चैटजीपीटी और शिक्षा के लिए चुनौतियां व अवसर

कृत्रिम बुद्धि के युग में, चैटजीपीटी एक शक्तिशाली साधन के रूप में उभरा है। यह पलभर में आकर्षक लेख, सोशल मीडिया पोस्ट, निबंध, कोड और ईमेल सहित विभिन्न लिखित सामग्री तैयार कर सकता है। इन क्षमताओं को देखते हुए शिक्षाविदों को डर है कि छात्र इसका उपयोग अपने शैक्षणिक कार्यों में कर सकते हैं। साइंटिफिक रिपोर्ट्स में प्रकाशित एक हालिया अध्ययन के अनुसार इसके द्वारा निर्मित सामग्री कॉलेज छात्रों के काम की गुणवत्ता के बराबर या उससे भी बेहतर हो सकती है। इस प्रकार से चैटजीपीटी शिक्षकों को वर्तमान शिक्षण विधियों और मूल्यांकन मानदंडों पर पुनर्विचार करने के लिए मजबूर करता है।

अबू धाबी स्थित न्यूयॉर्क विश्वविद्यालय के कंप्यूटर वैज्ञानिकों और शिक्षाविदों ने विभिन्न विषयों में 233 मूल्यांकन प्रश्नों का अध्ययन किया। उन्होंने छात्रों और चैटजीपीटी दोनों से प्राप्त जवाबों का निष्पक्ष ग्रेडर्स द्वारा मूल्यांकन करवाया। आश्चर्यजनक रूप से लगभग 30 प्रतिशत पाठ्यक्रमों में चैटजीपीटी के जवाबों को मानव छात्रों के जवाबों के बराबर या बेहतर ग्रेड मिले। शोधकर्ताओं का ख्याल है कि कृत्रिम बुद्धि के विकास के साथ यह प्रतिशत बढ़ेगा।

इतना ही नहीं, जीपीटी-3.5 और जीपीटी-4 जैसे जनरेटिव एआई मॉडल ने एसएटी, जीआरई, बार और एलएसएटी जैसी पेशेवर परीक्षाओं में उत्कृष्टता का प्रदर्शन किया है। इन्होंने मेडिकल कॉलेज की प्रवेश परीक्षाओं और अमेरिका के उच्च स्तरीय आइवी लीग फाइनल में मानव औसत से भी बेहतर परिणाम दिए हैं। ये निष्कर्ष शिक्षा में एआई के बढ़ते प्रभाव को उजागर करने के साथ-साथ शिक्षकों को बदलते परिदृश्य के अनुरूप ढलने के लिए प्रेरित करते हैं।

शैक्षणिक बेईमानी के लिए चैटजीपीटी के उपयोग का मुकाबला करने के लिए कुछ शिक्षकों ने स्वयं एआई के साथ प्रयोग करना शुरू किए हैं। बर्लिन स्थित कंप्यूटर साइंस की प्रोफेसर डेबोरा वेबर-वुल्फ चैटजीपीटी के माध्यम से परीक्षा और होमवर्क प्रश्न तैयार करती हैं और फिर उन्हें इस तरह संशोधित करती हैं कि वे एआई के लिए चुनौतीपूर्ण बन जाएं। वैसे इस रणनीति की अपनी सीमाएं हैं और संभव है कि एआई तकनीकें इसका भी कोई हल निकाल लेंगी।

देखा जाए तो नकल या धोखाधड़ी का मामला एआई की पैदाइश नहीं है। पूर्व में भी कई जगहों पर निबंध-लेखन सेवाएं उपलब्ध होती थीं लेकिन एआई ने इसे अधिक सुलभ और सरल बना दिया है। एक तरह से यह शिक्षा के प्रमुख उद्देश्य पर भी गंभीर सवाल उठाता है कि छात्र सीखने और दक्षता हासिल करने पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं या केवल अच्छे ग्रेड पाने का प्रयास कर रहे हैं।

यह ध्यान देने वाली बात है कि वर्तमान शिक्षा प्रणाली अक्सर विषय की वास्तविक समझ की बजाय ग्रेड पर अधिक ज़ोर देती है। ऐसे में छात्र ज्ञान अर्जन की बजाय बेहतर ग्रेड प्राप्त करने के लिए अनुचित रणनीति अपना रहे हैं। धोखाधड़ी में एआई का उपयोग इस बड़ी समस्या का एक लक्षण मात्र है। इसलिए, शिक्षकों को अपना ध्यान एआई-आधारित धोखाधड़ी से निपटने की बजाय अकादमिक बेईमानी के मूल कारणों पर केंद्रित करना चाहिए।

विशेषज्ञों का मानना है कि धोखाधड़ी और साहित्यिक चोरी की प्रवृत्ति सीखने के प्रति छात्रों के दृष्टिकोण से उत्पन्न होती है। यदि छात्रों को वास्तव में किसी कौशल में महारत हासिल करने के लिए प्रेरित किया जाए तो धोखाधड़ी की संभावना कम होती है। लेकिन जब उनका प्राथमिक लक्ष्य किसी भी कीमत पर उच्च ग्रेड प्राप्त करना हो तब वे एक साधन के रूप में एआई का सहारा क्यों नहीं लेंगे? इससे निपटने के लिए, ग्रेड की बजाय सीखने-समझने की संस्कृति को बढ़ावा देना चाहिए।

देखा जाए तो, एआई-आधारित धोखाधड़ी मूल्यांकन प्रक्रिया को कमज़ोर करने के अलावा छात्रों में लेखन कौशल के विकास में भी बाधा डालती है। लेखन विभिन्न व्यवसायों के लिए एक आवश्यक बुनियादी कौशल है और यह अवधारणाओं के बीच सम्बंध बनाने, समझ को बढ़ावा देने, स्मृति में सुधार और रिकॉल जैसी संज्ञान प्रक्रियाओं को बढ़ाता है। जो छात्र असाइनमेंट लिखने के लिए पूरी तरह से एआई पर निर्भर रहते हैं वे इन संज्ञान लाभों से भी चूक जाते हैं।

दरअसल, एआई को एक खतरे के रूप में देखने की बजाय, शिक्षक इसे अपनी शिक्षण रणनीतियों में शामिल कर सकते हैं। इसमें छात्र एआई ट्यूटर टूल का उपयोग करके घर पर सीखने के स्व-निर्देशित तरीके अपना सकते हैं और कक्षा के समय का उपयोग सहपाठियों के साथ परियोजनाओं पर काम के लिए कर सकते हैं।

इसके अतिरिक्त, व्यक्तिगत फीडबैक और प्रक्रिया-केंद्रित मूल्यांकन (जिसमें महत्व अंतिम उत्तर का नहीं बल्कि सीखने की प्रक्रिया का हो) अपनाकर एआई-आधारित धोखाधड़ी को कमज़ोर किया जा सकता है। ऐसे मूल्यांकन में समय तो लगेगा लेकिन इसमें एआई साधनों की मदद से रफ्तार बढ़ाई जा सकती है।

इसके अलावा, शिक्षक छात्रों को नैतिकतापूर्ण उपयोग और पारदर्शिता को प्रोत्साहित करते हुए विचार-मंथन और विचार निर्माण के लिए एआई टूल का उपयोग करना सिखा सकते हैं। उपरोक्त अध्ययन में यह भी सामने आया कि चैटजीपीटी तथ्य-आधारित प्रश्नों का उत्तर देने में उत्कृष्ट होता है लेकिन अवधारणात्मक मामलों में पीछे रहता है। इसलिए रटंत की बजाय विश्लेषण और संश्लेषण आधारित मूल्यांकन से एआई का गलत हस्तक्षेप कम हो सकता है।

ज़ाहिर है एआई सहायक और हानिकारक दोनों हो सकता है। लिहाज़ा यह सुनिश्चित करना होगा कि छात्र यह समझ पाएं  कि एआई का उपयोग अपने प्रयासों को कम करने में नहीं बल्कि सीखने के अनुभव को समृद्ध करने के लिए कब और कैसे किया जाए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता को कम करेगी हाइड्रोजन – सुदर्शन सोलंकी

हाइड्रोजन एक ऐसा ईंधन है जो रॉकेट को अंतरिक्ष में पहुंचाने में काम आता है, लेकिन अब यह कारों में भी पेट्रोल, डीज़ल और सीएनजी का बेहतर विकल्प साबित हो सकता है। पेट्रोल, डीज़ल और सीएनजी की कीमतों में लगातार वृद्धि और इनके प्राकृतिक भंडार सीमित होने के कारण कई देश अब अन्य विकल्‍प खोज कर रहे हैं और हाइड्रोजन एक बेहतर विकल्प के रूप में सामने आ रहा है।

हाइड्रोजन की रासायनिक ऊर्जा को ऑक्सीकरण-अवकरण अभिक्रिया द्वारा यांत्रिक ऊर्जा में बदला जाता है। यह एक ईंधन सेल में हाइड्रोजन और ऑक्‍सीजन के बीच अभिक्रिया कराकर किया जाता है। इस ईंधन का सबसे बड़ा फायदा यह है कि इससे पर्यावरण में प्रदूषण नहीं फैलता है।

टोयोटा किर्लोस्कर मोटर ने इंटरनेशनल सेंटर फॉर ऑटोमोटिव टेक्नोलॉजी के साथ पायलेट प्रोजेक्ट के रूप में भारत में पहला ऑल-हाइड्रोजन इलेक्ट्रिक वाहन मिराई लांच किया है। यह शुद्ध हाइड्रोजन से उत्पन्न होने वाली बिजली से चलेगा। यह शून्य कार्बन उत्सर्जन वाहन है क्योंकि इसके टेलपाइप से सिर्फ पानी निकलता है।

भारत में हाइड्रोजन नीति के तहत वर्ष 2030 तक ग्रीन हाइड्रोजन के उत्पादन को प्रति वर्ष 50 लाख टन तक बढ़ाने का लक्ष्य रखा गया है। भारत पेट्रोलियम, इंडियन ऑयल, ओएनजीसी और एनटीपीसी जैसी भारतीय कंपनियों ने इस दिशा में काम करना शुरू दिया है।

प्रकृति में हाइड्रोजन सबसे प्रचुर तत्व है लेकिन यह स्वतंत्र रूप में नहीं बल्कि अन्य तत्वों के साथ संयुक्त रूप में पाया जाता है जैसे पानी एक यौगिक है जिसमें हाइड्रोजन के दो और ऑक्सीजन का एक परमाणु आपस में जुड़े होते हैं।

हाइड्रोजन को नेचुरल गैस या बायोमास या पानी के विद्युत अपघटन से बनाया जाता है। आइसलैंड में हाइड्रोजन उत्पादन के लिए भू-तापीय ऊर्जा का उपयोग किया जा रहा है तो वहीं डेनमार्क में यह पवन ऊर्जा से बनाई जा रही है।

जीवाश्म ईंधन से उत्पन्न होने वाले हाइड्रोजन को ग्रे हाइड्रोजन कहा जाता है जबकि अक्षय ऊर्जा स्रोतों से उत्पन्न हाइड्रोजन को ग्रीन हाइड्रोजन कहा जाता है।

हाइड्रोजन ईंधन सेल अधिक कारगर इसलिए है, क्योंकि यह रासायनिक ऊर्जा को सीधे विद्युत ऊर्जा में परिवर्तित करती है। जबकि अन्य में पहले ताप ऊर्जा और फिर यांत्रिक ऊर्जा में बदला जाता है। हाइड्रोजन ईंधन सेल में ग्रीनहाउस गैसों की बजाय सिर्फ पानी और थोड़ी ऊष्मा उत्सर्जित होती है।

कुछ देशों में हाइड्रोजन ईंधन वाले वाहनों पर कम टैक्‍स लगता है। हाइड्रोजन चालित कारों की रेंज कहीं ज़्यादा होती है और इनका फिलिंग टाइम इलेक्ट्रिक कारों के मुकाबले काफी कम होता है। एक बार इसका टैंक फुल करने पर 482 कि.मी. से लेकर 1000 कि.मी. तक की दूरी तय की जा सकती है। एनवायर्नमेंटल प्रोटेक्शन एजेंसी (ईपीए) ने हाल में होंडा क्लैरिटी की रेंज 585 कि.मी. दी है, जो किसी भी शून्य उत्सर्जन वाली गाड़ी के मामले में सबसे ज़्यादा रेंज है। होंडा के अनुसार क्लैरिटी का रीफ्यूल टाइम महज 3-5 मिनट है। कई देशों में अब हाइड्रोजन कार उपलब्‍ध हैं। इन्‍हें भारत में भी मंगाया जा सकता है।

हालांकि हाइड्रोजन ईंधन के लिए कई चुनौतियां भी है। सबसे बड़ी चुनौती यह है कि इसका उत्‍पादन अधिक महंगा है। इसके लिए प्लैटिनम जैसे दुर्लभ पदार्थों की आवश्यकता उत्प्रेरक के रूप में होती है जो अत्यधिक महंगा है। हाइड्रोजन गैस अत्‍यंत ज्‍वलनशील होती है। ऐसे में वाहन चलाने के दौरान दुर्घटना का खतरा हो सकता है। इसके अलावा हाइड्रोजन वाहनों के लिए फिलिंग स्‍टेशन की कमी है। ब्रिटेन जैसे देशों में भी अभी इनकी संख्‍या बहुत कम है।

वाहनों के लिए ग्रीन हाइड्रोजन के उत्पादन और उपयोग से जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता समाप्त होगी तथा वाहनों द्वारा होने वाले प्रदूषण से मुक्ति भी मिल सकेगी।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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हमारे बाल बढ़ते और सफेद क्यों होते हैं? – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन

जैसे-जैसे हमारी उम्र बढ़ती है, हमारे बाल सफेद होने लगते हैं जो तो होना ही है। वास्तव में ये हमें विशिष्ट बनाते हैं। और सेवानिवृत्त और अनुभवी बुज़ुर्ग इसे अवसर की तरह देखते हैं और इसका फायदा भी उठाते हैं। लेकिन कई पुरुष, खासकर फिल्म और प्रदर्शन कलाओं से जुड़े पुरुष, बालों की सफेदी को लेकर चिंतित रहते हैं, और युवा और सुंदर दिखने के लिए तरह-तरह के लोशन व रोगन लगाते हैं। महिलाओं के मामले में बात अलग लगती है, उनके बाल उम्र के हिसाब से थोड़ा देर में सफेद होते हैं। ऐसा शायद उनके पारंपरिक और आधुनिक औषधीय तेलों को लगाने और सिर धोने के तरीकों के कारण हो सकता है। पुरुषों की तरह महिलाओं में दाढ़ी-मूंछ भी नहीं होती हैं। तो क्या इस अंतर का कोई लिंग-आधारित कारण है?

नेचर पत्रिका (16 अप्रैल, 2023) में प्रकाशित एक लेख में बताया गया है कि अज्ञात कारणों से मेलेनोसाइट स्टेम कोशिकाएं, जो चूहों और मनुष्यों में त्वचा और बालों को रंग देती हैं, शरीर की अन्य स्टेम कोशिकाओं की तुलना में पहले ठप होने लगती हैं। लेख बताता है कि उम्र बढ़ने के दौरान जब चूहों को रंजक देने वाली कुछ स्टेम कोशिकाएं थम जाती हैं तब चूहों के बाल सफेद होने लगते हैं। पिगमेंट बनाने वाली स्टेम कोशिकाओं का गतिशील रहना आवश्यक है वरना बाल सफेद हो जाएंगे। क्या यही बात मनुष्यों में भी लागू होती है, और क्या इसमें लिंग-आधारित अंतर है? इसका जवाब अभी पता लगना बाकी है।

उपरोक्त शोध के आने के पूर्व 30 मार्च, 2022 को कोलेरेडो स्टेट युनिवर्सिटी के कोलंबाइन हेल्थ सिस्टम्स फॉर हेल्दी एजिंग द्वारा एक लेख ‘दी साइंस ऑफ ग्रे हेयर’ प्रकाशित हुआ था। यह लेख बताता है कि बालों का रंग कहां से और कैसे आता है। हमारे बालों के रोमकूप (फॉलीकल्स) में दो तरह के मेलेनिन अणु मौजूद होते हैं। पहला यूमेलेनिन, यह मेलेनिन जब बालों की कोशिकाओं में पर्याप्त मात्रा में मौजूद होता है तो बाल काले और भूरे रंग के होते हैं, जबकि यह कम मात्रा में हो तो बाल सुनहरे (ब्लॉन्ड) रंग के होते हैं। जिस तरह हमारे उम्रदराज़ फिल्मी हीरो युवा दिखना चाहते हैं, उसी तरह हमारी फिल्मी नायिकाएं जवां सुनहरे (ब्लॉन्ड) बाल चाहती हैं। और इसके लिए तरह-तरह के तेल आज़माती हैं और बालों को ब्लीच करवाती हैं।

तो क्या बालों के सफेद होने में लिंग-आधारित अंतर है, और क्या आप जहां रहते हैं वहां के वातावरण से इस पर कोई फर्क पड़ता है? इन दोनों ही सवालों के जवाब मिलना अभी बाकी है। लेकिन इस बारे में ज़रूर कुछ सलाहें दी गई है कि कैसे बालों के झड़ने (गंजेपन) की समस्या और बाल सफेद होने को कम किया जाए। इनमें से कुछ सुझाव/सलाह हैं: एंटीऑक्सीडेंट सब्जि़यां और फल अधिक खाएं, धूम्रपान से बचें या छोड़ दें और प्राकृतिक उपचार अपनाएं। आयुर्वेदिक च्यवनप्राश ऐसे ही उपचार का दावा करता है; इसमें एंटीऑक्सीडेंट और विटामिन से भरपूर कई प्राकृतिक चीज़ें होती हैं, और यह दावा करता है कि इसके सेवन से बाल बढ़ेंगे और सफेद कम होंगे। यूनानी दवा ज़िंदा तिलिस्मात भी ऐसा ही दावा करती है, इसमें प्रचुर मात्रा में नीलगिरी का तेल, विटामिन और बुढ़ापा रोधी रसायन होते हैं।

फिर भी, बाल बढ़ाने या झड़ना कम करने, और सफेद होना कम कर जवां बने रहने के लिए सबसे अच्छा उपाय है खूब सारी सब्ज़ियां और फल खाएं। जैसे टमाटर, पालक, रैस्पबेरी, ब्रोकोली और डार्क चॉकलेट। साथ ही, भोजन में गेहूं या चावल की बजाय रागी, ज्वार, बाजरा जैसा मोटा अनाज शामिल करें, क्योंकि ये बालों के बढ़ने में मदद करते हैं और मौजूदा बालों को स्वस्थ रखते हैं।

बालों के सफेद होने में मेलेनिन का हाथ है या मेलानोसाइट्स का हाथ है? और क्या महिला-पुरुष में बालों की समस्या का फर्क लिंग-आधारित है? बहरहाल इन सवालों का जवाब मिलने के लिए इंतज़ार करना होगा।(स्रोत फीचर्स)

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अंतरिक्ष में बड़ी उपलब्धि, पृथ्वी का बुरा हाल – चक्रेश जैन

गस्त का महीना विज्ञान जगत में अनेक अहम घटनाओं का गवाह रहा। चंद्रयान-3 के चंद्रमा के दक्षिण ध्रुव पर सफलतापूर्वक पहुंचने की व्यापक चर्चा मीडिया में छाई रही। इस सफलता ने हमारे वैज्ञानिकों का उत्साह बढ़ाया। इस अहम उपलब्धि पर यह सुझाव सामने आया कि इस उत्साह का उपयोग वैज्ञानिक सोच बढ़ाने में होना चाहिए।

इसरो के अनुसार चंदा मामा की गोद में खेल रहे रोवर ‘प्रज्ञान’ ने दस दिनों तक चहलकदमी की और मिशन के लिए निर्धारित  सभी काम सम्पन्न कर लिए।

सरकार ने चंद्रयान-3 मिशन की सफलता पर हर साल 23 अगस्त ‘राष्ट्रीय अंतरिक्ष दिवस’ मनाने की घोषणा की। वैसे हमेशा की तरह सवाल यह है कि एक दिन अंतरिक्ष विज्ञान दिवस मनाने से क्या हासिल होगा? दूसरा सवाल यह है कि हमारे यहां पहले से हर साल 28 फरवरी को राष्ट्रीय विज्ञान दिवस और 11 मई को राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी दिवस मनाया जाता है, तो अलग से एक और दिवस मनाने की क्या ज़रूरत है?

चंद्रयान-2 की विफलता पर आलोचकों और टिप्पणीकारों ने कहा था कि भारत को अंतरिक्ष विज्ञान पर पैसा बर्बाद नहीं करना चाहिए, और गरीबी, अशिक्षा और भुखमरी पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। इस बार भी टिप्पणीकारों ने कहा कि हमारे वैज्ञानिक चंद्रमा के अगम्य छोर तक पहुंच सकते हैं तो हमारे यहां के पहाड़ी शहरों को तो यकीनन बचा सकते हैं। उल्लेखनीय है कि चंद्रयान-3 की कामयाबी के ठीक दूसरे दिन ही हिमाचल के कुल्लु जि़ले में भूस्खलन से कई इमारतें ध्वस्त हो गई थीं।

राजनीति के गलियारों में विज्ञान की इस बड़ी कामयाबी के श्रेय को लेकर नया विवाद शुरू हो गया। सवाल उठा कि आखिर यह श्रेय किसे दिया जाना चाहिए? विभिन्न राजनैतिक दलों ने पूर्व में रही सरकारों और उनके नेतृत्व को श्रेय देते हुए यह साबित करने का भरपूर प्रयास किया कि चंद्रमा पर पहुंचने का श्रेय और सराहना उन्हें मिलना चाहिए। सच तो यह है कि आज़ादी के बाद सत्तारूढ़ रही सभी सरकारों ने अंतरिक्ष विज्ञान को उच्च प्राथमिकता दी है और यह कामयाबी सम्मिलित प्रयासों का नतीजा है।

प्रधानमंत्री ने कहा है कि चंद्रयान-3 का विक्रम लैंडर जिस जगह पर उतरा है, उसका नाम ‘शिवशक्ति पॉइंट’ रखा जाएगा। इस घोषणा को लेकर भी राजनैतिक घमासान छिड़ गया।

रूस ने सोवियत संघ से अलग होने के बाद पहली बार 11 अगस्त को चंद्रयान लूना-25 सफलतापूर्वक भेजा जो चंद्रमा के दक्षिण ध्रुव पर पहुंचने के पहले ही हादसे का शिकार हो गया। दरअसल उसने दस दिनों के भीतर चंद्रमा पर पहुंचने का सपना देखा था।

विज्ञान को अर्थव्यवस्था से जोड़ कर देखना समय की मांग है। दुनिया के कुछ देश पहले ही अंतरिक्ष अर्थव्यवस्था की ओर अग्रसर हो चुके हैं। चंद्रयान-3 की कामयाबी से शेयर बाज़ार में उत्साह का नज़ारा दिखा। अंतरिक्ष, वैमानिकी और रक्षा क्षेत्र से सम्बंधित कंपनियों के शेयरों में निवेशकों का अत्यधिक उत्साह दिखाई दिया।

ड्रीम 2047 बंद

इसी महीने लोकप्रिय विज्ञान की मासिक पत्रिका ‘ड्रीम 2047’ का प्रकाशन बंद हो गया। आज़ादी के अमृतकाल के आरंभिक दौर में ही एक पत्रिका के अवसान ने नए सवालों को उठाया है। इसका प्रकाशन अक्टूबर 1998 में शुरू हुआ था। इस साल यह पत्रिका 25 वर्षों का सफर पूरा करते हुए अपनी रजत जयंती मनाने की दहलीज़ पर थी। यह सरकारी पत्रिका थी, जिसकी प्रसार संख्या चालीस हज़ार का आंकड़ा पार कर गई थी। यह पत्रिका लगातार और नियमित रूप से दो भाषाओं में प्रकाशित की जाती थी। इसमें नवीनतम विषयों और वैचारिक मुद्दों पर विशेषज्ञों के आलेख प्रकाशित हो रहे थे।

राष्ट्रीय अनुसंधान संस्थान

संसद ने राष्ट्रीय अनुसंधान संस्थान विधेयक पारित कर दिया। इस विधेयक में गणित, इंजीनियरिंग, प्रौद्योगिकी,  पर्यावरण सहित भू-विज्ञान के क्षेत्र में शोध, नवाचार और उद्यमिता के लिए उच्च स्तरीय मार्गदर्शन प्रदान करने हेतु राष्ट्रीय अनुसंधान संस्थान (एनआरएफ) की स्थापना का प्रावधान किया गया है। इसके अंतर्गत आगामी पांच वर्षों में शोधकार्यों के लिए पचास हज़ार करोड़ रुपए का बजट रखा गया है। अंग्रेज़ी में प्रकाशित लोकप्रिय विज्ञान की एक राष्ट्रीय पत्रिका ने अपने सम्पादकीय में कहा है कि इससे देश में वैज्ञानिक उत्कृष्टता का सशक्तिकरण हो सकेगा। वैज्ञानिकों के बीच इस विधेयक को लेकर अलग-अलग विचार हैं।

जैव विविधता विधेयक

संसद ने जैव विविधता (संशोधन) विधेयक भी पारित कर दिया। यह विधेयक 2002 के जैविक विविधता अधिनियम को संशोधित करता है। इस विधेयक में किए गए महत्वपूर्ण परिवर्तन औषधीय पौधों की खेती को बढ़ावा देते हैं और पारंपरिक भारतीय चिकित्सा पद्धति का समर्थन करते हैं।

परिंदों के हाल

हाल ही में ‘स्टेट ऑॅफ इंडियाज़ बर्ड्स’ शीर्षक से छपी रिपोर्ट में बताया गया है कि मांसाहारी पक्षियों की संख्या शाकाहारी पक्षियों की तुलना में तेज़ रफ्तार से कम हो रही है। इसी प्रकार प्रवासी पक्षियों का जीवन गैर-प्रवासी पक्षियों की तुलना में ज़्यादा खतरे में हैं। यह रिपोर्ट बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी, वाइल्डलाइफ इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया और ज़ुऑलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया सहित 13 संस्थानों के एक समूह ने प्रकाशित की है। रिपोर्ट के अनुसार भारत में तीन दशकों के दौरान जिन 338 पक्षी प्रजातियों की संख्या में परिवर्तन पर अध्ययन किया गया, उनमें साठ प्रतिशत की कमी देखी गई। दरअसल इस रिपोर्ट में पर्यावरण को गहराई से समझने पर विशेष ज़ोर दिया गया है।

विविध घटनाक्रम

विज्ञान जगत की अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं और उपलब्धियों पर नज़र डालें तो पता चलता है कि पत्र-पत्रिकाओं में पहले से जारी अनुसंधान के नवीनतम परिणाम प्रकाशित हुए हैं। नेचर पत्रिका में छपी ताज़ा रिपोर्ट में बताया गया है कि अध्ययनकर्ताओं ने तथाकथित अतिचालक एलके-99 की पहेली सुलझा ली है और यह साबित कर दिया है कि यह अतिचालक नहीं है, बल्कि यह कॉपर, लेड, फॉस्फोरस तथा ऑक्सीजन का यौगिक है, जो एक विशिष्ट तापमान पर अतिचालकता का गुण प्रदर्शित करता है।

इसी पत्रिका में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार भौतिक शास्त्रियों ने एक अनूठे समस्थानिक ऑक्सीजन-28 का पता लगाया है। अध्ययनकर्ताओं का कहना है कि यह ऑक्सीजन का एक समस्थानिक है, जिसमें 20 न्यूट्रॉन और आठ प्रोटोन हैं। इस रिसर्च ने परमाणु नाभिक की संरचना के सिद्धांतों पर मंथन की ज़रूरत पैदा कर दी है, क्योंकि सैद्धांतिक दृष्टि से तो वैज्ञानिकों का मत था कि ऑक्सीजन का यह समस्थानिक टिकाऊ होना चाहिए लेकिन वास्तव में यह क्षणभंगुर निकला।

विज्ञान जगत की ही एक प्रतिष्ठित पत्रिका ने नवीनतम अनुसंधानों के परिप्रेक्ष्य में भ्रूण को नए सिरे से परिभाषित करने का विचार पेश किया है।

युरोप की महत्वाकांक्षी मानव मस्तिष्क परियोजना (एचबीपी) के दस साल पूरे हो रहे हैं। आरंभ में इस परियोजना की जमकर आलोचना हुई थी। इस परियोजना का कंप्यूटर में मानव मस्तिष्क सृजित करने की दिशा में ऐतिहासिक योगदान है।

नेचर पत्रिका में छपी रिसर्च रिपोर्ट के अनुसार एक प्रयोग में बूढ़े चूहों को पीएफ-4 प्रोटीन का डोज़ देने से उनका मस्तिष्क 30-40 साल के युवाओं के समान सोचने-समझने की क्षमता प्रदर्शित करने लगा। दरअसल, पीएफ-4 प्रोटीन कोशिकाएं प्लेटलेट्स से बनती हैं। वैज्ञानिकों का विचार है कि आगे चलकर यह अध्ययन बूढ़े व्यक्तियों के दिमाग की कोशिकाओं को सक्रिय बनाने में अहम भूमिका निभा सकता है।(स्रोत फीचर्स)

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कोशिकाओं को बिजली से ऊर्जा देना

पारंपरिक बिजली संयंत्र जीवाश्म ईंधन से विद्युत ऊर्जा उत्पन्न करते हैं। जीवाश्म ईंधन में यह ऊर्जा करोड़ों साल पहले प्रकाश ऊर्जा को जैविक ऊर्जा में तबदील करके भंडारित हुई थी। लेकिन एक हालिया शोध में रसायनज्ञों ने बिजली को जैविक ऊर्जा में परिवर्तित किया है।

एक सरल रासायनिक प्रक्रिया से शोधकर्ताओं ने विद्युत ऊर्जा को एडिनोसीन ट्राइफॉस्फेट (एटीपी) में परिवर्तित किया है। एटीपी कोशिकाओं को ऊर्जा देने वाला रासायनिक ईंधन है। इस प्रक्रिया से नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों का उपयोग करके जैव कारखानों को ऊर्जा मिल सकेगी और दवाओं से लेकर प्रोटीन पूरक वगैरह बनाए जा सकेंगे।

गौरतलब है कि पौधों की कोशिकाओं के भीतर छोटी-छोटी क्लोरोप्लास्ट नामक रचनाएं प्रकाश संश्लेषण के ज़रिए एटीपी बनाती हैं। एटीपी आवश्यक चयापचय क्रियाओं के लिए ऊर्जा प्रदान करता है। जब एटीपी अणु का उपयोग होता है तब यह एक फॉस्फेट को त्याग कर एडिनोसीन डायफॉस्फेट (एडीपी) बन जाता है। यह एडीपी ऊर्जा मिलने पर फिर से एटीपी में परिवर्तित हो जाता है। पौधों का उपभोग करने वाले जीव ग्लूकोज़ को ऊर्जा में परिवर्तित करते हैं और उस ऊर्जा का उपयोग एटीपी-एडीपी-एटीपी चक्र चलाने के लिए करते हैं।

संशोधित सूक्ष्मजीवों का उपयोग करके औद्योगिक स्तर पर विभिन्न उत्पाद तैयार किए जाते हैं। इसमें पौधे उगाकर शर्करा या अन्य खाद्य पदार्थ तैयार किए जाते हैं और खमीर (यीस्ट), बैक्टीरिया या अन्य औद्योगिक सूक्ष्मजीवों को खिलाए जाते हैं। ये सूक्ष्मजीव इस भोजन से एटीपी उत्पन्न करते हैं, जो वांछित जैव रासायनिक क्रियाओं को ऊर्जा प्रदान करता है।

समस्या यह है कि पौधे सूर्य के प्रकाश की ऊर्जा का केवल 1 प्रतिशत ही उपयोगी यौगिकों में परिवर्तित कर पाते हैं, इसलिए इस प्रक्रिया की दक्षता काफी कम रहती है। इसके विपरीत सौर-सेल 20 प्रतिशत से अधिक सौर ऊर्जा को बिजली में परिवर्तित कर सकते हैं।

इसका फायदा उठाते हुए मैक्स प्लैंक इंस्टीट्यूट फॉर टेरेस्ट्रियल माइक्रोबायोलॉजी के टोबियास एर्ब ने बिजली को सीधे एटीपी में परिवर्तित करने पर विचार किया।

वैसे वर्ष 2016 में किए गए एक पूर्व प्रयास में एक इलेक्ट्रोड के पास एटीपी सिंथेज़ नामक एंजाइम की प्रतिलिपियां एक झिल्ली में जमाई गई थीं। प्रयोगशाला में तो यह कारगर रहा लेकिन व्यवहारिक रूप से उपयोगी साबित नहीं हुआ।

अब एर्ब की टीम ने एक सरल प्रक्रिया सुझाई है जिसे “एएए चक्र” का नाम दिया गया है। इस चक्र में चार एंजाइमों का उपयोग करके विद्युत ऊर्जा की मदद से एडीपी को एटीपी में परिवर्तित किया जाता है। इसमें एक टंगस्टन युक्त एल्डिहाइड फेरेडॉक्सिन ऑक्सीडोरिडक्टेस (एओआर) नामक एंजाइम की महत्वपूर्ण भूमिका रही। यह एंज़ाइम कुछ वर्ष पूर्व एक बैक्टीरिया से प्राप्त किया गया था।

एओआर एडीपी को सीधे एटीपी में परिवर्तित नहीं करता बल्कि एक ऊर्जा कनवर्टर के रूप में काम करता है। एओआर इलेक्ट्रोड से इलेक्ट्रॉन युग्म प्राप्त करके उनका उपयोग एक यौगिक को ऊर्जा प्रदान करने के लिए करता है। अन्य एंज़ाइम इस यौगिक क्रमश: इस तरह परिवर्तित करते हैं कि अंत में शुरुआती यौगिक वापिस बन जाता है और चक्र चलता रहता है। इस दौरान मुक्त ऊर्जा का उपयोग एडीपी में एक फॉस्फेट समूह जोड़कर एटीपी उत्पादन में हो जाता है।

विशेषज्ञ इस प्रक्रिया की सराहना करते हुए एओआर की सीमित स्थिरता को देखते हुए इस चक्र में सुधार करने पर भी ज़ोर दे रहे हैं। एर्ब की टीम सुधार के प्रयासों में जुट गई है। यदि सफलता मिली तो उत्पादन प्रक्रियाओं में एक बड़े परिवर्तन की उम्मीद की जा सकती है और जैव-इंजीनियरों को विभिन्न अनुप्रयोगों के लिए ऊर्जा प्रदान करने का एक तरीका मिल जाएगा।(स्रोत फीचर्स)

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महाद्वीपों के अलग होने से फूटते हीरों के फव्वारे

प्राकृतिक हीरे पृथ्वी की सतह से लगभग 150 किलोमीटर नीचे अत्यधिक दाब और ताप वाली परिस्थिति में बनते हैं। ये हीरे किम्बरलाइट के रूप में पृथ्वी की सतह पर आ जाते हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि इसी प्रकार की कुछ शक्तिशाली घटनाओं ने माउंट वेसुवियस जैसे ज्वालामुखी विस्फोटों को जन्म दिया होगा।

साउथेम्प्टन विश्वविद्यालय में पृथ्वी और जलवायु विज्ञान के प्रोफेसर थॉमस गर्नोन ने इन विस्फोटों और पृथ्वी की टेक्टोनिक प्लेटों की गतिशीलता के बीच एक जुड़ाव पाया है। उनके अनुसार किम्बरलाइट अक्सर तब निकलते हैं जब टेक्टोनिक प्लेट्स पुनर्व्यवस्थित हो रही होती हैं, जैसे पैंजिया महाद्वीप के टूटने के दौरान। लेकिन दिलचस्प बात है कि ये विस्फोट टूटती टेक्टोनिक प्लेटों के किनारों पर नहीं बल्कि महाद्वीपों के मध्य में होते हैं जहां पृथ्वी की परत अधिक मज़बूत होती है और जिसे तोड़ना कठिन होता है।

यह एक बड़ा सवाल है कि इन टेक्टोनिक प्लेट टूटने या इधर-उधर होने के दौरान ऐसा क्या होता है जिससे ऐसी शानदार प्राकृतिक आतिशबाज़ी होती है?

इसे समझने के लिए गर्नोन की टीम ने पृथ्वी के इतिहास के लगभग 50 करोड़ वर्षों के पैटर्न की जांच की। उन्होंने पाया कि टेक्टोनिक प्लेटों के टूटकर अलग होने के लगभग 2.2 से 3 करोड़ वर्ष बाद किम्बरलाइट्स का विस्फोट चरम पर होता है।

उदाहरण के लिए, लगभग 18 करोड़ वर्ष पहले गोंडवाना महाद्वीप से टूटकर अलग हुए वर्तमान अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका में अलगाव के लगभग 2.5 करोड़ वर्ष बाद किम्बरलाइट विस्फोटों में वृद्धि देखी गई थी। इसी तरह लगभग 25 करोड़ वर्ष पहले पैंजिया अलग हुआ और उसके बाद उत्तरी अमेरिका में अधिक किम्बरलाइट विस्फोट देखे गए। खास बात यह है कि विस्फोट अलगाव के किनारों से शुरू होकर केंद्र की ओर बढ़ते हैं।

शोधकर्ताओं के लिए अगला काम इस पैटर्न को समझना था। इसके लिए पृथ्वी की पर्पटी के गहरे हिस्से और मेंटल के ऊपरी भाग का कंप्यूटर मॉडल तैयार किया गया। उन्होंने पाया कि जैसे-जैसे टेक्टोनिक प्लेटें एक-दूसरे से दूर होती हैं महाद्वीपीय पर्पटी का निचला भाग पतला होता जाता है। इस दौरान गर्म चट्टानें ऊपर उठती हैं और इस विभाजन सीमा के संपर्क में आने के बाद ठंडी होकर फिर से डूब जाती हैं। इस प्रक्रिया में परिसंचरण के स्थानीय क्षेत्र बनते हैं।

ये अस्थिर क्षेत्र आसपास के क्षेत्रों में भी अस्थिरता पैदा कर सकते हैं और धीरे-धीरे हज़ारों किलोमीटर दूर महाद्वीप के केंद्र की ओर खिसक सकते हैं। नेचर जर्नल में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार यह निष्कर्ष किम्बरलाइट विस्फोटों के वास्तविक पैटर्न, छोर से शुरू होकर केंद्र की ओर, से मेल खाते हैं।

ये निष्कर्ष हीरे के अज्ञात भंडारों की खोज में उपयोगी हो सकते हैं तथा इनसे ज्वालामुखी विस्फोटों को समझने में भी मदद मिल सकती है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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Y गुणसूत्र ने बहुत छकाया, अब हाथ में आया

भी ऐसा माना जाता था कि Y गुणसूत्र का पूरा अनुक्रमण करना (यानी उसमें क्षारों का क्रम पता लगाना) मुश्किल ही नहीं, नाममुकिन है। कारण यह है कि इस गुणसूत्र के डीएनए में क्षारों की ऐसी लड़ियां भरी पड़ी हैं जो बार-बार दोहराई जाती हैं और पलटकर लगी होती हैं। ऐसा होने पर डीएनए के टुकड़ों में क्षार का क्रम पता होने पर भी उन्हें जोड़कर पूरा गुणसूत्र बनाना असंभव हो जाता है। लेकिन अब नेचर में प्रकाशित दो शोध पत्रों में इस समस्या को सुलझा लिया गया है। इन दोनों टीमों ने दुनिया भर के दर्जनों पुरुषों के Y गुणसूत्र का खुलासा कर दिया है।

एक शोध पत्र में यह बताया गया है कि दोहराए जाने वाले क्षेत्र किस तरह जमे होते हैं। इस शोध पत्र में कई नए जीन्स की भी पहचान की गई है। दूसरे शोध पत्र में बताया गया है कि उक्त जमावट तथा जीन्स की संख्या को लेकर व्यक्ति-व्यक्ति में भारी अंतर होते हैं।

वैज्ञानिक मानते आए हैं कि X और Y गुणसूत्र किसी समय एक समान थे। फिर समय के साथ Y गुणसूत्र का वह हिस्सा सिकुड़ गया जिसमें जीन्स पाए जाते हैं। यह सिकुड़कर X गुणसूत्र के जीन्स वाले हिस्से का छठा हिस्सा रह गया। आज Y गुणसूत्र में X के मुकाबले मात्र आधे जीन्स ही हैं। कई शोधकर्ताओं का तो मत है कि यह क्षय जारी रहेगा और हो सकता है कि अंतत: Y गुणसूत्र पूरी तरह नदारद हो जाए। कुछ जंतु वंशों में ऐसा हुआ भी है।

छोटे आकार के बावजूद Y गुणसूत्र का अनुक्रमण टेढ़ी खीर रहा है। यहां तक कि मानव जीनोम अनुक्रमण के शुरुआती प्रयासों में तो Y गुणसूत्र के अनुक्रमण की कोशिश भी नहीं की गई थी। कुछ हद तक इसका कारण यह भी था कि Y गुणसूत्र को जीन्स का कब्रिस्तान माना जाता है जहां के सारे जीन्स अंतत: गुम हो जाएंगे। इसके अलावा दोहराने वाले हिस्सों के चलते इसे शरारती गुणसूत्र भी माना जाता है।

अंतत: एक समूह ने Y गुणसूत्र के एक खंड का अनुक्रमण किया और पाया कि यह गुणसूत्र काफी गतिमान है, इसमें जीन्स इधर-उधर फुदकते रहते हैं और एक ही क्षार अनुक्रम के कई दर्पण प्रतिबिंब उपस्थित होते हैं। ऐसा करके यह गुणसूत्र अपने चंद बचे-खुचे जीन्स को अच्छी हालत में रखता है। मार्च में नेशनल ह्यूमन जीनोम रिसर्च इंस्टीट्यूट और टीलोमेयर-टू-टीलोमेयर समूह ने पूरे मानव जीनोम का क्षार अनुक्रम प्रकाशित किया था (सिवाय Y गुणसूत्र के)। अब इसी समूह ने Y गुणसूत्र के 6.2 करोड़ क्षारों का पेचीदा क्रम प्रकाशित कर दिया है। (स्रोत फीचर्स)

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पारंपरिक चिकित्सा पर प्रथम वैश्विक सम्मेलन

विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा पहली बार पारंपरिक चिकित्सा का वैश्विक सम्मेलन 17-18 अगस्त को गांधीनगर में आयोजित किया गया था। सम्मेलन में जी-20 व अन्य देशों के स्वास्थ्य मंत्रियों के अलावा 88 देशों के वैज्ञानिक, पारंपरिक चिकित्सक, स्वास्थ्यकर्मी तथा सिविल सोसायटी प्रतिनिधि शामिल हुए।

सम्मेलन विभिन्न सम्बद्ध लोगों के लिए अपने अनुभव, सर्वोत्तम कार्य प्रणालियों तथा आपसी सहयोग के लिए विचारों के आदान-प्रदान का मंच बना। सम्मेलन में दुनिया के विभिन्न क्षेत्रों (ऑस्ट्रेलिया, बोलीविया, ब्राज़ील, कनाडा, ग्वाटेमाला, न्यूज़ीलैंड वगैरह) से आदिवासी लोगों ने भी शिरकत की। ये वे लोग हैं जिनके लिए पारंपरिक चिकित्सा स्वास्थ्य में ही नहीं बल्कि संस्कृति व आजीविका में भी महत्वपूर्ण स्थान रखती है।

सम्मेलन में विश्व स्वास्थ्य संगठन द्वारा पारंपरिक चिकित्सा के वैश्विक सर्वेक्षण की रिपोर्ट प्रस्तुत की गई थी। रिपोर्ट से पता चलता है कि लगभग 100 देशों में पारंपरिक चिकित्सा से सम्बंधित राष्ट्रीय नीतियां और रणनीतियां हैं। कई सारे देशों में पारंपरिक चिकित्सा के उपचार ज़रूरी दवा सूचियों में, और अनिवार्य स्वास्थ्य सेवा में शामिल हैं। रिपोर्ट में यह भी बताया गया है कि कई देशों में ये उपचार राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा में शामिल किए गए हैं। बड़ी संख्या में लोग गैर-संक्रामक रोगों के उपचार, रोकथाम, प्रबंधन व पुनर्वास में पारंपरिक चिकित्सा का उपयोग करते हैं। 

सम्मेलन का सबसे प्रमुख निष्कर्ष था कि पारंपरिक चिकित्सा से संदर्भ में सशक्त प्रमाणों के आधार की ज़रूरत है। सशक्त प्रमाणों की उपस्थिति में ही देश पारंपरिक चिकित्सा को लेकर उपयुक्त नियामक ढांचा बना सकेंगे और नीतियों को आकार दे सकेंगे।

सम्मेलन में एक प्रमुख संकल्प यह व्यक्त हुआ कि सबके लिए स्वास्थ्य का लक्ष्य हासिल करने और 2030 तक स्वास्थ्य सम्बंधी सस्टेनेबल डेवलपमेंट लक्ष्य हासिल करने के लिए ज़रूरी है कि पारंपरिक चिकित्सा की संभावनाओं को साकार किया जाए। (स्रोत फीचर्स)

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सनसनीखेज़ एलके-99 अतिचालक है ही नहीं!

पिछले कुछ सप्ताह से तांबा, सीसा, फॉस्फोरस और ऑक्सीजन से निर्मित अतिचालक (सुपरकंडक्टर) एलके-99 से जुड़े रहस्य का अब खुलासा हो चुका है। इस दावे को खारिज करने वाले साक्ष्य प्रस्तुत होने के बाद सामान्य तापमान पर अतिचालकता का दावा भी धराशायी हो गया है।

सामान्य दाब और 127 डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान पर अतिचालकता के दावे ने सोशल मीडिया पर काफी हंगामा मचाया था। चूंकि पूर्व में अतिचालकता सिर्फ अत्यंत अधिक दाब और अत्यंत कम तापमान पर ही देखी गई थी, इसलिए इस नए आविष्कार में वैज्ञानिकों और आमजन की गहरी रुचि पैदा हुई।

दक्षिण कोरियाई टीम का दावा एलके-99 के दो दिलचस्प गुणों पर टिका था: चुंबकीय क्षेत्र में ऊपर उठकर तैरना (लेविटेशन) और प्रतिरोध में गिरावट। दोनों ही अतिचालकता के लक्षण माने जाते हैं।

पेकिंग विश्वविद्यालय और चीनी विज्ञान अकादमी की टीमों ने इन अवलोकनों के लिए अधिक व्यावहारिक स्पष्टीकरण भी पेश किए थे। इसके अलावा,  प्रायोगिक व सैद्धांतिक विश्लेषण के आधार पर संयुक्त राज्य अमेरिका और युरोप के शोधकर्ताओं ने एलके-99 की संरचना को देखते हुए अतिचालकता की संभावना से ही इंकार किया। इस सामग्री की प्रकृति के बारे में संदेह को दूर करने के लिए कुछ शोधकर्ताओं ने एलके-99 के शुद्ध नमूने संश्लेषित किए और दर्शाया कि यह दरअसल एक इन्सुलेटर (कुचालक) है।

अपने दावों की पुष्टि के लिए दक्षिण कोरियाई टीम ने एक वीडियो भी जारी किया था जिसमें एक चुंबक के ऊपर एक रुपहले सिक्के के आकार का नमूना तैरते हुए दिखाया गया था। कोरियाई शोधकर्ताओं ने इसे मीस्नर प्रभाव कहा था जो अतिचालकता का लक्षण है। सोशल मीडिया पर इस तरह के कई असत्यापित वीडियो आने पर कई शोधकर्ताओं ने इसे दोहराने का प्रयास किया लेकिन वे कामयाब नहीं हुए। इससे उन्हें एलके-99 की अतिचालक प्रकृति पर संदेह हुआ।

एलके-99 में रुचि रखने वाले हारवर्ड विश्वविद्यालय के पूर्व शोधकर्ता डेरिक वानगेनप ने भी इस वीडियो का अध्ययन किया। उन्हें इस नमूने का एक किनारा चुंबक से चिपका हुआ प्रतीत हुआ जिसे बहुत ही बारीकी से संतुलित किया गया था। जबकि चुंबक के ऊपर तैरते सुपरकंडक्टर्स को आसानी से घुमाया जा सकता है और पलटा भी जा सकता है। इस आधार पर वैनगेनप को एलके-99 के गुण लौह-चुंबकत्व से अधिक मिलते हुए प्रतीत हुए। इसकी पुष्टि के लिए उन्होंने गैर-अतिचालक लेकिन लौह-चुम्बकीय डिस्क तैयार की जिसने ठीक एलके-99 के समान व्यवहार किया। इसके अलावा पेकिंग युनिवर्सिटी की एक शोध टीम ने भी एलके-99 के तैरने के लिए सुपरकंडक्टर के बजाय लौह-चुम्बकीय होने की पुष्टि की है। टीम ने इस नमूने की प्रतिरोधकता को मापा लेकिन उन्हें अतिचालकता का कोई संकेत नहीं मिला।

दक्षिण कोरियाई शोधकर्ताओं ने यह भी दावा किया था कि एलके-99 की प्रतिरोधकता ठीक 104.8 डिग्री सेल्सियस पर दस गुना कम (0.02 ओम-सेंटीमीटर से घटकर 0.002 ओम-सेमी) हो जाती है। यह काफी दिलचस्प है कि एकदम सटीक तापमान के इस दावे ने इलिनॉय विश्वविद्यालय के प्रशांत जैन का ध्यान आकर्षित किया। जैन काफी समय से कॉपर सल्फाइड पर अध्ययन कर रहे थे और उन्हें लगा कि यह तापमान (104.8 डिग्री सेल्सियस) जाना-पहचाना है।

एलके-99 के संश्लेषण में असंतुलित मिश्रण बनता है जिसमें कई अशुद्धियां होती हैं। इनमें कॉपर सल्फाइड भी शामिल था। कॉपर सल्फाइड विशेषज्ञ के रूप में जैन को याद आया कि 104 डिग्री वह तापमान है जिस पर कॉपर सल्फाइड का अवस्था परिवर्तन होता है। 104 डिग्री सेल्सियस से नीचे हवा के संपर्क में रखे गए कॉपर सल्फाइड की प्रतिरोधकता अचानक कम होती है और एलके-99 में ऐसा ही दिखा है।

चीनी विज्ञान एकेडमी की टीम ने एलके-99 पर कॉपर सल्फाइड के प्रभाव का पता लगाया। उन्होंने दो नमूनों का परीक्षण किया – एक को निर्वात में गर्म किया गया (जिसमें कॉपर सल्फाइड की मात्रा 5 प्रतिशत रही) और दूसरे को हवा में तपाया गया (जिसमें कॉपर सल्फाइड 70 प्रतिशत रहा)। पहले नमूने की प्रतिरोधकता उम्मीद के मुताबिक व्यवहार कर रही थी (यानी तापमान घटने के साथ बढ़ती गई) जबकि दूसरे नमूने की प्रतिरोधकता 112 डिग्री सेल्सियस के आसपास अचानक कम हो गई, जो दक्षिण कोरियाई टीम के निष्कर्षों के लगभग समान थी। नमूनों में अप्रत्याशित विविधता के कारण एलके-99 के गुणों को निर्धारित करना थोड़ा मुश्किल है लेकिन वैज्ञानिकों का तर्क है कि यह अध्ययन पुष्टि करने के लिए पर्याप्त है कि एलके-99 के अतिचालक गुणों का दावा करना शेखी बघारने के अलावा और कुछ नहीं है।

यानी ज़ाहिर है कि एलके-99 की प्रतिरोधकता में गिरावट और चुंबकीय क्षेत्र में उसका तैरना अतिचालकता के कारण नहीं है लेकिन एलके-99 की वास्तविक प्रकृति के बारे में सवाल बने रहे।

डेंसिटी फंक्शनल थ्योरी (डीएफटी) के आधार पर एलके-99 की संरचना को समझने के प्रारंभिक सैद्धांतिक प्रयासों ने फ्लैट बैंड नामक इलेक्ट्रॉनिक संरचना की उपस्थिति के संकेत दिए। फ्लैट बैंड वे स्थान होते हैं जहां इलेक्ट्रॉन धीमी गति से चलते हैं और आपस में जोड़ियां बना सकते हैं। लेकिन ये गणनाएं एलके-99 संरचना की असत्यापित मान्यताओं पर आधारित थीं।

इसकी स्पष्टता के लिए एक अमेरिकी-युरोपीय टीम ने सटीक एक्स-रे इमेजिंग का उपयोग किया। टीम के अनुसार एलके-99 के फ्लैट बैंड अतिचालकता के लिए अनुपयुक्त हैं। दरअसल एलके-99 के प्लैट बैंड अत्यंत स्थानबद्ध इलेक्ट्रॉनों से बने होते हैं जो छलांग लगाकर अतिचालकता पैदा नहीं कर सकते।

इसी तरह मैक्स प्लैंक इंस्टीट्यूट फॉर सॉलिड स्टेट रिसर्च की एक टीम ने एलके-99 के शुद्ध एकल क्रिस्टल बनाए जो कॉपर सल्फाइड जैसी अशुद्धियों से मुक्त थे। ये क्रिस्टल बहुत अधिक प्रतिरोध वाले इन्सुलेटर साबित हुए जिसने अतिचालकता के सभी दावों को पूरी तरह ध्वस्त कर किया।

बहरहाल, इस पूरे घटनाक्रम से कई कीमती सबक मिले हैं। कई विशेषज्ञों ने वैज्ञानिक गणनाओं में जल्दबाज़ी की दिक्कतों पर ज़ोर दिया है। कुछ शोधकर्ताओं ने शोध कार्य के दौरान ऐतिहासिक डैटा को नज़रअंदाज़ करने की प्रवृत्ति की ओर भी इशारा किया है। जहां कुछ लोग एलके-99 मामले को विज्ञान में प्रयोगों को दोहराने के एक मॉडल के रूप में देखते हैं वहीं अन्य मानते हैं कि यह एक हाई-प्रोफाइल पहेली के असाधारण और त्वरित समाधान का उदाहरण है। आम तौर पर ऐसे मुद्दे समाधान के बिना घिसटते रहते हैं। अलबत्ता कई लोगों ने ध्यान दिलाया है कि विज्ञान की कई गुत्थियां हैं जिन पर आज तक कोई स्पष्ट उत्तर नहीं मिल पाया है।(स्रोत फीचर्स)

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मस्तिष्क तरंगों से निर्मित किया गया एक गीत

गे पढ़ने से पहले इनमें से किसी एक लिंक पर जाकर रिकॉर्डिंग सुनें:

इस रिकॉर्डिंग में गिटार के तारों की आवाज़ अजीब सी गूंजती सुनाई देती है, गायक की आवाज़ भी ठीक से नहीं आती, गाने के बोल बमुश्किल समझ में आते हैं। फिर भी, जो लोग इस गीत से वाकिफ हैं वे गीत को पहचान पाते हैं। यह रॉक बैंड पिंक फ्लॉयड के 1979 के सुपरहिट एल्बम ‘दी वॉल’ का गीत ‘एनॉदर ब्रिक इन दी वॉल (भाग 1)’ है।

यह रिकॉर्डिंग किसी पुरानी कैसेट को दुरुस्त करके नहीं बनाई गई है। यह रिकॉर्डिंग तो उन लोगों की मस्तिष्क तरंगों के आधार पर बनाई गई है जिन्होंने इस गीत को सुना था। इस तरह पुनर्निर्मित इस धुन से यह पता चला है कि मस्तिष्क संगीत का प्रोसेसिंग कहां करता है।

वास्तव में, मस्तिष्क तरंगों की यह रिकॉर्डिंग काफी पुरानी है। दस से भी अधिक साल से पहले अल्बेनी मेडिकल सेंटर के तंत्रिका विज्ञानियों ने मिर्गी पीड़ितों के दौरों के दौरान मस्तिष्क गतिविधियों को देखने के लिए 29 मरीज़ों में से प्रत्येक के मस्तिष्क में 2668 इलेक्ट्रोड लगाए और उनकी मस्तिष्क गतिविधि रिकॉर्ड की। ऐसा करते समय उन्होंने इन मरीज़ों को गीत सुनाए थे।

इस प्रक्रिया ने शोधकर्ताओं को यह भी जानने का मौका दे दिया कि मस्तिष्क संगीत पर कैसे प्रतिक्रिया देता है। अधिकांश लोगों में, बोली गई भाषा को समझने के लिए ज़िम्मेदार रचनाएं मस्तिष्क के बाएं गोलार्ध में होती हैं। लेकिन कई अध्ययनों से पता चला है कि संगीत को समझने या प्रोसेस करने में मस्तिष्क का एक जटिल नेटवर्क शामिल होता है जो संभवत: दोनों गोलार्ध में फैला होता है।

कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के तंत्रिका विज्ञानी लुडोविक बेलियर बताते हैं कि मरीज़ों को पिंक फ्लॉयड बेहद पसंद था। वास्तव में मरीजों ने कई गाने सुने थे जिनमें बैंड का सबसे प्रसिद्ध और हिट गाना ‘एनॉदर ब्रिक इन दी वॉल (भाग 2)’ भी था। लेकिन सबसे विस्तृत मस्तिष्क रिकॉर्डिंग उन लोगों से मिली जिन्होंने कम लोकप्रिय गाना (भाग 1) सुना था।

शोधकर्ताओं ने इन रिकॉर्डिंग्स का उपयोग एक कम्प्यूटेशनल मॉडल को यह सिखाने के लिए किया कि संगीत की किस विशेषता के लिए मस्तिष्क में क्या गतिविधि हुई। टीम को उम्मीद थी कि उनका मॉडल सीख जाएगा और अंतत: मूल गीत का ऐसा संस्करण बना देगा जिसे पहचाना जा सके।

शोधकर्ताओं ने मॉडल को मात्र 90 प्रतिशत गीत के लिए प्रशिक्षित किया। बाकी हिस्सा मॉडल को सीखकर तैयार करने दिया। मॉडल ने गीत का शेष 10 प्रतिशत हिस्सा (करीब 15 सेकंड लंबा हिस्सा) पुन: बना लिया।

फिर शोधकर्ताओं ने विभिन्न संगीत विशेषताओं से जुड़ी मस्तिष्क गतिविधि को पहचानने का प्रयास किया। इसके लिए उन्होंने मॉडल में मस्तिष्क रिकॉर्डिंग्स डालीं जिसमें कुछ इलेक्ट्रोड का डैटा उन्होंने हटा दिया और फिर से बनाए गए गाने पर प्रभाव देखा। इस तरह एक नए पहचाने गए मस्तिष्क क्षेत्र का पता चला जो संगीत में लय – जैसे ‘एनॉदर ब्रिक इन दी वॉल (भाग 1)’ में बजने वाले गिटार – को समझने में शामिल है। ये नतीजे प्लॉस बायोलॉजी में प्रकाशित हुए हैं। अध्ययन इस बात की पुष्टि भी करता है कि संगीत को समझने में भाषा प्रसंस्करण के विपरीत मस्तिष्क के दोनों गोलार्ध शामिल होते हैं।

बेलियर को उम्मीद है कि इस शोध से एक दिन उन मरीज़ों को मदद मिल सकेगी जिन्हें आघात, चोट या एमियोट्रोफिक लेटरल स्क्लेरोसिस जैसी बीमारियों के कारण बोलने में मुश्किल होती है। हालांकि वर्तमान में ऐसे मस्तिष्क-मशीन इंटरफेस मौजूद हैं जिनकी मदद से ये मरीज़ संवाद कर पाते हैं। लेकिन भाषा को जिस लयबद्धता या आवाज़ में उतार-चढ़ाव के साथ बोला जाता है ये प्रौद्योगिकियां संवाद में वैसी लयबद्धता नहीं ला पातीं, इसलिए मरीज़ों की आवाज़ धीमी और रोबोटिक लगती है। इसलिए उम्मीद है कि कृत्रिम बुद्धि पर आधारित ब्रेन मशीन इंटरफेस संवाद में लयबद्धता ला सकते हैं, जिससे मरीज़ों का संवाद अधिक स्वाभाविक लगेगा।

हालांकि वर्तमान में इस तरह की तकनीक के लिए घुसपैठी सर्जरी लगेगी। लेकिन जैसे-जैसे तकनीकों में सुधार होगा, ऐसा हो सकता है किसी दिन खोपड़ी की सतह से जुड़े इलेक्ट्रोड से इस तरह की रिकॉर्डिंग संभव हो जाए।(स्रोत फीचर्स)

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