सितारों की आतिशबाज़ी का अंदेशा

मारी आकाशगंगा में तारों का एक तंत्र शायद निकट भविष्य में आतिशबाज़ी दिखाएगा। वैसे तो सितारों के ऐसे खेल पृथ्वी और उसके जीवन के लिए संकट का सबब बन सकते हैं किंतु वैज्ञानिकों का अनुमान है कि इस बार किसी संकट की आशंका नहीं है।

तारों का यह तंत्र हमसे करीब 8000 प्रकाश वर्ष की दूरी पर स्थित है, जिसका अर्थ है कि वहां जो कुछ होता है उसकी सूचना हमें 8000 वर्षों बाद मिलती है। इस तारातंत्र का नाम मिस्र के एक सर्प देवता के नाम पर एपेप है। इस तंत्र में दो तारे हैं और उनके आसपास सर्पिलाकार धूल का बादल है। इनमें से एक तारा असामान्य रूप से भारीभरकम सूर्य है जिसका नाम है वुल्फरेयत तारा। जब ऐसे भारीभरकम तारों का र्इंधन चुक जाता है तो वे पिचकते हैं, जिसकी वजह अत्यंत तेज़ रोशनी पैदा होती है, जिसे सुपरनोवा विस्फोट कहते हैं। सिद्धांतकारों का मत है कि यदि कोई तारा काफी तेज़ी से घूर्णन कर रहा हो, तो ऐसे सुपरनोवा विस्फोट के समय इसके दोनों ध्रुवों से गामा किरणों का ज़बरदस्त उत्सर्जन होगा।

लगता है एपेप की स्थिति यही है। इस तंत्र के दोनों तारे सौर पवन फेंक रहे हैं। इस पवन और साथ में उत्पन्न रोशनी का अध्ययन करने पर पता चला है कि पवन की रफ्तार 3400 कि.मी. प्रति सेकंड है जबकि धूल के फव्वारे मात्र 570 कि.मी. प्रति सेकंड की रफ्तार से छूट रहे हैं। नेचर एस्ट्रॉनॉमी नामक शोध पत्रिका में बताया गया है कि ऐसा तभी हो सकता है जब यह तारा तेज़ी से घूर्णन कर रहा हो। तभी ध्रुवों से तेज़ पवन निकलेगी और विषुवत रेखा के आसपास गति धीमी होगी। यदि यह बात सही है कि वुल्फ रेयत तेज़ी से लट्टू की तरह घूम रहा है तो इसमें से गामा किरणों के पुंज निकलेंगे, और यदि पृथ्वी इनके रास्ते में रही तो काफी खतरा हो सकता है। अलबत्ता, गणनाओं से पता चला है कि पृथ्वी इनके रास्ते में नहीं है। वैसे भी खगोल शास्त्री जिसे निकट भविष्य कह रहे हैं, वह चंद हज़ार साल दूर है।(स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मंगल पर मीथेन का रहस्य

नासा द्वारा मंगल पर भेजे गए क्यूरोसिटी रोवर ने मंगल के वायुमंडल में मीथेन की सबसे अधिक मात्रा उत्तरी गोलार्ध की गर्मियों के दौरान दर्ज की है। हाल ही में की गई गणनाओं की मदद से मीथेन की अधिक मात्रा को समझने में मदद मिल सकती है। कनाडा स्थित यॉर्क युनिवर्सिटी के ग्रह वैज्ञानिक जॉन मूर्स ने प्लेनेटरी साइंस की हालिया बैठक में बताया कि जैसे ही मौसम सर्दी से वसंत की ओर जाता है, सूर्य की गर्मी से मिट्टी गर्म होने लगती है, जिससे मीथेन गैस जमीन से निकलकर वायुमंडल में पहुंचने लगती है।

2012 में मंगल की विषुवत रेखा के नज़दीक गेल क्रेटर पर रोवर से प्राप्त जानकारी के अनुसार उत्तरी वसंत में वायुमंडलीय मीथेन की काफी अधिक मात्रा दर्ज की गई। इस साल की शुरुआत में, टीम के वैज्ञानिकों ने बताया कि मौसम में परिवर्तन के साथसाथ मीथेन के स्तर बढ़तेघटते नज़र आए। इसका सबसे अधिक स्तर उत्तरी गोलार्ध की गर्मियों में दर्ज किया गया।

मंगल के वायुमंडल में मीथेन का मिलना एक पहेली है। ग्रह पर हो रही रासायनिक अभिक्रियाओं के चलते लगभग 300 वर्षों में यह गैस नष्ट हो जाना चाहिए थी। लेकिन आज भी इसकी उपस्थिति दर्शाती है कि ग्रह पर आज भी कोई ऐसा स्रोत है जो वायुमंडल में लगातार गैस भेज रहा है। यह स्रोत भूगर्भीय प्रक्रियाएं हो सकती हैं या फिर सतह के नीचे दबे सूक्ष्मजीव या जीवन के कोई अन्य रूप भी हो सकते हैं। पृथ्वी के वायुमंडल में अधिकांश मीथेन सजीवों से आती है।

शोधकर्ताओं ने समयसमय पर दूरबीनों और अंतरिक्ष यानों की मदद से मंगल पर मीथेन के एकएक कतरे पर नज़र रखी है और इसमें उतारचढ़ाव देखे हैं। 2009 में मंगल पर मीथेन के स्तर में ज़बरदस्त उछाल भी देखा गया था। उम्मीद थी कि रोवर इस गुत्थी को सुलझाएगा किंतु उसने तो समस्या को उलझा दिया है। अब, ऐसा प्रतीत होता है कि जवाब मंगल की सतह के नीचे दफन है। मूर्स और उनके सहयोगियों ने अपने विश्लेषण के आधार पर बताया है कि किस तरह सतह के नीचे मीथेन दरारों के माध्यम से ऊपर की ओर बढ़ती है। गणना करने से मालूम चला है कि मिट्टी के गर्म होने से गैस के रिसाव में मदद मिलती है। मंगल पर मौसम पेचीदा होते हैं खासकर विषुवत रेखा के आसपास जहां रोवर स्थित है। अलबत्ता, उच्चतम मीथेन स्तर वर्ष के गर्म समय में दिखाई देता है, जिससे यह अनुमान लगाया जाता है कि नीचे फैलती गर्मी से गैस को अधिक से अधिक बाहर निकलने में मदद मिलती है। लेकिन मीथेन का अंतिम स्रोत अभी भी एक रहस्य है।

इससे पहले भी मैरीलैंड स्थित गोडार्ड स्पेस फ्लाइट सेंटर, ग्रीनबेल्ट के एक ग्रह वैज्ञानिक माइकल मुमा का सुझाव था कि मीथेन मंगल ग्रह पर सूर्य द्वारा गर्म हुई चट्टानों से निकलती है।

इस संदर्भ में अभी और अधिक चौंकाने वाली खबरें आना बाकी है। नासा के अलावा कई अन्य एजेंसियां मीथेन की उपस्थिति की छानबीन कर रही हैं हैं। लिहाज़ा, जल्दी ही इस सवाल को सुलझा लेने की उम्मीद की जा रही है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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मतदान से निर्धारित हुई मंगल पर उतरने की जगह

नासा 2020 तक अपना अगला रोवर यान मंगल पर उतारने की तैयारी में है। लेकिन मंगल पर यह रोवर किस जगह उतरेगा इसे लेकर दुविधा रही है।

नासा ने मंगल पर रोवर उतारने के लिए तीन स्थान (जेज़ेरो, पूर्वोत्तर सिर्टिस और कोलंबिया हिल्स) प्रस्तावित किए थे। बाद में एक चौथा स्थान, मिडवे, भी जोड़ा गया। जेज़ेरो एक सूख चुका डेल्टा है जो मंगल की धरती पर किसी उल्का की टक्कर से बने गड्ढे में गिरता था। सिर्टिस एक प्राचीन पपड़ी है जो शायद एक भूमिगत खनिज झरने से बनी है। कोलंबिया हिल्स सुदूर अतीत में शायद गर्म पानी का चश्मा था। मिडवे नामक स्थान सिर्टिस जैसा ही है और यहां फायदा यह है कि रोवर मिडवे और सिर्टिस दोनों जगह जा सकता है।

ग्लैंडेल, कैलिफोर्निया में आयोजित तीन दिवसीय मीटिंग में नासा द्वारा प्रस्तावित स्थानों पर ग्रह वैज्ञानिकों की राय मांगी गई थी। वैज्ञानिकों को अपनी राय कई मापदंडों के आधार पर देनी थी। सबसे पहले तो रोवर यहां सफलतापूर्वक उतर सके और अपने शुरुआती दो वर्ष के बाद भी छानबीन जारी रख सके। दूसरी, कि उस स्थान पर रोवर अपने सारे वैज्ञानिक उपकरणों के तामझाम को लेकर घूमफिर सके और तीसरी यह कि घरती पर लाने के लिए नमूनों की गुणवत्ता बढ़िया हो।  

रोवर की सफलतापूर्वक लैंडिंग स्थान के लिए जेज़ेरो और पूर्वोत्तर सिर्टिस को 158 वोट मिले। तकरीबन इतने ही वोट मिडवे को मिले। सिर्फ कोलंबिया हिल्स के पक्ष में ज़्यादा मत नहीं आए। हालांकि तीन दिन चली इस बहस में कोई स्पष्ट सुझाव नहीं मिले हैं। लेकिन पहली लैंडिंग और दूसरे विचरण स्थल के लिए मिडवेजेज़ेरो की जोड़ी को समर्थन मिला है। शायद रोवर को जेज़ेरोमिडवे जोड़ी पर उतारा जाएगा मगर  अंतिम फैसला मिशन टीम और अंतत: नासा प्रमुख थॉमस जरिबिचेन का होगा। (स्रोत फीचर्स)

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बृहस्पति के चांद युरोपा पर उतरने की मुश्किलें

बृहस्पति के कई चांदों में से एक युरोपा में वैज्ञानिकों की काफी रुचि रही है। युरोपा मुख्य रूप से सिलिकेट चट्टान से बना है जिस पर बर्फ की परत है। इस पर विशाल भूमिगत महासागर का होना जीवन की आशा जगाता है। हाल ही में अमेरिकी कांग्रेस द्वारा नासा को प्रमुख वित्तीय मदद मिली ताकि युरोपा की सतह पर रोबोटिक लैंडर (क्लिपर) भेज कर उसके बारे में अधिक जानकारी प्राप्त की जा सके।

लेकिन युरोपा पर यान को उतारना इतना आसान भी नहीं है। अध्ययनों से पता चला है कि बर्फ से ढंकी सतह दरारों और उभारों से भरी पड़ी है। नेचर जियोसाइन्सेस में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार इस बर्फीले चट्टानी क्षेत्र में प्रत्येक नुकीला उभार पांच मंज़िला इमारत जितना ऊंचा है।     

इस तरह के शिखर पृथ्वी पर एंडीज़ पर्वत पर देखने को मिलते हैं। इन्हें पेनिटेन्ट्स (यानी तपस्वी) कहा जाता है क्योंकि ये ऐसे लगते हैं जैसे कोई सफेद चादर ओढ़े तपस्या कर रहा हो। इनका वर्णन सबसे पहले डार्विन ने किया था। पेनिटेन्ट्स बर्फीले क्षेत्रों में सूरज द्वारा मूर्तिकला का नमूना है। यहां बर्फ पिघलती नहीं है। बल्कि प्रकाश का निश्चित पैटर्न बर्फ को सीधे वाष्पित करता है जिसके परिणाम स्वरूप सतह की भिन्नताओं के कारण छोटी नुकीली पहाड़ियां और छायादार घाटियां बनती हैं। ये अंधेरी घाटियां चारों ओर मौजूद रोशन चोटियों की तुलना में अधिक प्रकाश अवशोषित करती हैं, और एक फीडबैक लूप में वाष्पीकरण की प्रक्रिया चलती रहती है।

इससे पहले पृथ्वी के अलावा प्लूटो पर पेनिटेन्ट्स देखे जा चुके हैं। युरोपा पर अन्य प्रक्रियाओं के आधार पर की गई गणना से पता चलता है कि बर्फ का वाष्पीकरण विषुवत रेखा में अधिक प्रभावी होगा, और ये शिखर 15 मीटर लंबे और 7-7 मीटर की दूरी पर होंगे। इस तरह की आकृतियों से ग्रह के रडार अवलोकन करने पर भूमध्य रेखा पर ऊर्जा में गिरावट का कारण समझा जा सकता है। लेकिन यूरोपा पर यान उतरना कितना कठिन है ये 2020 के मध्य में क्लिपर को भेजने पर ही मालूम चलेगा। (स्रोत फीचर्स)

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सौर मंडल का एक नया संसार खोजा गया

खगोल शास्त्रियों ने हाल ही में सौर मंडल के दूरस्थ छोर पर एक विशाल पिंड की खोज की है। दरअसल यह पिंड बाह्र सौर मंडल में स्थित है और इसे नाम दिया गया है 2015 TG387। वैसे इसका लोकप्रिय नाम गोबलिन रखा गया है।

वॉशिंगटन स्थित कार्नेजी इंस्टीट्यूशन फॉर साइन्स के खगोल शास्त्री स्कॉट शेफर्ड की टीम ने इस पिंड की खोज जापान की 8.2 मीटर की सुबारु दूरबीन की मदद से की है। यह दूरबीन हवाई द्वीप पर मौना की नामक स्थान पर स्थापित है।

2015 TG38 नामक यह पिंड सूर्य से बहुत दूरी पर है। सूर्य की परिक्रमा करते हुए यह जब सूर्य के सबसे नज़दीक होता है, उस समय इसकी सूर्य से दूरी 65 खगोलीय इकाई होती है। सूर्य से पृथ्वी की दूरी को खगोलीय इकाई कहते हैं। और जब यह पिंड सूर्य से अधिकतम दूरी पर होता है तो 2300 खगोलीय इकाई दूर होता है। इतनी दूरी पर हम बहुत ही थोड़े से विशाल पिंडों से वाकिफ हैं। गोबलिन का परिक्रमा पथ सौर मंडल के प्रस्तावित नौवें ग्रह के अनुमानित परिक्रमा पथ से मेल खाता है किंतु खगोल शास्त्रियों का कहना है कि इससे यह साबित नहीं होता कि नौवां ग्रह सचमुच अस्तित्व में है। (स्रोत फीचर्स)

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क्षुद्रग्रह पर पहली बार चलता-फिरता रोवर

जापान के क्षुद्रग्रह मिशन हयाबुसा-2 ने एक क्षुद्रग्रह पर दो रोवर उतारने में सफलता प्राप्त की है। 22 सितंबर के दिन जापान एयरोस्पेस एक्प्लोरेशन एजेंसी ने घोषणा की कि मिशन के दो रोवर मिनर्वा-II IA और IB रयूगु नामक क्षुद्रग्रह पर उतार दिए गए और दोनों ही उसकी सतह पर घूम-फिर रहे हैं। उन्होंने क्षुद्रग्रह की तस्वीरें भी भेजी हैं।

यह क्षुद्रग्रह बहुत छोटा है – चौड़ाई मात्र 1 कि.मी.। हयाबुसा पहले तो इन दो रोवर्स को लेकर क्षुद्रग्रह से मात्र 55 मीटर की ऊंचाई पर पहुंचा। इतने करीब पहुंचकर उसने दोनों रोवर्स को सतह पर तैनात किया और वापिस अपनी कक्षा में लौट गया। शुरुआत में जब ये रोवर्स क्षुद्रग्रह की सतह पर उतरे तो इनका पृथ्वी पर स्थित स्टेशन से संपर्क टूट गया। ऐसा शायद इसलिए हुआ था क्योंकि तब ये दोनों रोवर्स क्षुद्रग्रह के उस साइड पर थे जो हमसे ओझल थी। मगर जल्दी ही इन्होंने संकेत भेजना शुरू कर दिया।

इससे पहले भी क्षुद्रग्रहों पर यान उतारे जा चुके हैं मगर यह पहली बार है कि ये यान वहां की सतह पर चल-फिर रहे हैं। इनमें मोटर लगी हैं जिनकी मदद से ये फुदकते हैं। क्षुद्रग्रह के कम गुरुत्वाकर्षण बल के चलते रोवर्स की प्रत्येक उछाल काफी लंबी होती है।

ऐसा माना जाता है कि यह क्षुद्रग्रह शुरुआती सौर मंडल के पदार्थ से निर्मित हुआ है। इसका अध्ययन सौर मंडल की प्रारंभिक स्थितियों को समझने तथा पृथ्वी व अन्य ग्रहों की उत्पत्ति को समझने के उद्देश्य से किया जा रहा है। हयाबुसा-2 कुछ समय बाद एक बार फिर क्षुद्रग्रह की सतह के नज़दीक जाएगा तथा दो और रोवर्स को वहां उतारेगा। इसके अलावा स्वयं हयाबुसा-2 भी सतह पर उतरेगा ताकि वहां की मिट्टी के नमूने पृथ्वी पर ला सके। (स्रोत फीचर्स)

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जल्दी ही भारत अंतरिक्ष में मानव भेजेगा

15 अगस्त को प्रधानमंत्री द्वारा 2022 तक मानव को अंतरिक्ष में भेजने के लिए एक महत्वाकांक्षी लक्ष्य निर्धारित किया गया है। इस घोषणा ने देश की अंतरिक्ष एजेंसी के प्रमुख समेत कई लोगों को आश्चर्यचकित किया।

इंडियन स्पेस रिसर्च ऑर्गनाइजेशन (इसरो) के अध्यक्ष डॉ. के. सिवान के अनुसार भारतीय अंतरिक्षउत्साही एक दशक से अधिक समय से मनुष्य को अंतरिक्ष में भेजने पर चर्चा कर रहे हैं लेकिन इस विचार को अब तक राजनीतिक समर्थन नहीं मिला था।

डॉ. सिवान का मानना है कि इसरो अन्य देशों की मदद से मिशन को अंजाम दे सकता है। आने वाले समय में वह तीन अंतरिक्ष यात्रियों को अंतरिक्ष में पांच से सात दिनों के लिए भेजने की योजना पर काम कर रहे हैं। इस मिशन के साथ वे दो अन्य मानव रहित मिशन की भी तैयारी करेंगे जिसे पृथ्वी की निचली कक्षा (300-400 किलोमीटर) में पहुंचाने का प्रयास किया जाएगा। अनुमान है कि इस कार्यक्रम पर लगभग 100 अरब रुपए खर्च होंगे। यदि यह सफल रहा तो संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस और चीन के बाद भारत अपने स्वयं के मानवसहित अंतरिक्ष यान को प्रक्षेपित करने वाला चौथा देश बन जाएगा।

इसरो के पास मानवसहित यान के लिए पहले से ही कई प्रमुख हिस्से मौजूद हैं। इनमें अंतरिक्ष यात्री को ले जाने और उनके बचाव के लिए एक मॉड्यूल मौजूद है। इसरो ने बारबार उपयोग में आने वाली एक अंतरिक्ष शटल का सफलतापूर्वक परीक्षण किया है। जीएसएलवी मार्क III रॉकेट का इस्तेमाल यान को लॉन्च करने के लिए किया जाएगा। एजेंसी को अपनी कुछ तकनीकों को अपग्रेड करके मानवसहित मिशन के लिए परीक्षण करना होगा। जैसे जीएसएलवी मार्क III रॉकेट को मानवसहित उपग्रह भेजने के लिए तैयार करना होगा जो वज़नी होते हैं। एजेंसी के पास अंतरिक्ष में यात्रियों को स्वस्थ रखने और उन्हें सुरक्षित वापस लाने का कोई अनुभव नहीं है।

इस कार्य को पूरा करने के लिए इसरो को एयरोस्पेस मेडिसिन संस्थान तथा कई विदेशी विशेषज्ञों की मदद की ज़रूरत पड़ेगी। हो सकता है अंतरिक्ष यात्रियों को प्रशिक्षित करने संयुक्त राज्य अमेरिका, रूस या युरोप में सुविधाओं का उपयोग करना पड़े। एक विकल्प तकनीक को खरीदने का भी हो सकता है लेकिन यह काफी महंगा होगा।   

सवाल यह भी है कि क्या इसरो द्वारा देश कि जनता की भलाई को देखते हुए संचार और मौसम पूर्वानुमान के लिए उपग्रहों को लॉन्च करना ज़्यादा महत्वपूर्ण है या फ़िर लोगों को अंतरिक्ष में भेजना जिसमें कार्यक्रम के दुर्लभ संसाधन खर्च हो जाएंगे।

कई पर्यवेक्षकों का मानना है कि भारत को कम समय सीमा में लक्ष्य को पूरा करने के लिए काफी संघर्ष करना है, जबकि अन्य विशेषज्ञों ने इसरो से परामर्श किए बिना अंतरिक्ष कार्यक्रम की घोषणा के लिए सरकार की आलोचना की है। सी.एस.आई.आर, दिल्ली के पूर्व सेवानिवृत्त शोधकर्ता गौहर रज़ा के अनुसार इसे भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम की नई योजना की बजाय 2019 के चुनावी भाषण के रूप में देखा जाना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

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आओ तुम्हें सूरज पर ले जाएं!

चांद की लोरियां गातेगाते मनुष्य आखिर चांद पर पहुंच ही गया। और अब इच्छा और तैयारी सूरज पर जाने की है। यह तैयारी सिर्फ अवधारणा के स्तर पर नहीं बल्कि सूरज पर जाने को तैयार अंतरिक्ष यान के रूप में है।

जल्दी ही नासा का पारकर सोलर प्रोब फ्लोरिडा स्थित केनेडी स्पेस सेंटर से छोड़ा जाएगा और शुक्र ग्रह पर पहुंचेगा। शुक्र का गुरुत्वाकर्षण इसे सूरज की ओर धकेल देगा। इसके 6 सप्ताह बाद पारकर प्रोब सूरज के प्रभामंडल से टकराएगा और उसे पार कर जाएगा। प्रभामंडल दरअसल अत्यंत गर्म, आवेशित कणों का एक वायुमंडल है। अब से लेकर 2024 तक पारकर प्रोब सूरज के करीब 24 बार पहुंचेगा।

इस प्रोब का नाम सौर भौतिकविद यूजीन पारकर के नाम पर रखा गया है। पारकर ने 1958 में सौर आंधियों की बात की थी जो प्लाज़्मा कणों की एक धारा होती है और जब सूर्य सक्रिय होता है तो यह धारा सौर मंडल में दूरदूर तक पहुंचती है और हमारे कृत्रिम उपग्रहों, संचार प्रणालियों को तहसनहस करने की क्षमता रखती है। पारकर प्रोब का एक प्रमुख मकसद सौर आंधियों का अध्ययन करना है।

जब यह सूरज के इतना नज़दीक पहुंचेगा तो ज़ाहिर है इसे अत्यंत उच्च तापमान का सामना करना होगा। तापमान इतना अधिक होगा कि धातु पिघल जाए, वाष्पित हो जाए। तो इस प्रोब को सूर्य के उच्च तापमान से सुरक्षित रखने के लिए कार्बनफोम का रक्षा कवच प्रदान किया गया है। यदि सब कुछ आशा के अनुरूप चला तो पारकर प्रोब प्रभामंडल के प्लाज़्मा और वहां उपस्थित चुंबकीय क्षेत्र का रिकॉर्ड पृथ्वी पर भेजेगा।

सूरज की सैर पर निकलने वाला पारकर अकेला यान नहीं है। दो अन्य यानों को भेजने की भी तैयारियां हो चुकी हैं। हवाई द्वीप पर डीकेआईएसटी दूरबीन को अंतिम रूप दिया जा रहा है। जून 2020 में यह दूरबीन सूरज की सतह के नज़दीकी चित्र खींच पाएगी।

इसी के साथ युरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी भी एक सोलर ऑर्बाइटर की योजना पर काम कर रही है। यह सूरज के उतना करीब तो नहीं जाएगा जितना पारकर प्रोब पहुंचेगा किंतु काफी करीब पहुंचेगा और वहां से निकलने वाले अतिऊर्जावान विकिरण का अध्ययन करेगा।(स्रोत फीचर्स)

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आइंस्टाइन एक बार सही साबित हुए

क तारा आकाशगंगा के मध्य में स्थित एक ब्लैक होल के नज़दीक से गुज़रते हुए आइंस्टाइन के सामान्य सापेक्षता सिद्धांत को और पुष्ट कर गया। s2 नामक इस तारे के अवलोकन की रिपोर्ट जर्मनी के मैक्स प्लैंक इंस्टीट्यूट फॉर एक्स्ट्रा-टेरेस्ट्रियल फिज़िक्स के राइनहार्ड गेंज़ेल और उनकी अंतर्राष्ट्रीय टीम ने एस्ट्रॉनॉमी एंड एस्ट्रोफिज़िक्स नामक जर्नल में प्रकाशित की है। इस टीम में जर्मनी, नेदरलैंड, फ्रांस, पुर्तगाल, स्विटज़रलैंड और संयुक्त राज्य अमेरिका के वैज्ञानिक शामिल थे।

ऐसे ही अवलोकन एक और टीम ने भी किए हैं। एंड्रिया गेज़ के नेतृत्व में कार्य रही इस दूसरी टीम ने कहा है कि वे अपने आंकड़े व निष्कर्ष कुछ समय बाद प्रकाशित करेंगे क्योंकि उन्हें कुछ और अवलोकनों का इंतज़ार है।

गेंज़ेल की टीम के सारे अवलोकन चिली स्थित युरोपियन दक्षिणी वेधशाला में स्थापित एक विशाल दूरबीन से किए गए। दरअसल तारा s2 आकाशगंगा के मध्य में स्थित एक ब्लैक होल की परिक्रमा करता है। इसे यह परिक्रमा करने में पूरे 16 साल लगते हैं। गेंज़ेल की टीम इस तारे को 1990 के दशक से देखती आ रही है। जब यह तारा ब्लैक होल के नज़दीक आया तो इसका वेग 7600 किलोमीटर प्रति सेकंड हो गया, जो प्रकाश के वेग का लगभग 3 प्रतिशत है।

गौरतलब है कि उक्त ब्लैक होल आकाशगंगा का सबसे भारी-भरकम पिंड है। यह हमसे 26,000 प्रकाश वर्ष की दूरी पर धनु तारामंडल में स्थित है और इसका द्रव्यमान हमारे सूर्य से 40 लाख गुना ज़्यादा है। यह ब्लैक होल आकाशगंगा में सबसे सशक्त गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र उत्पन्न करता है।

जब तारा च्2 ब्लैक होल के सबसे नज़दीक था उस समय किए गए अवलोकनों से पता चला कि इस तारे से उत्सर्जित प्रकाश की आवृत्ति में कमी आई। दूसरे शब्दों में इसके प्रकाश में लाल-विचलन या रेडशिफ्ट देखा गया। आइंस्टाइन के सापेक्षता सिद्धांत का यही निष्कर्ष था कि जब कोई प्रकाश उत्सर्जित करता पिंड सशक्त गुरुत्वाकर्षण से प्रभावित होगा तो उसके प्रकाश में लाल-विचलन होना चाहिए। पिछले दो दशकों के अवलोकन आइंस्टाइन की इस भविष्यवाणी को सही साबित कर रहे हैं।(स्रोत फीचर्स)

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मंगल ग्रह के गड्ढों से उसके झुकाव की जानकारी

ह तो हम सभी जानते हैं कि पृथ्वी का अक्ष या धुरी 23.5 डिग्री झुकी हुई है। इस कारण से इसके उत्तरी ध्रुव का झुकाव कभी सूरज की ओर हो जाता है तो कभी दूर हो जाता है। इस झुकाव के चलते हमें विभिन्न मौसम मिलते हैं। मंगल सहित अन्य ग्रहों की धुरियां भी झुकी हुई हैं हालांकि प्रत्येक के झुकाव का कोण अलग-अलग है। हाल ही में शोधकर्ताओं ने पिछले 3.5 अरब वर्षों में मंगल के झुकाव में आए बदलाव का खुलासा किया है। इस अध्ययन के परिणामों से पता चल सकता है कि लाल ग्रह पर बर्फ कितनी बार पिघलकर पानी बना होगा।

अध्ययन के लिए वैज्ञानिकों ने मंगल के विभिन्न कंप्यूटर मॉडल तैयार किए। प्रत्येक मॉडल में ग्रह अलग-अलग कोण पर झुका हुआ था। अब उन्होंने ग्रह के प्रत्येक मॉडल पर क्षुद्रग्रहों की बौछार की। देखा गया कि अधिक झुकाव वाले मॉडलों पर क्षुद्रग्रहों की बौछार से निर्मित अंडाकार क्रेटर बड़ी तादाद में मॉडल पर समान रूप से वितरित हुए थे। दूसरी ओर, झुकाव रहित मॉडल्स में क्षुद्रग्रहों की टक्कर के बाद अंडाकार क्रेटर भूमध्य (मंगलमध्य) रेखा के इर्द-गिर्द पाए गए। ऐसे अंडाकार क्रेटर तब बनते हैं जब कोई उल्का ग्रह की सतह से न्यून कोण पर (क्षितिज के लगभग समांतर) टकराए। यदि उल्का लंबवत गिरे या लगभग लंबवत गिरे तो क्रेटर वृत्ताकार बनता है।

अब शोधकर्ताओं ने मंगल की वास्तविक सतह पर उपस्थित 1500 से अधिक अंडाकार क्रेटर्स को देखा और उनके वितरण की तुलना मॉडलों से की। इस तुलना के आधार पर उनका निष्कर्ष है कि अतीत में मंगल 10 डिग्री से लेकर 30 डिग्री के बीच झुका हुआ था। वर्तमान में यह 25 डिग्री झुका है। शोधकर्ताओं ने अर्थ एंड प्लेनेटरी साइंस लेटर्स में बताया है कि अन्य ग्रहों के गुरुत्वाकर्षण प्रभाव के चलते समय के साथ मंगल के झुकाव में परिवर्तन आया है। लेकिन उनका यह भी विचार है कि पिछले कुछ अरब वर्षों में अधिक से अधिक 20 प्रतिशत समय मंगल का झुकाव 40 डिग्री से अधिक रहा होगा।

टीम के अनुसार इतने लंबे समय तक मंगल ग्रह के कम झुकाव के चलते काफी भूमिगत स्रोत सूख गए होंगे। किंतु सारे स्रोत नहीं सूखे होंगे क्योंकि मंगल पर पानी का एक भूमिगत स्रोत हाल ही में खोजा गया है।(स्रोत फीचर्स)

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