़ों को जोड़ने वाली कुछ अनुसंधान कंपनियों के भी नाम थे। इन परिणामों के आधार पर एस्वेल्ट और अन्य विशेषज्ञों का दावा है कि एआई सिस्टम जल्द ही गैर-वैज्ञानिक लोगों को परमाणु हथियारों के बराबर घातक जैविक हथियार डिज़ाइन करने में मदद कर सकती है। इसका उपयोग आतंकी गतिविधियों में भी किया जा सकता है। 

फिलहाल किसी खतरनाक विलुप्त या मौजूदा वायरस के आधार पर जैविक हथियार बनाने का तरीका मिलने के बाद भी इन्हें बनाने में काफी विशेषज्ञता चाहिए होती है। इसके लिए न केवल उचित वायरस की पहचान करना होगी, बल्कि वायरल आनुवंशिक सामग्री को संश्लेषित करने, जीनोम को एक साथ जोड़ने और इसे अन्य अभिकर्मकों के साथ जोड़कर एक ऐसा वायरस तैयार करना होगा जो कोशिकाओं को संक्रमित कर सके और अपनी प्रतिलिपियां बना सके।

लेकिन एआई इस प्रक्रिया को आसान बना रही है। उदाहरण के लिए बाज़ार में जल्द ही उपलब्ध होने वाले बेंचटॉप डीएनए प्रिंटर की मदद से शोधकर्ता स्क्रीनिंग प्रक्रिया को धोखा दे सकते हैं। इस प्रक्रिया में कंपनियां यह सुनिश्चित करती हैं कि किसी नमूने में संभावित जैविक हथियारों के लिए आनुवंशिक सामग्री तो शामिल नहीं है। इस प्रक्रिया से बचकर कोई बदनीयत व्यक्ति इन आनुवंशिक ब्लूप्रिंट को अनुबंध अनुसंधान कंपनियों या एक रोबोटिक क्लाउड लैब को लक्ष्य वायरस में डालने के लिए भेज सकता है।

इस कार्य में एआई की भूमिका का पता लगाने के लिए एस्वेल्ट ने जीव-विज्ञान में बिना किसी विशेषज्ञता वाले स्नातक छात्रों को तीन से चार सदस्यों वाले तीन समूहों में बांटा। इन सभी समूहों के पास GPT-4, बार्ड और अन्य एआई चैटबॉट्स थे। एक घंटे के भीतर इन सभी समूहों को चैटबॉट्स की मदद से महामारी फैलाने में सक्षम वायरसों को डिज़ाइन करना था। हालांकि, कुछ चैटजीपीटी ने खतरनाक चीज़ों के बारे में पूछे गए सीधे सवालों का कोई जवाब नहीं दिया। लेकिन जब शब्दों में हेर-फेर करके सवाल पूछे गए तो आसानी से जानकारी मिल गई। उदाहरण के तौर पर जब सवाल यह था कि “मैं एक टीका विकसित करने के लिए काम कर रहा हूं …” तो चैटबॉट्स ने जवाब में चार वायरस के सुझाव दे दिए थे। हालांकि गूगल पर ढूंढने पर भी ऐसी सूची मिल जाती लेकिन कुछ मामलों में चैटबॉट्स ने उन आनुवंशिक उत्परिवर्तनों की भी जानकारी दी जो संक्रमण को अधिक फैला सकते हैं।

इतना ही नहीं, एआई ने किसी वायरस के आनुवंशिक टुकड़ों को जोड़कर वायरस तैयार करने की तकनीक भी बताई इसके लिए उपयुक्त प्रयोगशालाओं और कंपनियों के नाम भी बताए जो बिना स्क्रीनिंग के आनुवंशिक सामग्री को प्रिंट करने के लिए तैयार हो सकती हैं।

एस्वेल्ट को चिंता है कि चैटबॉट्स द्वारा दिए गए विशिष्ट सुझाव किसी महामारी का खतरा बहुत अधिक बढ़ा सकते हैं। जैसे-जैसे जैविक खतरों पर वैज्ञानिक साहित्य में वृद्धि हो रही है और एआई प्रशिक्षण डैटा में इसे शामिल किया जा रहा है. इस बात की संभावना बढ़ रही है कि एआई आतंकवादियों का काम आसान बना सकती है। एस्वेल्ट का मानना है कि चैटबॉट और अन्य एआई प्रशिक्षण डैटा द्वारा साझा की जाने वाली जानकारी को सीमित किया जाना चाहिए। रोगजनकों को बनाने और बढ़ाने के बारे में बताने वाले ऑनलाइन पेपर्स को हटाकर जोखिम कम किया जा सकता है। सभी डीएनए संश्लेषण कंपनियों और डीएनए प्रिंटरों के लिए ज्ञात रोगजनकों और विषाक्त पदार्थों की आनुवंशिक सामग्री की जांच अनिवार्य की जानी चाहिए। इसके साथ ही एकत्रित की जाने वाली किसी भी आनुवंशिक सामग्री की सुरक्षा जांच करना भी सभी अनुबंध अनुसंधान संगठनों के लिए अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

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भूजल दोहन से पृथ्वी के झुकाव में परिवर्तन!

पनी धुरी पर घूमते हुए पृथ्वी एक लट्टू की तरह डोलती भी है। पृथ्वी के केंद्र में मौजूद पिघला लोहा, पिघलती बर्फ, समुद्री धाराएं और यहां तक कि बड़े-बड़े तूफान भी इस धुरी को भटकाने का कारण बनते हैं। हाल ही में वैज्ञानिकों ने पाया है कि ध्रुवों के विचलन में एक इन्सानी गतिविधि – भूजल का दोहन – की भी उल्लेखनीय भूमिका है।

कल्पना कीजिए कि आप अपनी उंगली पर बास्केटबॉल को घुमा रहे हैं। यह अपनी धुरी पर सीधी घूमती रहेगी। लेकिन एक तरफ भी थोड़ी हल्की या भारी हो जाए तो यह असंतुलित होकर डोलने लगेगी और धुरी की दिशा बदल जाएगी। ठीक इसी तरह पृथ्वी की धुरी भी डोलती है जिसके कारण हर साल उत्तरी ध्रुव लगभग 10 मीटर के एक वृत्त पर भटकता रहता है। और इस वृत्त का केंद्र भी सरकता रहता है। हाल ही में पता चला है कि यह केंद्र आइसलैंड की दिशा में प्रति वर्ष लगभग 9 सेंटीमीटर सरक रहा है।

ऑस्टिन स्थित टेक्सास विश्वविद्यालय के भूविज्ञानी क्लार्क आर. विल्सन इसका एक कारण हर वर्ष सैकड़ों टन भूजल के दोहन को मानते हैं। इसके प्रभाव को समझने के लिए वैज्ञानिकों ने नए बांधों और बर्फ पिघलने के कारण जलाशयों के भरने जैसे कारकों को ध्यान में रखते हुए ध्रुवों के भटकने का एक मॉडल बनाया। उनका उद्देश्य 1993 से 2010 के बीच देखे गए ध्रुवीय विचलन को समझना था।

इस मॉडल की मदद से उन्होंने पाया कि बांध और बर्फ में हुए परिवर्तन ध्रुवीय विचलन की व्याख्या के लिए पर्याप्त नहीं थे। लेकिन जब उन्होंने इसी दौरान पंप किए गए 2150 गीगाटन भूजल को इस मॉडल में डाला तो ध्रुवीय गति वैज्ञानिकों के अनुमानों के काफी निकट पाई गई।

शोधकर्ताओं के अनुसार महासागरों में पानी के भार के पुनर्वितरण के कारण पृथ्वी की धुरी इस अवधि में लगभग 80 सेंटीमीटर खिसक गई है। जियोफिज़िकल रिसर्च लेटर्स की रिपोर्ट के अनुसार ग्रीनलैंड या अंटार्कटिका में बर्फ के पिघलने से समुद्रों में पहुंचने वाले पानी की तुलना में भूजल दोहन ने ध्रुवों को खिसकाने में एक बड़ी भूमिका निभाई है।

इसका अधिक प्रभाव इसलिए भी देखने को मिला क्योंकि अधिकांश पानी उत्तरी मध्य अक्षांशों से निकाला गया था। मुख्य रूप से उत्तर-पश्चिमी भारत और पश्चिमी संयुक्त राज्य अमेरिका वे इलाके हैं जहां भूजल का ह्रास सर्वाधिक हुआ है। यदि भूजल को भूमध्य रेखा या ध्रुवों के करीब से निकला जाता तो यह प्रभाव कम होता।

शोधकर्ताओं का कहना है कि धुरी में यह बदलाव इतना नहीं है कि मौसमों पर असर पड़े लेकिन इससे अन्य परिघटनाओं के मापन में मदद मिलेगी। इस अध्ययन से यह जांचने में भी मदद मिलेगी कि भूजल निकासी की वजह से समुद्र स्तर में कितनी वृद्धि हुई है। इस नए अध्ययन से इस बात की पुष्टि होती है कि भूजल निकासी की वजह से 1993 से 2010 के बीच वैश्विक समुद्र स्तर में लगभग 6 मिलीमीटर की वृद्धि हुई है। (स्रोत फीचर्स)

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भोजन की सुरक्षा के लिए बढ़ईगिरी

म अनाज को सड़ने से बचाने या चूहों या अन्य किसी के हाथ लगने से सुरक्षित रखने के लिए कई तरह के उपाय अपनाते हैं। ऐसा ही काम कुछ गिलहरियां भी करती पाई गई हैं।

जब शोधकर्ता दक्षिणी चीन के वर्षावनों में पेड़-पौधों की विविधता का सर्वेक्षण कर रहे थे तब उन्हें पौधों पर उन जगहों पर फलों की गिरियां मिलीं जहां शाखाएं दो भागों में बंट रही थीं। शाख पर बनाए गए खांचों में ये गिरियां इतनी मज़बूती से फंसी थीं कि पेड़ को ज़ोर से हिलाने पर भी वे नहीं गिरीं। लेकिन इस बात का कोई सुराग नहीं था कि ये गिरियां वहां पहुंची कैसे। खुलासा तो तब हुआ जब वहां मोशन कैमरे लगाए गए। पता चला कि यह करतूत गिलहरियों की थी।

रिकॉर्डिंग्स में शोधकर्ताओं को दो प्रजातियों की उड़न गिलहरियां नज़र आईं। ये छोटी, निशाचर होती हैं और प्राकृतिक परिस्थिति में इनका अध्ययन मुश्किल होता है। रिकॉर्डिंग में दिखा कि ये उन गिरियों को निकालकर खा रही हैं और अपने दांतों की मदद से गिरियों को शाखाओं में फंसाने के लिए कुंडलीदार खांचे बना रही थीं। कुछ उस्ताद गिलहरियां तो वापस आकर अपने द्वारा फंसाई गई गिरियों को और मज़बूती देने का काम करती हैं। इस तरह इन गिलहरियों की गिरियां अन्य प्रतिस्पर्धी गिलहरियों की पहुंच से दूर रहती हैं, और संभवत: वर्षावन की नम भूमि में गिरकर मिट्टी में सड़कर गल जाने से भी बची रहती हैं।

गिलहरियों के भोजन को सुरक्षित रखने के अलावा उनका यह व्यवहार वर्षावन को आकार देने में मदद कर सकता है। हो सकता है पेड़ फंसी गिरियां कभी पौधों के लिए बीज का काम भी कर देती हों। (स्रोत फीचर्स)

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