आम लोगों के लिए सापेक्षता का मतलब – एस. अनंतनारायणन

भी कुछ समय पहले, 2014 में गुरुत्वाकर्षण तरंगों का पता लगाया गया और इस वर्ष ब्लैक होल की पहली तस्वीर ली गई। दोनों ही खोजें आइंस्टाइन के सापेक्षता के सामान्य सिद्धांत की भविष्यवाणी के प्रभावशाली प्रमाण हैं। ये दोनों घटनाएं वर्ष 2015 के दोनों ओर घटी हैं जो आइंस्टाइन के युगांतरकारी शोध पत्र के प्रकाशन का शताब्दी वर्ष था। सौ वर्षों के इस अंतराल में काफी बहसें और चर्चाएं तो होती रही हैं साथ ही साथ प्रकृति को लेकर इस महत्वपूर्ण अंतर्दृष्टि ने हमें अचंभित भी किया है।

इस सिद्धांत का पहला भाग, विशिष्ट सिद्धांत, 1905 में प्रकाशित हुआ था। इसमें उच्च वेगों पर वस्तुओं के व्यवहार तथा द्रव्यमान और ऊर्जा की आपसी तुल्यता की बात की गई थी।

दूसरा भाग, सामान्य सापेक्षता, गुरुत्वाकर्षण पर विचार करता है और ऐसे प्रभावों के बारे में चर्चा करता है जो ब्राहृांड के स्तर पर नज़र आते हैं। ये वो चीज़ें हैं जिनको हम रोज़मर्रा की ज़िंदगी में नहीं देखते हैं। लेकिन सामान्य सापेक्षता को असाधारण सटीकता के साथ सत्यापित किया गया है और यह प्रकृति का एक निर्विवाद हिस्सा है। प्रकृति के नियमों को समझने का काम इसी के मार्गदर्शन में करना होगा।

इन आविष्कारों के महत्व और विशिष्ट प्रकृति, दोनों को देखते हुए आइंस्टाइन ने स्वयं उन पाठकों, जो पेशेवर वैज्ञानिक नहीं थे, के लिए एक स्पष्ट और सरल, लेकिन सैद्धांतिक रूप से गहन विवरण प्रस्तुत करने का काम हाथ में लिया। परिणामस्वरूप 1917 के वसंत में उन्होंने जर्मन भाषा में एक पुस्तिका का प्रकाशन किया था: ‘रिलेटिविटी: दी स्पेशल एंड दी जनरल थ्योरी (ए पॉपुलर अकाउंट)’। इसकी शताब्दी के अवसर पर प्रिंसटन युनिवर्सिटी ने हिब्रू विश्वविद्यालय, यरुशलम के साथ मिलकर 1960 में किए गए इसके अंग्रेज़ी अनुवाद को फिर से प्रकाशित किया है। इसमें बाद में जोड़े गए परिशिष्ट भी शामिल किए गए हैं और साथ ही एक रीडिंग कम्पेनियन, टिप्पणियां और अन्य अनुवादों पर नोट्स तथा अन्य स्मृतियां भी शामिल की गई हैं।

मूल पुस्तक तो केवल 132 पृष्ठों की है जिसमें 32 अध्याय हैं। बहुत सारे अध्याय हैं, नहीं? जी हां, आइंस्टाइन ने सापेक्षता की अपनी पहली पुस्तक को छोटे-छोटे हिस्सों में विभाजित किया था। एक अध्याय तो केवल एक पृष्ठ लंबा है। सहजता और स्पष्टता तथा गणित के कम से कम उपयोग के साथ, उन्होंने इस सिद्धांत के मूल विचार को विकसित करने के लिए सिर्फ आवश्यक चीज़ों को ही प्रस्तुत किया है। जैसा कि वे प्रस्तावना में कहते हैं, “यह पुस्तिका उन पाठकों के लिए है जो एक सामान्य वैज्ञानिक और दार्शनिक दृष्टिकोण से सिद्धांत में रुचि तो रखते हैं, लेकिन सैद्धांतिक भौतिकी के गणितीय औज़ारों से परिचित नहीं हैं।”

आइंस्टाइन पहले पारंपरिक विचार का परिचय देते हैं। उसके अनुसार यदि अवलोकन के दो प्रेक्षण मंच एक-दूसरे के सापेक्ष एकरूप गति से चल रहे हैं, तब दोनों मंचों की सापेक्ष गतियों को जोड़कर-घटाकर एक-दूसरे में परिवर्तित किया जा सकता है। कोई भी प्रेक्षक यह नहीं बता सकता है कि वह एक ऐसे मंच पर है जो ‘स्थिर’ है या एकरूप गति से चलायमान है क्योंकि भौतिकी के नियम एकरूप सापेक्ष गति में प्रेक्षकों के किसी भी जोड़े के लिए एक जैसे होते हैं। इस अभिन्नता को आइंस्टाइन ने सापेक्षता का नियम कहा।

सिर्फ प्रकाश की गति एक अपवाद है। प्रकाश के मामले में होता यह है कि प्रकाश का स्रोत या प्रेक्षण करने वाला उपकरण किसी भी वेग से चले, प्रकाश का वेग हमेशा 3,00,000 कि.मी. प्रति सेकंड (निर्वात में) होता है। यह सापेक्षता के उपरोक्त नियम के विरुद्ध है। चूंकि प्रकाश के वेग के स्थिर होने की बात को एच.ए. लॉरेंट्ज़ ने विद्युत चुंबकत्व के सिद्धांतों के आधार पर प्रतिपादित किया था, इसलिए लगता था कि इस मामले में सापेक्षता के नियम को तिलांजलि दे दी जाए, हालांकि इस नियम के विरुद्ध कोई सबूत नहीं था।

यहीं पर सापेक्षता के विशेष सिद्धांत का प्रवेश होता है। विशेष सिद्धांत में लॉरेंट्ज़ के काम का उपयोग करते हुए स्थान और समय की प्रकृति की पुन: व्याख्या की गई है। यह पुन:व्याख्या उक्त विरोधाभास का समाधान कर देती है – इसके अनुसार एक-दूसरे के सापेक्ष गति कर रहे दोनों मंचों के लिए प्रकाश का वेग तो समान रहता है, लेकिन गतिशील ताने-बाने के संदर्भ में मापन किया जाए तो लंबाई और समय के अंतराल ही सिकुड़ या फैल जाते हैं।

इस पुनव्र्याख्या का एक और निष्कर्ष यह है कि किसी कण की गति की ऊर्जा न केवल उसके स्थिर द्रव्यमान और चाल पर निर्भर करती है, बल्कि द्रव्यमान और एक ऐसे कारक पर भी निर्भर करती है, जिसका मान चाल के साथ बढ़ता है। यह कारक चाल के वर्ग को प्रकाश के वेग के वर्ग से विभाजित करने पर प्राप्त होता है। इसलिए द्रव्यमान में यह वृद्धि नगण्य रहती है, सिवाय उस स्थिति के जब वस्तु का वेग बहुत अधिक हो। हालांकि ऊर्जा के इस समीकरण से हमें किसी स्थिर कण की आंतरिक ऊर्जा का मान मिलता है जो E = mc2 के रूप में मशहूर है।

सामान्य सिद्धांत

उपरोक्त विचार एकरूप सापेक्ष गति पर चलने वाले प्लेटफार्मों के बारे में हैं। इसके बाद आइंस्टाइन एक ऐसे मामले पर विचार करते हैं जहां एक प्लेटफार्म को त्वरण प्रदान किया जाता है यानी उसकी चाल बदलती जाती है। इस स्थिति में दो मंचों की परस्पर सापेक्ष गति लगातार बदलती रहती है। त्वरणशील प्लेटफॉर्म पर प्रेक्षक त्वरण की विपरीत दिशा में एक बल का अनुभव करेगा, और उसे सभी स्वतंत्र वस्तुएं इसी विपरीत दिशा में गिरती हुई प्रतीत होंगी। और इस प्रेक्षक के पास गुरुत्वाकर्षण बल और त्वरण के कारण लग रहे बल के बीच अंतर जानने का कोई तरीका नहीं होगा। आइंस्टाइन का मत है कि वास्तव में इनके बीच कोई अंतर है भी नहीं। इस आधार पर उन्होंने सापेक्षता के नियम को सामान्य रूप से गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र में स्थित मंच अथवा त्वरणशील मंच दोनों पर लागू करने का सुझाव दिया था।

यहां स्थिति यह हो जाती है कि प्रकाश किरण का मार्ग, जो एक प्लेटफॉर्म पर सरल रेखा में दिखाई देता है, वह त्वरणशील गति या गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र में स्थित मंच से एक वक्र के रूप में दिखाई देगा। तो इसका मतलब यह होगा कि सापेक्षता का नियम सामान्य रूप से लागू नहीं होता है? आइंस्टाइन इस सवाल से निपटने के लिए कुछ परिमापों के रूप में घटनाओं के निर्धारण का एक नया तरीका विकसित करते हैं – जैसे किसी स्थिर बिंदु से दूरी व दिशा, और समय के माप।

किसी समतल सतह पर किसी बिंदु की स्थिति बताने का सामान्य तरीका दो लंबवत रेखाओं से उसकी दूरी बताने का है (यह ग्राफ का तरीका है)। इस तरह दर्शाने के बाद दो बिंदुओं के बीच की दूरी निकाली जा सकती है। किंतु यदि जिस सतह पर रेखाएं खींची जाएं वह समतल न होते हुए गोलाई लिए हो (जैसे पृथ्वी) तो बिंदुओं के बीच की दूरी समतल सतह के समान नहीं होगी। गणित का उपयोग किए बगैर, इस तरह के तर्क का उपयोग करते हुए, आइंस्टाइन ने एक गोलाईदार स्थान का विचार विकसित किया जो एक गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र की उपस्थिति से मेल खाता है। इसकी मदद से उन्होंने साबित किया कि गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र में प्रकाश की वक्र मार्ग पर चलती किरण अभी भी उसी चाल से चल रही है!

इस विचार ने ब्राहृांड की एक नई प्रणाली का मार्ग प्रशस्त किया। यह प्रणाली ब्राहृांड पर लागू होती है, जहां विशाल द्रव्यमान के पिंड और गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र हैं। यह प्रणाली न्यूटन की उस प्रणाली से अलग है जो 17वीं शताब्दी से सौर मंडल का वर्णन करने में काफी प्रभावशाली साबित हुई थी। द्रव्यमान ‘कम’, यानी तुलनात्मक रूप से कम हो, तो आइंस्टाइन की प्रणाली न्यूटन प्रणाली का ही रूप ले लेती है।

इसलिए न्यूटन के गुरुत्वाकर्षण सिद्धांत में एक सन्निकटन था। यह उस स्थिति में काफी अच्छे परिणाम देती थी जब मापन पर्याप्त रूप से सटीक नहीं थे। न्यूटन द्वारा प्रतिपादित व्युत्क्रम वर्ग का नियम (जो कहता है कि दो पिंडों के बीच लगने वाला गुरुत्वाकर्षण बल उनके बीच की दूरी के वर्ग के व्युत्क्रमानुपाती होता है) भी एक सन्निकटन ही है। आइंस्टाइन के सामान्य सापेक्षता सिद्धांत के आने के बाद तथ्यों की व्याख्या के लिए इस नियम को अलग से कहने की ज़रूरत नहीं रह जाती क्योंकि कम द्रव्यमान पर वह आइंस्टाइन के सामान्य सापेक्षता सिद्धांत का एक सीमित रूप ही है।

आइंस्टाइन पारंपरिक ब्राहृांड विज्ञान में अन्य विसंगतियों का जि़क्र भी करते हैं, जिन्हें सामान्य सापेक्षता के सिद्धांत ने सुलझाया है। बुध की कक्षा के अग्रगमन (या पुरस्सरण, प्रेसेशन) की अवधि की गणना करना इस सिद्धांत की एक प्रमुख सफलता रही। न्यूटोनियन यांत्रिकी के तहत, ग्रहों की कक्षाएं दीर्घवृत्ताकार हैं और ये दीर्घवृत्त परिवर्तनशील नहीं हैं। और बुध (सूर्य का सबसे करीब ग्रह) के अलावा शेष सभी ग्रहों के लिए यह बात सही पाई गई थी। बुध के मामले में दीर्घवृत्ताकार कक्षा स्वयं भी घूमती है। यह गति काफी धीमी है, हर सदी में केवल 43 सेकंड (ध्यान दें कि 1 सेकंड डिग्री का 3600वां भाग होता है)। न्यूटोनियन यांत्रिकी इसको समझाने में असमर्थ थी। लेकिन सामान्य सापेक्षता सिद्धांत की मदद से, आइंस्टाइन ने यह दर्शा दिया कि सभी ग्रहों की कक्षाएं घूमती हैं, और बुध के मामले में उन्होंने एक सदी में 43 सेकंड के अग्रगमन की गणना भी की! (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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अंतरिक्ष यात्रा के दौरान शरीर में बदलाव – डॉ. डी. बालसुब्रामण्यन

दुनिया के पहले अंतरिक्ष यात्री यूरी गागरिन थे, उन्होंने 12 अप्रैल 1961 को पृथ्वी का एक चक्कर पूरा किया था। इस से भड़ककर यू.एस. ने ‘प्रोजेक्ट अपोलो’ लॉन्च किया था जिसके तहत पहली बार मनुष्य चांद पर उतरा था। चंद्रमा से वापस धरती पर आने के बाद आर्मस्ट्रॉन्ग ने कहा था कि “मनुष्य का एक छोटा कदम मानवजाति के लिए बड़ी छलांग है।” उसके बाद से अब तक 37 देशों के लगभग 536 लोग अंतरिक्ष की यात्रा कर चुके हैं। और आज यदि आपके पास पर्याप्त पैसा और जज़्बा है तो दुनिया की कम-से-कम चार कंपनियां आपको अंतरिक्ष की सैर करवाने की पेशकश कर रही हैं।

लेकिन अंतरिक्ष यात्रा मानव शरीर पर क्या प्रभाव डालती है- इस दौरान शरीर के रसायन शास्त्र, शरीर क्रियाओं, जीव विज्ञान और उससे जुड़ी चिकित्सीय परिस्थितियां कैसे प्रभावित होती हैं। मसलन, मंगल से पृथ्वी की दूरी औसतन 5 करोड़ 70 लाख किलोमीटर है और वहां पहुंचने में लगभग 300 दिन लगते है। तो इस एक साल की यात्रा के दौरान शरीर में क्या-क्या बदलाव होंगे? इन सभी बातों को ध्यान में रखते हुए नासा ने अंतरिक्ष यात्रियों के शरीर में होने वाले परिवर्तनों को जानने के लिए एक प्रयोग किया था जिसमें एक अंतरिक्ष यात्री को पृथ्वी से 400 किलोमीटर दूर स्थित इंटनेशनल स्पेस स्टेशन (आइएसए) में रखा गया।

इस अध्ययन में अंतरिक्ष यात्री स्कॉट केली को एक साल तक अंतरिक्ष स्टेशन में रखा गया और इस दौरान उनकी कई जीव वैज्ञानिक पैमानों पर जांच की गई। अंतरिक्ष यात्रा के कारण होने वाले प्रभावों की पुष्टि के लिए कंट्रोल के तौर पर स्कॉट के आइडेंटिकल जुड़वां भाई मार्क केली पृथ्वी पर ही रुके थे। इस दौरान मार्क की भी उन्हीं पैमानों पर जांच की गई। इस अध्ययन में कंट्रोल रखना एक बेहतरीन योजना है, क्योंकि स्कॉट में आए बदलाव अंतरिक्ष यात्रा का ही प्रभाव है इसकी पुष्टि मार्क के साथ तुलना करके की जा सकती है।

अंतरिक्ष के कौन से कारक शरीर को प्रभावित करते हैं। शरीर को प्रभावित करने वाले कारकों में से एक कारक है अंतरिक्ष का शून्य गुरुत्वाकर्षण या माइक्रो ग्रेविटी। अंतरिक्ष में शून्य गुरुत्वाकर्षण के कारण भारहीनता का एहसास होता है, जो शरीर को प्रभावित करता है। पृथ्वी पर हमें सीधा या तनकर खड़े होने में गुरुत्वाकर्षण मदद करता है। खड़े होने या चलने की स्थिति में हमारे शरीर में रक्त या अन्य तरल का प्रवाह नीचे की ओर होता है (शरीर में मौजूद पंप और वाल्व, इस नैसर्गिक प्रवाह के विपरीत, इन तरल पदार्थों का पूरे शरीर में संचार करते हैं)। अंतरिक्ष में शून्य गुरुत्वाकर्षण के कारण शरीर का तरल या रक्त संचार प्रभावित होता है। डॉ. लॉबरिच और डॉ. जेग्गो साइंस पत्रिका में प्रकाशित अपने पेपर में बताते हैं कि पृथ्वी पर जीवन ने पृथ्वी की सतह पर लगने वाले गुरुत्वाकर्षण के अनुरूप आकार लिया है, और लगभग सभी शारीरिक क्रियाएं इसके अनुकूल ढली हैं। तो शून्य गुरुत्वाकर्षण या माइक्रो ग्रेविटी उन्हें कैसे प्रभावित करेगी।

अंतरिक्ष में शरीर को प्रभावित करने वाला दूसरा कारक है आयनीकारक विकिरण से संपर्क। आयनीकारक विकिरण ब्राहृांडीय किरणों तथा सौर किरणों जैसे रुाोत से निकलती हैं। यह विकिरण अंतरिक्ष यात्रियों पर प्रभाव डालता है। पृथ्वी पर मौजूद वायुमंडल और पृथ्वी का चुंबकीय क्षेत्र इस विकिरण से हमारी सुरक्षा करता है। यानी अध्ययन के दौरान अंतरिक्ष स्टेशन निवासी स्कॉट पृथ्वी पर रुके मार्क की तुलना में आयनीकारक किरणों के संपर्क में अधिक आए थे।

जुड़वां भाइयों के इस अध्ययन में उनके शरीर में हुए रसायनिक, भौतिक और जैव-रासायनिक बदलावों की विस्तारपूर्वक तुलना फ्रेंसिन गेरेट, बैकलमेन और उनके साथियों द्वारा की गई। उन्होंने अंतरिक्ष यात्रा से पहले, यात्रा के दौरान, यात्रा से वापसी के तुरंत और 6 महीने बाद स्कॉट में संज्ञान सम्बंधी, शारीरिक, जैव-रासायनिक परिवर्तनों, सूक्ष्मजीव विज्ञान और जीन के व्यवहार और टेलोमेयर (क्रोमोसोम के सिरों वाले खंड) का अध्ययन किया। साथ ही साथ यही अध्ययन पृथ्वी पर रुके मार्क के साथ भी किए गए। उनका यह अध्ययन 25 महीने तक चला।

अध्ययन के नतीजे क्या रहे? अध्ययन में उन्होंने पाया कि अंतरिक्ष यात्रा के दौरान शरीर की कुछ जैविक प्रक्रियाएं जैसे प्रतिरक्षा प्रणाली (टी-कोशिकाएं), शरीर का द्रव्यमान, आंत में मौजूद सूक्ष्मजीव वगैरह कम प्रभावित हुए थे। कुछ अन्य प्रक्रियाएं जैसे रक्त प्रवाह मध्यम स्तर तक प्रभावित हुए थे। लेकिन अंतरिक्ष यात्रा के दौरान टेलोमेयर गंभीर रूप से प्रभावित हुए थे; स्कॉट के टेलोमेयर छोटे हो गए थे। इससे लगता है कि आयनीकारक किरणों ने स्कॉट को प्रभावित किया था। शून्य गुरुत्वाकर्षण के प्रभाव के कारण रक्त और ऊतकों का तरल ऊपरी हिस्सों में पहुंच गया था, कैरोटिड (गर्दन में मौजूद धमनी) की दीवार मोटी हो गई थी जिसके परिणाम-स्वरूप ह्मदय और मस्तिष्क की रक्त वाहिनियों में बदलाव हुए थे। साथ ही स्कॉट में रेटिना के इर्द-गिर्द रक्त प्रवाह और कोरोइड का मोटा होना देखा गया था, जिसके कारण नज़र हल्की धुंधली पड़ गई थी।

वापसी पर सामान्य स्थिति

वैज्ञानिक अंतरिक्ष यात्रा से वापसी के बाद भी स्कॉट की जांच करते रहे थे। उन्होंने पाया कि स्कॉट में जो बदलाव अंतरिक्ष यात्रा के दौरान आए थे, पृथ्वी पर लौटने के बाद वे सामान्य स्थिति में लौट आए थे। हमें इस तरह के और भी अध्ययनों की ज़रूरत है जिससे यह स्पष्ट हो सके कि लंबी अंतरिक्ष यात्रा जैविक और शारीरिक रूप से किस तरह प्रभावित करती है क्योंकि जितनी लंबी अंतरिक्ष यात्रा होगी प्रभाव भी उतना अधिक होगा। इसके अलावा अंतरिक्ष यात्रा से वापसी के बाद सामान्य अवस्था में लौटने में भी अधिक वक्त लगेगा। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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शुक्र का एक दिन – एस. अनंतनारायणन

शुक्र ग्रह (जिसे कई बार शुक्र तारा भी कह देते हैं) अपनी धुरी पर बहुत धीमे-धीमे घूमता है। पृथ्वी जितने समय में अपनी धुरी पर 243 बार घूम जाती है, उतने समय में शुक्र मात्र एक चक्कर पूरा कर पाता है। यानी पृथ्वी के 243 दिन शुक्र के एक दिन के बराबर होते हैं। धुरी पर चक्कर लगाने को घूर्णन कहते हैं। पता यह चला है कि हाल के अवलोकनों में घूर्णन के इस समय में वृद्धि हुई है। पृथ्वी के बारे में प्रमाण हैं कि उसकी घूर्णन गति बदलती तो है मगर सहस्राब्दियों में बदलती है। लेकिन शुक्र का दिन पिछले मात्र 16 सालों में 6.5 मिनट लंबा हो गया है।

लॉस एंजेल्स स्थित कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के थॉमस नवारो, जेराल्ड श्यूबर्ट और सेबेस्शियन लेबोनिस तथा पेरिस के सोर्बोन ने नेचर जियोसाइन्स पत्रिका में शुक्र ग्रह के वातावरण की अपनी अनुकृति का विवरण प्रस्तुत किया है। इससे पता चल सकता है कि शुक्र के घने वायुमंडल में गड़बड़ी उसके घूर्णन को प्रभावित करेगी। इस अनुकृति में एक सौर दिवस की लंबाई में 2 मिनट तक की घट-बढ़ की गुंजाइश है। जो अनुकृति बनाई गई है वह एक असाधारण संरचना के प्रस्तुतीकरण के लिए है। यह एक ग्रह के आकार की रचना है जो एक वायुमंडलीय तरंग भी हो सकती है। यह शुक्र के ऊपरी वायुमंडल में देखी गई है। शोध पत्र के मुताबिक यह तरंग पिछले चालीस वर्षों में शुक्र के दिन की लंबाई में देखे गए उतार-चढ़ाव की व्याख्या कर सकती है।

लट्टू के समान घूमती वस्तुएं अपनी आंतरिक रचना में बदलाव के ज़रिए अपनी घूर्णन गति को बदल सकती हैं। इसके लिए किसी बाहरी वस्तु से संपर्क की ज़रूरत नहीं होती। दूसरी ओर, सीधी रेखा में गतिमान कोई वस्तु चलती ही रहेगी, जब तक कि उसे रोका या धीमा न किया जाए। किंतु एक बार वह धीमी हो जाए, तो तब तक वापिस गति नहीं पकड़ेगी जब तक कि उसे ठेला न जाए। घूर्णन करती वस्तु के साथ ऐसा नहीं है। यदि चक्कर मारता कोई स्केटर या कलाबाज़ अपनी भुजाएं फैला दे, तो उसकी घूर्णन गति धीमी पड़ जाएगी। और यदि वह अपनी भुजाओं को वापिस समेट ले, तो गति बढ़ जाएगी। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि घूर्णन करती वस्तु के उन हिस्सों में घूर्णन ऊर्जा ज़्यादा संग्रहित होती है जो अक्ष से ज़्यादा दूरी पर हैं। सीधी रेखा में चल रही वस्तु के साथ ऐसा नहीं होता। ऐसे मामलों में वस्तु के सारे हिस्से अपने-अपने द्रव्यमान के अनुसार ऊर्जा का संग्रह करते हैं।

तारों और ग्रहों जैसे पिंडों की शुरुआत गैस और धूल के विशाल बादलों के रूप में हुई थी। फिर ये गुरुत्वाकर्षण के कारण धीरे-धीरे संघनित हुए। जो शुरुआती हल्का-सा घूर्णन चल रहा था वह तब कई गुना बढ़ गया जब पिंड के दूरस्थ हिस्से अक्ष के समीप आते गए। जब किसी तारे या ग्रह का अंतिम आकार व बनावट स्थापित हो जाते हैं तब एक अंतिम घूर्णन गति होती है। आम तौर पर यह स्थिर बनी रहती है।

पृथ्वी के मामले में वैसे तो आकार और डील-डौल कमोबेश स्थिर रहे हैं किंतु लाखों सालों में थोड़े-बहुत परिवर्तन भी हुए हैं। घूर्णन की वजह से ही पिंड पर कुछ बल लगते हैं जो उसकी आकृति को बदलते हैं। चूंकि भूमध्य वाला हिस्सा ध्रुवों की अपेक्षा अधिक तेज़ी से घूमता है, इसलिए भूमध्य का पदार्थ थोड़ा बाहर की ओर फेंका जाता है बनिस्बत ध्रुवों के और इस वजह से मध्य में पृथ्वी थोड़ी फूल गई है और ध्रुवों पर चपटी हो गई है। इसकी वजह से घूर्णन की गति धीमी हो जाती है, जब तक कि मध्य भाग का विस्तार स्थिर नहीं हो जाता। हिम युग के दौरान समुद्रों का पानी ध्रुवों के आसपास बर्फ के रूप में संग्रहित हो जाता है। बर्फ का वज़न दबाव डालता है जिसकी वजह से भूमध्य क्षेत्र और फूल जाता है और घूर्णन धीमा पड़ जाता है। फिर जब धरती गर्म होती है और बर्फ पिघलता है, तो दबाव शिथिल पड़ जाता है, तोंद घट जाती है और घूर्णन गति बढ़ जाती है।

समुद्री धाराएं और हवाएं भी किसी ठोस पिंड के घूर्णन को प्रभावित कर सकती हैं। जब धाराएं और हवाएं ठोस पिंड की गति के विपरीत दिशा में आती हैं तो ठोस पिंड के घूर्णन की रफ्तार बदलना ही होती है ताकि घूर्णन की कुल ऊर्जा अपरिवर्तित रहे। वैसे पृथ्वी के संदर्भ में समुद्रों और वायुमंडल का वज़न शेष धरती के मुकाबले बहुत कम हैं, जिसके चलते यह असर नज़र नहीं आता। चांद और पृथ्वी के बीच लगने वाला ज्वारीय असर भी घूर्णन गति में बहुत कम परिवर्तन कर पाता है। आंकड़ों में कहें तो यह असर प्रति शताब्दी में एक दिन में 2.3 मिलीसेकंड के बराबर होता है।

शुक्र का कोई चांद तो है नहीं, इसलिए ज्वारीय असर की चिंता करने की कोई ज़रूरत नहीं है। लेकिन वहां वायुमंडल का असर उल्लेखनीय हो जाता है। शुक्र का वायुमंडल कार्बन डाईऑक्साइड से भरा है। थोड़ी ऊंचाई पर गंधकाम्ल है। शुक्र के वायुमंडल का दबाव पृथ्वी के वायुमंडल की अपेक्षा 92 गुना अधिक है और वज़न 93 गुना अधिक है। इसमें हम 20 प्रतिशत और जोड़ सकते हैं क्योंकि शुक्र का वज़न पृथ्वी के वज़न का 80 प्रतिशत है। इसके अलावा, शुक्र का वायुमंडल अत्यंत ऊर्जावान है। यह वायुमंडल 4 पृथ्वी दिवसों में पूरे ग्रह का चक्कर काट लेता है जबकि शुक्र को एक अपनी धुरी पर एक चक्कर पूरा करने में 243 पृथ्वी-दिवस लगते हैं। लिहाज़ा, शुक्र पर चक्कर काटते वायुमंडल का असर पृथ्वी की तरह नगण्य नहीं है।

शुक्र के घूर्णन का निश्चित माप वह माना गया जो नासा के मेजीलान मिशन द्वारा किया गया था। यह था प्रति घूर्णन 242.0185ल्0.0001 पृथ्वी दिवस। युरोपीय अंतरिक्ष संस्था के मिशन वीनस एक्सप्रेस ने 2006 में पाया कि शुक्र पर कुछ भौगोलिक संरचनाओं की स्थिति की गणना और वास्तविक स्थिति में 19.9 किलोमीटर की त्रुटि है। इसका मतलब है कि 16 साल पहले किए गए आखरी मापन के बाद शुक्र का घूर्णन 6.5 मिनट धीमा हुआ है।

2015 से शुरू करके जापान के वीनस ऑर्बाइटर आकात्सुकी शुक्र के वायुमंडल की विस्तृत तस्वीरें भेजता रहा है। यह देखा गया था कि उच्च गति की हवाएं छोटे आकार की रचनाओं को धीमा करती हैं, वहीं ग्रह के पैमाने की रचनाएं मुख्य हवाओं की अपेक्षा धीमी या तेज़ चलती हैं। यह सोचा गया था कि यह वायुमंडल में विशाल तरंगों की द्योतक हैं। आकात्सुकी ने दर्शाया था कि शुक्र के ऊपरी वायुमंडल में एक धनुषाकार रचना है जो उत्तरी ध्रुव से दक्षिणी ध्रुव के बीच 10,000 कि.मी. में फैली है। कई दिनों के अवलोकन के दौरान इस रचना की स्थिति स्थिर रही जबकि ग्रह की सतह अपनी गति से घूमती रही। वर्तमान शोध पत्र में कहा गया है कि शुक्र के चार दिवसों तक ग्रह के सूर्य की ओर वाले हिस्से पर दोपहर के समय वायुमंडल में बड़े आकार की एक रचना बनी रही थी।

थॉमस नवारो और साथियों ने शुक्र पर संभावित विभिन्न परिस्थितियों की कंप्यूटर अनुकृति तैयार की। ये परिस्थितियां ज्ञात मापदंडों और वर्तमान रचना के साथ मेल खाती थीं। अनुकृति विश्लेषण के आधार पर उन्हें लगता है कि जो कुछ देखा गया है वह शुक्र की सतह की संरचना से मेल खाता है जो वायुमंडलीय तरंगों को जन्म देती है। यहां वायुमंडल का वज़न किसी भी अंसतुलन को बहाल करने की कोशिश करता है। इन तरंगों को ‘गुरुत्व तरंगें’ कहते हैं और ये पृथ्वी के वायुमंडल में भी पैदा होती हैं। ये तरंगें तब पैदा होती है जब वायुमंडल की निचली परतों (जो ऊंचाई के साथ ठंडी होती जाती हैं) से ऊपरी परतों को ऊर्जा का स्थानांतरण होता है। इनके बीच एक मध्यवर्ती परत होती है।

उच्च गति से घूमते वायुमंडल और धीमी गति से घूमते ठोस पिंड के बीच अंतरक्रिया का परिणाम यह होता है कि घूर्णन गति प्रभावित होती है। लिहाज़ा, ग्रह की घूर्णन गति में किसी बैले नर्तकी या कलाबाज़ की तरह उतार-चढ़ाव होते रहते हैं। देखा जाए तो 243 दिनों में 6.5 मिनट की कमी कोई बड़ी बात नहीं है, मगर बड़ी बात यह है कि यह कमी मात्र 16 सालों की छोटी-सी अवधि में हुई है। यह भी संभव है कि इन्हीं वजहों से शुक्र की घूर्णन गति सौर मंडल के शेष ग्रहों की अपेक्षा सबसे धीमी है। (स्रोत फीचर्स)

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पृथ्वी को हिला देने वाले क्षुद्र ग्रह – नरेन्द्र देवांगन

क क्षुद्र ग्रह अक्टूबर की रात को दूरबीन की फोटोग्राफी प्लेट पर एक हल्की सी सफेद लकीर छोड़ता हुआ चुपके से निकल गया था। जर्मनी की हाइडेलबर्ग वेधशाला के कार्ल राइनमुट तथा अन्य नक्षत्र शास्त्रियों ने 1937 में लगभग 35,000 किलोमीटर प्रति घंटे की गति से पृथ्वी के पास से गुज़रते इस आकाशीय पिंड की कक्षा की गणना की और बाद में इसका नाम हर्मिस रखा गया। वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि यह पृथ्वी से चंद्रमा की दूरी की दोगुनी से भी कम दूरी पर था। इसे नक्षत्र शास्त्र की भाषा में बाल बराबर दूरी माना जाता है। एक मायने में यह पृथ्वी से टकराते-टकराते ‘बाल-बाल’ बच गया था।

हर्मिस उन क्षुद्र ग्रहों (एस्टीरॉइड) में से एक है जिन्हें लघु आकारों तथा अनियमित आकृतियों के कारण यदा-कदा ‘उड़ते हुए पर्वत’ कहा जाता है। लेकिन बड़े ग्रहों से भिन्न, कुछ क्षुद्र ग्रह सूर्य के चारों ओर पृथ्वी के वार्षिक मार्ग को काटने वाली विषम कक्षाओं में यात्रा करते हैं। इस प्रकार वे कभी-कभी हमारे ग्रह से टकरा सकते हैं।

यदि हर्मिस हमारे ग्रह से टकराता तो इस टकराव से एक मेगाटन के 1 लाख बमों के बराबर ऊर्जा उत्पन्न होती। हर्मिस का व्यास तो मात्र एक किलोमीटर है। यदि उससे 10 गुना बड़ा क्षुद्र ग्रह हमसे टकराए तो समूची पृथ्वी का अस्तित्व खतरे में पड़ जाएगा। पृथ्वी ज़ोर से हिलाए गए घंटे की भांति डगमगाने लगेगी। इससे भूकंप तथा ज्वार तरंगें पैदा होंगी। धूल, धुएं अथवा जलवाष्प से (जो इस बात पर निर्भर करता है कि क्षुद्र ग्रह भूमि से टकराया है अथवा जल से) वर्षों के लिए वातावरण प्रदूषित हो जाएगा। पृथ्वी की जलवायु बदल जाएगी और वह प्राणियों के लिए जानलेवा सिद्ध होगी।

पृथ्वी अभी तक क्षुद्र ग्रहों के अनेक प्रहार झेल चुकी है। उदाहरण के लिए, लगभग 3 करोड़ वर्ष पहले एक क्षुद्र ग्रह के टकराने से वर्तमान शिकागो नगर के 110 किलोमीटर दक्षिण में 13 किलोमीटर चौड़ा एक गड्ढा बन गया था। एक अन्य लगभग 35 किलोमीटर चौड़ा गड्ढा मेन्सन (आयोवा) के आसपास के मक्का के खेतों के नीचे छिपा है। पृथ्वी पर कुल मिलाकर क्षुद्र ग्रह निर्मित 100 गड्ढे पाए जा चुके हैं।

मंगल एवं बृहस्पति ग्रहों के मध्य स्थित क्षुद्र ग्रह पट्टी 10 अरब से अधिक पिंडों से भरी है। ये पिंड आकार में सूक्ष्म धूल कणों से लेकर करीब 1025 किलोमीटर व्यास वाले विशालतम क्षुद्र ग्रह सेरेस के आकार के हैं। अमरीकी नक्षत्र शास्त्री डेनियल किर्कवुड ने यह पता लगाया था कि क्षुद्र ग्रह पट्टी विभिन्न क्षेत्रों में विभाजित है। हर क्षेत्र के बीच एक रहस्यपूर्ण अंतराल है जिसे अब किर्कवुड अंतराल कहा जाता है।

जैक विज़डम ने 1982 में यह खोज की थी कि बृहस्पति तथा अन्य ग्रहों का गुरुत्वाकर्षण क्षुद्र ग्रह पट्टी को प्रभावित करता है। क्षुद्र ग्रहों में से जो भी पिंड किर्कवुड अंतराल में आ घुसता है, वह झटका खाकर अंतत: पृथ्वी की निकटतर कक्षा में पहुंच जाता है। और ऐसे झटके से फेंके गए क्षुद्र ग्रहों में से हर पांच में से एक क्षुद्र ग्रह पृथ्वी की कक्षा को काटते हुए गुज़रता है।

इन क्षुद्र ग्रहों का उद्भव कैसे हुआ? क्या वे किसी नष्ट ग्रह का कचरा हैं? यह सिद्धांत प्रस्तुत अवश्य किया गया है, पर आजकल इसे व्यापक मान्यता प्राप्त नहीं है। अनेक वैज्ञानिक एक अन्य संभव परिकल्पना में विश्वास करते हैं। करीब 4.6 अरब वर्ष पहले गैसों तथा धूल के चक्राकार पिंड से ग्रह बन रहे थे। सूर्य की परिक्रमा करते समय उस धूल के कुछ हिस्से छूट गए। सौर मंडल धीरे-धीरे साफ हुआ। इसका एकमात्र अपवाद रह गई क्षुद्र ग्रह पट्टी, जहां बृहस्पति का गुरुत्व सूर्य के विरोधी आकर्षण का मुकाबला करने में समर्थ था और इसी कारण ये पिंड जुड़कर एकाकार होने से रह गए। इस मत के अनुसार, क्षुद्र ग्रह उस समय की बची-खुची सामग्री है।

क्षुद्र ग्रहों के निर्माण का कारण जो भी हो मगर इनके पृथ्वी पर टकराने से जो उथल-पुथल मच सकती है उसा अंदाज़ इस बात से लगाया जा सकता है कि करीब 6.5 करोड़ वर्ष पहले 10-16 किलोमीटर चौड़ा एक क्षुद्र ग्रह पृथ्वी से टकराया, जिससे हमारा वि·ा हमेशा के लिए बदल गया। टकराव के फलस्वरूप भूकंप आए और ज्वार तरंगें उठीं, प्रचंड ज्वालामुखी विस्फोट हुए और दावानल भड़क उठे। टनों धूल तथा पत्थर वातावरण में भर गए और वर्षों तक वहीं बने रहे जिससे सूर्य का प्रकाश ढंक गया इससे प्रकाश संश्लेषण रुक गया और डायनासौर सहित हज़ारों प्रजातियां भूख से मर गर्इं। वैसे 6.5 करोड़ वर्ष पुराने उस क्षुद्र ग्रह को हम अपना सौभाग्य मान सकते हैं – उस तथा अन्य क्षुद्र ग्रहों के प्रहारों ने उस वि·ा का निर्माण किया होगा जो आज हमारे सामने है तथा मनुष्य के अस्तित्व एवं जीवन को संभव बनाया होगा।

साइबेरियाई वनों के एक दूरवर्ती भाग के ऊपर 30 जून 1908 को एक दीप्तिमान वस्तु कौंधी और 12 मेगाटन के हाइड्रोजन बम की ऊर्जा के साथ फट गई। उस विस्फोट से जो भूकंपीय तरंगें तुंगुस्का (रूस) में उत्पन्न हुर्इं वे दूर इंग्लैंड तक महसूस की गर्इं। आघात तरंगों ने करीब 80 किलोमीटर क्षेत्र में हर वृक्ष को धराशायी कर दिया। इस विस्फोट से उठी धूल तथा कचरा विश्व भर में फैल गया। तुंगुस्का का वह भयंकर विस्फोट किसी लुप्त होते धूमकेतु ने उत्पन्न किया था या किसी पथरीले क्षुद्र ग्रह ने? वैज्ञानिक इस विषय पर बहस करते रहे। अमरीकी भूगर्भ सर्वेक्षण संस्थान के अनुसंधानी भूगर्भशास्त्री यूजीन शूमेकर के अनुसार, महत्व की बात यह है कि अगले 75 वर्षों में ऐसी ही घटना पुन: होने की काफी संभावना है।

नासा की एक सलाहकार परिषद ने 1980 में डायनासौर के विनाश सम्बंधी सिद्धांत पर चर्चा करते हुए इस आशंका पर भी विचार किया था कि भविष्य में एक ऐसा ही टकराव समूची मानव जाति का विनाश कर सकता है। उन्होंने सोचा कि क्या खतरा उत्पन्न करने वाले क्षुद्र ग्रहों का पता लगाया जा सकता है और यदि उनमें से कोई पृथ्वी के अत्यधिक निकट आ जाए तो क्या पृथ्वी की रक्षा के उपाय किए जा सकते हैं।

कुछ वैज्ञानिक पृथ्वी के निकटवर्ती क्षुद्र ग्रहों की खोज कर रहे हैं। कैलिफोर्निया इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी की पालोमर वेधशाला में इलियानोर हेलिन पृथ्वी ग्रह की कक्षा को काटकर गुज़रने वाले क्षुद्र ग्रहों का सर्वेक्षण कर रहे हैं। महीने में करीब एक सप्ताह हेलिन और उनके साथी कैमरा दूरबीन से आकाश के चित्र लेते हैं। फिर वे नए क्षुद्र ग्रहों का प्रतिनिधित्व करने वाली विस्थापित छवियों की खोज में नेगेटिवों को एक-दूसरे से मिला कर देखते हैं।

पृथ्वी को चकनाचूर करने में सक्षम आकार के क्षुद्र ग्रह की टक्कर से बचने के लिए हम क्या कर सकते हैं? मैसाचुसेट्स इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी के प्रोफेसर पाल सैंडार्फ ने 1967 में एक ऐसी ही चुनौती अपने छात्रों के समक्ष प्रस्तुत की थी। यदि करीब डेढ़ किलोमीटर व्यास का क्षुद्र ग्रह आइकेरस 6 महीने में पृथ्वी से टकराने वाला है तो आप उसकी भीषण टक्कर से पृथ्वी को कैसे बचाएंगे? छात्रों का उत्तर था कि अणु शस्त्रों से लैस प्रक्षेपास्त्र छोड़ कर क्षुद्र ग्रह के बगल में उनका विस्फोट कराया जाए ताकि क्षुद्र ग्रह का यात्रा पथ बदला जा सके। सैंडार्फ ने छात्रों की योजना की सफलता की संभावना 90 प्रतिशत मानी।

कुछ वैज्ञानिक यह तर्क देते हैं कि चंद्रमा की अपेक्षा पृथ्वी के अधिक निकट आने वाले 9 मीटर चौड़ाई वाले क्षुद्र ग्रहों का भी मार्ग बदलने की चेष्टा करनी चाहिए क्योंकि ऐसे पिंड से टक्कर एक परमाणु बम के विस्फोट जैसी होगी। उदाहरण के लिए, जापान एयरलाइंस के विमान के कर्मचारियों ने 9 अप्रैल 1984 को एक 29,000 मीटर ऊंचा तथा 320 किलोमीटर चौड़ा खुंभी जैसा बादल देखा। इस आशंका से कि वह एक रेडियोधर्मी बादल से होकर गुजरा है, उसके चालक ने उड़ान को एंकरेज स्थित अमरीकी वायु सेना अड्डे की ओर मोड़ दिया, लेकिन जांच में रेडियोधर्मिता के चिंह नहीं मिले। दो विशेषज्ञों ने मत व्यक्त किया कि विमान किसी उल्का के विस्फोट से उत्पन्न चमकते बादल के पास से गुजरा होगा।

शूमेकर के अनुसार, हर्मिस जैसा विशालकाय क्षुद्र ग्रह औसतन 1 लाख वर्ष में एक बार पृथ्वी से टकराता है। और एक मेगाटन बम की ऊर्जा उत्पन्न करने में सक्षम 25 मीटर व्यास का क्षुद्र ग्रह हर 30 वर्ष में एक बार पृथ्वी के वातावरण में प्रवेश करता है।

सट्टेबाज़ भले ही यह कह सकते हैं कि यह खतरा चिंता करने योग्य नहीं है। लेकिन क्षुद्र ग्रहों में इन सट्टेबाज़ों की रुचि उड़ती स्वर्ण खदानों के समान होगी। कुछ भविष्यवादियों का विश्वास है कि उच्च श्रेणी के निकल एवं लौह से युक्त 1600 मीटर चौड़े क्षुद्र ग्रह का मूल्य वर्तमान दरों पर 4 खबर डॉलर होगा। निकल एवं लौह के अलावा, कुछ क्षुद्र ग्रहों में स्वर्ण तथा प्लेटिनम के समृद्ध भंडार हो सकते हैं। और ऐसे कुछ खनिज बहुल क्षुद्र ग्रहों की कक्षाएं पृथ्वी की कक्षा के इतने निकट हैं कि वे चंद्रमा की भांति पहुंच में हैं और उन्हें अंतरिक्ष अड्डे बनाया जा सकता है, उनका दोहन किया जा सकता है।

एरिज़ोना अंतरिक्ष संसाधन केंद्र के अनुसंधानकर्ताओं ने रोबोट के ज़रिए अंतरिक्ष में क्षुद्र ग्रहों से धातुएं निकालने के तरीके खोज निकाले हैं। नासा ने अपने बहु विलंबित गैलीलियो उपग्रह के क्षुद्र ग्रहों के पास से गुज़रने की योजना तैयार की है। सोवियत संघ क्षुद्र ग्रहों की यात्रा की तैयारियां कर रहा है। और युरोप के देशों को आशा है कि वे करीब 16 करोड़ किलोमीटर दूर स्थित क्षुद्र ग्रह वेस्टा में एक उपग्रह भेज सकेंगे।

हो सकता है कि कोई क्षुद्र ग्रह ही अतीत में पृथ्वी पर शासन करने वाले विशालकाय डायनासौरों और अन्य जीवों के लिए मकबरे का पत्थर बना हो। हमारे सामने तो चुनौती यह है कि हम इन क्षुद्र ग्रहों को सीढ़ी के ऐसे पत्थरों में परिणित कर दें जिन पर चढ़कर हम सितारों के बीच मानव जाति के भाग्य से भेंट करने के लिए साहसपूर्वक एक-एक पग चढ़ सकें। (स्रोत फीचर्स)  

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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अगर भू-चुंबकत्व खत्म हो जाए तो? – ज़ुबैर सिद्दिकी

हमारी पृथ्वी के बारे में कई चीज़ें ऐसी हैं जिन पर हम रोज़मर्रा के जीवन में कभी ध्यान नहीं देते। यूं तो मानव सभ्यता विश्व के हर कोने में मौजूद है फिर भी हमारा अस्तित्व प्राकृतिक घटनाओं के संतुलन पर निर्भर करता है और वे हमारे नियंत्रण से बाहर हैं। सूरज से पृथ्वी की दूरी की बदौलत ही यहां जीवन संभव हुआ है, और ज़ाहिर है कि इस पर हमारा कोई नियंत्रण नहीं है। पृथ्वी का भव्य परिदृश्य भी प्राकृतिक घटनाओं का नतीजा है। हिमालय पर्वत हो या माउंट फूजी और माउंट वेसुवियस या फिर महासागरों और महाद्वीपों का आकार, ये सब प्लेट टेक्टोनिक्स की देन हैं। हमारे ग्रह की कई छोटी-छोटी खासियतें इसे सुंदर और रहने योग्य बनाती हैं। लेकिन क्या हमने कभी सोचा है कि इनमें कोई मामूली-सा बदलाव करने पर क्या होगा? जैसे कल्पना कीजिए कि यदि पृथ्वी का चुंबकीय क्षेत्र गायब हो जाए तो क्या होगा?

कल्पना कीजिए कि पृथ्वी तो ठीक वैसी ही रहे, बस भू-चुंबकत्व को खत्म कर दिया जाए। वैसे ऐसा होने की संभावना तो कम है लेकिन विचार करने के हिसाब से यह एक अच्छा प्रयोग है। इस प्रभाव के कुछ परिणाम तो मामूली हो सकते हैं लेकिन कुछ निहायत विनाशकारी भी हो सकते हैं। चलिए देखते हैं।

दिशाओं का ज्ञान

दिशासूचक या कंपास को ही ले लीजिए। कंपास वास्तव में एक छोटा चुंबक है, जो किसी आम चुंबक की तरह खुद को नज़दीक के चुंबकीय क्षेत्र की सीध में ले आता है। पृथ्वी का चुंबकीय क्षेत्र काफी शक्तिशाली है और वह कंपास की सुई को उत्तर-दक्षिण दिशा में रखता है। यदि यह गायब हो जाए, तो कंपास सबसे नज़दीकी चुंबकीय रुाोत की सीध में आ जाएगा। वैज्ञानिकों ने इसका अवलोकन भी किया है। पृथ्वी पर ऐसे स्थान हैं जहां चुंबकीय विसंगतियां पाई गई हैं। उदाहरण के तौर पर, मध्य अफ्रीकी गणराज्य में, पृथ्वी की ऊपरी सतह में चुंबकीय विविधताओं के कारण कंपास की सुई अलग-अलग दिशाओं में ठहरती है जिससे उस क्षेत्र में समुद्री यात्राओं में कंपास बेकार साबित होता है। यदि पूरे ग्रह का चुंबकीय क्षेत्र गायब जाता है तो हमारे पास ऐसे मनमानी दिशाओं में ठहरने वाले कंपास ही बचेंगे।

केवल मनुष्य ही दिशाज्ञान के लिए पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र का उपयोग नहीं करते। कई पक्षी, समुद्री कछुए, लॉबस्टर, मधुमक्खियां, सैल्मन और यहां तक कि फल मक्खियों के शरीर में जैविक कंपास होते हैं, जिन्हें ‘मैग्नेटोरिसेप्टर्स’ कहा जाता है। पक्षी इनका उपयोग सर्दियों के समय गर्म स्थानों की तलाश के लिए करते हैं, जबकि समुद्री कछुए खुले समुद्र में इनका उपयोग करते हैं और अपने अंडे देने के लिए समुद्र तटों की तलाश करते हैं। यहां तक कि अधिकतर मादा समुद्री कछुए हर साल एक ही समुद्र तट पर लौटती हैं।

यदि पृथ्वी का चुंबकीय क्षेत्र गायब हो जाता है तो कंपास की मदद से यात्राएं करने वाले जीव गंभीर संकट में पड़ सकते हैं।

ध्रुवीय ज्योति अलग होगी

पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र में नुकसान होने से पृथ्वी की ध्रुवीय ज्योति में भी बदलाव आ सकता है। इन्हें आम तौर पर उत्तर ध्रुवीय और दक्षिण ध्रुवीय प्रकाश कहा जाता है। आम तौर पर हमारे ग्रह का चुंबकीय क्षेत्र (मैग्नेटोस्फीयर) सूरज से आने वाले आवेशित कणों (सौर हवाओं) को परावर्तित कर देता है। लेकिन उत्तर और दक्षिण ध्रुवों के आसपास मैग्नेटोस्फीयर अंदर की ओर धंसा होता है, जिससे सौर हवाएं हमारे ऊपरी वायुमंडल के साथ खिलवाड़ कर पाती हैं। इसके परिणामस्वरुप शानदार, बहुरंगी पट्टियां उत्पन्न होती हैं। इसी को ध्रुवीय ज्योति कहा जाता है।

पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र के अभाव में, हमारा पूरा ऊपरी वातावरण सौर हवा के लिए खुल जाएगा जिससे ध्रुवीय ज्योति कुछ अलग ही तरह से प्रकट होगी; शायद शुक्र और मंगल ग्रह की ध्रुवीय ज्योति के समान। चूंकि इन दोनों ग्रहों के पास कोई उल्लेखनीय चुंबकीय क्षेत्र नहीं है, इसलिए वहां ध्रुवीय ज्योति कभी-कभी धुंधली और बेरंग होती है और रात के पूरे आकाश में बिखरी होती है। इस प्रकार, हमारे चुंबकीय क्षेत्र के गायब होने से पृथ्वी के सबसे लुभावने प्राकृतिक नज़ारे निस्तेज हो सकते हैं।

कॉस्मिक किरणें धरती तक पहुंचेंगी

हमारा चुंबकीय क्षेत्र सिर्फ सुंदर ध्रुवीय ज्योति उत्पन्न नहीं करता बल्कि वह हमें जीवित रखता है। सूर्य से निकलने वाली कॉस्मिक किरणें और सौर हवा पृथ्वी पर जीवन के लिए हानिकारक हैं। चुंबकीय आवरण की उपस्थिति के बिना हमारे ग्रह पर निरंतर इन घातक कणों का हमला होता रहेगा। शरीर पर कॉस्मिक किरणों का प्रभाव काफी भयानक हो सकता है। इसके उदाहरण के तौर पर ल्यूनर मिशन के दौरान अंतरिक्ष यात्रियों ने अक्सर अपनी आंखें बंद करने पर प्रकाश की चमक देखने की सूचना दी थी। कॉस्मिक किरणों का सीधा परिणाम उनके रेटिना पर हुआ था और उनमें से कुछ को आगे चलकर मोतियाबिंद की समस्या भी हुई।

लंबे समय की अंतरिक्ष यात्रा के संदर्भ में कॉस्मिक किरणें वास्तविक चिंता का विषय है। मंगल ग्रह पर जाने वाले संभावित अंतरिक्ष यात्रियों को पृथ्वी की तुलना में 1000 गुना तक अधिक कॉस्मिक किरणों का सामना करना पड़ सकता है। यदि पृथ्वी का चुंबकीय क्षेत्र गायब हो गया, तो पूरी मानव जाति और अन्य सभी जीवों को अंतरिक्ष यात्रियों के समान 1000 गुना अधिक विकिरण का सामना करना होगा। कॉस्मिक किरणें हमारे शरीर और हमारे डीएनए को भी नुकसान पहुंचा सकती हैं, जिससे दुनिया भर में कैंसर और अन्य बीमारियों का खतरा बढ़ जाएगा।

बिजली कटौतियां और क्षतिग्रस्त उपग्रह

भू-चुंबकत्व के बिना, हमारी आधुनिक टेक्नॉलॉजी भी जोखिम में होगी। चुंबकीय क्षेत्र के बिना न केवल उपग्रहों को सौर तूफानों से नुकसान हो सकता है, बल्कि हर इलेक्ट्रॉनिक उपकरण कॉस्मिक किरणों और सौर हवा के उच्च ऊर्जा वाले कणों के संपर्क में आ सकता है।

वास्तव में, सौर गतिविधि के कारण पहले भी ऐसी समस्याएं हो चुकी हैं। 1989 में, बड़े पैमाने पर सूरज की सतह से अत्यंत गर्म प्लाज़्मा विस्फोट ने पृथ्वी के मैग्नेटोस्फीयर पर हमला किया था, तब कनाडा के क्यूबेक प्रांत में बिजली आपूर्ति पूरी तरह ठप्प हो गई थी। पूरे प्रांत का पावर ग्रिड 12 घंटे के लिए बंद रहा था और आसपास के क्षेत्रों को अपने अपने ग्रिड चालू रखने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ी थी। कुछ उपग्रहों को भी नुकसान हुआ था। उनके नाज़ुक इलेक्ट्रॉनिक उपकरण एक विशाल सौर तूफान से निपटने के लिए डिज़ाइन नहीं किए गए थे। इस दौरान कई उपग्रह तो घंटों नियंत्रण से बाहर रहे।

यह सही है कि 1989 का भू-चुंबकीय तूफान असामान्य रूप से बड़े पैमाने का था, लेकिन सौर हवाएं सामान्य सौर गतिविधियों के दौरान भी मैग्नेटोस्फीयर पर निरंतर हमला कर रही हैं। यदि पृथ्वी अपने चुंबकीय क्षेत्र को खो देती है, तो मामूली सौर तूफानों से बचने का भी कोई साधन नहीं होगा। हमारे पॉवर ग्रिड और अधिक संवेदनशील हो जाएंगे। यहां तक कि कंप्यूटर और अन्य इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों को भी काफी नुकसान होगा।

इससे भी अधिक खतरनाक तो उस वायुमंडल का खत्म हो जाना है जिसमें हम सांस ले रहे हैं। सूरज की सौर हवाएं इतनी शक्तिशाली होती हैं कि यह एक ग्रह के वायुमंडल से गैसों को आसानी से चीरकर खत्म कर सकती हैं। ऐसी संभावना है कि ऐसा मंगल ग्रह पर हो चुका है। मंगल ग्रह पर भी पृथ्वी की तरह महासागर और घना वातावरण मौजूद था लेकिन इसका चुंबकीय क्षेत्र अरबों साल पहले गायब हो चुका था। जिसके बाद से यह वातावरण पूरी तरह से असुरक्षित हो गया और धीरे-धीरे यह पूरी तरह से खत्म हो गया। जब इसका वायुमंडलीय दबाव काफी कम हो गया, तो इसका पानी वाष्पीकृत होने लगा। यह संभव है कि भू-चुंबकीय क्षेत्र के बिना हमारे वायुमंडल, हमारे महासागर और जीवन खतरे में होंगे।

भू-चुंबकीय क्षेत्र के अलावा ऐसी और भी कई मूल चीज़ें हैं जिनका हमारे जीवन पर गहरा प्रभाव है। प्रकृति में हर चीज़ किसी न किसी पर निर्भर है और उसके खत्म हो जाने के बाद ही हमें उसकी महत्ता का अनुभव होता है। आधुनिक काल में बड़ी-बड़ी तकनीकों के विकसित होने के बाद भी मानव जाति सबको नियंत्रित करने में असमर्थ है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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शायद भारत में सुपरनोवा का अवलोकन किया गया था – प्रदीप

बात 4 जुलाई 1054 की है जब चीन और जापान के शाही ज्योतिषियों ने रात्रि आकाश के एक कोने में वृषभ राशि के अंदर अचानक एक प्रकाशपुंज को उभरते हुए देखा था जबकि कुछ ही देर पहले वहां कुछ नहीं था। अचानक ही वहां तारे जैसा कुछ चमकने लगा। इसके बाद वह इस कदर चमकीला होता गया कि उसकी चमक शुक्र ग्रह की चमक से पांच गुना ज़्यादा हो गई। पूरे 23 दिनों तक वह तारा दिन के उजाले में भी चमकता रहा! ज्योतिषी इसे देखकर हैरान हो गए होंगे; उन्हें बिलकुल भी समझ में नहीं आया होगा कि आखिर वह चीज़ थी क्या और अचानक कहां से प्रकट हुई थी? चीनी ज्योतिषियों ने एकाएक प्रकट होने वाले इस तारे को ‘काई ज़िंग’ या ‘मेहमान तारा’ नाम दिया। वह मेहमान तारा तकरीबन दो साल बाद आकाश से ओझल हो गया!

वृषभ राशि के ठीक उसी स्थान पर युरोपीय खगोलविदों ने 700 वर्ष बाद सन 1731 में दूरबीन से एक तारा देखा। फिर 1758 में खगोलविद शार्ल मेसिए ने बताया कि वह कोई तारा नहीं है, बल्कि एक निहारिका (नेबुला) है। चीनियों द्वारा देखे गए ‘मेहमान तारे’ के विस्फोट के अवशेष कर्क निहारिका (क्रैब नेबुला) के रूप में आज भी मौजूद हैं। ऐसे ही विस्फोटित तारों को अब वैज्ञानिक नोवा या सुपरनोवा नाम देते हैं। जब कोई तारा बतौर सुपरनोवा विस्फोटित होता है तब उसकी चमक कुछ देर के लिए समूची मंदाकिनी को भी फीका कर देती है। यही नहीं, इस दौरान इतनी अधिक मात्रा में ऊर्जा निकलती है कि उतनी ऊर्जा हमारा सूर्य अपने पूरे जीवनकाल में नहीं उत्सर्जित कर सकता!

एक सहस्राब्दी में कोरी आंखों से चंद सुपरनोवा विस्फोट ही दिखाई देते हैं। इस लिहाज़ से सुपरनोवा का दिखाई देना एक दुर्लभ खगोलीय घटना है। क्रैब सुपरनोवा के बाद खगोलविद टायको ब्रााहे ने 1572 में और जोहांस केपलर ने 1604 में हमारी आकाशगंगा में  प्रकट हुए सुपरनोवा देखे थे।

खगोलविदों का मानना है कि 1054 के सुपरनोवा को चीन और जापान के अलावा दुनिया में और भी जगहों पर (मसलन भारत, यूरोप, मध्यपूर्व और अमेरिका) में भी लोगों ने देखा होगा। आश्चर्य की बात यह है इस अद्भुत खगोलीय घटना को भारत में देखे जाने का कोई भी उल्लेख या रिकॉर्ड अभी तक नहीं मिला था, जबकि उस समय भारत में सैद्धांतिक खगोल विज्ञान का स्वर्णयुग चल रहा था। यह युग पांचवी शताब्दी में आर्यभट से लेकर बारहवीं शताब्दी में भास्कर द्वितीय तक चला। प्रसिद्ध खगोल शास्त्री जयंत नार्लीकर और संस्कृत और प्राकृत भाषा की विद्वान सरोजा भाटे ने उस काल में रचित साहित्य, अभिलेखों आदि की जांच-पड़ताल की जिस काल में क्रैब सुपरनोवा की घटना घटी थी, तो उन्हें भारतीयों द्वारा सुपरनोवा देखने का कोई भी साक्ष्य या उल्लेख नहीं मिला।

अब जवाहरलाल नेहरू प्लेनेटेरियम, बैंगलुरु की भूतपूर्व निदेशक डॉ. बी.एस. शैलजा ने इंडिया साइंस वायर में प्रकाशित एक फीचर आलेख में यह जानकारी दी है कि हाल में किए गए अध्ययनों में कुछ शिलालेखों में भारतीयों द्वारा उक्त सुपरनोवा को देखने के साक्ष्य मिले हैं। आगे डॉ. शैलजा को ही उद्धरित कर रहा हूं।

दक्षिण भारत और दक्षिण-पूर्व एशिया में पत्थरों पर लिखने की परंपरा रही है। इन शिलालेखों में प्रयुक्त भाषा संस्कृत थी, जिसका अभिप्राय समझना सरल था। इन शिलालेखों में ग्रहणों और ग्रहों की युतियों से सम्बंधित खगोलीय विवरण मिलते हैं।

कंबोडिया में एक ऐसा शिलालेख मिला है, जिसमें किसी साधु द्वारा शिवलिंग की स्थापना के समय शिव के लिए ‘शुक्रतारा प्रभावाय’ विशेषण प्रयुक्त हुआ है, अर्थात वह जो शुक्र जैसी तीव्र कांति उत्पन्न कर सकता है। शिलालेख शुक्र जैसे चमकीले किसी तारे के प्रेक्षण की ओर संकेत करता है और शायद वह सुपरनोवा देखने की घटना थी।

एक और ऐसा शिलालेख मिला है जो अजिला साम्राज्य के समय का है। इसमें कर्नाटक के वेनुरु नामक कस्बे में बाहुबली की विशाल प्रतिमा की स्थापना के बारे में लिखा है। एक समय में कर्नाटक जैन धर्म का प्रमुख केंद्र था। यद्यपि यह शिलालेख कन्नड़ लिपि में लिखा गया है, पर इसकी भाषा संस्कृत है। शिलालेख में उस समय की पूरी तारीख लिखी है; दिन, महीना और वर्ष सहित। इस शिलालेख में 1604 के सुपरनोवा का ज़िक्र है।

शिलालेख में इस स्तंभ को ‘क्षीरामबुधि में निशापति’ की संज्ञा दी गई है। निशापति चंद्रमा को कहते हैं। यह शब्द कपूर के लिए भी प्रयुक्त होता है। क्षीरामबुधि के दो अर्थ संभव हैं, कर्नाटक का बेलागोला (कन्नड़ में जिसका अर्थ सफेद झील है) कस्बा, और दूसरा आकाशगंगा। वर्ष 1604 का सुपरनोवा धनु राशि के क्षेत्र में देखा गया था, जो आकाशगंगा में स्थित है।

एस्ट्रोलेब नामक प्राचीन खगोलीय यंत्र का उपयोग पुराने समय में समुद्री यात्राओं में दिशाज्ञान के लिए किया जाता था। एस्ट्रोलेब दरअसल तारों-नक्षत्रों की क्षितिज से ऊंचाई बताता है। एक इतिहासकार प्रोफेसर एस.आर. शर्मा ने जब विश्व भर के संग्रहालयों में विभिन्न एस्ट्रोलेब यंत्रों का अध्ययन किया तो उन्हें 25 दिसंबर 1605 का बना एक एस्ट्रोलेब मिला। इसमें धनुषाग्र और धनुकोटि नाम के दो तारे अंकित मिले। तारा धनुकोटि तो लगभग सभी एस्ट्रोलेब में मिलता है और उसका पाश्चात्य नाम है ‘अल्फा ओफियुकी’ या अरबी नाम ‘रासअलहाइग’ है पर तारा धनुषाग्र केवल इसी एस्ट्रोलेब में मिला और इसकी स्थिति वर्ष 1604 के सुपरनोवा के स्थान पर मिली। इस प्रकार हमें दो ऐतिहासिक दस्तावेज़ों में इस सुपरनोवा का उल्लेख मिलता है।

इसी प्रकार, हमें 1572 के सुपरनोवा का उल्लेख संस्कृत व्याकरण की एक पुस्तक में मिलता है, जिसे संस्कृत के एक विद्वान अप्पया दीक्षित (1520-1593) ने लिखा था। उनकी रचना ‘कुवाल्यानंदा’ में लिखा है – “व्योमगंगा (आकाशगंगा) में यह क्या है? कमल जैसा है। चंद्रमा भी नहीं है। सूर्य भी नहीं, क्योंकि समय रात का है।” इन उल्लेखों को देखते हुए लगता है कि अन्य भारतीय भाषाओं में ऐसे संदर्भों में इन खगोलीय घटनाओं को खोजना उपयोगी हो सकता है।

उपरोक्त आधार पर हम कह सकते हैं कि शायद विद्वानों का यह मत सही नहीं है कि भारतीय लेखन में सुपरनोवा जैसी महत्वपूर्ण आकाशीय घटनाओं का उल्लेख नहीं मिलता। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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परमाणु विखंडन का एक दुर्लभ ढंग देखा गया

टली के एक पर्वत के अंदर बैठकर वैज्ञानिकों का एक दल डार्क मैटर की खोज में जुटा है। उन्हें अभी तक डार्क मैटर यानी अदृश्य पदार्थ के ‘दर्शन’ तो नहीं हुए हैं लेकिन एक दुर्लभ किस्म के परमाणु विखंडन की प्रक्रिया को देखने और अध्ययन करने का मौका ज़रूर मिल गया।

यह प्रयोग ज़ीनॉन सहयोग है। इसमें एक बड़-सी टंकी में 3200 किलोग्राम ज़ीनॉन गैस भरी है। ज़ीनॉन एक अक्रिय गैस है और विकिरण से सुरक्षित है। इसलिए ऐसा माना जाता है कि यदि ब्राहृांड में कणों की कोई अत्यंत दुर्लभ अंतर्क्रिया हुई तो ज़ीनॉन की इस टंकी में उसे कैद करना और उसका अध्ययन करना सबसे बढ़िया ढंग से हो सकेगा।

अलबत्ता, ऐसी कोई अंतर्क्रिया तो देखी नहीं गई है जो अदृश्य पदार्थ का सुराग दे सके लेकिन ज़ीनॉन के परमाणु का विखंडन ज़रूर देख लिया गया है जो अपने-आप में एक दुर्लभ घटना है।  इस घटना की दुर्लभता को समझने के लिए यह आंकड़ा पर्याप्त होगा कि ज़ीनॉन-124 की अर्ध-आयु 1.8×1022 वर्ष है। यह ब्राहृांड की वर्तमान उम्र से लगभग 1 खरब गुना है। अर्ध-आयु का मतलब होता है कि किसी पदार्थ के जितने परमाणु हैं उनमें से आधे के विखंडन में लगने वाला समय।

ज़ीनॉन का परमाणु भार 124 है और इसके केंद्रक में 54 प्रोटॉन होते हैं। इसके परमाणु का विखंडन होता है तो एक अन्य तत्व टेलुरियम-124 बनता है। यह विखंडन सामान्य विखंडन नहीं है बल्कि थोड़ा असाधारण है। ज़ीनॉन-124 के विखंडन में होता यह है कि उसके केंद्रक के इर्द-गिर्द घूम रहे 54 इलेक्ट्रॉन में से 2 केंद्रक में प्रवेश कर जाते हैं। केंद्रक में पहुंचकर ये दोनों एक-एक प्रोटॉन से जुड़कर उन्हें न्यूट्रॉन में बदल देते हैं। इस प्रक्रिया में न्यूट्रिनो नामक कण मुक्त होते हैं। न्यूट्रिनो एक रहस्यमय कण है जिस पर कोई आवेश नहीं होता और जिसका द्रव्यमान भी नगण्य होता है। इसलिए यह कण अन्य कणों से कोई अंतर्क्रिया करे तो भी पता नहीं चलता।

बहरहाल, विखंडन की इस प्रक्रिया में ऊर्जा मुक्त होती है जो एक्स-रे के रूप में निकलती है। ज़ीनॉन सहयोग के दल ने इसी एक्स-रे के आधार पर पता लगाया है कि ज़ीनॉन की टंकी में यह दुर्लभ विखंडन हुआ है। इसकी मदद से उन्होंने इस क्रिया के समय का मापन भी किया है। इसके आधार पर वे ज़ीनॉन-124 की अर्ध-आयु निकालने में सफल रहे हैं। यह प्रयोग द्वारा निकाली गई सबसे लंबी अर्ध-आयु है। वैसे इससे अधिक अर्ध-आयु टेलुरियम-128 की है किंतु उसे प्रयोग द्वारा नहीं निकाला गया है बल्कि उसकी गणना ही की गई है। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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पृथ्वी धुरी पर क्यों घूमती है?

पृथ्वी के अस्तित्व में आने से लेकर अभी तक वह लगातार अपनी धुरी पर घूम रही है। इसके घूमने से ही हम रोज़ सूर्योदय और सूर्यास्त देखते हैं। और जब तक सूरज एक लाल दैत्य में परिवर्तित होकर पृथ्वी को निगल नहीं जाता तब तक ऐसे ही घूमती रहेगी।  लेकिन सवाल यह है कि पृथ्वी घूमती क्यों है?

पृथ्वी का निर्माण सूर्य के चारों ओर घूमने वाली गैस और धूल की एक डिस्क से हुआ। इस डिस्क में धूल और चट्टान के टुकड़े आपस में चिपक गए और पृथ्वी का निर्माण हुआ। जैसे-जैसे इसका आकार बढ़ता गया, अंतरिक्ष की चट्टानें इस नए-नवेले ग्रह से टकराती रहीं और इन टक्करों की शक्ति से पृथ्वी घूमने लगी। चूंकि प्रारंभिक सौर मंडल में सारा मलबा सूर्य के चारों ओर एक ही दिशा में घूम रहा था, टकराव ने पृथ्वी और सौर मंडल की सभी चीज़ों को उसी दिशा में घुमाना शुरू कर दिया।

लेकिन सवाल यह उठता है सौर मंडल क्यों घूम रहा था? धूल और गैस के बादल का अपने ही वज़न से सिकुड़ने के कारण सूर्य और सौर मंडल का निर्माण हुआ था। अधिकांश गैस संघनित होकर सूर्य में परिवर्तित हो गई, जबकि शेष पदार्थ ग्रह बनाने वाली तश्तरी के रूप में बना रहा। इसके संकुचन से पहले, गैस के अणु और धूल के कण हर दिशा में गति कर रहे थे किंतु किसी समय पर कुछ कण एक विशेष दिशा में गति करने लगे। जिससे इनका घूर्णन शुरू हो गया। जब गैस बादल पिचक गया तब बादल का घूमना और तेज़ हो गया। जैसे जब कोई स्केटर अपने हाथों को समेट लेता है तो उसकी घूमने की गति बढ़ जाती है। अब अंतरिक्ष में चीज़ों को धीमा करने के लिए तो कुछ है नहीं, इसलिए, एक बार जब कोई चीज़ घूमने लगती है, तो घूमती रहती है। ऐसा लगता है कि शैशवावस्था में सौर मंडल के सारे पिंड एक ही दिशा में घूर्णन कर रहे थे।

अलबत्ता, बाद में कुछ ग्रहों ने अपने स्वयं का घूर्णन को निर्धारित किया है। शुक्र पृथ्वी के विपरीत दिशा में घूमता है, और यूरेनस की घूर्णन धुरी 90 डिग्री झुकी हुई है। वैज्ञानिकों के पास इसका कोई ठोस उत्तर तो नहीं है किंतु कुछ अनुमान ज़रूर हैं। जैसे, हो सकता है कि किसी पिंड से टक्कर के कारण शुक्र उल्टी दिशा में घूमने लगा हो। या यह भी हो सकता है कि शुक्र के घने बादलों पर सूर्य के गुरुत्वाकर्षण प्रभाव और शुक्र के अपने कोर व मेंटल के बीच घर्षण की वजह से ऐसा हुआ हो। यूरेनस के मामले में वैज्ञानिकों ने सुझाया है कि या तो एक पिंड से ज़ोरदार टक्कर या दो पिंडों से टक्कर ने उसे पटखनी दी है।

ऐसा नहीं है कि सिर्फ ग्रह ही अपनी धुरी पर घूमते हैं। सौर मंडल में मौजूद सभी चीज़ें (क्षुद्रग्रह, तारे, और यहां तक कि आकाश गंगा भी) घूमती हैं।

चंद्रमा के गुरुत्वाकर्षण से पृथ्वी की गति में भी कमी आती है। 2016 में प्रोसिडिंग्स ऑफ दी रॉयल सोसाइटी के अनुसार एक सदी में पृथ्वी का एक चक्कर 1.78 मिलीसेकंड धीमा हो गया है। (स्रोत फीचर्स)

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ब्लैक होल की पहली तस्वीरें

गोलविदों के एक अंतर्राष्ट्रीय समूह ने हाल ही में ब्लैक होल का सबसे पहला प्रत्यक्ष चित्र प्राप्त किया है। यह उपलब्धि उनको चार महाद्वीपों पर स्थापित आठ रेडियो वेधशालाओं के समन्वय से हासिल हुई। इन वेधशालाओं ने मिलकर काम किया तो ये पृथ्वी के आकार की एक विशाल आभासी दूरबीन बन गर्इं।

एस्ट्रोफिज़िकल जर्नल लेटर्स के विशेष अंक में प्रकाशित शोध पत्रों में टीम ने M87 निहारिका के केंद्र में स्थित एक विशाल ब्लैक होल की चार छवियां प्रस्तुत की हैं। M87 एक निहारिका है जो पृथ्वी से 550 लाख प्रकाश वर्ष दूर कन्या (virgo) निहारिका-समूह के भीतर स्थित है। चारों छवियों में केंद्र में एक अंधेरा दायरा है और उसके चारों ओर प्रकाश का एक छल्ला नज़र आ रहा है।

ब्लैक होल का गुरुत्वाकर्षण इतना अधिक होता है कि इससे, कुछ और तो क्या, प्रकाश भी नहीं निकल सकता। लिहाज़ा, ब्लैक होल अदृश्य होते हैं। लेकिन अगर कोई ब्लैक होल प्रकाश-उत्सर्जक पदार्थ (जैसे प्लाज़्मा) से घिरा हो, तो वह पदार्थ ब्लैक होल या उसकी परिधि रेखा (आउटलाइन) की एक छाया का निर्माण करेगा। इस आउटलाइन को ब्लैक होल का इवेंट होराइज़न कहते हैं। इन चित्रों से टीम ने अनुमान लगाया है कि उक्त ब्लैक होल सूरज से लगभग 6.5 अरब गुना अधिक वज़नी है। इन चार चित्रों के बीच थोड़ा-थोड़ा अंतर इस बात का संकेत देता है कि यह पदार्थ लगभग प्रकाश की गति से ब्लैक होल के आसपास घूम रहा है।

चित्रों की एक विशेषता यह भी है कि प्रकाश का छल्ला चारों तरफ एक समान नहीं है। एक तरफ यह थोड़ा ज़्यादा चमकीला है। यह ठीक आइंस्टाइन की भविष्यवाणी के अनुरूप है।

ये चित्र इवेंट होराइज़न टेलीस्कोप (ई.एच.टी) द्वारा लिए गए हैं जिसमें आठ रेडियो टेलिस्कोप हैं। ये टेलीस्कोप एक दूसरे से दूर-दूर ऊंचाई वाले स्थानों पर स्थापित हैं। ये रेडियो तरंगों का उत्सर्जन करने वाली खगोलीय वस्तुओं का निरीक्षण करते हैं। ब्लैक होल आकाश में किसी भी अन्य रेडियो रुाोत की तुलना में अत्यंत छोटा और काला होता है। इसे देखने के लिए बहुत कम तरंग दैर्ध्य का उपयोग करना होता है।

ब्लैक होल का चित्र बनाने के लिए उच्च कोणीय विभेदन की आवश्यकता होती है। टेलीस्कोप का कोणीय विभेदन उसकी डिश के आकार के साथ बढ़ता है। दिक्कत यह है कि पृथ्वी का सबसे बड़ा टेलीस्कोप भी इतना बड़ा नहीं है जिससे ब्लैक होल को देखा जा सके। लेकिन जब एक-दूसरे से काफी दूरी पर स्थित बहुत सारे टेलीस्कोप को एक साथ तालमेल बनाकर एक ही पिंड पर केंद्रित किया जाए तो वे एक बहुत बड़े रेडियो डिश के रूप में काम कर सकते हैं, जिसके परिणामस्वरूप उम्दा चित्र प्राप्त किए जा सकते हैं।

वैसे तो ब्लैक होल को चित्रित करने के प्रयास काफी समय से किए जा रहे हैं लेकिन वर्ष 2007 में डोलमैन की टीम ने परीक्षण के लिए ई.एच.टी. का इस्तेमाल किया। आज ई.एच.टी. 11 वेधशालाओं की एक शृंखला है। उम्मीद है कि ई.एच.टी. से ब्लैक होल का अवलोकन खगोल भौतिकी के एक नए युग की शुरुआत करेगा। (स्रोत फीचर्स)

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एक खोजी की अनोखी यात्रा – डॉ. अरविंद गुप्ते

7 जुलाई 2003 को एक खोजी 50 करोड़ किलोमीटर लम्बी यात्रा पर 20 हज़ार किलोमीटर प्रति घंटा की गति से चल पड़ा। यह यात्री कोई मनुष्य नहीं, अमेरिका द्वारा मंगल ग्रह की ओर भेजा गया यान अपॉर्चुनिटी (संक्षेप में ऑपी) था। साढ़े पांच महीनों की लम्बी यात्रा के दौरान ऑपी सोता रहा और जनवरी 2004 को वह अपने लक्ष्य के पास पहुंचा। फिर उसे भेजने वाले वैज्ञानिकों ने उसकी गति छह मिनटों में शून्य कर दी। इसके बाद वह तेज़ी से मंगल ग्रह पर गिरने लगा। किंतु इसके पहले कि वह लाल ग्रह से टकराता, उसके पैराशूट और झटकों से बचाने वाले एअर बैग खुल गए और वह मंगल की सतह पर आराम से उतर गया।

मंगल ग्रह पर उल्का पिंड टकराते रहते हैं और छोटे-बड़े गड्ढे बनते रहते हैं। ऐसे ही एक गड्ढे में उतरने के चार घंटे बाद ऑपी को नींद से जगाया गया। जब ऑपी ने अपनी आंखें खोली तब उसकी आंखों से दिख रहे दृश्य को देख वैज्ञानिक हैरान रह गए। उस गड्ढे की दीवार तलछटी चट्टानों से बनी थी। तलछटी चट्टानें केवल समुद्र जैसे बड़े जलाशयों में ही बनती हैं। पानी में निलंबित गाद पेंदे में बैठ जाती है और धीरे-धीरे चट्टानों में बदल जाती है। ऐसा नज़ारा पृथ्वी को छोड़ कहीं और नहीं देखा गया था। ऑपी ने उतरते ही सिक्सर लगा दिया था। वैज्ञानिकों ने निष्कर्ष निकाला कि यह तलछट किसी खारे पानी के समुद्र के सूखने से बनी थी। किसी भी ग्रह-उपग्रह पर जीवन लायक परिस्थितियों की खोज इस बात पर निर्भर करती है कि क्या उस ग्रह पर पानी है या कभी था।

ऑपी को कुछ लक्ष्य दिए गए थे:

1. चट्टानों और मिट्टियों का परीक्षण करके यह पता लगाना कि क्या मंगल पर कभी पानी था?

2. उतरने के स्थान के आसपास की भूमि पर उपस्थित खनिजों, चट्टानों और मिट्टी का परीक्षण करके उनके संघटन का निर्धारण करना।

3. यह निर्धारित करना कि किन भूगर्भीय प्रक्रियाओं ने ग्रह की सतह को आकृति दी है और उसकी रासायनिक बनावट को प्रभावित किया है। इन प्रक्रियाओं में पानी या हवा से अपरदन, तलछटीकरण, ज्वालामुखीय गतिविधि आदि शामिल हैं।

4. मंगल ग्रह का चक्कर लगाने वाले उपग्रहों द्वारा किए गए अवलोकनों का सत्यापन करना।

5. लौह-युक्त खनिजों की खोज करना और ऐसे विशिष्ट खनिजों की पहचान करके उनकी मात्रा का निर्धारण करना जिनमें पानी हो सकता है या जो पानी में बने थे, जैसे लौह के कार्बन-युक्त यौगिक।

6. चट्टानों और मिट्टियों का परीक्षण करके यह पता करना कि उनका निर्माण किन प्रक्रियाओं से हुआ था।

7. उन भूगर्भिक संकेतों को खोजना जिनसे यह पता चले कि जब मंगल ग्रह पर पानी था तब पर्यावरणीय परिस्थितियां कैसी थीं और यह मूल्यांकन करना कि क्या वे परिस्थितियां जीवन के लिए अनुकूल थीं।

ऑपी से 20 दिन पहले अमेरिका का दूसरा खोजी यान (स्पिरिट) मंगल ग्रह की दूसरी बाजू पर उतर चुका था, किंतु यहां हम केवल ऑपी की ही चर्चा करेंगे। उपरोक्त भारी-भरकम कार्य के लिए ऑपी को केवल 90 सोल यानी पृथ्वी के लगभग 3 माह का समय दिया गया था। (मंगल ग्रह का एक दिन पृथ्वी के 24 घंटे और 40 मिनिट के बराबर होता है और इसे सोल कहते हैं।)

पहले लगभग दो महीनों तक (56 सोल) ऑपी उतरने की जगह के आसपास ही घूमता रहा। उसने अपने कई कैमरों से लगातार फोटो लिए, एक बरमे से ज़मीन में छेद किए, एक पहिए को ज़मीन पर रगड़ कर नाली खोद डाली और विभिन्न खनिजों के वर्णक्रमों का मापन किया।

57वें सोल पर ऑपी अपने गड्ढे से बाहर निकला और एक किलोमीटर दूर दूसरे, अधिक गहरे गड्ढे की ओर चल पड़ा। बड़े गड्ढे में उतरने के बाद उसने और खोजबीन की। इसके बाद ऑपी को निर्देश दिया गया कि वह उस गड्ढे की खोजबीन करे जो स्वयं उसके उष्णतारोधी आवरण के गिरने की वजह से बना था। इस आवरण ने उसे मंगल पर उतरते समय जल जाने से बचाया था। रास्ते में उसे एक उल्कापिंड मिल गया जो निश्चित रूप से किसी अन्य ग्रह से आ कर या अंतरिक्ष में अकेले भटकते हुए मंगल से टकरा गया था। फिर ऑपी ने मंगल के कई चंद्रमाओं में से एक (फोबोस) का फोटो खींचा।

सोल 946 पर ऑपी विक्टोरिया नामक विशाल गड्ढे के पास पहुंचा। ऑपी को इस यात्रा में कई संकटों का सामना करना पड़ा। एक बार वह रेत में फंस गया। कई सोल बाद वह मुश्किल से निकल पाया। फिर उसे मोड़ने वाली मोटरों में से एक खराब हो गई। उसके हाथ के जोड़ ने काम करना बंद कर दिया। फिर विक्टोरिया गड्ढे में उसे भयंकर तूफान का सामना करना पड़ा जिसके चलते उसके सौर पैनल मिट्टी से ढंक गए और पृथ्वी तथा सूर्य से उसका सम्पर्क कट गया। किंतु फिर एक ऐसा तूफान आया जिसने पैनलों पर जमी मिट्टी को उड़ा दिया। अब ऑपी को सौर ऊर्जा मिलने लगी और वह फिर चल पड़ा। आगे जाने पर ऑपी को एक घाटी दिखाई दी जिसके तल की ओर उतरते समय एक और तूफान आया और ऑपी के सौर पैनल फिर मिट्टी से ढंक गए और उसका पृथ्वी और सूर्य से सम्पर्क टूट गया। इस बार वैज्ञानिकों की लाख कोशिशों के बावजूद पैनलों से मिट्टी हटाई नहीं जा सकी और 12 फरवरी 2019 को अंतत: ऑपी को मृत घोषित कर दिया गया।

इस प्रकार, वैज्ञानिकों द्वारा जीवन की अवधि केवल 90 सोल माने जाने के बावजूद यह बहादुर यंत्र 5111 सोल (पंद्रह वर्ष से अधिक) तक जीवित रहा और मंगल ग्रह की और आगे होने वाली खोजों के लिए मज़बूत नींव रखकर हमेशा के लिए सो गया। (स्रोत फीचर्स)

नोट: स्रोत में छपे लेखों के विचार लेखकों के हैं। एकलव्य का इनसे सहमत होना आवश्यक नहीं है।
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