थोड़ा ही सही, सूरज भी सिकुड़ता है

क नए अध्ययन से पता चला है कि सूरज की त्रिज्या एक अवधि में चुटकी भर छोटी होती है। यह वह समय होता है जब सूरज सबसे अधिक सक्रिय होता है। सूरज के सक्रियता का चक्र लगभग 11 साल का होता है। इसे सौर चक्र भी कहते हैं। इन 11 सालों में उच्च और निम्न चुंबकीय गतिविधि देखने को मिलती है।

एस्ट्रोफिज़िकल जर्नल में दो शोधकर्ताओं ने यह दावा किया है कि सूरज की इस सक्रिय अवस्था में उसकी त्रिज्या में 1 से 2 किलोमीटर की कमी होती है। देखा जाए तो यह 1-2 किलोमीटर की कमी सूरज की 7 लाख किलोमीटर त्रिज्या के सामने कुछ भी नहीं है।

सूरज कि सतह ठोस नहीं है इसलिए इसके आकार को परिभाषित करना आसान नहीं है। वर्ष 2010 में हवाई विश्वविद्यालय के खगोलज्ञ जेफ कुन ने इसकी जांच करने की कोशिश की थी। सूर्य के केंद्र से बाहर की उसकी चमक कम होने के आधार पर उसकी चौड़ाई पता की जा सकती है। कुन और सहयोगियों ने जब इस आधार को सामने रखकर अध्ययन किया तब उनको कोई ऐसा संकेत नहीं मिला जिससे यह कहा जा सके कि सौर चक्र के दौरान सूरज की त्रिज्या में किसी प्रकार का परिवर्तन होता है।

लेकिन हाल ही में एक नए अध्ययन से मालूम चला है सूरज की त्रिज्या नापने का एक और तरीका है जिसे कंपन त्रिज्या कहा जाता है। इसे सूरज के भीतर चलने वाले कंपनों की मदद से मापा जाता है। सूरज के सिकुड़ने या फैलने पर इन कंपनों की आवृत्ति में बदलाव होता है।

न्यू जर्सी इंस्टिट्यूट ऑफ़ टेक्नॉलॉजी, न्यूयॉर्क के एलेक्ज़ेंडर कोसोविचेव और कोट डीअज़ूर युनिवर्सिटी, फ्रांस के ज़्यांपियरे रोज़ेलॉट अपने पेपर में कहते हैं कि कंपन तरंगों के उपयोग से अधिक सटीकता से त्रिज्या का पता लगाया जा सकता है। कंपन त्रिज्या का पता लगाने के लिए ताराभौतिकविदों ने दो अंतरिक्ष यानों से 21 साल में जमा किए गए कीमती डैटा का उपयोग किया। सूरज की अलगअलग परतों में विस्तार या संकुचन की मात्रा अलग होती है। लेकिन सूर्य की सक्रिय अवस्था में कंपन त्रिज्या में कुल मिलाकर कमी आती है।

हालांकि यह नया मापने का तरीका सूर्य की चमक आधारित त्रिज्या को मापने का विकल्प नहीं है। ये दोनों तरीके अलगअलग तकनीकों पर आधारित हैं, जो सूर्य के व्यवहार के अलगअसग पहलुओं का पता करते हैं।

येल विश्वविद्यालय से सेवानिवृत्त खगोलशास्त्री सबातिनो सोफिया के अनुसार सूरज की कंपन त्रिज्या सूरज के भीतर विभिन्न गहराई पर चुंबकीय तीव्रता में उतारचढ़ाव को समझने में मदद कर सकती है। पहले मात्र अनुमान थे लेकिन अब इस बात की पुष्टि हुई है कि सौर चक्र के दौरान सूर्य की कंपन त्रिज्या बदलती है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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यान के उतरने पर चांद को कितना नुकसान

हमदाबाद स्थित राष्ट्रीय भौतिक प्रयोगशाला के वैज्ञानिकों ने गणना की है कि जब कोई यान चांद पर उतरता है तो चांद की सतह पर कितने गहरे गड्ढे बनते हैं और कितनी धूल उड़ती है। इस गणना का मकसद चांद को कवियों और शायरों के लिए सुरक्षित रखना नहीं बल्कि अवतरण को ज़्यादा सुरक्षित बनाना है।

एस. के. मिश्रा व उनके साथियों ने अपने शोध के परिणाम प्लेनेट स्पेस साइन्स नामक शोध पत्रिका में प्रकाशित किए हैं। जब कोई यान चंद्रमा पर (या किसी भी ग्रह पर) उतरता है तो वह खूब धूल उड़ाता है। इसके चलते गड्ढे वगैरह तो बनते ही हैं, सारी धूल जाकर यान के सौर पैनल पर जमा हो जाती है। यान के लिए ऊर्जा का प्रमुख स्रोत यही सौर पैनल होते हैं जिनकी मदद से सौर ऊर्जा का दोहन होता है। जब इन पर धूल जमा हो जाती है तो ये पैनल ठीक से काम नहीं कर पाते।

मिश्रा व उनके साथियों ने इस क्षति की गणना करने के लिए यह देखा कि उतरने से पूर्व यान कितनी देर तक सतह के ऊपर मंडराता है और कितनी ऊंचाई पर मंडराता है। इन दोनों बातों का असर यान के द्वारा उड़ाई गई धूल की मात्रा पर और धूल के कणों की साइज़ पर पड़ता है।

शोधकर्ताओं ने पाया कि मूलत: यान के सतह से ऊपर मंडराने के समय का असर धूल की मात्रा पर पड़ता है। उनकी गणना बताती है कि यदि मंडराने की अवधि को 25 सेकंड से बढ़ाकर 45 सेकंड कर दिया जाए तो धूल की मात्रा तीन गुनी हो जाती है।

इन परिणामों के मद्देनज़र शोधकर्ताओं का सुझाव है कि चांद की सतह पर क्षति को न्यूनतम रखने के लिए बेहतर होगा कि यान के मंडराने का समय कम से कम रखा जाए। इसके अलावा, उनका यह भी मत है कि अवतरण के समय यान पर ब्रेक लगाने का काम काफी ऊंचाई से ही शुरू कर देना चाहिए और जब यान सतह से 10 मीटर की ऊंचाई पर हो तो ब्रेक लगाना बंद कर देना चाहिए या कम से कम ब्रेक लगाने चाहिए। शोधकर्ताओं के मुताबिक उनके निष्कर्ष चांद पर अवतरण को ज़्यादा सुरक्षित बनाएंगे।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पृथ्वी के भूगर्भीय इतिहास में नया युग

अंतर्राष्ट्रीय भूगर्भ विज्ञान संघ ने हाल ही में घोषणा की है कि पृथ्वी के वर्तमान दौर को एक विशिष्ट काल के रूप में जाना जाएगा। यह होलोसीन युग का एक हिस्सा है जिसे नाम दिया गया है मेघालयन। भूगर्भ संघ के मुताबिक हम पिछले 4200 वर्षों से जिस काल में जी रहे हैं वही मेघायलन है।

भूगर्भ वैज्ञानिकों ने पृथ्वी के लगभग 4.6 अरब वर्ष के अस्तित्व को कई कल्पों, युगों, कालों, अवधियों वगैरह में बांटा है। इनमें होलोसीन एक युग है जो लगभग 11,700 वर्ष पहले शुरू हुआ था। अब भूगर्भ वैज्ञानिक मान रहे हैं कि पिछले 4,200 वर्षों को एक विशिष्ट नाम से पुकारा जाना चाहिए भारत के मेघालय प्रांत से बना नाम मेघालयन।

दरअसल, भूगर्भीय समय विभाजन भूगर्भ में तलछटों की परतों, तलछट के प्रकार, उनमें पाए गए जीवाश्म तथा तत्वों के समस्थानिकों की उपस्थिति के आधार पर किया जाता है। समस्थानिकों की विशेषता है कि वे समय का अच्छा रिकॉर्ड प्रस्तुत करते हैं। इनके अलावा उस अवधि में घटित भौतिक व रासायनिक घटनाओं को भी ध्यान में रखा जाता है।

अंतर्राष्ट्रीय भूगर्भ विज्ञान संघ ने बताया है कि दुनिया के कई क्षेत्रों में आखरी हिम युग के बाद कृषि आधारित समाजों का विकास हुआ था। इसके बाद लगभग 200 वर्षों की एक जलवायुसम्बंधी घटना ने इन खेतिहर समाजों को तहसनहस कर दिया था। इन 200 वर्षों के दौरान मिस्र, यूनान, सीरिया, फिलीस्तीन, मेसोपोटेमिया, सिंधु घाटी और यांगत्से नदी घाटी में लोगों का आव्रजन हुआ और फिर से सभ्यताएं विकसित हुर्इं। यह घटना एक विनाशकारी सूखा था और संभवत: समुद्रों तथा वायुमंडलीय धाराओं में बदलाव की वजह से हुई थी।

इस अवधि के भौतिक, भूगर्भीय प्रमाण सातों महाद्वीपों पर पाए गए हैं। इनमें मेघायल में स्थित मॉमलुह गुफा (चेरापूंजी) भी शामिल है। भूगर्भ वैज्ञानिकों ने दुनिया भर के कई स्थानों से तलछट एकत्रित करके विश्लेषण किया। मॉमलुह गुफा 1290 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है और यह भारत की 10 सबसे लंबी व गहरी गुफाओं में से है (गुफा की लंबाई करीब 4500 मीटर है)। इस गुफा से प्राप्त तलछटों में स्टेलेग्माइट चट्टानें मिली हैं। स्टेलेग्माइट किसी गुफा के फर्श पर बनी एक शंक्वाकार चट्टान होती है जो टपकते पानी में उपस्थित कैल्शियम लवणों के अवक्षेपण के कारण बनती है। संघ के वैज्ञानिकों का मत है कि इस गुफा में जो परिस्थितियां हैं, वे दो युगों के बीच संक्रमण के रासायनिक चिंहों को संरक्षित रखने के हिसाब से अनुकूल हैं।

गहन अध्ययन के बाद विशेषज्ञों के एक आयोग ने यह प्रस्ताव दिया कि होलोसीन युग को तीन अवधियों में बांटा जाना चाहिए। पहली, ग्रीलैण्डियन अवधि जो 11,700 वर्ष पहले आरंभ हुई थी। दूसरी, नॉर्थग्रिपियन अवधि जो 8,300 वर्ष पूर्व शुरू हुई थी और अंतिम मेघालयन अवधि जो पिछले 4,200 वर्षों से जारी है। अंतर्राष्ट्रीय भूगर्भ विज्ञान संघ ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया है।

मेघालयन अवधि इस मायने में अनोखी है कि यहां भूगर्भीय काल और एक सांस्कृतिक संक्रमण के बीच सीधा सम्बंध नज़र आता है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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अब बृहस्पति के पूरे 79 चांद हैं

दि बृहस्पति पर रहते तो कवियों-शायरों को मज़ा आ जाता या उनकी शामत आ जाती। वहां के आकाश में अब कुल 79 चांद हैं। तो चांद की उपमा देते समय स्पष्ट करना होता कि किस नंबर के चांद की बात हो रही है। खैर, वह बहस तो शायर लोग कर लेंगे पर तथ्य है कि हाल ही में खगोलवेत्ताओं ने बृहस्पति के 10 नए उपग्रह खोजे हैं और कुल संख्या 79 हो गई है। और तो और, वैज्ञानिकों का कहना है कि अभी गिनती पूरी नहीं हुई है।

और बृहस्पति के चांदों की फितरत भी सामान्य नहीं है। इनका अध्ययन करके वैज्ञानिक उम्मीद कर रहे हैं कि हमें ग्रहों के बनने की प्रक्रिया को समझने में भी मदद मिल सकती है। जैसे वैज्ञानिकों के मुताबिक इतने सारे छोटे-छोटे चंद्रमाओं की उपस्थिति से लगता है कि जब करीब 4 अरब वर्ष पूर्व बृहस्पति का निर्माण हुआ था, ये उपग्रह साथ-साथ नहीं बने थे। ये बाद में टक्करों के फलस्वरूप बने होंगे।

किसी ग्रह के उपग्रह ग्रह के चक्कर लगाते हैं। आम तौर पर उनकी चक्कर लगाने की दिशा वही होती है जिस दिशा में ग्रह अपनी अक्ष पर घूर्णन कर रहा है। बृहस्पति के कई सारे चंद्रमा तो इस परिपाटी का पालन करते हैं मगर कुछ ऐसे चंद्रमा भी हैं जो उल्टी दिशा में घूम रहे हैं। इससे भी लगता है कि ये गैस के उसी बादल से बृहस्पति के साथ-साथ अस्तित्व में नहीं आए होंगे।

वैसे बृहस्पति के तीन चंद्रमा का पता तो गैलीलियो के समय में ही लग चुका था। दूरबीन से देखने पर गैलीलियो ने पाया था कि ये पिंड बृहस्पति का चक्कर काट रहे हैं। इस अवलोकन ने पहली बार इस शंका को जन्म दिया था कि शायद सारे आकाशीय पिंड पृथ्वी की परिक्रमा नहीं करते हैं। सत्रहवीं सदी के उत्तरार्ध में प्रसिद्ध खगोल शास्त्री रोमर ने बृहस्पति के चंद्रमाओं के उसके पीछे छिपने और वापिस प्रकट होने का अध्ययन करके पहली बार प्रकाश की गति का अनुमान लगाया था।

कहने का मतलब है कि बृहस्पति के चंद्रमाओं का खगोल शास्त्र के इतिहास में अहम स्थान रहा है। अब यही चंद्रमा हमें ग्रहों के निर्माण की प्रक्रिया को समझने में भी मदद करेंगे। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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गुरुत्व तरंग प्रयोग का और विश्लेषण

पिछले साल लिगो (लेज़र इंटरफेरोमीटर गुरुत्वतरंग प्रेक्षक) टीम ने दो न्यूट्रॉन तारों के परस्पर विलय के फलस्वरूप उत्पन्न हुई गुरुत्व तरंगों को पकड़ा था। वैज्ञानिकों का ख्याल है कि उस अवलोकन से जो आंकड़े मिले थे उनके विश्लेषण से नए-नए निष्कर्ष निकालने की अभी और संभावना है। यह काम किया भी जा रहा है।

हाल ही में उन आंकड़ों के नए सिरे से विश्लेषण के आधार पर न्यूट्रॉन तारों की आंतरिक संरचना के बारे में नए सुराग मिले हैं। न्यूट्रॉन तारा तब बनता है जब कोई विशाल तारा फूटता है और उसका अधिकांश पदार्थ अंतरिक्ष में बिखर जाता है किंतु अंदर का पदार्थ अत्यंत घना हो जाता है। इतने घने पदार्थ का गुरुत्वाकर्षण भी बहुत अधिक होता है किंतु ब्लैक होल जितना नहीं होता।

पिछले साल अगस्त में जो गुरुत्व तरंगें देखी गई थीं वे पृथ्वी से 13 करोड़ प्रकाश वर्ष दूर दो न्यूट्रॉन तारों के आपस में विलय की घटना में उत्पन्न हुई थीं। लेकिन तब यह नहीं बताया गया था कि इस विलय के बाद क्या बना – क्या विलय के उपरांत एक और न्यूट्रॉन तारा बना या ब्लैक होल?

अब उस विलय के आंकड़ों का एक बार फिर विश्लेषण किया गया है। विश्लेषण से पता यह चला है कि जब उक्त दो न्यूट्रॉन तारे एक दूसरे का चक्कर काटते हुए संयुक्त विनाश की ओर बढ़ रहे थे, तब उनकी परिक्रमा ऊर्जा अंतरिक्ष में बिखर रही थी। साथ ही अपने-अपने गुरुत्वाकर्षण बल के कारण वे एक-दूसरे की सतह पर ज्वार भी उत्पन्न कर रहे थे। ज्वार-आधारित परस्पर क्रिया की वजह से उनकी परिक्रमा ऊर्जा और तेज़ी से कम हुई और उनकी टक्कर अपेक्षा से जल्दी हुई।

उपरोक्त ज्वारीय अंत र्क्रिया की प्रकृतिव परिमाण उन तारों की आंतरिक संरचना पर निर्भर होगा। वैज्ञानिकों का ख्याल है कि लिगो प्रेक्षण के दौरान जो आंकड़े मिले थे, उनका और अधिक बारीकी से विश्लेषण करके न्यूट्रॉन तारों की आंतरिक रचना के बारे में पता चल सकेगा। एक अनुमान यह भी है कि आंतरिक दबाव के चलते शायद उनमें न्यूट्रॉन और भी मूलभूत कणों (क्वार्क्स) में टूट गए होंगे और शायद हमें इनके बारे में कुछ और पता चले। तो प्रयोग के आंकड़ों की बाल की खाल निकालकर वैज्ञानिक अधिक से अधिक समझ बनाने की जुगाड़ में हैं। (स्रोत फीचर्स)

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प्लूटो करोड़ों धूमकेतुओं के मेल से बना है

कुछ वर्षों पहले प्लूटो को ग्रहों की जमात से इसलिए अलग कर दिया गया था कि वह इतना बड़ा नहीं है कि अपने आसपास के क्षेत्र को साफ कर सके। अब वैज्ञानिकों ने यह विचार व्यक्त किया है कि संभवत: प्लूटो का निर्माण भी अन्य ग्रहों के समान नहीं हुआ है बल्कि वह तो करोड़ों धूमकेतुओं के एक साथ जुड़ जाने के परिणामस्वरूप बना है।

सौर मंडल के सारे ग्रह प्रारंभिक (आद्य) सूर्य के आसपास फैली तश्तरी के पदार्थ के संघनन से बने हैं। होता यह है कि इस तेज़ी से घूमती तश्तरी में से पदार्थ के लोंदे बनने लगते हैं और ग्रह का रूप ले लेते हैं। पहले माना जाता था कि प्लूटो का निर्माण भी इसी तरह हुआ है। मगर साउथवेस्टर्न रिसर्च इंस्टीट्यूट के भूगर्भ-रसायनविद क्रिस्टोफर ग्लाइन और उनके साथियों को यह देखकर बहुत आश्चर्य हुआ था प्लूटो और धूमकेतु 67पी/चुर्नीकोव-गोरासिमेंको के बीच इतनी अधिक रासायनिक समानता है। इसी प्रकार से प्लूटो के स्पुतनिक प्लेनेशिया नामक ग्लेशियर में धूमकेतु 67पी के समान ही नाइट्रोजन की प्रचुरता है। जहां पृथ्वी के वायुमंडल में 78 प्रतिशत नाइट्रोजन है, वहीं प्लूटो के वायुमंडल में 98 प्रतिशत। वास्तव में देखा जाए, तो पृथ्वी पर पानी एक चालक शक्ति है वहीं प्लूटो पर यह भूमिका नाइट्रोजन निभाती है। 67पी/चुर्नीकोव-गोरासिमेंको धूमकेतु के बारे में हमारे पास इतनी विस्तृत जानकारी इसलिए है क्योंकि युरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी का एक खोजी अंतरिक्ष यान 2014 में वहां उतरा था।

साउथवेस्टर्न रिसर्च इंस्टीट्यूट के खगोल शास्त्रियों ने प्लूटो के रासायिनक विश्लेषण के आधार पर यह संभावना जताई है। दरअसल वर्ष 2015 में नासा का न्यू होराइज़न मिशन प्लूटो के नज़दीक से गुज़रा था। तब उसने प्लूटो पर सूर्यास्त का भव्य नज़ारा देखा था और उसके पदार्थ का रासायनिक संघटन देखने की कोशिश की थी। इसके अलावा युरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी के रोज़ेटा मिशन ने भी इसका रासायनिक संघटन समझने का प्रयास किया था। प्लूटो के एक ग्लेशियर (स्पूतनिक प्लेनिशिया) पर नाइट्रोजन की अत्यधिक सांद्रता दर्शाती है कि इसकी उत्पत्ति धूमकेतु से हुई है।

साउथवेस्टर्न रिसर्च सेंटर के वैज्ञानिकों ने उस पारंपरिक विचार पर भी गौर किया जिसके अनुसार प्लूटो का निर्माण आदिम सौर नेबुला में उपस्थित बर्फ से हुआ था। मगर इस सिद्धांत के आधार पर नाइट्रोजन की प्रचुरता की व्याख्या नहीं की जा सकती।

तो हमारे पास प्लूटो की उत्पत्ति को लेकर आज दो मॉडल हैं। ज़ाहिर है, चाहे प्लूटो को ग्रहों की जमात में से अलग कर दिया गया है, किंतु वह उतना ही दिलचस्प बना हुआ है। (स्रोत फीचर्स)

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मुश्किल इलाकों में वैज्ञानिक विचारों का प्रसार

सेक्स विश्वविद्यालय की एक भौतिक विज्ञानी केट शॉ मूलभूत कणों की खोज जैसे अग्रणी शोध से जुड़ी हैं। इसके साथ ही वे फिज़िक्स विदाउट फ्रंटियर (सरहदों से मुक्त भौतिकी) की संस्थापक भी हैं। यह युनेस्को द्वारा प्रायोजित एक संगठन है जो युद्धरत देशों में व्याख्यान, कार्यशालाएं और स्कूल चलाने का काम करता है ताकि दुनिया भर में विज्ञान में लोगों की रुचि बढ़े।

कार्यक्रम की शुरुआत वर्ष 2012 में हुई थी। शुरुआत में शॉ ने रामल्ला के नज़दीक बिर्ज़ाइट विश्विद्यालय के छात्रों को लार्ज हैड्रॉन कोलाइडर से परिचित कराया। लगभग एक साल बाद एटलस एक्सपेरिमेंट पर काम कर रहे अपने दो फिलिस्तीनी साथियों के साथ वहां के छात्रों का प्रक्षिशण शुरू किया। छात्रों का स्तर काफी अच्छा था, प्रक्षिशण फला-फूला और अलग अलग कोर्स चलाए जाने लगे।

शॉ बताती हैं कि समय-समय पर होने वाली कार्यशालाओं और कार्यक्रमों के लिए इंटरनेशनल सेंटर फॉर थेओरिटिकल फिज़िक्स से वित्तीय सहायता मिलती है।

शॉ का कहना है कि क्या पता अगला महान वैज्ञानिक, अगला अब्दुस्सलाम या अगला एलन ट्यूरिंग कहां से आएगा, इसलिए हमारा काम यह सुनिश्चित करना है कि सबको बढ़िया शिक्षा मिले और सबको अनुसंधान में शामिल होने का अवसर मिले; यह मात्र पश्चिमी, रईस देशों की बपौती न हो। फिज़िक्स विदाउट फ्रंटियर्स मुख्य रूप से नेपाल, अफगानिस्तान और फिलिस्तीन में काम करता है लेकिन लैटिन अमेरिकी देशों (वेनेज़ुएला, कोलंबिया, पेरू और उरुग्वे) और अब लेबनान, ट्यूनिशिया, अल्जीरिया, ज़िम्बाब्वे तथा बांग्लादेश में भी काम चलता है।

इनमें से फिलिस्तीन में काम करना सबसे कठिन है। वेस्ट बैंक में कुछ कम लेकिन गाज़ा पट्टी में राजनीतिक समस्याएं काफी अधिक हैं। देखा जाए तो वहां स्थित तीन विश्वविद्यालयों में भौतिकी को लेकर बढ़िया काम हो रहा है लेकिन फैकल्टी एकदम अलग-थलग है। वे बाहर यात्रा नहीं कर सकते और इस वजह से कई बार उन्हें अच्छे मौके भी गंवाने पड़ जाते हैं।

गाज़ा के छात्रों को वैज्ञानिक सम्मेलनों में जाने के लिए एक लम्बी प्रक्रिया से गुज़रना पड़ता है जिससे वे उनमें देर से शामिल हो पाते हैं या कभी कभी तो इस्राइल सरकार से अनुमति ही नहीं मिलती। उपकरण ले जाने में भी काफी परेशानियां होती हैं। बिजली की कमी के कारण नियमित शोध कार्य नहीं हो पाता है। शायद इसी कारण अच्छे छात्र होने के बाद भी वहां कई संस्थाएं शोध में पूंजी लगाने से कतराती हैं।

हाल में शॉ और उनके साथियों ने अफगानिस्तान में भी काम शुरू किया है, जहां सुरक्षा सम्बंधी गंभीर समस्याएं हैं। अच्छी बात यह है कि वहां अद्भुत युवा पीढ़ी है जो अपने देश को आगे ले जाना चाहती है। वे अपने विषयों में काफी मज़बूत हैं और भौतिकी के क्षेत्र में अंतर्राष्ट्रीय सहयोग हासिल करने की कोशिश कर रहे हैं।

अनुदार/रुढ़िवादी सोच वाले स्थानों में काम करने को लेकर शुरुआत में उन्होंने सावधानी से काम लिया लेकिन जैसे-जैसे काम आगे बढ़ा, शॉ को समझ में आया कि वहां भी लोग बिग बैंग और ब्राहृांड की उत्पत्ति के बारे में वही सवाल पूछते हैं। यह बात काफी आश्वस्त करने वाली है कि ऐसे इलाकों में भी वैज्ञानिक विचारों को लेकर किसी प्रकार का कोई टकराव नहीं है।

शॉ और उनकी टीम को उम्मीद है कि प्रत्येक विश्वविद्यालय इस कार्यक्रम से जुड़े और फिर वहां भौतिकी के लिए कुछ और धन लाया जाए। लक्ष्य दुनिया भर में एक जीवंत वैज्ञानिक समुदाय का निर्माण करना है। (स्रोत फीचर्स)

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फोटो क्रेडिट :Physics without frontiers