बेवकूफाना सवाल पूछे तो जल्दी सीखता है एआई

दि कोई मगरमच्छ की तस्वीर दिखाकर आपसे पूछे कि क्या यह एक पक्षी है, तो हो सकता है आप उसके इस नादान सवाल पर मुस्करा दें। और फिर, शायद जानवर को पहचानने में मदद भी कर दें। अब, एक हालिया अध्ययन कहता है कि इस तरह के वास्तविक दुनिया के (और कभी-कभी नादान) सवाल-जवाब कृत्रिम बुद्धि यानी आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) के सीखने में महत्वपूर्ण हो सकते हैं। इस तरीके से एआई द्वारा नई तस्वीरों को समझने में सुधार दिखा। इससे ऐसे प्रोग्राम डिज़ाइन करने में तेज़ी आ सकती है जो रोग निदान से लेकर रोबोट या अन्य उपकरणों को निर्देश देने तक के कार्य स्वयं करते हैं।

कई आर्टिफीशियल इंटेलीजेंस तंत्र पाशविक बल पद्धति से सीखते हैं: जैसे वे फर्नीचर की हज़ारों तस्वीरों में पैटर्न ढूंढते हैं और सीखते हैं कि कुर्सी कैसी दिखती है। लेकिन विशाल डैटा सेट के बावजूद भी जानकारी में कमी छूट ही जाती है। मसलन, हो सकता है कि तस्वीरों में दिख रही वस्तु पर कुर्सी लिखा हो लेकिन अन्य सम्बंधित जानकारी न हो। जैसे वह किस चीज़ से बनी है, या क्या आप उस पर बैठ सकते हैं।

आर्टिफीशियल इंटेलीजेंस तंत्र की समझ को विस्तार देने के लिए शोधकर्ता अब एक ऐसा तरीका विकसित करने की कोशिश में हैं जो उसकी जानकारी में कमी पता कर सके, और यह समझ सके कि अजनबियों से इस जानकारी को भरने के लिए कैसे कहा जाए।

इसके लिए स्टैनफोर्ड युनिवर्सिटी के रंजय कृष्णा (अब, युनिवर्सिटी ऑफ वाशिंगटन में) और उनके साथियों ने अपने अध्ययन में मशीन-लर्निंग प्रणाली को अपने ज्ञान में कमी खोजकर ऐसे सवाल पूछने के लिए प्रशिक्षित किया जिसका लोग धैर्यपूर्वक जवाब दे सकें। (जैसे, सिंक का आकार क्या है? जवाब: वर्गाकार)

शोधकर्ताओं ने समझने योग्य सवाल करने के लिए अपने एआई सिस्टम को पुरस्कृत भी किया: लोगों के जवाब के आधार पर सिस्टम को प्रतिक्रिया मिली कि वह अपनी आंतरिक कार्यप्रणाली को समायोजित करे ताकि भविष्य में इसी तरह का व्यवहार कर सके। धीरे-धीरे, एआई ने भाषा और सामाजिक मानदंड सीखे और वाजिब व जवाब देने योग्य सवाल करने की क्षमता तराशी।

शोधकर्ता बताते हैं कि नए AI में कई घटक हैं जो मिल-जुलकर काम करते हैं। एक घटक इंस्टाग्राम पर डाली गई कोई एक तस्वीर – सूर्यास्त की तस्वीर – चुनता है, और दूसरा घटक सवाल करता है कि क्या यह तस्वीर रात में ली गई है? अन्य घटक लोगों के जवाबों से जानकारी निकालते हैं और उनसे तस्वीर के बारे में सीखते हैं।

प्रोसीडिंग्स ऑफ दी नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेज़ में शोधकर्ता बताते हैं कि पूरे 8 महीनों में इंस्टाग्राम पर 2 लाख से अधिक सवाल पूछने के बाद एआई के जवाब देने की सटीकता में 118 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। अप्रशिक्षित एआई द्वारा सवाल करने से सटीकता में केवल 72 प्रतिशत सुधार दिखा। उम्मीद है कि ऐसे सिस्टम एआई का सामान्य ज्ञान बढ़ाने मदद करेंगे और इंटरैक्टिव रोबोट्स और चैटबॉट को बेहतर करने में मदद करेंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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3000 साल पुरानी पतलून इंजीनियरिंग का चमत्कार है

हाल ही में एक विशेषज्ञ बुनकर की मदद से पुरातत्वविदों ने दुनिया की सबसे पुरानी (लगभग तीन हज़ार साल पुरानी) पतलून की डिज़ाइन के रहस्यों को उजागर किया है। प्राचीन बुनकरों ने कई तकनीकों की मदद से घोड़े पर बैठकर लड़ने के लिए इस पतलून को तैयार किया था – पतलून इस तरह डिज़ाइन की गई थी कि यह कुछ जगहों पर लचीली थी और कुछ जगहों पर चुस्त/मज़बूत।

यह ऊनी पतलून पश्चिमी चीन में 1000 और 1200 ईसा पूर्व के बीच दफनाए गए एक व्यक्ति (जिसे अब टर्फन मैन कहते हैं) की थी, जो उसे दफनाते वक्त पहनाई गई थी। उसने ऊन की बुनी हुई पतलून के साथ पोंचों पहना था जिसे कमर के चारों ओर बेल्ट से बांध रखा था, टखने तक ऊंचे जूते पहने थे, और उसने सीपियों और कांसे की चकतियों से सजा एक ऊनी शिरस्त्राण पहना था।

पतलून का मूल डिज़ाइन आजकल के पतलून जैसा ही था। कब्र में व्यक्ति के साथ प्राप्त अन्य वस्तुओं से लगता है कि वह घुड़सवार योद्धा था।

दरअसल घुड़सवारों के लिए इस तरह की पतलून की ज़रूरत थी जो इतनी लचीली हो कि घोड़े पर बैठने के लिए पैर घुमाते वक्त कपड़ा न तो फटे और न ही तंग हो। साथ ही घुटनों पर अतिरिक्त मज़बूती की आवश्यकता थी। यह कुछ हद तक पदार्थ-विज्ञान की समस्या थी कि कपड़ा कहां लोचदार चाहिए और कहां मज़बूत और ऐसा कपड़ा कैसे बनाया जाए जो दोनों आवश्यकताओं को पूरा करे?

लगभग 3000 साल पहले चीन के बुनकरों ने सोचा कि पूरे कपड़े को एक ही तरह के ऊन/धागे से बुनते हुए विभिन्न बुनाई तकनीकों का उपयोग करना चाहिए।

जर्मन आर्कियोलॉजिकल इंस्टीट्यूट की पुरातत्वविद मेयके वैगनर और उनके साथियों ने इस प्राचीन ऊनी पतलून का बारीकी से अध्ययन किया। बुनाई तकनीकों को बेहतर ढंग से समझने के लिए एक आधुनिक बुनकर से प्राचीन पतलून की प्रतिकृति बनवाई गई।

उन्होंने पाया कि अधिकांश पतलून को ट्विल तकनीक से बुना गया था जो आजकल की जींस में देखा जा सकता है। इस तरीके से बुनने में कपड़े में उभरी हुई धारियां तिरछे में समानांतर चलती है, और कपड़ा अधिक गसा और खिंचने वाला बनता है। खिंचाव से कपड़ा फटने की गुंज़ाइश को और कम करने के लिए पतलून के कमर वाले हिस्से को बीच में थोड़ा चौड़ा बनाया गया था।

लेकिन सिर्फ लचीलापन ही नहीं चाहिए था। घुटनों वाले हिस्से में मज़बूती देने के लिए एक अलग बुनाई पद्धति (टेपेस्ट्री) का उपयोग किया गया था। इस तकनीक से कपड़ा कम लचीला लेकिन मोटा और मज़बूत बनता है। कमरबंद के लिए तीसरे तरह की बुनाई तकनीक उपयोग की गई थी ताकि घुड़सवारी के दौरान कोई वार्डरोब समस्या पैदा न हो।

और सबसे बड़ी बात तो यह है पतलून के ये सभी हिस्से एक साथ ही बुने गए थे, कपड़े में इनके बीच सिलाई या जोड़ का कोई निशान नहीं मिला।

टर्फन पतलून बेहद कामकाजी होने के साथ सुंदर भी बनाई गई थी। जांघ वाले हिस्से की बुनाई में बुनकरों ने सफेद रंग पर भूरे रंग की धारियां बनाने के लिए अलग-अलग रंगों के धागों का बारी-बारी उपयोग किया था। टखनों और पिण्डलियों वाले हिस्सों को ज़िगज़ैग धारियों से सजाया था। इस देखकर शोधकर्ताओं का अनुमान है कि टर्फनमैन संस्कृति का मेसोपोटामिया के लोगों के साथ कुछ वास्ता रहा होगा।

पतलून के अन्य पहलू आधुनिक कज़ाकस्तान से लेकर पूर्वी एशिया तक के लोगों से संपर्क के संकेत देते हैं। घुटनों पर टेढ़े में बनीं इंटरलॉकिंग टी-आकृतियों का पैटर्न चीन में 3300 साल पुराने एक स्थल से मिले कांसे के पात्रों पर बनी डिज़ाइन और पश्चिमी साइबेरिया में 3800 से 3000 साल पुराने स्थल से मिले मिट्टी के बर्तनों पर बनी डिज़ाइन से मेल खाते हैं। पतलून और ये पात्र लगभग एक ही समय के हैं लेकिन ये एक जगह पर नहीं बल्कि एक-दूसरे से लगभग 3,000 किलोमीटर की दूरी पर स्थित थे।

पतलून के घुटनों को मज़बूती देने वाली टेपेस्ट्री बुनाई सबसे पहले दक्षिण-पश्चिमी एशिया में विकसित की गई थी। ट्विल तकनीक संभवतः उत्तर-पश्चिमी एशिया में विकसित हुई थी।

दूसरे शब्दों में, पतलून का आविष्कार में हज़ारों किलोमीटर दूर स्थित संस्कृतियों की विभिन्न बुनाई तकनीकों का मेल है। भौगोलिक परिस्थितियों और खानाबदोशी के कारण यांगहाई, जहां टर्फनमैन को दफनाया गया था, के बुनकरों को इतनी दूर स्थित संस्कृतियों से संपर्क का अवसर मिला होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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गोदने की सुई से प्रेरित टीकाकरण

रीर पर टैटू बनवाने का चलन काफी पुराना है। प्रागैतिहासिक काल में शरीर पर विभिन्न आकृतियां गुदवाना एक आम बात थी। शुरुआत में गोदना यानी टैटू बनाने के लिए धातु के औज़ारों और वनस्पति रंजकों का उपयोग किया जाता था जो काफी कष्टदायी होता था। आधुनिक तकनीक से गोदना बनाना भी आसान हो गया और गुदवाने वाले को उतना कष्ट भी नहीं होता।     

टैटू बनाने में एक कुशल कलाकार टैटू की सुई को त्वचा में प्रति सेकंड 200 बार चुभोता है। लेकिन रोचक बात यह है कि इस तकनीक में इंजेक्शन के समान स्याही को दबाव डालकर मांस में नहीं भेजा जाता बल्कि जब सुई बाहर निकाली जाती है तब वहां बने खाली स्थान में स्याही खींची जाती है। टेक्सास टेक युनिवर्सिटी के रसायन इंजीनियर इडेरा लावल की रुचि इस तकनीक को टीकाकरण में आज़माने में है।

आम तौर पर टीकाकरण के लिए उपयोग की जाने वाली खोखली सुई ऊपर से पिस्टन को दबाकर डाले गए दबाव पर निर्भर करती है। इसमें सुई मांसपेशियों तक पहुंचती है और फिर सिरिंज के पिस्टन पर दबाव बनाया जाता है जिससे तरल दवा शरीर में प्रवेश कर जाती है।

लावल का ख्याल है कि यह तकनीक हर प्रकार के टीके के लिए उपयुक्त नहीं है। जैसे, आजकल विकसित हो रहे डीएनए आधारित टीके आम तौर पर काफी गाढ़े होते हैं जिनको इंजेक्शन की सुई से दे पाना संभव नहीं होता। यह काम टैटू तकनीक से किया जा सकता है क्योंकि टैटू की सुई का विज्ञान काफी अलग है।

टैटू की स्याही-लेपित सुई त्वचा में प्रवेश करने पर वहां 2 मिलीमीटर गहरा छेद बना देती है। जब सुई त्वचा से बाहर निकलती है, तब इस छोटे छेद में निर्मित निर्वात स्याही को अंदर खींच लेता है। लावल ने इसे एक मांस-नुमा जेल में प्रयोग करके भी दर्शाया है।

कई अन्य विशेषज्ञ लावल के इस प्रयोग को काफी प्रभावी मानते हैं। डैटा पर गौर करें तो आधी स्याही 50 में से 10 टोंचनों से ही पहुंच गई थी। इष्टतम संख्या पर अध्ययन जारी है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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रेडियोधर्मी कचरे का एक लाख वर्ष तक भंडारण!

कोयला संयंत्रों की तुलना में परमाणु उर्जा को स्वच्छ उर्जा माना जाता है। परमाणु उर्जा संयंत्रों की दक्षता भी अधिक होती है – समान मात्रा में कोयले की तुलना में 20,000 गुना अधिक उर्जा प्राप्त होती है। लेकिन इन संयंत्रों से निकलने वाला रेडियोधर्मी कचरा एक बड़ी समस्या है। यह कचरा सैकड़ों हज़ारों वर्षों तक सक्रिय रहता है और पर्यावरण व स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाता रहता है। वर्तमान में, परमाणु संयंत्रों से निकलने वाले अधिकांश रेडियोधर्मी कचरे को बिजली संयंत्रों में ही संग्रहित किया जाता है लेकिन स्थान की कमी के कारण इस कचरे को स्थानांतरित करना आवश्यक हो जाता है।     

इस कचरे को धरती में दफनाने में भी कई समस्याएं हैं। यह धीरे-धीरे मिट्टी को संदूषित कर पर्यावरण पर प्रतिकूल प्रभाव डालता रहता है। ऐसे में तेज़ी से विकसित हो रहे परमाणु उर्जा संयंत्रों से भविष्य में रेडियोधर्मी अपशिष्ट का निष्पादन एक बड़ी समस्या बन सकता है। वर्तमान में नेवादा स्थित प्रसिद्ध युक्का माउंटेन पर परमाणु कचरे के स्थायी भंडारण से फ्रांस, स्वीडन और अमेरिका जैसे देशों को काफी आलोचनाओं का सामना करना पड़ा है। हाल में फिनलैंड एक दीर्घकालिक परमाणु अपशिष्ट भंडार के लिए अनुमोदन प्राप्त करने में सफल रहा है जिसे आने वाले कुछ वर्षों में शुरू करने की तैयारी है।

इस भंडारण सुविधा को फिनिश भाषा में ऑनकालो नाम दिया गया है जिसका मतलब गहरा गड्ढा है। यूराजोकी शहर के बाहरी क्षेत्र में पृथ्वी की सतह से लगभग आधा किलोमीटर नीचे युरेनियम ईंधन अपशिष्ट का भंडारण किया जाएगा। उम्मीद की जा रही है कि तांबे के पुख्ता कवच, जल-अवशोषक बेंटोनाइट मिट्टी और जलरोधी क्रिस्टलीय चट्टानों की मोटी-मोटी परतें हानिकारक रेडियोधर्मी तत्वों को इस स्थल से बाहर रिसने और स्थानीय पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान पहुंचाने से रोक लेंगी। लेकिन यहां की अछिद्रित चट्टानों में भी दरारें तो होती ही हैं। अत: इस परियोजना पर काम करने वाली कंपनी पोसिवा को इन दरारों का मानचित्रण करके उनसे बचने के काफी प्रयास करना पड़े हैं।

यह परियोजना फिनलैंड के परमाणु उर्जा क्षेत्र के जोखिम को कम करने के लिए काफी महत्वपूर्ण है। इस वर्ष पांचवें परमाणु उर्जा संयंत्र के शुरू होने के बाद परमाणु ऊर्जा देश की ऊर्जा की 40 प्रतिशत मांग को पूरा करेगी। यदि यह परियोजना सफल होती है तो ऑनकालो के विशाल तांबा कवच रेडियोधर्मी युरेनियम को तब तक सुरक्षित और सुखाकर रखेंगे जब तक कि यह पर्याप्त सुरक्षित स्तर तक विघटित नहीं हो जाता यानी लगभग एक लाख वर्षों तक। (स्रोत फीचर्स) 

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समुद्री ध्वनियों की लाइब्रेरी की तैयारी

मुद्रों में अठखेलियां करने वालों ने हम्पबैक व्हेल का दर्दभरा गीत सुना है, किलर व्हेल के समूह का कोलाहल सुना है। लेकिन कांटेदार किना समुद्री साही जैसे शांत जीवों की ध्वनि अनसुनी रह जाती है; यह एक खोखले गोले के पानी में गिरने जैसी आवाज़ करता है। अब, कुछ वैज्ञानिक शांत समुद्री जीवों की ध्वनियां लोगों के ध्यान में लाना चाहते हैं। इसलिए इस महीने फ्रंटियर्स इन इकॉलॉजी एंड इवॉल्यूशन में नौ देशों के 17 शोधकर्ताओं ने समुद्री जीवों द्वारा उत्पन्न ध्वनियों को सूचीबद्ध करने, उनका अध्ययन करने और मानचित्रण के लिए एक वैश्विक लाइब्रेरी का प्रस्ताव रखा है। इस लाइब्रेरी को ग्लब्स (GLUBS) नाम दिया है, जिसमें ध्वनि विशेषज्ञों और नागरिक-वैज्ञानिकों से समुद्र के नीचे की ध्वनियां एकत्र की जाएंगी ताकि शोधकर्ताओं को यह ट्रैक करने में मदद मिले कि समुद्री पारिस्थितिक तंत्र में किस तरह के बदलाव हो रहे हैं।

इस संदर्भ में ऑस्ट्रेलियन इंस्टीट्यूट ऑफ मरीन साइंस के समुद्री जीव विज्ञानी माइल्स पार्सन्स ने स्पष्ट किया कि इस तरह की लाइब्रेरी का सुझाव नया नहीं हैं। समुद्री जीवों की कुछ लाइब्रेरी पहले से मौजूद हैं। लेकिन वे किसी क्षेत्र या कुछ चुनिंदा जंतुओं पर केंद्रित हैं। नया विचार समुद्र के भीतर के ध्वनि के स्रोतों को समझने और उनके दस्तावेज़ीकरण में मदद करेगा।

उन्होंने आगे बताया कि लाइब्रेरी में ज्ञात ध्वनियां और उनके स्रोत होंगे। इसके साथ-साथ इसमें अज्ञात ध्वनियां भी होंगी जिन्हें पहचानने की आवश्यकता होगी। इसमें शोधकर्ता अपने द्वारा रिकॉर्ड की गई किसी एक जंतु की ध्वनि या किसी एक स्थान पर होने वाली सभी आवाज़ों की सम्मिलित रिकॉर्डिंग अपलोड कर सकते हैं। ध्वनि रिकॉर्डिंग के आधार पर विभिन्न प्रजातियों के वितरण पर नज़र रखने वाले नक्शे होंगे। और आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस के प्रशिक्षण के लिए एक डैटाबेस होगा।

लाइब्रेरी में ध्वनियों को सहेजने का उद्देश्य आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस को प्रशिक्षित करने का भी है ताकि वे अज्ञात ध्वनियों के (अज्ञात) स्रोतों को पता लगाने और पहचानने में सक्षम हो। आदर्श रूप से हम यह बताने में सक्षम होंगे कि हमने जो ध्वनि रिकॉर्ड की है वह किस प्राणि की है। लेकिन ऐसा करने के लिए प्रत्येक ध्वनि के हज़ारों नमूनों की आवश्यकता होगी।

इस प्रयास में लोगों को जोड़ने के लिए एक ऐसा नागरिक-विज्ञान ऐप बना सकते हैं जिसके ज़रिए वे अपने द्वारा रिकॉर्ड की गई ध्वनियों को अपलोड कर सकें और पहचान सकें। उम्मीद है कि एक दिन एक विशाल डैटाबेस तैयार हो पाएगा जिसको कोई ध्वनि सुनाते ही वह सम्बंधित प्रजाति और उसके व्यवहार को पहचान सकेगा।

समुद्री जीवन की ध्वनियां रिकॉर्ड करने के लिए बैटरी वाले हाइड्रोफोन का उपयोग किया जाता है। खास तौर से गहराई में दबाव से निपटना काफी मुश्किल हो जाता है। हाइड्रोफोन को या तो लगातार रिकॉर्डिंग के लिए या हर 15 मिनट में 5 मिनट की रिकॉर्डिंग करने के लिए प्रोग्राम किया जाता है। (स्रोत फीचर्स)

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सेंटीपीड से प्रेरित रोबोट्स

सेंटीपीड एक रेंगने वाला जीव है। कुछ मिलीमीटर से लेकर 30 सेंटीमीटर लंबे और अनेक टांगों वाले ये जीव विभिन्न परिवेशों में पाए जाते हैं। यह अकशेरुकी जीव रेत, मिट्टी, चट्टानों और यहां तक कि पानी पर भी दौड़ सकता है। जॉर्जिया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी के जीव विज्ञानी डेनियल गोल्डमैन और उनके सहयोगी सेंटीपीड की इस विशेषता का अध्ययन कर रहे थे। हाल ही में टीम ने सोसाइटी ऑफ इंटीग्रेटिव एंड कम्पेरेटिव बायोलॉजी की बैठक के दौरान बताया कि उन्होंने एक ऐसा सेंटीपीड रोबोट तैयार किया है जो खेतों से खरपतवार निकालने में काफी उपयोगी साबित होगा।

दरअसल, सेंटीपीड का लचीलापन ही उसे विभिन्न प्रकार के व्यवहार प्रदर्शित करने में सक्षम बनाता है। वैसे नाम के अनुरूप सेंटीपीड के 100 पैर तो नहीं होते लेकिन हर खंड में एक जोड़ी टांगें होती हैं। यह संरचना उन्हें तेज़ रफ्तार और दक्षता से तरह-तरह से चलने-फिरने की गुंजाइश देती है हालांकि सेंटीपीड की चाल को समझना लगभग असंभव रहा है।

गोल्डमैन के एक छात्र इलेक्ट्रिकल इंजीनियर और रोबोटिक्स वैज्ञानिक यासेमिन ओज़कान-आयडिन ने जब यह पता किया कि कई खंड और टांगें होने का क्या महत्व है तो अध्ययन का तरीका सूझा। इसके लिए ओज़कान-आयडिन ने चार पैर वाले दो-तीन रोबोट्स को एक साथ जोड़ दिया। साइंस रोबोटिक्स में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार यह संयुक्त मशीन चौड़ी दरारों और बड़ी-बड़ी बाधाओं को पार करने के सक्षम थी। इसके अलावा युनिवर्सिटी की एक अन्य छात्र एवा एरिकसन ने अन्य जीवों की तुलना में सेंटीपीड की चाल को और गहराई से समझने का प्रयास किया। गौरतलब है कि घोड़े और मनुष्य अपनी रफ्तार बढ़ाने के लिए अपने पैरों अलग-अलग ढंग से चलाते हैं। वीडियो ट्रैकिंग प्रोग्राम का उपयोग करते हुए एरिकसन ने बताया कि सेंटीपीड अपनी चाल में परिवर्तन उबड़-खाबड मार्ग की चुनौतियों के अनुसार करता है।

आम तौर पर सेंटीपीड के पैर एक तरंग के रूप में चलते हैं। लेकिन कई बार इस तरंग की दिशा में परिवर्तन आता है। समतल सतहों पर इस लहर की शुरुआत पिछले पैर से होते हुए सिर की ओर जाती है लेकिन कठिन रास्तों पर इस लहर की दिशा बदल जाती है और कदम जमाने के लिए सबसे पहले आगे का पैर हरकत में आता है। और तो और, प्रत्येक पैर ठीक उसी स्थान पर पड़ता है जहां पिछला कदम पड़ा था।

सेंटीपीड खुद को बचाने के लिए पानी पर तैरने में भी काफी सक्षम होते हैं। तैरने के लिए भी वे अपनी चाल में परिवर्तन करते हैं। लिथोबियस फॉरफिकैटस प्रजाति का सेंटीपीड अपने पैरों को पटकता है और फिर अपने शरीर को एक ओर से दूसरी ओर लहराते हुए आगे बढ़ता है। यहां दो तरंगें पैदा होती हैं – एक पैरों की गति की तथा दूसरी शरीर के लहराने की। इन दो तरंगों के बीच समन्वय को समझने के लिए एक अन्य छात्र ने गणितीय मॉडल का उपयोग किया। इस मॉडल में पैरों और शरीर की तरंगों के विभिन्न संयोजन तैयार किए गए। पता चला कि दो तरंगों के एक साथ चलने की बजाय इनके बीच थोड़ा अंतराल होने पर रोबोट अधिक तेज़ी से आगे बढ़ता है। इसी तरह से कुछ संयोजनों से रोबोट को पीछे जाने में भी मदद मिलती है। गोल्डमैन और टीम ने इसको आगे बढ़ाते हुए बताया कि यदि रोबोट के पैरों में जोड़ हों और शरीर के खंडों में लोच हो तो रोबोट ज़्यादा बेहतर काम कर सकता है। गोल्डमैन द्वारा तैयार किए गए वर्तमान रोबोट काफी लचीले हैं और वे किसी भी स्थान के कोने-कोने तक पहुंच सकते हैं। आगे वे इन्हें प्रशिक्षित करना चाहते हैं ताकि वे खरपतवार को पहचान सकें और निंदाई का काम कर सकें। (स्रोत फीचर्स)

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विज्ञान अनुसंधान: 2021 में हुई कुछ महत्वपूर्ण खोजें – मनीष श्रीवास्तव

र साल विज्ञान की दुनिया में नई—नई खोजें मानव सभ्यता को उत्कृष्ट बनाती हैं। साल 2021 भी इससे कुछ अलग नहीं रहा है। यहां 2021 में हुई कुछ ऐसे ही वैज्ञानिक खोजों की झलकियां प्रस्तुत की जा रही हैं, जो स्वास्थ्य, अंतरिक्ष, खगोलविज्ञान जैसे विषयों से जुड़ी हुई हैं।

अंतरिक्ष में नई दूरबीन

हाल ही में नासा से जुड़े वैज्ञानिकों ने कनाडा तथा युरोपीय संघ की मदद से एक अत्यंत शक्तिशाली अंतरिक्ष दूरबीन लॉन्च की है। नाम है जेम्स वेब। उम्मीद जताई जा रही है अपने 5-10 साल के जीवन में यह ब्रह्मांड की उत्पत्ति के रहस्य उजागर करने में मददगार होगी ।

पृथ्वी से 15 लाख किलोमीटर दूर स्थापित जेम्स वेब दूरबीन कई मामलों में खास है। यह अंतरिक्ष से आने वाली इंफ्रारेड तरंगों को पकड़ेगी, जिन्हें अन्य दूरबीनें नहीं पकड़ पाती थीं जिसके चलते अंतरिक्ष में छिपे पिंडों को भी देखा जा सकेगा।

इसके अलावा यह गैस के बादलों के पार भी देख सकती है।

नए आई ड्रॉप से दूर होगी चश्मे की समस्या

हाल ही में अमेरिका में ऐसे आई ड्राप – ‘वुइटी’ – पर शोध किया गया है जो ऐसे लोगों के लिए बेहद मददगार होने वाला है, जिन्हें आंखों से धुंधला दिखाई देता है। उपयोग करने पर यह कुछ समय के लिए आंखों में धुंधलेपन की समस्या को दूर कर देती है। इसे यूएस के खाद्य व औषधि प्रसासन (एफडीए) की स्वीकृति भी प्राप्त हो चुकी है। इसके निर्माताओं का दावा है कि इसका असर 6—10 घंटों तक रहता है। इसके एक महीने के डोज़ का खर्च करीब 6 हज़ार रुपए होगा।

प्रयोगशाला में बनाया स्क्वेलीन

युनेस्को के अनुसार सौंदर्य प्रसाधन उत्पादों, दवाइयों और कोविड वैक्सीन बनाने में इस्तेमाल होने वाले स्क्वेलीन के लिए हर साल 12—13 लाख शार्क के लीवर से 100—150 मिलीलीटर स्क्वेलिन प्राप्त किया जाता है। आईआईटी जोधपुर के वैज्ञानिक प्रो. राकेश शर्मा ने जंगली वनस्पतियों और राज्स्थानी मिट्टी की प्रोसेसिंग से स्क्वेलिन तैयार करने में सफलता पाई है। इस रिसर्च को हाल ही में पेटेंट भी मिल गया है। अब इसके उत्पादन की तैयारी चल रही है।

स्क्वेलीन का इस्तेमाल टीकों में सहायक के रूप में भी होता है। शार्क से मिलने वाले स्क्वेलीन की कीमत 10 लाख रुपए किलो है, जबकि प्रयोगशाला में तैयार स्क्वेलीन की लागत बहुत कम है। प्रयोगशाला में तैयार करने के लिए इसमें धतूरा, आक, रतनज्योत और खेजड़ी के बीजों का इस्तेमाल किया गया है। इन्हें राजस्थानी मिट्टी के साथ प्रोसेस कर स्क्वेलीन बनाने का काम किया जा रहा है।

तंत्रिका रोगों का नया इलाज

हाल ही में किए गए एक अध्ययन में यह संकेत मिले हैं कि एक एथलीट के शरीर का प्रोटीन दूसरे शख्स के तंत्रिका रोगों के इलाज में कारगर साबित हो सकता है। शोधकर्ताओं द्वारा एक्सरसाइज़ व्हील पर कई मील दौड़ लगाने वाले चूहों का खून निष्क्रिय चूहा में डालने पर काफी हैरतअंगेज़ नतीज़े सामने आए। नेचर में प्रकाशित शोध पत्र में बताया गया है कि कसरती चूहे का खून इंजेक्ट किए जाने के बाद निष्क्रिय चूहे में अल्ज़ाइमर और अन्य तंत्रिका बीमारियों के कारण होने वाली मस्तिष्क की सूजन कम हो गई। मैसाचुसेट्स जनरल हॉस्पिटल एंड हावर्ड मेडिकल स्कूल के न्यूरोलॉजी के प्रोफेसर रुडोल्फ तान का कहना है कि कसरत के दौरान बनने वाले प्रोटीन से मस्तिष्क की सेहत में सुधार से जुड़े शोध हो रहे हैं। वे खुद वर्ष 2018 में इस विषय पर एक शोध कर चुके हैं, जिसमें देखा गया था कि अल्ज़ाइमर वाले चूहों के मस्तिष्क की सेहत में कसरत से सुधार हुआ है।

बिना तारे वाले ग्रह

ब्रह्मांड में अभी तक जितने भी ग्रह खोजे जा सके हैं, उन्हें उनके अपने सूर्य की चमक में होने वाली कमी के आधार पर खोजा जा सका है। ऐसे में बिना तारों वाले ग्रहों की खोज करना तो असंभव सा ही प्रतीत होता था, लेकिन वैज्ञानिकों ने हाल ही में 100 से भी ज़्यादा ऐसे ग्रहों की खोज की है जिनका अपना कोई सूर्य या तारा नहीं है। पहली बार एक साथ इतनी बड़ी संख्या में ऐसे ग्रहों की खोज हुई है।

खगोलविदों का कहना है कि इन ग्रहों का निर्माण ग्रहों के तंत्र में हुआ होगा और बाद में ये स्वतंत्र विचरण करने लगे होंगे। इन पिंडों की पड़ताल के लिए शोधकर्ताओं ने युवा ‘अपर स्कॉर्पियस’ तारामंडल का अध्ययन किया। यह हमारे सूर्य के सबसे पास तारों का निर्माण करने वाला क्षेत्र है।

खगोलविदों का कहना है कि ब्रह्मांड में मुक्त ग्रहों की खोज आगे के अध्ययनों में बेहद उपयोगी होगी। अब जेम्स वेब स्पेस दूरबीन जैसे उन्नत उपकरण इनके बारे में विस्तृत खोजबीन कर सकते हैं।  

चुंबक खत्म करेगा विद्युत संकट

एक निहायत शक्तिशाली चुंबक बनाया गया है, इतना शक्तिशाली कि पूरे विमान को अपनी तरफ खींच सकता है। इसे फ्रांस के इंटरनेशनल थर्मोन्यूक्लियर एक्सपेरिमेंटल रिएक्टर (ITER) में असेंबल करके रखा गया है। यह 18 मीटर ऊंचा और 4.3 मीटर चौड़ा है। ITER के वैज्ञानिक नाभिकीय संलयन के ज़रिए ऊर्जा उत्पादन की तलाश कर रहे हैं। इसी संदर्भ में इस विशाल चुंबक का निर्माण किया गया है ताकि परमाणु रिएक्टर में विखंडित होने वाले नाभिकों का संलयन इसकी मदद से करवाया जाए और इससे असीमित ऊर्जा प्राप्त की जाए। अगर वैज्ञानिक कामयाब रहे तो विद्युत संकट का एक समाधान उभर आएगा।

एड्स उपचार में प्रगति

एक नए अध्ययन में भारतीय विज्ञान संस्थान (आईआईएससी), बेंगलुरु के शोधकर्ताओं ने एचआईवी संक्रमित प्रतिरक्षा कोशिकाओं में वायरस की वृद्धि दर कम करने एवं उसे रोकने में हाइड्रोजन सल्फाइड (H2S) गैस की भूमिका का पता लगाया है। उनका कहना है कि यह खोज एचआईवी के विरुद्ध अधिक व्यापक एंटीरेट्रोवायरल उपचार विकसित करने का मार्ग प्रशस्त कर सकती है। देखा जाए, तो वर्तमान एंटीरेट्रोवायरल उपचार एड्स का इलाज नहीं है। यह केवल वायरस को दबाकर रखता है, जिसके चलते बीमारी सुप्त रहती है। आईआईएससी में एसोसिएट प्रोफेसर अमित सिंह के अनुसार, “इससे एचआईवी संक्रमित लाखों लोगों के जीवन में सुधार हो सकता है।”

यह थी गत वर्ष हुईं महत्वपूर्ण वैज्ञानिक खोजें। इनके अलावा भी कई सारी अन्य उपयोगी खोजें हुई हैं। उम्मीद है 2022 विज्ञान के लिए बेहतर साबित होगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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अफवाह फैलाने में व्यक्तित्व की भूमिका

ज के दौर के सोशल मीडिया ने एक ओर जहां लोगों को जोड़ने का काम किया है, वहीं दूसरी ओर इसके माध्यम से भ्रामक खबरों को साझा करने के चलते ध्रुवीकरण, हिंसक उग्रवाद और नस्लवाद में भी काफी तेज़ी से वृद्धि हुई है। सवाल यह है कि वे कौन लोग हैं जो भ्रामक खबरों को साझा करते हैं? एक विश्लेषण के अनुसार रूढ़िवादी लोग काफी हद तक भ्रामक सूचनाओं के प्रसार के लिए ज़िम्मेदार हैं।

इन भ्रामक सूचनाओं के संकट का समाधान खोजने के लिए एक ऐसे स्पष्ट आकलन की आवश्यकता है जिससे यह पता लगाया जा सके कि झूठ और षडयंत्र के सिद्धांतों को कौन फैला रहा है। इस विषय में ड्यूक युनिवर्सिटी के मैनेजमेंट एंड आर्गेनाइज़ेशन के शोध छात्र अशर लॉसन और इसी युनिवर्सिटी में फुकुआ स्कूल ऑफ बिज़नेस के असिस्टेंट प्रोफेसर हेमंत कक्कड़ ने लोगों के व्यक्तित्व को मुख्य निर्धारक के रूप में जांचने का काम किया।

व्यक्तित्व लक्षणों की पहचान और मापन के लिए उन्होंने प्रचलित फाइव-फैक्टर थ्योरी का इस्तेमाल किया जिसे बिग फाइव भी कहा जाता है। यह थ्योरी व्यक्तित्वों को 5 श्रेणियों में बांटती है: अनुभव के प्रति खुलापन, कर्तव्यनिष्ठा, बहिर्मुखता, सहमत होने की तैयारी और उन्माद। इस ढांचे के अंतर्गत कर्तव्यनिष्ठा पर अधिक ध्यान केंद्रित किया गया जिससे लोगों की सलीकापसंदगी, उत्तेजित होने पर आत्म-नियंत्रण, रूढ़िवादिता और विश्वसनीयता में अंतरों का पता चलता है।

शोधकर्ताओं का अनुमान था कि कम-कर्तव्यनिष्ठ रूढ़िवादी  लोग (एलसीसी) अन्य रूढ़िवादियों या कम-कर्तव्यनिष्ठ उदारवादियों की तुलना में अधिक भ्रामक समाचार साझा करते हैं। उन्होंने व्यक्तित्व, राजनीति और भ्रामक समाचारों को साझा करने के बीच सम्बंधों का पता लगाने के लिए 8 अध्ययन किए जिनमें 4642 प्रतिभागी शामिल थे।

सबसे पहले शोधकर्ताओं ने विभिन्न आकलनों के माध्यम से लोगों की राजनीतिक विचारधारा और कर्तव्यनिष्ठा को मापा जिसमें प्रतिभागियों से उनके मूल्यों और व्यवहारों के बारे में पूछा गया था। इसके बाद प्रतिभागियों को कोविड से सम्बंधित कुछ सत्य और भ्रामक समाचारों की शृंखला दिखाई गई और इन समाचारों की सटीकता के बारे में सवाल किए गए। यह भी पूछा गया कि वे इन समाचारों को साझा करेंगे या नहीं। उन्होंने पाया कि उदारवादी और रूढ़िवादी, दोनों ही प्रकार के लोग कभी-कभी भ्रामक समाचार को सही मान लेते हैं। शायद उन्होंने इन समाचारों को सटीक इसलिए माना क्योंकि ये उनके विश्वासों से मेल खाते थे।

यह भी देखा गया कि विभिन्न राजनैतिक विचारधाराओं से जुड़े लोगों ने भ्रामक समाचार साझा करने की बात कही लेकिन अन्य सभी प्रतिभागियों की तुलना में एलसीसी के बीच यह व्यवहार काफी अधिक देखा गया। हालांकि, उच्च स्तर के कर्तव्यनिष्ठ उदारवादियों और रूढ़िवादियों के बीच कोई अंतर देखने को नहीं मिला जबकि कम-कर्तव्यनिष्ठ उदारवादियों ने उच्च-कर्तव्यनिष्ठ उदारवादियों की तुलना भ्रामक समाचार ज़्यादा साझा नहीं किए।

दूसरे अध्ययन में, शोधकर्ताओं ने इन परिणामों को स्पष्ट राजनीतिक रुझान वाले भ्रामक समाचारों के साथ दोहराया और पिछले अध्ययन से भी अधिक प्रभाव देखा। इस बार भी विभिन्न स्तर की कर्तव्यनिष्ठा वाले उदारवादी और उच्च कर्तव्यनिष्ठ रूढ़िवादी व्यापक स्तर पर भ्रामक जानकारी फैलाने में शामिल नहीं थे। भ्रामक समाचार फैलाने वालों में कम कर्तव्यनिष्ठ रूढ़िवादी (एलसीसी) आगे रहे।

सवाल यह था कि एलसीसी में भ्रामक समाचार को साझा करने की प्रवृत्ति क्यों होती है। इसके लिए शोधकर्ताओं ने एक ऐसा प्रयोग किया जिसमें प्रतिभागियों की राजनीतिक विचारधारा और व्यक्तित्व के बारे में जानकारी के अलावा उनमें अराजकता की चाहत, सामाजिक और आर्थिक रूप से रूढ़िवादी मुद्दों के समर्थन, मुख्यधारा मीडिया पर भरोसे और सोशल मीडिया पर बिताए गए समय का आकलन किया गया। शोधकर्ताओं के अनुसार एलसीसी ने अराजकता की ज़रूरत ज़ाहिर की, और साथ ही वर्तमान राजनीतिक-सामाजिक संस्थाओं को बाधित करने और नष्ट करने की इच्छा भी व्यक्त की। इनसे भ्रामक जानकारियों को फैलाने की उनकी प्रवृत्ति की व्याख्या हो जाती है। यह किसी अन्य विचारों और समूहों की तुलना में स्वयं को श्रेष्ठ मानने की इच्छा को भी दर्शाता है जो कम कर्तव्यनिष्ठ रूढ़िवादियों में अधिक देखने को मिलती है।         

दुर्भाग्य से, शोधकर्ताओं को यह भी पता चला कि समाचारों पर सटीकता का लेबल लगाने से भी भ्रामक जानकारी की समस्या का समाधान नहीं किया जा सकता है। इसके लिए शोधकर्ताओं ने एक प्रयोग अंजाम दिया जिसमें सोशल मीडिया पर साझा किए गए सही समाचार के लिए ‘पुष्ट’ और भ्रामक समाचार के लिए ‘विवादित’ टैग का उपयोग किया गया। उन्होंने पाया कि उदारवादियों और रूढ़िवादियों ने ‘पुष्ट’ टैग वाले समाचार को अधिक साझा किया। हालांकि, एलसीसी ने अभी भी जानकारी को गलत या भ्रामक जानते हुए भी साझा करना जारी रखा।

इसके बाद शोधकर्ताओं ने एक और अध्ययन किया जिसमें प्रतिभागियों को स्पष्ट रूप से बताया गया कि जिस जानकारी को वे साझा करना चाहते हैं वह गलत है। इसके बाद उनको अपने निर्णय को बदलने का मौका भी दिया गया। इसके बाद भी एलसीसी द्वारा भ्रामक समाचार साझा करने की दर काफी उच्च रही और वे समाचार के गलत होने की चेतावनियों को भी अनदेखा करते रहे।

यह परिणाम काफी चिंताजनक है जिसमें एलसीसी भ्रामक समाचारों के प्रसार के प्राथमिक चालक नज़र आते हैं। इसके लिए सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स को चेतावनी का लेबल लगाने के बजाय कोई और समाधान खोजना होगा। एक अन्य विकल्प के रूप में सोशल मीडिया कंपनियों को ऐसे समाचारों को अपने प्लेटफॉर्म्स से हटाने के प्रयास करने चाहिए जो किसी व्यक्ति समुदाय को चोट पहुंचाने की क्षमता रखते हैं। कुल मिलाकर मुद्दा सिर्फ इतना है कि जब तक सोशल मीडिया कंपनियां कोई ठोस तरीका खोज नहीं निकालती हैं तब तक यह समस्या बनी रहेगी। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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क्रिप्टोकरेंसी और भारत की अर्थ व्यवस्था – 2 – सोमेश केलकर

यह लेख “क्या है बिटकॉइन जैसी क्रिप्टोकरेंसी-1” (https://bit.ly/3EQACFn) का दूसरा भाग है। यदि आपने लेख का पहला भाग नहीं पढ़ा है और/या क्रिप्टोकरेंसी के काम करने की प्रणाली को नहीं समझते हैं तो आप पहला भाग ज़रूर पढ़ें।

हाल ही में, चीन सरकार ने क्रिप्टोकरेंसी को अवैध घोषित करते हुए इसके क्रय-विक्रय, माइनिंग (खनन), मिंटिंग और व्यापार पर प्रतिबंध लगा दिया। अमेरिका के कुछ नीति निर्माताओं ने भी क्रिप्टोकरेंसी की वैधता और खरेपन पर सवाल उठाया है। कई सीनेटरों ने तो इसे “असली पैसे का घटिया विकल्प” कहा है।

ऐसा प्रतीत होता है कि रिज़र्व बैंक ऑफ इंडिया (आरबीआई) और भारत सरकार ने भी क्रिप्टोकरेंसी के खिलाफ सख्त रवैया अपनाने की ठान ली है। ऐसी अफवाह है कि निजी क्रिप्टोकरेंसी के विरुद्ध एक विधेयक पर काम किया जा रहा है और इस वर्ष के अंत तक इसे संसद में प्रस्तुत किया जाएगा। सवाल यह उठता है कि सरकारों और नीति निर्माताओं को क्रिप्टोकरेंसी इतनी नापसंद क्यों है? आइए इसके कारणों पर एक नज़र डालते हैं।

1. नियंत्रण खो देने का डर

सरकारों द्वारा क्रिप्टोकरेंसियों को नापसंद करने का कारण क्रिप्टोकरेंसियों का दोहरा उद्देश्य है। क्रिप्टोकरेंसी का उपयोग निवेश के साधन के साथ-साथ खरीद के साधन के रूप में भी किया जा सकता है। चूंकि इसे क्रय-विक्रय के साधन के रूप में इस्तेमाल किया जा सकता है, सरकार के स्वामित्व वाले केंद्रीय बैंकों द्वारा जारी की गई अधिकारिक मुद्रा के साथ प्रतिस्पर्धा का खतरा है।

वास्तव में सरकारें नियंत्रण चाहती हैं और क्रिप्टोकरेंसियां इस नियंत्रण को चुनौती देती हैं। हमारी पारंपरिक मुद्रा प्रणाली में लेन-देन की वैधता प्रमाणित करने और सत्यापन पर बैंकों का एकाधिकार होता है जिससे सरकारों को यह पता करना आसान हो जाता है कि किसके पास कितनी धनराशि है जो कर-निर्धारण के लिए ज़रूरी है।

विकेंद्रीकरण से भी नियंत्रण में कमी आती है, अधिदिश्ट (यानी सरकारी आदेश से प्रचलित) मुद्रा से सरकारें आसानी से चीज़ों को नियंत्रण में रख सकती हैं। उदाहरण के लिए, सरकारें प्रचलित मुद्रा को नोटबंदी के माध्यम से समाप्त कर सकती हैं और नई मुद्रा छाप सकती हैं। अर्थव्यवस्था को नियंत्रित करने के लिए सरकारें मौद्रिक नीति में बदलाव भी कर सकती हैं। दूसरी ओर, क्रिप्टोकरेंसियां केंद्रीय प्राधिकरण को नियंत्रण की कोई गुंजाइश नहीं देतीं और इसलिए क्रिप्टोकरेंसियों को कानूनी वैधता मिलने से सरकारों के लिए मौद्रिक नीतियों का नियमन कर पाना संभव नहीं होगा।       

2. क्रिप्टो-अपराध की संभावना

क्रिप्टोकरेंसी का विकेंद्रीकृत स्वरूप इसका सबसे बड़ा गुण होने के साथ-साथ सबसे बड़ी कमज़ोरी भी है। एक ओर, जहां निजता एक मौलिक अधिकार है, वहीं दूसरी ओर, क्रिप्टोकरेंसियों से हासिल गुमनामी से लोगों को जासूसी, हत्या, ड्रग व्यापार, आतंकी फंडिंग, साइबर-अपराध जैसी गतिविधियों में लिप्त होने का मौका भी मिलता है। क्रिप्टोकरेंसियों की गुमनाम प्रकृति के चलते कानून का उल्लंघन करने वालों पर नकेल कसना काफी कठिन हो जाता है।

क्रिप्टोकरेंसियां कितनी भी सुरक्षित क्यों न हों, धोखाधड़ी और अनाधिकृत लेनदेन की घटनाएं सुर्खियों में रही हैं। ऐसे में प्रभावित लोगों को न्याय दिलाना सरकार की ज़िम्मेदारी बन जाती है जबकि उसका इन मुद्राओं पर कोई नियंत्रण नहीं होता।            

3. केंद्रीय बैंकों पर खतरा

एक ऐसे परिदृश्य की कल्पना कीजिए जिसमें क्रिप्टोकरेंसी किसी देश की एकमात्र वैध मुद्रा बन जाती है। इस स्थिति में, मुद्रा की विकेंद्रीकृत प्रकृति के कारण, केंद्रीय बैंक की कोई आवश्यकता नहीं रह जाएगी क्योंकि तब किसी भी लेन-देन को मान्य या सत्यापित करने की आवश्यकता ही नहीं रहेगी।

सरकारें केंद्रीय बैंकों और अन्य वित्तीय संस्थानों की मदद से देश के वित्त और अर्थव्यवस्था का प्रबंधन करती हैं। बिटकॉइन और अन्य विकेंद्रीकृत क्रिप्टोकरेंसियों की बढ़ती लोकप्रियता से विश्व भर के कई केंद्रीय बैंकों ने अपना व्यवसाय खो दिया है और सम्बंधित सरकारों को भी नुकसान हुआ है।  

4. अस्थिरता

एक और परिदृश्य की कल्पना कीजिए जब आप एक रबड़ खरीदने के लिए एक रुपया खर्च करते हैं और अगले ही दिन आपको पता चलता है कि यदि एक दिन इंतज़ार करते तो इसी एक रुपए से 10 ग्राम सोना खरीद सकते थे। अच्छी बात है कि रुपए की क्रय शक्ति में प्रतिदिन इतना उतार-चढ़ाव नहीं होता है।  

क्रिप्टोकरेंसी के अत्यधिक अस्थिर मूल्य की समस्या का यह एक उदाहरण है। इसी समस्या का दूसरा पहलू शायद नीति निर्माताओं के लिए और भी गंभीर है। क्रय शक्ति के आधार पर यह पता लगाना कठिन हो जाता है कि कोई व्यक्ति कितना अमीर या गरीब है। एक दिन आपके पास इतनी संपत्ति होगी जिससे आप अपना शेष जीवन आराम से व्यतीत कर सकते हैं और अगले ही दिन आपकी सारी संपत्ति एक माचिस की डिबिया के मूल्य के बराबर होगी। इस स्थिति में नीति निर्माताओं को मौद्रिक और कराधान नीतियों को लागू करना अत्यंत कठिन हो जाएगा।    

यदि रुपया क्रय शक्ति के मामले में इतना अस्थिर रहता है तो हमें एक ऐसी लचीली कराधान दर की आवश्यकता होगी जो हर घंटे परिवर्तित होती रहे।

क्रिप्टोकरेंसी बाज़ार अपनी अस्थिर प्रकृति, उच्च जोखिम और उच्च लाभ के लिए जाना जाता है। इसी कारण क्रिप्टोकरेंसी को खरीद के साधन या मुद्रा के रूप में उपयोग करना कठिन हो जाता है। यह पारंपरिक कागज़ी मुद्रा की तुलना में काफी नई है तथा इसे उपयोग में लाए काफी समय भी नहीं हुआ है। ऐसे में मुद्रा के रूप में इसकी उपयोगिता भी कमज़ोर दिख रही है।        

5. मुद्रा आपूर्ति में धन का अभाव

क्रिप्टोकरेंसियां विकेंद्रीकृत होती हैं और इसलिए यह कोई भी नहीं जानता कि अधिदिश्ट मुद्रा के बदले क्रिप्टोकरेंसी खरीदने पर निवेशक के बैंक से पैसा जाता कहां है। क्रिप्टोकरेंसी को खरीदने वाला व्यक्ति दुनिया में कहीं का भी हो सकता है और बेचने वाला व्यक्ति भी दुनिया के किसी भी कोने का हो सकता है। इससे नीति निर्माताओं को काफी समस्या होती है।            

यदि आरबीआई अर्थव्यवस्था में प्रचलन के लिए 100 रुपए जारी करे और कोई निवेशक इनमें से 10 रुपए क्रिप्टोकरेंसी में निवेश कर दे तो अर्थ व्यवस्था में केवल 90 रुपए ही बचेंगे। क्रिप्टोकरेंसियां अर्थव्यवस्था में उपलब्ध धन राशि को कम कर सकती हैं और एक बार इन वित्तीय साधनों में निवेश होने पर कोई भी नीति निर्माता इस पैसे को ट्रैक नहीं कर सकता है। यह एक और समस्या है जिसके कारण नीति निर्माता क्रिप्टोकरेंसियों को नापसंद करते हैं।        

अर्थव्यवस्था पर प्रभाव

अनुमान है कि 2021 तक, भारत में लगभग 1 करोड़ खुदरा क्रिप्टोकरेंसी निवेशक थे। और क्रिप्टोकरेंसी बाज़ार में लगातार वृद्धि हो रही है।

भले ही भारतीय निवेशकों में क्रिप्टोकरेंसियों के प्रति उत्साह दिख रहा हो, लेकिन अवैध गतिविधियों के लिए उपयोग होने की आशंका के कारण लाखों निवेशक क्रिप्टोकरेंसी को अपनाने से कतरा भी रहे हैं। अनियंत्रित प्रकृति के चलते क्रिप्टोकरेंसियों को गैर-कानूनी मुद्रा मान लिया जाता है।

आने वाले बजट सत्र में क्रिप्टोकरेंसी और डिजिटल मुद्रा विधेयक 2021 को प्रस्तुत करने की घोषणा ने निवेशकों के विश्वास को डगमगा दिया है। अनुमान है कि विधेयक क्रिप्टोकरेंसी के प्रतिकूल होगा।    

यदि भारत क्रिप्टोकरेंसी और ब्लॉकचेन तकनीक का ठीक से नियमन करना सीख जाए और क्रिप्टोकरेंसी से उत्पन्न आय पर कर लगाने की प्रणाली विकसित कर ले तो भारतीय अर्थव्यवस्था को काफी फायदा हो सकता है। ब्लॉकचेन तकनीक को पारंपरिक बैंकिंग प्रणाली में भी अपनाया जा सकता है।

वित्त मंत्री के अनुसार सरकार की योजना क्रिप्टोकरेंसी के लिए नपा-तुला दृष्टिकोण अपनाने की है। हालांकि, सरकार द्वारा ‘नपे-तुले’ दृष्टिकोण में अस्पष्टता से भारतीय क्रिप्टोकरेंसी निवेशकों और प्लेटफॉर्म्स के बीच पूर्ण प्रतिबंध का डर बना हुआ है।

इतिहास पर नज़र डालें तो इस प्रकार के प्रतिबंध अक्सर अप्रभावी रहे हैं। प्रतिबंध भविष्य में होने वाले नवाचारों को खत्म कर देगा। हालांकि, इसका मतलब यह नहीं है कि निवेशकों के हितों की रक्षा के लिए नियामक ढांचा आवश्यक नहीं है। यहां कुछ महत्वपूर्ण कानूनी और नियामक जोखिमों पर चर्चा की गई है जो भारतीय अर्थव्यवस्था को प्रभावित कर सकते हैं।     

1. सुपरिभाषित कानूनों का अभाव

किसी भी तकनीक को बड़े पैमाने पर अपनाने के लिए अनिवार्य है कि मानकों का निर्धारण कर लिया जाए। क्योंकि डिस्ट्रिब्यूटेड लेजर तकनीक (जिसे ब्लॉकचेन कहा जाता है) अभी भी विकसित हो रही है, दुनिया भर के नियामक और नीति निर्माता इस तरह की तकनीक के निहितार्थ का अध्ययन कर रहे हैं। हालांकि अमेरिका और जापान जैसे देश नियामक ढांचा विकसित करने का प्रयास कर रहे हैं, लेकिन अभी तक ऐसा कोई ढांचा सामने नहीं आया है।   

2. स्वामित्व और न्याय-क्षेत्र में अस्पष्टता

एक डिस्ट्रीब्यूटेड लेजर तकनीक का मूल सिद्धांत यह है कि इसके नेटवर्क से जुड़े सभी लोगों के पास लेजर की एक प्रति होती है जिसके चलते लेजर का वास्तविक स्थान जानने का कोई तरीका नहीं है। इसलिए, ब्लॉकचेन पर किए गए लेनदेन पारंपरिक बैंकिंग की तुलना में उच्चतर गोपनीयता प्रदान करते हैं। हालांकि, यह एक अच्छी खबर नहीं है क्योंकि इससे न्यायिक क्षेत्राधिकार का मुद्दा भी उठता है – यदि कोई इस विशेषता का लाभ उठाना चाहे तो निपटना मुश्किल होगा।

हो सकता है कि क्रिप्टोकरेंसियों का उपयोग करके किए गए विभिन्न लेनदेन ऐसे अलग-अलग कानूनी ढांचों के अंतर्गत आते हों जो एक दूसरे के विपरीत हों। जैसे मैं जापान में किसी के साथ लेनदेन करता हूं और वहां की सरकार और मेरी सरकार की नीतियां परस्पर विरोधी हों। इसी क्रम में एक और मुद्दा बहीखाते का कोई भौतिक स्थान न होना है जिसके कारण क्रिप्टोकरेंसियों का ‘मूल देश’ निर्धारित नहीं किया जा सकता। इसके अतिरिक्त, चूंकि ब्लॉकचेंस राष्ट्र-पारी हो सकते हैं, इसलिए अंतर्राष्ट्रीय विवादों की स्थिति में सम्बंधित देशों के नीति निर्माताओं के लिए प्रासंगिक कानून और न्याय-क्षेत्र का निर्धारण करना एक बड़ा सिरदर्द हो सकता है। नीति-निर्माताओं के लिए एक कठिन काम होगा कि वे विभिन्न उपयोगकर्ताओं, विनिमयों और परियोजनाओं के बीच कानून को कैसे लागू करेंगे।    

3. अनिश्चित वर्गीकरण

जहां तक कराधान का सवाल है, विभिन्न देशों के बीच क्रिप्टोकरेंसी के बारे में कोई स्पष्ट सहमति नहीं है कि यह है क्या। क्रिप्टोकरेंसी को परिसंपत्ति, मुद्रा, कमोडिटी जैसी विभिन्न श्रेणियों में रखने पर विचार चल ही रहा है। 

अपुष्ट रिपोर्टों के अनुसार ऐसी संभावना है कि भारत सरकार क्रिप्टोकरेंसी को परिसंपत्ति श्रेणी में रख सकती है। भारत सरकार की ओर से अभी तक कोई स्पष्ट संकेत नहीं मिले हैं। यह केवल क्रिप्टोकरेंसी के कराधान के मुद्दे को और उलझाएगा।  

4. हवाला के मुद्दे

क्रिप्टोकरेंसी के विरोध का प्रमुख कारण यह रहा है कि इनका उपयोग धोखाधड़ी, मनी लॉन्ड्रिंग  और अन्य अपराधों के लिए किया जा सकता है। क्रिप्टोकरेंसियों का गुमनाम स्वरूप इनके दुरुपयोग की संभावना का प्रमुख कारण माना जाता है। क्रिप्टोकरेंसियों का उपयोग डीप-वेब की अवैध वेबसाइटों पर किया जाता है जहां अपराधी अवैध सामग्री (जैसे बंदूक, गोला-बारूद, विस्फोटक, ड्रग्स, रेडियोधर्मी पदार्थ) का लेनदेन कर सकते हैं या अवैध निगरानी, जासूसी और हत्या जैसी ‘सेवाएं’ खरीद सकते हैं।   

5. डैटा चोरी की संभावना

क्रिप्टोकरेंसियां कितनी भी सुरक्षित क्यों न हों, किसी भी अन्य वित्तीय साधन के समान इसमें भी डैटा चोरी और वित्तीय धोखाधड़ी के जोखिम तो हैं ही। इनकी ब्लॉकचेन के कोड में खामियां रह जाएं तो अपराधी इसका फायदा उठा सकते हैं और गुमनामी के गुण के चलते ऐसे अपराधियों को ट्रैक करना काफी कठिन होगा।

कॉर्नेल युनिवर्सिटी के एक शोध में पिछले वर्ष एथेरियम (एक क्रिप्टोकरेंसी) के ब्लॉकचेन में एक गंभीर सुरक्षा खामी का पता चला था। इस शोध रिपोर्ट में बताया गया था कि यदि इस खामी का फायदा उठा लिया जाता तो एथेरियम उपयोगकर्ताओं और निवेशकों को 25 करोड़ डॉलर की चपत लग सकती थी। इसी तरह, क्रिप्टोकरेंसी वॉलेट निर्माता ‘लेजर’ के डैटा में सेंध के कारण 10 लाख ग्राहकों के नाम, पते और फोन नंबर सहित ईमेल भी उजागर हो गए थे। अभी यह देखना बाकी है कि मौजूदा डैटा प्रोटोकॉल की मदद से क्रिप्टोकरेंसी से जुड़े डैटा चोरी और वित्तीय धोखाधड़ी के मुद्दे को संबोधित किया जा सकता है या नहीं।      

6. निवेशकों की चिंताएं

युनाइटेड किंगडम, जापान, कनाडा और संयुक्त राज्य अमेरिका सहित कई देशों द्वारा बिटकॉइन जैसी क्रिप्टोकरेंसियों को वैध घोषित करने के बावजूद विभिन्न देशों के बीच लेनदेन की कानूनी वैधता का सवाल अभी भी बना हुआ है।

सोने और चांदी के मूल्यों के विपरीत, क्रिप्टोकरेंसी विशुद्ध रूप से एक काल्पनिक धन है जो बिना किसी केंद्रीकृत प्राधिकरण की आवश्यकता के गणित और अर्थशास्त्र पर काम करता है और किसी भी भौतिक संपत्ति द्वारा समर्थित नहीं है। केंद्रीकृत नियमों के अभाव में, निवेशकों के क्रिप्टोकरेंसी सम्बंधित विवादों को सुलझाने के तरीके का सवाल अभी भी अनुत्तरित है।    

भारत का रुख

लगभग 5 वर्षों से, भारत में क्रिप्टोकरेंसियों के विषय पर उहापोह जारी है। जब पता चला कि देश में क्रिप्टोकरेंसियों के माध्यम से धोखाधड़ी की जा रही हैं, तो अप्रैल 2018 में, आरबीआई ने बैंकों और अन्य वित्तीय संस्थानों को क्रिप्टोकरेंसी में लेनदेन करने से प्रतिबंधित कर दिया। इसके निम्नलिखित कारण बताए गए:  

1. क्रिप्टोकरेंसी की प्रकृति अत्यधिक अटकल-आधारित है जो उन्हें एक अत्यंत अस्थिर निवेश बनती है।

2. क्रिप्टोकरेंसी की गुमनाम प्रकृति इसे अवैध गतिविधियों, हवाला और कर चोरी के माध्यम के रूप में उपयोग करने के लिए उपयुक्त बनाती है।

3. क्रिप्टोकरेंसी माइनिंग बहुत अधिक ऊर्जा खाता है जो देश की ऊर्जा सुरक्षा पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकता है।

4. आरबीआई अर्थव्यवस्था में क्रिप्टोकरेंसियों की आपूर्ति को नियंत्रित नहीं कर सकता है।  

आरबीआई द्वारा उठाए गए ये बिंदु वास्तव में उचित और सशक्त हैं। सरकार ने क्रिप्टकरेंसी पर प्रतिबंध लगाने का प्रयास तो किया लेकिन फरवरी 2019 में सर्वोच्च न्यायालय ने इसको प्रतिबंधित करने के बजाय विनियमित करने का सुझाव दिया। सुझाव में कहा गया कि क्रिप्टोकरेंसियों को माल और सेवाओं की खरीद के लिए भुगतान के वैध तरीके के रूप में स्वीकार किया जा सकता है, ज़रूरत सिर्फ इतनी है कि आरबीआई इसका नियमन करे।

प्रतिबंध लगाने का शायद कोई फायदा न हो क्योंकि लोग इससे निपटने के तरीके खोज सकते हैं। लोग भारत के बाहर स्थित एक्सचेंजों के ज़रिए व्यापार कर सकते हैं जो आरबीआई को इस समीकरण से पूरी तरह बाहर कर देगा। भारत के कई स्टार्ट-अप्स ने ठीक वैसा ही किया है।

प्रतिबंध अंतर्राष्ट्रीय निवेशकों को नकारात्मक संदेश भेजेगा और निवेश के एक आकर्षक गंतव्य के रूप में भारत की प्रतिष्ठा को धूमिल करेगा।

आखिरकार, मार्च 2020 में सर्वोच्च न्यायालय ने प्रतिबंध को असंवैधानिक करार दिया। अपने फैसले में न्यायालय ने एक कारण यह भी बताया कि भले ही भारत में क्रिप्टोकरेंसी का नियमन नहीं किया जा रहा है लेकिन वे निहित रूप से अवैध नहीं है।

विभिन्न मीडिया रिपोर्टों के अनुसार, भारत में क्रिप्टोकरेंसी में अनुमानित 10,000 करोड़ रुपए का निवेश किया गया है। क्रिप्टोकरेंसी के माध्यम से होने वाली आय का उचित कराधान सुनिश्चित करने के लिए सरकारी विनियमन पर काम किया जा रहा है। आरबीआई द्वारा खुद की क्रिप्टोकरेंसी शुरू करने की भी योजना है। आरबीआई के गवर्नर शक्तिकांत दास ने एक बयान में कहा कि ‘सेंट्रल बैंक की डिजिटल करेंसी पर काम जारी है। आरबीआई की टीम इसके तकनीकी और प्रक्रियात्मक पक्षों पर काम कर रही है ताकि जनता के बीच इसकी शुरुआत हो सके।’   

कुछ ही दिनों पहले, नाइजीरिया के राष्ट्रपति मुहम्मद बुहारी ने गर्व के साथ यह घोषणा की कि ‘नाइजीरिया अफ्रीका का ऐसा पहला और विश्व के पहले देशों में से है जिसने अपने नागरिकों के लिए डिजिटल मुद्रा की शुरुआत की है।’ सेंट्रल बैंक की डिजिटल मुद्रा ई-नाइरा को शुरू करने का उद्देश्य कागज़ी नाइरा को पूरी तरह से बदलने की बजाय उसे पूरक के तौर पर उपयोग करना है। इस तरह नाइजीरिया उन 7 देशों में शामिल हो गया है जिन्होंने आधिकारिक तौर पर अपने केंद्रीय बैंक की डिजिटल मुद्रा की शुरुआत की है। एटलांटिक काउंसिल की सेंट्रल बैंक डिजिटल करेंसी ट्रैकिंग वेबसाइट के अनुसार चीन जैसे 16 अन्य देश अभी भी इसके प्रायोगिक चरण में हैं।  

अन्य प्रमुख चिंताएं

नेशनल ब्यूरो ऑफ इकॉनॉमिक रिसर्च द्वारा किए गए एक अध्ययन में पाया गया कि बिटकॉइन और अन्य लोकप्रिय मुद्राएं पहले से कहीं आसानी से उपलब्ध हैं लेकिन अभी भी मुट्ठीभर लोग ही अधिकांश क्रिप्टोकरेंसी बाज़ार को नियंत्रित कर रहे हैं। इस अध्ययन में पता चला है कि फिलहाल शीर्ष 10,000 बिटकॉइन निवेशक सभी क्रिप्टोकरेंसियों के लगभग 33% बाज़ार को नियंत्रित करते हैं।  

यह भी पता चल पाया कि 2020 में शीर्ष 10,000 बिटकॉइन मालिकों के पास लगभग 85 लाख बिटकॉइन थे जबकि शीर्ष समूहों के पास इसी अवधि में लगभग 50 लाख बिटकॉइन थे। यह भी स्पष्ट हुआ कि इन शीर्ष 10,000 निवेशकों में से शीर्ष 1000 निवेशक लगभग 30 लाख बिटकॉइन के मालिक हैं।     

माइनिंग (यदि आप माइनिंग के बारे में नहीं जानते हैं या आपको 51% अटैक के बारे में कोई जानकारी नहीं है तो इस लेख का पहला भाग देखें) की ओर ध्यान दिया जाए तो चीज़ें और अधिक स्पष्ट हो जाती हैं। ब्यूरो ने पाया कि शीर्ष 10% माइनर्स लगभग 90% माइनिंग कार्यों को नियंत्रित करते हैं और इससे भी अधिक आश्चर्यजनक बात तो यह है कि लगभग आधे माइनिंग आउटपुट शीर्ष 0.1% माइनर्स के नियंत्रण में हैं। इस परिस्थिित से एक भयावह विचार सामने आता है: यदि किसी समूह के पास क्रिप्टोकरेंसी नेटवर्क की कम्प्यूटेशनल शक्ति के 51% से अधिक का स्वामित्व हो तो वे अधिकांश नेटवर्क को अपने नियंत्रण में ले सकते हैं।      

डिजिटल मुद्रा विधेयक 2021

अनुमान है कि ‘आधिकारिक डिजिटल मुद्रा विधेयक 2021’ में सभी निजी क्रिप्टोकरेंसियों को प्रतिबंधित किया जाएगा और आरबीआई द्वारा संचालित‘आधिकारिक डिजिटल मुद्रा’ के लिए एक नियामक ढांचा तैयार किया जाएगा जो वर्तमान बैंकिंग प्रणाली के साथ काम करेगा। अभी के लिए हम सिर्फ इतना जानते हैं कि विधेयक को इस वर्ष के केंद्रीय बजट सत्र 2021-22 पेश किया गया था और फिर चर्चा और योजना पर काम किया जा रहा है।

ऐसी भी संभावना है कि सरकार द्वारा निवेशकों को ट्रेडिंग, माइनिंग और क्रिप्टोकरेंसी जारी करने के लिए 3 से 6 महीने लंबी निकासी अवधि प्रदान की जाएगी। एक उच्च-स्तरीय अंतर-मंत्रालयी समिति ने अपनी सिफारिशों में कहा है कि सरकार को सभी निजी क्रिप्टोकरेंसियों पर प्रतिबंध लगाना चाहिए।

आरबीआई का विचार 

आरबीआई ने कहा है कि उसकी टीम बाज़ार संरचना में सुधार के लिए डिस्ट्रिब्यूटेड लेजर टेक्नॉलॉजी के संभावित अनुप्रयोगों की खोज कर रही है। केंद्रीय बैंक की वैध डिजिटल मुद्रा की शुरुआत पर भी विचार चल रहा है। लगता है कि सरकार भी आरबीआई की डिजिटल मुद्रा के पक्ष में है जो निजी क्रिप्टोकरेंसी से प्रतिस्पर्धा कर सके।

बैंक ऑफ इंटरनेशनल सेटलमेंट्स द्वारा किए गए सर्वेक्षण के अनुसार लगभग 80% केंद्रीय बैंकों ने यह दावा किया है कि उन्होंने पहले से ही सेंट्रल बैंक की डिजिटल मुद्राओं के संभावित लाभों को समाविष्ट करना या डिजिटल मुद्राओं के उपयोग की खोज शुरू कर दी है।

क्रिप्टोकरेंसी स्टार्ट-अप्स

वर्तमान में भारत में 200 से अधिक ब्लॉकचेन स्टार्ट-अप काम कर रहे हैं जिनमें से अधिकांश क्रिप्टोकरेंसी स्पेस के डीलर हैं।

अप्रैल 2018 में आरबीआई ने सभी बैंकों को अधिसूचित किया कि वे भारत में क्रिप्टोकरेंसी से सम्बंधित सभी सौदों को प्रतिबंधित और रिपोर्ट करें। इन स्टार्ट-अप्स को अप्रैल 2019 में राहत मिली जब भारत के सर्वोच्च न्यायलय ने आरबीआई और सरकार के द्वारा लिए गए निर्णय को असंवैधानिक बताते हुए क्रिप्टोकरेंसियों पर लगा प्रतिबंध हटा दिया।  लेकिन अनुमानित ‘आधिकारिक डिजिटल मुद्रा विधेयक 2021’ के ज़रिए यदि निजी क्रिप्टोकरेंसियों पर पूर्ण प्रतिबंध लगाया जाता है तो हालात बदल सकते हैं।  

निष्कर्ष

क्रिप्टोकरेंसियों के मामले में प्रतिबंध केवल सरकार, केंद्रीय बैंकों और कर एजेंसियों को उन लाभों को प्राप्त करने से वंचित कर देगा जो क्रिप्टोकरेंसी प्रणाली की कमियों के बाद भी उन्हें प्राप्त हो सकते हैं। अर्थात प्रतिबंध लगाना तो खुद के पैरों पर कुल्हाड़ी मारने जैसा होगा

इन मुद्राओं के नियमन की आवश्यकता है ताकि निवेशकों पर उचित रूप से कर लगाया जा सके और अन्य देशों के साथ चर्चा करके वैधता सम्बंधी मुद्दों को भी संबोधित किया जा सके। हम उन देशों की अर्थव्यवस्था का भी अध्ययन कर सकते हैं जिन्होंने अपनी अर्थव्यवस्था में क्रिप्टोकरेंसी को एकीकृत किया है। प्रतिबंध तो आलस का द्योतक है। यह लगभग वैसा ही है जैसे हम मुद्रा पर इसलिए प्रतिबंध लगाना चाहते हैं क्योंकि इस प्रणाली को स्वीकार करने के लिए बहुत परिश्रम की आवश्यकता है ताकि क्रिप्टोकरेंसी टेक्नॉलॉजी अर्थ व्यवस्था की पूरक बन जाए।

क्रिप्टोकरेंसी के पीछे की तकनीक नई है और भारतीय अर्थव्यवस्था को इससे फायदा भी हो सकता है। विशेष रूप से ब्लॉकचेन तकनीक को पारंपरिक बैंकिंग प्रणाली में शामिल करके काफी फायदा मिल सकता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://kryptomoney.com/wp-content/uploads/2018/06/KryptoMoney.com-Indian-Cryptocurrency-Exchanges-Crypto-to-Crypto-Trading-RBI-Crypto-Ban.jpeg

टेक्नॉलॉजी का सहस्राब्दी पुरस्कार – डॉ. डी. बालसुब्रमण्यन, सुशील चंदानी

र्ष 2020 के सहस्राब्दी टेक्नॉलॉजी पुरस्कार की घोषणा मई में की गई। यह पुरस्कार डीएनए अनुक्रमण (सिक्वेंसिंग) की क्रांतिकारी तकनीक के विकास हेतु शंकर बालसुब्रमण्यन और डेविड क्लेनरमैन को दिया गया है। उनका काम विज्ञान और नवाचार का उत्कृष्ट संगम है। यह बहुत प्रासंगिक भी है क्योंकि वर्तमान महामारी के संदर्भ में हम सबने जीनोम अनुक्रमण के बारे में खूब सुना है।

नवाचार पर ज़ोर

यह पुरस्कार फिनलैंड की सर्वोच्च अकादमियों और उद्योगों के साथ मिलकर फिनलैंड गणतंत्र द्वारा दिया जाता है। सहस्राब्दी पुरस्कार में इक्कीसवीं सदी का नज़रिया है जिसमें नवाचार पर बहुत ज़ोर है। अतीत में इस पुरस्कार के विजेताओं में टिम बर्नर्स ली (वर्ल्ड वाइड वेब के क्रियांवयन के लिए) और फ्रांसिस अरनॉल्ड (प्रयोगशाला की परिस्थितियों में निर्देशित जैव विकास पर शोध के लिए) शामिल रहे हैं। एक गौरतलब बात है कि ग्यारह में से सात पुरस्कार विजेताओं को आगे चलकर नोबेल पुरस्कार से भी सम्मानित किया जा चुका है। तो हम दिल थामकर बालसुब्रमण्यन और क्लेरमैन का इन्तज़ार करें।

शंकर बालसुब्रमण्यन का जन्म चेन्नै में हुआ था और उन्होंने अपना अधिकांश जीवन इंग्लैंड में बिताया। पीएच.डी. करने के बाद वे कैम्ब्रिज विश्वविशलय के रसायन विभाग से जुड़ गए। लगभग उसी समय क्लेरमैन भी विभाग में आए और दोनों की टीम बन गई। शुरुआती लक्ष्य तो एक ऐसा सूक्ष्मदर्शी बनाने का था जो इकलौते अणुओं को देख सके। बालसुब्रमण्यन की विशेष रुचि उस आणविक मशीनरी में थी जिसका उपयोग डीएनए अपनी प्रतिलिपि बनाने में करता है। बातचीत में कभी इस विचार का कीड़ा कुलबुलाया कि डीएनए की वर्णमाला को पढ़ने का कोई नया तरीका निकाला जाए ताकि डीएनए में संग्रहित सूचना तक आसानी से पहुंचा जा सके।

डीएनए (या कुछ वायरसों में आरएनए) सजीवों की जेनेटिक सामग्री होती है। यह चार क्षारों से बना होता है – ए, टी, जी और सी। आरएन के संदर्भ में टी का स्थान यू नामक क्षार ले लेता है। गुणसूत्र इन्हीं क्षारों की एक रैखीय दोहरी शृंखला होता है। डीएनए में क्षारों का क्रम ही सूचना होता है। यही जीवन की कुंडली है। जीवन अपनी प्रतिलिपि बना सकता है और डीएनए एक एंज़ाइम – डीएनए पोलीमरेज़ – की मदद से स्वयं की प्रतिलिपि बनाता है। इस एंज़ाइम की मदद से डीएनए का कोई भी सूत्र अपना पूरक सूत्र बना सकता है।

नवाचारी विचार

बालसुब्रमण्यन और क्लेरमैन का नवाचारी विचार यह था कि सूत्र के संश्लेषण की इस प्रक्रिया की मदद से डीएनए (या आरएनए) का अनुक्रमण किया जाए। उन्होंने चतुराई से ए, टी, जी और सी क्षारों को इस तरह बदला कि हरेक एक अलग रंग में चमकता था। जब प्रतिलिपि बनती तो डीएनए की ‘रंगीन’ प्रति के मात्र रंगों के आधार पर क्षारों का पता लगाया जा सकता था। इसके लिए सूक्ष्म प्रकाशीय व इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों की ज़रूरत पड़ती थी।

उनके इस ‘नई पीढ़ी के अनुक्रमण’ (NGS) की महत्वपूर्ण बात यह है कि इसकी मदद से एक बार में डीएनए की बड़ी साइज़ का अनुक्रमण किया जा सकता है – एक बार में 10 लाख से ज़्यादा क्षार जोड़ियों का अनुक्रमण संभव है। इसका मतलब है कि एक बार में सैकड़ों जीन्स और किसी-किसी जीव के पूरे जीनोम का अनुक्रमण हो सकता है। यह संभव हो पाता है एक साथ डीएनए के सैकड़ों खंडों का अनुक्रमण करके। एक लंबे डीएनए अणु को बेतरतीबी से छोटे-छोटे टुकड़ों में तोड़ दिया जाता है। प्रत्येक टुकड़े में चंद सैकड़ा क्षार होते हैं। इन सबका अनुक्रमण एक साथ किया जाता है। इसके बाद इन अलग-अलग अनुक्रमों को किसी पहेली के समान आपस में जोड़कर पूरी शृंखला पता की जाती है।

बालसुब्रमण्यन और क्लेरमैन की पहल पर इस टेक्नॉलॉजी ने सोलेक्सा के रूप में व्यापारिक स्वरूप हासिल कर लिया है। इस निहायत सफल स्टार्टअप को बाद में बायोटेक कंपनी इल्यूमिना ने अधिग्रहित कर लिया।

घटती लागत

इस सारे अनुक्रमण की लागत की बात करते हैं। जब ह्यूमन जीनोम प्रोजेक्ट ने पहला लगभग पूरा जीनोम अनुक्रमित किया था, तब उसकी अनुमानित लागत 3 अरब डॉलर थी। चूंकि हमारे सारे गुणसूत्रों में कुल मिलाकर 3 अरब क्षार जोड़ियां हैं, तो यह गणना आसान है कि अनुक्रमण की लागत 1 डॉलर प्रति क्षार जोड़ी थी। वर्ष 2020 तक NGS टेक्नॉलॉजी की बदौलत आपके पूरे जीनोम के अनुक्रमण की लागत घटकर चंद हज़ार डॉलर रह गई। जब यह टेक्नॉलॉजी भारत में प्रचलित होगी तब इसकी लागत चंद हज़ार रुपए होगी!

कोरोनावायरस के जीनोम में 3 अरब नहीं बल्कि मात्र 30,000 आरएनए क्षार हैं। तब कोई अचरज की बात नहीं कि हमारे पास नए कोरोनावायरस और उसके वैरिएन्ट्स के जीनोम को लेकर जानकारी का अंबार है। यूके में स्वास्थ्य अधिकारियों ने हर सोलह पॉज़िटिव व्यक्तियों में से 1 के वायरस जीनोम का अनुक्रमण किया है। लोकप्रिय जीनोम डैटा साझेदारी साइट GSAID पर 172 देशों से 20 लाख से ज़्यादा सार्स-कोव-2 जीनोम अनुक्रम उपलब्ध हैं। दुनिया भर में कोरोनावायरस के नए-नए संस्करणों के प्रसार और उत्पत्ति की निगरानी NGS के दम पर ही संभव हुई है।

शंकर बालसुब्रमण्यन आज भी एक बढ़िया प्रयोगशाला का संचालन करते हैं, जो ऐसे उपचारात्मक अणु की डिज़ाइन पर केंद्रित है जो कई जीन्स की बेलगाम अभिव्यक्ति को नियंत्रित करके कैंसर जैसी स्थितियों में उनके द्वारा किए जाने वाले नुकसान को रोक सकेंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
Photo Credit : https://th.thgim.com/sci-tech/science/c6n9jx/article35254815.ece/ALTERNATES/FREE_660/11TH-SCIWINNERSjpg