पृथ्वी का चुंबकीय क्षेत्र गायब भी हुआ था

मारी पृथ्वी के चारों ओर एक चुंबकीय क्षेत्र मौजूद है। इसकी मदद से न केवल हमको दिशाओं का ज्ञान होता है बल्कि यह चुंबकीय क्षेत्र हमारे ग्रह को हानिकारक विकिरण और सौर हवाओं से बचाता भी है। लेकिन आज से 56 करोड़ वर्ष पहले यह चुंबकीय क्षेत्र लगभग गायब हो चुका था। लेकिन एक भूगर्भीय घटना के कारण यह बच गया। वैज्ञानिकों के अनुसार उस समय पृथ्वी का तरल केंद्र (कोर) ठोस होना शुरू हो गया था जिसके कारण चुंबकीय क्षेत्र वापस से मज़बूत हो गया।

वैज्ञानिकों को ग्रह के केंद्र की तत्कालीन संरचना का अंदाज़ रेत के दानों के आकार के क्रिस्टल को देखकर लगा। उन्होंने 56 करोड़ वर्ष पुराने प्लेजिओक्लेज़ और क्लिनोपायरॉक्सीन के नमूने लिए जो उनको पूर्वी क्यूबेक, कनाडा में मिले। इन नमूनों में लगभग 50 से 100 नैनोमीटर तक की चुंबकीय सुइयां मिलीं जो उस समय पिघली हुई चट्टान में चुंबकीय क्षेत्र की दिशा में स्थिर हो गई थीं। चट्टानों के ठंडा होने के बाद ये सुइयां अरबों वर्षों तक सुरक्षित रखी रहीं और पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र का रिकॉर्ड बन गर्इं।

इन छोटे-छोटे क्रिस्टल्स को मैग्नेटोमीटर से जांचने पर कणों का चार्ज बहुत कम पाया गया। वास्तव में, 56 करोड़ साल पहले, पृथ्वी का चुंबकीय क्षेत्र आज की तुलना में 10 गुना अधिक कमजोर रहा था। आगे मापन से पता चला कि उत्तरी और दक्षिणी ध्रुव के पलटने की आवृत्ति भी बहुत अधिक थी।

रोचेस्टर विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जॉन टारडूनो के अनुसार इस अध्ययन से पता चलता है कि उस समय पृथ्वी का चुंबकीय क्षेत्र काफी असामान्य था। एक ऐसा समय भी था जब चुंबकीय क्षेत्र के निर्माण की प्रक्रिया (जियो-डाएनेमो) लगभग धराशायी हो गई थी।

पृथ्वी के शुरुआती दौर में धरती का केंद्र पिघली हुई अवस्था में था। फिर 2.5 अरब से 50 करोड़ साल पहले केंद्र का लोहा ठंडा होकर ठोस अवस्था में परिवर्तित होने लगा। जैसे ही आंतरिक कोर ने जमना शुरू किया सिलिकॉन, मैग्नीशियम और ऑक्सीजन जैसे हल्के तत्व कोर की बाहरी तरल परत में आ गए जिससे तरल पदार्थ और गर्मी का प्रवाह शुरू हुआ जिसे संवहन कहा जाता है। बाहरी कोर में द्रव की गति ने आवेशित कणों को गतिमान रखा, जिससे विद्युत धारा उत्पन्न हुई और विद्युत धारा ने चुंबकीय क्षेत्र को जन्म दिया। यही संवहन आज भी चुंबकीय क्षेत्र के लिए ज़िम्मेदार है। पृथ्वी की आंतरिक कोर का ठोस बनना अभी भी जारी है और आने वाले कई वर्षों तक ऐसा होता रहेगा।

एक संभावना यह व्यक्त की गई है कि कैम्ब्रियन युग में तेज़ जैव विकास का सम्बंध कमजोर चुंबकीय क्षेत्र से हो सकता है क्योंकि चुंबकीय क्षेत्र के कमज़ोर होने के चलते जो अधिक विकिरण धरती पर पहुंचा होगा उससे डीएनए की क्षति और उत्परिवर्तन दर ऊंची रही हो सकती है जिससे अधिक प्रजातियों के विकसित होने की संभावना है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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चांद पर कपास के बीज उगे, अंकुर मर गए

चीन द्वारा चांग-4 अंतरिक्ष यान के साथ चांद पर भेजे गए ल्यूनर रोवर पर एक जैव मंडल (वज़न 2.6 कि.ग्रा.) भी भेजा गया था जिसमें आलू के बीज, पत्ता गोभी सरीखा एक पौधा और रेशम के कीड़े की इल्लियों के अलावा कुछ कपास के बीज भी थे। कपास के बीज चांद पर भी अंकुरित हुए हालांकि उनके अंकुर पृथ्वी पर तुलना के लिए रखे गए कपास के अंकुरों से छोटे रहे। मगर उल्लेखनीय बात यह मानी जा रही है कि ये बीज यान के प्रक्षेपण, चांद तक की मुश्किल यात्रा को झेलकर चांद के दुर्बल गुरुत्वाकर्षण और वहां मौजूद तीव्र विकिरण के बावजूद पनपे थे। खास बात यह है कि उसी जैव मंडल में अन्य किसी प्रजाति में इस तरह जीवन के लक्षण नज़र नहीं आए थे। किंतु अब कपास के वे अंकुर भी मर चुके हैं।

चांग-4 के प्रोजेक्ट लीडर लिऊ हानलॉन्ग ने इस घटना की व्याख्या करते हुए बताया है कि चांग-4 चांद के दूरस्थ हिस्से पर उतरा है। जैसे ही रात हुई, लघु जैव मंडल का तापमान एकदम कम हो गया। उन्होंने बताया कि जैव मंडल कक्ष के अंदर का तापमान शून्य से 52 डिग्री सेल्सियस नीचे चला गया था। अंदेशा यह है कि तापमान में और गिरावट होगी और यह ऋण 180 डिग्री सेल्सियस तक चला जाएगा। जैव मंडल को गर्म रखने का कोई इंतज़ाम नहीं है।

आम तौर पर पौधों में कम तापमान को झेलने के लिए अंदरुनी व्यवस्थाएं होती हैं। जैसे तापमान कम होने पर पौधों की कोशिकाओं में शर्करा और कुछ अन्य रसायनों की मात्रा बढ़ती है जिसके चलते कोशिकाओं के अंदर पानी के बर्फ बनने का तापमान (हिमांक) कम हो जाता है। इसके कारण कोशिकाओं में पानी बर्फ नहीं बनता अन्यथा यह बर्फ कोशिकाओं को फैलाता है और तोड़ देता है। कुछ अन्य पौधों में कोशिका झिल्लियां सख्त हो जाती हैं जबकि कुछ पौधों में पानी को कोशिका से बाहर निकाल दिया जाता है ताकि बर्फ बनने की नौबत ही न आए।

मगर इन प्रक्रियाओं के काम करने के लिए ज़रूरी होता है कि पर्यावरण से यह संकेत मिलता रहे कि ठंड आ रही है। मगर यदि तापमान अचानक कम हो जाए तो ये व्यवस्थाएं पौधे को बचा नहीं पातीं। इसलिए यकायक पाला पड़े तो पृथ्वी की ठंडी जलवायु वाले पौधे भी बच नहीं पाते। कपास तो गर्म जलवायु का पौधा है। और चांद पर जो ठंड आई होगी वह धीरेधीरे जाड़े का मौसम आने जैसा कदापि नहीं था। चांद पर दिन के समय (वहां का दिन हमारे 13 दिन के बराबर होता है) का तापमान तो 100 डिग्री सेल्सियस (पानी के क्वथनांक) तक हो जाता है जबकि रात में यह ऋण 173 डिग्री तक गिर जाता है।

तो ऐसा लगता है कि यह शीत लहर कपास की क्षमता से बाहर थी। पहले तो कोशिकाओं का पानी बर्फ बन गया होगा, जिसने उन्हें अंदर से फोड़ दिया होगा। फिर कोशिकाओं के बीच के पानी का नंबर आया होगा जिसने पूरे अंकुर को नष्ट कर दिया होगा। हानलॉन्ग के मुताबिक अब यह प्रयोग समाप्त माना जाना चाहिए। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पृथ्वी ने एक ग्रह को निगला और जीवन अस्तित्व में आया

साढ़े चार अरब साल पहले, मंगल ग्रह के आकार का एक पिंड पृथ्वी से टकराया, जिसकी वजह से चंद्रमा टूटकर अलग हुआ और पृथ्वी के निकट एक स्थायी कक्षा में स्थापित हुआ था। एक ताज़ा अध्ययन बताता है कि इसके साथ ही जीवन के लिए आवश्यक अवयव भी पृथ्वी पर आए। वैज्ञानिकों ने जर्नल साइंस एडवांसेस में प्रकाशित रिपोर्ट में बताया है कि इस घटना ने हमारे ग्रह पर जीवन के लिए ज़रूरी कार्बन, नाइट्रोजन और सल्फर पहुंचाया था।

इस घटना से पूर्व पृथ्वी कुछकुछ आज के मंगल ग्रह जैसी थी। इसमें भी एक कोर और एक मैंटल था, लेकिन इसके गैरकोर वाले भाग में नाइट्रोजन, कार्बन और सल्फर जैसे वाष्पशील तत्वों की काफी कमी थी। पृथ्वी के गैरकोर हिस्से में मौजूद तत्वों को बल्क सिलिकेट अर्थकहते हैं, ये तत्व एकदूसरे के साथ आपस में तो क्रिया करते हैं, लेकिन वे कभी भी कोर हिस्से के तत्वों के साथ क्रिया नहीं करते हैं। हालांकि कुछ वाष्पशील तत्व कोर में मौजूद तो थे लेकिन वे ग्रह की बाहरी परतों तक नहीं पहुंच सके थे। और तभी टक्कर हुई।

एक सिद्धांत अनुसार विशेष प्रकार के उल्कापिंड, जिन्हें कार्बोनेशियस कॉन्ड्राइट्स कहा जाता है, पृथ्वी से टकराए और बल्क सिलिकेट अर्थ को ये वाष्पशील तत्व प्रदान किए। वास्तव में नाइट्रोजन, कार्बन और हाइड्रोजन के समस्थानिकों के अनुपात इन उल्कापिंडों पर पाए गए अनुपात से मेल खाते प्रतीत होते हैं। तो इस सिद्धांत के समर्थक कहते हैं कि उल्कापिंड ही इन तत्वों का स्रोत होना चाहिए।

लेकिन राइस विश्वविद्यालय, ह्यूस्टन के शोधकर्ता दमनवीर ग्रेवाल के अनुसार इन उल्कापिंडों में एक भाग नाइट्रोजन पर लगभग 20 भाग कार्बन होता है, जबकि पृथ्वी के गैरकोर भाग में एक भाग नाइट्रोजन पर लगभग 40 भाग कार्बन होता है। इसलिए, उन्होंने एक अन्य सिद्धांत का परीक्षण करने का फैसला किया।

ग्रेवाल और उनकी टीम ने लैब में एक विशेष प्रकार की भट्टी में उच्चतापमान और उच्च दबाव पर किसी ग्रह के कोर और मैंटल का मॉडल बनाया।

उन्होंने अपने प्रयोगों में तापमान, दबाव और सल्फर के अनुपात को अलगअलग करके यह जानने की कोशिश की कि ये तत्व कोर और (कल्पित) ग्रह के बाकी हिस्सों के बीच कैसे विभाजित होते हैं। उन्होंने पाया कि नाइट्रोजन और सल्फर की उच्च सांद्रता हो तो कार्बन लोहे के साथ बंधन का इच्छुक नहीं होता, जबकि बहुत अधिक सल्फर मौजूद होने पर भी लोहा नाइट्रोजन के साथ बंधन बनाता है। अर्थात नाइट्रोजन को कोर से बाहर निकलकर ग्रह के अन्य हिस्सों में फैलना है तो सल्फर की मात्रा बहुत अधिक होनी चाहिए।

इसके बाद उन्होंने इन सभी सम्भावनाओं के आधार पर एक सिमुलेशन तैयार किया जिसमें विभिन्न वाष्पशील तत्वों के व्यवहार की जानकारी और पृथ्वी की बाहरी परतों में कार्बन, नाइट्रोजन और सल्फर की वर्तमान मात्रा को रखा।

एक करोड़ से अधिक सिमुलेशन चलने के बाद, उनको समझ आया कि नाइट्रोजन एवं कार्बन का वर्तमान अनुपात तभी बन सकता है जब पृथ्वी की टक्कर मंगल के आकार के किसी ग्रह के साथ हुई होगी जिसके कोर में सल्फर की मात्रा लगभग 25 से 30 प्रतिशत रही होगी। (स्रोत फीचर्स)

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आकाश गंगा के 11 रोचक तथ्य

दि आप किसी ऐसे स्थान पर रहते हैं जहां कृत्रिम प्रकाश कम या नदारद है, तो अंधेरी रात के साफ आसमान में आपको एक बादली पट्टी सी दिखेगी। ज़ाहिर है प्राचीन काल में यह साफ नज़र आती होगी। यही आकाशगंगा है। हमारी आकाशगंगा एक निहारिका है जो तारों, सुपरनोवा, नेबुला, ऊर्जा और अदृश्य पदार्थ से भरी है जिसके कई पहलू वैज्ञानिकों के लिए भी रहस्य बने हुए हैं। आकाशगंगा के बारे में कुछ रोचक तथ्य प्रस्तुत हैं।

आकाशगंगा एक प्राचीन नाम है

संस्कृत और कई अन्य इंडोआर्य भाषाओं में हमारी निहारिका यानी गैलेक्सी को आकाशगंगाकहते हैं। पुराणों में आकाशगंगा और पृथ्वी पर स्थित गंगा नदी को एक दूसरे का जोड़ा माना जाता था और दोनों को पवित्र माना जाता था। आकाशगंगा को क्षीर (यानी दूध) भी कहा गया है। भारतीय उपमहाद्वीप के बाहर भी कई सभ्यताओं को आकाशगंगा दूधिया लगी। गैलेक्सीशब्द का मूल यूनानी भाषा का गालाशब्द है, जिसका अर्थ भी दूध होता है। संस्कृत की तरह फारसी भी एक इंडोईरानी भाषा है, इसलिए उसका दूधके लिए शब्द संस्कृत के क्षीरसे मिलताजुलता सजातीय शब्द शीरहै और आकाशगंगा को राहशीरीकहा जाता है। अंग्रेज़ी में आकाशगंगा को मिल्की वेकहते हैं। यह नाम यूनानियों से प्राप्त हुआ है। एक दंतकथा के मुताबिक शिशु हरक्युलिस को देवी हेरा सोते हुए स्तनपान करा रही है। जब वह जागती है तो स्तन का दूध आसमान में फैल जाता है। इसे मिल्की वेकहा जाने लगा।

आकाशगंगा में कितने तारे हैं

तारों की गणना एक थकाऊ काम है। खगोलविदों के बीच इसके तरीकों को लेकर काफी बहस है। दूरबीन से हमें आकाशगंगा में केवल सबसे चमकीले तारे दिखते हैं, जबकि अधिकांश तारे तो गैस और धूल में ओझल हैं। आकाशगंगा में तारासंख्या का अनुमान लगाने का एक तरीका यह है कि यह देखा जाए कि इसके भीतर तारे कितनी तेज़ी से परिक्रमा कर रहे हैं। इससे आकाशगंगा में गुरुत्वाकर्षण खिंचाव का अंदाज़ा लगेगा। और गुरुत्वाकर्षण से आकाशगंगा के द्रव्यमान की गणना की जा सकती है। फिर इस द्रव्यमान में एक औसत तारे के द्रव्यमान से भाग देकर तारों की संख्या का अनुमान किया जा सकता है। लेकिन इथाका कॉलेज, न्यूयॉर्क के खगोल शास्त्री डेविड कॉर्नराइश के अनुसार यह एक अनुमान भर है। सितारों की साइज़ में बहुत विविधता होती है, और अनुमान लगाने में कई मान्यताएं लेनी होती हैं।

युरोपीय अन्तरिक्ष एजेंसी के गैया उपग्रह ने आकाशगंगा में 1 अरब तारों का स्थान निर्धारण किया है, और वैज्ञानिकों का मानना है कि यह कुल संख्या का एक प्रतिशत है। तो शायद आकाशगंगा में 100 अरब तारे हैं।

आकाशगंगा का वज़न

तारासंख्या के समान, खगोलविद आकाशगंगा के वज़न को लेकर भी अनिश्चित हैं। विभिन्न अनुमान सूर्य के द्रव्यमान से 700 अरब गुना से लेकर 20 खरब गुना तक है। टक्सन में एरिज़ोना विश्वविद्यालय की खगोलविद एकता पटेल के अनुसार, आकाशगंगा का अधिकांश द्रव्यमान, लगभग 85 प्रतिशत,अदृश्य पदार्थ (डार्क मैटर) के रूप में है। इस डार्क मैटर से प्रकाश नहीं निकलता और इसलिए इसका सीधे अवलोकन करना असंभव है। उन्होंने हाल में इस बात का अध्ययन किया है कि हमारी विशालकाय आकाशगंगा आसपास की छोटी निहारिकाओं पर कितना गुरुत्वाकर्षण बल लगाती है। इसके आधार पर उनका अनुमान है कि आकाशगंगा सूर्य से 960 अरब गुना भारी है।

यह ब्राहृांड के खाली स्थान में है

कई अध्ययनों से यह मालूम चला है कि हम इस ब्राहृांड के एक वीरान कोने में जी रहे हैं। दूर से, ब्राहृांड की संरचना एक विशाल ब्राहृांडीय जाल की तरह दिखती है, जिसमें ज़्यादातर खाली जगह (रिक्तियां) है। आकाशगंगा केबीसी रिक्ति में स्थित है। इसका यह नाम तीन खगोलविदों कीनन, बर्जर और काउवी के नाम पर रखा गया था जिन्होंने इसकी खोज की थी। पिछले साल एक और टीम ने इस बात की पुष्टि कि हम एक बड़े, खाली क्षेत्र में तैर रहे हैं।

आकाशगंगा के केंद्र में ब्लैक होल

हमारी आकाशगंगा के केंद्र में एक विशाल ब्लैक होल है, जो सूरज से 40 गुना वज़नी है। वैज्ञानिकों ने इस ब्लैक की उपस्थिति का अंदाज़ा आकाशगंगा के तारों के परिक्रमा पथ के आधार पर लगाया है क्योंकि वे देख सकते हैं कि ये तारे आकाशगंगा के केंद्र में एक निहायत भारीभरकम पिंड की परिक्रमा कर रहे हैं जो दिखाई नहीं देता। लेकिन हाल ही में, खगोलविद ब्लैक होल के आसपास के वातावरण, जो गैस और धूल से भरा हुआ है, की एक झलक पाने के लिए कई रेडियो दूरबीनों के अवलोकनों का मिलाजुला अध्ययन कर रहे हैं। इवेंट होराइज़न टेलीस्कोप नाम के इस प्रोजेक्ट की मदद से आने वाले महीनों में ब्लैक होल के किनारे की प्रारंभिक छवियां प्राप्त होने की उम्मीद है।

छोटी निहारिकाएं आकाशगंगा की परिक्रमा करती हैं और कभीकभी इससे टकरा भी जाती हैं

युरोपीय दक्षिणी वेधशाला के अनुसार, जब पुर्तगाली खोजकर्ता फर्डिनेंड मेजिलेन 16 वीं शताब्दी में दक्षिणी गोलार्ध की समुद्री यात्रा पर थे, तब उन्होंने रात में आकाश में तारों के वृत्ताकार झुंड देखे। ये झुंड वास्तव में छोटीछोटी निहारिकाएं हैं जो हमारी आकाशगंगा की परिक्रमा ठीक उसी तरह करती हैं जैसे ग्रह किसी तारे के चारों ओर चक्कर काटते हैं। इन्हें छोटे और बड़े मेजेलिनिक बादल कहते हैं। ऐसी कई छोटीछोटी निहारिकाएं आकाशगंगा की परिक्रमा करती हैं और कभीकभी वे हमारी विशाल आकाशगंगा में समा जाती हैं।

आकाशगंगा ज़हरीले ग्रीस से भरी है

हमारी आकाशगंगा में तारों के बीच ज़्यादातर खाली जगह में ग्रीस तैर रहा है। कुछ तैलीय कार्बनिक अणु (जो एलिफेटिक कार्बन यौगिक  होते हैं) कुछ विशेष प्रकार के तारों में उत्पन्न होते हैं और फिर अन्तर्तारकीय अन्तरिक्ष में रिस जाते हैं। हाल ही में हुए एक अध्ययन में पाया गया है कि आकाशगंगा के अन्तर्तारकीय कार्बन में से एक चौथाई से आधे तक यह ग्रीस जैसा पदार्थ हो सकता है। यह मात्रा पहले मान्य मात्रा की तुलना में पांच गुना अधिक है। कार्बन सजीवों की एक आवश्यक निर्माण इकाई है। पूरी आकाशगंगा में इसका बहुतायत में मिलना अन्य तारा प्रणालियों में जीवन की सम्भावना जताता है।

आकाशगंगा 4 अरब वर्षों में अपने पड़ोसी से टकराने वाली है

हमारी आकाशगंगा शाश्वत नहीं है। खगोलविदों को यह पता है कि वर्तमान में हम अपने पड़ोसी, एंड्रोमिडा निहारिका की ओर लगभग 400,000 कि.मी./घंटा की गति से बढ़ रहे हैं। अधिकांश शोध से मालूम चला है कि ऐसी दुर्घटना के समय अधिक विशाल एंड्रोमिडा हमारी आकाशगंगा को निगल कर खुद जीवित रहेगी। लेकिन हाल ही में खगोलविदों ने बताया है कि एंड्रोमिडा मात्र लगभग 800 अरब सूर्य के बराबर है। यानी इसका द्रव्यमान आकाशगंगा के द्रव्यमान के बराबर है। तो कौनसी निहारिका इस दुर्घटना में बची रहेगी यह एक खुला सवाल है।

हमारी पड़ोसी निहारिका के तारे आकाशगंगा के करीब आ रहे हैं

लगता है निहारिकाएं तारों का आदानप्रदान भी करती हैं। शोधकर्ता हाल ही में तेज़ गति वाले तारों की खोज कर रहे थे, जो आकाशगंगा के केंद्र में स्थित ब्लैक होल से संपर्क के बाद तेज़ गति से बाहर निकल जाते हैं। लेकिन जो कुछ सामने आया वह चौंकाने वाला है। हमारी आकाशगंगा से दूर जाने की बजाय, शोधकर्ताओं द्वारा देखे गए अधिकांश तेज़ तारे हमारी ओर बढ़ रहे थे। रॉयल एस्ट्रोनॉमिकल सोसायटी के मंथली नोटिसेस में प्रकाशित रिपोर्ट में लेखकों का सुझाव है कि ये अजीब तारे बड़े मेजेलिनिक क्लाउड या किसी दूरस्थ निहारिका से आए हो सकते हैं।

आकाशगंगा से निकलने वाले रहस्यमय बुलबुले

यदि आपको अचानक पता चले कि आपके घर में, जिसे आप न जाने कितनी बार देखते होंगे, उसमें एक हाथी है, तो आपकी क्या प्रतिक्रिया होगी? 2010 में वैज्ञानिकों के साथ कमोबेश ऐसा ही हुआ था। जब उन्होंने आकाशगंगा के ऊपर और नीचे 25,000 प्रकाशवर्ष जितनी विशालकाय संरचना को देखा जो पहले कभी नहीं देखी गई थी। जिस दूरबीन से इन्हें देखा गया था उसी के नाम पर इन्हें फर्मी बुलबुलेनाम दिया गया। खगोलविद इन गामारेउत्सर्जक पिंडों का स्पष्टीकरण करने में असफल रहे हैं। पिछले साल, एक टीम ने ऐसे प्रमाण एकत्रित किए थे जो दर्शाते थे कि ये बुलबुले 60 से 90 लाख साल पहले एक ऊर्जाजनक घटना के बाद उत्पन्न हुए थे। उस घटना में आकाशगंगा के केंद्र में स्थित ब्लैक होल ने भारी मात्रा में पदार्थ (गैस और धूल) निगल लिया था और फिर ये विशाल चमकते बादल उगले थे।

हमारी आकाशगंगा पर ब्राहृांड के दूसरी ओर से विचित्र ऊर्जा पल्स की बौछार हो रही है

पिछले एक दशक में, खगोलविद सुदूर ब्राहृांड से आने वाली प्रकाश की विचित्र कौंध देख रहे हैं। इन रहस्यमय संकेतों पर कोई सहमति नहीं बन पाई है। 10 से अधिक वर्षों तक उनके बारे में जानने के बावजूद, शोधकर्ता ऐसे केवल 30 कौंध देख पाए थे। लेकिन एक हालिया अध्ययन में, ऑस्ट्रेलियाई वैज्ञानिकों ने 20 और चमक देखीं। हालांकि वे अभी भी अजीब चमक की उत्पत्ति नहीं जानते, लेकिन टीम यह निर्धारित करने में सफल रही है कि इस प्रकाश ने कई अरब प्रकाशवर्ष गैस और धूल से होकर यात्रा की थी, जिससे पता चलता है कि ये काफी दूर से आ रही है।(स्रोत फीचर्स)

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चांद पर पौधे उगाए गए – डॉ. दीपक कोहली

चांद पर भेजे गए चीन के रोवर पर कपास के बीज के अंकुरित होने के बाद पहली बार हमारी दुनिया से बाहर चांद पर कोई पौधा पनपा है। वैज्ञानिकों ने मंगलवार को यह जानकारी दी। चोंगकिंग विश्वविद्यालय के एडवांस्ड टेक्नॉलॉजी रिसर्च इंस्टीट्यूट द्वारा जारी तस्वीरों की शृंखला के मुताबिक चांग-4 के इस महीने चंद्रमा पर उतरने के बाद यह अंकुर एक कनस्तर के भीतर मौजूद जालीनुमा ढांचे से पनपा है। प्रयोग के डिज़ाइन की अगुवाई करने वाले शाइ गेंगशिन ने कहा, यह पहला मौका है जब मानव ने चंद्रमा की सतह पर जीव विज्ञान में पादप विकास के प्रयोग किए हैं। अंतरिक्ष में महाशक्ति बनने की चीन की महत्वाकांक्षा बढ़ाते हुए चांग-4 तीन जनवरी को चंद्रमा के हमसे दूसरी ओर वाले हिस्से पर उतरा और उसके कभी न देखे गए हिस्से तक पहुंचने वाला विश्व का पहला अंतरिक्ष यान बन गया। वैज्ञानिकों ने वायु, जल एवं मिट्टी युक्त 18 से.मी. का एक डिब्बा भेजा था। इसके भीतर कपास, आलू एवं सरसों प्रजाति के एक-एक बीज के साथ-साथ फ्रूट फ्लाई के अंडे एवं यीस्ट भेजे गए थे। विश्वविद्यालय ने बताया कि अंतरिक्ष यान से भेजी गई तस्वीरों में देखा गया कि कपास के अंकुर बढ़िया से विकसित हो रहे हैं लेकिन अन्य बीजों के अंकुरित होने का कोई समाचार नहीं है। और अंतिम समाचार मिलने तक कपास के अंकुर मृत हो चुके थे। (स्रोत फीचर्स)

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अदृश्य पदार्थ का ताज़ा अध्ययन

णनाओं से पता चलता है कि हमारे ब्राहृांड का 85 प्रतिशत भाग ऐसे पदार्थ से बना है जो अदृश्य है। इसे डार्क मैटर कहते हैं क्योंकि यह प्रकाश के साथ कोई क्रिया नहीं करता। इसी वजह से इसके बारे में जानना एक मुश्किल चुनौती है। इसके बारे में वैज्ञानिक जो कुछ जानते हैं वह इसके गुरुत्वीय प्रभाव के आधार पर है – यानी डार्क मैटर का जो गुरुत्वीय असर दृश्य पदार्थ यानी बैर्योनिक मैटर पर होता है।

एक ताज़ा अध्ययन में विभिन्न निहारिकाओं में अदृश्य पदार्थ की मात्रा की गणना की कोशिश की गई। पूर्व में की गई गणनाओं के विपरीत ताज़ा अध्ययन का निष्कर्ष है कि ब्राहृांड की प्रारंभिक निहारिकाओं और अपेक्षाकृत हाल में बनी निहारिकाओं में डार्क मैटर का अनुपात लगभग बराबर ही है।

पूर्व में मैक्स प्लांक इंस्टीट्यूट फॉर एक्स्ट्राटेरेस्ट्रियल फिज़िक्स के खगोल शास्त्री राइनहार्ड गेंज़ेल के नेतृत्व में किए गए एक अध्ययन का निष्कर्ष था कि प्रारंभिक निहारिकाओं में डार्क मैटर की मात्रा नवीन निहारिकाओं की अपेक्षा कम थी।

ताज़ा अध्ययन डरहैम विश्वविद्यालय के अल्फ्रेड टाइली और उनके सहयोगियों ने किया है। यह अध्ययन प्रीप्रिंट पत्रिका आर्काइव्स में प्रकाशित हो चुका है और इसे रॉयल एस्ट्रॉनॉमिकल सोसायटी की पत्रिका मंथली नोटिसेस में प्रकाशन के लिए भेजा गया है। इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने विभिन्न निहारिकाओं में तारों की घूर्णन गति का अध्ययन किया। न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण नियम के मुताबिक किसी भी निहारिका की परिधि का घूर्णन उसके मध्य भाग की अपेक्षा धीमा होना चाहिए। मगर 1960 के दशक में देखा गया था कि आकाशगंगा (वह निहारिका जिसमें हमारा सौर मंडल स्थित है) के किनारों पर स्थित तारों की गति काफी अधिक है। इसके आधार पर अनुमान लगाया गया था कि आकाशगंगा के आसपास डार्क मैटर का आवरण है जो इन तारों को तेज़ गति करवा रहा है।

टाइली व उनके साथियों ने आकाशगंगा से विभिन्न दूरियों पर स्थित निहारिकाओं के किनारों की घूर्णन गति के आंकड़ों को देखा तो पाया कि दूरस्थ निहारिकाओं और आकाशगंगा के पास की निहारिकाओं में तेज़ी से गति करते तारों के आधार पर तो लगता है कि नवीन निहारिकाओं और प्रारंभिक निहारिकाओं के आसपास डार्क मैटर लगभग एक-सी मात्रा में है। ऐसा माना जाता है कि दूरस्थ निहारिकाएं प्रारंभिक हैं जबकि हमारे आसपास की निहारिकाएं ज़्यादा हाल की हैं।

इन दो अध्ययनों के परिणामों में अंतर के कई कारण हैं और खगोल शास्त्री इन्हीं पर विचार कर रहे हैं। (स्रोत फीचर्स)

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क्या असमय मृत्यु की शिकार होगी आकाशगंगा?

हाल ही में रॉयल एस्ट्रॉनॉमिकल सोसायटी के जर्नल मंथली नोटिसेस में प्रकाशित एक शोध पत्र में दावा किया गया है कि हमारी निहारिका उर्फ आकाशगंगा अपने एक पड़ोसी के साथ टकराव के रास्ते पर चल रही है। यह पड़ोसी तारों का एक समूह है जिसे लार्ज मेजेलिनिक क्लाउड (एल.एम.सी.) कहते हैं।

गौरतलब है कि खगोल शास्त्रियों को पहले से ही अंदेशा रहा है कि हमारी आकाशगंगा और निकटतम पड़ोसी एंड्रोमिडा निहारिका के बीच टक्कर होकर रहेगी। नए अध्ययन ने चेतावनी दी है कि इससे पहले एलएमसी से टक्कर हो सकती है। डरहैम विश्वविद्यालय के खगोल शास्त्रियों की एक टीम ने इस टक्कर की काफी विस्तृत और भयानक तस्वीर खींची है। मैरियस कौटन के नेतृत्व में काम कर रही टीम का अनुमान है कि यह घटना एंड्रोमिडा टक्कर से 2-3 अरब साल पहले हो सकती है।

एलएमसी का द्रव्यमान आकाशगंगा की तुलना में बीसवां भाग ही है और शोधकर्ताओं का मत है कि इस टक्कर में एलएमसी का तो अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा किंतु हमारी आकाशगंगा भी अछूती नहीं रहेगी। आकाशगंगा का भी बुरा हाल होगा।

निहारिकाओं की टक्करें अंतरिक्ष में कोई अनहोनी बात नहीं है और वैज्ञानिक इनके मॉडल तैयार करने में काफी निपुण हो चुके हैं। सुपरकंप्यूटर पर ऐसी टक्करों का विश्लेषण करके डरहैम की टीम ने आकाशगंगा-एलएमसी की टक्कर के विभिन्न मॉडल तैयार किए हैं। तो इस टक्कर के संभावित परिणाम क्या होंगे?

सबसे पहला तो यह होगा कि एलएमसी हमारी आकाशगंगा में ढेर सारी गैस और असंख्य तारे में प्रविष्ट करा देगी। और ये सब आकाशगंगा के केंद्र में स्थित ब्लैक होल में समा जाएंगे। कौटन के मुताबिक संभवत: इसकी वजह से यह ब्लैक होल वर्तमान से 8 गुना बड़ा हो जाएगा। यह भी संभव है कि वह क्वासर में तबदील हो जाए। एक परिणाम यह भी हो सकता है कि यह बड़ा ब्लैक होल अपने आसपास के और तारों को निगल जाए। कुछ अन्य तारे शायद निहारिका छोड़कर खुले अंतरिक्ष में निकल जाएं।

अच्छी बात यह है कि यह टक्कर आज से 2 अरब साल बाद होने की संभावना है। और उससे भी अच्छी बात है कि उस समय हमारे जो भी वंशज रहेंगे उनके लिए चिंता की कोई बात नहीं है क्योंकि हमारे सौर मंडल वाले इलाके में इसका कोई खास असर नहीं होगा। उन्हें तो बस एक दर्शनीय नज़ारे का आनंद मिलेगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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चीनी यान चांद के दूरस्थ हिस्से पर उतरा

ह एक रोचक तथ्य है कि चांद का एक ही हिस्सा हमेशा पृथ्वी की ओर रहता है। दूसरे वाले हिस्से पर आज तक कोई अंतरिक्ष यान नहीं उतरा है। इसे हम सिर्फ चांद की परिक्रमा करते उपग्रहों के ज़रिए ही देख पाए हैं मगर अब चीनी राष्ट्रीय अंतरिक्ष प्रशासन (सीएनएसए) का यान चांग-4 चांद के उस हिस्से पर उतर चुका है।

7 दिसंबर को प्रक्षेपित चांग-4 यान के साथ-साथ एक और यान छोड़ा गया था जो चांद की परिक्रमा करता रहेगा। पृथ्वी से चांग-4 का संपर्क इसी परिक्रमा करते यान के ज़रिए होगा क्योंकि चांद का वह हिस्सा कभी पृथ्वी से मुखातिब नहीं होता। वास्तव में चांग-4 को चांद की धरती पर अवतरण स्वचालित ढंग से करना पड़ा था क्योंकि वहां उसे निर्देशित करने के लिए पृथ्वी से संदेश भेजना असंभव था। बहरहाल, चांग-4 ने 3 जनवरी के दिन चांद के एक विशाल गड्ढे में सफलतापूर्वक लैंडिंग किया। इस गड्ढे का नाम साउथ पोल-ऐटकिन घाटी है।

यह गड्ढा महत्वपूर्ण माना जाता है क्योंकि चांद के निर्माण के शुरुआती वर्षों में यहां एक विशाल उल्का टकराई थी। संभावना यह है कि उस टक्कर के कारण चांद की गहराई में से कुछ चट्टानें सतह पर उभर आई होंगी। चांग-4 इन चट्टानों का अध्ययन कर सकेगा जिसकी मदद से चांद के अतीत का खुलासा करने में मदद मिलेगी।

इस मिशन का एक उद्देश्य भविष्य की चांद-यात्राओं के लिए धरातल तैयार करना भी है। शोधकर्ताओं की योजना है कि चांद की दूरस्थ सतह पर रेडियो दूरबीन स्थापित की जाए। इसका फाय़दा यह होगा कि उस दूरबीन को पृथ्वी से उत्पन्न होने वाले रेडियो तरंग प्रदूषण का सामना नहीं करना पड़ेगा।

चांग-4 पर एक जैव-मंडल भी सवार है। इसमें आलू के बीज, पत्ता गोभी सरीखा एक पौधा और रेशम के कीड़े की इल्लियां शामिल हैं। शोधकर्ता यह देखना चाहते हैं कि क्या ये जीव चांद पर एक सीलबंद डिब्बे में जीवित रह पाएंगे। (स्रोत फीचर्स)

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भटकती परमाणु घड़ी से आइंस्टाइन के सिद्धांत की पुष्टि

हाल ही में भौतिकीविदों की दो टीमों को अल्बर्ट आइंस्टाइन के गुरुत्वाकर्षण और सापेक्षता के सामान्य सिद्धांत की पुष्टि करने के लिए एक अनोखा अवसर मिला। उन्होंने कक्षा से भटके हुए उपग्रहों के डैटा का उपयोग किया जिससे इस सिद्धांत की पुष्टि की जा सके कि पृथ्वी जैसे भारी पिंड के करीब समय की गति धीमी हो जाती है और दूर जाने पर तेज़ हो जाती है।

आइंस्टाइन के अनुसार, विशाल पिंड स्थान-काल में विकृति पैदा करते हैं जिसकी वजह से गुरुत्वाकर्षण पैदा होता है। मुक्त गिर रही वस्तुएं इस वक्राकार स्थान-काल में सबसे सीधे संभव रास्ते पर चलती हैं, जो हमें एक फेंकी हुई गेंद या किसी उपग्रह के गोलाकार या अंडाकार पथ के रूप में दिखाई देती हैं। इस विकृति के चलते किसी विशाल पिंड के पास तो समय की गति कम हो जाती है और दूर जाते-जाते अधिक होने लगती है। इस विचित्र प्रभाव की पुष्टि पहली बार 1959 में पृथ्वी पर एक कम सटीकता वाले प्रयोग से की गई थी और इसके बाद 1976 में ग्रेविटी प्रोब-ए द्वारा इसकी एक और बार पुष्टि की गई। इसमें 2 घंटे का प्रयोग किया गया था जिसमें एक परमाणु घड़ी रॉकेट पर थी और उसकी तुलना धरती पर रखी एक परमाणु घड़ी से की गई थी।

वर्ष 2014 में, वैज्ञानिकों को इस प्रभाव का परीक्षण करने का एक और मौका मिला। युरोप के गैलीलियो ग्लोबल नेविगेशन सिस्टम में 26 उपग्रहों में से दो उपग्रहों का अवलोकन किया गया। ये दोनों उपग्रह गलती से वृत्ताकार कक्षाओं की बजाय अंडाकार कक्षाओं में लॉन्च कर दिए गए थे। ये उपग्रह 13 घंटे की परिक्रमा में 8500 किलोमीटर ऊपर-नीचे होते हैं, जिससे इनका समय धीमा-तेज़ होता रहता है। प्रत्येक परिक्रमण के दौरान 10 अरब में लगभग एक अंश का अंतर पड़ता है। फिज़िकल रिव्यू लेटर्स में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार दो टीमों ने इन अंतरों को ट्रैक किया और पहले की तुलना में 5 गुना ज़्यादा सटीकता से दर्शाया कि समय की गति में यह अंतर सामान्य सापेक्षता की भविष्यवाणियों के अनुरूप है।

ये परिणाम बुरे नहीं हैं क्योंकि ये दोनों उपग्रह इस तरह के परीक्षण के लिए भेजे ही नहीं गए थे। अलबत्ता, 2020 में अंतरिक्ष स्टेशन के लिए एक उपग्रह भेजा जाने वाला है जिसका उद्देश्य ही समय की गति में इन अंतरों को पांच गुना और अधिक सटीकता से नापना है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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इंसान-मशीन के एकीकरण और अंतरिक्ष का साल – चक्रेश जैन

विज्ञान की प्रतिष्ठित और लोकप्रिय पत्र-पत्रिकाओं पर नज़र डालने से पता चलता है कि वर्ष 2018 विज्ञान जगत में नई उपलब्धियों का साल रहा। ब्राहृांड के रहस्यों को बेहतर और वैज्ञानिक तरीके से समझने के प्रयास चलते रहे। अंतरिक्ष में जीवन की संभावनाओं का पता लगाने की कोशिशों का और अधिक विस्तार हुआ। इनमें चंद्रमा और मंगल ग्रह का ज़िक्र विशेष रूप से किया जा सकता है। जीन सम्पादन प्रौद्योगिकी में नए प्रयोगों और सफलताओं के दावों से संकेत मिला कि वैज्ञानिक बिरादरी ईश्वर की भूमिका में हस्तक्षेप करने की दहलीज़ तक पहुंच चुकी है। वनस्पतियों और जीव-जंतुओं की नई-नई प्रजातियों का पता चला। मनुष्य और मशीन के एकीकरण के विस्तार की झलक दिखाई दी। अब हम उस दौर तक पहुंच चुके हैं, जहां से हाइब्रिड युग आरंभ होता है। साइबोर्ग महिला और पुरुष दोनों का आगमन हो चुका है। साइबोर्ग का अर्थ है मशीन और मनुष्य का संकर।

विदा हो चुके वर्ष 2018 में विश्व भर में कृत्रिम मेधा यानी आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस का बोलबाला रहा। इसकी शुरुआत 1950 के दशक में हुई थी। इस बारे में सबसे पहले कंप्यूटर वैज्ञानिक जॉन मेकार्थी ने बताया था। वास्तव में कृत्रिम मेधा से मेधावी कंप्यूटर और कंप्यूटर नियंत्रित रोबोट बनाए जा रहे हैं। कृत्रिम मेधा ने एक लंबा सफर तय किया है। स्मार्ट फोन, मेधावी गैजेट्स, ड्रोन, रोबोट आदि इंटेलीजेंट मशीनों के कुछ उदाहरण हैं जो रोज़मर्रा के जीवन में पैठ बना चुके हैं। सच तो यह है कि आने वाले वर्षों में जीवन का हर क्षेत्र कृत्रिम मेधा की ताकत से बड़े पैमाने पर प्रभावित होने वाला है।

इसी वर्ष ब्रिटेन में संसदीय शिक्षा समिति की बैठक में पेपर रोबोट पेश किया गया, जिसने सांसदों के विभिन्न सवालों के उत्तर दिए। वर्ष 2018 में नेतानुमा धुआंधार भाषण देने वाले रोबोट के निर्माण के प्रयास जारी रहे।

गुज़रे साल जापान के वैज्ञानिकों ने अंतरिक्ष में एक स्पेस एलिवेटर भेजने का विलक्षण प्रयोग किया। यह दुनिया का प्रथम और बेहद शुरुआती प्रयोग है। इस तरह का विचार 1895 में रूस के वैज्ञानिक कांस्टान्टिन तासिलकोव्स्की के मन में पेरिस में ऑइफल टॉवर देखने के बाद आया था। लेकिन यह विचार साकार नहीं हो सका था। लगभग एक सदी बाद आर्थर सी. क्लार्क ने इस विचार को दोहराया था। अब स्पेस एलिवेटर विज्ञान गल्प या कोरी कल्पना नहीं रह गया है।

इस वर्ष अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा की आंख कही जाने वाली केप्लर अंतरिक्ष दूरबीन रिटायर हो गई। इसने नौ वर्षों के दौरान 3600 से ज़्यादा एक्सोप्लेनेट्स यानी हमारे सौर मंडल से बाहर के ग्रहों की खोज की। इनमें से कुछ पर जीवन की संभावना व्यक्त की गई है।

12 अगस्त को नासा ने सूर्य और उसके वायुमंडल के रहस्यों पर से पर्दा हटाने के लिए डेल्टा-4 रॉकेट से पार्कर सोलर प्रोब भेजा। इस यान का नाम विख्यात भौतिकीविद् यूजीन पार्कर के नाम पर रखा गया है। यह मिशन सूर्य के वायुमंडल कहे जाने वाले आभामंडल यानी करोना का व्यापक अध्ययन करेगा। वास्तव में करोना प्लाज़्मा से बना होता है। करोना के बारे में हमारी जानकारी बहुत कम है। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन इसरो ने भी 2019-2020 के दौरान सौर मिशन आदित्य-एल-1 लांच करने की योजना बनाई है। इसका उद्देश्य सूर्य के बारे में हमारी वैज्ञानिक समझ को बढ़ाना है।

विदा हो चुके साल में नासा की बड़ी सफलताओं में एक और अध्याय नवंबर में जुड़ गया, जब इनसाइट यान लगभग पचास करोड़ किलोमीटर की यात्रा पूरी कर मंगल ग्रह पर उतरा। इनसाइट से मिली जानकारी चंद्रमा और मंगल पर मानव भेजने के अभियानों में अहम भूमिका निभाएगी।

17 जुलाई को अंतर्राष्ट्रीय खगोल संघ ने बृहस्पति के दस नए उपग्रहों की खोज की घोषणा की। अब इन उपग्रहों की कुल संख्या 79 हो गई है। सौर मंडल के सबसे बड़े ग्रह बृहस्पति के उपग्रहों की संख्या भी सबसे ज़्यादा है।

आठ दिसंबर को चीन ने अपने चंद्र मिशन कार्यक्रम के अंतर्गत चंद्रमा की अंधेरी सतह का अध्ययन करने के लिए चांग-ई-4 यान सफलतापूर्वक भेजा। इस मिशन का उद्देश्य चंद्रमा की उत्पत्ति के रहस्यों पर शोध करना है। जीव वैज्ञानिक अनुसंधानों के लिए आलू और रेशम के कीड़ों के अंडाणु भी भेजे गए हैं। इस वर्ष दिसंबर में नासा का अंतरतारकीय यान वोयेजर-2 सफलतापूर्वक सौर मंडल से बाहर निकल गया। वोयेजर-1 छह वर्ष पहले ऐसा कर चुका है। दरअसल, दोनों ही मानव रहित यान हैं, जिन्हें सौर मंडल और उसके बाहर के ग्रहों का पता लगाने के लिए भेजा गया है। वोयेजर-2 को 41 वर्ष पूर्व प्रक्षेपित किया गया था।

नवंबर के अंतिम सप्ताह में हांगकांग में जीन सम्पादन प्रौद्योगिकी क्रिस्पर कास-9 पर आयोजित अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में चीनी वैज्ञानिक ही जियानकुई ने क्रिस्पर तकनीक से तैयार किए गए मानव भ्रूणों से दो शिशुओं के पैदा होने की घोषणा की। जीन सम्पादन प्रौद्योगिकी ने जीन्स में फेरबदल कर डिज़ाइनर शिशु पैदा करने का मार्ग प्रशस्त किया है। अधिकांश वैज्ञानिकों ने इस प्रयोग की आलोचना करते हुए इसे जैव नैतिकी का उल्लंघन बताया है। दुनिया के कुछ देशों में जीन सम्पादन प्रौद्योगिकी पर प्रतिबंध है। इसी वर्ष चाइनीज़ एकेडमी ऑफ साइंसेज़ और अमेरिका के पडर्यू विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों ने क्रिस्पर तकनीक से चावल की अधिक पैदावार वाली किस्म विकसित की।

विज्ञान शोध पत्रिका नेचर में प्रकाशित एक रिपोर्ट के अनुसार जर्मनी के वैज्ञानिकों ने बैबून (बंदर की प्रजाति) के शरीर में सूअर का दिल सफलतापूर्वक लगा दिया है। बैबून छह महीने से अधिक समय तक जीवित रहा। प्रत्यारोपण के लिए सूअर के जीन में परिवर्तन किया गया था। अपनी तरह के इस पहले प्रयोग से भविष्य में मनुष्य को नया जीवन प्रदान करने का मार्ग प्रशस्त हुआ है।

खगोल विज्ञान के अध्येताओं ने विशेष प्रकार के कैमरे से एक मंदाकिनी 1052-डीएफ-2 की खोज की, जिसमें डार्क मैटर अर्थात अदृश्य द्रव्य नहीं है। वास्तव में डार्क मेटर एक रहस्यपूर्ण पदार्थ है, जिसका द्रव्यमान है, लेकिन वह दिखाई नहीं देता।

इसी साल भौतिकीविदों ने हिग्स बोसान की खोज के छह वर्षों बाद बताया कि इनका क्षय होता है। सर्न प्रयोगशाला के वैज्ञानिकों ने 2012 में इन कणों के अस्तित्व का पता लगाया था।

अमेरिकी अध्ययनकर्ताओं की एक टीम को समुद्री घोंघे में याददाश्त स्थानांतरण में सफलता मिली। वैज्ञानिकों का कहना है कि आरएनए अणु के ज़रिए याददाश्त को एक जीव से दूसरे जीव में स्थानांतरित किया गया था। बीते साल ऑस्ट्रेलिया के शोधकर्ताओं ने मनुष्य की कोशिकाओं में एक नई आकृति के डीएनए अणु की खोज की, जिसे आई-मेटिफ नाम दिया है। वस्तुत: यह चार लड़ियों की गांठ जैसी संरचना है। आई-मेटिफ डीएनए अणु जीन्स के नियंत्रण में अहम भूमिका निभाता है।

विदा हो रहे वर्ष में ईरान ने इस्राइल पर बादलों को चुराने का आरोप लगाया। ईरान में हो रहे जलवायु परिवर्तन को देखते हुए इस्राइल संदेह के दायरे में आ गया। ईरान के अनुसंधानकर्ताओं ने एक विश्लेषण का हवाला देते हुए कहा कि इस्राइल की कोशिश है कि ईरान के आसमान में बादल तो छाएं, लेकिन बारिश न हो। ऐसा पहले हो चुका है। बीते वर्षों में मौसम विज्ञानी बादलों को कैद करने और कृत्रिम बादल बनाने के प्रयोग करते रहे हैं। एक बात और। मौसम को हथियार की तरह इस्तेमाल करने की दिशा में कई देश लंबे समय से अनुसंधानों में लगे हुए हैं।

नवंबर के दूसरे पखवाड़े में फ्रांस के वरसेलीज़ में साठ देशों के वैज्ञानिकों ने किलोग्राम की परिभाषा बदलने का निर्णय किया। 129 वर्षों बाद किया गया यह परिवर्तन ऐतिहासिक कहा जा सकता है। भविष्य में मानक वज़न की बजाय विद्युत धारा से किलोग्राम नापा जाएगा। नए मापन से नैनो तकनीक और औषधियों के विकास में सटीकता और परिशुद्धता प्राप्त की जा सकेगी।

इस वर्ष परखनली शिशु तकनीक के चार दशक पूरे हुए। विश्व की पहली परखनली शिशु लुईस ब्राउन है। इन चार दशकों में लगभग साठ लाख परखनली शिशु पैदा हो चुके हैं।

वर्ष 2018 में विज्ञान कथाओं पर लिखी किताब फ्रैंकेस्टाइन: ऑर दी मॉडर्न प्रोमेथियस के प्रकाशन के दो सौ साल पूरे हुए। इस किताब का प्रकाशन पहली बार 1818 में हुआ था। इसे पहली विज्ञान कथा पुस्तक का सम्मान मिला है। इसी वर्ष इंडोनेशिया में एशियाई खेल हुए, जहां विज्ञान और अत्याधुनिक प्रौद्योगिकी का जलवा दिखाई दिया। खिलाड़ियों ने विज्ञान की मदद से नए कीर्तिमान रचे।

वर्ष 2018 का भौतिक विज्ञान का नोबेल पुरस्कार आर्थर एस्किन, गेरार्ड मोरो और डोना स्ट्रिकलैंड को संयुक्त रूप से प्रदान किया गया। तीनों अनुसंधानकर्ताओं को लेज़र रिसर्च में योगदान के लिए यह प्रतिष्ठित सम्मान मिला। रसायन विज्ञान का नोबेल सम्मान फ्रांसेस अर्नाल्ड, ग्रेगरी विंटर और जॉर्ज स्मिथ को संयुक्त रूप से दिया गया। तीनों अध्येताओं को परखनली में रसायनों के क्रमिक विकास में शोधकार्य के लिए पुरस्कृत किया गया। चिकित्सा विज्ञान का नोबेल पुरस्कार अमेरिका के जेम्स पी. एलिसन और जापान के तासुकु होन्जो को प्रदान किया गया। दोनों अध्येताओं ने कैंसर के खिलाफ शरीर को सक्षम बनाने वाली चिकित्सा की खोज में विशेष योगदान किया है। इस साल का अर्थशास्त्र का नोबेल विलियम नॉर्डहॉस और पॉल रोमर को जलवायु परिवर्तन को आर्थिक विकास के साथ एकीकृत करने के लिए प्रदान किया गया। वर्ष 2018 का गणित का प्रतिष्ठित एबेल पुरस्कार रॉबर्ट पी. लैंगलैंड्स को प्रदान किया गया।

14 मार्च को महान वैज्ञानिक स्टीफन हॉकिंग का निधन हो गया। वे नर्वस सिस्टम की एक दुर्लभ बीमारी से पीड़ित थे। उन्होंने ब्लैक होल्स और सापेक्षता जैसे अहम वैज्ञानिक मुद्दों पर अपनी सोच प्रस्तुत की। उनकी मौलिक सोच ने ब्राहृांड में नई संभावनाओं का मार्ग प्रशस्त किया। स्टीफन हॉकिंग की पुस्तक ए ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ टाइम 1988 में प्रकाशित हुई थी। स्टीफन हॉकिंग ने पृथ्वी पर जलवायु परिवर्तन के मंडराते खतरों को देखते हुए अंतरिक्ष में जीवन की नई संभावनाओं को तलाशने की बात कही थी।

3 अक्टूबर को गॉड पार्टिकल के जनक लियो लेडरमैन का निधन हो गया। उन्हें 1988 में भौतिक शास्त्र का नोबेल पुरस्कार मिला था। लियो लेडरमेन फर्मी लैब के निदेशक पद पर भी आसीन रहे। 26 मई को चंद्रमा पर पहुंचने वाले चौथे अंतरिक्ष यात्री एलन बीन की 86 वर्ष की आयु में मृत्यु हो गई। एलन बीन अंतरिक्ष यात्री होने के साथ चित्रकार भी थे। उन्होंने अपने अंतरिक्ष यात्रा के अनुभवों को चित्रों के माध्यम से व्यक्त किया है। उनकी पुस्तक माई लाइफ एज़ एन एस्ट्रोनॉट उल्लेखनीय है।

गुज़रे साल भारतीय विज्ञान अनेक क्षेत्रों में आगे बढ़ता रहा। अंतरिक्ष में शानदार सफलताएं हासिल कीं। इसरो ने अगस्त में गगन मिशन के अंतर्गत 2022 में अंतरिक्ष में मनुष्य को भेजने की घोषणा की। इसकी तैयारी 2004 में शुरू की गई थी। जुलाई में क्रू एस्केप सिस्टम का सफल परीक्षण किया गया। इस परीक्षण से हम समानव अंतरिक्ष यात्रा की दिशा में एक कदम और आगे बढ़ गए। अमेरिका, रूस और चीन के बाद भारत अंतरिक्ष में मानव भेजने वाला चौथा देश होगा।

वर्ष की शुरुआत में इसरो ने पीएसएलवी सी-40 प्रक्षेपण यान से एक साथ 31 उपग्रहों को अंतरिक्ष में स्थापित किया। इनमें भारत का सौवां उपग्रह कार्टोसैट-2 एफ भी शामिल था।

गत वर्ष में इसरो की उपलब्धियों में एक-के-बाद-एक सफलता के अध्याय जुड़ते रहे। 16 सितंबर को पीएसएलवी सी-42 प्रक्षेपण यान के ज़रिए ब्रिटेन के दो उपग्रहों को अंतरिक्ष में भेजा गया। भारत अभी तक 28 देशों के 237 उपग्रहों का प्रक्षेपण कर चुका है। 14 नवंबर को बाहुबली रॉकेट जीएसएलवी मार्क-3 डी-2 रॉकेट के ज़रिए संचार उपग्रह जीसैट-29 उपग्रह को अंतरिक्ष में विदाई दी गई। इसका निर्माण देश में ही किया गया है। यह अभी तक का सबसे भारी उपग्रह है। इस सफलता के साथ इसरो मानव अंतरिक्ष उड़ान के एक कदम और नज़दीक पहुंच गया। इस रॉकेट में स्वदेशी क्रॉयोजेनिक इंजन है।

इसी वर्ष इसरो ने 29 नवंबर को पीएसएलवी-सी-43 के माध्यम से आधुनिक भू-पर्यवेक्षण उपग्रह हाइसिस एवं तीस अन्य उपग्रहों को अंतरिक्ष में विदाई दी। हाइपर स्पेक्ट्रल इमेजिंग उपग्रह का उद्देश्य पृथ्वी की सतह का अध्ययन करना है। साल के उत्तरार्ध में फ्रेंच गुआना से देश के सबसे भारी संचार उपग्रह जीसैट-11 का सफल प्रक्षेपण किया गया। इस उपग्रह से इंटरनेट की रफ्तार बढ़ाने में सहायता मिलेगी। इसरो अगले वर्ष 3 जनवरी को चंद्रयान-2 भेजेगा, जो चंद्रमा के दक्षिणी ध्रुव पर पहुंचेगा।

इस वर्ष 27 अगस्त को पहली बार जैव-र्इंधन से विमान उड़ाकर भारत ने विमानन के क्षेत्र में नया इतिहास रचा। रतनजोत से बने इस र्इंधन का विकास सीएसआईआर के देहरादून स्थित भारतीय पेट्रोलियम संस्थान ने किया है। विमान ने 20 सवारियों के साथ देहरादून से दिल्ली के बीच 25 मिनट उड़ान भरी। विकासशील देशों में यह उपलब्धि हासिल करने वाला भारत पहला देश बन गया है।

इसी साल भौतिकी अनुसंधान प्रयोगशाला के वैज्ञानिकों के एक दल ने पहली बार में ही लगभग 600 प्रकाश वर्ष दूर सूर्य के समान तारे की परिक्रमा कर रहे एक बड़े बाह्र-ग्रह (एक्सोप्लेनेट) की खोज की। वास्तव में एक्सोप्लेनेट की खोज नई बात नहीं है। हाल के वर्षों में यह अनुसंधान का रोमांचक विषय रहा है। नासा का केप्लर उपग्रह पहले ही 3786 एक्सोप्लेनेट की खोज कर चुका है। इस खोज के साथ भारत उन देशों की पंक्ति में सम्मिलित हो गया है, जिन्होंने सौर मंडल से बाहर ग्रहों की खोज की है।

गुज़रे साल पृथ्वी के भूगर्भीय इतिहास में एक और नया युग मेघालयन जुड़ गया। इसका नाम भारत के पूर्वोत्तर राज्य मेघालय के नाम पर रखा गया है। मेघालयन युग 4200 वर्ष पूर्व शुरू हुआ था और अभी जारी है।

सीएसआईआर की राष्ट्रीय पर्यावरण अभियांत्रिकी अनुसंधान संस्थान (नीरी), नागपुर और केंद्रीय विद्युत रसायन अनुसंधान संस्थान, कराईकुड़ी प्रयोगशालाओं ने दीपावली पर आतिशबाज़ी से होने वाले प्रदूषण को घटाने के लिए ग्रीन पटाखे बनाने की तकनीक विकसित की। इनसे तीस प्रतिशत तक कम वायु प्रदूषण होता है।  

हमारे देश में कृत्रिम मेधा पर अनुसंधान शुरुआती दौर में है। इसके लिए सामाजिक ढांचा ज़रूरी है। हमारे जीवन पर इसका सकारात्मक और नकारात्मक दोनों प्रकार का प्रभाव पड़ेगा। एक ओर गंभीर बीमारियों के इलाज और खेती-किसानी सम्बंधी कार्यों में सहायता मिलेगी, वहीं दूसरी ओर, बेरोज़गारी की चुनौतियों का मुकाबला भी करना पड़ेगा।

26 सितंबर को सीएसआईआर ने वर्ष 2018 के शांतिस्वरूप भटनागर पुरस्कार के लिए 13 वैज्ञानिकों के नामों की घोषणा की। इनमें एकमात्र महिला वैज्ञानिक डॉ. अदिति सेन डे को भौतिक विज्ञान में पुरस्कृत किया गया है।

इस वर्ष 3 अक्टूबर को एक विशेष समारोह में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों को संयुक्त रूप से संयुक्त राष्ट्र के सर्वोच्च पर्यावरण पुरस्कार चैम्पियंस ऑफ दी अर्थ से सम्मानित किया गया। यह पुरस्कार पॉलिसी लीडरशिप के अंतर्गत प्रति वर्ष दिया जाता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को यह सम्मान पर्यावरण संरक्षण तथा जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणामों पर रोक लगाने के प्रयासों में सराहनीय नेतृत्व के लिए प्रदान किया गया।

केंद्र सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विभाग ने पहली बार विज्ञान के विभिन्न विषयों में पीएच.डी. और पोस्ट डॉक्टरल शोधकर्ताओं में लोकप्रिय विज्ञान लेखन के कौशल को बढ़ावा देने की एक परियोजना आगमेंटेड राइटिंग स्किल्स फॉर आर्टिक्युलेटिंग रिसर्च (संक्षेप में अवसर) शुरू की। इस राष्ट्रीय प्रतियोगिता का उद्देश्य अखबारों, पत्रिकाओं, ब्लॉग्स, सोशल मीडिया आदि माध्यमों से विज्ञान को लोकप्रिय बनाना और समाज में वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित करना है। प्रतियोगिता में चुने गए आलेखों को राष्ट्रीय विज्ञान दिवस पर पुरस्कृत किया जाएगा।

अक्टूबर में लखनऊ में चौथा भारतीय अंतर्राष्ट्रीय विज्ञान महोत्सव आयोजित किया गया, जिसमें नवाचारों और अनुसंधान कार्यों पर विचारों का आदान-प्रदान हुआ। चार-दिवसीय महोत्सव के दौरान साइंस एक्सपो में अंतरिक्ष विज्ञान और आर्टिफिशियल इंटेलीजेंस पर आधारित मॉडल ने दर्र्शकों को आकर्षित किया। विज्ञान महोत्सव में लगभग छह सौ विद्यार्थियों ने एक साथ केले का डीएनए अणु अलग करके एक नया इतिहास रचा। इसी प्रकार करीब साढ़े तीन हज़ार विद्यार्थियों ने प्राथमिक उपचार का डेमो देकर नया कीर्तिमान स्थापित किया। सम्मेलन में इंटरनेशनल साइंस लिटरेचर एंड फिल्म फेस्टिवल आयोजित किया गया, जिसमें विज्ञान फिल्मों और साइंस कार्टून शामिल किए गए।

गुज़रे साल संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन ने सिक्किम को जैविक राज्य के रूप में मान्यता देते हुए स्वर्ण पदक से सम्मानित किया। वर्ष 2016 में सिक्किम को पूरी तरह जैविक राज्य घोषित किया गया था। विदा हो चुके वर्ष 2018 में प्लास्टिक के खिलाफ महाअभियान जारी रहा। संयुक्त राष्ट्र की बीट प्लास्टिक पोल्यूशन थीम पर देश के विश्वविद्यालयों में प्लास्टिक के इस्तेमाल पर प्रतिबंध लगाया गया।

इसी वर्ष 14 सितंबर को सुप्रीम कोर्ट ने वरिष्ठ अंतरिक्ष वैज्ञानिक शंकरलिंगम नम्बी को गोपनीय जानकारियां बेचने के आरोपों से मुक्त कर दिया। उन पर 1994 में इसरो की गोपनीय सूचनाएं पाकिस्तान को बेचने के आरोप लगाए गए थे।

इसी साल केरल के कोझिकोड ज़िले में निपाह वायरस का प्रकोप दिखाई दिया। 1998 में पहली बार इस वायरस के हमले का पता चला था। निपाह वायरस को फैलाने में चमगादड़ों की अहम भूमिका रही है। निपाह वायरस का नामकरण मलेशिया के सुनगई निपाह गांव के नाम पर किया गया है।

नवंबर में देश की पहली परमाणु पनडुब्बी आईएनएस अरिहंत राष्ट्र को समर्पित की गई।

गुज़रे साल देश में मेट्रिक प्रणाली लागू होने की हीरक जयंती मनाई गई। मेट्रिक प्रणाली एक अप्रैल 1957 से लागू की गई है। इसी वर्ष विख्यात वैज्ञानिक सत्येंद्र नाथ बोस की 125 वीं जयंती मनाई गई। इस अवसर पर कोलकाता में आयोजित समारोह में मुख्य अतिथि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने क्षेत्रीय भाषाओं में विज्ञान प्रसार पर बल दिया। 29 जून को जाने-माने सांख्यिकीविद् प्रोफेसर महालनोबिस की 125 वीं जयंती मनाई गई।

इस वर्ष भारतीय गणित की विलक्षण प्रतिभा तथा शिक्षा शास्त्री पी. सी. वैद्य का जन्म शती वर्ष मनाया गया। 23 मार्च 1918 को जन्मे वैद्य ने सापेक्षता सिद्धांत के अनेक पक्षों पर अनुसंधान किया। उन्होंने गांधीवादी विचारों को अपनाते हुए पूरा जीवन गणित के अध्ययन और अनुसंधान को समर्पित कर दिया। वैद्य ने गुजरात गणित मंडल की स्थापना की। वे गुजरात विश्वविद्यालय के कुलपति भी रहे।

18 जून को विख्यात वनस्पति विज्ञानी और विज्ञान संचारक एच. वाई. मोहनराम नहीं रहे। उनका नाम देश के प्रथम पंक्ति के वनस्पतिविदों में गिना जाता है। उन्होंने वनस्पति शास्त्र की अनेक विधाओं में विशेष योगदान किया। प्रोफेसर मोहनराम ने ऊतक संवर्धन तकनीक से बांस, केला आदि आर्थिक महत्व की वनस्पतियों को पैदा करने की दिशा में शोधकार्य किया और अपनी विशिष्ट पहचान बनाई। उन्होंने विद्यार्थियों और सामान्य जन के बीच विज्ञान को लोकप्रिय बनाने में भी सक्रिय भूमिका निभाई।

प्रसिद्ध खगोल फोटोग्राफर और विज्ञान संचारक चंदर देवगन की 29 जुलाई को मृत्यु हो गई। उन्होंने अनेक ग्रहण अभियानों का कुशल नेतृत्व किया। वे सूर्य व चंद्र ग्रहण, बुध और शुक्र के पारगमन सहित कई दुर्लभ खगोलीय घटनाओं के साक्षी बने थे।

वर्ष 2018 में हमने पर्यावरणविद प्रोफेसर गुरुदास अग्रवाल को खो दिया। उन्होंने गंगा नदी प्रवाह को निरतंर बनाए रखने के लिए चार दशकों तक संघर्ष किया। पेशे से इंजीनियर प्रोफेसर अग्रवाल ने आईआईटी, कानपुर में अध्यापन किया। वे कई पर्यावरण आंदोलनों से जुड़े रहे। उन्हें गंगा नदी प्राधिकरण का अध्यक्ष नियुक्त किया गया था।

6 जुलाई को पर्यावरणविद, चित्रकार और लेखक अमृतलाल वेगड़ नहीं रहे। वे संवेदनशील चित्रकार थे। उन्होंने नर्मदा नदी पर तीन किताबें लिखीं – सौंदर्य की नदी नर्मदा, अमृतस्य नर्मदा और तीरे-तीरे नर्मदा। नर्मदा नदी से उनका जीवन पर्यंत विशेष लगाव रहा। उन्होंने नदियों को बचाने की चिंता की और अपनी अलग पहचान बनाई। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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