बैक्टीरिया का इलाज बैक्टीरिया से – डॉ. अरविंद गुप्ते

तपेदिक यानी टीबी की बीमारी सदियों से अनगिनत इंसानों की मृत्यु का कारण बन चुकी है। किसी रोग का इलाज तभी हो सकता है जब उसके कारण का पता हो। उन्नीसवीं शताब्दी में पता चला कि टीबी का रोग फेफड़ों में रहने वाले एक बैक्टीरिया, म्युको­बैक्टीरियम टयुबरकूलोसिस, के कारण होता है। बीसवीं शताब्दी के मध्य में एन्टीबायोटिक दवाओं का आविष्कार हुआ और इनके कारण टीबी का इलाज आसान हो गया। 

इलाज तो संभव हुआ किंतु अब एक नई समस्या सामने गई है। इस बैक्टीरिया की कुछ किस्मों पर दवाओें का असर होना बंद हो गया है और मरीज़ फिर इस रोग के शिकार होने लगे हैं। संसार में वर्तमान में लगभग एक करोड़ टीबी मरीज़ों में से लगभग 5 लाख मरीज़ों पर टीबी उपचार के परम्परागत दवा मिश्रण रिफेम्पिसिन और आइसो­नियाज़िड का असर नहीं हो रहा है। डॉक्टरों और वैज्ञानिकों को यह डर सताने लगा है कि आने वाले दिनों में ये दवाप्रतिरोधी बैक्टीरिया महामारी का रूप धारण कर लेंगे और बड़ी संख्या में मौतें फिर होने लगेंगी। अतः टीबी की अधिक कारगर दवाओं की खोज तेज़ी से की जा रही है। हाल में इस खोज में आशा की एक धुंधलीसी किरण दिखाई दी है। इसे समझने के लिए थोड़ा विषयांतर करना होगा।

सिस्टिक फाइब्रोसिसनामक रोग के मरीज़ों के फेफड़ों और श्वसन तंत्र तथा शरीर के अन्य भागों में सामान्य से अधिक चिपचिपा पदार्थ श्लेष्मा भरा होता है। इस चिपचिपे पदार्थ की अधिकता के कारण मरीज़ों को केवल सांस लेने में बहुत तकलीफ होती है, बल्कि पाचन अन्य क्रियाओं में भी परेशानी होती है। इस श्लेष्मा में बर्खोल्डेरिया ग्लैडिओली नामक एक बैक्टीरिया बहुतायत से पाया जाता है। ब्रिटेन के कार्डिफ विश्वविद्यालय के डॉ. ईश्वर महेन्तिरालिंगम और ब्रिटेन के ही वॉरिक विश्वविद्यालय के डॉ. ग्रेग चैलिस ने इस बैक्टीरिया द्वारा बनाया जाने वाला एक रसायन खोजा है जिसे उन्होंने ग्लॅडिओलिन नाम दिया है। इस पदार्थ की विशेषता यह है कि यह अन्य बैक्टीरिया के जीवित रहने के लिए आवश्यक एक एंज़ाइम को निष्क्रिय करके उन्हें मार देता है। यह एंज़ाइम एक आरएनए पॉलीमरेज़ होता है। इससे टीबी के बैक्टीरिया की दवा प्रतिरोधक किस्में भी मारी जाती हैं। जाहिर है, ग्लैडिओलिन का असर स्वयं बर्खोल्डेरिया पर नहीं होता जो इसे बनाता है।

ग्लैडिओलिन के परीक्षण के दौरान एक रोचक तथ्य सामने आया। टीबी की परम्परागत दवा रिफेम्पिसिन और आइसोनियाज़िड ऐसे बैक्टीरिया के खिलाफकारगर होती हैं जिनमें इनके खिलाफ प्रतिरोध क्षमता विकसित नहीं हुई है। ग्लैडिओलिन इन बैक्टीरिया के खिलाफ कारगर नहीं होता। किंतु रिफेम्पिसिन और आइसोनियाज़िड जिन प्रतिरोधी बैक्टीरिया का कुछ भी नहीं बिगाड़ सकते, ग्लैडिओलिन उनके खिलाफ काफी असरकारक होता है।

इस शोध कार्यसे यह उम्मीद जागी है कि दवाओं के खिलाफ प्रतिरोध क्षमता वाले बैक्टीरिया जनित टीबी का इलाज संभव हो सकेगा, किंतु इसका अंतिम परिणाम तभी सामने आएगा जब इस दवा का पर्याप्त परीक्षण हो जाएगा। सन 2007 में इसी प्रकार की एटान्जिन नामक एक दवा खोजी गई थी जो बैक्टीरिया के जीवन के लिए आवश्यक एंज़ाइम आरएनए पॉलिमरेज को निष्क्रिय कर देती है। किंतु बाद में किए गए परीक्षणों में यह पाया गया कि एटान्जिन रासायनिक रूप से अस्थायी होती है और इसी कारण इसे दवा के रूप में बाज़ार में नहीं लाया जा सकता। तो अभी इन्तज़ार करें। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।

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सबसे बड़ा उभयचर विलुप्ति की कगार पर

क नए अध्ययन के अनुसार विश्व के सबसे बड़े उभयचर – चीनी विशाल सेलेमैंडर (Andrias davidianus), को वास्तव में पांच प्रजातियों में बांटा जाना चाहिए। यानी यह एक प्रजाति नहीं है बल्कि पांच प्रजातियां हैं। और पांचों प्रजातियां खतरे में हैं। और तो और, अध्ययनकर्ताओं का मानना है कि संरक्षण के वर्तमान तौर-तरीके इन अलग-अलग प्रजातियों को एक-दूसरे के साथ प्रजनन करवाकर उन्हें प्रभावी रूप से एक ही प्रजाति में परिवर्तित कर रहे हैं।

एक समय में दक्षिण-पूर्वी चीन की नदियों में बहुतायत से पाए जाने वाले ये सेलेमैंडर 2 मीटर तक लंबे होते हैं। लेकिन आज लक्ज़री व्यंजन के लिए बढ़ती मांग के चलते इन्हें अधिकाधिक संख्या में व्यावसायिक फार्मों में पाला जा रहा है। प्राकृतिक आबादी को बढ़ाने के लिए चीनी सरकार ने फार्म में पले इन सेलेमैंडर को नदियों में छोड़ने के लिए प्रोत्साहन दे रही है। लेकिन यह अभी तक स्पष्ट नहीं हो पाया है कि क्या अब यह जीव आनुवंशिक रूप से कुदरती सेलेमैंडर के समान है।

इस प्रश्न के जवाब की तलाश में, वैज्ञानिकों ने 70 कुदरती और 1034 फार्म सेलेमैंडर के डीएनए का विश्लेषण किया। इस विश्लेषण के आधार पर टीम ने पाया कि जंगली सेलेमैंडर को कम से कम पांच प्रजातियों में बांटा जा सकता है। ये पांच प्रजातियां एक दूसरे से लगभग 50 लाख से 1 करोड़ वर्ष पूर्व अलग-अलग हो गई होंगी। करंट बायोलॉजी में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार फार्म में पाले जाने वाले सेलेमैंडर में व्यापक जेनेटिक घालमेल पाया गया। इससे यह मालूम चलता है कि फ़ार्म में पले जीवों को नदियों में छोड़ने से आनुवंशिक खिचड़ी पैदा होने की आशंका है। ऐसा हुआ तो स्थानीय सेलेमैंडर अन्य सेलेमैंडर्स, जिनमें अन्य प्रजातियों का जेनेटिक पदार्थ होगा, के साथ संकरण के चलते विलुप्त हो सकती हैं।

इसका एक अर्थ यह भी है कि यदि जंगली आबादी विलुप्त हो जाती है, तो दुनिया से विशाल सेलेमैंडर की एक नहीं बल्कि सभी पांच प्रजातियां नदारद हो जाएंगी। जो सेलेमैंडर्स फार्म में बचेंगे वे तो इन पांच प्रजातियों की मिली-जुली खिचड़ी होंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।

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प्लूटो करोड़ों धूमकेतुओं के मेल से बना है

कुछ वर्षों पहले प्लूटो को ग्रहों की जमात से इसलिए अलग कर दिया गया था कि वह इतना बड़ा नहीं है कि अपने आसपास के क्षेत्र को साफ कर सके। अब वैज्ञानिकों ने यह विचार व्यक्त किया है कि संभवत: प्लूटो का निर्माण भी अन्य ग्रहों के समान नहीं हुआ है बल्कि वह तो करोड़ों धूमकेतुओं के एक साथ जुड़ जाने के परिणामस्वरूप बना है।

सौर मंडल के सारे ग्रह प्रारंभिक (आद्य) सूर्य के आसपास फैली तश्तरी के पदार्थ के संघनन से बने हैं। होता यह है कि इस तेज़ी से घूमती तश्तरी में से पदार्थ के लोंदे बनने लगते हैं और ग्रह का रूप ले लेते हैं। पहले माना जाता था कि प्लूटो का निर्माण भी इसी तरह हुआ है। मगर साउथवेस्टर्न रिसर्च इंस्टीट्यूट के भूगर्भ-रसायनविद क्रिस्टोफर ग्लाइन और उनके साथियों को यह देखकर बहुत आश्चर्य हुआ था प्लूटो और धूमकेतु 67पी/चुर्नीकोव-गोरासिमेंको के बीच इतनी अधिक रासायनिक समानता है। इसी प्रकार से प्लूटो के स्पुतनिक प्लेनेशिया नामक ग्लेशियर में धूमकेतु 67पी के समान ही नाइट्रोजन की प्रचुरता है। जहां पृथ्वी के वायुमंडल में 78 प्रतिशत नाइट्रोजन है, वहीं प्लूटो के वायुमंडल में 98 प्रतिशत। वास्तव में देखा जाए, तो पृथ्वी पर पानी एक चालक शक्ति है वहीं प्लूटो पर यह भूमिका नाइट्रोजन निभाती है। 67पी/चुर्नीकोव-गोरासिमेंको धूमकेतु के बारे में हमारे पास इतनी विस्तृत जानकारी इसलिए है क्योंकि युरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी का एक खोजी अंतरिक्ष यान 2014 में वहां उतरा था।

साउथवेस्टर्न रिसर्च इंस्टीट्यूट के खगोल शास्त्रियों ने प्लूटो के रासायिनक विश्लेषण के आधार पर यह संभावना जताई है। दरअसल वर्ष 2015 में नासा का न्यू होराइज़न मिशन प्लूटो के नज़दीक से गुज़रा था। तब उसने प्लूटो पर सूर्यास्त का भव्य नज़ारा देखा था और उसके पदार्थ का रासायनिक संघटन देखने की कोशिश की थी। इसके अलावा युरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी के रोज़ेटा मिशन ने भी इसका रासायनिक संघटन समझने का प्रयास किया था। प्लूटो के एक ग्लेशियर (स्पूतनिक प्लेनिशिया) पर नाइट्रोजन की अत्यधिक सांद्रता दर्शाती है कि इसकी उत्पत्ति धूमकेतु से हुई है।

साउथवेस्टर्न रिसर्च सेंटर के वैज्ञानिकों ने उस पारंपरिक विचार पर भी गौर किया जिसके अनुसार प्लूटो का निर्माण आदिम सौर नेबुला में उपस्थित बर्फ से हुआ था। मगर इस सिद्धांत के आधार पर नाइट्रोजन की प्रचुरता की व्याख्या नहीं की जा सकती।

तो हमारे पास प्लूटो की उत्पत्ति को लेकर आज दो मॉडल हैं। ज़ाहिर है, चाहे प्लूटो को ग्रहों की जमात में से अलग कर दिया गया है, किंतु वह उतना ही दिलचस्प बना हुआ है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।

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एक बदनाम दवा की नई संभावनाएं

थेलिडोमाइड 195060 के दशक में बहुत बदनाम हुई थी और कई चिकित्सकीय मुकदमों का सबब बनी थी। यह दवा गर्भावस्था के दौरान होने वाली तकलीफों के लिए दी जाती थी किंतु इसके सेवन के बाद जो बच्चे पैदा हुए थे उनमें हाथपैरों का विकास ठीक से नहीं हुआ था और कई मामलों में तो भुजाविहीन बच्चों के जन्म भी हुए थे। मगर अब वैज्ञानिकों को लग रहा है कि थेलिडोमाइड दवाइयों की दुनिया में एक नई अवधारणा को जन्म दे सकती है।

पिछले कुछ वर्षों में वैज्ञानिकों ने पाया है कि थेलिडोमाइड रक्त कैंसर मल्टीपल मायलोमा के खिलाफ काफी कारगर है। यह दवा अस्थि मज्जा में इस कैंसर की जड़ों को ही नष्ट कर देती है। हालांकि इसके प्रभाव की बात कई सालों से पता रही है किंतु यह पता नहीं चल पाया था कि शरीर में इसकी क्रिया कैसे होती है।

अब नए अनुसंधान से थेलिडोमाइड की क्रियाविधि का खुलासा होने के साथ ही वैज्ञानिकों को लग रहा है कि यह क्रियाविधि कई अन्य कैंसरों के अलावा अल्ज़ाइमर और पार्किंसन जैसे रोगों में काम कर सकती है।

दरअसल, थेलिडोमाइड की क्रियाविधि इस बात पर निर्भर है कि यह कोशिका के कचरानिपटान तंत्र को प्रभावित करती है। 2010 में शोधकर्ताओं ने पता लगाया था कि चूहों में थेलिडोमाइड एक ट्यूमर पैदा करने वाले प्रोटीन से जुड़ जाती है। इस जुड़ाव का परिणाम यह होता है कि कोशिका में उस अणु को कचरे के रूप में चिंहित कर दिया जाता है, जिसे हटाया जाना है।

इस मामले में विडंबना यह है कि थेलिडोमाइड इसी क्रियाविधि का इस्तेमाल करके भ्रूण में भुजाओं के विकास से सम्बंधित प्रोटीन से भी जुड़ जाती है और उसे भी कचरा घोषित करवा देती है। इसकी वजह से वह प्रोटीन भ्रूण के विकास में अपनी सामान्य भूमिका नहीं निभा पाता और भ्रूण के हाथपैरों का विकास बाधित होता है।

मगर थेलिडोमाइड की इस भूमिका के आधार पर उपचार की एक नई अवधारणा उभरी है प्रोटीनविघटन उपचार। इसका मतलब है कि आप उन प्रोटीन्स के सफाए का लक्ष्य रखें जो शरीर में विकार/रोग उत्पन्न करते हैं। हालांकि इसके सम्बंध में प्रयोग कैंसर से शुरू हुए हैं किंतु उम्मीद है कि अल्ज़ाइमर व पार्किंसन जैसे अन्य रोगों के संदर्भ में भी ऐसे प्रोटीन पहचाने जा सकेंगे। प्रोटीनविघटन उपचार की संभावनाओं को देखते हुए अचानक कई कंपनियां इस क्षेत्र में शोध कार्य करने लगी हैं। (स्रोत फीचर्स)

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मुश्किल इलाकों में वैज्ञानिक विचारों का प्रसार

सेक्स विश्वविद्यालय की एक भौतिक विज्ञानी केट शॉ मूलभूत कणों की खोज जैसे अग्रणी शोध से जुड़ी हैं। इसके साथ ही वे फिज़िक्स विदाउट फ्रंटियर (सरहदों से मुक्त भौतिकी) की संस्थापक भी हैं। यह युनेस्को द्वारा प्रायोजित एक संगठन है जो युद्धरत देशों में व्याख्यान, कार्यशालाएं और स्कूल चलाने का काम करता है ताकि दुनिया भर में विज्ञान में लोगों की रुचि बढ़े।

कार्यक्रम की शुरुआत वर्ष 2012 में हुई थी। शुरुआत में शॉ ने रामल्ला के नज़दीक बिर्ज़ाइट विश्विद्यालय के छात्रों को लार्ज हैड्रॉन कोलाइडर से परिचित कराया। लगभग एक साल बाद एटलस एक्सपेरिमेंट पर काम कर रहे अपने दो फिलिस्तीनी साथियों के साथ वहां के छात्रों का प्रक्षिशण शुरू किया। छात्रों का स्तर काफी अच्छा था, प्रक्षिशण फला-फूला और अलग अलग कोर्स चलाए जाने लगे।

शॉ बताती हैं कि समय-समय पर होने वाली कार्यशालाओं और कार्यक्रमों के लिए इंटरनेशनल सेंटर फॉर थेओरिटिकल फिज़िक्स से वित्तीय सहायता मिलती है।

शॉ का कहना है कि क्या पता अगला महान वैज्ञानिक, अगला अब्दुस्सलाम या अगला एलन ट्यूरिंग कहां से आएगा, इसलिए हमारा काम यह सुनिश्चित करना है कि सबको बढ़िया शिक्षा मिले और सबको अनुसंधान में शामिल होने का अवसर मिले; यह मात्र पश्चिमी, रईस देशों की बपौती न हो। फिज़िक्स विदाउट फ्रंटियर्स मुख्य रूप से नेपाल, अफगानिस्तान और फिलिस्तीन में काम करता है लेकिन लैटिन अमेरिकी देशों (वेनेज़ुएला, कोलंबिया, पेरू और उरुग्वे) और अब लेबनान, ट्यूनिशिया, अल्जीरिया, ज़िम्बाब्वे तथा बांग्लादेश में भी काम चलता है।

इनमें से फिलिस्तीन में काम करना सबसे कठिन है। वेस्ट बैंक में कुछ कम लेकिन गाज़ा पट्टी में राजनीतिक समस्याएं काफी अधिक हैं। देखा जाए तो वहां स्थित तीन विश्वविद्यालयों में भौतिकी को लेकर बढ़िया काम हो रहा है लेकिन फैकल्टी एकदम अलग-थलग है। वे बाहर यात्रा नहीं कर सकते और इस वजह से कई बार उन्हें अच्छे मौके भी गंवाने पड़ जाते हैं।

गाज़ा के छात्रों को वैज्ञानिक सम्मेलनों में जाने के लिए एक लम्बी प्रक्रिया से गुज़रना पड़ता है जिससे वे उनमें देर से शामिल हो पाते हैं या कभी कभी तो इस्राइल सरकार से अनुमति ही नहीं मिलती। उपकरण ले जाने में भी काफी परेशानियां होती हैं। बिजली की कमी के कारण नियमित शोध कार्य नहीं हो पाता है। शायद इसी कारण अच्छे छात्र होने के बाद भी वहां कई संस्थाएं शोध में पूंजी लगाने से कतराती हैं।

हाल में शॉ और उनके साथियों ने अफगानिस्तान में भी काम शुरू किया है, जहां सुरक्षा सम्बंधी गंभीर समस्याएं हैं। अच्छी बात यह है कि वहां अद्भुत युवा पीढ़ी है जो अपने देश को आगे ले जाना चाहती है। वे अपने विषयों में काफी मज़बूत हैं और भौतिकी के क्षेत्र में अंतर्राष्ट्रीय सहयोग हासिल करने की कोशिश कर रहे हैं।

अनुदार/रुढ़िवादी सोच वाले स्थानों में काम करने को लेकर शुरुआत में उन्होंने सावधानी से काम लिया लेकिन जैसे-जैसे काम आगे बढ़ा, शॉ को समझ में आया कि वहां भी लोग बिग बैंग और ब्राहृांड की उत्पत्ति के बारे में वही सवाल पूछते हैं। यह बात काफी आश्वस्त करने वाली है कि ऐसे इलाकों में भी वैज्ञानिक विचारों को लेकर किसी प्रकार का कोई टकराव नहीं है।

शॉ और उनकी टीम को उम्मीद है कि प्रत्येक विश्वविद्यालय इस कार्यक्रम से जुड़े और फिर वहां भौतिकी के लिए कुछ और धन लाया जाए। लक्ष्य दुनिया भर में एक जीवंत वैज्ञानिक समुदाय का निर्माण करना है। (स्रोत फीचर्स)

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चींटियां भी पशु पालन करती हैं – डॉ. अरविंद गुप्ते

चींटियां और पशुपालन? बात कुछ अटपटी लगती है, किंतु चींटियों के पालतू पशु चार टांगों और दो सींगों वाले नहीं होते जिन्हें इंसान पालते हैं। उनके पालतू जंतु चींटियों के समान ही कीट होते हैं जिनकी छह टांगें होती हैं और सिर के आगे एक नुकीली सूंड होती है जिसकी सहायता से वे पौधों का रस चूसते हैं। खटमल कुल के ये कीट बहुत सूक्ष्म होते हैं। इन्हें माहू (अंग्रेज़ी में एफिड) कहते हैं।

वैसे तो माहू की लगभग 5000 प्रजातियां पूरे संसार में पाई जाती हैं, किंतु समशीतोष्ण प्रदेशों में ये खूब पनपते हैं। इनका आकार इतना छोटा और वज़न इतना कम होता है कि हवा इन्हें उड़ा कर एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाती है। मादा माहू के पंख होते हैं और वे अपने बलबूते पर एक स्थान से दूसरे स्थान तक उड़कर जा सकती हैं। माहू की कुछ प्रजातियों का जीवन चक्र पौधों की दो अलग-अलग प्रजातियों पर पूरा होता है तो कुछ प्रजातियां एक ही प्रजाति के पौधों पर ज़िंदगी गुज़ार देती हैं। कुछ अन्य प्रजातियों की पोषक पौधे को लेकर कोई विशेष पसंद नहीं होती और वे किसी भी प्रजाति के पौधे का रस चूस सकती हैं।

माहू फसलों, जंगल के वृक्षों और बगीचों में लगे पौधों को भारी नुकसान पहुंचाते हैं। इसका सबसे बड़ा कारण यह है कि वे पौधों का रस चूसकर उन्हें कमज़ोर कर देते हैं। दूसरे, माहू पौधों में कई प्रकार के वायरस को फैलाने का काम करते हैं जो रोगों का कारण बनते हैं। इसके अलावा माहू अपने मलद्वार से मधुरस नामक एक तरल, चिपचिपा पदार्थ रुाावित करते हैं जो मीठा होता है। पौधों पर पड़े इस मधुरस पर काले रंग की एक फफूंद उग जाती है जिसके कारण सजावटी पौधों की सुंदरता नष्ट हो जाती है।

माहू का नियंत्रण काफी मुश्किल होता है क्योंकि ये कई प्रकार के कीटनाशकों के प्रतिरोधी बन चुके हैं। इसके अलावा, ये अधिकतर पत्तियों की निचली सतह पर चिपके रहते हैं जहां कीटनाशक के फव्वारे नहीं पहुंच पाते। कई अन्य कीट और कीटों के लार्वा माहू का शिकार करते हैं।

चींटियों और माहू में परस्पर लाभ का रिश्ता होता है। चींटियों को माहू के शरीर से निकलने वाला मधुरस बहुत पसंद होता है। अत: जिस पौधे पर माहू अधिक होते हैं वहां चींटियों की आवाजाही होती रहती है। चींटियां अपने स्पर्शकों (एन्टेना) से माहू के शरीर को थपथपाती हैं। ऐसा करने पर माहू अपने मलद्वार से मधुरस का स्राव करने लगता है और चींटी को स्वादिष्ट पेय मिल जाता है। कुछ मधुमक्खियां माहुओं के मधुरस से शहद बनाती हैं। चींटियां माहुओं को खाने वाले अन्य कीटों को उस पौधे पर से भगाती हैं और इस प्रकार माहू को सुरक्षा प्रदान करती हैं।

कुछ चींटियां माहू के अंडों को जाड़े के दिनों में अपनी बाम्बी में ला कर रख लेती हैं और ठंडा मौसम समाप्त होने पर अंडों में से निकली इल्लियों को वापस पौधों पर छोड़ देती हैं। कुछ पशुपालक चीटियां इससे एक कदम आगे बढ जाती हैं। वे अपनी बाम्बी में माहू के झुंड पालती हैं (ठीक उसी तरह जैसे पशुपालक पशुओं को पालते हैं)। ये माहू बाम्बी में ही रहते हैं और बाम्बी के अंदर फैली हुई पौधों की जड़ों का रस चूसते हैं। इस प्रकार चींटियों को अपने घर में ही मधुरस की मधुशाला मिल जाती है।

जब कोई मादा चींटी अपनी बाम्बी छोड़ कर दूसरी बाम्बी बसाने के लिए निकलती है तब वह माहू के अंडे साथ ले जाती है ताकि नई बसाहट में माहू के झुंड की शुरुआत हो सके।

पशुपालन की इस कहानी में एक रोचक मोड़ तब आता है जब कुछ ठग किस्म के कीट बाम्बी में घुसपैठ करते हैं। कुछ विशेष प्रजातियों की तितलियां उन पौधों पर अंडे दे देती हैं जहां चींटियां माहुओं को पाल रही होती हैं। इन अंडों से निकलने वाली इल्लियां एक प्रकार का रसायन छोड़ती हैं जिसके कारण चींटियां उन्हें भी अपनी ही तरह की चींटियां समझने लगती हैं और उन पर हमला नहीं करतीं। ये इल्लियां चींटियों के पालतू माहुओं को खाती रहती हैं। इल्लियों को चींटी समझकर वयस्क चींटियां इन इल्लियों को अपनी बाम्बी में ले जाती हैं और उनके लिए भोजन जुटाती हैं। इसके बदले में इल्लियां चींटियों के लिए मधुरस का उत्पादन करती हैं। जब इल्लियों की आयु पूरी हो जाती है तब वे शंखी में बदल जाती हैं। शंखी बनने से पहले इल्लियां रेंगकर बाम्बी के दरवाज़े पर पहुंच जाती हैं और वहां निष्क्रिय शंखी में बदल जाती हैं। दो सप्ताह के बाद शंखी फट जाती है और तितली उस में से निकल जाती है। अब चींटियों को पता चल जाता है कि उन्हें किस प्रकार ठगा गया और वे तितलियों पर हमला कर देती हैं। किंतु चींटियां डाल-डाल तो तितलियां पात-पात। उनके पंखों पर एक चिपचिपा पदार्थ लगा होता है जिसके कारण चींटियों के जबड़े काम नहीं कर पाते और तितलियां सुरक्षित रूप से उड़ जाती हैं।

कुछ माहू भी चींटियों के साथ धोखाधड़ी करने से बाज नहीं आते। एक प्रजाति के माहू के दो रूप होते हैं – एक गोल और एक चपटा। गोल रूप के माहुओं को चींटियां उसी प्रकार पालती हैं जैसे वे अन्य प्रजातियों के माहुओं को पालती हैं। किंतु चपटे वाले माहू धोखेबाज़ होते हैं। इनकी त्वचा में उसी प्रकार के रसायन होते हैं जैसे चींटियों की त्वचा में होते हैं। इसके फलस्वरूप चींटियां इन्हें अपनी ही इल्लियां समझ कर बाम्बी में लाकर परवरिश करती हैं। किंतु ये चालाक माहू वास्तविक इल्लियों से शरीर के द्रव चूस लेते हैं। (स्रोत फीचर्स)

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प्लास्टिक: एक और मौका हाथ से गया – गुरुस्वामी कुमारस्वामी

स वर्ष गुड़ी पड़वा (18 मार्च 2018, पारंपरिक नव वर्ष) पर महाराष्ट्र सरकार ने एक अधिसूचना जारी की जिसके ज़रिए प्लास्टिक और थर्मोकोल उत्पादों के उपयोग पर लगभग प्रतिबंध लगा दिया गया। अधिसूचना में, इस प्रतिबंध को उचित सिद्ध करते हुए गैर-जैव-विघटनशील प्लास्टिक, खास तौर पर कम समय के लिए उपयोग किए जाने वाले प्लास्टिक, से होने वाली समस्याओं का ज़िक्र किया गया है। मुख्य समस्याओं में प्लास्टिक की वजह से नालियों के अवरुद्ध होने, समुद्री जीवन और उसकी विविधता पर खतरा, पर्यावरण में ऐसे प्लास्टिक का बढ़ते जाना और स्वास्थ्य पर प्रभाव शामिल बताए गए हैं। इस प्रतिबंध में दवाइयों के लिए प्लास्टिक पैकेजिंग की अनुमति दी गई है। दूध के पाउच पर भी प्रतिबंध नहीं लगाया गया है – हालांकि, इस तरह के प्रत्येक बैग पर वापस खरीद का मूल्य मुद्रित होगा। और जून 2018 तक सरकार द्वारा इनके संग्रह का एक तंत्र स्थापित करने की बात कही गई है। यहां, मैं इस प्रतिबंध, या इसके कार्यान्वयन की खूबियों-खामियों में नहीं जाऊंगा। दरअसल यह आलेख, रविवार की सुबह सुपरमार्केट में मैंने जो कुछ भी देखा उसी से प्रेरित है।

प्लास्टिक पैकेजिंग सामग्री के प्रचलन को देखते हुए, मैं यह सोच रहा था कि समाज और स्थानीय व्यवसाय इस प्रतिबंध के प्रभावों का सामना कैसे करेंगे। एक समाचार पत्र में प्रकाशित आलेख में अखिल भारतीय प्लास्टिक निर्माता संघ के हवाले से बताया गया है कि इस प्रतिबंध के कारण लगभग 4 लाख लोगों की नौकरियां छिन जाने का अनुमान है। राज्य सरकार ने प्रतिबंध को लागू करने का काम स्थानीय सरकार, नगर पालिकाओं, आदि को सौंपा है। इस कार्य के चुनौतीपूर्ण होने की संभावना है क्योंकि ज़्यादातर स्थानीय निकाय पहले ही संसाधनों के अभाव से त्रस्त हैं। ऐसे में हो सकता है कि वे बार-बार नियमों का उल्लंघन करने वालों पर नज़र रखने और पहचानने में सक्षम न हो सकें (जैसा कि नए कानून में प्रावधान है)। होगा यह कि कम से कम कुछ समय तक, मोहल्ले की किराना दुकान जैसे छोटे व्यवसायी पॉलीबैग त्यागने को राज़ी नहीं होंगे और प्रबंधन के उपाय तलाश करने की कोशिश करेंगे (जैसे सम्बंधित लागतों को उपभोक्ताओं से वसूल कर)। राज्य सरकार जब तक इस प्रतिबंध की कानूनी चुनौतियों से निपटे, तब तक वे शायद थोड़ी प्रतीक्षा करने की रणनीति अपनाएंगे। यह आलेख इस पहलू को भी तलाशने का इरादा नहीं रखता है।

आज सुबह खरीदारी करते वक्त मैं यह सोच रहा था कि इतने बड़े-बड़े सुपरमार्केट जो प्लास्टिक पैकेजिंग पर उतने ही निर्भर हैं (लेकिन छोटे किराना स्टोर्स जैसी रणनीतियों का उपयोग नहीं कर सकते) वे इस परेशानी से कैसे निपटेंगे। इस मुद्दे में मेरी दिलचस्पी संभवतः दूसरों के मुकाबले ज़्यादा है, क्योंकि मैं प्लास्टिक पर काम करता हूं और अपशिष्ट निपटान से सम्बंधित मुद्दों पर नगर पालिका को सलाह भी देता हूं। मैं प्लास्टिक पैकेजिंग के कारण उत्पन्न समस्याओं के बारे में सचेत हूं। और, मैं पॉलीथीन (एलएलडीपीई) की कम लागत को लेकर भी जागरूक हूं और यह भी जानता हूं कि उसकी खूबियों की बराबरी करना मुश्किल है। तो, मुझे स्पष्ट है कि परिवर्तन लाने में नियमन की भूमिका महत्वपूर्ण होगी। लेकिन मैं भटक रहा हूं। जब मैं सुपरमार्केट गया तो देखा कि उन्होंने एक गैर-पॉलीथीन, जैव-विघटनशील बैग अपनाया हुआ था।

ये बैग एक गुजरात स्थित कंपनी बायोलाइस नामक सामग्री से बनाकर सप्लाई करती है। बायोलाइस जैविक पदार्थ से बनाया जाता है और यह एक जैव-विघटनशील झिल्ली बना सकता है। इसे फ्रांस में लीमाग्रेन द्वारा विकसित किया गया है। इसके मार्केटिंग वीडियो में दावा किया गया है कि इसे गैर-खाद्य स्रोतों से तैयार किया गया है (हालांकि इसके अपने साहित्य का यह भी कहा गया है कि इसमें मक्का के आटे का उपयोग हुआ है)। लीमाग्रेन की वेबसाइट कहती है कि वह एक सहकारी समूह है जिसकी स्थापना व संचालन किसानों (संभवत: फ्रांसीसी) द्वारा किया जाता है। लगभग 90 पेटेंट से यह स्पष्ट है कि कृषि उत्पादों के मूल्य संवर्धन के लिए व्यापक अनुसंधान किया गया है। पॉलीथीन पैकेजिंग झिल्लियों में फटने का विरोध करने की सामथ्र्य से मेल खाने वाले विकल्प बहुत कम हैं, लेकिन आज सुबह जो बैग मैंने देखे उससे मैं काफी प्रभावित था। कुल मिलाकर यह एक अद्भुत तकनीकी नवाचार है जो चीनी प्रयोगशाला से उत्पादन के चरण में पहुंचकर अब सुपरमार्केट में उपयोग किया जा रहा है।

तो इस अनुभव ने मुझे व्याकुल क्यों किया? मुख्य रूप से इसलिए कि यहां मैंने देखा कि हमने एक अवसर गंवा दिया है – अवसर था उद्योग में व्यवधान को कम से कम रखते हुए पर्यावरण पर सकारात्मक प्रभाव डालने के साथ-साथ स्थानीय नवाचार नेटवर्क को मज़बूत करने का। एक वैकल्पिक परिदृश्य की कल्पना कीजिए। एक बड़े राज्य की सरकार प्लास्टिक पैकेजिंग पर प्रतिबंध लागू करने का निर्णय लेती है, मगर यह जानती है कि पॉलीथीन के कोई व्यावहारिक विकल्प उपलब्ध नहीं हैं। तो वह विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग (डीएसटी) से संपर्क करती है और उसे इस स्पष्ट लक्ष्य के साथ धन देती है कि एक निर्धारित समय सीमा के अंदर कोई विकल्प विकसित किया जाए। डीएसटी तब राज्य नवाचार परिषद, विज्ञान व इंजीनियरिंग अकादमियों और भारतीय उद्योग परिसंघ (सीआईआई) जैसे उद्योग संगठनों के साथ मिलकर इसके लिए प्रस्ताव आमंत्रित करता है। डीएसटी विशेषज्ञता वाले संस्थानों से सीधे अनुरोध भी कर सकता है। पॉलीथीन-जैसे गुणों के साथ एक विकल्प विकसित करने के लिए ज़रूरी अनुसंधान और बुनियादी नवाचार एक वर्ष में नहीं हो सकता है (ध्यान दें कि लीमाग्रेन के पेटेंट का प्रथम आवेदन 2000 या उससे पहले दिया गया था)। अलबत्ता, ज़रूरत अर्जेंट हो (जैसे, प्रतिबंध लगाने का निर्णय लिया जा चुका हो) और उत्पाद को विकसित करने के लिए वित्त पोषण दिया जाए एवं उद्योग इसे करने को तैयार हो (जैसा मैनहटन परियोजना में हुआ था) तो क्या एक सार्थक विकल्प उभर सकता है? शायद, बगासे जैसे स्थानीय कच्चे माल (जिसे वर्तमान में विद्युत सह-उत्पादन संयंत्रों में जला दिया जाता है) के आधार पर? ऐसा कुछ करने के संदर्भ कौन-से तत्व नदारद हैं? मिलिंद सोहनी का मत है कि भारतीय अकादमिक जगत को स्थानीय चुनौतियों को उठाना चाहिए तथा स्थानीय नीति निर्माताओं के साथ बेहतर समन्वय/सहयोग करना चाहिए। अतुल भाटिया के मुताबिक यह समय अकादमिक जगत और उद्योग के बीच सहयोग स्थापित करने के लिए सही समय है।

मेरा ख्याल है कि एक महत्वपूर्ण सामाजिक समस्या के संदर्भ में, यह सब करने के लिए हमारे पास एक बेहतरीन अवसर था। यदि इस परिवर्तन की योजना और व्यवस्था सावधानीपूर्वक बनाई जाती तो इस प्रतिबंध के कारण होने वाली समस्याओं को कम किया जा सकता था। और साथ ही साथ, सरकार, अकादमिक जगत और उद्योग के बीच साझेदारी निर्मित होती जो नवाचारों की श्रृंखला को और मज़बूत करती। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।

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ब्रिटेन का युरोप से अलगाव पहले भी हुआ है – एस. अनंतनारायण

ब्रिटेन के अधिकांश टापू चूने (चॉक) के टीले हैं। यह चूना प्राचीन ठोस चट्टानों पर जमा होता गया है और इसके ऊपर मिट्टी की परत है। सिर्फ सेलिसबरी और डॉवर में ही चूने की इस परत पर मिट्टी की परत नहीं है और यहां इन चट्टानों की सफेदी दिखाई पड़ती है। चॉक की यह दीवार इंग्लिश चैनल के नीचे-नीचे पूर्व की ओर फैली हुई है और फ्रांस के तट पर कैप ग्रिस नेज़ में एक बार फिर ऊपर उभरती है। माना जाता है कि कभी डॉवर से लेकर कैप ग्रिस नेज़ तक यह एक पूरी पर्वत श्रृंखला रही होगी। इस पर्वत  श्रृंखला में दरार कैसे पड़ी, इसको लेकर अटकलें ही रही हैं।

जिस सप्ताह प्रधान मंत्री टेरेसा मे ने युरोपीय संघ से ब्रिटेन के आर्थिक अलगाव का प्रस्ताव रखा था, उसी सप्ताह संजीव गुप्ता और उनके साथी शोधकर्ताओं ने नेचर कम्युनिकेशंस पत्रिका में रिपोर्ट किया था कि इस मामले में हमारी समझ बेहतर हुई है कि कैसे भौतिक चॉक कनेक्शन में टूटन हुई और यूरोप और ब्रिटेन के बीच इंगलिश चैनल के लिए जगह तैयार हुई थी। गुप्ता व साथियों के अनुसार, यह ब्रेक्सिट 1.0 था जिस पर किसी ने ध्यान ही नहीं दिया था।

उत्तर-पूर्वी फ्रांस तक फैली हुई डॉवर की सफेद क्लिफ लगभग दस करोड़ वर्ष पूर्व नीचे की चट्टानों पर जमना शुरु हुई थी। उस वक्त दुनिया अपेक्षाकृत गर्म थी और यह इलाका समुद्र में डूबा हुआ था। एक-कोशिकीय समुद्री शैवाल की कैल्शियम कार्बोनेट से बनी खोल (कोकोलिथ) समुद्र की तलछटी में जमने लगी और धीरे-धीरे चॉक के बड़े-बड़े टीले बन गए जो आज ब्रिटेन के अधिकांश हिस्से में पाए जाते हैं। जब पृथ्वी की ऊपरी परत (भू-पर्पटी) ऊपर उठने लगी और तापमान में गिरावट की वजह से समुद्र का पानी उतरने लगा तो ये टीले दिखाई देने लगे। इस तरह ब्रिटेन द्वीप चॉक की पर्वत श्रृंखला से युरोप से जुड़ गया। और लगभग साढ़े चार लाख वर्ष पूर्व हिमयुग के दौरान पानी और भी कम होता गया और इंग्लिश चैनल सूख-सी गई और बर्फीली ज़मीन पर झाड़ियां पनपने लगीं।

चॉक की पर्वत श्रृंखला और इंग्लिश चैनल कैसे बनी, इसके बारे में वर्तमान समझ यह है कि आइसबर्ग (हिमपर्वतों) के पिघलने के कारण उत्तरी सागर में विशाल तालाब बन गया होगा और चूने की दीवार ने पानी को दक्षिण की ओर, युरोप व ब्रिटेन के बीच पहुंचने से रोक दिया होगा। बर्फ के लगातार पिघलने और नदियों के बहाव के कारण पानी छलकने लगा होगा और दीवार टूट गई होगी। दीवार के टूटने से ढेर सारा पानी बहने लगा होगा, जिसे महाबाढ़ कहते हैं। गुप्ता व साथियों के उक्त शोध पत्र के अनुसार इंग्लिश चैनल की तलछटी में बनी कई घाटियां इस ओर इशारा करती हैं कि वे पानी के तेज़ बहाव के कारण बनी होंगी। शोध पत्र के अनुसार पूर्व में इन घाटियों की व्याख्या पिघलते हिमनदों से उत्पन्न पानी की वजह से आई ‘विनाशकारी बाढ़’ के परिणाम के आधार पर की गई थी।

इस बारे में कुछ अन्य मॉडल भी हैं जो कम विनाशकारी हैं और अचानक चूने की दीवार टूटने पर आधारित नहीं हैं। इन मॉडल्स में चूने की चट्टान के उत्तर में किसी झील बनने का विचार नहीं है। या इन मॉडल्स में निचले इलाके में बनी घाटियों की भी अन्य व्याख्याएं हैं। अलबत्ता, इन मॉडल का परीक्षण नहीं हो पाया है क्योंकि जिन जगहों पर चूने की पर्वत श्रृंखला फूटने की बात कही जा रही है, वहां के समुद्री पेंदे के बारे में भूगर्भीय जानकारी बहुत कम है।

इंग्लिश चैनल के समुद्री पेंदे के बारे में पहली महत्वपूर्ण जानकारी तब पता चली जब इंग्लैंड और फ्रांस के बीच समुद्र के अंदर से रेल सुरंग बनाने के लिए सर्वेक्षण किया जा रहा था। इंग्लैड और फ्रांस को जोड़ती हुई इंग्लिश चैनल में यह सुरंग समुद्र के पेंदे से 75 मीटर नीचे है। सर्वेक्षण के दौरान चट्टान में कई किलोमीटर लंबे-लंबे गड्ढों के बारे में पता चला। ये गड्ढे रेत और बजरी से भरे हुए थे। इन गड्ढों को फोसे डेनगीयर्ड (फोसे का मतलब होता है गहरा) नाम दिया गया। ये गड्ढे कैसे पड़े यह तो समझ में नहीं आया लेकिन सुरंग के मार्ग में बदलाव करना पड़ा। चट्टान में इन गड्ढों के होने के पीछे एक कारण जल प्रपातों को बताया गया। यह विचार लगभग सही था किंतु उस समय ज़्यादा प्रमाण या जानकारी ना होने की वजह से इस विचार को छोड़ दिया गया था।

 

जानकारी की राह

नेचर कम्युनिकेशंस में लेखकों ने अब किया यह है कि समुद्री पेंदे के मानचित्रों, भूभौतिकी सूचनाओं और चट्टानी धरातल के मानचित्र से प्राप्त सारी नवीनतम जानकारियों को एक साथ रखकर देखा है। ये जानकारियां समुद्र के पेंदे पर शॉक तरंगें भेजकर परावर्तित होकर आई तरंगों के आधार पर प्राप्त की गई हैं। शोधकर्ताओं ने इन सारी जानकारियों को जोड़कर एक व्याख्या विकसित करने का प्रयास किया है।

विभिन्न स्थानों पर समुद्र की गहराइयों का नक्शा समुद्र के पेंदे का सोनार सर्वेक्षण करके बनाया गया था। दूसरी ओर, धरातल की चट्टानों का नक्शा परावर्तित भूकंपीय तरंगों का उपयोग करके बनाया गया था। समुद्री पेंदे से होकर गुज़रने वाला कम्पन्न जब धरातल की चट्टानों से टकराता है तो आंशिक रूप से परावर्तित होता है। परावर्तित तरंगों की मदद से परावर्तन करने वाली सतह की संरचना बना ली जाती है।

समुद्र पेंदे की गहराई के मानचित्र से बहाव के पथ – लोबोर्ग चैनल  – पता चलता है। लोबोर्ग चैनल डॉवर जलडमरुमध्य से होती हुई घाटियों का एक नेटवर्क कुरेदते हुए आगे दक्षिण-पश्चिम में जाती है। लोबोर्ग चैनल और घाटियों के नेटवर्क से लगता है कि वे एक ही ड्रेनेज सिस्टम का हिस्सा हैं। इसके आगे डॉवर जलडमरुमध्य के बीच में 1 कि.मी. से 4 कि.मी. चौड़े रहस्यमय गड्ढे हैं। फोसे डेनगीयर्ड नामक इस समूह में सात मुख्य गड्ढे हैं जो लगभग 140 मीटर गहरे हैं और इनकी ढ़लान 15 डिग्री की है।

लंदन स्थित बैडफोर्ड कॉलेज के प्रोफेसर एलेक स्मिथ का कहना है कि इन गड्ढों में जमी तलछट की जमावट और संघटन से पता चलता है कि वे कई कि.मी. लंबे जलप्रपात के कारण बने होंगे। इतने गहरे गड्ढों का बनना पानी के बहाव या लहरों के कारण अपरदन से संभव नहीं है। शोध पत्र के अनुसार, इन गड्ढों की गहराई को देखते हुए लगता है कि जल-प्रपात काफी ऊंचाई से नीचे गिरता होगा।

तो तस्वीर कुछ इस तरह है – चूने की एक पर्वत श्रृंखला थी जो ब्रिाटेन को फ्रांस से जोड़ती थी। यह पर्वत श्रृंखला साइबेरिया के बर्फीले टुंड्रा प्रदेश की तरह दिखती थी जबकि आज यह काफी हरी-भरी है। यह एक ठंडी दुनिया थी जिसमें जगह-जगह ऊंचाई से डॉवर की सफेद चॉक चट्टान पर जलप्रपात गिरते थे। गिरते जलप्रपात की यह धारणा चट्टान में गड्ढों की व्याख्या कर देता है। मगर यह शायद पहला चरण मात्र था। इसके बाद दूसरा चरण आया जब दीवार टूटी और बाढ़ आई। इसके कारण उत्पन्न तेज़ बहाव के कारण घाटियों का नेटवर्क बना। ऐसा प्रतीत होता है कि शायद बर्फ की चादर का एक बड़ा हिस्सा टूटकर झील में गिर गया था जिसकी वजह से पानी में तेज़ हिलोरें उठी होगी जिससे चूने की पर्वत  श्रृंखला के ऊपर से पानी के गिरने का रास्ता बना होगा… भूकंप ने पर्वत श्रृंखला को कमज़ोर कर दिया… और वह टूट गई होगी।

डॉवर जलडमरुमध्य के बनने की बेहतर समझ से यह समझने में मदद मिली है कि उत्तर पश्चिमी युरोप से पिघला हुआ पानी उत्तरी अटलांटिक में कैसे पहुंचा होगा। शोधकर्ताओं के मुताबिक यह समझना भी मददगार होगा कि ब्रिटेन युरोप के मुख्य भूभाग से कब अलग हुआ और इंसानों ने यहां कब बसना शुरू किया। ((स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।

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प्लास्टिक का भविष्य: खराब और अच्छा – किम पिकरिंग

प्लास्टिक मुख्य रूप से दो कारणों से बदनाम है: अधिकांश प्लास्टिक पेट्रोलियम से बने होते हैं और अंतत: वे पर्यावरण में कचरे के रूप में बिखरे रहते हैं।

अलबत्ता, इन दोनों समस्याओं से बचा जा सकता है। जैवपदार्थ से निर्मित और विघटन योग्य सम्मिश्र पर ध्यान दिया जाए और साथसाथ रीसायक्लिंग पर ध्यान केंद्रित किया जाए तो प्रदूषण को कम किया जा सकता है और प्लास्टिक पर्यावरण में सचमुच सकारात्मक योगदान भी दे सकता है।

प्लास्टिक की बुराई

प्लास्टिक का टिकाऊपन उन्हें अत्यंत उपयोगी बनाता है। किंतु उनका यही गुण (टिकाऊपन) उन्हें धरती पर, और खासकर समुद्रों में, स्थायी (और तेज़ी से बढ़ता हुआ) बदनुमा दाग बना देता है।

यह काफी समय से पता रहा है कि थोक प्लास्टिक महासागरों को दूषित कर रहे हैं। समुद्री धाराओं के केंद्रित होने के कारण प्रशांत महासागर में कचरा एक जगह इकट्ठा होता गया है और एक तैरता प्लास्टिक द्वीप अस्तित्व में आया है ग्रेट पैसिफिक गार्बेज पैच। यह आज ग्रीनलैंड से भी बड़े क्षेत्र में फैला हुआ है। प्लास्टिक के बड़ेबड़े टुकड़े समुद्री जीवन और समुद्री पक्षियों के लिए खतरनाक हैं। प्लास्टिक के ऐसे टुकड़े स्तनधारी जीवों और पक्षियों के पेट और आंतों में जमा हो जाते हैं और उनका गला भी घोंट सकते हैं। 

हाल ही में, खाद्य श्रृंखला में सूक्ष्मप्लास्टिक्स की सर्वव्यापी उपस्थिति होने की जानकारी ने चिंता को जन्म दिया है। विश्लेषकों का कहना है कि 2050 तक समुद्र में उतना ही प्लास्टिक होगा जितनी मछलियां हैं। तो मछुआरे क्या मछली की बजाय प्लास्टिक पकड़ने समुद्र में जाएंगे?

इसके अलावा, प्लास्टिक उत्पादन वर्तमान में पेट्रोलियम पर निर्भर है। इसने स्वास्थ्य से जुड़े खतरों के मुद्दों को उठाया है, जो आम तौर पर पेट्रोलियम आधारित उत्पादों के उत्पादन, उपयोग और निपटान से जुड़े होते हैं।

भला प्लास्टिक

प्लास्टिक कई तरीकों से पर्यावरण में सकारात्मक योगदान कर सकते हैं:

भोजन की कम बर्बादी

सभी खाद्य पदार्थों के उत्पादन का एकचौथाई से एकतिहाई हिस्सा खराब होने के कारण बर्बाद हो जाता है। लेकिन प्लास्टिक पैकेजिंग के बिना, यह मात्रा और अधिक होगी और उसके कार्बन पदचिंह और ज़्यादा होंगे।

मैं कई रीसायक्लिंग समर्थकों को जानता हूं जो खराब भोजन को फेंकने से पहले सोचते नहीं हैं, जबकि इस भोजन की रोपाई, कृषि, कटाई और परिवहन में ऊर्जा खर्च हुई थी, और इसने ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में योगदान दिया होगा।

हल्काफुल्का परिवहन

परिवहन (कार, ट्रेन और विमान) में प्लास्टिक का उपयोग र्इंधन की खपत को कम करेगा। हवाई यातायात में पारंपरिक मिश्रधातुओं के विकल्प के रूप में (फाइबर से पुष्ट करके) प्लास्टिक के उपयोग ने पिछले कुछ दशकों में र्इंधन दक्षता में बहुत इज़ाफा किया है।

उदाहरण के लिए, बोइंग 787 ड्रीमलाइनर में फाइबरयुक्त प्लास्टिक के उपयोग से र्इंधन दक्षता साधारण पारिवारिक कार के तुल्य हो गई है (तुलना प्रति व्यक्ति तय की गई दूरी के आधार पर)। वैसे, हवाई यातायात की पसंदीदा सामग्री, कार्बन फाइबर, प्लास्टिक से ही बनाया जाता है।

पर्यावरण के लिए लाभ सहित प्लास्टिक के बारे में कई अच्छी चीज़ें हैं। किंतु क्या यह संभव है कि अच्छेअच्छे को ले लें और बुरे से बच जाएं?

भविष्य का प्लास्टिक

रासायनिक रूप से प्लास्टिक लंबी श्रृंखलाएं या बड़ी क्रॉसलिंक्ड संरचनाएं हैं जो आम तौर पर कार्बन परमाणुओं के ढ़ांचे से बनी होती हैं।

जैविक स्रोतों से प्राप्त प्लास्टिक का उपयोग हम लंबे समय से कर रहे हैं जैसे चमड़ा, पशुओं की आंतें और लकड़ी। प्लास्टिक के ये रूप जटिल रासायनिक संरचनाएं हैं जिन्हें फिलहाल केवल प्रकृति में ही बनाया जा सकता है।

कुछ शुरुआती कृत्रिम प्लास्टिक केसिन (डेयरी से प्राप्त) जैसे प्राकृतिक पदार्थों से बनाए गए थे। इनका उपयोग बटन जैसी साधारण वस्तुएं बनाने में होता था। पेट्रोलियम आधारित प्लास्टिक का विकास हमें तेज़ी से ऐसे पदार्थों से दूर ले गया।

वैसे, पिछले दो दशकों में, जैविक स्रोतों से प्राप्त प्लास्टिक उपलब्ध हो रहा है और पेट्रोलियमआधारित प्लास्टिक का स्थान ले रहा है। इनमें पॉलिलेक्टाइड (पीएलए) जैसे स्टार्चआधारित प्लास्टिक शामिल हैं, जो मकई स्टार्च, कसावा की जड़ों या गन्ने से बनाया जाता है और पेट्रोलियम आधारित प्लास्टिक के समान ही प्रोसेस किया जाता है। इस तरह के प्लास्टिक का फोम बनाया जा सकता है या पेय पदार्थ की बोतलें बनाने में इस्तेमाल किया जा सकता है।

पर्यावरण पर बोझ को कम करने की दिशा में प्लास्टिक रीसायक्लिंग एक और आवश्यक कदम है। हमें स्वीकार करना होगा कि कचरा लोग फैलाते हैं, न कि प्लास्टिक खुद। अपशिष्ट संग्रह के अधिक प्रयास किए जा सकते हैं और इनाम/दंड की नीति का उपयोग भी किया जा सकता है जिसमें कचरा फैलाने को निरुत्साहित करने की व्यवस्था हो और प्लास्टिक टैक्स भी लगाया जाए, और  रीसायकल्ड प्लास्टिक को इस टैक्स से मुक्त रखा जाए।

ऐसे उत्पादों के विकास को प्रोत्साहन देना भी ज़रूरी है जिनमें उत्पाद के पूरे जीवन चक्र को ध्यान में रखा जाए। उदाहरण के लिए, युरोप में कानूनन ऑटोमोटिव उद्योग के लिए यह अनिवार्य किया गया कि किसी भी कार का कम से कम 85 प्रतिशत हिस्सा रीसायकल किया जाए। इस कानून से उद्योग में उपयोग की जाने वाली सामग्रियों और डिज़ाइन पर नाटकीय प्रभाव पड़ा है।

अच्छे से अच्छे प्रयासों के बावजूद यह तो संभव नहीं होगा कि हम सारे प्लास्टिक को रीसायक्लिंग के लिए इकट्ठा कर लें। पर्यावरणीय क्षति को रोकने के लिए जैवविघटनशील  प्लास्टिक एक उपयोगी साधन हो सकता है। पीएलए (पॉलिलेक्टाइड) जैवविघटनशील है, हालांकि यह धीरेधीरे सड़ता है। अन्य विकल्प भी उपलब्ध हैं।

इससे जैवविघटनशीलता को नियंत्रित करने में अधिक शोध की आवश्यकता उजागर होती है, जिसमें विभिन्न अनुप्रयोगों को ध्यान में रखा जाए। जैवविघटनशील प्लास्टिक के जीवन के अंत में उससे निपटने के लिए आधारभूत संरचना की भी आवश्यकता है। जाहिर है, हम नहीं चाहेंगे कि हमारे विमान 20 साल की सेवा के दौरान जैवविघटित हो जाएं, लेकिन एक बार उपयोग में ली जाने वाली प्लास्टिक की बोतल को अवश्य जल्दी ही विघटित हो जाना चाहिए।

यह ज़रूरी नहीं कि हमारी पृथ्वी ज़हरीले कचरे का कूड़ादान बन जाए। अल्पावधि में, इसके लिए सरकार को जैविक स्रोतों से प्राप्त, रीसायकल करने योग्य और जैवविघटनशील प्लास्टिक को प्रोत्साहन प्रदान करना होगा ताकि वे पेट्रोलियम आधारित उत्पादों के साथ प्रतिस्पर्धा कर पाएं।

सुधार के कुछ संकेत नज़र आ रहे हैं: प्लास्टिक द्वारा होने वाली हानि के बारे में जागरूकता बढ़ रही है और उपभोक्ताओं में प्लास्टिक बैग के लिए भुगतान करने या प्रतिबंध को स्वीकार करने की तैयारी दिख रही है। हमें अपने पिछवाड़े में डंपिंग को रोकना होगा। याद रखें, पर्यावरण वह जगह है जहां हम रहते हैं। इसे नजरअंदाज करके हम संकट मोल ले रहे हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।

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मानव भ्रूण में संयोजक कोशिकाएं पहचानी गई

प्रत्येक स्तनधारी, पक्षी और सरीसृप के भ्रूण की प्रारंभिक अवस्था में कोशिकाओं का एक ऐसा समूह होता है जिनमें कुछ खास क्षमता होती है। कोशिकाओं का यह समूह अन्य कोशिकाओं को संकेत देता है कि उन्हें कौन-सा अंग बनना है। ये ‘संयोजक’ कोशिकाएं कहलाती   हैं। जीव विज्ञानियों ने अब तक मेंढक, पक्षियों और चूहों के भ्रूण में इन संयोजक कोशिकाओं का पता कर लिया था किंतु नैतिकता सम्बंधी नियमों के चलते मानव भ्रूण में इन संयोजक कोशिकाओं को देख पाना संभव नहीं हुआ था। हाल ही में प्रयोगशाला में मानव स्टेम कोशिकाओं में इन संयोजकों को देखा गया है।

1920 की शुरुआत में जर्मन भ्रूण विज्ञानी हैंस स्पैमैन और उनके स्नातक छात्र हिल्डे मैंगोल्ड इस पर अध्ययन कर रहे थे कि कैसे कशेरुकी जानवरों के भ्रूण, कोशिकाओं की खोखली गेंद से हाथ-पैर-सिर बनने वाली संरचना में परिवर्तित हो जाते हैं। परिवर्तन के दौरान भ्रूण एक संकरी नाली नुमा लकीर बनाता है जिसे प्रारंभिक लकीर कहते हैं। स्पैमैन और मैंगोल्ड को सेलेमैंडर के भ्रूण में प्रारंभिक लकीर के एक छोर पर कोशिकाओं का एक खास समूह दिखा। उन्होंने इन्हें जब सैलेमेंडर की एक अन्य प्रजाति के भ्रूण पर आरोपित किया तो इन कोशिकाओं ने अपने आसपास की अन्य कोशिकाओं को मस्तिष्क और रीढ़ की हड्डी बनने के संकेत दिए। यह अध्ययन वैकासिक जीव विज्ञान में बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है। इसके लिए स्पैमैन को 1935 में कार्यिकी का नोबेल पुरस्कार मिला था।

इसके बाद वैज्ञानिकों ने इसी तरह की संयोजक कोशिकाएं, जिन्हें ‘स्पैमैन संयोजक’ भी कहते हैं, मेंढक, पक्षियों और चूहों के भ्रूण में देखीं। लेकिन मानवों में इन्हें देखने के लिए भ्रूण को 14 दिन से ज़्यादा जीवित रखना होता है। यू.के. में नियमों के मुताबिक भ्रूण को 14 दिन तक ही रखा जा सकता है।

उक्त नियम से बचने के लिए न्यूयार्क स्थित रॉकफेलर विश्वविद्यालय के स्टेम कोशिका जीव विज्ञानी ब्रिवनलो की टीम ने प्रयोगशाला में मानव भ्रूण से ली गई स्टेम कोशिकाओं को कल्चर किया है। इस प्रयोग में शोधकर्ताओं ने कोशिकाओं का संपर्क भ्रूण विकास में महत्वपूर्ण दो प्रोटीन्स से कराया। इससे कुछ ऐसी कोशिकाएं विकसित हुर्इं जिनमें संयोजक कोशिका के आनुवंशिक लक्षण थे। इसके बाद उन्होंने इन संयोजक कोशिकाओं को चूज़े के भ्रूण पर आरोपित किया। ऐसा करने पर पाया गया कि चूज़े के अपने तंत्रिका तंत्र के साथ ही साथ तंत्रिका ऊतकों की एक और लकीर उभर रही थी। इसे शोधकर्ताओं ने नेचर पत्रिका में रिपोर्ट किया है। अध्ययन के वरिष्ठ लेखक ब्रिवनलो का कहना है कि यह काफी अश्चर्यजनक है कि दो अलग-अलग प्रजातियों की कोशिकाएं विकास सम्बंधी संकेतों या निर्देशों को साझा कर सकती है।

यूनिवर्सिटी कॉलेज लंदन के विकास जीव विज्ञानी क्लॉडियो स्टर्न ने इसे  ‘एक अच्छी तकनीकी पहल’ की संज्ञा दी है। मानव भ्रूण के बाहर संयोजक कोशिकाओं को बनाने में मिली सफलता यह समझने में मदद कर सकती है कि इनमें अन्य कोशिकाओं को संकेत देने की क्षमता कहां से आती है। इससे भ्रूण विकास के समय कोशिकाओं की संकेत प्रणाली को समझने में भी मदद मिल सकती है। शोधकर्ता प्रयोगशाला में तैयार की गई भ्रूण कोशिकाओं के उपयोग से प्रारंभिक विकास के चरणों को समझने की तैयारी कर रहे हैं। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।

फोटो क्रेडिट : Futura Science