नन्हे ब्लैक होल भी संभव हैं

ब्लैक होल विशाल खगोलीय पिंड हैं जो आसपास की हर चीज़ को निगल जाते हैं। इनका गुरुत्वाकर्षण इतना अधिक होता है कि प्रकाश तक इससे बच नहीं सकता। ब्लैक होल मूलत: विशाल तारे ही थे जो विस्फोटक अंत के बाद ब्लैक होल में परिवर्तित हुए हैं, इसलिए इनके अध्ययन से ब्रह्मांड के कामकाज और तारों के जन्म और मृत्यु की गाथा तैयार करने में मदद मिलती है।

तारों के ऐसे विस्फोटक अंत और पतन के बाद दो अलग-अलग तरह के पिंड बन सकते हैं। यदि मूल तारा पर्याप्त विशाल था, तो विस्फोट के बाद वह ब्लैक होल बन जाता है, अन्यथा वह एक छोटे न्यूट्रॉन तारे में परिवर्तित हो जाता है।

ब्लैक होल जब अपने आसपास के तारों से पदार्थ चूसते हैं तब एक्स किरणों का उत्सर्जन होता है। इन्हीं एक्स किरणों की मदद से ब्लैक होल का पता चलता है। दूसरी ओर, दूर की निहारिकाओं में, दो ब्लैक होल के विलय या न्यूट्रॉन तारों की टक्कर से उत्पन्न होने वाली गुरुत्व तरंगें इनका सुराग देती हैं। 

शोधकर्ताओं के एक समूह ने सोचा कि क्या अपेक्षाकृत कम द्रव्यमान वाले ब्लैक होल भी हो सकते हैं जो लाक्षणिक एक्स-किरणों का उत्सर्जन नहीं करेंगे। एक संभावना यह है कि ऐसा कोई (फिलहाल काल्पनिक) ब्लैक होल किसी अन्य तारे के साथ बाइनरी तंत्र में मौजूद हो। इसमें वह दूसरे तारे से इतना दूर हो सकता है कि वह उसके पदार्थ को ज़्यादा न निगल सके। ये छोटे ब्लैक होल इतनी एक्स-किरणों का उत्सर्जन नहीं करेंगे जिन्हें देखा जा सके। तो ये खगोलविदों की नज़रों से अदृश्य रहेंगे।  

थॉमसन की टीम ने ऐसे संभावित ब्लैक होल की तलाश में बाइनरी सिस्टम के उस दूसरे पिंड में सबूत खोजने की कोशिश की है। शोधकर्ताओं ने एपोजी दूरबीन में उपलब्ध प्रकाश वर्णक्रम की जानकारी को खंगाला। यहां आकाशगंगा के 1 लाख से अधिक तारों द्वारा उत्सर्जित विभिन्न तरंग लंबाइयों के प्रकाश सम्बंधी जानकारी थी।   

इस सर्वेक्षण से प्राप्त जानकारी से प्रत्येक तारे के बदलते वर्णक्रम यानी उनसे निकलने वाले प्रकाश में बदलती तरंग लंबाइयों का पता चला। यदि शोधकर्ता वर्णक्रम में किसी भी प्रकार का बदलाव देखते यानी यदि उसकी तरंग लंबाइयां लाल या नीले रंग की ओर खिसकती दिखती तो इसका मतलब यह होता कि वह तारा एक अनदेखे साथी के साथ परिक्रमा कर रहा है।

इसके बाद, शोधकर्ताओं ने एक अन्य सर्वेक्षण आल-स्काई ऑटोमेटेड सर्वे फॉर सुपरनोवा की मदद से उन तारों की चमक में बदलाव को देखा जिनके बारे में संदेह था कि वे ब्लैक होल की परिक्रमा कर रहे हैं। उन्होंने उन तारों की खोज की जिनका प्रकाश लाल और नीले की ओर सरकने के साथ-साथ तेज़-मद्धिम भी हो रहा था।  

इस प्रकार शोधकर्ताओं ने पाया कि आकाशगंगा में 10,000 प्रकाश वर्ष दूर औरिगा तारामंडल के पास एक तारा है जो किसी एक विशाल अदृश्य पिंड के साथ गुरुत्वाकर्षण से बंधा लगता है। अनुमान है कि उस अदृश्य पिंड का द्रव्यमान सूर्य से 3.3 गुना अधिक होगा। यह एक न्यूट्रॉन तारे की तुलना में काफी बड़ा है लेकिन इतना भी बड़ा नहीं कि इसकी तुलना किसी ज्ञात ब्लैक होल से की जा सके। सबसे बड़े ज्ञात न्यूट्रॉन स्टार का द्रव्यमान सूर्य से 2.1 गुना ज़्यादा है जबकि सबसे छोटा ज्ञात ब्लैक सूर्य के मुकाबले 5-6 गुना वज़नी है।

ब्रह्मांड विज्ञानी डेजन स्टोकोविक का विचार है कि यह शायद कम द्रव्यमान का ब्लैक होल है। दूसरी ओर थॉमसन का विचार है कि यह संभवत: आज तक ज्ञात सबसे वज़नी न्यूट्रॉन स्टार है। इतना तो तय है कि यह एक आसाधारण तारा है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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ब्रह्माण्ड में कई सौर मंडल हैं – डॉ. विजय कुमार उपाध्याय

र्षों कुछ समय पूर्व हबल नामक अंतरिक्ष दूरबीन से ब्राहृांड में स्थित 15 नवनिर्मित तारों के चारों ओर घूमते हुए गैस तथा धूल कणों से निर्मित तश्तरियों के चित्र खींचे गए हैं। खगोल वैज्ञानिकों के अनुसार ये चित्र इस बात के स्पष्ट तथा सशक्त प्रमाण हैं कि हमारे सौर परिवार के बाहर भी ग्रहों का अस्तित्व है। सूर्य के अतिरिक्त अन्य तारों के चारों ओर ग्रहों के अस्तित्व की जानकारी मिलने से वैज्ञानिकों के इस अनुमान को भी सशक्त आधार प्राप्त होता है कि जीवन का अस्तित्व ब्रह्माण्ड में पृथ्वी के अतिरिक्त अन्य तारों के ग्रहों पर भी सम्भव है।

खगोलविदों के अनुसार हबल दूरबीन से प्राप्त चित्रों को देख कर सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है कि लगभग चार अरब वर्ष पूर्व सूय के इर्द-गिर्द ग्रहों का निर्माण किस प्रकार हुआ होगा। हबल से प्राप्त चित्र कुछ वैज्ञानिकों द्वारा ग्रहों की उत्पत्ति के सम्बंध में प्रस्तुत परिकल्पनाओं की पुष्टि करते हैं। ये चित्र इस बात का संकेत देते हैं कि किसी नवजात तारे के चारों ओर मौजूद धूल कण इतनी तेज़ी से घूमते रहते हैं कि नवजात तारे का आकर्षण उन्हें अपनी ओर खींच नहीं पाता है। इसकी बजाय वे नवजात तारे के चारों ओर तश्तरी की आकृति में फैलते जाते हैं। यही कण समय के साथ विभिन्न ग्रहों के रूप में परिणित होकर उस नवजात तारे का चक्कर लगाने लगते हैं।

उपरोक्त तथ्य का पता ह्रूस्टन स्थित राइस विश्वविद्यालय के खगोल वैज्ञानिक रॉबर्ट ओ’डेल द्वारा लगाया गया तथा प्राप्त इसकी घोषणा नासा द्वारा की गई। रॉबर्ट ओ’डेल ने उपरोक्त तथ्य का पता हबल द्वारा प्राप्त ओरायन नेबुला के चित्रों के अध्ययन के आधार पर लगाया। हमसे लगभग 1500 प्रकाश वर्ष की दूरी पर स्थित यह नेबुला हमारे सौर मंडल का निकटतम पड़ोसी है। इन चित्रों से पता चलता है कि धूल कणों से निर्मित उपरोक्त तश्तरियां लगभग 15 नवजात तारों के चारों ओर उपस्थित हैं। इनमें से प्रत्येक नवजात तारा दस लाख वर्ष से कम उम्र का है। इन तारों के चारों ओर उपस्थित धूल कणों का आकार बालू के कणों के समान है। इन तश्तरियों में से कुछ तो इतनी चमकदार हैं कि उन्हें सीधे देखा जा सकता है। इन तश्तरियों के चित्रों के अध्ययन से पता चलता है कि उपरोक्त 15 नवजात तारों के चारों ओर अभी ग्रणों का निर्माण प्रारम्भ नहीं हुआ है परन्तु ग्रह निर्माण की परिस्थितियां तैयार हो रही हैं। तश्तरियों की आकृति वाले उपरोक्त सभी नेबुला हमारे सौर मंडल से अधिक मोटे तथा इससे बड़े व्यास वाले हैं। ओ’डेल का विचार है कि उपरोक्त सभी नेबुला में धूल कणों की मात्रा इतनी है कि उनसे हमारे सौर मंडल के ग्रहों के समान ग्रह बन सकते हैं।

ओरायन तारामंडल के अध्ययन से पता चलता है कि इसमें लगभग 40 प्रतिशत तारे ऐसे हैं जिनके इर्द-गिर्द तश्तरी के रूप में बिखरे धूल कण एवं गैस के बादल मौजूद हैं। एमहर्स्ट स्थित मैसाचुसेट्स विश्वविद्यालय के खगोलविद स्टीफेन ई. स्ट्रॉम के अनुसार, चूंकि यह एक सामान्य निहारिका है, अत: इसके अधिकांश तारों के इर्द-गिर्द धूल कणों का तश्तरी की आकृति में सजना एक सामान्य घटना है। ओ’डेल का विश्वास है कि ओरायन निहारिका के अधिकांश तारों के इर्द-गिर्द ग्रह निर्माण के लिए आवश्यक पदार्थ मौजूद है। अत: किसी दिन इनके चारों और उसी प्रकार ग्रहों का निर्माण होगा जिस प्रकार हमारे सौर मंडल में हुआ था।

विगत वर्षों में खगोल वैज्ञानिकों को ऐसे संकेत प्राप्त हुए हैं जिनसे पता चलता है कि ग्रह निर्माण सम्बंधी उनका सिद्धांत सही है जिसके अनुसार सौर मंडल के ग्रहों का निर्माण उन कणों के आपस में संगठित होने से हुआ है जो सूर्य के चारों ओर उपस्थित तश्तरीनुमा बादल में मौजूद थे। इस बादल में उपस्थित गैस एवं कण ग्रहीय घूर्णन के नियम के अनुसार भ्रमण करते थे। इस प्रकार की तश्तरियों की उपस्थिति के प्रमाण अभी तक सिर्फ चार तारों के इर्द-गिर्द पाए गए थे। ये चार तारे हैं- 1. बीटा पिक्टोरिस 2. अल्फा लाइरी 3. अल्फा पायसिस ऑस्ट्रीनी, तथा 4. एप्सिलॉन एरिजनी। ये तारे ओरायन निहारिका में देखे गए तारों से पुराने हैं। बीटा पिक्टोरिस के चारों ओर उपस्थित पदार्थ के कण गिट्टियों के आकार के हैं।

हालांकि समय-समय पर कई वैज्ञानिकों ने अन्य तारों के आसपास ग्रहों की उपस्थिति के सम्बंध में अटकलें लगाई हैं, परन्तु उनकी पुष्टि नहीं हो पाई थी। अपने सौर मंडल के अतिरिक्त सिर्फ एक ग्रह मंडल की उपस्थिति के सम्बंध में कुछ स्पष्ट प्रमाण मिले हैं। कुछ समय पूर्व कुछ रेडियो खगोलविदों ने घोषणा की थी कि एक नष्ट होते हुए तारे से उत्पन्न रेडियो तरंगों के विचलन के अध्ययन के आधार पर उस तारे के आसपास दो-तीन ग्रहों की उपस्थिति की पुष्टि होती है। ये ग्रह उपरोक्त नष्टप्राय तारे के अवशेष के चारों ओर चक्कर लगा रहे हैं। इस प्रकार के अवशिष्ट तारे को न्यूट्रॉन तारा या पल्सर कहा जाता है। यदि ये घूमते हुए पदार्थ सचमुच ग्रह हैं तो वैज्ञानिकों के अनुसार इन पर जीवन की उपस्थिति की संभावना बिलकुल नगण्य है।

हबल द्वारा लिए गए चित्रों से पता चलता है कि जिस आदिम बादल से तारे बन रहे हैं उसमें उच्च शक्ति वाले बड़े-बड़े बवंडर एवं भंवर मौजूद हैं। कुछ चित्रों से पता चलता है कि कणों की आंधी के कारण गैस पराध्वनि वेग से परों के गुच्छों की आकृति में खिंचा चला जा रहा है। निकट के गर्म तारे से प्राप्त विकिरण के कारण तारे की तश्तरी की सतह पर उपस्थित पदार्थ उबलने लगता है। परन्तु तश्तरी की सतह पर उठने वाली कणों की आंधी के कारण उबला हुआ पदार्थ पुन: धूमकेतु की पूंछ के समान वापस खिंच जाता है।

ग्रीष्म ऋतु में आकाश गंगा में एक हल्का नीला तारा दिखाई पड़ता है जिसका नाम है वेगा। यह तारा हमारी आकाश गंगा के दक्षिणी भाग में स्थित है। कुछ समय पूर्व किए गए अध्ययनों से कुछ महत्वपूर्ण तथ्य प्रकाश में आए हैं। इन्फ्रारेड खगोलीय उपग्रह द्वारा किए गए अध्ययनों से पता चला है कि वेगा के चारों ओर एक घेरा मौजूद है। खगोलविदों के अनुसार चट्टानों से निर्मित यह घेरा लगभग वैसा ही है जैसा हमारा सौर मंडल अपने विकास के प्रारम्भिक काल में था। कहने का तात्पर्य यह है कि वेगा के आसपास में उन क्रियाओं के संकेत मिले हैं जो हमारे सौर मंडल के आरम्भिक काल में आज से लगभग साढ़े चार अरब वर्ष पूर्व हुई थी। इन्हीं क्रियाओं के फलस्वरूप हमारे सौर मंडल का जन्म हुआ था। इन क्रियाओं का महत्व इसलिए और भी अधिक है क्योंकि ये एक ऐसे तारे में घटित हो रही हैं जो हमसे केवल 27 प्रकाश वर्ष की दूरी पर स्थित है।

अध्ययनों से पता चला है कि वेगा सूर्य से लगभग दुगना गर्म और लगभग 60 गुना अधिक प्रकाशमान है। यही कारण है कि खगोल शास्त्री इस तारे को एक मानक के रूप में लेते हैं। सन 1983 में पता चला कि वेगा सामान्य की अपेक्षा अधिक विकिरण उत्सर्जित करता है। शुरू-शुरू में वैज्ञानिकों ने समझा कि ये विकिरण वेगा के पीछे स्थित किसी निहारिका से आ रहे हैं। परंतु कुछ समय बाद अध्ययनों से मालूम हुआ कि वेगा एक घेरे में घिरा हुआ है। इस घेरे का तापमान 150 डिग्री सेल्सियस है और व्यास है 24 अरब किलोमीटर है। हमारे सौर मंडल का व्यास सिर्फ 12 अरब किलोमीटर है। अपने आसपास के धूल कणों को वेगा ने काफी पहले ही अपनी ओर आकर्षित कर लिया था। खगोलविदों द्वारा लगाए गए अनुमान के अनुसार वेगा की आयु अधिक से अधिक एक अरब वर्ष होनी चाहिए। अर्थात् वह एक नया तारा है। इसी कारण खगोलविद मानते हैं कि वेगा के चारों ओर का घेरा एक ग्रहीय प्रणाली है जो अभी विकास के प्रथम चरण में है। संसार भर के खगोल विज्ञानी ब्रह्माण्ड के अध्ययन में निरन्तर लगे हुए हैं। आशा है कि इन अध्ययनों के आधार पर ब्रह्माण्ड के विभिन्न क्षेत्रों में ऐसे तारों का पता लगाया जाएगा जिनके सूर्य के समान ही अपने-अपने ग्रहमंडल मौजूद हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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सबसे ज्यादा चांद बृहस्पति नहीं शनि के पास हैं – प्रदीप

हाल ही में खगोल विज्ञानियों ने हमारे सौर मंडल में शनि ग्रह के इर्द-गिर्द चक्कर लगाते 20 नए चंद्रमाओं (प्राकृतिक उपग्रहों) की खोज की है। इन नए चंद्रमाओं को मिलाकर अब शनि के पास कुल 82 चांद हो गए हैं। इसके पहले तक सबसे ज़्यादा 79 चांद होने का तमगा सौर मंडल के सबसे बड़े ग्रह बृहस्पति के पास था। अब नए चंद्रमाओं के साथ शनि ने प्राकृतिक उपग्रहों के मामले में बृहस्पति से बाज़ी मार ली है। और इसी के साथ हमारे सौरमंडल में विभिन्न ग्रहों के चंद्रमाओं की कुल संख्या 210 हो गई है।

अमेरिका के कार्नेगी इंस्टीट्यूट ऑफ साइंसेज़ के अंतरिक्ष विज्ञानी स्कॉट एस. शेफर्ड के नेतृत्व में खगोल विज्ञानियों की एक टीम ने शनि के नए उपग्रहों की खोज हवाई द्वीप में स्थित सुबारू टेलीस्कोप की मदद से की है। शनि के चारों ओर चक्कर लगाने वाले इन नए चंद्रमाओं का व्यास तकरीबन 5-5 किलोमीटर है। इनमें से तीन चांद शनि की परिक्रमा उसी दिशा में कर रहे हैं जिस दिशा में शनि स्वयं अपने अक्ष पर घूर्णन करता है। इसे प्रोग्रेड परिक्रमा कहते हैं। अन्य 17 चांद उसकी विपरीत दिशा में (रेट्रोग्रेड) चक्कर लगा रहे हैं। शोधकर्ताओं के मुताबिक तीन चांद जो शनि की दिशा में ही उसकी परिक्रमा कर रहे हैं, उनमें से दो चांद तीसरे की तुलना में इस ग्रह के नजदीक हैं। इन दो चंद्रमाओं को शनि की परिक्रमा करने में दो साल का समय लगता है, जबकि तीसरे को बहुत ज़्यादा दूर होने की वजह से तीन साल का समय लगता है। शनि की विपरीत दिशा में चक्कर लगा रहे बाकी 17 चंद्रमाओं को भी शनि की परिक्रमा पूरी करने में तीन-तीन साल का वक्त लगता है।  इस खोज का खुलासा इंटरनेशनल एस्ट्रॉनॉमिकल यूनियन के माइनर प्लैनेट सेंटर द्वारा किया गया है।

इस खोज के लिए साल 2004 से 2007 के बीच जटिल आंकड़ों के विश्लेषण के लिए सशक्त कंप्यूटर प्रणाली का उपयोग किया गया, जिसमें सुबारू टेलिस्कोप की भी सहायता ली गई। संभावित चंद्रमाओं की पहचान के लिए नए डैटा का पुराने डैटा के साथ मिलान किया गया और तब जाकर एस. शेफर्ड और उनकी टीम ने 20 नए चंद्रमाओं की कक्षाओं को सुनिश्चित करने में सफलता प्राप्त की।

एस. शेफर्ड के मुताबिक “यह पता करना बेहद मज़ेदार था कि शनि चांद की संख्या के मामले में सौर मंडल का सरताज बन गया है।” वे मज़ाकिया लहजे में कहते हैं कि “बृहस्पति एक मामले में खुद को सांत्वना दे सकता है कि उसके पास अभी भी सौर मंडल के सभी ग्रहों में सबसे बड़ा चांद है।” बृहस्पति ग्रह का चांद गैनिमेड आकार में तकरीबन पृथ्वी से आधा है। खगोल विज्ञानियों ने शनि का चक्कर लगाने वाले 5 किलोमीटर व्यास वाले और बृहस्पति का चक्कर लगाने वाले 1.6 किलोमीटर व्यास वाले छोटे चांदों का पता लगा लिया है। भविष्य में इनसे छोटे खगोलीय पिंडों के बारे में पता लगाने के लिए और बड़ी दूरबीनों की ज़रूरत होगी। वैज्ञानिक कह रहे हैं कि शनि के चारों ओर चक्कर लगाने वाले छोटे-छोटे चांदों की संख्या 100 से भी अधिक हो सकती है, जिनकी खोज अभी जारी है।

खोजे गए सभी चांद उन चीज़ों के अवशेष से निर्मित हैं जिनसे स्वयं ग्रहों का निर्माण हुआ था। ऐसे में इनका अध्ययन करने से खगोल विज्ञानियों को ग्रहों के निर्माण के बारे में नई जानकारियां मिल सकती हैं। शोधकर्ताओं के मुताबिक, हो सकता है कि ये छोटे-छोटे चांद किसी बड़े चांद के टूटने से बने हों। एस. शेफर्ड के मुताबिक, ये छोटे चांद अपने मुख्य चांद से टूट कर भी शनि की परिक्रमा करने में सक्षम हैं, जो कि बहुत महत्वपूर्ण बात है। शोधकर्ताओं ने अध्ययन से यह भी पता लगाया है कि शनि की उल्टी दिशा में परिक्रमा कर रहे चांद अपने अक्ष पर उतना ही झुके हुए हैं, जितना इनसे पहले खोजे गए चांद हैं। इससे इस संभावना को और बल मिलता है कि ये सभी चांद एक बड़े चांद के टूटने से बने हैं। शेफर्ड कहते हैं, इस तरह के बाहरी चंद्रमाओं का समूह बृहस्पति के आसपास भी दिखाई देता है। इससे लगता है कि इनका निर्माण शनि तंत्र में चंद्रमाओं के बीच या बाहरी चीज़ों (क्षुद्रग्रहों या धूमकेतुओं) के साथ टकराव के चलते हुआ होगा।

बहरहाल, कार्नेगी इंस्टीट्यूट ने इन नए चंद्रमाओं को नाम देने के लिए एक ऑनलाइन कॉन्टेस्ट (प्रतियोगिता) का आयोजन किया है। इनके नाम उनके वर्गीकरण के आधार पर तय किए जाने हैं। वैज्ञानिक यह भी जानने में लगे हैं कि क्या सौरमंडल से बाहर के किसी अन्य ग्रह के इर्द-गिर्द परिक्रमारत इससे भी अधिक चांद हैं। फिलहाल चांद के मामले में हमारे सौरमंडल का सरताज शनि ही है! (स्रोत फीचर्स)
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प्लेनेट नाइन एक ब्लैक होल हो सकता है! – प्रदीप

गोल विज्ञानियों को ऐसा लगता है कि हमारे सौरमंडल में नेप्च्यून से परे एक और ग्रह सूर्य की परिक्रमा कर रहा है। इस ग्रह को कोई भी देख नहीं पाया है इसलिए हाल ही में खगोल विज्ञानियों ने यह सुझाव दिया है कि यह बुध, शुक्र, पृथ्वी, मंगल वगैरह की तरह पारंपरिक ग्रह न हो कर शायद कुछ और हो! इससे पहले कुछ इसे प्लेनेट नाइन तो कुछ प्लेनेट एक्स कह रहे थे।

हाल ही में खगोल विज्ञानियों ने यह दावा किया है एक कारण यह भी हो सकता है कि इस नौवें ग्रह को अब तक की सबसे उन्नत दूरबीन से भी इसलिए नहीं देखा जा सका है, क्योंकि यह ग्रह न होकर एक ब्लैक होल है। दरअसल ब्लैक होल अत्यधिक घनत्व तथा द्रव्यमान वाले ऐसे पिंड होते हैं, जो आकार में तो बहुत छोटे होते हैं मगर इनके अंदर गुरुत्वाकर्षण बल इतना ज़्यादा होता है कि इनके चंगुल से प्रकाश की किरणों का भी बच निकलना नामुमकिन होता है। चूंकि यह प्रकाश की किरणों को भी अवशोषित कर लेता है, इसलिए यह हमारे लिए अदृश्य बना रहता है।

खगोल विज्ञानियों को एक अरसे से ऐसा लगता रहा है कि सौरमंडल के बिलकुल बाहरी किनारे पर, जहां से हमारी आकाशगंगा शुरू होती कही जा सकती है, एक ऐसा विशाल पिंड होना चाहिए, जिसका द्रव्यमान हमारी पृथ्वी से 5 से 10 गुना ज़्यादा है। उसे अभी देखा नहीं गया है, लेकिन खगोलीय गणनाएं यही इशारा करती हैं। वैज्ञानिकों का कहना है कि हमारे सौरमंडल की बाहरी सीमा से परे ऊर्ट-बादल से हो कर गुज़र रहे धूमकेतु (कॉमेट) जिस तरह सौरमंडल की सीमा के भीतर खिंच जाते हैं, उससे यही लगता है कि वहां हमारी पृथ्वी से भी शक्तिशाली कोई विशाल पिंड है। वह अपने गुरुत्वाकर्षण बल से इन धूमकेतुओं को अपने रास्ते से विचलित कर सकता है। एक डच वैज्ञानिक यान हेंड्रिक ऊर्ट ने 1950 में इस बादल के होने की संभावना जताई थी। हिसाब लगाया गया है कि यह बादल सौरमंडल की बाहरी सीमा से परे 1.6 प्रकाश वर्ष की दूरी तक फैला हुआ है।

इंग्लैंड के डरहम युनिवर्सिटी के जैकब शोल्ट्ज़ और शिकागो के इलिनॉय युनिवर्सिटी के जेम्स अनविन ने हाल ही में यह नया सिद्धांत प्रस्तावित किया है कि प्लेनेट नाइन या प्लेनेट एक्स एक आदिम ब्लैक होल है। सूर्य से लगभग 10 गुना अधिक द्रव्यमान वाले तारों का  हाइड्रोजन और हीलियम रूपी र्इंधन खत्म हो जाता है, तब उन्हें फैलाकर रखने वाली ऊर्जा भी खत्म जाती है और वे अत्यधिक गुरुत्वाकर्षण के कारण सिकुड़कर अत्यधिक सघन पिंड यानी ब्लैक होल बन जाते हैं। हम आम तौर पर ब्लैक होल शब्द का इस्तेमाल इन्हीं भारी-भरकम खगोलीय पिंडों के लिए करते हैं। मगर, आदिम ब्लैक होल के बारे में वैज्ञानिकों की मान्यता है कि इनका निर्माण ब्राहृांड की उत्पत्ति यानी बिग बैंग के समय हुआ होगा। और ये ब्लैक होल आकार में बहुत छोटे होते हैं। स्टीफन हॉकिंग का ऐसा मानना था कि इन ब्लैक होल्स के अध्ययन से ब्राहृांड की शुरुआती अवस्थाओं के बारे में पता लगाया जा सकता है।

हालिया शोध के मुताबिक इस आदिम ब्लैक होल ने सौरमंडल के बड़े ग्रहों की कक्षाओं को सूर्य के सापेक्ष 6 डिग्री तक झुका दिया है। इस ब्लैक होल की कक्षा काफी चपटी है। यह वर्तमान में अपनी कक्षा में सूर्य से अधिकतम दूरी के आसपास है। इसका परिभ्रमण काल 20 हज़ार वर्ष होना चाहिए। वैज्ञानिकों ने आकाश में 20 डिग्री गुना 20 डिग्री अर्थात 400 वर्ग डिग्री का एक क्षेत्र चिंहित किया है जिसके भीतर यह मौजूद हो सकता है। कंप्यूटर गणनाओं से यह भी पता चला है कि यह ब्लैक होल हमारे सूर्य की परिक्रमा करते हुए हर तीन करोड़ वर्षों पर धूमकेतुओं से भरे ऊर्ट बादल में उथल-पुथल मचाता है।

बहरहाल, अगर प्लेनेट नाइन वास्तव में एक ब्लैक होल है तो इसे खोजना किसी ग्रह को खोजने से बड़ी चुनौती होगी। मगर ध्यान देने वाली ज़रूरी बात यह है कि ब्लैक होल के आसपास का प्रभामंडल उच्च ऊर्जा फोटॉन प्रसारित करेगा और यह एक्स-रे और गामा किरणों के रूप में दिखाई देगा, जिससे इसकी मौजूदगी की पुष्टि की जा सकेगी। अगर हमारे सौर मंडल में ब्लैक होल की मौजूदगी साफ हो जाएगी, तो इससे सौर मंडल के मौजूदा मॉडल में बड़े बदलाव की ज़रूरत होगी! (स्रोत फीचर्स)
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समस्याओं का समाधान विज्ञान के रास्ते – गंगानंद झा

सत्य को झूठ से अलग करने के लिए वैज्ञानिक मिज़ाज की ज़रूरत होती है। विज्ञान के सिद्धान्त चौकस दिमाग का निर्माण करते हैं और तथ्य को भ्रामक जानकारियों से अलग समझने में मदद करते हैं।” – नोबेल विजेता वैज्ञानिक सर्ज हैरोशे ff

दिम मनुष्य बादल, आसमान, सागर, तूफान नदी, पहाड़, तरह-तरह के पेड़ पौधों, जीव-जंतुओं के बीच अपने आपको असुरक्षित, असहाय और असमर्थ महसूस करता था। वह भय, कौतुहल और जिज्ञासा से व्याकुल हो जाता था।

उसका जीवित रह पाना उसके अपने परिवेश की जानकारी और अवलोकन पर निर्भर था, इसलिए अपने देखे-अनदेखे दृश्यों से उसने अनेकों पौराणिक कथाओं की रचना की। इन कथाओं के ज़रिए मनुष्य, विभिन्न जानवरों और पेड़-पौधों की उत्पत्ति की कल्पना तथा व्याख्या की गई। इन कथाओं में जानवर और पौधे मनुष्य की भाषा समझते और बोलते थे। वे एक-दूसरे का रूप धारण किया करते थे। इन कथाओं में ईश्वररूपी सृष्टा की बात कही गई। मनुष्य की चेतना ने सृष्टि के संचालक, नियन्ता, करुणामय ईश्वर का आविष्कार किया। आत्मा तथा परमात्मा की अनुभूति की उसने। वह प्रकृति के साथ एकात्मकता महसूस करने लगा। उसे सुरक्षा का आश्वासन मिला।

समय के साथ विभिन्न भौगोलिक क्षेत्रों में जानकारियां इकठ्ठी होती रहीं। समाज, संस्कृतियों का विकास होता गया। हिन्दू, बौद्ध, ईसाई, कनफ्यूशियसवाद, इस्लाम इत्यादि ज्ञान की परंपराएं विकसित और स्थापित हुर्इं। इन सभी परंपराओं की स्थापना है कि इस संसार में जो भी जानने लायक महत्वपूर्ण बातें हैं उन्हें जाना जा चुका है। ईश्वर ने ब्राहृांड की सृष्टि की, मनुष्य और अन्य जीवों का निर्माण किया। माना गया कि प्राचीन ऋषिगण, पैगंबर और धर्मप्रवर्तक व्यापक ज्ञान से युक्त थे और यह ज्ञान धर्मग्रंथों तथा मौखिक परंपराओं में हमें उपलब्ध है। हम इन ग्रंथों तथा परंपराओं के सम्यक अध्ययन से ही ज्ञान प्राप्त कर सकते हैं। मनीषियों के उपदेशों और वाणियों से हमें इस गूढ़ ज्ञान की उपलब्धि हो सकती है। इस स्थापना में यह अकल्पनीय है कि वेद, बाइबल या कुरान में ब्राहृांड के किसी महत्वपूर्ण रहस्य की जानकारी न हो जिसे कोई हाड़-मांस का जीव उद्घाटित कर सके।

सोलहवीं सदी से ज्ञान की एक अनोखी परंपरा का विकास हुआ। यह परंपरा विज्ञान की परंपरा है। इसकी बुनियाद में यह स्वीकृति है कि ब्राहृांड के सारे महत्वपूर्ण सवालों के जवाब हमें नहीं मालूम, उनकी तलाश करनी है।

वह महान आविष्कार जिसने वैज्ञानिक क्रांति का आगाज़ किया, वह इसी बात का आविष्कार था कि मनुष्य अपने सबसे अधिक महत्वपूर्ण सवालों के जवाब नहीं जानता। वैसे तो हर काल में, सर्वाधिक धार्मिक और कट्टर समय में भी, ऐसे लोग हुए हैं जिन्होंने कहा कि ऐसी कई महत्वपूर्ण बातें हैं, जिनकी जानकारी पूरी परंपरा को नहीं है। ये लोग हाशिए पर कर दिए गए या सज़ा के भागी हुए अथवा ऐसा हुआ कि उन्होंने अपना नया मत प्रतिपादित किया और कालांतर में यह मत कहने लगा कि उसके पास सारे सवालों के जवाब हैं।       

सन 1543 में निकोलस कॉपर्निकस की पुस्तक De revolutionibus orbium का प्रकाशन हुआ। यह मानव सभ्यता के विकास में एक क्रांति की सूचना थी। इस क्रांति का नाम वैज्ञानिक क्रांति है। इस पुस्तक ने स्पष्ट तौर पर घोषणा की कि आकाशीय पिंडों का केंद्र धरती नहीं, सूरज है। यह घोषणा उस समय के स्वीकृत ज्ञान को नकारती थी, जिसके अनुसार धरती ब्राहृांड का केंद्र है। यह बात आज साधारण लगती है, पर कॉपर्निकस के समय (1473 -1543) यह कहना धर्मविरोधी माना जाता था। उस समय चर्च समाजपति की भूमिका में था। चर्च की मान्यता थी कि धरती ईश्वर के आकाश का केंद्र है। कॉपर्निकस को विश्वास था कि धर्म-न्यायाधिकरण उसे और उसके सिद्धांत दोनों को ही नष्ट कर डालेगा। इसलिए उसने इसके प्रकाशन के लिए मृत्युशय्या पर जाने की प्रतीक्षा की। अपनी सुरक्षा के लिए कॉपर्निकस की चिंता पूरी तरह सही थी। सत्तावन साल बाद जियार्डेनो ब्रूनो ने खुले तौर पर कॉपर्निकस के सिद्धांत के पक्ष में वक्तव्य देने की ‘धृष्टता’ की तो उन्हें इस ‘कुकर्म’ के लिए ज़िंदा जला दिया गया था।

गैलीलियो(1564-1642) ने प्रतिपादित किया कि प्रकृति की किताब गणित की भाषा में लिखी गई है। इस कथन ने प्राकृतिक दर्शन को मौखिक गुणात्मक विवरण से गणितीय विवरण में बदल दिया। इसमें प्राकृतिक तथ्यों की खोज के लिए प्रयोग आयोजित करना स्वीकृत एवं मान्य पद्धति हो गई। अंत में उनके टेलीस्कोप ने खगोल विज्ञान में क्रांतिकारी प्रभाव डाला और कॉपर्निकस की सूर्य केंद्रित ब्राहृांड की अवधारणा के मान्य होने का रास्ता साफ किया। लेकिन  इस सिस्टम की वकालत करने के कारण उन्हें धर्म-न्यायाधिकरण का सामना करना पड़ा था।

एक सदी बाद, फ्रांसीसी गणितज्ञ और दार्शनिक रेने देकार्ते ने सारे स्थापित सत्य की वैधता का परीक्षण करने के लिए एक सर्वथा नई पद्धति की वकालत की। आध्यात्मिक संसार के अदृश्य सत्य का इस पद्धति से विश्लेषण नहीं किया जा सकता था। आधुनिक काल में वैज्ञानिक प्राकृतिक संसार के अध्ययन के लिए प्रवृत्त हुए। आध्यात्मिक सत्य का अध्ययन सम्मानित नहीं रहा। क्योंकि उसके सत्य की समीक्षा विज्ञान के विश्लेषणात्मक तरीकों से नहीं की जा सकती। जीवन और ब्राहृांड के महत्वपूर्ण तथ्य तर्क-संगत वैज्ञानिकों की गवेषणा के क्षेत्र हो गए। देकार्ते ने ईश्वर की जगह मनुष्य को सत्य का अंतिम दायित्व दिया, जबकि पारंपरिक अवधारणा में एक बाहरी शक्ति सत्य को परिभाषित करती है। देकार्ते के मुताबिक सत्य व्यक्ति के विवेक पर निर्भर करता है। विज्ञान मौलिकता को महान उपलब्धि का निशान मानता है। मौलिकता स्वाधीनता का परिणाम होती है, प्रदत्त ज्ञान से असहमति है।

सन 1859 में चार्ल्स डार्विन के जैव विकासवाद के सिद्धान्त के प्रकाशन के साथ विज्ञान और आत्मा के रिश्ते के तार-तार होने की बुनियाद एकदम पक्की हो गई।

आधुनिक विज्ञान इस मायने में अनोखा है कि यह खुले तौर पर सामूहिक अज्ञान की घोषणा करता है। डार्विन ने नहीं कहा कि उन्होंने जीवन की पहेली का अंतिम समाधान कर दिया है और इसके आगे कोई और बात नहीं हो सकती। सदियों के व्यापक वैज्ञानिक शोध के बाद भी जीव वैज्ञानिक स्वीकार करते हैं कि वे नहीं जानते कि मस्तिष्क में चेतना कैसे उत्पन्न होती है। पदार्थ वैज्ञानिक स्वीकार करते हैं कि उन्हें नहीं मालूम कि बिग बैंग कैसे हुआ या सामान्य सापेक्षता के सिद्धांत और क्वांटम मेकेनिक्स के बीच सामंजस्य कैसे स्थापित किया जाए। 

वैज्ञानिक क्रांति के पहले अधिकतर संस्कृतियों में विकास और प्रगति की अवधारणा नहीं थी। समझ यह थी कि सृष्टि का स्वर्णिम काल अतीत में था। मानवीय बुद्धि से रोज़मर्रा ज़िंदगी के कुछ पहलुओं में यदा-कदा कुछ उन्नति हो सकती है लेकिन संसार का संचालन ईश्वरीय विधान करता है। प्राचीन काल की प्रज्ञा का अनुपालन करने से हम सृष्टि और समाज को संकटग्रस्त होने से रोक सकते हैं। लेकिन मानव समाज की मौलिक समस्याओं से उबरना नामुमकिन माना जाता था। जब सर्वज्ञाता ऋषि, ईसा, मोहम्मद और कन्फ्यूशियस अकाल, रोग, गरीबी, युद्ध का नाश नहीं कर पाए तो हम साधारण मनुष्य किस खेत की मूली हैं?

वैज्ञानिक क्रांति के फलस्वरूप एक नई संस्कृति की शुरुआत हुई। उसके केंद्र में यह विचार है कि वैज्ञानिक आविष्कार हमें नई क्षमताओं से लैस कर सकते हैं। जैसे-जैसे विज्ञान एक के बाद एक जटिल समस्याओं का समाधान देने लगा, लोगों को विश्वास होने लगा कि नई जानकारियां हासिल करके और इनका उपयोग कर हम अपनी समस्याओं को सुलझा सकते हैं। दरिद्रता, रोग, युद्ध, अकाल, बुढ़ापा, मृत्यु विधि का विधान नहीं है। ये बस हमारे अज्ञान का नतीजा हैं।

विज्ञान का कोई पूर्व-निर्धारित मत/सिद्धांत नहीं है, अलबत्ता, इसकी गवेषणा की कुछ सामान्य विधियां हैं। सभी अवलोकनों पर आधारित हैं। हम अपनी ज्ञानेंद्रियों के जरिए ये अवलोकन करते हैं और गणितीय औज़ारों की मदद से इनका विश्लेषण करते हैं। (स्रोत फीचर्स)
नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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जैसी दिखती है असल में वैसी है नहीं आकाशगंगा!- प्रदीप

काश में सूरज, चांद, ग्रहों और तारों की दुनिया बहुत अनोखी है। आपने चांद और तारों को खुशी और आश्चर्य से कभी न कभी ज़रूर निहारा होगा। गांवों में तो आकाश में तारों को देखने में और भी अधिक आनंद आता है, क्योंकि शहरों की अपेक्षा गांवों में बिजली की रोशनी की चकाचौंध कम होती है और वातावरण भी स्वच्छ एवं शांत होता है। तारों को निहारते-निहारते और उनकी विशाल संख्या को देखकर आप ज़रूर आश्चर्यचकित हो जाते होंगे। इस बात की पूरी संभावना है कि आपने शहर में कभी भी ऐसा सुंदर दृश्य न देखा होगा!

हम अपनी कोरी आंखों से जितने भी ग्रहों, तारों एवं तारा-समूहों को देख सकतें हैं, वे सभी एक अत्यंत विराट योजना के सदस्य हैं, जो आकाश में लगभग उत्तर से दक्षिण तक फैली हुई नदी के समान प्रवाहमान प्रतीत होती है। यह एक निहारिका (गैलेक्सी) है। हमारा सूर्य और उसका परिवार यानी सौरमंडल जिस निहारिका का सदस्य है उसका नाम आकाशगंगा (मिल्की-वे) है। हमारी आकाशगंगा में 100 अरब से भी ज़्यादा तारे हैं। हमारा सूर्य इन्हीं में से एक साधारण तारा है।

सूर्य आकाशगंगा के केंद्र से लगभग 27,000 प्रकाश वर्ष दूर एक किनारे पर है। इसलिए पृथ्वी से देखने पर आकाशगंगा तारों के एक सघन पट्टे के रूप में दिखाई देती है। चूंकि हम स्वयं आकाशगंगा के भीतर ही स्थित हैं, इसलिए हम इसकी सही आकृति का सटीक अनुमान नहीं लगा पाए हैं। हम आकाशगंगा के 90 प्रतिशत हिस्से को नहीं देख सकते। वास्तव में, हम अपनी आकाशगंगा के बारे में जो कुछ भी जानते हैं, वह ब्राहृांड की हज़ारों अन्य निहारिकाओं की संरचना के अध्ययन और अप्रत्यक्ष खगोलीय प्रेक्षणों पर ही आधारित है। वैज्ञानिकों ने हमारी आकाशगंगा को सर्पिल या कुंडलित निहारिका (स्पाइरल गैलेक्सी) की श्रेणी में वर्गीकृत किया है। अधिकांश पाठ्यपुस्तकों और विज्ञान की लोकप्रिय पुस्तकों में आकाशगंगा को एक सपाट तश्तरीनुमा सर्पिल संरचना के रूप में ही दिखाया जाता है।

हाल ही में पोलैंड के वारसॉ विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने आकाशगंगा के अब तक के सर्वश्रेष्ठ 3-डी मानचित्र विकसित करते हुए आकाशगंगा को समतल या सपाट मानने की हमारी परंपरागत धारणा को चुनौती दी है। इस नए अध्ययन से यह पता चलता है कि हमारी आकाशगंगा ऊपर और नीचे के घुमावदार किनारों के साथ काफी विकृत है। सपाट तश्तरीनुमा योजना बनाने की बजाय मिल्की-वे के तारे एक ऐसी तश्तरी बनाते हैं जो किनारों पर बिलकुल मुड़ जाती है, कुछ-कुछ अंग्रेजी के अक्षर ‘S’ की तरह।

शोधकर्ताओं ने हमारी आकाशगंगा में बिखरे और नियमित अंतराल पर चमकने वाले (स्पंदन करने वाले) सेफाइड वेरीएबल तारों की सूर्य से दूरी मापकर आकाशगंगा का पहले से बहुत ज़्यादा सटीक 3-डी चार्ट बनाया है। सेफाइड तारों के स्पंदन और उनके निरपेक्ष कांतिमान (एब्सॉल्यूट मैग्नीट्यूड) में सीधा सम्बंध होता है। इसके चलते ये तारे दूरियां मापने वाले तारे कहे जाते हैं। सेफाइड तारों का स्पंदन जितना ज़्यादा होता है, उतनी ही उस तारे की निरपेक्ष कांति ज़्यादा होती है।

अत: स्पंदन-काल की जानकारी होने पर निरपेक्ष कांति भी ज्ञात हो जाती है। उसके बाद प्रत्यक्ष कांति और निरपेक्ष कांति के परस्पर सम्बंध के आधार पर गणित की सहायता से उस तारे की दूरी मालूम हो जाती है। इसी तरह सेफाइड तारों की चमक की विविधता का इस्तेमाल करते हुए सूर्य से इनकी सटीक दूरी को मापा जाता है।

शोधकर्ताओं ने 2400 से अधिक सेफाइड तारों की दूरी को मापा। इनमें से अधिकांश तारों की पहचान चिली के दक्षिणी अटाकामा रेगिस्तान के लास कैंपानास ऑब्ज़र्वेटरी के ऑप्टिकल ग्रेविटेशनल लेन्सिंग एक्सपेरिमेंट (ओजीएलई) की सहायता से की गई। ओजीएलई एक पोलिश खगोलीय परियोजना है, जो मुख्यत: सेफाइड तारों की जांच-पड़ताल करती है। यह खगोलविदों को बड़ी सटीकता के साथ ब्राहृांडीय दूरियों की गणना करने में सक्षम बनाता है।

खगोलविद डोरोटा स्कोरॉन ने इस अध्ययन का नेतृत्व किया है, जो जर्नल साइंस के हालिया अंक में प्रकाशित हुआ है। शोध पत्र के सह-लेखक पर्जमेक म्राज के मुताबिक आकाशगंगा की जिस वर्तमान आकृति को हम जानते हैं, वह दूसरी मिलती-जुलती निहारिकाओं के आधार पर तथा मुख्यत: अप्रत्यक्ष मापों पर आधारित है। उन सीमित प्रेक्षणों द्वारा तैयार किए आकाशगंगा के मानचित्र अधूरे हैं। हालिया 3-डी मानचित्र प्रत्यक्ष प्रेक्षणों और बड़े पैमाने पर हुए अध्ययन पर आधारित हैं।

इस नए शोध के नतीजों के मुताबिक आकाशगंगा की वक्र भुजाएं कई लहरदार तरंगों में बंटी होती हैं। संक्षेप में कहें, तो इस शोध से यह पता चला है कि आकाशगंगा और उसकी भुजाएं एक चपटे समतल में तारों की तश्तरी नहीं, बल्कि लहरदार हैं। यह बहुत ही उलझी हुई एक विराट संरचना है। बहरहाल, यह नया 3-डी मानचित्र निश्चित रूप से हमारी आकाशगंगा की आकृति सम्बंधी हमारी समझ में आमूल-चूल परिवर्तन लाएगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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रांगा: प्रागैतिहासिक काल से आधुनिक काल तक – डॉ. विजय कुमार उपाध्याय

रांगा एक बहुत ही उपयोगी धातु है जिसे संस्कृत में वंग या त्रपुस तथा अंग्रेज़ी में टिन कहा जाता है। लैटिन भाषा में इसे स्टैनम कहा जाता है जिसका अर्थ है सख्त। इसका रासायनिक संकेत Sn, परमाणु संख्या 50 है और परमाणु भार 118.7 है। इसका घनत्व 7.31 ग्राम प्रति घन सेंटीमीटर, द्रवणांक 231.9 डिग्री सेल्सियस, तथा क्वथनांक 2602 डिग्री सेल्सियस है।

यह बताना कठिन है कि मानव ने रांगे का उपयोग सर्वप्रथम कब तथा कहां प्रारंभ किया। शुरू-शुरू में रांगे का उपयोग सिर्फ तांबे के साथ मिलाकर एक मिश्र धातु (एलॉय) बनाने के लिए किया जाता था। इस मिश्र धातु का नाम था कांसा (बेल मेटल)। कांसे के बर्तन तथा औज़ार शुद्ध तांबे से बने बर्तनों तथा औज़ारों की तुलना में अधिक मज़बूत होते थे। परंतु आज यह किसी को मालूम नहीं कि उस काल में कांसे के निर्माण हेतु जो टिन उपयोग में लाया जाता था वह धात्विक अवस्था में होता था अथवा टिनयुक्त अयस्क को ही अवकारक परिस्थितियों में मिश्रित कर कांसे का निर्माण किया जाता था।

ऐतिहासिक साक्ष्यों से पता चलता है कि रांगे का उपयोग सर्वप्रथम पूर्वी देशों (जैसे भारत, चीन वगैरह) में शुरू हुआ। भारत में लगभग साढ़े तीन हज़ार वर्ष ईसा पूर्व रांगे को उपयोग में लाए जाने के प्रमाण मिलते हैं। गुजरात में लोथल नामक स्थान पर कुछ हड़प्पा कालीन पुरातात्विक अवशेष मिले हैं जिनसे पता चलता है कि वहां मालाओं में उपयोग हेतु धातु के मनके बनाए जाते थे। इन धातुओं में रांगा भी शामिल था। ये अवशेष लगभग पांच हज़ार वर्ष पुराने बताए जाते हैं। महाभारत काल में भी अन्य धातुओं के साथ कांसे का उपयोग किया जाता था।

मौर्य तथा गुप्त काल में भी अन्य धातुओं के साथ कांसे का काफी अधिक उपयोग किया जाता था। गुप्त काल में कांसे से बर्तन तथा मूर्तियों के अलावा सिक्कों का भी निर्माण किया जाता था। गुप्त काल में निर्मित कांसे की मूर्तियां भारत में कई स्थानों पर पुरातात्विक खुदाई के दौरान पाई गई हैं। बिहार में भागलपुर ज़िले के बटेश्वर नामक पहाड़ी स्थल पर प्राचीन काल के कुछ पुरातात्विक अवशेष मिले हैं जिनमें कांस्य मूर्तियां भी शामिल हैं। ये मूर्तियां पाल एवं गुप्त काल की बताई जाती हैं। इन मूर्तियों में शामिल हैं ध्यान तथा भूमि स्पर्श मुद्रा में गौतम बुद्ध की कांस्य प्रतिमा। इसी काल की कुछ कांस्य प्रतिमाएं भागलपुर ज़िले में ही एक अन्य स्थान सुल्तानगंज में भी मिली हैं। दूसरी इस्वीं शताब्दी में भारत के महान आयुर्वेदाचार्य चरक ने वंग भस्म (टिन ऑक्साइड) को औषधि निर्माण हेतु उपयोगी पाया था। कहा जाता है कि चीन में भी लगभग 1800 ईसा पूर्व कांस्य उद्योग काफी पनप चुका था।

मिरुा में एक स्थान पर पुरातात्विक खुदाई से 3700 ईसा पूर्व में निर्मित कांसे की एक छड़ पाई गई है। इसके रासायनिक विश्लेषण से पता चला है कि इसमें 9.1 प्रतिशत रांगा उपस्थित है। मिरुा में ही 600 ईसा पूर्व रांगे की चादर का उपयोग किसी व्यक्ति के मृत शरीर को लपेटकर कब्र में दफनाने के लिए किया गया था।

शुद्ध रांगे से निर्मित जो सबसे पुरानी वस्तुएं मिली हैं उनमें शामिल हैं अंगूठी तथा तीर्थ यात्रियों द्वारा उपयोग में लाई जाने वाली बोतलें। ये वस्तुएं मिरुा में अनेक स्थानों पर की गई खुदाई से मिली हैं। ये चीजें लगभग 1500 वर्ष ईसा पूर्व निर्मित बताई जाती हैं। रांगा मिरुा में कहीं नहीं पाया जाता। अत: यह निष्कर्ष निकाला गया है कि यहां रांगे का आयात अन्य देशों से किया जाता था। ऐसा माना जाता है कि भूमध्य सागरीय क्षेत्र के देशों में रांगा या रांगे से बनी वस्तुएं एशियाई देशों से मंगाई जाती थीं।

प्रारंभिक हिब्रू, ग्रीक तथा लैटिन साहित्य में जो ‘टिन’ शब्द व्यवहार में लाया जाता था उसका अर्थ आज से भिन्न था। बाइबल में वर्णित ‘टिन’ शब्द हिब्रू शब्द ‘बेडिल’ के अर्थ में आया है। बेडिल शब्द का उपयोग तांबे तथा टिन की मिश्र धातु के लिए किया जाता था। यूनान के महान कवि होमर ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक इलियाड में कांसे तथा टिन को अलग-अलग धातुओं के रूप में माना है।

युरोप में कई देशों में रांगे का खनन एवं व्यापार कई सदियों से चलता रहा है। लगभग 15वीं शताब्दी ईसा पूर्व में टिन के खनन प्रारंभ किए जाने के संकेत मिले हैं। ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि इंग्लैंड में कॉर्नवाल की खानों से टिन का काफी अधिक खनन किया जाता था। फिर उस टिन को पूर्वी भूमध्य सागरीय क्षेत्र के देशों में स्थित धातुकर्म केन्द्रों पर पहुंचाया जाता था। कुछ उपलब्ध साक्ष्यों से पता चलता है कि लगभग 500 ईसा पूर्व तक कॉर्नवाल की खानों से लगभग 30 लाख टन रांगे का खनन किया गया। उस काल में ब्रिाटेन से प्रति वर्ष लगभग एक हज़ार टन टिन का निर्यात अन्य देशों को किया जाता था। 1925 इस्वीं में इंग्लैंड के पुरात्ववेत्ताओं को ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में निर्मित एक दुर्ग की खुदाई करते समय प्रगलन भट्टियां मिलीं जिनके अंदर टिन-युक्त धातु-मल पड़ा हुआ था। इससे यह निष्कर्ष निकाला गया कि आज से लगभग दो हज़ार वर्ष पूर्व इंग्लैंड में टिन का उपयोग काफी विकसित अवस्था में था। जूलियस सीज़र ने अपनी पुस्तक डी बैलो गैलिको में भी इस बात की चर्चा की है कि इंग्लैंड के कुछ क्षेत्रों में टिन का उत्पादन किया जाता था।

पेरू के रेड इंडियन (जिन्हें इन्का कहा जाता है) लोगों द्वारा निर्मित एक पुराने किले में वैज्ञानिकों को शुद्ध टिन मिला है। उन लोगों ने यह टिन शायद कांसे के निर्माण के लिए रखा होगा। यहां की वस्तुएं काफी उच्च कोटि की मानी जाती थीं। 16वीं शताब्दी में जब स्पैनिश विजेता कार्टेस मेक्सिको पहुंचा तो स्थानीय लोगों द्वारा टिन से बने सिक्कों का उपयोग होते देखा।

प्राचीन काल में टिन का उपयोग प्राय: कांसे के निर्माण के लिए किया जाता था। फिर कांसे से दैनिक उपयोग के सामान (जैसे चाकू, हथियार, बर्तन तथा आभूषण) बनाए जाते थे। मध्यकाल में कांसे का उपयोग घंटियों के निर्माण के लिए व्यापक स्तर पर किया जाने लगा। टिन में कुछ विशेष गुण होते हैं। जैसे इसमें जंग नहीं लगता। यह आघातवर्धनीय है (यानी इसकी चादरें बनाई जा सकती हैं) तथा इसका द्रवणांक भी कम है। ये सभी गुण मिल कर रांगे को काफी उपयोगी बना देते हैं। सन् 79 में प्लीनी ने बताया था कि टिन तथा लेड की मिश्र धातु को आसानी से पिघलने वाले सोल्डर के रूप में उपयोग में लाया जा सकता है। रोमवासी अपने तांबे के बर्तनों पर टिन की कलई किया करते थे। इंग्लैंड में 17वीं सदी के मध्य के दौरान रांगे की कलई युक्त इस्पात का निर्माण किया जाने लगा। रांगे में यह विशेषता है कि यह हवा में रहने पर ऑक्सीजन के संयोग से अपने चारों ओर टिन ऑक्साइड की एक सूक्ष्म परत का निर्माण कर लेता है। यह परत स्थाई होती है जो पानी, नाइट्रोजन, हाइड्रोजन, कार्बन डाईऑक्साइड तथा अमोनिया आदि से प्रतिक्रिया नहीं करती।

अभी संसार में उत्पादित कुल रांगे का लगभग आधा भाग टिन प्लेट के निर्माण में खर्च हो जाता है जिसे मुख्यत: डिब्बों के निर्माण के लिए उपयोग किया जाता है। यही कारण है कि टिन को डिब्बों की धातु कहा जाता है।

विभिन्न उपयोगों में टिन के रासायनिक यौगिकों का उपयोग व्यापक स्तर पर किया जाता है। स्टैनस तथा स्टैनिक क्लोराइड रूई तथा रेशम को रंगने में रंग को पक्का बनाने का काम करते हैं। चीनी मिट्टी के बर्तनों तथा कांच में लाली लाने के लिए ‘कारियस पर्पल’ नामक पदार्थ को उपयोग में लाया जाता है। यह स्टैनस क्लोराइड तथा स्वर्ण क्लोराइड के विलयन से बनाया जाता है। सुनहरे रंग में किसी वस्तु को रंगने के लिए स्टैनस डाईसल्फाइड का उपयोग किया जाता है।  इसे ‘मोज़ैक स्वर्ण’ भी कहा जाता है।

भूपटल में रांगा सिर्फ 0.004 प्रतिशत उपस्थित है। यह प्राय: ग्रैनाइट के साथ पाया जाता है। ग्रैनाइट की एक पट्टी दक्षिण पूर्व एशिया, चीन, मलाया, इंडोनेशिया तथा पूर्वी ऑस्ट्रेलिया से होकर गुज़रती है जिसमें रांगे के अयस्क पाए जाते हैं। युरोप में रांगायुक्त ग्रैनाइट सैक्सोनी, चेकोस्लोवाकिया, इंग्लैंड, फ्रांस तथा स्पेन में पाया जाता है। दक्षिणी अमेरिका में रांगायुक्त ग्रैनाइट बोसीनिया में मिलता है। अफ्रीका में नाइजीरिया तथा कांगो में रांगायुक्त ग्रैनाइट पाया जाता है। प्राचीन काल से ही टिन का प्रमुख अयस्क कैसीटेराइट रहा है। टिन के उत्पादन में मलेशिया का योगदान सबसे अधिक है। टिन का उत्पादन करने वाले अन्य प्रमुख देश हैं रूस, चीन, इंडोनेशिया, थाइलैंड तथा ऑस्ट्रेलिया। नीदरलैंड में भी काफी टिन मिलता है।

भारत में टिन खनिजों के उत्खनन के प्रयास प्रागैतिहासिक काल से ही चलते रहे हैं। भारत में रांगे का प्रमुख उपयोग था कांसे का निर्माण। उस काल में हमारे देश में रांगे का खनन छिटपुट ढंग से तथा गृह उद्योग स्तर पर किया जाता था। प्राचीन काल के दौरान भारत के किसी भाग में व्यापक स्तर पर रांगे के खनन के संकेत नहीं मिलते। मैक्सीलैंड नामक एक भूविज्ञानवेत्ता ने सन् 1849 में पारसनाथ (झारखंड) के निकट पुरगो नामक स्थान पर कैसीटेराइट खनिज का लौह भट्टी में प्रगलन कुटीर उद्योग स्तर पर होते देखा था। लुइस फर्मोर नामक भूविज्ञानवेत्ता ने सन् 1906 में बताया कि पुरगो क्षेत्र में कैसीटेराइट ग्रेनुलाइट नामक शैल की एक पतली परत लगभग 15 सेंटीमीटर मोटी है जिसमें कैसीटेराइट 30 से 50 प्रतिशत तक उपलब्ध है।

बिहार के गया जिले में धनरास तथा ढकनहवा पहाड़ियों में कैसीटेराइट की प्राप्ति के समाचार कुछ समय पूर्व मिले थे। यहां पर टिन अयस्कयुक्त शैल की परत लगभग चार किलोमीटर लम्बी तथा 0.36 किलोमीटर चौड़ी है। झारखंड के हज़ारीबाग जिले में अनेक स्थानों पर कैसीटेराइट पाया जाता है। राजस्थान के भीलवाड़ा जिले में सोनियाना नामक स्थान पर कैसीटेराइट पाया जाता है। भीलवाड़ा जिले में परोली नामक स्थान पर पेगमेटाइट नामक शैल में कैसीटेराइट पाया जाता है। कर्नाटक में धारवाड़ जिले के डम्बल नामक स्थान पर भी कैसीटेराइट पाया जाता है। मध्य प्रदेश के बस्तर जिले में गोविन्दपाल, चीतलनार, मुंडवाल तथा जोगपाल नामक स्थानों पर उच्च दर्जे का कैसीटेराइट पाया जाता है जिसमें टिन की मात्रा 55 से 67 प्रतिशत तक है। फिलहाल भारत में टिन का खनन कहीं भी नहीं हो रहा है। (स्रोत फीचर्स)

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विशाल क्षुद्रग्रह पृथ्वी के पास से गुज़रने वाला है

वैज्ञानिकों ने बताया है कि एक विशाल क्षुद्र ग्रह 14 सितंबर के दिन पृथ्वी के नज़दीक से गुज़रेगा। गुज़रते समय इसकी रफ्तार 23000 कि.मी. प्रति घंटा रहेगी। इस क्षुद्रग्रह यानी एस्टीरॉइड का नाम है 2000QW7 और यह दुनिया की सबसे ऊंची इमारत बुर्ज खलीफा से थोड़ा ही छोटा है – इसका व्यास 300-650 मीटर के बीच आंका गया है। यह जानकारी जेट प्रपल्शन लैबोरेटरी के सेंटर फॉर नीयर अर्थ ऑब्जेक्ट्स ने दी है।

खगोल शास्त्र की भाषा में उन सारे पिंडों और क्षुद्रग्रहों को नीयर अर्थ ऑब्जेक्ट यानी पृथ्वी निकट पिंड कहा जाता है जो पृथ्वी से 1.3 खगोलीय इकाई से कम दूरी से गुज़रते हैं। गौरतलब है कि पृथ्वी और सूर्य के बीच की दूरी को एक खगोलीय इकाई कहते हैं और यह 14.96 करोड़ किलोमीटर है। यानी कोई भी पिंड यदि पृथ्वी से 19 करोड़ किलोमीटर से कम दूरी पर गुज़रे तो उसे नज़दीकी पिंड कहा जाएगा। सेंटर फॉर नीयर अर्थ ऑब्जेक्ट के मुताबिक 2000QW7 पृथ्वी से 0.03564 खगोलीय इकाई (53 लाख कि.मी.) की दूरी से गुज़रेगा जो चांद की हमसे दूरी के मुकाबले लगभग 14 गुना है।

यह क्षुद्रग्रह भी सूर्य के चक्कर काटता है और कई वर्षों में एकाध बार इसका परिक्रमा पथ पृथ्वी की कक्षा को काटता है। पिछली बार ऐसी घटना 1 सितंबर 2000 के दिन हुई थी। 14 सितंबर के बाद 2000QW7 फिर से 19 अक्टूबर 2038 को हमारे पास से गुज़रेगा। (स्रोत फीचर्स)

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फुटबॉल के आकार का उल्कापिंड खेत में गिरा

पूर्वी भारत के एक गांव में 22 जुलाई के दिन शायद एक छोटा-सा उल्कापिंड चावल में खेत में गिरा है। समाचार एजेंसी सीएनएन के अनुसार, बिहार के महादेव गांव में चावल के खेत में भरे पानी में लगभग 14 किलोग्राम वज़नी एक फुटबॉल के आकार की अजीब-सी चट्टान गिरी और खेत में इसकी वजह से गड्ढा बन गया।

फिलहाल इस रहस्यमयी चट्टान को बिहार के एक संग्रहालय में रखा गया है, लेकिन जल्द ही इसे बिहार के श्रीकृष्ण विज्ञान केंद्र में स्थानांतरित कर दिया जाएगा, ताकि विशेषज्ञ यह पता लगा सकें कि यह वास्तविक उल्कापिंड है या कोई मामूली पत्थर।

उल्कापिंड अंतरिक्ष की चट्टानें हैं जो हमारे वातावरण में घुसने के बाद पूरी तरह भस्म हो जाने से बचकर पृथ्वी पर गिरती हैं। आम तौर पर इस तरह के पिंडों में चुंबकीय गुण होते हैं क्योंकि वे अक्सर लौह व निकल धातुओं से बने होते हैं। बिहार के मुख्यमंत्री कार्यालय से जारी एक बयान के अनुसार इस संभावित उल्कापिंड में चुंबकीय गुण पाए गए हैं।

यूं तो हमारे ग्रह पर प्रतिदिन लगभग 100 टन से अधिक धूल और रेत के आकार के उल्कापिंडों की बौछार होती है लेकिन बड़े पिंड बहुत कम गिरते हैं। नासा के अनुसार, पिछले वर्ष एक कार के आकार का क्षुद्रग्रह एक बड़े आग के गोले के रूप में वायुमंडल में दाखिल होकर ज़मीन से टकराया था।

हर दो-एक हज़ार साल में, फुटबॉल के मैदान के आकार का उल्कापिंड पृथ्वी से टकराता है और स्थानीय स्तर पर नुकसान पहुंचाता है। हर बीसेक लाख सालों में ही में कोई इतना विशाल उल्कापिंड पृथ्वी से टकराता है जिसमें पूरी मानव सभ्यता को नष्ट करने की क्षमता होती है। (स्रोत फीचर्स)

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चीनी अंतरिक्ष स्टेशन लौटते वक्त ध्वस्त

एजेंसी फ्रांस प्रेस के अनुसार 19 जुलाई को चीनी अंतरिक्ष स्टेशन तियांगोंग-2 अपनी कक्षा छोड़ धरती पर गिर गया। लेकिन पिछली बार के विपरीत, इस दौरान पूरे समय इस पर चीन के अंतरिक्ष वैज्ञानिकों का नियंत्रण रहा।

चीनी राष्ट्रीय अंतरिक्ष प्रशासन (CNSA) पहले ही यह बता चुका था कि चीन का दूसरा प्रायोगिक अंतरिक्ष स्टेशन तियांगोंग-2 अपनी कक्षा छोड़ने वाला है और पृथ्वी के वायुमंडल में पुन: प्रवेश करने वाला है। प्रशासन के अनुसार पुन: प्रवेश के दौरान तियांगोंग-2 वायुमंडल में पूरी तरह जल जाएगा और यदि कुछ बचा तो वह प्रशांत महासागर के पाइंट नेमो नामक इलाके में गिरेगा। लेकिन यह स्थिति चीन के पहले अंतरिक्ष स्टेशन तियांगोंग-1 से भिन्न है। उसने भी अप्रैल 2018 में अपनी कक्षा छोड़ दी थी और पृथ्वी पर अनियंत्रित तरीके से आ गिरा था। लेकिन तियांगोंग-1 पर कोई नियंत्रण नहीं रह गया था। हालांकि संयोग से तियांगोंग-1 भी प्रशांत महासागर के इसी इलाके में गिरा था।

तियांगोंग-2 उत्तरी बॉटलनोज़ व्हेल से थोड़ा बड़ा, 10 मीटर लंबा और 8600 किलोग्राम वज़नी था। इस अंतरिक्ष स्टेशन में 18 मीटर लंबे सौलर पैनल थे जिससे यह अजीब-सी व्हेल मछली की तरह दिखता था।

अंतरिक्ष प्रशासन के अधिकारियों का कहना है कि तियांगोंग-2 ने अपने सारे प्रयोग पूरे कर लिए थे। और इसने अपनी 2 साल की तयशुदा उम्र से एक साल अधिक कार्य किया। स्पेस डॉटकॉम के मुताबिक इस दौरान तियांगोंग-2 ने एक बार (अक्टूबर-नवंबर 2016 में) दो अंतरिक्ष यात्रियों और कई रोबोटिक मिशन की मेज़बानी की थी। (स्रोत फीचर्स)

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